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‘सन्त रोमां रोल्या के महर्षि दयानन्द विषयक उत्साहवर्धक यथार्थ विचार’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

सन्त रोमां रोल्या (1866-1944) यूरोप के उच्चकोटि के ग्रंथकारों और साहित्यिकों में से थे जो यूरोप के महान् मस्तिष्कों का प्रतिनिधित्व करने के लिए प्रख्यात हैं। उन्हें सन् 1915 का साहित्य का नोबेल पुरुस्कार भी मिला है। फ्रेंच भाषा में उन्होंने श्री रामकृष्ण परमहंस की जीवनी लिखी जिसके प्रथम भाग का अंग्रेजी अनुवाद कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रो. ई0एफ0 मलकीलन स्मिथ ने किया और जो सन् 1930 में अद्वैत आश्रम मायावती अल्मोड़ा द्वारा प्रकाशित हुई। इस जीवन चरित्र में विद्वान् ग्रन्थकर्ता ने एकता के निर्माता “Builders of Unity” शीर्षक के अन्तर्गत लगभग 25 पृष्ठों में महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के विषय में आलोचनात्मक दृष्टि से विचार किया है। उनका दृष्टिकोण पाश्चात्य था और भारत से दूर बैठ कर वह लिख रहे थे। वह महर्षि दयानन्द के प्रति सद्भावना रखते हुए भी उनकी बहुमुखी प्रतिभा का मूल्यांकन करने में कहीं-कहीं असमर्थ रहे। उन्होंने उपलब्ध हुई सामग्री के आधार पर महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा उसका ऐतिहासिक मूल्य है। श्री रामकृष्ण परमहंस की जीवनी में महर्षि दयानन्द से संबंधित सन्त रोमां रोल्या द्वारा लिखी सामग्र्री के अनुवादक श्री रघुनाथ प्रसाद पाठक ने मार्च, 1957 को लिखा है कि कई स्थलों पर तो संत रोमां रोल्या ने महर्षि दयानन्द के अभिनन्दन में जो शब्द लिखे हैं, उसे पढ़ कर लगता है कि उन्होंने महर्षि की इतनी प्रशंसा की है कि उन्होंने कलम ही तोड़ दी है। इस लेख में हम संत रोमां रोल्या द्वारा कहे गये 8 प्रमुख कथनों को अंग्रेजी भाषा व उसके अनुवाद सहित उद्धृत कर रहें हैं। शेष प्रसंगों को लेख की सीमा को ध्यान में रखते हुए छोड़ दिया है जिसके लिए हम पाठकों से अनुग्रह करेंगे कि वह सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली द्वारा प्रकाशित लघु पुस्तक ‘‘भारत का एक ऋषि पढ़ने का कष्ट करें।

 

सन्त रोमां रोल्या लिखते हैं कि  (1) “The man (Dayanand) with the nature of a lion is one of those whom Europe is too apt to forget when she judges India, but whom she will probably be forced to remember to her cost, for he was that rare combination, a thinker of action with a genius for leadership. (p.146)” अर्थात् सिंह समान निर्भीक प्रकृति वाला यह महापुरुष उन व्यक्तियों में था जिन्हें भारत का मूल्यांकन करते समय यूरोप भुलाने की चेष्टा करता हुआ भी भुला सकेगा, क्योंकि ऐसा करना उसके (यूरोप के) लिये महंगा सौदा सिद्ध होगा। इस महान् पुरुष दयानन्द में विचार, कर्म और नेतृत्व की प्रतिभा का अनुपम सम्मिश्रण था।’ 

 

(2) Dayanand was not a man to come to an understanding with religious philosphers imbued with Western ideas. (p.150) अर्थात् दयानन्द पाश्चात्य विचारों से विमोहित दार्शनिकों के साथ समझौता करने वाले महानुभाव थे।

 

(3) It was impossible to get the better of him for he possessed an unrivalled knowledge of Sanskrit and the Vedas while the burning vehemence of his words brought his adversaries to naught.  They likened him to a flood. Never since Shankara had such a prophet of Vedism appeared. (p.150) अर्थात् उन (दयानन्द) पर विजय पाना असम्भव था क्योंकि वे वैदिक वांड्मय और संस्कृत के अनुपम भण्डार थे। उनके शब्दों की धधकती हुई आग से उनके विरोधियों का विरोध भस्मसात हो जाया करता था। वे लोग जल की प्रबल बाढ़ के साथ दयानन्द की तुलना किया करते थे। शंकराचार्य के पश्चात् दयानन्द जैसा वेदवित् भारत भूमि में उत्पन्न नहीं हुआ।

 

(4)  Dayanand’s stern teachings corresponded to the thought of his countrymen and to the first stirrings of Indian nationalism to which he contributed. (p.153) अर्थात् दयानन्द की उग्र और प्रौढ़ शिक्षायें उसके देशवासियों की विचारधारा के अनुकूल थीं और उन शिक्षाओं से भारतीय राष्ट्रीयता का सर्वप्रथम नवजागरण हुआ।

 

(5) The enthusiastic reception accorded to the thunderous champion of the Vedas, a Vedist belonging to a great race and penetrated with the sacred writings of ancient India and with her heroic spirit is then easily explained.  He alone hurled the defiance of India against her invaders. (p.157) अर्थात् महान् वीर योद्धा दयानन्द का उत्साहपूर्वक स्वागत होने का कारण इस पृष्ठभूमि के प्रकाश में सहज ही में समझ में सकता है कि वे स्वयं वेदों के उग्र प्रचारक थे और वीरभावना के साथ प्राचीन भारत के पवित्र ग्रन्थों को साथ लेकर कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने अकेले ही भारत पर आक्रमण करने वालों के विरुद्ध मोर्चा लगाया।

 

(6) He had no pity for any of his fellow countrymen past or present who had contributed in any way to the thousand year decadence of India, at to one time the mistress of the world. अर्थात् दयानन्द ने अपने देश के प्राचीन वा अर्वाचीन किसी भी निवासी को क्षमा नहीं किया जिसने किसी किसी रूप में उस भारत के 1000 वर्ष के हुए पतन में योग दिया था, जो किसी समय संसार का शिरमौर था।

 

(7) It was in truth an epoch making date for India when a Brahman not only acknowledged that all human beings have the right to know the Vedas whose study had been previously prohibited by orthodox Brahmans, but insisted that their study and propaganda was the duty of every Arya (p.159) अर्थात् सत्य यह है कि भारत के लिए वह दिन एक युगप्रवर्तक दिन था जब एक ब्राह्मण ने केवल यह स्वीकार किया कि उस वेदज्ञान पर मानव मात्र का अधिकार है जिनका पठनपाठन उनसे पूर्व के कट्टर पन्थी ब्राह्मणों ने निषिद्ध कर दिया था, अपितु इस बात पर भी बल दिया कि वेदों का पढ़नापढ़ाना और सुननासुनाना सब आर्यो का परम धर्म है। इसके आगे एक अन्य स्थान पर वह लिखते हैं कि (8) दयानन्द ने भारत के निष्प्राण शरीर में अपना अदम्य उत्साह, अपना दृढ़ निश्चयात्मक संकल्प और सिंह जैसा रक्त भर कर उसे सजीव किया। उसके शब्द वीरोचित शक्ति के साथ गूंज गये।

 

संत रोमा रोल्या ने महर्षि दयानन्द जी के जीवन के अनेक प्रसंगों को भी अपनी लेखनी से श्रद्धापूर्ण शब्दों में प्रस्तुत किया है। यहां हम उनके द्वारा लिखित ‘‘काशी शास्त्रार्थ की एक घटना को देकर सन्तोष कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि शास्त्रार्थ में पराजित हुए पौराणिक पंडितों ने दयानन्द को अपने रोम (काशी) में आने के लिए आमंत्रित किया। दयानन्द निर्भयतापूर्वक वहां गए और सन् 1869 के नवम्बर मास के उस महान् शास्त्रार्थ में प्रवृत्त हुए जिसकी तुलना होमर के काव्य में वर्णित संग्राम के साथ की जा सकती है। लाखों आक्रान्ताओं के सामने जो उन्हें परास्त करने के लिए उत्सुक थे, उन्होंने अकेले 300 पंडितों के साथ शास्त्रार्थ किया, दूसरे शब्दों में पोप गढ़ की अग्रगामिनी और सुरक्षित दोनों सेनाओं के साथ दयानन्द ने यह सिद्ध किया कि जिन ग्रंथों पर आचरण किया जाता है वे वेदानुकूल नहीं हैं। उन्होंने अपना आधार वेद को बनाया हुआ था। पंडितों का धीरज टूटते हुए देर लगी। उन्होंने दयानन्द का परिहास और बहिष्कार किया। दयानन्द को अपने चारों ओर निराशा के बादल छाये हुए दिखाई पड़े परन्तु महाभारत जैसे इस संघर्ष की प्रतिध्वनि से समस्त भारत गूंज उठा जिसका परिणाम यह हुआ कि भारतवर्ष में उनका नाम प्रसिद्ध हो गया।

 

हमने साहित्य का नोबल पुरुस्कार प्राप्त संत रोमां रोल्या जी की पुस्तक से महर्षि दयानन्द विषयक कुछ मुख्य प्रसंगों को प्रस्तुत किया है जिससे एक विदेशी निष्पक्ष विद्वान के शब्दों में महर्षि दयान्द के व्यक्तित्व व कृतित्व का अनुमान लगाया जा सके। महर्षि दयानन्द जैसा विलक्षण वेदभक्त, देशभक्त, ब्रह्मचर्य का आदर्श, वेदों के ज्ञान विज्ञान से परिपूर्ण, अपूर्व समाजसुधारक, पतितोद्धारक धर्मप्रचारक भारत में अभी तक दूसरा उत्पन्न नहीं हुआ। इतना और निवेदन करना चाहते हैं कि महर्षि दयानन्द का वेदों के प्रति कोई परम्परागत व अतार्किक पूर्वाग्रह नहीं था अपितु वेदों के महत्व व विशेषताओं ने ही उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया था। उन्होंने युक्ति व तर्क की कसौटी तथा सृष्टिक्रम के अनुकूल होने के कारण ही वेदों की महत्ता को स्वीकार किया था। वेदों का धर्म व समाज सम्बन्धी विचारों व शिक्षाओं में जो गौरवपूर्ण स्थान है, वह संसार के किसी अन्य ग्रन्थ का उसकी सामग्री की विशेषता की दृष्टि से नहीं है। वेद सार्वभौम धर्मग्रन्थ हैं जो मनुष्यों को सदाचारी और गुणवान बनाते हैं और जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम मोक्ष को प्राप्त कराते हैं। अन्य ग्रन्थों में यह बात न होने के कारण ही महर्षि दयानन्द ने वेदों को अपनाया था। संत रोमां रोल्या जी ने स्वामी दयानन्द जी के प्रति जिन भावपूर्ण शब्दों को लिखा वह निष्पक्ष एवं यथार्थ है। महर्षि दयानन्द ऐसे ही थे व इससे भी अधिक महत्वपूर्ण, गौरवशाली व महान थे। वेद और दयानन्द जी की शरण में सच्चे आध्यात्मिक जीवन का ज्ञान प्राप्त करने और अपने जीवन को सफल बनानें के लिए आईये और सफल मनोरथ होइये।  

 –मनमोहन कुमार आर्य

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‘वैदिक आश्रम व्यवस्था श्रेष्ठतम सामाजिक व्यवस्था’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

