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-विश्व इतिहास की अन्यतम् घटना- ‘महर्षि दयानन्द ने देश व धर्म के लिए माता-पिता-बन्धु-गृह व अपने सभी सुखों का स्वेच्छा से त्याग किया’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

भारत संसार में महापुरूषों को उत्पन्न करने वाली भूमि रहा है। यहां प्राचीन काल में ही अनेक ऋषि मुनि उत्पन्न हुए जिन्होंने वेदानुसार आदर्श जीवन व्यतीत किया। इन ऋषियों में से कुछ के नाम ही विदित हैं।  अनेक ऋषि मुनियों ने महान कार्यों को किया परन्तु उन्होंने न तो अपना आत्म वृतान्त ही लिखा और न ही अपनी कोई पहचान ही साहित्य आदि के माध्यम से देश में छोड़ी। समय व्यतीत होने के साथ कुछ ऋषियों ने कुछ ग्रन्थों का सृजन वा रचना की। उनके साहित्य में इतिहास में हुए कुछ प्रमुख ऋषियों के नामों का उल्लेख है। इसी प्रकार से इन ऋषियों के ग्रन्थों पर कुछ अन्य ऋषियों ने भाष्य आदि टीकायें लिख कर अपने समय के जन साधारण का कल्याण किया। इनमें भी कुछ ऐतिहासिक ऋषियों के नाम सुरक्षित हैं। महर्षि बाल्मिकी ने रामायण लिखकर स्वयं, श्री रामचन्द्र जी, रामायण काल के कुछ ऋषियों व राजाओं आदि के नाम व इतिहास सुरक्षित किए हैं। रामायण के बाद सबसे बड़ा व प्रमुख इतिहास ग्रन्थ हमारे पास महाभारत है। इसमें उस काल के अनेक राजाओं व विद्वानों का वर्णन है जिनमें से एक अति प्रतिष्ठित महापुरूष श्री कृष्ण हैं। महाभारत काल के बाद युधिष्ठिर के वंशज अनेक राजा महाराजा हुए। इन सबके विस्तृत नाम व वृतान्त आदि तो सुरक्षित नहीं हैं परन्तु महर्षि दयानन्द की कृपा से सत्यार्थ प्रकाश में एक सूची मिलती है जिसमें राजा युधिष्ठिर की वंश परम्परा में क्षेमक तक राजाओं व उनके राज्यकाल का विवरण वर्ष, महीनों व दिन तक की गणना किया हुआ मिलता है। यह कुल 30 पीढि़यों के 1770 वर्ष 11 मास व 10 दिनों का संक्षिप्त व संकेतित इतिहास व विवरण है। इसके बाद के राजाओं से लेकर सम्वत् 1249 विक्रमी तक राजा यशपाल के शासनकाल तक का विवरण सत्यार्थप्रकाश में अंकित सूची में है। इस प्रकार अब से लगभग 823 वर्ष पूर्व तक के राजाओं का विवरण महर्षि दयानन्द की कृपा से आज देश की जनता के लिए सुलभ हुआ है। जब भारत की ज्ञान विज्ञान से युक्त वेद कालीन प्राचीन धर्म व संस्कृति पर विचार करते हैं तो हमें अनेक धार्मिक ग्रन्थों के रचयिता ऋषि मुनियों सहित आदर्श राजा श्री राम, योगेश्वर श्री कृष्ण, राजनीति के आचार्य महात्मा चाणक्य, स्वामी शंकराचार्य और महर्षि दयानन्द जी का ज्ञान होता है जिन्होंने अपने अपने समयों में महान कार्य कर इस देश व विश्व के धर्म व संस्कृति के वातावरण को प्रभावित किया। आज के इस लेख में हम स्वामी दयानन्द सरस्वती जी पर कुछ विचार कर रहे हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने सन् 1847 में अपनी आयु के  बाईसवें वर्ष में सच्चे शिव, मृत्यु पर विजय और सद्ज्ञान की प्राप्ति के लिए गृह त्याग किया था।  सन् 1860 में वह मथुरा में प्रज्ञाचक्षु गुरू विरजानन्द की कुटिया में पहुंचे और लगभग 3 वर्षों में उनसे आर्ष व्याकरण, वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन पूरा कर सन् 1863 में गुरू की प्रेरणा व आज्ञा से देश व धर्म के सुधार के लिए कार्यक्षेत्र में प्रविष्ट हुंए। उन्होंने नवम्बर, 1869 में काशी नरेश की मध्यस्थता में काशी के लगभग 30 विद्वानों से मूर्तिपूजा पर इतिहास प्रसिद्ध शास्त्रार्थ किया था। इस शास्त्रार्थ में लगभग 50 हजार लोग उपस्थित थे। पौराणिक विद्वान मूर्तिपूजा को वेद विहित सिद्ध नहीं कर सके थे। तदन्तर उन्होंने धर्म व वेद प्रचार के निमित्त मौखिक उपदेश व वार्तालाप सहित शास्त्रार्थ आदि द्वारा प्रचार किया और अपने मन्तव्यों के प्रचारार्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, गोकरूणानिधि, व्यवहारभानु आदि अनेक ग्रन्थ लिखे। यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि उन्होंने हिन्दी की महत्ता के कारण इतिहास में प्रथमवार धार्मिक विषयों को संस्कृत के स्थान पर हिन्दी भाषा में प्रस्तुत किया जिसका सुप्रभाव यह हुआ कि सामान्य व्यक्ति भी धर्म के मर्म को जानने में समर्थ हुआ और धर्म पर पण्डितों का एकाधिकार समाप्त हुआ। वैदिक धर्म के प्रचार व प्रसार के लिए उनके प्रमुख कार्यों में 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई के काकड़वाड़ी स्थान पर प्रथम आर्य समाज की स्थापना सहित सत्यार्थ प्रकाश और वेद भाष्य का प्रणयन आदि कार्य प्रमुख थे।

 

स्वामी जी जहां जहां वेद प्रचार हेतु जाते थे, उनके प्रवचनों में सम्मिलित लोगों में से अनेक उनसे अपना जीवन वृतान्त सुनाने का निवेदन करते थे। उन्होंने अगस्त, 1875 में पूना में दिये गये अपने प्रवचनों में से एक प्रवचन में अपने जीवन का वृतान्त प्रस्तुत किया था। इसके बाद थियोसोफिकल सोसायटी के संस्थापक कर्नल अल्काट की प्रेरणा व निवेदन पर उन्होंने अप्रैल, 1879 में अपना संक्षिप्त जीवनवृत्त लिखा। इस जीवनवृत्त के आरम्भ में उन्होंने लिखा है कि गृह त्याग के प्रथम दिन से ही जो मैंने लोगों को अपने पिता का नाम और अपने कुल का स्थान बताना अस्वीकार किया इसका यही कारण है कि मेरा कत्र्तव्य मुझे इस बात की आज्ञा नहीं देता। यदि मेरा कोई सम्बन्धी मेरे इस वृत्त से परिचय पा लेता तो वह अवश्य मेरे ढूंढने का प्रयत्न करता। इस प्रकार उनसे दो-चार होने पर मेरा उन के साथ घर जाना आवश्यक हो जाता। सुतरा एक बार पुनः मुझे धन हाथ में लेना पड़ता अर्थात् मैं गृहस्थ हो जाता। उनकी सेवा-शुश्रूषा भी मुझे करनी योग्य होती। और इस प्रकार उनके मोह में पड़कर सर्व सुधारों का वह उत्तम काम जिसके लिये मैंने अपना जीवन अर्पण किया है, तथा जो मेरा यथार्थ उद्देश्य है, जिसके अर्थ स्वजीवन-बलिदान करने की किंचित् चिन्ता नहीं की, और अपनी आयु (जीवन) को बिना मूल्य जाना, और जिसके अर्थ मैंने अपना (अपने जीवन का) सब कुछ स्वाहा करना अपना मन्तव्य समझा, अर्थात् देश का सुधार और धर्म का प्रचार, वह (मेरा) देश पूर्ववत् अन्धकार में पड़ा रह जाता। यहां महर्षि दयानन्द ने प्रसंगवश अपनी मृत्यु से साढ़े चार वर्ष पहले अपने जीवन का उद्देश्य बताने के साथ अपने मन की कुछ निजी बातें भी प्रकट की हैं जो कि अत्यन्त महत्वपूर्ण है और वही हमारे लेख का मुख्य विषय हैं।

 

उपर्युक्त पंक्तियों में महर्षि दयानन्द कह रहे हैं उन्होंने सर्व सुधारों के उत्तम काम के लिए ही अपना जीवन अर्पण किया है और यही उनका उद्देश्य है। आगे स्पष्ट कर सर्व सुधार से तात्पर्य उन्होंने देश का सुधार और धर्मं का प्रचार बताया है। महर्षि दयानन्द के इस वाक्य से ज्ञात होता था कि उनके समय में देश में अनेक क्षेत्रों में अन्धविश्वास, रूढि़वाद एवं पाखण्ड आदि अनेक विकृतियां विद्यमान थीं जिनसे देश कमजोर व अवनत हो गया था। इनका सुधार कर वह देश को सशक्त बनाना चाहते थे। देश का एक उत्कृष्ट वेदविद्यावान ब्रह्मचारी, अनेक शारीरिक एवं बौद्धिक क्षमताओं से युक्त ऋषि तुल्य व्यक्ति देश के सुधार के लिए बिना किसी निजी प्रयोजन अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करता है, यह इतिहास की अपने प्रकार की अपूर्व घटना है। यहां हमें श्री रामचन्द्र जी की स्मृति हो आई। उन्होंने अपने पिता के वचनों की रक्षा के लिए वन जाना स्वीकार किया था। वहां प्रयोजन पिता के वचन थे। उनका विवाह हो चुका था और वनवास की अवधि में भी उनके अपने परिवार से सम्बन्ध बने रहे थे। श्री कृष्ण जी ने महाभारत के युद्ध में प्रमुख भूमिका निभाई। इसका कारण उनके पाण्डवों से संबंध थे। वह वैदिक विद्वान, योगी और राजनीतिज्ञ थे और सत्य व धर्म की रक्षा के लिए एक राजा होकर वह इस युद्ध में प्रवृत्त हुए थे। श्री कृष्ण जी ने विवाह भी किया और प्रद्युम्न के रूप में एक संस्कारित योग्य सन्तान को भी प्राप्त किया था। लेकिन स्वामी दयानन्द देश व धर्म के लिए अपने माता-पिता, धन, सम्बन्धों, विवाह, सन्तान, शारीरिक सुख व अपने जीवन आदि सभी कुछ को ईश्वर, देश व धर्म के लिए त्याग कर रहे हैं। अपने महानतम उद्देश्य की पूर्ति के प्रति वह श्री रामचन्द्र जी व श्री कृष्ण जी के समान ही योग्य, सक्षम व समर्थ थे। इस कार्य को उन्होंने प्राणपण से किया। इसमें उन्हें आंशिक सफलता भी मिली और अपने उद्देश्य के लिए ही उन्होंने मात्र 58 वर्ष 8 महीने के अल्प जीवन में ही अपना बलिदान किया। उन्होंने जो कार्य किया वह इतिहास में अभूतपूर्व है। स्वामी दयानन्द के कार्यों व बलिदान का महत्व इस कारण भी है कि भारतवासी धर्म के यथार्थ व सत्य स्वरूप को भूल चुके थे। ईश्वर के स्वरूप व उपासना का ज्ञान भी भारतवासियों को नहीं था। यज्ञ का स्वरूप विकृत कर दिया गया था और सत्य स्वरूप का किसी को ज्ञान ही नहीं था। इसी कारण बौद्धमत अस्तित्व में आया और सनातन वैदिक धर्म का पराभव हुआ। देश में बाल विवाह होते थे जिससे विवाहित बालक-बालिकाओं की मृत्यु दर वृद्धि को प्राप्त हो रही थी। निस्तेज व अल्पजीवी सन्तानें उत्पन्न होती थीं। विधवाओं की दुर्दशा हो रही थी। स्त्रियों व दलितों के अध्ययन के अधिकारों तक को छीन लिया गया था। वेदों के यथार्थ विद्वान होना बन्द हो गये थे। सभी मनुष्यों का धर्म एक है। इस एक धर्म की अनेकानेक अन्धविश्वासों से युक्त शाखायें एवं प्रशाखायें उत्पन्न हो गईं थीं जो भोले-भाले लोगों का शोषण करती थीं। ब्राह्मण वर्ण व वर्ग को सभी प्रकार के अधिकार थे, अन्याय करने पर भी दण्ड का कोई विधान नहीं था और अन्यों पर अन्याय व शोषण किया जाता था। देश को कृत्रिम जन्मना-जाति व उपजातियायें में बांट दिया गया था जिससे देश कमजोर हुआ व हो रहा है। इन सब सामाजिक दोषों को दूर करने के साथ स्वामी दयानन्द ने वेदों का सत्य स्वरूप प्रकाशित किया, स्त्रियों व शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकार दिया, सभी सामाजिक विषमतायें एवं अन्याय दूर किये और ईश्वर का सच्चा स्वरूप प्रस्तुत कर उसकी सच्ची उपासना और यज्ञों का उद्धार किया। देश व विश्व का इतना उपकार करने पर भी देश के लोगों ने उनके उपकार बदला उन का अपमान, विरोध, अनेक बार उन्हें विष देकर तथा उनके प्राण लेकर दिया। हमें समझ में नहीं आता कि हम अपनी जाति को क्या कहें जो अपने ही त्राता के प्राणों का घात करती है। यहां यह उक्ति चरितार्थ होती है तू खाक उसे करना चाहे जो तेरा बेड़ा पार करे। अतः स्वामी दयानन्द ने सर्वसुधारों के लिए अपने प्राण देकर अपने वचनों को सत्य सिद्ध किया जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया था। हम अनुभव करते हैं कि उनके उपकारों से देश कभी उऋ़ण नहीं हो सकता।

