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‘शहीद ऊधम सिंह जी की जयंती पर उनकी देशभक्ति के जज्बे को प्रणाम’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

आज देश की आजादी के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले देशभक्त अमर शहीद श्री ऊधम सिंह जी की 116 वीं जयन्ती है। शहीद ऊधम सिंह जी ने मानवता के इतिहास की एक निकृष्टतम नरसंहार की घटना जलियावाला बाग नरसंहार काण्ड के मुख्य दोषी पजांब के तत्कालीन गर्वनर माइकेल ओडायर को लन्दन में जाकर 13 मार्च, सन् 1940 को गोली मार कर अपनी प्रतिज्ञा को पूरा किया था। देश की आजादी के दीवाने और भारत माता के वीर देशभक्त महान पुत्र शहीद ऊधम सिंह पर देश को गर्व है। आज का दिन देश के प्रति उनके जज्बे और कुर्बानी को याद करने व उससे प्रेरणा लेने का दिन है।

 

शहीद ऊधम सिंह, पूर्वनाम शेर सिंह, का जन्म जिला संगरूर पंजाब के सुनाम स्थान पर 26 दिसम्बर, सन् 1899 को हुआ था। श्री चुहड़ सिंह उनके पिता थे जो रेलवे में नौकरी करते थे। आपकी माताजी का देहान्त सन1 1901 में आपकी 2 वर्ष की अवस्था में हो गया था। सन् 1907 में आपके पिता भी दिवगंत हो गये थे। आठ वर्षीय ऊधम सिंह जी व उनके भाई मुक्तासिंह का पालन अमृतसर के केन्द्रीय खालसा अनाथालय, पुतलीघर में हुआ जहां आप सन् 1919 तक रहे। 14 अप्रैल सन् 1919 को बैसाखी थी। इस दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में रालेट एक्ट के विरोध में सभा हुई जिसमें बड़ी संख्या में स्त्री-पुरुष और बच्चे सम्मिलित थे। इस सभा में बिना किसी चेतावनी दिये अंहिसक व शान्त देशवासियों पर ब्रिगेडियर जनरल डायर के आदेशों से उनके सैनिकों ने अन्धाधुन्ध गोलिया चलाई जिससे वहां 379 लोग मरे तथा लगभग 1200 लोग घायल हो गये। सरदार ऊधम सिंह वहां अपने एक साथी के साथ लोगों को जल पिलाने का काम कर रहे थे। इस नरसंहार को आपने अपनी आंखों से देखा। इस घटना से 20 वर्षीय युवक ऊधम सिंह का खून खौल उठा। उन्होंने घायलों की सेवा की। वहां से बाहर निकाल कर उन्हें सेवा व राहत शिविरों में पहुंचाया। बाद में इस अमानवीय घटना से सन्तप्त उन्होंने प्रतीज्ञा की कि इस घटना के दोषी व्यक्ति को उसकी जान लेकर सबक सिखायेंगे। इसके बाद यही संकल्प इनके जीवन का लक्ष्य बन गया।

 

अपनी शपथ वा प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए ऊधम सिंह जी लन्दन पहुंचे। वहां सौभाग्य से उन्हें अपना उद्देश्य पूरा करने का अवसर मिल गया। 13 मार्च, 1940 को लन्दन के कैक्सन हाल में ईस्ट इंडिया एसोसियेशन तथा केन्द्रीय एशियन सोसायटी की एक बैठक थी जिसमें माइकेल ओडायर को भाषण देना था। ऊधम सिंह जी ने अपनी रिवालवर को अपने कोट की जेब में छुपाया जो उन्हें मालिसियान पंजाब के श्री पूरन सिंह बोघन से मिली थी। इसके बाद वह कैक्सन हाल में प्रविष्ट हुए और वहां एक सीट पर बैठ गये। जैसे ही मीटिंग समाप्त हुई, सरदार ऊधम सिंह ने अपनी पिस्तौल से माइकेल ओडायर पर दो फायर किये जिससे वह वहीं पर ढ़ेर हो गये। इस घटना में माइकेल ओडायर के समीप विद्यमान तीन अन्य व्यक्ति भी घायल हुए। घटना के बाद ऊधम सिंह जी ने घटना स्थल से भागने का प्रयास नहीं किया, वह वहीं पर खड़े रहे और स्वयं को गिरफ्तार करा दिया। इस प्रकार उन्होंने 14 अप्रैल, 1919 को जालियावालां बाग नरसंहार की अमानवीय घटना का 21 वर्ष बाद बदला लेकर अमानवीय कार्य करने वाले शासक व शोषक लोगों को देशभक्तों की भावनाओं से परिचित कराया। हमें लगता है कि इस घटना का देश की आजादी में महत्वपूर्ण योगदान है। इस घटना ने लन्दन में रह रहे अंग्रेजों को कुछ सोचने पर अवश्य मजबूर किया होगा।

 

ऊधम सिंह जी की गिरफ्तारी के बाद उन पर मुकदमा चला। 1 अप्रैल, 1940 को औपचारिक रूप से उन पर माइकेल ओडायर की हत्या का आरोप स्थापित किया गया। जेल में रहते हुए उन्होंने 42 दिनों की लम्बी भूख हड़ताल भी की थी जिसे बलात् तोड़ा गया था। 4 जून से उन पर मुकदमा चला और उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। ऊधम सिंह जी ने कोर्ट में अपने बयान में कहा था कि ‘‘मैंने माइकेल ओडायर को मारा है क्योंकि मैं उनसे नफरत करता था। वह मेरे द्वारा की गई इस हत्या के पात्र थे। वह जलियावालां बाग नरसंहार के असली दोषी थे। उन्होंने मेरे देशवासियों की भावनाओं को कुचला, इसलिये मैंने उन्हें कुचल दिया। 21 वर्षों तक मैं उनसे जलियावालां बाग नरसंहार का बदला लेने का प्रयत्न करता रहा। मुझे प्रसन्नता है कि मैंने अपना काम पूरा किया। मुझे मौत का डर नहीं है। मैं अपने देश के लिए शहीद हो रहा हूं। ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत मैंने अपने देशवासियों को भूखे मरते देखा है। मैंने इसके विरुद्ध यह आपत्ति की है, यह मेरा कर्तव्य था। अपनी मातृभूमि के लिए मृत्यु का आलिंगन करने से बड़ा दूसरा और क्या सौभाग्य मेरे लिए हो सकता है?’

 

ऊधम सिंह जी को 31 जुलाई, 1940 को पेण्टोविली जेल में फांसी दी गई और जेल में ही उन्हें दफना दिया गया। इस प्रकार भारतमाता का वीर सपूत देश की आजादी और भारतीयों के सम्मान के लिए शहीद हो गया। आज उनकी जयन्ती पर हम उन्हें अपनी श्रद्धाजंलि अर्पित करते हैं। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि इस देश के सभी नागरिक शहीद ऊधम सिंह जी व अन्य क्रान्तिकारियों जैसे हों जायें व भविष्य में भी ऐसे ही हों जिन्हें देश से उनके जैसा ही प्यार हो और उन्हीं की तरह से वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

दूसरों को कुछ देने का नाम यज्ञ है – कन्हैयालाल आर्य

 

अपने धन और पदार्थों में से दूसरों को कुछ बाँटना सीखो, देना सीखो, यही यज्ञ का संदेश है। क्या आपने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि हमारा हाथ है न, कितना भारी अयास है इसका, मुड़कर के सदैव मुख की ओर ही आता है। तात्पर्य यह है कि किसी कक्ष में आप बैठे हुए हैं और अचानक विद्युत् चली जाये तो जो आप खा रहे हैं, क्या आपका हाथ नाक या आँख की ओर जायेगा? बिलकुल नहीं। कितना भी अन्धेरा क्यों न हो, आपका हाथ सीधा मुख की ओर जाता है, कुछ ऊपर-नीचे नहीं गिरता। इतना भारी अयास है कि हाथ मुख की ओर ही जाता है, परन्तु इस हाथ को सीधा रखना सीखो, पहले दूसरों को खिलाओ, फिर अपनी ओर लेकर के आओ, तो उसका स्वाद बढ़ जायेगा और वह भोजन पुण्य बनकर आपका, आपके परिवार का और आपके राष्ट्र का कल्याण करेगा। इसे एक दृष्टान्त से समझते हैं-

एक बार प्रजापति के पास असुर गये और जाकर शिकायत करने लगे- महाराज, आप सदैव देवताओं को उपदेश देते हो, हमें कोई भी उपदेश नहीं देते। आप पक्षपात करते हैं। इस शिकायत को सुनकर प्रजापति ने कहा – ठीक है। इस मास की पूर्णिमा के दिन आपको हम उपदेश देंगे और भोजन भी करायेंगे। यह सुनकर असुर बड़े प्रसन्न हुए, परन्तु प्रजापति ने कहा-हम उस दिन देवताओं को भी बुलायेंगे, उन्हें भी उपदेश करेंगे और आपके साथ-साथ उनको भी भोजन करायेंगे। असुरों ने उत्तर दिया – हमें कोई आपत्ति नहीं है। यह कह कर असुर चले गये।

निश्चित तिथि एवं समय की सूचना प्रजापति ने देवताओं को भी दे दी। पूर्णिमा का दिन आया। असुर और देवता प्रजापति के पास पहुँच गये। असुरों को लगा कि प्रजापति पक्षपात करते हुए पहले देवताओं को भोजन करायेंगे। बचा-खुचा हमें खिलाया जायेगा। असुरों के गुरु ने प्रजापति से कहा- महाराज! आपने हमें पहले निमन्त्रण दिया था या देवताओं को? प्रजापति ने कहा-आपको। असुरों ने कहा – फिर भोजन आप पहले हमें कराओगे या देवताओं को? प्रजापति ने कहा- आपको पहले भोजन कराया जायेगा। यह कहकर प्रजापति ने असुरों को भोजन के लिए पंक्तियों में आमने-सामने बैठने का आदेश कर दिया। असुर लोग बैठ गये। भोजन परोस दिया गया।

ज्यों ही असुरों ने भोजन की ओर हाथ बढ़ाया, प्रजापति ने कहा- रुकिये! भोजन करने से पूर्व मेरी एक शर्त है। तुहारी कोहनियों पर लकड़ी की एक-एक खपच्ची बाँधी जायेगी, तभी आप भोजन कर सकेंगे। ऐसा कहकर प्रजापति ने सभी असुरों की कोहनियों पर वैसा करा दिया और तब भोजन करने का आदेश दे दिया। असुरों ने भोजन का ग्रास उठाया, परन्तु कोहनी पर लकड़ी बँधे रहने के कारण भोजन मुख तक जाने के स्थान पर इधर-उधर अपने मुख, आँख, दाँत, सिर पर गिरने लगा। निश्चित समय हो जाने पर प्रजापति ने असुरों को कहा – अब भोजन खाना बन्द कर दीजिए। भोजन का जितना समय निश्चित था, समाप्त हो गया। बेचारे असुर रुँआसे होकर भूखे ही वहाँ से उठ गये।

