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दयानन्द भक्त और क्रान्तिकारियों के प्रथम गुरू पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा’ -मनमोहन कुमार आर्य

गुजरात की भूमि में महर्षि दयानन्द के बाद जो दूसरे प्रसिद्ध क्रान्तिकारी देशभक्त महापुरूष उत्पन्न हुए, वह पं. श्यामजी  कृष्ण वर्म्मा के नाम से विख्यात हैं। पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा ने देश से बाहर इंग्लैण्ड, पेरिस और जेनेवा में रहकर देश को अंग्रेजों की दासता से पूर्ण स्वतन्त्र कराने के लिए अनेक विध प्रशंसनीय कार्य किये। उनका जन्म 4 अक्तूबर, सन् 1857 को गुजरात के कच्छ भूभाग के माण्डवी नामक कस्बे में श्री कृष्णजी भणसाली के यहां एक निर्धन वैश्य परिवार में हुआ था। आप आयु में महर्षि दयानन्द जी से लगभग साढ़े बत्तीस वर्ष छोटे थे। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा माण्डवी की ही एक प्राइमरी पाठशाला में हुई। जब आप 10 वर्ष के हुए तो आपकी माताजी का देहान्त हो गया। इसके बाद आपका पालन-पोषण ननिहाल में हुआ। आपने ननिहाल भुजनगर में रहकर वहां के हाईस्कूल में अपनी शिक्षा को जारी रखा। आप 12 वर्ष की आयु में एक विदुषी संन्यासिनी माता हरिकुंवर बा के सम्पर्क में आये। उनकी प्रेरणा से आपने संस्कृत भाषा पर अधिकार प्राप्त कर लिया। कच्छ निवासी सेठ मथुरादास भाटिया आपकी प्रतिभा से प्रभावित होकर आपको अध्ययनार्थ मुम्बई ले गये और वहां विलसन हाईस्कूल में प्रविष्ट कराया। यहां सर्वोच्च अंक प्राप्त कर आपने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया और आपको सेठ गोकुलदास काहनदास छात्रवृत्ति प्राप्त हुई। इस छात्रवृत्ति के आधार पर आपने मुम्बई के प्रसिद्ध एल्फिंस्टन हाईस्कूल में अध्ययनार्थ प्रवेश ले लिया। बम्बई के एक धनी सेठ श्री छबीलदास लल्लू भाई का पुत्र रामदास श्यामजी का सहपाठी था। दोनों में मित्रता हो गई। सेठ छबीलदास जी को इसका पता चला तो पुत्र को कहकर श्यामजी को अपने घर पर बुलाया। आप श्यामजी के व्यक्तित्व, सौम्य व गम्भीर प्रकृति तथा आदर भाव आदि गुणों से प्रभावित हुए और आपने उन्हें अपना जामाता-दामाद बनाने का निर्णय ले लिया। इसके कुछ दिनों बाद उनकी 13 वर्षीय पुत्री भानुमति जी से 18 वर्षीय श्यामजी का सन् 1875 में विवाह सम्पन्न हो गया।

 

मुम्बई आकर श्यामजी कृष्ण वर्मा प्रार्थना समाज के समाज सुधार आन्दोलन से जुड़ गये थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 29 जनवरी से 20 जून, 1875 तक वेदों का प्रचार करते हुए मुम्बई में प्रवास किया था। मुम्बई में उन दिनों बुद्धिजीवी लोगों में उनके प्रवचनों की चर्चा होती थी। आप स्वामीजी के सम्पर्क में आये और उनके न केवल व्यक्तित्व व वैदिक ज्ञान से ही परिचय प्राप्त किया अपितु उनकी सर्वांगीण विचारधारा व कार्यों को जान कर वह उनके अनुयायी बन गये। 10 अप्रैल, सन् 1875 को जब मुम्बई के गिरिगांवकाकड़वाड़ी मोहल्ले में प्रथम आर्यसमाज की स्थापना की गई तो वहां उपस्थित लगभग 100 से कुछ अधिक लोगों में पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा सहित उनके श्वसुर श्री छबीलदास जी श्याला श्री रामदास बतौर संस्थापक सदस्य उपस्थित थे। 12 जून, सन् 1875 को महर्षि दयानन्द जी का रामानुज सम्प्रदाय के आचार्य पं. कमलनयन के साथ मूर्तिपूजा विषय पर शास्त्रार्थ होने के अवसर पर भी आप इस शास्त्रार्थ में श्रोता व दर्शक के रूप में उपस्थित थे। इस शास्त्रार्थ में दयानन्द जी की विद्वता का लोहा सभी ने स्वीकार किया था। इसके प्रभाव से आप महर्षि दयानन्द के और निकट आये और उनकी प्रेरणा व अपनी इच्छा से आपने वैदिक सहित्य का अध्ययन किया तथा उनके शिष्य बन गये। स्वामी दयानन्द जी के सान्निध्य से उनका संस्कृत का ज्ञान और अधिक परिष्कृत, परिपक्व व समृद्ध हुआ। स्वामी दयानन्द की प्रेरणा से पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा ने नासिक की यात्रा कर 1 व 2 अप्रैल, 1877 को वहां संस्कृत में वेदों पर व्याख्यान दिये। लोग एक ब्राह्मणेतर व्यक्ति से संस्कृत में धारा प्रवाह व्याख्यान की अपेक्षा नहीं रखते थे। इन व्याख्यानों का वहां की जनता पर गहरा प्रभाव हुआ। इसके बाद आपने अहमदाबाद, बड़ौदा, भड़ौच, भुज और माण्डवी सहित लाहौर में जाकर वेदों पर व्याख्यान दिये। आपके संस्कृत व्याख्यानों से घूम मच गई और श्रोताओं ने आपकी भूरि भूरि प्रशंसा की। पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा ने स्वामी दयानन्द जी के यजुर्वेद व ऋग्वेद भाष्य के प्रकाशन व उसके डाक से प्रेषण के प्रबन्धकत्र्ता का कार्य भी पर्याप्त अवधि तक किया। इंग्लैण्ड जाने तक आप यह कार्य करते रहे थे।

 

आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, लन्दन में संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष सर मोनियर विलियम सन् 1878 में भारत आये थे। महर्षि के निकटवर्ती शिष्य श्री गोपाल हरि देशमुख की अध्यक्षता में पूना में उनका व्याख्यान आयोजित किया गया था। पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा इस व्याख्यान में न केवल सम्मिलित ही हुए अपितु उनका भी धारा प्रवाह संस्कृत में व्याख्यान हुआ जिसका गहरा प्रभाव सर मोनियर विलियम और श्रोताओं पर भी हुआ। उन्होंने पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा को आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत के सहायक प्रोफेसर के पद का प्रस्ताव दिया। वह इस प्रस्ताव से सहमत हुए। स्वामी दयानन्द जी को भी पंण्डित जी ने जानकारी दी। स्वामी दयानन्द जी ने न केवल अपनी सहमति व्यक्त की अपितु उन्हें इंग्लैण्ड जाकर करणीय कार्यों के बारे में मार्गदर्शन दिया। बाद में स्वामीजी ने उन्हें जो पत्र लिखे उससे भी स्वामीजी के श्यामजी के मध्य गहरे गुरू शिष्य संबंध का अनुमान होता है। श्यामजी ने लन्दन पहुंच कर 21 अप्रैल, सन् 1879 को पदभार सम्भाला था। लन्दन में आपने बैरिस्ट्री की परीक्षा पास करने हेतु भी इनर टैम्पल में प्रवेश लिया। आपने सन् 1881 के आरम्भ में रायल एशियाटिक सोसायटी के निमन्त्रण पर भारत में लेखन कला का आरम्भ विषय पर अपना शोध प्रबन्ध पढ़ा। इस प्रस्तुति से प्रभावित होकर आपको रायल एशियाटिक सोसायटी का सदस्य बना लिया गया। इंग्लैण्ड एम्पायर क्लब एक ऐसा क्लब था जिसमें राज परिवार के लोग ही सदस्य बन सकते थे। श्री श्यामजी कृष्ण वर्म्मा ऐसे पहले भारतीय थे जिन्हें क्लब की सदस्यता दी गई थी। सन् 1881 में ही इंग्लैण्ड में भारत मंत्री ने आपको प्राच्य विद्या विशारदों के बर्लिन सम्मेलन में भाग लेने के लिए अपने प्रतिनिधि के रूप में भेजा था। सन् 1883 में आपने लन्दन में बी.ए. की परीक्षा पास की और भारत आ गये। स्वामी दयानन्द जी ने अपने इच्छा पत्र में श्यामजी कृष्ण वर्म्मा को अपनी उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा का सदस्य मनोनीत किया था। 28-29 दिसम्बर, 1883 को हुए सभा की अजमेर के मेवाड़दरबार की कोठी में आयोजित प्रथम बैठक में आप सम्मिलित हुए। मार्च, 1884 में आप सपत्नीक लन्दन लौट गये थे और नवम्बर, 1884 में आपने बैरिस्ट्री की सम्मानजनक परीक्षा उत्तीर्ण की। आप पहले भारतीय थे जिन्होंने आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, लन्दन से बैरिस्ट्री पास की थी। आप जनवरी, 1885 में पुनः स्वदेश लौट आये थे।

 

भारत आकर श्यामजी कृष्ण वर्मा रतलाम राज्य के सन् 1885 से सन् 1888 तक दीवान रहे। इसके बाद उन्होंने अजमेर में वकालत की। उदयपुर के महाराणा फतेहसिंह जी ने उन्हें दिसम्बर 1892 में अपने राज्य की मंत्रि परिषद में सदस्य मनोनीत किया। उदयपुर में आप दो वर्षों तक राज्य कौंसिल के सदस्य रहे। 6 फरवरी 1894 को आप जूनागढ़ रियासत के दीवान बने परन्तु जूनागढ़ के कुछ कटु अनुभवों से अंग्रेज जाति के प्रति उनके विश्वास को गहरी चोट लगी। इंडियन नेशलन कांग्रेस की दब्बू नीति उन्हें पसन्द नहीं थी। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी से उनकी मैत्री थी। चापेकर बन्धुओं द्वारा जब प्लेग कमिश्नर मिस्टर रैण्ड और लेफ्टिनेंट अर्येस्ट की हत्या की गई, तब अंग्रेज सरकार ने तिलक जी को अठारह मास का कारावास का दण्ड दिया। इससे श्यामजी का अंग्रेजों के प्रति विश्वास समाप्त हो गया। श्याम जी का महर्षि दयानन्द के वेद सम्मत राजनीतिक विचारों में पूर्ण विश्वास था। इसका क्रियान्वयन उन दिनों कांग्रेस द्वारा किंचित परिवर्तन के साथ किया जा रहा था जिससे पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा सहमत थे एवं इसके द्वारा शुभपरिणामों की आशा भी रखते थे।

 

पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा ने अपने विवेक से विदेश में जाकर भारत की स्वतन्त्रता के लिए कार्य करने का निर्णय किया। वह उदारवादी विचारों से स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त नहीं थे। अतः सन् 1897 के अन्तिम दिनों में वह इंग्लैण्ड आ गये। यहां रहकर आपने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये जिन्हें पूर्णरूपेण इस संक्षिप्त लेख में प्रस्तुत करना कठिन है। प्रमुख कार्यों में से एक कार्य आपके द्वारा लन्दन में एक मकान खरीदा जिसे इण्डिया हाउस का नाम दिया। यह मकान क्रामवेल एवेन्यू हाईगेट का मकान नं. 65 था। यह इण्डिया हाउस ही हमारे क्रान्तिकारियों का इंग्लैण्ड में मुख्य निवास स्थान व क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बना। पं. श्याम जी ने  भारत से इंग्लैण्ड जाने वाले विद्यार्थियों को छात्रवृतियां देना भी आरम्भ किया जिसमें एक शर्त यह होती थी कि छात्रवृत्ति प्राप्त करने वाला व्यक्ति अंग्रेजों की नौकरी नहीं करेगा और न उनसे कोई लाभ प्राप्त करेगा। डा. सत्यकेतु विद्यालंकार के अनुसार यह इण्डिया हाउस इंग्लैण्ड में भारतीय क्रान्तिकारी गतिविधियों और क्रिया-कलापों का सबसे बड़ा केन्द्र बना रहा। जिन लोगों ने छात्रवृत्ति प्राप्त कर इंग्लैण्ड में आकर इण्डिया हाउस में निवास किया। इन छात्रों में प्रसिद्ध क्रान्तिकारी वीर विनायक दामोदर सावरकर भी थे जो सन् 1906 में वहां पहुंचे थे। इंग्लैण्ड में रहते हुए सन् 1905 में पं. श्यामी जी कृष्ण वर्मा ने एक अंगे्रजी मासिक पत्रिका इंडियन सोशियोलोजिस्ट का प्रकाशन आरम्भ किया जिसका उद्देश्य उन्होंने भारत में राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक सुधार घोषित किया। अपने आरम्भिक लेख में आपने लिखा कि यह पत्र बताएगा कि ब्रिटिश शासन के नियंत्रण में भारतीयों के साथ कैसा दुर्व्यवहार किया जाता है और उस शासन के प्रति भारतीयों के मन में क्या भावनाएं हैं। पंण्डित जी ने यह पत्र इंग्लैण्ड व विदेशों में लोकमत को जाग्रत करने की दृष्टि से आरम्भ किया था। पं. श्यामजी का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य इंग्लैण्ड में इंडियन होमरूल सोसायटी की स्थापना करना था। यह सोसायटी 18 फरवरी, 1905 को स्थापित की गई थी। इसका पहला उद्देश्य भारत में होमरूल अर्थात् स्वशासन स्थापित करना था। दूसरा उद्देश्य पहले लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इंग्लैण्ड में रहकर सभी आवश्यक कार्य करना था जिससे स्वशासन का अधिकार प्राप्त हो सके। संस्था का तीसरा उद्देश्य देशवासियों में स्वाधीनता तथा राष्ट्रीय एकता से संबंधित बौद्धिक सामग्री व ज्ञान को उलब्ध कराना था। श्यामजी कृष्ण वम्र्मा इस सोसायटी के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष सरदार सिंह राणा, जे. एम. पारीख, अब्दुल्ला सुहरावर्दी और गोडरेज तथा मन्त्री जे. सी. मुखर्जी बनाये गये थे। इन सभी लोगों द्वारा यह घोषणा की गई थी कि उनका उद्देश्य ‘‘भारतीयों के लिए, भारतीयों के द्वारा और भारतीयों की सरकार स्थापित करना है। एक प्रकार से सन् 1905 में उठाया गया यह कदम पूर्ण स्वराज्य प्राप्ति की दिशा मे बहुंत बड़ा निर्णय व कार्य था जिसे कांग्रेस ने बहुत बाद में अपनाया। वम्र्मा जी की गतिविधियां दिन प्रतिदिन तीव्रतर होती जा रही थी। मई और जून 1907 में पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा के इण्डियन सोशियोलोजिस्ट में लेखों से समूचे इंग्लैण्ड में खलबली मच गई। इसका परिणाम विचार कर जून, 1907 में वह पेरिस चले गए और वहीं से भारत के क्रान्तिकारियों का मार्गदर्शन करने लगे। उनके पेरिस जाने के कारण इंडियन होमरूल सोसायटी का मुख्यालय भी उनके पास पेरिस स्थानान्तरित हो गया। 19 सितम्बर, 1907 को इण्डियन सोशियोलोजिस्ट पत्र पर अंगे्रज सरकार ने पाबन्दी लगा दी। इस पत्र के मुद्रकों श्री आर्थर बोर्सले और एल्फ्रेड एल्ड्रेड को गिरफतार कर लिया गया और उन्हें एक एक वर्ष के कारावास का सजा सुनाई गई। श्यामजी पेरिस में रह रहे थे और वहीं इण्डियन सोशियोलोजिस्ट का प्रकाशन कर रहे थे। सन् 1914 में पेरिस में भी परिस्थितियां उनके लिए प्रतिकूल हो गईं अतः वह पेरिस छोड़कर जून, 1914 में जेनेवा (स्विटजरलैण्ड) चले गये। यहां रहते हुए भी आप अपना पत्र अंग्रेजी व फ्रेंच भाषाओं में निकालते रहे। इसी बीच दूसरा विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया। राजनैतिक कारणों से आपको अपने पत्र का प्रकाशन स्थगित करना पड़ा। इस प्रकार निरन्तर कार्य करते रह कर वह आप वृद्ध हो गये थे। अब आप अधिक सक्रिय भूमिका नहीं निभा सकते थे। अतः देश में चल रहे सत्याग्रह आन्दोलन को आपने अपना समर्थन दिया। 31 मई, 1930 को लगभग 73 वर्ष की आयु में जेनेवा में ही महर्षि दयानन्द के इस शिष्य और भारत माता के योग्य पुत्र पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा का निधन हो गया। प्रसिद्ध क्रान्तिकारी नेता श्री सरदार सिंह राणा, मैडम भीखाजी रूस्तम जी कामा, जे.एम. पारीख, लाला हरदयाल, विनायक दामोदर सावरकर, मौलवी मोहम्मद बर्कतुल्लाह, नीतिसेन द्वारकादास, मिर्जा अब्बाज उर्फ मुहम्मद अब्बास आदि उनके देशभक्ति के कार्यों में उनके सहयोगी रहे।

