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स्वराज्य वा स्वतन्त्रता के प्रथम मन्त्र-दाता महर्षि दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महाभारत काल के बाद देश में अज्ञानता के कारण अन्धविश्वास व कुरीतियां उत्पन्न होने के कारण देश निर्बल हुआ जिस कारण वह आंशिक रूप से पराधीन हो गया। पराधीनता का शिंकजा दिन प्रतिदिन अपनी जकड़ बढ़ाता गया। देश अशिक्षा, अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड व सामाजिक विषमताओं से ग्रस्त होने के कारण पराधीनता का प्रतिकार करने में असमर्थ था। सौभाग्य से सन् 1825 में गुजरात में महर्षि दयानन्द का जन्म होता है। लगभग 22 वर्ष तक अपने माता-पिता की छत्र-छाया में उन्होंने संस्कृत भाषा व शास्त्रीय विषयों का ज्ञान प्राप्त किया। इससे उनकी तृप्ति नहीं हुई। ईश्वर के सच्चे स्वरूप का ज्ञान और मृत्यु पर विजय कैसे प्राप्त की जा सकती है, इसके उपाय ढूंढने के लिये वह घर से निकल गये और लगभग 13 वर्षों तक धार्मिक विद्वानों व योगियों आदि की संगति तथा धर्म ग्रन्थों का अनुसंधान करते रहे। इसी बीच सन् 1857 ईस्वी का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम भी हुआ जिसे अंग्रेजों ने कुचल दिया। इसमें महर्षि दयानन्द की सक्रिय भूमिका होने का अनुमान है परन्तु इससे सम्बन्धित जानकारियां उन्होंने विदेशी राज्य होने के कारण न तो बताई और न ही उनका किसी ने अनुसंधान किया। इसके बाद सन् 1860 में मथुरा में दण्डी गुरू स्वामी विरजानन्द के वह अन्तेवासी शिष्य बने और उनसे आर्ष संस्कृत व्याकरण और वेदादि शास्त्रों का अध्ययन किया। गुरु व शिष्य धार्मिक अन्धविश्वासों, देश के स्वर्णिम इतिहास व पराधीनता आदि विषयों पर परस्पर चर्चा किये करते थे। अध्ययन पूरा करने पर गुरु ने स्वामी दयानन्द को देश से अज्ञान, अन्धविश्वास, सामाजिक असमानता व विषमता दूर करने का आग्रह किया। स्वामी दयानन्द जी ने गुरु को इस कार्य को प्राणपण से करने का वचन किया और सन् 1863 में इस कार्य को आरम्भ कर दिया।

स्वामी जी सन् 1874 में काशी में यथार्थ वेदोक्त धर्म का प्रचार, समाज सुधार के कार्य व अन्धविश्वासों का खण्डन कर रहे थे। उनके एक भक्त राजा जयकृष्ण दास ने उन्हें अपने समस्त विचारों, वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का एक ग्रन्थ लिखने का आग्रह किया। अल्प काल में ही महर्षि दयानन्द ने यह ग्रन्थ लिख कर पूरा कर दिया जिसको सत्यार्थ प्रकाश नाम दिया गया। लेखक ने इस ग्रन्थ का पुनः एक नया संशोधित संस्करण तैयार किया जो अक्तूबर, सन् 1883 में पूर्ण हो कर छपना आरम्भ हो गया था और सन् 1884 में प्रकाशित हुआ। इससे पूर्व यह जानना आवश्यक है कि महर्षि दयानन्द वेद एवं समस्त वैदिक वांग्मय के पारदर्शी व अपूर्व विद्वान थे। उन्होंने अपने दिव्य ज्ञान चक्षुओं से जान लिया था कि ईश्वर, जीव व प्रकृति के समस्त सत्य रहस्य वेद और वैदिक साहित्य में निहित हैं। अन्य जितने में भी मत-मतान्तर उनके समय में प्रचलित थे वह सभी अज्ञान व असत्य मान्यताओं से युक्त थे व आज भी हैं। सभी मतों के धर्म ग्रन्थों में असत्य व अन्धविश्वासयुक्त मान्यताओं की भरमार थी जिसका दिग्दर्शन उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में किया है। देश की पराधीनता और इस कारण देश व देशवासियों के शोषण व उन पर होने वाले अत्याचारों से भी वह परिचित थे। वह जान गये थे कि पराधीनता का भी मुख्य कारण एक सत्य वेदोक्त मत का पराभव व नाना वेद विरुद्ध मतों का आविर्भाव, उनका प्रचलन व सामाजिक विषमता आदि थे। अतः सत्यार्थ प्रकाश के आठवें समुल्लास में सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय पर विचार करते हुए उन्होंने पराधीनता पर अपना ध्यान केन्द्रित कर व अपनी जान जोखिम में डालकर देश की स्वतन्त्रता का मूल मन्त्र देशवासियों को दिया। इस घटना के प्रकाश के कुछ समय बाद ही एक षडयन्त्र के अन्तर्गत उनका विषपान कराये जाने व समय पर समुचित चिकित्सा न होने के कारण देहावसान हो गया।

सन् 1883 में जिन दिनों महर्षि दयानन्द ने देश की आजादी विषयक यह पंक्तियां लिखी जिनकी चर्चा हम आगे करेंगे, उस समय देश में सजग धार्मिक संस्था के रूप में हम ब्रह्म समाज को पाते हैं जिसके संस्थापक राजा राममोहन राय रहे हैं। यह मत व सम्प्रदाय तथा इसके संस्थापक अंग्रेजों के राज्य को भारत पर वरदान के रूप में देखता था। इससे आजादी विषयक विचार मिलने की सम्भावना नहीं थी। हमारे सनातन धर्म के विद्वानों की क्या स्थिति थी, इसका वर्णन वीर सावरकर जी ने किया है जो कि आर्य जगत प्रख्यात विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी के शब्दों में प्रस्तुत करते हैं। वह अपनी पुस्तक इतिहास प्रदूषण में लिखते हैं कि वीर सावरकर जी ने अपनी आत्मकथा में ऋषि दयानन्द तथा आर्य समाज से प्राप्त ऊर्जा व प्रेरणा की खुलकर चर्चा की है। यदि ये बन्धु (श्री आर्यमुनि, मेरठ और उनका वेदपथ पत्रिका में प्रकाशित एक लेख) लार्ड रिपन के सेवा निवृत्त होने पर काशी के ब्राह्मणों द्वारा उनकी शोभा यात्रा में बैलों का जुआ उतार कर उसे अपने कन्धों पर धर कर उनकी गाड़ी को खींचने वाला प्रेरक प्रसंग उद्धृत कर देते तो पाठकों को पता चल जाता कि इस विश्व प्रसिद्ध क्रान्तिकारी को देश के लिए जीने मरने के संस्कार व विचार देने वालों में ऋषि दयानन्द अग्रणी रहे। अतः सनातन धर्म के विद्वानों से भी अंग्रेजों के भारत से वापिस जाने और देश को स्वतन्त्र करने की मांग की आशा नहीं की जा सकती थी। यह महर्षि दयानन्द ही थे जिन्होंने अपने गुरू विरजानन्द प्रदत्त वैदिक संस्कारों के आधार पर परतन्त्रता का विरोध किया और सत्यार्थ प्रकाश में लिखा कि ‘‘कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सवार्वेपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रहरहित, अपने और पराये का पक्षपातशून्य, प्रजा पर पिता माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परन्तु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक्-पृथक् शिक्षा, अलग व्यवहार का विरोध छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय (देश में स्वराज्य, अज्ञान व अन्धविश्वास रहित वैदिक धर्म का पालन) सिद्ध होना कठिन है।” इससे पूर्व महर्षि दयानन्द ने भारत में विदेशी शासन का कारण बताते हुए लिखा है कि ‘‘अब अभाग्योदय से, और आर्यों के आलस्यप्रमाद, परस्पर के विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी, किन्तु आर्यावत्र्त में आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ है, सो भी विदेशियों के पादाक्रान्त हो रहा है। कुछ थोड़े राजा स्वतन्त्र है। दुर्दिन जब आता है, तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दुःख भोगना पड़ता है।

महर्षि दयानन्द लिखित यह स्वर्णिम शब्द ही देश की आजादी के आधार वाक्य बने। इस समय तक देश में किसी राजनीतिक दल का कोई नेता नहीं था। कांगे्रस की स्थापना सन् 1885 में महर्षि दयानन्द के इन वाक्यों के कई वर्ष बाद हुई। अतः आज देश भर में जो स्वतन्त्रता दिवस की अड़सठवीं वर्षगांठ बनाई जा रही है उसकी प्राप्ति के लिए सन् 1883 में मन्त्र व विचार प्रस्तुत करने का श्रेय महर्षि दयानन्द को है। दुःख है कि सारा देश महर्षि दयानन्द के इस योगदान पर मौन है। 21 वीं शताब्दी में इससे बड़ा आश्चर्य क्या हो सकता है? स्वामी दयानन्द के स्वदेशीय राज्य को सर्वोत्तम बताने पर टिप्पणी करते हुए आर्यजगत के विख्यात विद्वान स्वामी विद्यानन्द सरस्वती ने अपनी टिप्पणी में लिखा है कि भारत में अंग्रेज व्यापारी बन कर आये। व्यापार के लिए उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना की। धीरे-धीरे यही कम्पनी भारत में अंग्रेजी राज्य का आधार बन गई। उसकी अपनी सेना थी। इस सेना और भारतीय रियासतों के परस्पर संघर्ष के फलस्वरूप किसी भी एक पक्ष के सैनिक बल की सहायता से वह देश पर अधिकार करती गई। 1849 में पंजाब की विजय के साथ उसका यह अभियान पूरा हो गया और समूचे देश में यूनियन जैक फहराने लगा, परन्तु विज्ञान का नियम है–’To every action there is an equal and opposite reaction’ अर्थात प्रत्येक क्रिया की उतनी ही जोरदार और विरोधी प्रतिक्रिया होती है। भारतीयों के भीतर विद्रोह की आग सुलगने लगी, और 10 मई 1857 को ज्वाला बनकर भड़क उठी और देश के कोने-कोने में फैल गई। परन्तु कुछ ही दिनों में यह आग ठण्डी पड़ गई और भारतीय लोग खून का घूंट पीकर रह गये। इस क्रिया की प्रतिक्रिया भी अवश्यंभावी थी। ब्रिटिश सरकार ने कूटनीति का सहारा लिया। महारानी विक्टोरिया ने एक घोषणापत्र (Proclamation) जारी किया। उसकी भाषा बड़ी लुभावनी थी, पर एक व्यक्ति इस कूटनीतिक चाल को भांप गया। उसने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में एक घोषणा की जिसे उपर्युक्त पंक्तियों प्रस्तुत किया गया है।

