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हदीस : क़सामाह
क़सामाह
चौदहवीं किताब ”क़समों की किताब“ (अल-क़सामाह) है। क़सामाह का शब्दशः अर्थ है ”क़सम खाना।“ लेकिन शरीयाह की पदावली में इसका अर्थ है एक विशेष प्रकार की तथा विशेष परिस्थितियों में ली जाने वाली कसम। उदाहरण के लिए, कोई आदमी कहीं मार डाला गया पाया जाता है और उसको कत्ल करने वाले का पता नहीं चलता। ऐसी स्थिति में जिस जगह वह मृत व्यक्ति पाया जाता है उसके पास के क्षेत्र से पचास व्यक्ति बुलाये जाते हैं और उन्हें क़सम खानी पड़ती है कि उन्होंने उस आदमी को नहीं मारा और न ही वे उसके मारने वाले को जानते हैं। इस क़सम से उन लोगों को निर्दोषिता साबित हो जाती है।1
लगता है कि इस्लाम-पूर्व अरब में यह प्रथा प्रचलित थी और मुहम्मद ने इसे अपना लिया। एक बार एक मुसलमान मरा पाया गया। उसके रिश्तेदारों ने पड़ोस के यहूदियों पर अभियोग लगाया। मुहम्मद ने रिश्तेदारों से कहा-”तुम में से पचास लोग क़सम खाकर उनमें से किसी व्यक्ति पर हत्या का अभियोग लगाओ तो वह व्यक्ति तुम्हारे सामने पेश कर दिया जायेगा।“ उन्होंने कसम खाने से इन्कार कर दिया, क्योंकि वे हत्या के गवाह नहीं थे। तब मुहम्मद ने उनसे कहा-“यदि पचास यहूदी कसम खा लें तो वे निर्दोष मान लिये जाएंगे।“ इस पर मुसलमानों ने कहा-”अल्लाह के पैगम्बर ! हम गैर-मोमिनों की क़सम को कैसे स्वीकार कर सकते हैं ?“ इस पर मुहम्मद ने उस मारे गये व्यक्ति के एवज में सौ ऊंट रक्तपात-शोध के रूप में अपने निजी ख़जाने से दे दिए (4119-4125)।
- यह विधान (बाइबल के ओल्ड टेस्टामेंट पर आधारित है। मूसा के कानून की यह व्यवस्था है कि जब कोई व्यक्ति किसी खुली जगह में मार डाला गया पाया जाये और हत्यारे की पहचान न हो सके, तब उस जगह के सबसे पास के कस्बे के प्रमुख लोग एक किशोर बछड़े को पास के किसी बहते हुए सोते पर ले जाते हैं, वहां उसकी गर्दन मार देते हैं और फिर उसके ऊपर अपने हाथ धोकर घोषित करते हैं-“हमने यह रक्तपात नहीं किया, न ही हमारी आंखों ने रक्तपात होते देखा।“ (डयूटरोनाॅसी 21/1/9)।
एक दूसरी हदीस हमें स्पष्टतः बतलाती है कि अल्लाह के पैगम्बर ने ”कसामा की प्रथा की इस्लाम-पूर्व के दिनों की तरह कायम रखा“ (4127)।
author : ram swarup
टाँगा किस लिए लाये?
टाँगा किस लिए लाये?
