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सच्ची रामायण का खंडन भाग-२०

सच्ची रामायण का खंडन भाग-२०
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*- कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों! पिछले लेख में हमने *भगवान श्रीराम* पर किये ६ आक्षेपों का खंडन किया।अब आगे के आक्षेपों में पेरियार  साहब के आक्षेपों का स्पष्टीकरण और शब्द प्रमाण ललई सिंह यादव ने *”सच्ची रामायण की चाबी”*में दिया है।हम दोनों को साथ में उद्धृत करके उनकी आलोचना कर रहे हैं।पाठकगण हमारी समीक्षा पढ़कर आनंद उठायें।आगे-
*आक्षेप-७-* उसने शोक प्रकट करते हुए अपनी माता से कहा था कि ऐसा प्रबंध किया गया है  कि मुझे राज्य से हाथ धोना पडेंगा ।राजवंशीय भोग विलास एवं स्वादिष्ट मांस की थालियां छोड़कर मुझे वन में जाना होगा। मुझे वनवास जाना होगा और वन के कंद मूल खाने पड़ेंगे। (अयोध्या कांड अध्याय  २०)
*आक्षेप-८-* राम ने भारी हृदय से अपनी माता व स्त्री से कहा था कि जो गद्दी मुझे मिलनी चाहिए थी वह मेरे हाथों से निकल गई और मेरे वनवास के जाने के लिए प्रबंध किया गया है।(अयोध्याकांड २०,२६,१४)
*आक्षेप-९-* राम ने लक्ष्मण के पास जाकर पिता दशरथ को दोषी तथा दंडनीय बताते हुए कहा -“क्या कोई ऐसा भी मूर्ख होगा जो अपने उस पुत्र को वनवास दे जो सब है उस की आज्ञाओं का पालन करता रहा?”(अयोध्याकांड अध्याय ५३)
इसका स्पष्टीकरण देते हुये ललई सिंह ने वाल्मीकीय रामायण सर्ग २०/२८,२९ का प्रमाण देकर लिखा है कि श्रीराम ने अपनी माता से कहा कि -” मैं तो दंडकारण्य जाने को तैयार हूं फिर इस आसन से क्या सरोकार अब तो मेरे लिए बिस्तर मुनियों वाले आसन का समय उपस्थित हुआ है अब मैं सभी सांसारिक लोगों का त्याग करके 14 वर्ष तक कंदमूल खाते हुए मुनियों के साथ रह कर मुनियों के साथ जीवन बिताऊंगा।”
स्पष्टीकर :- सांसारिक भोग का अर्थ है राजवंशीय भोग विलास और स्वादिष्ट मांस की थालियां।
*समीक्षा-*
१:- पेरियार साहब लोगों और तथ्यों को तोड़ मरोड़ का आक्षेप लगाने की कला में निपुण हैं। कृपया बताइए श्री राम ने शोक प्रकट करते हुए कहा यह कौन से शब्दों का अर्थ है रामायण में तो शोक प्रकट करना लिखा ही नहीं है अपितु रामायण में तो लिखा है कि राज्य अभिषेक की घोषणा के समय एवं वनवास जाते समय श्री राम के मुख्य मंडल पर कोई विकार नहीं आया हम पिछले आक्षेप ६ के उत्तर में यह प्रमाण दे चुके हैं (अयोध्याकांड १९/३२,३३)।
ललई सिंह की भी परीक्षा कर लेते हैं:-
देखिये,अयोध्याकांड सर्ग २०
देवि नूनं न जानीषे महद् भयमुपस्थितम् ।
इदं तव च दुःखाय वैदेह्या लक्ष्मणस्य च ॥ २७ ॥
श्रीराम ने देनी कौसल्या से कहा- ‘देवि ! निश्चितही तुमको पता नहीं कि तुमको महान भय उपस्थित हुआ है।इस समय मैं जो बात बताने वाला हूं वह सुनकर तुमको, सीताकोऔर लक्ष्मणको भी दुःख होगा, तथापि मैं बताऊंगा॥२७॥
गमिष्ये दण्डकारण्यं किमनेनासनेन मे ।
विष्टरासनयोग्यो हि कालोऽयं मामुपस्थितः ॥ २८ ॥
अब तो मैं दण्डकारण्य को जाऊंगा, इसलिये ऐसे बहुमूल्य आसनों की मुझे क्या आवश्यकता है ? अब मेरे लिये  कुश की चटाई पर बैठने का समय आया है ॥२८॥
चतुर्दश हि वर्षाणि वत्स्यामि विजने वने ।
कन्दमूलफलैर्जीवन् हित्वा मुनिवदामिषम् ॥ २९ ॥
मैं राजभोग्य वस्तुओं का त्याग करके मुनियों के समान कंद, मूल और फलों से जीवन-निर्वाह करते हुये चौदह वर्षों तक निर्जन वनमें निवास करूंगा ॥२९॥
भरताय महाराजो यौवराज्यं प्रयच्छति ।
मां पुनर्दण्डकारण्यं विवासयति तापसम् ॥ ३० ॥
महाराज युवराज पद भरतको दे रहे हैं और मुझे तपस्वी बनाकर दण्डकारण्य जाने की आज्ञा दी है॥३०॥
कहिये महाशय! श्लोक २९ में तो केवल इतना लिखा है कि श्री राम ने देवी कौशल्या को वनवास जाने का समाचार दिया यहां कहीं भी नहीं लिखा कि श्रीराम ने शोक प्रकट किया। हां, श्रीराम ने यह अवश्य कहा कि यह बात सुनकर कौशल्या लक्ष्मण और सीता को दुख अवश्य होगा।
श्लोक २९  में श्री राम कहते हैं कि राजवंशीय भोग त्याग कर मुझे ऋषि मुनियों की तरह कंद मूल और फल खाने होंगे। यहां  पर स्वादिष्ट मांस की थालियां यह अर्थ कहां से उठा लाए?शायद कुंभकर्ण को उठाने के लिये राक्षसों ने लाये होंगे-उसके धोखे में श्रीराम पर आरोप लिख दिया। प्रतीत होता है कि “आमिष” से शब्द से आपको भ्रम हुआ होगा। आपने मान रखा है कि आमिष का अर्थ हर जगह मांस ही होगा परंतु यह सत्य नहीं है आमिष का अर्थ राजसी भोग भी होता है। और यहां पर आम इसका यही अर्थ रहना समीचीन है। देखिये,इसी सर्ग में कौसल्या देवी श्रीराम को लड्डू,खीर आदि देती हैं,देखो-
