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बाइबल में परिवर्तन – राजेन्द्र जिज्ञासु

सत्यार्थप्रकाश की वैचारिक क्रान्तिःभले ही ईसाई मत, इस्लाम व अन्य-अन्य वेद विरोधी मतों की सर्विस के लिए कुछ व्यक्ति आर्यसमाज का विध्वंस करने के लिए सब पापड़ बेल रहे हैं, परन्तु महर्षि दयानन्द का अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश निरन्तर अन्धकार का निवारण करके ज्ञान उजाला देकर वैचारिक क्रान्ति कर रहा है। पुराने आर्य विद्वान् अपने अनुकूल व प्रतिकूल प्रत्येक लेख व कथन पर ध्यान देते थे। अब वर्ष में एक बार जलसा करवाकर संस्थाओं की तृप्ति हो जाती है। ऋषि जीवन व ऋषि मिशन विषयक खोज में उनकी रुचि ही नहीं।

लीजिये संक्षेप में वैचारिक क्रान्ति के कुछ उदाहरण यहाँ देते हैंः-

पहले बाइबिल का आरम्भ इन शब्दों से होता थाः-

१. “In the beginning God created the heaven and the earth. And the earth was waste and void, and the darkness was upon the face of the deep and the spirit of god moved upon the face of the waters.”

अब ऋषि की समीक्षा का चमत्कार देखिये। अब ये दो आयतें इस प्रकार से छपने लगी हैंः-

“In the beginning God created the heavens and the earth. Now the earth was formless and empty, darkness was over the surface of the deep, and the spirit of god was hovering over the waters.”

प्रबुद्ध विद्वान् इस परिवर्तन पर गम्भीरता से विचार करें। हम आज इस परिवर्तन की समीक्षा नहीं स्वागत ही करते हैं। इस अदल-बदल से ऋषि की समीक्षा सार्थक ही हो रही है, क्या हुआ जो (पोल) से आपका पिण्ड ऋषि ने छुड़ा दिया। ऋषि का प्रश्न तो ज्यों का त्यों बना हुआ है।

“And God said, Behold, I have given you every herb yelding seed, which is upon the face of all the earth, and every tree, in which is the fruit of a tree yielding seed; to you it shall be for meat: and to every beast of the earth, and to every fowl of the air and to every thing that creepth upon the earth, wherein there is life, I have given every herb for meat: and it was so.”

पाठकवृन्द! यह बाइबिल की उत्पत्ति की पुस्तक के प्रथम अध्याय की आयत संख्या २९, ३० हैं। सत्यार्थप्रकाश के प्रकाश में हमारे विद्वान् मास्टर आत्माराम आदि इनकी चर्चा शास्त्रार्थों में करते आये हैं। अब ये आयतें अपने नये स्वरूप में ऐसे हैं। इन पर विचार कीजियेः-

Then God said, “I give you every seed-bearing plant on the face of the whole earth and every tree that has fruit with seed in it. They will be yours for food. And to all the beasts of the earth and all the birds in the sky and all the creatures that move on the ground-everything that has the breath of life in it- I give every green plant for food.”

ये दोनों अवतरण बाइबिल के हैं। दोनों का मिलान करके देखिये कि सत्यार्थप्रकाश की वैचारिक क्रान्ति के कितने दूरगामी परिणाम निकले हैं। हम इस नये परिवर्तन, संशोधन की क्या समीक्षा करें? हम हृदय से इस वैचारिक क्रान्ति का स्वागत करते हैं। ऋषि की कृपा से ईसाइयत के माथे से मांस का कलंक धुल गया। मांसाहार का स्थान शाकाहार को दे दिया गया है। मनुष्य का भोजन अन्न, फल और दूध को स्वीकार किया गया है। यह मनुजता की विजय है। यह सत्य की विजय है। यह ईश्वर के नित्य अनादि सिद्धान्तों की विजय है। यह क्रूरता, हिंसा की पराजय है। यह विश्व शान्ति का ईश्वरीय मार्ग है। बाइबिल के इस वैदिक रंग पर सब ईसाई बन्धुओं को हमारी बधाई स्वीकार हो।

नेपाल त्रासदी और हमारा कर्तव्य

दुर्घटनाएँ संसार में घटती रहती हैं। कभी ये मनुष्यकृत होती हैं तो कभी प्राकृतिक रूप में आती हैं। पिछले दिनों भारत में २७ मार्च को दोपहर के समय भूकम्प के झटकों का अनुभव किया गया। इसका केन्द्र नेपाल में था, अतः इसका प्रभाव नेपाल में अधिक हुआ। एक तो नेपाल में केन्द्र था, दूसरा भूकम्प की तीव्रता का नाप ७.८ था, जो बहुत अधिक था, इसी अनुपात से दुर्घटना का प्रभाव भी उतना ही तीव्र का हुआ। जहाँ हजारों मकान ध्वस्त हो गये, वहाँ अभी तक दस हजार से अधिक लोगों के मरने का अनुमान है। हताहत होने वालों की संख्या कई गुना अधिक है।

इस समय दुर्घटना तो प्राकृतिक थी, परन्तु मनुष्यों द्वारा की जाने वाली क्रिया भी आज चर्चा का विषय है। इस दुर्घटना को जिन्होंने भोगा, अनुभव किया, उनका दुःख अवर्णनीय है। उसे तो वे ही अनुभव कर सकते हैं परन्तु समाज में दूसरे लोग जो इस दुःख का अनुभव कर सकते हैं, वे ही इस कार्य में सहायता के लिये आगे बढ़ते हैं। यह प्रसन्नता और गर्व की बात है कि प्रधानमन्त्री मोदी और उनकी सरकार ने इस मानवीय संवेदना का परिचय दिया, उससे विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ी है। इससे संवेदनशीलता, तत्परता एवं बुद्धिमत्ता का परिचय मिलता है। हमारे ऋषियों ने मनुष्य जीवन में आने वाली समस्याओं का समाधान किया है। समस्या के समाधान को धर्म कहा गया है। जहाँ कहीं समस्या है, वहाँ उसके समाधान के रूप में धर्म उपस्थित होता है। हमारी संस्कृति में सेवा कार्य को धर्म कहा गया है। इससे पता लगता है कि सेवा एक अनिवार्य कार्य है और समस्या का समाधान भी।

इस बात को हम ऐसे समझ सकते हैं। जब मनुष्य समर्थ होता है, युवा होता है, सम्पन्न होता है तो वह समझता है कि मुझे किसी से क्या लेना है, मैं अपने पुरुषार्थ से जो अर्थोपार्जन करता हूँ, वह मेरा है, मैं उसका अपने लिये उपयोग करता हूँ। जैसे मैं अपने उपार्जित धन से अपना काम करता हूँ, उसी प्रकार सबको अपने धन से अपना काम चलाना चाहिए। मैं किसी के लिये कैसे उत्तरदायी हूँ? यह एक बुद्धिमान् व्यक्ति का विचार नहीं हो सकता। मनुष्य जीवन में सदा समर्थ और सम्पन्न नहीं रहता। पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी ने अपनी आत्मकथा में एक प्रसंग लिखा है कि – मैं पचहत्तर वर्ष की आयु में रोगी हो गया। रोग का आक्रमण लम्बा रहा, शरीर अत्यन्त निर्बल हो गया, परिणामस्वरूप खाना-पीना भी मेरे लिए स्वयं करना सम्भव नहीं रहा। जब मेरे परिवार के लोगों ने मुझे चम्मच से खिलाया, तब मुझे लगा कि केवल बच्चों को ही चम्मच से नहीं खिलाया जाता, बुढ़ापे में भी चम्मच से खिलाना पड़ता है। मनुष्य स्वस्थ, समर्थ एवं सम्पन्न होता है तब उसे किसी की आवश्यकता नहीं लगती परन्तु प्रत्येक मनुष्य के जीवन में शैशवावस्था, रुग्णावस्था, रोग और वृद्धावस्था आती है। इन तीनों के अतिरिक्त दुर्घटना कब, किसके जीवन में आये? नहीं कहा जा सकता। समाज में इन परिस्थितियों में मनुष्य को दूसरों की सहायता की आवश्यकता होती है। शैशव में मनुष्य के बालक का उत्पन्न होने के पश्चात् अकेले जीवित रहना असम्भव है। उसको बचाने के लिए माता-पिता, पालक की आवश्यकता होती है।

हम बचपन से किन-किन की सहायता से जीवित बचे हैं, इसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। खाना-पीना, उठना-बैठना, चलना-बोलना, वस्त्र पहनना आदि समस्त जीवन व्यापार दूसरों के आधीन ही होता है। दूसरों की सहायता के बिना हमारा जीवित रहना सम्भव नहीं है। इस प्रकार वृद्धावस्था में हम कितने भी सम्पन्न हों, अशक्त होने की दशा में हमें दूसरों की सहायता की आवश्यकता पड़ती है। जब कभी रोग, शोक, भय आदि से आक्रान्त हो जाते हैं, तब हमारे जीवन में दुर्घटना कब, कहाँ घटित हो जाये, यह निश्चित नहीं। आज समुद्र में तूफान आते हैं, आँधियाँ आती हैं, बाढ़ आती है, सूखा पड़ता है, भूकम्प आता है, वायुयान, रेल, बस आदि की दुर्घटनाएँ होती हैं, आग लग जाती है। ये सब हमारे सामर्थ्य को एक क्षण में व्यर्थ कर देते हैं। हमारी संपत्ति हमारे लिए निरर्थक हो जाती है। हमारी संपत्ति से एक घूँट पानी हम नहीं प्राप्त कर सकते, जेब और बैंक में रखा हुआ धन हमारी असहाय स्थिति को दूर करने का सामर्थ्य खो देता है। इस परिस्थिति में हमारे बचने का क्या उपाय शेष रहता है- वह उपाय है दूसरों के द्वारा दी जाने वाली सहायता, जिसे हम सेवा के रूप में जानते हैं।

सेवा की अनिवार्यता तब समझ में आती है, जब व्यक्ति विवश होता है। मनुष्य किसी स्थान या व्यक्ति से परिचित न हो, भाषा भी न आती हो और जेब में पैसे भी न हों, तब व्यक्ति कैसे जीवित रहेगा? एक विकल्प तो यह है कि ऐसा व्यक्ति मर जाये तो हमारा क्या दोष है? इसके उत्तर में विचार करना चाहिए कि क्या यह परिस्थिति किसी के साथ ही आती है या यह परिस्थिति सबके साथ आ सकती है? तो इसका उत्तर है, यह परिस्थिति किसी के भी जीवन में कभी भी आ सकती है। तो इसका उपाय क्या है? इसका उपाय यह है कि जो भी व्यक्ति वहाँ उपस्थित है, वही हमारी सहायता करे, परन्तु कोई व्यक्ति आपकी सहायता क्यों करे? यहीं उत्तर है कि सेवा करना धर्म है, अतः उस व्यक्ति की सहायता की जानी चाहिए। सामान्य रूप में सभी व्यक्ति एक दूसरे की सहायता या आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। यह पूर्ति का प्रकार दो प्रकार का हो सकता है। हम रेल में यात्रा कर रहे हैं। हमें प्यास लगती है, हम जेब से पैसे निकालते हैं, पानी वाले को देते हैं, वह हमें पानी दे देता है। उसने भी हमारी आवश्यकता की पूर्ति की है। इस कार्य के बदल में कोई कह सकता है कि मैं सेवा कर रहा हूँ, परन्तु यह सेवा नहीं है। सेवा में धन होने की अनिवार्यता नहीं है।

जब हम किसी कार्य को धर्म समझकर करते हैं तो उसमें व्यक्ति की पात्रता, उसकी आवश्यकता पर निर्भर करती है, जबकि व्यवसाय में पात्रता उसकी आवश्यकता पर नहीं, अपितु उसकी आर्थिक सामर्थ्य पर टिकी है। सेवा करने वाला व्यक्ति केवल आवश्यकता को, उसकी पीड़ा को देखता है, जबकि व्यवसाय करने वाला व्यक्ति उसकी आर्थिक क्षमता को देखता है, उसका उसकी पीड़ा या आवश्यकता से कोई सम्बन्ध नहीं होता। सेवा का उत्कृष्ट स्वरूप होता है जब हम प्राणि मात्र को उसकी पीड़ा से पहचानते हैं, न कि जाति, लिंग, आकृति या हानि-लाभ से। भगवान् बुद्ध ने अपने शिष्यों को शिक्षा देकर प्रचार के लिए भेजा। एक शिष्य ने एक शराबी को देखकर उसे उपदेश देने का प्रयास किया, शराबी ने बोतल से उसका सिर तोड़ दिया। शिष्य ने गुरु जी के पास जाकर अपना हाल सुनाया, गुरु जी ने सुन लिया। उस समय कुछ न कहा फिर एक बार उसी शिष्य को लेकर उसी गाँव में गये, जहाँ वही शराबी रोग से दुःखी अकेला पड़ा था। भगवान् बुद्ध उसे उपेदश नहीं दिया, उसकी सेवा की, उसे साफ किया, उसको औषध दी, उसको भोजन-पानी दिया, वह शराबी भगवान् बुद्ध का शिष्य बन गया।

जिस क्षण हम सेवा के बदले में कुछ चाहते हैं, तो वह सौदा हो जाता है। नेपाल के प्रसंग में यह घटना याद करने योग्य है। चर्च ने भूकम्प के समय बाइबिल की एक लाख प्रतियाँ नेपाल में भेजी, यह किसी भी प्रकार से सेवा की श्रेणी में नहीं आता। यह तो मौके का फायदा उठाना है, यह व्यापार है, सौदा है। चर्च कहीं भी सेवा नहीं करता, इस प्रसंग में एक घटना का उल्लेख करना उचित होगा। ईसाई प्रचारक फादर लेसर अब स्वर्गीय हो गये, उन्होंने अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए कहा था- हमने भारत में चार सौ वर्षों से सेवा का कार्य किया, परन्तु भारतीय समाज अभी तक हम पर विश्वास नहीं करता। इसके उत्तर में मैंने निवेदन किया कि फादर, ईसाई चर्च कभी भी सेवा कार्य नहीं करता, वह सदा सौदा करता है, वह बदले में ईमान माँगता है। उसके हर सेवा कार्य के पीछे ईसाई बनने की शर्त रहती है। जब कभी हम अपने कार्य के बदले में दूसरे से कुछ चाहते हैं तो वह सेवा न होकर सौदा, व्यापार हो जाता है। हमारे ऋषियों ने सेवा को धर्म कहा है। धर्म स्थान एवं व्यक्ति की योग्यता नहीं देखता, उसकी पात्रता केवल उसकी पीड़ा है और उसका निराकरण का प्रयास सेवा है।

संसार दुःखमय है, इसमें जन्म के साथ ही दुःखों का प्रारम्भ हो जाता है। हमारे मित्र, सहयोगी, सम्बन्धी मिलकर एक-दूसरे के दुःख को दूर करने का प्रयास करते हैं, परन्तु जिनको जीवन में ये साधन नहीं मिले, उनका भी उपाय होना चाहिए, यह उनका अधिकार है। जब हम सेवा करते हैं, तब हम उस पर उपकार नहीं कर रहे होते। हमें उपकार का अवसर मिला है, हम आज पीड़ित नहीं, सेवक हैं। भारतीय संस्कृति में कोई भी कार्य निष्फल नहीं होता, सेवा कार्य भी नहीं। जैसे व्यापार का लाभ तत्काल होता है तो हम कर्म के लिए प्रेरित होते हैं, परन्तु हम भूल जाते हैं कि यदि व्यापार में किया गया कर्म निष्फल नहीं गया तो धर्म में किया गया कर्म कैसे निष्फल हो सकता है? धर्म कार्य में भी कार्य तो हुआ है, हमने इच्छा नहीं की कि हमें कोई पैसा मिले, कोई लाभ मिले, इस परिस्थिति में हमारे दो कार्य होते हैं और उसके दो फल मिलते हैं। एक फल हमारी बदले की इच्छा न होने से सन्तोष की प्राप्ति और अनासक्ति का सुख मिलता है तथा जो हमारे दूसरे की सहायता का कार्य किया है, उसका लाभ हमें तब सहज ही प्राप्त होता है, जब कभी हम किसी संकट या विपत्ति में फँस जाते हैं और कहीं से अज्ञात हाथ आकर हमारी रक्षा करते हैं, हमें बचा लेते हैं। व्यापार के फल को हम जानते हैं कि वह कब मिलेगा, कहाँ मिलेगा, कितना मिलेगा? परन्तु धर्म का फल कहाँ किसको कब मिलेगा हमें पता नहीं चलता। सबको धार्मिक होने की इसीलिये आवश्यकता है कि सभी धार्मिक होंगे, सेवा भावी होंगे तो कोई भी कहीं भी कष्ट में क्यों न हो, जो व्यक्ति जहाँ उपस्थित है, उसके मन में सेवा भाव होगा वह तत्काल सेवा कार्य में जुट जायेगा।