आर्यसमाज नयाबाँस, दिल्ली-6 की आधारशिला पूज्य भाई परमानन्दजी ने रखी। भाईजी के प्रति इस समाज के सदस्यों को बहुत श्रद्धा थी। एक बार इसी समाज के किसी कार्यक्रम पर देवतास्वरूप भाई परमानन्दजी आमन्त्रित थे। श्री पन्नालाल आर्य उन्हें स्टेशन पर लेने के लिए गये। नयाबाँस का समाज-मन्दिर स्टेशन के समीप ही तो है।
श्री पन्नालाल जी भाईजी के लिए टाँगा ले-आये। टाँगेवाले उन दिनों एक सवार का एक आना (आज के छह पैसे) लिया करते थे। आर्यसमाज की आर्थिक स्थिति से भाईजी परिचित ही थे।
भाईजी को जब टाँगे पर बैठने के लिए कहा गया तो आप बोले, ‘‘पन्नालाल! टाँगा ज़्यों कर लिया? पास ही तो समाज-मन्दिर है।
आर्यसमाजों में धन कहाँ है? कितने कार्य समाज ने हाथ में ले-रखे हैं!’’ गुरुकुल, पाठशाला, गोशाला व अनाथालय, शुद्धि और पीड़ितों की सहायता………न जाने किन-किन कार्यों के लिए आर्यसमाजों को धन जुटाना पड़ता है।
श्री पन्नालालजी ने उज़र में कुछ कहा, परन्तु भाईजी का यही कहना था कि यूँ ही समाज के धन का अपव्यय नहीं होना चाहिए। मैं तो पैदल ही पहुँच जाता। ऐसा सोचते थे आर्यसमाज के निर्माता। आज अनेक अन- आर्यसमाजी लोग, आर्यसमाजों में घुसकर समाज की धन-सज़्पज़ि
को हड़पने में जुटे हैं। सारे देश का सामाजिक जीवन दूषित हो चुका है। आर्य लोग अपनी मर्यादाओं को न भूलें तो मानवजाति व देश का बड़ा हित होगा।
यह घटना श्री पन्नालालजी ने स्वयं सन् 1975 में मुझे सुनाई थी। भाईजी की सहारनपुर की भी एक ऐसी ही घटना सुनाई। तब भाईजी केन्द्रीय विधानसभा (संसद्) के सदस्य थे। वहाँ भी
पन्नालालजी आर्य टाँगा लेकर आये। भाईजी ने टाँगा देखते ही कहा-‘‘पन्नालाल! मेरी दिल्ली में कही हुई बात भूल गये ज़्या?’’
हदीस : अपराध और दंड विधान (क़सामाह, किसास, हदूद)
. अपराध और दंड विधान (क़सामाह, किसास, हदूद)
चौदहवीं, पन्द्रहवीं और सोलहवीं किताबें अपराध के विषय में हैं। अपराधों के प्रकार और उनकी कोटियां, उनकी छानबीन की प्रक्रिया और अपराध करने पर दिये जाने वाले दंडों की व्यवस्था इनमें वर्णित है।
मुस्लिम फिक़ह (क़ानून) दंड को तीन शीर्षकों में बांटता है-हद्द, क़िसास और ताज़ीर। हद्द (बहुवचन हदूद) में उन अपराधों के दंड शामिल हैं, जो कुरान और हदीस में निर्णीत और निरूपित किये गये हैं। ये दण्ड है-पथराव करके मारना (रज्म) जो कि परस्त्रीगमन (ज़िना) के लिए दिया जाता है: कुमारी-गमन के लिए एक-सौ कोड़े (क़ुरान 24/2-5); किसी “इज्जतदार“ स्त्री (हुसुन) के खि़लाफ मिथ्यापवाद अर्थात् उस पर व्यभिचार का आरोप लगाने पर 80 कोड़े, इस्लाम छोड़ने (इर्तिदाद) पर मौत; शराब पीने (शुर्ब) पर 80 कोड़े; चोरी करने पर दाहिना हाथ काट डालना (सरीक़ा, क़ुरान 9/38-39); बटमारी-डकैती करने पर हाथ और पांव काट डालना; और डकैती के साथ हत्या करने पर तलवार से वध अथवा सूली।
