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वेद एक है अथवा चार? डॉ धर्मवीर

प्रस्तुत सम्पादकीय प्रो. धर्मवीर जी का अन्तिम सम्पादकीय है, यह एक शोधपरक लेख है। इसको पढ़कर आचार्यश्री की विद्वत्ता स्पष्ट दिखाई देती है। अब वे हमारे मध्य में नहीं हैं, पर उनके दार्शनिक जीवनोपयोगी उपदेश परोपकारी के पाठकों को मिलते रहेंगे।                                                                 -सम्पादकहिन्दू समाज में एक मान्यता है कि वेद पहले एक ही था। महर्षि व्यास ने उसके चार भाग करके चार वेद बनाये। इसलिये बहुत सारे लोग महर्षि वेद व्यास को वेदों का कर्त्ता मानते हैं। वेद के एक होने और चार होने का क्या आधार है? इस पर विचार करने पर इसके अनुसार हर कल्प में व्यास के होने और वेद के विभाजन से वेद-व्याख्यान के रूप में ब्राह्मण एवं शाखा ग्रन्थों का उल्लेख होना संगत है।

वस्तुस्थिति से वेद के विषय और जिन ऋषियों पर वेद का प्रकाश हुआ है, उनका उल्लेख प्रारम्भ से ही देखने में आता है-

. महीधर अपने यजुर्वेद-भाष्य के आरम्भ में लिखता है-

तत्रादौ ब्रह्मपरम्परया प्राप्तं वेदं वेदव्यासो मन्दमतीन् मनुष्यान् विचिन्त्य तत्कृपया चतुर्धा व्यस्य ऋग्यजुः सामाथर्वाख्यांश्चतुरो वेदान् पैल वैशम्यायनजैमिनिसुमन्तुभ्यः क्रमादुपदिदेश।

अर्थात् ब्रह्मा की परम्परा से प्राप्त वेद को मनुष्यों की सुविधा के लिये व्यास ने चार भागों में बाँट कर अपने चार शिष्य पैल, वैशम्पायन, जैमिनि व सुमन्तु को उपदेश किया।

. महीधर से पूर्ववर्ती तैत्तिरीय संहिता के भाष्यकार भट्ट भास्कर ने अपने भाष्य के आरम्भ में लिखा है-

पूर्वं भगवता व्यासेन जगदुपकारार्थमेकीभूय स्थिता वेदाः व्यस्ताः शाखाश्च परिछिन्नाः।

अर्थात् पहले जो वेद एक रूप में थे, जगदुपकार के लिये व्यास ने उनका विभाग किया और शाखाओं में बाँटा।

. भट्ट भास्कर से पूर्व निरुक्त के भाष्यकार आचार्य दुर्ग ने निरुक्त १/२० की वृत्ति में लिखा है-

वेदं तावदेकं सन्तमतिमहत्त्वाद् दुरध्येयमनेकशाखा भेदेन समाम्नासिषुः। सुखग्रहणाय व्यासेन समाम्नातवन्तः।।

अर्थात् वेद एक होने से बड़ा और अध्ययन में कठिन होने के कारण सुविधा के लिये व्यास ने शाखा-भेद से उसके अनेक विभाग किये।

इस कथन का मूल विष्णु पुराण में इस प्रकार मिलता है-

जातुकर्णोऽभवन्मत्तः कृष्णद्वैयापनस्ततः।

अष्टाविंशतिरित्येते वेदव्यासाः पुरातनाः।।

एको वेदश्चतुर्धा तु यैः कृतो द्वापरादिषु।

– विष्णु पुराण ३/३/१९-२०

इसी प्रकार मत्स्य पुराण में उल्लेख मिलता है-

वेदश्चैकश्चतुर्धा तु व्यख्यते द्वापरादिषु।

– मत्स्य पुराण १४४/११

अर्थात् प्रत्येक द्वापर के अन्त में एक ही वेद चतुष्पाद चार भागों में विभक्त किया जाता है। पुराण के अनुसार अब क्यों कि अट्ठाईसवाँ कलियुग चल रहा है, तो यह वेद विभाजन २८ बार हो चुका है। इन सभी विभाग करने वालों का नाम व्यास ही होता है।