देवकार्यनिमित्तं च तत्रापश्यत् समुद्यतम् ।
दध्यक्षतघृतं चैव मोदकान् हविषस्तथा ॥ १७ ॥
लाजान् माल्यानि शुक्लानि पायसं कृसरं तथा ।
समिधः पूर्णकुम्भांश्च ददर्श रघुनन्दनः ॥ १८ ॥
रघुनंदन ने देखा कि वहां देवकार्यके लिये(अग्निहोत्र) बहुत सी सामग्री संग्रह करके रखी हुई थी।दही, अक्षत, घी, मोदक, हविष्य, धान्य की लाही, (शुभ्र) सफेद माला, खीर, खिचडी, समिधा और भरे हुयेकलश – ये सब वहां दृष्टिगोचर हुये ॥१७-१८॥
श्रीराम ने इनको ही “आमिष” खाने से मना किया और कहा कि मैं इनको नहीं खा सकता;अब तो केवल मैं कंद-मूल-फल का ही सेवन कर सकता हूं।अब प्रश्न है कि वहां तो मांस था ही नहीं तो श्रीराम आमिष किसे कह रहे हैं?देखिये,आमिष शब्द के कई अर्थ हैं जिसमे एक अर्थ है– राजभोग ! देखिये— मेदिनी कोष – आकर्षणेपि पुन्सि स्यादामिषं पुन्नपुन्सकम् ! भोग्य वस्तुनि संभोगेप्युत्कोचे पललेपि च !! —यहा भोग्यवस्तु भी आमिष शब्द का अर्थ बतलायी गयी है और वह भोग्य वस्तु है– खीर तथा लड्डू आदि !उसे ही श्रीरामने आमिष कहकर नहीं खाया।अतः सिद्ध है कि श्रीराम मांसाहार न तो पहले करते थे न बाद में।दरअसल उस समय आर्य मांसाहार करते ही न थे।
यह वचन भी उन्होंने शमभाव में कहा है शोक में नहीं। इससे सिद्ध है कि श्री राम पर मांस भक्षण, शोक करने ,भारी हृदय से राज्य छिनने की बात कहनेके आरोप मिथ्या हैं शोक तो अयोध्यावासी, भरत, कौसल्या, दशरथ ,लक्ष्मण, सीता आदि ने व्यक्त किया था श्रीराम तो संभव में स्थित थे।स्पष्टीकरण मैं ललई सिंह ने स्वादिष्ट मांस की खा लिया जो लिखा है वह पूर्णतः गलत है।
ललई सिंह ने जो उत्तरकांड ४२/१७-२२का प्रमाण देकर श्रीराम का मद्यपान,अप्सराओं नृत्य आदि लिखा है,वो उत्तरकांड के प्रक्षिप्त होने से अप्रामाणिक है। अयोध्याकांड २६/२१-२३ में श्रीराम का मां सीता को वनवास की सूचना देना लिखा है।आपके दिये उद्धरण में आक्षेप लायक कुछ नहीं है।यहां श्रीराम कोई शोक नहीं कर रहे,केवल सूचना दे रहे हैं।हां,आपने अयोध्याकांड सर्ग ५३/१०उद्धृत किया है कि,”हे लक्ष्मण! संसार में ऐसा कौन अपढ़(मूर्ख)मनुष्य भी भला कौन होगा -जो अपनी स्त्री के लिये मेरे जैसे आज्ञाकारी पुत्र को त्याग देगा?”इसका स्पष्टीकरण यह है कि यह श्रीराम के मूलविचार नहीं थे। इस सर्ग के
श्लोक ६सेश्लोक २६ तक श्रीरामचद्रने जो बातें कही हैं वो लक्ष्मणकी परीक्षा लेने के लिये और उनको अयोध्या में वापस भेजने के लिये कही हैं,वास्तविकता में उनकी ऐसी मान्यता न थी।यही बात यहां सब(व्याख्याकारों) टीकाकारों ने स्वीकार की है। अतः श्रीराम के ऊपर यहां कोई आप सेव नहीं हो सकता है कि कैकेयी, भरत,दशरथ आदि के प्रति श्री राम की ऐसी भावना नहीं थी यह हम आगे स्पष्ट करेंगे।
*आक्षेप-१०-* इसका सार है कि श्रीराम ने अनेक स्त्रियों से अपने ऐंद्रिक विषयों की तृप्ति के लिये विवाह किया।यहां तक कि नौकरों की स्त्रियों को भी न छोड़ा।मन्मथ दातार आदि अपने साक्षियों का उल्लेख करके यह आक्षेप किया है।
आइटम नं ९ के शीर्षक से ललई सिंह ने इसके स्पष्टीकरण में निम्न प्रमाण दिये हैं,वे संक्षेप में लिखते हैं:-
१:-विमलसूचरि रचित पउमचरिउ में सुग्रीव का रामजी को १३ कन्यायें भेंट करना।उत्तरचरित में लक्ष्मण की १६००० और राम की ८००० पत्नियां लिखी हैं।
२:-गुणभद्र कृत उत्तरपुराण में लक्ष्मण की १६००० और राम की ८००० रानियों का उल्लेख।
३:-भुषुंडि रामायण में सहस्रों पत्नियां,खोतानी रामायण में सीता का राम लक्ष्मण दोनों की स्त्री होनाइत्यादि।
४:- कामिल बुल्के की रामकथा का संदर्भ देकर लिखा वाल्मीकि ने अपनी रचना में यत्र-तत्र राम की एक से अधिक पत्नियों का उल्लेख किया है।दो प्रमाण दिये हैं:-
पहला:- अयोध्याकांड सर्ग ८/१२-“हृष्टा खलु भविष्यंति रामस्य परमा स्त्रियः”-मंथरा ने कहा कि राम के अभिषेक के बाद उनकी स्त्रियां फूली नहीं समायेंगी।”
दूसरा-“युद्ध कांड २१/३ समुद्र तट पर प्रयोपवेशन के वर्णन में अनेकधा परम नारियों की भुजाओं से पुष्ट राम की बांह का उल्लेख ।
