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भूकप त्रासदी से पीड़ित नेपाल में परोपकारिणी सभा द्वारा राहत कार्य:- कर्मवीर

ईश्वर इस संसार का रचनाकार है, उसने हर वस्तु की रचना बड़ी बुद्धिमत्ता से व्यवस्थित ढंग से की है क्योंकि वह सर्वज्ञ है, हम जीवात्मायें अल्पज्ञ हैं। हम लोग अपनी सुख-सुविधा के लिए कई बार अधिक छेड़-छाड़ कर प्रकृति के सन्तुलन को बिगाड़ देते हैं परन्तु परमात्मा उसे व्यवस्थित रखता है। ईश्वर के नियमानुसार प्रकृति अपने आपको संतुलित करने के लिए उसमें भूकप, बाढ़, अतिवृष्टि-अनावृष्टि इत्यादि घटनाएँ निरन्तर घटती रहती है, सृजन-संहार सतत् प्रक्रिया है। ये कभी भी, किसी के साथ भी, कहीं भी हो सकने वाली घटनाएँ हैं। अतः संवेदनशील मनुष्य इन घटनाओं व इन घटनाओं से प्रभावित होने वाले प्राणियों के प्रति सहानुभूति रखता है और मन में ये भी भाव रहते हैं कि हमारे साथ भी ऐसा हो सकता है। यही मनुष्य का मनुष्यपन है।

आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने तीन उद्देश्यों को ध्यान में रखकर परोपकारिणी सभा की स्थापना की थी-

(1) वेदों का पठन-पाठन व प्रचार-प्रसार।

(2) वेदादि आर्ष ग्रन्थों का प्रकाशन।

(3) दीन दुखियों की सेवा।

इन्हीं उद्देश्यों को ध्यान में रख, सभा सतत् अपना कार्य करती रहती है। जहाँ भी इस प्रकार की प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं, सभा अपने सामर्थ्य/साधनों से जनहित में कार्य करती है। नेपाल में भी भयंकर भूकप आया, हजारों लोग हताहत हुए, सभा प्रधान डॉ. धर्मवीर जी का संकेत हुआ कि सहायता के लिए जाना है।

अजमेर से काठमाण्डू (नेपाल की राजधानी) का रास्ता बड़ा लबा है। एका-एक इतनी लबी यात्रा कैसे हो? दो दिन तक रेल्वे का तत्काल टिकिट कराने का प्रयास किया, पर आरक्षण नहीं हुआ, जाना तो अवश्य था। जाने का निश्चय कर मैंने (कर्मवीर), ब्र. सोमेश जी व ब्र. प्रभाकर जी से सपर्क किया। सभा का आदेश पाकर, वे भी जाने के लिए तैयार हो गये। गोरखपुर (उ.प्र.) के रास्ते से जाने का निश्चय कर, गोरखपुर आर्य समाज में एकत्रित होने का निर्धारण हुआ।

मैं 14 मई को अजमेर से चला, सोमेश जी मैनपुरी से तथा प्रभाकर जी बिजनौर से। आर्य समाज गोरखपुर के प्रधान डॉ. विनय आर्य जी से सपर्क हो चुका था, उन्होंने हमारी भोजन व आवास की व्यवस्था बड़ी श्रद्धा से की।

मैं अजमेर से कानपुर बस से यात्रा करके गया, कानपुर से लखनऊ की बस पकड़ी, कानपुर बस स्टैंड पर दोपहर के बारह बजे धूप में बस खड़ी थी, आस-पास छाया का कोई स्थान नहीं था, गर्मी के कारण शरीर से पसीना ऐसे टपकता था जैसे कोई भाप स्नान (स्टीम बाथ) कर रहा हो, उधर ब्र. प्रभाकर जी ने भी मुरादाबाद से गोरखपुर के लिए रेलगाड़ी पकड़ी, मार्ग बहुत लबा था, गर्मी भीषण, आरक्षण है नहीं, सामान्य डबे में इतनी भीड़ कि शौचालय में भी यात्री घुसे हुए थे, अतः उन्होंने भी दुःखी होकर सीतापुर में रेल गाड़ी छोड़, बस पकड़ी थी तथा इस प्रकार से यात्रा करके हम लोग गोरखपुर पहुँचे, एक दिन विश्राम किया।

17 मई को हम लोग गोरखपुर से 20 किमी. दूर पीपीगंज नामक स्थान पर पहुँचे, यहाँ पर ड़ॉ. वेदानन्द जी कश्यप, सभा प्रधान डा. धर्मवीर जी के मित्र हैं। आपने हम सब लोगों के  लिए प्रातःराश तथा यात्रा के लिए भोजन उपलध कराया एवं राहत कार्य के लिए दान भी दिया, आप एक सच्चे वैदिक मिशनरी हैं।

पीपीगंज से हम लोग भारत-नेपाल की सीमा सोनौली पहुँचे। यही से हमने मध्याह्न के समय काठमाण्डू के लिए बस पकड़ी। बहुत लबा मार्ग पहाड़ी से होकर गुजरता था, अतः काठमाण्डू तक पहुँचते हुए अंधेरा होने लगा। काठमाण्डू में प्रवेश से पूर्व ही भूकप का प्रभाव दिखाई देने लगा, टूटे फू टे मकान, कई बड़े-बड़े भवन भी धराशायी हो चुके थे। परन्तु अन्धेरे के कारण स्पष्ट दिखाई नहीं देता था। हम रात्रि 8:30 बजे काठमाण्डू पहुँचे परन्तु साढे आठ बजे ही काठमाण्डू सुनसान हो चुका था, बाजार भी पूरे बंद थे, यात्री बसें इत्यादि भी बन्द हो चुकी थी, बड़ी मुश्किल से एक टैक्सी (कार) करके हम लोग केन्द्रीय आर्य समाज नेपाल के कार्यालय पहुँचे । वहाँ के प्रधान पं. कमलकान्त जी आर्य को पहले से सूचना दी जा चुकी थी अतः वे हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। यहीं आर्य समाज में ब्र. आचार्य नन्दकिशोर जी पहले से पहुँचे हुए थे। आ. नन्दकिशोर जी बाल-स्वभाव, पवित्र-हृदय व आर्य समाज के प्रति दृढ़ निष्ठावान पुरुष हैं। रात्रि अधिक हो चुकी थी, भोजन किया तथा शयन की तैयारी करने लगे तो पं. कमलाकान्त जी ने निर्देश दिया कि पानी का बड़ा अभाव है, जल-व्यवस्था भूकप के कारण पूर्ण रूप से बाधित है, अतः सुबह स्नान नहीं होगा, शौच इत्यादि में भी पानी प्रयोग में सावधानी रखनी है।

सोने से पूर्व एक निर्देश और दिया गया कि सावधान रहना है, लगातार भूकप के झटके आते रहते हैं, ऐसा हो तो विचलित नहीं होना, धैर्य से काम लेना, चलने में शरीर का सन्तुलन बनाये रखना है। आपने बताया कि जब भूकप आता है तो शरीर का सन्तुलन बिगड़ जाता है। आगे की ओर चलने की कोशिश करते हैं पर ऐसा लगता है कि पीछे की ओर गिरेंगे। भूकप आये तो तुरन्तावन से बाहर निकल कर खुले मैदान में पहुँचना है।

18 मई को प्रातः उठकर शौचादि से निवृत्त होकर, हाथ-मुँह धोक र, बिना नहाये ही यज्ञ किया। 11 बजे आर्य समाज के लोगों की बैठक पण्डित जी द्वारा बुलाई गई, बैठक का उद्देश्य था कि राहत कार्य कहाँ व किस प्रकार से किया जाए? हम लोग इन्हीं लोगों की सहायता से कार्य कर सकते थे। क्योंकि कोई भी बाहरी संस्था/संगठन यहाँ पर सरकार की अनुमति के बिना राहत सामग्री इत्यादि वितरित नहीं कर सकते। कई बार दुर्घटनाएँ भी होती हैं, त्रस्त जनता सामान भी लूट लेती है। अतः स्थानीय लोगों की सहायता अवश्य लेनी पड़ती है।

बैठक में निश्चय हुआ कि काठमाण्डू से 200 किमी. दूर उत्तर पूर्व (ईशान कोण) में 12 मई के दिन जहाँ दोबारा भूकप आया था, वहाँ पर सिंगेटी नामक स्थान जि. दोलखा का लामी डाँडा नामक ग्राम का वार्ड सं. 7 जिसमें 16 परिवार रहते हैं, वहाँ पर राहत पहुँचाई जाए क्योंकि अधिक दूर व रास्ता दुर्गम होने के कारण वहाँ राहत कर्मी प्रायः नहीं पहुँचते। इसमें बड़ी समस्या थी कि राहत सामग्री कहाँ से उपलध हो? वितरण की प्रक्रिया क्या हो ताकि छीना-झपटी न हो। इस कार्य के लिए एक आर्य सज्जन कृष्ण जी जो आर्य समाज में ही सेवा देते थे, कृष्ण जी 2 वर्ष तक  गुरुकुल एटा में पढ़े थे, आपको व्यवस्था के लिए दो दिन पूर्व ही उस स्थान पर भेज दिया गया था।

हमारा यह विचार बना कि भूकप से प्रभावित सभी महत्वपूर्ण स्थानों को देखना चाहिए, जिससे वास्तविक हानि का स्थूल रूप से ही सही, परन्तु ठीक-ठीक अनुमान लग सके। अतः सायंकाल हम लोग पशुपतिनाथ का मंदिर देखने गये थे, मन्दिर भी क्षतिग्रस्त हो चुका था, यहाँ पर एक घटना विशेष देखी मन्दिर के परिसर से एक नाला बहता है, उसके दोनों तरफ घाट है। उन घाटों पर दाह संस्कार करने में लोग मृतक के लिए स्वर्ग प्राप्ति मानते है, हरिद्वार, काशी की तरह जब ऐसे स्थलों पर लोग दूरस्थ स्थानों से आते हैं, तो मार्ग व्यय इत्यादि में उनका बहुत सारा धन व्यय हो जाता है। जिसकी पूर्ति लोग मृतक पर डाले जाने वाले काष्ठ में करते हैं, ऐसे स्थानों पर ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा काष्ठ बहुत महंगा मिलता है। घृत-सामग्रीाी प्रायः न के बराबर डालते हैं, जिस कारण मृतक दहन के समय भारी दुर्गन्ध फैलती है। पशुपति नाथ मन्दिर में भी इसी तरह भारी दुर्गन्ध फैली हुई थी।

उसी क्रम में 19 मई की सायं हम लोग काठमाण्डू में जो स्थान अधिक क्षतिग्रस्त हुए उन स्थानों को देखने गये, सबसे पहले हम काठमाण्डू का विशेष स्थान जहाँ पर संग्राहलय इत्यादि है, अधिकांश सरकारी कार्यालय तथा जो विदेशी सैलानियों का केन्द्र रहता है, वह स्थान देखा, अच्छे सुन्दर विशाल भवन मलबे के ढेर में परिवर्तित हो चुके थे, उस क्षेत्र में रहने वाले लोग अधिकतर या तो बाहर जा चुके थे या तो खुले मैदानों में तबुओं में रह रहे थे। पूरे काठमाण्डू का यही हाल था, कोई स्टेडियम, पार्क, खुला सार्वजनिक स्थान खाली नहीं था, सब जगह तबू ही तबू लगे हुए थे। भय के कारण लोग घरों में नहीं रहते थे वहाँ के लोगों के कथनानुसार लगभग 5 लाख लोग तो भय के कारण अस्थाई रूप से पलायन कर चुके थे, सड़कें-भवन प्रायः खाली नजर आते थे।

इस स्थान की एक विशेषता और थी, यहाँ जो पुराने भवन थे, वे बड़े विशाल एवं उनके खिड़की दरवाजे उनकी निर्माण प्रक्रिया अति विचित्र थी, जिस प्रकार से जैसलमेर (राज.) में हवेलियों में पत्थर के ऊपर मनमोहिनी कलाकृति आने वाले पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है, इसी प्रकार लकडी की विश्व स्तरीय कलाकृति, भवनों की शोभा मन आत्मा को स्पर्श करने वाली थी, परन्तु काल का कुठार ऐसा चला की सब नष्ट-भ्रष्ट हो चुका था। सारा क्षेत्र वीरान खण्डर में रूपान्तरित हो चुका था। वहाँ से चलते हुए, बाजार-भवनों से भ्रमण करते हुए एक विशेष स्थान पर पहुँचे, यह स्थान आर्य क्रान्तिकारियों के साहस व शौर्य का प्रतीक है, इस स्थान का नाम है इन्दिरा चौक। इस स्थान पर आर्य बलिदानी शुक्रराज शास्त्री राजशाही के विरूद्ध भाषण दिया करते थे, राजा के गलत नियमों-कानूनों से प्रजा त्रस्त थी, अन्ध विश्वास बलि प्रथा इत्यादि कुरीतियाँ चर्म सीमा पर थी, शास्त्री जी इनका विरोध करते थे, यहाँ का एक नियम और था- नेपाल के अन्दर राजा के अलावा किसी को अधिकार नहीं था कि खड़ा होकर भाषण दे सके। परन्तु शास्त्री जी खड़े होकर ही भााषण दिया करते थे। अतः अन्धविश्वास पर कुठाराघात देख, वहाँ के पण्डों ने राजा को खूब भड़काया कि ये शुक्रराज शास्त्री आपकी सत्ता को उखाड़ देगा, अतः राजा का आदेश हुआ और शुक्रराज शास्त्री जी को उनके साथियों दशरथ चन्द्र, धर्म भक्त माथेमा, गङ्गलाल श्रेष्ठ के साथ इन्दिरा चौक से गिरतार कर उन चारों पर राष्ट्रदोह का अभियोग चला 1941 में इन चारों को दो-दो करके दो दिन में फांसी चढ़ा दिया गया। राजतन्त्र समाप्ति के बाद आज काठमाण्डू शहर में जगह-जगह इनकी मूर्तियाँ लगी हुई है। इनके नाम से सड़कें, चौक, रङ्गशालाएँ अनेक स्थल बने हुए हैं। आज नेपाल के अन्दर इनको श्रेष्ठ बलिदानियों में गिना जाता है। ये सब देखते हुए हम काठमाण्डू की  विश्वस्तरीय धरोहर नेपाल देश की शान का प्रतीक थरारा टावर देखने गये जिसकी स्थापना 1832 में सैनिक सुरक्षा की दृष्टि से की गई थी। यह टावर बहुत ऊँचा था, इस पर खड़े होकर सैनिक पहरा दिया करते थे। अब यह स्थान राष्ट्रीय स्मारक के  रूप में था। सैंकड़ों लोग प्रतिदिन इसे देखने आते थे। जिस दिन पहली बार भूकप आया वह शनिवार का दिन था, नेपाल में शनिवार को ही राष्ट्रीय अवकाश रहता है। बहुत सारे स्कूली बच्चे भी इसे देखने आये थे, सरकारी आँकड़े बताते हैं कि उस समय 250 टिकिट खरीदे जा चुके थे, अधिकांश लोग अन्दर ही थे ईश्वर ही जाने कितने जीवित बचे होंगे?