सुराज्य भी स्वराज्य का विकल्प नहीं होता–‘Good government is no substitute for self-government.’ इसके उद्घोषक ग्रन्थकार दयानन्द ने अपनी प्रार्थना पुस्तक (Prayer book) आर्याभिविनय के माध्यम से अपने अनुयायियों को आदेश दिया कि वे प्रतिदिन प्रार्थना किया करें कि ‘‘अन्य देशवासी राजा हमारे देश में हों तथा हम पराधीन कभी रहें। भारत के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि यह पूरी तरह वही घोषणा थी जिसके द्वारा 8 अगस्त 1929 को महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो और 31 दिसम्बर 1929 को लाहौर में उसके लिए संघर्ष करने की घोषणा की थी। इससे पूर्व 1906 में दादाभाई नौरोजी ने इसका उच्चारण किया था। किन्तु स्वामी दयानन्द ने 1875 में जब स्वराज्य का विचार भी किसी के मस्तिष्क में भी नहीं उपजा या पूर्ण स्वराज्य ही नहीं, चक्रवर्त्ती साम्राज्य की घोषणा की थी। आज जबकि अंग्रेज भारत छोड़ कर जा चुके हैं और हम स्वाधीनता का रसास्वादन कर रहे हैं तो कितने लोग है जो यह जानते हैं कि एक बार एक अंग्रेज कलक्टर ने स्वामी दयानन्द जी का भाषण सुनने के बाद कहा था कि ‘‘यदि आपके भाषण पर लोग चलने लग जाएं तो इसका परिणाम यह होगा कि हमें अपना बोरिया बिस्तर बांधना पड़ेगा। स्वामी दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के वचनों तथा भावनाओं का गम्भीर अध्ययन करनेवाले 1911 की जनसंख्या के अध्यक्ष मिस्टर ब्लण्ट ने लिखा था-“Dayanand was not merely a religious reformer, he was also a great patriot.  It would be fair to say that with him religious reform was a mere means to national reform.” (Census Report of 1911, Vol. XV, Part I, Chap. IV, P. 135) अर्थात् दयानन्द केवल धार्मिक सुधारक नहीं थे, वे एक महान् देशभक्त भी थे। यह कहना ठीक ही होगा कि उन्होंने धार्मिक सुधार को राष्ट्रीय सुधार के साधनरूप में ही अपनाया था।

 

इस लेख के माध्यम से हम यह बताना चाहते हैं कि महर्षि दयानन्द ही देश की आजादी के प्रथम मन्त्रदाता वा स्वराज्य और स्वतन्त्रता का विचार देने वाले महापुरूष थे। स्वामी दयानंद ने अपने ग्रन्थों व प्रवचनों में व अन्यत्र भी देशभक्ति के नाना विचार प्रस्तुत किये। देश की स्वतन्त्रता में उनका व उनके अनुयायी आर्यसमाजियों का प्रमुख योगदान है। अतः आज स्वतन्त्रता दिवस के दिन महर्षि दयानन्द और आर्य समाज के योगदान की भी चर्चा करना आवश्यक है। यह बताना भी उचित होगा कि क्रान्तिकारी के आद्य गुरू पं. श्यामजी कृष्ण वम्र्मा, श्री गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक गुरू महादेव गोविन्द रानाडे, समाज सुधारक व आजादी के प्रमुख नेता स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपतराय, भाई परमानन्द, पं. राम प्रसाद बिस्मिल आदि भी महर्षि दयानन्द की शिष्य मण्डली के ही व्यक्ति थे। देश की आजादी के आन्दोलन में देश के सभी आर्यसमाजियों ने किसी न किसी रूप में भाग लिया था जिस कारण देश आजाद हुआ। महर्षि दयानन्द ने देश की आजादी, धार्मिक व समाज सुधार में जो योगदान किया उसके लिये देशवासियों ने उनका सही मूल्यांकन कर उनके साथ न्याय नहीं किया। देखें, कि कब तक देश उनकी उपेक्षा करता है? आज स्वतन्त्रता दिवस पर भी हमें उनकी उपेक्षा स्पष्ट दिखाई दे रही है। यदि यही शब्द किसी अन्य व्यक्ति ने कहे होते व उनके व आर्यसमाज जैसा योगदान किसी अन्य संस्था ने किया होता तो आज उसकी देश भर में जयजयकार हो रही होती। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

स्वाधीनता को नमन – संयम वत्स ‘मनु’

आजादी ये आजादी हमारी आजादी

शहीदों के खून से लिखी किताब थी,

नेताजी ने रक्तिम कलम से लिखा,

भगत ने चाकू औरबम से लिखा,

सावरकर ने कोल्हुओं पर श्रम से लिखा,

ढींगरा ने वायली पर गन से लिखा,

लिखते-लिखते कितने महान् हो गए,

लिखने वाले खुद दास्तान हो गए,

बड़ी मेहनत से सजाई भारती,

आजादी ये आजादी………….।

भाई, बहन, परिवार वाले वे भी थे,

किसी के नयन के उजाले वे भी थे,

राष्ट्रहित स्वयं ही बलिदान हो गए,

लहों में सदियाँ तमाम हो गए,

आजादी की ज्वाला को प्रचण्ड कर दिया,

अभिमानी का दर्प खण्ड-खण्ड कर दिया,

है यह सच्चाई किन्तु लगे वाब सी,

आजादी ये आजादी……………….।

आजादी को मैंने भूतकाल क्यों लिखा,

बार-बार कोंधता सवाल क्यों लिखा,

आजादी बची ही कहाँ आज देश में,

लूट, घूसखोरी बैठे इसके वेश में,

भारतवासी अपना ओज भूल गये हैं,

कायर बनकर अपना तेज भूल गए हैं,

किन्नरों की मण्डी बनी सिंहो की सभा,

आजादी ये आजादी…………..।

बहुत सब्र किया अब न और सहेंगे,

ये न सोचो भारतवासी कुछ न कहेंगे,

सिंहनाद होगा, अब गाण्डीव बजेगा,

भीषण निनाद से अब देश जगेगा,

मानव, माँ भारती का भक्त बनेगा,

सिंहो के मुख पर रक्त लगेगा,

शत्रुओं के मुण्ड से सजेगी भारती,

आजादी ये आजादी हमारी आजादी,

शहीदों के खून से लिखी किताब थी।

– चौरासी घण्टा, मुरादाबाद

धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण ? स्वघोषित विद्वान का ज्ञान घोटाला