श्वेताश्वतर उपनिषद् में-

यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो

वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।।

-६/१८

जो प्रथम ब्रह्मा को उत्पन्न करता है और उसके लिये वेदों को दिलवाता है।

वेदान्त दर्शन का भाष्य करते हुए शङ्कराचार्य लिखते हैं-

ईश्वराणां हिरण्यगर्भादीनां वर्तमानकल्पादौ प्रादुर्भवतां परमेश्वरानुगृहीतानां सुप्तप्रबुद्धवत् कल्पान्तर-व्यवहारानुसन्धानोपपत्तिः। तथा च श्रुतिः-यो ब्रह्माणम्।।

– वेदान्त सूत्र भाष्य १/३/३० तथा १/४/१

आचार्य शंकर वेदात्पत्ति हिरण्यगर्भ से कहते हैं, उनके मत में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा है। इस ब्रह्मा की बुद्धि में कल्प के आदि में परमेश्वर की कृपा से वेद प्रकाशित होते हैं।

वेदान्त सूत्र के शांकर भाष्य की व्याख्या करते हुए श्री गोविन्द ने इस प्रकार लिखा है-

पूर्वं कल्पादौ सृजति तस्मै ब्रह्मणे प्रहिणोति= गमयति= तस्य बुद्धौ वेदानाविर्भावयति।

– वेदा. १/३/३०

इसी सूत्र की व्याख्या पर आनन्दगिरि ने लिखा है-

वि पूर्वो दधातिः करोत्यर्थः।

पूर्वं कल्पादौ प्रहिणोति ददाति।

इन सभी स्थानों पर वेद का बहुवचन में प्रयोग किया गया। अतः चारों वेद की उत्पत्ति प्रारम्भ से ही है। व्यास द्वारा चार भागों में विभक्त किया गया, यह कथन सत्य नहीं है।

. सर्वप्रथम वेद में ही चार वेदों का उल्लेख पाया जाता है। ऋग्वेद में-

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे

छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत।।

– १०/९०

. इसी प्रकार यजुर्वेद के पुरुषाध्याय में भी सभी वेदों का उल्लेख मिलता है।

. सामवेद में वेद का उल्लेख मिलता है।

. अथर्ववेद का मन्त्र ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदात्पत्ति प्रकरण में ऋषि दयानन्द ने उद्धृत किया है।

अथर्वाङ्गिरसो मुखम्।

. ब्राह्मण ग्रन्थों में-

अग्नेर्ऋग्वेदोः वायो यजुर्वेदः सूर्यात् सामवेदः।

. उपनिषदों में चारों वेदों की चर्चा आती है। बृहदारण्यक में याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद में –

तस्य निश्वसितमेतद् ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो अथर्ववेदः।

छान्दोग्य में सनत्कुमार और नारद के संवाद में नारद सनत्कुमार को अपनी विद्या का परिचय देते हुए कहते हैं-

ऋग्वेदं भगवोऽध्योमि,

यजुर्वेदमध्येमि सामवेदमथर्ववेदं।

तैत्तिरीय शिक्षा वल्ली में साम की चर्चा है-

साम्ना शंसन्ति यजुभिर्ययजन्ति।

मुण्डक में अथर्ववेद का विस्तार से उल्लेख मिलता है-

ब्रह्मा देवानां….।

यहाँ पर ब्रह्म विद्या को अथर्व विद्या का विषय बताया है और ऋषियों की लम्बी परम्परा का उल्लेख किया है।

. रामायण में किष्किन्धा काण्ड में राम-लक्ष्मण के साथ हनुमान् के प्रसंग में लक्ष्मण राम से हनुमान् की योग्यता का वर्णन करते हुए कहते हैं-

नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः।

नासामवेदविदुषः शक्यमेवं प्रभाषितुम्।।

नूनं व्याकरणं कत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।

बहुव्याहरतानेन न किंचिदपशब्दितम्।।

न मुखे नेत्रयोर्वोपि ललाटे च भ्रुवोस्तथा।

अन्येष्वपि च गात्रेषु दोषः संविदितः क्वचित् अस्थिरमसिन्दिरधमविलम्बितमद्रुतम्।

उरःस्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यगे स्वरे।।

संस्कार क्रम सम्पन्नामद्रुतामविलम्बिताम्।

उच्चारयति कल्याणीं वाचं हृदयहरिणीम्।।

अनया चित्रया वाचा त्रिस्थानव्यञ्जनस्थया कस्य नाराध्यते चित्तमुद्यतासेररेरपि।।

– कि.का. ३/२८-३३

अत्राभ्युदाहरन्तीमां गाथां नित्यं क्षमावहाम्।

गीताः क्षमावतां कृष्णे काश्यपेन महात्मना।।

क्षमा धर्मः क्षमा यज्ञः क्षमा वेदाः क्षमा श्रुतम्।

यस्तमेवं विजानाति स सर्वं क्षन्तुर्महति।।

– महाभारत वन पर्व २९/३८-३९

इन श्लोकों में महाराज युधिष्ठिर द्रौपदी को उपदेश दे रहे हैं, महात्मा कश्यप की गाई गाथा का उल्लेख कर बता रहे हैं, क्षमा ही वेद हैं, यहाँ वेद का बहुवचन में प्रयोग किया गया है।

ऋचो बह्वृच मुख्यैश्च प्रेर्यमाणाः पदक्रमैः।

शुश्राव मनुजव्याघ्रो विततेष्विह कर्मसु।।

अथर्ववेदप्रवराः पूर्वयाज्ञिकसंमताः।

संहितामीरयन्ति स्म पदक्रमयुतां तु ते।।

-महाभारत आदि पर्व अ. ६४/३१, ३३

जब दुष्यन्त कण्व के आश्रम में प्रवेश करते हैं, तब आश्रम के वातावरण में ऋग्वेद के विद्वान् पद और क्रम से ऋचाओं का पाठ कर रहे थे। अथर्ववेद के विद्वान् पद व क्रम युक्त संहिता का पाठ पढ़ रहे थे।

इससे पता लगता है कि दुष्यन्त के काल में अथर्ववेद संहिता का क्रम पाठ व पद पाठ पढ़ा जाता था।

महाभारत के अनेक प्रसंग हैं, जिनमें वेदों के लिये बहुवचन का प्रयोग मिलता है।

पुरा कृतयुगे राजन्नार्ष्टिषेणो द्विजोत्तमः।

वसन् गुरुकुले नित्यं नित्यमध्ययने रतः।।

तस्य राजन् गुरुकुले वसतो नित्यमेव च।

समाप्तिं नागमद्विद्या नापि वेदा विशांपते।।

– महा. शल्य पर्व अध्याय ४१/३-४

अर्थात् प्राचीन काल में कृतयुग में आर्ष्टिषेण गुरुकुल में पढ़ता था, तब वह न विद्या समाप्त कर सका, न ही वेदों को समाप्त कर सका।

वेदैश्चतुर्भिः सुप्रीताः प्राप्नुवन्ति दिवौकसः।

हव्यं कव्यं च विविधं निष्पूर्तं हुतमेव च।।

– महा. द्रोण पर्व अध्याय ५१/२२

अर्थात् राम के राज्य में चारों वेद पढ़े हुये विद्वान् लोग थे।

ब्रह्मचर्येण कृत्स्नो मे वेदः श्रुतिपथं गतः।

– महा. आदि पर्व ७६/१३

इसमें ययाति ने देवयानी से कहा है- मैंने ब्रह्मचर्य पूर्वक सम्पूर्ण वेदों को पढ़ा है।

राज्ञश्चाथर्ववेदेन सर्वकर्माणि कारयेत्।

– महा. शान्ति पर्व ७/५

भीष्म ने उशना का प्राचीन श्लोक उद्धृत कर राजा पुरोहित से अथर्ववेद द्वारा सारे कार्य करावे। यहाँ अथर्ववेद का स्पष्टतः उल्लेख है।            – धर्मवीर

