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‘मन्दिरों की लूट तथा धार्मिक साहित्य नष्ट करने संबंधी इतिहास विषयक ऋषि उपदेश’:- मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द धर्म, वेद, मत-मतान्तर, सामजिक विज्ञान सहित भारत के इतिहास के भी गम्भीर व मर्मज्ञ विद्वान थे। उनके लम्बे उपदेश के दो भाग हम प्रस्तुत कर चुके हैं। इस लेख में उनसे आगे का उपदेश प्रस्तुत कर रहे हैं। इनका महत्व इतना ही है कि हम सत्य को जाने और इतिहास में की गई अपने पूवजों की गलतियों का सुधार करें। यदि ऐसा नहीं करते तो इतिहास की पुनरावृत्ति होने का डर बना रहता है। ऐसा न हो कि हम पुनः गलतियां करें और हमें पूर्व की भांति हानि उठानी पड़े। पूर्व लेखों के क्रम में उनके बाद देश में घटी घटनाओं का यथार्थ वर्णन करने वाले उपदेश किंचित सम्पादन के साथ पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत हैं।

महर्षि दयानन्द अपने उपदेश में कहते हैं कि एक महमूद गजनवी इस देश में आया और बहुत सी सोने और चांदी की मूर्तियां लूट ली। बहुत पुजारी और पण्डित पकड़ लिये और रात को पिसान पिसावे और दिन में जाजरूर आदि को सफा करवाये। और जहां कोई पुस्तक पाया उसको नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। ऐसे वह आर्यावर्त्त में बारह बार आया और उसने बहुत लूट मार एवं अत्यन्त अन्याय किया। उसने इस देश की बड़ी दुर्दशा की। यहां तक कि शिरच्छेदन बहुतों का कर दिया। विना अपराधों के स्त्री, कन्या और बालकों को भी पकड़ के दुःख दिया और बहुतों को मार डाला, ऐसा उसने बड़ा अन्याय किया।

 

सो जिस देश में ईश्वर की उपासना छोड़ कर काष्ठ, पाषाण, वृक्ष, घास, कुत्ते, गधे और मिट्टी आदि की पूजा की जाती हो वहां ऐसा ही फल होगा, उत्तम कहां से होगा। फिर चार ब्राह्मणों ने एक लोहे की पोली (खोखली) मूर्ति बनवाई और उसको गुप्त कहीं रख दिया। फिर चारों ने लोगों को कहा कि हम को महादेव ने स्वप्न दिया है कि हमारा आप लोग मन्दिर बनवायें तो कैलाश को छोड़ के आर्यावर्त्त देश में मैं निवास करूं और सबको दर्शन दूं। प्रचार द्वारा ऐसा सब देशों में प्रसिद्ध कर दिया। फिर मन्दिर सब लोगों ने मिल के बनवाया। उसमें नीचे ऊपर और चारों ओर भीत में चुम्बक पत्थर रक्खे। जब मन्दिर पूरा हुआ, तब सब देशों में प्रसिद्ध कर दिया कि उस दिन मध्य रात्रि में कैलाश से महादेव मन्दिर में आवेंगे जो दर्शन करेगा उसका बड़ा भाग्य और मरने के पीछे वह कैलाश को चला जायगा। फिर उस समय में राजा, बाबू, स्त्री, पुरुष और लड़के बालायें उस स्थान में जुटे। उन चारों धूर्त्तों ने मूर्ति मन्दिर में कहीं गुप्त रख दी थी और मेला में ऐसा प्रसिद्ध कर दिया कि महादेव देव हैं सो भूमि को पग से स्पर्श न करेंगे, किन्तु आकाश में ही खड़े रहेंगे। ऐसा हमको स्वप्न में कहा है सो जब उस दिन पहर रात्रि गई तब सब को मन्दिर के बाहर निकाल दिए और किवाड़ बन्द करके वह चारों ब्राह्मण भीतर रहे। फिर उस मूर्ति को उठाके मन्दिर में ले गए और बीच में चुम्बक पाषाण के आकर्षणों से अधर आकाश में वह मूत्र्ति खड़ी रही और उन्होंने खूब मन्दिर में दीप जोड़ दिए फिर घण्टा, झल्लरी, शंख, रणसिंघा और नगारा बजाए। तब तो मेले में बड़ा उत्साह हुआ और उन्होंने दरवाजे खोल दिए। फिर मनुष्यों के ऊपर मनुष्य गिरे और मूर्ति को आकाश में अधर खड़ी देख के बड़े आश्चर्य युक्त हुए और लाखों रुपयों की पूजा चढ़़ी। अनेक पदार्थ पूजा में आए। फिर वे चारों धूर्त ब्राह्मण बड़े मस्त हो गए और महन्त हो गए। फिर नित्य मेला होने लगा और वहां करोडों रुपयों का माल इकट्ठा हो गया। सो वह मन्दिर द्वारका के पास प्रभा क्षेत्र स्थान में था और उस मूर्ति का नाम सोमनाथ रक्खा था। फिर महमूद गजनवी ने सुना कि उस मन्दिर में बड़ा माल है। ऐसा सुनके अपने देश से सेना लेके चढ़ा। सो जब पंजाब में आया, तब हल्ला हो गया और सोमनाथ की ओर चला तब लोगों ने जाना कि सोमनाथ के मन्दिर को तोड़ेगा और लूटेगा। ऐसा सुन के बहुत से राजा, पण्डित और पुजारी सेना ले-ले के सोमनाथ की रक्षा हेतु इकट्ठे हुए। सोमनाथ के पास जब वह डेढ़ सौ दो सौ कोस दूर रहा, तब पण्डितों से राजाओं ने पूछा कि मुहूर्त देखना चाहिए। हम लोग आगे जाके उनसे लड़े। फिर पण्डित लोगों ने इकट्ठे होके मुहूर्त देखा, परन्तु मुहूर्त बना नहीं। फिर नित्य मुहूर्त ही देखते रहे, परन्तु कोई दिन चन्द्र, कोई दिन और ग्रह नहीं बने, कोई दिन दिक् शूल सन्मुख आया, कोई दिन योगिनी और कोई दिन काल नहीं बना। सो पण्डितों की बुद्धि को कालादिकों के भ्रमों ने खा लिया और राजा लोग विना पण्डितों की आज्ञा से कुछ करते नहीं थे। सो प्रायः पण्डित और राजा लोग मूर्ख ही थे। जो मूर्ख न होते तो पाषाणादि मूर्ति क्यों पूजते और मुहूर्तादिकों के भ्रमों से नष्ट क्यों होते? ऐसे विचार वह करते ही रहे, उस महमूद की सेना दूसरी मंजिल पर पहुंची, तब राजा लोगों ने पण्डितों से कहा कि अब तो जल्दी मुहूर्त देखों। तब पण्डितों ने कहा कि आज मुहूर्त अच्छा नहीं है। जो यात्रा करोगे तो तुम्हारा पराजय ही हो जायगा। तब वे ब्राह्मणों से डर के बैठे रहे। तब महमूद गजनवी धीरे-धीरे पांच छः कोश के ऊपर आकर ठहरा और दूतों से सब खबर मंगवाई कि वह क्या करते हैं? दूतों ने कहा कि वह आपस में मुहूर्त विचारा करते हैं। महमूद गजनवी के पास 30 हजार पुरुषों की सेना थी, अधिक नहीं और उनके पास दो, तीन लाख फौज थी। फिर उसके दूसरे दिन प्रातःकाल राजा पण्डित पुजारी मिल के मुहूर्त विचारने लगे। सो सब पण्डितों ने कहा कि आज का चन्द्रमा अच्छा नहीं और भी ग्रह क्रूर हैं। पुजारी लोग और पण्डित मूर्ति के आगे जा के गिर पड़े और अत्यन्त रोदन किया कि हे महाराज ! इस दुष्ट (काल-मुहूर्त) को खा लो और अपने सेवकों का सहाय करो। परन्तु वह लोहा क्या कर सकता है। और सब से कहने लगे कि आप लोग कुछ चिन्ता मत करो महादेव उस दुष्ट को ऐसे ही मार डालेंगे वा वह महादेव के भय से वहां से ही भाग जायेगा, उसका क्या सामर्थ्य है कि साक्षात् महादेव के पास आ सके और सन्मुख दृष्टि कर सके। ऐसे सब परस्पर बक(वास कर) रहे थे। फिर कुछ लड़ाई हुई और मुसलमान भी डरे कि विजय होगा वा पराजय? उस समय में (हमारे पण्डित) पुस्तक फैला-फैला के बहुत से मन्त्रों का जप और पाठ करते थे और कहते थे कि अब हमारा देवता और मन्त्र पाठ सिद्ध होता है सो वह वहां ही अन्धा हो जायगा। सो बड़ी मण्डली की मण्डली जप, पाठ और पूजा कर रही थी और मूर्ति के सामने औंधे गिर के पुकारते थे। एक सभा लग रही थी जिसमें राजा और पण्डित मुहूर्त को विचारते थे।

 

उस समय में उसके निकट एक पर्वत था और महमूद गजनवी ने एक तोप लगा दी और सभा के बीच में गोला मारा। उस समय कोई दन्तधावन करता था, कोई सोता था और कोई स्नान करता था, इत्यादि व्यवहारों से निश्चिन्त थे। सो उस गोले से सब पण्डित लोग पोथी पत्रा छोड़ के भागे और राजा लोग भी भाग उठे तथा सेना भी अपने-अपने स्थानों से भाग उठी और वह महमूद गजनवी सेना सहित धावा करके उस स्थान पर झट पहुंचा। उसको देख के सब भाग उठे। भागे हुए पण्डित, पुजारी, सिपाही तथा राजाओं को उसने पकड़ लिया और बांध लिया और उनके ऊपर बहुत-सी मार पड़ी तथा किसी को मार भी डाला और बहुत से भाग गए क्योंकि उन पण्डितों के उपदेश से वह सोलह पहर के बैठे थे और कथा सुनी थी कि मुसलमानों का स्पर्श नहीं करना और उनके दर्शन से धर्म जाता है,? ऐसी मिथ्या बातें सुनने के कारण भाग उठे। फिर मन्दिर के चारों ओर महमूद गजनवी की सेना हो गई और महमूद आप मन्दिर के पास पहुंचा, तब मन्दिर के महन्त और पुजारी हाथ जोड़ के खड़े हुए। महमूद को पुजारियों ने कहा कि आप जितना चाहें उतना धन ले लीजिए परन्तु मन्दिर और मूर्ति को न तोडि़ए, क्योंकि इससे हम लोगों की बड़ी आजीविका है। ऐसा सुनके महमूद गजनवी बोला कि हम बुत पूजने वाले नहीं किन्तु उनको तोड़ने वाले हैं। तब तो वे डरे और कहा कि एक करोड़ रुपया आप ले लीजिए परन्तु इसको मत तोडि़ए। ऐसे कहते सुनते तीन करोड़ तक कहा, परन्तु महमूद गजनवी ने नहीं माना और उनकी मुसक चढ़ा ली फिर उनको लेके मन्दिर में गया और उनसे पूछा कि खजाना कहां है सो कुछ तो उन्होंने बतला दिया।  फिर भी उसको लोभ आया कि और भी कुछ होगा। फिर उनको मारा पीटा तब उन्होंने सब खजाना बतला दिया। फिर मन्दिर में आके सब लीला देखी। फिर महन्त और पुजारियों से कहा कि तुमने दुनिया को ऐसी धूर्तता कर के ठग लिया क्योंकि लोहे की तो मूर्ति बनाई है। इसके चारों ओर चुम्बक पाषाण रखने से आकाश में यह मूर्ति अधर में खड़ी है। फिर उस मन्दिर का शिखर उन्होने तोड़वा दिया। जब वह चुम्बक पाषाण अलग हो गया, तब मूर्ति जमीन में चुम्बक-पाषाण में लग गई। फिर सब भीतें तोड़वा डाली। सब चुम्बकों के निकलने से मूर्ति जमीन में गिर पड़ी। फिर महमूद गजनवी ने अपने हाथ से लोहे के घन को पकड़ के उस मूर्ति के पेट में मारा। उससे मूर्ति फट गई। उससे बहुत जवाहिरात निकला क्योंकि हीरा आदि अच्छे-अच्छे रत्न वे पण्डित पाते थे, तब मूर्ति में ही रख देते थे। फिर महमूद ने उन महंत और पुजारियों को खूब तंग किया और फुसलाया भी। फिर उन्होंने भय से बतला दिया, जो कुछ था उसने सब ले लिया। सो अठारह करोड़ का माल उस मन्दिर से उसने पाया। फिर बहुत सी गाड़ी, ऊंट और मजूर उसके पास थे और भी वहां से पकड़ लिए। उनके ऊपर सब माल को लाद के अपने देश की ओर चला। सो थोड़े से थोड़े पण्डित, महंत और पुजारी तथा क्षत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण और शूद्र तथा स्त्री, बालक दश हजार तक पकड़ के संग में ले लिए थे। उनका यज्ञोपवीत तोड़ डाला, मुख में थूक दिया और थोड़े-थोड़े सूखे चने नित्य खाने को देता था और जाजरूर सफा करवावे, पिसवावे, घास छिलवावे और घोड़ों की लीद उठवावे और मुसलमानों के जूठें बरतन मजवावे और सब प्रकार की नीच सेवा उनसे ली। ऐसे कराता-कराता जब मक्का के पास पहुंचा, तब अन्य मुसलमानों ने कहा कि इन काफरों का यहां रखना उचित नहीं। फिर उनको बुरी दशा से मार डाला ( …… इत्यादि)। ऐसे ही बारह दफे वह आया है और दो तीन बार मथुरा की भी दुर्दशा ऐसी ही की थी। और जहां-जहां वह गया था, वहां-वहां ऐसी ही दुर्दशा उस देश की की थी और डाकू की नांई वह आता था, मार के जो कुछ पाता था, सो अपने देश में ले जाता था। उस दिन से मुसलमान लोग दरिद्र से धनाढ्य हो गए हैं। सो आर्यावर्त्त के प्रताप से आज तक भी धन चला आता है और आर्यावर्त्त देश अपने ही दोषों से नष्ट होता जाता है।