20 मई को हम लोग आचार्य नन्दकिशोर जी की प्रेरणा से एक विशेष स्थान पुराना नगर साखूँ गये, जो काठमाण्डू से लगभग 20 किमी. की दूरी पर था। यह एक पुराना व विशाल नगर था, तीन-तीन, चार-चार मंजिल पुरानी इमारतें यहाँ पर रही होंगी, यह नेपाल का एक पुराना व सपन्न बाजार रहा होगा। जब हम लोग वहाँ पहुँचे तो वहाँ का दृश्य हृदय दहला देने वाला था, लगभग 90 मकान ध्वस्त थे, पूरा नगर एक मलबे के ढेर में बदल चुका था, जो कुछ भवन बचे थे- उनको भी सेना के द्वारा गिराया जा रहा था क्योंकि बड़ी-बड़ी दरारें पड़ जानें से वे बड़े भयंकर विशाल राक्षस की तरह मुहँ खोले प्रतीत होती थी, न जाने कि स वक्त किसको निगल जाए। अतः भवनों को भी गिराया जा रहा था। नेपाली सेना के अतिरिक्त, रुस की सेना भी वहाँ दिखाई दी, अमेरिका का सामाजिक संगठन भी वहाँ कार्य कर रहा था, चीन इत्यादि देशों के चिकित्सक चिकित्सा कर रहे थे तो चीनी नाई पीडितों के बाल काटते भी नजर आये। एक दृश्य बडा करुणामय दिखाई देता था, उन पूर्ण रूप से ढह चुक घरों में से उनके मालिक कपड़े, टूटे-फूटे बर्तन या अन्य वस्तुएँ इकट्ठी करते दिखाई दिए। इस आशा के साथ इन वस्तुओं को निकाल रहे थे कि शाायद इस संकट की घड़ी में इन वस्तुओं से ही कुछ सहायता मिल जाएगी।

पाखण्ड का रूप कितना वीभत्स एवं विकराल हो सकता है, यह जानने हेतु 21 मई को हम लोग प्रसिद्ध दक्षिण काली का मन्दिर देखने गये, जो काठमाण्डू से लगभग 30 किमी. की दूरी पर मनमोहक हरी-भरी पर्वत चोटियों के बीच स्थित था। पास ही से पर्वतों से निकल कर कल-कल करती सरिता बहती थी, यहाँ हजारों लोग प्रतिदिन आते थे, तीन-तीन रास्तों से दर्शनार्थियों क ी पंक्ति लगती थी परन्तु वास्तव में ये कोई उपासना स्थल नहीं था, ये तो एक प्रकार का धार्मिक बूचड़खाना था, जहाँ पर सुबह से शाम तक सैंकड़ों निरीह-निर्बल पशु-पक्षियों, बकरे-मुर्गे इत्यादि प्राणियों का संहार (हत्या) धर्म के नाम पर किया जाता है। भूकप के कारण सब सुनसान था। दुकानें सब बन्द थी परन्तु बंद दुकानों के भी अवलोकन से ये ज्ञात हुआ कि फूल-प्रसाद की दुकानें बाद में थी सबसे पहले रास्ते के दोनों ओर की दुकानों पर बड़े-बड़े पिजरे रखे हुए थे, जिनमें मुर्गों-बकरों को बेचने के लिए बन्द रखा जाता था, मन्दिर में बलि स्थान ठीक काली माता मूर्ति के पीछे था, यहाँ इनके गर्दन काटने के बाद सामने एक दूसरा स्थान था, जहाँ पर बोर्ड लगा था मुर्गा के माँस के टुक ड़े करने के लिए 50/- तथा बकरे के शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े करने के 300/-रूपये। माँस कटता रहता है तथा पानी की नलियों द्वारा उस रक्त को उस स्वच्छ जल धारा में बहा दिया जाता है ये है हिन्दू धर्म का स्वरूप….। एक विशेष घटना और इसी प्रकार की है नेपाल के तराई के क्षेत्र में बिहार की सीमा से लगता हुआ एक स्थान है, जहाँ पर एक गढ़ी माता का मन्दिर है, इस स्थान पर चार वर्ष में एक विशेष मेला लगता है, जहाँ पर कई एकड़ भूमि में कई लाख पशुओं की सामूहिक बलि दी जाती है। इस वर्ष भी लगभग 5 लाख कटड़े-भैंसों की बलि दी गई। 5 लाा की संया तब रही जब भारत सरकार ने सीमा पर प्रतिबन्ध लगाया कि इस बलि के लिए भारत से पशुओं को न जाने दिया जाए। क्योंकि बलि के लिए अधिकांश पशु बिहार व उत्तरप्रदेश से जाता था और यदि प्रतिबन्ध न रहता तो कल्पना कर सकते थे कि बिना प्रतिबन्ध के कितना पशु धर्म के नाम पर कटता होगा। मैं तबसे एक बात अपने व्यायान इत्यादि में कहा करता हूँ कि दुनियाँ में जो गलत कार्य (पाप) सामान्य स्थिति में नहीं कर सकते, वे सब धर्म की आड़ में होते हैं। भांग पीने वाला भोले बाबा की जय बोलकर, शराब पीने वाला काली या ौरव बाबा की, लीला रचाने वाले कृष्ण-गोपियो की जय बोलकर इन अनैतिक कृत्यों को करते हैं। जब सुनामी लहरें आयी थी, उस समय भू-गर्भ वैज्ञानिकों के पत्र-पत्रिकाओं में लेख आये थे कि ये इस तरह की जो प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं, उनमें ये प्रतिदिन होने वाली निरीह पशुओं की हत्या के कारण जो उनकेाय के कारण निकलने वाली चीत्कार, करुणामयी रुदन के द्वारा जो कपन पैदा होता है, वह भी प्रकृति में असन्तुलन पैदा करता है।

त्रासदी से पीड़ित और दुर्गम स्थानों पर कठिनाइयाँ झेल रहे लोगों तक राहत सामग्री पहुँचाना अपने आप में एक अति कठिन काम था। सभा के आदेश से हमने  वही कार्य करने की ठान ली। 23 मई को हम लोग प्रातः 3 बजे जग गये क्योंकि चार (4) बजे हमको राहत वितरण हेतु अपने निश्चित स्थान पर पहुँचना था। हम लोग शौचादि से निवृत्त होकर बिना नहाएँ ही क्यों उस दिन पानी बहुत थोडा था, ठीक चार बजे जहाँ पर गाड़ी जानी थी, वहाँ पहुँच गये। लगभग 4:30 बजे प्राप्तः मैं (कर्मवीर), आचार्य नन्दकिशोर जी, ब्र. प्रभाकर जी, ब्र. सोमेश जी, पं. कमला कान्त आत्रेय जी, पं. माधव जी (प्राध्यापक), पं. तारा जी ये दोनों लोग गुरुकुल कांगडी के स्नातक हैं तथा राजकुमार जी आदि अन्य एक दो व्यक्ति बस में सवार होकर चल दिए। रास्ते के लिए कुछ सूखी खाद्य सामग्री साथ ले राी थी। लगभग 7:30 बजे एक जगह मार्ग में ही रुक कर प्रातःराश किया फिर शीघ्र ही चल दिये, लगभग 11:30 बजे सिंगेटी बाजार पहुँचे, रास्ता बड़ा ही दुर्गम था, लगभग 100 किमी. का तो रास्ता ऐसा था जिसमें केवल अभी पत्थर डले थे सड़क पक्की नहीं बनी थी, इस पर चलते रहे सिंगेटी पहुँचने से काफी पहले ही सड़क के दोनों ओर के मकान प्रायः ध्वस्त पड़े दिखाई देते थे। सिंगेटी पहुँचे, यहाँ भी यही हाल था। लगभग पूरा नगर ध्वस्त था, कोई भी मकान-दुकान ठीक नहीं बचा था, वहाँ पर कृष्ण जी आर्य पहले से उपस्थित थे। उन्होंने एक दुकान से सामान खरीद कर एक ट्रक गाडी में रखवाकर उस गाँव में भेज दिया था। जिस दुकान से सामान खरीदा था वो काफी टूटी हुई थी। किसी प्रकार से कुछ सामान सुरक्षित था। उस दुकानदार का भुगतान कर हम चल दिए। इसी स्थान पर एक होटल था, भूकप से पूर्व यहाँ बहुत पर्यटक आते थे। होटल में लगभग 35 लोग रुके हुए थे, होटल पहाड़ की एकदम तलहटी में था, पहाड़ से भूकप के कारण विशाल पत्थर गिरे, सारा होटल पत्थरों के नीचे दब गया, अभी तक मलबा भी नहीं हटाया गया था, सभवतः सारी लाशें उसी के अन्दर दबी पड़ी होंगी। भूकप से जितनी हानि नेपाल में हुई है, उसकी भरपाई तो विश्व के सपन्न राष्ट्र मिलकर करें तब कुछ भरपाई हो सकती है। परोपकारिणी सभा की जागरूकता इस बात से स्पष्ट होती है कि अपनी सामर्थ्यानुसार सहायता बिना विलब किये पहुँचाई, बड़ी संया में लोगों तक पहुँचाई और तत्परता के साथ पहुँचाई।

सिंगोटी बाजार से जहाँ हमें जाना था, वह गाँव इस स्थान से 7 किमी. की ऊँची पहाड़ी पर था। रास्ता कच्चा व बड़ा खतरनाक था। जब हमारी गाड़ी उस पहाड़ पर चढ़ रही थी तो कई बार ऐसा प्रतीत हुआ कि शायद यह यात्रा जीवन की अन्तिम यात्रा हो। इस चढ़ाई की कठिनाई का पता इस बात से भी लगाया जात सकता है कि 7 किमी. के इस दुर्गम रास्ते से सामान पहुँचाने के ट्रक वाले ने 8000/- नेपाली रूपये (भारतीय 5 हजार) लिए। वास्तव में यह पाँच हजार रूपये 7 किमी. के नहीं एक बड़े जोखिम (खतरे) के थे। हम लोग पहाड़ पर लामीडाँडा नामक गाँव पहुँचे, वहाँ पर बहुत लोग उपस्थित थे, सब लोग हमको देखकर बड़े प्रसन्न हुए। सब लोग हमारी व्याकुलता से प्रतीक्षा कर रहे थे। सभी परिवारों को पहले से कूपन वितरित कर दिये गये थे। परिवार का एक सदस्य कूपन लेकर आता तथा धन्यवाद देकर सामान लेकर चला जाता। यहाँ पर कोई सज्जन महानुभाव हमसे कई दिन पहले पहुँचे थे, उन्होंने भी सभी परिवारों को 7-7 किग्रा. चावल वितरित किये थे। कृष्ण जी भी इसी गाँव के रहने वाले थे। अपने घर पर ही भोजन की व्यवस्था कर रखी थी, हम सभी ने भोजन किया, बड़ा स्वादिष्ट भोजन घर की माताओं ने बड़े प्रेम से कराया। इसी गाँव के लगभग सभी घर गिर चुके थे। ग्रामवासी या तो टैंटों में या फिर गिरे हुए मकानों की टीन इत्यादि को इकट्ठी कर पेडों से लकडी काट अस्थाई घर बनाकर रह रहे थे।

यहाँ से लगभग तीन बजे हम लोग काठमाण्डू के लिए चले, कुछ दूर ही चले कि गाड़ी खराब हो गई। सब लोग तो गाड़ी ठीक होने की प्रतीक्षा करते रहे, मैं प्रभाकर जी, सोमेश जी पैदल ही पहाड़ी रास्ते से जल्दी-जल्दी उतरकर नीचे बहती कोसी नदी में स्नान किया, तब तक गाड़ी भी ठीक होकर आ गई, हम लोग देर रात 11 बजे काठमाण्डू आर्य समाज पहुँच गये।

24 मई की सांय 7 बजे हम लोग अपने देश की तरफ चले प्रातः 5 बजे हम सोनौली भारत नेपाल की सीमा पहुँचे, वहाँ से एक जीप पकड़कर गोरखपुर पहुँचे, वहाँ से ब्र. सोमेश जी रेलगाडी से मैनपुरी के लिए चले गये। हम लोग बस पकड़कर लखनऊ पहुँचे। आचार्य नन्दकिशोर जी ने यहाँ से दिल्ली के लिए तथा ब्र. प्रभाकर जी ने बिजनौर के लिए बस पकड़ी तथा मैंने लखनऊ से जयपुर के लिए बस पकड़ी। कानपुर पहुँचकर जाम में बस फँस गई, वहाँ से चले इटावा में रात्री में बस खराब हो गई, वहाँ से चले आगे चलकर आगरा से आगे बस का टायर पंचर हो गया, यहाँ से आगे चले पता चला कि गुर्जर आन्दोलन के कारण आगरा जयपुर हाईवे बन्द कर दिया गया। गर्मी भी त्वचा जला देने वाली थी, इस प्रकार काठमाण्डू से अजमेर बस तक का सफर 2 दिन, दो रात (48 घन्टे) में तय किया। गर्मी के कारण कष्ट भी बहुत हुआ। पर मन में संतोष था कि हाँ कुछ अच्छा करते हुए द्वन्द्वों को सहन करना ही तप है, जो मानव जीवन की उन्नति का कारण है।

इसी पूरी यात्रा से एक विशेष अनुभव हुआ कि हमें कभी भी किसी प्रकार का धन-बल, शारीरिक बल, जल बल, रूप आदि पर कोई घमण्ड नहीं करना चाहिए क्योंकि न जाने किस वक्त इस परिवर्तनशील संसार में क्या घटना घट जाए। क्षणों की आपदा करोड़पतियों को सड़क पर खड़ा कर देती है। भूख-प्यास के मारे कटोरा हाथ में आ जाता है। शारीरिक बलवान बैसााियों पर आ जाते हैं, रूपवान ऐसे कुरूप हो जाते हैं कि उनकी तरफ कोई देखना तक नहीं चाहता। परमात्मा से प्रतिक्षण यही प्रार्थना करनी चाहिए कि ईश्वर हमें शक्ति-भक्ति-सामर्थ्य प्रदान करे कि यह शरीर सदा दूसरों की सेवा कर सके। इति।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

नया सांस्कृतिक धार्मिक आक्रमणः- – राजेन्द्र जिज्ञासु

आर्यसमाज के जन्मकाल से ही इस पर आक्रमण होते आये हैं। राजनैतिक स्वार्थों के  लिए राजनेताओं तथा राजनीतिक दलों ने भी समय-समय पर आर्य समाज पर निर्दयता से वार किये। विदेशी शासकों, देसी रजवाड़ों व विरोधियों ने भी वार किये। कमी किसी ने नहीं छोड़ी। समाज सुधार विरोधी पोंगा-पंथियों ने भी समय -समय पर डट कर वार किये। घुसपैठ करके कई एक ने आर्यसमाज का विध्वंस करने के लिए पूरी शक्ति लगा दी। गांधी बापू ने वेद पर, सत्यार्थप्रकाश पर, ऋषि दयानन्द व स्वामी श्रद्धानन्द पर बहुत चतुराई से प्रहार किया था। आर्य नेताओं तथा विद्वानों ने बड़े साहस से यथोचित उत्तर दिया। जवाहर लाल नेहरु ने भी लखनऊ में आर्यसमाज के महासमेलन में आर्य समाज पर घिनौना आक्रमण किया था। यह सन् 1963 की घटना है। तब भी आर्य समाज ने नकद उत्तर दिया था।

अब संघ परिवार एक योजनाबद्ध ढंग से अपनी पंथाई विचारधारा देश पर थोपने में लगा है। आर्यसमाज पर सीधा-सीधा आक्रमण होने लगा है। भाजपा के नये-नये मन्त्री-तन्त्री इस काम में जुट गये हैं। देहली में स्वामी विवेकानन्द की आड़ में श्री वी.के. सिंह ने अपनी सर्वज्ञता दिखाई। फिर गुरुकुल आर्यनगर हिसार के उत्सव पर हरियाणा के मन्त्रियों ने वही कुछ करते हुए संघ का जी भर कर बखान किया। इसके लिए गुरुकुल के प्रधान महाविद्वान्? सुमेधानन्द जी बधाई के पात्र हैं। वह भाजपा का ऋण चुकाने में लगे हैं।