*समीक्षा-* हम यह डंके की चोट पर कहते हैं कि मां सीता को छोड़कर भगवान श्री राम की और कोई पत्नी नहीं थी। आपने जो चार बिंदुओं में प्रमाण दिए हैं उन से सिद्ध नहीं होता कि श्री राम की एक से अधिक पत्नियां थी सबसे पहले तो पउमचरिउ, उत्तरपुराण,भुषुंडि रामायण आदि  नवीन ग्रंथों का हम प्रमाण नहीं मानते क्योंकि यह सब अनार्ष होने से अप्रमाणिक हैं। वैसे भी इनमेंजोे 16000 और 8000 रानियां होना असंभव गप्पें भरी पड़ी हैं। हमें केवल वाल्मीकीय रामायण आर्ष होने प्रामाणिक है इसीलिए उसके जो आपने दो प्रमाण दिए हैं उन पर विचार करते हैं:-
पहला,अयोध्याकांड ८/१२:-
हृष्टाः खलु भविष्यन्ति रामस्य परमाः स्त्रियः ।
अप्रहृष्टा भविष्यन्ति स्नुषास्ते भरतक्षये ॥ १२ ॥
श्रीरामाके अंतःपुर की परम सुंदर स्त्रियां- सीतादेवी और उनकी सखियां निश्चितही खूब प्रसन्न होंगी और भरतके प्रभुत्वका नाश होने से तेरी बहुयें(और अंतःपुर की स्त्रियां) शोकमग्न होंगी॥१२॥
यहां पर “परमा स्त्रियः” का अर्थ नागेश भट्ट और अन्य टीकाकारों ने “मां सीता और उनकी सहेलियां”किया है।जो कि बिलकुल उपयुक्त है।क्योंकि राम लक्ष्मण की सीता और उर्मिला के सिवा अन्य कियी स्त्री का नाम तक वाल्मीकीय रामायण में नहीं है।
 हम पेरियार कंपनी को चैलेंज देते हैं, कि श्रीराम और लक्ष्मण की एक से अधिक स्त्रियों के नाम वाल्मीकि रामायण से निकालकर दिखायें अन्यथा चुल्लू भर पानी में डूब मरें।
दूसरा,युद्ध कांड २१/३:-मणिकाञ्चनकेयूर मुक्ताप्रवरभूषणैः ।
भुजैः परमनारीणां अभिमृष्टमनेकधा ॥ ३ ॥
अयोध्या में रहते समय मातृकोटिकी अनेक उत्तम नारियों ने मणि और स्वर्णसे बने केयूर वैसे ही  मोती के श्रेष्ठ आभूषणों से विभूषित अपने कर-कमलों द्वारा स्नान-मालिश आदि करते समय अनेक बार श्रीरामकी इस भुजा को सहलाीे, दबाती थीं॥३॥
यहां “परमनारी” श्रीराम के बचपन की धाइयों एवं परिचारिकाओं का वाचक है,जिन्होंने स्नान एवं मालिश के समय सहलाया व दबाया था।नागेश भट्टादि टीकाकार भी यही अर्थ करते हैं। वरना कौन मानेगा कि रामजी की रानियों ने उनको नहलाया और मालिश की,वो भी उनके बचपन में!क्या बचपन में ही बहुत से विवाह कर रखे थे?
हां,एक बात बताते जाइये।यदि श्रीराम की अनेक स्त्रियां थीं तो वनवास के समय केवल सीताजी को क्यों समाचार दिया? और उन्हींको साथ क्यों ले गये?एक सीता ने वन जाने के लिये इतना हठ किया,यदि ८००० रानियां थीं तो बाकी ७९९९ रानियां तो विलाप करके और वन जाने का हठ करके रामजी की जान खा जातीं।उनका कहीं वर्णन नहीं है।और यदि कई स्त्रियां थीं तो केवल एक सीता के लिये “हे सीते!”,” हाय सीते!” करते क्यों फिरे और रावण से दुश्मनी करली? इतना जोखिम उठाने की जगह खाली हाथ लौट जाते। ८००० में से एक गई तो कौन सा तूफान आ गया? कई सुंदर स्त्रियां रही होंगी,उनमें से एक को मुख्य महिषी बना देते!
  पाठकगण! सिद्ध है कि श्रीराम एकपत्नीकव्रत थे।यहां तक कि *”उत्तरकांड का प्रणेता प्रक्षेप कर्ता भी उनको एकपत्नीकव्रत मानता है।उत्तरकांड लेखक भी मानता है कि श्रीराम ने सीता त्याग के बाद सीता की जगह किसी और को रानी नहीं बनाया,अपितु सीताजी की स्वर्ण प्रतिमाओं का यज्ञ में प्रयोग किया।
श्रीराम आपकी तरह एक से अधिक विवाह करने वाले न थे।जितेंद्रिय एवं संयमी थे।(पेरियार की दो पत्नियां थीं)।
हम पेरियार मंडली को डबल चैलेंज देते हैं कि सीताजी के अलावा वाल्मीकीय रामायण में से रामजी की किसी और पत्नी का नाम भी निकालकर दिखावें अन्यथा मुंह काला करके चुल्लू भर पानी में डूब मरें।
ऐसे इंद्रियविजयी पर विलासी होने का आक्षेप लगाना मानसिक दिवालियापन,हठ और धूर्तपना है।
*अतिरिक्त प्रमाण*:-
श्रीराम के एकपत्नीकव्रत पर कुछ अन्य साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं:-
१:-उत्तरकांड का प्रणेता और मिलावट कर्ता भी श्रीराम को एकपत्नीकव्रत ही मानता है:-
इष्टयज्ञो नरपतिः पुत्रद्वयसमन्वितः ॥ ७ ॥
न सीतायाः परां भार्यां वव्रे स रघुनन्दनः ।
यज्ञे यज्ञे च पत्‍न्यौर्थं जानकी काञ्चनी भवत् ॥ ८ ॥
यज्ञ पूरा करके रघुनंदन राजा श्रीराम अपने दोनों पुत्रों के साथ रहने लगे।उन्होंने सीता के अतिरिक्त दूसरी किसी भी स्त्रीसे विवाह नहीं किया। प्रत्येक यज्ञमें जब भी धर्मपत्‍नीकी आवश्यकता होती श्रीरघुनाथ सीताकी सुवर्णमयी प्रतिमा बनाकर उसका प्रयोग करते थे ॥७-८॥(उत्तरकांड सर्ग ७७)