(इस्लामी) कानून क़िसास अर्थात् प्रतिरोध की अनुमति देता हैं। इस की अनुमति सिर्फ उन मामलों में है, जहां किसी ने जान-बूझकर और अन्यायपूर्वक किसी को घायल किया हो, किसी का अंग-भंग किया हो अथवा उनकी हत्या की हो। और इसकी इज़ाज़त सिर्फ उसी अवस्था में है जब अपराधी और पीड़ित व्यक्ति की हैसियत एक-समान हो। गुलाम और काफ़िर हैसियत की दृष्टि से, मुसलमानों की तुलना में हेय हैं। इसलिए अधिकांश मुस्लिम फक़ीहों (न्यायविदों) के अनुसार वे लोग क़िसास के अधिकारी नहीं हैं।
हत्या के मामलों में प्रतिरोध का हक़, मारे जाने वाले के वारिस को मिलता है। लेकिन वह वारिस इस हक़ को छोड़ सकता है और उसके बदले में रक्तपात-शोध (दियाह) स्वीकार कर सकता है। स्त्री की हत्या होने पर सिर्फ़ आधा दियाह ही देय होता है। यहूदी और ईसाई के मामले में भी आधा ही दियाह देय होता है। किन्तु कानून के एक सम्प्रदाय के अनुसार ईसाइयों और यहूदियों के मामले में सिर्फ़ एक तिहाई दियाह देने की इज़ाज़त है। अगर कोई गुलाम मार डाला जाता है, तो क़िसास और हरजाने का हक़ उसके वारिसों को नहीं मिलता। गुलाम को सम्पत्ति का एक प्रकार माना गया है, इसलिए गुलाम के मालिक को उसकी पूरी क़ीमत हरजाने के तौर पर दी जानी चाहिए।
अपराध और दंड के विषय में मुस्लिम कानून बहुत जटिल है। यद्यपि कुरान में एक सामान्य रूपरेखा मिलती है, दंड-विधान का मूर्त रूप हदीस में ही प्रकट होता है।
author : ram swarup
एक शास्त्रार्थ
एक शास्त्रार्थ
हरियाणा के लोककवि पण्डित बस्तीराम ने ऋषि के दर्शन किये और जीवनभर वैदिक धर्म का प्रचार किया। शास्त्रार्थ की भी अच्छी सूझ थी। एक बार पौराणिकों से पाषाण-पूजा पर उनका शास्त्रार्थ हुआ। पौराणिक पण्डित से जब और कुछ न बन पड़ा तो अपनी परज़्परागत कुटिल, कुचाल चलकर बोला-‘‘आपका ओ3म् किस धातु से बना है?’’
पण्डितजी व्याकरण के चक्र में पड़कर विषय से दूर जाना चाहते थे। पण्डित बस्तीरामजी सूझवाले थे। श्रोताओं को सज़्बोधित करके बोले, ‘‘ग्रामीण भाई-बहिनो! देखो, कैसा विचित्र प्रश्न यह मूर्ज़िपूजक पण्डित पूछ रहा है कि तुज़्हारा ओ3म् किस धातु से बना है। अरे! सारा संसार जाने कि हम प्रतिमा-पूजन नहीं मानते। इसी विषय पर तो शास्त्रार्थ हो रहा है। अरे पण्डितजी! हमारा ‘ओ3म्’ तो निराकार है, सर्वव्यापक है। वह न पत्थर से बना, न तांबे से, न पीतल से और न चाँदी-सोने से। तुज़्हारा गणेश किसी भी धातु से बना हो, भले ही मिट्टी का गणेश बना लो। हमारा ओ3म् तो सब जानें किसी भी धातु से नहीं बना।’’ सब ग्रामीण श्रोता पण्डित
बस्तीराम व वैदिक धर्म का जय-जयकार करने लगे। पौराणिक पण्डित भी बड़ा चकराया कि ज़्या उज़र दे वह आप ही अपने जाल में ऐसा फँसा कि निकलने का समय ही न मिला।
हदीस : ”इंशा अल्लाह“ की शर्त
”इंशा अल्लाह“ की शर्त
अगर कोई क़सम लेते वक्त ”अल्लाह ने चाहा तो“ (इंशाअल्लाह) कह देता है तो वह प्रतिज्ञा अवश्य पूरी करनी चाहिए। सुलेमान के 60 बीवियां थीं। एक दिन उसने कहा-“मैं निश्चित ही इनमें से हरेक के साथ रात में मैथुन करूँगा और उनमें से हरेक एक मर्द बच्चे को जन्म देगी जो घुड़सवार बनेगा और अल्लाह के काम के लिए लड़ेगा।“ लेकिन उनमें से सिर्फ एक गर्भवती हुई और उसने भी एक अधूरे बच्चे को जन्म दिया। मुहम्मद ने कहा-“अगर उसने इंशा अल्लाह कहा होता, तो वह असफल नहीं होता।“ कई-एक अन्य हदीस भी ऐसा ही किस्सा बयान करती है। उनमें बीवियों की संख्या 60 से बढ़ कर 70 और फिर 90 हो जाती है (4066-4070)।