  1. दत्त तथा चटर्जी नाम के दो बंगाली इतिहासकारों ने अपने ग्रन्थ में लिखा है कि महर्षि दयानन्द प्रथम भारतीय थे जिन्होंने भारत भारतीयों केलिए घोष लगाया या सुनाया। स्वदेशी व स्वराज्य के इस घोष लगाने से उस युग का कौन-सा नेता व धर्मगुरु ऋषि दयानन्द के समकक्ष था? बड़ा होने का तो प्रश्न ही नहीं।
  2. जब स्वामी विवेकानन्द को कोई नरेन्द्र के रूप में भी अभी नहीं जानता था तब मथुरा की कुटी से दीक्षा लेकर महर्षि दयानन्द पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र में गायत्री व यज्ञ हवन प्रचार, स्त्रियों को वेद का अधिकार, जाति भेद निवारण, अस्पृश्यता उन्मूलन व स्वदेशी का शंखनाद करने में लगे थे। उस काल में विदेश में निर्मित चाकूके प्रयोग से महर्षि का मन आहत हुआ। विदेशी वस्त्रों को तजकर ऊधो को स्वदेशी वस्त्रों के धारण करने की इसी काल में प्रेरणा दी गई। इससे पहले किसने स्वदेशी आन्दोलन का शंखनाद किया? स्वदेशी वस्तुओं व वस्त्रों के प्रयोग में सभी नेता व विचारक ऋषि दयानन्द को नमन करते आये हैं। अब संघ परिवार ने नया इतिहास गढ़ना आरभ किया है। जो मैक्समूलर तथा नेहरु न कर पाया वह भागवत जी के चेले करके दिखाना चाहते हैं।
  3. उन्नीसवीं शतादी के बड़े-बड़े विद्वान्, सुधारक और नेता प्रायः करके गोरी सरकार व गोरों की सर्विस में रहे। पैंशनधारी भी कई एक थे। स्वामी विवेकानन्द जी ने तो अंग्रेज जाति की कभी भूरि-भूरि प्रशंसा भी की थी। गांधी जी की दृष्टि में सूर्य के तले और धरती के ऊपर अंग्रेज जाति जैसा न्यायप्रिय और कोई है ही नहीं। महर्षि दयानन्द ने किसी सरकार की, किसी राजा, महाराजा की नौकरी नहीं की। अंग्रेज जाति व अंग्रेज सरकार का कभी स्तुतिगान नहीं किया। हाँ। धर्मप्रचार की स्वतन्त्रता के लिए मुगलों की तुलना में वे अंग्रेजी राज की प्रशंसा करते थे।

न जाने किस आधार पर संघ परिवार स्वामी विवेकानन्द को उन्नीसवीं शतादी का सबसे बड़ा महापुरुष बताते हुए ऋषि दयानन्द को नीचा दिखाने पर तुला बैठा है। आश्चर्य का विषय है कि समर्थ गुरु रामदास व छत्रपति शिवाजी का गुणकीर्तन छोड़कर संघ ने स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श कैसे मान लिया?

स्वामी विवेकानन्द ने एक बार यह भी कहा था कि मुझे कायस्थ होने पर अभिमान या गौरव है। जो जन्म की जाति-पाँति पर इतराता है वह कितना भी बड़ा क्यों न हो वह आदर्श साधु महात्मा नहीं हो सकता। साधु की कोई जात व परिवार नहीं होता।

  1. अंग्रेजी न्यायालय का (Contempt of court) अपमान करने वाला सबसे पहला भारतीय महापुरुष महर्षि दयानन्द था। उन्हीं से प्रेरणा पाकर महात्मा मुंशीराम जी (स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज) ने हुतात्मा कन्हाई लाल दत्त के अभियोग के समय बड़ी निड़रता से अंग्रेजी न्यायालय का अपमान ((Contempt of court)ç किया था। क्या किसी बड़े से बड़े नेता को इन दो ऐतिहासिक तथ्यों का प्रतिवाद करने की हिमत है?

ऋषि दयानन्द के काल की तो छोड़िये, महर्षि के बलिदान के पच्चीस वर्ष पश्चात् तकाी कोई भी भारतीय नेता अंग्रेजी न्यायपालिका (British Judiciary)का अपमान नहीं कर सका। न जाने संघ परिवार को महर्षि दयानन्द की यह विलक्षणता, गरिमा, बड़प्पन, देशप्रेम व शूरता क्यों नहीं दिखाई देती?

  1. किसी भी अन्य भारतीय महापुरुष द्वारा उस युग में न्यायपालिका के अपमान की घटना सप्रमाण दिखाने की विवेकानन्दी बन्धुओं को हमारी खुली चुनौती है। लोकमान्य तिलक को उन्नीसवीं शतादी के अन्तिम वर्षों में क्राफर्ड केस में अंग्रेजी न्यायालय ने दण्डित किया था। उन्हें बन्दी बनाया गया। सब नेता न्यायालय के निर्णय को माँ का दूध समझकर पी गये। कांग्रेस तब देश व्यापी हो चुकी थी। कौन बोला न्यायालय के इस घोर अन्याय पर? देशवासी नोट कर लें कि तब शूरता की शान स्वामी श्रद्धानन्द जी ने महात्मा मुंशीराम के रूप में इस निर्णय पर विपरीत टिपणी की थी। महात्मा जी की वह सपादकीय टिप्पणी हमारे पास सुरक्षित है।
  2. महर्षि दयानन्द जी सन् 1877 के सितबर अक्टूबर मास में जालंधर पधारे थे। तब आपने एक सार्वजनिक सभा में अपनी निर्भीक वाणी से दुखिया देश का दुखड़ा रखते हुए अंग्रेजी राज के अन्याय, पक्षपात तथा उत्पीड़न को इन शदों में व्यक्त किया थाः- ‘‘यदि कोई गोरा अथवा अंग्रेज किसी देशी की हत्या कर दे तथा वह (हत्यारा) न्यायालय में कह दे कि मैंने मद्यपान कर रखा था तो उसको छोड़ देते हैं।’’

इस व्यायान का सार सपूर्ण जीवन चरित्र महर्षि दयानन्द के पृष्ठ 73 पर कोई भी पढ़ सकता है। हुतात्मा पं. लेखराम जी ने स्वामी विवेकानन्द जी के जीवन काल में अपने ग्रन्थ में यह पूरी घटना दे दी थी।

ऐसी निर्भीक वाणी उस युग के किसी भी साधु, सन्त व राजनेता के जीवन में दिखाने की क्या कोई हिमत करेगा?

जालन्धर के इसी व्यायान में ऋषि दयानन्द जी ने सन् 1857 की क्रान्ति को गदर (Mutiny) न कहकर विप्लव कहकर अपने प्रखर राष्ट्रवाद का शंख फूं का था। स्वातन्त्र्य वीर सावरकर जी ने वर्षों बाद हमारा प्रथम स्वातन्त्र्य संग्राम ग्रन्थ लिखकर घर-घर ऋषि की हुँकार पहुँचा दी। अंग्रेजी जानने वाले किसी और बाबा व नेता में तो इतनी हिमत न हुई।

  1. जब देशभक्त सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी को कारावास का दण्ड सुनाया गया तब महर्षि दयानन्द के मिशन के एक मासिक पत्र में सरकारी न्यायालय के इस अन्याय की निन्दा की गई। क्या किसी सन्यासी महात्मा ने देश में सुरेन्द्रनाथ जी के पक्ष में मुँह खोला या लिखा । हम इस घटना के प्रमाण स्वरूप अलय Document दस्तावेज दिखा सकते हैं।

दुर्भाग्य का विषय है कि आर्य समाज भी ऋषि की इन घटनाओं को विशेष प्रचारित (Highlight) नहीं करता।

  1. देश को सुनाना बताना होगा कि उन्नीसवीं शतादी के महापुरुषों में एकमेव सुधारक विचारक ऋषि दयानन्द थे जिन्होंने देश, धर्म व जाति हित में अपना बलिदान देकर बलिदान की परपरा चलाई। किसी और संगठन, किसी बाबा की परपरा में एक भी साधु, युवक, बाल, वृद्ध गोली खाकर, फांसी पर चढ़कर, छुरा खाकर, जेल में गल सड़कर देश धर्म के लिए बलिवेदी पर नहीं चढ़ा। यहाँ पं. लेखराम जी से लेकर वीर राम रखामल (काले पानी में), वीर वेदप्रकाश, भाई श्यामलाल और धर्मप्रकाश, शिवचन्द्र तक शहीदों की एक लबी सूची है। सेना प्रमुख श्रीयुत वी.के.सिंह तथा आर्यनगर हिसार में सुमेधानन्द महाराज की बुलाई नेता-पलटन इतिहास को क्या जाने?
  2. महर्षि दयानन्द का पत्र व्यवहार पढ़िये। प्रत्येक दो या तीन पत्रों के पश्चात् प्रत्येक पत्र में देश जाति के उत्थान कल्याण की ऋषि बात करते हैं। किसी अंग्रेजी पठित साधु, नेता के जीवन चरित्र व पत्रावली में ऐसा उद्गार, ऐसी पीड़ा और गुहार दिखा दीजिये। ऋषि दयानन्द की देन व व्यक्तित्व का अवमूल्यन करने वाले सब तत्त्वों को यह मेरी चुनौती है कि इन दस बिन्दुओं को सामने आकर झुठलावें।

‘रक्षा बन्धन अन्याय न करने और अन्याय पीढि़तों की रक्षा करने का संकल्प लेने का पर्व है’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

प्रत्येक वर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन रक्षा बन्धन का पर्व सभी सुहृद भारतीयों द्वारा विश्व भर में सोत्साह मनाया जाता है। समय के साथ प्रत्येक रीति रिवाज व परम्परा में कुछ परिवर्तन होता रहता है। ऐसा ही कुछ परिवर्तन रक्षा बन्धन पर्व में हुआ भी लगता है। भारत में मुस्लिम काल में जब आक्रमण, मन्दिरों की लूट, देशवासियों का अपमान, अन्यायपूर्ण व बलपूर्वक धर्मान्तरण और निर्दोषों की हत्यायें होने लगीं तो इन अन्यायों से रक्षा की आवश्यकता हिन्दू समाज को अनुभव होने लगी। इसका उपाय यही हो सकता था कि वह संगठित होते ओर सामाजिक स्तर पर परस्पर रक्षा के सात्विक व पवित्र सम्बन्ध में बंधते। ऐसा ही हुआ होगा, इसी कारण हमारी आर्य जाति आज भी संसार में विद्यमान है अन्यथा जितने आक्रमण, अन्याय, शोषण व अत्याचार इस हिन्दू जाति पर विदेशियों व विधर्मियों ने मध्यकाल व बाद के वर्षों में हुए हैं, उनके कारण यदि इस जाति का अस्तित्व समाप्त भी हो जाता, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। अतः आज का दिन हमें अपने इतिहास को स्मरण करने व उससे शिक्षा लेने का है। अपना अज्ञान दूर कर ज्ञान व सत्य के आधार पर मनुष्य समाज को संगठित करना ही संसार के प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। यह यद्यपि अतीत का भी धर्म व कर्तव्य था, परन्तु इसके विपरीत हमें अमानवीय कृत्य से भरा इतिहास प्राप्त हुआ है। हम वर्तमान और भविष्य को बदल सकते हैं। अतः अतीत की घटनाओं को स्मरण कर अपनी निजी व सामाजिक कमियों व त्रुटियों को दूर कर दूसरों पर अन्याय व अत्याचार न करना और न ही सहन करना की भावना का प्रचार होना ही रक्षा बन्धन पर्व का यथार्थ सन्देश विदित होता है।

 

रक्षा बन्धन में बहिनें भाइयों को रक्षा सूत्र बांधती हैं। इसमें क्या सन्देश है जो आज भी प्रासंगिक है। इस पर विचार करने से यह तथ्य सामने आता है कि अतीत में जब स्त्री जाति पर दुष्ट व अमानुष पुरूषों के अत्याचार हुए तो उन्हें रक्षा की आवश्यकता अनुभव हुई। ऐसा कौन सा व्यक्ति हो सकता था जो उनकी रक्षा करता और यदि प्राणों को भी न्योछावर करना पड़ता तो उसमें भी वह पीछे न हटता। इसका एक ही उत्तर है कि यह कार्य किसी भी बहिन का भाई ही कर सकता है। माता पिता वृद्ध होने के कारण शक्ति सम्पन्न युवा दुष्ट पुरुषों को उनके दुष्कृत्यों का सबक नहीं सिखा सकते। यह काम सदाचारी व धार्मिक प्रवृत्ति के युवक ही कर सकते थे और वह उनके भाई ही हो सकते थे। इसी आधार पर रक्षा बन्धन पर्व की नींव पड़ी। हमें यह भी अनुभव होता है कि इस पर्व व प्रथा से हमारे देश की न केवल स्त्री जाति की ही रक्षा हुई अपितु हमारे धर्म व संस्कृति की रक्षा भी हुई है। यद्यपि आज हमारे सामने इतिहास उपलब्ध नहीं है परन्तु हमें यह स्पष्ट अनुभव होता है कि अनेक भाईयों ने इस कार्य के लिए अपने प्राणों की आहुतियां भी दी होगी। अतः रक्षा बन्धन पर्व बनाते हुए हमें जहां अपनी सहोदर बहिनों की रक्षा का संकल्प लेना है वहीं समाज की समस्त स्त्री जाति के प्रति रक्षा की भावना अपनी आत्मा में उत्पन्न करनी है। यह संकल्प रूपी संस्कार ही रक्षा बन्धन पर्व को मनाने को सार्थकता प्रदान करता है। दूसरा संकल्प यही है कि हमें न तो अन्याय सहना है और न ही दूसरों पर किसी प्रकार का अन्याय करना है। इसी में यह भी जोड़ा जा सकता है कि हमें समाज के उच्च व श्रेष्ठ विचार के लोगों को संगठित कर एक ऐसा सामाजिक कवच तैयार करना है कि दुष्ट लोग किसी अबला, स्त्री व असहाय व्यक्ति के प्रति किसी भी प्रकार का अत्याचार व अन्याय न कर सके। आर्य समाज को स्थापित करने के अनेक कारणों में से एक कारण यह भी रहा।

 

रक्षा बन्धन के पर्व से कुछ ऐतिहासिक घटनायें भी जुड़ी हुई हैं। आर्य जगत के प्रख्यात विद्वान पं. भवानी प्रसाद जी ने इस पर संक्षिप्त प्रकाश डाला है। उसको स्मरण कर लेना भी इस अवसर पर उचित प्रतीत होता है। उनके अनुसार राजपूत काल में अबलाओं के अपनी रक्षार्थ सबल वीरों के हाथ में राखी बांधने की परिपाटी का प्रचार हुआ है। जिस किसी वीर क्षत्रिय को कोई अबला राखी भेजकर अपना राखी-बन्द भाई बना लेती थी, उस की आयु भर रक्षा करना उस का कत्र्तव्य हो जाता था। चित्तौड़ की महारानी कर्णवती ने मुगल बादशाह हुमायूं को गुजरात के बादशाह से अपनी रक्षार्थ राखी भेजी थी, जिससे उस ने चित्तौड़ पहुंचकर तत्काल अन्त समय पर उस को सहायता की थी और चित्तौड़ का बहादुरशाह के आक्रमण से उद्धार किया था। तब से बहुत से प्रान्तों में यह प्रथा प्रचलित है कि भगिनियां और पुत्रियां अपने भ्राताओं और पिताओं के हाथ में श्रावणी के दिन राखी बांधती हैं और वे उन से कुछ द्रव्य और वस्त्र पाती हैं। यदि यह प्रथा पुत्री और भगिनी-वात्सल्य को दृढ़ करने वाली मानी जाए तो उस के प्रचलित रहने में कोई क्षति भी नहीं है।