 

इसलिये हमको बड़ा दुःख है कि ऐसा जो देश और इस प्रकार का धन जिस देश में है सो देश बाल्यावस्था में विवाह, विद्या का त्याग, मूत्र्ति पूजनादि पाखण्डों की प्रवृत्ति, नाना प्रकार के मिथ्या मजहबों का प्रचार, विषयासक्त और वेद विद्या का लोप, जब तक यह दोष रहेंगे, तब तक आर्यावर्त्त देशवालों की अधिक अधिक दुर्दशा ही होगी और जो सत्य विद्याभ्यास तथा सुनियम, धर्म और एक परमेश्वर की उपासना इत्यादि गुणों को ग्रहण करें तो सब दुःख नष्ट हो जायं और अत्यन्त आनन्द में रहें।

 

महर्षि दयानन्द ने आर्यावर्त्त में मूर्तिपूजा के प्रचलन का यह वृतान्त अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के प्रथम संस्करण में सन् 1874 में प्रस्तुत किया है। सारा देश जिसमें सभी मूर्ति पूजक बन्धु भी शामिल है, इन तथ्यों को यथावत् नहीं जानते। सत्य को जानना व मानना तथा असत्य को छोड़ना व दूसरों से छुड़वाना ही मनुष्य जीवन का एक उद्देश्य है। इसी उद्देश्य से सत्यार्थ के प्रकाश के लिए महर्षि दयानन्द का यह उपदेश प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है कि पाठक इतिहास की इस इन भूलीबिसरी घटनाओं को जानकर इनसे शिक्षा ग्रहण करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

मूर्तिपूजा के इतिहास पर महर्षि दयानन्द का उपदेश: मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द के इतिहास विषयक एक उपदेश जिसमें उन्होंने महाभारत काल उसके बाद देश में धर्म अध्ययन अध्यापन पर प्रकाश डाला है, को हमनें अपने पूर्व लेख में प्रस्तुत किया था। उसी क्रम में उसके बाद देश में वेदाध्ययन को छोड़कर मूर्तिपूजा के प्रचलन विषयक घटी घटनाओं के इतिहास पर उनके उपदेश को आज के लेख में किंचित सम्पादन के साथ पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। महर्षि का उपदेश आरम्भ करते हैं:

 

एक द्रविड़ देश के ब्राह्मण काशी में आकर, यहां एक गौड़पाद पण्डित थे, उनके पास व्याकरण पूर्वक वेद पर्यन्त विद्या पढ़ी थी जिसका नाम शंकराचार्य था। वह बड़े पण्डित हुए थे, उन्होंने विचार किया कि यह बड़ा अनर्थ हुआ कि नास्तिकों का मत आर्यावर्त्त देश में फैल गया है और वेदादिक संस्कृत विद्या का प्रायः नाश ही हो गया है, अतः नास्तिक मत का खयडन और वेदादिक सत्य संस्कृत विद्या का (मण्डन होना चाहिए)। वह अपने मन से ऐसा विचार करके सुधन्वा नाम का राजा था, उसके पास चले गए, क्योंकि बिना राजाओं के सहाय से यह बात नहीं हो सकेगी। वह सुधन्वा राजा भी संस्कृत में पण्डित था और जैनों के भी संस्कृत के सब ग्रन्थों को पढ़ा था। सुधन्वा जैन के मत का था, परन्तु बुद्धि और विद्या के होने से अत्यन्त विश्वास नहीं था, क्योंकि वह संस्कृत भी पढ़ा था और उसके पास जैन मत के पण्डित भी बहुत थे। फिर शंकराचार्य ने राजा से कहा कि आप सभा करावें और उनसे मेरा शास्त्रार्थ हो और आप सुनें। फिर जो सत्य हो उसको मानना चाहिए। उसने स्वीकार किया और सभा भी कराई। उसके अपने पास जैन मत के पण्डित थे और भी दूर-दूर से पण्डित जैन मत के बुलाए, फिर सभा हुई। उसमें यह प्रतिज्ञा हो गई कि हम वेद और वेद मत का स्थापन करेंगे और आपके मत का खण्डन तथा उन पण्डितों ने ऐसी प्रतिज्ञा की कि वेद और वेदमत का हम खण्डन करेंगे और अपने मत का मण्डन। सो उनका परस्पर शास्त्रार्थ होने लगा। उस शास्त्रार्थ में शंकराचार्य का विजय हुआ और जैन मत वाले पण्डितों का पराजय हो गया। फिर कोई युक्ति जैनों की नहीं चली, किन्तु शंकराचार्य ने कहा कि जैनों का आजकल बड़ा बल है और वेद मत का बल नहीं है। इससे शास्त्रार्थ तो हम करने को तैयार हैं, परन्तु कोई उपाधि करे अथवा शास्त्रार्थ ही न करें, तो हमारा कुछ बल नहीं। इसमें आप लोग प्रवृत्त होंवे कि कोई अन्याय करे, उसकी आप लोग शिक्षा करें। सो राजा ने उस बात को स्वीकार किया कि वह हम करेंगे, परन्तु हमारे छः राजा सम्बन्धी हैं, उनके पास हम चिट्ठी लिखते हैं और आपको भी शास्त्रार्थ करने के हेतु भेजेंगे। फिर वह भी यदि मिल जायें तो बहुत अच्छी बात है। फिर शंकराचार्य उन राजाओं के पास गए और सभा हुई, फिर जैन मत के पण्डितों का पराजय हो गया। फिर वे छः भी सुधन्वा से मिले ओर सबकी सम्मति से संस्कार भी हुआ तथा वेदोक्त कर्म भी करने लगे।

 

तब तो आर्यावर्त्त में सर्वत्र यह बात प्रसिद्ध हो गई कि एक शंकराचार्य नामक संन्यासी वेदादिक शास्त्रों के पढ़ने वाले बड़े पण्डित हैं जिससे बहुत जैन लोगों के पण्डित परास्त हो गए। फिर उन सात राजाओं ने शंकराचार्य की रक्षा के हेतु बहुत भृत्य तथा सेवक और सवारी भी रख दी और सबने कहा कि आप सर्वत्र आर्यावर्त्त में भ्रमण करे और जैनों का खण्डन करें। इसमें यदि कोई अन्याय से जबर्दस्ती करेगा तो उसको हम लोग समझा लेवेंगे। फिर शंकराचार्य जी ने जहां-जहां जैनों के पण्डित और अत्यन्त प्रचार था, वहां-वहां भ्रमण किया और उनसे सर्वत्र शास्त्रार्थ किया। शास्त्रार्थें में सर्वत्र जैन लोगों का पराजय ही होता गया, क्योंकि दो तीन दोष उन (जैनियों) के बड़े भारी थे। एक तो ईश्वर को नहीं मानना, दूसरा वेदादिक सत्य शास्त्रों का खण्डन करना और तीसरा जगत् स्वभाव ही से होता है, इसका रचने वाला कोई नहीं, इत्यादि अन्य भी बहुत दोष हैं, उन दोषों को जैन मत के खण्डन मण्डन में विस्तार से (कहेंगे)। फिर जितनी जैनों के मन्दिर में मूर्तियां थी, उनको सुधन्वादिक राजाओं ने तोड़वा डाली और कुवों (में डलवा दी) वा पृथिवी में गाड़ दी, सो आज तक जैनों की वे टूटी और बिना टूटी मूर्तियां पृथिवी खोदने से निकलती हैं। परन्तु मन्दिर नहीं तोड़े गए, क्योंकि शंकराचार्य और राजा लोगों ने विचार किया कि मन्दिरों को तोड़ना उचित नहीं है। इनमें वेदादिक शास्त्रों के पढ़ने के हेतु पाठशाला करेंगे, क्योंकि लाखों करोड़ों रूपये की इमारतें हैं, इसको तोड़ना उचित नहीं। और कुछ-कुछ गुप्त रूप से जैन लोग जहां-तहां रह गए थे सो आज तक देखने में आर्यावत्र्त देश में आते हैं। इसके बाद सर्वत्र वेदादि ग्रन्थों के पढ़ने और पढ़ाने की इच्छा बहुत मनुष्यों को हुई। शंकराचार्य, सुधन्वादि राजा तथा और आर्यावर्त्तवासी श्रेष्ठ लोगों ने विचार किया कि विद्या का प्रचार अवश्य करना चाहिए। वह विचार ही करते रहे। इतने में 32 वा 33 बरस की उमर में शंकराचार्य का शरीर टूट गया। उनके मरने से सब लोगों का उत्साह भंग हो गया। यह भी आर्यावर्त्त देशवालों का बड़ा अभाग्य था, यदि शंकराचार्य दश वा बारह बरस भी और जीते तो विद्या का प्रचार यथावत् हो जाता। फिर आर्यावत्र्त की ऐसी दुर्दशा कभी नहीं होती, क्योंकि जैनों का खण्डन तो हो गया, परन्तु विद्या प्रचार यथावत् नहीं हुआ। इससे मनुष्यों को यथावत् कर्तव्य और अकर्तव्य का निश्चय नहीं होने से मन में सन्देह ही रहा। कुछ तो जैनों के मत का संस्कार हृदय में रहा और कुछ वेदादिक शास्त्रों का भी। यह बात इक्कीस या बाइस सौ बरस पूर्व की है। इसके पीछे 200 वा 300 वर्षों तक साधारण पढ़ना और पढ़ाना रहा।

 

फिर उज्जैन में विक्रमादित्य राजा कुछ अच्छा हुआ। उसने राजधर्म का कुछ-कुछ प्रकाश किया और बहुत कार्य न्याय से होने लगे थे। उसके राज्य में प्रजा को सुख भी मिला था, क्योंकि विक्रमादित्य तेजस्वी, बुद्धिमान्, शूरवीर तथा धर्मात्मा था, इससे कोई और अन्याय नहीं करने पाता था। परन्तु वेदादिक विद्या का प्रचार उसके राज्य में भी यथावत् नहीं होता था। उसके पीछे ऐसा राजा नहीं हुआ, किन्तु साधारण होते रहे। फिर विक्रमादित्य से 500 वर्ष के पीछे राजा भोज हुए। उसने संस्कृत का प्रचार किया, अतः नवीन ग्रन्थों की रचना और प्रचार किया था वेदादि ग्रन्थों का नहीं। परन्तु कुछ-कुछ संस्कृत का प्रचार राजा भोज ने ऐसा कराया था कि चाण्डाल और हल जोतने वाले भी कुछ-कुछ लिखना पढ़ना और संस्कृत भी बोलते थे। देखना चाहिए कि कालिदास गड़रिया था, परन्तु श्लोकादिक रच लेता था और राजा भोज भी नये-नये श्लोक रचने में कुशल था। कोई एक श्लोक भी रच के उनके पास ले जाता था, उसका प्रसन्नता से सत्कार करता था और जो कोई ग्रन्थ बनाता था तो उसका बड़ा भारी सत्कार करता था। फिर बहुत मनुष्य लोग लोभ से नए ग्रन्थ रचने लगे, उससे वेदादिक सनातन पुस्तकों की अप्रवृत्ति प्रायः हो गई। संजीवनी नाम का इतिहास विषयक ग्रन्थ राजा भोज ने बनाया, उसमें बहुत पण्डितों की सम्मति है। उसमें यह बात लिखी है कि तीन ब्राह्मण पण्डितों ने ब्रह्मवैवत्र्तादिक तीन पुराण रचे थे। उनसे राजा भोज ने कहा कि और के नाम से तुमको ग्रन्थ रचना उचित नहीं था। संजीवनी ग्रन्थ में महाभारत की बात लिखी है कि कितने हजार श्लोक 20 बरस के बीच में व्यास जी का नाम करके लोगों ने मिला दिए हैं। ऐसे ही महाभारत का पुस्तक बढ़ेगा तो एक ऊंट का भार हो जायगा। और यदि ऐसे ही लोग दूसरे (महर्षि व्यास आदि) के नाम से ग्रन्थ रचेंगे तो बहुत भ्रम लोगों को हो जायगा। अतः उस संजीवनी ग्रन्थ में राजा भोज ने अनेक प्रकार की बातें उनके समय में विद्यमान पुस्तकों के विषय में और देश के वर्तमान के विषय में तथ्य पूर्ण इतिहास सम्मत लेख लिखे हैं। बटेश्वर के पास होलीपुरा एक गांव है, उसमें चैबे लोग रहते हैं, वह जानते हैं कि जिसके पास वह इतिहास विषयक वह संजीवनी ग्रन्थ है, परन्तु वह पण्डित लिखने वा देखने को किसी को नहीं देता, क्योंकि उसमें सत्यसत्य बात लिखी है। उसके प्रसिद्ध होने से पण्डितों की आजीविका नष्ट हो जाती है। इस स्वार्थरूपी भय से वह पण्डित उस ग्रन्थ को प्रसिद्ध नहीं करता। ऐसे ही आर्यावर्त्त निवासी मनुष्यों की बुद्धि क्षुद्र हो गई है कि अच्छा पुस्तक वा कोई इतिहास, उसको छिपाते चले जाते हैं। यह इनकी बड़ी मूर्खता है क्योंकि अच्छी बात जो लोगों के उपकार की हो, उसको कभी छिपाना चाहिए।

