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सच्ची रामायण का खंडन-भाग-१८

*सच्ची रामायण का खंडन-भाग-१८*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों! पेरियार के खंडन में आगे बढ़ते हैं।महाराज दशरथ पर किये आक्षेपों की कड़ी में यह अंतिम लेख है।
गतांक से आगे-
*प्रश्न-१४-* राम वन जाने के पहले दशरथ अपनी प्रजा और ऋषियों की अनुमति ज्ञात कर चुका था कि राम वन को ना जावे फिर भी उससे दूसरों की चिंता किए बिना राम को वनवास भेज दिया ।यह दूसरों की इच्छा का अपमान करना तथा  घमंड है।
*समीक्षा-* *आपके तो दोनों हाथों में लड्डू है!* यदि श्री राम वन में चले जाएं तो आप कहेंगे कि दशरथ में प्रजा और ऋषियों का अपमान किया ;यदि यदि वह मन में ना जाए तो आप कह देंगे कि दशरथ ने अपने वचन पूरे नहीं किए ।बहुत खूब साहब चित भी आपकी और पट भी आपकी!
महोदय, महाराज दशरथ कैकई को वरदान दे चुके थे और अपने पिता के वचन को सत्य सिद्ध करने के लिए श्री राम का वन में जाना अवश्यंभावी था। सत्य कहें,तो उनके मन जाने में राक्षसों का नाश करना ही प्रमुख उद्देश्य था, क्योंकि कई ऋषि मुनि उनके पास आकर राक्षसों द्वारा किए गए अत्याचारों का वर्णन करते थे। इस तरह ऋषियों का कार्य सिद्ध करने और अपने पिता की आज्ञा सत्य सिद्ध करने के लिए वे वन को गए। वे अपने पिता की आज्ञा का पालन करना ही परम धर्म मानते थे।
*न ह्यतो धर्मचरणं किंचिदस्ति महत्तरम्।*
*यथा पितरि शुश्रूषा तस्य वा वचनक्रिया।।*
(अयोध्याकांड सर्ग १९ श्लोक २२)
*अर्थात्-* “जैसी पिता की सेवा और उनकी आज्ञा का पालन करना है, इससे बढ़कर संसार में दूसरा कोई धर्म नहीं है।”
 और बीच में चाहे उन्हें रोकने के लिए पर जो भी आए चाहे वह प्रजा या  ऋषि मुनि ही क्यों न हो,वे अपनी प्रतिज्ञा से कभी भी नहीं डिग सकते थे।
क्योंकि *रामो द्विर्नभाषते*-अर्थात्-राम दो बातें नहीं बोलते,यानी एक बार कही बात पर ढृढ रहते थे।
 रघुकुल की रीति थी कि भले ही प्राण चले जाएं, परंतु दिया हुआ वचन मिथ्या नहीं होना चाहिए। अपनी कुल परंपरा को बचाने के लिए राज्य त्यागकर वनवास जाना अत्यंत आवश्यक था। यह श्रीराम का पितृ धर्म है ,और धर्म का अनुसरण करने के लिए  किसी के रोके रुकना नहीं चाहिए।
यह गलत है कि महाराज दशरथ ने प्रजाजनों और ऋषि यों का घमंड के कारण अपमान करके श्रीराम को वनवास भेज दिया ।महाराज दशरथ तो श्रीराम से यह कह चुके थे कि,” तुम मुझे गद्दी से उतार कर राजा बन जाओ” परंतु उन्होंने तो दिल पर पत्थर रखकर उन्हें वन को जाने की आज्ञा दी।  इसको अहंकार या घमंड के कारण नहीं अपितु ऋषियों के कल्याण तथा अपने कुल की गरिमा की रक्षा करने के कारण वनवास देने की आज्ञा कहना अधिक उचित होगा। आपका आदेश बिना प्रमाण के निराधार और अयुक्त है।
*आक्षेप-१५-* इसीलिए अपमानित प्रजा और  ऋषियों किस विषय पर ना कोई आपत्ति  और न राम को वनवास जाने से रोका।
*समीक्षा-* या बेईमानी तेरा आसरा !झूठ बोलने की तो हद पार कर दी। पहला झूठी है कि प्रजा को अपमानित किया गया। कोई प्रमाण तो दिया होता कि प्रजा को अपमानित किया गया।दूसरा झूठ है कि किसी ने श्री राम को वनवास जाने से नहीं रोका। श्रीमान!जब श्री राम वनवास जा रहे थे तब केवल प्रजा और ऋषि मुनि ही नहीं अपितु पशु-पक्षी भी उनके साथ वन की ओर चल पड़े। जब श्री रामचंद्र जीवन में जाने लगे तब प्रजा के अधिकांश लोग प्रेम में पागल होकर उनके पीछे-पीछे चल पड़े। भगवान श्रीराम ने बहुत कुछ अनुनय-विनय की; किंतु चेष्टा करने पर भी वह प्रजा को ना लौटा सके ।आखिर उन्हें सोते हुए छोड़कर ही श्री राम को वन में जाना पड़ा। उनके लिए श्रीराम का वियोग असहनीय था ।लीजिए, कुछ प्रमाणों का अवलोकन कीजिये-
अनुरक्ता महात्मानं रामं सत्यपराक्रमम् ।
अनुजग्मुः प्रयान्तं तं वनवासाय मानवाः ॥ १ ॥
यहां  सत्यपराक्रमी महात्मा श्रीराम जब वन की ओर जाने लगे  तब उनके प्रति अनुराग रखने वाले कई अयोध्यावासी (नागरिक) वन में निवास करने के लिये उनके  पीछे-पीछे चलने लगे ॥१॥
निवर्तितेतीव बलात् सुहृद्‌धर्मेण राजनि ।
नैव ते सन्न्यवर्तंत रामस्यानुगता रथम् ॥ २ ॥
‘जिनके संबंधियों की जल्दी लौटने की कामना की जाती है उन स्वजनों को दूरतक पहुंचाने के लिये नहीं जाना चाहिये’ – इत्यादि रूप से बताने के बाद सुहृद धर्म के अनुसार जिस समय दशरथ राजा को बलपूर्वक पीछे किया गया उसी समय श्रीरामाके रथके पीछे-पीछे भागने वाले वे अयोध्यावासी मात्र अपने घरों की ओर न लौटे ॥२॥