अथ पेरियार रचित *सच्ची रामायण* खंडनम्।

अथ पेरियार रचित *सच्ची रामायण* खंडनम्। – कार्तिक अय्यर

धर्मप्रेमी सज्जनों! मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम तथा योगेश्वर श्रीकृष्ण भारतीय संस्कृति के दो आधार स्तंभ हैं।केवल सनातनधर्म के लिये ही नहीं अपितु मानव मात्र के लिये श्रीराम और श्रीकृष्ण आदर्श हैं।किसी के लिये श्रीरामचंद्र जी साक्षात् ईश्वरावतार हैं तो किसी के लिये एक राष्ट्रपुरुष,आप्तपुरुष और मर्यादा पुरुषोत्तम हैं।परंतु इन दोनों श्रेणियों ने श्रीराम का गुण-कर्म-स्वभाव सर्वश्रेष्ठ तथा अनुकरणीय माना है। समय- समय पर भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात करने के लिये नास्तिक,वामपंथी अथवा विधर्मी विचारधारा वाले लोगों ने ” कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी”, “सीता का छिनाला”,” रंगीला कृष्ण ” जैसे घृणास्पद साहित्य की रचना की।इन पुस्तकोॉ का खंडन भी आर्यविद्वानों ने किया है।इसी परंपरा ( या कहें कुपरंपरा) में श्री पेरियार रामास्वामी नाइकर” की पुस्तक ” सच्ची रामायण ” है।मूलतः यह पुस्तक तमिल व आंग्लभाषा में लिखी गई थी। परंतु आर्यभाषा में भी यह उपलब्ध है। पेरियार महोदय ने उपरोक्त पुस्तक में श्रीराम,भगवती सीता,महाप्राज्ञ हनुमान् जी, वीरवर लक्ष्मण जी आदि आदर्श पात्रों( जो जीवंत व्यक्तित्व भी थे)पर अनर्गल आक्षेप तथा तथ्यों को तोड़- मरोड़कर आलोचना की है। पुस्तक क्या है, गालियों कापुलिंदा है। लेखक न तो रामजी को न ईश्वरावतार मानते हैं न ही कोई ऐतिहासिक व्यक्ति । लेखक ने श्रीराम को धूर्त,कपटी,लोभी,हत्यारा और जाने क्या-क्या लिखा है।वहीं रावण रो महान संत,वीर,ईश्वर का सच्चा पुत्र तथा वरदानी सिद्ध करने की भरसक प्रयास किया है। जहां भगवती,महासती,प्रातःस्मरणीया मां सीता को व्यभिचारिणी,कुलटा,कुरुपा,अंत्यज संतान होने के मनमानै आक्षेप लगाये हैं,वहीं शूर्पणखा को निर्दोष बताया है। पेरियार साहब की इस पुस्तक ने धर्म विरोधियों का बहुत उत्साह वर्धन किया है।आज सोशल मीडिया के युग में हमारे आदर्शों तथा महापुरुषों का अपमान करने का सुनियोजित षड्यंत्र चल रहा है। यह पुस्तक स्वयं वामपंथी,नास्तिक तथा स्वयं को महामहिम डॉ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का अनुयायी कहने वालों में खासी प्रचलित है।आजकल ऐसा दौर है कि भोगवाद में फंसे हिंदुओं(आर्यों) को अपने सद्ग्रंथों का ज्ञान नहीं होता। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं:- *कलिमल ग्रसे ग्रंथ सब,लुप्त हुये सदग्रंथ। दंभिन्ह निज मत कल्प करि,प्रगट किये बहु पंथ।।* ( मानस,उत्तरकांड दोहा ९७ क ) अर्थात् ” कलियुग में पापों ने सब धर्मों को ग्रस लिया।दंभियों ने अपनी बुद्धि कल्पना कर करके बहुत से पंथ प्रकट कर दिये।” इसी विडंबना के कारण *जब भोले भाले हिंदू के समक्ष जब इस घृणास्पद पुस्तक के अंश उद्धृत किये जाते हैं तो धर्मभीरू हिंदू का खून खौर उठता है।परंतु कई हिंदू भाई अपने धर्म,सत्यशास्त्रों का ज्ञान न होने के कारण ग्लानि ग्रस्त हो जाते हैं।उनका स्वाभिमान घट जाता है, अपने आदर्शों पर से उनका विश्वास उठ जाता है। फलस्वरूप वे नास्तिक हो जाते हैं या मतांतरण करके ईसाई ,बौद्ध या मुसलमान बन जाते हैं।* “सच्ची रामायण” का आजतक किसी विद्वान ने सटीक मुकम्मल जवाब दिया हो, ऐसा हमारे संज्ञान में नहीं है।अतः हमने इस पुस्तक को जवाब के रूप में लिखने का कार्य आरंभ किया है। *इस पुस्तक को लिखने का उद्देश्य* १:- पेरियार साहब की पुस्तक जो श्रीराम जी के निष्पाप चरित्र रर लांछन लगाती है का समुचित उत्तर देना। २:-आम हिंदू आर्यजन को ग्लानि से बचाकर अपने धर्म संस्कृति तथा राष्ट्र के प्रति गौरवान्वित कराना। ३:-श्रीराम के दुष्प्रचार,रावण को अपना महान पूर्वज बताते,तथा आर्य द्रविड़ के नाम पर राजनैतिक स्वार्थपरता, छद्मदलितोद्धार तथा अराष्ट्रीय कृत्य का पर्दाफाश करना। ४:- मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र जी के पावन,निर्मल,आदर्श चरित्र को मानव मात्र के लिये श्लाघनीय तथा अनुकरणीय सिद्धकरना। *ओ३म विश्वानिदेव सवितर्दुरितानी परासुव यद्भद्रं तन्न आसुव।* यजुर्वेद:-३०/३ *अर्थात् ” हे सकल जगत् के उत्पत्ति कर्ता,शुद्धस्वरूप,समग्र ऐश्वर्य को देने हारे परमेश्वर!आप ह मारे सभी दुर्गुणों,दुर्व्यसनों और दुःखो को दूर कीजिये।जो कल्याणकारक गुण-कर्म-स्वभाव तथा पदार्थ हैं वे हमें प्राप्त कराइये ताकि हम वितंडावादी,असत्यवादी,ना स्तिक पेरियारवादियों के आक्षेपों का खंडन करके भगवान श्री रामचंद्र का निर्मल यश गानकर वैदिक धर्म की विजय पताका फहरावें।* ।।ओ३म शांतिः शांतिः शांतिः।। ( पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये धन्यवाद । खंडन कार्य अगली पोस्ट से प्रारंभ होगा। पुस्तक लेखन का कार्य चल रहा है। कृपया खंडन पुस्तक का नाम भी सुझावें। पोस्ट जितना अधिक हो प्रचार करें ताकि नास्तिक छद्मता का पर्दाफाश हो।) मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम चंद्र की जय। योगेश्वर श्रीकृष्ण चंद् की जय |

