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आर्य समाज का वेद प्रचार: एक नूतन प्रयोग – रामनिवास गुणग्राहक

‼ ओ३म् ‼

आर्य समाज की प्रचार-पद्धति के सम्बन्ध में विचार करने से पहले एक बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि संसार के धार्मिक कहे जाने वाले मत-पन्थों के प्रचार-अभियान और आर्य समाज के प्रचार कार्य में बड़ा अन्तर है। पाखण्ड और अन्धविश्वास को धर्म स्वीकार कर चुका भारतीय जन मानस एक पाखण्ड से अच्छा और सरल लगने वाले दूसरे पाखण्ड को सहजता से स्वीकार कर लेता है। मूर्ति राम की न सही कृष्ण की भी चलेगी, गणेश की न सही हनुमान की भी चलेगी। यही परम्परा आज यहाँ तक पहुँच गई है कि शिव का स्थान सांई ले सकता है और गली-गली में बनने वाले भोले-भैरों  के मन्दिर से जिनकी कामना सिद्ध नहीं होती वे उसी कथित श्रद्धा से किसी मियाँ की मजार या कब्र पर जाकर भेंट पूजा चढ़ाने चले जाते हैं। आर्य समाज इन सबसे अलग हटकर बुद्धि और तर्क की बात करता है जिन्हें हमारे पुराणी और कुरानी बन्धु सैकड़ों सहस्रों वर्ष पूर्व धार्मिक सोच से दूर भगा चुके हैं। यही कारण है कि तर्क और बुद्धि से काम लेने वालों को आज के धर्माचार्य व धर्मभीरू लोग बिना सोचे समझे नास्तिक कह ड़ालते है। वैसे यह एक कडवा सच भी है कि तर्क और विज्ञान की बात करने वाले हमारे बुद्धिजीवी आज नास्तिक बन कर ही रह गये हैं। ऐसे में आर्य समाज को अपनी प्रचार-पद्धति को एक नया धारदार रूप देने के लिए वर्तमान पद्धति की जाँच-परख करते रहना चाहिए।

यह सही है कि आर्य समाज की पहली पीढी ने जितना जो कुछ वेद प्रचार व समाज सुधार का काम किया वो सब इसी प्रचार-पद्धति से किया। इसी के साथ यह भी मानना ही पडेगा कि विगत 20-30 वर्षों का अनुभव चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि अब यह प्रचार-पद्धति अपना प्रभाव खो चुकी है। कारण जो भी रहे हो, चाहे हमारी जीवन-शैली की व्यवस्था हो या टी.वी., मोबाइल से चिपके रहने की प्रवृति। चाहे हमारे उपदेशकों की निष्ठा, स्वाध्यायशीलता में कमी आने के कारण या हमारे कर्णधारों-पदाधिकारियों के मन-मस्तिष्क में जडें जमा चुकी उठा-पटक की प्रवृत्ति के साथ माला और फोटो की मानसिकता-कुछ भी हो आज का सच यह है कि हमारी वर्तमान प्रचार-पद्धति अब न तो हम आर्य कहलाने वालों के जीवन में कोई सुधार व निखार लाती दिख रही है और न नये व्यक्तियों को आर्यसमाज से जुडने के लिए प्रेरित या आकर्षित कर पा रही है। ऐसे में प्रत्येक वेद भक्त और ऋषि भक्त आर्य का कत्र्तव्य है कि वह आर्य समाज के प्रचार कार्य को प्रखर और प्रभावी बनाने की दिशा में गम्भीरता से विचार करे और उसे व्यावहारिक बनाने के लिए कुछ ठोस कार्य भी करे। मैंने इस दिशा में बहुत लम्बे समय से अनेक सुधी आर्य जनों व मित्रों से विचार-विमर्श करके हमारी प्रचार-पद्धति को नया रूप देने का छोटा प्रयास किया है। सुधी पाठक इस पर और विचार करके अपने अमूल्य सुझाव देकर इसे और प्रभावोत्पादक बना सकते हैं या जिन्हें यह अच्छा लगे वो अपने पदाधिकारियों से मिलकर चर्चा करके इस पर व्यवहार प्रारम्भ कर सकते हैं।