अब देवताओं के भोजन करने की बारी थी। देवताओं को भी पंक्तियों में आमने-सामने बिठा दिया गया। भोजन परोस दिया। इसी बीच असुरों के गुरु ने कहा – महाराज, यह तो न्याय नहीं है। आप देवताओं की कोहनियों में लकड़ी की खपच्चियाँ क्यों नहीं बँधवा रहे हैं? प्रजापति ने कहा- देवताओं को भी खपच्चियाँ बाँधी जायेंगी। यह कहकर प्रजापति ने देवताओं की कोहनियों पर भी लकड़ी की खपच्चियाँ बँधवा दीं। देवताओं ने भोजन का ग्रास उठाया, सामने वाले के मुख में दे दिया और सामने वाले ने भी उठाया तथा अपने सामने वाले के मुख में भोजन दे दिया । निश्चित समय से पूर्व ही सभी देवताओं ने तृप्त होकर भोजन कर लिया। यह सब दृश्य असुरों ने देाा तो बहुत लज्जित हुए। असुरों के गुरु ने कहा-महाराज! अब भूखे तो रह गये, कम से कम उपदेश तो कर दो। प्रजापति ने कहा – उपदेश तो मैं कर चुका हूँ । तुहारी समझ में नहीं आया तो मैं क्या कर सकता हूँ? असुर प्रजापति का आशय न समझते हुए पुनः बोले – महाराज, आप ने तो केवल भोजन करने का आदेश दिया है। उपदेश तो बिल्कुल नहीं किया है।

प्रजापति बोले-देखो! भोजन तुहें भी परोसा गया, देवताओं को भी परोसा गया। तुम लोग इसलिए भूखे रह गये कि तुमने स्वार्थवश स्वयं खाने का प्रयास किया, दूसरों को नहीं खिलाया। तुम अकेले खाने का प्रयास करते रहे और सभी भूखे रह गये। देवताओं ने दूसरों को खिलाने में रुचि ली, इसलिए वे तृप्त हो गये। आज का उपदेश यह है कि दूसरों को खिलाना सीखें, तभी आपकी तृप्ति होगी। इसीलिए वेद ने उपदेश दिया है- ‘जो लोग केवल अपने लिए पकाकर खा रहे होते हैं, वे लोग पाप खा रहे होते हैं, अकेले खाने वाला पाप खाता है।’

योगेश्वर कृष्ण ने तो गीता के तीसरे अध्याय के श्लोक संया 12 में अकेले खाने वाले को चोर तक कह डाला है-

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।

तैर्दत्तानप्रदायेयो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।

यज्ञ से प्रसन्न होकर वायु, जल आदि देवता तुहें वे सब सुख प्रदान करेंगे, जिन्हें तुम चाहते हो। जो व्यक्ति उनके द्वारा दिए गए इन उपहारों का उपयोग देवताओं को बिना दिए करता है, वह तो चोर है। यहाँ ‘स्तेन’ शद का उपयोग योगेश्वर कृष्ण जी ने चोर के लिए किया है। जो अपने लिए भोजन पका रहा है, बाँटना नहीं चाहता, वह चोर है। भगवान् कृष्ण ने चोर शद का प्रयोग किया है, यह हमारी आत्मा को झिंझोड़ने वाला, हिलाने वाला शद है।

ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 117 वें सूक्त के मन्त्र संया 6 में अकेला खाने वाला किस प्रकार पापी है, उसका वर्णन इस प्रकार मिलता है-

मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य।

नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी।।

(अप्रचेताः) धनों की अस्थिरता का विचार न करने वाला (अन्नं मोघं विन्दते) अन्न को व्यर्थ ही प्राप्त करता है। प्रभु कहते हैं (सत्यं ब्रवीमि)मैं यह सत्य ही कहता हूँ (सः) वह अन्न व धन (तस्य) उसका (इत्) निश्चय से (वधः) वध का कारण होता है। यह अदत्त अन्न व धन उसकी विलास वृद्धि का हेतु होकर उसका विनाश कर देता है। यह (अप्रचेताः) नासमझ व्यक्ति (न) न तो (अर्यमणम्) राष्ट्र के शत्रुओं का नियमन करने वाले राजा को (पुष्यति) पुष्ट करता है (नो) और न ही (सखायम्) मित्र को। वह कृपण व्यक्ति राष्ट्र रक्षा के लिए राजा को भी धन नहीं देता और न ही इस धन से मित्रों की सहायता करता है। वह दान न देकर (केवलादी) अकेला खाने वाला व्यक्ति (केवलाघः भवति) शुद्ध पाप ही पाप खाने वाला हो जाता है, दूसरों को न बाँटने वाला व्यक्ति ‘चोर’ ही कहलायेगा। जो केवल अपने लिए भोजन पकाते हैं, वे पाप की हंडिया पकाते हैं। यज्ञपूर्वक बाँटकर खाना पुण्य प्राप्ति का मार्ग है।

ब्राह्मण लोक कल्याण के लिए अपना समय ज्ञानोपार्जन तथा ज्ञान दान में लगाता है तथा अपने भोजन में से थेाड़ा-सा भाग बलिवैश्वदेव यज्ञ के लिए निकालता है। यह बलिवैश्वदेव इस बात का प्रतीक है कि ब्राह्मण सदैव इस बात को स्मरण रखें कि यह जो मैं निश्चिन्त होकर ज्ञानोपार्जन कर रहा हूँ, इस निश्चिन्तता के लिए मैं राजा, प्रजा, यहाँ तक कि प्राणीमात्र का ऋ णी हूँ। मुझे लोक कल्याण के लिए जीना है और जीने के  लिए खाना है। इसी प्रकार क्षत्रिय अन्याय निवारण के व्रत के लिए जीता है और जीने के लिए खाता है। वैश्य प्रजा का दारिद्र्य निवारण करने के लिए जीता है और जीने के लिए खाता है। शूद्र किसी न किसी व्रतधारी की सेवा के लिए जीता है और जीने के लिए खाता है। सो लोकसेवा के लिए जीना और जीने के लिए खाना यज्ञशेष खाना है। इसी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए गीता के तीसरे अध्याय 3 श्लोक 13 में इस प्रकार वर्णन है-

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः।

भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।

वे व्यक्ति ही सन्त हैं जो यज्ञ के बाद बची हुई, वस्तु (यज्ञशेष)का उपभोग करते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं, किन्तु जो दुष्ट लोग केवल अपने लिए भोजन पकाते हैं, वे तो समझो पाप ही खाते हैं।

यह जो बात ऋग्वेद में कही है, गीता में भी कही है वह इस बात को समझा रही है कि वस्तुओं को अधिक-से- अधिक संग्रह करके अपने पास रख लेना अच्छी बात नहीं है। बाँटने का नाम यज्ञ है, सेवा का नाम यज्ञ है, परोपकार का नाम यज्ञ है, हम इसे करना सीखें।

आपके घर में जो भी पदार्थ आये उसका प्रयोग करने से पहले भगवान् को भोग लगाओ, अर्थात् अग्नि में आहुति दो, फिर जिसे बलिवैश्वदेव यज्ञ कहते हैं, उसका अनुष्ठान करके प्राणी मात्र के लिए भाग निकालिये। जिसे हम भाग रखने के मन्त्र द्वारा बताते हैं कि गौ ग्रास निकालिए, आस-पास कोई व्यक्ति भूखा, पीड़ित, दुःखी याचक है, उसके लिए भाग निकालिए। पितृयज्ञ और अतिथियज्ञ द्वारा माता-पिता, गुरु, अतिथि, राष्ट्र सबके लिए भाग निकालिए।

कहते हैं, जो पाप खा रहे होते हैं फिर वह रोग बनकर, वही कलह बनकर, वही विवाद बनकर, वही तनाव बनकर, वही सन्ताप बनकर व्यक्ति के परिवार में उसके जीवन में उभरता है, अतः बाँटना सीखो, देना सीखो।

हमारा कर्म यज्ञ बन जाये, हम याज्ञिक बन जायें। कैसे! जब कोई व्यक्ति यज्ञ करता है तो उसकी सुगन्ध को समेटकर कभी कैद करके रख नहीं सकता। तभी तो कहा जाता है- ‘‘इदन्न मम’’- यह आहुति अग्नि, सोम, प्रजापति और इन्द्र के लिए है, मेरे लिए नहीं। परोपकार के लिए किया गया जो भी कर्म है, वह सब यज्ञ है। सेवा यज्ञ है, जनकल्याण के लिए निस्वार्थ भाव से किया गया है कार्य यज्ञ है। तभी तो वेद में कहा है – ‘तुम देवताओं को प्रसन्न करो, देवता तुहें प्रसन्न करेंगे। तुम देवताओं के लिए यज्ञ करो, देवता तुहारे लिए यज्ञ करेंगे, तुहारा कल्याण करेंगे। सुख को जितना अधिक बाटेंगे उतना ही अधिक आनन्द आयेगा। इस तरह से यज्ञ शेष को ग्रहण करना सीखो – प्राप्त करो और बाँटो। बाँटने का परिणाम यह होगा उस वस्तु का स्वाद बढ़ जायेगा।’

कहते हैं कि प्रसन्नता को बाँटो, इसलिए कि प्रसन्नता बढ़ जाये और दुःख को बँटाओ, इसीलिए कि दुःख हल्का पड़ जाये। जब भी किसी के जीवन में प्रसन्नता आती है तो लोग निमन्त्रण देने पहुँच जाते हैं, सब मित्रों सबन्धियों को कहते हैं- आइये, हमारी प्रसन्नता में समिलित होइये, क्योंकि हमारी प्रसन्नता में वृद्धि हो जायेगी। दुःख आता है तो लोग बिना निमन्त्रण के सूचना मात्र से दुःख को बाँटने आ जाते हैं, सब लोग साथ खड़े  हो जाते हैं, यह कहने के लिए कि तुहारे साथ संवदेना और सहानुभूति लेकर हम आये हैं, अपने को अकेला मत समझना और यह नहीं सोचना कि तुम अकेले हो। दुःख आया है, दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति पर दुःख आता है, दुःख के बिना कोई अछूता नहीं रहता। प्रत्येक व्यक्ति को दुःख का सामना स्वयं करना पड़ता है, परन्तु दुःख बाँटने वाले उसका मनोबल बढ़ाते हैं और द़ुःख बँट जाता है, घट जाता है।

आपने एक बात देखी होगी- आपके कमरे में दो खिड़कियाँ हैं, आप निमन्त्रण देते हैं शुद्ध वायु को, पवनदेव को और कहते हैं-पवन देव! घुटन है अन्दर, आप आओ, हमें शुद्ध वायु प्रदान करो। आपने निमन्त्रण दिया, परन्तु वे आने के लिए तैयार नहीं हैं। पवन देव बोले-एक मार्ग से बुलाया और मुझे बन्दी बनाकर रखना चाहता है, दूसरी खिड़की खोल, तभी मैं अन्दर आऊँगा। मैं एक ओर से आऊँगा, तुहें ताजगी देने के पश्चात् दूसरीािड़की से बाहर चला जाऊँगा।

इधर से वायु आए, उधर से जाए। तात्पर्य यह है कि जब तुहारे जीवन में आनन्द आए तो बाँटना प्रारभ कर दो। बाँटना प्रारभ कर दोगे तो क्या होगा? वह कई गुणा तुहारे पास आएगा और तुहें आनन्दित करना प्रारभ कर देगा।

कुएँ से पानी निकालो तो वह दूसरों का कल्याण करेगा, दूसरा पानी यहाँ आयेगा, ताजा बना रहेगा, जीवन जीवन्त रहेगा। जो जल भरकर जाये बादल, इधर से भरकर लाये और उधर से बरसाये, तभी उन बादलों की शोभा है। और यदि गरजते हुए चले जायें तो उनकी कोई शोभा नहीं। उनका होना न होना व्यर्थ है। वहाँ बादल भी बाँटना सीख रहा है। इसी का नाम जीवन है। यह जीवन क ी सत्यता है, यह जीवन का एक उद्देश्य है। योगीराज कृष्ण कहते हैं- ‘इसी का नाम यज्ञ है।’ इसीलिए यह एक चक्र है जो घूम रहा है। यदि पाना चाहते हैं तो देना सीखो और दोगे तो लौट पर भी पर्याप्त मात्रा में आयेगा।