 

श्री श्यामजी कृष्ण वर्म्मा महर्षि दयानन्द जी के योग्य शिष्य, संस्कृत व वैदिक साहित्य के विद्वान होने के साथ भारत की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले तथा क्रान्ति को स्वतन्त्रता प्राप्ति का साधन मानने वाले प्रथम चिन्तक, विचारक व अपने विचारों को क्रियात्मक रूप देने वाले आद्य महापुरूष थे। देश की आजादी में उनका योगदान प्रशंसनीय एवं महत्वपूर्ण है। उनके विचारों की अग्नि व कार्यों से देश को अनेक क्रान्ति धर्मी युवक मिले जिन्होंने अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए विवश किया था। उनकी आज 159 वीं जयन्ती पर उन्हें शत शत नमन है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘गुजरात के सोमनाथ मन्दिर की लूट पर महर्षि दयानन्द का शिक्षाप्रद व्याख्यान’-मनमोहन कुमार आर्य

महर्षि दयानंद सरस्वती मूर्तिपूजा का वेदविरुद्ध व अकरणीय मानते थे। उनका यह भी निष्कर्ष था कि देश के पतन में मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, बाल विवाह, विधवाओं की दुर्दशा, पुरूषों के चारित्रिक ह्रास, सामाजिक कुव्यवस्था, असमानता व विषमता तथा स्त्री व शूद्रों की अशिक्षा आदि कारण प्रमुख थे। विचार करने पर महर्षि दयानन्द की बातें सत्य सिद्ध होती हैं। सत्यार्थ प्रकाश महर्षि दयानन्द जी का प्रमुख ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के ग्याहरवें समुल्लास में आर्यावर्तीय मतमतान्तरों का खण्डन-मण्डन विषय प्रस्तुत किया गया है। ग्याहरवें समुल्लास की भूमिका में महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि इस समुल्लास में उनके द्वारा प्रस्तुत खण्डन मण्डन कर्म से यदि लोग उपकार न मानें तो विरोध भी न करें। क्योंकि उनका तात्पर्य किसी की हानि वा विरोध करने में नहीं किन्तु सत्याऽसत्य का निर्णय करने कराने का है। इसी प्रकार सब मनुष्यों को न्यायदृष्टि से वर्तना अति उचित है। मनुष्य जन्म का होना सत्याऽसत्य का निर्णय करने कराने के लिये है न कि वादविवाद व विरोध करने कराने के लिये। इसी मत-मतान्तर के विवाद से जगत् में जो-जो अनिष्ट फल हुए, होते हैं और आगे भी होंगे, उन को पक्षपातररहित विद्वज्जन जान सकते हैं। जब तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मतमतान्तर का विरूद्ध वाद न छूटेगा तब तक अन्योऽन्य को आनन्द न होगा। यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वज्जन ईष्र्या द्वेष छोड़ सत्याऽसत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना कराना चाहें तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है। यह निश्चय है कि इन विद्वानों के विरोध ही ने सब को विरोध-जाल में फंसा रखा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन (स्वार्थ) में फंस कर सब के प्रयोजन (हित कल्याण) को सिद्ध करना चाहैं तो अभी ऐक्यमत हो जायें। इस के होने की युक्ति इस (ग्रन्थ) की पूर्ति में लिखेंगे (यह युक्ति महर्षि दयानन्द ने पुस्तक के अन्त में स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश के अन्र्तगत लिखी है)। सर्वशक्तिमान् परमात्मा एक मत में प्रवृत्त होने का उत्साह सब मनुष्यों की आत्माओं में प्रकाशित करे। आगामी सोमनाथ मन्दिर की घटना को पढ़ते हुए पाठकों को महर्षि दयानन्द के इन शब्दों में व्यक्त की गई भावना को अपने ध्यान में अवश्य रखना चाहिये।

 

सत्यार्थ प्रकाश में महर्षि दयानन्द ने प्रश्नोत्तर शैली में सोमनाथ मन्दिर के विषय में अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। प्रश्न करते हुए वह लिखते हैं कि देखो ! सोमनाथ जी (भगवान) पृथिवी के ऊपर रहता था और उनका बड़ा चमत्कार था, क्या यह भी मिथ्या बात है? इसका उत्तर देते हुए वह बताते हैं कि हां यह बात मिथ्या है। सुनो ! मूर्ति के ऊपर नीचे चुम्बक पाषाण लगा रक्खे थे। इसके आकर्षण से वह मूर्ति अधर में खड़ी थी। जब महमूद गजनवी आकर लड़ा तब यह चमत्कार हुआ कि उस का मन्दिर तोड़ा गया और पुजारी भक्तों की दुर्दशा हो गई और लाखों फौज दश सहस्र फौज से भाग गई। जो पोप पुजारी पूजा, पुरश्चरण, स्तुति, प्रार्थना करते थे कि ‘हे महादेव ! इस म्लेच्छ को तू मार डाल, हमारी रक्षा कर, और वे अपने चेले राजाओं को समझाते थे कि आप निश्चिन्त रहिये। महादेव जी, भैरव अथवा वीरभद्र को भेज देंगे। ये सब म्लेच्छों को मार डालेंगे या अन्धा कर देंगे। अभी हमारा देवता प्रसिद्ध होता है। हनुमान, दुर्गा और भैरव ने स्वप्न दिया है कि हम सब काम कर देंगे। वे विचारे भोले राजा और क्षत्रिय पोपों के बहकाने से विश्वास में रहे। कितने ही ज्योतिषी पोपों ने कहा कि अभी तुम्हारी चढ़ाई का मुहूर्त नहीं है। एक ने आठवां चन्द्रमा बतलाया, दूसरे ने योगिनी सामने दिखलाई। इत्यादि बहकावट में रहे।

 

जब म्लेच्छों की फौज ने आकर मन्दिर को घेर लिया तब दुर्दशा से भागे, कितने ही पोप पुजारी और उन के चेले पकड़े गये। पुजारियों ने यह भी हाथ जोड़ कर कहा कि तीन क्रोड़ रूपया ले लो मन्दिर और मूर्ति मत तोड़ो। मुसलमानों ने कहा कि हम बुत्परस्त नहीं किन्तु बुतशिकन् अर्थात् मूर्तिपूजक नहीं किन्तु मूर्तिभंजक हैं और उन्होंने जा के झट मन्दिर तोड़ दिया। जब ऊपर की छत टूटी तब चुम्बक पाषाण पृथक् होने से मूर्ति गिर पड़ी। जब मूर्ति तोड़ी तब सुनते हैं कि अठारह करोड़ के रत्न निकले। जब पुजारी और पोपों पर कोड़ा अर्थात कोड़े पड़े तो रोने लगे। मुस्लिम सैनिकों ने पुजारियों को कहा कि कोष बतलाओ। मार के मारे झट बतला दिया। तब सब कोष लूट मार कूट कर पोप और उन के चेलों को गुलाम बिगारी बना, पिसना पिसवाया, घास खुदवाया, मल मूत्रादि उठवाया और चना खाने को दिये। हाय ! क्यों पत्थर की पूजा कर (हिन्दू) सत्यानाश को प्राप्त हुए? क्यों परमेश्वर की (सत्य वेद रीति से) भक्ति की? जो म्लेच्छों के दांत तोड़ डालते और अपना विजय करते। देखो ! जितनी मूर्तियां हैं उतनी शूरवीरों की पूजा करते तो भी कितनी रक्षा होती? पुजारियों ने इन पाषाणों की इतनी भक्ति की किन्तु मूर्ति एक भी उन (अत्याचारियों) के शिर पर उड़ के न लगी। जो किसी एक शूरवीर पुरुष की मूर्ति के सदृश सेवा करते तो वह अपने सेवकों को यथाशक्ति बचाता और उन शत्रुओं को मारता।

 

उपर्युक्त पंक्तियों में महर्षि दयानन्द जी ने जो कहा है वह एक सत्य ऐतिहासिक दस्तावेज है। इससे सिद्ध है कि पुजारियों सहित सैनिको व देशवासियों के अपमान व पराजय का कारण मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अन्धविश्वास, पाखण्ड, ढ़ोग, वेदों को विस्मृत कर वेदाचरण से दूर जाना आदि थे। यह कहावत प्रसिद्ध है कि जो व्यक्ति व जाति इतिहास से सबक नहीं सीखती वह पुनः उन्हीं मुसीबतों मे फंस जाती व फंस सकती है अर्थात् इतिहास अपने आप को दोहराता है। महर्षि दयानन्द ने हमें हमारी भूलों का ज्ञान कराकर असत्य व अज्ञान पर आधारित मिथ्या विश्वासों को छोड़ने के लिये चेताया था। हमने अपनी मूर्खता, आलस्य, प्रमाद व कुछ लोगों के स्वार्थ के कारण उसकी उपेक्षा की। आज भी हम वेद मत को मानने वाली हिन्दू जनता को सुसंगठित नहीं कर पाये जिसका परिणाम देश, समाज व जाति के लिए अहितकर हो सकता है। महर्षि दयानन्द ने वेदों का जो ज्ञान प्रस्तुत किया है वह संसार के समस्त मनुष्यों के लिए समान रूप से कल्याणकारी है। लेख की समाप्ति पर उनके शब्दों को एक बार पुनः दोहराते हैं- जब तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मतमतान्तर का विरूद्ध वाद छूटेगा तब तक अन्योऽन्य को आनन्द होगा। यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वज्जन ईष्र्या द्वेष छोड़ सत्याऽसत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना कराना चाहैं तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है।यदि ये (मतमतान्तर वाले) लोग अपने प्रयोजन (स्वार्थ) में फंस कर सब के प्रयोजन (हित कल्याण) को सिद्ध करना चाहैं तो अभी ऐक्यमत हो जायें। आईये, सत्य को ग्रहण करने व असत्य का त्याग करने का व्रत लें। इसके लिये वेदों का स्वाध्याय करें और वेदानुसार ही जीवन व्यतीत करें जिससे देश, समाज व विश्व को लाभ प्राप्त हो।

 

            –मनमोहन कुमार आर्य

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महर्षि दयानन्द और अपमान

प्रत्येक व्यक्ति सोचने समझने के लिए स्वतंत्र हैं . वह अपनी बुद्धिमत्ता के अनुसार परिस्थिति के आंकलन के अनुसार निर्णय लेकर कार्य करता है . एक वर्ग ऐसा  भी होता  जो किसी अन्य के विचारों को  बिना सोचे समझे अनुपालन करना आरम्भ कर देते हैं वहीं  कुछ किसी न किसी कारणवश उनकी बातों से सहमत नहीं होते  . यह मानव जाती का स्वभाव और व्यवहार में प्रदर्शित होता  है .

यही कारण है की महापुरुषों के जहाँ अनुगामी लोगों की पचुरता होती है वहीं ऐसे लोगों का समूह भी होता है जो उनकी बातों से सहमत नहीं होते.  महापुरुष विरोधियों की बातों को सुनने और उनकी कटाक्षों को सहने की सामर्थ्य रखते हैं और इनसे विचलित नहीं होते उनका यही आचरण उन्हें दूसरों से भिन्न और महान बना देता है .

स्वामी दयानन्द भी इसके अपवाद नही थे . महर्षि दयानन्द जी के पूना  प्रवास के दौरान वहां के सम्माननीय लोगों ने ऋषी के सम्मान में एक जूलूस ऋषि दयानन्द को हाथी पर बिठा कर अश्व और गाजे बाजे के साथ निकाला . ( देवेन्द्र बाबू द्वारा रचित जीवन चरित्र )

वहीं पौराणिक पक्ष ने इसके विरोध में दूसरा जूलूस  निकाला और जिसमें एक गधे को सजाकर उस पर गधानंद लिख दिया .

पूना से प्रकाशित लोक हितवादी पत्रिका के फरवरी १८८३ के अंक में सम्पादक ने इस घटना के बारे में ऋषि दयानन्द के लिए लिखा है :

मान अपमान में समबुद्धि ऋषि दयानन्द :

“जैसे राजा की सवारी का हाथी गाँव के उपद्रवी कुत्तों के भौंकने से तनिक भी नहीं डरता वैसे ही हमारा यह बड़ी प्रसंशा के योग्य प्रबल वीर उपर्युक्त लोगों की असंख्य कुचेष्टाओं से कभी तनिक भी नहीं डगमगाया

ऐसे जगतपूज्य महानुभाव के साथ हमारे पूना के समान अत्यंत सभ्य नगर में कभी कोई ऐसा छल नहीं करना चाहिए था परन्तु कुटिल स्वार्थी और मत्सरी लोगों ने अपने साथ इस नगर को भी कलंकित कर दिया .

खैर ! जहाँ उत्तम लोग रहते हैं वहां चांडालों के घर भी होते हैं . इस लोकोप्ती से यदि हम अपने मन को संतोष भी करा लें तो भी यह बात बुरी हो गयी . इसलिए यहाँ के बहुत से सज्जन और विद्वान लोगों ने स्वामी जी के पास जाकर बहुत खेद व्यक्त किया परन्तु धन्य वह तपोनिधि ! जिसके धैर्य , गाम्भीर्य और शौर्य में तनिक भी अंतर पड़ा हुआ किसी के देखने में नहीं आता .

ऋषि दयानन्द का चरित्र, विद्वता उनका आचरण था ही अद्वितीय जिसे देखकर सभी मंत्रमुग्ध हो जाते थे .आलोचनाओं का ऋषी दयानन्द के व्यवहार उनके कार्य पर क्या प्रभाव पढ़ा पूना से प्रकाशित लोक हितवादी पत्रिका के फरवरी १८८३ के अंक में सम्पादक का लेख और ऋषी दयानन्द के लिए प्रयुक्त उनके शब्द और सम्पादक की इस घटना के उनके शहर में घटित होने को लेकर ग्लानी स्वयं वर्णन कर रही है .इस बारे में अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं .

आवश्यकता इस बात पर विचार करने की है  कि आज ऋषि दयानन्द को लेकर जब एक वर्ग अपमान जनक शब्दों का प्रयोग करे  तो  हमारा व्यवहार कैसा हो !. क्या हमें ऋषी दयानन्द के व्यवहार आचरण से शिक्षा ग्रहण करनी है या निरंकुश आतताइयों के अनुकूल व्यवहार करना हमारा ध्येय होना चाहिए .