 

वह आगे कहते हैं कि आजकल की श्रावणी को प्राचीन काल के उपाकर्म-उत्सर्जन, वेद स्वाध्याय रूप ऋषि तर्पण और वर्षाकालीन वृहद् हवन-य़ज्ञ (वर्षा चातुर्मास्येष्टि) का विकृत तथा नाममात्र शेष स्मारक समझना चाहिए और प्राचीन प्रणाली के पुनरुज्जीवनार्थ उस को बीज मात्र मानकर उस को अंकुरित करके पत्रपुष्पसफल समन्वित विशाल वृक्ष का रूप देने का उद्योग करना चाहिए। आर्य पुरुषों को उचित है कि श्रावणी के दिन बृहद हवन और विधिपूर्वक उपकर्म करके वेद तथा वैदिक ग्रन्थों के विशेष स्वाध्याय का उपाकर्म करें और उस को यथाशक्ति और यथावकाश नियमपूर्वक चलाते रहें।

 

आज ही के दिन आर्यसमाज के गुरूकुलों में नये ब्रह्मचारियों के प्रवेश कराने के साथ उपनयन एवं वेदारम्भ संस्कार किये जाते हैं जिसमें आर्य जनता सोत्साह भाग लेती है और नये ब्रह्मचारियों को उनके वेदाध्ययन के व्रत में सहायक बन कर सहयोग देने के साथ उनसे वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा की अपेक्षा करती है। आज के दिन गुरूकुल के संचालकों, आचार्यों एवं अन्य अधिकारियों को गुरूकुल शिक्षा पद्धति पर गोष्ठी करनी चाहिये और गुरूकुल शिक्षा प्रणाली को अधिक प्रासंगिक व प्रभावशाली बनाने के साथ इससे राम-कृष्ण-चाणक्य-दयानन्द बनाने व तैयार करने की योजना बनानी चाहिये जिससे हमारी धर्म व संस्कृति न केवल सुरक्षित रह सके अपितु यह विश्ववारा धर्म व संस्कृति संसार में अपना गौरवपूर्ण स्थान ग्रहण कर सके, उसका प्रयास किया जाना चाहिये। रक्षा बन्धन पर्व की सभी देशवासियों को बधाई।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

अब यह सुनिए मौसम किस तरह बदलते हैं : डॉ. गुलाम जिलानी बर्क ( دو اسلام )

हम और आप तो इतना ही जानते हैं और हकीकत भी यही है कि गर्मी में हम सूरज के करीब होते हैं और सर्दी में दूर . इसलिए गर्मी और सर्दी महसूस करते हैं .

गर्मी में जमीन के खाकी जर्रात गरम हो जाते हैं और चूँकि यह जर्रात पहाड़ों में  कम होते हैं इसलिए वहां मुकाबलतन ठंडक होती है . लेकिन हदीस कहती है :-

“अबू हुरैरा आ हजरत सल्ल्लम से रवायत करते हैं की एक मर्तबा जहन्नम ने खुदा के पास शिकायत की कि मेरा दम घुट जाता है इसलिए मुझे सांस लेने की इजाज़त दीजिये .

अल्लाह ने कहा कि तुम साल में सिर्फ दो सांस ले सकते हो . इसलिए जहन्नम की एक सांस से मौसम गरम और दूसरी में सरद पैदा हो गया .

लेकिन दुनिया की गरमी व सर्दी से जहन्नम की गर्मी व सर्दी बहुत ज्यादा है .”

(बुखारी जिल्द -२ )

 

लेकिन यह समझ में नहीं आया कि हर साल गर्मियों के मौसम में वही इलाके इस सांस की लपेट में क्यूँ आते हैं जो ख़त ए अस्तवा  ( भूमध्यरेखा ) के करीब  हैं . और सारा यूरोप सायबेरिया ग्रीन लैंड और कनाडा क्यूँ बच  जाते  हैं  .

और यह भी तो फरमाया होता कि गर्मियों में पहाड़ों पर क्यूँ गर्मी नहीं होते ? वहां तक इस सांस का असर क्यूँ नहीं  पहुंचता ?

और सर्दियों में  ख़त ए अस्तवा ( भूमध्यरेखा )का इलाका क्यूँ गरम रहता है ?

मालूम होता है कि जहन्नम ने जमीन  को दो हिस्सों में बाँट रखा है .

सर्दियों में वो अहले यूरोप की खबर लेता है और गर्मियों में हमारी.

सच है इन्साफ अच्छी चीज है

یہ  لیخ دو اسلام کتاب  سے لیا گیا ہے

 

 

पूर्व राष्ट्रपति एवं आजीवन शिक्षक कलाम के प्रति श्रद्धाञ्जलि: डॉ धर्मवीर

वर्तमान समय में देश का दुर्भाग्य है कि हमारे समाज में शिक्षक की भूमिका नगण्य मानी जाती है। कुछ समय पहले तक ग्रामीण समाज के लोग शिक्षक के कार्य को कार्य ही नहीं मानते थे। इसके दो उदाहरण स्मरण आ रहे  हैं एक- हरियाणा में मुयमन्त्री बंशीलाल भाषण दे रहे थे- गाँव की सभा में लोगों ने अपने गाँव में विद्यालय खोलने की माँग की, तो मुयमन्त्री का उत्तर था- तुम सड़क बनवा लो, बिजली लगवा लो, गाँव के लिये बस की व्यवस्था करवा लो, जितने भी काम उत्पादकता से जुड़े हैं, उन्हें करने में मैं देर नहीं करुँगा परन्तु विद्यालय जैसे कार्य मेरी प्राथमिकता में नहीं है। इस प्रकार गाँव के एक चौधरी ने बाहर काम कर रहे एक युवक से गाँव में लौटने पर, भेंट के प्रसंग में पूछा- भाई कोई नौकरी मिली या अभी मास्टरी ही कर रहे हो। ये दो उदाहरण हमारी सामाजिक सोच के लिए पर्याप्त हैं। यह ठीक है कि इधर के वर्षों में शिक्षा को लेकर सोच बदला है परन्तु यह सोच भी सही दिशा में नहीं जा रहा। प्रथम तो समाज में शिक्षा दो भागों में विभाजित हो गई है। एक कुलीन  व सपन्न समझे जाने वाले वर्ग के बच्चों को जो शिक्षा मिलती है। ये बच्चे जिन विद्यालयों में जिन अध्यापकों से पढ़ते हैं, वहाँ शिक्षा के प्रति विशेष ध्यान दिया जाता है, इन बालकों में पर्याप्त प्रतिस्पर्धा भी रहती है। इनको अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन करने का पर्याप्त अवसर मिलता है जिनके परिणाम और उपलधियों को देख कर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हमें लगता है कि भारत में शिक्षा का स्तर ऊँचा है, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इन्हीं मेधावी युवकों के कारण भारत की प्रतिष्ठा बढ़ रही है। ये तो भारत के प्रकाशमान भाग का दृश्य है।

भारत की शिक्षा का एक अन्धकारपूर्ण पक्ष है। जहाँ निर्धनता, दरिद्रता के कारण उक्त शिक्षा संस्थानों तक उन बालकों की पहुँच नहीं हो पाती। इन स्थानों पर जो गाँव हैं, ये स्थान नगरों से दूर, नगर की सुविधाओं से वञ्चित अज्ञान, अशिक्षा, निर्धनता से त्रस्त और शिक्षा के अवसरों से वञ्चित हैं। जहाँ मनुष्य मजदूरी, काम के अभाव में या उसकी विवशता में शिक्षा की बात भी नहीं सोच सकता। इन स्थानों पर शिक्षा के लिये किये गये सरकारी प्रयास सरकार की भांति दुर्दशा से ग्रस्त हैं। प्रथमतः इन क्षेत्रों में शिक्षा की व्यवस्था और सुविधा उपलध ही नहीं है। यदि कहीं उपलध है तो इन विद्यालयों में कहीं भवन नहीं, कहीं शिक्षक नहीं, कहीं शिक्षा के उपकरण नहीं। सब कुछ तो, सभव है, इन क्षेत्रों में कहींाी न मिले। हमारी सरकारी शिक्षा-व्यवस्था की दशा इस बात से जानी जा सकती है कि व्यक्ति अध्यापन का सेवा-कार्य राजकीय विद्यालयों में करने का आग्रह करता है परन्तु यदि उसको अपने बच्चों को पढ़ाने का  का अवसर मिलता है तो अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़ाता है। इससे निजी और सरकारी विद्यालयों की शिक्षा का अन्तर समझना सरल है।

शिक्षा के इन केन्द्रों की समस्या यह है कि सरकार ने छात्र बीच में शिक्षा को छोड़कर न जाये, इस विचार से पाँचवी से आठवीं तक छात्रों को अनुत्तीर्ण न करने का निर्देश दिया हुआ है। इसका परिणाम है कि राजकीय विद्यालयों में छात्र न पढ़ते हैं और जो आते भी हैं तो वे पढ़ना नहीं चाहते। आज सुधार के नाम पर विद्यालयों की ऐसी दुर्दशा हो गई है। अध्यापक न पढ़ने पर, विद्यालय न आने पर, पाठ न सुनाने पर छात्रों को डांट भी नहीं सकता। यदि किसी अध्यापक ने कुछ प्रयास किया तो बात माता-पिता से होकर पुलिस तक पहुँच जाती है। ऐसी परिस्थिति में अध्यापक अपने प्रयासों को छोड़ देता है। सरकार पिछड़ी जातियों के लिए छात्रवृत्ति एवं छात्रावास की सुविधा देती है परन्तु घर और विद्यालयों का वातावरण शिक्षा के अनुकूल न होने के कारण अधिकांश छात्र इन सुविधाओं का सदुपयोग नहीं कर पाते।

शिक्षा की दशा  समझने के लिये एक उदाहरण पर्याप्त होगा। जैसा ऊपर बताया गया कि व्यक्ति शिक्षा की नौकरी तो राजकीय चाहता है परन्तु विद्यालय का स्तर न अध्यापक, न अधिकारी, न सरकार ही सुधारना चाहती है। उदाहरण दिल्ली प्रदेश का है। शीला सरकार ने एक बार विचार किया कि राजकीय विद्यालयों का परीक्षा परिणाम सन्तोषजनक नहीं रहता तो अच्छा होगा इन विद्यालयों का प्रबन्ध निजी हाथों में सौंप दिया जाय। यह तो अध्यापकों के लिए खतरे की घण्टी थी। राजकीय विद्यालयों ने इस समस्या का तत्काल समाधान खोज लिया। जब दसवीं की परीक्षा हुई, मुयाध्यापकों के निर्देशन में अध्यापकों ने छात्रों के साथ भरपूर सहयोग किया और उस वर्ष का राजकीय विद्यालयों का परिणाम सुधर गया। अध्यापकों पर लटक रही तलवार हट गई। शिक्षा का स्तर भी सुधर गया, समस्या का हल भी हो गया। अब विचारने की बात है कि दिल्ली जैसे प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था ऐसी है तो शेष देश की क्या परिस्थिति होगी?

यहाँ तक ही शिक्षा की समस्या का अन्त नहीं होता। यथार्थ तो यह है कि शिक्षा की वास्तविक समस्या यहाँ से प्रारभ होती है। शिक्षा इस देश में अनेक प्रकार की है। एक महंगी शिक्षा, दूसरी सस्ती शिक्षा। महंगी शिक्षा वाले लोग अपने को इस देश का प्रथम श्रेणी का नागरिक मानते हैं। ऐसे लोग अपने बच्चों को दूसरी श्रेणी के बच्चों से बराबरी नहीं करने देना चाहते। प्रथम प्रयास में महंगी शिक्षा की तुलना में सस्ती शिक्षा में पढ़ा हुआ छात्र अपने आप पिछड़ जाता है तथा अपने को पिछड़ा मान लेता है। इससे आगे इस देश की सरकार ने शिक्षा को एक बाधा दौड़ बना रखा है। जो बालक पहली महंगी-सस्ती बाधा दौड़ किसी प्रकार पार कर लेता है, अपनी प्रतिभा से किसी सामाजिक, सरकारी, व्यक्तिगत सहायता से इस बाधा को पार कर लेता है, उसके सामने आगे की पढ़ाई के लिये दूसरी मुय बाधा भाषा की आती है। इन तथाकथित सभ्रान्त विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने से ग्रामीण और सरकारी विद्यालयों के बालक प्रतिभा सपन्न होने पर भी वे अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में पढ़े छात्रों की प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाते हैं। अधिकांश को अपनी शिक्षा अधूरी छोड़कर, अन्य क्षेत्रों में आजीविका अपनानी पड़ती है। देश की बहुसंयक जनता के बालकों के साथ हो रहे अन्याय को कोई अनुभव नहीं करना चाहता, उपाय करना तो दूर की बात है।