वेद के ऋषि स्पष्ट रूप से निर्देश करते हैं कि यदि खाना चाहते हो तो ध्यान रखना-यज्ञ करने के बाद घर में भोजन को खायें। उस पर तुहारा अधिकार है, बाँटकर खाओ, इसमें आपको आनन्द आयेगा। इसी में हम सभी का हित है। प्रभु हम सब पर कृपा करें कि स्वार्थी न बनें, परोपकार भी सकाम भावना से न करें, दूसरों को बाँटना सीखें, तभी हमारा यज्ञ सफल होगा।

– 4/44, शिवाजी नगर, गुड़गाँव, हरियाणा।

आर्य समाज व आर्यवीर दल -कर्मवीर

 

किसी भी परिवार, संस्था, समाज या राष्ट्र को उन्नत बनाने में युवाओं का विशेष योगदान रहता है। इसका कारण यह होता है कि युवाओं के अन्दर उत्साह-सामर्थ्य-शक्ति अधिक होती है, जिसका अभाव बहुत छोटे बच्चों व वृद्धों में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। युवाओं के अन्दर किसी भी कार्य की दिशा व दशा बदलने की सामर्थ्य होती है, यदि युवा सचरित्र, समर्थ तथा निष्ठावान् हों।

यही कारण है कि आज हमारे देश के माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी यह दावा करते हैं कि हम भारत को दुनिया के शिखर पर ले जा सकते हैं, क्योंकि पूरे संसार में अन्य देशों की तुलना में भारत के पास सबसे अधिक युवाशक्ति है। यदि इस युवाशक्ति को ठीक मार्ग-दर्शन दिया जावे तो अवश्य ही भारत विश्व के श्रेष्ठतम देशों में होगा।

जिसके पास युवा शक्ति कम होती है, उसका भविष्य अन्धकार में जाने की सभावना रहती है, क्योंकि युवा कार्यकर्त्ताओंके अभाव में विशेषतः सैन्य व तकनीकी के क्षेत्र में तो उनकी सुरक्षा पर प्रश्न-चिह्न लगने लगते हैं। परिवार-समाज-राष्ट्र के पास सपत्ति हो, पर सुरक्षा की सामर्थ्य न हो तो उनकी सपदा पर विरोधियों की नीयत खराब होने लगती है।

कुछ ऐसी ही स्थिति वर्तमान में आर्य समाज की है। आर्य समाज ने भी अपने को सशक्त-समर्थ-सुरक्षित रखने के लिए युवा इकाई के रूप में आर्यवीर दल संगठन को बनाया। आर्यवीर दल की पहचान आर्य समाज के सैनिक संगठन के रूप में हुई।

आर्यवीर दल ने आर्य समाज के नेतृत्व में आर्य समाज की ही नहीं, अपितु आवश्यकता पड़ने पर अपनी सामर्थ्य/शक्ति के अनुसार सपूर्ण समाज, राष्ट्र एवं हिन्दू जाति की सेवा-सुरक्षा की। देश विभाजन के समय जो हिन्दू शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान (बंगलादेश) से आये, मुस्लिम अंसार गुण्डे उन पर आक्रमण करते, मारने व लूटने का यत्न करते। इस विपत्ति के समय आर्यवीर दल ने हिन्दू शरणार्थियों की सुरक्षा की उनकी सपत्ति को बचाया।

हिन्दुओं के गङ्गा-यमुना इत्यादि तीर्थ स्थलों पर मेले लगते। उनमें मुस्लिम युवक हिन्दू महिलाओं के साथ छेड़खानी करते, तो उनकी सुरक्षा के लिए आर्यवीरों को दायित्व दिया जाता था। हैदराबाद मुक्तिसंग्राम में आर्यवीरों का विशेष सहयोग – बलिदान रहा, क्योंकि आर्यवीरों को आर्य समाज के द्वारा धर्म-राष्ट्र की रक्षा के लिए सज्जित किया जाता था।

वर्तमान में भी आर्य समाज के बड़े समेलनों में व्यवस्था व सुरक्षा की जिमेदारी आर्यवीर दल को ही दी जाती है।

जिन आर्य समाजों में आर्यवीर दल सक्रिय है, उन आर्य समाजों की गतिविधि व शोभा अलग ही दिखाई देती है। वहाँ के कार्यक्रमों की व्यवस्था-सुरक्षा व व्यायाम प्रदर्शन आदि का लोगों के मस्तिष्क पर विशेष प्रभाव पड़ता है। भारत के अनेक प्रान्तों में आर्य समाज के साथ-साथ आर्यवीर दल का कार्य रहा है, इन्हीं प्रान्तों में वीरभूमि राजस्थान भी अग्रणी है। राजस्थान की आर्य समाजों में आर्यवीर दल की विशेष भूमिका है। आर्यवीर दल गंगापुर सिटी नेाी आर्य समाज के प्रचार-प्रसार में बड़ी भूमिका निभाई है। यहाँ का आर्यवीर दल संगठन बड़ा जागरूक है। वर्तमान में भी इस नगर में आर्यवीर दल की दो शाखाएँ सतत कार्य कर रही हैं, यहाँ के शिक्षक व आर्यवीर बड़े योग्य व उत्साही हैं। शाखाओं में आने वाले आर्यवीरों को शारीरिक रूप से सुदृढ़ किया जाता है, वहीं पर उनको योग्य आर्य भद्र पुरुषों द्वारा जीवन की उन्नति के लिए प्रेरित किया जाता है। जिसका परिणाम यह रहा कि शाखाओं में आने वाले दो-तीन आर्यवीरों ने राजस्थान की बोर्ड परीक्षाओं में भी  उच्च स्थान प्राप्त किया।

आर्य वीर दल गंगापुर सिटी के मुय प्रेरणा स्रोत माननीय मदनमोहन जी व उनके समस्त सहयोगी हैं। मदन मोहन जी ने अपना पूरा जीवन आर्य समाज व आर्यवीर दल की सेवा में लगाया है। आप एक निर्भीक व दृढ़ आस्थावान आर्य पुरुष है। आपकी छत्रछाया में आर्यवीर दल गंगापुर शहर कार्य करता है। प्रत्येक वर्ष दशहरा पर्व पर आर्यवीर दल द्वारा भव्य कार्यक्रम किया जाता है । जिसमें आर्यवीरों द्वारा व्यायाम प्रदर्शन होता है। शहर के अनेक स्त्री-पुरुष इस कार्यक्रम को देखने आते हैं। कार्यक्रम में एक विशेष कार्य यह किया जाता है कि दर्शक तथा कार्यकर्त्ता संगठन के लिए वीरनिधि एकत्र करते हैं। अपनी स्वेच्छा से लोग इसमें सहयोग करते हैं। यह इस नगर की वर्षों पुरानी परपरा है। इस दशहरे पर कार्यक्रम में समिलित होने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ।

आर्य वीर दल गंगापुर सिटी के 15 वर्ष के घोर संघर्ष के उपरान्त उच्च न्यायालय राजस्थान के आदेशानुसार नगर के बीच में पड़ने वाली 26 दुकानें पिछले वर्ष बन्द करा दी गई। इसका सारा श्रेय आर्यवीर दल व उसके नेता मदनमोहन जी को जाता है। आपने धैर्य नहीं छोड़ा और 15 वर्ष तक केस लड़ते रहे, अन्ततः सफलता प्राप्त हुई। ये हम सब आर्य जनों के गौरव पूर्ण कार्य है। शहर में मुस्लिमों की संया भी पर्याप्त है। यहाँ कई घटनाएँ ऐसी हुईं, जो हिन्दू युवतियाँ मुस्लिम युवकों के साथ चली गई, परन्तु उनका वैदिक रीति से विवाह संस्कार आर्य समाज ने कराया। इसी कारण से नगर के सभी पौराणिक लोग भी मदनमोहन जी का बहुत समान करते हैं तथा आर्य समाज व आर्य वीर दल को मुक्त हस्त से दान देते हैं। आपकी आयु लगभग 70 वर्ष है, परन्तु आपका उत्साह अभी भी युवकों जैसा है, इसीलिए आप सैंकड़ों योग्य आर्य वीरों के प्रेरणा स्रोत रहे। इसी गंगापुर शहर ने दिवंगत सीताराम जी जैसे कर्मठ आर्यवीर को तैयार किया।

इतना कुछ लिखने का उद्देश्य/प्रयोजन यह है कि आर्य समाज व आर्यवीर दल का माता-पिता व संतान जैसा संबंध है। संतान योग्य व समर्थ तथा संस्कारवान होती है तो माता-पिता की उन्नति-प्रगति, यश-प्रशंसा व सुरक्षा होती है। दुर्भाग्य से कुछ आर्य समाज के कथित पदाधिकारी गण आर्य समाज को अलग व आर्यवीर दल को अलग मानने लगे तथा आर्य वीर दल का विरोध करने लगे। आर्यवीरों के आर्य समाज में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगाने लगे। इसका कारण रहा सपत्ति। जो अधिकारी आर्यसमाज के धन सपत्ति का मनमाने ढंग से उपभोग करते, आर्यवीर दल द्वारा विरोध किये जाने के भय से ऐसे आर्यवीर दल का बहिष्कार किया विरोध किया, ताकि वे निरंकुश होकर स्वार्थ सिद्धि कर सके।

कुछ दोष आर्यवीर दल का भी हो सकता है, परन्तु यदि सन्तान पथ से विचलित हो जाए तो उसको सही मार्ग दिखाने का दायित्व माता-पिता का होता। ऐसा ही दायित्व आर्य समाज का आर्यवीर दल के प्रति है।

जिस घर में संतान नहीं होती, उस गृहस्थ की सपत्ति पड़ोसियों की नजर टेढ़ी होने लगती है तथा जिसकी संतान योग्य हो बलवान हो, ऐसे गृहस्थ सुख चैन से जीवन व्यतीत करते हैं।

आर्य समाजों में युवकों को जोड़ने अपनी संया को बढ़ाने और न्यून खर्च में अच्छी सफलता प्राप्त करने का आर्यवीर दल एक उत्तम प्रक्रम है। हम सब आर्यभद्र पुरुषों का कर्त्तव्य है कि आर्य समाज की प्रत्येक संस्था में आर्य वीर दल की शाखाएँ चले, सब आर्य परिवारों के बच्चे शाखाओं में अनिवार्य रूप से भाग लें तथा आर्य जन उनको उत्तम चरित्र की शिक्षा दें, तो आर्य परिवारों के बच्चों को यह नहीं कहना पड़ेगा कि मेरे दादा-नाना आर्य समाजी थे।

अजमेर के अन्दर सरकारी परीक्षाएँ होती रहती है। ऋषि भूमि परोपकारिणी सभा में अनेक युवक परीक्षा के निमित्त आकर ठहरते हैं। कोई भी युवक एक बार यह कह दे कि मैं आर्य समाज से आया हूँ, आर्य समाज से पत्र लाये न लाये, परन्तु सभी के अधिकारियों की उदारता है कि सभा द्वारा सबके भोजन-आवास की समुचित व्यवस्था की जाती है। आये हुए युवकों से कई बार पूछ लेते हैं कि क्या आप आर्य समाजी हैं तो उत्तर मिलता है- मेरे दादा या नाना आर्य समाजी थे। मैं तो आर्य समाज में नहीं जाता हॅूँ। इसके कारण होते दादा-नाना यदि वे अपने पोते-नाती को आर्य समाज में लेकर जायेंगे, आर्यवीर दल द्वारा उन्हें खेल-खेल में आर्य सिद्धान्तों का ज्ञान होगा तो आर्य परिवारों के बच्चों को यह नहीं कहना पड़ेगा कि मेरे दादा-नाना आर्य समाजी थे, मैं नहीं।      -ऋषि उद्यान, अजमेर।

