Category Archives: हिन्दी

हदीस : भेंट-उपहार

भेंट-उपहार

कोई भी चीज जो भेंट या दान में दे दी जाय, वापस नहीं ली जानी चाहिए। उमर ने अल्लाह के रास्ते पर (यानी जिहाद के लिए) एक घोड़ा दान में दे दिया था। उसने देखा कि उसका घोड़ा दान पाने वाले के हाथों पड़ कर क्षीण हो रहा है, क्योंकि वह व्यक्ति बहुत गरीब था। उमर ने उसे वापस खरीदने का विचार किया। मुहम्मद ने उससे कहा कि ”उसे अब वापस मत खरीदो ….. क्योंकि वह जो दान को वापस लेता है, उस कुत्ते की तरह है जो अपनी उलटी निगलता है“ (3950)।

author : ram swarup

 

सचमुच वे बेधड़क थे

सचमुच वे बेधड़क थे

हरियाणा के श्री स्वामी बेधड़क आर्यसमाज के निष्ठावान् सेवक और अद्भुत प्रचारक थे। वे दलित वर्ग में जन्मे थे। शिक्षा पाने का प्रश्न ही नहीं था। आर्यसमाजी बने तो कुछ शिक्षा भी प्राप्त कर ली। कुछ समय सेना में भी रहे थे। आर्यसमाज सिरसा हरियाणा में सेवक के रूप में कार्य करते थे। ईश्वर ने बड़ा मीठा गला दे रखा था। जवानी के दिन थे। खड़तालें बजानी आती थीं। कुछ भजन कण्ठाग्र कर लिये। एक बार सिरसा में श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज का शुभ आगमन हुआ। बेधड़कजी ने कुछ भजन सुनाये। श्री यशवन्तसिंह वर्मा टोहानवी का भजन-

सुनिये दीनों की पुकार दीनानाथ कहानेवाले तथा है आर्यसमाज केवल सबकी भलाई चाहनेवाला।

बड़ी मस्ती से गाया करते थे। स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज गुणियों के पारखी थे। आपने श्री बेधड़क के जोश को देखा, लगन को देखा, धर्मभाव को देखा और संगीत में रुचि तथा योग्यता को देखा। आपने बेधड़कजी को विस्तृत क्षेत्र में आकर धर्मप्रचार करने के लिए प्रोत्साहित किया।

बेधड़कजी उज़रप्रदेश, हरियाणा, पञ्जाब, सिंध, सीमाप्रान्त, बिलोचिस्तान, हिमाचल में प्रचारार्थ दूर-दूर तक गये। हरियाणा प्रान्त में विशेष कार्य किया। वे आठ बार देश के स्वाधीनता संग्राम

में जेल गये। आर्यसमाज के हैदराबाद सत्याग्रह तथा अन्य आन्दोलनों में भी जेल गये। संन्यासी बनकर हैदराबाद दक्षिण तक प्रचारार्थ गये। अपने प्रचार से आपने धूम मचा दी।

बड़े स्वाध्यायशील थे। अपने प्रचार की मुनादी आप ही कर दिया करते थे। किस प्रकार के ऋषिभक्त थे, इसका पता इस बात से लगता है कि एक बार पञ्जाब के मुज़्यमन्त्री प्रतापसिंह कैरों ने उन्हें कांग्रेस के टिकट पर एक सुरक्षित क्षेत्र से हरियाणा में चुनाव लड़ने को कहा। तब हरियाणा राज्य नहीं बना था। काँग्रेस की वह सीट खतरे में थी। बेधड़क ही जीत सकते थे।

स्वामी बेधड़कजी ने विधानसभा का टिकट ठुकरा दिया। आपने कहा ‘‘मैं संन्यासी हूँ। चुनाव तथा दलगत राजनीति मेरे लिए वर्जित है। ऋषि दयानन्द ने तो मुझे दलित से ब्राह्मण तथा संन्यासी तक बना दिया। आर्यसमाज ने मुझे ऊँचा मान देकर पूज्य बनाया है और आप मुझे जातिपाँति के पचड़े में फिर डालना चाहते हैं।’’ पाठकवृन्द! कैसा त्याग है? कैसी पवित्र भावना है? जब वे अपने जीवन के उत्थान की कहानी सुनाया करते थे कि वे कहाँ-से-कहाँ पहुँचे तो वे ऋषि के उपकारों का स्मरण करके भावविभोर होकर पूज्य दादा बस्तीराम का यह गीत गाया करते थे-