नोट : यह लेखक का अपना विचार  है |  लेख में कुछ गलत होने पर इसका जिम्मेदार  पंडित लेखराम वैदिक  मिशन  या आर्य मंतव्य टीम  नहीं  होगा |

हदीस : युद्ध में लूटा गया माल

युद्ध में लूटा गया माल

थोड़े ही समय में मुस्लिम खजाने के लिए जकात गौण हो गई और युद्ध में लूटा गया माल राजस्व का मुख्य स्रोत बन गया। वस्तुतः दोनों के बीच का फर्क जल्दी ही मिट गया। इसी से ”जकात की किताब“ अनायास ही युद्ध में लूटे जाने वाले माल की किताब बन जाती है।

 

युद्ध में लूटे गए धन का पंचमांश इस्लामी राज्य के लिए ”खम्स“ है। यह खजाने में जाता है। इसके दो पहलू हैं। एक ओर यह अभी भी युद्ध में लूटा गया माल है। पर दूसरी ओर यह जकात है। जिस समय यह प्राप्त किया जाता है, उस समय यह युद्ध में लूटा गया माल होता है। जब मिल्लत के बीच बांटा जाता है, तब यह जकात बन जाता है।

 

युद्ध में लूटे गए माल के प्रति मुहम्मद का विशेष महत्व है। ”युद्ध में लूटा गया माल अल्लाह और उनके रसूल के लिए है“ (कुरान 8/1)। वह धन अल्लाह द्वारा पैगम्बर के हाथ में सौंप दिया जाता है, जिससे वे उसे उस रूप में खर्च कर सकें, जिसे वे सर्वोत्तम समझें। यह खर्च चाहे गरीबों के लिए जकात के रूप में हो, अथवा उनके अपने साथियों को भेंट-उपहार हो, अथवा बहुदेववादियों को इस्लाम में प्रवृत्त करने के लिए रिश्वत हो, या फिर ”अल्लाह के रास्ते“ में खर्च हो अर्थात् बहुदेववादियों के खिलाफ सशस्त्र आक्रमणों और युद्धों की तैयारियों के लिए हो।