आर्यसमाज के कार्यक्रमों के अराजकतावादी मुख्य अतिथि

आर्यसमाज के कार्यक्रमों के अराजकतावादी मुख्य अतिथि

ऋषियों मनीषियों द्वारा प्रदत्त दिव्यज्ञान से ओतप्रोत इस वसुन्धरा पर यथा समय अनेक दिव्य आयोजन प्रायोजित होते रहे हैं। ऋषियों की वाणी के प्रचार-प्रसार में लगी हुयी संस्था आर्यसमाज सतत संलग्न हैं। किन्तु वर्तमान परिवेश को देखकर शायद ऐसा प्रतित होता है कि ये संस्थाएं  ऋषि की वाणी का प्रचार-प्रसार न करके अपने पेट पूजा में लगी हुयी हैं।  ऋषियों की बतायी बातों का प्रचार-प्रसार कैसे हो, शायद ये तो इनको आता ही नहीं है। इनकी दिशा व दशा गलतमार्ग का अनुसरण कर चुकी है।

देश की कुछ शीर्षस्थ संस्थाएं आर्यसमाज के मन्तव्यों को स्वीकार न कर वश पैसे को ही सब कुछ समझती हैं। ऐसी शीर्षस्थ संस्थाओं में यदि किन्हीं का नामोल्लिखत है तो वें हैं आर्य सभाएँ तथा प्रतिनिधि सभाएँ । जिनकों प्रत्येक आर्यसमाजी अपना मार्गदर्शक स्वीकार करता है।  आप खुद ही विचार-विमर्श कर सकते हैं कि जिसका नेता आर्यमन्तव्य को स्वीकार नहीं करता हो, जो स्वयं ही अनार्यत्व को स्वीकार करता हो। उसको अपना मार्गदर्शक स्वीकार करने वाली जनता कैसे आर्यत्व को स्वीकार कर पायेगी। जो नया-नया आर्यसमाजी बना हो वह तो आर्यसमाज की विशेषता को स्वीकार कर ही नहीं सकता।

जो व्यक्ति पूर्ण तन्मयता के साथ आर्यसमाज का कार्य कर रहा हो, वह इनके लिए किसी महत्व का नहीं किन्तु यदि कोई राजनेता, व्यापारी इनको ग्यारह सौ रुपये भी दे तो ये उसको आर्यसमाज का सर्वश्रेष्ठ कार्यकर्ता स्वीकार करते हैं।

मुझे वह दिन याद है जब मंच पर एक ओर विद्वान लोग तो बैठे हुए हैं, किन्तु राजनेताओं का सम्मान विद्वानों से पहले हो रहा था। मैंने सोचा शायद बाद में विद्वानों का भी माल्यार्पण से स्वागत होगा किन्तु कार्यक्रम के अन्तिम क्षण तक ऐसा नहीं हुआ।

आज का समय ऐसा आ गया है कि आर्यसमाज के मंचों से सिद्धान्तविरोधी बातों बोली जा रही है, जिनको रोकने का कोई सहास तक नहीं करता। बात कुछ इस प्रकार की है एक साल पहले आर्यसमाज के कार्यक्रम में वी.के.सिंह जी को बुलाया गया। स्वागत व सम्मान हुआ किन्तु अपने वक्तव्य के दौरान वे कहते हैं कि देश के लिए सर्वाधिक कार्य स्वामी विवेकानन्द जी ने किया है, फिर जाकर किन्हीं स्वामी दयानन्द का नाम लिया। ऐसा सुनते हुए वहाॅं बैठे किसी भी मन्त्र-प्रधान की नजरों का पानी नहीं मरा। किसी ने ऐसा दुष्सहास भी नहीं किया जो वी.के.सिंह को बाद में कहता कि स्वामी दयानन्द ने देश के लिए ये-ये कार्य किये। स्वामी विवेकानन्द की बुरायाॅं गिनाने का तो शायद सहास हो ही नहीं सकता था।

किन्तु आज फिर से ऐसा ही इतिहास दोहराया जा रहा है। जब स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती जी के बलिदान दिवस पर किसी भ्रष्टाचारी, असत्यवादी, स्वार्थी नेता केजरीवाल को बुला रहें है। इस नेता की सत्यता से तो आप पूर्णतया परिचित ही हैं, जो देश में बलात्कार करने वालों को 10,000 रुपये तथा सिलाई मसीन दे रहा है। ऐसा नेता आर्यसमाज को क्या दिशा व दशा देगा? जो खुद बलात्कार को बढावा देने वाला है वह कैसे आर्यसमाज को नई दिशा दे सकेगा?

समाज के कार्यकर्ताओं को कुछ तो विचार-विमर्श करके बुलाना चाहिए। एक लक्षण भी तो आर्यसमाज का हो, जिसको हम बुला रहे है। यदि नहीं भी है तो एक समाज में तो उसका अच्छा वातावरण होना चाहिए। दिल्ली की समस्त जनता केजरीवाल के कार्यकाल से पूर्णतया परिचित ही है। इसके विषय में जितना कहा जाये उतना ही कम है।

वैसे आर्यसामज के मंचों पर विद्वानों का ही सम्मान होना चाहिए किन्तु बड़ा दुर्भाग्य है। न जाने किस दिन विद्वानों का सम्मान आर्यसमाजों के मंच से होना प्रारम्भ होगा।

शायद आर्यसमाज का वैचारिक रूप से पतन नित्यप्रति बढ़ता ही जा रहा है। इनका ध्यान केवल पेट, पैसा व मकान ही रह गया है। वेदप्रचार तो इनके लिय दिवास्वन के समान है।

मुझे वो श्लोक याद आ रहा है-

अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूज्यानां तु विमानना।

त्रीणि तत्र प्रवर्तन्ते दुर्भिक्षं मरणं भयम्। -पंचतन्त्र काकोलूकीय

अर्थात् जहाॅ अपूज्या का सम्मान होता है और विद्वानों का तिरस्कार तो वहाॅं निश्चित रूप से पतन, नाश और भय उत्पन्न होता है।

यदि सत्यता में आर्यसमाज की यही गति रही तो अवश्य ही वह दिन दूर नहीं जब आर्यसमाज का नाम केवल स्वार्थवादी संस्थाओं में गिना जायेगा। आज भी समय है……कुछ तो समझ जाओ……………..ऋषि दयानन्द को समझने का प्रयाश तो करो……………….

आज 23 दिसम्बर को 90 वें बलिदान दिवस पर ‘स्वामी श्रद्धानन्द का महान व्यक्ति और कार्य भावी पीढि़यों के लिए प्रेरणा’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

वैदिक धर्म व संस्कृति के प्रेमी, समाज सुधारक, विश्व-प्रसिद्ध संस्था गुरुकुल कांगड़ी के संस्थापक और शिक्षा शास्त्री, स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणीय नेता, हिन्दुओं के रक्षक, शुद्धि आन्दोलन के प्रणेता और शीर्ष नेता, धर्मोपदेशक, साहित्यकार स्वामी श्रद्धानन्द जी का आज नब्बेवां बलिदान दिवस है। 26 दिसम्बर, 1926 को 71 वर्ष की आयु में आज के ही दिन एक षड़यन्त्र के अन्तर्गत एक विधर्मी ने उन्हें रुणावस्था में धोखे से गोली मार कर शहीद कर दिया था। स्वामीजी का जीवन प्राचीन शास्त्रीय गुरुकुल शिक्षा पद्धति के पुनरुद्वार सहित ईश्वर प्रदत्त वेद द्वारा प्रचलित ज्ञान व विज्ञान पूर्ण मान्यताओं एवं सिद्धान्तों से युक्त सत्य वैदिक धर्म के प्रचार व प्रसार एवं हिन्दु जाति के संगठन व सुधार के कार्यों के लिए समर्पित था। आज उनके बलिदान दिवस पर उनको श्रद्धाजंलि प्रस्तुत करते हुए हम उनके समय की देश की प्रख्यात हस्तियों द्वारा उनको दी गई श्रद्धाजंलियों के माध्यम से उनके व्यक्तित्व व कृतित्व को जानने व जनाने का प्रयास कर रहे हैं।

 

संयुक्त प्रान्त (वर्तमान का उत्तर प्रदेश) के छोटे लाट सर जेम्स मेस्टन ने गुरुकुल वृन्दावन में संवत् 1923 में दिये अपने भाषण में उनके विषय में कहा था कि ‘मैंने शीघ्र ही आपकी मुख्य और पुरानी गुरुकुल कांगड़ी और उसी समय आपके नेताओं और मित्रों में से बहुतों से परिचय लाभ किया। इसी समय महात्मा मुंशीराम जी से मेरा परिचय हुआ। मुझे विश्वास है कि उनका विनय मेरे लिये प्रबल हेतु है कि उक्त नामी सज्जन के विषय में जो सम्मति मैंने स्थिर की है, उसे मैं प्रकट करूं। पर उनके भावों का सत्कार करते हुए निःसंकोच इतना अवश्य कहूंगा कि एक मिनिट भी उनके साथ रहते हुए उनके भावों की सत्यता और उनके उद्देश्यों कि उच्चता को अनुभव करना असम्भव है। दुर्भाग्यवश हम सब मुंशी नहीं हो सकते।

 

मौलाना मुहम्मद अली ने उनके विषय में लिखा है कि उनका (स्वामीजी का) मुख्य कार्य उनके धर्म-संगठन के सम्बन्ध में था और उस बारे में शंका नहीं की जा सकती। फिर भी इतना तो सही है ही कि वे जिसे अपना धर्म मानते थे, उसके लिये काम करने में उन्होंने उल्लेखनीय लगन दिखायी थी। उनकी हिम्मत के बारे में शंका ही नहीं थी। साहस और शौर्य के वे मिश्रण थे। गोरखों की संगीनों के सामने अपनी छाती खोल देने वाले उस बहादुर देश प्रेमी का चित्र अपनी नजर के सामने रखना मुझे बहुत अच्छा लगता है। ऐसी उम्दा मौत के मिलन से उन्हें तो कुछ नहीं लगता, मगर हमारे लिये यह महान् दुःखदायक घटना है।

 

पं. मदन मोहन मालवीय हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध नेता थे। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना सहित देश की आजादी में उनका उल्लेखनीय योगदान था। उन्होंने स्वामी श्रद्धानन्द जी के प्रति अपने भावों को प्रकट करते हुए लिखा है कि ‘हमारे परम देशभक्त और हिन्दू जाति के परम सेवक श्रद्धानन्द जी का देहान्त एक पतित पुरुष के हाथ से हुआ है। स्वामी जी इस देश के एक चमकते तारे थे। इनका देश-प्रेम 40 वर्ष से सरकार को विदित है। पहले तो वे वकालत करते थे। 20 वर्ष पहले इन्होंने गुरुकुल कांगड़ी स्थापित किया और उस संस्था को अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया। इनकी देश-भक्ति कैसी थी, इसका स्मरण कराने की जरूरत नहीं। आपको पता ही होगा कि दिल्ली में छाती खोलकर के बन्दूकों के सामने खड़े रहे थे। हिन्दू महासभा के काम में वे बड़ा भाग लेने वाले थे। शुद्धि के तो वे आचार्य ही थे। हजारों मलकानों को उन्होंने हिन्दू बनाया था। स्वामी जी को शुद्धि और संगठन की चिन्ता थी। 71 वर्ष की उम्र के ऐसे स्वामी को कोई मार डाले, यह लज्जा और शोक की बात है।