ईश्वर का स्वभाव जीवों के सुख वा फलोभोग के लिए सृष्टि की रचना, पालन व प्रलय करना है। सृष्टि की रचना आदि का यह क्रम प्रवाह से अनादि है अर्थात् न तो कभी इसका आरम्भ हुआ और न कभी अन्त होगा, अर्थात् यह हमेशा चलता रहेगा। अपने इस स्वभाव के अनुसार ही ईश्वर ने वर्तमान समग्र सृष्टि को रच कर मनुष्यों सहित सभी प्राणियों को भी रचा और माता-पिता व आचार्य की भांति उनको अपना जीवन सुख पूर्वक व्यतीत करने और जीवन के चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करने के लिए चार वेदों का ज्ञान भी दिया। इन बातों को समझने के लिए हमें ईश्वर के  सत्य व यथार्थ स्वरुप का ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा यह प्रक्रिया समझ में नहीं आ सकती। ईश्वर की सत्ता सत्य है और यह सत्ता चेतन है। चेतन सत्ता, ज्ञान व गुणों से युक्त किसी क्रियाशील सत्ता को, जो सोच समझ कर व उचित-अनुचित का ध्यान रखकर कर्म वा क्रिया को करती है, कहते हैं। ईश्वर का प्रत्येक कार्य भी सत्य व न्याय पर आधारित होता है। ईश्वर के गुणकर्मस्वभाव को जानना और उसके अनुसार ही अपना जीवन बनाना अर्थात् ईश्वर के गुणों के अनुरुप ही कर्म, व्यवहार आचरण करने को धर्म, मानव धर्म वैदिक धर्म कहते हैं। इसके अलावा जितने भी मत, सम्प्रदाय, पन्थ, सेक्ट, रिलीजन आदि हैं वह पूर्ण व शुद्ध धर्म नहीं हैं यद्यपि उनमें किसी में कम व किसी में कुछ अधिक धर्म का भाग होता है परन्तु उनमें धर्म की पूर्णता नहीं है। ईश्वर सत्य व चेतन स्वरूप होने के साथ आनन्दस्वरूप भी है। वह अनादि काल से अब तक सदा-सर्वदा आनन्द की ही स्थिति में रहा है और भविष्य में अनन्त काल तक आनन्दपूर्वक ही रहेगा। इसका कारण उसका निष्काम कर्मों को करना है जिससे वह फल के बन्धन, सुख व दुःख, में नहीं आता। मनुष्य को निद्रा, सुषुप्ति, ध्यान व समाधि की अवस्थाओं में जो आनन्द प्राप्त होता है, वह ईश्वर के सान्निध्य के कारण ही होता है। जिस मात्रा में हमारी आत्मा का, मल, विक्षेप व आवरण की स्थिति के अनुसार, ईश्वर से सान्निध्य व सम्पर्क बनता है, उतनी ही मात्रा में हमें आनन्द की अनुभूति होती है। समाधि में यह सम्पर्क सर्वाधिक होने से सर्वाधिक आनन्द की उपलब्धि होती है। ईश्वर के अन्य गुण, कर्म स्वभावों में उसका सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वांधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सृष्टिकर्ता, जीवों को जन्म देना, कर्मों के सुखदुःखरुपी फल देना, आयु निर्धारित करना, सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति प्रलय करना आदि भी कर्म वा कार्य हैं। ईश्वर के इन गुणों पर चिन्तन-मनन करने सहित वेद व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों को पढ़कर ईश्वर से अधिकाधिक परिचित हुआ जा सकता है।

 

ईश्वर सर्वगुणसम्पन्न होने के कारण सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक एक आदर्श माता-पिता व आचार्य का कर्तव्य पूरा करता है और सभी प्राणियों की रक्षा के साथ मनुष्यों की बुद्धि की क्षमता के अनुसार अपना जीवन सुचारु व सुव्यवस्थित रुप से चलाने के लिए ज्ञान जिसे वेद कहते हैं, देता है। महर्षि दयानन्द ने सम्पूर्ण वैदिक व अवैदिक साहित्य का अध्ययन करने के बाद सन् 1875 में घोषणा की थी कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेदों का पढ़ना पढ़ाना तथा सुनना सुनाना सभी आर्यों अर्थात् श्रेष्ठ गुणों से युक्त एवं जन्म, जाति, मत धर्म के पूर्वाग्रहों से रहित सभी मनुष्यों का परम कर्तव्य वा धर्म है। अतः वेदों में मनुष्येां के लिए श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करने के लिए आदर्श सामाजिक, राजनैतिक, शिक्षा व्यवस्था आदि का विस्तृत व पूर्ण ज्ञान है जिसको वैदिक व्याकरण एवं ऋषि-मुनियों के ग्रन्थों के जानकार मनुष्य समाधि अवस्था को प्राप्त होकर न केवल उसे पूर्णतया समझते हैं अपितु अन्य लोगों के हितार्थ वेदों के भिन्न-भिन्न विषयों की सरल भाषा व शब्दों में व्याख्या कर उसे प्रचारित करते हैं। यतः वेदों में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रमों का भी ज्ञान सम्मिलित है जिसका विस्तार ब्राह्मण एवं मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में किया गया है। शतपथ ब्राह्मण काण्ड 14 में ब्रह्मचर्याश्रमं समाप्य गृही भवेत् गृही भूत्वा वनी भवेद्वनी भूत्वा प्रर्वजेत्।। में स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्यों को उचित है कि ब्रह्मचर्याश्रम को समाप्त करके गृहस्थ बने, गृहस्थी के बाद वानप्रस्थी और वानप्रस्थी के बाद संन्यासी होवें अर्थात् अनुक्रम से चार आश्रमों का विधान है। आज भारत व विश्व के प्रायः सभी देशों में इस सामाजिक व्यवस्था का कुछ विकृत रूप देखा जाता है। आईये, वैदिक आश्रम व्यवस्था के अनुसार चारों आश्रमों पर एक दृष्टि डाल लें।

 

ब्रह्मचर्याश्रम-आयु का प्रथम व सबसे बड़ा भाग ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य काल शिक्षा, शरीरोन्नति और दीक्षाप्राप्ति के लिए नियत है। शिक्षा जिसको अन्य भाषाओं में ‘‘तालीम और “Education” कहते हैं, आत्मिक शक्तियों के विकास करने को कहते हैं। दीक्षा (तरबियत) = (Ins-truction) बाहर से ज्ञान प्राप्त करके भीतर एकत्र करने का नाम है। मनुष्य का शरीर तीन प्रकार के परमाणुओं से बना है (1) सत्य, (2) रजस् और (3) तमस्। इनमें से तम अन्धकार (Ignorance) को कहते हैं। मनुष्य श्रारीर में जब तमस् परमाणु बढ़ जाते हैं, तब अन्तःकरण पर अन्धकार का आवरण आ जाता है, जिससे मानसिक शक्तियों का विकास नहीं होता, किन्तु उसी अन्धकार के आवरण (परदे) से अन्धकार की ही किरणें निकलकर उसे मूर्ख बनाया करती हैं। ‘‘रजस् अनियमित कर्तव्य (indisciplined activity) कहते हैं। नियमित कर्तव्य को धर्म और अनियमित कर्तव्य को अधर्म कहते हैं। जब ‘‘रज के परमाणु मनुष्य में बढ़ जाते हैं तब यह भी आचरण रूप होकर आत्मिक शक्तियों के विकास में बाधक होते हैं। और बाहर विषय-भोग की कामना में प्रकट हुआ करतें हैं। सत्व प्रकाश को कहते हैं। जब सत्व के परमाणु मनुष्य में बढ़ते हैं तब अन्तःकरण में प्रकाश की मात्रा बढ़ती है, जिससे सुगमता से आत्मिक शक्तियों का विकास होता है। इसलिए शिक्षाप्राप्ति के लिए मनुष्य का यह कर्तव्य हुआ कि तम को दूर, रज को नियमित और सत्य की वृद्धि करे। इस कर्तव्य की पूर्ति के लिए शक्ति (Energy) अपेक्षित होती है, यह शक्ति ब्रह्मचर्य से प्राप्त होती है। इसलिए शिक्षा के लिए ब्रह्मचर्य अनिवार्य है। ब्रह्मचर्य से शक्ति किस प्रकार प्राप्त होती है? इसका उत्तर यह है कि मनुष्य शरीर में जब भोजन कई कार्यों, क्रियाओं वा परिवर्तनों के बाद रेत (Albumen) में परिणत होता है और सुरक्षित रहता है तब उसमें क्रमशः अग्नि, विद्युत् व ओज गुण आते हैं। अन्त में वह वीर्य के रूप में हो जाता है। यही वीर्य मनुष्य के शरीर की शक्ति का केन्द्र है। इससे सम्पूर्ण शारीरिक और आत्मिक शक्ति उत्पन्न हुआ करती है। इसी वीर्योत्पत्ति और उसके सुरक्षित रखने की कार्यप्रणाली का नाम ब्रह्चर्य है। इस प्रकार मनुष्य को अपने जीवन के पहले भाग में जिसकी न्यून से न्यून अवधि 25 वर्ष है, ब्रह्मचर्यपूर्वक शिक्षा और दीक्षा प्राप्त करनी चाहिए, सभी विद्याओं, ज्ञान विज्ञान इनके क्रियान्वित ज्ञान का अनुभव प्राप्त करना चाहिये, यही ब्रह्मचर्य का कर्तव्य विधान है। 

 

गृहस्थाश्रम-सांसारिक और पारलौकिक सुख-प्राप्ति के लिए विवाह करके अपने सामर्थ्य के अनुसार परोपकार करना और नियत काल में विधि के अनुसार ईश्वर-उपासना एवं गृह के कर्तव्यों को करके सत्य धर्म में ही अपना तन-मन-धन लगाना तथा धर्मानुसार सन्तानों की उत्पत्ति, उनका पालन करना व उन्हें योग्यतम बनाना, इन मुख्य कार्यों को करने को ही गृहाश्रम कहा जाता है। यही गृहस्थाश्रम है तथा यही इसके उद्देश्य व कर्तव्य हैं। इस आश्रम में रहते हुए स्त्री व पुरुषों को नियमपूर्वक सन्तानोत्पत्ति सहित जीविका भी उपलब्ध करनी चाहिए और सन्तान को अपने से अच्छा बनाने का यत्न करना चाहिए। गृहस्थाश्रम में रहते हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तपस्वी शूद्र अपने अपने कर्मों को करते हुए परिवार, समाज व देश को उन्नत व सशक्त बनाते हैं। गृहस्थाश्रम की अवधि सन्तानों का विवाह होने व उनकी सन्तान भी हो जाने तक है। इसके बाद जीवनोन्नति के लिए अगले आश्रम वानप्रस्थ में प्रवेश करना होता है।

 

वानप्रस्थाश्रम-गृहस्थाश्रम में रहने से जो विकार मनुष्य में उत्पन्न हो जाते हैं उनको दूर करके अपने को ब्रह्मचर्याश्रम वालों की भांति स्वच्छ बना लेना, इस आश्रम का मुख्योद्देश्य है। यही आश्रम संन्यासाश्रम में जाने की तैयारी का काम किया करता है। वानप्रस्थ आश्रम नाम से यह विदित होता है कि इस आश्रम में प्रवेश व निवास के लिए स्वगृह व परिवार से दूर वन में जाना है। आजकल वन में जाना व रहना कठिन व सम्भव कोटि में नहीं है। महर्षि दयानन्द ने तो युवावस्था से सीधे ही संन्यास ले लिया था और वह सारा जीवन देश का भ्रमण करते रहे। इसका कारण यह था कि उन्हें ज्ञान की पिपासा थी और इसकी पूर्ति वन आदि किसी एक स्थान पर रहकर पूरी नहीं की जा सकती थी। अतः वानप्रस्थ आश्रम ऐसे स्थान पर करना है जहां इस आश्रम के अन्य लोग हों और उन्हें ईश्वर के ध्यान व समाधि का क्रियात्मक प्रशिक्षण वेद के मर्मज्ञ विद्वानों व अपने सहाध्यायियों से भली प्रकार से मिल सके। वानप्रस्थ आश्रम में वेदों के मर्मज्ञ विद्वान व प्रातः सायं यज्ञ की व्यवस्था भी होनी चाहिये जिनकी संगति व अनुष्ठान करके वानप्रस्थी संन्यास के सर्वथा योग्य बन सकें। इसी क्रम में हरिद्वार-ज्वालापुर में स्थित ‘‘आर्य वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम की चर्चा कर लेना भी उचित होगा। यह आश्रम सम्प्रति नगर के बीच में स्थित है। यहां सैकड़ों वानप्रस्थी व संन्यासी रहते हैं और अच्छे साधकों से भी यह स्थान परिपूर्ण है। यदि यहां रहकर वानप्रस्थ किया जाये, तो हमारी दृष्टि में वह भी उद्देश्य को पूरा करने में सहायक व फलितार्थ हो सकता है।

 

संन्यासाश्रम–मनुष्य को वानप्रस्थ से अन्तिम संन्यासाश्रम में आकर मुक्ति के साधनों को काम में लाते हुए जगत् के सुधार का भी यत्न करना पड़ता है। महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि संन्यास आश्रम में प्रविष्ट मनुष्य मोहादि आवरण व पक्षपात छोड़ कर तथा विरक्त होकर सब पृथिवी में परोपकार्थ विचरण करे। यहां विचरण करने से तात्पर्य अविद्यान्धकार, अज्ञान व मिथ्या मान्यताओं का प्रतिकार व प्रतिवाद कर वेद व आर्ष-ज्ञान का प्रचार करे तथा असत्य मत व मान्यताओं का खण्डन भी करें जिससे समाज व देश के सभी मनुष्य असत्य व अज्ञान से पृथक होकर सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों को धारण कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग पर चलते हुए लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। महर्षि दयानन्द वैदिक मान्यताओं के अनुरुप आदर्श संन्यासी थे। उन्होंने अपने संन्यासी जीवन में ईश्वरोपासना करते हुए ज्ञान का अर्जन किया और समाज के कल्यार्थ वा सुधारार्थ असत्य व अज्ञान का खण्डन करते हुए सत्य पर आधारित वैदिक मान्यताओं का मण्डन व प्रचार किया। इसका अनुकरण करना ही संन्यास का सच्चा स्वरुप व उदाहरण माना जा सकता है।

 