 

अपने वचनों में स्वामी दयानन्द जी ने यह भी कहा है कि सुर्वसुधारों के अर्थ उन्होंने स्वजीवन-बलिदान करने का किंचित् विचार व चिन्ता नहीं की, और अपनी आयु (जीवन) को बिना मूल्य जाना, और जिसके अर्थ उन्होंने अपना सब कुछ स्वाहा करना अपना मन्तव्य समझा, अर्थात् देश का सुधार और धर्म का प्रचार, अन्यथा देश पूर्ववत् अन्धकार में पड़ा रह जाता। महर्षि के यह वाक्य भी उनके जीवन एवं कार्यों पर दृष्टि डालने पर सत्य सिद्ध होते हैं। महर्षि दयानन्द के अनुयायियों को यह देखकर दुःख होता है कि यह देश सत्य को जानने के प्रति सजग न होकर उदासीन है। सत्य का ग्रहण तो देशवासी तभी कर सकते हैं जबकि इन्हें सत्य गुरूओं का सान्निध्य व मार्गदर्शन प्राप्त हो। इसके लिए तो वैदिक साहित्य के अध्ययन की आवश्यकता है। अनार्ष ग्रन्थों को पढ़कर इन मत-पन्थ-सम्प्रदाय वादियों की बुद्धि भी इन मतों के अनुकुल हो गई है। मत-मतान्तरों के असत्य विचारों को पढ़ने व सुनने पर भी उनके मन में शंकायें  उत्पन्न नहीं होती? सत्य ज्ञान वेद के विरूद्ध सभी मत-मतान्तर अनेक असत्य व मिथ्या बातों का प्रचार करते हैं और उनके अनुयायी आंखें बन्द कर उन्हें स्वीकार कर लेते हैं जिससे ईश्वर व धर्म के विषय में सर्वत्र अन्धकार छाया हुआ है। अतः हमें महर्षि दयानन्द का तप व पुरूषार्थ पूर्ण सार्थक हुआ प्रतीत नहीं होता। आज भी चालाक व स्वार्थी लोग भोले भाले धर्मभीरू लोगों का शोषण करते हैं। उनमें से कुछ के अनैतिक कार्य भी समाज के सामने आते रहते हैं परन्तु देश की जनता फिर भी उदासीन रहती है। लोगों की इस मनोवृत्ति और अकर्मण्यता ने भविष्य में सत्य वैदिक धर्म की उन्नति पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। महर्षि दयानन्द के तप व पुरूषार्थ की पूर्ण सफलता न होने से देश के लिए भविष्य में विडम्बना सिद्ध हो सकती है जैसे कि पहले भी बनी है। अतः वेदों के प्रचार प्रसार की पहले से कहीं अधिक आवश्यकता है। हम महर्षि दयानन्द के उन वाक्यों जिसमें उन्होंने अपनी भावनाओं को प्रकट किया और वैसा कर धर्म व देशोन्नति के लिए बलिदान हुए, नमन करते हैं। आज की परिस्थितियों में धर्म व देश सुधार के लिए हमें सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन और उसके अनुरुप सत्य मान्यताओं का प्रचार ही अभीष्ट लगता है। हम आशा करते हैं कि देश के प्रबुद्ध जन महर्षि दयानन्द के वैदिक साहित्य का निष्पक्ष रूप से अध्ययन कर धर्म व संस्कृति की रक्षा तथा देशोन्नति के लिए अपने कर्तव्य का निर्धारण कर उसका पालन करेंगे।

 

आज की परिस्थितियों में प्रासंगिक वैदिक विद्वान पं. राजवीर शास्त्री जी की जुलाई, 1998 में लिखी पंक्तियां प्रस्तुत हैं। वह लिखते हैं कि स्वाध्यायशील पाठकों और वेदभक्त आर्यपुरुषों के समक्ष दयानन्द-सन्देश मासिक पत्र का श्रावणी पर्व पर वेद-विशेषांक प्रस्तुत करते हुए जहां हमें अतीव प्रसन्नता हो रही है वहीं हमें वेद के प्रति अनास्था रखने वालों के प्रति सजगता एवं सतर्क रहने के लिए प्रोत्साहन भी मिल रहा है। उन्नीसवीं शताब्दी में हमारे अन्दर वेद-ज्योति ने सन्मार्ग दर्शन होने से हमें सचेत किया था, आज वही ज्योति जिसने समस्त मतमतान्तर-वादियों के भीषण दुर्गों को ध्वस्त करके सत्य को ग्रहण करने के लिए उद्यत किया था, उन्हीं वेदानुयायियों को शिथिल, उपेक्षित, उत्साहहीन देखकर अत्यन्त दुःख भी होता है। इसका कारण स्वाध्यायहीनता व श्रद्धाहीनता भी है किन्तु अर्थ और काम की आसक्ति प्रमुख है। आज का मानव भौतिक चकाचौंध में इतना अधिक व्यस्त हो गया है कि जो आर्यजनता एक सजग-प्रहरी बनकर काम कर रही थी, वह भी उदासीन हो गयी है। महर्षि मनु ने सृष्टि के आरम्भ में ही आर्य जाति को सचेत करते हुए लिखा था-अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते। धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः।। अर्थात् धर्म का ज्ञान उन व्यक्तियों को नहीं होता, जो अर्थ और काम अथवा कांचन कामिनी में आसक्त हैं और धर्म की जिज्ञासा रखने वालों को वेद ही परम प्रमाण है। महर्षि दयानन्द ने धर्म की जिज्ञासा को शान्त करने वाले परम प्रमाण वेदों को ही अपने प्रचार का मुख्य साधन बनाया था। आज भी वेद पूर्णरुपेण प्रासंगिक एवं व्यवहारिक है। वेदविहित व वेदानुकुल ही धर्म और वेद विरुद्ध सब कुछ अधर्म व पाप है।

 

लेख को विराम देते हुए आर्य महाकवि श्री वीरेन्द्र कुमार राजपूत की महर्षि दयानन्द पर कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैंः

 

जिसने गुरुदेव चरित्र पढ़ानिज मानस  जन्म सुधार लिया।

वह लौह सुवर्ण बना जिसने,   इस पारस को पहचान लिया।

पथभ्रष्ट अमीचन्द था, जिसका ऋषि ने  हाथ संभाल लिया,

गुरु ने जग से चलतेचलते जग को गुरुदत्त प्रदान किया।।          

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

आत्म चिन्तन -रमेश मुनि

कभी एकान्त में बैठकर विचार करने के लिए समय निकाला कि अब तक मैंने क्या किया, क्या कर रहा हूँ और आगे क्या करने का विचार है, मेरा लक्ष्य क्या है? इससे मुझे, परिवार, समाज या राष्ट्र को लाभ मिला है या मिलेगा या हानि हुई है या होगी? इस तरह से चिन्तन या विचार करते हुए चलने से, हम अनेक प्रकार के न करने योग्य कार्यों को करने से बच जाते हैं और करने योग्य कार्यों को अच्छी तरह, भली प्रकार से करने के लिए उद्यत हो सकते हैं, क्योंकि ऋषि ग्रन्थ मानव को निर्देश देते हैं कि सदा अपना आत्म निरीक्षण करते रहना चाहिए, जिससे हम अपने लक्ष्य को सदा सामने राते हुए, उसके लिए साधनों को एकत्र करते रहें और बाधकों को जान कर दूर करते रहें।

सामान्य रूप से यदि मेरे पास लोक में जीवन यापन के लिए पर्याप्त सुख साधन हैं, मेरी स्थिति ठीक है तो मेरा प्रयास रहेगा कि मुझे कोई दुःख न आए, सुख मिलता रहे और प्रकृति इसी तरह से चलती रहे, जो सभव नहीं। क्योंकि जीवन की दो अवस्थाएँ हैं- एक गति और दूसरी स्थिति। सिद्धान्त के अनुसार यदि चले रहे हैं तो कहीं-न-कहीं पहुँचगे, यदि गति रुक जाती है तो रुक जाएँगे, जिन्हें हम चाहते नहीं। संसार में आज तक न कोई दुःख रहित सुख प्राप्त कर सका है, न कर रहा है और न भविष्य में कर सकता है। महर्षि पतञ्जलि के अनुसार-

परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वंविवेकिनः।

अर्थात् परिणाम दुःख, ताप दुःख,, संस्कार दुःखों और सत्व, रज, तम गुणों के परस्पर विरोधी स्वभाव से योगी (विवेकी) पुरुष के लिए, सब कुछ दुःख ही है।

हम लौकिक मानव दुःख मिश्रित सुख का भोग करते हैं, इसमें से मिले दुःख को भूल जाते हैं। सुख को याद करके उसे प्राप्त करने के प्रयत्न करते रहते हैं। हमारा शरीर जन्म से मृत्यु पर्यन्त अनेक स्थितियों में रहता है- बचपन, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था, वृद्धावस्था। ये हमारे चलने की स्थिति है, जो समयानुसार आती-जाती है। इसे भी हम चाहते नहीं क्योंकि कोईाी वृद्धावस्था को नहीं चाहता, इसी प्रकार से वर्तमान में हम जिस-जिस स्थिति में हैं, उसी में रुके रहें अर्थात् बच्चा, बच्चा रहे, वृद्ध, वृद्ध ही बना रहे, इसे भी कोई नहीं चाहता, लेकिन इसे कोई न रोका पाया है, न रोक पाएगा। भर्तृहरि जी ने कहा है-

भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः, तपो न तप्तं वयमेव तप्तः।

कालो न यातो वयमेव याताः, तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः।।

– वैराग्य शतक 12

अर्थात्- हम सांसारिक विषय भोगों को भोग नहीं पाए, अपितु उन भोगों को प्राप्त करने की चिन्ता ने हमें भोग लिया, हमने तप नहीं किया, अपितु आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक ताप जीवन भर हमें तपाते रहे। भोगों को भोगते-भोगते हम काल को नहीं काट पाए, काल ने हमें ही नष्ट कर दिया। इसी प्रकार से भोगों को प्राप्त करने की हमारी तृष्णा बूढ़ी नहीं हुई, अपितु हम ही बूढ़े हो गए, भोगों के रहते हम ही भोगने में असमर्थ हो गए।