 

स्वामीजी के लिए तो यह बड़ी बात थी, क्योंकि उनकी ऐसी मृत्यु हिन्दू धर्म के मृत शरीर में नया प्राण-मन्त्र फूंकने जैसा है। ….इस प्रकार दिल्ली में हमारे एक प्रधान नेता ने धर्म की खातिर अपने प्राण दिये हैं। स्वामी श्रद्धानन्द भी ऐसे ही दूसरे शहीद हुए हैं। ये किसी धर्म के साथ वैर नहीं रखते थे। हिन्दुओं की सेवा करते थे। इससे हमें क्या सीखना है? जैसे तेगबहादुर की मृत्यु से हिन्दूजाति में जागृति आयी थी और औरंगजेब का जोर टूटा था, वैसे ही हमें यह चीज सीखनी है कि हिन्दूजाति का प्रत्येक मनुष्य शुद्धि और संगठन के काम में लग जाये।

 

स्वामी जी का दूसरा उपदेश यह है कि ऐसे काम में किसी भी प्रकार का डर न रखा जाये। उन्होंने शुद्धि के काम में डर नहीं रखा। इतना ही नहीं, परन्तु जरा भी अन्याय नहीं किया। वे कहते थे कि मुसलमान को हिन्दू बनाने का प्रत्येक हिन्दू को अधिकार है। मैं तो कहता हूं कि यह तबलीग (धर्म परिवर्तन या भ्रष्ट करने का आन्दोलन) सर्वथा बन्द हो जाये। ईसाई भी यह काम बन्द कर दें। मगर जब हजारों मुसलमान और ईसाई हिन्दुओं को धर्मभ्रष्ट करने को बैठे हैं, तब कोई हमें यह नहीं कह सकता कि हिन्दुओं की शुद्धि नहीं करनी चाहिये। अलबत्ता ऐसा करने में हम किसी के प्रति अन्याय करें, यह बात स्वामी जी हमेशा करते थे और यह भी कहते थे कि यह आन्दोलन राष्ट्रीय एकता का विरोधी नहीं होना चाहिये। घोर पाप होता हो तो भी हिन्दू अपने धर्म में दृढ़ रहे और बदला लेने का पाप न करें। भविष्य में किसी दिन हिन्दू-संतान की निन्दा हो, ऐसा नहीं होना चाहिये। स्वामी जी के शोकयुक्त अवसान का स्मारक किस ढंग से बनाये? एक दिन नियत किया जाये, जब सभी मिलें और उनके नाम से एक कोष बनाया जाये। उनके जाने से उनके साथ का हमारा सम्बन्ध टूट नहीं गया। वे अभी जिन्दा हैं।

 

सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय कवि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर ने स्वामी श्रद्धानन्द जी का स्मरण करते हुए कहा है कि हमारे देश में जो सत्य-व्रत को ग्रहण करने के अधिकारी हैं एवं इस व्रत के लिये प्राण देकर जो पालन करने की शक्ति रखते हैं, उनकी संख्या बहुत ही कम होने के कारण हमारे देश की इतनी दुर्गति है। ऐसी अवस्था जहां है, वहां स्वामी श्रद्धानन्द जैसे इतने बड़े वीर की इस प्रकार मृत्यु से कितनी हानि हुई होगी, इसका वर्णन करने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु इनके मध्य एक बात अवश्य है कि उनकी मृत्यु कितनी ही शोचनीय हुई हो, किन्तु इस मृत्यु ने उनके प्राण एवं चरित्र को उतना ही महान बना दिया है।

 

देश के सर्वोतम एवं महान नेता, भारत के प्रथम गृहमन्त्री और उपप्रधानमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल ने स्वामी श्रद्धानन्द जी का स्मरण करते हुए लिखा है कि स्वामी श्रद्धानन्द जी की याद आते ही 1919 का दृश्य मेरी आंखों के सामने खड़ा हो जाता है। सरकारी सिपाही फायर करने की तैयारी में है। स्वामी जी छाती खोल कर सामने जाते हैं और कहते हैं, लो, चलाओ गोलियां। उनकी उस वीरता पर कौन मुग्ध नहीं हो जाता? मैं चाहता हूं कि उस वीर संन्यासी का स्मरण हमारे अन्दर सदैव वीरता और बलिदान के भावों को भरता रहे।

 

उपन्यास सम्राट मुन्शी प्रेमचन्द ने उनको स्मरण कर लिखा है कि यों तो स्वामी जी प्राचीन आर्य आदर्शों के पूर्ण रूप में प्रवर्तक थे, पर मेरे विचार में राष्ट्रीय शिक्षा के पुनरुत्थान में उन्होंने जो काम किया है उसकी कोई नजीर नहीं मिलती। ऐसे युग में जब अन्य बाजारी चीजों की तरह विद्या बिकती है, यह स्वामी श्रद्धानन्द जी का ही दिमाग था जिसने प्राचीन गुरुकुल प्रथा में भारत के उद्धार का तत्व समझा। ….समय उनके अनुकूल न था, विरोधियों का पूछना ही क्या, चारों तरफ बाधायें ही बाधायें। पर वे जितने आदर्शवादी थे, उतने ही हिम्मत के धनी थे। किसी बात की परवाह न करते हुये गुरुकुलों की स्थापना कर दी।

 

पादरी सी.ए्फ. एण्ड्रूज व स्वामीजी में गहरे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। उनकी दृष्टि में इस जीवन में बहुत कम ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें मैं उतना प्रेम करता हूं जितना स्वामी श्रद्धानन्द जी को करता था। हमारी स्वच्छ, निर्मल तथा प्रगाढ़़ मैत्री में कदाचित् ही धुन्धलापन आया हो। उनके उच्च चरित्र की ही महत्ता थी जिसने उनके प्रति मेरे प्रेम को सच्चा और गहरा बनाया था। यह जानकर मैं बहुत प्रसन्न होता था कि स्वामी जी मुझ से प्रेम करते हैं। ….स्वामी श्रद्धानन्द एक अत्यन्त स्निग्ध और उदार हृदय रखते थे। जब कभी गरीबों, दुःखियों और दलितों के नाम पर उनके हृदय को अपील की जाती थी तो वह अपील उनके लिए अपरिहार्य हुआ करती थी। इसलिये जबजब बलिदान जयन्ती आये तबतब उनके सच्चे प्रेमियों का ध्यान गरीबों की ओर, जिन्हें वह प्यार करते थे, जाना चाहिये और उन गरीबों को भी परमात्मा के बच्चे समझना चाहिये।स्वतन्त्रता आन्दोलन की प्रसिद्ध नेत्री श्रीमती सरोजिनी नायडू ने स्वामी के विषय में लिखा है कि मेरी स्मृति और मेरे अनुराग के आराध्य देवता स्वामी श्रद्धानन्द वर्तमान संतति के सम्मुख एक ऐतिहासकि मूर्ति के रूप में विराजमान हैं। मैं सदैव अनुभव करती हूं कि स्वामी श्रद्धानन्द भारत के वीरकाल की एक दिव्य विभूति थे। अपनी भव्य-मूर्ति और ऊंचे व्यक्तित्व के द्वारा वह अपने साथियों में देवता की नाई रहा करते थे। वह अपने जीवन की शहादत की अन्तिम घडि़यों तक साहस और कर्मयोग की अनुपम मूर्ति रहे और भारतीय जीवन के धार्मिक व आध्यात्मिक क्षेत्र में और राष्ट्र सुधार के कार्यों में इन गुणों का सुन्दर परिचय देते रहे। गानव-समाज की सेवा के सम्बन्ध में उनके उच्च भावों का मैं बहुत आदर करती हूं।’

 

भारत की आजादी के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित करने वाले जीवित शहीद, अंग्रेजों द्वारा दो जन्मों के कारावास की सजा से दण्डित वा पुरस्कृत तथा काला पानी में रहकर जिन्होंने अनेक इतिहास नया इतिहास रचा, उस भारत माता के वीरसपूत वीर विनायक दामोदर सावरकर ने स्वामी श्रद्धानन्द को अपनी श्रद्धाजंलि में कहा है कि इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि हमारे श्रद्धेय स्वामी श्रद्धानन्द ने हिन्दू-जाति पर तथा हिन्दुस्तान की बलि-वेदी पर अपने जीवन की आहुति दे दी। उनका सम्पूर्ण जीवन विशेषकर उनकी शानदार मौत हिन्दू-जाति के लिये एक स्पष्ट सन्देश देतती है। ……हिन्दू-राष्ट्र के प्रति हिन्दुओं का क्या कर्तव्य है-इसे मैं स्वामी जी के अपने शब्दों में ही रखना चाहता हूं। सन् 1926 के 29 अप्रैल के ‘‘लिबरेटन” पत्र में वे लिखते हैं–‘‘स्वराज्य तभी सम्भव हो सकता है जब हिन्दु इतने अधिक संगठित और शक्तिशाली हों जाएं कि नौकरशाही तथा मुस्लिम धर्मोन्माद का मुकाबला कर सकें।” उपर्युक्त उद्धरण से हिन्दू जाति की तीव्र मांग का पता चल सकता है और विशेषकर ऐसे नाजुक समय में जबकि इस पर चारों ओर से आघात और आक्रमण हो रहे हों।

 

लेख को और अधिक विस्तार न देते हुए निवेदन है कि हमें स्वामी श्रद्धानन्द जी के व्यक्तित्व व कृतित्व को समझने के लिए उनकी आत्मकथा तथा उनके ग्रन्थों के संग्रह ‘‘श्रद्धानन्द ग्रन्थावली का अध्ययन करना चाहिये। यह अध्ययन हमारे जीवन का कर्तव्य निर्धारित करने में निश्चय ही सहायक हो सकता है। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपने जीवन में जो महान कार्य किए उनके कारण उनका यश सदैव विद्यमान रहेगा और भावी पीढ़ी उनसे प्रेरणा ग्रहण कर उनके विचारों के अनुरुप देश का निर्माण करने में अपने कर्तव्य का पालन करेंगे, इन्हीं शब्दों के साथ लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

महात्मा हंसराज के तीन कथनः : राजेन्द्र जिज्ञासु

महात्मा हंसराज के तीन कथनःमहात्मा हंसराज के व्यायानों व लेखों में मुझे तीन अनमोल मोती मिले। आपने कहा कि एक बार ला. सांईदास ऋषि का ऐश्वरवाद, उसकी ही उपासना पर व्यायान सुनकर भीड़ के साथ जब बाहर निकले तो एक ब्रह्म समाजी नेता ने भाषण सुनकर कहा कि मेरा तो अब तक सारा ही जीवन निरर्थक गया। मैंने जड़पूजा-मूर्तिपूजा का ऐसा खण्डन कभी नहीं किया, जैसा आज निर्भीक स्वामी दयानन्द ने किया है। वहाँ महात्मा जी ने इस ब्रह्म समाजी नेता का नाम नहीं दिया। मेरा मत है कि यह ला. काशीराम जी प्रधान पंजाब ब्रह्मसमाज  हो सकते हैं। वह महर्षि की निडरता, विद्वत्ता व अटल ईश्वर विश्वास की बहुत प्रशंसा किया करते थे।