वैदिक धर्म में चार आश्रमों व चार वर्णो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र का विधान मनुष्य की पूर्ण व अधिकतम शारीरिक, सामाजिक, बौद्धिक व आत्मिक उन्नति को ध्यान में रखकर किया गया है। वैदिक विधानों से पूर्ण यह आश्रम व्यवस्था ही संसार की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था है जिसमें सभी मनुष्यों की सांसारिक व पारलौकिक दोनों ही उन्नति होती है। यह लक्ष्य अन्य किसी जीवन पद्धति से प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः इस व्यवस्था व इसके अनुरुप जीवन व्यतीत करने से मनुष्य अपने उद्देश्य व लक्ष्य प्राप्ति के निकट पहुंच कर उसे प्राप्त करने में समर्थ होता है। आईये ! वैदिक वर्ण-आश्रम व्यवस्था को स्वयं अपनायें व उसका प्रचार कर इसे सर्वत्र स्थापित करने का प्रयास करें।

 

 –मनमोहन कुमार आर्य

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‘महर्षि दयानन्द का आदर्श एवं प्रेरक जीवन’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

महर्षि दयानन्द वैदिक विचारधारा के ऋषि, विद्वान, आप्तपुरुष, सन्त, महात्मा सहित देश व समाज के हितैषी अपूर्व महापुरुष थे। उनका जीवन सारी मनुष्य जाति के लिए आदर्श, प्रेरणादायक एवं अनुकरणीय है। आज के लेख में हम उनके जीवन की कुछ महत्वपूर्ण प्रेरणादायक घटनाओं को प्रस्तुत कर रहे हैं। हम आशा करते हैं कि इनके अध्ययन व अनुकरण से सभी को लाभ होगा।

 

पहली घटना हम बरेली में उनके व्याख्यान की ले रहे हैं जिसका वर्णन स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपनी आत्मकथा कल्याण मार्ग के पथिक में किया है। बरेली में एक दिन स्वामी जी व्याख्यान दे रहे थे। व्याख्यान में नगर के गणमान्य पुरुष और बड़े-बड़े राज-अधिकारी, कमिश्नर आदि सभी उपस्थित थे। व्याख्यान में ईसाई मत की मिथ्या मान्यताओं का खूब खण्डन किया गया। दूसरे दिन व्याख्यान से पूर्व उनसे कहा गया कि आप इतना खण्डन न करें, इससे उच्च अंग्रेज अधिकारी अप्रसन्न होंगे। दूसरे दिन का व्याख्यान प्रारम्भ हुआ। व्याख्यान में कमिश्नर आदि सभी उच्च राज्याधिकारी उपस्थित थे। स्वामीजी ने गरज कर कहा-‘‘लोग कहते हैं कि असत्य का खण्डन कीजिए, पर चाहे चक्रवर्ती राजा भी अप्रसन्न क्यों हो जाए, परिणाम कुछ भी हो, हम तो सत्य ही कहेंगे। अभय से पूर्ण मनुष्य के ऐसे जीवन को ही कहते है ईश्वर की सत्ता और सत्य पर अटल विश्वास।

 

दूसरी घटना कर्णवास में महर्षि दयानन्द के प्रवास की ले रहे हैं। जब स्वामीजी यहां आये थे तो अनूपशहर का एक अच्छा संस्कृतज्ञ विद्वान् पं. हीरावल्लभ अपने कुछ साथियों के साथ शास्त्रार्थ के लिए स्वामीजी के पास आया। सभा संगठित हुई। पं. हीरावल्लभ ने बीच में ठाकुरजी का सिंहासन, जिस पर शालिग्रामादि की मूर्तियां थी, रखकर सभा में प्रतिज्ञा की कि मैं स्वामीजी से इन्हें भोग लगवाकर ही उठूंगा। छह दिन तक बराबर धाराप्रवाह संस्कृत में शास्त्ररार्थ होता रहा। सातवें दिन पण्डित हीरावल्लभ ने सभा में प्रकट कर दिया कि जो कुछ स्वामीजी कहते हैं वही ठीक है और सिंहासन पर वेद की स्थापना की। महर्षि दयानन्द के सभी उपलब्ध शास्त्रार्थ और प्रवचन पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी के ग्रन्थ महर्षि दयानन्द के शास्त्रार्थ और प्रवचन में उपलब्ध हैं। पाठक इस ग्रन्थ का अध्ययन कर इस ज्ञानवर्धक सामग्री से लाभान्वित हो सकते हैं।

 

कर्णवास की ही एक अन्य घटना इस प्रकार है कि एक दिन स्वामीजी गंगा तट पर उपदेश कर रहे थे। बरौली के राव कर्णसिंह अपने कुछ हथियार-बन्द साथियों सहित वहां आए और बातचीत करते-करते बड़े क्रोध में आकर उन्होंने तलवार खींच कर स्वामीजी पर आक्रमण किया। स्वामीजी ने तलवार छीनकर दो टुकड़े कर दिए और राव को पकड़कर कहा कि ‘मैं तुम्हारे साथ इस समय वही सलूक कर सकता हूं जो किसी ‘‘आततायी (आतंकवादी) के साथ किया जा सकता है। परन्तु मैं संन्यासी हूं, इसलिए छोड़ता हूं। जाओ, ईश्वर तुम्हें सुमति देवे।’

 

स्वामी दयानन्द जी का जीवन महान था। उनकी महानता एक उदाहरण तब सामने आया जब उन्होंने अपनी हत्या का प्रयास करने वाले को न केवल क्षमा कर दिया अपितु वैधानिक दण्ड से भी बचाया। यह घटना अनूपशहर की है। वहां स्वामी जी के सच्चे और स्पष्ट उपदेश से अप्रसन्न होकर एक दुष्ट पुरुष ने स्वामीजी के पास आकर नम्रता प्रदर्शित करते हुए एक पान का बीड़ा उनको भेंट किया। स्वामीजी ने लेकर उसे मुंह में रख लिया। मुंह में रखते ही उन्हें मालूम हो गया कि इसमें विष मिला हुआ है। योग सम्बन्धी बस्ती और न्यौली-क्रियाओं को करके उन्होंने उसके प्रभाव को नष्ट कर दिया। जब यह हाल वहां के मजिस्ट्रेट सैयद मुहम्मद को मालूम हुआ तो उसने उस दुष्ट व्यक्ति को पकड़कर हवालात में डाल दिया और स्वामीजी के पास आकर अपनी कारगुजारी प्रकट करने आया तो स्वामीजी ने अपनी अप्रसन्नता प्रकट करके उसे छुड़वा दिया और कहा कि ‘‘मैं दुनिया को कैद कराने नहीं अपितु कैद से छुड़ाने आया हूं।

 

स्वामीजी जब उदयपुर में थे तब वहां एक दिन उदयपुर के महाराजा महाराणा सज्जनसिंह जी को मनुस्मृति का पाठ पढ़ाते हुए कहा कि–‘‘यदि कोई अधिकारी धर्मपूर्वक आज्ञा दे तभी उसका पालन करना चाहिए। अधर्म की बात माननी चाहिए। इस पर सरदारगढ़ के ठाकुर मोहनसिंह जी ने कहा कि महाराणा हमारे राजा हैं, यदि इनकी कोई बात हम अधर्मयुक्त बतलाकर न मानें तो ये हमारा राज छीन लेंगे। इस पर स्वामीजी ने कहा कि –‘‘धर्महीन हो जाने से और अधर्म के काम करके अन्न खाने से तो भीख मांगकर पेट का पालन करना अच्छा है। इस घटना में स्वामीजी ने उदयपुर के महाराजा के भय से सर्वथा शून्य होकर धर्म को सर्वोपरि महत्व दिया। इससे यह भी शिक्षा मिलती है कि किसी भी मनुष्य को अपने आश्रयदाताओं व उच्चतम अधिकारियों की धर्म विरुद्ध आज्ञाओं को न मानना चाहिये भले ही इससे उनकी कितनी भी हानि क्यों न हो।

 

उदयपुर की ही एक अन्य घटना है। वहां एक दिन एकान्त में स्वामीजी से महाराजा सज्जनसिंह जी ने कहा कि महाराज ! आप मुर्तिपूजा का खण्डन करना छोड़ दें। यदि आप इसे स्वीकार कर लें तो एक लिंग महादेव के मन्दिर, जिसके साथ लाखों रुपये की जायदाद लगी हुई है, आपकी होगी, और आप सारे राज्य के गुरु माने जाऐंगे। स्वामीजी ने उत्तर दिया–‘‘आपके सारे राज्य से मैं एक दौड़ लगाकर कुछ समय में बाहर जा सकता हूं परन्तु ईश्वर के संसार से दूर नहीं जा सकता, फिर मैं किस प्रकार इस धर्मविरुद्ध तुच्छ प्रलोभन में आकर ईश्वर की आज्ञा भंग करूं। यह है ईश्वर, उसकी व्यवस्था व धर्म में पूर्ण विश्वास और स्वार्थ से रहित सच्चे त्याग का उदाहरण।

 

प्रयाग की एक घटना है। एक दिन स्वामीजी एक सभा में उपस्थित थे। पं. सुन्दरलालजी आदि कुछ सभ्य पुरुष भी उपस्थित थे। स्वामीजी यकायक हंस पड़े। कारण पूछने पर बतलाया कि एक पुरुष मेरे पास आ रहा है, उसके आने पर एक कौतुक दिखाई देगा। थोड़़ी देर बाद एक व्यक्ति स्वामीजी के लिए कुछ विष मिश्रित मिठाई लाकर कहने लगा कि महाराज इसमें से कुछ भोग लगाएं। स्वामीजी ने थोड़ी सी मिठाई उठाकर लानेवाले को दी, उसे कहा कि इसे तुम खाओ, परन्तु उसने मिठाने लेने और खाने से इन्कार कर दिया। स्वामीजी इस पर हंस पड़े और पं. सुन्दरलालजी आदि पुरुषों से कहा कि देखों यह अपने पाप के कारण स्वयं कांप रहा है और लज्जित है। इसे पर्याप्त दण्ड मिल गया है अब और दण्ड की आवश्यकता नहीं। यह थी स्वामी दयानन्द जी की योग व ईश्वरोपासना की शक्ति और दयालुता।

 

स्वामीजी की मृत्यु जोधपुर में उन्हें विष दिये जाने के कारण हुई थी। स्वामीजी जोधपुर के महाराजा जसवन्त सिंह के छोटे भाई कुंवर प्रताप सिंह व महाराजा के निमंत्रण पर पधारे थे। उन्होंने अपने प्रवचनों में राजाओं के दुव्र्यसनों मुख्यतः राजाओं की वेश्याओं में आसक्ति वा वैश्याचारिता का तीव्र खण्डन किया था। अपनी शिक्षाओं में उन्होने वैश्याओं की उपमा कुतिया से और राजाओं की उपमा शेर से दी थी। मत-मतान्तरों की मिथ्या बातों का खण्डन तो वह करते ही थे। अतः एक षडयन्त्र के अंतर्गत उनके विरोधियों ने उनके पाचक को अपने वश में करके उसके द्वारा स्वामीजी को सितम्बर, 1883 के अन्तिम सप्ताह की एक रात्रि को दूध में जहर डलवाकर पिलवा दिया था। स्वामीजी को इसका पता देर रात्रि तब चला जब उन्हें उदरशूल, दस्त होने के साथ वमन आदि की शिकायत हुई। स्वामीजी को सारी स्थिति का पता चल जाने पर उन्होंने अपने पाचक को पास बुलाकर उसे कुछ रूपये देते हुए कहा कि इन्हें लेकर नेपाल के राज्य आदि किसी ऐसे स्थान पर चले जाओ जहां तुझे पकड़ा न जा सके और तुझे अपने प्राण न खोने पड़ें। अपने प्राणहंता की इस प्रकार रक्षा कर उन्होंने इतिहास में एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है। ऐसा उदाहरण विश्व इतिहास में दुर्लभ है।

 

स्वामीजी ने पूना में अपने जीवन की घटनाओं विषयक एक उपदेश दिया था। उन्होंने थियोसोफिकल सोसायटी के निवेदन पर अपनी संक्षिप्त आत्मकथा भी लिखी थी। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके अनेक खोजपुर जीवन चरित्र प्रकाश में आये जिनमें पं. लेखराम, पं. गोपालराव हरि, पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, स्वामी सत्यानन्द, मास्टर लक्ष्मण आर्य, श्री हरविलास सारदा, श्री रामविलास शारदा आदि प्रमुख हैं। यह सभी जीवनचरित रामायण एवं महाभारत की ही भांति आदर्श, प्रेरणादायक तथा पाठक में धर्म के प्रति अनुराग व बोध उत्पन्न करने में समर्थ हैं। इन्हें पढ़कर एक दस्यु वृत्ति का मनुष्य भी साधू बन सकता है और सच्चा मानव जीवन व्यतीत कर सकता है। पाठकों को इन जीवन चरितों से लाभ उठाना चाहिये। आशा है कि पाठक लेख को पसन्द करेंगे।

            –मनमोहन कुमार आर्य

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स्तुता मया वरदा वेदमाता: डॉ. धर्मवीर जी