क्या धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण है ?
“ वेद प्रकाश” के फरवरी २०१५ के अंक में स्वघोषित  विद्वान  का एक लेख शंका समाधान प्रकाशित हुआ था | जिसमें उन्होंने एक शंका उठाकर उसका समाधान प्रस्तुत किया है |
इस लेख में उन्होंने कहा है कि धर्म आत्मा का साभाविक गुण है | इसीलिए धर्म के जो दस लक्षण हैं वह आत्मा के स्वाभाविक लक्षण हैं |
इस सम्बन्ध में डा. अशोक आर्य , का पत्र प्राप्त हुआ है जिसमें उन्होंने इसका खंडन करते हुए इसे वैदिक सिद्धांतों के विरुद्ध बताया है | वह कहते हैं कि – “ कि इसके उत्तर में बताना चाहूँगा कि यह सत्य है कि धर्म के दस लक्षण तो हैं किन्तु यह आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं है क्योंकि परम पिता परमात्मा ने आत्मा को एक शरीर के माध्यम से इस जगत में भेजा है ताकि :
१. विगत जन्मों में किये गए शुभ – अशुभ कर्मों का फल भोग सके |
२. इस जन्म में कुछ नए कर्म करते हुए कुछ नया भी संचय कर सके |
हम जानते हैं कि परम पिता परमात्मा ने जीव को कर्म करने के लिए स्वतन्त्र बनाया है किन्तु फल भोगने के लिए वह प्रभु की व्यवस्था के आधीन है | स्वतन्त्र नहीं है | जब उसे उसके कर्मों के अनुसार फल मिलना है तो इसमें धर्म के दस नियम कहाँ से आ गए ? यदि जीव अर्थात् आत्मा का स्वाभाविक गुण यह दस प्रकार के लक्षण हैं तो फिर प्रतिदिन क़त्ल हो रहे हैं, व्यभिचार हो रहे हैं, बलात्कार हो रहे हैं , चोरी की घटनाएं सामने आती हैं , लोग ए टी एम् तक तोड़ कर धन निकाल कर ले जाते हैं तो यह सब कौन कर रहा है ? यदि आत्मा का स्वाभाविक गुण यह दस लक्षण ही हैं तो फिर आत्मा तो यह कर ही नहीं सकता | कोई चोरी करता ही न , कोई बलात्कार करता ही न, किसी का कभी क़त्ल होता ही न, किन्तु यह सब हो रहा है | यदि आत्मा का गुण यह दस लक्षण ही है तो फिर यह सब कौन कर रहा है ? यह सब किस के आदेश से हो रहा है ? नित्य प्रति जुआ खेलने , शराब व अन्य अनेक प्रकार के नशा करने , दुराचार करने आदि की कथाएँ हमारे सामने आती हैं, दूरदर्शन व् समाचार पत्र इस प्रकार के समाचारों से भरे रहते हैं , यह सब कौन कर रहा है ? इन दस लक्षणों वाली आत्मा जिसे अपने स्वाभाविक गुणों में संजोए हुए है , वह तो यह सब कर ही नहीं सकेगी , फिर या तो यह सब कुछ परमात्मा कर रहा है या फिर मानव कर्म करने में स्वतन्त्र होने के कारण , सब प्रकार के अच्छे व बुरे कर्म वह स्वेच्छा से कर रहा है | जिन का फल उसे भोगना होता है | कुछ अच्छे व बुरे कर्म वह विगत जन्मों के संचित कर्मों के आधार पर फल स्वरूप कर रहा है तथा कुछ नए कर्म भी कर रहा है |
स्वामी जगदीश्वरानन्द जी ने एक पुस्तक “ आदर्श नित्यकर्म विधि” के “समर्पण प्रकरण” में “ हे दयानिधे ! ” … की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि –
हे दया, कृपा, करुणा व वात्सल्य के अनन्तागार प्रभुदेव ! आप एसी कृपा कीजिए कि हम आप की जो स्तुति – प्रार्थना व उपासना कर रहे हैं , उसमें हम नितांत तन्मय तल्लीन व एकाग्रमना हो सकें , हमारी यह प्रार्थानोपासना एसी सार्थक व प्रभाकारी हो जिससे हमारे धर्म ( आत्मा के स्वाभाविक गुण ) अर्थ ( साधना स्वरूप आपसे प्राप्त दिव्य विभूतियाँ , काम ( आप की वेदाज्ञा का सतत पालन एवं आपको मिलने की इच्छा ) मोक्ष ( पूर्णत: आपके आनंद स्वरूप को प्राप्त होना ) आदि पुरुषार्थ चतुष्टय हैं, वह अविलम्ब सिद्ध हों |
इसमें स्वामी जी ने धर्म को आत्मा का स्वाभाविक गुण बताया है |
सोशल मीडिया के कुछ लोगों का भी मानना है की धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं है |
श्री मदन रहेजा , मुंबई लिखते हैं :-
यदि धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण होता तो मनुष्य को धर्म धारण करने के लिए बार – बार क्यों कहना पड़ता हाँ ! आत्मा धर्म को सहजता से धारण कर सकता है क्योंकि धर्म सरल, सीधा और सहज होता है | आत्मा अल्पज्ञ होने से धर्म की बातों को भूल जाता है इसलिए धर्म ( अच्छे गुणों को ) धारण करने का नाम है |
यदि धर्म जीवात्मा का स्वाभाविक गुण होता तो कोई भी मनुष्य इतना दू:खी नहीं होता | धर्म धारण करके ही वह सुखी होता है | धर्माचरण करने से वह अपवर्ग का भागी होता है |
मनुष्य शुद्र ( अज्ञानी ) पैदा होता है उसको मनुष्य बनाया जाता है , संस्कार दिए जाते हैं तभी वह मनुष्य बनता है इसीलिए वेद भी कहता है – “ मनुर्भव ” | धार्मिक बनने के लिए धर्म धारण करना पड़ता है | पशु – पक्षी मांसाहारी भी होते हैं और शाकाहारी भी इस का यह अर्थ नहीं कि वे धार्मिक या अधार्मिक होते हैं |
एक और मित्र श्री विश्वभूषण जी लिखते हैं | यदि धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण होता तो सभी धार्मिक ही होते किन्तु ऐसा नहीं है , जिन – जिन को धार्मिक वातावरण मिलता है वे धार्मिक हो जाते हैं और जिन्हें धार्मिक वातावरण नहीं मिलता वे धार्मिक नहीं हो पाते | यदि धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण होता तो पशु पक्षी भी धार्मिक होते | क्या आप मानते हैं कि मनुष्यों की आत्मा और पशु पक्षियों की आत्माओं में कोई अंतर होता है | नहीं | आत्मा का तो कोई लिंग भी नहीं होता , आत्मा का दोनों लिंगों में प्रयोग किया जाता है | आत्मा कभी नहीं मरता और आत्मा कभी नहीं मरती | दोनों ही ठीक हैं | अंतिम बात आत्मा के दो ही स्वभाव हैं | दुःख से छूटना और सुख प्राप्त करना | यह मनुष्य और पशुओं में समान है | अत: धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं अपितु नैमितिक गुण है |
स्वाध्यायशील पाठक इस पर चिंतन मनन करें तथा जो सत्य है वह ग्रहण करें तथा असत्य का त्याग करें | – सम्पादक

 

टिपण्णी :
वेद प्रकाश पत्रिका के इस लेख पर हम टिपण्णी करते हुए कह सकते हैं कि संभवतया इस स्वघोषित विद्वान  ने अपना यह कल्पित शंका समाधान का प्रश्न स्वामी जगदीश्वरानन्द के शब्दों से लिया होगा यह  जो भी लिखता है सब इधर उधर से उठाकर उसे अपने ढंग से लिखकर अपना बनाने का यत्न करता है | उसके इस शंका समाधान से इस बात की पुष्टी भी होती है कि संभवतया स्वामी जगदीश्वरानंद जी के उपर दिए एक शब्द को उसने उठाया और बिना विचारे यह शंका समाधान का रूप देकर पाठकों को मार्ग से च्युत करने का विफल प्रयास किया | साथ ही हम चाहते हैं कि पाठक और हमारे मित्र इस प्रकार के कथित लेखकों के लेखों व साहित्य को पढ़ने के पश्चात विचार करें कि इसमें कुछ सत्य है भी या नहीं | यह लेखक कथित रूप से बड़े लेखकों का अपमान करने के लिए कुछ उलटा सीधा बोलते रहते हैं तथा उन के लेखन पर दूसरों को फोन व किसी अन्य ढंग से उनके विरुद्ध भ्रांत लेख देने के लिए भी कहते हैं | हमारे मित्र सजग रहते हुए इस प्रकार के लेखकों के विचारों से बचाते हुए समाज के कल्याण के लिए लगे रहें | यही उत्तम होगा | –

इतिहास प्रदूषक विदुषि लेखिका बहन फरहाना ताज “पार्ट – २”

अंगिरा ऋषि के विषय में मत्स्य पुराण,  भागवत, वायु पुराण महाभारत और भारतवर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष में वर्णन किया गया है।

मत्स्य पुराण में अंगिरा ऋषि की उत्पत्ति अग्नि से कही गई है।

भागवत का कथन है कि अंगिरा जी ब्रह्मा के मुख से यज्ञ हेतु उत्पन्न हुए।

महाभारत अनु पर्व अध्याय 83 में कहा गया है कि अग्नि से महा यशस्वी अंगिरा भृगु आदि प्रजापति ब्रह्मदेव है।

भार्गववंश की मान्यतानुसार महर्षि भृगु का जन्म प्रचेता ब्रह्मा की पत्नी वीरणी के गर्भ से हुआ था। अपनी माता से सहोदर ये दो भाई थे। इनके बडे भाई का नाम
अंगिरा था।

ब्रह्मपुराण अध्याय – ३४ मे ऋषि अंगिरा को विषमबुद्धि से पढ़ाने वाला गुरु अर्थात शिष्यो मे भेदभाव कर पढ़ाने वाला बताया है

इसके अतिरिक्त अंगिरा ऋषि को शिवपुराण मे लोभी लालची आदि बताया है

आप सोच रहे होगे मै ये सब क्यो बता रहा हूं ?

इसलिए बता रहा हूं कि आर्यो के ऋषि सिद्धांतो को बदलने की गहरी साजिश चल रही है वेदो मे इतिहास सिद्ध करने का षडयंत्र रचा जा रहा है यकीन नही ?

फरहाना ताज जी जैसी विदुषि लेखिका का पोस्ट पढ़े वो ये साबित करने की फिराक मे नजर आती है कि कैलाश के राजा शंकर और हृदय मे वेद ज्ञान प्रकाश पाने वाले ऋषियो मे एक ऋषि अंगिरा एक ही है

इनकी लेखनी यही नही रुकी इसके आगे इन्होने और लिखते हुए जोर डाला कि शिव की पूजा करनी है मतलब सच्चे शिव की तो अंगिरा ऋषि को पूजो यही नही हमारी बहन फरहाना ताज जी लिखती है :
“अरे भोले लोगो देवो के देव आदि महादेव की ही पूजा करनी है तो अंगिरा की पूजा करो, शिवपुराण में भी शिव का आदि नाम अंगिरा ही है और अंगिरा के मुख से परमात्मा की वाणी अथर्ववेद प्रकट हुआ, इसलिए वेद पढ़ो।”

मतलब समझ आया ?