दूसरा कथन जो मुझे प्रेरणाप्रद लगता है, वह यह है कि महात्मा जी हजरत मुहमद की एक हदीस सुनाकर आर्यों के  खरेपन की पहचान बताया करते थे। किसी ने मुहमद जी से पूछा कि आपकी सबसे प्यारी बीवी कौन है? प्रश्नकर्त्ता समझता था कि पैगबर को हजरत आयशा (जो सबसे छोटी थी) से अत्यधिक प्रेम है सो यह उसी का नाम लेंगे, परन्तु रसूल अल्लाह ने हजरत खदीजा का नाम लिया और कहा कि वह उस समय मुझ पर ईमान लाई, जब मुझे कोई नहीं जानता मानता था।

यह हदीस सुनाकर महात्मा जी कहा करते थे- धर्मप्रचार- ऋषि के मिशन के लिए कौन कष्ट झेलता व समय देता है? जो ऋषि मिशन का दीवाना है, वही महात्मा जी की दृष्टि में बड़ा व आदरणीय है।

महात्मा जी का तीसरा प्रिय कथन मेरे लिये यह है कि हम यह चाहते हैं कि मेरा तो पाँवाी गीला न हो, परन्तु देश जाति का बेड़ा पार हो जाये।

आओ! हम सब सोचें कि हम भी क्या इसी श्रेणी में तो नहीं आते। वैदिक धर्म पर जब वार हो तो उत्तर दूसरे दें। वेद पर, ऋषि पर प्रहार हो या अंधविश्वासों से लड़ना हो- मर्तिपूजकों से, ईसाइयों से, मुसलमानों से, रजनीश आदि नास्तिकों,ाोगवादियों व गुरुडम वाले तिलक कण्ठीधारी बाबाओं से, जातिवादी तत्त्वों पर लिखने बोलने के लिए कोई और आगे आये, परन्तु मैं अपने पद से चिपका रहूँ। कितने वर्षों तक आप प्रधान व मन्त्री रहे- यह कोई इतिहास नहीं। इतिहास दुःख कष्ट झेलने को कहते हैं। कभी किसी से टक्कर ली? कभी कोई अभियोग चला? भारत सरकार ने निजाम की जीवनी दिल्ली से छापी। उसको महिमा मण्डित किया, फिर श्रद्धाराम की आड़ में ऋषि की निन्दा की। आपके मुख पर टेप लगी है। आप कुछ बोलने का साहस ही न कर पाये। उत्तर में दो पक्तियाँ तो लिख देते। भारत सरकार को एक रोष भरा पत्र तो लिख सकते थे। संघर्ष करना जिनके बस की बात नहीं, जो घर में ही कलह जगाने के लिए बेचैन रहते हैं, उनकी करनी व कथनी से इतिहास नहीं बन सकता। ऐसे लोग रिपोर्ट का पेट तो भर सकते हैं, परन्तु इतिहास ऐसे लोगों को कूड़ेदान में फेंक देता है। इतिहास पं. लेखराम, श्याम भाई, भक्त फूलसिंह, स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा नारायण सिंह व पं. रुचिराम ही रच सकते हैं। इतिहास निर्माता तो स्वामी चिदानन्द अनुभवानन्द जी थे, जिन्हें पद प्रेमियों ने बिसार दिया है।

यह इतिहास नहीं, इतिहास का उपहास हैः राजेन्द्र जिज्ञासु

यह इतिहास नहीं, इतिहास का उपहास हैः- दिल्ली के करोलबाग क्षेत्र के एक माननीय, सुयोग्य और अनुभवी आर्य पुरुष ने योगी श्री सच्चिदानन्द व आदित्यपाल कपनी द्वारा प्रचारित ‘योगी का आत्म चरित’ पुस्तक में वर्णित सामग्री पर चलभाष पर कुछ चर्चा की। आपने कहा,‘‘मुझे तड़प झड़प’ पढ़े बिना चैन नहीं आता’’। सन् 1857 के विप्लव में महर्षि के भाग लेने पर प्रकाश डालने को आपने कहा।

मेरा निवेदन है कि मेरठ से इस विषय की उत्तम पुस्तक का नया संस्करण छप चुका है। स्वामी पूर्णनन्द जी महाराज ने इसमें दूध का दूध, पानी का पानी कर दिया है। मैं भी श्री दीनबन्धु, सच्चिदानन्द महाराज व आदित्यपाल सिंह के एतद्विषयक दुष्प्रचार को एक षड्यन्त्र मानता हूँ। आप निम्न बिन्दुओं पर विचार करेंः-

  1. 1. ऋषि जी ने यह तथाकथित सामग्री अपने किसी भक्त, शिष्य वैदिक धर्मी को क्यों न दिखाई या लिखवाई?
  2. 2. ऋषि ने ठाकुर मुकन्दसिंह व भोपाल सिंह जी को अपने साहित्य के प्रसार के लिए कोर्ट में मुखतार बनाया। परोपकारिणी सभा का प्रधान महाराणा सज्जनसिंह जी को बनाया । इन्हें तो अपनी तीस वर्ष की घटनाओं का एक भी पृष्ठ न लिखवाया। इसका कारण क्या है?
  3. 3. ऋषि दयानन्द सरीखे दूरदर्शी ने एक ही को यह कहानी क्यों न लिखवाई? चार को क्यों लिखवाई? गोपनीयता क्या चार को लिखवाने से रह सकती थी?
  4. 4. इन चार ब्रह्मचारियों का ऋषि के नाम कभी कोई पत्र किसी ने देखा? क्या ऋषि ने इन्हें कभी कोई पत्र लिखा?
  5. 5. इन बगले भक्तों में से बंगाल से ऋषि की सेवा के लिए क्या कोई अजमेर पहुँचा?
  6. 6. महर्षि के दाहकर्म में ब्रह्म समाजी की इस चौकड़ी में से अजमेर किसी ने दर्शन दिये क्या?
  7. 7. ऋषि के मुख से ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की बहुत प्रशंसा व बड़ाई इन धोखाधड़ी करने वालों ने करवाई है। इतिहास प्रदूषित करने वाले इन नवीन पुराणकारों को इतना भी तो पता नहीं कि कोलकाता की पौराणिकों की जिस सभी ने दक्षिणा लेकर ऋषि के विरुद्ध व्यवस्था (फतवा) दी थी, उस व्यवस्था पर ईश्वरचन्द्र जी विद्यासागर तथा गो-मांस भक्षण के प्रचारक राजेन्द्र लाल मित्र के भी हस्ताक्षर थे।
  8. 8. ऋषि जब लँगोटधारी थे, वस्त्र नहीं पहनते थे, तब शरीर पर मिट्टी रमाते थे। इसी अवस्था में एक बार छलेसर पधारे। छलेसर वालों ने एक मूल्यवान् पशमीना बिछाकर उस पर बैठने की विनती की तो ऋषि ने कहा- यह ठीक नहीं। आपका मूल्यवान् पशमीना गन्दा हो जायेगा। उन्होंने अनुरोध करके वहीं बैठने पर बाध्य किया। छलेसर के ठाकुरों की सेवा के लिये ऋषि ने कभी गुणकीर्तन क्यों न किया? कोई आदर्श संन्यासी तिरस्कार से क्रुद्ध होकर किसी को कोसता नहीं और सत्कार पाकर किसी का भाट बनकर उनके गीत नहीं गाया करता। कोलकाता में कोई अपने यहाँ ठहराने को तैयार नहीं था। क्या ऋषि ने उन्हें कोसा? कहीं भी किसी से ऐसी किसी घटना की ऋषि ने कभी भी चर्चा नहीं की। ब्रह्म समाजियों ने बंगाल में की गई सेवाओं पर ऋषि के मुख से जो प्रशंसा करवाई है- यह ऋषि के चरित्र हनन का षड्यन्त्र है।
  9. 9. महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाश के तेहरवें समुल्लास में बाइबल की दो आयतों की समीक्षाओं में दार्शनिक विवेचन के साथ सूली व साम्राज्य, विदेशी शासकों की न्यायपालिका व लूट खसूट पर कड़ा प्रहार करके इतिहास रचा है। भारत में अंग्रेजों के न्यायालयों व शोषण पर ऐसी तीखी आलोचना करने वाले प्रथम विचारक व देशभक्त नेता ऋषि दयानन्द थे। महर्षि की अज्ञात जीवनी का ढोल पीटने वालों के ज्ञात इतिहास से ऋषि की निडरता की इन दो समीक्षाओं के महत्त्व का पता ही न चला। इन पर न कभी कुछ लिखा व कहा गया।
  10. 10. महर्षि जब जालंधर पधारे, तब भी विदेशी न्यायपालिका द्वारा गोरों के विदेशी के साथ भेदभाव पर कड़ा प्रहार किया।3 भारतीय की हत्या के दोषी गोरे अपराधी को दोषमुक्त करने पर ऋषि के हृदय की पीड़ा का इन्हें पता ही न चला। पं. लेखराम धन्य थे, जिन्होंने साहस करके यह घटना दे दी। फिर केवल लक्ष्मण जी ने यह प्रसंग लिखा। न जाने अन्य लेखकों ने इसे क्यों न दिया?
  11. 11. ऋषि की प्रतिष्ठा के लिए ऐसी सच्ची घटनायें क्या कम हैं? उन्हें महिमा मण्डित करने के लिए असत्य की, झूठे इतिहास की आवश्यकता नहीं है।

‘ईश्वर के कृतज्ञ सभी मनुष्यों को वैदिक विधि से ईश्वर-स्तुति करनी चाहिये’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

मनुष्य विज्ञान की नई-नई खोजों के वर्तमान युग में ईश्वर व अपनी जीवात्मा के मूल स्वरुप को भूल बैठा है। आज ईश्वर को मानना व नाना प्रकार के मत-मतान्तरों प्रचलित विधि से उसकी स्तुति व प्रार्थना करना एक प्रकार का फैशन सा लगता है। कोई भी काम करने से पहले उसका यथेष्ट ज्ञान व विधि जानना आवश्यक होता है। एक कलर्क की नौकरी पाने के लिए कक्षा 10 या बारह उत्तीर्ण होना आवश्यक होता है। इसके साथ टंकण का ज्ञान भी उसके लिये अनिवार्य माना जाता है। हम ईश्वर, जो इस सृष्टि का रचयिता व पालनकर्त्ता है, उसकी स्तुति व प्रार्थना करते हैं तो क्या हमें इसके लिए निर्धारित किसी योग्यता को तय करना आवश्यक नहीं है? सभी मत-मतान्तर वाले कहेंगे की उनके मत में जो रीति व नीति है, वही इस कार्य के लिए उपयुक्त है। वैदिक साहित्य के अध्ययन व ज्ञान से हमें लगता है कि ईश्वर व जीवात्मा के स्वरुप को जानकर तथा वेद की शिक्षाओं को समक्ष रखकर ही ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना की सत्य व यथार्थ रीति व नीति तय की जा सकती है। हम यह मानते हैं कि भिन्न-भिन्न मतों में ईश्वर व जीवात्मा विषयक जो ज्ञान है, वह अल्प व सीमित होने से अपूर्ण व अपर्याप्त है। इसके साथ ही मत-मतान्तरों में ईश्वर के सत्य स्वरुप से भिन्न असत्य बातें भी जुड़ी हुई हैं। अतः यदि उन्हीं के आधार पर स्तुति-प्रार्थना-उपासना की जाती है, तो हम ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के अपने यथार्थ उद्देश्य व लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते। मनुष्य जीवन के उद्देश्य को जानने व इसके लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमें ईश्वर, जीवात्मा और सृष्टि के यथार्थ स्वरुप का ज्ञान होना आवश्यक व अनिवार्य है।

 