उच्च शिक्षा के सारे पाठ्यक्रम अंग्रेजी के माध्यम से पढ़ाये जाते हैं, जो व्यक्ति डॉक्टर, वकील, इञ्जीनियर, प्रशासक, व्यवस्थापक, अध्यापक, अनुसन्धानकर्त्ता कुछ भी बनना चाहे वह अंग्रेजी के बिना बन ही नहीं सकता। जो लोग हिन्दी या देश भाषा को पिछड़ा मानते हैं या कहते हैं, वे यह क्यों छिपाते हैं कि स्वतन्त्रता के बाद अंग्रेजी को बढ़ाने का जितना यत्न किया गया, उससे अधिक प्रयत्न हिन्दी को और प्रान्तीय भाषाओं को दबाने का किया गया। फिर एक बात सोचने की है, क्या पराधीन रहते बहुत दिन हो गये हों तो स्वतन्त्रता के विषय में विचार करना, स्वाधीनता के लिये प्रयत्न करना छोड़ देना चाहिए? जो स्वतन्त्रता की बात देश के लिए की जाती है, वह देश की भाषा के लिए क्यों नहीं की जानी चाहिए, क्या भाषा की स्वतन्त्रता के बिना देश को स्वतन्त्र कहना आत्म प्रवचञ्चना नहीं है? आज जब इस देश के प्रशासन की भाषा, न्यायालयों की भाषा, संसद व विधान मण्डलों की भाषा, विदेशी कपनियों के कारण व्यवसाय की भाषा अंग्रेजी है, ऐसी परिस्थिति में इस देश की जनता के पास गूंगा-बहरा बने रहने के अतिरिक्त क्या विकल्प शेष बचता है। आज की नई सामाजिक व्यवस्था के कारण सभी बातों का व्यावसायीकरण हो रहा है, बहुत कुछ हो गया है। ऐसी स्थिति में शिक्षा का जिस व्यापक रूप में व्यवसायीकरण हो रहा है उसके चलते हम सामान्य बालक को शिक्षित करने की बात सोच भी नहीं सकते। शिक्षा कई अर्थों में आजीविका से भी महत्त्वपूर्ण है। किसी को आजीविका देने मात्र से शिक्षित नहीं किया जा सकता परन्तु शिक्षित कर देने से आजीविका पाने योग्य मनुष्य स्वतः बन जाता है। इस भाषा और साधन, सुविधा, शिक्षक के अभाव में देश की नई पीढ़ी को शिक्षा से वञ्चित करना उसकी बौद्धिक हत्या करने के समान है। भले ही इस हत्या के लिए आपके संविधान में किसी दण्ड का विधान न हो परन्तु पाप होने के कारण इस अपराध को करने वाले परमेश्वरीय दण्ड विधान से नहीं बच सकते। देश के स्वतन्त्र होने के बाद, इस देश का प्रधानमन्त्री और सरकार अंग्रेजों की कृतज्ञ रही है। अंग्रेज की रीति-नीति, भाषा-भूषा, कार्यशैली सभी कुछ वही अपनाया गया। जो विद्यालय ईसाई चर्च के द्वारा चलते थे उन्हीं को आदर्श मान लिया। सरकारी अधिकारियों ने अपने बच्चों को इन विद्यालयों में पढ़ा कर उनका भविष्य सुरक्षित कर लिया। जिस प्रकार कांग्रेस के नेताओं ने अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाकर अंग्रेजों का प्रिय पात्र बनाया और अंग्रेज जाते-जाते ऐसे लोगों के हाथ में इस देश के शासन का सूत्र सौंप गये जिसका परिणाम है कि यह देश आज तक भी पराधीनता के चंगुल से मुक्त नहीं हो सका है। किसी भी देश की आत्मा उस देश की भाषा में बसती है और उसका संस्कार शिक्षा में। आज देश को शिक्षा और शिक्षक के महत्व को समझने की आवश्यकता है। ट्यूशन पढ़ाकर पैसा कमाने वाले अध्यापक ऊँची फीस लेकर शिक्षा की दुकान चलाने वाले शिक्षा के व्यापारी इस बात को नहीं समझ सकते हैं, इस देश के लोग कह सकते हैं भाषा या साधनहीनता मनुष्य के लिये बाधक नहीं बन सकती जैसे कलाम के लिए या नरेन्द्र मोदी के लिये, परन्तु यह हम क्यों भूल जाते हैं कि मोदी या कलाम अपवाद से बनते हैं, नियम से नहीं। इससे अच्छा ऐसा अवसर कौन सा हो सकता है कि हम एक ऐसे व्यक्ति को श्रद्धाञ्जलि दे रहे हैं जो एक बुद्धिमान् वैज्ञानिक था, निष्ठावान देशभक्त था, स्वभाव से संवेदनशील था, पद से देश का पूर्व राष्ट्रपति था और प्रवृत्ति से अध्यापक था। राष्ट्रपति पद छोड़ने के अगले दिन और जीवन के अन्तिम दिन कक्षा में उपस्थित रहा। जिसका प्राणान्त पढ़ाते हुए हुआ, जिसे अध्यापक होने में प्रसन्नता का अनुभव होता था और अध्यापक कहलाने में गर्व। जिनका जीवन सबके लिये प्रेरणाप्रद है। कलाम ने शिक्षकों के लिये जो शपथ बनाई है, उसमें उनकी एक आदर्श अध्यापक वृत्ति लक्षित होती है-

  1. 1. सबसे पहले मैं शिक्षण से प्रेम करुँगा। शिक्षण मेरी आत्मा होगी।
  2. 2. मैं महसूस करता हूँ कि मैं न सिर्फ छात्रों को अपितु प्रज्वलित युवाओं को आकार देने के लिये जिमेदार हूँ, जो पृथ्वी के नीचे, पृथ्वी पर और पृथ्वी के ऊपर सबसे शक्तिशाली संसाधन हैं। मैं शिक्षण के महान मिशन के लिए सपूर्ण रूप से प्रतिबद्ध हो जाऊँगा।
  3. 3. मैं स्वयं को एक महान् शिक्षक बनाने के लिये विचार करुँगा, जिससे मैं अपने विशिष्ट शिक्षण के माध्यम से औसत स्तर के बालक का उत्थान सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने के लिये कर सकता हूँ।
  4. विद्यार्थियों के साथ मेरा कार्य व्यवहार एक माँ, बहन, पिता या भाई की तरह दयावान और स्नेह पूर्ण रहेगा।
  5. 5. मैं अपने जीवन को इस प्रकार से संगठित एवं व्यवहृत करुँगा कि मेरा जीवन स्वयं ही मेरे विद्यार्थियों के लिये एक सन्देश बने।
  6. 6. मैं अपने विद्यार्थियों को प्रश्न पूछने तथा उनमें जिज्ञासा की भावना को विकसित करने को प्रोत्साहित करुँगा ताकि वे रचनात्मक प्रबुद्ध नागरिक के रूप में विकसित हो सके।
  7. 7. मैं सभी विद्यार्थियों से एक समान व्यवहार करूँगा तथा धर्म, समुदाय या भाषा के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव का समर्थन नहीं करुंगा।
  8. 8. मैं लगातार अपने शिक्षण में क्षमता निर्माण करुँगा ताकि मैं अपने छात्रों को उच्च गुणवत्ता की शिक्षा प्रदान कर सकूँ।
  9. 9. मैं अत्यन्त आनन्द के साथ अपने छात्रों की सफलता का जश्न मनाऊँगा।
  10. 10. एक शिक्षक होने के नाते मैं अहसास करता हूँ कि राष्ट्रीय विकास के लिये की जा रही सभी पहल में मैं एक महत्वपूर्ण योगदान कर रहा हूँ।
  11. 11. मैं लगातार मेरे मन को महान् विचारों से भरने तथा चिन्तन व कार्य व्यवहार में सौयता का प्रसार करने का प्रयास करुँगा।
  12. 12. हमारा राष्ट्रीय ध्वज मेरे हृदय में फहराता है तथा मैं अपने देश के लिये यश लाऊँगा।

डॉ. कलाम के हृदय की देश के छात्रों के प्रति संवेदनशीलता और राष्ट्र निष्ठा का इससे बड़ा क्या उदाहरण हो सकता है। इसी प्रकार कलाम के जीवन की बहुत सारी घटनाओं में से एक घटना का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा। तमिलनाडु के वेल्लौर जिले की एक छात्रा सुदारकोडी सुकुमार ने एक बार कलाम से पूछा था- आप इन तीन विशेषणों में से किसको अपने लिये उपयुक्त समझेंगे। प्रथम आप एक वैज्ञानिक है, दूसरा- आप भारतीय तमिल हैं, तीसरा- आप एक मनुष्य हैं। तब कलाम ने उत्तर दिया था- यदि मैं मनुष्य हूँ तो शेष दो मेरे अन्दर स्वतः आ जायेंगे। इतना ही नहीं इस छात्रा को कलाम ने स्मरण रखा और उसके प्रश्न को अपनी आत्मकथा का शीर्षक बनाकर पुस्तक विमोचन के समय उसको बुलाया।

ऐसे व्यक्ति के लिए सच्ची श्रद्धाञ्जलि देश अपने सभी नागरिकों को उच्च शिक्षा का अधिकार देकर उसका प्रबन्ध कर उसकी प्रतिभा को विकसित करने के लिये शिक्षा को बालक की मातृभाषा में सुलभ करके ही दे सकता है अन्यथा तो यह श्रद्धाञ्जलि पाखण्ड मात्र है। डॉ. कलाम जैसे गुरु के लिये ही कहा जा सकता है-

अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानानञ्जनशलाकया।

चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।।

– धर्मवीर

देश की परतन्त्रता में मूर्तिपूजा की भूमिका पर महर्षि दयानन्द का सन् 1874 में दिया एक हृदयग्राही ऐतिहासिक उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हमने विगत तीन लेखों में महर्षि दयानन्द के सन् 1874 में लिखित आदिम सत्यार्थ प्रकाश से हमारे देश आर्यावर्त्त में महाभारत काल के बाद अज्ञान व अन्धविश्वासों में वृद्धि, मूर्तिपूजा के प्रचलन, मन्दिरों के विध्वंश व इनकी अकूत सम्पत्ति की लूट, देश की परतन्त्रता आदि कारणों पर उनके उपदेशों को प्रस्तुत किया है। इसी क्रम में यह एक अन्य उपदेश प्रस्तुत कर इस श्रृंखला का समापन कर रहे हैं। महर्षि दयानन्द अपने इस उपदेश में कहते हैं कि देश के चार ब्राह्मणों ने अच्छा विचार किया कि कोई क्षत्रिय राजा इस देश में अच्छा नहीं है, इसका कुछ उपाय करना चाहिए। वे चारों ब्राह्मण अच्छे थे, क्योंकि सब मनुष्यों के ऊपर कृपा करके उन्होंने अच्छी बात विचारी। ऐसा करना अच्छे पुरुषों का काम है बुरों का नहीं। फिर उन्होंने क्षत्रियों के बालकों में से चार अच्छे बालक छांट लिए और उन क्षत्रियों से कहा कि तुम लोग बालकों के खाने पीने का प्रबन्ध रखना। उन्होंने स्वीकार किया और सेवक भी साथ रख दिए। वे सब आबू राजपर्वत के ऊपर जाके रहे और उन बालकों की अक्षराभ्यास और श्रेष्ठ व्यवहारों की शिक्षा करने लगे। फिर उनका यथाविधि संस्कार भी उन्होंने किया। सन्ध्योपासन और अग्निहोत्रादिक वेदोक्त कर्मों की शिक्षा उन्होंने की तत्पश्चात व्याकरण, छः दर्शन, काव्यालंकार सूत्र सनातन कोश, यथावत् पदार्थ विद्या उनको पढ़ाई। इसके बाद वैद्यक शास्त्र तथा गान विद्या, शिल्प विद्या और धनुर्विद्या अर्थात् युद्ध विद्या भी उनको अच्छी प्रकार से पढ़ाई। राजधर्म जैसा कि प्रजा से वर्तमान करना और न्याय करना, दुष्टों को दण्ड देना तथा श्रेष्ठों का पालन करना, यह भी सब पढ़ाया। ऐसे 25 वा 26 वर्ष की आयु उनकी हुई।

 

उन पण्डितों की स्त्रियों (धर्मपत्नियों) ने इसी प्रकार से चार कन्या रूप गुण सम्पन्न को अपने पास रखके व्याकरण, धर्मशास्त्र, वैद्यक, गान विद्या तथा नाना प्रकार के शिल्प कर्म पढ़ाए और व्यवहार की शिक्षा भी की तथा युद्ध विद्या की शिक्षा, गर्भ में बालकों का पालन और पति सेवा का उपदेश भी यथावत् किया। फिर उन पुरुषों को परस्पर चारों का युद्ध करना और कराने का यथावत् अभ्यास कराया। इस प्रकार अध्ययन व अभ्यास करते हुए चालीस-चालीस वर्ष के वह पुरुष हुए। बीस-बीस वर्ष की वे कन्या हुईं। तब उनकी प्रसन्नता से और गुण परीक्षा से एक से एक का विवाह कराया। जब तक विवाह नहीं हुआ था, तब तक उन पुरुषों की और कन्याओं की यथावत् रक्षा की गई थी। इससे उनको विद्या, बल, बुद्धि तथा पराक्रम आदि गुण भी उनके शरीर में यथावत् हुए थे।

 

पश्चात उन पुरुषों से ब्राह्मणों ने कहा कि तुम लोग हमारी आज्ञा को मानों। तब उन सबों ने कहा कि जो आपकी आज्ञा होगी, वही हम करेंगे। तब उन ब्राह्मणों ने उनसे कहा कि हमने तुम्हारे ऊपर परिश्रम किया है सो केवल जगत् के उपकार के हेतु किया है। सो आप लोग देखों कि आर्यावर्त्त में गदर मच रहा है। मुसलमान लोग इस देश में आकर बड़ी दुर्दशा करते हैं और धन आदि लूट के ले जाते हैं। सो इस देश की नित्य दुर्दशा होती जाती है। आप लोग यथावत् राजधर्म से प्रजा का पालन करो और दुष्टों को यथावत् दण्ड दो। परन्तु एक उपदेश सदा हृदय में रखना कि जब तक वीर्य की रक्षा और जितेन्द्रिय रहोगे, तब तक तुम्हारा सब कार्य सिद्ध होता जायेगा और हमने तुम्हारा विवाह अब जो कराया है सो केवल परस्पर रक्षा के हेतु किया है कि तुम और तुम्हारी स्त्रियां संग-संग रहोगे तो बिगड़ोगे नहीं और केवल सन्तानोत्पत्ति मात्र विवाह का प्रयोजन जानना और मन से भी पर-पुरुष वा पर-स्त्री का चिन्तन भी नहीं करना और विद्या तथा परमेश्वर की उपासना और सत्यधर्म में सदा उपस्थित रहना। जब तक तुम्हारा राज्य न जमें, तब तक स्त्री पुरुष दोनों ब्रह्मचर्याश्रम में रहो क्योंकि जो क्रीड़ासक्त होगे तो तुम्हारे शरीर से बल आदि न्यून हो जायेंगे। इससे युद्धादि में उत्साह भी न्यून हो जायगा और हम भी एक-एक के साथ एक-एक रहेंगे। अब हम और आप लोग चलें और चल के यथावत् राज्य का प्रबन्ध करें। फिर वे वहां से चले। वह चार इन नामों से प्रख्यात थे, चौहान, पंवार, सोलंकी इत्यादि। उन्होने दिल्ली आदि में राज्य किया था। जब वह राज्य करने लगे थे तब कुछ-कुछ सुप्रबन्ध भी हुआ था।

 

कुछ काल के पीछे एक मुसलमान सहाबुद्दीन गोरी भी उसी प्रकार इस देश कन्नौज आदि में आया था। उस समय कन्नौज का बड़ा भारी राज था सो इसके भय के मारे अपने ही लोग जाके उसको मिले और युद्ध कुछ भी नहीं किया क्योंकि उस वक्त राजाओं के शरीर स्त्री के शरीर से भी कोमल थे, इससे वे क्या युद्ध कर सकते?  फिर अन्यत्र युद्ध जहां-तहां किया सो उस सहाबुद्दीन गोरी का विजय हुआ और आर्यावत्र्त वालों का पराजय हुआ। पश्चात दिल्ली वालों से किसी समय उसका युद्ध हुआ। उस युद्ध में पृथ्वीराज मारा गया और उस सहाबुद्दीन गोरी ने अपना सेनाध्यक्ष दिल्ली में रक्षा के हेतु रख दिया। उसका नाम कुतुबद्दीन था। वह जब वहां रहा तब कुछ दिन के पीछे उन राजाओं को निकाल के आप राजा हुआ। उस दिन से मुसलमान लोग यहां राज्य करने लगे और सबने कुछ-कुछ जुलुम किया। परन्तु उनके बीच में से अकबर बादशाह कुछ अच्छा हुआ और न्याय भी संसार में होने लगा। सो अपनी बहादुरी से और बुद्धि से सब गदर मिटा दिया। उस समय राजा और प्रजा सब सुखी थे।

 