उदसौ सूर्यों अगादुदयं मामको भगः।

अहं तद्विद्वला पतिमयसाक्षि विषासहिः।।

– ऋक्. 10/159/1

वैदिक धर्म और संस्कृतिश्रेष्ठतम विचार है। वैदिक धर्म और संस्कृति के सबन्ध में विचार करते हुए, यदि हम एक बात का स्मरण रखें तो हमारे चिन्तन में दोष आने की सभावना समाप्त हो जाती है। वैदिक धर्म का मूलवेद है। वेद में सिद्धान्त प्रतिपादित है और जानने-मानने वाले को, उस विचार को व्यवहार में लाना होता है, उसपर आचरण करना होता है। हम कितना भी अच्छा क्यों न सोचते हों, हमारी अल्पशक्ति, अल्पबुद्धि कुछ-न-कुछ अनुचित कर बैठती है। यदि मनुष्य के पास पूर्ण ज्ञान और सामर्थ्य होता तो संसार में न तो ईश्वर की आवश्यकता होती और न ही संसार की। मनुष्य की अल्पज्ञता ही संसार और ईश्वर की आवश्यकता की प्रतिपादक है। अल्प और सर्व एक सापेक्ष शद हैं, एक शद के अभाव में दूसरे शद की कोई उपयोगिता नहीं बचती। मनुष्य अल्पज्ञ है, अतः सिद्ध है कि कोई सर्वज्ञ है। इसी प्रकार यदि कोई सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान सर्वत्र है, तो वह एक ही होगा। इसमें विकल्प की कल्पना ही अनेकत्व का कारण बनेगी। ज्ञान का प्रवाह अधिक से कम की ओर होगा, अतः सर्वज्ञ परमेश्वर से अल्पज्ञ मनुष्य की ओर ज्ञान की गति स्वाभाविक है।

इस प्रकार ईश्वर एक है, सबको ज्ञान, सामर्थ्य, ऐश्वर्य का देने वाला है, तो उसके ज्ञान के देने में अन्याय या पक्षपात की बात कैसे सभव है। संसार में मनुष्यों को, प्राणियों को देखकर हमें ऐसा लगता है, जैसे परमेश्वर सबको अलग-अलग देकर अन्याय कर रहा है, परन्तु हम भूल जाते हैं कि देने वाला एक है, उसका देने का प्रकार भी एक ही होगा, अन्तर तो भिन्नता की ओर से होता है, प्राप्त करने वाले मनुष्य पृथक् हैं, अतः देने वाले के दृष्टि में सब एक हैं, परन्तु लेने वाले भिन्न और अनेक हैं, अतः ग्रहण करने के सामर्थ्य में भिन्नता दिखती है।

इतना मान लेने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि परमेश्वर द्वारा सबके साथ समान व्यवहार ही हो रहा है, फिर चाहे स्त्री हो, पुरुष हो या कुछ और भी हो, जैसे ईश्वर की सत्ता सर्वत्र है, उसका अनुाव जड़ को तो नहीं होता, चेतन को होता है, उसी प्रकार एक चेतन उसकी सत्ता को अपने ज्ञान और योग्यता के अनुसार ही देख पाता है, अनुभव कर सकता है, दूसरा ज्ञान के अभाव से ऐसा करने में समर्थ नहीं हो पाता। यह अन्तर संसार में देखने में आता है, संसार का सारा व्यापार  व्यक्तिपरक है, परमेश्वर सबको यथावत जानता है, अतः सबको उचित ज्ञान और सामर्थ्य देता है। आज इस मनुष्य संसार में स्त्री-पुरुष को लेकर जो जैसा व्यवहार दिखाई दे रहा है, वह सारा मनुष्य बुद्धि का परिणाम है। परमेश्वर सभी मनुष्यों का कल्याण चाहता है। और उनका उपकार करता है। जिस प्रकार एक माता-पिता अपने पुत्र और पुत्री का समान हित चाहते हैं। उसी प्रकार स्त्री पुरुष भी परमेश्वर की पुत्र-पुत्रियाँ हैं वह उनमें भेद और पक्षपात कैसे कर सकता है?

इस सूक्त के मन्त्रों से इस बात को भली प्रकार समझा जा सकता है। यह सूक्त शची पौलीमी कहलाता है, इसका देवता भी यही है, इसका ऋषि भी यही है। यदि कहने वाला किसी बात को कहता है तो कहने वाले को हम ऋषि कहते हैं और कही जाने वाली बात को देवता । ऋषि कभी स्वयं ईश्वर है कभी उसके ज्ञान का कोई प्रवक्ता। ये शद ईश्वर और उसके ज्ञान से सबन्ध रखते हैं अतः यदि मनुष्य के साथ इनको जोड़कर देोंगे तो अर्थ की संगति नहीं लग पायेगी अतः शद को उसके अर्थ की ओर इंगित करने देते हैं तो हमें अर्थ सरलता से समझ में आ जाता है तथा उसक ी संगति भी ठीक लग जाती है। इस सूक्त में एक स्त्री का व्यक्तित्व कैसा होना चाहिए इस बात को समझाया गया है। इस विवरण को व्यक्ति विशेष का वक्तव्य न मानकर स्त्री सामन्य का वक्तव्य मानना उचित होगा। इस विचार से मन्त्र में बताया गया विचार समाज की सभी स्त्रियों का होगा।

वेद उत्साह और आशा की प्रेरणा देता है। वेद में निराशा, पराजय, उदासी की बात नहीं है, यही बात इस सूक्त के मन्त्रों में भी दिखाई देती है। मन्त्र में कहा गया उदसौ सूर्यो अगात् मनुष्य का उत्साह सूर्य के उदय के साथ आगे बढ़ता है, प्रकृति का वातावरण मनुष्य के लिये उत्साह और आनन्द प्राप्त कराता है। प्रत्येक मनुष्य संसार में अपनी भूमिका में स्वयं सुख का अनुभव करता है। और अपने साथ वालों को भी आनन्दित करता है।

‘हमारा गणतन्त्र और समाज’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

गणतन्त्र दिवस के अवसर पर

 

हम सब भारत के नागरिक हैं। हमारा देश 15 अगस्त, 1947 को विगत सैकड़ों वर्षों की दासता के बाद स्वतन्त्र हुआ था। विदेशी दासता से मुक्ति से एक दिन पहले देश के एक तिहाई भाग से अधिक भाग को भारत से अलग कर दिया गया। जिन कारणों से भारत का विभाजन हुआ, उसके बाद भी प्रायः वैसी ही अनेक धार्मिक व सामाजिक समस्यायें आज भी विद्यमान हैं। आजादी से पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे और इससे पूर्व हमें मुसलमानों की दासता और भीषण अत्याचार सहन करने पड़े थे। वैदिक व हिन्दू धर्म के धार्मिक अन्धविश्वासों व तदनुरूप सामाजिक व्यवस्था के कारण मुख्यतः यह पराधीनता व दुःख आये थे। मुसलमानों के देश के बड़े भूभाग पर आधिपत्य से पूर्व भारत में भारतीय आर्य-हिन्दू राजा राज्य करते थे। चाणक्य व विक्रमादित्य के काल में भारत संगठित था और इसकी सीमायें वर्तमान से भी अधिक दूरी तक फैलीं हुईं थीं। किसी समय में अफगानिस्तान, श्रीलंका, नेपाल व बर्मा या म्यमार आदि भी भारत के ही अंग हुआ करते थे। इन सब देशों में एक ही वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति हुआ करती थी। धार्मिक अन्धविश्वास, सामाजिक विषमता व विदेशी दासता का मुख्य कारण महाभारत का महायुद्ध और उसके प्रभाव से देश में अव्यवस्था का उत्पन्न होना था। महाभारत के युद्ध में बहुत से लोग मारे गये थे तथा जो बचे थे उन्हें आलस्यजनित अकर्मण्यता ने अपने नियंत्रण में ले लिया था। महाभारत काल तक व उसके बाद चाणक्य व विक्रमादित्य के काल तक सुदूर पूर्व का भारत वैदिक धर्म और संस्कृति की छत्रछाया में उन्नत व विकसित था। वैदिक धर्म का प्रादुर्भाव सृष्टि के आरम्भ काल, 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 115 वर्ष पूर्व हुआ था। तब से पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध तक विश्व में एक ही धर्म व एक ही संस्कृति थी जिसका आधार वेद, वैदिक ग्रन्थों सहित हमारे पारदृष्टा ऋषि-मुनियों के वचन व मान्यतायें होती थी।

 

देश की आजादी में प्रमुख योगदान महर्षि दयानन्द, उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज और इनके द्वारा किये गये धार्मिक और समाज सुधार के कार्यों को सर्वाधिक है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ही आजादी के प्रणेता थे। सन् 1874 में सत्यार्थ प्रकाश की रचना हुई। इसका संशोधित संस्करण सन् 1883 में तैयार हुआ। इस ग्रन्थ के आठवे समुल्लास में महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि कोई कितना ही करे किन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर रहित, प्रजा पर माता, पिता के समान कृपा न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं होता। सम्पूर्ण भारत के साहित्य में स्वराज्य का सर्वोपरि उत्तम होना सबसे पहले सत्यार्थप्रकाश ने ही देशवासियों को बताया। महर्षि दयानन्द के आर्याभिविनय व संस्कृत वाक्य प्रबोध आदि ग्रन्थों के कुछ अन्य वाक्य भी इसी प्रकार से आजादी के आन्दोलन का मुख्य आधार कहे जा सकते हैं। स्वराज्य सर्वोपरि उत्तम होने का अर्थ है परराज्य या विदेशी राज्य निकृष्ट व बुरा होता है और इसका अनुभव अंग्रेजी राज्य और उससे पूर्व मुस्लिम राज्य में भारत के लोगों ने किया वा भोगा है जो कि इतिहास के पन्नों पर अंकित है। महर्षि दयानन्द जी की एक अन्य बहुत बड़ी देन है कि उन्होंने मत-मतान्तरों किंवा धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन किया और वेद व वैदिक धर्म को सत्य की कसौटी पर सिद्ध पाया। उन्होंने इसी कारण वेदों का प्रचार किया और अन्य सभी मतों में विद्यमान असत्य व अविद्याजन्य विचार, मान्यताओं, सिद्धान्तों, आस्थाओं, कर्मकाण्डों, कुरीतियों आदि का दिग्दर्शन कराया और मनुष्य जाति की उन्नति के लिए उनका खण्डन किया। इससे यह सिद्ध हुआ कि विश्व में सुख व शान्ति धर्म व समाज संबंधी सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों के द्वारा और इसके पर्याय वैदिक धर्म की स्थापना से ही लाई जा सकती है। ऐसा होने पर ही सभी मनुष्यों में एक भाव व परस्पर एक सुख-दुःख की उत्पत्ति अर्थात् समाजिक समरसता होनी सम्भव है।

 

महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों व विचारों ने स्वतन्त्रता की भावना को उद्बुध व प्रदीप्त किया। देश में स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलन चला। कुछ देशवासियों का विचार था कि आजादी अंहिसक आन्दोलन से मिल सकती है और कुछ विद्वानों व चिन्तकों का विचार था कि क्रान्तिकारी कार्यों को अंजाम देकर ही विदेशी हुकमरानों को देश को स्वतन्त्र करने के लिए बाध्य किया जा सकता है। दोनों ही आन्दोलन देश में चले। दोनों का अपना महत्व है। क्रान्तिकारियों को अधिक कुर्बानियां देनी पड़ी व असह्य कष्ट उठाने पड़े। क्रान्तिकारियों के कार्यों से अंग्रेज शासक अधिक विचलित, भयभीत व परेशान होते थे और उन्हें दण्ड के रूप में कठोर यातनायें व मृत्यु दण्ड आदि बहुत कड़े दण्ड देते थे। हमें लगता है कि केवल अहिंसात्मक आन्दोलन से ही अंग्रेजों को देश छोड़ने के लिए विवश नहीं किया जा सका था। अतः क्रान्तिकारी आन्दोलन का अपना विशेष महत्व और योगदान है और इस आन्दोलन के सभी नेता व अनुयायी देशवासियों के पूज्य व आदर्श हैं। इन आन्दोलनों व अंग्रेजों की अपनी परिस्थितियों के कारण देश 15 अगस्त, 1947 को स्वतन्त्र हुआ। एक दिन पूर्व देश का विभाजन इस आधार पर किया गया कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग कौमें हैं और यह साथ मिलकर नहीं रह सकतीं। देश का विभाजन देशभक्तों के लिए दुःखद स्थिति थी। कुछ वरिष्ठ क्रान्तिकारी तो इस सदमे को सहन न कर सके और इस दुःख से पीडि़त होकर कुछ समय बाद उनकी मृत्यु हो गई।

 