हमारा व्यवहार उन आदर्शों उन सिद्धांतों की कसोटी पर हो जिनका  हमारे पूर्वजों हमारे सम्माननीय विभूतियों ने अनुगमन किया है .

 

ऐसे थे पण्डित लेखराम : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

 

मास्टर गोविन्दसहाय आर्य समाज अनारकली लाहौर के लगनशील सभासद थे

श्री मास्टर जी पर पण्डित जी का गहरा प्रभाव था . आप पण्डित लेखराम की शूरता की एक घटना सुनाया करते थे

एक दिन किसी ने पण्डित जी को सुचना दी कि लाहौर की बादशाही मस्जिद में एक हिन्दू लड़की को शुक्रवार के दिन बलात मुसलमान बनाया जायेगा

लड़की को कुछ दुष्ट पहले ही अपहरण करके ले जा चुके थे . यह सुचना पाकर पण्डित जी बहुत दुखी ही . देवियों का अपहरण व बलात्कार उनके लिए असह्य था . वे इसे मानवता के विरुद्ध एक जघन्य अपराध मानते थे . पण्डित जी की आँखों में खून उतर आया ..

पण्डित जी ने मास्टर गोविन्दसहाय जी से कहा “चलिए , मास्टर जी हम आज रात्रि ही उस लडकी को खोजकर लावेंगे “

बृहस्पतिवार को सायंकाल के समय दोनों मस्जिद में गए . लड़की वही पाई गयी .लड़की से कहा : चलो हमारे साथ .

वह साथ चल पडी . वहां उस समय कुछ मुसलमान उपस्थित थे परन्तु किसी को भी पण्डित जी के मार्ग में बाधक बनने का दुस्साहस न हुआ. धर्म प्रचार व जाति रक्षा के लिए वे प्रतिपल जान जोखिम में डालने के लिए तैयार  रहते थे . यह घटना श्री मास्टर गोविन्दसहाय जी ने दिवंगत वैदिक विद्वान वैद्य रामगोपाल जी को सुनाई थी. श्री महात्मा हंसराज जी भी पण्डित जी के जीवन की इस प्रेरक घटना की चर्चा किया करते थे

पं० लेखराम की विजय: स्वामी श्रद्धानन्द जी

श्री मिर्जा गुलाम अहमद कादयानी ने अप्रेल १८८५ ईस्वी में एक विज्ञापन के द्वारा भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के विशिष्ट व्यक्तियों को सूचित किया कि दीने इसलाम की सच्चाई परखने के लिए यदि कोई प्रतिष्ठत व्यक्ति एक वर्ष के काल तक मेरे पास क़ादयान में आ कर निवास करे तो मैं उसे आसमानी चमत्कारों का उसकी आँखों से साक्षात् करा सकता हूं । अन्यथा दो सौ रुपए मासिक को गणना से हरजाना या जुर्माना दूँगा ।

इस पर पं० लेखराम जी ने चौबीस सौ रुपए सरकार में जमा करा देने की शर्त के साथ स्वीकृति दी । उस समय वह आर्यसमाज पेशावर के प्रधान थे ।

मिर्ज़ा जी ने इस पर टालमटोल से कार्य करते हुए क़ादयान, लाहौर, लुध्याना, अमृतसर और पेशावर के समस्त आर्य सदस्यों की अनुमति की शर्त लगा दी कि वह पं० लेखराम जी को अपना नेता मानकर उनके आसमानी चमत्कार देख लेने के साथ ही उनके सहित ननुनच के बिना दीनें इसलाम को स्वीकार करने की घोषणा करें । जब कि स्वयं मिर्ज़ा जी ने स्वीकार किया है कि “वह आर्यों का एक बड़ा एडवोकेट और व्याख्यान दाता था ।”

“वह अपने को आर्य जाति का सितारा समझता था और आर्य जाति भी उसको सितारा बताती थी ।”

अन्ततः मिर्ज़ा जी ने चौबीस सो रूपये सरकार में सुरक्षित न करा कर केवल पं० जी को दो तीन दिन के लिए कादयान आने का निमन्त्रण दिया और साथ ही चौबीस सौ रूपये सरकार में सुरक्षित कराने की शर्त पं० जी के लिए बढ़ा दी जिससे चमत्कार स्वीकृति से इन्कार की अवस्था में वह रूपए मिर्ज़ा जी प्राप्त कर सकें । पं० जी ने इस शर्त को स्वीकार कर लिया और लिखा कि जो आसमानी चमत्कार आप दिखायेंगे, वह कैसा होगा ? उसका निश्चय पूर्व हो जाए । क्या कोई दूसरा सूर्य दिखाओगे कि जिस का उदय पश्चिम और अस्त पूर्व में होगा ? अथवा चांद के दो टुकड़े करने के चमत्कार को दोहराएंगे ? अर्थात् पूर्णिमा की रात्रि को चन्द्रमा के दो खण्ड हो जावें और अमावस्या की रात्रि को पूर्णिमा की भान्ति पूर्ण चन्द्र का उदय हो जावे । इसमें जो चमत्कार दिखाना सम्भव हो, इसकी तिथि और चमत्कार दिखाने का समय निश्चित किया जाए जिसे जनता में प्रसिद्ध कर दिया जाए ।

किन्तु मिर्ज़ा जी इस स्पष्ट और भ्रमरहित नियम को स्वीकार न कर सके । इसका उत्तर देना और स्वीकार करना इनके लिए असम्भव हो गया । स्वीकार किया कि हम यह शर्त पूरी नहीं कर सकते और न ऊपर लिखे चमत्कार दिखा सकते हैं । किन्तु हमें ज्ञात नहीं कि क्या कुछ प्रगट होगा या न होगा ? और इस आकस्मिक आपत्ति से पीछा छुड़ाना चाहा ।”

अन्ततः पं० जी ने मिर्ज़ा जी को लिखा किः—

“बस शुभ प्रेरणा के विचार से निमन्त्रण दिया जाता है …. वेद मुकद्दस पर ईमान लाईये । आप को भी यदि दृढ़ सत्यमार्ग पर चलने की सदिच्छा है तो सच्चे हृदय से आर्य धर्म को स्वीकार करो । मनरूपो दर्पण को स्वार्थमय पक्षपात से पवित्र करो । यदि शुभ सन्देश के पहुंचने पर भी सत्य की ओर (ञ) ध्यान न दोगे तो ईश्वर का नियम आपको क्षमा न करेगा …. और जिस प्रकार का आत्मिक, धार्मिक अथवा सांसारिक सन्तोष आप करना चाहें—सेवक उपस्थित और समुद्यत है ।

पत्र प्रेषकः—

लेखराम अमृतसर ५ अगस्त १८८५ ईस्वी

इस अन्तिम पत्र का उत्तर मिर्ज़ा जी की ओर से तीन मास तक न आया । तब पं० जी ने एक पोस्ट कार्ड स्मरणार्थ प्रेषित किया । उसके उत्तर में मिर्ज़ा जी का कार्ड आया कि क़ादयान कोई दूर तो नही है । आकर मिल जाएं । आशा है कि यहां पर परस्पर मिलने से शर्ते निश्चित हो जाएंगी ।

इस प्रकार से पं० जी की विजय स्पष्ट है जिसे कोई भी नहीं छिपा सकता । मिर्ज़ा जी के पत्रानुसार अन्ततः पं० जी क़ादयान पहुंचे । वहां दो मास तक रहने पर भी मिर्जा जी किसी एक बात पर न टिक सके । क़ादयान में दो मास ठहर कर वहां आर्यसमाज स्थापित करके चले आए । आर्य-समाज कादयान की स्थापना हुई तो मिर्ज़ा जी के चचेरे भाई मिर्ज़ा इमाम दीन और मुल्लां हुसैना भी आर्यसमाज के नियम पूर्वक सदस्य बने । मिर्ज़ा जी ने भी पं० जी को दो मास तक कादयान निवास को स्वीकार किया है ।

पं० जी ने कादयान में रह कर मिर्जा जी को उनके वचनानुसार आसमानी चमत्कार दिखाने के लिए ललकारा और लिखा कि आप अच्छी प्रकार स्मरण रखें कि अब मेरी ओर से शर्त पूरी हो गी । सत्य की ओर से मुख फेर लेना बुद्धिमानों से दूर है । ५ दिसम्बर १८८५ ईस्वी

मिर्ज़ा जी ने आसमानी चमत्कार दिखाने के स्थान पर आर्य धर्म और इसलाम के दो तीन सिद्धान्तों पर शास्त्रार्थ करने का बहाना किया । अन्य शर्ते निश्चित करने का भी लिखा । जिस पर पं० ने लिखा कि मेरा पेशावर से चलकर कादयान आने का प्रयोजन केवल यही था और अब तक भी इस आशा पर यहां रह रहा हूं कि आपके चमत्कार = प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध कार्य, करामात व इलहामात और आसमानी चिह्नों का विवेचन करके साक्षात करूं । और इससे पूर्व कि किसी अन्य सिद्धान्त पर शास्त्रार्थ किया जाए यह चमत्कार दर्शन की बात एक प्रतिष्ठित लोगों की सभा में अच्छी प्रकार निर्णीत हो जानी चाहिए । और इसके सिद्ध कर सकने में यदि आप अपनी असमर्थता बतावें तो शास्त्रार्थ करने से भी मुझे किसी प्रकार का इन्कार नहीं ।

तीसरा और चौथा पत्र

पुनः पं० जी ने तीसरे पत्र में लिखा कि ….. मुझे आज यहां पच्चीस दिन आए हुए हो गए है । मैं कल परसों तक जाने वाला हूं । यदि शास्त्रार्थ करना है तो भी, यदि चमत्कार दिखाने के सम्बन्ध में नियम निश्चित करने है तो भी शीघ्रता कीजिए । अन्यथा पश्चात मित्रों में फर्रे मारने का कुछ लाभ न  होगा । किन्तु बहुत ही अच्छा होगा कि आज ही स्कूल के मैदान में पधारें । शैतान, सिफारिश, चांद के टुकड़े होने के चमत्कार का प्रमाण दें । निर्णायक भी नियत कर लीजिए । मेरी ओर से मिर्ज़ा इमामदीन जी (मिर्जा जी के चचेरे भाई) निर्णायक समझें । यदि इस पर भी आपको सन्तोष नहीं है तो ईश्वर के लिए चमत्कारों के भ्रमजाल से हट जाइए । १३ दिसम्बर १८८५ ईस्वी

पं० जी ने चतुर्थ पत्र में मिर्ज़ा जी को पूर्ण बल के साथ ललकारा और लिखा कि ….. आप सर्वथा स्पष्ट बहाना, टालमटोल और कुतर्क कर रहे है । मिर्ज़ा साहब ! शोक ! ! महाशोक ! ! ! आप को निर्णय स्वीकार नही है । किसी ने सत्य कहा है किः-

 

(ट)

उजुरे नामआकूल साबितमेकुनद तक़स़ीर रा ।

बुद्धिशून्य टालमटोल तो जुर्म को ही सिद्ध करता है ।

इसके अतिरिक्त आप द्वितीय मसीह होने का दावा करते हैं । इस अपने दावा को सिद्ध कर दिखाइए । (लेखराम कादयान ९ बजे दिन के)

अन्ततोगत्वा मिर्ज़ा जी ने समयाभाव और फारिग न होने का बहाना किया । जिससे पं० जी को दो मास कादयान रहकर लौट आना पड़ा ।

जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि मिर्ज़ा  जी ने पं० लेखराम जी की भावना शुद्ध न होने का भी बहाना किया है । यह दोषारोपण हक़ीकतुल्वही पृष्ठ २८८ से खंडित हो जाता है । क्योंकि वहां उनके स्वभाव में सरलता का स्वीकरण स्पष्ट विद्यमान है । इस पर भी अहमदी मित्र यदि पं० लेखराम जी की पराजय और श्री मिर्ज़ा जी की विजय का प्रचार करते और ढ़ोल बजाकर अपने उत्सवों में घोषणा करते है तो यह उनका साहस उनकी अपनी पुस्तकों और मिर्जा जी के लेखों के ही विरुद्ध है । यदि पं० का वध किया जाना आसमानी चमत्कार समझा जाए तो भी ठीक नहीं । क्योंकि आसमानी चमत्कार दिखाने का समय एक वर्ष के अन्दर सीमित था । और इसके साथ पं० लेखराम जी के इसलाम को स्वीकार करने की शर्त बन्धी हुई थी जैसा कि मिर्ज़ा जी के विज्ञापन में लिखा गया था । इन दोनों बातों के पूरना न होने के कारण पं० जी की विजय सूर्य प्रकाशवत् प्रगट है क्योंकि मिर्ज़ा जी ने स्वयं लिखा है किः—

“यह प्रस्ताव न अपने सोच विचार का परिणाम है किन्तु हज़रत मौला करीम (दयालु भगवान्) की ओर से उसकी आज्ञा से है । ………इस भावना से आप आवेंगे तो अवश्य इन्शाअल्लाह (यदि भगवान चाहे) आसमानी चमत्कार का साक्षात् करेंगे । इसी विषय का ईश्वर की ओर से वचन हो चुका है जिसके विरुद्ध भाव की सम्भावना कदापि नहीं ।” तब्लीगे रसालत जिल्द १ पृ० ११-१२

शर्त निश्चित न हो सकने के कारण पं० जो को कादयान से वापिस लौटना पड़ा । इसका प्रमाण पं० जी और मिर्जा जी की पुस्तकों से प्रगट है ।

पं० जी ने लिखा ही तो है किः—

” ……… अन्ततोगत्वा मिर्ज़ा साहब ने एक वर्ष रहने की शर्त को भी धनाभाव के कारण बहाना साजी, क्रोध और छल कपट से टाल दिया । बाधित होकर मैं दो मास कादयान रहकर और वहां आर्य-समाज स्थापित करके चला आया ।”

इशतहार सदाकत अनवार में श्री मिर्ज़ा जी ने पं० लेखराम जी के कादयान में आकर दो मास ठहरने और शर्तें निश्चित न हो सकने का उल्लेख किया है । अतः अहमदी मित्रों को ननुनच के बिना स्वीकार कर लेने में संकोच न करना चाहिए कि आगे के घटना चक्र में हत्या का विषय चमत्कार का परिणाम नहीं किन्तु इस पराजय का परिणाम ही है जिसे भविष्यवाणी का नाम दे दिया गया है । किन्तु सत्य तो अन्ततोगत्वा सत्य ही है कि श्री मिर्ज़ा साहब सुनतानुल्क़लम (मिर्जा जी का इलहाम सुनतानुल्क़लम का है । अतः वह अपने को क़लम का बादशाह मानते थे) की लेखनी से सत्य का प्रकाश हुए बिना न रह सका । और पं० लेखराम जी के वध को केवल हत्या नहीं प्रत्युत बलिदान अर्थात् शहीद मान लिया । देखिये स्पष्ट लिखा है किः—

 

(ठ)

“सो आसमानों और जमीन के मालिक ने चाहा कि लेखराम सत्य के प्रकाश के लिए शहीद हुए हैं । शहीद शब्द अरबी भाषा का है । अतः मिर्ज़ा जी ने इसका पर्यायवाची शब्द बलिदान रखा है । वेद में अंग-२ कटा कर धर्म प्रचार की सच्चाई प्रमाण देने वाले मनुष्य को अमर पदवी की प्राप्ति होती है । इसकी मुक्ति में कोई सन्देह नहीं रहता । क़ुरान शरीफ़ में भी शहीदों, सत्य पर मिटने वालों को जीवित कहा है । जिनके लिए न कोई भय और न कोई शोक है । खुदा के समीप इनका पद उच्च से उच्च है ।

पं० लेखराम की शहादत पर संसार ने साक्षी दी कि उनका धर्म सत्य और वह सत्य के प्रचारक थे । स्वयं श्री मिर्ज़ा जी ने पं० जी के बलिदान से पूर्व वेदों को नास्तिक मत का प्रतिपादक घोषित किया था ।