 

फिर राजा भोज के पीछे कोई अच्छा राजा नहीं हुआ। उस समय में जैन लोगों ने जहां-तहां मूर्तियां मन्दिरों में प्रसिद्ध की और वे कुछ-कुछ प्रसिद्ध भी होने लगे, तब ब्राह्मणों ने विचार किया कि इन जैनों के मन्दिरों में नहीं जाना चाहिए, किन्तु ऐसी युक्ति रचें कि हम लोगों की आजीविका जिससे हो। फिर उन्होंने ऐसा प्रपंच रचा कि हमको स्वप्न आया है, उसमें महादेव, नारायण, पार्वती, लक्ष्मी, गणेश, हनुमान, राम, कृष्ण, नृसिंह ने स्वप्न में कहा है कि हमारी मूर्ति स्थापन करके पूजा करें तो पुत्र, धन, नैरोग्यादिक पदार्थों की प्राप्ति होगी। जिस-जिस पदार्थ की इच्छा करेगा, उस-उस पदार्थ की प्राप्ति उसको होगी। फिर बहुत मूर्खों ने मान लिया और मूर्ति स्थापन करने को कोई-कोई घनी पुरुष लगा। फिर पूजा और आजीविका भी उनकी (मूर्तियों की) होने लगी। एक की आजीविका देख के दूसरा भी ऐसा करने लगा। और किसी महाधूर्त ने ऐसा किया कि मूर्ति को जमीन में गाड़ के प्रातः काल उठके कहा कि मुझको स्वप्न हुआ है। फिर उनसे बहुत लोग पूछने लगे कि कैसा स्वप्न हुआ है, तब उसने उनसे कहा कि देव कहता है कि मैं जमीन में गड़ा हूं और दुःख पाता हूं, मुझको निकाल के मन्दिर में स्थापन करें और तू ही पुजारी हो तो मैं सब काम सब मनुष्यों का सिद्ध करूंगा। फिर वे विद्याहीन मनुष्य उससे पूछते थे कि वह मूर्ति कहां है? जो तुम्हारा स्वप्न सत्य है तो तुम दिखलाओ। तब जहां उसने मूर्ति गाड़ी थी वहां सबको ले जाकर भूमि खोद कर वह मूर्ति निकाली। सबने देख के बड़ा आश्चर्य किया और सबने उससे कहा कि तू बड़ा भाग्यवान् है और तुझ पर देवता की बड़ी कृपा है।  इएलिए हम लोग धन देते हैं, इस धन से मन्दिर बनाओ। इस मूर्ति का उसमें स्थापन करो। तुम इसके पुजारी बनो और हम लोग नित्य दर्शन करेंगे। तब तो उसने प्रसन्न होके वैसा ही किया और उसकी आजीविका भी अत्यन्त होने लगी। उसकी आजीविका को देख के अन्य पुरुष भी ऐसी धूर्तता करने लगे और विद्याहीन पुरुष उसकी मान्यता व प्रतिष्ठा करने लगे। फिर प्रायः मूर्ति पूजन आर्यावर्त्त में फैला।

 

               महर्षि दयानन्द ने मूर्ति पूजा के भारत वा आर्यावर्त्त में प्रचलन का यह वृतान्त अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के प्रथम संस्कारण में सन् 1874 में प्रस्तुत किया था। सारा देश जिसमें सभी मूर्ति पूजक भी शामिल है, इन तथ्यों को नहीं जानता। सत्य को जानना मानना तथा असत्य को छोड़ना दूसरों से छुड़वाना ही मनुष्य जीवन का एक उद्देश्य है। इसी उद्देश्य से सत्यार्थ के प्रकाश के लिए महर्षि दयानन्द का यह उपदेश प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है कि पाठक इतिहास के इस भूले बिसरे पृष्ठ को जानकर लाभान्वित होंगे। इसके बाद महर्षि दयानन्द ने विदेशी विधर्मियों के भारत आगमन, मन्दिरों को लूटने और मूर्तियों को तोड़ने आदि की अनेक घटनाओं पर प्रकाश डाला है जिनको आगामी लेखों के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे। 

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

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परोपकारिणी सभा की (गुजरात) वेद प्रचार यात्रा (21-06-2015 से 09-07-2015) – श्री सत्येन्द्र सिंह आर्य

परोपकारिणी सभा के कार्यकारी प्रधान श्री डॉ. धर्मवीर जी एवं मन्त्री श्री ओममुनि जी के नेतृत्व में 30 से अधिक आर्यों का एक दल वेद प्रचारार्थ 21 जून 2015 (रविवार) को अपराह्न में गुजरात के लिए रवाना हुआ। इस कार्यक्रम की पृष्ठभूमि के विषय में कुछ जानकारी देना उचित होगा। परोपकारिणी सभा के सदस्य और आर्यजगत् के प्रतिष्ठित विद्वान्, लेखक, वक्ता और इतिहासज्ञ प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी पिछले तीन चार वर्षों से महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के जीवन चरित पर कार्य कर रहे हैं। दो खण्डों में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का सपूर्ण जीवन चरित्र (मा. लक्ष्मण जी आर्योपदेशक द्वारा लिखित उर्दु जीवन चरित्र का अनुवाद)जिज्ञासु जी के अथक प्रयास का ही सुफल है। इस जीवन-चरित का आज तक उर्दु से हिन्दी में अनुवाद नहीं हुआ था। इस कार्य को करते हुए ऋषि-जीवन विषयक बहुत से नये तथ्य प्रकाश में आए। ईसवी सन् 1874 के सितबर मास के बाद की अवधि की घटनाओं का अध्ययन करते हुए यह तथ्य सामने आया कि अपना गृह-राज्य गुजरात त्यागने के 28 वर्ष पश्चात् स्वामी दयानन्द जी गुजरात गये थे और गुजरात का यह उनका अन्तिम दौरा था। समाज सुधार और पाखण्ड-खण्डन का कार्य ऋषिवर पूर्ण उत्साह से कर रहे थे। उनके जीवन का यह समय बड़ा घटनापूर्ण था। अप्रैल 1875 में आर्यसमाज की स्थापना भी हो गयी । जिज्ञासु जी ने डॉ. धर्मवीर जी से कहा कि अब से 140 वर्ष पूर्व ऋषि ने आर्य समाज की स्थापना सहित समाज सुधार के जो कार्य किये थे उनकी वर्तमान स्थिति वहाँ जाकर देखनी चाहिए और उन आर्यजनों से मिलना चाहिए जो इस समय ऋषि – मिशन का कार्य कर रहे हैं। वेद प्रचार के कार्य के लिए डॉ. धर्मवीर जी की ओर से हर समय हाँ ही हाँ है। उन्होंने तुरन्त सहमति दे दी। 30-35 लोगों का दल साथ लेकर एक मध्यम साइज की बस सहित चार वाहनों से यह प्रचार यात्रा आरभ हुई। यह कार्य लाखों रूपये के व्यय का था। अन्य राज्यों में बस ले जाने पर तीस हजार से ऊपर की राशि तो टैक्स के ही रूप में देनी पड़ी। चुनौतीपूर्ण कार्य करने में डॉ. धर्मवीर जी सदैव उत्साहित और प्रसन्न रहते हैं। सभा ने यह प्रचार कार्य नासिक से आरभ किया क्योंकि स्वामी दयानन्द 1874 के अक्टूबर मास के उत्तरार्द्ध में नासिक पहुँचे थे और महाराजा होल्कर के सबन्धियों के आवास में ठहरे थे। वहां पर स्वामी जी ने पंचवटी में तथा एक नदी के किनारे पर भी व्यायान दिये और कहा कि यदि रामचन्द्र जी अपनी वनवास की अवधि में पंचवटी में ठहरे थे तो उससे यह स्थान तीर्थ कैसे बन गया। पंचवटी को तीर्थ बताकर जो पण्डा वहाँ पर लोगों को ठगते थे उन्हें स्वामी जी ने शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी। परन्तु कोई पण्डित सामने नहीं आया। तब बबई के ‘‘इन्दुप्रकाश’’ समाचार पत्र ने यह समाचार प्रकाशित किया था-

‘‘हमारे शास्त्री न तो सत्य की खोज करते हैं और न उसे स्वीकार करने के इच्छुक हैं इसलिए इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं कि वे स्वामी जी के साथ शास्त्रार्थ करने के लिए सामने नहीं आए। उनकी अदूरदर्शिता और मूर्खतापूर्ण चुप्पी से यही स्पष्ट हुआ कि स्वामी दयानन्द के विचार, विश्वास और सुधार की बातें उन्हें अच्छी नहीं लगीं। स्वामीजी की बौद्धिक शक्ति असाधारण है, उनके व्यायान प्रभावशाली होते हैं और उनकी स्मृति विलक्षण है। अपने सुधार कार्य वे पवित्र शास्त्रों (वेद) के आधार पर करते हैं और संस्कृत के अपने गभीर वैदुष्य का स्वामी जी उपयोग करते हैं। जिस विषय पर वे व्यायान करते हैं तो वेद और धर्म शास्त्रों से इतने प्रमाण देते हैं कि उतने अन्य ग्रन्थों में नहीं है। किसी साधारण पुस्तकालय से इस प्रकार के प्रमाण नहीं मिल सकते।’’

(यह समाचार मूल रूप में अंग्रेजी में है)

“Our Sastris are neither seekers of truth nor willing to accept it. It is therefore, not surprising that they avoided a sastrath with Swamiji. Their shortsightedness and contemptible silence only showed that they disliked Swami Dayanand’s beliefs and reformed views. Swamiji’s mental powers are extraordinary and his speeches are very impressive: his memory is unfailing. In his work of reform, he always relies on the sacred books of the Hindus and makes good us of his profound Sanskrit scholarship. He quotes far more Veda Mantras and the various Dharma Sastras in his lectures than one will find in any treatise on the subject. It is not easy to collect them from an average good library.

