स्वामी श्रद्धानन्द समय की चुनौती का जवाब थे

Swami_shraddhanand

 

स्वामी श्रद्धानन्द समय की चुनौती का  जवाब थे

लेखक – सत्यव्रत सिद्धांतालंकार

आरनॉल्ड तोयनबी एक प्रसिद्ध समाजशास्त्री हुए हैं।  उन्होंने समाज में होने वाले परिवर्तनों के सम्बन्ध में एक नियम का प्रतिपादन किया है।  उनका कथन है कि समाज में जब कोई असाधारण स्तिथी उत्पन्न हो जाती है , तब वह व्यक्ति तथा समाज के लिए चुनौती या चैलेंज का रूप धारण कर लेती है ।  वह परिस्तिथी व्यक्ति या समाज को मानो ललकारती है , उसके सामने एक आवाहन पटकती है और पूछती है कि है कोई माई का लाल जो इस असाधारण परिस्तिथी का इस ललकार का , इस चैलेंज का , इस आवाहन का , मर्द होकर सामना कर सके ।  इस ललकार का जवाब दे सके ?

तोयनबी का कथन है कि जब हम वैयक्तिक या सामाजिक रूप से किसी भौतिक या सामाजिक विकट परिस्तिथी से घिर जाते हैं , तब हममें या समाज में उस कठिन परिस्तिथी, कठिन समस्या को हल करने के लिए एक असाधारण क्रीयाशक्ति, असाधारण स्फ्रुरन उत्पन्न हो जाती है ।  भौतक अथवा सामाजिक कठिन , विषम परिस्तिथी हमें मलियामेट न कर दे , इसलिए परिस्तिथी के आवाहन उसकी ललकार , उसके चैलेंज के प्रतीक जो व्यक्ति प्रतिकिया करने के लिए उठ खड़े होते हैं , चैलेंज का उत्तर देते हैं , वे अपने को और समाज को बचा लेते हैं ।  जो समाज को नया मोड़ देते हैं वे ही समाज के नेता कहलाते हैं ।  जब समाज किसी उलझन में पड  जाता है तब उसमें से निकलना तो हर एक चाहता है हर व्यक्ति कि यही इच्छा होती है कि यह संकट दूर हो , परन्तु हर को उस चैलेंज का सामना करने के लिए अखाड़े में उतरने को तैयार नहीं होता ।  विक्षुप्त समाज का असंतोष , उसकी बैचेनी जिस व्यक्ति में प्रतिविम्बित हो जाती है , और प्रतिविम्बित होने पर जो व्यक्ति उस संतोष का सामना करने के लिए खम्बे ठोककर खड़ा होता है , वही जनता की आशाओं का सरताज होता है ।

मैं  स्वामी श्रद्धानन्द के जीवन को इसी दृष्टि से देखता हूँ ।  वे समय की चुनौती का, समय की ललकार का जीता जागता जवाब थे ।  क्या हमारे सामने चुनौतियाँ और ललकारें  नहीं आती ? हम हर दिन चुनौतियों से घिरे हुए हैं ।  परन्तु हममें उन चुनौतियों का सामना करने की हिम्मत नहीं ।  व्यक्ति जीवित रहता है तब वह चुनौतियों का सामना करता रहता है, समाज भी तभी तक जीवित रहता है जब तक वह चुनौतियों का सामना करता रहता है ।  चुनौतियों का काम ही व्यक्ति अथवा समाज में हिम्मत जगा देना है , परन्तु ऐसी अवस्था भी आ सकती है जब व्यक्ति अथवा समाज इतनी हिम्मत हार बैठे कि उसमें ललकार का सामना करने की ताकत ही न रहे।  ऐसी हालत में वह व्यक्ति बेकार हो जाता है समाज बेकार हो जाता है ।  स्वामी श्रद्धानन्द उन व्यक्तियों में से थे जो सामने चैलेंज को देखकर उसका सामना करने के लिए शक्ति के उफान से भर जाते थे ।  उनका  जीवन हर चुनौती का जवाब था | तभी ५० वर्ष बीत जाने पर हम उन्हें नहीं भुला सके ।