नास्तिक मत के वेद हैं हामी ।

बस यही मुद्आ (प्रयोजन) है वेदों का ।।

किन्तु पं० लेखराम आर्य पथिक के महा बलिदान के पश्चात् स्पष्ट रूप से घोषणा की जब कि मिर्ज़ा जी के दिवंगत होने में चार दिन शेष थे । अतः यह उनका अन्तिम लेख और अहमदी मित्रों के लिए यह उनकी अन्तिम वसीयत है कि वह भी श्री मिर्ज़ा की भान्ति पं० जी को सच्चा शहीद और वेद मुगद्दस को पूर्ण ईश्वरीय ज्ञान स्वीकार करें ।

मिर्ज़ा जी ने अपनी अन्तिम पुस्तक में घोषणा की है— यह पूज्य पं० जी की ईश्वर से सच्चे मन से की गई प्रार्थना का परिणाम है जो इस प्रकार है किः—

………..हे परमेश्वर ! हम दोनों में सच्चा निर्णय कर और जो तेरा सत्य धर्म है उसको न तलवार से किन्तु प्यार से तर्क संगत प्रकाश से जारी कर और विधर्मी के मन को अपने सत्य ज्ञान से प्रकाशित कर जिस से अविद्या, पक्षपात, अत्याचार और अन्याय का नाश हो । क्योंकि झूठा सच्चे की भान्ति तेरे सम्मुख प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं कर सकता ।” नुसखा (निदान) १८८८ ईस्वी

मिर्जाजी की प्रार्थना असफल

पं० जी की प्रार्थना से पूर्व मिर्ज़ा जी ने भी अपने विचार तथा मन्तव्य़ के अनुसार ईश्वर से प्रार्थना की थी । जो निम्न प्रकार हैः—

“……. ऐ मेरे जब्वारो कहार खुदा ! यदि मेरा विरोधी पं० लेखराम कुरआन को तेरा कलाम (वाणी) नहीं मानता । यदि वह असत्य पर है तो उसे एक वर्ष के अन्दर अजाब (दुःख) की मृत्यु दे ।”             सुरमा सन् १८८६ ईस्वी

मिर्ज़ा जी ने १८८६ ईस्वी में पं० जी के विरुद्ध ईश्वर से उन के लिये दुःखपूर्ण मौत मारने की प्रार्थना की । किन्तु यह प्रार्थना वर्ष भर बीत जाने पर भी स्वीकार नहीं हुई । अतः मिर्ज़ा जी के प्रार्थना के शब्दों में कुरान शरीफ़ ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध न हो सका । किन्तु पं० लेखराम जी ने मिर्जा जी की प्रार्थना का एक वर्ष बीत जाने पर और उस प्रार्थना के विफल सिद्ध होने पर १८८८ ईस्वी में अपनी आर्यों की गौरव पूर्ण प्रार्थना परमात्मा के समक्ष सच्चे एकाग्र मन से लिखी । जिस में एक वर्ष की अवधि की शर्त नही थी । जीवन भर में किसी समय भी इस प्रार्थना की आपूर्ति सम्भव थी जो परमात्मा की कृपा से पूर्ण सफल हुई । अतः वेद के ईश्वरीय ज्ञान होने तथा पं० जी के सत्य सिद्ध होनेमें कोई सन्देह न रहा ।

इसलमा की परिभाषा में इसी का नाम “मुकाबला” है । जो दो भिन्न विचारवान् व्यक्ति भीड़ के सम्मुख शपथ पूर्वक परमात्मा से प्रार्थना करते हैं । मिर्ज़ा जी ने अन्तिम निर्णय के लिए मुकाबला की प्रस्तावना रखी थी और उस की विस्त़ृत प्रार्थना लिख कर छाप दी थी । चाहे नियम पूर्वक मुकाबला नहीं हुआ । किन्तु उस की रसम पूरी मान ली जाए । तो मिर्ज़ा जी की पराजय और आर्य गौरव पं० जी की विजय स्पष्ट सिद्ध है ।

पं० जी की प्रार्थना यह है कि “विधर्मी (मिर्ज़ा जी) के मन में सत्य ज्ञान का प्रकाश कर ।”

परमात्मा ने इसे स्वीकार किया और मिर्ज़ा जी धीरे-२ वैदिक धर्म के सिद्धान्तों के निकट आते चले गये । प्रथम मिर्ज़ा जी ने जीव तथा प्रकृति को नित्य स्वीकार किया । पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर ईमान लाए । स्वर्ग, नरक के इसलामिक सिद्धांत को परिवर्तित किया । जिहाद की समाप्ति की घोषणा की । अन्त में अपनी मृत्यु से चार दिन पूर्व ” पैगामे सुलह” (शान्ति का सन्देश) नामी पुस्तक लिखी जिस में अपने वैदिक धर्मी होने की घोषणा इन शब्दों में कीः—

(१) “हम अहमदी सिलसिला के लोग सदैव वेद को सत्य मानेंगे । वेद और उस के ऋषियों की प्रतिष्ठा करेंगे तथा उन का नाम मान से लेंगे ।”

(२) “इस आधार पर हम वेद की ईश्वर की ओर से मानते है और उस के ऋषियों को महान् और पवित्र समझते है ।

(३) ” तो भी ईश्वर की आज्ञानुसार हमारा दृढ़ विश्वास है कि वेद मनुष्य की रचना नहीं है । मानव रचना में यह शक्ति नहीं होती कि कोटि मनुष्यों को अपनी ओर खेंच ले और पुनः नित्य का क्रम स्थिर कर दे ।”

(४) “हम इन कठिनाईयों के रहते भी ईश्वर के भय से वेद को ईश्वरीय वाणी जानते हैं और जो कुछ उस की शिक्षा में भूलें हैं वह वेद के भाष्यकारों की भूले समझते हैं ।”

इस से  सिद्ध हुआ कि वेद की कोई भूल नहीं । वेद के वाम मार्गी भाष्यकारों की भूल है ।

(५) मैं वेद को इस बात से रहित समझता हूं कि उस ने कभी अपने किसी पृष्ठ पर ऐसी सिक्षा प्रकाशित की हो जो न केवल बुद्धिविरुद्ध और शून्य हो किन्तु ईश्वर की पवित्र सत्ता पर कंजूसी और पक्षपात का दोष लगाती हो ।”

अतः वेद का ज्ञान ही तर्क की कसौटी पर उत्तीर्ण है और बुद्धि विरुद्ध नहीं तथा ईश्वर की दया से पूर्ण है क्योकि ईश्वर में कंजूसी नहीं । आरम्भ सृष्टि में आया है कि जिस से सब के कल्याण के लिए हो और किसी के साथ ईश्वर का पक्षपात न हो ।

(६) “इस के अतिरिक्त शान्ति के इच्छुक लोगों के लिए यह एक प्रसन्नता का स्थान है कि जितनी इसलाम में शिक्षा पाई जाती है । वह वैदिक धर्म की किसी न किसी शाखा प्रशाखा में विद्यमान है ।”

(ढ़)

अतः सिद्ध हुआ कि इसलाम संसार में कोई पूर्ण धर्म का प्रकाश नहीं कर सकता । क्योंकि उसकी सिक्षा तो अधूरी है । वह तो वैदिक धर्म की शाखा प्रशाखा में पूर्व से लिखी हुई है । वास्तव में तो वेद का धर्म ही पूर्ण और भूलों से रहित होने से परम पावन है ।

परमात्मा आर्यावर्त, पाक, इसलामी देशों और संसार भर के अमहदी  मि6 तथा अन्य सभी लोगों को यह सामर्थ्य प्रदान करें कि वह अपने मनों को पवित्र करके स्वार्थ और पक्षपात की समाप्ति के साथ सत्य सिद्धान्त युक्त वेद के धर्म को पूर्णतः स्वीकार करें । पं० लेखराम जी ने भगवान् से यही प्रार्थना सच्चे हृदय और पवित्र मन से की ।

इस प्रार्थना की पुष्टि के लिए उन्होंने अपना जीवन वैदिक धर्म की बलिवेदी पर स्वाहा कहकर आहुत कर दिया । और सच्चे धर्म की सच्ची शहादत अपने खून से दे दी । जिस का प्रभाव यह हुआ कि मिर्ज़ा गुलाम अहमद के विचार परिवर्तित होते होते उनको वैदिक धर्म का शैदाई बना गए ।

ऐ काश ! हमारी भी शाहदत प्रभु के सम्मुख स्वीकार हो और हमें वीर लेखराम की पदवी प्राप्त हो । पदवी नहीं, गुमनामी ही सही । किन्तु वैदिक धर्म की पवित्र बलिवेदी पर हमारी आहुति भी डाली जाकर उसके किंचित् प्रकाश से संसार में उजाला और वेदों का बोलबोला हो । परमेश्वर सत्य हृदय से की गई प्रार्थना को स्वीकार करें ।

ओ३म् शम्

‘विश्व में वेद-ज्ञान-भाषा की उत्पत्ति और आर्यो का आदि देश’ -मनमोहन कुमार आर्य

आर्य शब्द की उत्पत्ति का इतिहास वेदों पर जाकर रूकता है। वेदों में अनेको स्थानों पर अनेकों बार आर्य शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका अर्थ है कि आर्यों की उत्पत्ति में वेद की मान्यतायें व सिद्धान्त सर्वमान्य हैं। वेद कोई 500,  1500 या 2000 वर्ष पुराना ज्ञान या ग्रन्थ नहीं है अपितु विश्व का सबसे पुरातन ग्रन्थ है। इसे सृष्टि के प्रथम ज्ञान व ग्रन्थ की संज्ञा दी जा सकती है क्योंकि इससे पूर्व व पुरातन ज्ञान व ग्रन्थ अन्य कोई नहीं है। वेदों के बारे में महर्षि दयानन्द की तर्क व युक्तिसंगत मान्यता है कि वेद वह ज्ञान है जो अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को सृष्टिकर्ता, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, निराकार व सर्वान्तर्यामी ईश्वर से मिला था। वेदों के आविर्भाव के रहस्य से अपरिचित व्यक्ति यह अवश्य जानना चाहेगा कि निराकार व शरीर रहित ईश्वर, जिसके पास न मुख है, न वाक्-इन्द्रिय, वह सृष्टि के आदि मे ज्ञान कैसे दे सकता है व देता है?  इसका उत्तर है कि ईश्वर आत्मा के भीतर सर्वव्यापक व सर्वान्तरयामी स्वरूप से विद्यमान होने के कारण ऋषियों की आत्माओं में प्रेरणा देकर ज्ञान प्रदान करता है। ईश्वर के चेतन तत्व, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान एवं सर्वान्तरयामी होने के कारण इस प्रकार ज्ञान देना सम्भव कोटि में आता है।  भौतिक जगत के उदाहरण से हम जान सकते है कि यदि किसी दूर खड़े व्यक्ति को कोई बात कहनी हो तो जोर देकर बोलते हैं और पास खड़े व्यक्ति को सामान्य व धीरे बोलने से भी वह सुन व समझ जाता है। अब यदि कहने व सुनने वाले आमने-सामने हैं और कोई गुप्त बात कान में कहें तो बहुत धीरे बोलने पर भी सुनने वाला व्यक्ति समझ जाता है। यह स्थिति उन दों व्यक्तियों की है जिनकी आत्मायें अलग-अलग शरीरों में हैं। अब यदि दोनों आत्मायें एक दूसरे से सटे हों या एक आत्मा दूसरी आत्मा में अन्तर्निहित, अन्तर्यामी व भीतर हो तो बोलने की आवश्यकता ही नहीं है। वहां तो अन्तर्यामी आत्मा की प्रेरणा व भावना को व्याप्य आत्मा जान व समझ सकता है।  इससे सम्बन्धित एक योग का उदाहरण लेते हैं। योग की सफलता होने पर जीवात्मा के काम, क्रोध, लोभ, मोह रूपी मल, विक्षेप व आवरण हट व कट जाते हैं जैसे कि एक दर्पण पर मल की परत चढ़ी हो, वह साफ हो जाये तो उसके सामने का प्रतिबिम्ब दर्पण में स्पष्ट भाषता वा दिखाई देता है। योग में यही ईश्वर साक्षात्कार है और इस अवस्था में योगी – द्रष्टा के सभी संशय दूर हो जाते हैं और हृदय की ग्रन्थियां खुल जाती हैं। इसका अर्थ है कि उसे परमात्मा का साक्षात्कार, उसका दर्शन अर्थात् निर्भरान्त स्वरूप ज्ञात होकर वह संशय रहित हो जाता है। इस प्रकार जो सिद्ध योगी होता है उसे ईश्वर के बिना बोले वह सभी ज्ञान प्राप्त हो जाता है जिसकी उसे ईश्वर से अपे़क्षा होती है।

 

यद्यपि ईश्वर की प्रेरणा को समझना, जानना, दूसरों को जनाना व प्रवचन करना आदि एक विज्ञान है जिसे आदि व पश्चातवर्ती ऋषियों, योगदर्शनकार महर्षि पतंजलि, अन्य दर्शनकार, योगेश्वर कृष्ण, महर्षि दयानन्द सरस्वती आदि ने जाना, समझा, प्रत्यक्ष व साक्षात् सिद्ध किया था।  सृष्टि की आदि में यदि ऐसा न हुआ होता तो फिर संसार की पहली पीढ़ी से लेकर अद्यावधि कोई भी मनुष्य ज्ञानी नहीं हो सकता था। इसका कारण यह है कि ज्ञान चेतन तत्व का गुण है। चेतन तत्व दो हैं, एक ईश्वर और दूसरी जीवात्मा। ईश्वर सर्वज्ञ एवं त्रिकालदर्शी है, वह जीवों के कर्मो की अपेक्षा से सब कुछ जानता है। ईश्वर के सर्वज्ञ, नित्य तथा जन्म-मृत्यु से रहित होने से इसका अस्तित्व सदा रहेगा। जड़ प्रकृति ज्ञानहीन व संवेदनाशून्य है। जीवात्मा ज्ञान की दृष्टि से अल्पज्ञ कहा जाता है व वस्तुतः है भी। यह साधारण मनुष्य हो या ऋषि, इसका ज्ञान अल्पज्ञ कोटि का होता है और ईश्वर साक्षात्कार हो जाने व समस्त संशयों के पराभूत हो जाने पर भी यह अल्पज्ञ ही रहता है। अल्पज्ञ जीवात्मा में, अन्यों की अपेक्षा से कम या अधिक, जितना भी ज्ञान है वह उसका ईश्वर प्रदत्त स्वाभाविक व नैमित्तिक है। स्वाभाविक व नैमित्तिक ज्ञान का दाता व मूल कारण भी एकमात्र ईश्वर ही है। ईश्वर अपनी सर्वज्ञता से अपने ज्ञान के अनुरूप सृष्टि व मनुष्यों आदि प्राणियों की रचना करता है।  ईश्वर की रचना को देखकर मनुष्य अपने स्वाभाविक ज्ञान व ऋषियों-माता-पिता-आचार्यों से प्राप्त ज्ञान से सृष्टि आदि को देख व समझ कर नैमित्तिक ज्ञान प्राप्त करता है व उसमें वृद्धि करता है। यदि ईश्वर अपने ज्ञान से सृष्टि व प्राणियों की रचना न करे व मनुष्य आदि प्राणियों को स्वाभाविक ज्ञान न दे, तो फिर मनुष्य सदा-सदा के लिए अज्ञानी ही रहेगा। अतः सृष्टि की आदि में परमात्मा आदि चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान देता है। उसी ज्ञान से ऋषि भाषा का उच्चारण व संवाद आदि करते हैं व ईश्वर का ध्यान करते हुए भाषा व लिपि का चिन्तन कर उसी की सहायता से लिपि व व्यापकरण आदि की रचना करते हैं। इस क्रम में उपदेश, प्रवचन, अध्ययन, अध्यापन व लेखन आदि के द्वारा मनुष्यादि अन्य भाषा व विविध ज्ञान का संवर्धन करते हैं।