author : ram swarup
इन्हें सोने दें
इन्हें सोने दें
आर्यसमाज धारूर महाराष्ट्र का उत्सव था। श्री पण्डित नरेन्द्रजी हैदराबाद से पधारे। रात्रि में सब विद्वान् आर्यसमाज के प्रधान पण्डित आर्यभानुजी के विशाल आंगन में सो गये। इनमें से एक
अतिथि ऐसा था जिसे रात्रि को अधिक ठण्डी अनुभव होती थी, परन्तु संकोचवश ऊपर के लिए मोटा कपड़ा न माँगा।
प्रातःकाल सब लोग बाहर शौच के लिए चलने लगे तो उस अतिथि का नाम लेकर एक ने दूसरे से कहा-इन्हें भी जगा लो सब इकट्ठे चलें। इसपर पण्डित नरेन्द्रजी ने कहा-ऊँचा मत बोलो,
जाग जाएँगे। जगाओ मत, सोने दो। इन्हें रात को बड़ी ठण्डी लगी। सिकुड़े पड़े थे। मैंने ऊपर शाल ओढ़ा दिया। ये शज़्द सुनकर वह सोया हुआ व्यक्ति जाग गया। वह व्यक्ति इन्हीं पंक्तियों का लेखक था। पण्डित नरेन्द्रजी रात्रि में कहीं लघुशङ्का के लिए उठे। मुझे सिकुड़े हुए देखकर ऊपर शाल डाल दिया। इस प्रकार रात्रि के पिछले समय में अच्छी निद्रा आ गई, परन्तु सोये हुए
यह पता न लगा कि किसने ऊपर शाल डाल दिया है।
पण्डित नरेन्द्रजी ने आर्यसमाज लातूर के उत्सव पर भी एक बार मेरे ऊपर रात्रि में उठकर कपड़ा डाला था, जिसका पता प्रातः जागने पर ही लगा। ऐसी थी वे विभूतियाँ जिनके कारण आर्यसमाज
चमका, फूला और फला। इन्हें दूसरों का कितना ध्यान था!
हदीस : क़सम तोड़ना
क़सम तोड़ना
जरूरत पड़ने पर खुद अल्लाह ने क़सम तोड़ देने की इज़ाज़त दी है। ”अल्लाह ने पहले ही अपनी कसमें तोड़ देने की तुम्हें इजाज़त दे रखी है“ (कुरान 66/2)।
ऐसी प्रतिज्ञा को जिसमें अल्लाह की नाफ़रमानी हो या जो ग़ैर-इस्लामी काम के लिए ली गयी हो, पूरा करना जरूरी नहीं है। मुस्लिम कानून के पंडितों में इस बात को लेकर मतभेद है कि जो प्रतिज्ञा अज्ञान की दशा में (अर्थात् इस्लाम क़बूल करने के पहले) की गई हो वह शिक्षा बाध्यकारी है या नहीं। कई-एक का मत है कि अगर वह प्रतिज्ञा इस्लाम की शिक्षा के खिलाफ न हो, तो उसे पूरा करना चाहिए।
कोई भी कसम तोड़ी जा सकती है, विशेषकर तब जब कि क़सम खाने वाला कोई बेहतर काम करना चाहता हो। मुहम्मद कहते हैं-”किसी ने कसम ली, पर उससे कुछ बेहतर करने को पा गया तो उसे वह बेहतर काम करना चाहिए“(4057)। कुछ लोगों ने एक बार मुहम्मद से सवारी पाने की मांग की। मुहम्मद ने कसम खायी-”क़सम अल्लाह की ! मैं तुम लोगों को सवारी नहीं दे सकता।“पर लोगों के चले जाने के फौरन बाद उन्होंने उन लोगों को वापस बुलाया और उनसे सवारी के लिए ऊंट देने का प्रस्ताव किया। मुहम्मद ने समझाया-”जहां तक मेरा सम्बन्ध है, अल्लाह की कसम ! अगर अल्लाह चाहे तो मैं कसम नहीं खाऊंगा। पर अगर बाद में मैं कोई बात बेहतर समझूंगा, तो मैं ली हुई कसम तोड़ दूंगा और उसका प्रायश्चित करूँगा और जो बेहतर है वह करूँगा (4044)।