‘लहलहाती है खेती दयानन्द की’।

इन पंक्तियों के लेखक ने उन-जैसा दूसरा मिशनरी नहीं देखा। लगनशील, विद्वान् सेवक तो कई देखे हैं, परन्तु वे अपने ढंग के एक ही व्यक्ति थे। बड़े वीर, स्पष्टवादी वक्ता, तपस्वी, त्यागी और परम पुरुषार्थी थे। शरीर टूट गया, परन्तु उन्होंने प्रचार कार्य बन्द नहीं किया। खान-पान और पहरावे में सादा तथा राग-द्वेष से दूर थे। बस, यूँ कहिए कि ऋषि के पक्के और सच्चे शिष्य थे।

हदीस : विरासत, भेंट-उपहार, और वसीयतें

विरासत, भेंट-उपहार, और वसीयतें

अगली तीन किताबें हैं ”विरासत की किताब (अल-फराइज), भेंट-उपहार की किताब (अल-हिबात), और वसीयत की किताब (अल-वसीय्या)।“ कई पक्षों में वे परस्पर सम्बद्ध हैं। उनसे निःसृत कानून जटिल हैं और हम यहां उनका उल्लेख-भर करेंगे।

author : ram swarup

पण्डित भोजदज़जी आगरावाले आगे निकल गये

पण्डित भोजदज़जी आगरावाले आगे निकल गये

श्री पण्डित भोजदज़जी आर्यपथिक पश्चिमी पञ्जाब में तहसील कबीरवाला में पटवारी थे। आर्यसमाजी विचारों के कारण पण्डित सालिगरामजी वकील प्रधान मिण्टगुमरी समाज के निकट आ गये।

पण्डित सालिगराम कश्मीरी पण्डित थे। कश्मीरी पण्डित अत्यन्त  रूढ़िवादी होते हैं इसी कारण आप तो डूबे ही हैं साथ ही जाति का, इनकी अदूरदर्शिता तथा अनुदारता से बड़ा अहित हुआ है। आज कश्मीर में मुसलमानों ने (कश्मीरी पण्डित ही तो मुसलमान बने) इन बचे-खुचे कश्मीरी ब्राह्मणों का जीना दूभर कर दिया और अब कोई हिन्दू इस राज में-कश्मीर में रह ही नहीं सकता।

पण्डित सालिगराम बड़े खरे, लगनशील आर्यपुरुष थे। आपने बरादरी की परवाह न करते हुए अपने पौत्र का मुण्डन-संस्कार विशुद्ध वैदिक रीति से करवाया। ऐसे उत्साही आर्यपुरुष ने पण्डित

भोजदज़जी की योग्यता देखकर उन्हें आर्यसमाज के खुले क्षेत्र में आने की प्रेरणा दी। पण्डित भोजदज़ पहले पञ्जाब सभा में उपदेशक रहे फिर आगरा को केन्द्र बनाकर आपने ऐसा सुन्दर, ठोस तथा ऐतिहासिक कार्य किया कि सब देखकर दंग रह गये। आपने मुसाफिर1 पत्रिका भी निकाली। सरकारी नौकरी पर लात मार कर आपने आर्यसमाज की सेवा का कण्टकाकीर्ण मार्ग अपनाया। इस उत्साह के लिए जहाँ पण्डित भोजदज़जी वन्दनीय हैं वहाँ पण्डित सालिगरामजी को हम कैसे भुला सकते हैं जिन्होंने इस रत्न को खोज निकाला, परखा तथा उभारा।