२:-आनंदरामायण विलासखंड ७ “अन्य सीतां विनाSन्या स्त्री कौशल्या सदृशी मम। न क्रियते परा पत्नी मनसाSपि न चिंतये।।”
श्रीराम कहते हैं कि सीता को छोड़कर सारी स्त्रियां मेरे लिये मां कौसल्या के समान है।किसी और को पत्नी करना तो दूर,मैं पराई स्त्री के बारे में चिंतन तक नहीं कर सकता।
३:- रामाभिराम टीकाकार श्रीनागेश भट्ट ने अयोध्याकांड ८/१२ में परमा स्त्रियः का यह अर्थ किया है:-
“स्त्रियः इति बहुचनेन सीतासख्या इत्यर्थः” अर्थात् परम स्त्रियों का तात्पर्य सीता जी की सखियों आदि से है।
४:- युद्ध कांड २१/३ का अर्थ श्रीनागेश भट्ट ने में परमनारियों का अर्थ एकपत्नीकव्रत होने से अन्य पत्नियों का अभाव माना है। यहां इसका अर्थ “भुजैरकनेधा स्नपलंकरणादिकालेsभिमृष्टम् स्पृष्टम” यानी उत्तम धाइयां श्रीराम को स्नान कराने,आभूषण धारण कराने आदि के समय अपनी दिव्य तथा अलंकृत भुजाओं से उनकी भुजा का स्पर्श करती थीं,इससे है सिद्ध है कि श्रीराम की सीताजी के सिवा और कोई पत्नी न थीं।
५:
इस विषय पर अभी इतना ही पर्याप्त है।
*आक्षेप-११-* यद्यपि राम के प्रति कैकई का प्रेम संदेह युक्त नहीं था किंतु राम का प्रेम कैकेयी के प्रति बनावटी था।
*आक्षेप-१२-* राम कहकर के प्रति स्वाभाविक एवं सच्चा होने का बहाना करता रहा और अंत में उसने कहकर पर दुष्ट स्त्री होने का आरोप लगाया। अयोध्याकांड ३१,५३
*आक्षेप-१३-* यद्यपि कैकेई दुष्टतापूर्ण पूर्ण तथा नीच विचारों से रहते थे तथापि राम ने उस पर दोषारोपण किया कि वह मेरी माता के साथ नीचता का व्यवहार कर सकती है। (अयोध्या कांड ३१,५३)
*आक्षेप-१४-* राम ने कहा कि कैकेयी ही मेरे बाप को मरवा सकती है इस प्रकार उसने कैकई पर दोषारोपण किया।(अयोध्याकांड ५३)
इस पर ललई सिंह ने स्पष्टीकरण किया है:-
१:-अयोध्याकांड सर्ग ३१/१३,१७ देकर आपने लिखा है कि -“राजा अश्वपति की पुत्री के के राज्य कर अपने दुखिया सौतों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करेगी।”
(सा हि राज्यमिदं प्राप्य नृपस्याश्वपतेः सुता ।
दुःखितानां सपत्‍नीनां न करिष्यति शोभनम् ॥ १३ ॥ )[नोट:-ललई जी ने संस्कृत श्लोक नहीं दिया है,यह हम ही हर जगह प्रस्तुत कर रहे हैं।]
२:- अयोध्याकांड ५३/६,७,१४ का प्रमाण देकर लिखा है कि श्रीराम के अनुसार कैकेयी उनके पिता को मरवा देगी,पूरा राज्य हस्तगत कर लेगी इत्यादि।
*समीक्षा-* १:-महाशय आप इस सर्ग का अवलोकन करेंगे तो आपको ज्ञात होगा कि लक्ष्मण श्री राम और सीता का संवाद सुन लेते हैं और श्रीराम से वनवास जाने का आग्रह करते हैं परंतु राम जी उनको कई प्रकार से मनाने की कोशिश करते हैं परंतु अंततः उन्हें लक्ष्मण को साथ वन में जाने की आज्ञा देनी पड़ी।राम लक्ष्मण को अयोध्या में ही रहकर सुमित्रा ,कौशल्या, पिता दशरथ आदि की सेवा के लिए नियुक्त करना चाहते हैं। यह श्लोक श्रीराम ने लक्ष्मण को अयोध्या में रोकने के लिए ही कहा था यह आवश्यक नहीं कि श्रीराम के मन में भी यही भावना थी। देखा जाए तो श्रीराम का यह कथन बिल्कुल भी अनुचित नहीं है ,क्योंकि राज्य मिल जाने के बाद कैकेई अपनी सौतों को पीड़ा पहुंचा सकती थी।मंथरा ने स्वयं कहा था कि कैकेई ने कौशल्या के साथ बहुत बार अनुचित व्यवहार किया था इसे संक्षेप में लिखकर हम कैकेई के चरित्र चित्रण में इसका विस्तार करेंगे और प्रमाणों के साथ सत्य को स्पष्ट करेंगे। फिलहाल इतना जानना चाहिए श्री राम उक्त कथन बिल्कुल भी अनुचित या गलत नहीं है। उनका कथन धरातल की सच्चाई ही प्रकट करता है।
२:- सर्ग 53 का स्पष्टीकरण हम पीछे दे चुके हैं इस सर्ग में श्रीराम ने लक्ष्मण को वापस अयोध्या लौट आने के लिए लक्ष्मण जी की बातों को दोहराया है । श्रीराम के मन में ऐसी भावनाएं नहीं थीं। इस संदर्भ में अभी इतना ही।
……..क्रमशः।
मित्रों! पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये धन्यवाद।कृपया अधिकाधिक शेयर करें। अगले लेख में आगे के आक्षेपों का उत्तर दिया जायेगा।
।।मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र की जय।।
।।योगेश्वर कृष्ण चंद्र की जय।।
।।ओ३म्।।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