हमें स्मरण रखना चाहिए कि जब हम दुःख में होते हैं, तब परमेश्वर से सहायता की याचना करते हैं। हमें स्मरण रखना होगा कि हर प्राणी उस परमेश्वर की ही सन्तान है, किसी पीड़ित प्राणी की सेवा करना परमेश्वर को प्रसन्न करने का उपाय है। आज कोई व्यक्ति दुःखी को लूटता है, हिंसा करता है, उसकी उपेक्षा करता है तो वह पापी बन जाता है, लोग अपनी पापवृत्ति के कारण बेहोश, मरे, पीड़ित व्यक्ति की सम्पत्ति लूटते हैं, चुराते हैं तो वे किस प्रकार अपने लिए दूसरे की सहायता मिलने की अपेक्षा कर सकते हैं? बहुत सारे लोग इन आपदाओं के लिए परमेश्वर को उत्तरदायी मानते हैं। परमेश्वर उत्तरदायी इसलिये नहीं है कि संसार उसकी व्यवस्था में चल रहा है। जहाँ भी, जब भी व्यवस्था में व्यतिक्रम होता है तो संकट आता है, बहुत बार यह अव्यवस्था के कारण का हमें पता चलता है और बहुत बार हमें पता नहीं चलता। अधिकांश रूप में हम अपनी आवश्यकता और स्वार्थ की पूर्ति के लिए नियमों को तोड़ते हैं, व्यवस्था को भंग करते हैं।

हम वृक्षों को तोड़कर, जलधाराओं को मोड़कर पर्यावरण के सन्तुलन को बिगाड़ देते हैं। स्वार्थ के लिये बड़ी मात्रा में हिंसा करते हैं। जहाँ जड़ पदार्थों के उचित क्रम और व्यवस्था को बिगाड़ना हिंसा है, वहीं प्राणियों का निरन्तर वध करना हिंसा है। उसका हमारे जीवन और पर्यावरण पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। नेपाल में धर्म के नाम पर जितनी जीव हत्या होती है, क्या उसके दण्ड से आप बच सकते हैं? आप पीड़ा नहीं चाहते, आप पीड़ा देने वाले को अपराधी मानते हैं, उसे दण्डित करना चहाते हैं तो क्या निरीह पशुओं को अकारण धर्म के नाम से क्रूरता से संहार करके आप सुरक्षित रह सकते हैं? आज वैज्ञानिकों ने प्रमाणित किया कि प्राणियों की निरन्तर बढ़ती हुई हिंसा वातावरण में भारी उथल-पुथल का कारण है। इसी कारण भूकम्प और प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं। पशु प्राणी सृष्टि-संरचना में एक महत्वपूर्ण कड़ी है। उसके न रहने पर या क्षतिग्रस्त होने पर समस्त पर्यावरण प्रभावित होता है। हिंसा से मनुष्य में तमोगुण, बढ़कर क्रोध, तनाव, भय, आतंक आदि उत्पन्न करता है। इससे मनुष्य का मन-मस्तिष्क विकृत होकर उसे रोगी, अस्थिरचित्त एवं दुर्बल बना देती है।

केदारनाथ, नेपाल आदि की घटनाओं का वैज्ञानिक अध्ययन करके उनके कारणों का हमें पता लगाना चाहिए। अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि के पालन से आत्मा में शान्ति, मन में स्थिरता व बुद्धि में सतोगुण बढ़ता है। हिंसा से स्वार्थ एवं परहानि की प्रवृत्ति बढ़ती है। नेपाल में पशुपतिनाथ के नाम पर हम भैसों-बकरों की बलि चढ़ा कर शान्ति से रहना चाहेंगे, यह सम्भव नहीं होगा। जीवन में से किसी भी प्रकार की हिंसा को दूर किये बिना मनुष्य का सुखी होना सम्भव नहीं है। परोपकार सेवा ही पुण्य है और हिंसा तथा स्वार्थ के लिए परहानि करना ही पाप है। प्रकृति की प्राणियों की हिंसा जबतक बढ़ती रहेगी, समाज का सन्ताप, कष्ट, आपत्तियां भी बढ़ती रहेंगी, अतः कहा गया है- पुण्य से सुख मिलता है और पाप से दुःख परोपकार पुण्य है और परपीड़न पाप है-

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।।

– धर्मवीर

 

तमाम मुसलमान इस्लाम छोड़ जायेंगे .- डॉ गुलाम जेलानी

जो लोग दूर दराज  मुल्कों में सफर करने के आदी हैं वो इस हकीकत से आगाज़ हैं कि  सूरज गुरूब  नहीं होता . जब पाकिस्तान में सूरज डूब  जाता है तो मिश्र में लोग शाम की चाय पी रहे होते हैं. वहीं इंगलिश्तान में दोपहर का खाना खा रहे होते हैं और अमरीका के बाज हिस्सों में सूरज निकल रहा होता है . अगर आप बीस काबिल एहातिमाद   घड़ियाँ  साथ रखकर एक तियारे में विलायत चले जाएँ तो वहां जा कर आप हैरान हो जायेंगे की जब यह तमाम घड़ियाँ  शाम के आठ बजा रही होंगी वहां दिन का डेढ़ बज रहा होगा अगर आप एक तेज रफ़्तार रोकेट में बैठ कर अमरीका चले जाएँ तो यह देख कर आपकी हैरत और बढ़ जायेगी कि इन घड़ियों के मुताबिक सूरज तुलुह  हो जाना चाहिए था लेकिन वहां डूब रहा होगा अगर इन्ही घड़ियों के साथ आप जापान की तरफ रवाना हो जाएँ तो पाकिस्तानी वकत के मुताबिक वहां एनितीन  दोपहर सूरज डूब रहा होगा . खुलासा यह की रात के ठीक बारह बजे इंगलिस्तान में शाम के शाम के साढ़े पांच बज रहे होंगे और  हवाई में सुबह के साढ़े पांच .

 

आज घर घर रेडियो मौजूद है रात के नौ बजे रडियो के पास बैठ के पहले इंगलिस्तान लगायें फिर टोकियो और इस के बाद अमरीका आपको मन में यकीन हो जाएगा की जमीन का साया (रात ) नसब (आधा )   दुनिया पर है और नसब (आधा )   पर आफताब पूरी आबोताब . के साथ चमक रहा है .

 

इस हकीकत की वजाहत के बाद आप ज़रा यह हदीस पढ़ें –

अबुदर फरमाते हैं की एक मर्तबा गुरूब आफताब  के बाद रसूल आलः ने मुझ से पूछा क्या तुम जानते हो कि ग़ुरबत के बाद आफताब कहाँ चला जाता है . मैने कहा अल्लाह और उसका रसूल बेहतर जानते हैं आपने फ़रमाया की सूरज खुदाई तख़्त ने नीचे सजदे में गिर जाता है और दुबारा तालोह होने की इजाजत मांगता  है और उसे मुशरफ से दोबारा निकलने की इजाजत मिल जाती है लेकिन एक वकत ऐसा भी आयेगा की उसे इजाजत नहीं मिलेगी . और हुकुम होगा की लौट जाओ जिस तरफ से आये हो ……… वह मगरब की तरफ से निकलना शुरू करेगा और.तफसीर यही है .

अगर हम रात के दस बचे पाकिस्तान रेडियो से दुनिया को या हदीस सुना दें और कहें की इस वकत सूरज अर्श   के नीचे सजदे में पड़ा हुआ है तो सारी मगरबी  दुनिया खिलखिला कर हंस देगी और वहाँ के तमाम मुसलमान इस्लाम छोड़ जायेंगे .