देश को चलाने के लिए संविधान की आवश्यकता थी। अतः एक संविधान सभा का निर्माण किया गया। भारत के प्रथम कानून मंत्री डा. भीमराव रामजी अम्बेदकर संविधान आलेखन (drafting) सभा के सभापति बनाये गये। संसार के प्रमुख देशों के संविधानों का अध्ययन कर भारत का संविधान बनाया गया जिसे 26 जनवरी, 1952 से लागू किया गया। भारत के संविधान की अनेक विशेषतायें हैं। लोगों को समान अधिकारी दिए गये हैं तथा देशवासियों को किसी भी मत व धर्म को मानने की स्वतन्त्रता दी गई है। इसी के साथ नेताओं द्वारा कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा, कुछ मत व वर्गों को विशेष दर्जा या अधिकार व कुछ के लिए अपना कानून आदि का अधिकार दिया गया जो कि विचारणीय है। जैसा भारत में है, ऐसा शायद विश्व के अन्य किसी देश में नहीं होगा। हमारे देश में अनेक पूर्वाग्रहों से युक्त बुद्धिजीवी हैं। यह अपने-अपने प्रकार से विचार करते हैं। कुछ जो कह देते हैं, उनकी बात सुनी जाती है, कुछ की अनसुनी या सही बातों को भी दबा दिया जाता है। यह सब कुछ प्रायः सत्तारूढ़ दल के मुख्य नेताओं पर निर्भर करता है। हम सब नागरिकों के लिए एक समान रूप से स्वतन्त्रता की बात करते हैं परन्तु कई बार यह बहुत से मामलों में दिखाई नहीं देती। आज देश में एक धनिक और एक निर्धन वर्ग पैदा हो गया। निर्धन वर्ग भी ऐसा कि जिसके पास दो समय का भोजन, अपनी छत व अच्छे वस्त्र व शिक्षा के लिए आवश्यक न्यूनतम धन भी नहीं है और वहीं कुछ लोगों के पास इतना अधिक धन है कि वह उसका दुरुपयोग व कर चोरी करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। कहा जाता है कि संविधान ने सबको समान अधिकार दिये हैं परन्तु समाज में यह देखने को कम ही मिलता है। शिक्षा व चिकित्सा निःशुल्क होनी चाहिये परन्तु यह आज करोड़ो लोगों की क्षमता से बहुत दूर है। सुरक्षा भी ईश्वर के भरोसे है। कई बार बड़े-बड़े हादसे हो जाते हैं, जनता विरोध करती है, कुछ कानूनों में परिवर्तन किया जाता है परन्तु अपराधों में रोक नहीं लगती। समस्याओं के हल करने में भी राजनीतिक दलों की वोट बैंक की नीति आड़े आती है। देश की आजादी को स्वतन्त्रता दिवस से 67 वर्ष से अधिक और गणतन्त्र बनने से 63 वर्ष बीत चुके हैं परन्तु आज का समाज अनेक असमान मान्यताओं वाले मत-मतान्तरों, अन्धविश्वासों, पाखण्डों, अशिक्षा, अज्ञान, शोषण, अन्याय, असुविधाओं, अपराधों, निर्धनता, असमानता व अनेक दुःखों से युक्त है। सभी देशवासी एक विचार, एक भाव, एक सुख दुःख, एक हानि-लाभ, परस्पर भाई बहिन के समान व्यवहार आदि गुणों से युक्त नहीं हो सके और शायद कभी हो भी नहीं सकेंगें।

 

हमें यह भी लगता है कि परिस्थितियोंवश हमारे संविधान का निर्माण करते समय वेदों, दर्शनों, मनुस्मृति व नीति ग्रन्थों का अध्ययन कर उनकी अच्छी बातों को संविधान में सम्मिलित नहीं किया गया, यदि किया जाता तो अच्छा होता। अच्छे विचार व बातें तो कहीं से भी मिलें, ग्रहण की जानी चाहिये। वेदों और दर्शनों का सिद्धान्त है कि जिससे यह संसार बना और चल रहा है, वह एक सत्ता ईश्वर है जो निराकार, सूक्ष्मातिसूक्ष्म, चेतन-तत्व, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान है। इस शत प्रतिशत सही बात को भी न तो संविधान में स्थान प्राप्त हुआ और न ही देशवासी इसके अनुसार व्यवहार करते हुए दिखाई देते हैं। वैदिक काल में शिक्षा निःशुल्क, अनिवार्य व एक समान होती थी। सबको समान सुविधायें दिये जाने का विधान था तथा किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाता था। यह उच्च आदर्श व नियम मध्यकाल में भुला देने के कारण ही देश का पतन हुआ और पराधीनता का कारण बना। आज हमारे निर्धन देशवासी शिक्षा के अभाव से ग्रस्त है। ईश्वर ने उन्हें मनुष्य जीवन तो दिया परन्तु अनेक व्यक्ति ऐसे भी हैं जो देश व समाज की व्यवस्था के कारण पशुओं जैसा जीवन जीने के लिए बाध्य हैं। बुन्देलखण्ड के आज भी निर्धन किसान व भूमिहीन साधनों के अभाव में घास की बनी रोटी बिना दाल व सब्जी तथा चावल के खाने के लिए मजबूर हैं। यह कैसा देश है जहां अरबपति व खरब पति लोग रहते हैं और अपने ही देश के बन्धुओं के प्रति उनमें दया, प्रेम, करूणा का भाव नहीं है। इसका अर्थ है कि वह स्वयंभू विचार वाले संवेदनाहीन मनुष्य हैं और अन्य मनुष्यों को अपना परिवार और ईश्वर की सन्तान नहीं मानते। अतः आज आवश्यकता है कि एक स्वस्थ, शिक्षित, शोषण व अन्याय मुक्त, सभी के लिए घर, वस्त्र, भोजन, चिकित्सा, सामाजिक सुरक्षा व सत्य वैदिक ज्ञान से युक्त समाज व देश बनाने की दिशा में हमारे सभी श्रेष्ठ व अन्य बुद्धिजीवी विचार करें और एक आदर्श भारत के निर्माण की रचना व संगठन में अपना योगदान दें।

 

जनतन्त्र व लोकतन्त्र इसी लिए आदर्श माने जाते हैं कि इसमें वैचारिक व क्रियात्मक रूप से जनता को शिक्षा, ज्ञान, पक्षपात व अन्याय मुक्त वातावरण मिलता है। सभी को अपनी आजीविका मिलती है जिससे वह अपने जीवन को स्वस्थ व निरोग रखते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हो सकें। इसे अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त करने में संलग्न जीवन भी कह सकते हैं। हम जितना भौतिकवादी बनेंगे, जो कि आज बन गये हैं, उतना ही हम जीवन के लक्ष्यों से दूर होते जायेंगे और हमारा यह मनुष्य जीवन उद्देश्य व लक्ष्य से भटका हुआ जीवन ही कहा व माना जायेगा। हम चाहते हैं कि गणतन्त्र दिवस पर समाज में निर्धनता दूर करने, सबको समान, निःशुल्क, अनिवार्य शिक्षा प्राप्त कराने तथा सबके लिए निःशुल्क चिकित्सा, न्याय व सुरक्षा की गारण्टी युक्त वातावरण के निर्माण का प्रयास होना चाहिये। इन विषयों पर बहस हो, योजनायें बनें और सभी देशवासी इस कार्य में जुट जायें। अमीरी व गरीबी की खाई कम होनी चाहिये। अधिक सम्पत्ति वालों पर अधिक कर लगाकर उसे निर्धन जनता के दुःख व दर्द दूर करने में, बिना भ्रष्टाचार किये, व्यय करना चाहिये। सरकार की ओर से ऐसी योजना बने जिससे वेदों और वैदिक साहित्य पर अनुसंधान व उसके मानव जीवन पर प्रभावों का अध्ययन कर उससे लाभ उठाने के लिए प्रभावशाली प्रयत्न किये जायें। हम आशा करते हैं कि पाठक लेख पर सदभावपूर्ण रीति से विचार करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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भयानक षडयन्त्र – राजन स्वामी

 

यद्यपि महाभारत काल के पश्चात् वैदिक शैक्षणिक व्यवस्था के मूल स्वरूप में विकृति प्रारभ हो गई थी। जिसके परिणाम स्वरूप वाम मार्ग का अयुदय होने से नैतिक मूल्यों और संस्कृत के प्रसार में ह्रास होता गया किन्तु मुगल शासन के प्रारभ होते ही द्वेषवश संस्कृत भाषा को मिटा देने का कुचक्र प्रारभ हो गया। इसी कड़ी में अनेक विश्वविद्यालय, पुस्तकालयों तथा पाठशालाओं को नष्ट कर दिया गया।

किन्तु आज स्थिति उससे भी अधिक भयावह है। भारत में मतान्तरण का सपना संजोये मुस्लिम एवं क्रिश्चियन मिशनरियों ने यह धारणा ही बना ली है कि जब तक संस्कृत भाषा रहेगी तबतक भारतीय संस्कृति को मिटाया नहीं जा सकता।

एक नियोजित षड़यन्त्र के अन्तर्गत संस्कृत को मृत भाषा घोषित करने का प्रयास किया जा रहा है। वैदिक (हिन्दू) धर्म के सभी ग्रन्थ संस्कृत भाषा में हैं। यदि विश्व की प्राचीनतम एवं वैज्ञानिक भाषा का ही अस्तित्व नहीं रहेगा तो हिन्दू धर्मग्रन्थों की स्थिति क्या होगी? इसे सहज ही समझा जा सकता है।

यह दुर्भाग्य का विषय है कि उत्तर प्रदेश की वर्तमान अखिलेश सरकार ने अरबी फारसी के विकास के लिए 556 करोड़ की राशि इस वर्ष के बजट में निर्धारित की है, जबकि संस्कृत भाषा के लिए एक रुपया भी बजट में नहीं रखा गया है। प्रश्न यह है कि क्या अरबी-फारसी भारत की मूल भाषा है या अरब ईरान (फारस) की भाषा है? संस्कृत भाषा को इतनी घृणा की दृष्टि से देखने का औचित्य क्या है? विगत 12 वर्षों में एक भी गुरुकुल या संस्कृत विद्यालय को मान्यता तक नहीं मिली है, जबकि इसी अन्तराल में सरकारी खजाने से लखनऊ-मलीहाबाद रोड पर भव्य अरबी फारसी विश्वविद्यालय का निर्माण हुआ है। यह तब है जब देश में पहले से ही अरबी-फारसी के कई विश्वविद्यालय मौजूद हैं। अकेले सहारनपुर मण्डल में 42 मदरसे हैं। इन मदरसों में धार्मिक समभाव एवं विज्ञान की कैसी शिक्षा दी जाती है, यह किसी से छिपा नहीं है। अल्पसंयक तुष्टिकरण के लिये सपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से प्रथमा, मध्यमा तथा उत्तर मध्यमा को मिलने वाली मान्यता पर रोक लगा दी गई। कहा गया कि इसके लिये संस्कृत शिक्षा बोर्ड का गठन किया जायेगा। मुलायम एवं मायावती सरकार में लगभग 8 वर्ष बीतने के पश्चात् कुछ माह पूर्व संस्कृत विद्यालयों के लिये संस्कृत शिक्षा बोर्ड का गठन अवश्य हुआ है, किन्तु गुरुकुलों को मान्यता देने की प्रवृत्ति अभी भी देखने में नहीं आ रही है। जब संस्कृत के लिये अखिलेश सरकार के पास एक रुपया भी नहीं है तो मान्यता ही कैसे मिल सकती है? जब सी.बी.एस.ई बोर्ड में उत्तर मध्यमा (इण्टर) से संस्कृत हटा दी गयी है तो स्नातक की परीक्षा कैसे दी जा सकती है? इस देश का यह दुर्भाग्य है कि यहाँ लगभग सभी प्रान्तों में अंग्रेजी को किसी न किसी रूप में अनिवार्य बनाया गया है तथा फ्रेंच, जर्मन एवं अन्य भाषाओं के शिक्षण में काफी राजकीय सहायता दी जा रही है, किन्तु हिन्दी सहित भारत की सभी भाषाओं एवं विश्व की सभी भाषाओं की जन्मदात्री वैदिक संस्कृत को ही समाप्त करने का जो दुष्प्रयास हो रहा है, वह अवांछनीय है तथा देश के बुद्धिजीवी वर्ग को इस विषय पर गहन-चिन्तन करने की आवश्यकता है कि इसका दुष्परिणाम क्या होगा?