मनुष्य जीवन पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि मनुष्य माता-पिता के द्वारा सृष्टि नियमों के अनुसार उत्पन्न होता है। जन्म के समय इसका शरीर अत्यन्त लघु व सामथ्र्यविहीन होता है। माता के दुग्ध, पालन व स्वास्थ्यप्रद भोजन से शरीर की उन्नति होती है। किशोरावस्था व युवावस्थ्यायें आती हैं और अन्त में प्रौढ़ व वृद्धावस्था आने के बाद 100 वर्ष की आयु प्राप्त कर व उससे पहले कभी भी किसी रोग, दुर्घटना व अन्य कारणों से मृत्यु हो जाती है। मृत्यु के होने पर मनुष्य का शरीर निष्क्रिय हो जाता है जिससे अनुमान लगता है कि शरीर में निवास करने वाली एक चेतन सूक्ष्म अदृश्य सत्ता शरीर से निकल गई है। मानव शरीर तो पंचभौतिक तत्वों अर्थात् पृथिवी के तत्वों से मिलकर बना होता है। अतः इसे अग्नि में रखकर पंचतत्वों में ही विलीन कर देने का प्राचीन काल से विधान चला आ रहा है। यह प्रक्रिया उपयुक्त, सरल, अल्पव्ययसाध्य व शीघ्र उद्देश्य की पोषक है। बहुत से लोग अन्त्येष्टि संस्कार की महत्ता को अभी तक जान व समझ नहीं पाये हैं, अतः वह शव को जलाने के स्थान पर भूमि में गाढ़ देना ही उचित समझते हैं। अन्त्येष्टि का संबंध ज्ञान व विज्ञान तथा सृष्टि के नियमों से है। यदि मतों के आग्रह से इसे बाहर निकाल कर निर्णय किया जाये, तो यह इस सृष्टि के लिए उचित होगा।

 

मनुष्य वा प्राणियों का जीवात्मा एक चेतन तत्व होता है। यह अल्प परिणाम, सूक्ष्म, ज्ञान व कर्म अथवा गति के स्वभाव से युक्त, ससीम, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अनिवाशी, अजर व अमर गुणों वाला है। अस्त्र व शस्त्रों से इसका छेदन नहीं होता, अग्नि से यह जलता नहीं है, वायु इसे सुखा नहीं सकती और वायु इसे गला नहीं सकती है। इस जीवात्मा को ईश्वर के द्वारा इसके पूर्व कर्मानुसार जिसे प्रारब्घ कहते हैं, नाना योनियों में से किसी एक योनि में जन्म मिलता है। जन्म दिये जाने का कारण पूर्व कर्मों के सुख व दुःख रुपी फलों को भोग व मनुष्य योनि में मोक्ष को केन्द्रित कर वेद निर्दिष्ट व निर्धारित शुभ कर्मों को करके धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति करना है। जिस प्रकार से मनुष्य को जन्म व मृत्यु ईश्वर से प्राप्त होती है, कर्मों के सुख व दुःख रुपी फल ईश्वर से प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार से मोक्ष की प्राप्ति भी ईश्वर के द्वारा ही होती है। मोक्ष सभी प्रकार के दुःखों की पूर्णतया निवृति तथा जन्म व मरण से छुट्टी का नाम है। जिस प्रकार विद्यालय में परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर उन्नति होकर उससे आगे की कक्षा में प्रवेश मिलता है और पूर्व कक्षा के पाठ्यक्रम व अध्ययन आदि कार्यों से अवकाश मिल जाता है, इसी प्रकार से मोक्ष में भी जन्म-मरण से अवकाश होकर इससे ऊपर व ऊंची मोक्ष की अवस्था प्राप्त होती है। अनुमानतः महर्षि दयानन्द व उनके समान कुछ आत्माओं को मोक्ष की प्राप्ति होने का अनुमान किया जाता है।

 

मनुष्य को जन्म व जीवन ईश्वर के द्वारा प्राप्त होता है जिसमें माता-पिता, समाज एवं पर्यावरण की एक सहायक के रूप में भूमिका होती है। ईश्वर कैसा है, इसका उत्तर हम महर्षि दयानन्द के शब्दों में देना उचित समझते हैं। यही ज्ञान व विज्ञान से युक्त उत्तर है। वेदों के यथार्थ अर्थों के विद्वान महर्षि दयानन्द के अनुसार  ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है। उन्होंने यह भी बताया कि संसार में केवल एक ईश्वर ही उपासनीय अर्थात् हमारी स्तुति प्रार्थानाओं के योग्य है अर्थात् इनका पात्र है। स्वामीजी के अनुसार ईश्वर के गुणकर्मस्वभाव और स्वरुप सत्य ही हैं, वह केवल चेतनमात्र वस्तु है जो एक अद्वितीय, सर्वत्र व्यापक अर्थात संसार के भीतर बाहर विद्यमान उपस्थित है, सत्य गुणवाला है, जिसका स्वभाव अविनाशी है, वह ज्ञानी, आनन्दी, शुद्ध और अजन्मा आदि है। ईश्वर का कर्म जगत् की उत्पत्ति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को उनके पापपुण्य के फल ठीकठीक पहुंचाना है। ओ३म्, ब्रह्म, परमात्मा आदि नाम ईश्वर के ही हैं और इस सृष्टि को बनाकर इसका पालन संहार करने का कार्य भी ईश्वर ही करता है। ऐसे गुण, कर्म, स्वभाव और स्वरुप वाली सत्ता ही ईश्वर संज्ञक नाम वाली है। ईश्वर का यह सत्य वा यथार्थ स्वरुप है। जीवात्मा व मनुष्यों को इस स्वरुपवान ईश्वर की ही स्तुति, प्रार्थना व उपासना करनी चाहिये। स्तुति व प्रार्थना करने से लाभ यह होता है कि हम ईश्वर के जिस गुण की स्तुति करते हैं वह गुण हमारी आत्मा व जीवन में प्रविष्ट हो जाता है। स्तुति के प्रभाव ये आत्मा के मल रूपी सभी दुर्गुण, दुःख व दुव्र्यस्न दूर होने आरम्भ हो जाते हैं और इनका स्थान स्तुति व प्रार्थना किये गये गुण, कर्म व स्वभाव लेने लगते हैं। धीरे-धीरे स्तोता व प्रार्थना करने वाले की आत्मिक, बौद्धिक, सामाजिक व शारीरिक उन्नति होती है। अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि भी होती है। स्तुति, प्रार्थना उपासना का सबसे बड़ा लाभ यह है कि मनुष्य ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करता है। इस कृतज्ञता प्रदर्शित करने का नाम ही स्तुतिप्रार्थनाउपासना है। कृतज्ञता इस लिए कि ईश्वर ने हमें मनुष्य के रूप में जन्म दिया, मातापिताभाईबहिनसंबंधी इष्टमित्र प्रदान किये। वेदों का सत्य ज्ञान प्रदान किया, हमारे लिए ही उसने इस सृष्टि को रचा इसमें नाना प्रकार के सुख प्रदान करने वाले अन्न, जल, वायु रत्नादि भोग प्रदान किये। वह सर्वान्तर्यामी रूप से हमारी आत्मा में विद्यमान हमें सत्कर्मों करने की प्रेरणा करता रहता है। जब हम कोई अच्छा, परोपकार, सेवा, ईश्वर-स्तुति-प्रार्थना-उपासना, यज्ञ आदि का कार्य करते हैं तो हमें सुख, आनन्द व उत्साह की अनुभूति कराता है और बुरा काम करने पर भय, शंका व लज्जा की अनुभूति कराकर उस कर्म को करने से रोकता है। इस सुख, आनन्द, उत्साह तथा भय, शंका, लज्जा रूपी प्रेरणा करने से ही ईश्वर की जीवात्मा में विद्यमानता व सर्वव्यापकता सहित निराकारता सिद्ध होती है। पुष्प, सृष्टि तथा नाना प्रकार के प्राणियों की रचना व इनमें अनेक विशेष्टिताओं को देखकर भी ईश्वर की सत्ता का होना व अस्तित्व सिद्ध होता है। ईश्वर के सभी मनुष्यों प्राणियों पर इतने उपकार हैं कि उन्हें गिना नहीं जा सकता। वह हमारे पूर्व के विभिन्न योनियों में अनन्त जन्मों में भी मित्र रूप से हमारा साथी रहा है और आगे भी रहेगा। अतः उसके प्रति स्तुतिप्रार्थनाउपासना, देव यज्ञ अग्निहोत्र आदि वेदानुकूल कर्मों को करके हमें अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करनी चाहिये। इससे जीवन के सभी दुःखों की निवृत्ति होकर सुखों की प्राप्ति सहित हमारे भावी जन्म अति उन्नत होंगे और आगामी किसी न किसी जन्म में मोक्ष की प्राप्ति भी हो सकती है।

 

संसार भर में रहने वाले सभी मनुष्यों को ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य स्वरुप को जानकर उसकी वेद व ऋषियों के द्वारा निर्मित विधि से स्तुति-प्रार्थना-उपासना आदि कर्तव्य करने चाहिये। ईश्वर प्रदत्त देव ज्ञान संसार के सभी मनुष्यों के लिए है। भारत के ऋषि-मुनि संसार के वर्तमान सभी मनुष्यों के पूर्वज हैं। उनका सम्मान करना सबका सामूहिक धर्म है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो ऐसे मनुष्यों का न तो यह जन्म और न भावी जन्म ही उन्नत होंगे और न कभी उन्हें मोक्ष की प्राप्ति की सम्भावना हो सकती है। इसका कारण मोक्ष वेद विहित कर्म-सापेक्ष उपलब्धि है। अन्यथा इसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः संसार के सभी लोगों को एक ही ईश्वर के सत्य स्वरुप को जानकर वैदिक विधि से ईश्वर की स्तुतिप्रार्थनाउपासना द्वारा उसे प्राप्त कर कृतघ्नता के दोष से बचना चाहिये और अपना वर्तमान भविष्य सुधारना चाहिये। सभी मनुष्यों को सत्य को जानकर एक मतस्थ होना व सबको एक मतस्थ करना भी कर्तव्य व धर्म है। आईये, वेदानुसार कृतज्ञता स्वरूप ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना तथा यज्ञादि कर्मों को करके हम ईश्वर, देश व समाज के प्रति कृतघ्नता के दोष से बचें और अपनी सर्वांगीण उन्नति करें।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

स्वामी विरजानन्द और स्वामी दयानन्द वैदिक धर्म व संस्कृति के सर्वाधिक प्रेमी ऐतिहासिक देशवासी’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