इसलिए हमें विचार करना चाहिए कि मैं ऐसी कामना क्यों कर रहा हूँ, जो पूरी नहीं होगी जैसे कि मैं चलता रहूँ, लेकिन समाप्ति रूप परिणाम न आए या स्थिर रहूँ और ऊबूँ नहीं। आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन के रहते, हम जो भी कर्म करते हैं, उसका फल दुःख या सुख के रूप में मिलेगा ही, शुभ कर्मों से सुख, अशुभ कर्मों से दुःख, इसे कोई बदल नहीं सकता। हम भोगों को भोगना तो चाहते हैं किन्तु इन्द्रियाँ सीमित शक्ति से युक्त है अर्थात् सीमा के आगे भोग नहीं पाते और दुःखी हो जाते हैं। हमें भोगों को मात्र भोगने की दृष्टि से देखना बन्द करके जीवन को सुचारु रूप से चलाए रखने के लिए पदार्थों की आवश्यकता जान कर प्रयोग करने का विचार बनाना होगा, तभी हम दुःखों को कम कर सकते हैं। ऐसा तभी सभव होगा जब हम जीवन की सार्थकता आध्यात्मिक रूप से समझ कर अपने व्यवहारों में परिवर्तन करेंगे। तब हम अपने जीवन स्तर को आगे ले जाने में सफल होंगे।

रात्रि में सोने से पहले हमें दिनभर के कार्यों का चिन्तन अवश्य करना चाहिए और शुभ-अशुभ कर्मों को पहचानने का प्रयास करके शुभ कर्मों को पकड़ना, अशुभ कर्मों को छोड़ना ही होगा।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

‘मृतक श्राद्ध विषयक भ्रान्तियां: विचार और समाधान’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हिन्दू समाज आज कल अन्धविश्वासों का पर्याय बन गया है। श्राद्ध शब्द को पढ़कर धर्म-कर्म में रूचि न रखने वाला एक अल्प ज्ञानी सामान्य व्यक्ति भी समझता है कि श्राद्ध अवश्य ही श्रद्धा से सम्बन्ध रखता है। जिस प्रकार से देव से देवता शब्द बनता है उसी प्रकार से श्रद्धा से श्राद्ध बनता है। श्रद्धा उन पारिवारिक जनों व विद्वानों के प्रति होती है जिनसे हमें कुछ लाभ हुआ होता है। हमारे माता-पिता व वृद्ध पारिवारिक लोग व आचार्यगण हमारी श्रद्धा के मुख्य रूप से पात्र होते हैं। माता-पिता, दादी-दादा, प्रपितामही-प्रपितामह आदि के अतिरिक्त चाचा, ताऊ, बुआ, फूफा, मामा व मौसी आदि सभी संबंधियों के प्रति हमारी श्रद्धा व आदर का भाव होता है। अतः श्रद्धा पूर्वक उन जीवित अपने से अधिक आयु वालों को अपने सद्व्यवहार व सेवा से सन्तुष्ट रखना ही श्राद्ध व तर्पण हो सकता है। यदि हम माता-पिता, अन्य वृद्धों व आचार्यों, सभी को भोजन, वस्त्र व उनकी आवश्यकतानुसार धन आदि उन्हें देते हैं और वह हमारी इस सेवा व दान से प्रसन्न होते हैं तो हमारा यह कृत्य श्राद्ध व तर्पण में आता है। श्राद्ध है श्रद्धापूर्वक सेवा और तर्पण अपने आचरण व सेवा से उन्हें सन्तुष्ट करना। माता-पिता को सेवा की आवश्यकता तभी तक होती है जब तक की वह जीवित होते हैं। मरने के बाद अन्त्येष्टि द्वारा उनका शरीर भस्म कर दिया जाता है। उनका मुख, उदर व सभी शरीरांग जल कर नष्ट हो जाते हैं और कुछ मुट्ठी राख ही बचती है। अब चेतन तत्व हमारी व अन्यों की अनादि, अजर, अमर, आत्मा क्योंकि शरीर से पृथक हो जाती है अतः उसे भोजन की आवश्यकता नहीं होती। अब तो परलोक व परजन्म में उनका सहायक ईश्वर तथा उनके कर्म अर्थात् प्रारब्ध ही होते हैं। हम कुछ भी कर लें, हमारे कुछ भी करने से हमारे किसी मृतक सगे सम्बन्धी माता-पिता आदि को कोई, किसी प्रकार का व किंचित लाभ नहीं हो सकता। ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि इसलिए नहीं दी की वह किसी भी कार्य को इस लिए करे कि उसके पूर्वज व अन्य लोग इस कार्य को करते चले आ रहे हैं अपितु इसलिए दी है कि वह प्रत्येक कार्य को सत्य व असत्य का विचार कर करे।  यदि श्राद्ध को देखे तो इससे हमारे ब्राह्मण वर्ग के पुरोहितों को विशेष आर्थिक व भौतिक लाभ होता है। वह अच्छा भोजन करते हैं और उन्हें कुछ वस्तु भी दान स्वरूप भेंट करनी होती हैं। किसी कार्य आदि से जिस व्यक्ति को कोई लाभ होता है तो उसका वह संस्कार बन जाता है। उसे कितना ही कोई मना करे, वह उस कार्य को छोड़ता नहीं है। रिश्वत, कामचोरी, शराब, मांसाहार जैसी बुरी आदतों की ही तरह हर कार्य जिससे किसी को कोई लाभ होता हो, उसे वह छोड़ नहीं पाता। अतः मनुष्य को स्वयं ही सत्य व असत्य का विचार करना चाहिये और असत्य को छोड़कर सत्य को ग्रहण करना चाहिये। इस कारण कि संसार में आपसे अधिक आपका कोई हितैषी नहीं है। और तो अपना प्रयायेजन सिद्ध करते हैं। अपना हित व अहित देखना और बुद्धि पूर्वक निर्णय करना आपका ही काम है, यह बात गांठ बांध लेनी चाहिये। यही मनुष्य जीवन का मुख्य कर्तव्य व उद्देश्य है।

 

श्राद्ध में जो भोजन ब्राह्मणों को कराया जाता है उससे उनकी क्षुधा की निवृति वा पेट भरता है। हमारे मृतक पूर्वजों का न तो हमें पता है और न हि हमारे श्राद्ध खाने वाले व बड़े से बड़े किसी विद्वान को कि वह आत्मायें जिनका श्राद्ध हो रहा है, वह कहां हैं? मृत्यु के बाद मृतक की आत्माओं की ओर से अपने किसी सगे सम्बन्धी को कभी भी अपना न तो कोई समाचार बताया जाता है और न हमारे हाल चाल ही पूछे जाते हैं। मरने के बाद मनुष्य सब कुछ भूल जाता है। परमात्मा की प्रेरणा से वह अपने कर्मों के अनुसार नई योनि में जन्म लेता है। मनुष्य जन्म लेने वाला कोई बच्चा यह नहीं बताता कि मैं पहले मरा हूं, वहां रहता था, अमुक नाम के लोग मेरे पुत्र-पुत्री थे, आदि आदि। कारण कि वह सब कुछ भूल चुका है। मनुष्य जन्म लेने में जीवात्मा को मात्र न्यूनतम गर्भावास में 10 महीनों का समय लगता है। किसी किसी मामले में कुछ अधिक भी हो सकता है। अब विचार कीजिए कि इस नये उत्पन्न शिशु का इसके पूर्व जन्म के पारिवारिक जनों ने श्राद्ध किया होगा तो इसको तो कभी भोजन मिलता उसे स्वयं व उसके परिवार जनों को अनुभव नहीं हुआ। यह तो जन्म लेने के बाद प्रातः सायं प्रतिदिन माता से भोजन पाता व करता है। यदि श्राद्ध के दिन इसके पूर्व जन्म की कोई सन्तान इसका श्राद्ध करे तो एक समय के भोजन की इसकी निवृत्ति होकर अनुभव भी होना चाहिये। ऐसा तो कभी किसी को मिलता ही नहीं है। यदि कोई यह मानता है कि श्राद्ध करने से पूर्वजों को भोजन पहुंचता है तो उन्हें प्रातःसायं दोनों समय पूरे वर्ष भर ही श्राद्ध करना चाहिये जैसे कि जीवित माता-पिता, दादी दादा व परदादी व परदादा को दिन में दो बार भोजन कराया जाता है। हर दृष्टि से मृतक श्राद्ध करना, तर्क, युक्ति व वेदादि शास्त्र विरूद्ध है। आर्य समाज के विद्वानों ने इस विषय का पर्याप्त साहित्य सृजित किया है। इनमें से एक ग्रन्थ ‘‘श्राद्ध निर्णय” वेदों के शीर्ष विद्वान पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ जी का रचा हुआ है। उसमें श्राद्ध के सभी पहलुओं पर विस्तार से विचार कर निर्णय किया गया है कि मृतकों का श्राद्ध अन्धविश्वास के अलावा कुछ नहीं है। यह भी बता दें कि हमारे यह पण्डित जी व हम भी पहले पौराणिक परिवारों के रहे हैं जहां मृतक श्राद्ध होता था और हमारे सम्बन्धी जो अज्ञान में फंसे हुए हैं, वह अब भी मृतक श्राद्ध करते हैं। अभी तक सनातनी कहे जाने वाले हमारे बन्धुओं ने कोई ऐसा प्रमाण व युक्ति नहीं दी है जिससे श्राद्ध को युक्ति व तर्क से सिद्ध किया जा सके। अतः बुद्धि से विचार कर हमें केवल अपने जीवित माता-पिता व परिवार के सभी वृद्ध जनों जिन्हें हमारा भोजन, वस्त्र, ओषधि वा चिकित्सा आदि के रूप में किसी भी प्रकार से सेवा की आवश्यकता है, हमें कर्तव्य पूर्वक प्रतिदिन प्रातः व सायं उनकी यथोचित सेवा करनी चाहिये। अपनों की तो सेवा सभी को करनी है, इसके साथ हि सभी ज्ञानी व वृद्ध लोगों का भी सेवा सत्कार यथा सामर्थ्य सभी को करना चाहिये। यही मनुष्य धर्म व वैदिक धर्म है। यदि हम बुद्धिपूर्वक कार्य करेंगे और अन्धविश्वासों का त्याग करेंगे तो हम वैदिक काल के अपने स्वर्णिम वैभव को पुनः प्राप्त कर सकते हैं। हम भविष्य में पराधीनता व निजी व अपनी जाति व समाज के लोगों के अपमान से बच सकते हैं जैसा कि मध्यकाल, मुस्लिम व व्रिटिश शासन आदि में हमारे पूवजों को झेलना पड़ा है। यदि ऐसा नहीं करेंगे और बीती बातों से सबक व शिक्षा नहीं लेंगे तो उन घटनाओं की पुनरावृत्ति हो सकती है। ठोकर लगने पर जो न सम्भले उसका जो हश्र होता है, वही हश्र हमारा पुनः हो सकता है।

 

एक अन्य दृष्टि से भी श्राद्ध पर विचार करते हैं। हम इस समय 63 वर्ष के हैं। जब 63 वर्ष पूर्व पूर्व जन्म लेकर पूर्व जन्म की मृत्यु के बाद हम इस जीवन में आये तो सम्भव है कि हमारा 30 से 35 वर्ष का कोई पुत्र रहा होगा जो अब लगभग 93 वर्ष का होगा। उसका पुत्र भी लगभग 63 का और उस 63 वर्षीय का पुत्र लगभग 33 वर्ष का हो सकता है। इस प्रकार से पूर्व जन्म के हमारे पोते और पड़पोतों का जीवित होना सम्भव है। हमें अपने विगत 63 वर्षों के जीवन में इन सभी वंशजों से कभी श्राद्ध नाम का भोजन मिला हो, ऐसा अनुभव नहीं हुआ और न हि उससे होने वाली तृप्ति अनुभव हुई। संसार में सम्प्रति 7 अरब लोग हैं, शायद इसका एक भी गवाह नहीं मिलेगा जो दावा करे कि कभी उसके पूर्व जन्म के वशंजों के श्राद्ध से उसकी क्षुधा व अन्य कोई समस्या हल हुई हो। अतः यह मृतक श्राद्ध अन्धविश्वास ही सिद्ध होता है। महाभारतकालीन व पूर्व के साहित्य मुख्यतः वेद आदि में मृतक श्राद्ध आदि का कहीं कोई वर्णन नहीं है। अतः मृतक श्राद्ध असिद्ध है और अन्धविश्वास से अधिक कुछ नहीं है। यह भी कहना है कि हमारे कुछ ग्रन्थों में मध्यकाल में कुछ स्वार्थी लोगों ने प्रक्षेप कर दिये थे। यदि कहीं कोई उल्लेख मृतक श्राद्ध के पक्ष में है तो उस पर युंक्ति पूर्वक विचार होना चाहिये। हर विद्वान, पुस्तक व ग्रन्थ लेखक को अपनी मान्यता के सम्बन्ध में तर्क व प्रमाण देने चाहिये। यदि कोरा प्रवचन हो तो उसे बुद्धि, युक्ति व तर्क हीन होने पर स्वीकार नहीं करना चाहिये। हम आशा करते हैं कि पाठक हमारे विचारों से सहमत होंगे। हम निवेदन करते हैं कि महर्षि दयानन्द, ईश्वर व आप्त विद्वानों व ऋषि-मुनियों द्वारा प्रदत्त वैदिक साहित्य को पढ़कर अपने जीवित पितरों का श्रद्धापूवक सेवा सत्कार नित्य प्रति कर उनकी आत्माओं को सन्तुष्ट व प्रसन्न करें और ऐसा करके लौकिक और पारलौकिक उन्नति करें, यही वेद, शास्त्र और ऋषि दयानन्द सम्मत है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