– सहारनपुर, उत्तर प्रदेश

जिज्ञासा समाधान: आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा 2- मैं महर्षि दयानन्द जी का एक बहुत छोटा सिपाही हूँ, दैनिक यज्ञ एवं दोनों समय सन्ध्या करता हूँ, किन्तु सन्ध्या करते वक्त जब मैं मनसा परिक्रमा मन्त्र का अर्थ भाव के साथ उच्चारण करता हूँ तो निनलिखित शंका घेर लेती है-

(क) मनसा परिक्रमा मन्त्रों में हम दिशाओं, अग्नि, सूर्य, लता आदि जड़ पदार्थों को नमन करते हैं। कृपया, भाव स्पष्ट करें।

(ख) हर जीव अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर आयु, देश, स्थिति आदि प्राप्त करता है, लेकिन बहुत से लोग बेईमानी, छल-कपट के द्वारा भाग्य से अधिक धन अर्जित कर लेते हैं, जो कि उसके प्रारध से ज्यादा होता है। कृपया, थोड़ा प्रकाश डाल कर अज्ञान दूर करें।

– सुरेन्द्र कुमार, डल्यू-2-349-बी, नांगल राया, नई दिल्ली-110046

समाधान– 2 (क) महर्षि ने सन्ध्या करने का विधान मनुष्यों के लिए किया है। सन्ध्या में जिन मन्त्रों का विनियोग जिस क्रम से किया है, वह अपने आप में सन्ध्योपासना करने की वैज्ञानिक शैली है। सन्ध्या के प्रारभ से अन्त तक जिस क्रम को महर्षि ने रखा है, उस क्रम से साधक स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाता चला जाता है।

आर्य जगत् मूर्धन्य दार्शनिक योग्य विद्वान् पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी ने इस विषय पर चिन्तन कर सन्ध्या विषय को लेकर ‘सन्ध्या क्या, क्यों, कैसे’ पुस्तक लिखी है। उसके आधार पर यहाँ हम कुछ लिखते हैं।

सन्ध्या को चार भागों में विभक्त करके देखें- 1. आचमन मन्त्र से लेकर प्राणायाम मन्त्र पर्यन्त, 2. अघमर्षण मन्त्र, 3. मनसा परिक्रमा मन्त्र और 4. उपस्थान मन्त्र। प्रथम भाग में अपने शरीर=पिण्ड में ईश्वर के गुणों का विचार करना। इन्द्रिय स्पर्श, मार्जन एवं प्राणायाम मन्त्र में इसी पर बल दिया गया है, अर्थात् शरीर, प्राण व इन्द्रियों की बलवत्ता पर बल दिया गया है। दूसरापिण्ड से आगे ब्रह्माण्ड को देखते हुए, ईश्वर का विचार करना, जो अघमर्षण मन्त्रों में हैं। पिण्ड केवल मेरा अपना है, किन्तु ब्रह्माण्ड मेरा अपना भी है और सभी प्राणियों का भी। ब्रह्माण्ड सबके साझे का पिण्ड है। तीसरा स्थूल से सूक्ष्मता की ओर लेकर जाने का है। पिण्ड और ब्रह्माण्ड ये स्थूल हैं, इन स्थूल से सूक्ष्म मन है, उस मन को सर्वत्र दौड़ाकर सर्वत्र परमेश्वर का चिन्तन करना, अर्थात् सब दिशाओं-उपदिशाओं में परमेश्वर का भान करना। चौथा मन से भी परे आत्मा को परमात्मा के निकट ले जाना, जो कि हम उपस्थान मन्त्रों के द्वारा परमेश्वर के निकट होते हैं। यह स्थिति सन्ध्या में सर्वोत्कृष्ट है। हमें इस स्थिति तक पहुँचना है, अर्थात् परमेश्वर के निकट अपनी आत्मा को ले जाना है।

अब आपकी जिज्ञासा पर विचार करते हैं। मनसा परिक्रमा मन्त्रों में जो कहा गया है कि सब दिशाओं में परमात्मा अपनी विभिन्न शक्ति स्वरूप से स्वामी है। सबके लिए नमस्कार व अपने अन्दर व अन्य के अन्दर स्थित द्वेष को दूर करने की प्रार्थना। आपका कथन है कि ‘‘इन दिशाओं, अग्नि, सूर्य, लता आदि को नमन करने का क्या भाव है?’’ इन मन्त्रों में जड़ और चेतन दोनों का ही कथन है और दोनों के लिए नमस्कार करने को कहा है। इन छः मन्त्रों में अग्नि, इन्द्र, वरुण, सोम, विष्णु और बृहस्पति, ये नाम सब दिशाओं में स्थित परमात्मा के हैं और इसी प्रकार असितः स्वजः और श्वित्र, ये नाम भी परमेश्वर के हैं। इन सभी स्वरूप वाले परमेश्वर को नमस्कार करना, अर्थात् उस परमेश्वर का समान करना, उससे यथायोग्य व्यवहार करना, अर्थात् उसकी आज्ञा का पालन करना। मन्त्रों में एक चेतन परमात्मा का वर्णन है, दूसरे चेतन पितर लोग, कीट-पतंग, विषधर प्राणी, वृक्ष-लता-बेल आदि हैं, इनको भी नमस्कार किया गया है। नमस्कार का अर्थ है- झुकना, नमन करना, यथायोग्य व्यवहार करना। इस यथायोग्य व्यवहार को लेकर जब नमस्कार को देखेंगे तो पितर, जो चेतन हैं, उनके लिए क्या व्यवहार होगा, वह हमारे सामने आ जायेगा। कीट, पतंग, विषधर प्राणी, लता, बेल, वृक्ष आदि ये हमारे लिए कितने उपयोगी हैं, इस प्रकृति के लिए कितने उपयोगी हैं, ऐसा विचार करना और इनके उपयोग को देखकर वैसा ही इसका उपयोग करना, व्यवहार में लाना, इनके लिए नमस्कार होगा और जो जड़ पदार्थ- आदित्य, अन्न, अशनि, वर्षा है, इनको भी नमस्कार अर्थात् इनका यथायोग्य उपयोग लेना, इनसे उपकार लेना, यह इनके लिए नमस्कार होगा।

कीट, पतंग, विषधर प्राणी, वृक्ष, लता, वेल, आदित्य, अन्न, अशनि, वर्षा, इषु आदि को नमस्कार करने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि इनकी जैसे पौराणिक वर्ग पूजा करता है, वैसे नमस्कारादि करना। यह व्यवहार चेतन मनुष्यों व परमेश्वर के लिए हो सकता है, अन्य के लिए नहीं।

(ख) जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, वह पाप-पुण्य रूप कर्म दोनों ही कर सकता है। इन्हीं पाप-पुण्य रूप कर्म के आधार पर परमेश्वर जीवों को फल देता है। वर्तमान जीवन में पिछले कर्मों के आधार पर व इस जीवन में किये पुरुषार्थ से जीव भोग भोगता है। पिछले कर्म श्रेष्ठ  थे, उसके आधार पर बहुत अच्छा शरीर, परिवार, समाज आदि मिला। ये मिलने के बाद भी जीवात्मा इस जीवन में विपरीत कर्म करता हुआ दुःखी हो सकता है। भले ही पिछले कर्म अच्छे थे, किन्तु इस जीवन में उसने जघन्य पाप किये, तो वह इस जीवन व अगले जीवन में दुःख भोगेगा।

एक बात और यहाँ कह दें कि जो कुछ हम जीवन में सुख-दुःख भोगते हैं, वह सब हमारे कर्मों का फल नहीं होता। हाँ, यह अवश्य है कि सुख-दुःख फल हमारे कर्मों का होता है, किन्तु सभी सुख-दुःख हमारे कर्मों का नहीं होता। किसी अन्य व्यक्ति के कारण या प्राकृतिक आपदा के कारण भी सुख-दुःख हो सकता है।

अब आपकी बात- जिस व्यक्ति का कर्माशय सामान्य था और इस आधार पर उसको फल भी सामान्य मिलना था, किन्तु वह व्यक्ति छल, कपट, अधर्म कर-करके बहुत धनादि अर्जित कर लेता है। उस अधर्म अर्जित धन वाले व्यक्ति को दूसरे लोग देखकर यह सोचने लग जाते हैं कि धर्म करने वाला दुःखी और यह अधर्म करने वाला सुखी है। ऐसा सोचना नासमझी है, क्योंकि धर्म का फल सदा ही श्रेष्ठ और अधर्म का फल सदा विपरीत ही होता है।

जिस व्यक्ति ने अधर्म से साधन अर्जित किये हैं, निश्चित रूप से उसको आगे जो फल मिलने वाला है, वह घोर दुःख ही होगा। महर्षि दयानन्द ने इस विषय में मनु का श्लोक देते हुए लिखा है-

अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति।

ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति।।

‘‘जब अधर्मात्मा मनुष्य धर्म की मर्यादा छोड़ (जैसे तालाब के बाँध तोड़, जल चारों ओर फैल जाता है वैसे) मिथ्याभाषण, कपट, पाखण्ड, अर्थात् रक्षा करने वाले वेदों का खण्डन और विश्वासधातादि कर्मों से पराये पदार्थों को लेकर प्रथम बढ़ता है, पश्चात् धनादि ऐश्वर्य से खान-पान, वस्त्र, आभूषण, यान, स्थान, मान, प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है। अन्याय से शत्रुओं को भी जीतता है, पश्चात् शीघ्र नष्ट हो जाता है। जैसे जड़ से काटा हुआ वृक्ष नष्ट हो जाता है, वैसे अधर्मी नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है।’’ सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 5, इसलिए अधर्मी को बढ़ते देख यह कभी न सोचें कि इसका जीवन अच्छा है, अपितु यह विचारें कि यह नादान परमेश्वर के न्याय को नहीं देख रहा, यह परमेश्वर के न्याय से कभी नहीं बच सकता। जो इसने छल-कपट से अर्जन किया है, उससे वह विशेष सुख तो नहीं ले पायेगा, अपितु परमात्मा के न्याय से उसने जो छल-कपट के कर्म किये हैं, उनका विशेष दुःख अवश्य भोगेगा। अस्तु।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

जिज्ञासा समाधान: आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा 1- योग के आठ अंगों में जिनका ‘साधन पाद’ में उल्लेख है, छठा अंग ‘धारणा’ है। उसमें मन को शरीर के किसी एक अंग- जैसे नासिका, मस्तक आदि पर स्थिर करने की बात कही है। इसी स्थान पर आगे ध्यान, समाधि लगती है, परन्तु ‘समाधि पाद’ में सप्रज्ञात समाधि के अन्तर्गत जब वितर्क रूपी स्थिति, जिसमें पृथिवी आदि स्थूल भूतों का साक्षात्कार होता है, उसमें मन को नासिका, जिह्वा आदि अलग-अलग स्थानों पर लगाने का उल्लेख है। मेरी शंका यही है कि धारणा के समय जब एक स्थान चुन लिया है तो फिर वितर्क समाधि में अलग-अलग स्थान क्यों?

आशा है, मैं अपनी जिज्ञासा को ठीक प्रकार प्रकट कर पाया हूँ। आपसे निवेदन है कि इसका समाधान देने की कृपा करें।

– ज्ञानप्रकाश कुकरेजा, 786/8, अर्बन स्टेट, करनाल, हरियाणा-132001

समाधानयोग के आठ अंगों में धारणा छठा अंग है। धारणा की परिभाषा करते हुए महर्षि पतञ्जलि ने लिखा- ‘‘देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।’’ इस सूत्र की व्याया करते हुए महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के उपासना प्रकरण में लिखा- ‘‘जब उपासना योग के पूर्वोक्त पाँचों अंग सिद्ध हो जाते हैं, तब उसका छठा अंग धारणा भी यथावत् प्राप्त होती है। धारणा उसको कहते हैं कि मन को चञ्चलता से छुड़ाके नाभि, हृदय, मस्तक, नासिका और जीभ के अग्रभाग आदि देशों में स्थिर करके ओंकार का जप और उसका अर्थ जो परमेश्वर है, उसका विचार करना।’’ धारणा के लिए मुय बात अपने मन को एक स्थान पर टिका लेना, स्थिर कर लेना है। टिके हुए स्थान पर ही ध्यान करना और वहीं पर समाधि का लगना होता है। इसके लिए महर्षि पतञ्जलि ने लिखा- ‘‘त्रयमेकत्र संयमः’’ अर्थात् धारणा, ध्यान, समाधि तीनों का एक विषय हो जाना संयम कहलाता है। इस सूत्र पर महर्षि दयानन्द ने लिखा- ‘‘जिस देश में धारणा की जाये, उसी में ध्यान और उसी में समाधि, अर्थात् ध्यान करने योग्य परमेश्वर में मग्न हो जाने को संयम कहते हैं, जो एक ही काल में तीनों का मेल होना, अर्थात् धारणा से संयुक्त ध्यान और ध्यान से संयुक्त समाधि होती है। उसमें बहुत सूक्ष्म काल का भेद रहता है, परन्तु जब समाधि होती है, तब आनन्द के बीच में तीनों का फल एक ही हो जाता है।’’ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका

धारणा+ध्यान+समाधि= संयम।

अब आपकी बात पर आते हैं, आपने जो कहा कि ‘‘……सप्रज्ञात समाधि के अन्तर्गत जब वितर्क रूपी स्थिति जिसमें पृथिवी आदि स्थूल भूतों का साक्षात्कार होता है, उसमें मन को नासिका, जिह्वा आदि अलग-अलग स्थानों पर लगाने का उल्लेख है।’’ आपकी यह बात ‘‘वितर्कविचारानन्दास्मिता…..।’’ योगदर्शन 1.17 इस सूत्र में नहीं कही गई, हाँ ‘‘विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धनी।’’ योगदर्शन 1.35 इसमें कही है। इसमें वितर्क समाधि की बात नहीं, यहाँ तो मन की स्थिरता का कारण बताया है। यहाँ कहा है- नासिकाग्र आदि स्थानों पर चित्त को स्थिर करने से उत्पन्न दिव्यगन्धादि विषयों वाली प्रवृत्ति मन की स्थिति का कारण होती है।