उस काल में महर्षि की इसी दिग्विजय की स्मृति में सभा ने यह वेद प्रचार यात्रा निकाली।

यात्रा का आरभ ऋषि उद्यान से 21 जून को अपराह्न हुआ। उस समय अच्छी वर्षा हो रही थी। यात्रा-दल ने 21 जून की रात्रि को उदयपुर में विश्राम किया और 22 जून को वहाँ से चलकर 23 जून को प्रातः नासिक पहुँचा। इस कार्यक्रम में समिलित आर्य जनों में सभा के सदस्य प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी, श्री कन्हैयालाल जी (गुडगाँव), गुरुकुल ऋषि उद्यान के 6-7 विद्यार्थियों को साथ लिए हुए आचार्य श्री सोमदेव जी तथा आचार्य कर्मवीर जी, श्री वासुदेव जी आर्य, ब्र. आचार्य नन्दकिशोर जी और प्रसिद्ध भजनोपदेशक श्री भूपेन्द्र सिंह आदि थे। विक्रय हेतु एवं निःशुल्क वितरण हेतु सभा लाखों रुपये का वैदिक साहित्य साथ लेकर गयी थी। विभिन्न स्थानों पर वेद प्रचार के कार्य को मूर्तरूप देने के लिए यज्ञादि कार्यों को कराने में कुशल ब्रह्मचारीगण, आचार्यगण, एवं भजन-प्रवचन के लिए विद्वज्जन साथ में थे। कार्यक्रम का शुाारभ नासिक से हुआ। आगे का पूरा विवरण माननीय जिज्ञासु जी के शब्दों  में अगले अंक में आपको पढ़ने को मिलेगा।

महर्षि दयानन्द का भारत के यथार्थ इतिहास पर महत्वपूर्ण उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द (1825-1883) का सारा जीवन ईश्वर की खोज, मृत्यु पर विजय, योग, अध्ययन-अध्यापन, उपदेश, वेद-धर्म प्रचार, शास्त्रार्थ, समाज सुधार व अनुमानतः सन् 1857 के देश की आजादी के लिए संग्राम में गुप्त रूप से कार्य करने में व्यतीत हुआ था। महर्षि दयानन्द बाल ब्रह्मचारी थे। वह जन्म से ही प्रतिभाशाली, सुदृण व स्वस्थ शरीर, गौर वर्ण, आकर्षक व्यक्तित्व वाले व सत्य के प्रति दृण आस्थावान थे। महर्षि दयानन्द जी की मातृभाषा गुजराती थी। उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया था और इस भाषा के वार्तालाप, प्रवचन-उपदेश करने व लेखन करने में उन्हें पूरा अधिकार व सिद्धहस्ताता प्राप्त थी। महाभारत काल के बाद देश के वेदों के वह शीर्षस्थ विद्वान थे। उनकी तुलना का वेदों का विद्वान महाभारत काल व उनसे पूर्व व अद्यावधि भी इतिहास के पन्नों पर अंकित नहीं है। वेद ही उनके जीवन का आधार था। उनके सभी कार्य वेदों से प्रेरित व संचालित थे। उन्होंने मध्याकालीन व बाद के ब्राह्मणों ने वेदों के जो मिथ्यार्थ कर उसे कलंकित किया था, उस कलंक को पूरी तरह धोकर शुद्ध व निर्मल स्वरूप प्रदान किया। आज स्थिति यह है कि वेदों की अन्तःसाक्षी के आधार पर कहा जा सकता है कि वेदों के समान कोई भी धर्म-मत-सम्प्रदाय का ग्रन्थ इस पृथिवी पर नहीं है। वेद सर्वोपरि हैं एवं सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है, वेद का पढ़ना-पढ़ाना व सुनना-सुनाना ही एकमात्र परम पुनीत मानव मात्र का यथार्थ धर्म है। वह जहां भी जाते थे, शुद्ध व सरल संस्कृत ही बोला करते थे। यद्यपि सभी विद्वान संस्कृत समझते थे परन्तु जब वह साधारण जनता में संस्कृत में उपदेश करते थे तो उन्हें संस्कृत से हिन्दी के अनुवादक की आवश्यकता होती थी। इस कार्य के लिए वह पौराणिक विद्वानों की सेवायें लेते थे जो स्वामी जी के कहे गये शब्दों को ही अनुवाद न कर उनके विचारों को अपनी मान्यताओं के अनुरूप तोड़ते मरोड़ते थे। अतः ब्रह्म समाज के नेता श्री केशवचन्द्र सेन के परामर्श पर उन्होंने आर्यभाषा हिन्दी का प्रयोग करना आरम्भ किया। इसके कुछ काल बाद उन्होंने अपना मुख्य दिव्य ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश प्रकाशित कराया। यह ग्रन्थ उनके द्वारा पण्डितों को बोलकर लिखाया गया था। लेखन के लिए उनके पास ब्राह्मण लेखक थे जिन्होंने यत्र तत्र उनके बोले गये अभिप्राय के विरूद्ध अपनी मान्यताओं के वाक्यों को प्रविष्ट कर दिया। स्वामी जी के पास अवकाश न होने के कारण न तो वह इस ग्रन्थ को लिखवाने के बाद उन लेखकों से सुन पाये और न हि छपने से पूर्व प्रूफ देख पाये थे। इस कारण प्रकाशित होने के पश्चात पाठकों ने उन्हें कुछ अशुद्धियां अवगत कराई थी। इस मुख्य व अन्य कुछ कारणों से उन्होंने कुछ समय बाद इस ग्रन्थ का दूसरा शुद्ध संशोधित संस्करध्स भी तैयार कर प्रकाशित कराया जो आजकल सर्वत्र उपलब्ध होता है। प्रथम संस्करण को आदिम सत्यार्थ प्रकाश भी कहा जाता है। इसी प्रथम संस्करण से हम आज उनका एकादश समुल्लास में प्रस्तुत देश के प्राचीन यथार्थ इतिहास पर एक धर्मोदेश प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे पाठक इतिहास विषयक कुछ नये तथ्यों से न केवल परिचित हो सकें अपितु महर्षि के इतिहास विषयक ज्ञान व उनकी भाषा से भी कुछ कुछ परिचित हो सकें। इस लेख के शेष भाग आगे के लेखों में जारी रखेंगे।

 

उनका धर्मोपदेश प्रस्तुत है-सरस्वतीदृषद्वत्योदेवनद्योर्यदन्तरम्। तं देवनिर्मितं देशमार्यावर्त्तं प्रचक्षते। (मनुस्मृति 2/17) सरस्वती जो कि गुजरात और पंजाब के पश्चिम भाग में नदी है, उससे लेके नैपाल के पूर्वभाग की नदी से लेके समुद्र तक इन दोनों के बीच में जो देश है, सो आर्यावर्त्त देश है और वे देवनदी कहाती है। अर्थात् दिव्य देश के प्रान्त भाग में होने से देव नदी इनका नाम है। सो देश देव निर्मित है अर्थात् दिव्य गुणों से रचित है, क्योंकि भूगोल के बीच में ऐसा श्रेष्ठ देश कोई नहीं है, जिस देश में सब श्रेष्ठ पदार्थ होते हैं और छः ऋतु यथावत् वर्तमान होते हैं और केवल सुवर्ण रत्न पैदा होते हैं। इस देश में जिसका राज्य होता है, वह दरिद्र होय तो भी धन से पूर्ण हो जाता हैै। इसी हेतु इसका नाम आर्यावर्त्त है, आर्य नाम श्रेष्ठ मनुष्य और श्रेष्ठ पदार्थ इनसे युक्त अर्थात् आर्यावर्त्त है। इस हेतु इस देश का नाम आर्यावर्त कहते हैं।

 

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।

                        स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।। (मनुस्मृति 2/20)

 

इस देश में अग्रजन्मा नाम सब श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न जो पुरुष उत्पन्न होवें (उनका है), उससे सब भूगोल की पृथिवी के मनुष्य शिक्षा अर्थात् विद्या तथा संसार के सब व्यवहारों का यथावत् विज्ञान (प्राप्त) करें। इससे क्या जाना जाता है कि प्रथम इस (देश) में मनुष्यों की सृष्टि भई (हुई) थी। पीछे सब द्वीप-द्वीपान्तर में सब मनुष्य फैल गए, क्योंकि पृथिवी में जितने मनुष्य हैं, वे इस देश वालों से विद्यादिक शिक्षा ग्रहण करें और सब देश भाषाओं का मूल जो संस्कृत (है) सो आर्यावर्त्त ही में सदा से चला आता है। आजकाल भी कुछ-कुछ देखने में आता है, परन्तु फिर भी सब देशों में संस्कृत का प्रचार अधिक है। जर्मनी और विलायत आदिक देशों में संस्कृत के पुस्तक इतने नहीं मिलते जितने कि आर्यावत्र्त देश में मिलते हैं और जो किसी देश में संस्कृत के बहुत पुस्तक होंगे सो आर्यावर्त्त ही से लिए होंगे, इसमें कुछ सन्देह नहीं। सो इस देश से मिश्र देश वालों ने पहिले विद्या ग्रहण की थी। उससे यूनान देश, उससे रूम, फिर रूम से फिरंग (अंगे्रज) स्थान आदि में विद्या फैली है। परन्तु संस्कृत के बिगड़ने से गिरीश (ग्रीस), लाटीन, अंगरेज और अरब देश वालों की भाषा बन गई हैं। सो इनमें अधिक लिखना कुछ आवश्यक नहीं क्योंकि इतिहासों के पढ़ने वाले सब जानते हैं और पता भी ऐसा ही मिलता है। एक गोल्ड्स्टकर साहेब ने पहिले ऐसा ही निश्चय किया है कि जितनी विद्या वा मत फैले हैं, भूगोल में, वे सब आर्यावर्त्त ही से लिए हैं। और काशी में वालेण्टेन् साहेब ने यही निश्चय किया है कि संस्कृत सब भाषाओं की माता है। तथा दाराशिकोह बादशाह ने भी यह निश्चय किया है कि जो विद्या है सो संस्कृत ही है क्योंकि मैंने सब देशों की भाषाओं का पुस्तक देखा तो भी मुझको बहुत सन्देह रह गए, परन्तु जब मैंने संस्कृत देखा तब मेरे सब सन्देह निवृत्त हो गए और अत्यन्त प्रसन्नता मुझको भई। और काशी में मान मन्दिर जो रचा है, उसमें महाराज सवाई मानसिंह जी ने खगोल के कला और यन्त्र ऐसे रचे थे कि जिस में खगोल का सब हाल देख पड़ता था। परन्तु आजकाल उसकी मरम्मत न होने से बहुत कला यन्त्र बिगड़ गए हैं तो भी कुछ-कुछ देख पड़ता है। फिर आजकाल महाराज सवाई रामसिंह जी ने कुछ मरम्मत स्थान की कराई है जो उस यन्त्र की भी करावेंगे तो कुछ रोज (काली तक) बना रहेगा, अन्यथा नहीं।

 

जबसे महाभारत युद्ध भया (हुआ) है उस दिन से आर्यावर्त्त को बुरी दशा आई है सो नित्य-नित्य बुरी ही दशा होती जाती है। क्योंकि उस युद्ध में अच्छे-अच्छे विद्वान् राजा और ब्राह्मण लोग प्रायः मारे गए। फिर कोई राजा पूर्ण विद्या वाला इस देश में नहीं भया। जब राजा, विद्वान् और धर्मात्मा नहीं भया, तब विद्या का प्रचार भी नष्ट होता चला (गया)। फिर कुछ दिन के पीछे आपस में लड़ने लगे, क्योंकि जब विद्या नहीं होती तब ऐसे ही बहुत प्रमाद होते हैं। जो कोई प्रबल भया, उसने निर्बल का राज छीन के उसको मारा। फिर प्रजा में भी गदर होने लगा कि जहां जिसने जितना पाया, उसका वह राजा वा जमींदार बन बैठा। फिर ब्राह्मण लोगों ने भी विद्या का परिश्रम छोड़ दिया। पढ़ना पढ़ाना भी नष्ट होता चला। जब ब्राह्मण लोग विद्याहीन होते चले, तब क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र भी विद्याहीन होते चले, केवल दम्भ, कपट और छल ही से व्यवहार करने लगे। फिर जितने अच्छे काम होते थे वे सब बन्ध (बन्द) होते चले। वेदादिक विद्या का प्रचार भी बहुत थोड़ा होता चला गया।

 