सच्चे तीर्थ माता-पिता-आचार्य व आप्त विद्वानों के सदुपदेश आदि हैं।’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

आजकल कुछ स्थानों अथवा नदी व सरोवरों को तीर्थ कहा जाता है। किसी से कोई पूछे कि इन तीर्थ स्थानों से इतर देश के अन्य सभी स्थान सच्चे तीर्थ क्यों नहीं है, तो इसका उत्तर शायद कोई नहीं दे सकेगा। तीर्थ शब्द संस्कृत भाषा का है और इसका प्रयोग वेद व वैदिक साहित्य में मिलता है। समस्त वैदिक साहित्य का अध्ययन करने के बाद जो निष्कर्ष निकलता है, उसके अनुसार तीर्थ में क्या भाव निहित है, यह जानना आवश्यक है। तीर्थ शब्द का अर्थ है जिससे मनुष्य दुःखसागर से पार उतरता है, वह तीर्थ होता है। वेदों में सत्याभाषण, विद्या, सत्संग, पांच यम अहिंसासत्यअस्तेयब्रह्मचर्यअपरिग्रह आदि, योगाभ्यास, पुरुषार्थ तथा विद्यादानादि शुभ कर्मों को दुःखसागर से निवृत्ति कराने वाले बताया गया है। यही सब वस्तुतः तीर्थ हैं। इसके विपरीत दुःखसागर में डूबाने वाले अशुभ कर्म हैं जिनमें मुख्यतः असत्याभाषण, अविद्या, कुसंग, पांच यमों के विपरीत आचरण व व्यवहार करना, योगाभ्यास न करना, निठल्ला होना व तपस्वी न होना एवं विद्याहीनता आदि। विचार करने पर ज्ञात होता है कि आजकल के जल-स्थल आदि तीर्थ इन तीर्थ विपरीत गुण-कर्म-स्वभाव को चरितार्थ करते हैं। जलस्थलादि कोई भी स्थान तीर्थ नहीं है क्योंकि किसी स्थान या नदी, सरोवर जल के समीप जाने स्नानादि करने से मनुष्य के दुःख दारिद्रय दूर नहीं होते अर्थात् इन तीर्थों से कोई दुःखों से पार नही होता। इससे तो धन जीवन के सबसे मूल्यवान समय अर्थात् जीवनकाल का अपव्यय होने से हानि ही हानि दुःखों में वृद्धि होती है। इन बातों को केवल विवेकशील मनुष्य ही जान सकते हैं, अज्ञानी व अविद्याग्रस्त बन्धु नहीं जान सकते और इसी कारण से अज्ञानी लोगों को भ्रम में डालकर कुछ लोग अपना मनोरथ सिद्ध करते हैं जो कि कालान्तर में उनके लिए भी दुःखदायी ही होता है।

 

आजकल कुछ विशेष मन्दिरों और नदियों में स्नान आदि को तीर्थ की संज्ञा दी जाती है। यह विचार व भावना वेद और दर्शन, उपनिषद, शुद्ध मनुस्मृति आदि शास्त्रों के विचारों से विरूद्ध होने से असत्य, भ्रामक व अन्धविश्वास की श्रेणी में ही मानी जा सकती है। जिन वेद आदि शास्त्रों में ईश्वर, जीव, प्रकृति तथा जीवों के परमार्थ व सांसारिक सभी कर्तव्यों का युक्ति व तर्क संगत ज्ञान है, उनमें किसी स्थान व नदी में स्नान आदि को तीर्थ न बताना सकारण ही है क्योंकि कोई स्थान व नदियों का जल पूजा व स्नानादि के रूप में तीर्थ होता ही नहीं है। महर्षि दयानन्द धार्मिक जगत में सत्य के अन्वेषी थे, अतः उन्होंने अपने समय में उपलब्ध सभी धार्मिक ग्रन्थों को पढ़ा था तथा ग्रन्थों में निहित विचारों पर युक्ति व तर्क को सामने रखकर चिन्तन भी किया था। उन्होंने अपने गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती, जो कि वेदों सहित आर्ष ज्ञान के प्रमाणित विद्वान थे, उनसे सभी विषयों पर चर्चा कर सत्य को प्राप्त किया था। उनका उद्देश्य जनता को बहका फुसला कर उनका धन हड़पना व उन्हें अपना चेला व शिष्य बनाना नहीं था अपितु जनता को सत्य मार्ग दिखा कर स्वयं और सभी को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति कराना था। उनके समय में ही सहस्रों बुद्धिजीवी लोग उनके विचारों व मान्यताओं की महत्ता व सत्यता को जानकर उनके अनुयायी बने थे। उनसे वैदिक विद्वानों की एक लम्बी श्रृंखला चली है जिन्होंने उनकी वैदिक मान्यताओं को अनेक शास्त्रीय प्रमाणों, युक्तियों व तर्कों से सत्य सिद्ध किया है। स्वामी दयानन्द ने अपने समय में अन्य मत वालों से किसी भी धार्मिक विषय पर शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी थी। उन्होंने अनेकों से  शास्त्रार्थ किए भी तथा सभी शास्त्राथों में उनकी ही विजय हुई। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उनकी सभी मान्यतायें सत्य पर आधारित व अकाट्य थी। उनमें अज्ञान नहीं था और न ही उनका अपना कोई निजी हित व स्वार्थ था जिसके लिए वह यह सब कार्य कर रहे थे। उनका उद्देश्य तो मात्र ईश्वर का आज्ञा का पालन करना वा कराना था जो वेदों में विहित है और जिसका आचरण करना ही सभी मनुष्यों का परम कर्तव्य व परम धर्म है।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल में समूचे देश का भ्रमण किया था और तीर्थ स्थानों आदि में जो कुछ धर्माचरण के विरूद्ध होता है, उसे व उसकी सच्चाई को सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से सबके सामने प्रस्तुत किया है जिसको जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन करना आवश्यक है। सत्यार्थ प्रकाश के एकादश समुल्लास में स्वामी जी ने प्रश्न उठाते हुए कहा है कि क्या कोई तीर्थ सत्य है वा नहीं? इसका उत्तर हां में देकर वह लिखते हैं कि वेदादि सत्य शास्त्रों का पढ़ना-पढा़ना, धार्मिक विद्वानों का संग, परोपकार, धर्मानुष्ठान, योगाभ्यास, निर्वैर, निष्कपट, सत्यभाषण, सत्य का मानना, सत्य करना, ब्रह्मचर्य पालन, आचार्य-अतिथि-माता-पिता की सेवा, परमेश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना, शान्ति से युक्त जीवन, जितेन्द्रियता, सुशीलता, धर्मयुक्तपुरुषार्थ, ज्ञान-विज्ञान आदि शुभ गुण व कर्म दुःखों से तारने वाले होने से तीर्थ हैं। और जो जल स्थलमय स्थान हैं, वे तीर्थ कभी नहीं हो सकते क्योंकि जना यैस्तरन्ति तानि तीर्थानि अर्थात् मनुष्य जिन कर्मों को करके दुःखों से तरे उन का नाम तीर्थ है। जल स्थल तराने वाले नहीं किन्तु डुबाकर मारने वाले हैं। प्रत्युत नौका आदि का नाम तीर्थ हो सकता है क्योंकि उन से भी समुद्र आदि को तरते हैं। वैदिक साहित्य के प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ अष्टाध्यायी के 4/4/107 सूत्र में कहा गया है कि समानतीर्थे वासी अर्थात् जो ब्रह्मचारीगण एक आचार्य से एक शास्त्र को साथ-साथ पढ़ते हों वे सब ब्रह्मचारीगण सतीर्थ्य अर्थात् समानतीर्थसेवी होते हैं। इसी प्रकार यजुर्वेद अध्याय 16 में मन्त्र सूक्ति नमस्तीथ्र्याय में कहा गया है कि जो वेदादि शास्त्र और सत्यभाषाणादि धर्म लक्षणों में साधु हो उस को अन्नादि पदार्थ देना और उन से विद्या लेनी इत्यादि तीर्थ कहाते हैं। इस प्रकार वेदादि शास्त्रानुमोदित तीर्थ का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। मूर्तिपूजा, मन्दिर, जल व नदी युक्त स्थानों में स्नानादि से मनुष्य दुःखों से नहीं तरते, इस कारण इनका सच्चा तीर्थ न होकर मिथ्या होना सिद्ध होता है।

 

देश व समाज में हम देखते हैं कि तीर्थाटन करने से किसी का अज्ञान व दुःख दूर नहं होते। उत्तराखण्ड के केदारनाथ आदि तीर्थ स्थानों की विगत त्रासदी में यह देखा गया है कि इन स्थानों पर आकर तीर्थ यात्रियों को दुःख से तरने के स्थान पर मृत्यु आदि दुःख मिले हैं। अतः इनसे दुःख तारने की अपेक्षा पूरी नहीं होती। देहरादून आर्यसमाज में त्रासदी के बाद आर्य संन्यासी स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक से पूछे एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा था कि ईश्वर सर्वव्यापक है। इसलिए उसके दर्शन व प्राप्ति के लिये किसी को कहीं जाने की कोई आवश्यकता नहीं है, वह तो साधना करने से अपनी आत्मा में सर्वत्र हो सकते हैं। अतः वैदिक ज्ञान विज्ञान के संवाहक विद्वानों से रहित किसी स्थान विशेष की संज्ञा तीर्थ कदापि नहीं हो सकती और न ही ऐसी यात्रा तीर्थ यात्रा हो सकती है। तीर्थ माता-पिता-आचार्य-वैदिक शास्त्रों में निहित है और इनसे ज्ञानार्जन करना ही तीर्थ होता है। जिस प्रकार से कभी किसी को कोई रोगादि हो जाता है तो वैद्यों व चिकित्सकों के उपचार से वह स्वस्थ होता है अन्यथा नहीं। धनोपार्जन के लिए कृषि, व्यापार, सेवा आदि कार्य करने होते हैं, किसी मूर्ति आदि की पूजा व जलस्थलादि की यात्रा व पूजा आदि करने से दुःखों पर विजय प्राप्त नहीं होती, अतः वर्तमान के तीर्थ तीर्थ न होकर सत्य व यथार्थ तीर्थ की विकृतियां है जिससे मनुष्यों की भारी हानि हो रही है। यदि तीर्थों में किया जाने वाला पुरुषार्थ सत्य व ज्ञान पूर्वक स्वजीवन व सामाजिक के हित की भावना से हो, तो वह लाभकारी होता है। अतः वैदिक तीर्थों को जानकर उनका सेवन कर वर्तमान जीवन व परलोक के जीवन को सुधारना अर्थात् इनमें होने वाले दुःखों से पार होने के वैदिक उपायों को करना चाहिये। यही हमारे व्यक्तिगत व देश के हित में है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

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महर्षि दयानन्द की प्रथम शिष्या – इन्द्रजित्देव