 

मुहम्मद के परिवार के दो नौजवान, अब्द अल-मुतालिब और फजल बिन अब्बास, अपनी शादी के लिए साधन जुटाने की नीयत से जकात वसूल करने वाले अधिकारी बनना चाहते थे। उन्होंने जाकर मुहम्मद से याचना की पर मुहम्मद ने जवाब दिया-”मुहम्मद के परिवार को सदका लेना शोभा नहीं देता, क्योंकि वह लोगों के दूषणों का द्योतक है।“ तदपि मुहम्मद ने दोनों नौजवानों की शादी का इन्तजाम कर दिया और अपने खजांची से कहा-”खम्स में से इन दोनों के नाम इतना महर (दहेज) दे दो“ (2347)।

author : ram swarup

छह मास का रोज़ा (उपवास)

छह मास का रोज़ा (उपवास)

15 दिसज़्बर 1916 की बात है। आर्यसमाज सदर बाजार, दिल्ली का वार्षिकोत्सव था। इस अवसर पर एक शास्त्रार्थ भी हुआ। आर्यसमाज की ओर से पूज्य पण्डित रामचन्द्रजी देहलवी ने

वैदिक पक्ष रखा। इस्लाम की ओर से चार मौलवी महानुभावों ने भाग लिया।

मौलवी शरीफ़ हुसैन ने प्रश्न पूछा कि शरीर छोड़ने के पश्चात् जीव नया जन्म कैसे लेता है? गर्भ में कितना समय रहता है?

पण्डितजी ने इसका उज़र दिया तो मौलवीजी ने कहा कि एक स्थान पर दिन छह मास का होता है, वहाँ का ज़्या लेखा होगा? तार देकर वहाँ से पता कीजिए कि वहाँ महीने किस विधि से होंगे!

पण्डितजी ने कहा कि अपवाद नियम को सिद्ध करता है। आपके यहाँ भी तो यही झगड़ा पड़ेगा। आपके ‘यहाँ’ लिखा है, ‘‘जब प्रातः की श्वेत धारी दिखाई दे तब रोज़ा रज़्खो। तब तो छह मास भूखे मरोगे।’’

हदीस : ज़कात मुहम्मद के परिवार के लिए नहीं

ज़कात मुहम्मद के परिवार के लिए नहीं

ज़कात का मकसद था मिल्लत के जरूरतमन्दों की मदद। पर मुहम्मद के परिवार को उसे स्वीकार करना मना था। परिवार में अली, जाफ़र, अकील, अब्बास और हरिस बिन अब्द अल-मुतालिब तथा उनकी संतानें शामिल थीं। पैगम्बर ने कहा था-”हमारे लिए सदका निषिद्ध है“ (2340)। दान लेना दूसरों के लिए बहुत अच्छा था, पर मुहम्मद के गौरवमंडित वंशजों के लिए नहीं। यों भी दान लेने की जरूरत उन लोगों के लिए तो कम से कमतर ही होती जा रही थी, क्योंकि वे विस्तार पा रहे अरब साम्राज्यवाद के वारिस थे।

 

यद्यपि सदका लेने की अनुमति नहीं थी, तथापि भेंट-नजरानों का स्वागत था। मुहम्मद की बीवी द्वारा मुक्त की गई एक बांदी, बरीरा, ने मुहम्मद को मांस का एक टुकड़ा दिया, जोकि उनकी बीवी ने ही उसे सदके में दिया था। मुहम्मद ने यह कहते हुए उसे ले लिया-”उसके वास्ते यह सदका है और हम लोगों के वास्ते भेंट“ (2351)।

author : ram swarup

मेरा बेटा कहाँ से आता?

मेरा बेटा कहाँ से आता?