हनुमान जी बन्दर नहीं थे

भारतीय इतिहास में अनेक विद्वान् तथा बलवान् हुए हैं। हनुमान उनमें से एक                       व्यक्ति थे। उनकी सेवक के रूप में बहुत अच्छी      है। उनका जीवन आदर्श ब्रह्मचारी का भी रहा है परन्तु हमारे नादान पौराणिक भाइयों ने उन्हें बन्दर मानकर उनके साथ अन्याय किया हैः-
एक वे हैं जो दूसरों की छवि को देते हैं सुधार।
एक हम हैं लिया अपनी ही सूरत को बिगाड़।।
वे बन्दर न थे, अपितु पूर्णतः ऊपरोक्त गुणों से युक्त एक प्रेरक, आदर्श तथा कुलीन महापुरुष थे। कुछ प्रमाणों से हम इसे स्पष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं। मर्यादा                                           राम से उनकी प्रथम भेंट तब हुई थी, जब राम व लक्ष्मण भगवती सीता की खोज में इधर-उधर भटक रहे थे। खोजते-खोजते वे दोनों ऋष्यमूक पर्वत पर- सुग्र्रीव की ओर गए तो सुग्रीव उन्हें दूर से देखकर भयभीत हो गया। उसने अपने मन्त्रियों से यह कहा कि ये दोनों वाली के ही भेजे हुए हैं ऐसा प्रतीत होता है। हे वानर शिरोमणी हनुमान! तुम जाकर पता लगाओ कि ये कोई दुर्भावना लेकर तो नहीं आये हैं।
सुग्रीव की इस बात को सुनकर हनुमान जहाँ अत्यन्त बलशाली श्री राम तथा लक्ष्मण थे, उस स्थान के लिए तत्काल चल दिये। वहाँ पहुँचने से पूर्व उन्होंने अपना रूप त्यागकर भिक्षु (=सामान्य तपस्वी) का रूप धारण किया तथा श्री राम व लक्ष्मण के पास जाकर अपना परिचय दिया तथा उनका परिचय लिया।
तत्पश्चात् श्री राम ने अनुज लक्ष्मण से कहा-
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः।
नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्।।
वा. रा., किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक २८
जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का                           नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान् नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता।
नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।
बहु व्याहरतानेन न किंचिदपश    िदतम्।।
-वा. रा., किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग श्लोक २९
अर्थः- निश्चय ही इन्होंने                                   व्याकरण का अनेक बार अध्ययन किया है। यही कारण है कि इनके इतने समय बोलने में इन्होंने कोई भी त्रुटि नहीं की है।
न मुखे नेत्रयोश्चापि ललाटे च भ्रुवोस्तथा।
अन्येष्वपि च सर्वेषु दोषः संविदितः क्वचित्।।
-वा. रामायण, किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक ३०
अर्थः-                               के समय इनके मुख, नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सब अंगों से भी कोई दोष प्रकट हुआ हो, ऐसा कहीं ज्ञात नहीं हुआ।
इससे स्पष्ट है कि हनुमान वेदों के विद्वान् तो थे ही, व्याकरण के उत्कृष्ट ज्ञाता भी थे तथा उनके शरीर के सभी अंग अपने-अपने करणीय कार्य उचित रूप में ही करते थे। शरीर के अंग जड़ पदार्थ हैं व मनुष्य का आत्मा ही अपने उच्च संस्कारों से उच्च कार्यों के लिए शरीर के अंगों का प्रयोग करता है।                   किसी बन्दर में यह योग्यता हो सकती है कि वह वेदों का विद्वान् बने? व्याकरण का विशेष ज्ञाता हो? अपने शरीर की उचित देखभाल भी करे?
रामायण का दूसरा प्रमाण इस विषय में प्रस्तुत करते हैं। यह प्रमाण तब का है, जब अंगद,                                   व हनुमान आदि समुद्रतट पर बैठकर समुद्र पार जाकर  सीता जी की खोज करने के लिए विचार कर रहे थे। तब                                  ने हनुमान जी को उनकी उ                                  कथा सुनाकर समुद्र लङ्घन के लिए उत्साहित किया। केवल एक ही श्लोक वहाँ से उद्धृत है-
सत्वं केसरिणः पुत्रःक्षेत्रजो भीमविक्रमः।
मारुतस्यौरसः पुत्रस्तेजसा चापि तत्समः।।
-वा. रामायण, किष्किन्धा काण्ड, सप्तषष्टितम सर्ग, श्लोक २९
अर्थः- हे वीरवर! तुम केसरी  के क्षेत्रज पुत्र हो। तुम्हारा पराक्रम शत्रुओं के लिए भयंकर है। तुम वायुदेव के औरस पुत्र हो, इसलिए तेज की दृष्टि से उन्हीं के समान हो। इससे सिद्ध है कि हनुमान जी के पिता केसरी थे परन्तु उनकी माता अंजनी ने पवन नामक पुरुष से नियोग द्वारा प्राप्त किया था। इस सत्य को स्वयं हनुमान जी ने भी स्वीकार किया, जब वे लंका में रावण के दरबार में प्रस्तुत किए गए थे-
अहं तु हनुमान्नाम मारुतस्यौरसः सुतः।
सीतायास्तु कृते तूर्णं शतयोजनमायतम्।।
– वा. रामायण, सुन्दरकाण्ड, त्रयस्त्रिंश सर्ग
अर्थः- मैं पवनदेव का औरस पुत्र हूँ। मेरा नाम हनुमान है। मैं सौ योजन पार कर सीता जी की खोज में आया हूँ।
हनुमान को मनुष्य न मानकर उन्हें बन्दर मानने वालों से हमारा निवेदन है कि इन दो प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध है कि हनुमान जी बन्दर न थे, अपितु वे एक नियोगज पुत्र थे। नियोग प्रथा मनुष्य समाज में अतीत में प्रचलित थी। यह प्रथा बन्दरों में प्रचलित होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। रामायण के इस प्रबल प्रमाण के होते हुए हनुमान जी को मनुष्य मानना ही पड़ेगा।
रामायण में से ही हम तीसरा प्रमाण भी प्रस्तुत करते हुए सिद्ध कते हैं कि हनुमान मनुष्य ही थे, न कि वे बन्दर थे। यह प्रमाण तब का है, जब हनुमान लंका में पहुँच तो गए थे किन्तु बहुत प्रयास करने पर भी सीता जी का पता न कर पाए तो वे सोचने लगे थे कि बिना सीता जी का अता-पता पाए मैं यदि लौटूँगा तो राम जी तथा स्वामी सुग्रीव जी को                   सूचना दूँगा? वहाँ हा हाकार मचेगा। वाल्मीकि ऋषि के                शब्द्दों मेंः-
सोऽहं नैव गमिष्यामि किष्कि न्धां नगरीमितः।
वानप्रस्थो भविष्यामि ह्यदृष्ट्वा जनकात्मजाम्।।
वा. रा., सुन्दरकाण्ड, सप्तम सर्ग
अर्थः- मैं यहाँ से लौटकर किष्किन्धा नहीं जाऊँगा। यदि मुझे सीता जी के दर्शन नहीं हुए तो मैं वानप्रस्थ धारण कर लूँगा। हनुमान जी को मनुष्य न मानकर बन्दर घोषित करने वाले अपने पौराणिक भाई-बहनों से निवेदन है कि वे अपना हठ त्याग कर यह तथ्य तुरन्त स्वीकार कर लें कि हनुमान सच्चे वैदिक धर्मी मनुष्य थे, न कि वे बन्दर थे क्योंकि वानप्रस्थी बनने की बात सोचना तो दूर क ी बात है, वानप्रस्थ                       होता है, बन्दरों को यह भी ज्ञात नहीं होता। हनुमान को बन्दर मानने वाले लोग तुलसीदास गोस्वामी द्वारा रचित ‘‘हनुमान चालीसा’’ का पाठ करते हैं परन्तु उसमें भी एक प्रमाण ऐसा है जो हमारी बात का समर्थन करता हैः-
हाथ वज्र औ ध्वजा विराजे।
कान्धे मूँज जनेऊ साजे।।
काश! ऐसे लोग इस चालीसा में                                   यह पाँचवा पद बोलते-पढ़ते समय इतना समझ पाते कि इसके अनुसार हनुमान जी अपने कन्धे पर जनेऊ धारण किए फिरते थे तथा बन्दर नहीं, अपितु जनेऊ (= यज्ञोपवीत) तो मनुष्य ही धारण करते हैं।
हनुमान दूरस्थ किसी पर्वत पर जाकर मूर्च्छित लक्ष्मण के उपचार के लिए संजीवनी बूटी लाए थे। यह कार्य भी कोई बन्दर नहीं कर सकता अपितु कोई मनुष्य ही कर सकता था जिसे जड़ी-बूटियों का पर्याप्त ज्ञान हो।
हनुमान से हटकर अब थोड़े विचार उनके समकालीन रामायण के कुछ अन्य पात्रों के विषय में भी प्रस्तुत हैं। इनमें एक प्रसंग वाली की पत्नी तारा से                               है। जब सुग्रीव दूसरी बार वाली को युद्ध के लिए ललकारने गया तो वाली की पत्नी तारा ने अपने पति को राम जी से मैत्री कर लेने की प्रार्थना की परन्तु वाली ने ऐसा न करके सुग्रीव का सामना करने, सुग्रीव का घमण्ड चूर-चूर करने, परन्तु सुग्रीव के प्राण हरण न करने का वचन देकर तारा को वापिस राजप्रसाद में चले जाने को कहा तो-
ततः स्वस्त्ययनं कृत्वा मन्त्रविद् विजयैषिणी।
अन्तःपुरं सह स्त्रीभिः प्रविष्टा शोकमोहिता।।
-वा.रा. किष्किन्धा काण्ड, षोडश सर्ग श्लोक १२
अर्थः- वह पति की विजय चाहती थी तथा उसे मन्त्र का भी ज्ञान था। इसलिए उसने वाली की मंङ्गल-कामना से स्वस्तिवाचन किया तथा शोक से मोहित होकर वह अन्य स्त्रियों के साथ अन्तःपुर को चली गई।
मन्त्र का ज्ञान बन्दरों को अथवा बन्दरियों को नहीं होता, न ही हो सकता है। अतः सिद्ध है कि हनुमान का जिन से मिलना-जुलनादि था, उनकी पत्नियाँ भी मनुष्य ही थीं। यही तारा जब अपने पति वाली को प्राण त्यागते देख रही थी तो अन्य बातों के अतिरिक्त यह भी बोली-
यद्यप्रियं किंचिदसम्प्रधार्य कृतं मया स्यात् तव दीर्घबाहो।
क्षमस्व मे तद्धरिवंशनाथ व्रजामि मूर्धा तव वीरपादौ।।
– वा. रा. किष्किन्धाकाण्ड, एकविंश सर्ग, श्लोक २५
अर्थः- ‘‘महाबाहो! यदि नासमझी के कारण मैंने आपका कोई अपराध किया हो तो आप उसे क्षमा कर दें। वानरवंश के स्वामी वीर आर्यपुत्र! मैं आपके चरणों में मस्तक रखकर यह प्रार्थना करती हूँ।’’ इस श्लोक से सिद्ध है कि वाली आर्यों के एक वंश वानर में जन्मा  मनुष्य ही था। इसी प्रकार तारा को भी महर्षि वाल्मीकि ने आर्य पुत्री ही घोषित कियाः-
तस्येन्द्रकल्पस्य दुरासदस्य महानुभावस्य समीपमार्या।
आर्तातितूर्णां व्यसनं प्रपन्ना जगाम तारा परिविह्वलन्ती।।
– वा. रा. किष्किंधा काण्ड, चतुर्विंश सर्ग श्लोक २९
अर्थः- ‘‘उस समय घोर संकट में पड़ी हुई शोक पीड़ित आर्या तारा अत्यन्त विह्वल हो गिरती-पड़ती तीव्र गति से महेन्द्र तुल्य दुर्जय वीर महानुभाव श्री राम के समीप गई।’’
वाली की मृत्यु के पश्चात् अङ्गद व सुग्रीव ने वाली के शव का अन्त्येष्टि-संस्कार शास्त्रीय विधि से कियाः-
ततोऽग्ंिन विधिवद् द    वा सोऽपसव्यं चकार ह।
पितरं दीर्घमध्वानं प्रस्थितं व्याकुलेन्द्रियः।।
संस्कृत्य वालिनं तं तु विधिवत् प्लवगर्षभाः।
आजग्मुरुदकं कर्तुं नदीं शुभजलां शिवाम्।।
– वा. रा. किष्किंधा काण्ड, षड्विंश सर्ग, श्लोक ५०-५१
अर्थः- ‘‘फिर शास्त्रीय विधि के अनुसार उसमें आग लगाकर उन्होंने उसकी प्रदक्षिणा की। इसके बाद यह सोचकर कि मेरे पिता लम्बी यात्रा के लिए प्रस्थित हुए हैं, अङ्गद की सारी इन्द्रियाँ शोक से व्याकुल हो उठीं। इस प्रकार विधिवत् वाली का दाह संस्कार करके सभी वानर जलाञ्जलि देने के लिए पवित्र जल से भरी हुई कल्याणमयी तुङ्गभद्रा नदी के तट पर आए।’’
इस प्रमाण से सिद्ध होता है कि वाली, सुग्रीव, अङ्गद आदि वेद विहित शास्त्रीय कार्य करते थे। यह भी उनके मनुष्य होने का प्रमाण है।
उपर्युक्त तथ्यों के बाद हम अब सामान्य विश्लेषण करते हुए पौराणिकों से पूछते हैं कि वाली की पत्नी तारा, सुग्रीव की पत्नी रुमा हनुमान की माँ अंजनि मनुष्य योनि की स्त्रियाँ थीं तो उनके माताओं-पिताओं ने उन्हें बन्दरों अर्थात् वाली, सुग्रीव तथा केसरी के सङ्ग                                             दिया था? बन्दरों व स्त्रियों से बन्दरों का जन्म होना अव्यवहारिक व अवैज्ञानिक है। अतः यह सर्वथा अमान्य है कि उक्त पुरुष बन्दर थे। यह भी निवेदन है कि बन्दरों, उनकी पत्नियों, उनके पिताओं तथा उनकी माताओं के नाम नहीं होते, उनके जीवन का कोई इतिहास नहीं होता, खाने-पीने व सोने-जागने के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य वे करते नहीं। फिर ऊपरोक्त पात्रों के नामकरण                       हुए? उनके कार्य-व्यवहार मनुष्यों जैसे-कैसे                   हुए?
वास्तविकता यह है कि वानर एक जाति है। इसे आंग्ल भाषा में सरनेम भी कहते हैं। हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा व हमीरपुर जिलों में नाग जाति के कुछ मनुष्य आपको मिल सकते हैं। नाग                  का अर्थ सर्प है परन्तु वे इस                  को अपने नाम के साथ सहर्ष लिखते हैं। पिछले वर्ष के न्द्र सरकार में कार्यरत एक उच्चाधिकारी जब सेवानिवृ    ा हुए था तो किसी विशेष कारण वश उसका नाम भी दैनिक पत्रों में छपा था। तब पता चला कि वह भी ऊपरोक्त नाग जाति का ही सदस्य था। सन् १९६९ में भारत के राष्ट्रपति पद पर वी.वी. गिरि नामक एक दक्षिण भारतीय व्यक्ति आसीन हुआ था। गिरि                  का अर्थ पर्वत है परन्तु वह पर्वत न होकर मनुष्य ही था। गिरि उसका सरनेम था या उसकी जाति थी। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, राजस्थान, उ    ारप्रदेश तथा कुछ अन्य प्रदेशों में बहुत-से लोग (अधिकतर जन्मना क्षत्रिय) अपने नाम के साथ सिंह                  का प्रयोग करते हैं, जिसका अर्थ शेर है। हरियाणा में बहुत-से लोग मोर जाति से सम्बद्ध हैं और उनके नाम के पीछे मोर                  लिखा होता है। पंजाब के एक राज्यपाल जयसुख लाल हाथी हुए हैं। हरियाणा में सिंह मार नामक जाति के कई व्यक्ति आपको मिल सकते हैं।
इस वर्णन के आधार पर हमारा निवेदन है कि जिस प्रकार नाग, गिरि, मोर, सिंह, हाथी व सिंह मार नामक जातियाँ मनुष्यों की ही हैं, न कि सर्पों, पर्वतों, शेरों, हाथियों व शेरों के हत्यारों आदि की हैं, हालांकि इनके शा    िदक अर्थ ऊपरोक्त ही है। इसी प्रकार रामायण के हनुमान, सुग्रीव, बाली, तारा, रुमा, जाम्बवान व अङ्गद आदि वानर नामक मनुष्य जाति के सदस्य थे, न कि ये बन्दर थे। यह उनके कार्यों व इतिहास से प्रमाणित किया गया है।
– चूना भट्ठियाँ, सिटी सेन्टर के निकट, यमुनानगर (हरियाणा)

जर्मन संस्कृत विवाद कितना उचित – डॉ धर्मवीर

गत दिनों मोदी सरकार के एक निर्णय को लेकर समाचार-पत्रों में पक्ष-विपक्ष पर बहुत लिखा गया। सामान्य रूप से इस विवाद से ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कोई बहुत बड़ा निर्णय मोदी ने किया है। जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है। बात केवल इतनी सीधी थी कि पिछली सरकार ने एक अवैधानिक और अनुचित निर्णय लिया था, उसको इस सरकार ने वापस कर लिया। हाँ, इतना सच है यदि सोनिया की सरकार सत्ता में आती तो यह निर्णय नहीं लिया जाता। यह निर्णय सोनिया सरकार ने अपनी सरकार की नीति के परिप्रेक्ष्य में लिया था। इस नीति को समझने के लिए गत वर्षों के क्रियाकलाप पर दृष्टि डालना उचित होगा। इस नीति का मूल कारण था चर्च, जिसे अपने काम करने में सबसे बड़ी बाधा लगती है संस्कृत। मैकाले का मानना था कि इस देश को अपने आधीन करने के लिए इसकी जड़ों को काटना आवश्यक है। भारतीय इतिहास और संस्कृति की जड़ संस्कृत में निहित है। इस देश की जीवन पद्धति संस्कृत में रच बस गई है। प्रातःकाल से सायं और जन्म से मृत्यु तक का यहाँ का सामाजिक जीवन संस्कृत से संचालित होता है। मैकाले ने यहाँ की समझ और समृद्धि को समाप्त करने के लिए सरकार का संरक्षण देकर चर्च का प्रचार-तन्त्र खड़ा किया था। सरकार ने ऐसी नीतियाँ बनाई जिससे यहाँ के लोगों को अपने आधार से पृथक् किया जाये और ईसायत के रूप में अपने प्रति निष्ठावान् बनाया जा सके। यह प्रयास नेहरू से सोनिया गाँधी तक निरन्तर चलता आ रहा है। इसी नीति के अनुसार संस्कृत को विभिन्न पाठ्यक्रमों से धीरे-धीरे बाहर कर दिया गया। सन् २००१ में दिल्ली में हुए मानव-अधिकार सम्मेलन में चर्च के सलाहकार और मानव अधिकारवादी शिक्षक कान्ता चैलय्या ने कहा था– इस देश में हमारे लिए सबसे बड़ी रुकावट संस्कृत भाषा है और इसे हम समाप्त करना चाहते हैं। चैलय्या का कहना था- ‘‘वी वाण्ट टू किल संस्कृत इन दिस कण्ट्री’’ इसी नीति का अनुसरण करते हुए और विभागों की तरह केन्द्रीय विद्यालय के पाठ्यक्रम से भी संस्कृत को हटाया गया। पहले बड़ी कक्षाओं से हटाया फिर पूरे विषय को ही पाठ्यक्रम से समाप्त कर दिया गया। यह समाप्त करने की प्रक्रिया ही वर्तमान सरकार के निर्णय का कारण है। समाचार पत्रों में अधिकांश चर्चा बिना वस्तुस्थिति जाने की गई है, अंग्रेजी समाचार-पत्रों ने और उनके समर्थकों द्वारा मोदी सरकार के निर्णय को गलत सिद्ध करने का धूर्तता पूर्ण प्रयास किया है।

राजीव गाँधी के समय भी संस्कृत को केन्द्रीय विद्यालयों के पाठ्यक्रम से हटाने का प्रयास किया गया था, उस समय संस्कृत-प्रेमियों ने इस निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय तक लड़ाई लड़ी और सरकार के प्रयास को विफल किया। सरकार ने दूसरी चाल चलकर संस्कृत विभाग से अध्यापकों को उन्नति दे कर विभाग ही समाप्त करा दिये। शिक्षकों के अभाव में छात्रों को संस्कृत पढ़ाता कौन? संस्कृत को समाप्त कर विदेशी भाषाओं को पढ़ाने का प्रावधान सोनिया गाँधी के समय किया गया। उस समय के मानव संसाधन मन्त्रालय के मन्त्री कपिल सि बल ने जर्मनी के साथ समझौता किया, जिसके क्रियान्वयन के लिए केन्द्रीय विद्यालय संगठन ने ५ जनवरी २०११ को एक परिपत्र जारी किया। जिसके चलते २०११-२०१२ के सत्र से कक्षा ६ से ८ तक तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत के स्थान पर जर्मन, फ्रेन्च, चीनी, स्पेनिश जैसी विदेशी भाषायें पढ़ाने के निर्देश दिये गये। जो शिक्षक संस्कृत अध्यापन का कार्य करते थे उन्हें इन भाषाओं का प्रशिक्षण लेने के लिए कहा गया जिससे इन अध्यापकों को इन भाषाओं को पढ़ाने की योग्यता प्राप्त हो सके। यह निर्देश अवैधानिक होने के साथ-साथ अनुचित भी था। जिस व्यक्ति ने जीवन का लम्बा समय जिस भाषा को सीखने और सिखाने में लगाया है उसके इस पुरुषार्थ और योग्यता को नष्ट करना व्यक्ति के साथ तो यह अन्याय है ही इसके साथ ही राष्ट्र की शैक्षणिक और भौतिक सम्पदा को नष्ट करने का अपराध भी है। परन्तु सरकार किसी बात को करने की ठान ले तो फिर उचित-अनुचित के विचार का प्रश्न ही कहाँ उठता है। इस प्रकार संस्कृत को पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया गया और उसके स्थान पर जर्मन पढ़ाना प्रारम्भ हो गया।