अयोध्यानिलयानां हि पुरुषाणां महायशाः ।
बभूव गुणसम्पन्नः पूर्णचंद्र इव प्रियः ॥ ३ ॥
क्योंकि अयोध्यावासी पुरुषों के लिये सद्‌गुण संपन्न महायशस्वी राम पूर्ण चंद्राके समान प्रिय हो गये थे ॥३॥
स याच्यमानः काकुत्स्थस्ताभिः प्रकृतिभिस्तदा ।
कुर्वाणः पितरं सत्यं वनमेवान्वपद्यत ॥ ४ ॥
उन प्रजाजनों ने रामजी घर वापस आवे इसलिये खूब प्रार्थना की परंतु वे पिताके सत्यकी रक्षा करनेके लिये वनकी ओर आगे-आगेे जाते रहे ॥४॥(अयोध्याकांड सर्ग ४५)
किंतु श्रीराम ने सबको लौटै दिया फिर भी कुछ वृद्ध ब्राह्मण उनके पीछे-पीछे तमसा नदी के तट तक चले आयो।(देखिये यही सर्ग,श्लोक १३-३१)
अयोध्याकांड सर्ग ४६ में वर्णन है कि श्रीराम ने रात को सोते हुये अयोध्यावासियों को वहीं छोड़कर सुमंत्र की सहायता से आगे वन की ओर प्रस्थान किया।
देखिये,
यथैते नियमं पौराः कुर्वन्त्यस्मन्निवर्तने ।
अपि प्राणान् न्यसिष्यन्ति न तु त्यक्ष्यन्ति निश्चयम् ॥ २० ॥
यावदेव तु संसुप्तास्तावदेव वयं लघु ।
रथमारुह्य गच्छामः पन्थानमकुतोभयम् ॥ २१ ॥
अतो भूयोऽपि नेदानीमिक्ष्वाकुपुरवासिनः ।
स्वपेयुरनुरक्ता मा वृक्षमूलेषु संश्रिताः ॥ २२ ।।
अतः आप का कहना कि अयोध्या की प्रजा ने श्री राम को वनवास से रोकने की कोई कोशिश नहीं की सर्वता अज्ञान का द्योतक है।
*आक्षेप-१६-* राम अपनी उत्पत्ति तथा दशरथ द्वारा भारत को राजगद्दी देने के के के के प्रति किए गए वचनों को भली भांति जानता था तथापि यह बात बिना अपने पिता को बताएं मौन रहा और राज गद्दी का इच्छुक बना था।
*आक्षेप-१७-* इसका सार है कि महाराज दशरथ का मानना था कि भारत के ननिहाल से लौटने के पहले श्री राम का राज्यभिषेक हो जाना चाहिए। इस प्रकार भारत को अपना उचित अधिकार प्राप्त करने में धोखा दिया गया और चुपके से राम को रास्ते अलग करने का निश्चय किया गया राम ने भी इस षड्यंत्र को चुपचाप स्वीकार कर लिया।
*समीक्षा-* हम पहले आक्षेप के उत्तर में यह सिद्ध कर चुके हैं कि भारत को राजगद्दी देने का वचन पूर्ण रुप से मिलावट  और असत्य है। श्री राम राज गद्दी के इच्छुक नहीं थे ,अपितु ज्येष्ठ पुत्र होने से वे उसके सच्चे अधिकारी थे।
 महाराज दशरथ के उपर्युक्त कथन के बारे में भी हम स्पष्टीकरण दे चुके हैं। सार यह है कि श्री राम को राजगद्दी देने का कोई षड्यंत्र रचा नहीं गया उल्टा कैकेयी ने ही नहीं अपने वरदान से रघुवंश की परंपरा और जनता की इच्छा के विरुद्ध मांगकर षड्यंत्र रचा। इस विषय पर अधिक लिखना व्यर्थ है।
*आक्षेप-१८-* जनक को आमंत्रण न दिया गया था- क्योंकि कदाचित भारत को राजगद्दी दे दी जाती तो राम के राज्याधिकार होने से वह असंतुष्ट हो जाता।
*समीक्षा-* क्योंकि दशरथ ने कैकई के पिता को कोई वचन दिया ही नहीं था, इसलिए जनक भी यह जानते थे कि श्री राम ही सच्चे राज्य अधिकारी हैं। हां यह ठीक है कि कैकई के मूर्खतापूर्ण वरदान के कारण श्री राम के वनवास जाने का तथा भरत के राज्य मिलने का वह अवश्य विरोध करते। जरा बताइए कि जनक को न बुलाने का कारण आपने कहां से आविष्कृत कर लिया?रामायण में तो इसका उल्लेख ही नहीं है। हमारे मत में,संभवतः महाराज जनक का राज्य बहुत दूर होगा वहां तक पहुंचने में समय लगता होगा और अगले ही दिन पुष्य नक्षत्र में राज्य अभिषेक किया जाना था। इसीलिए शायद उन्हें निमंत्रण न दिया गया हो क्योंकि वे परिवार के ही सदस्य थे। आमतौर पर परिवार के सदस्यों को प्रायः निमंत्रण नहीं दिया जाता क्योंकि यह मान लिया जाता है कि उनको पीछे से शुभ समाचार मिल ही जाएगा। जो भी हो, किंतु आप का दिया हुआ है तू बिलकुल अशुद्ध है, क्योंकि हम वचन वाली बात को मिथ्या सिद्ध कर चुके हैं।अस्तु।
*आक्षेप-१९-* कैकेई के पिता को निमंत्रण दिया गया था क्योंकि भारत के प्रति किए गए वचनों को न मानकर यदि राजगद्दी दे दी जाती  तो वह नाराज हो जाता।