हम देवो के देव महादेव यानी ईश्वर की बात करते है क्योकि महादेव ईश्वर को ही संबोधन है हम उन्ही की उपासना करते है मगर हमारी बहन शायद हमारे सिद्धांतो पर चोट करके उन्हे बदल कर हमे ईश्वर के स्थान पर मनुष्य की पूजा करवाना सिखाना चाह रही है लेकिन भूल गई हिन्दू समाज मे भी मुर्दापूजा निकृष्ट है आप उन्हे सच्चाई बताने की जगह एक मुर्दापूजा से निकाल दूसरी मुर्दापूजा मे दाखिला दिलवा रही हो जैसे आर्य समाज मे अंगिरा ऋषि को शिव घोषित कर वेदो मे इतिहास साबित करना चाहती हो

ऋषि अंगिरा और शिव को एक बताने से पहले शिवपुराण पर ही सही से दृष्टि डाल ली होती है, क्योंकि शिवपुराण में ही शिव की शादी के चक्कर में अंगिरा ऋषि को लालची और लोभी बताया है,

क्या आप लोभी और लालची व्यक्ति को शिव या अंगिरा मान सकती हो ? ऊपर और भी प्रमाण दिए हैं की पुराणो में ऋषि अंगिरा का चरित्र कैसा दिखाया है – यदि आपने पुराण ही मानने हैं तो कृपया ऋषि सिद्धांतो पर चलने वाली स्वयं की उद्घोषणा न करे क्योंकि ऋषि ने महापुरषो के चरित्र पर दाग लगाने वाले पुराणो को त्याज्य बताया है और यहाँ ऋषि अंगिरा के चरित्र पर भी पुराण आक्षेप लगा रहे हैं, बेहतर है आप अपने लेख को ठीक करे।

मेरी बहन आर्य समाज सिद्धांत पर आधारित है कृपया अप्रमाणिक तथ्यहीन और मनगढंत बात लिखने से पूर्व एक बार ऋषि के सिद्धांत और उनके महान कर्मो पर दृष्टि जरूर डाले

हो सके तो सत्य को स्वीकार कर असत्य को त्याग दे

नमस्ते

स्वस्थ सुखी जीवन के कुछ रहस्य – डॉ. सुशीलरत्न मिगलानी

सांस लें     – भरपूर गहरा

प्रार्थना करें  – प्रातः सांय दोनों समय, ओ3म् का उच्चारण करें, गायत्री गान करें। थोड़ी देर के लिए श्रद्धा-भक्ति पूर्वक प्रभु का ध्यान करें।

व्यायाम करें प्रतिदिन योगासन, प्राणायाम, प्रातः कालीन सैर।

भोजन      – (हिताुक्, ऋतभुक्, मितभुक्)

स्वास्थ्यवर्द्धक मौसम के अनुसार,

भूख से थोडा कम आहार चबा-चबा कर खाएँ।

स्वाध्याय   – प्रतिदिन वेदशास्त्रों में से आध्यात्मिक विचार, महापुरुषों की जीवनी पढ़ने के लिए थोड़ा समय जरूर निकालें। प्रतिदिन अपना अध्ययन करें यानि अपने आप को परखें व सुधारें।

नींद       – पूरी लें।

वार्ता       – सत्य, मधुर, हितकर एवं अल्प। पहले बात को तोलो फिर मुँह से बोलो।

सदाचार    – अपने चरित्र की रक्षा करें। धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ गया, अगर चरित्र गया तो सब कुछ गया।

पहनावा    – साफ सुथरा, शालीन एवं चुस्त।

सोच विचार – आस्तिक एवं सकारात्मक ।

कार्य       – रोजाना एक शुभ कार्य अवश्य करें। अपने सभी कार्य योजनाबद्ध एवं शान्त स्वभाव से करें। समय नष्ट करना जीवन नष्ट करने के समान है।

परिवार में   – स्वर्ग की तरह प्रेमपूर्ण शान्त वातावरण बनाकर रहें। मनमुटाव होने पर चिल्लाएँ नहीं, मैत्रीभाव से शीघ्र ही समाधान निकाल लें। दिन में दो मिनट के लिए बजुर्गों के पास बैठकर प्यार से उनसे बातचीत करें। बजुर्ग लोग भी परिवार सदस्यों का उचित मार्गदर्शन करें। सारा परिवार मिलकर प्रतिदिन इक्कठे प्रभु-प्रार्थना करें या प्रभु-भजन गाएँ। किसी से भी गलती हो जाने पर नुक्ताचीन न करें, अकेले में प्यार से समझा दें। परिवार से बढ़कर दुनिया का कोई सबन्ध नहीं।

कमाई करें  – ईमानदारी से।

खर्चा करें   – सोच समझकर

बचत      – अवश्य करें

त्यागते जाएँ – बुरे विचार, बुरी संगति। दुर्जनों को गिराएँ।

अपनाते जाएँ  – अच्छे विचार, अच्छी संगति। सज्जनों को बढाएँ।

कर्तव्य कर्म – निर्भय होकर करें। कर्तव्य ना करना अधर्म को भ्रष्टाचार को बढ़ावा देना है।

जीवन में   – सादा जीवन, उच्च विचार रखें। सदा मुस्कराते रहें।

एकाग्रता    – अपने लक्ष्य की ओर सुमार्ग पर एकाग्र रहें।

विश्वास    – दूसरों पर सभल कर विश्वास रखें। अपने में भरपूर विश्वास रखें कि आप जो चाहे प्राप्त कर सकते हैं ।

सहायता    – जरुरतमन्द सुपात्रों की तन-मन-धन से सहायता करें।

व्यवहार    – दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार करें जैसा कि आप चाहते हैं कि दूसरे आपके साथ करें। माता-पिता, आचार्य, विद्वान् एवं बड़ों के साथ समान भाव से, छोटों के साथ स्नेह भाव से, अपने अधीन यानि नौकरों के साथ दयाभाव से, उन्नति करने वालों के साथ मैत्री भाव से व्यवहार करें।

बढ़ते जाना     – राग-द्वेष से बचते हुए प्रेमभावना से सबके साथ मिलकर प्रसन्नता पूर्वक प्रभु भक्ति व देश शक्ति की दिशा में।

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता-14

मन्त्र में प्रथम गुण बताया था परिवार को साथ रखने के लिये मनुष्य को अपना दिल बड़ा रखना चाहिए। दूसरी बात मन्त्र में कही है परिवार के सभी सदस्य एक सूत्र में बंधे होने चाहिए अधूरी बात। एक सूत्र में बंधे होने का अभिप्राय एक केन्द्र से बन्धे होना है। सब सदस्यों का परिवार के मुखिया से जुड़ा होना अपेक्षित है। जहाँ भी दो या दो से अधिक मनुष्य एक साथ रहते हैं, उनका एक साथ रहना तभी सभव है जब वे किसी एक के निर्देशन में कार्य करते हों। एक व्यक्ति के आदेश का सभी पालन करते हों। जहाँ कोई नेता नहीं होता, वह परिवार या समाज नष्ट हो जाता है। जहाँ एक परिवार में अनेक नेता होते हैं, वह परिवार भी नष्ट हो जाता है। नेता एक हो, सभी उसका आदर करते हों, सभी उसका आदेश मानते हों, वही परिवार सुख से रह सकता है और उन्नति कर सकता है।

परिवार में एक मुखिया का होना आवश्यक है, वहीं पर मुखिया द्वारा सभी सदस्यों का ध्यान रखना, सब की चिन्ता करना, सबकी उन्नति के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। हमारे परिवारों में असन्तोष के अनेक कारण होते हैं, उनमें एक कारण होता है किसी सदस्य के विचारों को न रखा जाना। जहाँ तक परिवार में जो छोटे सदस्य होते हैं, उनके विषय में सोच लिया जाता है, वे ठीक नहीं सोच सकते, उनके पास न ज्ञान होता है, न अनुभव। यह बात सामान्य रूप से ठीक है। परन्तु परिवार के सभी सदस्य सुख-दुःख का अनुभव करते हैं तथा उन्हें भी अच्छा-बुरा लगता है, अतः सभी सदस्यों के विचारों को अवश्य सुना जाना चाहिए।

छोटे सदस्यों को समझना कठिन होता है परन्तु उनके महत्त्व को समझने और उनके समान को बनाये रखने के लिए उन्हें भी समझाने का प्रयत्न करना चाहिए। परिवार की सामान्य चर्चा में सभी सदस्यों की भागीदारी होने से परिवार के सदस्य में उत्तरदायित्व की भावना विकसित होती है। बड़ों का कर्त्तव्य है कि वे परिवार के सदस्यों में आत्मविश्वास व योग्यता उत्पन्न करें। उनके अन्दर योग्यता उत्पन्न करेंगे और कार्य का उत्तरदायित्व सौपेंगे तो उनके अन्दर आत्मविश्वास उत्पन्न होगा। परिवार के किसी सदस्य से भूल या गलती होने पर उसे डराना-धमकाना नहीं चाहिए। दण्डित करने के स्थान पर उसे अवसर देना चाहिए कि उससे भूल हुई है। यदि मनुष्य को अनुभव हो कि उससे भूल हुई है तो उसके अन्दर प्रायश्चित्त और पश्चाताप की भावना उत्पन्न हो सकती है। यही भावना मनुष्य को सावधान करती है और उसे दुबारा गलती करने से रोकती है। जो बालक हठी बनते हैं, उनके लिए कठोर दण्ड उन्हें अधिक धृष्ट बना देता है। ऐसी परिस्थिति में बड़े लोग स्वयं को दण्डित करके उनके मन को कोमल बनाने का प्रयत्न करते हैं। परिवार में सदस्यों के  अन्दर सद्भाव उत्पन्न करने के लिय सदस्यों में संवाद का होना आवश्यक है। संवाद को बनाये रखने के लिए परिवार में यज्ञ, भोजन, मनोरञ्जन, विचार-विमर्श के कार्य किये जाते हैं। पृथक् संवाद करने की आवश्यकता नहीं पड़ती, यदि घर में धार्मिक आयोजन नियमित होते रहते हैं, नित्य सन्ध्या-हवन होता है। विद्वान्, अतिथि, संन्यासी, महात्माओं का घर में आगमन होता रहता है तो परिवार के सदस्यों के मन में धार्मिक व्यक्तियों व धर्म के प्रति आदर भाव उत्पन्न होता है। सदस्यों को पृथक् शिष्टाचार का उपदेश देने की आवश्यकता नहीं रहती। बड़ों को वैसा करते देखते हैं, स्वयं भी करने लगते हैं। जो विचार माता-पिता नहीं दे सकते, वे विचार परिवार के सदस्य विद्वानों से वार्तालाप करके प्राप्त कर लेते हैं। अतः परिवार में श्रेष्ठ पुरुषों का आवागमन परिवार को संयुक्त रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