उनके जीवन के पन्नों को पलटकर देखिये कि वे क्या थे ? वे अपनी जीवनी में लिखते हैं जब उनके बच्चे स्कूल से पड़कर आते थे- “ईसा ईसा बोल तेरा क्या लगेगा मोल”।  आज भी हमारे बच्चे कान्वेंट स्कूलों में पड़कर बहुतेरी इस प्रकार की हरकतें करते हैं परन्तु हमारे सामने ऐसी कोई बात चुनौती का रूप नहीं धारण करती ।  उस समय में महात्मा मुंशीराम थे उनके सामने बच्चों का इस प्रकार गाना एक चुनौती के रूप में उठ खड़ा हुआ जिसकी प्रतिक्रिया के रूप में नवीन शिक्षा प्रणाली की नीवं रखी गयी ।  आज को सब लोग गुरुकुल शिक्षाप्रणाली के सिध्दांतों को शिक्षा के आदर्श तथा मुलभुत सिद्धान्त मानने लगे हैं उसका मूल एक चुनौती का सामना करना था ।  जो एक साधारण घटना के रूप में महात्मा मुंशीराम के सामने उठ खड़ी हुयी थी।

सत्यार्थ प्रकाश पड़ते हुए उन्होंने पड़ा कि गृह्स्थ आश्रम के बाद वानप्रस्थ में प्रवेश करना चाहिए ।  यह कोई नया आविष्कार नहीं था जो भी वैदिक संस्कृति से परिचित है वह जानता है कि इस संस्कृति में चार आश्रम हैं ।  परन्तु नहीं उन महान आत्मा के सामने यह एक चैलेंज था ।  पड़ते सब हैं, परन्तु उसके लिए तो पढ़ना पढ़ने  के लिए नहीं, करने के लिए था ।  गुरकुल विश्वविद्यालय की एक जंगल में स्थापना कर वे वहीं रहने लगे | मृतमान वानप्रस्थ आश्रम को उन्होंने अपने जीवन में क्रियात्मक रूप देकर जीवित कर दिया।  यह क्या था अगर वैदिक संकृति की चुनौती का जवाब नहीं था ।  फिर , वानप्रस्थ पर ही टिक नहीं गए ।  वानप्रस्थ के बाद सन्यास भी लिया ।  और देश में जितना महात्मा मुंशीराम यह नाम विख्यात था उतना ही स्वामी श्रद्धानन्द यह नाम भी विख्यात हो गया ।  ऐसे भी लोग मुझे मिले हैं जो महात्मा मुंशीराम और स्वामी श्रद्धानन्द की दोनों अलग अलग व्यक्ति समझते हैं ।  इसका कारण यही है कि महात्मा मुंशीराम ने जिस प्रकार  लगातार चुनौती पर चुनौती का सामना किया, उसी प्रकार स्वामी श्रद्धानन्द  ने भी चुनौती पर चुनौती का सामना किया इसीलिये कुछ व्यक्तियों के लिए जो यह नहीं जानते थे कि महात्मा मुंशीराम ही सन्यास ले कर स्वामी श्रद्धानन्द बन गए ये तो नाम तो महापुरुषों के नाम हो गए जो अपने अपने जीवन काल में असाधारण सामजिक परिस्तिथियों, सामाजिक ललकारों और चुनौतियों के साथ जूझकर अपने जीवन की अमर कहानी लिख गए।