आर्यावर्त्त के राजा और धनाढ्य लोग विक्रमादित्य के पीछे सब विषय सुख में फंस रहे थे। उससे उनके शरीर में बल, बुद्धि, पराक्रम और शूरवीरता प्रायः नष्ट हो गई थी, क्योंकि सदा स्त्रियों का संग, गाना बजाना, नृत्य देखना, सोना, अच्छे-अच्छे कपड़े और आभूषण को धारण करना, नाना प्रकार के इत्र और अंजन नेत्र में लगाना, इससे उनके शरीर बड़े कोमल हो गए थे कि थोड़े से ताप वा शीत अथवा वायु का सहन नहीं हो सकता था। फिर वे युद्ध क्या कर सकते, क्योंकि जो नित्य स्त्रियों का संग और विषय भोग करेंगे, उनका भी शरीर प्रायः स्त्रियों जैसा हो जाता है। वे कभी युद्ध नहीं कर सकते, क्योंकि जिनके शरीर दृढ़, रोग रहित, बल, बुद्धि और पराक्रम तथा वीर्य की रक्षा करना और विषय भोग में नहीं फंसना, नाना प्रकार की विद्या का पढ़ना इत्यादि के होने से सब कार्य सिद्ध हो सकते हैं, अन्यथा नहीं।

 

फिर दिल्ली में औरंगजेब एक बादशाह हुआ था। उसने मथुरा, काशी, अयोध्या और अन्य स्थान में भी जा-जा के मन्दिर और मूर्तियों को तोड़ डाला और जहां-जहां बड़े-बड़े मन्दिर थे, उस-उस स्थान पर अपनी मस्जिद बना दी। जब वह काशी में मन्दिर तोड़ने को आया तब विश्वनाथ कुंए में गिर पड़े और माधव एक ब्राह्मण के घर में भाग गए, ऐसा बहुत मनुष्य कहते हैं, परन्तु हमको यह बात झूठ मालूम पड़ती है, क्योंकि वह पाषाण वा धातु जड़ पदार्थ कैसे भाग सकता है, कभी नहीं। सो ऐसा हुआ होगा कि जब औरंगजेब आया तब पुजारियों ने भय से मूर्ति को उठाके उसे कुंए में डाल दिया और माधव की मूर्ति उठा के दूसरे घर में छिपा दी कि वह उसे न तोड़ सके। सो आज तक उस कुंए का बड़ा दुर्गन्धयुक्त जल पीते हैं और उसी ब्राह्मण के घर की माधव की मूर्ति की आज तक पूजा करते हैं।

 

देखना चाहिए कि पहिले तो सोने व चांदी की मूर्तियां बनाते थे तथा हीरा और माणिक की आंख बनाते थे। सो मुसलमानों के भय से और दरिद्रता से पाषाण, मिट्टी, पीतल, लोहा और काष्ठ आदि की मूर्तियां बनाते हैं। सो अब तक भी इस सत्यानाश करने वाले कर्म को नहीं छोड़ते, क्योंकि छोडें तो तब जो इनकी अच्छी दशा आवे। इनकी तो इन कर्मों से दुर्दशा ही होने वाली है जब तक कि इनको (मूर्ति पूजा) नहीं छोड़ते।

 

और महाभारत युद्ध के पहले आर्यावर्त्त देश में अच्छे-अच्छे राजा होते थे। उनकी विद्या, बुद्धि, बल, पराक्रम तथा धर्म निष्ठा और शूरवीरता आदि गुण अच्छे-अच्छे थे। इससे उनका राज्य यथावत् होता था। सो इक्ष्वाकु, सगर, रघु, दिलीप आदि चक्रवर्त्ती राजा हुए थे और किसी प्रकार का पाखण्ड उनमें नहीं था। सदा विद्या की उन्नति और अच्छे-अच्छे कर्म आप किया करते थे तथा प्रजा से कराते थे। कभी उनका पराजय नहीं होता था तथा अधर्म से कभी नहीं युद्ध करते थे और युद्ध से निवृत्त कभी नहीं होते थे। उस समय से लेके जैन राज्य के पहिले तक इसी देश के राजा होते थे, अन्य देश के नहीं। सो जैनों ने और मुसलमानों ने इस देश को बहुत बिगाड़ा है। सो आज तक बिगड़ता ही जाता है। आजकल अंग्रेजों का राज्य होने से उन (जैन व मुसलमान) राजाओं के राज्य से कुछ सुख हुआ है, क्योंकि अंग्रेज लोग मत-मतान्तर की बात में हाथ नहीं डालते और जो पुस्तक अच्छा पाते हैं, उसकी अच्छी प्रकार रक्षा करते हैं। और जिस पुस्तक के सौ रुपये लगते थे, उस पुस्तक का छापा होने से पांच रुपये में मिलता है। परन्तु अंगरेजों से भी एक काम अच्छा नहीं हुआ जो कि चित्रकूट पर्वत पर महाराज अमृतराज जी के पुस्तकालय को जला दिया। उसमें करोड़ों रूपये के लाखों अच्छे-अच्छे पुस्तक नष्ट कर दिये।

 

जो आर्यावर्त्त वासी लोग इस समय सुधर जायें तो सुधर सकते हैं और जो पाखण्ड ही में रहेंगे तो इनका अधिक-अधिक नाश ही होगा, इसमें कुछ सन्देह नहीं। क्योंकि बड़े-बड़े आर्यावर्त्त देश के राजा और धनाढ्य लोग ब्रह्मचर्याश्रम, विद्या का प्रचार, धर्म से सब व्यवहारों का करना और वैश्या तथा पर-स्त्री-गमन आदि का त्याग करें तो देश के सुख की उन्नति हो सकती है। परन्तु जब तक पाषाण आदि मूर्तिपूजन, वैरागी, पुरोहित, भट्टाचार्य और कथा कहने वालों के जालों से छूटें, तब उनका अच्छा (भाग्योदय) हो सकता है, अन्यथा नहीं।

 

प्रश्न-मूर्ति पूजन आदि सनातन से चले आए हैं उनका खण्डन क्यों करते हो? उत्तर–यह मूर्तिपूजन सनातन से नहीं किन्तु जैनों के राज्य से ही आर्यावर्त्त में चला है। जैनों ने परशनाथ, महावीर, जैनेन्द्र, ऋषभदेव, गोतम, कपिल आदि मूर्तियों के नाम रक्खे थे। उनके बहुत-बहुत चेले हुये थे और उनमें उनकी अत्यन्त प्रीति भी थी। इस लिये उन चेलों ने अपने मन्दिर बनाके अपने गुरुओं की मूर्ति पूजने लगे। फिर जब उनका शंकराचार्य ने पराजय कर दिया, इसके पीछे उक्त प्रकार से ब्राह्मणों ने मूर्तियां रची और उनके नाम महादेव आदि रख दिए। जैनों की उन मूर्त्तियों से कुछ विलक्षण बनाने लग गये और पुजारी लोग जैन तथा मुसलमानों के मन्दिरों की निन्दा करने लगे।

 

वदेद्यावनीं भाषां प्राणैः कण्ठगतैरपि। हस्तिना ताड्यमानोऽपि गच्छेज्जैनमन्दिरम्।।1।। इत्यादि श्लोक बनाए हैं कि मुसलमानों की भाषा बोलनी और सुननी भी नहीं चाहिए और यदि पागल हाथी किसी के पीछे मारने को दौड़े, तो यदि वह जैन के मन्दिर में जाने से बच भी सकता हो तो भी जैन के मन्दिर में न जाये किन्तु हाथी के सन्मुख मर जाना उससे अच्छा है। ऐसे निन्दा के श्लोक (इन मूर्ति पूजकों ने) बनाए हैं। सो पुजारी, पण्डित और सम्प्रदायी लोगों ने चाहा कि इनके खण्डन के विना हमारी आजिविका न बनेगी। यह केवल उनका मिथ्याचार है। मुसलमानों की भाषा (उर्दू, अरबी व फारसी आदि) पढ़ने में अथवा किसी अन्य देश की भाषा पढ़ने में कुछ दोष नहीं होता, किन्तु कुछ गुण ही होता है। अपशब्दज्ञानपूर्वके शब्दज्ञाने धर्मः। यह व्याकरण महाभाष्य (आन्हिक 1) का वचन है। इसका यह अभिप्राय है कि अपशब्द ज्ञान अवश्य करना चाहिए, अर्थात् सब देश देशान्तर की भाषा को पढ़ना चाहिए, क्योंकि उनके पढ़ने से बहुत व्यवहारों का लाभ होता है और संस्कृत शब्द के ज्ञान का भी उनको (जिनसे व्यवहार करते हैं) यथावत् बोध होता है। जितनी देशों की भाषायें जानें, उतना ही उन पुरुषों को अधिक ज्ञान होता है, क्योंकि संस्कृत के शब्द बिगड़ के ही सब देश भाषायें होती हैं, इससे इनके ज्ञानों से परस्पर संस्कृत और भाषा के ज्ञान में उपकार ही होता है। इसी हेतु महाभाष्य में लिखा है कि अपशब्द-ज्ञानपूर्वक शब्दज्ञान में धर्म होता है अन्यथा नहीं। क्योंकि जिस पदार्थ का संस्कृत शब्द जानेगा और उसके भाषा शब्द को न जानेगा तो उसको यथावत् पदार्थ का बोध और व्यवहार भी नहीं हो सकेगा। महाभारत में लिखा है कि युधिष्ठिर और विदुर आदि अरबी आदि देश भाषा को जानते थे। इस लिए जब युधिष्ठिर आदि लाक्षा गृह की ओर चले, तब विदुर जी ने युधिष्ठिर जी को अरबी भाषा में समझाया और युधिष्ठिर जी ने अरबी भाषा से प्रत्युत्तर दिया, यथावत् उसको समझ लिया। राजसूय और अश्वमेध यज्ञ में देश-देशान्तर तथा द्वीप-द्वीपान्तर के राजा और प्रजास्थ पुरुष आर्यावर्त्त में आए थे। उनका परस्पर (अनेक) देश भाषाओं में व्यवहार होता था तथा द्वीप-द्वीपान्तर में यहां के जन जाते थे और वह इस देश में आते थे फिर जो देश-देशान्तर की भाषा न जानते होते तो उनका व्यवहार सिद्ध कैसे होता? इससे क्या आया कि देश-देशान्तर की भाषा के पढ़ने और जानने में कुछ दोष नहीं, किन्तु बड़ा उपकार ही होता है।

 

महर्षि दयानन्द इसी क्रम में आगे लिखते हैं कि जितने पाषाण मूतिर्यों के मन्दिर हैं वे सब जैनों ही के हैं, सो किसी मन्दिर में किसी को जाना उचित नहीं, क्योंकि सब में एक ही लीला है। जैसी जैन मन्दिरों में पाषाणादि मूर्तियां हैं, वैसी आर्यावर्त्तवासियों के मन्दिरों में भी जड़ मूर्तिंया हैं। कुछ विलक्षण-विलक्षण नाम इन लोगों ने रख लिये हैं और कुछ विशेष नहीं। केवल पक्षपात ही से ऐसा करते हैं कि जैन मन्दिरों में न जाना और अपने मन्दिरों में जाना। यह सब लोगों ने आजाविका के हेतु अपना-अपना मतबलसिंधु बना लिया है।

 

यह उल्लेखनीय है कि महर्षि दयानन्द मूर्तिपूजा को ईश्वर ज्ञान वेदों के विरूद्ध, ज्ञान विरूद्ध, युक्ति, तर्क व प्रमाणों के विरूद्ध अनुपयोगी व ईश्वर की प्राप्ति में सहायक नहीं अपितु बाधक एवं इसे ऐसी खाई बताते हैं जिसमें गिरकर मूर्तिपूजक के जीवन का अन्त हो जाता, लाभ कुछ नहीं होता। वह ज्ञानस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सच्चिदानन्दादि स्वरूप, सब सुखों को देने वाले ईश्वर की महर्षि पतंजलि की योगविधि से वेदसम्मत स्तुति, प्रार्थना व उपासना के अनुगामी व प्रचारक थे। धार्मिक विषयों पर उनका विश्लेषण व निष्कर्ष था कि देश का पतन व परतन्त्रता का कारण मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष तथा सामाजिक असमानता जैसे अन्धविश्वास व मिथ्याचार आदि कार्य व व्यवहार थे। व्यक्ति, समाज व देश को सुदृण बनाने के लिए अज्ञान व अन्धविश्वासों से बचना व इन्हें छोड़ना आवश्यक है। इसके साथ लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

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आर्य और ईस्वी महीनो की तुलना – आर्य महीनो का वैज्ञानिक दृष्टिकोण

पाठकगण ! इस लेख द्वारा हम यूरोपीय (ईसाई) तथा पंचांगों की तुलना करना चाहते हैं और यह दिखाना चाहते हैं की आर्य पंचांग में विशेषता और गुण क्या हैं।

ये जानना आज इसलिए भी आवश्यक है की हमारे देश में एक ऐसी प्रजाति भी विकसित हो रही है जो ईसाइयो के अवैज्ञानिक और पाखंडरुपी चुंगल में फंसकर अपनी वैदिक संस्कृति जो पूर्ण वैज्ञानिक आधार पर है उसे नकार कर अन्धविश्वास में लिप्त होकर देश व धर्म का अहित करते जा रहे हैं।

देखिये जो हमारे आर्य महीनो के वैदिक आधार पर पंचांगानुसार नाम हैं वो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कितना उन्नत और व्यवस्थित रूप है जबकि ईसाइयो के महीनो का कच्चा चिटठा हम इस पोस्ट के माध्यम से रखेंगे। आशा है आप सत्य को जान असत्य को त्याग देंगे।

ईसाई महीनो के नाम :

जनवरी (January) : यह वर्ष का प्रथम मास (Astronomy) ज्योतिष है जिसे रोमननिवासियो ने एक देवता जेनस को समर्पित किया और उसके नाम पर महीने का नाम रखा। उनका विश्वास था की इस देवता के दो शीश (सर) थे, इसलिए यह दोनों और (आगे, पीछे) देख सकता था। यह देव आरम्भ देव था जिसको प्रत्येक काम के आरम्भ में मनाया जाता था। चूँकि जनवरी वर्ष का प्रथम मास है इसलिए इसका नाम जेनसदेव के नाम पर रखा गया।

फ़रवरी – प्रायश्चित का महीना।

मार्च – लड़ाई के देवता “मार्स” के नाम पर रखा गया।

अप्रैल – यह महीना जब पृथ्वी से नए नए पत्ते, कलियाँ और फल फूल उत्पन्न होते हैं। यह नाम उस महीने की ऋतु का द्योतक है।

मई – यह महीना प्रारंभिक भाग। भावार्थ यह है की इस मास में ऋतु ऐसी शोभायमान होती है जैसे नवयुवक और नवयुववतिया।

जून – छठा महीना जो आरम्भ में केवल २६ दिन का होता था इसके नाम का शब्दार्थ छोटा महीना है। महाराज जूलियस सीज़र के समय से इस महीने की अवधि ३० दिन की मानने लगे हैं।

जुलाई : जूलियस सीज़र के नाम पर, जो इस महीने मैं पैदा हुआ था यह नाम रखा गया।

अगस्त : महाराज अगस्टस सीज़र के नाम पर यह नाम रखा गया। चूंकि जूलियस सीज़र के नाम पर रखा जाने वाला जुलाई का महीना ३१ दिन का होता था और है, इसलिए अगस्टस सीज़र ने अगस्त का महीना भी उतने ही अर्थात ३१ दिन का रखा। और यह महीना तब से ३१ दिन का चला आता है।

सितम्बर : शब्दार्थ सातवां महीना क्योंकि रोमनिवासी अपना वर्ष मार्च से प्रारम्भ करते थे।