हदीस : क़सामाह

क़सामाह

चौदहवीं किताब ”क़समों की किताब“ (अल-क़सामाह) है। क़सामाह का शब्दशः अर्थ है ”क़सम खाना।“ लेकिन शरीयाह की पदावली में इसका अर्थ है एक विशेष प्रकार की तथा विशेष परिस्थितियों में ली जाने वाली कसम। उदाहरण के लिए, कोई आदमी कहीं मार डाला गया पाया जाता है और उसको कत्ल करने वाले का पता नहीं चलता। ऐसी स्थिति में जिस जगह वह मृत व्यक्ति पाया जाता है उसके पास के क्षेत्र से पचास व्यक्ति बुलाये जाते हैं और उन्हें क़सम खानी पड़ती है कि उन्होंने उस आदमी को नहीं मारा और न ही वे उसके मारने वाले को जानते हैं। इस क़सम से उन लोगों को निर्दोषिता साबित हो जाती है।1

 

लगता है कि इस्लाम-पूर्व अरब में यह प्रथा प्रचलित थी और मुहम्मद ने इसे अपना लिया। एक बार एक मुसलमान मरा पाया गया। उसके रिश्तेदारों ने पड़ोस के यहूदियों पर अभियोग लगाया। मुहम्मद ने रिश्तेदारों से कहा-”तुम में से पचास लोग क़सम खाकर उनमें से किसी व्यक्ति पर हत्या का अभियोग लगाओ तो वह व्यक्ति तुम्हारे सामने पेश कर दिया जायेगा।“ उन्होंने कसम खाने से इन्कार कर दिया, क्योंकि वे हत्या के गवाह नहीं थे। तब मुहम्मद ने उनसे कहा-“यदि पचास यहूदी कसम खा लें तो वे निर्दोष मान लिये जाएंगे।“ इस पर मुसलमानों ने कहा-”अल्लाह के पैगम्बर ! हम गैर-मोमिनों की क़सम को कैसे स्वीकार कर सकते हैं ?“ इस पर मुहम्मद ने उस मारे गये व्यक्ति के एवज में सौ ऊंट रक्तपात-शोध के रूप में अपने निजी ख़जाने से दे दिए (4119-4125)।

 

  1. यह विधान (बाइबल के ओल्ड टेस्टामेंट पर आधारित है। मूसा के कानून की यह व्यवस्था है कि जब कोई व्यक्ति किसी खुली जगह में मार डाला गया पाया जाये और हत्यारे की पहचान न हो सके, तब उस जगह के सबसे पास के कस्बे के प्रमुख लोग एक किशोर बछड़े को पास के किसी बहते हुए सोते पर ले जाते हैं, वहां उसकी गर्दन मार देते हैं और फिर उसके ऊपर अपने हाथ धोकर घोषित करते हैं-“हमने यह रक्तपात नहीं किया, न ही हमारी आंखों ने रक्तपात होते देखा।“ (डयूटरोनाॅसी 21/1/9)।

 

एक दूसरी हदीस हमें स्पष्टतः बतलाती है कि अल्लाह के पैगम्बर ने ”कसामा की प्रथा की इस्लाम-पूर्व के दिनों की तरह कायम रखा“ (4127)।

author : ram swarup

टाँगा किस लिए लाये?

टाँगा किस लिए लाये?