इस सूत्र से पहले प्राणायाम का वर्णन किया हुआ है। ऋषि ने प्राणायाम को चित्त की स्थिरता का प्रमुख उपाय कहा है, अर्थात् प्राणायाम मन स्थिर करने का प्रमुख उपाय है। अब इसके आगे मन को स्थिर करने के अन्य गौण उपाय कहे हैं, उनमें यह उपाय भी है। जब योगायासी जिह्वाग्र, नासिकाग्र आदि स्थानों पर मन को स्थिर करता है, तब दिव्यरसादि की अनुभूति होती है। यह अनुभूति रूप व्यापार सामान्य न होकर उत्कृष्ट होता है। यह प्रवृत्ति मन को एकाग्र करने में सहायक होती है और साधक का अतीन्द्रिय पदार्थों को जानने में विश्वास पैदा होता है और श्रद्धा पैदा होती है। तात्पर्य यह हुआ कि स्थान विशेष पर धारणा कर मन को स्थिर (एकाग्र) करना है।

वितर्क आदि समाधि सालब हैं। वहाँ स्थूल का आलबन करते हैं, अर्थात् नासिकाग्रादि का आलबन करना वितर्क कहलाता है। वितर्क समाधि एक-एक स्थान का आलबन करने से होती है। आपने जो पूछा- ‘धारणा के समय जब एक स्थान चुन लिया है तो फिर वितर्क समाधि में अलग-अलग स्थान क्यों?’ आप इस वितर्क समाधि के स्वरूप को समझेंगे तो आपको यह शंका नहीं होगी। वितर्क समाधि सालब समाधि है और वे आलबन स्थूल हैं, अलग-अलग हैं। अलग-अलग होने पर अलग-अलग स्थान धारणा के लिए चुने हैं।

धारणा के लिए भी ऋषि ने केवल एक ही स्थान निश्चित नहीं किया, वहाँ भी अनेक स्थान कहें हैं। अनेक में से कोई एक तो है, पर केवल एक नहीं है। जब दिव्य गन्ध की अनुभूति करनी है तो धारणा स्थल एक नासिकाग्र ही होता है, वहाँ स्थान बदले नहीं जाते। ऐसे ही अन्य विषयों में भी है। इसलिए जो अलग-अलग स्थान आप देख रहे हैं, वे अनेक विषयों को लेकर देख रहे हैं, जब एक ही विषय को लेकर देखेंगे तो अलग-अलग धारणा स्थल न देखकर एक ही स्थान देख पायेंगे।

‘वेदों और आर्यसमाज का प्रचार और प्रभाव’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

स्वाध्याय करते समय आज मन में विचार आया कि महर्षि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द जी की आज्ञा से अज्ञान व अन्धविश्वासों का खण्डन-मण्डन और वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रचार किया था। क्या कारण है कि इसका वह प्रभाव नहीं हुआ जो वह चाहते थे व होना चाहिये था? क्या महर्षि दयानन्द की वेदों पर आधारित मान्यतायें व सिद्धान्त दोषयुक्त वा अपूर्ण थे अथवा इसका कारण कुछ और था? इसी क्रम में यह भी बता दें कि उनके समय (1825-1883) व आज संसार में जितने भी मत-मतान्तर प्रचलित हैं, उन सबकी परीक्षा करने पर वह सभी मान्यतायें तर्क, युक्ति व वैदिक सिद्धान्तों पर सत्य सिद्ध नहीं होती। महर्षि दयानन्द द्वारा प्रोक्त वैदिक मत को सभी मत-पन्थों को साथ बैठा कर भी सत्य सिद्ध किया जा सकता है और ऐसा महर्षि दयानन्द जी ने अपने समय में बैठक, गोष्ठी, विचार-विमर्श व शास्त्रार्थ सहित अपने ग्रन्थों के लेखन आदि द्वारा किया भी है। ऐसे मत जिनमें अज्ञान, अन्धविश्वास व मानव हित के विपरीत कथन आदि हैं, इनके आचार्य और अनुयायी अपने-अपने मतों के सत्यासत्य की युक्ति व तर्क के द्वारा कभी परीक्षा ही नहीं करते जिससे उनकी सत्यता स्वतः संदिग्ध है। महर्षि दयानन्द की मान्यतायें उनके ब्रह्मचर्यादियुक्त अपूर्व पुरुषार्थ व तप सहित वेदादि ग्रन्थों के अध्ययन व सहस्रों विद्वानों व योगियों की संगति से जानकर विवेकपूर्वक निश्चित की गईं हैं, असत्य व अपूर्ण होने की सम्भावना नहीं है। वर्तमान के हम सभी आर्यों से पूर्व महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के अनेक असाधारण विद्वान हुए हैं जिन्होंने महर्षि दयानन्द की मान्यताओं का अध्ययन व परीक्षा की और उन्हें पूर्ण सत्य पाया। उन्होंने उनमें किसी संशोधन व परिमार्जन की आवश्यकता का अनुभव नहीं किया। अब भविष्य में इस कोटि के विद्वानों के होने में भी आशंका प्रतीत होती है। अतः धर्म संबंधी विषयों में उनकी मान्यतायें व सिद्धान्त ही सत्य मानने होंगे। महर्षि दयानन्द के बाद हुए वरिष्ठ विद्वानों में पं. गुरुदत्त विद्याथी, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. आयुमुनि, पं. तुलसीराम, पं. शिवशंकरशर्मा काव्यतीर्थ, पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, स्वामी सत्यानन्द, स्वामी अमर स्वामी, पं. रामचन्द्र देहलवी, पं. शान्तिप्रकाश, पं. देव प्रकाश, स्वामी सर्वदानन्द, स्वामी वेदानन्द तीर्थ, पं. भगवद्दत्त, पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं. युधिष्ठिर मीमांसक, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, पं. विश्वनाथ विद्यालंकार, डा. रामनाथ वेदालंकार आदि के नाम ले सकते हैं। अतः महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज की वैदिक धर्म की विचारधारा का प्रचार और संसार के वेदेतर मतों के लोगों द्वारा उसको स्वीकार न करने के पीछे वेदों की विचारधारा व उसके सिद्धान्तों की असत्यता, न्यूवतायें व अज्ञानयुक्तता नहीं है अपितु जिन लोगों में प्रचार किया जाता है उन लोगों का अज्ञान वा मिथ्याज्ञान, अपने-अपने हित, अपात्रता, रूढि़वादिता, मत-मतान्तरों के आचार्यों वा धर्मगुरुओं का अपने अनुयायियों को आंखें बन्द कर व बिना विचार किए उनकी धर्मपुस्तकों, विचारों व मान्यताओं का पालन करने की धारणा का प्रचार है। यह तो हम सभी जानते हैं कि यदि हमारे मत पर कोई आक्षेप करता है तो हमारा सीमित ज्ञान व अध्ययन होने के कारण हम अपने विद्वानों को उनका प्रतिवाद करने के लिए कहते हैं। ऐसा ही अन्य मतों में भी होता है। वहां इतना हमसे पृथक होता है कि उन मतों के आचार्य अपनी अयोग्यता वा अपने मत की मान्यताओं की असत्यता को जानकर मौन रहते हैं और कह देते हैं कि आक्षेपकत्र्ता अनावश्यक व अन्य कारणों से आक्षेप कर रहा है व ऐसे अन्य बहाने बनाते हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने जब सत्य ज्ञान का अर्जन कर सन् 1863 से वेद प्रचार व असत्य मतों का खण्डन मण्डन आरम्भ किया तो अन्य मतों के आचार्यों व लोगों में उनके विचारों व तर्कों को सुनकर खलबली मच गई। उनके आचार्यों के पास उनके तर्क व युक्तियों का सन्तोषप्रद उत्तर नहीं था। वह प्रायः उनसे वार्तालाप व शास्त्रार्थ करने में दूर रहते थे। यदि आलोचित मत के आचार्य को कभी किसी कारणवश उनसे वार्तालाप व शास्त्रार्थ आदि करना भी पड़ा तो वह अपने मिथ्या मतों की मान्यताओं को तर्क व युक्तिपूर्वक सिद्ध नहीं कर पाते थे और अपने स्वार्थों के कारण उन्हें छोड़ भी नहीं पाते थे। वही स्थिति आज तक बनी हुई है। वर्तमान में मत-मतान्तरों के आचार्यों व उनके अनुयायियों ने अपने मत के सत्य व असत्य सिद्धान्तों की परीक्षा छोड़ ही दिया है और प्रायः सभी धन, सम्पत्ति, सुख-सुविधा रूपी भोग व अधिकारों आदि के चक्र में फंसे हुए दीखते हैं। संसार में ज्ञान-विज्ञान की उन्नति व प्रगति तभी हुई है जब यूरोप के देशों के लोगों ने वहां के धार्मिक संगठनों की मान्यताओं व सिद्धान्तों से स्वयं को पृथक कर सत्य का अनुसंधान, अध्ययन व उसके अनुसार क्रियात्मक प्रयोग किये। यदि वह अपने आप को वहां के मतों से जोड़े हुए रखते तो पश्चिम के देशों में ज्ञान विज्ञान की जो प्रगति हुई है, वह कदापि न होती। जिन देशों में यह प्रगति नहीं हुई या कम हुई है, उसका कारण भी वहां के लोगों का अपने आप को अपने-अपने मतों व धर्म की अविद्या वा अज्ञानजन्य मान्यताओं से जोड़े रखना है तथा इन मतों की अज्ञानयुक्त रूढि़यों व परम्पराओं का उन पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव होना है। अतः हमें लगता है कि सत्य वैदिक धर्म का जितना प्रचार किया जाये, अच्छा है, परन्तु उसका अपेक्षा के अनुकूल प्रभाव न होकर सीमित प्रभाव ही होगा। हमारे विगत डेढ़ शताब्दी में प्रचार से सभी धार्मिक संगठनों व मनुष्यों द्वारा वैदिक धर्म को सार्वजनिक पूर्णरूपेण स्वीकृति न तो मिली है और न निकट भविष्य में सभव प्रतीत होती है। ‘‘सत्यमेव जयते वाक्य के अनुसार सत्य में अपनी एक नैसर्गिक शक्ति होती है। यदि असत्य समाज व मनुष्यों में अपना अस्थाई रूप से स्थान बना सकता है तो सत्य भी अवश्य बना सकता है परन्तु असत्य के स्थापित व रूढ़ हो जाने पर उसको हठाने के लिए प्रयत्न व पुरुथार्थ कुछ अधिक करना पड़ता है। यह सत्य मत के प्रचारकों की योग्यता व पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। महर्षि दयानन्द ने इस कार्य को पूर्ण योग्यता व अपने ब्रह्मचर्य के अपूर्व बल व सामर्थ्य से किया, अपने प्राण भी इस कार्य के लिए दे दिये, जिसका देश व विदेश के लोगों पर, सीमित ही सही, वरन् आशातीत प्रभाव पड़ा। इस प्रक्रिया को प्रभावशाली रूप से जारी रखना आवश्यक है।

 

अतीत में अनेक मतों के लोगों ने वेदों का अध्ययन किया है और वह इससे आकर्षित हुए हैं। कुछ ने वैदिक मत को इसकी श्रेष्ठता के कारण अपनाया भी है। वेदों व वैदिक साहित्य जिसमें महर्षि दयानन्द जी के ग्रन्थ भी सम्मिलित हैं, का जो भी मनुष्य शुद्ध हृदय से अध्ययन करता है वह इस परिणाम पर पहुंचता है कि संसार में धार्मिक जगत में आर्यसमाज द्वारा स्वीकार्य व प्रचारित वैदिक सिद्धान्त ही पूर्णतया सत्य हैं। वेद के विपरीत प्रचलित मान्यतायें लोगों को भ्रमित करती हैं और उन्हें जीवन के लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से दूर करती हैं। हमने इस लेख में महर्षि दयानन्द द्वारा प्रचारित सत्य वेद मत के संसार में प्रसारित होने में आईं बाधाओं का संकेत कर यह बताने का प्रयास किया है कि सामान्य मनुष्यों का ज्ञान इस स्तर का नहीं होता कि वह धर्म के सभी सिद्धान्तों को पूर्णरूपेण जान व समझ सके वा जानने-समझने पर स्वीकार कर ले। इसके लिए श्रोता का स्तर वक्ता के समान व उससे कुछ कम तथा अध्येता का स्तर ग्रन्थकार के स्तर के कुछ-कुछ अनुरूप होना चाहिये। स्कूल के अध्यापक का उदाहरण भी यहां लिया जा सकता है। हम जानते हैं कि स्कूल के अध्यापक के ज्ञान का स्तर विद्यार्थियों से अधिक ही होता है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह होती है कि शिक्षक अविद्यायुक्त, स्वार्थी, हठी व प्रमादी नहीं होता। शिक्षक व पुस्तकों की बातें सत्य ही हुआ करती हैं जिसको विद्यार्थी पक्षपात रहित होकर समर्पित भाव से पढ़ता है और ऐसा करने से उसकी बौद्धिक उन्नति होती है। यदि प्राचीन काल से हमारे सभी धर्म प्रचारक व धर्मों के आचार्य शिक्षकां की तरह से ज्ञानी, निष्पक्ष, सत्य के आग्रही व विवेकशील होते तो आज संसार में इतने मत, मतान्तर वा धर्म आदि न होते जितने की आज हो गये हैं। प्राचीनकाल से अच्छे शिक्षकों व प्रचारकों की कमी का परिणाम ही वर्तमान के अविद्यायुक्त मत-मतान्तर हैं।