हदीस : रिबा

रिबा

मुहम्मद ने रिबा भी हराम ठहराया, जिसमें सूदखोरी और ब्याज लेना दोनों शामिल हैं। उन्होंने ”ब्याज लेने वाले और देने वाले और उसे दर्ज करने वाले और दोनों (ओर के) गवाहों पर लानत भेजी“ और कहा “वे सब बराबर हैं“ (3881)।

 

यद्यपि मुहम्मद ने ब्याज लेना मना किया, तथापि उन्होंने अबू बकर को मदीना के कैनुका कबीले के पास इस पैगाम के साथ भेजा कि ”अल्लाह को अच्छे सूद पर कर्ज दो।“ वे कुरान (5/12) के उन शब्दों को दोहरा रहे थे जिनमें ”अल्लाह को समुचित कर्ज़ दो“ कहा गया है। यहूदियों ने देने से इन्कार किया तो उनके भाग्य का निबटारा हो गया।

author : ram swarup

वे सूचना मिलते ही पहुँच जाते थे

वे सूचना मिलते ही पहुँच जाते थे

आर्यसमाज की प्रथम पीढ़ी के नेताओं तथा विद्वानों में श्री पण्डित सीतारामजी शास्त्री कविरंजन रावलपिण्डी का नाम उल्लेखनीय है। आप पण्डित गुरुदज़जी विद्यार्थी के साथी-संगियों में से एक थे। अष्टाध्यायी के बड़े पण्डित थे। आपने वर्षों आर्यसमाज के उपदेशक के रूप में आर्य प्रतिनिधि सभा पञ्जाब में कार्य किया। फिर स्वतन्त्र धन्धा करने का विचार आया तो कलकज़ा चले गये। वहाँ भारत प्रसिद्ध वैद्य कविराज विजय रत्नसेन के चरणों में बैठकर कविरंजन की उपाधि प्राप्त करके पहले अमृतसर फिर रावलपिण्डी में औषधालय खोलकर बड़ा नाम कमाया।

आप वेद, शास्त्र, ब्राह्मणग्रन्थों के बड़े मर्मज्ञ विद्वान् थे। अष्टाध्यायी के बड़े प्रचारक थे। यदि कोई कहता कि अष्टाध्यायी का पढ़ना-पढ़ाना अति कठिन है तो उसकी पूरी बात सुनकर उसका

ऐसा युक्तियुक्त उज़र देते कि सुनने वाला सन्तुष्ट हो जाता था।

कविराजजी की कृपा से ही डॉज़्टर केशवदेवजी शास्त्री बन पाये। आपकी प्रेरणा से आर्यसमाज को और भी कई संस्कृतज्ञ प्राप्त हुए। आपने कलकज़ा में अध्ययन करते हुए, वहाँ भी आर्यसमाज

की धूम मचा दी। आपका वहाँ ब्राह्मसमाज के पण्डितों से तथा नेताओं से गहरा सज़्पर्क रहा।

एक समय ऐसा आया कि सारा ब्राह्मसमाज आर्यसमाज में मिलने की सोचने लगा फिर कोई विघ्न पड़ गया। ब्राह्मसमाजियों में आर्यसमाज में विलीन होने का विचार पैदा हुआ तो इसका कारण मुज़्यरूप से कविराज सीतारामजी के प्रयास थे। यह सारी कहानी हम कभी इतिहास प्रेमियों के सामने रखेंगे। सब तथ्य हमने एक लेख में पढ़े थे। वह लेख खोजकर फिर विस्तार से इस विषय पर लिखा जाएगा।

कविराज ने अपनी विद्वज़ा तथा अपनी वैद्यक से आर्यसमाज को बहुत लाभान्वित किया। उन दिनों आर्यसमाज में संस्कृतज्ञ बहुत कम थे। अमृतसर में यह देखा गया कि जब कभी किसी

संस्कार में या किसी समारोह में कविराज जी को बुलाया गया तो आप एकदम सब कार्य छोड़कर अपनी आर्थिक हानि की चिन्ता न करते हुए वहाँ पहुँच जाते। बस, उन्हें आर्यसमाज की सूचना