*समीक्षा-* हम पहले ही वचन वाली बात को मिथ्या सिद्ध कर चुके हैं इसलिए कैकेई के पिता कैकयराज अश्वपति को निमंत्रण न देने के विचार में यह हेतु देना सर्वथा गलत है। क्या यह बात आपकी कपोलकल्पित नहीं है? दरअसल कैकय देश अयोध्या से बहुत दूर था। आप जब संदेशवाहक का भरत को महाराज दशरथ की मृत्यु की सूचना देते समय उसके मार्ग का वर्णन पढ़ेंगे, तो आपको स्वतः ज्ञात हो जाएगा। मार्ग में कई पर्वतों और नदियों का भी वर्णन है ।वहां तक तो पहुंचने में बहुत समय लगता था ।कब निमंत्रण दिया और जाता कब कैकयराज आते ,इतने में तो राज्याभिषेक का समय ही बीत जाता।रघुकुल की परंपरा  और तब समय की अनुकूलता थी कि पुष्य नक्षत्र में ही श्रीराम का राज्याभिषेक होना था। साथ ही महाराज दशरथ अत्यंत वृद्ध हो गए थे,उनका जीवन अनिश्चित था।शत्रुपक्ष के राज्यों से युद्ध का भाई भी उपस्थित था।ऐसे में राज्य में अराजकता फैलने का भय था। इसलिए श्री राम का जल्दी राजा बनना अत्यंत आवश्यक एवं राष्ट्र के लिए भी जरुरी था। अतः कैकयराज को निमंत्रण दिए बिना ही अभिषेक संपन्न करने का निश्चय किया गया यह सोच लिया गया कि उनको यह शुभ समाचार पीछे से प्राप्त हो जाएगा।कारण चाहे जो भी हो परंतु आप का दिया कारण कपोल कल्पित और अमान्य है।
*आक्षेप-२०-* उपरोक्त कारणों से अन्य राजाओं को भी राम राज तिलकोत्सव में  नहीं बुलाया गया था। कैकई मंथरा के कार्य तथा अधिकारों के विषय में पर्याप्त तर्क हैं। बिना इस पर विचार किये कैकेयी आदि पर दोषारोपण करना तथा गाली देना न्याय संगत नहीं है।
*समीक्षा-* “राम राज्य अभिषेक में अन्य राजाओं को नहीं बुलाया गया-“यह बात आपने वाल्मीकि रामायण पढ़ कर लिखी है या फिर ऐसे ही लिख मारी? हमें तो आपके तर्क पढ़कर ऐसा लगता है कि आपने तो अपने जीवन में वाल्मीकि रामायण के दर्शन तक।देखिये ,अयोध्याकांड सर्ग-१
नानानगरवास्तव्यान् पृथग्जानपदानपि ।
समानिनाय मेदिन्यां प्रधानान् पृथिवीपतिः ॥ ४६ ॥
नाना नगरों के प्रधान-प्रधान राजाओं को सम्मान के साथ बुलाया गया॥४६॥
तान् वेश्मनानाभरणैर्यथार्हं प्रतिपूजितान् ।
ददर्शालंकृतो राजा प्रजापतिरिव प्रजाः ॥ ४७ ॥
उन सबके रहने के लिये आवास देकर नाना प्रकारके आभूषणों द्वारा उनका यथायोग्य सत्कार किया गया। तब स्वतः ही अलंकृत होकर राजा दशरथ उन सबसे, प्रजापति ब्रह्मदेव जिस प्रकार प्रजावर्ग से मिलते हैं,उसी प्रकार मिले॥४७॥
न तु केकयराजानं जनकं वा नराधिपः ।
त्वरया चानयामास पश्चात्तौ श्रोष्यतः प्रियम् ॥ ४८ ॥
कैकयराज और राजा जनक को निमंत्रण नहीं दिया गया,यह जानकर कि उनको शुभसमाचार पीछे मिल ही जायेगा।।४८।।
इन्हीं राजाओं से भरी राज्यसभा में राम राज्याभिषेक की घोषणा की गई और इसके अगले दिन ही सब राजा अभिषेक में अपनी उपस्थिती दर्ज करने के लिये मौजूद थे।कहिये श्रीमान,अब तसल्ली हो गई?
कैकेयी और मंथरा का कृत्य न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता।मंथरा ने कैकेयी को उसके धरोहर रूप रखे वरदानों का दुरुपयोग करने की पट्टी पढ़ाई और कैकेयी ने प्रजा और परंपरा के विरुद्ध वरदान मांगे।
ऐसे मूर्खतापूर्ण, जनादेशविरोधी और परंपराभंजक वरदान मांगने वाले तथा इस कारण से राजा दशरथ को पुत्रवियोग का दुख देने वालों को बुरा-भला कहकर दशरथ, प्रजा और मंत्रियों ने कुछ गलत नहीं किया।यद्यपि किसी को कोसना सही नहीं है,तथापि उन्होंने उनको कोसकर कोई महापाप न किया।
*।।महाराज दशरथ पर लगे आक्षेपों का उत्तर समाप्त हुआ।।*
पाठक मित्रों!हमने महाराज दशरथ पर किये आक्षेपों का युक्तियुक्त खंडन कर दिया है।आपने देखा कि पेरियार ने किस तरह बेसिर-पैर के अनर्गल आरोप दशरथ पर लगाये।कहीं झूठ का सहारा लिया,कहीं तथ्यों तोड़ा-मरोड़ा।कहीं अपने जैसे मिथ्यीवादी साक्षियों को उद्धृत किया कहीं सुनी-सुनाई बातों से गप्पें जड़ दी।”येन-केन प्रकारेण कुर्यात् सर्वस्व खंडनम्”-के आधार पर महाराज दशरथ पर आक्षेप करने का प्रयास किया,पर सफल न हो सके।इससे सिद्ध है कि महाराज दशरथ पर किये सारे आक्षेप मिथ्या और अनर्गल प्रलाप है।
मित्रों!यहां महाराज दशरथ का प्रकरण समाप्त हुआ।अगले लेखों की श्रृंखला में भगवान श्रीराम पर “राम” नामक शीर्षक से किये गये आक्षेपों का खंडन कार्य आरंभ किया जायेगा।ललई सिंह यादव ने पेरियार के स्पष्टीकरण में जो प्रमाण दिये हैं,साथ ही साथ उनकी भी परीक्षा की जायेगी।पूरा लेख पढ़ने के लिये धन्यवाद।
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।।मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र की जय।।
।।योगेश्वर श्रीकृष्ण चंद्रकी जय।।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