पञ्जाब के जिला हुशियारपुर में एक कस्बा है- हरयाणा। इस कस्बे ने आर्य समाज के दो उपदेशक लेखक उत्पन्न किए हैं। एक का नाम है- माई भगवती और दूसरे हैं- श्री हरिवंशलाल मेहता जी

श्री मेहता जी का जन्म 1917 ईस्वी में हुआ था। भारत सरकार के संचार मन्त्रालय में कार्य करने के पश्चात् जब वे सेवा-निवृत्त हुए तो वे उत्तरप्रदेश के लखनऊ में निवास करने लगे। श्री आचार्य हरिशरण सिद्धान्तालङ्कार से प्रेरणा पाकर आप वेदाध्ययन करते रहे हैं तथा कई वैदिक पत्रिकाओं में लेख भी छपाते रहे हैं। आपकी रचनाएं दिव्योपदेश, सुमधुर पुष्पाञ्जलि, भक्त की जीवनचर्या नाम से प्रकाशित हुई।

माई भगवती का जन्म सन् 1844 ईस्वी में एक उच्च क्षत्रियकुल में हुआ था। तब भारत भर में स्त्री-शिक्षा का नाम तक न था। तब पढ़ने लिखने में पुरुष भी बहुत पिछड़े हुए थे। आठवीं कक्षा तक पढ़ चुके पुरुष बहुत आदरणीय पद ग्रहण करते थे । कुछ पुरुष मन्दिरों में पुजारियों से थोड़ी-बह़ुत कथित धार्मिक शिक्षा ग्रहण कर लेते थे। स्त्रियों का पढ़ना तो अत्यन्त हेय कार्य माना जाता था। माता भगवती जी का पूर्व नाम पार्वती था। उनके परिवार ने बड़े साहस से निर्णय लेकर उन्हें एक पण्डित जी के पास पढ़ने के लिए भेजना आरभ किया । माता ने थोड़े ही दिनों में कई ग्रन्थों का स्वाध्याय कर लिया। अन्धविश्वासियों व संकीर्ण दृष्टिकोण वाले समाज के कथित ठेकेदारों ने उनकी शिक्षा का विरोध किया व उन्हें अनेक प्रकार के दुःख भी पहुँचाए। कई-कई दिनों तक उन्हें भूखी-प्यासी भी रहना पड़ा परन्तु उन्होंने सभी कष्टों को वीरतापूर्वक सामना किया।

माता भगवती का नवीन वेदान्त की ओर झुकाव होता चला गया परन्तु इसी बीच कई शंकाएं भी उनके दिमाग में नवीन वेदान्त के सिद्धान्तों पर उत्पन्न हुई जो समुचित समाधान न पा सकीं। संयोग से उनको कालान्तर में ‘‘सत्यार्थप्रकाश’’ मिला तथा उन्होंने इसका गहन-गभीर अध्ययन किया। परिणाम यह निकला कि माता जी ने महर्षि दयानन्द सरस्वती को एक पत्र भेजकर उन शंकाओं के समाधान करने की प्रार्थना की। महर्षि दयानन्द के दर्शन करने की प्रबल इच्छा भी माता जी ने इस पत्र में प्रकट की। तब महर्षि मुबई में थे। पत्र पाकर महर्षि ने अपनी स्वीकृति प्रदान की। माता भगवती जी अपनेभाई श्री चूनी लाल जी के साथ जब महर्षि के चरणों में उपस्थित हुई तो महर्षि अपने खैमे में ही रहे। बीच में माई भगवती ने अपनी शंकाएँ प्रस्तुत कीं, जिनका समाधान महर्षि जी ने कर दिया। माताजी का मन पूर्ण सन्तुष्ट हुआ तो उन्होंने महर्षि से अपने भविष्य के जीवन के लिए मार्गदर्शन देने का अनुरोध किया। महर्षि ने उन्हें कहा-‘‘इस समय स्त्रियों की दशा बड़ी शोचनीय है। यदि तुम करना चाहती हो तो अपने क्षेत्र में जाकर स्त्रियों की शिक्षा, उन्नति तथा उनके कर्तव्य व अधिकारों के लिए अपना जीवन अर्पित कर दो।’’

माता भगवती जी ने महर्षि दयानन्द जी के आदेशानुसार शेष जीवन इन्हीं कार्यों में लगाया। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि वे महर्षि दयानन्द की प्रथम शिष्या बनीं। आर्यसमाज के प्रथम भजनोपदेशक (पं. अमीं चन्द मेहता को जन्म देने का गौरव पंजाब को मिला तो प्रथम आर्य भजनोपदेशिका माता भगवती भी पंजाब की ही सुपुत्री थीं। दोनों ने महर्षि के दर्शन किए थे व दोनों को महर्षि की प्रेरणा व आशीर्वाद भी प्राप्त हुआ था। माई जी की बुद्धि विशाल थी। थोड़े ही समय में बहुत से ग्रन्थ पढे तथा जीवन भर पढ़ने-लिखने में ही लगी रहीं। उन्हें तत्कालीन पुरुष प्रधान समाज ने बहुत कष्टदिए परन्तु माता ने धैर्यपूर्वक सबका सामना किया । पंजाब ही नहीं, उत्तर भारत के नगर-नगर में जाकर व्यायान दिए तथा स्त्री-शिक्षा का प्रचार भी किया। उनके स्वरचित ललित व मनोहर भजन श्रोताओं पर भरपूर प्रभाव डालते थे। इनका एक संग्रह विरजानन्द यन्त्रालय, लाहौर से ‘‘अबला मति वेगरोधक संगीत’’ नाम से सन् 1893 ई. में प्रकाशित हुआ था।

माई भगवती जी ने अपने कस्बे में एक कन्या पाठशाला भी खोली जिसमें वे स्वयम् अवैतनिक अध्यापिका रहीं। पढ़ाई के अतिरिक्त प्रतिदिन सत्संग भी चलता था। इससे नारियों ने माई जी के उपदेशों द्वारा बहुत लाभ प्राप्त किया। माई जी का देहान्त सन् 1899 ईस्वी में 55 वर्षों की अवस्था में हुआ था। माता जी ने मरने से पूर्व अपनी सपूर्ण सपत्ति का सदुपयोग करने व नारी – शिक्षा के प्रचार-प्रसार में ही लगाने की वसीयत करके  एक समिति को सौंप दी थी। जो लोग उनका-विरोध करते थे, माई जी के अन्तिम दिनों में उनके विचार बदले व भगवती जी के कार्यों व योग्यता के आगे नतमस्तक हो गए थे। जब माई भगवती जी की शवयात्रा आरा हुई तो सहस्रों पुरुष उनके शव पर पुष्प वर्षा करते तथा सामूहिक रूप में जय देवी, जयदेवी बोलते हुए मरघट तक गए थे। महर्षि दयानन्द की प्रथम शिष्य की पावन स्मृति को सश्रद्ध नमन्

-चूना भट्टियाँ, सिटी सेन्टर के निकट, यमुनानगर

रक्षाबंधन – स्वाध्याय द्वारा जीव और प्रकृति का रक्षण।

रक्षा बंधन, ये शब्द सुनते ही भाई और बहन का वो पवित्र रिश्ता आँखों के दिखना शुरू हो जाता है जो एक धागे से बंधा होता है।

इस दिन श्रावण मास की पूर्णमासी को ये धागा एक बहिन द्वारा अपने भाई की कलाई में बाँध कर भाई से अपनी रक्षा का वचन लेना बहन का कर्तव्य और भाई का अपनी बहन की रक्षा करने का वचन देना करने से ही पूर्ण हो जाता है ऐसा समझा जाता है, और इस कार्य की इतिश्री करके धागा बंधने से पूर्ण कर दिया जाता है। मगर क्या यही सनातन संस्कृति है ?

ऐसे अनेको प्रमाण मिलते हैं की इस प्रकार का रक्षा बंधन सनातन संस्कृति नहीं है बल्कि ये एक ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित कार्य है। इसके पीछे जो ऐतिहासिक तथ्य है उनमे पौराणिक बंधू इन्हे प्रमुखता देते हैं :

1. द्रौपदी का कृष्ण की आकस्मिक अंगुली कटने पर साडी व दुपट्टा का टुकड़ा बाँध देना।

2. कुंती का अपने पौत्र अभिमन्यु को महाभारत युद्ध में कलाई पर रक्षा कवच बाँध देना।

3. पौराणिक दानी दैत्य राजा बलि का रक्षा बंधन से रक्षा होना।

इन प्रमुख कारणों पर यदि ध्यान से देखा जाए तो भी ये रक्षा बंधन यानी बहन का भाई की कलाई पर राखी बांधना और रक्षा का वचन लेना सनातन संस्कृति सिद्ध नहीं होती। क्योंकि ये सभी ऐतिहासिक तथ्य हैं और ऐतिहासिक तथ्य कभी सनातन नहीं हो सकते हैं।

आखिर क्या कारण है की एक दिन के लिए ही भाई अपनी बहन की रक्षा का वचन देता है ? क्या पुरे साल उसे याद दिलाते रहने के लिए ?

मुझे तो नहीं लगता, लेकिन यदि कुछ सालो पीछे जाये तो याद आएगा की हमारे देश में मुगलो का राज था जिसमे महिलाओ की अस्मत और आबरू खतरे में थी, मुझे ऐसा लगता है की ये त्यौहार भाई बहन के लिए उस समय ज्यादा प्रचलन में आया ताकि सामाजिक तौर पर प्रत्येक हिन्दू जाती की महिला को सुरक्षा का भाव मिले। केवल अपने भाई से ही नहीं वरन सभी पुरुषो से।

अब सवाल उठेगा की फिर ये श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षाबंधन क्यों मनाते हैं ? इसका जवाब हमें अपने भारतीय जनजीवन और भौगोलिक परिस्थियों अनुरूप मिलता है। देखिये हमारा देश कृषि प्रधान राष्ट्र है, और कृषि प्रधान राष्ट्र होने के नाते हमारे देश में कृषक समुदाय अधिक हैं या वो लोग जो कृषि से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। इसलिए यदि आप ध्यान देवे तो आप पाएंगे की हमारे देश में आषाढ से लेकर सावन तक फ़सल की बुआई सम्पन्न हो जाती है। ये क्रम आज भी वैसा ही है जैसे पूर्व काल में होता था मगर बदला है आज का साधु समाज क्योंकि वैदिक काल में ॠषि-मुनि अरण्य में वर्षा की अधिकता के कारण गांव के निकट आकर रहने लगते थे। जो गाँव वालो को वेद धर्म की शिक्षा देते थे। क्योंकि इस समय कृषक समाज अपनी खेती आदि कार्यो से फारिग हो जाता था इसलिए इस धार्मिक कृत्य में प्रमुखता से जुड़ता था जिससे देश और धर्म दोनों का ही कल्याण होता था। इसमें पारस्कर गृह सूत्र का प्रमाण है :

अथातोSध्यायोपाकर्म। औषधिनां प्रादुर्भावे श्रावण्यां पौर्णमासस्यम् “ (2/10/2-2)

इसके पीछे जो रहस्य है वो ऊपर बताने और समझाने का प्रयास किया है।

वर्षा ऋतु में वेद के पारायण का विशेष आयोजन इसलिए भी किया जाता था क्योंकि वर्षा के दौरान बीमारिया फ़ैलाने वाले जीवाणु अधिक उतपन्न होते हैं इसलिए इनके निवारण हेतु यज्ञ अधिकमात्रा में होते थे जिसमे विशेष सामग्रियाँ डाली जाती थी।

यही रक्षाबंधन था उस यज्ञ का और जीव का जिससे प्रकृति की रक्षा होती थी और इसी स्वाध्याय के आधार पर यज्ञ होते थे जिससे वर्षा ऋतु में उत्पन्न हुए अनेको विषाणुओं का जो गंभीर बीमारियां उत्पन्न करते थे उनसे यज्ञ द्वारा जीव और प्रकृति की रक्षा होती थी, स्वाध्याय करते हुए नित नए औषधि युक्त सामग्रियों का निर्माण करना और यज्ञ करते हुए प्रकृति, कृषि और जीव इनकी रक्षा करना यही बंधन को ऋषि समझते थे, ज्ञान देते थे।

आज भी अनेको गुरुकुलों में पूर्णिमा को गुरुकुलों में विद्यार्थियों का प्रवेश हुआ करता है। इस दिन को विशेष रुप से विद्यारंभ दिवस के रुप में मनाया जाता है। बटूकों का यज्ञोपवीत संस्कार भी किया जाता है। श्रावणी पूर्णिमा को पुराने यज्ञोपवीत को धारण करके नए यज्ञोपवीत को धारण करने की परम्परा भी रही है।

भले ही इस पवित्र परंपरा को आज लोग भूल गए क्योंकि वो वेदो से विमुख होकर अनार्ष ग्रंथो के अध्यन में रत हुए मगर ये भी सत्य है की पूरी तरह से सिद्धांतो को न बदल पाये, मुगल काल में महिलाओ की रक्षा हेतु रक्षाबंधन का वचन देकर अपनी बहनो माताओ की रक्षण करना, यज्ञोपवीत धारण करना आदि अनेको भ्रान्तिया भी चली मगर सत्य सनातन वैदिक मत यही है की हम वेद और विज्ञानं आधारित बातो को माने क्योंकि सत्य वही है।

केवल भाई बहन तक सीमित न रहकर, इस पवित्र त्यौहार को पुरे विश्व बंधुत्व की और ले जाए, अग्रसर हो इस पवित्र त्यौहार को वैदिक रीति से मनाने के लिए, क्योंकि ये केवल भाई बहन तक सीमित नहीं रखा जा सकता।

आइये लौटियो उसी सनातन संस्कृति की और, लौटिए उस विज्ञानं की और जो ऋषियों ने वेदो के द्रष्टा बनकर हमें दिया। आइये लौटियो वेदो की और।

नमस्ते।

मौलवियों को १४०० साल लग गए लेकिन …….