अक्तूबर : शब्दार्थ आठवां महीना। रोमनिवासीयो के अनुसार आठवां महीना।

नवम्बर : शब्दार्थ नवां महीना। रोमनिवासीयो के अनुसार नवां महीना।

दिसम्बर : शब्दार्थ दसवां महीना। रोमनिवासियो के अनुसार दसवां महीना।

तो मेरे मित्रो ऊपर दिए शब्दार्थो से आपको विदित होगा की अंग्रेजी महीनो के कुछ के नाम देवताओ के नाम पर, कुछ के ऋतु के अनुसार, कुछ के महाराजाओ के नाम पर और शेष के क्रम के अनुसार नाम रखे गए हैं। यानी कोई वैज्ञानिक आधार इस अंग्रेजी वर्ष और उसके दिए महीनो में नहीं निकलता।

अब हम आपको आर्य महीनो के नाम जो वैदिक पंचाग व्यवस्थानुसार सम्पूर्ण वैज्ञानिक रीति पर आधारित हैं उनसे परिचय करवाते हैं।

इन आर्य महीनो के नामो के शब्दार्थ समझने से पहले हमें कुछ ज्योतिष सिद्धांत समझ लेने चाहिए तभी इन महीनो का वैज्ञानिक आधार और नामो का शब्दार्थ पूर्ण रूप से समझ आएगा। पोस्ट बड़ी न हो इसलिए थोड़ा ही समझाया जा रहा है।

1. आर्य ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी सूर्य के चारो और एक अंडाकार वृत्त में ३६५-२४ दिन में घूमती है। यह अंडाकार मार्ग बारह भागो में विभाजित है और उन १२ भागो के नाम मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ, मीन हैं। इन १२ भागो नाम भी १२ राशियों के नाम से विख्यात हैं। इसी ज्योतिष गणना को यदि विस्तार से बतलाओ तो लेख बहुत लम्बा हो जाएगा इसके बारे में किसी अन्य पोस्ट पर विस्तार से बताया जाएगा।

जिस प्रकार पृथ्वी सूर्य के चारो और एक अंडाकार वृत्त में घूमती है। इसी प्रकार चन्द्रमा भी पृथ्वी के चारो और एक अंडाकार वृत्त में २७ दिन ८ घंटे में घूम आता है। इसका मार्ग २७ भागो में विभाजित है और प्रत्येक भाग को नक्षत्र कहते हैं। २७ नक्षत्रो के नाम इस प्रकार हैं :

1. अश्विनी 2. भरणी 3. कृत्तिका 4. रोहिणी 5. मृगशिरा 6. आर्द्रा 7. पुनर्वसु 8. पुष्य ९. अश्लेषा 10. मघा 11. पूर्वाफाल्गुनी 12. उत्तराफाल्गुनी 13. हस्त 14. चित्रा 15. स्वाती 16. विशाखा 17. अनुराधा 18. ज्येष्ठा 19. मुल 20. पुर्वाषाढा 21. उत्तरषाढा 22. श्रवण 23. धनिष्ठा 24. शतभिषा 25. पूर्वभाद्रपद 26. उत्तरभाद्रपद 27. रेवती

आज पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र है इसका अभिप्राय है की आज चन्द्रमा पृथ्वी के चारो और के मार्ग के पूर्वाषाढ़ा नामक भाग में है।

हम पृथ्वी पर रहने वाले हैं पृथ्वी के साथ साथ घुमते हैं। इस कारण हमको पृथ्वी स्थिर प्रतीत होती है और सूर्य तथा चन्द्रमा दोनों घुमते दिखते हैं।

जब सूर्य और चन्द्रमा के बीच में पृथ्वी होती है तो चन्द्रमा का वह अर्थ भाग जिस पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है पृथ्वी की और होता है। इसी कारण ऐसी अवस्था में चन्द्रमा सम्पूर्ण प्रकाशवान दीखता है अतः पूर्णमासी को जब चन्द्रमा पूर्ण प्रकाशित होता है, चन्द्रमा और सूर्य पृथ्वी के दोनों और उलटी दिशा में होते हैं।

आर्य महीनो के नाम नक्षत्रो के नाम पर रखे गए हैं। पूर्णमासी को जैसा नक्षत्र होता है उस महीने का नाम उसी नक्षत्र पर रखा गया है, क्योंकि पूर्णिमा को सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी के दोनों और उलटी दिशा में होते हैं।*

महीनो के नाम नक्षत्रानुसार इस प्रकार हैं :

1. चैत्र – चित्रा

2. वैशाख – विशाखा

3. ज्येष्ठ – ज्येष्ठा

4. आषाढ़ – पूर्वाषाढ़

5. श्रावण – श्रवण

6. भाद्रपद – पूर्वाभाद्रपद

7. आश्विन – अश्विनी

8. कार्त्तिक – कृत्तिका

9. मार्गशिर – मृगशिरा

१० पौष – पुष्य

11. माघ – मघा

12. फाल्गुन – उत्तरा फाल्गुन

इसी आधार पर हमें अंतरिक्ष में सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि सभी ग्रहो की चाल, और अभी वो किस जगह स्थित हैं ये पूर्ण जानकारी इसी विज्ञानं के आधार पर मिलती जाती है।

सर डब्ल्यू जोंस की यह भी सम्मति है की आर्यो के महीनो के नाम इत्यादि से पूरा पता लगता है की आर्य ज्योतिष अत्यंत पुरानी है। आर्यो में प्राचीन काल में वर्ष पौष मास से आरम्भ होता था जब दिन अत्यंत छोटा और रात अत्यंत बड़ी होती है। इसी कारण मार्गशिर मास का द्वितीय नाम अग्र्ह्न्य था, जिसका अर्थ यह है की वह महीना जो वर्ष आरम्भ होने से पहले हो।

मेरे सभी हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई भाइयो से निवेदन है की वो इस अंग्रेजी महीने जो देवता, महाराज ऋतु इत्यादि के नाम पर रखे गए हैं त्याग देवे और अपने पूर्ण विज्ञानी रीति से जो आर्य महीने हैं उनकी प्रतिष्ठा को जान लेवे।

प्राचीन आर्य पुरुष ज्योतिष में अवश्य विशेष ज्ञान प्राप्त कर चुके थे और उनके ज्ञान के टूटे फूटे चिन्ह ही आज तक आर्य समाज में पाये जाते हैं। क्या अच्छा हो यदि हम प्राचीन आर्य सभ्यता का मान करे और उसके बचे बचाये चिन्हो से नयी नयी खोज कर समाज के सामने रखे जिससे देश व धर्म का कल्याण हो।

ये केवल संक्षेप में बताया गया फिर भी इतनी बड़ी पोस्ट हो गयी, लेकिन इसे नजरअंदाज न करे और वेद धर्म का प्रचार करे ताकि हमारे अन्य हिन्दू भाई ईसाइयो के अन्धविश्वास में न पड़े।

आओ लौटो वेदो की और

नमस्ते।

* इसमें सूर्य सिद्धांत प्रमाण है :

भचक्रं भ्रमणं नित्यं नाक्षत्रं दिनमुच्यते।
नक्षत्र नाम्ना मासास्तु क्षेयाः पर्वान्त योगतः।

अर्थात दैनिक भचक्र का भ्रमण करना ही नाक्षत्रिक दिन है।

पूर्णिमानताधिष्ठित नक्षत्र के नाम से मास का नाम जानना चाहिए।

स्तुता मया वरदा वेदमाता-15

इस मन्त्र के प्रथम तीन शदों में परिवार को साथ रखने के उपायों को बताया गया है। प्रथम हृदय की विशालता, दूसरा एक-दूसरे की निकटता और तीसरा एक साथ पुरुषार्थ करना। इसके लिए अन्तश्चित्तिनो, सधुराश्चरन्त तथा संदाधयन्तः पदों का प्रयोग किया गया। ऐसा करने से परिवार के सदस्य कभी पृथक् नहीं होंगे। उनके मनों में द्वेषभाव नहीं आयेगा। इसलिए मन्त्र में कहा गया ‘मावियौष्ट’ परस्पर द्वेषभाव मत रखो। हमारा हृदय विशाल होगा, हमारे अन्दर उदारता होगी। एक-साथ रहने का भाव मन में रहेगा। पुरुषार्थ करने में सभी तत्पर होंगे तो निश्चय ही परिवार के सदस्यों में द्वेषभाव उत्पन्न नहीं होगा।

इससे आगे मन्त्र में कहा गया है- ‘अन्योऽन्यस्मै वल्गुवदन्तः’ अर्थात् एक-दूसरे के साथ प्रेमपूर्वक बोलते हुए परिवार में परस्पर प्रेम और आदर का प्रकाश वाणी द्वारा ही होता है। वाणी हमारे भावों को पूर्ण रूप से दूसरे को संप्रेषित  करती है। प्रायः समझा जाता है, क्या अन्तर पड़ता है। हम कुछ भी बोलें। हम चाहते हैं कुछ भी बोलने से सुनने वाले को वही समझ में आना चाहिए परन्तु ऐसा है नहीं, प्रत्येक शद, प्रत्येक ध्वनि अपना अर्थ और प्रभाव रखती है। हमारे शद और ध्वनियाँ ही हमारे अन्दर विद्यमान न्याय, दया, उदारता, शूरता आदि को प्रकाशित करती हैं। समाज में इसी को शिष्टाचार कहते हैं। सारे शिष्टाचार को परिभाषित करना हो तो, वह परिभाषा है दूसरे को मान्यता देना, उसकी उपस्थिति का अनुभव कराना, उसके अस्तित्व को स्वीकृति देना। शिष्टाचार थोड़े से शद और थोड़ी सी क्रिया से अनुभव हो जाता है।

एक व्यक्ति श्री और जी से प्रसन्न हो जाता है, अरे और अबे से रुष्ट हो जाता है। घर का बालक अच्छा है, यह अच्छापन शिक्षा, स्वास्थ्य, सुन्दरता आदि से नहीं आता, वह अच्छापन थोड़े से शदों के उपयोग से आता है। आजकल आधुनिक विद्यालयों के बालक अच्छे कहलाते हैं तो उनमें मुय बात शालीनता प्रकट करने वाले शदों का प्रयोग ही मुय है। जब कोई बच्चा आपको मिलता है। आप उसके घर के द्वार पर खड़े हैं और बालक पूछता है क्या है? आपको अच्छा नहीं लगता है परन्तु वही बालक अंकल आपको किससे मिलना है, सुनकर बड़ी प्रसन्नता होती है। ये शद हैं तो थोड़े से, परन्तु इनका प्रयोग प्रतिदिन अनेक बार करने का अवसर आता है। इसीलिए बच्चों को इन शदों का अयास कराने की आवश्यकता होती है। हमारे आचार्य जी ने एक घटना सुनाई थी, बहुत वर्ष पूर्व एक यात्रा के समय उन्होंने सन्तरे लिए, खाने लगे तो एक विदेशी महिला अपने बच्चे के साथ उसी डबे में यात्रा कर रही थी। बच्चा देखकर आचार्य जी ने माँ से पूछा- क्या वे बच्चे को सन्तरा दे सकते हैं? माँ ने कहा- दे दें। बालक सन्तरा लेकर जैसे ही खाने लगा, माँ ने बालक के गाल पर एक थप्पड़ मार दिया। आचार्य जी ने पूछा- मैंने आपसे पूछकर बालक को फल दिया है फिर आपने बालक को थप्पड़ क्यों मारा? उस माँ ने कहा- आपने मुझ से पूछकर दिया है, इसलिये नहीं मारा। थप्पड़ मारने का कारण बालक की अशिष्टता है। बालक को आपसे फल लेने के बाद आपका धन्यवाद करना चाहिए था, परन्तु बालक ने ऐसा नहीं किया, इसी कारण बालक को थप्पड़ मारा है।

छोटे शद हैं श्रीमान्, कृपया, क्षमा करें, धन्यवाद। इन शदों का उपयोग हिन्दी में, उर्दू में, अंग्रेजी में, किसी भी भाषा में करें, ये शद आपको अनुकूल प्रतिक्रिया देंगे। अंग्रेजी में प्लीज़, थैक्यू, सॉरी, सर जैसे शद बच्चे, बालक, युवा को सय बनने का प्रमाण-पत्र दे देते हैं। जब शद बोलने वाले के हृदय से निकलते हैं तो वे शद सुनकर अगले के मन में भी वे ही भाव जागते हैं, अतः यह एक सहज प्राकृतिक सबन्ध है, जो शदों से प्रकाशित होता है। पशु-पक्षियों को अपने भाव प्रकट करने के लिये शद तो नहीं है परन्तु इसके लिए उन्हें अपनी आकृति के भाव और शारीरिक चेष्टाओं से अपने भाव व्यक्त करने पड़ते हैं। परन्तु मनुष्य को यह विशेषता प्राप्त है कि वह शरीर के हाव-भाव के साथ अपने शदों से भी अपने भावों-विचारों को सप्रेषित कर सकता है। मनुष्य में अनुकूल प्रतिक्रिया उत्पन्न करना, मनुष्य की इच्छा रहती है तो वेद का सन्देश है- जहाँ अन्य व्यवहार हम अनुकूलता से करते हैं, वहीं पर हमारी वाणी भी हमारे व्यवहार को अनुकूल बनाने वाली हो। अतः कहा गया है- अन्योऽन्यस्मै वल्गुवदन्तः। हमारा घर सदा एक-दूसरे से प्रेम करने वाला ही नहीं, प्रेम से बोलने वाला भी हो।

 

क्या ईश्वर सब कुछ कर सकता है? क्योंकि उसे सर्वशक्तिमान् कहा गया है- आचार्य सोमदेव जी

ईश्वर के सर्वशक्तिमान् होने का अर्थ यह नहीं कि वह कुछ भी करे वा सब कुछ करे तात्पर्य यह है कि ईश्वर सब कुछ नहीं कर सकता। वह इसलिए क्योंकि वह शुद्ध पवित्र है। सर्वज्ञ है, सदा अपने नियमों का पालन करने वाला है।

इस विषय में महर्षि दयानन्द प्रश्नोत्तर रूप से लिखते हैं-

‘‘प्रश्न- ईश्वर सर्वशक्तिमान् है वा नहीं? उत्तर– है, परन्तु जैसा तुम ‘सर्वशक्तिमान्’ शद का अर्थ जानते हो वैसा नहीं, किन्तु सर्वशक्तिमान् शद का यही अर्थ है कि ईश्वर अपने काम अर्थात् उत्पत्ति, पालन, प्रलय आदि और सब जीवों के पुण्य-पाप की यथायोग्य व्यवस्था करने में किंचित्ाी किसी की सहायता नहीं लेता अर्थात् अपने अनन्त सामर्थ्य से ही अपना सब काम पूर्ण कर लेता है।’’

प्रश्न हम तो ऐसा मानते हैं कि ईश्वर जो चाहे सो करे, क्योंकि उसके ऊपर दूसरा कोई नहीं?