यह निर्देश संस्कृत भाषा और संस्कृति के नाश का कारण तो था ही साथ ही साथ यह एक अवैध कदम भी था। असंवैधानिक होने के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध भी था। संविधान के अनुच्छेद ३४३(१) में कहा गया है कि आधिकारिक भाषा देवनागरी लिपि में हिन्दी भाषा होगी। संविधान के अनुच्छेद ३५१ में कहा गया है- हिन्दी के विकास करने के लिए आवश्यकता होने पर प्राथमिक रूप से संस्कृत और बाद में अन्य भाषाओं से श द लिए जायें। संविधान में यह भी कहा गया है- भारत सरकार संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं के विकास के लिए प्रयास करेगी। इसमें किसी भी विदेशी भाषा का उल्लेख नहीं किया गया है अतः संस्कृत को हटाकर जर्मन पढ़ाने का निर्णय किसी भी दशा में उचित नहीं कहा जा सकता। केन्द्रीय विद्यालयों की नियमावली के अनुसार भी यह निर्देश अनुचित है। नियमावली के अध्याय १३ के अनुच्छेद १०८ में कहा गया है कि केन्द्रीय विद्यालयों में जो तीन भाषायें पढ़ाई जायेंगी वे हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत होंगी। इसी प्रकार राष्ट्रीय विद्यालय शिक्षा नीति के प्रावधानों के भी यह विरुद्ध है- नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क फॉर स्कूल एजुकेशन में जो त्रिभाषा सूत्र २-८-५ में कहा गया है, इस त्रिभाषा सूत्र में किसी विदेशी भाषा का समायोजन नहीं किया जा सकेगा। इस प्रकार किसी रूप में सोनिया सरकार द्वारा जारी किये गये परिपत्र को उचित ठहराया नहीं जा सकता। ऐसे परिपत्र के निर्देश को मोदी सरकार हटाती है तो यह कार्य कैसे प्रतिगामी कदम कहा जा सकता है। सरकार के निर्णय द्वारा केवल पुरानी गलती को सुधारा गया है। जब सोनिया सरकार ने संस्कृत हटाने का परिपत्र प्रकाशित किया तब २८ अप्रैल २०१३ को दिल्ली उच्च न्यायालय में इसके विरोध में एक जनहित याचिका दायर की गई थी, जब सरकार के निर्णय पर तथाकथित प्रगतिवादियों ने शोर मचाया तो सरकार ने न्यायालय में शपथ पत्र देकर अपने पुराने निर्णय को वापस ले लिया। नवम्बर २०१४ में शपथ पत्र दायर कर सोनिया सरकार द्वारा जारी पत्र को वापस ले लिया। साथ ही मोदी सरकार ने सितम्बर २०१४ में गोआ इंस्टीट्यूट, मैक्समूलर भवन के साथ संस्कृत के स्थान पर जर्मन पढ़ाने के समझौते की जाँच के आदेश भी दे दिये तथा समझौते का नवीनीकरण भी नहीं किया गया। जहाँ तक सत्र के मध्य में पाठ्यक्रम बदलने की बात है यह आपत्ति इसलिए निराधार है क्योंकि ८वीं कक्षा तक परीक्षा नहीं होती। छात्रों को बिना परीक्षा के उत्तीर्ण किया जाता है। अतः छात्र के परीक्षा परिणाम पर किसी प्रकार का प्रभाव पड़ने वाला नहीं है।

यह एक बहुत सामान्य बात थी कि एक असंवैधानिक निर्देश से संस्कृत को पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया गया था, उस निर्देश को सरकार ने वापस ले लिया। इसमें कैसे जर्मन हटाई गई और किसने संस्कृत थोपी, सब कुछ केवल शोर मचाने के लिए है। अंग्रेजी समाचार-पत्रों ने संस्कृत थोपे जाने का जोर-शोर से विरोध किया। अंग्रेजी की महत्व में बड़े-बड़े लेख लिखे गये। पिछलग्गू हिन्दी समाचार पत्रों ने संस्कृत की महत्व पूजा-पाठ के लिए बताते हुए किसी पर भाषा थोपने का विरोध किया। जो तथ्यों से परिचित थे उन्होंने इन तथाकथित प्रगतिशील लोगों का मुँहतोड़ जवाब दिया। तथ्य व वास्तविकता को जनता के सामने रखा। ऐसे धर्मध्वजी लोगों का उत्तर देना आवश्यक भी है। जो लोग संस्कृत थोपने की बात करते हैं यदि उनमें यदि थोड़ी भी नैतिकता होती तो जिस दिन संस्कृत हटाने का परिपत्र प्रकाशित हुआ उन्हें उसका विरोध करना चाहिए था। इन लोगों ने उस दिन मनमोहन सिंह को बधाई दी, लम्बे-लम्बे सम्पादकीय लिखे थे जब एक असंवैधानिक निर्णय सरकार ने किया था जिसमें हिन्दी के विकास के लिए संस्कृत से शब्दों के ग्रहण करने का प्रावधान हटाकर हिन्दी में उर्दू और अंग्रेजी शब्दों की भरमार कर दी थी। जिस मूर्खता को सारे समाचार दिखाने वाले और छापने वाले समाचार पत्र बड़े गर्व से आज भी प्रस्तुत कर रहे हैं।

सोनिया सरकार की कार्य सूची में हिन्दू को समाप्त करने के लिए हिन्दी और संस्कृत को समाप्त करने का प्रस्ताव कार्य सूची में बहुत ऊपर था। आज ऐसे लोग हिन्दी में न केवल अंग्रेजी, उर्दू शब्द अनावश्यक रूप से भाषा में घुसाते हैं अपितु उन्हें रोमन में लिखकर हिन्दी भाषियों को अंग्रेजी सिखाने का भी काम कर रहे हैं। इस देश पर अंग्रेज शासक था उसका अंग्रेजी थोपना समझ में आता है परन्तु स्वतन्त्रता के बाद अंग्रेजी प्रशासन, विधान मण्डल, शिक्षा, न्याय की भाषा बनना यह सबसे बड़ा थोपना है। अंग्रेजी भाषा एक विषय के रूप में पढ़ाई जा सकती है परन्तु इस देश का दुर्भाग्य यह है कि यह हमारी शिक्षा का माध्यम बना दी गई है। हम आज स्वतन्त्र होकर भी अंग्रेजी के ही आधीन हैं। क्या पराधीनता से मुक्त करने का प्रयास करना थोपना कहा जायेगा, संस्कृत को मृत भाषा या संस्कृत को देवी-देवताओं की स्तुति भाषा बताकर उसके महत्व को कम करना नहीं है। जो भाषा इस देश पर दो सौ वर्षों से थोपी जा रही है उसका विरोध तो किया नहीं, संस्कृत के विरोध का बहाना कर लिया। वेद में भाषा के महत्व को रेखांकित करते हुए वेदवाणी को राष्ट्र में ऐश्वर्यों को प्रदान करने वाली कहा है-

अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम्।

– धर्मवीर

 

सत्य सनातन वैदिक धर्म आज की आवश्यकता- ‘रामनिवास गुणग्राहक’, वैदिक प्रवक्ता सम्पर्क-07597894991

धर्म शब्द इतने व्यापक अर्थाें वाला है कि संस्कृत व अन्य किसी भाषा में इसका पर्यायवाची शब्द नहीं मिलता। मानव जीवन के लिए धर्म की उपयोगिता प्रकट करते हुए ऋषिवर कणाद वैशेषिक दर्शन में लिखते हैं- ‘यतोऽभ्युदय निः श्रेयससिद्धि स धर्मः।(1.1.4) अर्थात् जिससे मनुष्य का यह लोक और परलोक दानों सुखद, शान्ति प्रद और कल्याणमय हों तथा मोक्ष की प्राप्ति हो, उसे धर्म कहते है। मीमांसा की भाषा में बात करें तो ‘यथा य एव’ श्रेयस्करः स धर्मः शब्देन् उच्यते’ अर्थात मनुष्य मात्र के लिए जो भी कुछ श्रेयस्कर है, कल्याण प्रद है- वह धर्म शब्द से जाना जाता है। हमारे दर्शनकार ऋ़षियों के अनुसार धर्म मनुष्य के लिए एक अक्षय सुख, शान्ति व मोक्ष-आनन्द का देने वाला है धर्म की महत्ता और मानव जीवन के लिए उपयोगिता जान लेने के बाद यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर वह धर्म है क्या? मनुष्य का समग्र हित करने वाले धर्म का स्वरूप क्या है? इस प्रश्न का उत्तर भी हम ऋषियों से ही पूछें तो अधिक उत्तम होगा? महर्षि मनु महाराज की मान्यता है- ‘वेदोऽखिलो धर्म मूलम्’ अर्थात् सम्पूर्ण वेद ही धर्म का मूल है इसे और स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं ‘वेद प्रतिपादितों धर्मः अधर्मस्तविपर्ययः’ – अर्थात् जिस-जिस कर्म को करने की वेद आज्ञा देते हैं, वह-वह कर्म ही धर्म है, इसके विपरीत अधर्म है। महर्षि मनु के ये दोनों वचन बड़ी स्पष्ट घोषणा करते हैं कि ईश्वर की वेदाज्ञा का श्रद्धा और निष्ठा पूर्णक पालन करना ही वह सच्चा धर्म है।
जब संसार में ऐ मात्र वेदमत ही था, सब वेद धर्म को मानने वााले थे, तो क्या सबका जीवन सुख समृद्धि से परिपूर्ण था? ऋषि दयानन्द लिखते हैं- ‘सृष्टि से ले के पाँच सहस्र वर्षों से पूर्व समय पर्यन्त आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती अर्थात् भूगोल में सर्वोपरि एक मात्र राज्य था।’’ अन्यत्र ऋषि लिखते हैं- ‘‘स्वायंभुव राजा से लेकर पाण्डव पर्यन्त आर्यों का चक्रवर्ती राज्य रहा है।’’ महाभाारत के युद्ध से पूर्व सर्वत्र वेद धर्म का बोलबाला था, वेद धर्म का पालन करने के कारण भारत का एक ओर भूगोल भर में चक्रवर्ती राज्य था, तो दूसरी ओर भारत को ‘विश्व गुरु’ और ‘सोने की चिडि़या’ जैसे गौरव पूर्ण सम्बोधनों के साथ पुकारा जाता था। भारत का वह प्राचीन गौरव, वह चक्रवर्ती राज्य आज हमारे लिए एक सुहाने सपने जैसा लगता है। प्रत्येक भारतवासी का हृदय चाहता है कि हमारे प्यारे राष्ट्र को वह गौरव पुनः प्राप्त हो जाए। हाँ, हाँ- हो सकता है, क्यों नहीं हो सकता? अगर हम उन्हीं वैदिक आदर्शों की जीवन के धरातल पर स्वीकार कर लें, ऋषियों के बताए हुए उसी वैदिक धर्म को अपने जीवन का आधार बना लें, तो कोई कारण नहीं कि हमें वह गौरव प्राप्त न हो। धर्म के सम्बन्ध में हमसे जो थोड़ी सी भूल महाभारत के बाद हो गई थी, उसे सुधार लें, तो भारत पुनः ‘विश्व गुरू’ और ‘सोनेे की चिडि़या’ बनकर अपने खोए हुए गौरव को पा सकता है। कितने भाग्यवान होंगे वे विवेकशील सज्जन, जो धर्म के नाम पर फैल चुकी अधार्मिक प्रवृतियों से ऊपर उठकर परमात्मा की वेद वाणी पर श्रद्धा टिकाते हुए युग परिवर्तनकारी अभियान में सक्रिय भूमिका निभाएँगे? महानुभावो। हम ऋषियों की सन्तान हैं, हमारे रोम-रोम में गौतम, कपिल कणाद और पतंजलि का तप, तेज और स्वाभिमान हिलोरें ले रहा है। उनकी तपः साधना से प्राप्त पावन प्रज्ञा से प्रसूत अथाह ज्ञान राशि आज भी हमारी प्रतीक्षा कर रही है कि हम उसे जीवन का अंग बनाकर उनकी तपस्या को सार्थक करें। उन ऋषियों ने ये अमूल्य ग्रन्थ हमारे कल्याण की भावना लेकर ही लिखे थे।
धर्म को लेकर कई बार हम बड़े गौरव के साथ कहते हैं कि हमारा धर्म सनातन धर्म है। हम सनातन का अर्थ समझ लें- काल वाचक तीन शब्द हैं। अधुनातन अर्थात् वर्तमान काल से या नवीन, दूसरा पुरातन अर्थात् प्राचीन काल से या पुराना और तीसरा है सनातन अर्थात् प्रारम्भ से या नित्य। जब हम सनातन धर्म कहते हैं तो इसका अर्थ होता है, प्रारम्भ में चलें आने वाला नित्य धर्म। और वह नित्य धर्म वेद ही हो सकता है, क्योंकि वह सृष्टि के प्रारम्भ से ही चला आ रहा है। धर्म के नाम पर वर्तमान में जो कुछ चल रहा है, वह माहभारत के युद्ध के बाद वेद विद्या के लोप हो जाने के बाद पैदा हुआ है। यह पुरातन तो हो सकता है सनातन नहीं हो सकता। सनातन तो वही है, जो वेदों में कहा है, सनातन तो वही है जो महर्षि मनु से लेकर याज्ञवल्य, गौतम, कपिल, कणाद व व्यास ने अपने ग्रन्थों में लिखा है।
ऋषि महर्षियों के बताए वेद धर्म को त्यागकर, सनातन धर्म के स्थान पर पुरातन प्रवृतियों को धर्म के रूप में स्वीकार करके आज हमारी क्या स्थिति हो गई है? धर्म के नाम पर पिछले कुछ वर्षों से जो कुछ देखने और सुनने को मिल रहा है, देश के विभिन्न क्षेत्रों से हमारे आधुनिक धर्माचार्यों की जो लीलाएँ देखने को मिल रही हैं, क्या उन सबको हम अपने सत्य सनातन धर्म का अंग मान सकते है? हमारे धार्मिक स्थलों का जो नैतिकक्षरण हो रहा है, भगवा वस्त्रों की गरिमा जिस ढंग से नीलाम की जा रही है, क्या यह हमारे सत्य सनातन धर्म के साथ मेल खाती है? धर्म दिखावे की वस्तु नहीं है। धर्म के नाम पर वर्तमान में हमारे धर्मस्थलों व धार्मिक आयोजनों में जो कुछ हो रहा है, यदि वही सनातन धर्म है, तो अधर्म की परिभाषा क्या होगी?
आज ज्ञान-विज्ञान का युग है, आज के युग में धर्म के नाम पर वह सब कुछ नहीं चल सकता जो पिछले हजारों वर्षों से चला आ रहा है। आज धर्म के सम्बन्ध में उठने वाले प्रश्नों को हम धर्म में ‘अकल का दखल’ नही होना चाहिए, कह कर नहीं टाल सकते। टालें भी क्यों? हमारे ऋषियों ने हमें धर्म ज्ञान के साथ यह भी सिखाया है- तर्क प्रमाणाभ्यां वस्तु सिद्धिः न तु संकल्प मात्रेण’ अर्थात् किसी वस्तु की सिद्धि तर्क और प्रमाणों से ही जाती है, संकल्प मात्र से नहीं। धर्म के सम्बन्ध में उठने वाले प्रश्नों के उत्तर हमें तर्क और प्रमाणों सहित देने होंगे।