यह सर्व विदित है की मक्खियाँ बीमारी फ़ैलाने का कारण बनती हैं. हैजा तापिदिक जैसी अनेकों बीमारियों को फैलाने में मक्खियाँ सहायक  हैं. ये मक्खियाँ इधर उधर फ़ैली हुयी गंदगी पर बैठती हैं और विषैले जीवाणुओं को अपने माध्यम से खाने पीने की चीजों तक ले जाती हैं. इन खाद्य पदार्थों का हम जब सेवन करते हैं तो बीमार होना स्वाभाविक है क्योंकि मक्खियों द्वारा इन खाद्य पदार्थों पर लाये गए विषैले जीवाणु हमें बीमार कर देते हैं.यही कारण है कि सरकार और समाज सेवी संस्थाओं द्वारा सामाजिक चेतना का कार्य किया जाता है कि हम ऐसे खाद्य पदार्थ खाने से बचें जिन मक्खियाँ बैठी हों.

अब देखिये की मक्खियों के बारे में हदीस क्या कहती है :

सहीह बुखारी ४: ५४ : ५३७

1. 20150830_103911

 

तात्पर्य है कि  अबू हरैरा का कथन है की मुहम्मद साहब ने कहा कि यदि मक्खी आपके पेय  पदार्थ (Drink ) में गिर जाए तो आपको उसे डूबने देना चाहिए क्योंकि उसके एक पंख में बीमारियाँ और दुसरे पंख में इन बीमारियों का इलाज़ है.

ये हदीस सहीह बुखारी में एक और जगह आयी है और यही बात कुछ शब्दों के उलटफेर के साथ पुनः कही गयी है

सहीह बुखारी ७ : ७१  : ६७३

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यह भी अबू हरेरा की कही हदीस है की अल्लाह के रसूल ने कहा की यदि कोई मक्खी किसी बर्तन में गिर जाये तो उसे बर्तन में डूब जाने दो और फिर उसे फेंक दो क्यूंकि इसकी एक पंख में बीमारियाँ हैं और दुसरे में बीमारियों का इलाज़.

पिछले १४०० साल से ज्यादा हो गए मौलवियों को इस प्रश्न का उत्तर ढूंडते हुए लेकिन आजतक यह साबित नहीं कर पाए की मक्खियाँ जो बीमारी फैलाने का कार्य करती हैं उनकी पंखों में कौनसे रोगों को दूर करने की क्षमता होती है?

सहीह बुखारी पढ़ते हुए डॉ मुहम्मद मुहसिन खान साहब जो इस्लामिक विश्वविद्यालय मदीना अल मुनावारा से ताल्लुकात रखते हैं का इस बारे में तर्क पढ़ा जो आपके समक्ष रख रहे हैं जिससे पाठक भी उन्हीं के शब्दों में समझ सकें :

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डॉ मुहम्मद मुहसिन खान साहब का तात्पर्य है  कि यह आज सभी को पता है की मक्खियाँ कीटाणुओं को इधर उधर ले जाती हैं ये मुहम्मद साहब ने बताया उनके हिसाब से लगभग १४०० साल पहले मनुष्यों को आधुनिक विज्ञानं के बारे में बहुत कम जानकारी थी.

डॉ मुहम्मद मुहसिन खान साहब के अनुसार हाल ही में हुए कुछ शोध ये बताते हैं की मक्खियाँ रोगाणुओं के साथ साथ एंटीबायोटिक भी फैलाती हैं .

डॉ मुहम्मद मुहसिन खान साहब मक्खी को डुबाने का तात्पर्य समझाते हुए कहते हैं कि  जब मक्खी पेय पदार्थ को छूती  है तो तो ये उस पेय पदार्थ को उन रोगाणुओं से संक्रमित कर देती है इसलिए मक्खी को खाने में डूबा देना चाहिए जिससे की इसकी दूसरी पंख में लगा antibotic भी निकल जाये जिससे वो रोगाणुओं का नाश कर दे.

आगे डॉ मुहम्मद मुहसिन खान साहब लिखते हैं कि मक्खी के पेट में कुछ  cells होते हैं को एंटीबायोटिक्स का काम  करते हैं जब मक्खी पेय पदार्थ में डुबोई जाती है तो ये सेल्स फट जाते हैं और इनसे निकले एंटीबायोटिक रोगाणुओं का नाश कर देते हैं.

अत्यंत ही नया तर्क था जो सामान्य व्यक्ति की तो समझ से परे है .

जहाँ समाजसेवी संस्थाएं और सरकारें मक्खियों द्वारा दूषित खाने लोगों को बचाने के लिए इतना व्यय कर रही है वह तो इन हदीसों की रोशनी में व्यर्थ ही प्रतीत होता है !

और वह चिकित्सा विज्ञान भी इन हदीसों के उजाले में झूठा साबित हो जाता है जो यह कहता है की मक्खियाँ रोगों को फैलाने का कार्य करती हैं .

१४०० साल में तो मौलवी इस सवाल का जवाब नहीं ढूंड पाए लेकिन डॉ मुहम्मद मुहसिन खान साहब इस हदीस की व्याख्या में इस हदीस को साबित करते करते करते नई  बात कह गए जो मुहम्मद साहब ने भी नहीं कही कि मक्खी के पेट में एंटीबायोटिक्स होते हैं.

मौलवी साहब १४०० साल पहले लोगों को ये पता था या नहीं था की मक्खी रोगाणुओं को फैलाती हैं लेकिन आपने तो  जो नया तथ्य बताया है की मक्खी के पेट में एंटीबायोटिक्स होते हैं ये तो अभी तक भी शायद ही किसी गैर इस्लामी विद्वान या सामान्य व्यक्ति को पता हो और ये तो मुहम्मद साहब को भी शायद ही पता हो क्यूंकि उन्होंने तो मक्खी के पंख में बताया था .

आपने शोध की बात तो की लेकिन ये नहीं बताया की ये शोध कहाँ हुआ किस संस्था में हुआ इसकी रिपोर्ट कहाँ है . शायद आप बता देते तो चिकित्सा जगत के लिए ये नई उपलब्धी होती.

जो यक्ष प्रश्न १४०० साल से ज्यादा से खड़ा इस्लामिक विद्वानों से उत्तर की राह देख रहा है शायद उसकी तृप्ति हो जाती .

 

अंधविश्वासों का खण्डन समाज की उन्नति के लिए परम आवश्यक’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

जिस प्रकार से मनुष्य शरीर में कुपथ्य के कारण समय-समय पर रोगादि हो जाया करते हैं, इसी प्रकार समाज में भी ज्ञान प्राप्ति की  समुचित व्यवस्था न होने के कारण सामाजिक रोग मुख्यतः अन्धविश्वास, अपसंस्कृति एवं किंकर्तव्यविमूढ़ता आदि हो जाया करते हैं। अज्ञान, असत्य व अन्धविश्वास का पर्याय है। जहां अज्ञान होगा वहां अन्धविश्वास वर्षा ऋतु में खेतों में खरपतवार की तरह उग ही जाया करते हैं। उदाहरण के लिये हम प्रकृति वा सृष्टि को देखते हैं तो हमारे मन में प्रश्न आता है कि यह सुव्यवस्थित संसार किसकी रचना है अर्थात् इसका रचयिता कौन है? अब इस प्रश्न के उत्तर के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। ज्ञानी भी ऐसा हो जो लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति को ही परम प्रमाण न मानकर वैदिक परम्परा में हमारे ऋषियों व मुनियों ने विचार, ध्यान व चिन्तन द्वारा जिस सत्य को प्राप्त किया, उस ज्ञान व अनुभव से परिचित हो व उसको समझने वा मानने वाला हो। आजकल के हमारे पढ़े लिखे लोग हमारे वेद एवं अन्य ज्योतिष, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि का अध्ययन तो करते नहीं, केवल विज्ञान, इतिहास व भूगोल आदि विषयों का अध्ययन कर इन प्रश्नों पर विचार करते हैं तो वह इस संसार की रचना में छिपी हुई सत्ता को जान नहीं पाते। वेदों ने कहा है कि ‘‘ईशावास्यमिदं सर्वम् यत्किंच जगत्यां जगत्,  ‘ दाधार पृथिवीन्द्यामुतेमां आदि मन्त्र सूक्तियों में संसार के रचयिता को सर्वव्यापक ईश्वर बताया गया है और उसे ही पृथिवी व द्युलोक का आधार, धारणकर्त्ता व रचयिता बताया गया है। ईश्वर का युक्ति व तर्क संगत वर्णन भी वेदों में विस्तार से प्राप्त होता है। जो बात तर्क से सिद्ध वा अकाट्य हो वह सत्य होती है। सत्य निर्धारण की मुख्य विधि व प्रक्रिया यही है कि किसी विषय के पक्ष व विपक्ष के विचारों की समीक्षा की जायें और जो बातें अकाट्य हों, उनको सत्य माना जाये। ईश्वर विषय पर विस्तार से अध्ययन व निर्णय हेतु वेदान्त दर्शन की रचना महर्षि बादरायण वा वेद व्यास जी ने सहस्रों वर्ष पूर्व वैदिक काल में की थी। इसमें कहा गया है कि जिससे इस संसार की उत्पत्ति हुई है, जिससे इसका पालन वा संचालन होता है तथा अन्त में जिससे इस संसार का प्रलय व विनाश होता है, उसे ईश्वर करते है। यह ईश्वर हमारी ही तरह से एक चेतन तत्व है। अन्तर इतना है कि हम एकदेशी व अल्प हैं तथा ईश्वर सर्वव्यापक और सर्वज्ञ है। सर्वव्यापकता और सर्वज्ञता उसका अनादि व नित्य गुण है। वह सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदि मूल वा आदि स्रोत है। वेदान्त दर्शन में इन लक्षणों व गुणों से युक्त ईश्वर को सिद्ध भी किया गया है। दर्शन का आधार समस्त वैदिक विचार व उनका चिन्तन है। सभी छः दर्शन चार वेदों के पोषक हैं। अतः यह सिद्ध होता है कि एक सर्वव्यापक और सर्वज्ञ सत्ता ईश्वर है जिससे, जिसके द्वारा व जिसके ज्ञान व सामर्थ्य से मूल प्रकृति नामी सत्ता जो सत्व, रज व तम गुणों वाली अनादि व नित्य है, से पूर्वोक्त ईश्वर ने इस सृष्टि को रचा वा बनाया है। यह कार्य ऐसा ही है जैसे कि हम किसी वस्तु के निर्माण का ज्ञान अर्जित कर निर्माण में उपयोगी सभी पदार्थों को एकत्र कर ज्ञान व शक्ति रूपी सामर्थ्य का प्रयोग कर पदार्थों को बनाते हैं। उद्योग में पदार्थों का निर्माण भी इसी सिद्धान्त पर होता है। यदि इच्छित वस्तु के निर्माण का ज्ञान न हो, निर्माण में आवश्यक पदार्थ उपलब्ध न हो तथा हमारे उद्योग में यन्त्र पदार्थ निर्माण के सर्वथा वा सब प्रकार से उसके अनुकूल व अनुरूप न हो तो नया इच्छित पदार्थ नहीं बन सकता है।