गुरुकुल में रहकर वो एक पत्र निकला करते थे जिसका नाम था “सद्धर्म प्रचारक” ।  यह पत्र उर्दू में प्रकाशित हुआ करता था ।  इसके ग्राहक उर्दू जाने वाले थे हिंदी जानने वाले नहीं थे ।  लेकिन अचानक वह पत्र सब ग्राहकों के पास उर्दू के स्थान में हिंदी में पहुंचा ।  यह क्या चुनौती का जवाब नहीं था ।  जिस व्यक्ति ने घोषणा की हो कि वह गुरकुल में ऊंची से ऊंची शिक्षा मातृ भाषा हिंदी में देने का प्रबंध करेगा, उसका पत्र उर्दू में प्रकाशित हो यह विडम्बना थी ।  उन्हें मालूम था कि एकदम उर्दू से हिंदी में पत्र प्रकाशित करने से ग्राहक छंट जायेंगे परन्तु इस चैलेंज का उन्हे सामना करना था ।  परिणाम यह हुआ कि उनकी आवाज को सुनने के लिए ग्राहकों ने हिंदी सीखना शुरू किया पर पत्र के ग्राहक पहले से कई गुना बढ़  गए । लोग हिंदी की दुहाई देते और उर्दू या अंगरेजी में लिखते या बोलते थे परन्तु उस महान आत्मा के लिए यही बात एक चुनौती का काम कर गयी ।

वे किस प्रकार चुनौती का सामना करते थे इसके एक नहीं अनेक उदाहरण  हें ।  सत्यग्रह के दिनों में जब जनता का जुलुस दिल्ली के घण्टाघर की तरफ बढ़ता  जा रहा था तब गोर सिपाहियों ने इसे रोकने के लिए गोली चलने की धमकी दी थी ।  यह धमकी उस महान आत्मा के लिए भारत माता की बलिवेदी पर अपने को कुरबान कर देने की ललकार थी ।  साधारण प्रकृति के लोग उस धमकी को सुनकर ही तितर बितर हो जाते, परन्तु श्रद्धानन्द ही था जिसने छाती तानकर गोरों को गोली चलाने के लिए ललकारा ।  समाज शाश्त्र का यह नियम है कि असाधारण परिस्तिथी उत्पन्न होने पर महान  आत्मा के ह्रदय में असाधारण स्फुरण हो जाता है ।  असाधारण क्रिया शक्ति को उसे समकालीन मानव समाज से बहुत ऊपर लेजाकर शिखर पर खड़ा कर देती है ।

मुझे इस अवसर पर मथुरा शताब्दी की घटना स्मरण हो जाती है ।  उत्सव हो रहा था।  स्वामी जी उत्सव का सञ्चालन कर रहे थे ।  मुझे उन्होंने अपने पास कार्यवाही के संचालन के लिए बैठाया हुआ था ।  अचानक खबर आयी कि शहर में दंगा हो गया पण्डों ने आर्य समाजियों को पीटा उनपर लट्ठ चलाये ।  स्वामी जी इस समाचार को सुनकर ही मुझसे कहने लगे देखो कार्यवाही बदस्तूर चलाती रहो तुम यहाँ से मत हिलना मैं  मथुरा शहर जा रहा हूँ ।  स्वामी जी उसी समय घटना स्थल पर पहुंचे व स्तिथी को संभाल कर लौटे ।  इनके जीवन की एक एक घटना तोयानबी  के इस समाज शास्त्रीय नियम की विषद व्याख्या है कि विकट परिस्तिथी आने पर प्रत्येक व्यक्ति उस परिस्तिथी से निकलने के लिए उससे जूझना चाहता है परन्तु भीरुता के कारण जूझ नहीं पाता । उस समय के महापुरुष होता है जो सबकी पीड़ा को अपने ह्रदय में खींचकर परिस्तिथी की विषमता से लड़ने के लिए उठ खड़ा होता है और जब ऐसा कोई महापुरुष सामने आता है तब सबके सिर उसके पैरों में नत जाते हैं ।

समय की चुनौती का जवाब देने वाले जो महापुरुष भारत में हुए हैं उनके श्रेणी में स्वामी श्रद्धानन्द  का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जा चुका है । ऐसी महान आत्मा को मेरा बार बार नमस्कार है ।

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