आर्यसमाज नयाबाँस, दिल्ली-6 की आधारशिला पूज्य भाई परमानन्दजी ने रखी। भाईजी के प्रति इस समाज के सदस्यों को बहुत श्रद्धा थी। एक बार इसी समाज के किसी कार्यक्रम पर देवतास्वरूप भाई परमानन्दजी आमन्त्रित थे। श्री पन्नालाल आर्य उन्हें स्टेशन पर लेने के लिए गये। नयाबाँस का समाज-मन्दिर स्टेशन के समीप ही तो है।

श्री पन्नालाल जी भाईजी के लिए टाँगा ले-आये। टाँगेवाले उन दिनों एक सवार का एक आना (आज के छह पैसे) लिया करते थे। आर्यसमाज की आर्थिक स्थिति से भाईजी परिचित ही थे।

भाईजी को जब टाँगे पर बैठने के लिए कहा गया तो आप बोले, ‘‘पन्नालाल! टाँगा ज़्यों कर लिया? पास ही तो समाज-मन्दिर है।

आर्यसमाजों में धन कहाँ है? कितने कार्य समाज ने हाथ में ले-रखे हैं!’’ गुरुकुल, पाठशाला, गोशाला व अनाथालय, शुद्धि और पीड़ितों की सहायता………न जाने किन-किन कार्यों के लिए आर्यसमाजों को धन जुटाना पड़ता है।

श्री पन्नालालजी ने उज़र में कुछ कहा, परन्तु भाईजी का यही कहना था कि यूँ ही समाज के धन का अपव्यय नहीं होना चाहिए। मैं तो पैदल ही पहुँच जाता। ऐसा सोचते थे आर्यसमाज के निर्माता। आज अनेक अन- आर्यसमाजी लोग, आर्यसमाजों में घुसकर समाज की धन-सज़्पज़ि

को हड़पने में जुटे हैं। सारे देश का सामाजिक जीवन दूषित हो चुका है। आर्य लोग अपनी मर्यादाओं को न भूलें तो मानवजाति व देश का बड़ा हित होगा।

यह घटना श्री पन्नालालजी ने स्वयं सन् 1975 में मुझे सुनाई थी। भाईजी की सहारनपुर की भी एक ऐसी ही घटना सुनाई। तब भाईजी केन्द्रीय विधानसभा (संसद्) के सदस्य थे। वहाँ भी

पन्नालालजी आर्य टाँगा लेकर आये। भाईजी ने टाँगा देखते ही कहा-‘‘पन्नालाल! मेरी दिल्ली में कही हुई बात भूल गये ज़्या?’’

हदीस : अपराध और दंड विधान (क़सामाह, किसास, हदूद)

. अपराध और दंड विधान (क़सामाह, किसास, हदूद)

चौदहवीं, पन्द्रहवीं और सोलहवीं किताबें अपराध के विषय में हैं। अपराधों के प्रकार और उनकी कोटियां, उनकी छानबीन की प्रक्रिया और अपराध करने पर दिये जाने वाले दंडों की व्यवस्था इनमें वर्णित है।

 

मुस्लिम फिक़ह (क़ानून) दंड को तीन शीर्षकों में बांटता है-हद्द, क़िसास और ताज़ीर। हद्द (बहुवचन हदूद) में उन अपराधों के दंड शामिल हैं, जो कुरान और हदीस में निर्णीत और निरूपित किये गये हैं। ये दण्ड है-पथराव करके मारना (रज्म) जो कि परस्त्रीगमन (ज़िना) के लिए दिया जाता है: कुमारी-गमन के लिए एक-सौ कोड़े (क़ुरान 24/2-5); किसी “इज्जतदार“ स्त्री (हुसुन) के खि़लाफ मिथ्यापवाद अर्थात् उस पर व्यभिचार का आरोप लगाने पर 80 कोड़े, इस्लाम छोड़ने (इर्तिदाद) पर मौत; शराब पीने (शुर्ब) पर 80 कोड़े; चोरी करने पर दाहिना हाथ काट डालना (सरीक़ा, क़ुरान 9/38-39); बटमारी-डकैती करने पर हाथ और पांव काट डालना; और डकैती के साथ हत्या करने पर तलवार से वध अथवा सूली।

 

(इस्लामी) कानून क़िसास अर्थात् प्रतिरोध की अनुमति देता हैं। इस की अनुमति सिर्फ उन मामलों में है, जहां किसी ने जान-बूझकर और अन्यायपूर्वक किसी को घायल किया हो, किसी का अंग-भंग किया हो अथवा उनकी हत्या की हो। और इसकी इज़ाज़त सिर्फ उसी अवस्था में है जब अपराधी और पीड़ित व्यक्ति की हैसियत एक-समान हो। गुलाम और काफ़िर हैसियत की दृष्टि से, मुसलमानों की तुलना में हेय हैं। इसलिए अधिकांश मुस्लिम फक़ीहों (न्यायविदों) के अनुसार वे लोग क़िसास के अधिकारी नहीं हैं।

 

हत्या के मामलों में प्रतिरोध का हक़, मारे जाने वाले के वारिस को मिलता है। लेकिन वह वारिस इस हक़ को छोड़ सकता है और उसके बदले में रक्तपात-शोध (दियाह) स्वीकार कर सकता है। स्त्री की हत्या होने पर सिर्फ़ आधा दियाह ही देय होता है। यहूदी और ईसाई के मामले में भी आधा ही दियाह देय होता है। किन्तु कानून के एक सम्प्रदाय के अनुसार ईसाइयों और यहूदियों के मामले में सिर्फ़ एक तिहाई दियाह देने की इज़ाज़त है। अगर कोई गुलाम मार डाला जाता है, तो क़िसास और हरजाने का हक़ उसके वारिसों को नहीं मिलता। गुलाम को सम्पत्ति का एक प्रकार माना गया है, इसलिए गुलाम के मालिक को उसकी पूरी क़ीमत हरजाने के तौर पर दी जानी चाहिए।

 

अपराध और दंड के विषय में मुस्लिम कानून बहुत जटिल है। यद्यपि कुरान में एक सामान्य रूपरेखा मिलती है, दंड-विधान का मूर्त रूप हदीस में ही प्रकट होता है।

author : ram swarup

एक शास्त्रार्थ

एक शास्त्रार्थ

हरियाणा के लोककवि पण्डित बस्तीराम ने ऋषि के दर्शन किये और जीवनभर वैदिक धर्म का प्रचार किया। शास्त्रार्थ की भी अच्छी सूझ थी। एक बार पौराणिकों से पाषाण-पूजा पर उनका शास्त्रार्थ हुआ। पौराणिक पण्डित से जब और कुछ न बन पड़ा तो अपनी परज़्परागत कुटिल, कुचाल चलकर बोला-‘‘आपका ओ3म् किस धातु से बना है?’’