 

खण्डन का अर्थ किसी पदार्थ को तोड़ना है। सत्य तो सत्य है उसका खण्डन वा उसका तोड़ना सम्भव नहीं है। असत्य व अज्ञान ऐसा है कि जिससे मनुष्य को हानि होती है और वह उस अज्ञानाधारित कार्य से इच्छित लक्ष्य व उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर पाता। अतः हमें अपनी बुद्धि से मनन कर इच्छित विषय के सभी पहलुओं पर विचार कर, जो उद्देश्य को पूरा करने वाले पहलु हैं, उन्हें उपयोग में लाना होता है और जो अनुपयोगी होते हैं, उन्हें छोड़ना होता है वा अज्ञानियों को उन अज्ञानतापूर्ण कार्यों से छुड़वाने के लिए उनका खण्डन व सत्य पदार्थ, पक्ष व पहलुवों का मण्डन कर समझाना होता है। इस कसौटी वा तुला पर हम अपने जीवन के प्रत्येक कार्य व चिन्तन को देख व परख कर ग्रहण व त्याग कर सकते हैं। सबसे पहला कार्य तो यह करना है कि हम सब सभी सत्य विद्याओं का अध्ययन करें। आधुनिक ज्ञान सब अच्छा नहीं है और प्राचीन ज्ञान सब बुरा व अनुपयोगी नहीं है। हमें दोनों में सत्य ज्ञान व विद्याओं का ग्रहण व असत्य ज्ञान तथा विद्याओं का त्याग करना चाहिये। जहां तक इस संसार के निर्माता को समझना है तो हमें केवल वेद और वैदिक साहित्य की ही शरण लेनी चाहिये। महर्षि दयानन्द ने ईश्वर के सत्य स्वरूप के निर्धारण के लिए सत्यार्थ प्रकाश नाम का ग्रन्थ लिखा है जो सभी प्रकार की सत्य मान्यताओं से हमारा परिचय कराता है। इसके साथ ही उन्होंने अपनी इसी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में असत्य, मिथ्या, अज्ञान व तर्कहीन मान्यताओं का परिचय कराकर उनका वेद, युक्ति व तर्क आदि प्रमाणों से खण्डन किया है। यदि हम सत्य को जानना चाहते हैं तो हमें सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन करना ही होगा। सत्य का ज्ञान हो जाने व जीवन में उसका आचरण करने से हम उन्नति को अथवा जीवन में विकास जो कि उन्नति का ही पर्याय है, प्राप्त होते हैं और विपरीत स्थिति में अवनति व गिरावट को प्राप्त होते हैं। इसी कारण महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहने को कहा है। वह उपदेश करते हैं कि सत्य को मानना और मनवाना और असत्य को छोड़ना और छुड़वाना उन्हें व सभी मनुष्यों का अभीष्ट होना चाहिये। बहुत से लोग उनके खण्डन करने को बुरा मानते थे परन्तु यही कहा जा सकता है कि ऐसे लोग अज्ञानी व स्वार्थी ही हो सकते हैं। कोई भी ज्ञानी व्यक्ति असत्य के खण्डन व सत्य के मण्डन से नाराज व उद्विग्न कभी नहीं हो सकता। ज्ञानी व विवेकपूर्ण व्यक्ति वही हो सकता है जो असत्य के खण्डन का प्रशंसक व सत्य के मण्डन का भी प्रशंसक हो। विगत लगभग 140 से कुछ अधिक वर्षों में महर्षि दयानन्द द्वारा खण्डित व मण्डित मान्यताओं को किसी मत, सम्प्रदाय, धार्मिक संस्था का कोई भी धर्म गुरू व विद्वान युक्ति व प्रमाण पूर्वक खण्डन व प्रतिवाद नहीं कर सका। इससे सिद्ध हो गया है कि महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में जो कहा था वह सर्वथा व पूर्णतः सत्य था व आज भी है।

 

अब खण्डन की देशोन्नति में भूमिका पर विचार करते हैं। खण्डन करने से असत्य व अज्ञान का नाश होता है। देशोन्नति में असत्य व अज्ञान बाधक होते हैं, यह सर्वमान्य सिद्धान्त है। उदाहरण रूप में विचार कर सकते हैं कि यदि देश व समाज के सभी लोग असत्य भाषी अर्थात् झूठे और मिथ्याचारी हों तो क्या समाज व देश उन्नति कर सकते हैं? उसका एकमात्र उत्तर है कि नहीं कर सकते। सत्य सदा सर्वदा प्रशंसनीय और असत्य व अन्धविश्वास सर्वदा निन्दनीय होने से खण्डनीय हैं। देश में जितने अधिक मनुष्य सत्याचारी वा सदाचारी, चरित्रवान, देशभक्त, ईश्वरभक्त, जातिवाद, ऊंच-नीच, छोटे-बड़े की भावना से मुक्त होंगे वह समाज व देश उतना ही उन्नत होगा। यूरोप में उन्नति का कारण ही वहां अन्धविश्वासों की कमी व देशवासियों के आदर्श चरित्र हैं। वहां भ्रष्टाचार, असत्य व्यवहार, जन्मना जातिवाद, ऊंच-नीच, सामाजिक विषमता, मिथ्या ईश्वरोपासना, मिथ्या धार्मिक कर्मकाण्ड, व्रत व उपवास आदि न्यूनातिन्यून है जिससे वह प्रगति व उन्नति कर रहे हैं। हमारा सारा देश व विश्व के सभी देश अधिकांश रूप में यूरोप के वैज्ञानिकों के आभारी हैं जिनकी कृपा व वैज्ञानिक अनुसंधानों के कारण हमें अपने दैनिक जीवन में उपयोग की वस्तुएं यथा विद्युत व इससे संचालित यन्त्र, कार, सुविधादायक भवन व आवास, टेलीफोन, कम्प्यूटर, रेल व वायुयान, अच्छी सड़के, रोगोपचार व शल्य क्रिया का ज्ञान आदि उपलब्ध हैं। यह सब सत्य की खोज व इससे प्राप्त देनें हैं। दूसरी ओर हमारा देश आज भी अज्ञान, अन्धविश्वास, असत्य, मिथ्याचारों व सामाजिक विषमताओं के झंझावतों में उलझा हुआ है जो हमें पतन, अवनति व गुलामी की ओर ले जा रहे हैं। आज इसी कारण कुछ लोग तो बड़े बड़े धन कुबेर बन गये हैं और दूसरी ओर न लोगों को पेट भर भोजन है, न चिकित्सा व्यवस्था है, न अच्छा आवास न अन्य सुविधायें हैं। हमारे अधिकांश देशवासियों का नरक से भी बुरा जीवन है और हम गर्व करते हैं कि हमारा देश सृष्टि का धर्म, ज्ञान व विद्या का आदि स्रोत रहा है। यह पूर्ण सत्य होते हुए भी वर्तमान परिस्थितियों में हमें मिथ्या अभिमान से ग्रसित प्रदर्शित करता है। देश के मानव मानव में जमीन आसमान का अन्तर हमारी शासन प्रणाली की देन के साथ सबके लिए एक समान, निःशुल्क, वैदिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा के न होने के कारण है। इसका उत्तरदायित्व भी किसी न किसी रूप में शासन प्रणाली को ही है जिसमें अनेक सुधारों की आवश्यकता है। अतः असत्य का खण्डन कर ही समस्याओं का निदान किया जा सकता है। असत्य के खण्डन से ही देश सबल, उन्नत व विकसित होगा। इस देश को उन्नत व विकसित उसी दिन कहा जायेगा जिस दिन सभी देशवासी वैदिक शिक्षा से शिक्षित होकर परस्पर एक दूसरे को मित्र, बन्धु व सबको एक परिवार के सदस्य अर्थात् वसुधैव कुटुम्बकम की दृष्टि से देखेंगे और  मानेंगे।

हम समझते हैं कि यह सिद्ध सत्य सिद्धान्त है कि असत्य के खण्डन और सत्य के मण्डन से ही व्यक्ति, समाज व देश का विकास व सर्वांगीण उन्नति सम्भव है और इसके विपरीत स्थिति हमें अवनति की ओर ले जाती है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

 फोनः09412985121

याकूब मेमन को फाँसीः- – सत्येन्द्र सिंह आर्य

वर्ष 1993 में मुबई में बम विस्फोट द्वारा सैकड़ों लोगों की हत्या करने वाले जघन्य अपराधी और कट्टर आतंकी याकूब अदुल रजाक मेमन को 30 जुलाई 2015 दिन बृहस्पति वार को फांसी दी गयी। यह बड़ा विचित्र संयोग है कि एक ही दिन में दो विपरीत-दुःखद और सुखद घटनाएँ भारत में घटीं। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अदुल कलाम का अन्तिम संस्कार इसी दिन हुआ। राष्ट्र के लिए यह बहुत दुःखद घटना है। एक योग्य वैज्ञानिक, उच्चकोटि का शिक्षक और प्रखर राष्ट्रवादी हमसे छिन गया। यह तो हानि ही हानि है।

दूसरी घटना याकूब मेनन को फांसी दिया जाना है। मृत्यु चाहे स्वाभाविक हो या हत्या हो या फांसी हो, दुःखद होती है। तथापि किसी किसी की मृत्यु (जैसे याकूब को फांसी) पर न्यायप्रिय देशवासी राहत की सांस लेते हैं। वर्ष 1993 में जिस दिन मुबई में सीरियल बम लास्ट हुए, उस दिन मैं (इन पंक्तियों का लेखक) वहीं पर था। वर्ष 1990 से 1998 की अवधि में मैं भारतीय स्टेट बैंक की सेवा में वही पदस्थापित था और नरीमन पाइण्ट क्षेत्र में मन्त्रालय के ठीक सामने एस.बी.आई. के केन्द्रीय कार्यालय में मेरी नियुक्ति थी। मेरे कार्यालय से लगभग डेढ सौ गज की दूरी पर एयर इण्डिया की बहुमंजिली बिल्डिंग में दोपहर के समय भंयकर विस्फोट हुआ। आस पास के भवनों में खिड़कियों के शीशे टूट गये। कुछ लोग पता करने नीचे गए तो ज्ञात हुआ कि अन्य भी कई स्थानों पर और लोकल ट्रेनों में सीरियल (लगातार क्रम में) बम लास्ट हुए हैं और सैकड़ों लोग मारे गए हैं। नगर के वातावरण में अजीब बदहवासी और भयावहता व्याप्त हो गयी । महानगर में लाखों कर्मचारी अपने घरों से बीस से पचास साठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित कार्यालयों में काम करने जाते हैं और यातायात का साधन लोकल ट्रेन ही है। उसी में लास्ट हो रहे थे तो सबके सामने समस्या यह थी कि आज घरों तक कै से पहुंचें। लास्ट होने की सभावना के चलते लोकल ट्रेन से जाने में सभी घबरा रहे थे। उस सीरियल बम लास्ट की घटना में सैकड़ों लोग मारे गए। अरबों रुपये की सपत्ति नष्ट हुई और सारे महानगर में बदहवासी का वातावरण पसर गया। उस जघन्य हत्याकाण्ड का अपराधी यह याकूब मेमन था जिसे टाडा कोर्ट ने मृत्युदण्ड की सजा सुनाई थी। भारत में न्यायपालिका का सिद्धान्त है कि चाहे सौ अपराधी सजा पाने से बच जाएं परन्तु किसी निरपराध को सजा न दी जाए। इसमें भाव तो यह है कि दण्ड अपराधी को ही मिले, किसी निरपराध को दण्डित न किया जाय। परन्तु भारत में आतंकी, हत्यारे, बलात्कारी, माओवादी, नक्सली भारतीय न्याय व्यवस्था के  इस सदाशयतापूर्ण प्रावधान का दुरुपयोग करते हुए दण्ड से बचने का सफल उपाय करते हैं। मानवाधिकार का झण्डा उठाये रखने वाले संगठन (वास्तव में अपराधियों को दण्ड से बचाने हेतु एड़ी से चोटी तक का जोर लगाने वाले अन्तराष्ट्रीय गिरोह) और स्वामी अग्निवेश, सलमान (फिल्मी सितारा), ओबेसी हैदराबाद जैसे समाजसेवी? और एक एक करोड़ रुपये फीस के रूप में लेने वाले उच्चतम न्यायालय के अधिवक्तागण ऐसे आतंकियों को दण्ड से बचाने की जी-तोड़कोशिश करते हैं। गणतंत्रीय शासन प्रणाली का यह बेहद कुरूप चेहरा है। 1993 के इस सीरियल बम लास्ट के पश्चात् इस काण्ड के सूत्रधार और कर्त्ताधर्ता दाऊद, टाइगर मेमन, याकूब मेमन आदि और उनके सहयोगी भारत से भाग गए थे। भारत के ऐसे शत्रुओं के लिए पाकिसतान सुरक्षित आश्रय-स्थली है। उन अपराधी हत्यारों में से यह याकूब नाम का एक आतंकी कानून की पकड़ में आ गया  औरउसे मृत्युदण्ड का निर्णय सुना दिया गया। जघन्य अपराधी कानूनी दांव पेंचों को जानता है और वह बारी-बारी से उच्च न्यायालय में, उच्चतम न्यायालय में, राज्यपाल के यहाँ और राष्ट्रपति के यहाँ अपील करके सजा को टालने का प्रयत्न करता है। उसके पास इतने साधन होते हैं कि अपने बचाव के लिए महंगे से महंगे वकीलों की फौज न्यायालय में तैनात रख सकता है परन्तु उन सफेद पोश तथाकथित न्यायवादियों ? को क्या कहा जाए जो 29जुलाई की रात्रि को (वास्तव में अर्द्धरात्रि को) भारत के मुय न्यायाधीश के निवास परपहुँच कर रात्रि में उच्चतम न्यायालय को खुलवाएँ औरउस आतंकी को बचाने के लिए कानूनी दांव पेंच चले और तर्क के स्थान पर कुतर्कों पर उत्तर आएँ। ऐसे लोग तो राष्ट्र-द्रोही और जन-द्रोही हैं। देशवासियों को इनकी निन्दा करनी चाहिए।