की पूजा उपासना के अधिकार तक में सबको समान मानने वाला धर्म ही विश्व धर्म हो सकता है।
विश्वयापी भ्रातृभावः- सबको समान मानने के बाद दूसरी बात आती है कि सबाके अपना मानकर चलें। ऐसा धर्म जो विश्व के मानव मात्र को जापित, नस्ल तथा लिंग भोद में न बाँटकर सबको अपना समझने के उपदेश दे। मानव-मानव के साथ भाई-भाई जैसार अपनापन बनाने की शिक्षा व उपदेश देने वाला धर्म ही विश्वधर्म बन सकता है। धर्म के नाम पर किसी भी प्रकार का भोद भाव और अपने-पराये की भावना के रंग में रंगाा कोई धर्म विश्वमानव को क्यों कर स्वीकार होगा?
सर्वागींण विकास- विश्वधर्म की तीसरी विशेषता यह होनी चाहिए कि वह मनुष्य की सर्वागींण उन्नति एव समग्र विकास की सैद्धान्तिक रूपरेखा प्रस्तुत करता हो। मानव का शारीरिक विकास, बौद्धिक विकास, आत्मिक विकास, सामाजिक विकास आदि की सम्पूर्ण प्रक्रिया प्रस्तुत कर सकने वाले धर्म को विश्वमानव निःसंकोच होकर उत्साहपूर्वक स्वीकार करेगा ही। सामाजिक संरचना के प्रत्येक क्षेत्र में काम करने वाले डाॅक्टर, वकील, किसान, व्यापारी, व राज काज में लगे विभिन्न लोगों से लेकर श्रमिक तक के सम्पूर्ण जीवन के विकास की व्यवस्था देने वाले धर्म को विश्वधर्म माना जाना समय की माँग है।
वैज्ञानिक आधारः- विश्वधर्म चुने जाने की प्रतिस्पर्धा में विजयी होने वाले धर्म के सम्पूर्ण सिद्धान्त, उसके धार्मिक अनुष्ठान व धर्म सम्बन्धी अवधारणाएँ, मान्यताएँ पूर्णतः वैज्ञानिक होनी चाहिए। धर्म ग्रन्थों का विज्ञान के विरुद्ध होना संसार का सबसे बड़ा मानवीय अभिशाप है। विज्ञान विरुद्ध तथ्यों को धर्म का नाम देकर प्रचारित-प्रसारित करना किन्हीं लोगों के लिए सत्ता पाने या पेट भरने का कुटिल अभियान तो हो सकता है, धर्म नहीं।
वेद पढ़ने वाला कोई भी विवेकशील सज्जन, निष्पक्ष होकर विचार करे तो वह पाएगा कि 1893 में शिकागो के विश्वधर्म सम्मेलन में संसार भर के धर्माचार्यों, दार्शनिकों व वैज्ञानिकों ने विश्व-धर्म की जो चार कसौटी स्वीकार की थीं, उन पर संसार का एक मात्र सत्य सनातन वैदिक धर्म ही पूर्णतः खरा उतरता है।
धर्म कभी हमारे राष्ट्र की सबसे बड़ी शक्ति हुआ करता था, धर्म हमारे सामाजिक व पारिवारिक जीवन को मर्यादित रखता था। आज वही धर्म हमारे राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन से लेकर पारिवारिक और व्यक्तिगत जीवन में बिगाड़ और बिखराव ही पैदा कर रहा है। धर्म की वह पावनता हमें दुबारा लौटानी होगी। धर्म के सच्चे स्वरूप को समझकर उसके अनुसार जीवन बनाना होगा। धर्मशील सज्जनो और देवियो। धार्मिक बनना चाहते हो तो सच्चे धार्मिक बनो। धार्मिक दिखना अलग बात है तथा धार्मिक होना अलग बात है। धार्मिक दिखने, धर्मात्मा होने का दिखावा करने से धर्म का फल नहीं मिलता। असली और नकली धार्मिक को आज सामान्य जनता भी जानती है तो क्या परमात्मा नहीं जानता होगा? उसे धोखा देना सम्भव नहीं है, जो देने की कोशिश कर रहे हैं उन्हें भी समझाओ। धर्म की पावनता को नष्ट करने वालों से कह दो-
दे मुझको मिटा जालिम, मत धर्म मिटा मेरा।
ये धर्म मेरा मेरे ऋषियों की निशानी है।।
सत्य सनातन वैदिक धर्म का सच्चा स्वरूप जानने, वेद एवं वैदिक साहित्य प्राप्त करने के लिए सम्पर्क करें।
‘रामनिवास गुणग्राहक’, वैदिक प्रवक्ता सम्पर्क-07597894991

आर्य समाज का वेद प्रचार: एक नूतन प्रयोग – रामनिवास गुणग्राहक

‼ ओ३म् ‼

आर्य समाज की प्रचार-पद्धति के सम्बन्ध में विचार करने से पहले एक बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि संसार के धार्मिक कहे जाने वाले मत-पन्थों के प्रचार-अभियान और आर्य समाज के प्रचार कार्य में बड़ा अन्तर है। पाखण्ड और अन्धविश्वास को धर्म स्वीकार कर चुका भारतीय जन मानस एक पाखण्ड से अच्छा और सरल लगने वाले दूसरे पाखण्ड को सहजता से स्वीकार कर लेता है। मूर्ति राम की न सही कृष्ण की भी चलेगी, गणेश की न सही हनुमान की भी चलेगी। यही परम्परा आज यहाँ तक पहुँच गई है कि शिव का स्थान सांई ले सकता है और गली-गली में बनने वाले भोले-भैरों  के मन्दिर से जिनकी कामना सिद्ध नहीं होती वे उसी कथित श्रद्धा से किसी मियाँ की मजार या कब्र पर जाकर भेंट पूजा चढ़ाने चले जाते हैं। आर्य समाज इन सबसे अलग हटकर बुद्धि और तर्क की बात करता है जिन्हें हमारे पुराणी और कुरानी बन्धु सैकड़ों सहस्रों वर्ष पूर्व धार्मिक सोच से दूर भगा चुके हैं। यही कारण है कि तर्क और बुद्धि से काम लेने वालों को आज के धर्माचार्य व धर्मभीरू लोग बिना सोचे समझे नास्तिक कह ड़ालते है। वैसे यह एक कडवा सच भी है कि तर्क और विज्ञान की बात करने वाले हमारे बुद्धिजीवी आज नास्तिक बन कर ही रह गये हैं। ऐसे में आर्य समाज को अपनी प्रचार-पद्धति को एक नया धारदार रूप देने के लिए वर्तमान पद्धति की जाँच-परख करते रहना चाहिए।

यह सही है कि आर्य समाज की पहली पीढी ने जितना जो कुछ वेद प्रचार व समाज सुधार का काम किया वो सब इसी प्रचार-पद्धति से किया। इसी के साथ यह भी मानना ही पडेगा कि विगत 20-30 वर्षों का अनुभव चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि अब यह प्रचार-पद्धति अपना प्रभाव खो चुकी है। कारण जो भी रहे हो, चाहे हमारी जीवन-शैली की व्यवस्था हो या टी.वी., मोबाइल से चिपके रहने की प्रवृति। चाहे हमारे उपदेशकों की निष्ठा, स्वाध्यायशीलता में कमी आने के कारण या हमारे कर्णधारों-पदाधिकारियों के मन-मस्तिष्क में जडें जमा चुकी उठा-पटक की प्रवृत्ति के साथ माला और फोटो की मानसिकता-कुछ भी हो आज का सच यह है कि हमारी वर्तमान प्रचार-पद्धति अब न तो हम आर्य कहलाने वालों के जीवन में कोई सुधार व निखार लाती दिख रही है और न नये व्यक्तियों को आर्यसमाज से जुडने के लिए प्रेरित या आकर्षित कर पा रही है। ऐसे में प्रत्येक वेद भक्त और ऋषि भक्त आर्य का कत्र्तव्य है कि वह आर्य समाज के प्रचार कार्य को प्रखर और प्रभावी बनाने की दिशा में गम्भीरता से विचार करे और उसे व्यावहारिक बनाने के लिए कुछ ठोस कार्य भी करे। मैंने इस दिशा में बहुत लम्बे समय से अनेक सुधी आर्य जनों व मित्रों से विचार-विमर्श करके हमारी प्रचार-पद्धति को नया रूप देने का छोटा प्रयास किया है। सुधी पाठक इस पर और विचार करके अपने अमूल्य सुझाव देकर इसे और प्रभावोत्पादक बना सकते हैं या जिन्हें यह अच्छा लगे वो अपने पदाधिकारियों से मिलकर चर्चा करके इस पर व्यवहार प्रारम्भ कर सकते हैं।

सम्भव है कुछ आर्य जनों को यह अटपटा लगे, कुछ को इस पर स्वार्थ जन्य आपत्तियाँ भी हो सकती हैं, मगर मेरा मानना है कि वेद प्रचार की यह प्रचार शैली आर्य समाजों में प्रचलित हो जाए तो इसके प्रत्यक्ष और उत्साहवर्धक परिणाम एक-दो वर्ष में ही प्रकट होने लगेंगे। हाँ जिन्हें आर्य समाज से अधिक व्यक्ति जुड़ने पर पद चले जाने का डर लगता हो, उनके लिए कोई कुछ नहीं कर सकता है। अब पढि़ये कि आर्य समाज को नवजीवन देने के लिए हमें अपनी प्रचार-पद्धति में क्या कुछ बदलना पडे़गा। यद्यपि आज आर्य समाज में ऐसे उपदेशक बहुत कम संख्या में हैं जो नित्य नियमित रूप से संध्योपासना व स्वाध्याय करते हों। जितने भी हों, प्रारम्भ के लिए ऐसे विद्वान् हमारे मध्य है जो संध्या व स्वाध्याय दैनिक कर्म के रूप में करते हैं। जो नहीं भी करते हंै, जब सिर पर आ पडे़गी तो सब करने लगा जाएँगे। आज समस्या यह है कि आर्य समाज में ‘सब धान सत्ताइस का सेर’ बिकता है। हमें सिद्धान्त निष्ठ, धर्मात्मा, निष्कलंक, निर्लोभी और सरल स्वभाव के स्वाध्यायशील किसी एक विद्वान को अपने आर्य समाज में प्रचार कार्य के लिए कम से कम 8-10 दिन के लिए सादर आमन्त्रित करना चाहिए। उससे पहले आर्य समाज के पदाधिकारी व श्रेष्ठ सभा- सद मिलकर प्रचार-योजना इस ढं़ग से बनायें- प्रतिदिन प्रातःकाल सुविधानुसार किसी पदाधिकारी या श्रदालु आर्य के घर यज्ञ व पारिवारिक सत्संग रखे, जिसमें एक घण्टा तक व्याख्या युक्त यज्ञ हो और एक घण्टा धर्म, ईश्वर, वेद आदि की विशेषताएँ लिये हुए परिवार, समाज व राष्ट्र से जुड़े हुए कत्र्तव्यों के पालन की प्रेरणापरक प्रवचन होना चाहिए। जिस परिवार में यज्ञ व सत्संग हो, वह अपने परिचितों व पड़ौसियों को प्रेम पूर्वक आमन्त्रित करे। घर मीठे चावल बनाए, स्विष्टकृत आहुति व बलिवैश्वदेव की आहुतियाँ देकर प्रसाद रूप में सबको वही यज्ञशेष प्रदान करें।

प्रातःकाल इतना करके दिन में किसी विद्यालय में कार्यक्रम रखने के लिए पहले ही सम्बन्धित प्रधानाध्यापक आदि से मिलकर सुविधानुसार 40-50 मिनट का समय तय कर लें। आर्य समाज के एक या दो सज्जन आमन्त्रित विद्वान् को सम्मान पूर्वक विद्यालय ले जाएँ और विद्या व विद्यार्थियों से जुड़े हुए विषय पर सरल व रोचक भाषा शैली में वेद व वैदिक साहित्य के प्रमाण पूर्वक प्रवचन करें। वेद व आर्य समाज के प्रति श्रद्धा बढ़ाने की भावना का ध्यान पारिवारिक यज्ञ-सत्संग से भी रखना चाहिए और विद्यालयों में भी। कार्यक्रम के अन्त में सबको निवेदन करें कि वे सांयकाल आर्य समाज में होने वाली धर्म चर्चा-सत्संग में पुण्य लाभ प्राप्त करने हेतु अवश्य पधारें। सुविधानुसार एक दिन में दो-तीन विद्यालयों में प्रवचन रख सकते हैं। हमारी आज की पीढ़ी बहुत तेज तर्रार है उसके मन-मस्तिष्क में धर्म और ईश्वर को लकर अनेक प्रश्न खडे़ होते हैं। लेखक लड़के-लड़कियों के काॅलेजों के अनुभव के आधार पर कह सकता है कि युवक-युवतियाँ बडे़ तीखे प्रश्न करते हैं। ऐसे में आर्य समाज का गौरव कोई स्वाध्यायशील व साधनाशील आर्य विद्वान् ही बचा सकता है। नई पीढ़ी को प्रश्नों व शंका समाधान की छूट दिये बिना हम नई पीढ़ी के मन-मस्तिष्क को धर्म, ईश्वर व आर्य समाज की ओर नहीं मोड सकते, इसलिए किसी विद्वान् को बुलाने से पहले इस बात का ध्यान अवश्य रखें और उन्हें इसकी सूचना भी अवश्य कर दें।

दिन में इतना कुछ करके रात्रि में सबकी सुविधा व अधिकतम लोगों के आगमन की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए दो घण्टे का कार्यक्रम बनायें। दिन में अगर अधिक प्रश्न व शंकाएँ रखी गई हांे तो उनके उत्तर रात्रि काल के सत्संग में रखे जा सकते हैं या समाज के सुधीजन कार्यक्रम बनाते समय कुछ उपयोगी व सामयिक विषय निश्चित कर सकते हैं। इस प्रकार एक दिन का यह कार्यक्रम है, ऐसे ही 8-10 दिन का कार्यक्रम बनाकर हम इसके अनुसार प्रचार कार्य करके समय, श्रम व संसाधनों का सटीक सदुपयोग करके बहुत लाभ प्राप्त कर सकते हंै। प्रसंगवश एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य की ओर आर्य जनों का ध्यान आकर्षित करना बहुत आवश्यक है। प्रचार कार्य में प्रवचन और सत्संग से अधिक भूमिका साहित्य की होती है। दुःख की बात यह है कि आज आर्यसमाज में स्वाध्याय की प्रवृत्ति और स्वाध्याय के योग्य प्रभावी साहित्य दोनों में निरन्तर गिरावट आती जा रही है। प्रचार को प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक है कि हम ऋषि दयानन्द के लघु ग्रन्थों, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, पं. चमूपति, स्वामी दर्शनानन्द जी, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय, पं. रामचन्द्र देहलवी और स्वामी वेदानन्द जी जैसे सिद्धान्तनिष्ठ विद्वानों के साहित्य को बहुत बड़ी मात्रा में प्रकाशित करा कर अल्प मूल्य में उपलब्ध करायें। मुझे क्षमा करें हमारे आज के प्रतिष्ठित कहलाने वाले तथा विभिन्न आर्य संस्थानों से पुरस्कृत होते रहने वाले लेखक और अन्तर्राष्ट्रीय कथाकारों की वाणी और लेखनी किसी के जीवन को निखारने-सँवारने में सर्वथा असमर्थ है। आज स्थिति यह है कि हमारे आज के नामधारी लेखकों ने इधर-उधर से दान लेकर अपने कई-कई पोथे छपवाकर अल्प मूल्य के साथ बाजार में छोड़ रखे हैं। पुरानी पीढ़ी के लेखकों के ग्रन्थ छपाने के लिए कोई दानी आगे नहीं आता या बहुत कम आते हंै। आर्य समाज को इस दिशा में भी गम्भीरता से सोचना पड़ेगा। पहली-दूसरी पीढ़ी के गम्भीर, सिद्धान्तजीवी वैदिक विद्वानों के साहित्य का उद्धार करना आज की बहुत बड़ी माँग है, ऐसा न हो कि कल बहुत देर हो जाए। वेद प्रचार को जीवन्त बनाने के लिए सत्साहित्य व सिद्धान्तनिष्ठ प्रवचन-सत्संग ही एक मात्र उपाय है। हमारे सुधी पाठक इस पर गम्भीरता से विचार करके देखेंगे तो लगेगा कि बिना लम्बी चैड़ी भाग दौड़ के, बिना किसी ताम-झाम के, बिना किसी बड़े खर्चे के एक सीमित आय वाले आर्यसमाज भी इसका लाभ ले सकते हैं। मैंने इसके प्रायः सभी पक्षों को लेकर बहुभाँति चिन्तन किया है, उस चिन्तन के आधार पर मैं पाठकों को विश्वास दिला सकता हूँ कि प्रचार की यह पद्धति अपना ली जाए तो आर्य समाज का कायाकल्प होने में 5‘-10 वर्ष से अधिक समय नहीं लगेगा। हाँ इसके साथ-साथ हमें अपने संगठन सम्बन्धी अपनी कमियों को दूर करना पड़ेगा।

कुछ लोग यह कहते हैं कि आर्य समाज का सांगठनिक ढाँचा आज के समय के अनुकूल नहीं है। ऐसे लोग लोकतान्त्रिक पद्धति की न्यूनताएँ गिनाने लगते हैं, लेकिन वे महर्षि दयानन्द की वेद विद्या से प्राप्त दूर दृष्टि को समझ नहीं पाते। नियम-सिद्धान्त कितने ही उच्चस्तर के हों अगर व्यक्ति निम्न स्तर के हैं तो अति महत्वपूर्ण तथ्यों की अनदेखी करके, साधारण या मनोनुकूल तथ्यों पर अधिक ध्यान केन्द्रित करके वे अच्छे-अच्छे नियम-सिद्धान्तों का दुरुपयोग कर ड़ालते हैं। आर्य समाज के संगठन सम्बन्धी नियम-उपनियमों के साथ भी हमारे कर्णधार लम्बे समय से यही करते चले आ रहे हैं। भविष्य में कभी इस विषय पर भी अपना चिन्तन पाठकों के सामने रखेंगे। अभी प्रचार सम्बन्धी चर्चा को व्यावहारिक रूप देने की आवश्यकता है। जो सज्जन इस पद्धति को अच्छा व उपयोगी मानते हों और ऐसा करना चाहते हों, वे अधिक जानकारी के लिए लेखक से संपर्क करके इसके बारे में समस्याओं व सम्भावनाओं पर विचार करके किसी भी प्रकार का सहयोग प्राप्त कर सकते हैं। आशा और विश्वास है कि  आर्यजन इस दिशा में आगे बढ़ने का प्रारम्भिक प्रयास करके लेखक के श्रम को सार्थक अवश्य करेंगे ।