 

इस प्रकार परम्परा से चला आ रहा ज्ञान माता-पिता को मिलता है, वह अपने पुत्र को देते हैं और फिर वह पुत्र गुरूकुल व विद्यालय में आचार्यों से अध्ययन व पुरूषार्थ करके अपने ज्ञान में वृद्धि करते हैं।  यह ज्ञान की वृद्धि भी उसकी बुद्धि की ऊहापोह एवं ईश्वर की कृपा व सहयोग का परिणाम होती है। यदि सर्वज्ञ ईश्वर आरम्भ में ज्ञान न दे तो मनुष्य या मनुष्य समूह कदापि स्वयं भाषा व ज्ञान को उत्पन्न करके उसे प्रकाशित नहीं कर सकते। ज्ञान भाषा में निहित होता है। यदि भाषा नहीं है तो मनुष्य विचार ही नहीं कर सकता। बिना विचार व ज्ञान के दो मनुष्य एक दूसरे को संकेत भी नहीं कर सकते। अतः माता-पिता द्वारा सन्तानों को भाषा का ज्ञान कराने की भांति सृष्टि के आरम्भ में आदि मनुष्यों को भाषा की प्राप्ति ईश्वर से ही होती है। वह आदि भाषा वैदिक भाषा थी।  ईश्वर ने आदि सृष्टि में चार ऋषियों को चार वेदो का ज्ञान भाषा व मन्त्रों के पदो के अर्थ सहित दिया था। वेदों से सम्बन्धित सभी जानकारियों, वेदों के मर्म व तात्पर्य आदि को जानने के लिए महर्षि दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ को देखना उपयोगी व अनिवार्य है।

 

विचार, चिन्तन, यौगिक अनुभव व आप्त प्रमाणों से सिद्ध है कि सृष्टि के आदि में अमैथुनी व उसके बाद अनेक पीढि़यों तक मनुष्यों की स्मरण शक्ति वर्तमान के मनुष्यों की तुलना में अधिक तीव्र थी। उस समय उन्हें स्मरण करने के लिए कागज, पेन, पेंसिल व पुस्तकों की आवश्यकता नहीं थी। वह जो सुनते थे वह उन्हें स्मरण हो जाता था। कालान्तर में स्मृति ह्रास होना आरम्भ हो गया तो ऋषियों ने इसके लिए व्याकरण सहित अनेक विषय के ग्रन्थों की रचना की। वर्तमान में इस कार्य के लिए व्याकरण के ग्रन्थ पाणिनी अष्टाध्यायी, पतंजलि महाभाष्य, यास्क के निरूक्त व निघण्टु आदि ग्रन्थ उपलब्ध हैं। प्राचीन काल में भी समय-समय पर अनेक ऋषियों ने आवश्यकता के अनुरूप व्याकरण व अन्य ग्रन्थों की रचना की जिससे वेदार्थ ज्ञान में कोई बाधा नही आई। इस विषय पर विस्तार से जानने के लिए पं. युधिष्ठिर मीमांसक कृत संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास पठनीय है।  मीमांसक जी ने इस ग्रन्थ की रचना कर एक ऐसा कार्य किया है जो सम्भवतः भविष्य में अन्य किसी के द्वारा किया जाना सम्भव नहीं था। इसके लिए सारा संस्कृत जगत उनका चिरऋ़णी रहेगा।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने पुरूषार्थ व लगन से वेद व उसके व्याकरण के ग्रन्थों का अध्ययन करने में अपूर्व पुरूषार्थ किया। उनका यह पुरूषार्थ प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द के रूप में एक योग्य गुरू के प्राप्त होने से सफलता को प्राप्त हुआ। सत्य की खोज के प्रति दृण इच्छा शक्ति, मृत्यु व ईश्वर के सत्य स्वरूप की खोज, अपने विशद अध्ययन, पुरूषार्थ, योगाभ्यास आदि से वह वेदों में निष्णात अद्वितीय ब्रह्मचारी बने। महर्षि दयानन्द के समय में सारा देश वेदों से दूर जा चुका था। लोग मानते थे कि वेद लुप्त हो गये हैं। वेदों के साथ ब्राह्मण ग्रन्थों को भी वेद माना जाता था जिनमें वेदों से विरूद्ध अनेक मान्यतायें व विधान थे। गीता व रामायण की प्रतिष्ठा वेदों से अधिक थी। सायण व महीधर आदि विद्वानों के पूर्ण व आंशिक जो वेद भाष्य यत्र-तत्र थे, वह भी वेदों के यथार्थ भाष्य न होकर विद्रूप अर्थो ये युक्त थे। विदेशी व हमारा शासक वर्ग वेदों को गड़रियों के गीत, बहुदेवतावाद का पोषक व अस्पष्ट अर्थो का संग्रह बता रहे थे।  ऐसे समय में स्वामी दयानन्द ने वेदों को ईश्वरीय ज्ञान, सब सत्य विद्याओं का पुस्तक, धर्म जिज्ञासा में वेद परम प्रमाण एवं इतर संसार के सभी वेदानुकूल हाने पर परतः प्रमाण जैसी सत्य मान्यतायें एवं सिद्धान्त बताकर वेदों को स्वतः प्रमाण की संज्ञा दी। उन्होंने कहा कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद ही सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से प्राप्त प्रथम, आदि व नित्य ज्ञान की पुस्तकें हैं। वेद में ज्ञान, विज्ञान, सृष्टिक्रम, युक्ति व प्रमाणों के विरूद्ध कुछ भी नहीं है।  महर्षि दयानन्द ने ही उद्घोष किया कि संसार में मनुष्यों की दो ही श्रेणियां है। एक आर्य व दूसरा अनार्य। आर्य भारत के मूल निवासी हैं। आर्यो के आर्यावर्त वा भारत को आदि काल में बसने व बसाने से पहले यहां कोई मनुष्य समुदाय, जाति के लोग निवास नहीं करते थे। सृष्टि के आरम्भ से लेकर आज तक रचित असंख्य ग्रन्थों में कहीं नहीं लिखा कि आर्य किसी अन्य देश व प्रदेश से आकर यहां बसे, यहां के लोगों से युद्ध कर उन्हें पराजित किया। जब सम्पूर्ण आर्यावर्त के लोगों में आर्य व अनार्य का कोई विवाद ही नहीं है तो फिर स्वार्थी व चालाक व आर्य धर्म व संस्कृति विरोधी अन्य पक्षपाती विदेशी मताग्रहियों का आरोप क्यों व कैसे स्वीकार किया जा सकता है?  विदेशियों के पास धन व अन्य प्रचुर साधन थे। उन्होंने इस देश के कुछ पठित लोगों को अपने प्रलोभन देकर व उनसे आकर्षित कर छद्म व स्वार्थी मानसिकता से प्रभावित किया। कुछ प्रलोभन में फॅंस गये और उनकी हां में हां मिलाने लगे। ऐसा होना स्वाभाविक होता है। कुछ धर्म को अफीम मानने की विचारधारा से पोषित तथाकथित इतिहासकार आर्य संस्कृति से घृणा रखते रहे हैं।  उन्होंने सत्य प्रमाणों पर ध्यान दिये बिना अर्थात् वेद, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत व 18 पुराणों का अवगाहन किए बिना, एक षडयन्त्र के अन्तर्गत विदेषियों की मान्यताओं व विचारों को स्वीकार कर लिया। आज भी विदेशियों की आर्यो के अन्य देशों से भारत आने की स्वार्थ व पक्षपातपूर्ण मान्यता को हम विमूढ़ बनकर ढ़ो रहे हैं। हमें लगता है कि इन मान्यताओं के अनुगामी व प्रवर्तक हमारे स्वदेशी तथाकथित बुद्धिजीवी सत्य के आग्रही कम ही हैं जिसका कारण उनका पाश्चात्य विद्वानों का अनुमागी होना, संस्कृत ज्ञान से अनभिज्ञता, संस्कृत भाषा के अध्ययन से विरत होना व आलस्य प्रवृति तथा धन का मोह आदि ऐसे कारण हैं जिससे वह सत्य तक पहुंचने में असमर्थ है। महर्षि दयानन्द ने अनेक दुर्लभ सहस्रों संस्कृत ग्रन्थों का अध्ययन किया था जिससे वह निर्णय कर सके थे कि आर्य भारत के मूल निवासी हैं व इनसे पूर्व आर्यावर्त्त में आर्यो से भिन्न कोई जाति निवास नहीं करती थी।

 

आर्यो का आदि व मूल देश इस पृथिवीतल पर कौन हो सकता है? इस पर विचार करने पर यह तथ्य सामने आता है कि जहां आर्यो का धर्म ग्रन्थ, साहित्य, संस्कृति व सभ्यता अधिकतम् रूप में व्यवहृत, प्रयोग की जाती हो, जहां उसका चलन हो व वह फल-फूल रही हो। इतिहास में भारत के अतिरिक्त ऐसा अन्य कोई स्थान विदित नहीं है जहां आर्यो के इतिहास से सम्बन्धित इतने अधिक स्थान, साहित्य व अन्य सहयोगी प्रमाण हों। लाखों वा करोड़ों वर्ष पूर्व हुए राम-रावण, द्वापर की समाप्ति पर हुए महाभारत युद्ध व उस समय व उसके पूर्ववर्ती राजवंशों का इतिहास, महाभारत नामक विशाल ग्रन्थ में उपलब्ध व सुरक्षित हैं। पुराणों में भी इतिहास विषयक अनेक उल्लेख व स्मृतियां उल्लिखित हैं। यह महाभारत का युद्ध आज से लगभग 5,200 वर्ष पूर्व हुआ था।  हम अनुभव करते हैं कि जिस प्रकार से सूर्य का उदय पूर्व दिशा से होता है उसी प्रकार से ज्ञान के आदि ग्रन्थ वेद रूपी सूर्य का उदय भी भारत से ही हुआ है जिसका प्राचीन नाम आर्यावर्त था।  यही भूमि वेदों व अमैथुनी सृष्टि के उद्गम की भूमि है। भारत का ही प्राचीन नाम आर्यावर्त्त है और आर्यावर्त्त नाम से पूर्व इस देश का कुछ भी नाम नहीं रहा है और न ही आर्यो से पूर्व कोई मनुष्य या उनका समुदाय निवास करता था।  यह भी ध्यान देने योग्य है कि आर्यावर्त के अस्तित्व में आने तक संसार का अन्य कोई देश अस्तित्व में नहीं आया था क्योंकि उन निर्जन देशों को बसाने के लिए आर्यावर्त्त से आर्यो को ही जाना था।

 

आज संसार की सारी पृथिवी पर लोग बसे हुए हैं।  समस्त पृथिवी पर लगभग 194 देश हैं। इन देशों के निवासी पूर्व समयों में पड़ोस के देशों से आकर वहां बसे हैं। जो आरम्भ में, सबसे पूर्व, आये होगें, उससे पूर्व वह स्थान खाली रहा होगा। हो सकता है उसके बाद निकटवर्ती वा पड़ोस की अन्य तीन दिशाओं से भी कुछ लोग वहां आकर बसे हों। उन देशों में वहां क्योंकि प्रायः एक ही मत या धर्म है, अतः कहीं कोई विवाद नहीं है। सृष्टि के आरम्भ से पारसी व बौद्ध-जैन-ईसाई मत के आविर्भाव तक संसार के सभी लोग एक वैदिक मत को मानते रहे।  इस मान्यता के पक्ष में भी प्रमाण उपलब्ध हैं कि लगभग 5,200 वर्ष पूर्व भारत की भूमि पर हुए महाभारत युद्ध के बाद आर्यावर्त्त अवनति को प्राप्त हुआ। इससे पूर्व हमारे देश के राजपुरूष देश-देशान्तर के सभी देशों में जाते-आते थे। परस्पर व्यापार भी होता था और वहां की राज व्यवस्था भारत के ऋषियों, विद्वानों व राजपुरूषों के दिशा-निर्देश में चलती थी। वह माण्डलिक राज्य कहलाते थे और भारत के चक्रवर्ती राज्य को कर देते थे। महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने अपने काल में हस्तलिखित दुलर्भ हजारों ग्रन्थों का अध्ययन किया था। उन्होंने निष्कर्ष रूप में लिखा है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत पर्यन्त आर्यो का सारे विश्व में एकमात्र, सार्वभौम चक्रवर्ती राज्य रहा है। अन्य देशों में माण्डलिक राजा होते थे जो भारत को कर देते थे और हमारे देश के राजपुरूष व ऋषि आदि भी इन देशों में सामाजिक व राजनैतिक व्यवस्था को आर्यनीति के अनुसार चलाने, शिक्षा-धर्म प्रचार व व्यापार आदि कार्यो हेतु आया-जाया करते थे। यह प्रमाण अपने आप में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह वाक्य देश-विदेश में रहने वाले करोड़ों वेदभक्तों के लिए तो मान्य है परन्तु अंग्रेजी परम्परा के लेखक व विद्वानों के लिए यह इसलिए स्वीकार्य नहीं है कि विदेशी विद्वान ऐसा नहीं मानते थे। वह क्यों नहीं मानते थे इसके कारणों में जाने की इन विद्वानों के पास न योग्यता है और न आवश्यकता। उनका अपना मनोरथ सिद्ध हो जाता है, अतः वह गहन व अति श्रम साध्य गम्भीर अनुसंधान नहीं करते। ऐसे कार्य तो स्वामी दयानन्द व उनके अनुयायी पद-वाक्य प्रमाणज्ञ पण्डित बह्मदत्त जिज्ञासु, पं. युधिष्ठिर मीमांसक, पं. भगवद्दत्त व स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जैसे खोजी व जुझारू लोग ही कर सकते थे व किया है। हम यहां यह भी निवेदन करना चाहते हैं कि आर्यो को भारत से भिन्न स्थानों का निवासी मानने और आर्यो का अन्य स्थान से भारत में आने के मिथ को सत्य मानने वालों के पास एक भी पुष्ट प्रमाण नहीं है जबकि महर्षि दयानन्द व उनके अनुयायियों मुख्यतः स्वामी विद्यानन्द सरस्वती आदि ने आर्यो का भारत का मूल निवासी होना अनेक तर्कों, प्राचीन ग्रन्थों, युक्ति-प्रमाणों, इतिहास व पुरातत्व के प्रमाणों आदि की सामग्री से सिद्ध किया है।

 

