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वैदिक दर्शन की विशेषताएँ – पं. गंगा प्रसाद जी उपाध्याय

[लगभग 8 दशक पूर्व का यह लेख आज भी प्रासंगिक है। इसलिए पाठकों के लााार्थ प्रस्तुत है – सपादक ]

आजकल ‘वैदिक दर्शन’ एक अनिश्चित शद है। अति प्राचीन काल में निश्चित रहा होगा। जिस प्रकार आजकल गंगा की नहर और उस नहर से निकली हुई सहस्त्रों कूलों का पानी भी गंगाजल नाम से ही प्रसिद्ध है चाहे उसमें कितने ही बाहर के नालों का गंदा पानी मिला हो इसी प्रकार प्रत्येक सप्रदाय जो वेदों को तत्वतः अथवा दिखाने के लिये अपने धर्म का मूल स्रोत मानता है उस का दर्शन भी वैदिक दर्शन है। शंकर का अद्वैतवाद वैदिक दर्शन है। रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद वैदिक दर्शन है। निबार्क का द्वैताद्वैतवाद वैदिक दर्शन है। और ऐसे ही मत हैं जिसके अनुसार वेदों में अनीश्वरवाद का प्रतिपादन है। बौद्ध और जैन तो अपने दर्शनों को वैदिक दर्शन नहीं मानते । परन्तु भारतीय अन्य सब दर्शन वैदिक कहलाते हैं। और उन में दर्शन के वे सब गुण और दोष पाये जाते हैं जो किसी देश या किसी युग के दर्शनों में देखे जा सकते हैं। इसके तीन मुय कारण हैंः-

(1)वेदों की सर्वप्रियता जिन से वेद सर्वथा भुलाये न जा सके।

(2)वैदिक सयता की अति प्राचीनता और उसमें कालान्तर में प्रक्षेप और मिलावट।

(3)आर्य परपरा का त्रुटिकरण।

ऋग्वेद का नासदीय सूक्त वैदिक दर्शन का एक सर्वसमत उच्चकोटि का नमूना गिना जाता है। परन्तु उसके अर्थ भिन्न-भिन्न विद्वानों ने अपने-अपने मत के अनुसार भिन्न-भिन्न किये हैं। ज्यूसन, मैक्समूलर, तिलक तथा अन्य विद्वानों के भाष्य अवलोकन कीजिये मैंने भी सन् 1928 ई. में अपनी पुस्तक ‘अद्वैतवाद’ में इस सूक्त का उस प्रकार से अर्थ किया था जो मैं ठीक समझता हूँ। क्योंकि मेरे लिये तो ‘‘वैदिक दर्शन’’ वही है जो संकुचित परन्तु वास्तविक अर्थ में ‘दयानन्द दर्शन’ कहा जा सकता है। इसलिये इस लेख में ‘वैदिक दर्शन’ की विशेषतायें वही दृष्टिगोचर पड़ेंगी, जो दयानन्द दर्शन की हैं। 1951 ई. के दिसबर मास में रंगून विश्वविद्यालय के एक साँस्कृतिक उत्सव के समय मैंने A bird’s eyeview of Vedic Philosophy, पर एक लेख पढ़ा था जो वहाँ की पुस्तिका में प्रकाशित हुआ था। वहाँाी मैंने यही दृष्टिकोण उसका रक्खा था। परन्तु पीछे से मुझे ऐसा भान हुआ कि जब तक हम ‘दयानन्द दर्शन’ को विशेष रूप से जनता के समक्ष न लावें ‘वैदिक दर्शन’ से लोगों में भ्रम ही उत्पन्न होता रहेगा। अतः सप्रति मैं अंग्रेजी में जो ग्रन्थ लिख रहा हूँ उसका नाम ‘वैदिक फिलासफी’ न रखकर ‘‘फिलासफी ऑफ दयानन्द’’ रक्खा है। मेरे लिये वैदिक फिलासफी और दयानन्द फिलासफी पर्याय वाचक शद हैं, परन्तु सब के लिए नहीं। आज कल वैदिक फिलासफी सनातन धर्म की फिलासफी है। जिस में हर मत के पबन्द लगे हुये हैं। और यूरोप के दर्शनकार भी यही मानते हैं।