इस नूतन प्रचार पद्धति के लाभः-

१-यह प्रचार पद्धति सबसे अधिक प्रभावी औरअच्छे परिणाम देने वाली है ।

२-कम खर्चीली होने के कारण कम आय वाले समाज भी इसका लाभ उठा सकते हैं ।

३-इसमें प्रबन्ध और व्यवस्था सम्बन्धी भागदौड बिल्कुल भी नहीं है ।

४-विद्यालयों में प्रवचन,व्याख्यान रखने से प्रतिदिन कई सौ युवाओं के साथ सम्पर्क हो सकेगा ।

५-पारिवारिक सत्संग से हमारे परिवारों व पडौसियों में वैदिक सिद्धान्तों व संस्कारों का प्रचार बढेगा ।

६-विद्यालयों में प्रश्नोत्तर के कारण हमारे प्रचारकों में स्वाध्याय व संध्या की प्रवृत्ति अवश्य ही बढेगी ।

७-टैण्ट,मंच,माइक,सजावट आदि के सब झंझट व भागदौड न रहने से आर्य कार्यकत्र्ता भी सत्संग,प्रवचन  का लाभ ले सकेंगे , वर्तमान में व्यवस्थाओं में लगे रहने से ऐसा नहीं हो पाता ।

८-नगर या शहर के अलग अलग क्षेत्रों में पारिवारिेक सत्संग होने से दूर दूर तक प्रचार प्रसार होगा ।

९-विद्यालयों में रुचि लेने वाले प्रतिभाशाली युवाओं से सम्पर्क बनाये रखकर हम आर्यसमाज की नई पीढी तैयार कर सकते हैं ।

१0-इस पद्धति से १५-२॰ हजार रुपये में ८-१0 दिन प्रचार हो सकेगा,अतः कोई भी समाज जितना पैसा एक उत्सव में अब लगाता है उतने में वर्ष में ८-१0 बार प्रचार करा कर पुण्य प्राप्त कर सकता है।

आशा है सुधी आर्यजन इन सब पर आर्योचित रीति से , न्याय बुद्धि से गम्भीरता पूर्वक विचार करंेगे। आप ऐसा करना उचित समझें तो मो॰-07597894991 पर मुझसे सम्पर्क करके इस प्रकार के प्रचार कार्य का प्रयोग कर सकते हैं ।मेरा इस दिशा में वर्षों का अनुभव है ,उसका परिणाम भी बहुत अच्छे मिले हंै । एक बार प्रयोग अवश्य करें इसमें कोई हानि नहीं , लाभ की सम्भावना बहुत है । अगर आप इस नूतन प्रचार पद्धति को स्वीकार इसके लाभ देखेंगे तो आपको बहुत आनन्द आयेगा और आपको इसके प्रथम प्रचलन का पुण्य प्राप्त होगा,एक बार सेवा का अवसर अवश्य दें । धन्यवाद ।।

आपका अपना ही

 

रामनिवास गुणग्राहक ०७५९७८९४९९१

देश व जाति के लिये जो जिए….. कृतिशील आर्य सेनानी – स्वामी स्वात्मानन्द – डॉ. नयनकुमार आचार्य

कीर्तिर्यस्य स जीवति-अपार धैर्य के साथ जिनका संघर्षमय जीवन समाज, देश व जाति के लिए व्यतीत हुआ हो, ऐसी आत्माएँ धन्य होती हैं। शरीर से वे इस संसार में न रहते हुए भी उनकी अमर कीर्ति गाथाएँ युगों-युगों तक आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्तम्भ बन जाती हैं। आर्य जगत् दक्षिण भारत के देशभक्तों से भलीभाँति परिचित हैं हैदराबाद स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास को अपने अनोखे शौर्य व बलिदान से अमरता प्रदान करने वाले कई नरवीरों की गाथाएँ भले ही ज्ञात हैं, लेकिन प्रखर धैर्यधुरन्धर आर्य सेनानी, ऋषिभक्त स्वामी स्वात्मानन्द जी (रामचन्द्र जी मन्त्री-बिदरकर) के क्रान्तिकारी जीवन व साहस भरे कार्यों से शायद सभी परिचित नहीं होंगें। पद, प्रतिष्ठा व प्रसिद्धी से कोसों दूर रहकर श्री स्वामी जी ने मातृभूमि की रक्षा व आर्य समाज के प्रचार कार्य हेतु जो अनोखे कार्य किये हैं, वे निश्चय ही प्रेरणाप्रद हैं। हैदराबाद स्वतन्त्रताकालीन महाराष्ट्र का लातूर शहर व परिसर ऐसा ही क्रान्तकारी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा है। यहाँ की पुरानी आर्यसमाज (गाँधी चौक) इस समय ८० वें वर्ष में पर्दापण कर रही है। इसी आर्य समाज के एक समय के बहुत ही क्रियाशील मन्त्री वह महान देशभक्त, स्वाधीनता सेनानी श्री रामचन्द्र जी बिदरकर जो क्रान्तिकारी जीवन के कार्यों के कारण तथा बाद में संन्यास दीक्षा लेकर स्वामी स्वात्मानन्द जी के नाम से सर्वत्र विख्यात हुए।

आरम्भिक जीवन– श्री स्वामी जी का जन्म सन् १९०४ में कर्नाटक के बीदर शहर में एक साधारण परिवार में हुआ। माता चन्द्रभागा बाई तथा पिता श्री तुकाराम डोईजोडे ये दोनों धार्मिक, सहिष्णु, स्नेहील स्वभाव के थे। इस दम्पति की रामचन्द्र, लक्ष्मण, पुण्डलिक एवं रत्नाबाई (सोनवे) ये चार संन्तानें हुई। इन सभी में बड़े होने के कारण रामचन्द्र जी पर परिवार की जिम्मेदारियाँ आ पड़ी। युवावस्था में सन् १९३० को वे अपने भाई व परिवार को लेकर लातूर आये। वैसे तो पहले से ही इनका कपड़ा सिलाई (दर्जी) का पारम्परिक व्यवसाय था। शायद बीदर में इस व्यवसाय में प्रगति नहीं हुई होगी, इस कारण उन्हें लातूर आना पड़ा। यहाँ के कपड़ा लाईन में उनका यह सिलाई काम बहुत ही उत्तम रीति से चलता था। उनकी दुकान में लगभग ३५ सिलाई मशीनें थी। बढ़िया काम की वजह से शहर में उनकी प्रतिष्ठित दर्जी के रूप में ख्याति हुई।

 

आर्यसमाज व स्वतन्त्रता संग्राम – लातूर के कई दर्जी (भावसार) लोगों पर आर्यसमाज के विचारों का प्रभाव रहा है। इस कारण रामचन्द्र जी भी इसी विचारधारा की ओर आकृष्ट हुए। वैदिक विचारों का इन पर ऐसा रंग जमा कि देखते ही देखते वे पक्के आर्यसमाजी बन गये। उस समय हैदराबाद स्वतन्त्रता आन्दोलन में आर्यसमाज की सक्रिय भूमिका थी। रामचन्द्र जी में भी क्षात्रवृत्ति  कूट-कूटकर भरी थी, तब वे चुप-चाप थोड़े ही बैठते। अतः बडे उत्साह से इस आन्दोलन में सम्मिलित हुए और  इस आन्दोलन का नेतृत्व भी किया। ऊँचा पूरा कद, बलिष्ट शरीर और धैर्य-वीरता होने से किसी प्रकार का अन्याय सहन करना, यह उनके बस का नहीं था। इन्हीं कारणों से निजाम के विरुद्ध चलाये गये आन्दोलन में वे जोश के साथ कूद पड़े।

उनकी निराली धाक– इस परिसर में आज भी उनका नाम बड़े गौरव के साथ लिया जाता है। हैदराबाद स्वतन्त्रता संग्राम में आपने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। अनोखी धैर्यवृत्ति व शौर्यगुणों के कारण उनकी रजाकरों में एक प्रकार की निराली धाक थी। निजाम की पुलिस भी उनके अतुल बल के कारण सदैव भयभीत रहती थी। क्रान्तिकारों में वे दबंग के रूप में पहचाने जाते थे। अतः लोग इनसे बहुत डरते थे। वे मृत्यु को अपने हाथ में लेकर चलने वाले शूरता की शान, व वीर सैनिक थे। देशभक्ति का उत्साह इनके रग-रग में भरा हुआ था। अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध लड़ना वे अपना परमधर्म समझते थे, किन्तु व्यर्थ ही किसी को कभी कष्ट नहीं दिया। अपूर्व साहस के साथ रजाकारों के अत्याचारों का जमकर मुकाबला किया और कितनों को मौत के घाट उतार दिया। ‘मन्त्री जी’ का नाम सुनते ही प्रतिपक्षियों में आतंक सा छाया रहता था। लातूर तथा परिसर के गाँवों में उनके क्रान्तिकारी जीवन व सहासपूर्ण कार्यों की चर्चा होती रहती थी। बार्शी (जि. सोलापूर) इस ग्राम के समीप ही स्थापित चिंचोली कै म्प के वे प्रमुख थे। श्री स्वामी जी, जहाँ अन्य नागरिकों को देशकार्य के लिए प्रेरित करतें, वहीं कई धनवान् व्यापारियों को राष्ट्रकार्यों के लिए आर्थिक सहयोग हेतु आग्रह भी करते। उनके आवाह्न पर जनता अपना धनमाल व जेवरादि सम्पत्ति  देशकार्य हेतु उन्हें प्रदान करते। एक बार लगभग ५० किलो सोना जमा हुआ, तब स्वामी जी ने यह सारा धन शासन के प्रतिनिधि (जिलाधीश) को सुपूर्द किया। यदि कोई व्यापारी स्वार्थवश सहयोग करने में हिचकिचाता, तो उसे वे समझाते और मातृभूमि की सेवा का महत्वबताकर सत्कर्म में प्रवृत्त  करते। फिर भी कोई इस बात को न मानें, तो वे उसे अच्छा ही सबक सिखाते। एक बार ऐसा ही हुआ। लातूर का एक सधन व्यापारी समझाने बुझाने पर भी आर्थिक सहयोग के लिए तैयार नहीं हुआ, तब उसे लातूर के समीपस्थ हरंगुल नामक गाँव में कड़े रूप में दंडित किया। इतना होने पर वह तुरन्त सहयोग के लिए तैयार हुआ।

निष्काम कर्मयोगी – श्री स्वामी जी एक ऐसे सच्चे देशभक्त थे, जिन्होंने ‘न मे कर्मफले स्पृहा’ इस सूक्ति के अनुसार भाव से माँ भारती की सेवा की। स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेने पर भी कभी अपने कामों की चर्चा तक नहीं की। यहाँ तक कि स्वाधीनता सैनिक की पेन्शन लेने से भी इन्कार किया। बाद में आर्यजनों व सहयोगी मित्रों के बहुत समझाने पर वे मान गये। उनसे पूछने पर कि ‘आपने देश व समाज के लिए इतना बड़ा काम किया है, तो पेन्शन क्यों नहीं लेते?’ तब वे कहते-‘मैंने कर्तव्य भावना से देश का काम किया है। माता की रक्षा करना, पुत्र का दायित्व होता है, मैंने पैसों के लिए कोई काम नहीं किया है?’ जब देश के गृहमन्त्री बूटासिंह जी थे, तब उन्हें दिल्ली आमन्त्रित किया गया। स्वामी जी के साथ मन्त्री महोदय ने चर्चा की। उनके क्रान्तिकारी कार्यों की गाथा सुनकर पेन्शन का फॉर्म भरने का आग्रह किया। बहुत विनती करने पर वे इसके लिये राजी हो गये, तब पेन्शन मजूंर हुई। वहीं पर स्वतन्त्रता सेनानी का प्रशस्ति पत्र देकर स्वामी जी का गौरव भी किया गया। इस कार्य के लिए स्वामी जी ने खुद आगे होकर पहल नहीं की, बल्कि भारत सरकार ने खुद आगे होकर  सम्मानित किया।

आगे चलकर स्वामी जी महाराष्ट्र शासन की ओर से स्वाधीनता सैनिक गौरव समिति के विभागीय अध्यक्ष भी बनें। वे देश के लिए प्रामाणिक वृत्ति  से कार्य करने वाले अनेकों स्वाधीनता सैनिकों को प्रमाण पत्र देने व पेन्शन मंजूर करने हेतु शासन को सिफारिशें की। इनके प्रयासों से सही मायने में  देश के लिए कार्य करने वाले उन राष्ट्रभक्तों को योग्य न्याय मिला, जो सदैव प्रसिद्धी से पराङ्मुख रहते थे।

आर्यसमाज का प्रसार कार्य– देशसेवा के साथ ही स्वामी जी का वैदिक धर्म प्रचार कार्य में भी काफी योगदान रहा है। आर्यसमाज (गाँधी चौक) लातूर के वे लगभग २२ वर्ष मन्त्री रहे। उनके कार्यकाल में इस समाज की गतिविधियाँ प्रगतिपथ पर थी। आर्य विचारों के प्रसार हेतु वे सतत प्रयत्नशील थे। प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला वार्षिक उत्सव आर्य जनता के लिए वैचारिक ऊर्जासंवर्धन का स्वर्णिम अवसर माना जाता था। सभा सम्मेलनों पर आमन्त्रित उद्भट वैदिक विद्वानों को सुनने के लिए शहर व देहातों के जिज्ञासु श्रोतागण हजारों की संख्या में आते रहते थे। आज भी वह परम्परा जारी है। सन् १९५६ में स्वामी जी के मन्त्रित्वकाल में विभागीय आर्य महासम्मेलन सफलता के साथ सम्पन्न हुआ, जिसके प्रभाव से अनेकों लोग आर्यसमाज की ओर आकृष्ट हुए। इस सम्मेलन में महात्मा आनन्द स्वामी सहित अन्य विद्वान् मनीषी पधारे थे। संस्था के पदाधिकारी भी उनकी आज्ञा में रहकर कार्य करते थे।

बाद में १९७४ में उन्हीं के निर्देशन में त्रिदिवसीय मराठवाड़ा स्तरीय आर्य महासम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें पूर्व प्रधानमन्त्री अटलबिहारी बाजपेयी, डॉ. सत्यप्रकाश, पूर्व सांसद ओमप्रकाश त्यागी, शिवकुमार शास्त्री आदि विद्वान् वक्ताओं को आमन्त्रित किया गया था। आर्य समाज को लोकोपयोगी बनाने में स्वामी जी अग्रणी रहे। दशहरे के पावन पर्व पर नगर में भव्य विजय-यात्रा (जुलूस) निकालने का श्रेय स्वामी जी को जाता है। आज भी नगरवासी बडे धूमधाम से प्रतिवर्ष यह दशहरा जुलूस निकालते हैं।