माननीय न्यायालय एवं भारत सरकार वास्तव में साधुवाद क पात्र हैं जिन्होंने न्याय किया और न्याय होते हुए भी दिखाई पड़ा। घृणित और दूषित मानसिकता वाले जिन मुस्लिम लोगों ने यह आरोप लगाया कि याकू ब को मुसलमान होने के कारण दण्डित किया है वे भी आपराधिक मानसिकता को पाल पोस रहे हैंऔर इसीलिए निन्दा के पात्र हैं। भारत के आम आदमी के मन में ऐसी संकीर्ण बातें होतीं तो पूर्व राष्ट्रपति अदुल कलाम के महाप्रयाण पर वे आँसू न बहाते। देशभर की शिक्षण संस्थाओं में, संगठनों में, सभाओं में अदुल कलाम पर शोकसभाएं की गयीं, समाचार पत्रों में एवं मीडिया में उन्हें बेहद समान के साथ याद किया गया। क्या बूढ़े, क्या युवा, क्या बच्चे- सभी ने उन्हें याद करके आँसू बहाए। अन्तर केवल इतना है कि एक व्यक्ति उसी आस्था के साथ जीते हुए देश-विदेश में समान का अधिकारी बना और उसके निधन पर राष्ट्रवासी दुःखी हुए। उसी आस्था वाला याकूब मेमन सैकड़ों लोगों की हत्याओं का दोषी सिद्ध हुआ। उसे सजा मिलने पर राष्ट्रवासियों ने राहत की साँस ली।               – मेरठ, उ.प्र.

पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अदुल कलाम का महाप्रयाण- सत्येन्द्र सिंह आर्य

भारत के पूर्व राष्ट्रपति श्री अबुल पाकीर जैनुलआबद्दीन अदुल कलाम का सोमवार 27 जुलाई की शाम को शिलांग में आई आई एम में व्यायान देते हुए दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। इस समाचार से सारे भारत में शोक की लहर फैल गई। वे 84 वर्ष के थे।

अक्टूबर 1931 में तमिलनाडु के छोटे से द्वीप धनुषकोडी में जन्मे अदुल कलाम विश्व भर में मिसाइलमैन के नाम से वियात हुए, यह उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति और असाधारण पुरुषार्थ का ही सुफल था। एक अत्यन्त साधारण परिवार में जन्म लेना उनकी उन्नति के मार्ग में कभी बाधक नहीं बना। बचपन में अपने पिता को नाव बनाते देखा तो उनके मन में राकेट बनाने की बात आई। ‘‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’’ वाली कहावत उन पर पूरी तरह चरितार्थ होती है। स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद लड़ाकू विमान बनाकर आसमान छूने की इच्छा भी मन में हुई और वह पूरी हुई अग्नि और पृथ्वी जैसी मारक मिसाइलें बनाकर। अन्तर्महाद्वीपीय मारक क्षमता वाली मिसाइलें बनाने की भारत राष्ट्र की क्षमता से विश्व स्तध है। राष्ट्र की इस सामर्थ्य के पीछे हमारे इस महावैज्ञानिक अदुल कलाम का बुद्धि कौशल और तप है। भारत की वैज्ञानिक उन्नति से अमेरीका और यूरोप के सारे देश ईर्ष्या करते हैं। अन्तरिक्ष अनुसन्धान के क्षेत्र में भारत अग्रणी देशों में है। अन्तरिक्ष में पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करने के लिए भारत श्री हरिकोटा केन्द्र से केवल अपने बनाए भारतीय राकेट (उपग्रह) का ही प्रक्षेपण नहीं करता बल्कि विश्व के अन्य राष्ट्रों के उपग्रह भी भेजता है और उससे करोड़ों रुपयों की विदेशी मुद्रा भी कमाता है। पूर्व महामहिम का यहाँ भी अभूतपूर्व योगदान रहा। इस क्षेत्र की तकनीक में विकसित राष्ट्र विकासोन्मुख राष्ट्रों को कोई सहयोग नहीं करते। भारत को बायोक्रोनिक इंजन की तकनीक उपलध कराने के लिए एक बार रूस सहमत हो गया था। परन्तु अमेरीकी दबाव के आगे रूस को झुकना पड़ा और भारत को वह तकनीक रूस से नहीं मिली। तथापि जहाँ अदुल कलाम जैसे प्रेरणा स्रोत वैज्ञानिक के रूप में मौजूद हों वहाँ अन्य देशों के असहयोग से कोई अन्तर नहीं पड़ता। दो वर्षों के कठोर परिश्रम के बल पर भारत ने स्वयं वह स्वदेशी इंजन बना लिया। श्री कलाम डी.आर.डी.ओ के सचिव भी रहे।

भारत को परमाणु शक्ति सपन्न राष्ट्र बनाने में कलाम साहब की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण रही। पोखरण में अणुशक्ति का प्रथम परीक्षण मई 1974 में किया गया। विश्व के परमाणु शक्ति सपन्न पांचों राष्ट्रों – अमरीका, इंग्लैण्ड, चीन, फ्रांस और सोवियत यूनियन ने उस समय भारत की ओर को आँखें तरेरी। परन्तु धुन के धनी और राष्ट्र को शक्ति सपन्न बनाने के लिए कृत संकल्प अदुल कलाम और उनकी टीम ने अणुशक्ति के उच्चस्तरीय विकास के प्रयत्न जारी रखे। कलाम ढाई दशक की लबी अवधि तक परमाणु शक्ति के विकास के गोपनीय कार्य में जी जान से जुटे रहे। परमाणु बम के परीक्षण की तैयारी सन् 1995 में भी की गई थी परन्तु तब अमेरीकी उपग्रहों ने हमारी तैयारी की सूचना प्राप्त कर ली थी और विदेशी दबाव के सामने भारत की नरसिंहराव सरकार ने परमाणु परीक्षण का कार्यक्रम स्थगित कर दिया था। परन्तु कलाम का लगाव-जुड़ाव पोखरण के साथ परमाणु परीक्षण की तैयारी और उसके क्रियान्वयन के सिलसिले में लगातार बना रहा और  उन्हीं का कमाल था कि मई 1998 में ‘‘बुद्धा पुनः मुस्कराए’’। कलाम साहब ने प्रधानमन्त्री वाजपेयी को हॉट लाइन पर यही शद बोलकर सफल परमाणु परीक्षण की सूचना दी थी। जब इसकी आधिकारिक घोषणा हुई तो दुनिया स्तध रह गयी।

परमाणु परीक्षण -2 की गोपनीयता-वर्ष 1995 में जिन अमरीकी उपग्रहों ने भारत के परमाणु परीक्षण की तैयारियों का पता लगा लिया था, वर्ष 1998 में उन्हें भारत की तैयारियों की भनक तक नहीं लगी। यह सब कलाम का ही कमाल था। उन्होंने ही परमाणु परीक्षण दो की परिकल्पना को साकार किया था। यद्यपि 1998 में हुए परमाणु परीक्षण की तैयारी वर्षों से चल रही थी। ‘आपरेशन शक्ति’ नाम से जो कार्य होना था उसके कोड (कूट-शद) अल्फा, ब्रावो, चार्ली….आदि कलाम के अतिरिक्त किसी को पता नहीं थे। मेजर पृथ्वी राज (कलाम) के पास कमान थी। परमाणु परीक्षण के दौरान कलाम ने सारे काम को इस गोपनीयता से पूरा किया कि किसी को पता ही नहीं लग सका कि भारत इतना बड़ा धमाका करने वाला है।

भारत में मिसाइल निर्माण एवं परमाणु परीक्षण जैसे महान कार्यों में योगदान देने वाले अदुल कलाम वर्ष 2002 से 2007 तक भारत के राष्ट्रपति रहे। इससे पूर्व वे वर्ष 1992 से 1999 तक प्रधानमन्त्री के मुय वैज्ञानिक सलाहकार रहे। जीवनभर जहाँ भी जिस पद पर रहे, विवादों से सदैव दूर ही रहे। उनका निधन राष्ट्र की महती क्षति है।

ज्ञान, विज्ञान एवं भारत के विकास को समर्पित पूर्व राष्ट्रपति अदुल कलाम भारत मां के ऐसे सपूत थे जिन पर राष्ट्र एवं राष्ट्रवासियों को गर्व है। वे राष्ट्रीय एवं सामाजिक मूल्यों के लिए जिए। उनकी धार्मिक आस्था उनके आदर्श इन्सान बनने के मार्ग में कभी बाधा नहीं बनी। सलमान खान और ओबेसी (हैदराबाद) की भांति वे किसी आतंकी अपराधी, देशद्रोही के बचाव का प्रयत्न करने वाले नहीं थे। करोड़ों रुपये की फीस लेकर अर्द्धरात्रि के समय उच्चतम न्यायालय में एक अघन्य हत्यारे के पक्ष में दलील देने वालों की तुलना में वे लाखों गुना अच्छे इन्सान थे, आदर्श पुरुष थे। भारत के एक पूर्व राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन कीााँति उन्होंने राष्ट्रपति भवन में मस्जिद बनवाने की माँग भी सरकार से नहीं की। वे महान् भारत के वास्तविक प्रतीक, आदर्श नागरिक और सर्वाधिक सकारात्मक सोच वाले भारतीय थे। साधारण परिवार में जन्म लेकर वे अपनी प्रतिभा, परिश्रम और लगन के बल पर राष्ट्राध्यक्ष के सर्वोच्च पद पर पहुँचे। 30 जुलाई को उनके अन्तिम संस्कार के समय लाखों देशवासियों ने उन्हें अश्रुपूर्ण नेत्रों से अन्तिम विदाई दी।

युवाओं के वे सबसे बड़े प्रेरणा स्रोत थे।