यहां हम इस सम्भावना पर भी विचार करते है कि यदि महाभारत युद्ध न हुआ होता तो क्या होता? महाभारत युद्ध दुर्योधन की हठधर्मिता का परिणाम था। यदि उसका जन्म ही न होता या वह साधु प्रकृति का होता तो भी महाभारत न हुआ होता। ऐसी स्थिति में श्री कृष्ण, भीष्म, विदुर, अर्जुन व युधिष्ठिर आदि आर्यावर्त-भारत व सारे विश्व को वेदमार्ग पर चलाते। अर्जुन ने तो अमेरिका के राजा की पुत्री उलोपी से विवाह तक किया था। भारतवासियों का अमेरिका आने-जाने का यह एक प्रमाण है। ऐसे अनेक उल्लेख व प्रमाण प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध हैं।  महर्षि वेद व्यास के पुत्र पाराशर के अमेरिका में जाने वहां निवास करने और अध्ययन-अध्यापन कराने के प्रमाण भी मिलते हैं। महाभारत यदि न होता तो इस सम्भावना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि फिर सारे संसार मे केवल एक वैदिक धर्म ही होता। अज्ञानता के कारण व भारत से दूर होने के कारण मध्यकाल में भारत से बाहर वैदिक मत से इतर पारसी, ईसाई व इस्लाम आदि जिन मतो का आविर्भाव हुआ, वह न हुआ होता। ऐसी स्थिति में हम व दुनियां के अन्य देश जो गुलाम हुए, वह भी न हुए होते। और इन सब स्थितियों में किसी देशी या विदेशी द्वारा इस विवाद को जन्म ही न दिया जाता कि आर्य भारत के ही मूल निवासी हैं या नहीं? अंग्रेजो का विदेशी होना और भारत को पराधीन बना कर यहां के मूल निवासी आर्यों पर शासन करना ही इस विवाद का मुख्य कारण है। अंग्रेजों को यह डर सताता था कि इस देश के नागरिक उन्हें विदेशी कहकर विदेशियों भारत छोड़ों या अंग्रेजों भारत छोड़ो या फिर ‘अपने देश में अपना राज्य या स्वदेशीय राज्य सर्वोपरि उत्तम होता है और स्वदेशी राज्य की तुलना में मातापिता के समान कृपा, न्याय दया होने पर भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं हो सकताआदि सिद्धान्तों व नारों के आधार पर भारत से बाहर न निकाल दें।  अंग्रेजों में असुरक्षा की भावना इस कारण थी कि उन्होंने भारतीयों को गुलाम बनाया हुआ है। वह विदेशी थे और भविष्य मे वह दिन आ सकता था कि जब उनके विदेशी होने के आधार पर उन्हें भारत छोड़ने के लिए मजबूर किया जा सकता था। ऐसा ही हुआ। उनकी लूट, अत्याचारों व विदेशी होने के कारण ही उनके विरूद्ध क्रान्तिकारी व अहिंसक आन्दोलन चले।  अतः अपनी जड़े जमाने व चिरकाल तक भारत पर शासन करने के लिए उन्होंने भारत के प्रबुद्ध वर्ग ‘‘आर्यो को विदेशी कहा। महर्षि दयानन्द तो सन् 1875 में सत्यार्थ प्रकाश में खुलकर कह चुके थे कि अपने देश में अपना स्वदेशी राज्य ही सर्वोत्तम होता है एवं माता-पिता के समान न्याय, दया व कृपा होने पर भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक कभी नहीं हो सकता। महाभारत का युद्ध आर्यो अर्थात् कौरव-पाण्डव राज-परिवारों की परस्पर स्वार्थ वा फूट, उनके आलस्य व प्रमाद आदि कारणों से हुआ जिसके भावी परिणामों से वर्तमान में भारत में अज्ञान, पाखण्ड, कुरीतियां, मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, वर्ण या जातीय व्यवस्था आदि के नाम पर स्त्री व अपठित व असंगठित शूद्रों पर अत्याचार आदि की वृद्धि होना, विदेशों में नाना अवैदिक व अज्ञानपूर्ण मतों का अस्तित्व में आना, सारी दुनियां में धर्मान्तरण का चक्र चलना व इस प्रकार के कारणों से एक दूसरे का घात करना आदि, जिससे समय-समय पर भयंकर युद्ध हुए व सज्जनों को मृत्यु के घाट उतारा गया।

 

यह संसार ईश्वर ने बनाया है। यह हमारी पृथिवी विश्व ब्रह्माण्ड में एकमात्र नहीं अपितु ऐसी असंख्य पृथिवियां एवं सूर्य व चन्द्र आदि ग्रहों से सारा ब्रह्माण्ड भरा है। यह ईश्वर की विषालता, उसकी सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता, सर्वशक्तिमत्ता, निराकारता व सत्य, चित्त व आनन्दस्वरूप होने का प्रमाण है। यहां यह विचार करते हैं कि ईश्वर ने इस विशाल पृथिवी को बनाकर मनुष्यों को किसी एक स्थान पर जन्म दिया या संसार के अनेकानेक भागों में उत्पन्न किया? इसके लिए यह विचार करना उपयोगी होगा कि जब भी हम किसी नई चीज का आविष्कार करते हैं तो पहले कुछ सांचे या प्रोटोटाइप बनायें जाते हैं जिनकी संख्या सीमित होती है। प्रथम उत्पादन एक ही स्थान पर होता है, सर्वत्र नहीं। आवश्यकता पड़ने पर परिस्थिति के अनुसार अनेक स्थानों पर विस्तार किया जाता है। जब एक स्थान पर कुछ सहस्र स्त्री-पुरूषों के जन्म लेकर समय के साथ उनकी संख्या में वृद्धि होने व परस्पर के विवादों आदि के होने पर वह सारे संसार में फैल सकते हैं तो सर्वत्र मनुष्यों की सृष्टि करना ईश्वर के लिए करणीय नहीं था। हम देखते हैं कि परिवार का मुख्य व्यक्ति परिवार की आवश्यकता के अनुरूप निवास बनाता है। आगे चल कर परिवार में नई सन्तानें आती हैं, वह बड़ी होती है, उनमें क्षमता होती है, वह अपने साधनों, क्षमता, अपनी भावना व इच्छानुसार उचित स्थान का चयन कर अपने निवास के लिए अपना पृथक भवन बनवाते हैं। इसी प्रकार से संसार में निवास बनते हैं। सृष्टि के आरम्भ में यही सम्भावना अधिक बलवती लगती है, और इसका आप्त प्रमाण भी है, कि सृष्टि के आरम्भ में केवल एक स्थान त्रिविष्टिपयातिब्बत में ईश्वर ने मानव सृष्टि की। सहस्रों स्त्री-पुरूषों व अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, ब्रह्मा आदि ऋषियों को उत्पन्न किया। ऋषियों को प्रेरणा देकर उन्हें वेदों का ज्ञान दिया। उन्होंने अन्यों को पढ़ाया। उन युवा स्त्री-पुरूषों के विवाह आदि सम्पन्न किये। उन सभी को उनके कर्तव्यों का बोध कराया। उनसे सन्तानोत्पत्ति हुई। समय व्यतीत होने के जनसंख्या बढ़ी। परस्पर विवाद भी हुए। भिन्न मत के लोग समूह में अन्यत्र जाकर रहने लगे। वहां भी जनसंख्या बढ़ी और फिर उनमें से लोग अपनी आवश्यकता, इच्छा, अन्वेषण की रूचि आदि के कारण खाली पड़ी पृथिवी में चारों दिशाओं में स्थान-स्थान पर जाकर बसने लगे।  इस प्रकार से 1,96,08,53,115 वर्षों में यह आज का संसार अस्तित्व में आया है। यहां अब पश्चिमी विद्वान मैक्समूलर का वचन उद्धृत करते हैं – यह निश्चित हो चुका कि हम सब पूर्व से ही आये हैं। इतना ही नहीं, हमारे जीवन की जितनी भी प्रमुख और महत्वपूर्ण बातें हैं, सबकी सब हमें पूर्व से ही मिली हैं। ऐसी स्थिति में जब हम पूर्व की ओर जाएँ तब हमें यह सोचना चाहिए कि पुरानी स्मृतियों को संजोये हम अपने पुराने घर की ओर जा रहे हैं। अंग्रेजी में अपनी पुस्तक “India : What can it Teach us?” (Page 29) पर उन्होंने लिखा कि ‘We all come from the East—all that we value most has come to us from the East, and by going to the East, every-body ought to feel that he is going to his ‘old home’ full of memories, if only we can read them.’  मैक्समूलर के यह शब्द महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम् समुल्लास मे लिखे शब्दों की स्वीकारोक्ति हैं जहां उन्होंने लिखा है कि ‘‘मनुष्यों की आदि सृष्टि त्रिविष्टप अर्थात् तिब्बत में हुई और आर्य लोग सृष्टि के आदि में कुछ काल पश्चात् तिब्बत से सूधे इसी देष भारत में आकर बसे। इसके पूर्व इस देश का कोई भी नाम नहीं था और कोई आर्यो के पूर्व इस देश में बसते थे।’’ हम यहां यह भी जोड़ना उपयुक्त समझते है जब आर्य तिब्बत से यहां आकर बसे उस समय इस भूमि भारत व संसार के समस्त भूभाग पर कहीं कोई मनुष्य निवास नहीं करता था।  इन्हीं प्रो. मैक्समूलर ने सन् 1866 में प्रकाशित चिप्स फ्राम जर्मन वर्कशाप के पृष्ठ 27 पर लिखा है कि ‘‘वैदिक सूक्तों की एक बड़ी संख्या बिल्कुल बचकानी, निकृष्ट, जटिल और अत्यन्त साधारण है।  बाद में यही लेखक इसके विपरीत अपने ऋग्वेद संहिता के भाष्य के चैथे खण्ड में लिखता है कि ‘‘एक वैदिक विद्वान अथवा विद्वानों की एक पीढ़ी द्वारा भी ऋग्वेद की ऋचाओं के रहस्यों को खोज निकालना असम्भव है। वेद, वैदिक धर्म एवं संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वान स्वामी विद्यानन्द सरस्वती ने मैक्समूलर के इन शब्दों पर अपनी टिप्पणी करते हुए लिखा है कि ऋग्वेद के सम्बन्ध में इस प्रकार की भावना व्यक्त करने के लिए मैक्समूलर तभी विवश हुए होंगे जब उन्हें वहां इतने ऊंचे विचार दीख पड़े होंगे जिनके मुकाबिले में विकासवाद की दीवारें हिलती जान पड़ी होंगी।  हम समझते हैं कि मैक्समूलर का यह लिखना कि ऋग्वेद की ऋचाओं के रहस्यों को खोज निकालना असम्भव है, इससे उनका तात्पर्य यह है कि ऋग्वेद के मन्त्रों के जो यथार्थ अर्थ हैं वह इतने गम्भीर, अर्थ पूर्ण, महत्वपूर्ण व उपादेय हैं कि उनके व उनके समकक्ष विद्वान के लिए वेदों के यथार्थ अर्थ जानना, प्रकट करना व बताना असम्भव है।  महर्षि दयानन्द ने अपने वेदाध्ययन में इस तथ्य को साक्षात् किया कि वेद मनुष्य कृत ज्ञान न होकर ईश्वर से प्राप्त ज्ञान है और घोषणा की कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। मैक्समूलर भी प्रकारान्तर से इसका समर्थन करते दीखते हैं।

 

लेख को विराम देने से पूर्व हम 5,200 वर्ष पूर्व रचित महाभारत में उपलब्ध आर्यो का आदि देष विषयक एक पुष्ट प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। महाभारत में कहा है – ‘‘हिमालयाभिधानोऽयं ख्यातो लोकेषु पावनः। अर्धयोजनविस्तारः पंचयोजनमायतः।। परिमण्डलयोर्मध्ये मेरूरूत्तमपर्वतः। ततः सर्वाः समुत्पन्ना वृतयो द्विजसत्तम।। ऐरावती वितस्ता विशाला देविका कुहू। प्रसूतिर्यत्र विप्राणां श्रूयते भरतर्षभ।। इसका अर्थ व इस पर टिप्पणी करते हुए इस विषय के अधिकारी मर्मज्ञ विद्वान स्वामी विद्यानन्द सरस्वती अपनी प्रसिद्ध पुस्तक आर्यो का आदि देश और उनकी सभ्यता में लिखते हैं कि – संसार में पवित्र हिमालय है। इसमें आधा योजन चौड़ा और पांच योजन घेरे वाला मेरू है जहां मनुष्यों की उत्पत्ति हुई। यहीं से ऐरावती, वितस्ता, विशाला, देविका और कुहू आदि नदियां निकलती हैं। इन प्रमाणों में हिमालय के मेरू प्रदेश में प्रथम आदि सृष्टि होने का वर्णन है। वह आगे लिखते हैं कि इससे भी अधिक पुष्ट प्रमाण हमें इस विषय में मिले हैं जिनसे अमैथुनी सृष्टि के हिमालय में होने का निश्चय होता है।  जिस मेरू स्थान का महाभारत के उक्त श्लोकों में निर्देष किया गया है, उसी के पास देविका पंचमे पाशर्वे मानसं सिद्धसेवितम् अर्थात् देविका के निवास के पश्चिमी किनारे पर मानस है। यह मानस अब एक झील है जो तिब्बत के अन्तर्गत है।  एक बार पुनः महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थ प्रकाश में लिखे उनके शब्दों को देख लेते हैं जिनसे महाभारत के उपर्युक्त वचनों की संगति लगती है – मनुष्यों की आदि सृष्टि त्रिविष्टप अर्थात् तिब्बत में हुई और आर्य लोग सृष्टि के आदि में कुछ काल पश्चात् तिब्बत से सूधे इसी देश भारत में आकर बसे।  इससे पूर्व इस देश का कोई भी नाम नहीं था और कोई आर्यो के पूर्व इस देश में बसते थे। हम समझते है कि इससे भारत ही आर्यो का मूल देश सिद्ध हो जाता है। इसके विपरीत विचार या मान्यतायें कल्पित, पूर्वाग्रहों से युक्त होने व प्रमाणों के अभाव में निरस्त हो जाती है।

 

मन मोहन कुमार आर्य

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श्रीमद्भगवद्गीता व सत्यार्थप्रकाश के अनुसार जीवात्मा का यथार्थ स्वरूप’ -मनमोहन कुमार आर्य

जीवात्मा के विषय में वैदिक सिद्धान्त है कि यह अनादि, अनुत्पन्न, अजर, अमर, नित्य, चेतन तत्व वा पदार्थ है। जीवात्मा जन्ममरण धर्मा है, इस कारण यह अपने पूर्व जन्मों के कर्मानुसार जन्म लेता है, नये कर्म करता व पूर्व कर्मों सहित नये कर्मों के फलों को भोक्ता है और आयु पूरी होने पर मृत्यु को प्राप्त होता है। संसार में हम जितनी भी प्राणी योनियां देखते हैं, इनमें से प्रायः सभी योनियों में हमारा जन्म हो चुका है। आज यद्यपि हम मनुष्य हैं परन्तु इससे पूर्व अनेकानेक बार इन सभी पशु व कीट-पतंगों आदि योनियों में भी रहकर हमने अपने पापों को भोगा है। मनुष्य योनि ही कर्म व फल भोग अर्थात् उभय योनि है जिसमें मनुष्य अपने प्रारब्ध के फल भोगने के साथ नये कर्म भी करता है और इससे इसके प्रारब्ध में कमी होकर नया प्रारब्ध बनता है। कर्म-फल सिद्धान्त के अनुसार यह नया प्रारब्ध ही इसके भावी जन्म वा जन्मों का आधार होता है। हम सबका जीवात्मा एक चेतन तत्व है। चेतन तत्व में ज्ञान व कर्म का होना स्वाभाविक गुण व धर्म है। जीवों में दो प्रकार के ज्ञान व गुण होते हैं, प्रथम स्वाभाविक व दूसरा नैमित्तिक। स्वाभाविक गुणों को नैमित्तिक गुणों के द्वारा जीवात्मा मनुष्य योनि में सुधारता है व बिगाड़ता भी है। सद्गुणों व सदाचरण से यह देव कोटि वा दुगुर्णों एवं दुराचार से यह असुर कोटि का मानव बनता है। देव कोटि उन्नत व विकसित जीवन होता है और असुरत्व का जीवन गिरावट व अवनति का होता है। प्रत्येक मनुष्य को बुराईयों वा असुरत्व को छोड़कर कर गुणी, विद्वान, सदाचारी व देवत्व कोटि को प्राप्त करना चाहिये।

 