श्रद्धानन्द-काल की घटना है। मुस्लिम लीगी मुसलमानों ने दिल्ली में जाटों के मुहल्ले से वध करने के लिए गाय का जलूस निकालना चाहा। वीर लोटनसिंह आदि इसके विरोध में डट गये।

लीगी गुण्डों ने मुहल्ले में घुस-घुसकर लूटमार मचा दी। वे एक मन्दिर में भी घुस गये और जितनी भी मूर्ज़ियाँ वहाँ रखी थीं, सब तोड़ डालीं। भगीरथ पुजारी एक कोने में एक चटाई में छुप गया।

किसी की दृष्टि उस पर न पड़ी। वह बच गया।

पण्डित श्री रामचन्द्रजी ने उससे पूछा कि तू दंगे के समय कहाँ था? उसने कहा-‘‘मन्दिर में था।’’

पण्डितजी ने पूछा-‘‘फिर तू बच कैसे गया?’’ उसने बताया कि मैं चटाई में छुप गया था।’’

पण्डितजी ने पूछा-‘‘तुज़्हें उस समय सर्वाधिक किसकी चिन्ता थी?’’

पुजारी ने कहा-‘‘अपने बेटे की थी। पता नहीं वह कहाँ है?’’

पण्डितजी ने पूछा-‘‘तुज़्हें देवताओं के टूटने-फूटने की कोई चिन्ता नहीं थी?’’

उसने स्पष्ट कहा-‘‘अजी वे तो फिर जयपुर से आ जाएँगे कोई दो रुपये का, कोई चार रुपये का, कोई आठ का, परन्तु मेरा बेटा कहाँ से आता?’’

हदीस : दान और भेदभाव

दान और भेदभाव

एक हदीस है जो यह सिखाती नज़र आती है कि दान बिना किसी भेद-भाव के दिया जाना चाहिए। कोई मनुष्य अल्लाह की स्तुति करते हुए पहले एक परगामिनी को, फिर एक धनी को और फिर एक चोर को दान देता है। फरिश्ता उसके पास आया और बोला-”तुम्हारा दान मंजूर कर लिया गया है।“ क्योंकि यह दान एक ऐसा साधन बन सकता है ”जिसके द्वारा परगामिनी व्यभिचार से स्वयं को विरत कर सकती है, धनी व्यक्ति शायद सबक सीख सकता है और अल्लाह ने उसे जो दिया है उसे खर्च कर सकता है, और चोर उसके कारण आगे चोरी करने से विमुख हो सकता है।“ यह अनुमान किया जा सकता है कि उस व्यक्ति द्वारा किए गए दान के ये आश्चर्यजनक परिणाम इसलिए सम्भव हुए कि ये दान ”अल्लाह की स्तुति“ के साथ दिये गये थे (2230)।

author : ram swarup

 

सालिग्राम ने तो कुछ नहीं कहा

सालिग्राम ने तो कुछ नहीं कहा

कविरत्न ‘प्रकाश’ जी तथा उनके भाई बाल्यकाल में अपने पौराणिक पिताजी के साथ मन्दिर गये। इनके भाई ने एक गोलमटोल पत्थर का सालिग्राम खेलने के लिए अण्टी में बाँध लिया। कविजी ने पिता जी को बता दिया कि पन्ना भैया ने गोली खेलने के लिए सालिग्राम उठाया है। पिताजी ने दो-तीन थह्रश्वपड़ दे मारे और डाँटडपट भी की। पन्नाजी बोले, ‘‘सालिग्राम ने तो मुझे कुछ नहीं कहा और आप वैसे ही मुझे डाँट रहे हैं।’’ पिता यह उज़र पाकर चुप हो गये।