आज जब संयुक्त परिवार की प्रथा टूट रही है और एकल परिवार अपनी आजीविका व्यापार, मजदूरी, नौकरी से समय नहीं निकाल पाते तो घरों में धार्मिक कर्त्तव्यों की न्यूनता स्वाभाविक है परन्तु धार्मिक कर्त्तव्यों के अभाव में परिवार को साथ रखने में कठिनाई अवश्य होगी। परिवार में संवाद बनाये रखने का सहज उपाय है। दैनिक सन्ध्या-यज्ञ परिवार में संवाद और एकत्व बनाये रखने का सबसे आसान उपाय है। सन्ध्या के बाद ईश्वराक्ति के, धार्मिक विचारों के भजन गाये जा सकते हैं। दिनभर के क्रिया कलापों पर चर्चा की जा सकती है, यदि दिन में इस कार्य का समय न मिले तो यह कार्य सांयकाल या सोने से पूर्व किया जा सकता है। आज समाज में बहुत सारे लोग शिकायत करते हैं, परिवार के बच्चों में संस्कार नहीं है, संस्कार तो अच्छे काम करने से बनते हैं। अच्छे कार्य करने से परिवार के बालकों में अच्छे संस्कार आते हैं और बुरे कार्य से बच्चों पर बुरे संस्कार पड़ते हैं। घर में अच्छे कार्य न करके बालकों में अच्छे संस्कारों की आशा करना व्यर्थ है। धार्मिक कार्यों से परिवार में सन्तोष का भाव उत्पन्न होता है, दान देते रहने से सहयोग की प्रवृत्ति बनी रहती है। संसार में कभी भी, किसी की भी इच्छायें पूर्ण नहीं हो पाती। अतः इच्छाओं को रोककर अपने साधनों में से मनुष्य अन्यों की सहायता करता है, तब उसके इस कार्य से मनुष्य के मन में लोभ और असन्तोष की भावनाओं पर नियन्त्रण करना आता है। इस प्रकार परिवार को एक केन्द्र से बान्ध कर चलने से नई पीढ़ी का निर्माण करने का अवसर मिलता है, मन्त्र में सब सदस्यों के मिलकर प्रयत्न करने के लिये निर्देश दिया है।

कृपया शुक्ल और कृष्ण के बारे में स्पष्टिकरण देने की कृपा करें।

– आचार्य सोमदेव

समानीय आचार्य सोमदेव जी को मेरा सादर प्रणाम।

जिज्ञासाश्रद्धास्पद  आचार्य जी! मैं उदालगुरी आर्यसमाज का पुरोहित हूँ। मैं 2012 जून महीने में अनुष्ठित योग-साधना-शिविर में उपस्थित रहकर एक सप्ताह तक योग-साधना आप ही से सीखकर आया हूँ। उसी समय से परोपकारिणी सभा की ओर से नियमित रूप से परोपकारी पत्रिका उदालगुरी आर्यसमाज को निःशुल्क मिल रही हूँ। सभा को उदालगुरी आर्यसमाज की ओर से धन्यवाद ज्ञापन करते हैं।

आचार्य जी! मैं तीन साल से अन्य द्वारा पूछे गये जिज्ञासा-समाधान पढ़-पढ़ कर उपकृत होता आया हूँ। लेकिन आज मेरे मन में भी एक जिज्ञासा है, समाधान चाहता हूँ।

प्रश्न- महोदय! यजुर्वेद के बारे में जानना था- प्रायः यजुर्वेद के बारे में शुक्ल और कृष्ण शद व्यवहार होता है। किन्तु मेरे पास जो वेद हैं, उसमें सिर्फ ‘यजुर्वेद’ लिखा हुआ है। कृष्ण-शुक्ल कुछ भी नहीं लिखा है। कोई पौराणिक पण्डित संकल्प पढ़ते समय ‘शुक्ल यजुर्वेदाध्यायी’ ऐसााी  पढ़ लेते हैं। कृपया शुक्ल और कृष्ण के बारे में स्पष्टिकरण देने की कृपा करें।

– रुद्र शास्त्री, गाँव- गोलमागाँव, पो.जि.- उदालगुरी, आसाम

समाधान चारों वेदों में से यजुर्वेद दो प्रकार का मिलता है। शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद। इसके इन दोनों नामों का कारण है कि शुक्ल यजुर्वेद में केवल मन्त्र भाग है, अर्थात् इसमें मूल मन्त्र होने से शुक्ल (शुद्ध) वेद कहलाता है। कृष्ण यजुर्वेद विनियोग, मन्त्र व्याया आदि से मिश्रित होने के कारण मूल न होकर मिश्रित वा कृष्ण यजुर्वेद कहलाता है। मुय रूप से यही कारण शुक्ल और कृष्ण कहने का है।

शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएँ वर्तमान में मिलती हैं, वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता और काण्व संहिता। दोनों में चालीस अध्याय हैं, काण्व संहिता का चालीसवां अध्याय ईशोपनिषद् के रूप में प्रयात है। कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएँ मिलती हैं- तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक और कठ कपिष्ठल शाखा।

महर्षि दयानन्द के अनुसार मूल वेद शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा है। इसी का महर्षि ने भाष्य किया है।

आपके प्रश्न का उत्तर तो इतने से ही है। इस विषय में पौराणिकों ने इन दोनों शुक्ल, कृष्ण को सिद्ध करने के लिए अपनी कथाएँ कल्पित कर रखी हैं। इन कत्थित कथाओं को छोड़ शुक्ल-कृष्ण का यथार्थ कारण उपरोक्त ही है।

अब यजुर्वेद के विषय में कुछ और लिखते हैं। वेदों की कुल शाखा 1127 होने का प्रमाण पातञ्जल महाभाष्य में मिलता है। वहाँ लिखा है- एकविंशतिधा वाह्वृच्यम्, एकशतम् अध्वर्युशाखाः, सहस्रवर्त्मा सामवेदः, नवधाऽऽथर्वणो वेदः, अर्थात् इक्कीस शाखा ऋग्वेद की, एक सौ एक शाखा यजुर्वेद की, एक हजार शाखा सामवेद की और नौ शाखा अथर्ववेद की।

यजुर्वेद की एक सौ एक शाखाओं में से छः शाखाएँ उपलध होती हैं। जो कि ऊपर कह दिया है। शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मण शतपथ ब्राह्मण है, जिसके रचयिता महर्षि याज्ञवल्क्य हैं। कृष्ण यजुर्वेद का ब्राह्मण तैत्तिरीय ब्राह्मण है, जिसकी रचना तित्तिरि आचार्य ने की है। शुक्ल यजुर्वेद का श्रौतसूत्र कात्यायन कृत है जो कि कात्यायन श्रोतसूत्र कहलाता है। कृष्ण यजुर्वेद से सबन्धित आठ श्रौतसूत्र हैं- 1. बौधायन, 2. आपस्तब, 3. सत्यषाढ़ या हिरण्यकेशी, 4. वैखासन, 5. भारद्वाज, 6. वाधूल, 7. वाराह, 8. मानव श्रौतसूत्र।

महर्षि दयानन्द यजुर्वेद के प्रतिपाद्य विषय के सबन्ध में अपने भाष्य के प्रारभिक प्रकरण में लिखते हैं कि ‘‘ईश्वर ने जीवों को गुण-गुणी के विज्ञान के उपदेश के लिए ऋग्वेद में सब पदार्थों की व्याया करके यजुर्वेद में यह उपदेश किया कि उन पदार्थों से यथायोग्य उपकार ग्रहण करने के लिए कर्म किस प्रकार करने चाहिए। उसके लिए जो-जो अङ्ग और जो-जो साधन उपेक्षित हैं, उन सबका प्रकाश यजुर्वेद में किया गया है। जब तक ज्ञान क्रियानिष्ठ नहीं होता, तब तक उससे श्रेष्ठ सुख कभी नहीं हो सकता। विज्ञान क्रिया में निमित्त बनता है, प्रकाशकारक होता है, अविद्या की निवृत्ति करता है, धर्म में प्रवृत्ति करता है और धर्म तथा पुरुषार्थ का मेल कराता है, जो-जो कर्म विज्ञाननिमित्तक होता है, वह-वह सुखजनक हो जाता है। अतः मनुष्यों को चाहिए कि विज्ञानपूर्वक ही नित्य कर्मानुष्ठान करें। जीव चेतन होने से बिना कर्म किये नहीं रह सकता। कोई भी मनुष्य आत्मा मन, प्राण और इन्द्रियों के संचालन के बिना क्षणभर भी नहीं रह सकता। ‘यजुर्भिः यजन्ति’ इस प्रमाण से यजुर्वेद के मन्त्रों से यजन किया जाता है। जिससे मनुष्य ईश्वर का और धार्मिक विद्वानों का पूजा सत्कार करते हैं, पदार्थों के संगतिकरण द्वारा शिल्पविद्या की सिद्धि किया करते हैं, शुभ विद्या और शुभ गुणों का दान किया करते हैं, यथायोग्य सबके उपकार में शुभ व्यवहार में और विद्वानों में धनादि का व्यय करते हैं वह यजुः है।’’ इस प्रकार यजुर्वेद में मुय करके कर्मकाण्ड का विषय है। महर्षि ने इसी बात को सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में भी कहा है।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

इतिहास प्रदूषक “फरहाना ताज”

आर्य समाज में प्रक्षिप्त और झूठी बातो का प्रचार असहनीय है
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फरहाना ताज जी की बहुत सी पोस्ट देखी – बहुत से मित्र बंधू इन पोस्ट्स को व्हाट्सप्प पर प्रसारित भी करते हैं – कुछ चीज़े वैदिक संपत्ति पुस्तक से उद्धृत हैं और कुछ इनके अपने दिमाग की उपज है –

जो वैदिक संपत्ति से उद्धृत है वो ठीक लगता है मगर जो इनके अपने दिमाग की उपज (व्याख्या) है वो गड़बड़ झाला है – आर्य समाज को बदनाम न करे – आपकी बहुत सी पोस्ट पर कमेंट किया पर आपने आजतक जवाब नहीं दिया – ये बहुत ही खेद का विषय है – कृपया समझे –

1. आपकी पुस्तक “घर वापसी” में आपने अपने पति को आर्य समाजी बताया – मगर वही आर्य समाजी बंधू एक्सीडेंट के बाद पौराणिक बन जाता है ? ऐसा क्यों ?