हदीस : गुलाम की संपत्ति का वारिस कौन ?

गुलाम की संपत्ति का वारिस कौन ?

अगर एक गुलाम को आजाद भी कर दिया जाये, तो भी उसकी संपत्ति मुक्तिदाता की होगी (3584-3595)। आयशा एक गुलाम लौंडी, वरीरा, की मदद करना चाहती थी। वह उसकी आजादी इस शर्त पर खरीदने को तैयार थी कि ”मुझे तुम्हारी सम्पत्ति पर अधिकार मिलेगा। लेकिन लौंडी का स्वामी नगद दाम लेकर ही उसको तो आज़ाद करने का इच्छुक था। वह लौंडी की सम्पत्ति का हक़ अपने पास रखना चाहता था। मुहम्मद ने आयशा के हक़ में यह फैसला दिया-”उसे खरीद लो और मुक्त कर दो, क्योंकि संपत्ति का उत्तराधिकार उसका होता है, जो मुक्त करता है।“ फिर मुहम्मद ने फटकार लगाई-”लोगों को क्या हो गया है, जो वे ऐसी शर्तें रखते हैं जो अल्लाह की किताब में नहीं पायीं जातीं“ (3585)

author : ram swarup

 

आर्यसमाजियों की श्रद्धा तथा सेवाभाव

आर्यसमाजियों की श्रद्धा तथा सेवाभाव

संस्थाओं के झमेलों ने आर्यसमाज के संगठन और प्रचार को बड़ी क्षति पहुँचाई है। संस्थाओं के कारण अत्यन्त निकृष्ट व्यक्ति आर्यसमाज में घुसकर ऊँचे-ऊँचे पदों पर अधिकार जमाने में सफल हो गये हैं। लोग ऐसे पुरुषों को देखकर यह समझते हैं कि आर्यसमाजियों में श्रद्धा नहीं है।

आर्यवीरों ने देश-धर्म के लिए कितने बलिदान दिये हैं। आर्यों की श्रद्धा तथा सेवाभाव का एक उदाहरण यहाँ देते हैं। लाहौर में एक महाशय सीतारामजी आर्य होते थे। इन्हीं को चौधरी सीताराम कहा जाता था। ये आर्यसमाज के सब कार्यों में आगे-आगे होते थे, इसलिए इन्हें चौधरी सीताराम आर्य कहा जाता था। लाला जीवनदासजी की चर्चा करते हुए भी हमने इनका उल्लेख किया था।

वे लकड़ी का कार्य करते थे। इनकी दुकान आर्यसमाज के प्रमुख लोगों के मिलन तथा विचार-विमर्श करने का एक मुज़्य स्थान होता था। आर्ययुवक जो स्कूलों, कॉलेजों में पढ़ते थे, वे

उनकी दुकान का चक्कर लगाये बिना न रह सकते थे।

एक बार महाशय सीतारामजी को निमोनिया हो गया। वे कई दिन तक अचेत रहे। उनके आर्यसमाजी मित्रों ने उनकी इतनी सेवाकी कि बड़े-बड़े धनवानों की सन्तान भी ऐसी देखभाल न करे।

लाहौर के बड़े-से-बड़े डॉज़्टर को आर्यलोग बुलाकर लाये। अपने-आप ओषधियाँ लाते। आर्यवीरों ने दिन-रात अपना समय बाँट रखा था। हर घड़ी उनकी सेवा और देखभाल के लिए आर्यपुरुष उनके