हदीस : चोरी, व्यभिचार, जन्नत

चोरी, व्यभिचार, जन्नत

कई-एक अहादीस में कुछ ऐसी सामग्री शामिल हैं, जो वहां चर्चित शीर्षकों के अनुसार सुसंगत नहीं। मसलन, 2174 एवं 2175 अहादीस के बारे में यह सच है। ये दोनों जकात से सम्बद्ध हैं। पर दोनों में ऐसी बातें भी हैं, जिनका दान से कोई संबंध नहीं है। हां, वे अपने ढंग से मोमिनों को आश्वस्त करने वाली अवश्य हैं। उदाहरणार्थ, अबू जर्र बतलाते हैं कि जब एक बार वे और मुहम्मद साथ-साथ चल रहे थे तो मुहम्मद उन्हें छोड़कर कहीं अन्यत्र चल दिये और कह गये कि मेरे लौटने तक वहीं रुकना। थोड़ी देर में मुहम्म्द आंख से ओझल हो गए। पर अबू जर्र कुछ आवाजें सुनते रहे। उन्हें पैगम्बर के साथ किसी अनर्थ के घटने की आशंका हुई, पर तब भी उनका हुक्म याद कर वे अपनी जगह पर जमे रहे। जब मुहम्मद लौटे, तो अबू जर्र ने उन आवाज़ों की वजह जाननी चाही। मुहम्मद ने उत्तर दिया-”वह जिब्रैल था, जो मेरे पास आया और बोला-जो तुम्हारी मिल्लत में रहते हुए अल्लाह के साथ किसी और को जोड़े बगैर मर जाता है, वह जन्नत में जायेगा। मैने कहा-क्या तब भी, जबकि उसने चोरी की हो या व्यभिचार किया हो ? उसने कहा-हां, तब भी, जबकि उसने व्यभिचार किया हो या चोरी की हो“ (2174)।

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श्यामभाई को मार दो!

श्यामभाई को मार दो!

धाराशिव में आर्यसमाज का अपना मन्दिर अब तो है, पहले नहीं था। आर्यसमाज के उत्सव एक पौराणिक मन्दिर में हुआ करते थे।

निज़ाम के लाडले व बिगड़े मुसलमान आर्यसमाज के उत्सव पर आक्रमण करते ही रहते थे। उदगीर, लातूर तथा दूर-दूर के आर्यवीर धाराशिव के उत्सव को सफल बनाने के लिए आया करते थे।

एक बार श्यामभाई वेदी पर बैठे थे। अन्य आर्यजन यथा- डॉ0 डी0आर0 दास (श्री उज़ममुनि वानप्रस्थ) भी साथ बैठे थे।

प्रचार हो रहा था। मुसलमानों की एक भीड़ शस्त्रों से सुसज्जित नारे लगाती हुई वहाँ पहुँच गई। सुननेवाले सुनते रहे। रक्षा के लिए नियुक्त आर्यवीर दो-दो हाथ करने के लिए तैयार थे ही। इतने में भीड़ में से कुछ ने कहा-‘‘देखते ज़्या हो, मार दो श्यामभाई को।’’ यह कहते हुए कुछ आगे बढ़कर रुक गये। किसी ने कहा- ‘‘कहाँ है श्यामलाल! मार दो।’’

श्री उज़ममुनिजी ने उसी मन्दिर में आर्यसमाज के एक वार्षिकोत्सव में हमें बताया कि हम यह देखकर दङ्ग रह गये कि यह भीड़ इकदम रुक ज़्यों गई। जो श्यामलाल को मार दो, मार दो

चिल्ला रहे थे, उनमें से किसी को यह साहस ज़्यों न हुआ कि भाईजी पर बर्छे, भाले, तलवार या लाठी का ही वार करें। हमारे व्यक्ति सामना तो करते, परन्तु वे भाईजी के शरीर पर चोटें तो लगा सकते थे, मार भी सकते थे।

भाईजी जैसे बैठे थे, वैसे ही शांत बैठे रहे। उनका कहना था कि प्रचार रुकना नहीं चाहिए। इसलिए बोलनेवाला बोलता रहा।

आक्रमणकारी रुके ज़्यों? जब भाईजी की आँखों से आँखें मिलाईं तो रक्त-पिपासु दङ्गइयों का साहस टूट गया। निर्मल आत्मा, ईश्वर विश्वासी, निर्भय, शान्तिचिज़ श्यामभाई के नयनों की ज्योति को देखकर वे आगे बढ़ने का साहस न बटोर सके।

संसार में कई बार ऐसा भी होता है कि पापी-से-पापी पाषाण- हृदय भी किसी पवित्र आत्मा के सामने जाकर पाप-कर्म करने का साहस नहीं कर पाता। यह भी एक ऐसी ही घटना है। उस समय पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी का व्याज़्यान चल रहा था।