फिर ब्राह्मण लोगों ने विचार किया कि आजीविका की रीति निकालनी चातिहए, सो सम्मति करके यही विचार किया कि ब्राह्मण वर्ण में जो उत्पन्न होता है सोई (वही) देव है, सबका पूज्य है, क्योंकि पूर्ण विद्या से ब्राह्मण वर्ण होता है। यह वर्णाश्रम की सनातनी रीति है, सोई ऋषि मुनियों के पुस्तकों में भी लिखी है। सो विद्यादिक गुणों से तो वर्ण व्यवस्था नहीं रक्खी, किन्तु कुल में जन्म होने से वर्ण व्यवस्था प्रसिद्ध कर दी है। फिर जन्म ही से ब्राह्मणादिक वर्णों का अभिमान करने लगे। फिर विद्यादिक गुणों में पुरुषार्थ सबका छूटा, उसके छूटने से प्रायः राजा और प्रजा में मूर्खता अधिक-अधिक होने लगी। फिर उन्हीं से ब्राह्मण लोग अपने चरण और शरीर की पूजा कराने लगे। जब पूजा होने लगी तब अत्यन्त अभिमान उनमें होने लगा। उन विद्याहीन राजाओं को और प्रजास्थ पुरुषों को (अपने) वशीभूत ब्राह्मणों ने कर लिए। यहां तक कि सोना, उठना और कोस दो कोस तक जाना, वह भी ब्राह्मणों की आज्ञा के विना नहीं करना और जो कोई करेगा सो पापी हो जायगा। फिर शनैश्चरादिक ग्रह और नाना प्रकार के भूत प्रेतादिकों का जाल उनके ऊपर फैलाने लगे और वे मूर्खता के होने से मानने भी लगे। फिर राजा लोगों को ऐसा निश्चय सब लोगों ने मिल के कराया कि ब्राह्मण लोग कुछ भी करें, परन्तु इनको दण्ड न देना चाहिए। जब दण्ड नहीं होने लगा, तब ब्राह्मण लेाग अत्यन्त प्रमाद करने लगे और क्षत्रियादिक भी। फिर बड़े-बड़े ऋषि मुनि और ब्रह्मादिक के नामों से श्लोक और ग्रन्थ रचने लगे, उनमें प्रायः यही बात लिखी कि ब्राह्मण सब का पूज्य और सदा अदण्ड्य है। फिर अत्यन्त प्रमाद और विषयासक्ति से विद्या, बल, बुद्धि पराक्रम और शूरवीरता नष्ट हो गई और परस्पर ईर्ष्या (में वृद्धि) अत्यन्त हो गई। किसी को कोई (सहानुभूतिपूर्वक) देख न सके और कोई कोई के (अन्य किसी के) सहायकारी न रहे, परस्पर लड़ने लगे। यह बात चीन आदिक देशों में रहने वाले जैनों ने सुनी और व्यापारादिक करने के हेतु (जो) इस देश में आते थे सो (उन्होंने) प्रत्यक्ष भी देखी। फिर जैनों ने विचार किया कि इस समय आर्यावर्त्त देश में राज्य सुगमता से हो सकता है फिर वे (चीन से?) आए और राज्य भी आर्यावत्र्त में करने लगे। फिर धीरे-धीरे बोधगया में राज्य जमाके और (उसे) देश-देशान्तर में फैलाने लगे। सो वेदादिक संस्कृत पुस्तकों की निन्दा करने लगे और अपने पुस्तकों के पठन पाठन का प्रचार तथा अपने मत का उपदेश भी करने लगे। सो इस देश में विद्या के नहीं होने से बहुत मनुष्यों ने उनके मत को स्वीकार कर लिया। परन्तु कन्नौज, काशी, पर्वत, दक्षिण और पश्चिम देश के पुरुषों ने स्वीकार नहीं किया था, परन्तु वे बहुत थोड़े ही थे। फिर इन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था और वेदोक्त, कर्मों को मिथ्या-मिथ्या दोष लगा के अश्रद्धा और अप्रवृति बहुत करा दी। फिर यज्ञोपवीतादिक कर्म भी प्रायः नष्ट हो गया और जो-जो वेदादिकों का पुस्तक पाया और पूर्व के इतिहासों का, उनका प्रायः नाश कर दिया। जिससे कि इनको पूर्व अवस्था का स्मरण भी न रहे।

 

फिर जैनों का राज्य इस देश में अत्यन्त जम गया। तब जैन भी बड़े अभिमान में हो गए और कुकर्म, अन्याय भी करने लगे, क्योंकि सब राजा और प्रजा उनके मत में ही हो गए, फिर उनको डर वा शंका किसी की न रही। अपने मतवालों को अच्छे-अच्छे अधिकार और प्रतिष्ठा करने लगे और वेदादिकों को पढ़े तथा उनमें कहे कर्मों को करें, उनकी अप्रतिष्ठा करने लगे। अन्याय से भी उनके ऊपर जाल (मिथ्या आरोप) स्थापन करने लगे। अपने मत के पण्डित वा साधु की बड़ी प्रतिष्ठा करने लगे, सो आज तक भी ऐसा करते हैं। और बहुत स्थान-स्थान में बड़े-बड़े मन्दिर रच लिए और उनमें अपने आचार्यों की मूर्ति स्थापन कर दी तथा उनकी पूजा भी अत्यन्त करने लगे। सो जैनों के राज्य ही से मूर्ति पूजन चला, इसके आगे (पूर्व) न था। क्योंकि जितने ऋषि मुनियों के किए प्राचीन ग्रन्थ हैं, महाभारत युद्ध के पहिले जो कि रचे गए हैं, उनमें मूर्तिपूजन का लेशमात्र भी कथन नहीं है। इससे दृढ़ निश्चय से जाना जाता है इस आर्यावर्त्त देश में (इनसे पूर्व) मर्तिपूजन नहीं था, किन्तु जैनों के राज्य से ही चला (मूर्तिपूजा की प्रवृत्ति हुई) है।

 

आज के इस लेख में महर्षि दयानन्द ने इतिहास के अनेक तथ्यों का प्रतिपादन किया है जो अन्यत्र असुलभ है। मातृ भाषा गुजराती व संस्कृत के विद्वान होने तथा सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण लिखने तक हिन्दी भाषा का अभ्यास न होने के कारण भाषा वर्तमान की अपेक्षा कुछ असहज है। पाठक इसे पढ़कर इतिहास के तथ्यों से परिचित होंगे। इसी प्रकार के अनेक तथ्यों से हम कल के लेख में परिचय करायेंगे। आशा है पाठकों का इससे ज्ञानवर्धन होगा और वह इसे सत्य व उपयोगी पायेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘उल्लास’ – देवनारायण भारद्वाज

विश्वकर्मा विमनाऽआद्विहाया धाता विधाता परमोत सन्दृक्। तेषमिष्टानि समिषा मदन्ति यत्रा सप्तऽऋषिन् परऽएक माहुः।

 

उपवास मिल गया उसका, अब और कौन आभास चाहिए।

विश्वास मिल गया उसका,अब और कौन उल्लास चाहिए।।

 

ईश्वर सर्वज्ञ विश्वकर्मा

विज्ञान विविध का शिवशर्मा

सर्वव्याप्त है निर्विकार वह

जग कर्त्ता धर्त्ता सध्दर्मा

 

आकाश मिल गया उसका, अब और कौन अवकाश चाहिए।

विश्वास मिल गया उसका,अब और कौन उल्लास चाहिए।।

 

परमेश जगत निर्माता है

वह धाता और विधाता है

सब पाप पुण्य वह देख रहा

वह यथायोग्य फल दाता है

 

सहवास मिल गया उसका, अब और कौन वातास चाहिये।

विश्वास मिल गया उसका, अब और कौन उल्लास चाहिये।।

 

अद्वितीय एक प्रभु ने जगका

निर्माण किया इस जगमग का

ऋषि सप्तशक्ति में उसकी हैं

करता संचालन रग-रग का

 

मधु हास मिल गया उसका, अब और कौन मधुमास चाहिए।

विश्वास मिल गया उसका, अब और कौन उल्लास चाहिए।।

– अवन्तिका प्रथम, रामघाट मार्ग, अलीगढ़, उ.प्र.-202001

वैदिक दर्शन की विशेषताएँ – पं. गंगा प्रसाद जी उपाध्याय

[लगभग 8 दशक पूर्व का यह लेख आज भी प्रासंगिक है। इसलिए पाठकों के लााार्थ प्रस्तुत है – सपादक ]

आजकल ‘वैदिक दर्शन’ एक अनिश्चित शद है। अति प्राचीन काल में निश्चित रहा होगा। जिस प्रकार आजकल गंगा की नहर और उस नहर से निकली हुई सहस्त्रों कूलों का पानी भी गंगाजल नाम से ही प्रसिद्ध है चाहे उसमें कितने ही बाहर के नालों का गंदा पानी मिला हो इसी प्रकार प्रत्येक सप्रदाय जो वेदों को तत्वतः अथवा दिखाने के लिये अपने धर्म का मूल स्रोत मानता है उस का दर्शन भी वैदिक दर्शन है। शंकर का अद्वैतवाद वैदिक दर्शन है। रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद वैदिक दर्शन है। निबार्क का द्वैताद्वैतवाद वैदिक दर्शन है। और ऐसे ही मत हैं जिसके अनुसार वेदों में अनीश्वरवाद का प्रतिपादन है। बौद्ध और जैन तो अपने दर्शनों को वैदिक दर्शन नहीं मानते । परन्तु भारतीय अन्य सब दर्शन वैदिक कहलाते हैं। और उन में दर्शन के वे सब गुण और दोष पाये जाते हैं जो किसी देश या किसी युग के दर्शनों में देखे जा सकते हैं। इसके तीन मुय कारण हैंः-

(1)वेदों की सर्वप्रियता जिन से वेद सर्वथा भुलाये न जा सके।

(2)वैदिक सयता की अति प्राचीनता और उसमें कालान्तर में प्रक्षेप और मिलावट।

(3)आर्य परपरा का त्रुटिकरण।

ऋग्वेद का नासदीय सूक्त वैदिक दर्शन का एक सर्वसमत उच्चकोटि का नमूना गिना जाता है। परन्तु उसके अर्थ भिन्न-भिन्न विद्वानों ने अपने-अपने मत के अनुसार भिन्न-भिन्न किये हैं। ज्यूसन, मैक्समूलर, तिलक तथा अन्य विद्वानों के भाष्य अवलोकन कीजिये मैंने भी सन् 1928 ई. में अपनी पुस्तक ‘अद्वैतवाद’ में इस सूक्त का उस प्रकार से अर्थ किया था जो मैं ठीक समझता हूँ। क्योंकि मेरे लिये तो ‘‘वैदिक दर्शन’’ वही है जो संकुचित परन्तु वास्तविक अर्थ में ‘दयानन्द दर्शन’ कहा जा सकता है। इसलिये इस लेख में ‘वैदिक दर्शन’ की विशेषतायें वही दृष्टिगोचर पड़ेंगी, जो दयानन्द दर्शन की हैं। 1951 ई. के दिसबर मास में रंगून विश्वविद्यालय के एक साँस्कृतिक उत्सव के समय मैंने A bird’s eyeview of Vedic Philosophy, पर एक लेख पढ़ा था जो वहाँ की पुस्तिका में प्रकाशित हुआ था। वहाँाी मैंने यही दृष्टिकोण उसका रक्खा था। परन्तु पीछे से मुझे ऐसा भान हुआ कि जब तक हम ‘दयानन्द दर्शन’ को विशेष रूप से जनता के समक्ष न लावें ‘वैदिक दर्शन’ से लोगों में भ्रम ही उत्पन्न होता रहेगा। अतः सप्रति मैं अंग्रेजी में जो ग्रन्थ लिख रहा हूँ उसका नाम ‘वैदिक फिलासफी’ न रखकर ‘‘फिलासफी ऑफ दयानन्द’’ रक्खा है। मेरे लिये वैदिक फिलासफी और दयानन्द फिलासफी पर्याय वाचक शद हैं, परन्तु सब के लिए नहीं। आज कल वैदिक फिलासफी सनातन धर्म की फिलासफी है। जिस में हर मत के पबन्द लगे हुये हैं। और यूरोप के दर्शनकार भी यही मानते हैं।

इस छोटे से लेख में तो वैदिक फिलासफी की भूमिका भी नहीं दी जा सकती। उसकी विशेषतायें कैसे बताई जा सकती हैं और जब तक उन विशेषताओं की व्याया न की जाय लोगों को विशेषताओं का पता ही कैसे चले? स्वामी दयानन्द ने वैदिक दर्शन पर अलग पुस्तक नहीं लिखी वह तो समस्त मूल षट्दर्शनों और मौलिक उपनिषदों को ‘वैदिक दर्शन’ मानते रहे फिर भी उन्होंने अपने ग्रन्थों में अन्य व्यावहारिक समस्याओं का उल्लेख करते हुए वैदिक दर्शन की इतनी विशेषतायें लिखी हैं कि आश्चर्य होता है। मैं जब ‘फिलासफी ऑफ दयानन्द’ लिखने बैठा तो मेरी धारणा थी कि 100 पृष्ठ भी पर्याप्त होंगे परन्तु ज्यों-ज्यों सामग्री एकत्रित करता गया अनेक बातें उपलध होती रहीं। जिनकी ओर पाठकों का समान्यतया ध्यान नहीं गया और यदि गया भी हो तो  उसकी विशेषता का अनुभव नहीं किया। अब मैं असमंजस में हूँ कि क्या छोडूं और क्या लिखूं। पुस्तक 500 पृष्ठ से अधिक की हो गई, बड़े आकार की। 400 के लगभग पृष्ठ छप चुके अभी सामग्री पर्याप्त शेष है । उसे शीघ्र ही समाप्त करना चाहता हूँ।