क्या आप इसे मानती हैं ? यदि हाँ तो आप अंधविश्वास और चमत्कार वाली झूठी बातो का समर्थन करती हैं जो आर्य समाज के सिद्धांत विरुद्ध है। कृपया स्पष्टीकरण देवे।

2. हनुमान जी – एक ऐसा वीर, धर्मात्मा, श्रेष्ठ पुरुष जिसका रामायण में बहुत उत्तम चरित्र है जो रामायण में पूर्ण ब्रह्मचारी पुरुष है। महर्षि दयानंद भी हनुमान जी के ब्रह्मचर्य से पूर्ण सहमत थे। फिर आपने ऐसे महावीर हनुमान को गृहस्थ घोषित कर दिया वो भी बिना कोई प्रमाण ?

केवल दक्षिण के मंदिरो को देखकर ही आपको लग गया की हनुमान जी ब्रह्मचारी नहीं गृहस्थ थे ? ऐसा मंदिर तो दिल्ली के भैरो मंदिर में भी देख लेती वहां भी हनुमान जी के चरित्र को दूषित किया गया है जैसे आप दक्षिण के मंदिरो को प्रमाण मान कर एक पूर्ण ब्रह्मचारी को गृहस्थ घोषित करकर ? यदि वहां के मंदिरो को देखकर ही आपको सिद्ध हो गया की हनुमान जी गृहस्थ ही हैं तो वहां के मंदिरो में तो हनुमान जी बन्दर स्वरुप भी दर्शाया गया होगा तब उन्हें क्यों नहीं मान लेती ?

3. आपने अपनी एक पोस्ट में कहीं लिखा था की ऋषि अंगिरा ही शिव थे – जो कैलाश के राजा हुए – तो मेरी बहन मैं आप से कुछ पूछना चाहता हु –

यदि ऋषि अंगिरा ही शिव थे जो कैलाश के राजा हुए तो इसका मतलब बाकी के बचे तीन ऋषि भी कुछ न कुछ होंगे ? मतलब वो भी कहीं के राजा हुए होंगे ? यानी वो वेद ज्ञान प्राप्त कर राजा हो गये ? फिर उन्होंने वो ज्ञान अन्य मनुष्यो को कैसे सुनाया होगा ? क्योंकि ये वेद श्रुति हैं।

यदि फिर भी मानो तो एक बात बताओ – हमारा इतिहास यही बताता है की इस धरती का पहला राजा “स्वयाय्मभव मनु” महाराज थे – और इसी बात को महर्षि दयानंद भी बता गए। अब मुझे आप बताओ यदि “स्वयाय्मभव मनु” पहले राजा थे तो अंगिरा ऋषि इनसे पहले हुए होंगे क्योंकि उन्हें वेद ज्ञान प्रकाशित हुआ – तो वो आप शिव कल्पना कर कैलाश का राजा बना दिया – तो “स्वयाय्मभव मनु” पहले राजा कैसे हुए ?

कृपया अभी इन ३ के जवाब ही दे देवे – बाकी की आपकी अनेको पोस्ट्स पर जो आपत्ति है उनका भी निराकरण आपसे अवश्य मांगेंगे।

नोट : आपसे निवेदन है कृपया आर्य समाज के सिद्धांतो और नियमो को भली प्रकार समझ कर तब सत्य और असत्य निष्कर्ष निकालकर पोस्ट लिखा करे। हिन्दू समाज वैसे ही बहुत से अंधविश्वासों में डूबा है – अब आर्य समाज को भी अन्धविश्वास की दलदल न बनाये।

नमस्ते।

सत्पात्र बन सकूँ – रामनिवास गुणग्राहक

3म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।

यद् भद्रं तन्नासुव।।

– यजु. 30/3

भावार्थ- हे सकल जगत् के उत्पत्ति कर्त्ता समग्र ऐश्वर्य युक्त, शुद्ध स्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर। आप कृपा करके हमारे सपूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिये और जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमें प्राप्त कराइये। (ऋषि भाष्य)

यह मंत्र ऋषि दयानन्द को बहुत प्रिय था, यजुर्वेद का भाष्य करते समय ऋषिवर ने इसे प्रत्येक अध्याय के प्रारभ में आवश्यक रूप से लिखा है। स्तुति प्रार्थनोपासना के मन्त्रों का प्रारभ भी इसी मन्त्र के साथ किया है। स्तुति प्रार्थनोपासना के मन्त्रों का शदार्थ करते समय महर्षि दयानन्द ने बहुत ही सरल भाषा का प्रयोग किया है। भाषा सरल होने के साथ-साथ बड़ी रोचक, प्रवाहपूर्ण एवं मन्त्र के अर्थ को स्पष्ट कर देने वाली है। स्तुति प्रार्थनोपासना के इन आठ मन्त्रों पर कई आर्य विद्वानों ने कलम उठाई है, उनमें से कुछ एक के विचारों को मैंने पढ़ा है। मैं जब दैनिक यज्ञ समाज में या कभी घर में करता हूँ तो सदैव ऋषिवर के अर्थ सहित मन्त्र पाठ करता हूँ। पाठ करते समय औपचारिकता निभाना मुझे कभी ठीक नहीं लगा, मैं महर्षि पतंजलि के ‘तज्जपस्तदर्थ भावनम्’  के पालन करने का प्रयास करता हूँ। ऐसा करते समय कई बार मेरे मन में आया कि महर्षि ने इन मन्त्रों का जो अर्थ किया है, उसे ऋषि के अर्थ ऋषि की भावना के अनुरूप थोड़ा भाव-विस्तारपूर्वक लिखा जाए ताकि भक्त हृदय आर्य जन उसका पूरा आनन्द ले सकें। मैं अपनी इस सदिच्छा को लबे समय से टालता आ रहा था, लेकिन आज   (4-1-2015) मेरे हृदय ने कहा कि किसी अच्छे विचार को कार्यरूप देने के समय बहानेबाजी करना ऐसा दोष है जो अपराध की कोटि में रखा जाता है। यह हमारे स्वभाव का पतनशील अंग है, जनहित की भावना को निर्बल बनाता है। मनुष्य को पुण्यों की पूँजी से वंचित करता है। हृदय में उठने वाले हर प्रकार के सद्भावों का पल्लवन उनके क्रियान्वयन पर टिका होता है। सद्भाव- सद्विचार व सद्गुण को व्यवहार के रास्ते विस्तृत धरातल पर विचरने की स्वतन्त्रता नहीं मिलती, तब वो व्यवहार में प्रकट होने के लिए हृदय में प्रतीक्षा करते-करते थक जाते हैं व्याकुल हो जाते हैं, उनका दम घुटता है और वे निर्बल और निर्जीव होकर निढ़ाल हो जाते हैं। व्यवहार में व्यक्त होने के लिए व्याकुल सद्भाव, सद्विचार व सदृगुण हमारी उपेक्षा व अनदेखी का शिकार होकर अन्दर ही दम तोड़ दें तो हमारा हृदय दुर्भावों, दुर्विचारों व दुर्गुणों के फूलने-फलने का उपजाऊ खेत बनकर रह जाता है और हम न चाहते हुए भी पतन के गर्त में गिरने लगते हैं। सुख शान्ति, समृद्धि चाहने वालों का पहला कर्त्तव्य है कि वे अपने हृदय में उठने वाले सद्भाव, सद्विचार, सत्सकंल्प एवं सद्गुण को व्यवहार का रूप देकर अपने स्वभाव का जीवन्त अंग बनाने में आलस्य न करें। ध्यान रहे जो व्यक्ति अपने स्वयं के हृदय में उठने वाले सद्विचारों, सद्भावों व सत्संकल्प का समान नहीं कर सकता, वह जगत् व्यवहार में किसी दूसरे के मानवीय सद्गुणों व सत्कर्मों के साथ कभी भी न्याय नहीं कर सकेगा। मुझे मेरी अच्छाई नहीं सुहाती तो किसी दूसरे की अच्छाई क्यों सुहाएगी?