इस छोटे से लेख में तो वैदिक फिलासफी की भूमिका भी नहीं दी जा सकती। उसकी विशेषतायें कैसे बताई जा सकती हैं और जब तक उन विशेषताओं की व्याया न की जाय लोगों को विशेषताओं का पता ही कैसे चले? स्वामी दयानन्द ने वैदिक दर्शन पर अलग पुस्तक नहीं लिखी वह तो समस्त मूल षट्दर्शनों और मौलिक उपनिषदों को ‘वैदिक दर्शन’ मानते रहे फिर भी उन्होंने अपने ग्रन्थों में अन्य व्यावहारिक समस्याओं का उल्लेख करते हुए वैदिक दर्शन की इतनी विशेषतायें लिखी हैं कि आश्चर्य होता है। मैं जब ‘फिलासफी ऑफ दयानन्द’ लिखने बैठा तो मेरी धारणा थी कि 100 पृष्ठ भी पर्याप्त होंगे परन्तु ज्यों-ज्यों सामग्री एकत्रित करता गया अनेक बातें उपलध होती रहीं। जिनकी ओर पाठकों का समान्यतया ध्यान नहीं गया और यदि गया भी हो तो  उसकी विशेषता का अनुभव नहीं किया। अब मैं असमंजस में हूँ कि क्या छोडूं और क्या लिखूं। पुस्तक 500 पृष्ठ से अधिक की हो गई, बड़े आकार की। 400 के लगभग पृष्ठ छप चुके अभी सामग्री पर्याप्त शेष है । उसे शीघ्र ही समाप्त करना चाहता हूँ।

वैदिक दर्शन की अनेक विशेषतायें हैं। प्रथम तो नाम पर ही विचार कीजिये। अंगरेजी में दर्शन के लिये फिलासफी शद का प्रयोग होता है। यह ग्रीक (यूनानी) शद है और इसका अर्थ है लव ऑफ विज्डम (Love of Wisdom)  या बुद्धि प्रेम। सन्स्कृत का ‘दर्शन’ शद अधिक सारगर्ाित है। दर्शन का अर्थ है देखना। (दृश धातु से) दर्शन की सार्थकता निर्भर है द्रष्टा और दृश्य पर। यदि द्रष्टा मिथ्या है तो दर्शन कैसा और यदि दृश्य मिथ्या तो दर्शन का क्या अर्थ? अतः दर्शन शद ही प्रकट् करता है कि द्रष्टा और दृश्य जीव और जगत् की सत्ता को स्वीकार करते हैं। यदि शंकर स्वामी ने जगत् को मिथ्या कहा, तो मिथ्या का दर्शन ही क्या। और यदि दृश्य कुछ न रहा  तो न दर्शन रहा न द्रष्टा। ऋषि दयानन्द ने इसीलिये वेद के ‘द्वा सुपर्णा’ इस मन्त्र का उद्धरण देकर के जीव, ब्रह्म और जड़ जगत् तीनों की सत्ता स्वीकार की है, वैदिक दर्शन द्वैत दर्शन है इस अर्थ में कि वह चेतन और जड़ देानों संज्ञाओं को वास्तविक मानता है, इस को आप इस अर्थ में त्रैतवाद भी कह सकते हैं कि यह ईश्वर, जीव तथा प्रकृ ति तीन अनादि पदार्थों को मानता है। इस को ‘बहुत्ववाद’ाी कह सकते हैं कि क्योंकि यह जीवों और परमाणुओं के बहुत्व को मानता है।

प्रायः दर्शन की विशेषता यह मानी जाती है कि अनेकत्व में एकत्व को देखा जाय। वैसा वेद में लिखा हैः-

अस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।

सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विचिकित्सति।।

अर्थात् जो सब भूतों को आत्मा में और आत्मा को सब भूतों में ओत प्रोत देखता हैं वह कभी दुःख नहीं पाता (यजुर्वेद अ. 40, मन्त्र 6)परन्तु जो लोग इस का अर्थ यह लेते हैं कि अनेकत्व (Diversity)मिथ्या है और एकत्व (Unity) सत्य है, वह वेद के आशय को नहीं समझते। अनेकत्व में एकत्व (Unity in Diversity) कैसे देखा जाय यदि अनेकत्व मिथ्या हो। अधिकरण के मिथ्या होने से अधिकृत भी मिथ्या होगा। आर्य दर्शन यही है कि जगत् को मिथ्या न माना जाय। महर्षि व्यास ने वेदान्त का पहला सूत्र लिखा।

अथातो ब्रह्म जिज्ञासा।

अब ब्रह्म के जानने की जिज्ञासा है

फिर ब्रह्म के लक्षण किएः-

जन्मा द्यस्य यतः।

अर्थात् ब्रह्म वह है जिससे जगत् की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय हो।

यदि जगत् मिथ्या है तो उसकी उत्पत्ति कैसी? और स्थिति कैसी? एकतत्ववादी यह नहीं समझते कि अनेक तत्व न हों तो एक तत्व का भी क्या मूल्य? दार्शनिक जगत् में ‘एकत्व’ के कई समुदाय पाए जाते हैं। जैसे