पास रहते।

वे गृहस्थी थे। पत्नी आज्ञाकारिणी थी। पुत्र भी धर्मप्रेमी थे। महाशय राजपालजी का मुसलमान हत्यारा इल्मुद्दीन जब छुरे का वार करके भागा था तो इन्हीं महाशयजी के सुपुत्र श्री विद्यारत्न ने ही उसे पकड़ा था। एक और आक्रमण के समय क्रूर घातक को स्वामी श्री स्वतन्त्रानन्दजी महाराज ने धर दबोचा था।

हमारा इस प्रसङ्ग को छेड़ने का अभिप्राय यह है कि ऐसे सद्गृहस्थी के घर में सब-कुछ था तथापि आर्य भाइयों में अपने इस आदर्श कर्मवीर के लिए इतना ह्रश्वयार था, उनके प्रति ऐसी श्रद्धा थी कि उनके रुग्ण होने पर उनकी सेवा करने के लिए आर्यों में एक होड़ और दौड़-सी थी। जब महाशयजी स्वस्थ हुए तो इस सेवाभाव, इस भ्रातृभाव से इतने प्रभावित हुए कि अब वे पहले से भी कहीं अधिक आर्यसामाजिक कार्यों में जुटे रहते। वे दुकानदार भी थे और प्रचारक भी। वे कार्यकर्ज़ा भी थे और संगठन की कला के कलाकार भी थे।

हदीस : कौन-से गुलाम मुक्ति के पात्र हैं ?

कौन-से गुलाम मुक्ति के पात्र हैं ?

सिर्फ़ मोमिन गुलाम ही आजादी का पात्र है। किसी ने एक बार अपनी गुलाम बांदी को थप्पड़ जमा दिया और तब पछतावे की भावना से उसे आज़ाद करना चाहा। मुहम्मद से सलाह ली गयी। वे बोले-”उसे मेरे पास लाओ।“ वह लायी गयी। मुहम्मद ने उससे पूछा-”अल्लाह कहां है ?“ वह बोली-”वह जन्नत में है।“ मुहम्मद ने पूछा-मैं कौन हूं ?“ उसने जवाब दिया-”आप अल्लाह के पैगम्बर हैं।“ मुहम्मद ने यह फैसला सुनाया-”उसे आजाद कर दो। वह मोमिन औरत है“ (1094)।

 

इस प्रकार एक गुलाम को आजाद करने से पुण्य प्राप्त होता है। ”उस मुसलमान को जो एक मुसलमान (गुलाम) को मुक्त करता है, अल्लाह दोज़ख की आग से बचायेगा। गुलाम के हर अंग के एवज में मुक्त करने वाले का वही अंग आग से बचाया जायेगा। यहां तक कि उनके गुप्तांगों के बदले में मुक्ति दाता के गुप्तांग बचाये जायेंगे“ (3604)।

 

अपने साझे गुलाम को भी व्यक्ति अपने हिस्से की हद तक मुक्त कर सकता है। बाकी के लिए उस गुलाम के दाम तय किए जा सकते हैं। और गुलाम से ”अपनी आजादी के लिए काम करने को कहा जायेगा। लेकिन उसके ऊपर बहुत ज्यादा बोझा नहीं डालना चाहिए“ (3582)।

author : ram swarup

वे कैसे चरित्रवान् थे

वे कैसे चरित्रवान् थे

इन्हीं महाशय देवकृष्णजी को राज्य की ओर से एक शीशमहल क्रय करने के लिए मुज़्बई भेजा गया। वहाँ उन्हें दस सहस्न रुपया कमिशन (दलाली) के रूप में भेंट किया गया। आपने लौटकर यह राशि महाराज नाहरसिंह के सामने रख दी। उनकी इस ईमानदारी (honesty) और सत्यनिष्ठा से सब पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्हें लोग चलता-फिरता आर्यसमाजी समझते थे। उस युग में दस सहस्र की राशि कितनी बड़ी होती थी! इसका हमारे पाठक सहज रीति से अनुमान लगा सकते हैं।

हदीस : गुलामों की मुक्ति

गुलामों की मुक्ति

गुलामों की मुक्ति इस्लामपूर्व के अरब जगत में अज्ञात नहीं थी। गुलाम लोग कई तरह से आजादी हासिल कर सकते थे। एक रास्ता, जो बहुत सामान्य था, वह यह था कि उनके रिश्तेदार उन्हें निष्क्रय-मूल्य देकर छुड़ा लेते थे। एक दूसरा रास्ता यह था कि उनके मालिक उन्हें मुफ्त और बिना शर्त मुक्ति (इत्क़) दे देते थे। मुक्ति के दो अन्य रूप भी थे-”तदबीर“ और ”किताबाह“। पहले में मालिक यह घोषणा करता था कि उसकी मौत के बाद उसके गुलाम आजाद हो जाएंगे। दूसरे में वे गुलाम जिन्हें उनके रिश्तेदार निष्क्रय-मूल्य देकर नहीं छुड़ा पाते थे, अपने मालिक से यह इज़ाज़त ले लेते थे कि वे मज़दूरी द्वारा अपना निष्क्रय-मूल्य कमा कर उसे दे देंगे।

 