वैदिक दर्शन की अनेक विशेषतायें हैं। प्रथम तो नाम पर ही विचार कीजिये। अंगरेजी में दर्शन के लिये फिलासफी शद का प्रयोग होता है। यह ग्रीक (यूनानी) शद है और इसका अर्थ है लव ऑफ विज्डम (Love of Wisdom)  या बुद्धि प्रेम। सन्स्कृत का ‘दर्शन’ शद अधिक सारगर्ाित है। दर्शन का अर्थ है देखना। (दृश धातु से) दर्शन की सार्थकता निर्भर है द्रष्टा और दृश्य पर। यदि द्रष्टा मिथ्या है तो दर्शन कैसा और यदि दृश्य मिथ्या तो दर्शन का क्या अर्थ? अतः दर्शन शद ही प्रकट् करता है कि द्रष्टा और दृश्य जीव और जगत् की सत्ता को स्वीकार करते हैं। यदि शंकर स्वामी ने जगत् को मिथ्या कहा, तो मिथ्या का दर्शन ही क्या। और यदि दृश्य कुछ न रहा  तो न दर्शन रहा न द्रष्टा। ऋषि दयानन्द ने इसीलिये वेद के ‘द्वा सुपर्णा’ इस मन्त्र का उद्धरण देकर के जीव, ब्रह्म और जड़ जगत् तीनों की सत्ता स्वीकार की है, वैदिक दर्शन द्वैत दर्शन है इस अर्थ में कि वह चेतन और जड़ देानों संज्ञाओं को वास्तविक मानता है, इस को आप इस अर्थ में त्रैतवाद भी कह सकते हैं कि यह ईश्वर, जीव तथा प्रकृ ति तीन अनादि पदार्थों को मानता है। इस को ‘बहुत्ववाद’ाी कह सकते हैं कि क्योंकि यह जीवों और परमाणुओं के बहुत्व को मानता है।

प्रायः दर्शन की विशेषता यह मानी जाती है कि अनेकत्व में एकत्व को देखा जाय। वैसा वेद में लिखा हैः-

अस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।

सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विचिकित्सति।।

अर्थात् जो सब भूतों को आत्मा में और आत्मा को सब भूतों में ओत प्रोत देखता हैं वह कभी दुःख नहीं पाता (यजुर्वेद अ. 40, मन्त्र 6)परन्तु जो लोग इस का अर्थ यह लेते हैं कि अनेकत्व (Diversity)मिथ्या है और एकत्व (Unity) सत्य है, वह वेद के आशय को नहीं समझते। अनेकत्व में एकत्व (Unity in Diversity) कैसे देखा जाय यदि अनेकत्व मिथ्या हो। अधिकरण के मिथ्या होने से अधिकृत भी मिथ्या होगा। आर्य दर्शन यही है कि जगत् को मिथ्या न माना जाय। महर्षि व्यास ने वेदान्त का पहला सूत्र लिखा।

अथातो ब्रह्म जिज्ञासा।

अब ब्रह्म के जानने की जिज्ञासा है

फिर ब्रह्म के लक्षण किएः-

जन्मा द्यस्य यतः।

अर्थात् ब्रह्म वह है जिससे जगत् की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय हो।

यदि जगत् मिथ्या है तो उसकी उत्पत्ति कैसी? और स्थिति कैसी? एकतत्ववादी यह नहीं समझते कि अनेक तत्व न हों तो एक तत्व का भी क्या मूल्य? दार्शनिक जगत् में ‘एकत्व’ के कई समुदाय पाए जाते हैं। जैसे

(1) कारणैक्यवाद अर्थात् केवल एक ही वस्तु है, अन्य सब उसी एक मूल से बना है इसके दो रूप  हैं एक अद्वैकवाद अर्थात् के वल जड़ प्रकृति से ही जगत के समस्त व्यापारों की सिद्धि। दूसरा ‘चेतनैकवाद’ अर्थात् एक चेतन से जड चेतन दोनों की उत्पत्ति या व्याया।

इन दोनों भेदों में अनेक उलझनें हैं जिनके दोषों के  दूर करने के लिए अनेक सप्रदाय बन गए हैं। परन्तु वे उलझनें सुलझने में नहीं आ सकी।

(2) वस्त्वैक्यवाद। इनका मत है कि वस्तु केवल एक है। अनेकत्व मिथ्या है। प्रतीत मात्र है। ऋषि दयानन्द ने ठीक कहा है कि यदि एक ही वस्तु सत्य है तो वह सत्य को कैसे देख सकता है। मिथ्या दर्शन या मिथ्या प्रतीत के लिए भी तो कोई कारण होना चाहिए जो केवल एक ब्रह्म से सिद्ध नहीं होता।

(3) ईश्वरैक्यवाद यह वैदिक वाद है। इसमें जगत् को सत् तथा नाना मानकर उसमें एक ईश्वर की व्यापकता और प्रमुखता बताई गई है। दयानन्द दर्शन का यह एक मौलिक सिद्धान्त है। मोटे शदों में इस दर्शन की यथार्थता के अतिरिक्त उपयोगिता भी हैः-

(1) इन्द्रिय जन्य ज्ञान को मिथ्या, अतथ्य, अथवा स्वप्नवत् मानने से जगत् का समस्त व्यापार विज्ञान, कला कौशल, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, यज्ञ, अध्ययन, दान आदि धर्माङ्ग सब व्यर्थ हो जाते हैं। वैदिक दर्शन, न इन्द्रिय को अतथ्य मानता है, न इन्द्रिय जन्य ज्ञान को। भ्रम ज्ञान का अभाव नहीं अपितु दुष्ट ज्ञान हैं जिनका अर्थ हुआ अल्प या सीमित ज्ञान। जगत् मिथ्यात्व में तो ज्ञान का मिथ्यात्व भी नहीं घटता। ऋषि दयानन्द की बड़ी जबरदस्त पकड़ यह है कि तुम रस्सी में सांप की भ्रान्ति कर ही नहीं सकते जब तक अन्यत्र कहीं सर्प की सत्ता को न मानो।

(2) वैदिक दर्शन लेाक की सत्ता स्वीकार करके लौकिक उन्नति को परलोक यात्रा का साधन बना देता है। बुद्धि की तुच्छता के कारण केवल लोकवादी लोकायतों और केवल परलोकवादी लोकायतों में जो अनेक रूपों वाला युद्ध छिड़ता रहा है उसको दूर करना केवल वैदिक दर्शन (दयानन्दीय दर्शन) से ही सभव है।

(3) अवैदिक दर्शनों में एकान्तता का दोष है। जड़ प्रकृति या मैटर मानने वालों ने आत्मा या परमात्मा की चेतन सत्ताओं का निषेध करके न केवल दार्शनिक अपितु व्यावहारिक समस्यायें उत्पन्न कर दी है। जिनका मनुष्य के आचारशास्त्र पर बुरा प्रभाव पड़ा है मनुष्य असत्य और हिंसा के चंगुल में फंस गया है। इसी प्रकार प्रकृति का निषेध करके अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि सप्रदायों ने जीव को जीवत्व के उच्च पद पर से गिरा दिया है।  इससे भी आचारशास्त्र को हानि हुई है।

(4) गत दो शतादियों के पश्चिमी दार्शनिक विद्वान इन्हीं दोषों को दूर करने का असफल प्रयास करते रहे हैं। परन्तु इस असफलता का मुय कारण है वे पुराने विचार जो परंपरा से उनको दाय भाग में मिले हैं और छोड़ने पर भी नहीं छूटते। भारतीय वर्तमान विद्वानों का भी यही हाल है। जो शंकर, रामानुज लिख गए वह वायु मन्डल में प्रसारित हो गया। हम उससे मुक्त नहीं हो सकते। जो पश्चिमी दर्शन पर प्लैटो या अरस्तु का प्रभाव है वह भारत पर शंकर और रामानुज का है।

आवश्यकता है कि दयानन्द दर्शन की विस्तृत व्याया करके  इन जटिल समस्याओं को सुलझाने का यत्न किया जाय। जब तक वैदिक दर्शन यथार्थ रूप में विचार के समक्ष नहीं जाएगा, मानवी जीवन की व्यावहारिक समस्यायें उलझी रहेंगी  और शान्ति तथा उन्नति दोनों में बाधा होगी।

हीगल एवं कार्ल्स मार्क्स मूल तत्व से दूर थे |

कहा जाता है कि कार्ल मार्क्स ने अपने दर्शन की प्रेरणा हीगल से ली। हीगल जडवादी न था,परन्तु उसकी युक्ति सरणी वही थी जिसको कार्ल मार्क्स ने अपनाया।कार्ल मार्क्स का दावा है कि उसने हीगल के त्रुटिपूर्ण सिद्धांत को युक्ति संगत कर दिया। हीगल सृष्टि मे तीन वस्तुओं को देखता है -वृत्ति,वृत्ति निग्रह वृत्ति समन्वय। अपनी laider s social economics moments infra p.123 मे लिखता है कि – ” hegal s dialectic method conceived that change took place through the struggle of antagonistic elements, and the resolution of these contradictory elements into synthesis, the first two elements forming  new concept by virtue of their union…
the thing on being against which the contradiction operated be called the positive ,the antaginisite or thesis was the negation. to hegal the contradiction ,antithesis or nagation was the ‘source of all movent and life ,only in so far as it contains a contradiction can anything have movement ,power and effect ,” A continued operation of the negation led to the negation of negation or synthesis.. ” इस सृष्टि मे एक घटना होती है।फिर उस घटना का विरोध होता है। इससे प्रगति ओर जीवन बनता है।उस विरोध का फिर विरोध होता है।इस प्रकार जीवन समन्वित होता है। अर्थात् सृष्टि के मूल तत्वों को हीगल ने गति,विरोध,ओर समन्वय से परिणत करके विरोध ओर समन्वय से परिणित कर विरोध को मुख्य ठहराया। इसी सिद्धांत को मार्क्स ने सीधा खडा कर दिया। मार्क्स का कहना था कि हीगल के सिद्धांत मे जो वक्रता थी उसे उसने ऋजु कर दिया।परन्तु वास्तविक बात यह है कि न हीगल ने मूल तत्वों की खोज की न मार्क्स ने।ऊपरी घटना पर दृष्टि पाात करने पर मूल तत्व का पता नही चलता है।जिसको तुम ‘विरोधिनी प्रवृत्तियाँ ‘कहतेहो वे पूरक है विरोधी नही।इसका निश्चय तो प्रयोजन पर दृष्टि रखने से हो सकता है।वैज्ञानिक लोग मानते हैं किबीज सडकर ही वृक्ष का निर्माण कर सकता है,इसलिए सडना मूलतत्त्व है।यह है मूल ।”जिस को तुम सडना कहते हो या विनाश कहते हो वह वस्तुत विनाश नही अपितु मूल अंकुर के ऊपर के खोल उतरना है जिससे अंकुरमे स्वतंत्रता से कार्य करने का अवसर मिल जाय। यदि बीज को बोने से बीज का विनाश ही अभिप्रेत होता तो बीज को भुन डालने से भी वृक्ष की उत्पत्ति हो सकती।
जिसको आप सृष्टिक्रम का विरोध कहते है वह वस्तुत विरोधाभास है | विरोध के इस सिद्धांत में कोमुनिस्ट को विरोधप्रिय बना दिया | यह विरोधप्रियता कम्यूनिस्टो के हर काम में पायी जाती है | वह जितना बिगाड़ते है उतना बनाते नही है | क्रान्ति या विरोध उनके समस्त आन्दोलन का मूल है | यह वेद के सर्वथा विरुद्ध है | वेद का अनुयायी सृष्टि पर दृष्टि डालकर ओर हर वस्तु में प्रयोजन बतलाकर ओर समता देख ईश्वर से प्रार्थना करता है –
सा मा शान्तिरेधि -यजु ३६/१७ 
है ईश्वर ,वही शान्ति मुझे प्रदान कर |
-गंगा प्रसाद उपाध्याय (गंगा ज्ञान धारा से)