आज के लेख में हम जीवात्मा के बारे में विचार कर रहे हैं। इसका कारण है कि या तो हम जीवात्मा के विषय में जानते ही नहीं या बहुत कम जानते हैं। कुछ बन्धु जीवात्मा विषयक मिथ्या ज्ञान भी रखते हैं जिसका कारण आर्ष व सत्य ग्रन्थों का स्वाध्याय न करना व रात्रि दिन धनोपार्जन व सुख-सुविधाओं से युक्त विलासी जीवन व्यतीत करना है। एक कारण आधुनिक गुरूओं के कुचक्र में फंसना भी है। धनोपार्जन में संलग्न, सुख सुविधाओं की मर्यादा का उल्लंघन करने वाले, वैदिक सिद्धान्तों से अपरिचित और पंच महायज्ञ न करने वाले बन्धुओं का जीवन भी कुछ परिस्थितियों को छोड़कर प्रायः अवनत व पतन का ही जीवन होता है। इसी के लिए आजकल अधिकांश संसार के लोग प्रयासरत है। जीवात्मा का यथार्थ स्वरूप जानकर जीवन को सन्तुलित बनाया जा सकता है। आईये, जीवात्मा की चर्चा करें और जीवात्मा का यथार्थ स्वरूप जानने का प्रयत्न करें। जीवात्मा का स्वरूप वर्णित करने वाला श्रीमद्भवगद्गीता ग्रन्थ का एक श्लोक 2/20 प्रस्तुत है। श्लोक है- जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो हन्यते हन्यमाने शरीरे।। गीता के इस श्लोक में बताया गया है कि मनुष्यों व प्राणियों का जीवात्मा अनादि व अनन्त है। यह न कभी पैदा होता है और न मरता है। यह कभी होकर नहीं रहता और फिर कभी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है। यह (अज) अजन्मा अर्थात् अनादि, नित्य, शाश्वत अर्थात् निरन्तर चेष्टाशील सनातन तत्व है। शरीर के मरने वा मारे जाने पर भी यह मरता नहीं है। सो यदि नारियल का छिलका उतर गया तो हाय ! नारियल, हाय ! नारियल चिल्लाना मूर्खता है। हम समझते हैं कि श्लोक का हिन्दी में किया गया अर्थ अत्यन्त सरल है जिसे सभी समझ सकते हैं। इसके प्रति किसी मत-मतान्तर को भी कोई आपत्ति नहीं है अन्यथा वह इसका खण्डन अवश्य करते। इसका अर्थ यह भी है कि सभी मतों को जीवात्मा का यह यथार्थ स्वरूप स्वीकार है। गीता में इसके बाद अन्य श्लोकों में भी अनेक महत्वपूर्ण बातें कही गयीं हैं। एक अन्य श्लोक है- वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृहणाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।22।।  इसमें कहा गया है कि जिस प्रकार मनुष्य फटे पुराने वस्त्र उतार कर दूसरे नये वस्त्र ग्रहण कर लेता है इसी प्रकार देही=जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर नये दूसरे शरीर को ग्रहण कर लेता है। इस श्लोक में मनुष्य शरीर की उपमा वस्त्रों से दी गई है जो कि यथार्थ ही है। यह श्लोक जीवात्मा विषयक विश्व साहित्य में अत्युत्तम व अन्यतम है। इसके अगले श्लोक में तो जीवात्मा के विषय में बहुत ही महत्वपूर्ण बातें कहीं गई हैं। श्लोक है- नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। चैनं क्लेदयन्त्यापो शोषयति मारूतः।।23।। अर्थात् इस शरीर के स्वामी जीवात्मा को शस्त्र काट नहीं सकते। आग जला नहीं सकती। पानी गीला नहीं कर सकता और पवन वा वायु जीवात्मा को सुखा नहीं सकता।

 

यद्यपि गीता का दूसरा अध्याय पूरा ही पठनीय है और हम पाठकों से इसे पढ़ने की भी सलाह देंगे तथापि हम कुछ अन्य मुख्य श्लोक पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। अच्छेद्योऽयमदाह्याऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।24।।, ‘अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते। अस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।25।।, ‘अथ चैनं नित्यजातं नित्य वा मन्यसे मृतम्। तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।26।।, ‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्र्रवं जन्म मृत्स्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे त्वं शोचितुमर्हसि।।27।। तथाअव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यान भारत। अव्यक्तनिधनान्येव तव का परिदेवना।।28।।

 

अब इन श्लोकों के अर्थ पर भी दृष्टि डाल लेते हैं। श्लोकार्थ- यही नहीं कि लोग इस जीवात्मा को काटते नहीं, किन्तु यह कट नहीं सकता-यह अच्छेद्य है। यह जल भी नहीं सकता-यह अदाह्य है। यह गल नहीं सकता-यह अक्लेद्य है। यह सूख नहीं सकता-यह अशोष्य है। जीवात्मा नित्य है, सम्पूर्ण देह में अपनी शक्ति के विस्तार से व्यापक है। जीवात्मा स्थिर है, अचल है, सनातन है।।24।। यह जीवात्मा छिपा हुआ है। यह एक परमाणु (जीवात्मा) किस प्रकार अनादि अनन्त शक्ति लिए हुए है, यह अचिन्त्य है। इसकी चेतना सुप्त हो सकती है, परन्तु लुप्त नहीं हो सकती। इस दृष्टि से यह अविकार्य है। इसको इस प्रकार का जान कर किसी मनुष्य की मृत्यु पर शोक करना उचित नहीं है।।25।। गीता के छब्बीसवें श्लोक में श्रीकृष्ण जी अर्जुन को कहते हैं कि हे अर्जुन ! जीवात्मा या तो अजर, अमर, अविनाशी है या क्षण भंगुर है, यह दो ही पक्ष हो सकते हैं। यदि यह अजर अमर है तो क्षण-भंगुर देह के जाने से इसका बिगड़ा क्या? और यदि यह नित्य मृत है तब तो जब स्वामी ही नहीं रहा फिर तो किसी का कुछ बिगड़ा ही नहीं। जब भोगने वाला ही न रहा तो रोयें किसे? इसलिये हे महाबाहो अर्जुन ! उस अवस्था में तो तुम्हें सुतरां शोक करना उचित नहीं। इस संसार में कोई अनहोनी घटना अचानक हो जाय तो धक्का भी लगे परन्तु सभी मनुष्यों का कालान्तर में मरना तो सुनिश्चित है। इसके अगले श्लोक (जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु) जो पैदा हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है, जो मरा है उसका जन्म निश्चित है। इस प्रकार जो अवश्यमेव हो के रहने वाली बात है उस पर शोक मनाना उचित नहीं। गीता के इस श्लोक में पुनर्जन्म के सिद्धान्त का बहुत ही सुन्दरता से वर्णन मिलता है। हमें लगता है कि इतना सुन्दर निश्चयात्मक वर्णन अन्यत्र दुर्लभ है। गीता के दूसरे अध्याय के इन्हीं श्लोको से अर्जुन का विषाद दूर हुआ था। जो भी दुःखी व्यक्ति इस अध्याय का अध्ययन करता है वह शोक रहित हो जाता है, ऐसा हमारा मानना है। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि मृतक का पुनर्जन्म को निश्चयात्मक घोषित करने से मृतक श्राद्ध करना अनुचित व अनुपयोगी सिद्ध होता है। मृतक श्राद्ध की यह परम्परा जितनी जल्दी समाप्त हो जाये अच्छा है क्योंकि इससे जाति का बहुमूल्य समय एक अनावश्यक कार्य पर व्यय होने के साथ धन का भी अपव्यय होता है। अतिनिर्धन लोगों के लिए तो यह अभिशाप है जिन्हें इस कुप्रथा के पालन के लिए दूसरों से कर्ज लेना पड़ता है। गीता के अगले अट्ठाईसवें श्लोक में श्री कृष्ण जी अर्जुन को कहते हैं कि इस संसार में प्राणीमात्र का आदि अव्यक्त है, अन्त अव्यक्त है। केवल मध्य अर्थात् वर्तमान थोड़ी देर के लिए स्पष्ट होता है। अतः जिसके जन्म से पूर्व का पता नहीं, मृत्यु के बाद का पता नहीं तो ऐसी रहस्य में छिपी हुई जीवात्मा के लिए रोना धोना क्या?

 

महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थ प्रकाश में भी जीव के स्वरूप, कर्तव्य व लक्षण आदि की चर्चा कर महत्वपूर्ण तथ्यों को प्रकाशित किया है। वह लिखते हैं कि जीव और ईश्वर का स्वरूप, गुण, कर्म और स्वभाव कैसा है? इसका उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि दोनों चेतनस्वरूप हैं। स्वभाव दोनों का पवित्र, अविनाशी और धार्मिकता आदि है। परन्तु परमेश्वर के सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, सब को नियम में रखना, जीवों को पाप पुण्यों के फल देना आदि धर्मयुक्त कर्म हैं। और जीव के सन्तानोत्पत्ति, उन का पालन, शिल्पविद्या आदि अच्छे-बुरे कर्म हैं। ईश्वर के नित्यज्ञान, आनन्द, अनन्त बल आदि गुण हैं। और जीव के- इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनोलिंगमिति।। (न्याय दर्शन) एवं प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवन मनोगतीन्द्रियान्तर्विकाराः। सुखदुःखइच्छाद्वेषौप्रयत्नाश्चात्मनोलिंगानि।। (वैशेषिक दर्शन) सूत्रार्थः (इच्छा) पदार्थों की प्राप्ति की अभिलाषा (द्वेष) दुःखादि की अनिच्छा, वैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ, बल, (सुख) आनन्द, (दुःख) विलाप, अप्रसन्नता, (ज्ञान) विवेक, पहिचानना, ये तुल्य हैं, परन्तु वैशेषिक में (प्राण) प्राणवायु को बाहर निकालना, (अपान) प्राण को बाहर से भीतर को लेना, (निमेष) आंख को मींचना, (उन्मेष) आंख को खोलना, (जीवन) प्राण का धारण करना, (मन) निश्चय, स्मरण और अहंकार करना, (गति) चलना, (इन्द्रिय) सब इन्द्रियों को चलाना, (अन्तर्विकार) भिन्न भिन्न क्षुधा, तृषा, हर्ष शोकादियुक्त होना, ये जीवात्मा के गुण परमात्मा से भिन्न हैं। इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी, क्योंकि वह स्थूल नहीं है। जब तक आत्मा देह में होता है, तभी तक ये गुण प्रकाशित रहते हैं और जब शरीर छोड़ कर चला जाता है, तब ये गुण शरीर में नहीं रहते। जिस के होने से जो हों, और न होने से न हों, वे गुण उसी के होते हैं। जैसे दीप और सूर्यादि के न होने से प्रकाशादि का न होना और होने से होना है, वैसे ही जीव और परमात्मा का विज्ञान, गुणों के द्वारा होता है। जीवात्मा विषयक यथार्थ ज्ञान का महर्षि दयानन्द का यह उपदेश पाठको को उनकी अमृतमय देन है।

 

गीता व महर्षि दयानन्द की मान्यताओं के आधार पर जीवात्मा के यथार्थ स्वरूप का लेख में चित्रण हुआ है। इसे जानकर व समझकर कर ही मनुष्य मोह व शोक से मुक्त होता है। अतः यह ज्ञान विद्यार्थी जीवन में ही मनुष्यों को करा दिया जाना उचित है। महर्षि दयानन्द ने जीवात्मा के यथार्थ स्वरूप को जाना था। इसीलिए उन्होंने मृत्यु से पूर्व अपने प्राणों के उत्सर्जन का समय निश्चित कर अपने अनुयायियों से वार्तालाप कर उनको समझाया, कुछ को पुरुस्कार आदि दिये, सान्त्वनायें दीं, शौर कर्म कराया, शरीर को स्वच्छ किया, स्वच्छ वस्त्र धारण किये और ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना पूर्वक प्राणायाम के द्वारा अपनी आत्मा को शरीर से बाहर निकाल दिया। ऐसा दृश्य विश्व इतिहास में अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता। गीता में जीवात्मा का जो स्वरूप वर्णित है वही इसका वैदिक स्वरूप है। सभी मनुष्यों को इसे जानकर वैदिक विधि से ही ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना करनी चाहिये और अवैदिक मूर्तिपूजा आदि से बचना चाहिये जिससे कि मृत्योत्तर जीवात्मा उन्नति व ईश्वर की निकटता को प्राप्त हो।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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“अमर शहीद भगत सिंह को श्रद्धाजंली” -मनमोहन कुमार आर्य।

देश को अंग्रेजों के अत्याचारों से मुक्त कराने तथा गुलामी दूर कर देशवासियों को स्वतन्त्र कराने के स्वप्नद्रष्टा शहीद भगत सिंह जी का २८ सितम्बर को 109 वां जन्म  दिवस था। शहीद भगद सिंह ने देश को स्वतन्त्र कराने के लिए जो देशभक्ति के साहसिक कार्य किये और जेल में यातनायें सहन कीं, उन्हें देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वह देशभक्त, वीर, साहसी, बलिदानी भावना वाले भारत माता के ऐसे पुत्र थे जिन पर भारतमाता व देश को गर्व है। हमें यह पंक्तियां लिखते हुए उनके जीवन की वह घटना याद आ रही है जब कोर्ट में हसंने पर अंग्रेज न्यायाधीश ने उनसे कहा था कि यह कोर्ट का अपमान है। इस पर वह बोले थे कि जज महोदय, मैं तो फांसी के फन्दे पर खड़ा हो कर भी हंसूगां, तब यह किस कोर्ट का अपमान होगा?

भगत सिंह जी के पिता का नाम सरदार किशन सिंह, माता का नाम विद्यावती और दादा का नाम सरदार अर्जुन सिंह था। आपका पूरा परिवार सिख होकर भी आर्यसमाजी था। सरदार अर्जुन सिंह जी के बारे में तो हमने पढ़ा है कि वह जब कहीं जाते थे तो हवन कुण्ड उनके साथ होता था और वह प्रतिदिन हवन करते थे। भगत सिंह जी दयानन्द ऐग्लो वैदिक स्कूल में पढ़े थे तथा भाई परमानन्द जैसे महर्षि दयानन्द जी के प्रसिद्ध क्रन्तिकारी भक्त उनके मार्गदर्शक थे। भगत सिंह जी का यज्ञोपवीत संस्कार भी हुआ था जो आर्य समाज के पुरोहित पं. लोकनाथ तर्क वाचस्पति जी ने कराया था। अमेरिका यान से अन्तरिक्ष वा चन्द्रमा में जाने वाले श्री राकेश शर्मा पं. लोकनाथ जी के ही पौत्र हैं। यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि साण्डर्स को गोली मारने के बाद भगतसिंह जी वेश बदल कर कोलकत्ता गये थे और वहां आर्यसमाज में निवास किया था। आप जब कलकत्ता से अन्यत्र गये तो अपने भोजन के बर्तन वहीं आर्यसमाज के सेवक को दे आये थे और उससे कहा था कि इनमें किसी देशद्रोही को भोजन मत कराना।

 

पंजाब केसरी लाला लाजपतराय महर्षि दयानन्द के शिष्य थे। वह कहते थे कि आर्य समाज मेरी माता है और महर्षि दयानन्द मेरे पिता हैं। आजादी के आन्दोलन में लाला लाजपत राय और भगतसिंह के चाचा श्री अजीत सिंह, यह दो ही ऐसे वीर क्रान्तिकारी थे जिन्हें जलावतन अर्थात् देश निकाला दिया गया था और यह दोनों ही महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज के अनुयायी थे। लाला लाजपत राय पर अंग्रेजों ने जो लाठियां बरसाईं थी, उसका बदला लेने की कसम ही भगत सिंह जी ने खाई थी और उसी कारण उन्होंने साण्डर्स को अपनी पिस्तौल का निशाना बनाया था। इस देश भक्ति के गौरवपूर्ण कार्य के लिए उन्हें व उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरू को भी उनके साथ फांसी दी गई थी। हमें याद है कि हमने अपनी 12 वर्ष की आयु में सन् 1964 में फिल्म कलाकार मनोज कुमार निर्मित शहीद फिल्म देखी थी। लगभग 7 या 8 बार हमने चकरौता के सैनिक सिनेमाघर में इसे देखा था। चकरौता में हमारे पिता सैनिक क्षेत्र में उन दिनों कार्य करते थे और हम गर्मीयों के स्कूल के अवकाश में वहां गये हुए थे। हमें अभी तक याद है कि इस फिल्म को देखकर ही हमने भगत सिंह और अन्य देशभक्तों से प्रेरणा ग्रहण की थी। तभी से इस फिल्म के प्रायः सभी गाने हमें स्मरण थे और हम विद्यार्थी काल में इन्हें प्रायः गुनगुनाया करते थे। 1- मेरा रंग दे बसन्ती चोला, 2- वतन, वतन हमको तेरी कसम, तेरी राह में जान तक लुटा जायेंगे, फूल क्या चीज है तेरे कदमों में हम, भेंट अपने सरों की चढ़ा जायेंगे तथा 3- सरफरोसी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजूएं कातिल में है, आदि इसके प्रमुख गीत थे।