हम पहले देख चुके हैं कि हकीम बिन हिज़ाम ने किस प्रकार अपने ”एक-सौ गुलामों को मुक्त किया“ (225)। यह काम उन्होंने मुसलमान बनने से पहले किया था। हमने यह भी देखा कि अधिक श्रद्धापरायण अरबों में यह पुराना रिवाज था कि वे वसीयत करके अपनी मौत के बाद अपने गुलाम आजाद करें। मुहम्मद ने कुछ मामलों में इस प्रथा का विरोध किया। वे नहीं चाहते थे कि गुलाम-मुक्ति के फलस्वरूप वारिसों और रिश्तेदारों को नुकसान उठाना पड़े। फिर भी कुल मिला कर गुलाम-मुक्ति की प्रथा के प्रति मुहम्मद का रुख अनुकूल ही था। लेकिन इसी कारण वे गुलामों के मसीहा नहीं बन जाते। क्योंकि उन्होंने यह भी कहा कि दीन-हीन लोग जब दुनिया में छा जायेंगे तो वह दुनिया के खत्म होने के एक सूचना होगी। उनके अनुसार ”जब गुलाम लौंडी अपने मालिक को जन्म देने लगे, जब नंगे बदन और नंगे पांव वाले लोग जनता के मुखिया बनने लगें-कयामत की ये कुछ निशानियां हैं“ (4)।

 

मुहम्मद के लिए गुलाम की मुक्ति उसके स्वामी की उदारता की द्योतक थी, न्याय का मामला नहीं। बहरहाल, एक गुलाम को भागकर अपना उद्धार नहीं करना चाहिए। मुहम्मद कहते हैं-”जो गुलाम अपने मालिक के पास से भाग जायें, वे जब तक उसके पास वापस नहीं आ जाते, तब तक कुफ्र के गुनहगार होते हैं“ (129)।

author : ram swarup

 

एक अद्वितीय दीनबन्धु

एक अद्वितीय दीनबन्धु

श्रीमहात्मा हंसराज जी ने अफ़गानिस्तान में धर्म के लिए वीरगति पानेवाले एक हिन्दू युवक मुरली मनोहर का जीवन-चरित्र लिखा था। इसे पण्डित रलाराम (रुलियाराम भी कहलाते थे) को समर्पित किया था। महात्माजी इन पण्डित रलारामजी का जीवन-चरित्र लिखना चाहते थे, परन्तु लिज़ न पाये। आप कई बार अपने प्रवचनों में इस आदर्श ऋषिभक्त की चर्चा किया करते थे। एक बार आपने कहा- ‘‘पलेग में आर्यसमाज का एक वृद्ध उपदेशक आगे निकलता है और पलेग के फोड़े को चूस लेने का साहस करता है।’’

डॉ0 दीवानचन्दजी ने इनके बारे में लिखा है- ‘‘बहुत पढ़े-लिखे न थे, पीड़ितों की पीड़ा को दूर करना व कम करना उनका काम था। ह्रश्वलेग के रोगियों की सेवा से उन्हें उतनी ही झिझक होती थी, जितनी ज्वर के रोगियों की सेवा में हमें होती है। भ्रमण में सदा कहीं जाना होता था, कभी खाने में चपाती के साथ एक से अधिक चीज़ का प्रयोग नहीं करते थे।’’

महात्मा आनन्द स्वामीजी ने कभी खुशहालचन्दजी के रूप में उनके बारे लिखा था-‘‘अपने जीवन की चिन्ता किये बना पण्डित रुलियारामजी रोगियों की देखभाल करते। वे उन पर वमन कर देते,

मूत्र कर देते, परन्तु उनको घृणा नहीं आती थी। सेवा का भाव उनको निरन्तर दिन-रैन कार्य करने पर विवश करता था। इस सेवा कार्य से प्रसन्न होकर जनता ने भी और सरकार ने भी पण्डितजी को पदक दिये।’’

पण्डित रुलियारामजी ने सिंध प्रान्त, हिमाचल, पंजाब, हरियाणा, देहली आदि प्रान्तों में रोगियों, दुःखियों की, अकाल तथा भूकज़्प पीड़ितों की ऐतिहासिक सेवा करते हुए आर्यसमाज का मिशन

फैलाया। इन पण्डितजी ने सिन्ध प्रान्त के सज़्खर नगर में आर्यसमाज में प्रवेश किया। पण्डितजी तब सज़्खर में रेलविभाग में एक अच्छे पद पर आसीन थे। यह आर्यसमाज के आरज़्भिक दिनों की बात है। आर्यसमाज का चारों ओर से विरोध होता था। उन्हीं दिनों सज़्खर में विशूचिका रोग फैला। पण्डितजी में रोगियों की सेवा की एक विशेष प्रवृज़ि थी। जब सगे-सज़्बन्धी रोगियों को छोड़-छोड़कर भागने लगे, जब डॉज़्टर-वैद्य भी इस जानलेवा महामारी के रोगी के पास आने से सकुचाते और घबराते थे, तब पण्डितजी ने जीवन-मरण की चिन्ता से विमुख होकर रोगियों की सेवा का यज्ञ रचाया। सज़्खर नगर व समीप के ग्रामों में पण्डितजी ने रोगियों की सेवा की, इससे छोटा-बड़ा प्रत्येक व्यक्ति आर्यसमाज का प्रशंसक बन गया। आर्यसमाज का कितना प्रभाव पड़ा इसका एक उदाहरण लीजिए- आर्यसमाज सज़्खर का नगर-कीर्तन निकल रहा था। पुलिस ने इसे रोक दिया। आर्यसमाजी भी अपनी धुन के धनी थे। अड़

गये। पण्डित रलारामजी अविलज़्ब कलेज़्टर के पास गये और जाकर उनसे कहा कि ‘‘यह मेरा आर्यसमाज है। इसका नगर- कीर्तन नहीं रुकना’’।