 

महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज के विद्वान और अनुयायी यह जानते हैं कि उनका मत ईश्वरीय ज्ञान वेदों पर आधारित है और पूर्ण सत्य है। हमें अपने जीवनों को भी वैदिक मान्यताओं के अनुसार बनाना चाहिये। हमें भी आत्म चिन्तन कर अपने जीवन की कमियों को दूर करना चाहिये और अपने आचरण व व्यवहार पर ध्यान देना चाहिये। यदि हमारे गुण-कर्म-स्वभाव, आचरण व व्यवहार वेद और आर्यसमाज के सिद्धान्तों पर आधारित होंगे तो उनका हमारे परिवार व समाज पर भी अच्छा प्रभाव होगा। इस लेख में हमने यह विचार किया कि सत्य व ज्ञान से पूर्ण होने पर भी महर्षि दयानन्द द्वारा प्रचारित वेदमत का देश व विश्व पर अपेक्षानुरुप प्रभाव क्यों नहीं हुआ? आर्यसमाज के अन्य विद्वान भी इस विषय पर विचार कर लेखों के द्वारा आर्यजनता का मार्गदर्शन कर सकते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘ईश्वर के प्रति मनुष्य का मुख्य कर्तव्य’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 देहरादून।

 

हमें हमारे माता-पिता इस संसार में लाये। जब हम जन्में तब हमें अपना, परिवार, समाज व संसार का किंचित ज्ञान नहीं था। माता की निकटता और प्रेरणाओं से हम शनैः शनैः ज्ञान से युक्त होने लगे। माता-पिता के हमारे प्रति किए गये प्रयासों से हमें उनको व परिवार के सदस्यों को कुछ-कुछ जानने का ज्ञान व अभ्यास हुआ। आयु वृद्धि के साथ हमारा ज्ञान बढ़ता गया और हम भोजन, वस्त्र, निवास, पारिवारिक व सामाजिक लोगों के ज्ञान तक सीमित हो गये। हमने घर में किए जाने वाले पूजा आदि धार्मिक क्रियाओं को भी देख कर उनको करना आरम्भ कर दिया। हमने अपनी आंखों से पृथिवी, सूर्य, चन्द्र एवं पृथिवीस्थ अग्नि, जल, वायु, आकाश, नदी, पहाड़, वन, खेत आदि को देखा परन्तु इन सबसे हमें ईश्वर के वास्तविक स्वरुप का बोध नहीं हुआ। सभी प्राणियों की उत्पत्ति सहित संसार की रचना की ओर हमारा ध्यान ही नहीं गया। ईश्वर की कृपा से हमें एक मित्र के द्वारा आर्यसमाज का परिचय मिला, उन्होंने समाज के नियम, मान्यताओं और सिद्धान्तों के बारे में बताया और हम खाली समय में उनके साथ समाज मन्दिर जाने लगे। पता ही नहीं कब हमें ईश्वर, जीवात्मा सृष्टि विषयक अनेक सत्ताओं का तर्क युक्ति से पूर्ण सन्तोषप्रद निर्भरान्त ज्ञान हो गया। यह ज्ञान हमें विद्वानों के उपदेश व सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से प्राप्त हुआ। आज भी हम सत्यार्थप्रकाश पढ़ते हैं तो हमें हर बार कुछ नया ज्ञान प्राप्त होता है व अनुभव से हमें महर्षि दयानन्द के ज्ञान की उत्कृष्टता, पराकाष्ठा व उनकी सदाशयता का पता चलता है।

 

संसार में सभी लोगों को यह तो ज्ञान है कि हमें अच्छा भोजन करना है, स्वस्थ रहना है, धनसम्पत्ति एकत्र कर सुख भोगने हैं परन्तु ईश्वर, जीवात्मा सृष्टि विषयक यथार्थ ज्ञान इनके प्रति हमारे कर्तव्यों का ज्ञान अधिकांश को नहीं है। ईश्वर आदि के प्रति यथार्थ ज्ञान न होने के कारण प्रायः सभी मतों की रूढि़वादी सोच है। वह जितना जानते हैं व जो कुछ उनके मत की पुस्तक में लिखा है, उससे अधिक न सोचते हैं न जानना चाहते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि उनका ज्ञान अति अल्प है जिसमें मिथ्याज्ञान भी सम्मिलित है। महर्षि दयानन्द (1825-1883) इतिहास में एक अनूठे मनुष्य हुए जिन्होंने हर प्रश्न का उत्तर खोजा और अत्यन्त तप व पुरुषार्थ से प्राप्त उस दुर्लभ ज्ञान को संसार के सब मनुष्यों के कल्याणार्थ उपदेशों, लेखों वा पुस्तकों द्वारा प्रस्तुत किया। आज संसार के विरोधी मत वाले भी उनके द्वारा प्रचारित व प्रसारित मान्यताओं व सिद्धान्तों को न मानने पर भी उनमें कोई न्यूनता व त्रुटि दिखाने की स्थिति में नहीं है। वैदिक व आर्य सिद्धान्तों को न मानना उनका मिथ्याचार है। एक प्रकार से सभी मतों ने महर्षि दयानन्द अर्थात् वेदों की सभी मान्यताओं को स्वीकार कर लिया है परन्तु अज्ञान, स्वार्थ, हठ आदि के कारण वह अपने रूढि़गत विचारों से ही जुड़े हुए हैं।

 

ईश्वर है या नहीं, यदि है तो कहां है, कैसा है, आंखों से दिखता क्यों नहीं, उसको जानने व मानने से हमें क्या लाभ होगा या हो सकता है, आदि अनेक प्रश्न हैं जो पूछे जा सकते हैं। ईश्वर है या नहीं का उत्तर है कि ईश्वर अवश्य है। यह जड़-चेतन संसार व इसके नियम ईश्वर के होने का प्रमाण हैं। यदि ईश्वर न होता तो यह संसार भी न होता और हमारी आत्मा का अस्तित्व होने पर भी हमारा मनुष्यादि योनि में जन्म न हुआ होता। जीवात्माओं को प्राणी योनियों में जन्म देना ईश्वर का ही काम है, और इससे ईश्वर सिद्ध होता है। इसे कारण-कार्य सिद्धान्त कह सकते हैं। संसार का कारण ईश्वर व प्रकृति है। ईश्वर निमित्त कारण है और प्रकृति उपादान कारण है। ईश्वर के होने में अन्य अनेक प्रमाण भी है जिसे सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय कर जाना जा सकता है। ईश्वर कहां है? इसका उत्तर है कि सर्वत्र, सब जगह है अर्थात् वह आकाशवत् सर्वव्यापक है। यदि ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वत्र न होता तो भी संसार की रचना, जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार भिन्न-भिन्न प्राणियोनियों में जन्म व उनका पालन सम्भव नहीं था। अतः ईश्वर का निराकार, सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होना तर्क व युक्ति संगत है। ईश्वर कैसा है, प्रश्न भी उत्तर का समाधान चाहता है। इसका उत्तर है कि ईश्वर आकार रहित है, उसका मनुष्य की तरह न शरीर है, न आकृति है, न रंग व रूप है। वह स्वयंभू है और उसकी सत्ता स्वयंसिद्ध है तथा वह सच्चिदानन्द (सत्य+चित्त+आनन्द) स्वरूप है। अत्यन्त सूक्ष्म अर्थात् सूक्ष्मतम् होने के कारण वह आंखों से भी दिखाई नहीं देता। इसको इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि आंखे जितने सूक्ष्म आकार को देख सकती हैं, ईश्वर उससे भी कहीं अधिक सूक्ष्म है, इसलिये वह दिखाई नहीं देता। हमारी आत्मा ईश्वर की तुलना में कम सूक्ष्म है अर्थात् ईश्वर जीवात्मा से भी अधिक सूक्ष्म है। जब हम अपनी व दूसरे प्राणियों की जीवात्माओं को ही नहीं देख सकते, तो ईश्वर का सर्वातिसूक्ष्म होने के कारण हमारी भौतिक आंखों से दिखाई देना सम्भव नहीं है। हां, उसे बुद्धि व ज्ञान से देखा, समझा व अनुभव किया जा सकता है। महर्षि दयानन्द कृत सत्यार्थप्रकाश पढ़ने से भी सभी प्रश्नों व शंकाओं का समाधान हो जाता है। ईश्वर को जानने से हमें उसके स्वरुप, गुण, कर्म व स्वभाव का ज्ञान होता है। जिस प्रकार वैज्ञानिकों ने पृथिवीस्थ पदार्थों के गुण-कर्म-स्वभाव को जानकर आज कम्प्यूटर, मोबाइल, जहाज, रेल आदि सभी वस्तुयें तथा चिकित्सा पद्धति सहित शल्य क्रिया आदि का ज्ञान उन्नत किया है, इसी प्रकार से ईश्वर को जानकर सभी दुःखों से निवृत्ति, सुखों व आनन्द की प्राप्ति और  जन्म-मरण से अवकाश अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है। अतः वैदिक धर्म व स्वामी दयानन्द प्रदत्त वैदिक साहित्य में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति विषयक मनुष्यों के लिए जानने योग्य सभी प्रश्नों का समाधान हो जाता है।

 

अब हमें मनुष्यों के ईश्वर के प्रति कर्तव्य को जानना है। ईश्वर ने जीवात्माओं को उनके पूर्व कर्मानुसार सुख व दुःख रूपी भोग प्रदान करने के लिए इस सृष्टि की उत्पत्ति की है व विगत 1.96 अरब वर्षों से वह इसका सफलतापूर्वक संचालन करने के साथ सृष्टि में जन्म लेने वाले सभी प्राणियों का पालन करता चला आ रहा है। हमें जन्म भी ईश्वर ने हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर ही दिया है। हमारा पहला कर्तव्य तो ईश्वर सहित जीवात्मा और प्रकृति के सत्यस्वरुप को जानने के लिए प्रयत्न करना है। इन्हें जानकर ईश्वर के प्रति हमारा क्या कर्तव्य है यह जानना है। इसके लिए हमारे वेद और वैदिक साहित्य से सहायता ली जा सकती है। महर्षि दयानन्द ने यह कर्तव्य बताया है और कहा कि मनुष्य को ईश्वर की प्रतिदिन प्रातः सायं सन्ध्या अर्थात् योग पद्धति से सम्यक् ध्यान उपासना करनी चाहिये। सन्ध्या में ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना की जाती है। देवयज्ञ व अग्निहोत्र में भी इसे किया जाता है। सभी शुभ-अशुभ अवसरों पर भी स्तुति-प्रार्थना-उपासना सहित यज्ञ करने का विधान किया गया है। इससे दुःखों की निवृति व सुखों की उपलब्धि होती है। सन्ध्या वा स्तुतिप्रार्थनाउपासना इसलिये की जाती है कि हम ईश्वर के जन्मजन्मान्तरों के असंख्य अगणित उपकारों के लिए कृतज्ञता व्यक्त कर उसका धन्यवाद कर सकें। इसके साथ स्तुति करने से ईश्वर से प्रीति, प्रार्थना से निरभिमानता तथा उपासना से दुर्गुण, दुव्र्यस्नों व दुखों की निवृति सहित कल्याणकारक गुण-कर्म-स्वभाव व पदार्थों की उपलब्धि वा प्राप्ति होती है। प्राचीन काल से हमारे सभी पूर्वज, ऋषि, मुनि, विद्वान, ज्ञानी, विज्ञ, विप्र ईश्वर की उपासना करते आये हैं और उनमें से महर्षि दयानन्द सहित अनेकों ने समाधि को सिद्धकर धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति की थी। हम भी यदि सन्ध्या-उपासना व यज्ञ आदि कर्मों को करेंगे तो हमें भी यह फल प्राप्त होंगे और यदि नहीं करेंगे तो हम इनसे वंचित रहेंगे। सन्ध्या व यज्ञ की विधि के लिए महर्षि दयानन्द जी की पुस्तक मंचमहायज्ञविधि तथा संस्कारविधि का अध्ययन किया जाना चाहिये।

 

आज नये आंग्ल वर्ष 2016 का प्रथम दिवस है। यदि हम इसे मनाते हैं तो आज हमें स्वयं को व ईश्वर को जानने तथा इनके प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करने का संकल्प वा व्रत लेना चाहिये। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हमें बाद में पछताना होगा। आईये, वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय तथा ईश्वर के प्रति मनुष्य के मुख्य कर्तव्य सन्ध्या व यज्ञ सहित ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना की प्रतिज्ञा करें, संकल्प व व्रत लें।

मनमोहन कुमार आर्य

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