मिलनी चाहिए। वे शरीर से स्वस्थ थे। जीवन बड़ा नियमबद्ध था।

स्वाध्याय तथा सन्ध्या में प्रमाद करने का प्रश्न ही न था। वे मास्टर आत्माराम अमृतसरी के अभिन्न मित्र थे। वैसे शास्त्रीजी की मित्र-मण्डली बहुत बड़ी थी। उन्हें मित्र बनाने की कला आती

थी।

हदीस : अदला-बदली अमान्य

अदला-बदली अमान्य

कुछ मामलों में पैग़म्बर आधुनिक आदमी थे। उन्होंने अदला-बदली की प्रथा का निषेध किया और उसकी जगह मुद्रा-विनिमय का पक्ष लिया। ख़ैबर में राजस्व की वसूली करने वाला एक बार मुहम्मद के लिए कुछ बढ़िया खजूर लाया। मुहम्मद ने उनसे पूछा कि क्या ख़ैबर के सब खजूर इतने उम्दा क़िस्म के हैं ? अफ़्सर बोला-“नहीं, हमने दो सा (घटिया खजूर) के एवज में एक सा (बढ़िया खजूर) लिये।“ मुहम्मद ने इसे नामंजूर करते हुए जवाब दिया-“ऐसा मत करो। बेहतर है कि घटिया किस्म के खजूर को दरहमों (नगदी) में बेच दो और तब बढ़िया किस्म को दरहमों के जरिये खरीद लो“ (3870)।

author : ram swarup

आर्यसमाज का एक अद्वितीय दानी सपूत

आर्यसमाज का एक अद्वितीय दानी सपूत

आर्यसमाज ने एक शताज़्दी में बड़े विचित्र दीवानों को जन्म दिया है। इतिहास का बनाना बड़ा कठिन है और उसे सुरक्षित रखना और भी कठिन है। हमारे बड़ों ने जीवन देकर इतिहास तो

बना दिया, परन्तु हमने इतिहास को सुरक्षित नहीं रखा।

आर्यसमाज के इतिहास-लेखक सुशिक्षित व्यक्तियों, विद्वानों तथा प्रमुख नेताओं की तो चर्चा करते हैं, परन्तु ग्रामीण कृषकों, शिल्पकारों, दुकानदारों और वे भी बहुत छोटे दुकानदार जिन्होंने

प्राणपन से समाज की सेवा की, उनके उल्लेख के बिना इतिहास अधूरा तथा निष्प्राण ही रहेगा। आर्यसमाज के निर्माण में सब प्रकार के लोगों ने योगदान दिया है। इसलिए इस पुस्तक में

हमने सब क्षेत्रों के सब प्रकार के भाइयों की चर्चा करने का प्रयास किया है।

जिन लोगों ने आर्यसमाज का स्वर्णिम इतिहास बनाया है, उनमें एक थे महाशय भोलानाथ तूड़ीवाले (पशुओं का नीरा-चारा बेचनेवाले)-आप लाहौर के बच्छोवाली समाज के श्रद्धालु सदस्य

थे। सब कार्यों में आगे रहते थे। बस, सूचना मिलनी चाहिए। धन्धा बन्द करके भी पहुँच जाते थे। शिक्षा अल्प थी। सत्संगों में नियमित रूप से आते थे। किसी भी शुभ कार्य के लिए जब दान माँगा जाता तो रसीद खुलते ही आप सबसे पहले अपना दान दिया करते थे। उत्सव पर भोजन की व्यवस्था भी आप ही करते थे। सैकड़ों व्यक्ति बच्छोवाली का उत्सव देखने के लिए प्रान्त और प्रान्त के बाहर से भी आ जाते। सबको भोजन करवाया जाता था। उत्सव अब नगर पालिका के लंगे मैदान में रखा जाने लगा। एक बार महाशय भोलानाथजी ने दान लिखवाया कि अब भोजन का कुछ व्यय वे देंगे। फिर वे प्रति वर्ष भोजन का व्यय देने लगे। भोजन पर 258।

बहुत व्यय आने लगा। आर्यसमाजवालों ने कहा कि यह भार बँटना चाहिए, परन्तु भोलानाथ न माने।