 

शहीद भगत सिंह जी के जन्म दिवस पर हमारी उनको श्रद्धांजलि है।

 

मनमोहन कुमार आर्य 

ईसा (यीशु) एक झूठा मसीहा है – पार्ट 1

सभी आर्य व ईसाई मित्रो को नमस्ते।

प्रिय मित्रो, जैसे की हम सब जानते हैं – हमारे ईसाई मित्र – ईसा मसीह को परम उद्धारक और पापो का नाशक मानते हैं – इसी आधार पर वो अपने पापो के नाश के लिए ईसा को मसीह – यानी उद्धारक – खुदा का बेटा – मनुष्य का पुत्र – स्वर्ग का दाता – शांति दूत – अमन का राजकुमार – आदि आदि अनेक नामो से पुकारते हैं –

इसी आधार ईसा को पापो से मुक्त करने वाला और – स्वर्ग देने हारा – समझकर – अनेक हिन्दुओ का धर्म परिवर्तन करवाकर – उन्हें स्वर्ग की भेड़े बनने पर विवश करते हैं – ईसा का पिछलग्गू बना देते हैं – नतीजा – हिन्दू समाज धर्म को त्याग कर – मात्र स्वर्ग के झूठे लालच में ईसा के पीछे भटकता रहता है –

सोचने वाली बात है – ईसाई जो ऐसा षड्यंत्र रच रहे की ईसा से पाप मुक्ति होगी और ईसा को मानने वाला स्वर्ग में प्रवेश करेगा – क्या ये वास्तव में होगा ? क्या ये षड्यंत्र है अथवा सत्य ? क्या कभी धर्म को त्याग कर मनुष्य केवल एक भेड़ बन जाने से स्वर्ग पा सकता है ?

क्या कहती है बाइबिल ?

बाइबिल के अनुसार – सच्चे मसीह को पहिचानने के लिए बाइबिल में कुछ भविष्यवाणियां की गयी थी – जो उन भविष्यवाणियों पर खरा उतरेगा वो ही मसीह कहलायेगा – और जो भविष्यवाणियों पर खरा नहीं उतरेगा वो झूठा मसीह होगा – ऐसे मसीह अनेक आएंगे – जो खुद को ईसा और पाप का नाशक कहेंगे – मगर लोगो को सावधान रहकर – सच्चे मसीह पर विश्वास करना होगा – जो झूठे मसीह पर विश्वास करेगा – वो पापी ही कहलायेगा – वो कभी स्वर्ग नहीं जा सकता – ये बाइबिल का कहना है।

आइये एक नजर डाले – जिस ईसा पर विश्वास करके हमारे ईसाई भाई – हिन्दुओ को बहका कर उनका धर्म परिवर्तन कर रहे – वो ईसा क्या सचमुच बाइबिल के आधार पर – मुक्तिदाता है ? क्या वाकई ये ईसा – कोई मसीह है ? क्या वाकई ईसा पर विश्वास करने से मनुष्य स्वर्ग जाएगा ? कहीं ये कोई ढकोसला, अन्धविश्वास या षड्यंत्र तो नहीं ?

आइये एक नजर इसपर भी की क्या ये ईसा वही मसीह है जो खुदा का बेटा है – ये वही मसीह है जो मनुष्यो को पाप मुक्त करके स्वर्ग और सुख शांति देगा ?

मुख्यरूप से तीन भविष्यवाणियां हैं – जिनके द्वारा सच्चे मसीह को पहिचाना जा सकता है – लेकिन “ईसा” इन मुख्य तीन भविष्यवाणियों पर खरा नहीं उतरता – आइये देखे –

पहली भविष्यवाणी –

23 कि, देखो एक कुंवारी गर्भवती होगी और एक पुत्र जनेगी और उसका नाम इम्मानुएल रखा जाएगा जिस का अर्थ यह है “ परमेश्वर हमारे साथ”। (मत्ती अध्याय १)

इस भविष्यवाणी में कहा गया की एक कुंवारी गर्भवती होगी और एक पुत्र जनेगी – उसका नाम “इम्मानुएल” रखा जाएगा – लेकिन सच्चाई ये है की “ईसा” को पूरी बाइबिल में – कहीं भी – किसी ने भी – यहाँ तक की ईसा के माता पिता ने भी ईसा को “इम्मानुएल” नाम से नहीं पुकारा – न ही इस बच्चे का नाम “इम्मानुएल” रखा – देखिये –

25 और जब तक वह पुत्र न जनी तब तक वह उसके पास न गया: और उस ने उसका नाम यीशु रखा॥

जब भविष्यवाणी ही “इम्मानुएल” नाम की हुई तो क्यों “ईसा” नाम रखा गया ?

दूसरी भविष्यवाणी –

3 अपने पुत्र हमारे प्रभु यीशु मसीह के विषय में प्रतिज्ञा की थी, जो शरीर के भाव से तो दाउद के वंश से उत्पन्न हुआ। (रोमियो अध्याय १)

29 हे भाइयो, मैं उस कुलपति दाऊद के विषय में तुम से साहस के साथ कह सकता हूं कि वह तो मर गया और गाड़ा भी गया और उस की कब्र आज तक हमारे यहां वर्तमान है।
30 सो भविष्यद्वक्ता होकर और यह जानकर कि परमेश्वर ने मुझ से शपथ खाई है, कि मैं तेरे वंश में से एक व्यक्ति को तेरे सिंहासन पर बैठाऊंगा। (प्रेरितों के काम, अध्याय २)

यहाँ से साफ़ है – भविष्यवाणी हुई थी की दाऊद के वंश से – खासकर “शारीरिक वंशज” – यानी दाऊद के वंश में संतानोत्पत्ति (सेक्स) करके उत्पन्न होगा – वो मसीह होगा – लेकिन हमारे ईसाई मित्र तो कहते हैं की – मरियम – कुंवारी ही गर्भवती हुई ?

इसका मतलब – मरियम के साथ – सेक्स नहीं हुआ – फिर दाऊद का वंशज जो सिंघासन पर बैठना था – वो ईसा कैसे ?

तीसरी भविष्यवाणी –

16 क्योंकि उस से पहिले कि वह लड़का बुरे को त्यागना और भले को ग्रहण करना जाने, वह देश जिसके दोनों राजाओं से तू घबरा रहा है निर्जन हो जाएगा। (यशायाह, अध्याय 7)

यहाँ भविष्यवाणी में बताया जा रहा है – जब वो मसीह परिपक्वता, सिद्धि – प्राप्त कर लेगा – उससे पहली ही यहूदियों के दोनों देश तबाह और बर्बाद हो जाएंगे – बाइबिल के नए नियम में – इस भविष्यवाणी के बारे में कोई खबर नहीं है – यानी ईसा को जब सिद्धि हुई – तब यहूदियों के दोनों देश बर्बाद हुए – इस बारे में – नया नियम खामोश है –

इन सभी मुख्य तीन भविष्यवाणियों से सिद्ध होता है – की ईसाई समाज जिस ईसा को – खुदा का बेटा – पाप नाशक – और स्वर्ग का दाता – कहते और मानते हैं – वो ईसा तो बाइबिल के आधार पर ही – मसीह सिद्ध नहीं होता – फिर क्यों – हिन्दुओ को मुर्ख बनाकर – उनको धर्मभ्रष्ट कर के – स्वर्ग का लालच देते हैं ?

मेरे ईसाई मित्रो – ये इस कड़ी का पहला भाग है – इसका दूसरा भाग जल्दी ही मिलेगा – जिसमे – खंडन होगा ईसाइयो के उस षड्यंत्र का जिसमे जबरदस्ती ईसा को मसीह सिद्ध करने की चाल ईसाई मिशनरी – चल रही – और मनुष्य को ईश्वर की जगह शैतान की राह पर चलाने का षड्यंत्र कर रही हैं।

अभी भी समय है – मनुष्य जीवन का लाभ उठाओ – धर्म की और आओ – हिन्दुओ भेड़ बनने से अच्छा है – मनुष्य ही बने रहो – वेद की और लौटो – अपने आप ही ये धरती स्वर्ग बन जायेगी –

लौटो वेदो की और

नमस्ते

 

जीव फल भोगने में परतन्त्र क्यों? – इन्द्रजित् देव

प्रत्येक जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है। वह चाहे जैसा कर्म करे, यह उसकी स्वतन्त्रता है। अपने विवेक, ज्ञान, बल, साधन, इच्छा व स्थिति के अनुसार ही कर्म करता है परन्तु अपनी इच्छानुसार वह फल भी प्राप्त कर ले, यह निश्चित नहीं। इसे ही दर्शनान्दु सार फल भोगने में परतन्त्रता कहते हैं।

कर्म का कर्त्ता व इसका फल भोक्ता जीव है परन्तु वह फलदाता नहीं। यही न्याय की माँग है। फलदाता स्वयं बन जाता तो पक्षपात व अन्यय सर्वत्र व्याप्त हो जाएगा। हम लोग-समाज में देखते हैं कि हम कर्म किए बिना फल चाहते हैं। फल भी ऐसा चाहते हैं जो सुखदायक हो। यदि हम चाहते-न-चाहते हुए पाप कर्म कर लेते हैं तो भी फल तो पुण्यकर्म का चाहते हैं-

फलं पापस्य नेछन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः।

फलं धर्मस्य चेछन्ति धर्मं न कुवन्ति मानवाः।।

हमारी इच्छानुसार व्यवस्था हो जाए तो अनाचार, अन्याय व अव्यवस्था का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। अतः ईश्वर ने जीव को कर्म करने की स्वतन्त्रता प्रदान कर रखी है तथा कर्मों का फलदाता वह स्वयं ही है। इससे व्यवस्था ठीक रखन में सहायता मिलती है। यदि हमारी इच्छानुसार ही व्यवस्था हो जाए व हम न्याय व सत्य को तिलाञ्जलि देकर कर्म करेंगे तो समाज में अनाचार, अव्यवस्था व अत्याचार का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। अतः ईश्वर ने जीवों को केवल कर्म करने की स्वतन्त्रता प्रदान की तथा कर्मफल का अधिकार अपने पास ही रखा है। फल भोगने में परतन्त्रता का दूसरा कारण यह है कि जीव सर्वज्ञ नहीं है। दूसरों के कर्मों को जानना तो दूर की बात है, वह अपने सभी कर्मों को भी पूर्णतः नहीं जानता। कर्मों की संया न उनका शुभ-अशुभ होना, पापयुक्त या पुण्ययुक्त होना, किस कर्म का क्या फल है- इन बातों की जानकारी जीव को नहीं होती। मनुष्य योनि में रह रहे जीव को यदि तनिक-सा ऐसा ज्ञान हो भी जाए पर मनुष्येतर योनियों में तो ज्ञान होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। मनुष्येतर योनियों में जीव केवल आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन- इन चार कर्मों से अधिक कर्म करने की क्षमता, ज्ञान व इच्छा नहीं होती। मनुष्य योनि में आया जीव उपरोक्त चार कर्मों के अतिरिक्त धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि से युक्त कर्म करने का सामर्थ्य रखता है परन्तु वह भी एक सीमा तक। अपनी सीमा में रहकर भी अपने सब कर्मों को स्मरण रखना व उनका निर्णय करने की पूर्ण क्षमता जीव में है ही नहीं।

तीसरा कारण यह है कि जीव को फल प्राप्त करने हेतु शरीर, आयु व भोग पदार्थों की आवश्यकता है। शरीर रहित जीव को यह भी बोध नहीं होता कि वह है भी अथवा नहीं। प्राण, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेंन्द्रियाँ, मन व बुद्धि आदि के बिना वह ऐसे रहता है, जैसे अस्पताल में मूर्च्छित अवस्था में एक व्यक्ति पड़ा रहता है। तब उसे अनुभव नहीं होता कि वह है भी अथवा नहीं। वह कौन है, कहाँ है, क्यों है, यह भी ज्ञात नहीं होता। अंग-प्रत्यंग, श्वास-प्रश्वास आदि को प्राप्त करके ही जीव फल भोगने में समर्थ होता है। ये वस्तुएँ उसे पूर्व जन्मों के कृत कर्मों के अनुसार ही प्राप्त होती हैं।

इस सबन्ध में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का निनलिखित लेख विषय को अधिक स्पष्ट करता है-

प्रश्नजीव स्वतन्त्र है वा परतन्त्र?

उत्तरअपने कर्त्तव्य- कर्मों में स्वतन्त्र और ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। ‘स्वतन्त्र कर्त्ता’ यह पाणिनीय व्याकरण का सूत्र (=अष्टा. 1/4/54) है जो स्वतन्त्र अर्थात् स्वाधीन है, वही कर्त्ता है।

प्रश्नस्वतन्त्र किसको कहते हैं?

उत्तरजिसके अधीन शरीर, प्राण, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण आदि हों। जो स्वतन्त्र न हो तो उसको पाप-पुण्य का फल प्राप्त कभी नहीं हो सकता क्योंकि जैसे भृत्य, स्वामी और सेना, सेनाध्यक्ष की आज्ञा अथवा प्रेरणा से युद्ध में अनेक पुरुषों की मार के भी अपराधी नहीं होते, वैसे परमेश्वर की प्रेरणा और अधीनता से काम सिद्ध हों तो जीव की पाप वा पुण्य न लगे। उस फल का भागी भी प्रेरक परमेश्वर होवे। नरक-स्वर्ग अर्थात् दुःख-सुख की प्राप्ति भी परमेश्वर की होवे। जैसे किसी मनुष्य ने शस्त्र-विशेष से किसी को मार डाला तो वही मारने वाला पकड़ा जाता है और दण्ड पाता है, शस्त्र नहीं, वैसे पराधीन जीव पाप-पुण्य का भागी नहीं हो सकता। इसीलिए सामर्थ्यानुकूल कर्म करने में जीव स्वतन्त्र परन्तु जब वह पाप कर चुकता है, तब ईश्वर की व्यवस्था में पराधीन होकर पाप के फल भोगता है। इसीलिए कर्म करने में जीव स्वतन्त्र और पाप के दुःख रूप फल और पुण्य के सुख रूप फल भोगने में परतन्त्र होता है।

प्रश्नजो परमेश्वर जीव को न बनाता और सामर्थ्य न देता तो जीव कुछ भी न कर सकता। इसलिए परमेश्वर की प्रेरणा ही से जीव कर्म करता है।

उत्तरजीव उत्पन्न कभी न हुआ, अनादि है। जैसा ईश्वर और जगत् का उपादान कारण नित्य है और जीव का शरीर तथा इन्द्रियों के गोलक परमेश्वर के बनाए हुए हैं परन्तु वे सब जीव के अधीन है। जो कोई मन, कर्म, वचन से पाप-पुण्य करता है, वही भोक्ता है, ईश्वर नहीं।’’

– सत्यार्थप्रकाश, सप्तम समुल्लास

– चूना भट्ठियाँ, सिटी सेन्टर के निकट, यमुनानगर-135001 (हरियाणा)