इतनी-सी बात कहने पर ही आर्यसमाज को नगर-कीर्तन निकालने की अनुमति मिल गई।

स्मरण रहे कि इन्हीं पण्डित जी की सेवा-भावना देखकर पादरी स्टोज़्स ने एक बार आर्यसमाज के बारे में कहा था कि ‘जिस संस्था के पास ऐसे अनूठे सेवक हों, उसका सामना हम नहीं कर

सकते।’ एक दिन यही पादरी स्टोज़्स स्वामी सत्यानन्दजी बन गये।

पादरी रहते हुए भी आप हमारे पूज्य पण्डितजी को ‘गुरुजी’ कहकर पुकारा करते थे।

इन पंक्तियों के लेखक ने पण्डितजी का जीवन-चरित्र लिख था, फिर छपेगा।

हदीस : गुलाम की मुक्ति

गुलाम की मुक्ति

कारण स्पष्ट नहीं है, किन्तु शादी और तलाक़ वाली किताब के अंत में कुछ अध्याय गुलामों के विषय में है। वर्गीकरण की गलत विधि के कारण ऐसा हुआ है, या फिर इसलिए हो सकता है कि गुलाम की मुक्ति ’तलाक‘ का ही एक रूप मानी जाती है, क्योंकि ’तलाक‘ का अक्षरशः अर्थ है ’मुक्त करना‘ या ’गांठ खोलना‘। या फिर यह भी हो सकता है कि यह विषय अगली किताब से संबंधित हो जो कि व्यापार के सौदों से संबंधित है। आखिरकार, एक गुलाम एक चल संपत्ति से कुछ अधिक नहीं था।

 

आधुनिक मुस्लिम लेखक, इस्लाम को एक मानवीय विचारधारा ठहराने की कोशिश करते हुए, गुलामों की मुक्ति (इत्क) के बारे में मुहम्मद के शिक्षापदों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर सुनाते हैं। लेकिन असलियत यह है कि मुहम्मद ने मज़हबी युद्ध का विधान देकर और कैद किए गए गैर-मुस्लिमों के मानवीय अधिकार अस्वीकृत करके, गुलामी को एक अभूतपूर्व पैमाने पर प्रचलित कर दिया। इस्लाम-पूर्व के अरब सुखदतम स्वप्न में भी कभी यह कल्पना नहीं कर सकते थे कि गुलामी की संस्था इतने बड़े परिमाण में संभव हो सकती है। पैगम्बर का एक घनिष्ठ साथी, जुवैर, जब मरा तो उसके पास एक हज़ार गुलाम थे। खुद पैगम्बर के पास किसी न किसी अवसर पर कुल मिला कर कम से कम उनसठ गुलाम थे। उनके अड़तीस नौकर इनके अलावा थे। इनमें मर्द और औरतें, दोनों शामिल थे। 15वीं सदी ईस्वी में पैग़म्बर की जीवनी लिखने वाले मीरखोंद ने इन सबके नाम अपनी रौज़त अस्सफ़ा नाम की पुस्तक में दिए हैं। तथ्य यह है कि गुलामी, खि़राज और लड़ाई में लूटा गया माल, अरब के नए अमीरों का मुख्य अवलंब बन गये। गुलामों की पुरानी असमर्थताएं ज्यों-की-त्यों बनी रहीं। वे अपने मालिक (सैयद) की जायदाद थे। मालिक अपनी इच्छानुसार उनके विषय में निर्णय कर सकते थे-उन्हें बेच सकते थे, उपहार में दे सकते थे, किराये पर उठा सकते थे, उधार दे सकते थे, रहन रख सकते थे। गुलामों के कोई संपत्ति-संबंधी अधिकार नहीं थे। वे जो कुछ भी प्राप्त करते थे। वह सब उनके मालिकों की संपत्ति हो जाती थी। मालिक को अपनी उन गुलाम औरतों केा रखैल बनाने का पूरा अधिकार था, जो इस्लाम स्वीकार कर लेती थी, अथवा जो ”किताब वाले“ लोगों में से थीं। कुरान (सूरा 4/3, 4/24, 4/25, 23/6) ने इसकी इजाज़त दी। बिक्री, विरासत और शादी के इस्लामी कानूनों में गुलामी ओत-प्रोत हो गई। और यद्यपि गुलाम लोग अपने मुस्लिम मालिकों के लिए लड़ते थे, तथापि वे इस्लाम के मजहबी कानून के मुताबिक लड़ाई की लूट के हकदार नहीं थे।

author : ram swarup

 

तो सेवा कौन करेगा

तो सेवा कौन करेगा

निज़ाम राज्य में आर्यों ने जो बलिदान दिये व कष्ट सहे हैं, वे अपने-आपमें एक अद्वितीय इतिहास है। खेद है कि न तो निज़ाम राज्य के किसी सुयोग्य आर्य युवक ने इस इतिहास को सुरक्षित करने का सत्साहस दिखाया और न ही राज्य के बाहर के आर्यों ने और न सभाओं ने इधर विशेष ध्यान दिया है। पण्डित श्री नरेन्द्रजी इस दिशा में कुछ ठोस कार्य कर गये हैं। अब तो कई अच्छे ग्रन्थ छपे हैं।

निज़ाम की कोठी (किंग कोठी) की देखभाल करनेवाले एक व्यक्ति श्री राय ललिताप्रसादजी आर्य बन गये। वे बड़े मेधावी, साहसी, विनम्र, सेवाभाववाले, साहित्यिक प्रतिभावाले आर्य मिशनरी थे। उच्च कोटि के वैद्य भी थे। पलेग व हैज़ा के एक सुदक्ष चिकित्सक थे। लक्ष्य धन कमाना नहीं था, घर फूँक तमाशा देखनेवाले लेखराम के चरणानुरागी थे।