author : ram swarup
आर्यों की देवी व देवता
आर्यों की देवी व देवता
स्वामी वेदानन्दजी तीर्थ जब खेड़ाखुर्द (दिल्ली) का गुरुकुल चलाते थे तो सहदेव नाम का एक गठीला, परन्तु जड़बुद्धि युवक उनके पास रहता था। ब्रह्मचारी में कई गुण भी थे। ब्रह्मचारी में
गुरुभक्ति का भाव तब बहुत था और व्यायाम की सनक थी। गुरुकुल के पास एक धनिक कुज़्भकार रहता था। उसे स्वामी वेदानन्दजी से बड़ी चिढ़ थी। चिढ़ का कारण यह था कि वह
समझता था कि आर्यसमाजी देवी-देवताओं को नहीं मानते। स्वामीजी चाहते थे कि इस व्यक्ति को आर्यसमाजी बनाया जाए, यह बड़ा उपयोगी सिद्ध होगा। जब ब्रह्मचारी शिक्षा के लिए निकलते तो यह कभी भी किसी को कुछ भी भिक्षा के लिए न देता। उसका एक ही रोष था कि आर्य लोग देवी-देवताओं को नहीं मानते। स्वामी वेदानन्दजी उसे बताते कि माता, पिता, गुरु आचार्य, अतिथि आदि देव हैं, परन्तु ये बातें उसकी समझ में न आतीं।
एक दिन ब्र0 सहदेव भिक्षा के लिए निकला। उसी धनिक कुज़्भकार के यहाँ गया। उसने अपना प्रश्न दोहरा कर भिक्षा देने से इन्कार कर दिया। ब्रह्मचारी ने कहा-‘‘आर्य लोग भी देवी-देवताओं
को मानते हैं।’’ उसने कहा, स्वामी दयानन्दजी का लिखा दिखाओ। ब्रह्मचारी जी ने वैदिक सन्ध्या आगे करते हुए कहा, यह पढ़ो ज़्या लिखा है?
‘ओ3म् शन्नो देवी’ दिखाकर ब्र0 ने कहा देख ‘देवी’ शज़्द यहाँ है कि नहीं। फिर उसने संस्कार-विधि से देवयज्ञ दिखाया तो वहाँ ‘विश्वानि देव’ पढ़कर वह धनिक दङ्ग रह गया। उसने कहा-
‘‘मुझे तो आज ही पता चला कि आर्यसमाज ‘शन्नो देवी’ तथा ‘विश्वानि देव’ को मानता है, परन्तु स्वामी वेदानन्दजी ने मुझे ज़्यों नहीं बतलाया?’’
इस घटना के पश्चात् वह व्यक्ति दृढ़ आर्य बन गया। स्वामीजी का श्रद्धालु तथा गुरुकुल का सहायक बन गया।1
यही ब्रह्मचारी फिर स्वामी अग्निदेवभीष्म के नाम से जाना जाता था।
हदीस : प्रतिज्ञाएं और क़समें
प्रतिज्ञाएं और क़समें
बारहवीं और तेरहवीं किताबें क्रमशः प्रतिज्ञाओं (अल-नज़र) और क़समों (अल-ऐलान) पर है। यहां हम दोनों का साथ-साथ विचार करेंगे। मुहम्मद प्रतिज्ञाएं करने को नापसन्द करते हैं, क्योंकि प्रतिज्ञा “न तो (किसी काम को) जल्दी पूरा करने करने में मददगार होती और न ही (इसमें) रुकावट बनती है“ (4020)। अल्लाह को किसी आदमी की प्रतिज्ञाओं की जरूरत नहीं। एक शख़्स ने एक बाद प्रतिज्ञा की कि वह पैदल चल कर काबा जायेगा। तब मुहम्मद ने कहा-”अल्लाह इसके प्रति उदासीन है कि कोई अपने ऊपर कष्ट लाद रहा है।“ और ”उसे सवारी पर जाने का हुक्म दिया“ (4029)।
मुहम्मद मोमिनों को लात या उज्जा या अपने पिताओं की क़सम खाने से भी मना करते हैं। वे कहते हैं-”बुतों की क़सम मत खाओ और न अपने पिता की“ (4043)। लेकिन वे अल्लाह की क़सम खाने की अनुमति देते हैं, जिसके लिए ईसामसीह ने मना किया था। मुहम्मद कहते हैं कि ”जिसे क़सम खानी हो उसे अल्लाह की क़सम खानी चाहिए“ (4038)।
author : ram swarup