देववाणी के प्रचारक– लातूर में देववाणी संस्कृत भाषा के प्रचार हेतु स्वामी जी ने काफी प्रयास किये। संस्कृत अध्ययन केन्द्र चलाकर संस्कृत को जन-जन तक पहुँचाया। यद्यपि राज्य में शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी माने जाने वाले इस शहर में सम्प्रति पुराने व नये मिलाकर गुरुकुलीय स्नातकों की संख्या लगभग ६० से अधिक है। इन्हीं स्नातकों को प्रेरणा देकर स्वामी जी ने उनके माध्यम से संस्कृत का प्रचार कराया। स्वयं संस्कृत सीख न सके, लेकिन समाज में इस भाषा को बीजारोपित करने में स्वामी जी की अहम भूमिका रही है। भारतीय विद्या भवन की परीक्षाओं का केन्द्र भी उन्होंने चलाया। परीक्षाओं के आयोजन हेतु शहर से निधि संकलित कर छात्रों की व्यवस्था करते। साथ ही बच्चों को शुभगुणों से संस्कारित करने हेतु शिशु विहार केन्द्र भी संचालित किया। इस कार्य में नगर के प्रसिद्ध व्यापारी व वेद तथा संस्कृत के अध्येता श्री सेठ बलदवा जी का उन्हें विशेष सहयोग मिलता रहा। जब कभी धन की आवश्यकता पड़ती, तब स्वामी जी बलदवा जी के पास चले जाते और उनसे प्राप्त धनराशि द्वारा संस्कृत प्रचार, पुरस्कार वा अन्य वेदप्रचार आदि कार्य करवाते। स्थानीय ज्ञानेश्वर विद्यालय में संस्कृत प्रचार कार्य हेतु उनका सदैव आना-जाना रहता था। वहाँ के संस्कृत अध्यापक महानुभावपन्थी श्री शास्त्री जी  से उनके घनिष्ठ सम्बन्ध रहे।

प्रसिद्ध भाषाविद् प्रो. श्री ओमप्रकाश जी होलीकर बताते हैं कि ‘लातूर नगरी में आज संस्कृत का जो विशाल स्वरूप दिखाई दे रहा है, उसके मूल में स्वामी जी की तपस्या व पीठिका रही है। संस्कृत के प्रसार हेतु काम करने वाले इतने समर्पित व्यक्ति को मैंने पहली बार देखा है।’

 

अद्वितीय बलोपासक -बचपन से ही उन्हें व्यायाम से बहुत ही लगाव था। सब काम छोड़कर वे व्यायाम करते । इसलिए उनका शरीर सुडौल व वज्र के समान बन गया था। देश के बालक व युवक शरीरबल के धनी हो, इसीलिए आर्यसमाज में श्रद्धानन्द व्यायाम मन्दिर के नाम से विशाल व्यायामशाला की स्थापना की और आर्ययुवक व्यंकटेश हालिंगे को इसका अध्यक्ष बनाया। स्वामी जी की प्रेरणा से अनेकों युवक इस व्यायामशाला में आते रहे और अपने शरीरधन को संवर्धित करते रहें। मल्लखम्भ विद्या को भी स्वामी जी ने प्रोत्साहन दिया। फलस्वरूप अनेकों बच्चे-बच्चियों ने विभिन्न राष्ट्रीय व प्रान्तीय क्रीडा प्रतियोगिताओं में भाग लेकर पुरस्कार भी प्राप्त किये हैं। व्यायामशाला के अखाड़े में कुस्ती लड़नेवाले अनेकों मल्ल भी स्पर्धाओं में विजयी रहे हैं। अनेकों युवक आर्यवीरदल के राष्ट्रीय शिविरों में प्रशिक्षण प्राप्त करते रहे। व्यायामशाला में जब भी किसी साहित्य की कमी हो, तब स्वामी जी तुरन्त शहर के दानी व्यापारी सेठ के पास पहुँच जाते और उन्हें वे साहित्य दिलवाने हेतु प्रोत्साहन देते और समय पर सभी प्रकार का साहित्य उपल ध भी होता। लातूर शहर में साथ ही समीपस्थ कव्हा नामक ग्राम में भी स्वामी जी ने व्यायामशाला खोलने हेतु पूर्व विधायक श्री पाटील को प्रेरित किया। इस तरह स्वामी स्वात्मानन्द जी आर्य समाज के माध्यम से शारीरिक उन्नति का पथ प्रशस्त करते रहे। आचार्य देवव्रत को आमन्त्रित कर वे प्रतिवर्ष आसन-प्राणायाम शिविर लगवाते, जिसका अनेकों योगप्रेमियों को लाभ मिलता रहा।

 

पारिवारिक जीवन – मन्त्री जी (रामचन्द्र जी) का गृहस्थाश्रम अल्पकालिक ही रहा। श्रीमती अनसूयाबाई उनकी सहधर्मिणी का नाम था। इन्हें कोई सन्तान नहीं हुई। प्लेग की बिमारी के कारण धर्मपत्नी का अकस्मात ही निधन हो गया। भरी जवानी में पत्नी के बिछुड जाने से उन पर गहरा आघात हुआ। फिर भी धैर्य के धनी रामचन्द्र ने पुनर्विवाह का विचार तक नहीं किया। किसी अनाथ बालिका को बचपन में ही गोद लिया और उसका शन्नोदेवी नाम रखा। इस कन्या को शुभसंस्कार, ऊँ ची शिक्षा आदि दिलाकर बड़ी होने पर उसका डोणगाँव के होनहार डॉक्टर युवक दिगम्बर मुले से विवाह कराया। सम्प्रति यह मुले परिवार उदगीर में फलता-फूलता हुआ प्रगतिपथ पर विराजमान है। छोटे दोनों भाई श्री लक्ष्मणराव व पुंडलिकराव भी अपने भ्राताश्री के पदचिह्नों पर चलते रहें। इन्होंने भी हैदराबाद स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लिया और आर्यसमाज के सम्पर्क में आकर वैदिक विचारों से जुड़े रहे। अपने बड़े भाई से प्रेरणा पाकर ही अनुज लक्ष्मणराव बिदरकर ने अपनी कन्याओं को पढ़ाया और उनके अन्तर्जातीय विवाह कराये।

 

उत्तर  भारत का भ्रमण व संन्यास दीक्षा– वैराग्यवृत्ति धारण कर मन्त्री जी स्वाध्याय, चिन्तन, ध्यान-धारणा आदि कार्यों में संलग्न होकर उत्तर  भारत की ओर चल पड़े। दयानन्द मठ, दीनानगर (पंजाब) में कई माह तक साधना करते रहे। वहीं पर आर्यजगत् के वीतराग संन्यासी स्वामी सर्वानन्द जी का शुभ सान्निध्य पाकर उनसे संन्यास दीक्षा ली और स्वामी स्वात्मानन्द जी बन गये। कुछ समय तक वे हिमाचल के चंबा  स्थित मठ में भी रहे। बाद में हरिद्वार के समीपस्थ महाविद्यालय ज्वालापुर में भी कुछ काल तक निवास किया। भोजन व भण्डारविभाग के प्रमुख बनकर आप गुरुकुलीय व्यवस्था में सहयोग देते रहे और ब्रह्मचारियों को राष्ट्रभक्ति व सुसंस्कारों का पाठ पढ़ाते रहे।

पुनश्च जन्मभूमि में – कई वर्ष उत्तर  भारत में रहकर स्वामी जी महाराष्ट्र आये। लातूर के समीपस्थ कव्हा नामक ग्राम में छोटासा आश्रम (कुटिया)बनाकर तपस्वी जीवन व्यतीत करने लगे। तब भोजनादि की असुविधा के कारण होने वाली अड़चनों को देखकर आर्यजनों ने उन्हें आर्यसमाज में रहने की विनती की। अतः उनके आग्रह पर वे आर्यसमाज में रहने लगे। यहाँ पर सादगीपूर्ण विरक्त वृत्ति  धारण कर वे पूर्व की भाँति वेदप्रचारादि कार्यों में संलग्न होकर आर्यों को प्रेरणा देते रहे। यज्ञकार्य में उन्हें विशेष रुचि थी। अपनी आर्यसमाज में भव्य यज्ञशाला बनें, यह उनकी तीव्र अभिलाषा थी। इसके लिए वे अपनी ओर से लगभग ५० हजार रूपयों की राशि भी दान में दी। उनके चले जाने के बाद पदाधिकारियों ने एक विशाल यज्ञशाला निर्माण किया है।

 

अनोखी क्षमाशीलता – किसी कवि ने कहा है- क्षमा वीरस्य भूषणम्। अर्थात् क्षमाशीलता वीरपुरुषों का आभूषण होती है। जुलमी रजाकारों के अत्याचारों से लोहा लेने वाले नरवीर स्वात्मानन्द जी में प्रखर शौर्य के साथ ही अनूठी क्षमावृत्ति भी थी। शहर के किसी प्रसिद्ध व्यक्ति द्वारा एक अन्याय हुआ। एक मासूम महिला की असहायता का फायदा उठाकर उसने अत्याचार किया। नाजायज गलत सम्बन्ध स्थापित किया, परिणाम वही हुआ, जो होना था। पेट में पलने वाले बच्चे को अपनाने व उस महिला को आश्रय देने के लिए तैयार नहीं हुआ, तब वह स्त्री स्वामी जी के पास आयी और उसने वह सारी दुःखभरी कहानी सुना दी। उस पीड़ित महिला के वेदना सुनकर स्वामी जी ने उसे आश्वस्त किया। अपने कार्यकर्ताओं  से उस अपराधी व्यक्ति की तलाश कर सामने लाने का आग्रह किया। स्वामी जी के प्रभाव से वह व्यक्ति उनके चरणों में आकर गिरा, उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया व क्षमा मांगी। स्वामी जी ने भी उसे अपूर्व क्षमादान करते हुए छोड़ दिया। उस महिला को किसी अज्ञात सुरक्षित स्थान पर रखकर पिता की भाँति उसकी देखभाल की। पूरा समय बीतने पर जब बच्चा पैदा हुआ, तब उस बच्चे की पालन-व्यवस्था का भार किसी अन्य परिवार पर सौंप दिया और उस महिला को समाज में प्रतिष्ठापूर्वक जीने का अधिकार प्रदान किया। ऐसे थे क्षमा, करुणा व दया के पुजारी श्री स्वामी स्वात्मानन्द जी

 

सभी को पितृतुल्य छत्रछाया – स्वामी जी के त्यागमय, कर्मठ जीवन को देखकर अनेकों लोग उनकी ओर आकृष्ट हो गये। सभी लोगों से उनके मधुर सम्बन्ध थे। उनका क्रान्तिकारी जीवन ही उन्हें यश गौरव दिलाने में पर्याप्त रहा। सर्व श्री स्वा. सै. वासुदेवराव होलीकर, स्वा. सै. शंकरराव जडे, स्वा. सै. निवृत्तिरव  होलीकर, स्वा. सै. चन्द्रशेखर बाजपेयी, पू. उत्ममुनि, हरिशचन्द्र गुरु जी, हरिशचन्द्र पाटील आदि से उनका सदैव विचारविमर्श होता था। धनंजय पाटील, परांडेकर, पाराशर, तेरकर, प्रो. नरदेव गुडे, प्रो. विजय शिंदे, प्रो. मदनसुरे, प्रो. होलीकर, प्रो. दत्तात्रेय  पवार, हालिंगे बंधू, कैप्टन डॉ. भारती जाधव आदियों पर उनका विशेष स्नेहाशीष रहा। श्री महेन्द्रकर सहित अनेकों आर्य परिवार स्वामी जी की श्रद्धाभाव भोजनादि की व्यवस्था करते  थे।स्वामी जी जीवन के अन्त तक आर्यसमाज लातूर में रहे। यहाँ का निवास भवन आज भी स्वामी जी के नाम से पहचाना जाता है। लेखक को भी छात्रावस्था में उनका प्रेमाशीर्वाद मिला व उनकी सेवा का सुअवसर प्राप्त हुआ। वृद्धावस्था में आर्य समाज के पदाधिकारियों, आर्यजनों व परिजनों ने उनकी श्रद्धाभाव से सेवा

शुश्रुषा की। ऐसे महान तपोनिष्ठ महात्मा ने दि. ७ अगस्त १९९४ को अपनी जीवन यात्रा समाप्त की। ऐसे महान कर्मयोगी, महान देशभक्त को शत् शत् अभिवादन।

– श्रुतिगन्धम्, ब-१३, विद्यानगर,

परली-वैजनाथ जि. बीड (महाराष्ट्र)

ऋषि दयानन्द के दृष्टान्त :आचार्य सोमदेव जी

आचार्य सोमदेव जी ने अपने प्रवचन क्रम में मनुस्मृति का स्वाध्याय कराया। मनु के श्लोकों की धर्म, सदाचार, संस्कृति, चरित्र-निर्माण आदि के अनेक दृष्टान्तों के माध्यम से सरल व्याख्या प्रस्तुत की। अपने दार्शनिक प्रसंग में आपने बताया कि सांसारिक मनःस्थिति और आध्यात्मिक मनःस्थिति में अन्तर होता है। जहाँ सांसारिक स्थिति में जो हम चाहते हैं, प्रायः वैसा होता नहीं है, और जो होता है वह प्रायः हमें भाता नहीं है (अच्छा नहीं लगता है) और यदि संसार में कुछ अच्छा भी लगने लगता है तो वह ज्यादा दिन टिक नहीं पाता- अर्थात् संसार में जो चाहते वह होता नहीं, जो होता है वह हमें भाता नहीं, और जो भाता है वह ठहरता नहीं है। इसके विपरीत आध्यात्मिक स्थिति में जो होने वाली स्थिति होती है, व्यक्ति उसी को चाहता है, जो नहीं हो सकती, उसकी इच्छा नहीं करता। होने वाली स्थिति को चाहता है तो वह प्राप्त होती है और वह स्थायी भी दिखती है, टिकने वाली दिखती है। महर्षि दयानन्द जी ने जब जन्म लिया तो टिकना चाहते थे, जीना चाहते थे लेकिन स्थिति ऐसी दिख रही थी, परिस्थिति ऐसी बन रही थी कि जीवन टिकता हुआ दिख नहीं रहा था, घटनाएँ ऐसी घट रही थीं जिनसे स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि भैया, जीवन ज्यादा दिन टिकने वाला नहीं है। शिव मन्दिर में गए, टिकाऊ ईश्वर चाहते थे लेकिन यह क्या? ईश्वर भी टिकाऊ नहीं मिल पा रहा। उधर मूर्तियों में चूहें क्या कूदे- ईश्वर भी हाथ से निकलने लगा। तो ऋषि-महर्षि क्या चाहते हैं? अथर्ववेद कहता है-

