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मैं वैदिक धर्म का उपदेशक हूँ

मैं वैदिक धर्म का उपदेशक हूँ

पश्चिमी पञ्जाब का एक परिवार बस में यात्रा कर रहा था। इस परिवार को अपने सगे-सज़्बन्धियों के यहाँ शादी पर जाना था।

इन्होंने मुलतान में बस बदली। बस बदलते हुए इनका एक ट्रंक अनजाने में बदल गया। किसी और यात्री का ट्रंक ज़ी ठीक उन्हीं के जैसा था। आगे की बस द्वारा यह परिवार अपने सगे-सज़्बन्धियों के घर पहुँचा। वहाँ जाकर ट्रंक खोला तो उसमें तो पुस्तकें व रजिस्टर, कापियाँ ही थीं।

जिस यात्री के हाथ इनका ट्रंक आया, वह भी मुलतान से थोड़ी दूरी पर कहीं गया। वहाँ जाकर इसने ट्रंक खोला तो इसमें आभूषण व विवाह-शादी के वस्त्र थे। दोनों ट्रंकों का ताला भी एक

जैसा था। यह एक विचित्र संयोग था। इसे यह समझने में देर न लगी यह सामान तो बस में यात्रा कर रहे किसी ऐसे परिवार का है जिसे विवाह में सज़्मिलित होना है। सोचा वह परिवार कितना दुःखी होगा, तुरन्त लौटकर ट्रंकसहित मुलतान आया। बस अड्डे पर बैठकर बड़े ध्यान से किसी व्याकुल, व्यथित की ओर दृष्टि डालता रहा।

उधर से वे लोग पुस्तकोंवाला ट्रंक लेकर रोते-धोते आ गये। उनको थोड़ा सन्तोष था कि पुस्तकों, रजिस्टरों पर ट्रंकवाले का नाम पता था, परन्तु साथ ही संशय बना हुआ था कि ज़्या पता वह भाई अपना ट्रंक न पाकर खाली हाथ ही रहा हो और अपने ट्रंक के लिए परेशान हो। इस परिवार को ट्रंक सहित रोते-चिल्लाते आते देखकर दूर बैठे दूसरी यात्री ने पुकारा और कहा कि दुखी होने की कोई आवश्यकता नहीं, यह लो तुज़्हारा ट्रंक। अपने माल की पड़ताल कर लो।

अब इस परिवार की प्रसन्नता का कोई पारावार ही नहीं था। पुस्तकोंवाला ट्रंक लौटाते हुए अपना बहुमूल्य सामान लेकर उस यात्री को बहुत बड़ी राशि पुरस्कारस्वरूप भेंट करने लगे तो वह यात्री बहुत विनम्रता से गरजती हुई आवाज में बोला-‘‘यह ज़्या कर रहे हो?’’ ‘‘यह आपकी ईमानदारी के लिए प्रसन्नतापूर्वक पुरस्कार दिया जाता है।’’ उस परिवार के मुखिया ने कृतज्ञतापूर्वक कहा।

इस यात्री ने कहा ‘‘ईमानदारी इसमें ज़्या है? यह तो मेरा कर्ज़व्य बनता था। मैं वैदिक धर्म का उपदेशक हूँ। ऋषि दयानन्द का शिष्य हूँ।’’

उस भाई ने एक पैसा भी स्वीकार न किया। सारे क्षेत्र में दूरदूर तक आर्यसमाज की वाह! वाह! होने लगी। सब ओर इस घटना की चर्चा थी। स्वामी वेदानन्दजी तीर्थ ने यह कहानी उन दिनों

एक लेख में दी थी। यह पुस्तकोंवाला भाई आर्यसमाज का एक पूजनीय विद्वान् पण्डित मनुदेव था। यही विद्वान् आगे चलकर पण्डित शान्ति प्रकाशजी शास्त्रार्थमहारथी के नाम से विज़्यात हुआ। ऐसे लोग मनुजता का मान होते हैं।