चलो अब सीधे अपने विषय परआते हैं- महर्षि दयानन्द ने मन्त्रार्थ में जो कुछ कहा है हम स्तुति-प्रार्थना की शैली में ऋषि वाक्यों की अन्तर्यात्रा करने निकलें और अपने मन मस्तिष्क को इस पूरी यात्रा में साथ ही रखेंगे तो मन्त्रार्थ को आत्मसात करने में सुभीता रहेगा।

‘हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्त्ता’ ‘समग्र ऐश्वर्य युक्त’– ऋषि दयानन्द जी ने सविता का अर्थ जगत् निर्माता व सब ऐश्वर्य से युक्त किया है। ‘सविता वै प्रसविता भवति’ के अनुसार सविता का अर्थ बनाने-उत्पन्न करने वाला होता है और जिसने जो बनाया है, वह उसका स्वामी तो हो ही गया। जगत् में जो कुछ ऐश्वर्य है, अनमोल दिखने वाला धन है वह सब परमात्मा ने ही बनाया है तो वही उस सबका स्वामी ठहरा। इसके साथ ही जान लें कि सविता शद ‘षु प्रेरणे’ धातु से बनता है। निर्माण और प्रेरणा दोनों अर्थ सविता शद से लिये जा सकते हैं। परामात्मा सबका निर्माण करने और सबको प्रेरित-संचालित करने वाला है। स्तुति प्रार्थनोपासना के छठे मन्त्र में कहा है कि जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले होकर हम आपको पुकारें, आपका आश्रय लेवें, उस-उसकी कामना हमारी पूर्ण होवे। अर्थात् हमें जीवन में जो कुछ चाहिए उसे पाने के लिए हमें परमात्मा से ही पुरुषार्थपूर्वक प्रार्थना करनी चाहिए। इससे सिद्ध है कि परमात्मा इस संसार की हर वस्तु को बनाकर उसे अपनी अटल न्यायपूर्ण व्यवस्था के अनुरूप चलाता, प्रेरित करता है।

‘शुद्ध स्वरूप सब सुखों के  दाता परमेश्वर’। देव शद का यही अर्थ ऋषिवर ने यहाँ किया है। सामान्य भाषा में भी देने वाले को देव कहते हैं। क्या दुःख देने वालो को भी? नहीं सुख या सुखद वस्तु देने वाले को ही देव कहा जाता है। परमात्मा भी सबके लिए सब सुखों का देने वाला है। यहाँ एक व्यावहारिक बात समझ लेनी चाहिए कि परमात्मा अपनी ओर से कभी किसी को सुख या सुखद वस्तुएँ नहीं देता। संसार में ज्ञान से बड़ा कोई दान नहीं, ऐसा महर्षि मनु-‘सर्वेषामेवदानानां ब्रह्म दानं विशिष्यते’ कहते हैं। योगिराज श्री कृष्ण ज्ञान के बारे में लिखते हैं – नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। अर्थात् हमारे जीवन को ज्ञान ही सबसे अधिक पवित्र करने वाला है। जीवन की पवित्रता मानो सब सुखों व सुखद वस्तुओ को प्राप्त करने की पात्रता है। वह परमात्मा अपनी ओर से मनुष्य मात्र को ज्ञान-प्रेरणा निरन्तर देता रहता है। यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम प्रभु प्रदत्त प्रेरणा (ज्ञान) के अनुसार कर्म-व्यवहार करते हुए सब सुखों व सुखद वस्तुओं को प्राप्त करें। परमात्मा द्वारा सुख देना दूसरे प्रकार से भी सिद्ध होता है। हमारी कमाई हुई धन-सपत्ति को कोई दुष्ट व्यक्ति छीन या चुराकर ले जाए तो उस चोर को जितना दोषी मानते हैं उससे कहीं अधिक दोषी शासक व शासन की व्यवस्था को भी मानते हैं। शासक की न्याय व्यवस्था अगर हमारी चुराई व खोई चीज को हमें दुबारा दिला दे तो हम उसका धन्यवाद अवश्य करते हैं। ठीक इसी प्रकार से अगर हमारे शुभ कार्यों का यथायोग्य फल ईश्वर की अटल, न्याय व्यवस्था से मिलता है तो उसका दाता ईश्वर को ही मानना चाहिए।

मन्त्र में सविता और देव के अर्थ स्पष्ट हो जाने के बाद दो बातें शेष रह जाती हैं और वे दोनों बातें अत्यन्त स्पष्ट हैं- ‘विश्वानि दुरितानि परासुव’ अर्थात् सपूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और ‘यद् भद्रं तन्नासुव’ जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ है, वह सब हमको प्राप्त कराइये। मन्त्र को और सरलता से समझने के लिए ‘विश्वानि दुरितानि सपूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को-‘परासुव’ दूर करने या परे धकेलने की प्रार्थना को भली भाँति समझना होगा। यहाँ दुर्गुण हैं, जितने भी दुर्व्यसन से पूर्व सपूर्ण शद बहुत ही ध्यान देने योग्य है। हमारे जीवन में जितने भी दुर्गण हैं, जितने भी दुर्व्यसन हैं उन सब को दूर करने की प्रार्थना या पुकार यह सिद्ध करती है कि हमारा जीवन पूर्णतः निर्मल और पवित्र होना चाहिए। एक भी दुर्गुण व दुर्व्यसन मेरे जीवन में शेष न रहे। अगर हम थोड़ा सा भी दुख नहीं चाहते तो अपने अन्दर के सब दुर्गुणों को ढूँढ-ढूँढ कर निकाल फैंके। हमारे आन्तरिक दुर्गुणों के कारण हमारे व्यावहारिक जीवन में दुर्व्यसन उत्पन्न होते हैं और दोषों दुर्व्यसनों के परिणाम स्वरूप हमें दुःख भोगने पड़ते हैं। दुःख दूर करने की इच्छा है जिनकी वे दुर्व्यसनों को दूर भगाायें। जो दुर्व्यसनों से मुक्त होना चाहते हैं वे अपने दुर्गुणों को समाप्त करने का संकल्प लें। हमारे आन्तरिक  दुर्गुण ही हमारे दुर्व्यसनों अर्थात् दुराचरणों, दुष्प्रवृत्तियों और दुष्कर्मों के बीज हैं और इन्हीं दुर्व्यसनों का परिणाम दुःख है। यह मन्त्र हमारे दुःखों को दूर करने का वैदिक उपाय बताता है। आज हम अपने दुःखों को दूर करने के लिए अनेक प्रकार के मनमाने उपाय करते रहते हैं या किसी गुरु घण्टाल के मायाजाल में फँस कर विविध प्रकार के पाखण्ड पूर्ण कृत्य करते-कराते हैं। हमारे मनमाने उपायों या गुरु घण्टालों के तन्त्र-मन्त्र से दुःा दूर हो जाते तो संसार में एक भी दुःखी नहीं होता।

मन्त्र में दूसरी प्रार्थना है – ‘यद् भद्रं तन्न आसुव’ अर्थात् जो कल्याण कारक गुण, र्का और स्वभाव हैं वह सब हम को प्राप्त कराइये। जब हम अपने जीवन के सब दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर करने का सशक्त संकल्प लेकर अपनी आन्तरिक बुराइयों के  विरुद्ध सफल संघर्ष छेड़ देते हैं, दुर्गुणों, दोषों व दुष्कर्मों के पतनशील प्रवाह में निर्जीव तिनके की तरह बहते रहने से आत्मबल पूर्वक मना कर देते हैं और बुराइयों के चक्रव्यूह से बच निकलते हैं तो हमारे सामने अपने हृदय को अच्छाइयों से भरते रहने का प्रश्न खड़ा होता है। यह तो सब जानते हैं कि संसार में ऐसा कुछ नहीं जो किसी प्रकार के गुणों से शून्य हो। ऐसे में हमारा हृदय-मन, बुद्धि और चित्त आदि भी गुणहीन स्थिति में नहीं रह सकते। दुर्गुणों को दूर करने के आन्तरिक अभियान के साथ-साथ हमें कल्याण कारक गुणों का आह्वान करना होगा। दुर्गुणों को दूर करके उनके स्थान पर कल्याण कारक गुणों अर्थात् सद्गुणों को बसाना जीवन-निर्माण की आवश्यक प्रक्रिया है। किसी बर्तन में कोई अनावश्यक व अनुपयोगी चीज भरी हो तो जब तक उसमें किसी अच्छी व उपयोगी वस्तु को रखने की आवश्यकता नहीं पड़ती तब तक हम उस अनुपयोगी चीज को निकाल फैंकने के बारे में प्रायः नहीं सोचते। जब हमें कोई मूल्यवान व उपयोगी वस्तु की आवश्यकता अनुभव होती है तो हम उसे पाने के प्रयास करते हैं। पाने के प्रयास करने से पूर्व बुद्धिमान व्यक्ति उसे सुरक्षित रखने के बारे में सोचता है तो उसे लगता है कि यह जो अनावश्यक चीज इस बर्तन मे ंरखी है उसे निकाल फैंको और इस बर्तन को स्वच्छ करके उपयोगी वस्तु को इसमें रख दो।

यही स्थिति मानव के जीवन की है। सांसारिक विषय वासना व परस्पर के राग-द्वेष पूर्ण जीवन जाने वाले को जब किसी सद्ग्रन्थ के स्वाध्याय या सत्संग से यह पता चलता है कि मेरा हृदय जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मात्सर्य का कबाड़ बनकर रह गया है, मेरे जीवन में आलस्य, प्रमाद, दीर्घसूत्रता आदि दोष निरन्तर बिगाड़ पैदा कर रहे हैं, ये मुझे सुख-शान्ति, समृद्धि और सन्तुष्टि नहीं दे सकते। ये मेरे जीवन को सफल और सार्थक बनाने में उपयोगी नहीं हैं। यह ज्ञान स्वाध्याय व सत्संग के बिना नहीं होता। अधिकांश लोगों को लबे समय तक सत्संग स्वाध्याय करते रहने पर भी यह ज्ञान नहीं होता, लेकिन जिन विवेकशील सज्जनों को यह ज्ञान हो जाता है तो उन्हें कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव की आवश्यकता अनुभव होने लगती है। जब उन्हें सद्गुणों की आवश्यकता अनुभव होती है तो उन्हें लगता है कि मेरे हृदय में तो दुर्गुण जड़ें जमाये बैठे हैं। जीवन को अच्छा,सुाी और सन्तुष्ट बनाने की प्रबल इच्छा जब तक हृदय में उठ खड़ी नहीं होती, तब तक हर मनुष्य को अपने हृदय में भरा पड़ा काम-क्रोध आदि दुर्गुणों का कूड़ा-कबाड़ भी काम चलाऊ अच्छा लगता है। जैसे ही उसके मन-मस्तिष्क में कल्याण कारक गुण, कर्म स्वभाव और पदार्थों की उपयोगिता स्पष्ट हो जाती है, और वह उन्हें पाने के लिए लालायित होने लगता है, वेसे ही उसे अपने अन्दर के काम, क्रोध, मोह आदि अनुपयोगी और अनावश्यक ही नहीं लगते, बल्कि काँटे की तरह चुाने लगते हैं । इस अवस्था में आकर वह ‘विश्वानि दुरितानि परासुव’ और ‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’ की पुकार करने लगता है। इस अवस्था में सच्चे हृदय से की गई ऐसी प्रार्थना, पुकार ही लक्ष्य के निकट पहुँचाती है।