‘मैं और मेरा धर्म’ -मनमोहन कुमार आर्य।

मैं कौन हूं और मेरा धर्म क्या है? इस विषय पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि मैं एक मुनष्य हूं और मनुष्यता ही मेरा धर्म है। मनुष्य और मनुष्यता पर विचार करें तो हम, मैं कौन हूं व मेरे धर्म मनुष्यता का परिचय  जान सकते हैं। इसी पर आगे विचार करते हैं। मनुष्य मननशील होने स्वात्मवत दूसरों के सुखदुःख हानि लाभ को समझने के कारण ही मनुष्य कहलाता है। यदि हम मनुष्य होकर मनन न करें तो हम मनुष्य नहीं अपितु पशु समान ही होंगे क्योंकि पशुओं के पास मनन करने वाली बुद्धि नहीं है। वह कुछ भी कर लें किन्तु मनन, विचार, चिन्तन, सत्य व असत्य का विश्लेषण आदि नहीं कर सकते। अब प्रश्न उपस्थित होता है कि मनन किससे होता है और मनन की प्रेरणा कौन करता है? इसका उत्तर यह है कि हमारे शरीर में मस्तिष्कान्तर्गत बुद्धि तत्व, इन्द्रिय नहीं अपितु इनसे मिलता जुलता एक अलग उपकरण वा अवयव है, जो सत्य व असत्य, उचित व अनुचित का चिन्तन व विचार करता है, इसी को मनन करना कहते हैं। बुद्धि नामक यह उपकरण जड़ सूक्ष्म प्रकृति तत्व की विकृति है। यह मैं व हम से भिन्न सत्ता है। मैं व हम एक चेतन, सूक्ष्म, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, अल्प-परिणाम, अनादि, अजन्मा, अमर, नित्य, अजर, शस्त्रों से अकाट्य, अग्नि से जलता नहीं, जल से भीगता नहीं, वायु से सूखता नहीं, कर्म-फल चक्र में बन्धा हुआ, सुख-दुःखों का भोगता, जन्म-मरणधर्मा व वैदिक कर्मों को कर मोक्ष को प्राप्त करने वाली सत्ता हैं। मुझे यह जन्म इस संसार में व्यापक, जिसे सर्वव्यापक कहते हैं तथा जो सच्चिदानन्दस्वरूप है, उसके द्वारा मेरा जन्म अर्थात् मुझे इस मनुष्य शरीर की प्राप्ति हुई है। यह शरीर मुझसे भिन्न मेरा अपना है और मेरे नियन्त्रण में होता है। मुझे कर्म करने की स्वतन्त्रता है परन्तु उनके जो फल हैं, उन्हें भोगने में मैं परतन्त्र हूं। मेरे शरीर की सभी पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेंन्द्रियां, मन, बुद्धि आदि अवयव व तत्व मेरे अपने हैं व मेरे अधीन अथवा नियन्त्रण में है। मेरी अर्थात् आत्मा की प्रेरणा पर हमारी बुद्धि विचार, चिन्तन व मनन करती है। यदि हम कोई भी निर्णय बिना सत्य व असत्य को विचार कर करते हैं और उसमें बुद्धि का प्रयोग नहीं करते तो यह कहा जाता है कि यह मनुष्य नहीं गधे के समान है। गधा भी विचार किये बिना अपनी प्रकृति व ईश्वर प्रदत्त बुद्धि जो चिन्तन मनन नहीं कर सकती, कार्य करता है। जब हम बुद्धि की सहायता से मनन करके कार्य करते हैं तो सफलता मिलने पर हमें प्रसन्नता होती है और यह हमारे लिए सुखद अनुभव होता है। इसी प्रकार से जब मनन करने पर भी हमारा अच्छा प्रयोजन सिद्ध न हो तो हमें अपने मनन में कहीं त्रुटि वा कमी अनुभव होती है। पश्चात और अधिक चिन्तन व मनन करके हम अपनी कमी का सुधार करते हैं और सफलता प्राप्त करते हैं। सफलता मिलने में हमारे प्रारब्ध की भी भूमिका होती है परन्तु इसका ज्ञान परमात्मा को ही होता है। हम तो केवल आचार्यों से अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त कर अपनी बुद्धि की क्षमता को बढ़ा सकते हैं और उसका प्रयोग कर सत्यासत्य का विचार व सही निर्णय कर सकते हैं।

 

जन्म के बाद जब हम 5 से 8 वर्ष की अवस्था में होते हैं तो माता-पिता हमें आचार्यों के पास विद्या प्राप्ति के लिये भेजते हैं। आचार्य का कार्य हमारे बुरे संस्कारों को हटा कर श्रेष्ठ व उत्तम संस्कारों व गुणों का हमारी आत्मा में स्थापित करना होता है। आचार्य के साथ हमें स्वयं भी वेदाध्ययन व अन्य सत्साहित्य का अध्ययन कर व अपने विचार मन्थन से श्रेष्ठ गुणों को जानकर उसे अपने जीवन का अंग बनाना होता है। श्रेष्ठ गुणों को जानना, उसे अपने जीवन में मन, वचन कर्म सहित धारण करना और आचरण में केवल श्रेष्ठ गुणों का ही आचरण व्यवहार करना धर्म कहलता है। धर्म को सरल शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि सत्य का आचरण ही धर्म है। सत्य का आचरण करने से पूर्व हमें सत्य की पहचान करने के साथ सत्य के महत्व को जानकर लोभ व काम-क्रोध को अपने वश में भी करना होता है। आजकल देखा जा रहा है कि उच्च शिक्षित लोग अपने हित, स्वार्थ व अविद्या के कारण लोभ व स्वार्थों के वशीभूत होकर भ्रष्टाचार, दुराचार, अनाचार, कदाचार, दुराचार, व्यभिचार, बलात्कार जैसे अनुचित व अधर्म के कार्य कर लेते हैं। यह श्रेष्ठ गुणों के विपरीत होने के कारण अधर्म की श्रेणी में आता है। कोई किसी भी मत को मानता है परन्तु प्रायः सभी मतों के लोग इस लोभ के प्रति वशीभूत होकर, अनेक धर्माचार्य भी, अमानवीय व उत्तम गुणों के विपरीत कार्यों को कर अधर्मी व पापी बन जाते हैं। यह कार्य हमारा व किसी का भी धर्म नहीं हो सकता। मत और धर्म में अन्तर यही है कि संसार के सभी मनुष्यों का धर्म तो एक ही है और वह सदगुणों को धारण करना व उनका आचरण करना ही है। इसमें ईश्वर के सच्चे स्वरूप को जानकर उसकी स्तुति, प्रार्थना और उपासना करना, प्राण वायु-स्वात्मा की शुद्धि व परोपकार के लिए अग्निहोत्र यज्ञ नियमित करना, माता-पिता-आचार्यों व विद्वान अतिथियों का सेवा सत्कार तथा सभी पशु-पक्षियों व प्राणियों के प्रति अंहिसा व दया का भाव रखना ही श्रेष्ठ गुणों के अन्तर्गत आने से मननशील मनुष्य का धर्म सिद्ध होता है। यह सभी कार्य सभी मनुष्यों के लिए करणीय होने से धर्म हैं। आजकल जो मत-मतान्तर चल रहे हैं वह धर्म नहीं है। उनमें धर्म का आभास मात्र होता है परन्तु वह मनुष्यता के लिए न्यूनाधिक हानिकर हैं। यह लोग अपने-अपने मत के स्वार्थ के लिए नाना प्रकार की अमानवीय योजनायें बनाते व उन्हें गुप्त रूप से क्रियान्वित करते हैं जिससे समाज में वैमनस्य उत्पन्न होता है। मनुष्य मत-मतान्तरों में बंट कर एक दूसरे के विरोघी बनते हैं जैसा कि आजकल देखने को मिलता है। इसके साथ सभी मतों के अनुयायी भी ईश्वर की सच्ची उपासना, वेद प्रवर्तित ज्ञानयुक्त कार्यों को न करने और श्रेष्ठ गुणों को धारण कर उनका आचरण न करने से जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से वंचित हो जाते हैं। महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने मत-मतान्तरों में निहित अमानवीय व अधर्म विषयक प्रवृत्तियों का संकेत किया था परन्तु अज्ञान, स्वार्थ व अहंकारवश लोगों ने उनकी विश्व का कल्याण करने वाली मान्यताओं की उपेक्षा की जिसका परिणाम यह हुआ कि हम लोग श्रेष्ठ गुणों को धारण कर जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लक्ष्य से दूर हैं और विश्व की लगभग 7 अरब की जनसंख्या में से शायद कोई एक भी उसे कोई पूरा करता होगा?

 

हम लेख का अधिक विस्तार न कर संक्षेप में यह कहना चाहते हैं कि हम सब मनुष्य व प्राणी एक जीवात्मा हैं और ईश्वर हमारे पूर्व कर्मानुसार हमारा अर्थात् हमारे शरीरों का जन्म दाता है। मनुष्य जन्म मिलने पर सभी को श्रेष्ठ व उत्तम सत्य गुणों को धारण करना चाहिये। इनका आचरण ही धर्म होता हैं। वेद ईश्वरीय ज्ञान है तथा सत्य मनुष्य धर्म व सभी विद्याओं का पुस्तक है। वेदाध्ययन करना और उसके अनुसार जीवन व्यतीत करना ही मनुष्य धर्म वा वैदिक धर्म है। वेद संस्कृत में हैं अतः संस्कृत न जानने वाले लोगों को सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि आदि ग्रन्थों सहित महर्षि दयानन्द व अन्य वैदिक विद्वानों के वेदभाष्यों व ऋषि मुनियों के अन्य ग्रन्थों शुद्ध मनुस्मृति, ज्योतिष, दर्शन व उपनिषदों का आत्मा की ज्ञानवृद्धि के लिए अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करके हमें, मैं व स्व का परिचय प्राप्त होने के साथ अपने कर्तव्य व धर्म का निर्धारण करने में सहायता मिलेगी। मत-मतान्तरों के ग्रन्थों को पढ़कर मनुष्य भ्रान्तियों से ग्रसित होता है अथवा ऐसा मनुष्य बनता है जिसमें आत्मा व बुद्धि होने पर भी वह सर्वथा इनसे अपरिचित होता हुंआ मत-मतान्तरों की सत्यासत्य मान्यताओं में फंसा रहता है। ऐसा मनुष्य लगता है कि केवल खाने-पीने व सुख सुविधायें भोगने के लिए ही जन्मा है। खाना पीना व सुविधायें भोगना मनुष्य जीवन नहीं अपितु इससे ऊपर उठकर सद्ज्ञान प्राप्त कर उससे अपना व दूसरे लोगों का कल्याण करना ही मानव धर्म है। हम आशा करते हैं कि इससे मैं व यथार्थ धर्म का कुछ परिचय पाठकों को प्राप्त होगा।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

 फोनः09412985121

महर्षि को उसी अवस्था में छोड़कर प्रतापसिंह जुआ खेलने पूना क्यों चला गया? प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

कारण क्या थे?ः- जोधपुर के कर्नल प्रतापसिंह के एक सुपरिचित व प्रशंसक उच्च शिक्षित व्यक्ति ने एक प्रश्न उठाया है। हमारीाी उत्कृष्ट इच्छा है कि कोई इतिहास प्रेमी विद्वान् विचारक उनके प्रश्न का सन्तोषजनक उत्तर दे। महर्षि दयानन्द जी महाराज को जोधपुर में विषय दिया गया। विष देने के षड्यन्त्र में कौन-कौन समिलित था, इस प्रश्न को आप एक बार छोड़ दीजिये। उपरोक्त विद्वान् का प्रश्न बड़ा गभीर व महत्त्वपूर्ण है। जब ऋषि को विष दिया गया तब कर्नल प्रतापसिंह महर्षि का पता करने क्यों न आया?

आया तोकितने दिन के पश्चात् व कब आया? उसकी क्या विवशता थी जो महाराज का पता क रने न आ सका?

इसके साथ हम एक प्रश्न और जोड़ देते हैं। महर्षि को उसी अवस्था में छोड़कर प्रतापसिंह जुआ खेलने पूना क्यों चला गया। प्रतापसिंह के प्रशंसक भक्त इस प्रश्न को पढ़ सुनकर चौंक जाते हैं। वे कहते हैं वह तो पोलेा खेलने गया था। लोगों को मूर्ख बनाने के लिये आप चाहे पोलो कहो, था तो जूआ ही। जूआ तो क्रि केट व ताश पर भी खेला जाता है। रैफल क्या जूआ नहीं? लाटरी क्या है?