(1) कारणैक्यवाद अर्थात् केवल एक ही वस्तु है, अन्य सब उसी एक मूल से बना है इसके दो रूप  हैं एक अद्वैकवाद अर्थात् के वल जड़ प्रकृति से ही जगत के समस्त व्यापारों की सिद्धि। दूसरा ‘चेतनैकवाद’ अर्थात् एक चेतन से जड चेतन दोनों की उत्पत्ति या व्याया।

इन दोनों भेदों में अनेक उलझनें हैं जिनके दोषों के  दूर करने के लिए अनेक सप्रदाय बन गए हैं। परन्तु वे उलझनें सुलझने में नहीं आ सकी।

(2) वस्त्वैक्यवाद। इनका मत है कि वस्तु केवल एक है। अनेकत्व मिथ्या है। प्रतीत मात्र है। ऋषि दयानन्द ने ठीक कहा है कि यदि एक ही वस्तु सत्य है तो वह सत्य को कैसे देख सकता है। मिथ्या दर्शन या मिथ्या प्रतीत के लिए भी तो कोई कारण होना चाहिए जो केवल एक ब्रह्म से सिद्ध नहीं होता।

(3) ईश्वरैक्यवाद यह वैदिक वाद है। इसमें जगत् को सत् तथा नाना मानकर उसमें एक ईश्वर की व्यापकता और प्रमुखता बताई गई है। दयानन्द दर्शन का यह एक मौलिक सिद्धान्त है। मोटे शदों में इस दर्शन की यथार्थता के अतिरिक्त उपयोगिता भी हैः-

(1) इन्द्रिय जन्य ज्ञान को मिथ्या, अतथ्य, अथवा स्वप्नवत् मानने से जगत् का समस्त व्यापार विज्ञान, कला कौशल, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, यज्ञ, अध्ययन, दान आदि धर्माङ्ग सब व्यर्थ हो जाते हैं। वैदिक दर्शन, न इन्द्रिय को अतथ्य मानता है, न इन्द्रिय जन्य ज्ञान को। भ्रम ज्ञान का अभाव नहीं अपितु दुष्ट ज्ञान हैं जिनका अर्थ हुआ अल्प या सीमित ज्ञान। जगत् मिथ्यात्व में तो ज्ञान का मिथ्यात्व भी नहीं घटता। ऋषि दयानन्द की बड़ी जबरदस्त पकड़ यह है कि तुम रस्सी में सांप की भ्रान्ति कर ही नहीं सकते जब तक अन्यत्र कहीं सर्प की सत्ता को न मानो।

(2) वैदिक दर्शन लेाक की सत्ता स्वीकार करके लौकिक उन्नति को परलोक यात्रा का साधन बना देता है। बुद्धि की तुच्छता के कारण केवल लोकवादी लोकायतों और केवल परलोकवादी लोकायतों में जो अनेक रूपों वाला युद्ध छिड़ता रहा है उसको दूर करना केवल वैदिक दर्शन (दयानन्दीय दर्शन) से ही सभव है।

(3) अवैदिक दर्शनों में एकान्तता का दोष है। जड़ प्रकृति या मैटर मानने वालों ने आत्मा या परमात्मा की चेतन सत्ताओं का निषेध करके न केवल दार्शनिक अपितु व्यावहारिक समस्यायें उत्पन्न कर दी है। जिनका मनुष्य के आचारशास्त्र पर बुरा प्रभाव पड़ा है मनुष्य असत्य और हिंसा के चंगुल में फंस गया है। इसी प्रकार प्रकृति का निषेध करके अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि सप्रदायों ने जीव को जीवत्व के उच्च पद पर से गिरा दिया है।  इससे भी आचारशास्त्र को हानि हुई है।

(4) गत दो शतादियों के पश्चिमी दार्शनिक विद्वान इन्हीं दोषों को दूर करने का असफल प्रयास करते रहे हैं। परन्तु इस असफलता का मुय कारण है वे पुराने विचार जो परंपरा से उनको दाय भाग में मिले हैं और छोड़ने पर भी नहीं छूटते। भारतीय वर्तमान विद्वानों का भी यही हाल है। जो शंकर, रामानुज लिख गए वह वायु मन्डल में प्रसारित हो गया। हम उससे मुक्त नहीं हो सकते। जो पश्चिमी दर्शन पर प्लैटो या अरस्तु का प्रभाव है वह भारत पर शंकर और रामानुज का है।

आवश्यकता है कि दयानन्द दर्शन की विस्तृत व्याया करके  इन जटिल समस्याओं को सुलझाने का यत्न किया जाय। जब तक वैदिक दर्शन यथार्थ रूप में विचार के समक्ष नहीं जाएगा, मानवी जीवन की व्यावहारिक समस्यायें उलझी रहेंगी  और शान्ति तथा उन्नति दोनों में बाधा होगी।