भद्रमिच्छन्त ऋषयः स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे।

ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उपसंनमन्तु।।

– अथर्व. १९/४१/१

भद्रमिच्छन्त ऋषयः ऋषि लोग भद्र को चाहते हैं। भद्र के अतिरिक्त ऋषियों को कुछ भी नहीं चाहिए। मन्त्र में ऋषि का एक विशेषण कहा- स्वर्विदः स्वः सुख (को), विदः जानने वाला। यथार्थ में यदि कोई सुख को जानने वाला होता है, पहचानने वाला होता है तो वह ऋषि ही होता है, आध्यात्मिक व्यक्ति ही होता है, साधक ही होता है। सांसारिक व्यक्ति तो छिछले पानी में सुख ढूँढ़ने लगता है। निरुक्त में ज्ञान पिपासुओं को जलाशय/नदी में स्नान करने वाले के दृष्टान्त से समझाया है अर्थात् जलाशय में नहाने के लिए जाने वालों में कुछ घुटने तक पानी में जाकर ही सन्तुष्ट हो जाते हैं, कुछ छाती तक पानी में तृप्त हो जाते हैं, लेकिन अच्छे तैराक तो गहरे जल में गोते लगाकर ही सन्तुष्टि को पाते हैं। वैसे ही जहाँ सांसारिक व्यक्ति थोड़े से सुख से सन्तुष्ट हो जाता है, वहीं आध्यात्मिक थोड़े से सन्तुष्ट नहीं होता है। जब तक सुख की पुष्कल मात्रा न मिल जाए उसकी खोज जारी रहती है। तो यह भद्र प्राप्त कैसे होता है? मन्त्र कह रहा है- तपो दीक्षाम्+उपनिषेदुः अग्रे अर्थात् जब तपो= तप (और) दीक्षाम्= दीक्षा के, उपनिषेदुः= निकट जाते हैं अर्थात् सुख को जानने वाले ऋषि भद्रं को चाहते हुए (उसे प्राप्त करने के लिए) तप और दीक्षा के निकट जाते हैं (तप और दीक्षा का आचरण करते हैं) महर्षि दयानन्द का दृष्टान्त हमारे सामने है, भद्र को प्राप्त करने के लिए ऋषि ने कितना तप किया, चाहे शारीरिक तप हो या वाचनिक तप हो या मानसिक तप हो, इन तीनों ही तपों में तपाकर महर्षि ने स्वयं को कुन्दन बनाया है। जब महर्षि के शारीरिक तप की बात करें तो सच्चे गुरु की खोज में अलकनन्दा के उद्गम की ओर बढ़ते हुए रास्ता बेरी की कटीली झाड़ियों से अवरुद्ध हो गया तो लेटकर वहाँ से आगे निकले और ऐसा करते हुए अपने मांस का बलिदान देना पड़ा। जब और आगे गए तो शीत बढ़ती ही गई, नदी पार करते समय बर्फ के नुकीले किनारों से पैर लहुलुहान हो गए, लेकिन ऋषि भद्र के लिए आगे बढ़ते ही जा रहे हैं। इसी प्रकार महर्षि दीक्षित भी हुए। मन्त्र कह रहा है जब व्यक्ति तपस्वी और दीक्षित होता है, तब – ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातम् अर्थात् उस तपस्वी और दीक्षित से राष्ट्र उत्पन्न होता है, बल उत्पन्न होता है और ओज उत्पन्न होता है। बल और राष्ट्र तो विदित हैं, यह ओज क्या है? कई बार कहा जाता है कि इसके मुख में ओज है, इसकी वाणी में ओज है, इसके व्यक्तित्व में ओज है। शरीर में ओज है अर्थात् शरीर विशेष कान्ति से युक्त है, यह वैसी ही कान्ति होती है जैसी बसन्त की नई कोपलों (प       िायों) में होती है, जैसे बच्चों के शरीर में होती है। यह चमक करती क्या है? यह व्यक्तियों को आकर्षित करती है। महर्षि दयानन्द के शरीर में ओज था, उनकी वाणी में ओज था। कहते हैं जब महर्षि मूर्तिपूजा खण्डन में अपनी ओजस्वी वाणी में व्याख्यान करते थे, लोग इतने प्रभावित होते थे कि टोकरियों में भर-भरकर अपने घरों की मूर्तियाँ निकाल फेंकते थे। तो तपस्वी और दीक्षित में बल उत्पन्न होता है। महर्षि दयानन्द में कितना शारीरिक बल था? महर्षि जोधपुर में ठहरे हुए थे, भ्रमण में जाते समय मार्ग में एक भारी रहंठ आया करती थी, एक पहलवान जो इस रहंठ को घुमाकर हौदी में पानी भरता था, उसे इस बात का अभिमान था कि मेरे अतिरिक्त इस रहंठ को कोई भी घुमा नहीं सकता। एक बार महर्षि भ्रमणार्थ जब वहाँ पहुँचे तो हौदी को खाली देख, पशुओं के पीने के पानी के लिए और शारीरिक व्यायाम की दृष्टि से रहंठ घुमाने लगे, थोड़ी ही देर में हौदी भर गई, लेकिन महर्षि का व्यायाम भी पूरा नहीं हुआ तो महर्षि टहलने आगे निकल गए। जब लौटे तो इतने में वहाँ पहलवान भी आ चुका था। उसने महर्षि से पूछा- महाराज क्या आपने ये हौदी भरी है? महर्षि ने कहा कि हाँ, हमने भरी है, हमने सोचा कि इससे हमारा व्यायाम हो जाएगा, लेकिन हौदी जल्दी ही भर गई, व्यायाम भी पूरा नहीं हो पाया तो हम टहलते आगे चले गए। पहलवान को बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि जिस हौदी को भरते-भरते मैं थक जाता हूँ, स्वामी जी का थकना तो दूर, ठीक से व्यायाम भी नहीं हुआ, कितना बल रहा होगा महर्षि के शरीर में! इसी प्रकार मानसिक बल भी, जितनी विषम परिस्थितियों में स्वयं को अडिग रखते हुए महर्षि ने कार्य किया, हम अनुमान कर सकते हैं कि कितना अधिक मानसिक बल रहा होगा और ऐसा होने पर अर्थात् जब भद्र की इच्छा करते हुए तपस्वी व दीक्षित होने पर ऋषि बल, राष्ट्र और ओज को उत्पन्न कर देते हैं तब- तदस्मै देवा उपसंनमन्तु अर्थात् उस ऋषि के लिए देवता भी प्रणाम करते हैं। विद्वान्/श्रेष्ठ उस तपस्वी का सम्मान करते हैं। इति।।

 

नरक, स्वर्ग व मोक्ष क्या हैं ? – आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा मैं आपसे अपनी ही नहीं अपितु आम व्यक्तियों की जिज्ञासा हेतु कुछ जानना चाहता हूँ। कृपया समाधान कर कृतार्थ करें-

(क) तमाम कथावाचक, उपदेशक, साधु व सन्त नरक, स्वर्ग व मोक्ष की बातें करते हैं। आप इन को विस्तृत रूप से समझायें और अपने विचार दें।

समाधन– (क) वेद विरुद्ध मत-सम्प्रदायों ने अनेक मिथ्या कल्पना कर, उन कल्पनाओं को जन सामान्य में फैलाकर पूरे समाज को अविद्या अन्धकार में फँसा रखा है, जिससे जगत् में दुःख की ही वृद्धि हो रही है। ये मत-सम्प्रदाय ऊपर से अध्यात्म का आवरण अपने ऊपर डाले हुए मिलते हैं। यथार्थ में देखा जाये तो जो वेद के प्रतिकूल होगा वह अध्यात्म हो ही नहीं सकता। कहने को भले ही कहता रहे। महर्षि दयानन्द के काल में व उनसे पूर्व और आज वर्तमान में इन मत-सम्प्रदायों की संख्या देखी जाये तो हजारों से कम न होगी। उन हजारों में शैव, शाक्त, वैष्णव, वाममार्ग, बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम आदि प्रमुख हैं। महर्षि दयानन्द के समय से कुछ पूर्व स्वामी नारायण सम्प्रदाय, रामस्नेही सम्प्रदाय, वल्लभ सम्प्रदाय, गुसाईं मत आदि और महर्षि के बाद राधास्वामी मत, ब्रह्माकुमारी मत, हंसा मत, सत्य सांई बाबा पंथ (दक्षिण वाले), आनन्द मार्ग, महेश योगी, माता अमृतानन्दमयी, डेरा सच्चा सौदा, आर्ट ऑफ लिविंग, निरंकारी, विहंगम योग, शिव बाबा आदि कितनों के नाम लिखें। ये सब अवैदिक मान्यता वाले हैं। इन्होंने अपने-अपने मत की पुस्तकें भी बना रखी हैं। इन पुस्तकों में इन मत वालों ने अपनी मनघड़न्त कल्पनाओं के आधार पर ही अधिक लिख रखा है। स्वर्ग, नरक, मोक्ष, आकाश में देवताओं का निवास स्थान, यमराज, यमदूत आदि की व्याख्याएँ अविद्यापरक ही हैं।

आपने स्वर्ग, नरक, मोक्ष के विषय में जो आज के तथाकथित उपदेशक, कथावाचक, साधु-सन्त कहते-बतलाते हैं, उसके सम्बन्ध में जानना चाहा है। यहाँ हम महर्षि की मान्यता को लिखते हैं व इन तथाकथित कथावाचकों की इन विषयों में क्या दृष्टि है उसको भी लिखते हैं। ‘‘स्वर्ग- जो विशेष सुख और सुख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है वह स्वर्ग कहाता है। नरक- जो विशेष दुःख और दुःख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है उसको नरक कहते हैं।’’ आर्योद्दे. १४-१५ स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश में महर्षि इनके विषय में लिखते हैं- ‘‘स्वर्ग- नाम सुख विशेष भोग और उनकी सामग्री प्राप्ति का है। नरक- जो दुःख विशेष भोग और उनकी सामग्री प्राप्ति को प्राप्त होना है।’’ सत्यार्थप्रकाश ९वें सम्मुल्लास में महर्षि लिखते हैं- ‘‘…….सुख विशेष स्वर्ग और विषय तृष्णा में फँसकर दुःख विशेष भोग करना नरक कहाता है। ‘स्वः’ सुख का नाम है, स्व सुखं गच्छति यस्मिन् स स्वर्गः, अतो विपरीतो दुःखभोगो यस्मिन् स नरक इति। जो सांसारिक सुख है वह सामान्य स्वर्ग और जो परमेश्वर की प्राप्ति में आनन्द है, वही विशेष स्वर्ग कहाता है।’’

महर्षि की इन परिभाषाओं के आधार पर (परमेश्वर की प्राप्ति रूप विशेष स्वर्ग को छोड़) स्वर्ग-नरक किसी लोक विशेष या स्थान विशेष पर न होकर, जहाँ भी मनुष्य आदि प्राणी हैं, वहाँ हो सकते हैं। जो इस संसार में सब प्रकार से सम्पन्न है अर्थात् शारीरिक स्वस्थता, मन की प्रसन्नता, बन्धु जन आदि का अनुकूल मिलना, अनुकूल साधनों का मिलना, धन सम्प   िा पर्याप्त मिलना आदि है, जिसके पास ये सब हैं वह स्वर्ग में ही है। इसके विपरीत होना नरक है, नरक में रहना है। वह नरक भी इसी संसार में देखने को मिलता है।

नरक के विषय में किसी नीतिकार ने लिखा है

अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी, दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम्।

नीचप्रसङ्गः कुलहीनसेवा चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम्।।

अत्यन्त क्रोध, कटुवचन, दारिद्र्य, अपने स्वजनों से वैर-भाव, नीच-दुर्जनों का संग और कुलहीन की सेवा, ये चिह्न नरकवासियों की देह में होते हैं। ये सब चिह्न इसी संसार में देखने को मिलते हैं। इस आधार पर स्वर्ग अथवा नरक के लिए कोई लोक पृथक् से हो ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा। यह काल्पनिक ही सिद्ध हो रहा है।

जिस स्वर्ग लोक की कल्पना इन लोगों ने कर रखी है, वह तो इस पृथिवी पर रहने वाले एक साधन सम्पन्न व्यक्ति से अधिक कुछ नहीं है।

मोक्ष निराकार परमेश्वर को प्राप्त कर, उसके आनन्द में रहने का नाम है अर्थात् जब जीव अपने अविद्यादि दोषों को सर्वथा नष्ट कर, शुद्ध ज्ञानी हो जाता है तब वह सब दुःखों से छूट कर परमेश्वर के आनन्द में मग्न रहता है, इसी को मोक्ष कहते हैं। वहाँ आत्मा अपने शरीर रहित अपने शुद्ध स्वरूप में रहता है। कथावाचकों के मोक्ष की कल्पना और उसके साधनों की कल्पना सब मिथ्या है। किन्हीं का मोक्ष गोकुल में, किसी का विष्णु लोक क्षीरसागर में, किसी का श्रीपुर में, किसी का कैलाश पर्वत में, किसी का मोक्षशिला शिवपुर में, तो किसी का चौथे अथवा सातवें आसमान आदि पर। इस प्रकार के मोक्ष के उपाय भी मिथ्या एवं काल्पनिक हैं। जैसे-

गङ्गागङ्गेति यो ब्रूयाद् योजनानां शतैरपि।

मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति।।

– ब्रह्मपुराण. १७५.९२/पप.पु.उ. २३.२

अर्थात् जो सैकड़ों सहस्रों कोश दूर से भी गंगा-गंगा कहे, तो उसके पाप नष्ट होकर वह विष्णु-लोक अर्थात् वैकण्ठ को जाता है।

हरिर्हरति पापानि हरिरित्यक्षरद्वयम्।।

अर्थात् हरि इन दो अक्षरों का नामोच्चारण सब पापों को हर लेता है, वैसे ही राम, कृष्ण, शिव, भगवती आदि नामों का महात्म्य है।

इसी तरह

प्रातः काले शिवं दृष्ट्वा निशि पापं विनश्यति।

आजन्म कृतं मध्याह्ने सायाह्ने सप्तजन्मनाम्।।

अर्थात् जो मनुष्य प्रातः काल में शिव अर्थात् लिंग वा उसकी मूर्ति का दर्शन करे तो रात्रि में किया हुआ, मध्याह्न में दर्शन से जन्मभर का, सायङ्काल में दर्शन करने से सात जन्मों का पाप छूट जाता है।

इस प्रकार के उपाय पाप छूटाने मोक्ष दिलाने के मिथ्या ग्रन्थों में लिखे हैं और इन्हीं प्रकार के उपाय आज का तथाकथित कथावाचक बता रहा है। पाठक स्वयं देखें, समझें कि ये उपाय पाप छुड़ाने वाले हैं या अधिक-अधिक पाप कराने वाले। भोली जनता इन साधनों से ही अपना कल्याण समझती है, जिससे लोक में अविद्या अन्धकार, अन्धविश्वास, पाखण्ड और अधिक फैल रहा है।

वेद व ऋषियों द्वारा मुक्ति व उसके उपाय ऐसे नहीं हैं। वहाँ तो सब बुरे कामों और जन्म-मरण आदि दुःख सागर से छूटकर सुखस्वरूप परमेश्वर को प्राप्त होकर सुख ही में रहना मुक्ति कहाती है। और ऐसी मुक्ति के उपाय महर्षि दयानन्द लिखते हैं ‘‘…..ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना का करना, धर्म का आचरण और पुण्य का करना, सत्संग, विश्वास, तीर्थ सेवन (विद्याभ्यास, सुविचार, ईश्वरोपासना, धर्मानुष्ठान, सत्य का संग, ब्रह्मचर्य, जितेन्द्रियतादि उत्तम कर्मों का सेवन), सत्पुरुषों का संग और परोपकारादि सब अच्छे कामों का करना तथा सब दुष्ट कर्मों से अलग रहना, ये सब मुक्ति के साधन कहाते हैं।’’ इन मुक्ति के साधनों को देख पाठक स्वयं विचार करें कि यथार्थ में मुक्ति के साधन, उपाय ये महर्षि द्वारा कहे गये हैं वा उपरोक्त मिथ्या ग्रन्थों व तथाकथित कथावाचकों द्वारा कहे गये हैं वे हैं। निश्चित रूप से ऋषि प्रतिपादित ही मुक्ति के उपाय हो सकते हैं, दूसरे नहीं।

मिथ्या पुराणों जैसी ही मुक्ति ईसाइयों व मुसलमानों की भी है। ईसाइयों के यहाँ खुदा का बेटा जिसे चाहे बन्धन में डलवा दे। ईसाई जगत् में तो जीवितों को मुक्ति के पासपोर्ट मिल जाते हैं। समय से पूर्व अपना स्थान सुरक्षित कराया जाता है। जितना कुछ चाहिए उससे पूर्व उतना धन चर्च के पोप को पूर्व में जमा कराया जाता है।

मुसलमानों के यहाँ भी ‘नजात’ होती है और वहाँ पहुँच कर सब सांसारिक ऐश परस्ती के साधन विद्यमान हैं, मोहम्मद की सिफारिश के बिना उसकी प्राप्ति नहीं है अर्थात् उन पर ईमान लाये बिना। कबाब, शराब, हूरें, गितमा आदि सभी ऐय्याशी के साधन मिलते हैं। क्या यह भी कभी मुक्ति कहला सकती है? अर्थात् ऐय्याशी करना कभी मुक्ति हो सकती है? इस मुक्ति पर मुसलमानों का विश्वास भी है। वे कहते हैं-

अल्लाह के पतले में वहदत के सिवाय क्या है।

जो कुछ हमें लेना है ले लेंगे मोहम्मद से।।

इतना सब लिखने का तात्पर्य यही है कि जो वेद व ऋषि प्रतिपादित नरक, स्वर्ग व मोक्ष की परिभाषाएँ हैं, वही मान्य हैं इससे इतर नहीं। स्वर्ग व मोक्ष के उपाय भी वेद व ऋषियों द्वारा कहे गये ही उचित हैं। इन मिथ्या पुराणों व इनके कथावाचकों द्वारा कहे गये नहीं।