‘‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’’ का जो अर्थ ऋषि दयानन्द ने किया है, वह बहुत ही चमत्कार पूर्ण एवं जीवन-निर्माण की अन्तःक्रिया को सन्तुलित-सयक् ढंग से प्रकट करता है। ऋषि लिखते हैं- ‘जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं,वह सब हमें प्राप्त कराइये।’ कल्याण करने वाले गुण, कर्म और स्वभाव की क्रमबद्धता  पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है। सुखी, शान्त व आनन्दपूर्ण जीवन के तीन घटक आन्तरिक हैं और पदार्थ बाहरी हैं। कल्याणकारक घटकों में गुण, कर्म और स्वभाव एक पात्रता है और पदार्थ उसमें रखी जाने वाली सामग्री। जिसने तप-साधना से अपने गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याण कारक बना लिया परमात्मा उसके  लिए कल्याणकारक पदार्थों की प्राप्ति सरल और सहज बना देते हैं। जो अपने गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याणकारक बनाने के लिए तप नहीं करते, स्वयं को सद्गुण सपन्न सदाचारी एवं सुा का सत्पात्र बनाये बिना ही जो कल्याणकारक सुखद पदार्थों को छल-बल या कल से हथिया लेते हैं, ऐसे अभिशप्त लोगों के हाथ लगे कल्याण कारक पदार्थ कभी उनको सच्चा सुख नहीं दे पाते। सीधे शदों में कहें तो गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याणकारी बनाये बिना हम कल्याणकारी पदार्थों का सच्चा सदुपयोग नहीं कर सकते। बुद्धिमान लोग काँटों का सदुपयोग बाड़ लगाकर फलों की सुरक्षा के रूप में करते हैं दूसरी ओर कुछ मूर्ख लोगों ने पाकिस्तान में पंजाब के गवर्नर के हत्यारे आतंकियों पर गुलाब के फूलों की वर्षा करके भी विश्व के मानवतावादी जन समुदाय के बीच स्वयं को कलंकित कर लिया।

‘‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’’ की अन्तिम लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय वस्तु को राना चाहते हैं। जो सच्चे अर्थों में सच्चे हृदय से अपना जीवन सुखी व श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं, उनके लिए ऋषि दयानन्द के शदों –‘कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव’ को समझ लेना बहुत ही आवश्यक है। जब हमारे कल्याणकारक गुण हमारे कमरें के माध्यम से सजीव होकर हमारे स्वभाव का अंग बन जाते हैं, तब जाकर हमारा जीवन कल्याणकारक पदार्थों को पाने का पात्र बन पाता है। आज के मानव की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अपने अन्दर की ढेर सारी अच्छाइयों को अपने कर्मों-व्यवहार में उतारने से डरता है। जब तक यह डर हमारे जीवन में डेरा डाले रहेगा, तब तक हर सच्चाई और अच्छाई मानव के संकीर्ण स्वार्थ के भार तले दबकर दम तोड़ती रहेगी। पाठक ध्यान रखें कि परमात्मा ने हमारे कल्याण को सरल और सहज बनाने के लिए हमारे हृदय में सत्य के प्रति श्रद्धा और असत्य के प्रति अश्रद्धा स्वाभाविक रूप से प्रदान की है। प्रत्येक मानव का हृदय सदैव सत्य के प्रति श्रद्धालु रहता है, आकर्षित रहता है। असत्य मानव के हृदय को कभी अच्छा नहीं लगता। असत्य मानव के हृदय में सदैव काँटे की तरह खटकता रहता है। मानव-स्वभाव की विचित्रतााी बड़ी अनौखी है। यह सच है कि सरल चित्त के व्यक्ति के हृदय में असत्य काँटे की तरह ही खटकता है, लेकिन जब वो स्वार्थ के खूंटे से बँधकर सत्य को स्वीकार करने का साहस नहीं दिखा पाता और इस असत्य रूपी काँटे से हृदय को लहूलुहान करता रहता है तो कुछ काल ऐसा ही होते रहने के बाद स्वार्थ पूर्ति से मिलने वाले क्षणिक सुख के नशे में असत्य रूपी काँटे की इस तीखी चुभन को भी वह भाग्यहीन व्यक्ति ऐसे ही सहन करता रहता है जैसे एक शराबी मदके लिए उसकी कड़वाहट व तीखेपन को सहन करता रहता है।

कल्याण की कामना वाले व्यक्ति को सांसारिक स्वार्थ पूर्ति से ऊपर उठकर एक अक्षय सुख पर अपना ध्यान केन्द्रित करना होगा। सुधी जन जानते हैं कि झूठ की जितनी शक्ति है, जितनी आयु है, उससे मिलने वाले सुख की शक्ति और आयु भी उतनी ही होगी उससे अधिक नहीं। झूठ सदैव सत्य से भयभीत रहता है, सत्य की एक किरण झूठ को धराशायी कर देती है ठीक इसी प्रकार से असत्य के बल पर सुा शान्ति पाने वाले व्यक्ति सत्य से भयभीत होकर जीवन जीते हैं, उनका सुख सत्य की सभावना देखकर ही भाग खड़ा होता है। क्या लाभ उस टूटे-फूटे, डरे-सहमे सुख का? सत्य से डरकर उल्लू की तरह अँधेरे में कब तक ऐेसे सुख को भोगकर सन्तुष्ट होते रहोगे?वह सुख ही क्या जो अपने इष्ट मित्रों व परिजनों के साथ मिलकर खुले में सार्वजनिक रूप से न भोगा जा सके? इसीलिए ऋषि दयानन्द कल्याणकारक गुणों को कर्मों में सजीव और साकार करके अपने स्वभाव का अंग बनाने की सांकेतिक प्रेरणा कर रहे हैं। गीता में श्री कृष्ण जी भी शदान्तर से यही सन्देश दे रहे हैं कि संसार में सब प्राण्ीा अपनी प्रकृति अर्थात् स्वभाव के अनुसार ही अपनी समस्त चेष्टाएँ (कर्म) करते हैं इसलिए स्वभाव को ही अच्छा (श्रेष्ठ) बनाओ अपनी बुराइयों को छिपाकर अच्छा दिखने से क्या लाभ? स्वभाव को श्रेष्ठ बनाने -सुधारने का सच्चा और सरल रास्ता ऋषि दयानन्द बता रहे हैं कि अपने हृदय में सोये पड़े हुए अपने सद्गुणों को कर्मों में उतारिये। हम जब निरन्तर अपने सद्गुणों को कर्मों का सहारा देते रहेंगे तो एक दिन हमारे सद्गुण हमारे स्वभाव का अंग बन जाएँगे। जब तक अपने सद्गुणों को अपने कर्मों के द्वारा अपने स्वााव का अंग बना लेंगे तब इस संसार के समस्त कल्याण कारक पदाथरें को प्राप्त करने के अधिकारी-पात्र बन जाएँगे। दुर्गुणों, दुर्व्यसनों और दुःखों से निकल कर कल्याणकारक गुण, कर्म स्वभाव और पदार्थों को प्राप्त करने की अन्तर्यात्रा का मंत्रानुसार ऋषिवर ने जिस रूप में रखा और वह जैसी मेरी समझ में आई वैसी मैंने सच्चे हृदय से, सुधीजनों के कल्याण की कामना से प्रकट कर दी। आशा है अध्यात्म पथ के पथिक इससे लाभ उठाएँगे।    

– जोधपुर,राजस्थान

उम्र से लड़ती आधुनिकायें – डॉ. रामवीर

उम्र से लड़ती आधुनिकायें

तरह-तरह से आयु छिपायें,

कभी-कभी इन की चेष्टायें

अति उपहास्यास्पद हो जायें।

 

मुझे बताया गया पड़ोसन

बेटे संग न बाहर जाये,

माँ बेटे को साथ देखवय,

का न कहीं अनुमान हो जाये।

 

यदि हो जाना बहुत जरूरी

पुत्र को देती हिदायत पूरी,

देखो पल्लू पकड़ न चलना,

रखना दस मीटर की दूरी।

 

एक बार सरकारी काम से

मैंने जन्मतिथि पुछवाई,

तो तारीख बताई केवल

वर्ष की संया नहीं बताई।

 

वर्ष जानने के आग्रह पर

बोली कुछ गुस्से में आ कर,

फॉर्म में कॉलम जन्मतिथि है,

जन्म वर्ष नहीं छपा वहाँ पर।

 

बिना वर्ष के कैसे जानूँ

आप हैं बालिग या नाबालिग?

तो बोली ‘मैं कुछ कामों में

बालिग हूँ कुछ में नाबालिग’।

 

उसने आयु छिपाई मानो,

देह अन्य है, प्राण अन्य हैं।

आखिर पिण्ड छुड़ाया उससे

कह कर ‘मैडम आप धन्य हैं’।

– 86, सैक्टर-46, फरीदाबाद,

हरियाणा-121003