उसके वकील प्रताप सिंह की बढ़ाई करते हुए उसकी पूना यात्रा का वर्णन तक नहीं करते। इसका क्या कारण है? आशा है कि सत्यान्वेषी सज्जन प्रतापसिंह का गुणकीर्तन करने वाले वकीलों से इस प्रश्न का उत्तर लेकर रहेंगे। जिस विद्वान् सज्जन ने यह प्रश्न उठाया है उसका नाम हम आगे कभी बतायेंगे। था वह भी प्रतापसिंह प्रशंसक।

नारी जाति के उन्नायक महर्षि दयानन्द – डॉ. जगदेवसिंह विद्यालंकार

महाभारत काल से पूर्व हमारा देश भारतवर्ष शिक्षा, संस्कृति और सयता की दृष्टि से पूर्ण विकसित था। भारतीय संस्कृति और सयता विश्व की प्राचीनतम और सर्वोन्नत सयता-संस्कृति मानी जाती है। इसीलिए समस्त विश्व इस देश को जगद्गुरु मानता था। मनुमहाराज ने भी घोषणा की थी-

एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।

– मनु. (2.20)

उस समय नारी की दशा भी समानित, प्रतिष्ठित ओर स्पृहणीय थी। लगभग पच्चीस मन्त्र द्रष्ट्री ऋषिकाओं का वैदिक साहित्य में उल्लेख मिलता है। गार्गी, मैत्रेयी, सीता, अनसूया, सावित्री और मदालसा आदि प्रमुख उदाहरण नारी की उन्नत अवस्था के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

महाभारत काल से इस देश का सर्वाङ्गीण पतन प्रारभ हो गया था और उसके साथ ही नारी की दशा भी उत्तरोत्तर निम्न होती चली गयी। हमारी पौराणिक संकीर्ण विचारधारा ने इस पतन को और अधिक गतिशील कर दिया। वेदों और उपनिषदों के उद्भट विद्वान् स्वामी शंकराचार्य ने वेदोद्धार के बहुत प्रशंसनीय कार्य किये। परन्तु नारी के महत्व को उन्होंने भी नहीं समझा और उसे ‘नरक का द्वार’ जैसा निन्दनीय विशेषण दे डाला। इतना ही नहीं ‘स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम्’ कहकर नारी को धार्मिक शिक्षा के अधिकार से भी वंचित कर दिया । इसी परपरा में उत्तर मध्यकाल में आकर सन्त तुलसीदास ने – ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ कहकर नारी के समान को बहुत बड़ा आघात पहुँचाया। इन सबका परिणाम यह निकला कि सामान्य समाज में नारी को पैर की जूती समझा जाने लगा।

जिस समय इस भारत भू पर महर्षि दयानन्द का आविर्भाव हुआ उस समय नारी की अवस्था अत्यन्त दयनीय एवं शोचनीय थी। उन्होंने यह भलिभाँति अनुभव कर लिया था कि स्त्री का उत्थान हुए बिना समाज अथवा राष्ट्र का उद्धार सभव नहीं, क्योंकि स्त्री भी पुरुष की भाँति समाज रूपी गाड़ी का एक पहिया है महर्षि दयानन्द पहले समाज सुधारक थे जिन्होंने नारी-उत्थान की क्रान्ति को जन्म दिया। महर्षि ने नारी के  उद्धार के लिए अनेक प्रयत्न किए जो यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत है-

स्त्री-शिक्षाः- स्वामी दयानन्द ने इस रहस्य को उद्घाटित किया कि शिक्षा के बिना व्यक्ति अधूरा है। नारी भी जब तक शिक्षित नहीं होगी तब तक जागरुक नहीं हो सकती, वह अपने अस्तित्व को, अपने महत्त्व को नहीं समझ सकती। अतः वेदों की विद्या जो ताले में बन्द थी देव दयानन्द ने उसकी कुञ्जी न केवल पुरुषों के लिए अपितु स्त्रियों के लिए भी सुलभ कराते हुए वेद का प्रमाण प्रस्तुत किया-

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेयः।

ब्रह्म राजन्यायां शूद्राय, चार्याय च स्वाय चारणायच।।

– यजुः अ. 26-2

अर्थात् परमात्मा ने वेदों का प्रकाश मानव मात्र के लिए किया है। स्वामी जी ने सबके लिए शिक्षा की अनिवार्यता सिद्ध करते हुए सत्यार्थ-प्रकाश के तृतीय-समुल्लास में लिखा है- ‘‘इसमें राजनियम और जातिनियम होना चाहिए कि पांचवे अथवा आठवें वर्ष से आगे कोई अपने लड़के और लड़कियों को घर में न रख सके पाठशाला में अवश्य भेज देवे, जो न भेजे वह दण्डनीय हो।’’ स्त्रियों को सभी प्रकार के ज्ञान की आवश्यकता पर बल देते हुए वे आगे लिखते हैं- ‘‘जैसे पुरुषों को व्याकरण, धर्म और अपने व्यवहार की विद्या न्यून से न्यून अवश्य पढ़नी चाहिए, वैसे स्त्रियों को भी व्याकरण, धर्म, वैद्यक, गणित, शिल्प-विद्या तो अवश्य ही सीखनी चाहिए।’’ स्वामी जी के उक्त कथन में उनकी इस भावना की अभिव्यक्ति है कि गृह-सबन्धी आय-व्यय क लिए गणित, सन्तान को सयक्  आचरण सिखाने के लिए धर्म, गृह के सभी प्राणियों के लिए पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक भोजन-पान तथा रोगी के पथ्यापथ्य के हेतु वैद्यक, गृह-निर्माण तथा अन्य वस्त्र भूषणादि सबन्धी आवश्यकताओं के लिए शिल्प व कलाओं का ज्ञान प्राप्त करना प्रत्येक नारी के लिए उचित है।

स्त्री और धर्म :- महर्षि दयानन्द धर्म के संबंध में भी स्त्रियों को पुरुषों के समान ही धर्म-ग्रन्थों के पठन-पाठन, धार्मिक क्रियाओं के सपादन और गायत्री मन्त्र जाप आदि तथा अग्निहोत्रादि की अधिकारिणी मानते थे। महर्षि के वैदिक सिद्धान्त के अनुसार कोई भी धार्मिक-अनुष्ठान पत्नी के बिना पूर्ण नहीं माना जाता । ‘इमं मन्त्रं पत्नी पठेत’ आदि श्रौतसूत्र में वर्णित यह वाक्य इसमें स्पष्ट प्रमाण हैं। वे नारी के धार्मिक कार्यों में पुरुषों की सहभागिनी होने के प्रबल समर्थक अवश्य थे किन्तु धार्मिक कार्यों की आड़ में गृहस्थ धर्म की उपेक्षा उन्हें अग्राह्म थी। दोनों प्रकार के कर्त्तव्यों के मध्य एक सामञ्जस्य सेतु आवश्यक है। स्वामी जी की प्रेरणा के कारण ही आज आर्य समाज साधारण प्रशिक्षण के बाद महिलाओं को भी पौरोहित्य की अनुमति देता है। वैदिक परपरा में स्त्रियों को ब्रह्मा पद पर आसीन करने का उल्लेख भी मिलता है।

स्त्री और गृहस्थ धर्मःमहर्षि दयानन्द गृहाश्रम को विषयभोगों की पूर्ति का केन्द्र न मानकर जीवन के समस्त कर्त्तव्यों, लोकमंगल और पवित्रता का एक माध्यम मानते थे। उनकी ‘संस्कार विधि’ नामक पुस्तक के विवाह प्रकरण में उद्धृत मन्त्र दापत्य जीवन के उदान्त उद्देश्य और मर्यादा का परिचायक है-

समञ्जन्तु विश्वे देवाः समापो हृदयानि नौ।

सं मातरिश्वा संघाता समु देष्ट्री दधातु नौ।

– ऋग्वेद 20-85-47

अर्थात् दपति इस शुभ संकल्प के साथ वैवाहिक जीवन में प्रवेश करते हैं कि उन दोनों का प्रत्येक शुभ कार्य में विचारों का पूर्ण सामञ्जस्य इस प्रकार होगा जैसे दो पात्रों का जल एक पात्र में मिलकर एकरूप हो जाता है।

पुनर्विवाहः विधवाओं की दीनदशा देखकर ऋषि का हृदय रो उठा था। बाल-विवाह की कुप्रथा के कारण छोटी-छोटी कन्याएँ सारा जीवन वैधव्य से अभिशप्त होकर नरक भोगने के लिए बाध्य थीं। ऋषि ने पुनर्विवाह की अनुमति देते हुए उपदेश मञ्जरी के बारहवें व्यायान में बलपूर्वक यह कहा था- ‘‘ईश्वर के समीप स्त्री-पुरुष बराबर हैं, क्योंकि वह न्यायकारी है उसमें पक्षपात का लेश नहीं है। जब पुरुषों को पुनर्विवाह की आज्ञा दी जावे तो स्त्रियों को दूसरे विवाह से क्यों रोका जावे।’’ महर्षि की इसी प्रेरणा से प्रेरित होकर आर्य समाज ने विधवा विवाह को समाज में प्रतिष्ठित कर दिया।

पर्दा-प्रथा का विरोधः- इस कुरीति के उच्छेद के लिए महर्षि दयानन्द के समकालीन राजा राज मोहन राय भी बंगाल में प्रयत्नशील थे। परन्तु उन दोनों के  प्रयासों में पूर्व और पश्चिम का अन्तर था। राजा राममोहन राय पाश्चात्य सयता में रंगे थे और स्वामी दयानन्द के प्रयत्न भारतीय संस्कृति की सुदीर्घ परपरा के परिप्रेक्ष्य में किये जा रहे थे। अतः महर्षि दयानन्द पर्दा-प्रथा का विरोध और महिलाओं की पूर्ण स्वतन्त्रता का समर्थन करते हुए भी उनकी स्वेच्छाचारिता और उच्छ्रंखलता को स्वीकार नहीं करते थे।

सती-प्रथा का विरोधः- स्वामी दयानन्द के आगमन के समय समाज के कई वर्गों में पति की मृत्यु होने पर जीवित पत्नी को पति की चिता में जला दिया जाता था। इस जघन्य, नृशंस और अमानवीय प्रथा का महर्षि ने प्रबल विरोध किया। उनके इस सुधार कार्य से प्रेरित होकर अंग्रेज सरकार ने भी इस कुप्रथा को मिटाने का प्रयास किया।

वेश्यावृत्ति का विरोधःभारतीय समाज के मस्तक पर लगे वेश्यावृत्ति के कलंक ने स्वामी दयानन्द का हृदय झकझोर दिया था। अशिक्षा, निर्धनता, वैघव्य और सामाजिक अत्याचारों से पीड़ित होकर अनचाहे अनेक नारियों को पेट पालने के लिए यह घृणित व्यवसाय अपनाने को विवश होना पड़ता है। स्वामी दयानन्द वेश्यावृत्ति को प्रश्रय देने वाले विलासी पुरुषों को इसका उत्तरदायी मानते थे। भारत के माथे से इस कलंक को मिटाने का उन्होंने बहुत प्रयास किया। फर्रूखाबाद निवासी सेठ दीनानाथ के कुपथगामी युवा पुत्र ने स्वामी जी के उपदेश से प्रभावित होकर वेश्यागमन छोड़ दिया था। नन्हींजान नामक वेश्या के चंगुल में फंसे महाराजा जोधपुर को महर्षि ने जो कड़ी फटकार दी थी, वह तो उनकी प्रमुख वेश्यावृत्ति विरोधी घटना है। भले ही यह घटना ऋषि के प्राणान्त का कारण बनी हो, परन्तु उन्होनें कभी किसी बुराई से समझौता नहीं किया।

वर्तमान संदर्भ में नारीःस्वामी दयानन्द ने नारी जागरण के लिए जिस वैचारिक एवं सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात किया, ऋषि के उस मिशन को आगे बढ़ाते हुए आर्य समाज ने अनेक कन्या विद्यालयों एव कन्या गुरुकुलों की स्थापना की। आज तो उसके सुन्दर परिणाम हमारे समुख हैं। शिक्षा के क्षेत्र में आज नारी पुरुष से पीछे नहीं है बल्कि पिछले दशक से तो ऐसा लगने  लगा है कि नारी इस प्रतिस्पर्धा में पुरुष से आगे निकलने लगी है। परन्तु खेद की बात यह है कि महर्षि दयानन्द के मस्तिष्क में जिस शिक्षा का कार्यक्रम था वह लुप्त होता जा रहा है।

अतः समाज का यह दायित्व है कि उचित शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए वह कटिबद्ध हो। धर्म के क्षेत्र में आज की नारी के विचार सुलझे हुए नहीं है। साक्षर होते हुए भी नारी धार्मिक आडबरों की शिकार अधिक है। आवश्यकता है धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझने और तदनुरूप आचरण करने की ताकि घोर सांसारिकता के तनावपूर्ण क्षणों से मुक्ति पाई जा सके।

स्वामी दयानन्द द्वारा प्रदत्त नारी जागृति का यह अभियान तभी सार्थक होगा जबकि स्वयं नारी बालक की प्रथम शिक्षिका बनने से लेकर सामाजिक चेतना को उचित दिशा देने का गुरुतर दायित्व वहन करे।

नारी विषयक उक्त समस्त समस्याओं के मूल में अशिक्षा अथवा उचित शिक्षा का अभाव ही मुय कारण रहा है। अभी नारी की स्थिति में परिवर्तन का संघर्ष काल चल रहा है और समय की परिवर्तनशील गति के साथ समस्याएँ भी बदलती रही है। अब समय आ गया है कि समाज की जागरूक संस्थाओं के विद्वान् और चिन्तक आज की नारी समस्याओं को पहचान कर तद्विषयक उचित समाधानों के सुझाव और प्रसार का प्रयत्न करें। स्वामी दयानन्द के नारी सबन्धी क्रान्तिकारी कार्यक्रम आधुनिक प्रगतिशील संस्कृति में और भी अधिक प्रासंगिक सिद्ध हो रहे हैं। इसलिए हम निर्विवाद रूप से यह घोषणा कर सकते हैं कि वर्तमान युग की नारी – उत्थान क्रान्ति के सर्वाधिक सक्रिय उन्नायक महर्षि दयानन्द ही थे । परवर्ती सभी सुधारकों ने उन्हीं के कार्यक्रम का अनुगमन किया है।

– पूर्व आचार्य, पं. नेकी राम शर्मा राजकीय महाविद्यालय, रोहतक, हरियाणा