सम्भव है कुछ आर्य जनों को यह अटपटा लगे, कुछ को इस पर स्वार्थ जन्य आपत्तियाँ भी हो सकती हैं, मगर मेरा मानना है कि वेद प्रचार की यह प्रचार शैली आर्य समाजों में प्रचलित हो जाए तो इसके प्रत्यक्ष और उत्साहवर्धक परिणाम एक-दो वर्ष में ही प्रकट होने लगेंगे। हाँ जिन्हें आर्य समाज से अधिक व्यक्ति जुड़ने पर पद चले जाने का डर लगता हो, उनके लिए कोई कुछ नहीं कर सकता है। अब पढि़ये कि आर्य समाज को नवजीवन देने के लिए हमें अपनी प्रचार-पद्धति में क्या कुछ बदलना पडे़गा। यद्यपि आज आर्य समाज में ऐसे उपदेशक बहुत कम संख्या में हैं जो नित्य नियमित रूप से संध्योपासना व स्वाध्याय करते हों। जितने भी हों, प्रारम्भ के लिए ऐसे विद्वान् हमारे मध्य है जो संध्या व स्वाध्याय दैनिक कर्म के रूप में करते हैं। जो नहीं भी करते हंै, जब सिर पर आ पडे़गी तो सब करने लगा जाएँगे। आज समस्या यह है कि आर्य समाज में ‘सब धान सत्ताइस का सेर’ बिकता है। हमें सिद्धान्त निष्ठ, धर्मात्मा, निष्कलंक, निर्लोभी और सरल स्वभाव के स्वाध्यायशील किसी एक विद्वान को अपने आर्य समाज में प्रचार कार्य के लिए कम से कम 8-10 दिन के लिए सादर आमन्त्रित करना चाहिए। उससे पहले आर्य समाज के पदाधिकारी व श्रेष्ठ सभा- सद मिलकर प्रचार-योजना इस ढं़ग से बनायें- प्रतिदिन प्रातःकाल सुविधानुसार किसी पदाधिकारी या श्रदालु आर्य के घर यज्ञ व पारिवारिक सत्संग रखे, जिसमें एक घण्टा तक व्याख्या युक्त यज्ञ हो और एक घण्टा धर्म, ईश्वर, वेद आदि की विशेषताएँ लिये हुए परिवार, समाज व राष्ट्र से जुड़े हुए कत्र्तव्यों के पालन की प्रेरणापरक प्रवचन होना चाहिए। जिस परिवार में यज्ञ व सत्संग हो, वह अपने परिचितों व पड़ौसियों को प्रेम पूर्वक आमन्त्रित करे। घर मीठे चावल बनाए, स्विष्टकृत आहुति व बलिवैश्वदेव की आहुतियाँ देकर प्रसाद रूप में सबको वही यज्ञशेष प्रदान करें।

प्रातःकाल इतना करके दिन में किसी विद्यालय में कार्यक्रम रखने के लिए पहले ही सम्बन्धित प्रधानाध्यापक आदि से मिलकर सुविधानुसार 40-50 मिनट का समय तय कर लें। आर्य समाज के एक या दो सज्जन आमन्त्रित विद्वान् को सम्मान पूर्वक विद्यालय ले जाएँ और विद्या व विद्यार्थियों से जुड़े हुए विषय पर सरल व रोचक भाषा शैली में वेद व वैदिक साहित्य के प्रमाण पूर्वक प्रवचन करें। वेद व आर्य समाज के प्रति श्रद्धा बढ़ाने की भावना का ध्यान पारिवारिक यज्ञ-सत्संग से भी रखना चाहिए और विद्यालयों में भी। कार्यक्रम के अन्त में सबको निवेदन करें कि वे सांयकाल आर्य समाज में होने वाली धर्म चर्चा-सत्संग में पुण्य लाभ प्राप्त करने हेतु अवश्य पधारें। सुविधानुसार एक दिन में दो-तीन विद्यालयों में प्रवचन रख सकते हैं। हमारी आज की पीढ़ी बहुत तेज तर्रार है उसके मन-मस्तिष्क में धर्म और ईश्वर को लकर अनेक प्रश्न खडे़ होते हैं। लेखक लड़के-लड़कियों के काॅलेजों के अनुभव के आधार पर कह सकता है कि युवक-युवतियाँ बडे़ तीखे प्रश्न करते हैं। ऐसे में आर्य समाज का गौरव कोई स्वाध्यायशील व साधनाशील आर्य विद्वान् ही बचा सकता है। नई पीढ़ी को प्रश्नों व शंका समाधान की छूट दिये बिना हम नई पीढ़ी के मन-मस्तिष्क को धर्म, ईश्वर व आर्य समाज की ओर नहीं मोड सकते, इसलिए किसी विद्वान् को बुलाने से पहले इस बात का ध्यान अवश्य रखें और उन्हें इसकी सूचना भी अवश्य कर दें।