राज्य में जब-जब महामारी फैली राज्य के दिलजले आर्यवीर सेवा के लिए आगे निकले। श्री ललिताप्रसादजी सरकारी नौकर होते हुए आर्यसमाज के स्वयंसेवक के रूप में मुर्दों के शव कन्धे पर उठाकर सेवा कार्य में जुट जाया करते थे। ह्रश्वलेग का नाम सुनकर ही लोग भाग खड़े होते थे। ललिताप्रसादजी अपने एकमात्र पुत्र ‘देवव्रत’ को साथ लेकर पलेग के मुर्दों को उठाने चल पड़ते। स्व0 श्री देवव्रत शास्त्री को बज़्बई का सारा आर्यजगत् जानता था।

1940 ई0 में गुलबर्गा में पलेग फैली तो सब जन नगर छोड़कर बाहर भागने लगे। आपको भी कहा गया कि चले चलो। आपका कथन था कि यदि वैद्य-डॉज़्टर ही भाग गये तो सेवा कौन

करेगा? आप पलेग के रोगियों की सेवा करते हुए स्वयं भी इसी रोग से चल बसे।

आर्यजन! ऐसी पुण्य आत्मा को मैं यदि रक्तसाक्षी (हुतात्मा) की संज्ञा दे दूँ तो कोई अत्युक्ति न होगी। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि हमारी मंच से ऐसे प्राणवीरों के उदाहरण न देकर बीरबल-

अकबर व इधर-उधर की कल्पित कहानियाँ सुनाकर वक्ता लोग अपने व्याज़्यानों की रोचकता बनाते हैं।

यदि हम आर्यजाति को बलवान् बनाना चाहते हैं तो हमें अतीत काल के और आधुनिक युग के तपस्वी, बलिदानी, ज्ञानी शूरवीरों की प्ररेणाप्रद घटनाएँ जन-जन को सुनाकर नया इतिहास

बनाना होगा।

आर्यसमाज भी अन्य हिन्दुओं की भाँति अपने शूरवीरों का इतिहास भुला रहा है। पण्डित लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा नारायण स्वामी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द, पण्डित मुरारीलालजी, स्वामी दर्शनानन्द, पण्डित गणपतिशर्मा, पण्डित गङ्गप्रसाद उपाध्याय, पण्डित नरेन्द्रजी पं0 गणपत शास्त्री सरीखे सर्वत्यागी महापुरुषों के जीवन-चरित्र कितने छपे हैं? सार्वदेशिक या प्रान्तीय सभाओं ने इनके चरित्र छपवाने व खपाने में कभी रुचि ली है? उपाध्यायजी सरीखे

मनीषी का खोजपूर्ण प्रामाणिक जीवन-चरित्र मैंने ही लिखा है, किसी भी सभा ने एक भी प्रति नहीं ली। वैदिक धर्म के लिए छाती तानकर कौन आगे आएगा? प्रेरणा कहाँ से मिलेगी?

हदीस : लियान (लानत भेजना)

लियान (लानत भेजना)

अगर कोई आदमी अपनी बीबी को व्यभिचाररत पाता है तो वह व्यभिचारी पुरुष की हत्या नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा करना मना है। न ही वह अपनी बीबी के खिलाफ आरोप लगा सकता है, क्योंकि जब तक चार गवाह न हों, औरत के सतीत्व पर झूठा लांछन लगाने पर उसे अस्सी कोड़े खाने पड़ेंगे। लेकिन अगर गवाह न मिल रहे हों, और ऐसे मामलों में अक्सर होता है, तो उसे क्या करना चाहिए ? मोमिनों को यह दुविधा मुश्किल में डाले हुए थी। एक अंगार (मदीना-निवासी) ने मुहम्मद के सामने यह मसला रखा-“अगर एक व्यक्ति अपनी बीवी को किसी मर्द के पास पाता है और वह उसके बारे में बोलता है, तो आप उसे कोड़े मारेंगे। और अगर वह मार डालता है तो आप उसे मार डालेंगे। और अगर वह चुप रह जाता है तो उसे गुस्सा पीना पड़ेगा।“ मुहम्मद ने अल्लाह से विनती की-“अल्लाह ! इस मसले को हल करो“ (3564)। और उन पर एक आयत (कुरान 246) उतरी जिसने लियान की प्रथा जारी की। इस शब्द का शाब्दिक अर्थ है “कसम“ लेकिन पारिभाषिक अर्थ में यह शब्द क़सम के उस विशिष्ट रूप के लिए प्रयुक्त होता है जो चार क़समों और एक लानत के जरिये ख़ाविंद को बीवी से अलग कर देता है। अकेले खाविंद की गवाही तब स्वीकार की जा सकती है, जब वह अल्लाह की कसम के साथ चार बार यह गवाही दे कि वह पक्के तौर पर सच बोल रहा हो तो उस पर अल्लाह का रोष प्रकट हो। इसी प्रकार कोई बीवी अपने ऊपर गले अभियोग को चार बार क़सम खा कर अस्वीकार कर सकती है और फिर अपने ऊपर लानत ले सकती है कि उस पर अभियोग लगाने वाले ने अगर सच बोला है तो उसके (बीवी के) ऊपर अल्लाह का रोष प्रकट हो। दोनों में से एक ने जरूर झूठ बोला होगा। लेकिन मामला यहीं खत्म हो जाता है और इसके बाद वे दोनों मियां बीवी नहीं रह जाते (3553-3577)।

author : ram swarup