एक बार चौधरी रामभजदज़जी ने वेदी पर यह घोषणा की कि इस समय भोजन के लिए ऋषि लंगर में पाँच सहस्र अतिथि पहुँच चुके हैं। भोलानाथजी से बहुत कहा गया, परन्तु इस नरकेसरी ने हिज़्मत नहीं हारी। वे कहते हैं सारा व्यय मैं ही दूँगा। उस ऋषि भक्त ने तब भी पूरा भोजन व्यय दिया। पाठकवृन्द! इस प्रकार का दानी तथा बलिदानी मिलना यदि असज़्भव नहीं तो कठिन अवश्य है।

हदीस : अनुचित कमाई

अनुचित कमाई

मुहम्मद ने ”कुत्तों की कीमत लेना, वेश्या की कमाई खाना और काहीन (सगुनिया) को दी गयी मिठाइयाँ स्वीकार करना भी हराम ठहराया है“ (3803)। उन्होंने कहा कि ”सबसे बुरी कमाई है वेश्या की कमाई, कुत्ते की कीमत और सींगी लगाने वाले की कमाई“ (3805)।

 

मुहम्मद को कुत्ते सख़्त नापसन्द थे। उन्होंने कहा-”इस काले स्याह (कुत्ते) को जिसके दो धब्बे (आंखों पर) है, मारना तुम्हारा फ़र्ज है। क्योंकि यह एक शैतान है“ (3813)। उमर का बेटा अब्दुल्ला हमें बतलाता है कि पैग़म्बर ने ”कुत्तों को मारने का हुक्म दिया और उन्होंने मदीना के कोने-कोने में लोगों को भेजा कि वे (कुत्ते) मारे जाएं …… और हमने ऐसा कोई कुत्ता नहीं छोड़ा जिसे मार न डाला गया हो“ (3810-3811)। बाद में फरियाद सुन कर, उन्होंने शिकारी कुत्तों और पशुओं के झुंड की रखवाली करने वाले कुत्तों को बख़्श दिया। इन कुत्तों के अलावा अगर कोई कुत्ता रखता था तो वह “अपने इनाम (परलोक में मिलने वाले पुण्यकाल) का दो किरात (एक माप का नाम) हर रोज़ खो देता था“ (3823)।

 

मुहम्मद ने शराब, मुर्दे, सूअर और बुतों का बेचना भी हराम ठहराया। ”अल्ला जो उच्च है और महामहिम है, यहूदियों को बर्बाद करे। अल्लाह ने जब उन्हें मुर्दे की चर्बी का इस्तेमाल मना किया (देखिए लेवाइटीकस, 3/17) तो उन्होंने उसे पिघलाया और तब बेचा और उसकी क़ीमत काम में ली“ (3830)।

author : ram swarup

 

एक और दीवाना संन्यासी

एक और दीवाना संन्यासी

आर्यसमाज में आत्मानन्द नाम के कई संन्यासी हुए हैं। एक आत्मानन्द तो पौराणिकों में लौट गये थे। यह बीसवीं शती के आरज़्भ या उन्नीसवीं शती के अन्त की घटना है, परन्तु एक स्वामी आत्मानन्दजी जो ऋषि के साथ भी रहे। वे ऋषिजी के साथ यात्रा में आवास तथा भोजन की व्यवस्था किया करते थे।

वे संस्कृत व हिन्दी ही जानते थे। पुराणों के प्रकाण्ड विद्वान् थे। व्याज़्यानों में पुराणों की कथाएँ सुनाकर बहुत हँसाते थे। ये शास्त्रार्थ ज़ी करते थे। ये प्रतिक्षण शास्त्रार्थ के लिए तैयार रहते थे।

इन्होंने देश के सब अहिन्दी भाषी प्रदेशों में भी प्रचार किया। कई आर्यसमाज बनाये। ब्रह्मा भी प्रचारार्थ गये। लंका की भाषा का ज्ञान नहीं था, तथापि वहाँ भी प्रचारार्थ पहुँच गये और बड़े-बड़े