दिन में इतना कुछ करके रात्रि में सबकी सुविधा व अधिकतम लोगों के आगमन की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए दो घण्टे का कार्यक्रम बनायें। दिन में अगर अधिक प्रश्न व शंकाएँ रखी गई हांे तो उनके उत्तर रात्रि काल के सत्संग में रखे जा सकते हैं या समाज के सुधीजन कार्यक्रम बनाते समय कुछ उपयोगी व सामयिक विषय निश्चित कर सकते हैं। इस प्रकार एक दिन का यह कार्यक्रम है, ऐसे ही 8-10 दिन का कार्यक्रम बनाकर हम इसके अनुसार प्रचार कार्य करके समय, श्रम व संसाधनों का सटीक सदुपयोग करके बहुत लाभ प्राप्त कर सकते हंै। प्रसंगवश एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य की ओर आर्य जनों का ध्यान आकर्षित करना बहुत आवश्यक है। प्रचार कार्य में प्रवचन और सत्संग से अधिक भूमिका साहित्य की होती है। दुःख की बात यह है कि आज आर्यसमाज में स्वाध्याय की प्रवृत्ति और स्वाध्याय के योग्य प्रभावी साहित्य दोनों में निरन्तर गिरावट आती जा रही है। प्रचार को प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक है कि हम ऋषि दयानन्द के लघु ग्रन्थों, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, पं. चमूपति, स्वामी दर्शनानन्द जी, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय, पं. रामचन्द्र देहलवी और स्वामी वेदानन्द जी जैसे सिद्धान्तनिष्ठ विद्वानों के साहित्य को बहुत बड़ी मात्रा में प्रकाशित करा कर अल्प मूल्य में उपलब्ध करायें। मुझे क्षमा करें हमारे आज के प्रतिष्ठित कहलाने वाले तथा विभिन्न आर्य संस्थानों से पुरस्कृत होते रहने वाले लेखक और अन्तर्राष्ट्रीय कथाकारों की वाणी और लेखनी किसी के जीवन को निखारने-सँवारने में सर्वथा असमर्थ है। आज स्थिति यह है कि हमारे आज के नामधारी लेखकों ने इधर-उधर से दान लेकर अपने कई-कई पोथे छपवाकर अल्प मूल्य के साथ बाजार में छोड़ रखे हैं। पुरानी पीढ़ी के लेखकों के ग्रन्थ छपाने के लिए कोई दानी आगे नहीं आता या बहुत कम आते हंै। आर्य समाज को इस दिशा में भी गम्भीरता से सोचना पड़ेगा। पहली-दूसरी पीढ़ी के गम्भीर, सिद्धान्तजीवी वैदिक विद्वानों के साहित्य का उद्धार करना आज की बहुत बड़ी माँग है, ऐसा न हो कि कल बहुत देर हो जाए। वेद प्रचार को जीवन्त बनाने के लिए सत्साहित्य व सिद्धान्तनिष्ठ प्रवचन-सत्संग ही एक मात्र उपाय है। हमारे सुधी पाठक इस पर गम्भीरता से विचार करके देखेंगे तो लगेगा कि बिना लम्बी चैड़ी भाग दौड़ के, बिना किसी ताम-झाम के, बिना किसी बड़े खर्चे के एक सीमित आय वाले आर्यसमाज भी इसका लाभ ले सकते हैं। मैंने इसके प्रायः सभी पक्षों को लेकर बहुभाँति चिन्तन किया है, उस चिन्तन के आधार पर मैं पाठकों को विश्वास दिला सकता हूँ कि प्रचार की यह पद्धति अपना ली जाए तो आर्य समाज का कायाकल्प होने में 5‘-10 वर्ष से अधिक समय नहीं लगेगा। हाँ इसके साथ-साथ हमें अपने संगठन सम्बन्धी अपनी कमियों को दूर करना पड़ेगा।