धर्म व संस्कृति के इतिहास पर दृष्टि डालने पर यह तथ्य प्रकट होता है कि महाभारत काल में ह्रासोन्मुख वैदिक धर्म व संस्कृति दिन प्रतिदिन पतनोन्मुख होती गई। महाभारत युद्ध का समय लगभग पांच हजार वर्ष एक सौ वर्ष है। महाभारत काल तक भारत ही नहीं अपितु समूचे विश्व में वैदिक धर्म व संस्कृति का प्रचार रहा है। यह भी तथ्य है कि विश्व में आज से पांच हजार वर्ष पूर्व कोई अन्य मत, धर्म व संस्कृति थी ही नहीं। वेद-आर्य धर्म के पतन का कारण ऋषि-मुनि कोटि के विद्वानों व आचार्यों का अभाव व कमी ही मुख्यतः प्रतीत होती है। महाभारत युद्ध में देश के बड़ी संख्या में अनेक राजा, क्षत्रिय व विद्वान मृत्यु को प्राप्त हुए। इससे राजव्यवस्था में खामियां उत्पन्न हुई। वर्ण-संकर का कारण भी यह महाभारत युद्ध था। वैदिक वर्ण व्यवस्था धीरे-धीरे समाप्त हो गई और उसका स्थान जन्मना जाति व्यवस्था, जिसे महर्षि दयानन्द ने मरण व्यवस्था कहा है, ने ले लिया। ऋषि-मुनियों व वेदों के विद्वानों की कमी व प्रजा द्वारा धर्म-कर्म में रुचि न लेने के कारण अज्ञान व अन्धविश्वास उत्पन्न होने आरम्भ हो गये थे जो उन्नीसवीं शताब्दी, आज से लगभग 150 वर्ष पूर्व, अपनी चरम अवस्था में पहुंच चुके थे। लोगों को यह पता ही नहीं था कि यथार्थ धर्म जो सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा चार आदि ऋषियों को दिये गए चार वेदों ऋग्वेद, यजर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के ज्ञान से आरम्भ हुआ था, वह प्रचलित अज्ञान व अन्धविश्वासयुक्त मत वा धर्म से कहीं अधिक उत्कृष्ट व श्रेष्ठ था व है। सौभाग्य से देश के सौभाग्य का दिन तब आरम्भ हुआ जब महर्षि दयानन्द के विद्या गुरू स्वामी विरजानन्द जी का जन्म पंजाब के करतारपुर की धरती पर हुआ। बचपन में उनके माता-पिता का देहान्त हो गया था। शीतला अर्थात् चेचक का रोग होने के कारण आपकी दोनों आंखे बचपन में ही चली गई। आपके भाई व भाभी का स्वभाव व व्यवहार आपके प्रति उपेक्षा व प्रताड़ना का था। अतः आपने गृह त्याग कर दिया। आपको घर से न जाने देने व रोकने वाला तो कोई था ही नहीं। अतः आप घर छोड़ने के बाद ऋषिकेश, हरिद्वार व कनखल आदि स्थानों पर रहकर तपस्या व साधना करते रहे। संस्कृत का अध्ययन भी आपने किया। विद्या ग्रहण के प्रति उच्च भाव संस्काररूप में आपमें विद्यमान थे जिसका लाभ यह हुआ कि आप नेत्रहीन होने पर भी संस्कृत व वैदिक ज्ञान से सम्पन्न हुए जो कि विगत पांच हजार वर्षों में हुए अन्य विद्वानों के भाग्य में नहीं था।

 

इतिहास में स्वामी दयानन्द जी का व्यक्तित्व भी अपूर्व व महान है। वह भी 14 वर्ष की अवस्था में सन् 1839 की शिवरात्रि के दिन व्रत व पूजा में अज्ञान व अन्धविश्वास की बातों का प्रमाण अपने शिवभक्त पिता से मांगते हैं। उनका समाधान न पिता और न ही अन्य कोई कर पाता है। उनमें सच्चे शिव वा ईश्वर को जानने का संस्कार वपन हो जाता है। शिवरात्रि की घटना के बाद मूलशंकर, स्वामी दयानन्द का जन्म का नाम, की बहिन और चाचा की मृत्यु हो जाती है। अब उन्हें मृत्यु से डर लगता है। वह मृत्यु का उपाय जानने की कोशिश करते हैं, परन्तु उनका निश्चित समाधान घर पर रहकर नहीं होता। अतः वह अपने प्रश्नों के समाधान के लिए बड़े योगियों व विद्वानों की शरण में जाने के लिए अपनी आयु के बाईसवें वर्ष में घर का त्याग कर निकल पड़ते हैं। स्वामी विरजानन्द जी के पास सन् 1860 में पहुंच कर व उनसे लगभग 3 वर्ष अध्ययन कर उनकी सभी इच्छायें पूरी होती है। समाधि सिद्ध योगी तो वह गुरु विरजानन्द जी के पास आने से पहले ही बन चुके थे। अब वह वेद विद्या में निष्णात भी हो गये। स्वामी विरजानन्द जी से विदा लेने से पूर्व स्वामी दयानन्द अपने गुरु के लिए उनकी प्रिय वस्तु लौंग दक्षिणा के रूप में लेकर उपस्थित होते हैं। गुरुजी इस दक्षिणा को स्वीकार करते हुए दयानन्द जी से अपने मन की बात कहते हैं। उन्होंने कहा कि सारा देश ही नहीं अपितु विश्व अज्ञान व अन्धविश्वासों की बेडि़यों में जकड़ा हुआ है जिससे सभी मनुष्य नानाविध दुःख पा रहे हैं। उन्हें दूर करने का एक ही उपाय है कि वेदों के ज्ञान का प्रचार कर समस्त अज्ञान, अन्धविश्वास व कुरीतियों को दूर किया जाये। गुरुजी स्वामीजी से वेदों का प्रचार कर मिथ्या अन्धविश्वासों का खण्डन करने का आग्रह करते हैं। उत्तर में स्वामी दयानन्द अपने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य कर उसके अनुसार अपना जीवन अर्पित करने का वचन देते हैं। गुरुजी दयानन्दजी के उत्तर से सन्तुष्ट हो जाते हैं। स्वामी दयानन्द का इस घटना के बाद का सारा जीवन अज्ञान पर आधारित अन्धविश्वासों के खण्डन, समाज सुधार व सत्य ज्ञान के भण्डार वेदों के प्रचार में ही व्यतीत होता है।

 

स्वामी दयानन्द जी ने गुरुजी से विदा लेकर मूर्तिपूजा, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, सामाजिक विषमता व सभी सामाजिक कुरीतियों का खण्डन करने के साथ वेदों की शिक्षाओं का प्रचार किया। वह एक-एक करके अनेक स्थानों पर जाते, वहां प्रवचन देते, लोगों से मिलकर उनकी शंकाओं का समाधान करते, पौराणिक व इतर मतों के विद्वानों से शास्त्रार्थ करते और वेदों के प्रमाणों व युक्तियों से अपनी बात मनवाते थे। 16 नवम्बर, 1869 को काशी में मूर्तिपूजा पर वहां के शीर्षस्थ लगभग 30 पण्डितों से उनका विश्व प्रसिद्ध शास्त्रार्थ हुआ जिसमें वह विजयी होते हैं। इसके बाद उन्होंने आर्यसमाजों की स्थापना, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, वेद भाष्य, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, गोकरूणानिधि, व्यवहारभानु आदि ग्रन्थों का प्रणयन किया तथा परोपकारिणी सभा की सथापना की।  इन सबका उद्देश्य देश व विश्व से धार्मिक अज्ञान, अन्धविश्वास सहित सामाजिक विषमता तथा सभी सामाजिक कुरीतियों को दूर कर वैदिक धर्म की विश्व में स्थापना करना था जिससे संसार से दुःख समाप्त होकर सर्वत्र सुख व आनन्द का वातावरण बने।

 

स्वामी विरजानन्द जी और स्वामी दयानन्द के जीवन का सबसे बड़ा गुण उनका ईश्वर के सच्चे स्वरुप का ज्ञान, उसके प्रति पूर्ण समर्पण, वेदों का यथार्थ ज्ञान तथा उसके प्रचार व प्रसार की प्रचण्ड व प्रज्जवलित अग्नि के समान तीव्रतम प्रबल व दृण भावना का होना था। अज्ञान व अन्धविश्वास सहित सामाजिक विषमता व सभी सामाजिक कुरीतियां उन्हें असह्य थी। उन्होंने प्राणपण से वेदों का प्रचार कर अज्ञान के तिमिर का नाश किया। उन दोनों महापुरुषों के समान वेदों का ज्ञान रखने वाला व उनके प्रचार व प्रसार के लिए अपनी प्राणों को हथेली पर रखने वाला उनके समान ईश्वरभक्त, वेदभक्त, देशभक्त, ईश्वर-वेद-धर्म का प्रचारक, अद्वितीय ब्रह्मचारी, माता-पिता-परिवार-गृह-संबंधियों का त्यागी व हर पल समाज, देश व मानवता के कल्याण का चिन्तन व तदनुरुप कार्यों को करने वाला महापुरुष दूसरा नहीं हुआ। उन्होंने अपने जीवन में जो कार्य किया, वह आदर्श कार्य था जो ईश्वर द्वारा प्रेरित होने सहित उसे करने की समस्त शक्ति व बल भी उन्हें ईश्वर की ही देन था। यदि यह दोनों महापुरुष यह कार्य न करते तो हमें लगता है कि कुछ समय बाद वैदिक धर्म व संस्कृति संसार से विदा हो कर इतिहास की वस्तु बन जाती। स्वामी विरजानन्द और स्वामी दयानन्द जी ने परस्पर मिलकर जो कार्य किया उसे अभूतपूर्व कह सकते हैं। महर्षि दयानन्द जैसा ईश्वर-वेद-देश-समाज भक्त दूसरा मनुष्य नहीं हुआ है। उन्होंने संसार के लोगों को सच्चा मार्ग दिखाया। उसी मार्ग का अनुसरण कर ही मनुष्य अपनी आत्मा की उन्नति कर सकता है, अपने भविष्य व मृत्योत्तर जीवनों व जन्मों को संवार सकता है और धर्म-अर्थ-काम व मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। यही मनुष्य जीवन का चरम व प्रमुख उद्देश्य व लक्ष्य है। अपने गुणों व कार्यों से न केवल गुरु विरजानन्द अपितु महर्षि दयानन्द भी सूर्य व चन्द्र की समाप्ति तक अमर रहेंगे। इन दोनों महान आत्माओं का विश्व के इतिहास में अद्वितीय व अमर स्थान बन गया है। उनके प्रयासों के परिणाम से हम निःसंकोच वैदिक धर्म को भविष्य का विश्व धर्म भी कह सकते हैं जिसमें सभी मनुष्यों का सुख व कल्याण निश्चित रुप से निहित है। अन्य कोई मार्ग व पथ मनुष्य जीवन व देश की उन्नति व दुःखों से मुक्ति का नहीं है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001/फोनः09412985121

वेदप्रचार की लगन ऐसी हो: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

वेदप्रचार की लगन ऐसी हो: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

आचार्य भद्रसेनजी अजमेरवाले एक निष्ठावान् आर्य विद्वान्

थे। ‘प्रभुभक्त दयानन्द’ जैसी उत्तम  कृति उनकी ऋषिभक्ति व

आतिथ्य  भाव का एक सुन्दर उदाहरण है। अजमेर के कई पौराणिक

परिवार अपने यहाँ संस्कारों के अवसर पर आपको बुलाया करते

थे। एक धनी पौराणिक परिवार में वे प्रायः आमन्त्रित किये जाते थे।

उन्हें उस घर में चार आने दक्षिणा मिला करती थी। कुछ वर्षों के

पश्चात् दक्षिणा चार से बढ़ाकर आठ आने कर दी गई।

एक बार उस घर में कोई संस्कार करवाकर आचार्य प्रवर लौटे

तो पुत्रों श्री वेदरत्न, देवरत्न आदि ने पूछा-क्या  दक्षिणा मिली?

आचार्यजी ने कहा-आठ आना।

बच्चों ने कहा-आप ऐसे घरों में जाते ही ज़्यों हैं? उन्हें क्या

कमी है?

वैदिक धर्म का दीवाना आर्यसमाज का मूर्धन्य विद्वान् तपःपूत

भद्रसेन बोला-चलो, वैदिकरीति से संस्कार हो जाता है अन्यथा

वह पौराणिक पुरोहितों को बुलवालेंगे। जिन विभूतियों के हृदय में

ऋषि मिशन के लिए ऐसे सुन्दर भाव थे, उन्हीं की सतत साधना से

वैदिक धर्म का प्रचार हुआ है और आगे भी उन्हीं का अनुसरण

करने से कुछ बनेगा।