लोगों से वहाँ सज़्पर्क कर पाये। अपनी बात कही। विशेषता यह कि वहाँ बिना किसी सभा के सहयोग के पहुँच गये।

आपने देश के सब भागों में वैदिक धर्म प्रचार के लिए यात्राएँ कीं। कोई बुलाये या न बुलाये, वे स्वयं ही घूमते-घूमते प्रचार करते हुए कहीं भी पहुँच जाते। कमालिया पंजाब भी गये। वह नगर

आर्यसमाज का गढ़ बन गया। वहाँ आर्यसमाज का गुरुकुल भी था। इसी गुरुकुल से हीरो साईकल के संचालकों के बड़े भ्राता दिवंगत दयानन्दजी जैसे ऋषिभक्त निकले।

यात्रा करते-करते ऊबते न थे, न थकते थे। एक बार सिरसा हरियाणा में गये। तब पोंगापंथी आर्यसमाज के नाम से ही चिढ़ते थे। आर्यसमाज वहाँ था ही नहीं। आर्यसमाज का नाम सुनते ही

विरोधियों ने शोर मचा दिया। स्वामीजी को रहने को भी स्थान न मिला, भोजन तो किसी ने

देना ही ज़्या था। हिन्दुओं ने सोमनाथ का मन्दिर तोड़नेवाले लुटेरों के भाइयों की तो उसी मन्दिर के समीप मजिस्द बनवा दी। यह आत्मघाती हिन्दू सब-कुछ सहन कर सकता है-इससे सहन नहीं होता तो आर्यसमाज का प्रचार सहन नहीं हो सकता।

सूखे चने चबाकर आर्य संन्यासी सिरसा में डट गया। वहाँ एक प्रसिद्ध सेठ का सदाव्रत जारी रहता था। उस सदाव्रत से भी वेदज्ञ आर्यसंन्यासी को भोजन न दिया गया। साधु के पग

डगमगाये नहीं, लड़खड़ाये नहीं, श्रीमहाराज घबराये नहीं। वहीं अपने कार्य में जुटे रहे। पाखण्डखण्डिनी ओ3म् पताका फहराकर दण्डी स्वामी आत्मानन्द वेद की निर्मल गङ्गा का ज्ञान-अमृत पिलाने लगे।

यह उन्हीं की साधना का फल है कि आगे चलकर सिरसा आर्यसमाज का एक गढ़ बन गया। पण्डित मनसारामजी वैदिक तोप, स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज-जैसों ने सिरसा को अपनी

कर्मभूमि बनाया। स्वामी श्री बेधड़कजी महाराज-जैसे अद्वितीय तपस्वी दलित वर्ग में जन्मे थे। उस पूज्य ऋषिभक्त बेधड़क स्वामी की कर्मभूमि भी सिरसा रहा है।

आर्य मिशनरी पूज्य महाशय कालेखाँ साहब जो बाद में महाशय कृष्ण आर्य के नाम से इसी क्षेत्र में कार्य करते रहे। वे सिरसा के पास ही जन्मे थे और सिरसा समाज की ही देन थे। महाशय काले खाँ जी लौहपुरुष स्वामी स्वतन्त्रतानन्दजी महाराज के प्रियतम शिष्यों में से एक थे।

यह सब स्वामी आत्मानन्दजी की साधना का फल था। अन्तिम दिनों में यह संन्यासी अजमेर में रहने लगे। अपना सब-कुछ समाज की भेंट कर दिया। उनकी अन्तिम इच्छा यही थी कि उनका

शरीर अजमेर में छूटे और उनका दाह-कर्म भी वहीं किया जाए जहाँ ऋषिजी का अन्तिम संस्कार किया गया था। स्वामीजी का निधन 23 जुलाई 1908 ई0 को कानपुर में हुआ। उनका दाहकर्म संस्कार वहीं गंगा तट पर कानपुर में किया गया।1 आर्यसमाज अजमेर उनका उज़राधिकारी था। उनकी स्मृति में आर्यसमाज अजमेर ने कोई स्मारक न बनाया।