कुछ लोग यह कहते हैं कि आर्य समाज का सांगठनिक ढाँचा आज के समय के अनुकूल नहीं है। ऐसे लोग लोकतान्त्रिक पद्धति की न्यूनताएँ गिनाने लगते हैं, लेकिन वे महर्षि दयानन्द की वेद विद्या से प्राप्त दूर दृष्टि को समझ नहीं पाते। नियम-सिद्धान्त कितने ही उच्चस्तर के हों अगर व्यक्ति निम्न स्तर के हैं तो अति महत्वपूर्ण तथ्यों की अनदेखी करके, साधारण या मनोनुकूल तथ्यों पर अधिक ध्यान केन्द्रित करके वे अच्छे-अच्छे नियम-सिद्धान्तों का दुरुपयोग कर ड़ालते हैं। आर्य समाज के संगठन सम्बन्धी नियम-उपनियमों के साथ भी हमारे कर्णधार लम्बे समय से यही करते चले आ रहे हैं। भविष्य में कभी इस विषय पर भी अपना चिन्तन पाठकों के सामने रखेंगे। अभी प्रचार सम्बन्धी चर्चा को व्यावहारिक रूप देने की आवश्यकता है। जो सज्जन इस पद्धति को अच्छा व उपयोगी मानते हों और ऐसा करना चाहते हों, वे अधिक जानकारी के लिए लेखक से संपर्क करके इसके बारे में समस्याओं व सम्भावनाओं पर विचार करके किसी भी प्रकार का सहयोग प्राप्त कर सकते हैं। आशा और विश्वास है कि  आर्यजन इस दिशा में आगे बढ़ने का प्रारम्भिक प्रयास करके लेखक के श्रम को सार्थक अवश्य करेंगे ।

इस नूतन प्रचार पद्धति के लाभः-

१-यह प्रचार पद्धति सबसे अधिक प्रभावी औरअच्छे परिणाम देने वाली है ।

२-कम खर्चीली होने के कारण कम आय वाले समाज भी इसका लाभ उठा सकते हैं ।

३-इसमें प्रबन्ध और व्यवस्था सम्बन्धी भागदौड बिल्कुल भी नहीं है ।

४-विद्यालयों में प्रवचन,व्याख्यान रखने से प्रतिदिन कई सौ युवाओं के साथ सम्पर्क हो सकेगा ।

५-पारिवारिक सत्संग से हमारे परिवारों व पडौसियों में वैदिक सिद्धान्तों व संस्कारों का प्रचार बढेगा ।

६-विद्यालयों में प्रश्नोत्तर के कारण हमारे प्रचारकों में स्वाध्याय व संध्या की प्रवृत्ति अवश्य ही बढेगी ।

७-टैण्ट,मंच,माइक,सजावट आदि के सब झंझट व भागदौड न रहने से आर्य कार्यकत्र्ता भी सत्संग,प्रवचन  का लाभ ले सकेंगे , वर्तमान में व्यवस्थाओं में लगे रहने से ऐसा नहीं हो पाता ।

८-नगर या शहर के अलग अलग क्षेत्रों में पारिवारिेक सत्संग होने से दूर दूर तक प्रचार प्रसार होगा ।

९-विद्यालयों में रुचि लेने वाले प्रतिभाशाली युवाओं से सम्पर्क बनाये रखकर हम आर्यसमाज की नई पीढी तैयार कर सकते हैं ।

१0-इस पद्धति से १५-२॰ हजार रुपये में ८-१0 दिन प्रचार हो सकेगा,अतः कोई भी समाज जितना पैसा एक उत्सव में अब लगाता है उतने में वर्ष में ८-१0 बार प्रचार करा कर पुण्य प्राप्त कर सकता है।

आशा है सुधी आर्यजन इन सब पर आर्योचित रीति से , न्याय बुद्धि से गम्भीरता पूर्वक विचार करंेगे। आप ऐसा करना उचित समझें तो मो॰-07597894991 पर मुझसे सम्पर्क करके इस प्रकार के प्रचार कार्य का प्रयोग कर सकते हैं ।मेरा इस दिशा में वर्षों का अनुभव है ,उसका परिणाम भी बहुत अच्छे मिले हंै । एक बार प्रयोग अवश्य करें इसमें कोई हानि नहीं , लाभ की सम्भावना बहुत है । अगर आप इस नूतन प्रचार पद्धति को स्वीकार इसके लाभ देखेंगे तो आपको बहुत आनन्द आयेगा और आपको इसके प्रथम प्रचलन का पुण्य प्राप्त होगा,एक बार सेवा का अवसर अवश्य दें । धन्यवाद ।।

आपका अपना ही

 

रामनिवास गुणग्राहक ०७५९७८९४९९१