उत्तर– वह क्या चाहता है? जो तुम कहो कि सब कुछ चाहता और कर सकता है, तो हम तुमसे पूछते हैं कि परमेश्वर अपने को मार, अनेक ईश्वर बना, स्वयं अविद्वान् हो चोरी, व्याभिचारादि पाप कर्म कर और दुःखी भी हो सकता है? जैसे ये काम ईश्वर के गुण कर्म-स्वभाव के विरुद्ध हैं, तो जो तुहारा कहना है कि ‘वह सब कुछ कर सकता है’ यह कभी नही घट सकता, इसलिए सर्वशक्तिमान् का अर्थ जो हमने कहा, वहीं ठीक है।

यहाँ पर महर्षि की इन बातों से स्पष्ट है कि ईश्वर अपने गुण-कर्म-स्वभाव के विरुद्ध काी कुछ नहीं करता, नहीं कर सकता।

अवैदिक मान्यता वाले पौराणिक अथवा कुरान, बाईबल वाले ईश्वर के सर्वशक्तिमान्् होने का अर्थ वह करे न करे कुछ भी करे ऐसा मानते हैं। जब ईसाई, मुसलमान ईसामसीह या मुहमद साहब पर अपना इमान लाने की बात करते हैं तो उनका तात्पर्य यह होता है कि पैगबर की सिफारिश करने पर खुदा ईमानवालों के गुनाह माफ कर देता है, क्योंकि वह जो चाहे कर कता है, वह गुनहगारों को माफ भी कर सकता है और बेगुनाहों को सजा भी दे सकता है इनकी मान्यता है कि जब हम मामूली इंसान किसी की गलती को माफ कर सकते हैं तो हम से बड़ााुदा क्यों नहीं कर सकता? वे यह नहीं समझते कि ईश्वर का बड़प्पन कानून=सृष्टि के नियमों को तोड़नें में नहीं अपितु स्वयं उनका पालन करने और अन्यों से कराने में है। यदि नियामक ही नियमों का उल्लंघन करने लगे तो वह नियामक ही कहाँ रहा?

इसलिए परमेश्वर ने जो सृष्टि के आदि में संविधान बना दिया, उसका उल्लंघन न स्वयं करता, कर सकता और न उसकी प्रजा करती, कर सकती । सृष्टि विपरीत परमात्मा कुछ भी नहीं करता, कर सकता। इसलिए यह कहना सर्वथा असंगत है कि ‘‘ईश्वर सब कुछ कर सकता है क्योंकि वह सर्वशक्तिमान् है।’’

क्या ईश्वर संसार में किसी स्थान विशेष में, किसी काल विशेष में रहता है? क्या ईश्वर किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष के कल्याण के लिए और दुष्टों का नाश करने के लिए भेजता है? – आचार्य सोमदेव जी

क्या ईश्वर संसार में किसी स्थान विशेष में, किसी काल विशेष में रहता है? क्या ईश्वर किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष के कल्याण के लिए और दुष्टों का नाश करने के लिए भेजता है?

ईश्वर इस संसार के स्थान विशेष वा काल विशेष में नहीं रहता परमेश्वर संसार के प्रत्येक स्थान में विद्यमान है। जो परमात्मा को एक स्थान विशेष पर मानते हैं वे बाल बुद्धि लोग हैं। वेद ने परमेश्वर को सर्वव्यापक कहा है। वेदानुकुल सभी शास्त्रों में परमात्मा को सर्वव्यापक कहा है। एक स्थान विश्ेाष पर परमेश्वर को कोई सिद्ध नहीं कर सकता , न ही शद प्रमाण और न ही युक्ति तर्क से। हाँ ईश्वर शद प्रमाण और युक्ति तर्क से विभु= सर्वत्र व्यापक तो सिद्ध हो रहा है, हो सकता है। वेद में कहा-

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।

– प. 31.3

इस पुरुष की इतनी महिमा है कि यह सारा ब्रह्माण्ड परमेश्वर के एक अंश में है अर्थात् वह ईश्वर इस समस्त ब्रह्माण्ड में समाया हुआ अनन्त है, यह समस्त जगत् परमात्मा के एक भाग में है अन्य तीन भाग तो परमात्मा के अपने स्वरूप में प्रकाशित हैं अर्थात् परमात्मा अनन्त है अर्थात् सर्वत्र विद्यमान है उसको किसी एक स्थान पर नहीं कह सकते।

नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः।

जेषः स्वर्वतीरपः सं गा अस्मयं धूनुहि।।

– ऋ. 1.10.8

इस मन्त्र के भावार्थ में महर्षि लिाते हैं – ‘‘जब कोई पूछे कि ईश्वर कितना बड़ा है तो उत्तर यह है कि जिसको सब आकाश आदि बड़े-बड़े पदार्थ भी घेर में नहीं ला सकते, क्योंकि वह अनन्त है। इससे सब मनुष्यों को उचित है कि उसी परमात्मा को सेवन उत्तम उत्तम कर्म करने और श्रेष्ठ पदार्थों की प्राप्ति के लिए उसी से प्रार्थना करते रहें। जब जिसके गुण और कर्मों की गणना कोई नहीं कर सकता, तो कोई अंत पाने को समर्थ कैसे हो सकता है। और भी -’’

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविंर शुद्धमपापाविद्धम्।

कविर्मनीषी परिभूः स्वयभूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीश्यः समायः।।

– य. 40.8

इस मन्त्र में परमेश्वर को सब में व्याप्त कहा है, इस व्याप्ति से ज्ञात हो रहा है कि परमात्मा किसी एक स्थान विशेष पर नहीं अपितु सर्वत्र है। इस प्रकार परमेश्वर के सर्वत्र व्यापक स्वरूप को सिद्ध करने के लिए शास्त्र के हजारों प्रमाण दिये जा सकते हैं। कोईाी प्रमाण ऐसा उपलध नहीं होता जो परमात्मा को एकदेशीय सिद्ध करता हो।

युक्ति से भी कोई परमात्मा को किसी स्थान विशेष पर सिद्ध नहीं कर सकता। आज विज्ञान का युग है, वैज्ञानिकों ने समस्त पृथिवी, समुद्र, आकाश आदि को देख डाला है। जिन किन्हीं का भगवान् समुद्र, पहाड़ आकाश आदि में होता तो अब तक वह भगवान् वैज्ञानिकों के हाथ में होता। जो लोग ईश्वर को ऊपर सातवें वा चौथे आसमान अथवा इससे कहीं और ऊपर मानते हैं वे यह सिद्ध नहीं कर सकते कि कौनसा ऊपर, कौनसा आसमान। क्योंकि प्रमाण सिद्ध यह पृथिवी गोल है। इस गोल पृथिवी के लगभग चारों और मानव आदि प्राणी रहते हैं।

जो मनुष्य भारत में रहते हैं अर्थात् पृथिवी के ऊपरी भाग पर रहते हैं उनका आसमान उनके शिर के ऊपर और जो मनुष्य अमेरिका आदि देशों में है अर्थात् पृथिवी के निचलेााग में रहते हैं उनका आकाश (आसमान) भारत आदि देश में रहने वालों की अपेक्षा विपरीत होगा अर्थात् भारत वालों को पैरों में आकाश होगा ऐसा ही पृथिवी के अन्य स्थानों पर रहने वाले मनुष्य का आकाश जाने । पृथिवी के चारों ओर आकाश है, आसमान है, पृथिवी पर रहने वाले मनुष्यों के शिर जिस ओर होंगे उनका आसमान उसी ओर होगा। ऐसा विचार करने पर जो परमात्मा को आसमान में मानते हैं वे भी एक स्थान विशेष पर सिद्ध नहीं कर सकते। इस विचार से भी परमात्मा सर्वत्र ही सिद्ध होगा। इसलिए परमात्मा सब स्थानों पर विद्यमान है  न कि किसी एक स्थान विशेष पर।

स्थान विशेष की कल्पना ब्रह्माकुमारी मत वालों की भी है। उनका कहना है कि यदि ईश्वर को सर्वव्यापक मानते हैं तो ईश्वर गन्दगी में शौच आदि मेंाी होगा। यदि ऐसा होगा तो ईश्वराी गन्दा हो जायेगा। इन ब्रह्माकुमारी बाल बुद्धि वालों ने ईश्वर को कितना कमजोर बना दिया कि जो ईश्वर सदा पवित्र रहने वाला है, इन ब्रह्माकुमारी वालों का ईश्वर गन्दगी से गन्दा हो जाता है। इनको यह नहीं पता कि यह गन्दगी भौतिक है और ईश्वर अभौतिक। परमेश्वर के अभौतिक ओर सदा पवित्र होने से परमेश्वर के ऊपर इस गंदगी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हमारे ऊपर भी जो प्रभाव पड़ता है वह इसलिये क्योंकि हमारे पास भौतिक शरीर इन्द्रियाँ आदि हैं, इनसे रहित होने पर हम जीवात्माओं पर भी उस गंदगी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ईश्वर तो सर्वथा इनसे रहित है तो ईश्वर पर इस गंदगी का प्रभाव कैसे पड़ेगा। इसलिए मलिनता से बचाने के लिए ईश्वर को एक स्थान विशेष पर मानना मूर्खता ही है।

इसी प्रकार ईश्वर किसी काल विशेष में होता हो ऐसा नहीं है, परमेश्वर तो सदा सभी कालों में वर्तमान रहता है। काल विशेष में होने की कल्पना अवतारवादी कर सकते हैं, जो कि उनकी यह मान्यता सर्वथा असंगत है। वर्तमान, भूत, भविष्यत काल की आवश्यकता हम जीवों की अपेक्षा से है। परमेश्वर के लिए तो सदा वर्तमान रहता है, भूत भविष्य परमात्मा के लिए नहीं है। परमात्मा सदा एक रस रहता है।

परमात्मा किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष की रक्षा वा दुष्टों के नाश के लिए भेजता हो ऐसा नहीं है। यह कल्पना भी अवतारवादियों की है। परमात्मा तो जीवों के कर्मानुसार उनको जन्म देता है। जो जीव विशेष संस्कार युक्त होता हैं वे जगत् के कल्याण और दुष्टों के नाश में प्रवृत्त होते हैं। ऐसा करने पर परमात्मा उनको आनन्द उत्साह आदि प्रदान करता है। किन्तु ऐसा कदापि नहीं है कि परमात्मा ने किसी जीव विशेष को इस कार्य में लगााया है यदि ऐसा मानेंगे तो जीव की स्वतन्त्रता न रहेगी। ऐसा मानने पर सिद्धान्त की हानि होगी। कर्म फल व्यवस्था की सिद्धि ठीक से न हो पायेगी। किसी समुदाय की रक्षा करे तो दोष का भागी हो जायेगा क्योंकि ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि पूरे समुदाय में सभी लोग एक जैसे धर्मात्मा हों, उस समुदाय में उलटे लोग भी हो सकते हैं। समुदाय में होने से उनकी भी रक्षा करनी पड़ेगी तो न्याय न हो सकेगा। जब कि परमेश्वर न्याय कारी है उसके द्वारा भेजी गई आत्मा को भी न्याय करना चाहिए जो कि वह कर न सकेगी।

अधिकतर लोगों की मान्यता है कि परमेश्वर किसी आत्मा को न भेजकर स्वयं अवतार लेते हैं । ऐसा करके परमात्मा सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों का नाश करते हैं। इस प्रकार की यह मान्यता भी ईश्वर के स्वरूप से विपरीत तथा वेद-शास्त्र के प्रतिकूल है। क्योंकि ईश्वर विभु है, अनन्त है, वह अनन्त प्रभु एक छोटे से शान्त शरीर में कैसे आ सकता है? परमेश्वर जन्म मरण से परे है फिर शरीर में आकर जन्म-मृत्यु को कैसे प्राप्त कर सकता है? परमेश्वर का अवतार मानने पर इस प्रकार की अनेक दोषयुक्त बातों को मानाना पड़ेगा।

अवतारवादियों का अवतार मानने का मुय आधार ये दो श्लोक हैं-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अयुत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजायहम्।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।

इन श्लोकों में अवतार लेने का कारण कि जब-जब धर्म की हानि होगी तब-तब धर्म के उत्थान और अर्धा के नाश के लिए तथा श्रेष्ठों के परित्राण =रक्षा और दुष्टों के नाश के लिए अवतार लेता है। अब यहाँ विचारणीय यह है कि जिस परमात्मा ने बिना शरीर के इस सब ब्रह्माण्ड को रच डाला, हम सब प्राणियों के शरीरों की रचना की है, उस परमात्मा को कुछ क्षुद्र, दुष्ट व्यक्तियों को मारने के लिए शरीर धारण करना पड़े यह बात बुद्धिग्राह्य नहीं है। इससे तो ईश्वर का ईश्वरत्व न रहकर ईश्वर का बहुत लघुत्व सिद्ध हो रहा है। यदि परमात्मा को यही करना है तो वह इस प्रकार के कार्य बिना शरीर के भी कर सकता है क्योंकि वह पूर्ण समर्थ है। अस्तु

इन उपरोक्त गीता के श्लोकों में अवतार का कारण हमने देखा अब देवी भागवत पुराण में अवतार लेने का कारण देखिये कया लिखा –

शपामि त्वां दुराचारं किमन्यत् प्रकरोमिते।

विध्ुारोहं कृतः पाप त्वयाऽहं शापकारणात्।।

अवतारा मृत्युलोके सन्तु मच्छापसंभवाः।

प्रापो गर्भभवं दुःख भुक्ष्ंव पापाज्जनार्दन।।

इन देवी भागवत के श्लोकों में अवतार का कारण धर्म की रक्षा वा अधर्म के नाश करने के लिए नहीं कहा अपतिु भृगु का शाप कहा है। अर्थात् महर्षि भृगु ने विष्णु को उसके दुराचार कर्म के कारण शाप दिया उनके शाप के प्रााव  से विष्णु का मृत्य ुलोक में अवतार हुआ। गीता के और देवी भागवत पुराण में अवतार के कारणों में परस्पर विरोध है। और देखिये-

बौद्धरूपस्त्वयं जातः कलौ प्राप्ते भयानके।

वेदधर्मपरायन् विप्रान् मोहयामास वीर्यवान्।

निर्वेदा कर्मरहितास्त्रवर्णा तामासान्तरे ।।

यहाँ गीता से सर्वथा विपरीत अवतार का कारण कहा है। गीता धर्म की रक्षा कारण कहती है और यहाँ तो धर्म के नाश के लिए अतवार ले लिया, अर्थात् भागवत पुराण कहता है- भगवान ने बुद्ध का अवतार लेकर, सबको विरुद्ध उपदेश देकर नास्तिक बनाया तथा वेद मार्ग का नाश किया। यहाँ ये अवतारवादियों के ग्रन्थ परस्पर विरुद्ध कथन कर रहे हैं।

यथार्थ में तो ईश्वर के किसी भी रूप में जन्म धारण करने की कल्पना ही युक्ति व शास्त्र विरुद्ध है। क्योंकि ईश्वर को किसी भी प्रकार के सहारे की आवश्यकता नहीं, चाहे वह सहारा किसी शरीर का हो अथवा किसी अन्य प्राणी का। परमेश्वर अपने सब कार्य करने में समर्थ है, उसको कोई अवतार लेने की आवश्यकता नहीं है।

वेद में ईश्वर को ‘‘अकायमव्रणमस्नाविरम्’’ कहा है। वह परमात्मा सूक्ष्म और स्थूल शरीर के बन्धन से रहित है अर्थात् इन बन्धन में नहीं पड़ता। श्वेताश्वतर उपनिषद् मेंऋषि ने कहा-

वेदाहमेतमजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात्।

जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनो हिप्रवदन्ति नित्यम्।।

– 4.21

अर्थात् वह परमात्मा अजर है, पुरातन (सनातन) है, सर्वान्तर्यामी है, विाु और नित्य है। ब्रह्मवादी सदा उसका बखान करते हैं वह कभी जन्म नहीं लेता।

उपरोक्त सभी प्रमाणों से सिद्ध हो रहा है कि परमात्मा जीव के कर्मानुसार उसके भोग के लिए शरीर स्थान, समुदाय आदि देता है न कि अपनी इच्छा से किसी का नाश वा रक्षा के लिए उसको भेजता है और ऐसे ही स्वयं भी अवतार लेकर कुछ नहीं करता अर्थात् स्वयं शरीर धारण करके किसी की रक्षा वा नाश नहीं करता।