पण्डितजी व्याकरण के चक्र में पड़कर विषय से दूर जाना चाहते थे। पण्डित बस्तीरामजी सूझवाले थे। श्रोताओं को सज़्बोधित करके बोले, ‘‘ग्रामीण भाई-बहिनो! देखो, कैसा विचित्र प्रश्न यह मूर्ज़िपूजक पण्डित पूछ रहा है कि तुज़्हारा ओ3म् किस धातु से बना है। अरे! सारा संसार जाने कि हम प्रतिमा-पूजन नहीं मानते। इसी विषय पर तो शास्त्रार्थ हो रहा है। अरे पण्डितजी! हमारा ‘ओ3म्’ तो निराकार है, सर्वव्यापक है। वह न पत्थर से बना, न तांबे से, न पीतल से और न चाँदी-सोने से। तुज़्हारा गणेश किसी भी धातु से बना हो, भले ही मिट्टी का गणेश बना लो। हमारा ओ3म् तो सब जानें किसी भी धातु से नहीं बना।’’ सब ग्रामीण श्रोता पण्डित

बस्तीराम व वैदिक धर्म का जय-जयकार करने लगे। पौराणिक पण्डित भी बड़ा चकराया कि ज़्या उज़र दे वह आप ही अपने जाल में ऐसा फँसा कि निकलने का समय ही न मिला।

हदीस : ”इंशा अल्लाह“ की शर्त

”इंशा अल्लाह“ की शर्त

अगर कोई क़सम लेते वक्त ”अल्लाह ने चाहा तो“ (इंशाअल्लाह) कह देता है तो वह प्रतिज्ञा अवश्य पूरी करनी चाहिए। सुलेमान के 60 बीवियां थीं। एक दिन उसने कहा-“मैं निश्चित ही इनमें से हरेक के साथ रात में मैथुन करूँगा और उनमें से हरेक एक मर्द बच्चे को जन्म देगी जो घुड़सवार बनेगा और अल्लाह के काम के लिए लड़ेगा।“ लेकिन उनमें से सिर्फ एक गर्भवती हुई और उसने भी एक अधूरे बच्चे को जन्म दिया। मुहम्मद ने कहा-“अगर उसने इंशा अल्लाह कहा होता, तो वह असफल नहीं होता।“ कई-एक अन्य हदीस भी ऐसा ही किस्सा बयान करती है। उनमें बीवियों की संख्या 60 से बढ़ कर 70 और फिर 90 हो जाती है (4066-4070)।

author : ram swarup

इन्हें सोने दें

इन्हें सोने दें

आर्यसमाज धारूर महाराष्ट्र का उत्सव था। श्री पण्डित नरेन्द्रजी हैदराबाद से पधारे। रात्रि में सब विद्वान् आर्यसमाज के प्रधान पण्डित आर्यभानुजी के विशाल आंगन में सो गये। इनमें से एक

अतिथि ऐसा था जिसे रात्रि को अधिक ठण्डी अनुभव होती थी, परन्तु संकोचवश ऊपर के लिए मोटा कपड़ा न माँगा।

प्रातःकाल सब लोग बाहर शौच के लिए चलने लगे तो उस अतिथि का नाम लेकर एक ने दूसरे से कहा-इन्हें भी जगा लो सब इकट्ठे चलें। इसपर पण्डित नरेन्द्रजी ने कहा-ऊँचा मत बोलो,

जाग जाएँगे। जगाओ मत, सोने दो। इन्हें रात को बड़ी ठण्डी लगी। सिकुड़े पड़े थे। मैंने ऊपर शाल ओढ़ा दिया। ये शज़्द सुनकर वह सोया हुआ व्यक्ति जाग गया। वह व्यक्ति इन्हीं पंक्तियों का लेखक था। पण्डित नरेन्द्रजी रात्रि में कहीं लघुशङ्का के लिए उठे। मुझे सिकुड़े हुए देखकर ऊपर शाल डाल दिया। इस प्रकार रात्रि के पिछले समय में अच्छी निद्रा आ गई, परन्तु सोये हुए

यह पता न लगा कि किसने ऊपर शाल डाल दिया है।

पण्डित नरेन्द्रजी ने आर्यसमाज लातूर के उत्सव पर भी एक बार मेरे ऊपर रात्रि में उठकर कपड़ा डाला था, जिसका पता प्रातः जागने पर ही लगा। ऐसी थी वे विभूतियाँ जिनके कारण आर्यसमाज

चमका, फूला और फला। इन्हें दूसरों का कितना ध्यान था!

हदीस : क़सम तोड़ना

क़सम तोड़ना

जरूरत पड़ने पर खुद अल्लाह ने क़सम तोड़ देने की इज़ाज़त दी है। ”अल्लाह ने पहले ही अपनी कसमें तोड़ देने की तुम्हें इजाज़त दे रखी है“ (कुरान 66/2)।

 

ऐसी प्रतिज्ञा को जिसमें अल्लाह की नाफ़रमानी हो या जो ग़ैर-इस्लामी काम के लिए ली गयी हो, पूरा करना जरूरी नहीं है। मुस्लिम कानून के पंडितों में इस बात को लेकर मतभेद है कि जो प्रतिज्ञा अज्ञान की दशा में (अर्थात् इस्लाम क़बूल करने के पहले) की गई हो वह शिक्षा बाध्यकारी है या नहीं। कई-एक का मत है कि अगर वह प्रतिज्ञा इस्लाम की शिक्षा के खिलाफ न हो, तो उसे पूरा करना चाहिए।

 

कोई भी कसम तोड़ी जा सकती है, विशेषकर तब जब कि क़सम खाने वाला कोई बेहतर काम करना चाहता हो। मुहम्मद कहते हैं-”किसी ने कसम ली, पर उससे कुछ बेहतर करने को पा गया तो उसे वह बेहतर काम करना चाहिए“(4057)। कुछ लोगों ने एक बार मुहम्मद से सवारी पाने की मांग की। मुहम्मद ने कसम खायी-”क़सम अल्लाह की ! मैं तुम लोगों को सवारी नहीं दे सकता।“पर लोगों के चले जाने के फौरन बाद उन्होंने उन लोगों को वापस बुलाया और उनसे सवारी के लिए ऊंट देने का प्रस्ताव किया। मुहम्मद ने समझाया-”जहां तक मेरा सम्बन्ध है, अल्लाह की कसम ! अगर अल्लाह चाहे तो मैं कसम नहीं खाऊंगा। पर अगर बाद में मैं कोई बात बेहतर समझूंगा, तो मैं ली हुई कसम तोड़ दूंगा और उसका प्रायश्चित करूँगा और जो बेहतर है वह करूँगा (4044)।

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आर्यों की देवी व देवता

आर्यों की देवी व देवता

स्वामी वेदानन्दजी तीर्थ जब खेड़ाखुर्द (दिल्ली) का गुरुकुल चलाते थे तो सहदेव नाम का एक गठीला, परन्तु जड़बुद्धि युवक उनके पास रहता था। ब्रह्मचारी में कई गुण भी थे। ब्रह्मचारी में

गुरुभक्ति का भाव तब बहुत था और व्यायाम की सनक थी। गुरुकुल के पास एक धनिक कुज़्भकार रहता था। उसे स्वामी वेदानन्दजी से बड़ी चिढ़ थी। चिढ़ का कारण यह था कि वह

समझता था कि आर्यसमाजी देवी-देवताओं को नहीं मानते। स्वामीजी चाहते थे कि इस व्यक्ति को आर्यसमाजी बनाया जाए, यह बड़ा उपयोगी सिद्ध होगा। जब ब्रह्मचारी शिक्षा के लिए निकलते तो यह कभी भी किसी को कुछ भी भिक्षा के लिए न देता। उसका एक ही रोष था कि आर्य लोग देवी-देवताओं को नहीं मानते। स्वामी वेदानन्दजी उसे बताते कि माता, पिता, गुरु आचार्य, अतिथि आदि देव हैं, परन्तु ये बातें उसकी समझ में न आतीं।

एक दिन ब्र0 सहदेव भिक्षा के लिए निकला। उसी धनिक कुज़्भकार के यहाँ गया। उसने अपना प्रश्न दोहरा कर भिक्षा देने से इन्कार कर दिया। ब्रह्मचारी ने कहा-‘‘आर्य लोग भी देवी-देवताओं

को मानते हैं।’’ उसने कहा, स्वामी दयानन्दजी का लिखा दिखाओ। ब्रह्मचारी जी ने वैदिक सन्ध्या आगे करते हुए कहा, यह पढ़ो ज़्या लिखा है?

‘ओ3म् शन्नो देवी’ दिखाकर ब्र0 ने कहा देख ‘देवी’ शज़्द यहाँ है कि नहीं। फिर उसने संस्कार-विधि से देवयज्ञ दिखाया तो वहाँ ‘विश्वानि देव’ पढ़कर वह धनिक दङ्ग रह गया। उसने कहा-

‘‘मुझे तो आज ही पता चला कि आर्यसमाज ‘शन्नो देवी’ तथा ‘विश्वानि देव’ को मानता है, परन्तु स्वामी वेदानन्दजी ने मुझे ज़्यों नहीं बतलाया?’’

इस घटना के पश्चात् वह व्यक्ति दृढ़ आर्य बन गया। स्वामीजी का श्रद्धालु तथा गुरुकुल का सहायक बन गया।1

यही ब्रह्मचारी फिर स्वामी अग्निदेवभीष्म के नाम से जाना जाता था।

 

हदीस : प्रतिज्ञाएं और क़समें

प्रतिज्ञाएं और क़समें

बारहवीं और तेरहवीं किताबें क्रमशः प्रतिज्ञाओं (अल-नज़र) और क़समों (अल-ऐलान) पर है। यहां हम दोनों का साथ-साथ विचार करेंगे। मुहम्मद प्रतिज्ञाएं करने को नापसन्द करते हैं, क्योंकि प्रतिज्ञा “न तो (किसी काम को) जल्दी पूरा करने करने में मददगार होती और न ही (इसमें) रुकावट बनती है“ (4020)। अल्लाह को किसी आदमी की प्रतिज्ञाओं की जरूरत नहीं। एक शख़्स ने एक बाद प्रतिज्ञा की कि वह पैदल चल कर काबा जायेगा। तब मुहम्मद ने कहा-”अल्लाह इसके प्रति उदासीन है कि कोई अपने ऊपर कष्ट लाद रहा है।“ और ”उसे सवारी पर जाने का हुक्म दिया“ (4029)।

 

मुहम्मद मोमिनों को लात या उज्जा या अपने पिताओं की क़सम खाने से भी मना करते हैं। वे कहते हैं-”बुतों की क़सम मत खाओ और न अपने पिता की“ (4043)। लेकिन वे अल्लाह की क़सम खाने की अनुमति देते हैं, जिसके लिए ईसामसीह ने मना किया था। मुहम्मद कहते हैं कि ”जिसे क़सम खानी हो उसे अल्लाह की क़सम खानी चाहिए“ (4038)।

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