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सन् 1857 का विप्लवः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

सन् 1857 का विप्लवः-

 

भारत के प्रायः सब नेता अंग्रेजों के स्वर में स्वर मिलाकर सन् 1857 के विप्लव को Munity (गदर) ही लिखते व कहते आये हैं। महर्षि दयानन्द प्रथम भारतीय नेता व विचारक थे, जिन्होंने सन् 1878 में अपने जालंधर के एक भाषण में इसे विप्लव कहकर लखनऊ में अंग्रेजों के अत्याचारों की घोर निन्दा की। वीर सावरकर का ग्रन्थ Our First war of Independenceतो बहुत बाद में आया। आर्य समाज ऋषि-जीवन की इस घटना को मुखरित ॥ Highlight न करने का दोषी है। केवल पं. लेखराम जी, पं. लक्ष्मण जी के ग्रन्थों में यह छपी मिलती है। मैं आर्य मात्र से इसको मुखरित करने की विनती करता हूँ।

सर सैयद अहमद खाँ ने भी ‘गदर के असबाब’ पुस्तक लिखी। पं. कन्हैयालाल अमेठी ने भी उर्दू में इस पर एक ग्रन्थ लिखा, जिसके कई संस्करण छपे थे। एक संस्करण पर ‘मुंशी कन्हैयालाल’ छपा पढ़कर मैंने कन्हैयालाल अलखधारी जी को इसका लेखक समझ लिया। यह मेरी भूल थी। मिलान किया तो पता चला कि पृष्ठ संया बदल गई है, लेखक कन्हैयालाल ही हैं। ऐसी पुस्तकें और भारतीय लेखकों नेाी लिखीं। ऋषि जी के साहस, शौर्य का मूल्याङ्कन तो कोई करे।

जीवात्मा वा मनुष्य की मृत्यु और परलोक’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महाभारत के एक अंग भगवद्-गीता के दूसरे अध्याय में जन्म व मृत्यु विषयक वैदिक सिद्धान्त को बहुत सरल व स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है। गीता के इस अध्याय में कुछ प्रसिद्ध श्लोकों में से 3 श्लोक प्रस्तुत हैं। यह तीन श्लोक गीता के दूसरे अध्याय में क्रमांक 22, 23 तथा 27 पर हैं जिन्हें प्रस्तुत  कर रहे हैं। वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।22।।, ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। चैनं क्लेदयन्त्यापो शोषयति मारुतः।।23।। तथा जातस्य हि धु्रवो मृत्युध्र्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे त्वं शोचितुमर्हसि।।27।। इनका अर्थ है कि मनुष्य जैसे पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्र धारण कर लेता है वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरे नये शरीर में चली जाती है। तेइसवें श्लोक में बताया गया है कि शस्त्र इस आत्मा को काट नहीं सकते, अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती अर्थात् प्रत्येक स्थिति में यह आत्मा अपरिवर्तनीय रहती है। सत्ताइसवें श्लोक का अर्थ है कि पैदा हुए मनुष्य की मृत्यु अवश्य होगी और मरे हुए मनुष्य का जन्म अवश्य ही होगा। इस जन्म मरण रूपी परिवर्तन के प्रवाह का निवारण नहीं हो सकता। अतः जन्म मृत्यु होने पर मनुष्य को हर्ष शोक नहीं करना चाहिये। गीता के इन श्लोकों में जो ज्ञान दिया गया है वह जन्म व मृत्यु की यथार्थ स्थिति को प्रस्तुत कर रहा है। संसार में हम सर्वत्र इन कथनों का पालन होते हुए देख रहे हैं।

 

संसार में हम प्रतिदिन मनुष्यों व अन्य प्राणियों के बच्चे व सन्तानों का जन्म होता हुआ देखते हैं। हम यह भी देखते हैं कि मानव व अन्य प्राणियों का शिशु समय के अनुसार बालक, किशोर, युवा, प्रौढ़ व वृद्ध होता है। वृद्धावस्था भी स्थाई नहीं होती। कुछ वर्षों बाद रोग व दुर्घटना आदि कोई कारण बन जाता है और मृत्यु हो जाती है। मृत्यु के समय हम मृतक के लिये शोक वा दुःख व्यक्त करते हैं और उसकी आत्मा की शान्ति व सद्गति के लिए प्रार्थना करते हैं। ऐसा प्रायः सभी मतों व धर्मों के लोग करते हैं। जो लोग ईश्वर व आत्मा के पृथक अस्तित्व को नहीं मानते, वह भी मृत्यु होने पर दुःखी होते हैं। इसका कारण यह है कि मनुष्य व उसके परिजन नहीं चाहते कि उनमें से किसी की मृत्यु हो। हां, रोग आदि होने व अधिक समय तक स्वस्थ होने के स्थान पर अस्वस्थता के विकराल हो जाने पर अवश्य ही लोग विवशता में यह कहते हैं कि यदि इसकी मृत्यु हो जाये तो यह इन दुःखों से छूट सकता है। इन सब पर विचार करने से यह विदित होता है कि जिन लोगों के परस्पर परिचय व सम्बन्ध होते हैं उनमें एक दूसरे के प्रति प्रेम व मोह उत्पन्न हो जाता है। मिलने पर सुख का अनुभव होता है व अलग होने पर दुःख होता है चाहे यह वियोग दोनों के जीवित होने पर ही हो अर्थात् एक दूसरे से कुछ समय के लिए दूर जाने से हो। स्थाई रूप से वियोग अर्थात् मृत्यु का दुःख अधिक होता है। मृत्यु के समय पर हमारे प्रिय जन का भौतिक शरीर तो हमारे ही पास रहता है परन्तु उस शरीर में स्थित एक चेतन तत्व जीवात्मा के न रहने पर उसका शरीर निश्चेष्ट हो जाता है। शरीर के प्रति यद्यपि प्रियजनों को यह विश्वास होता है कि जिस व्यक्ति व पदार्थ से उनका प्रेम सम्बन्ध था वह यह शरीर नहीं, वह इससे भिन्न अन्य कोई था जो अब इसमें नहीं है और यह शरीर उसके न रहने से अब उनके किसी काम का नहीं है। शरीर से कुछ समय बाद दुर्गन्ध उत्पन्न होने लगती है जिसको अपने से दूर करना ही होता है। पर्यावरण प्रदुषण आरम्भ हो जाता है जिसके रोकने के लिए सर्वोत्तम उपाय उसका गोघृत, केसर व कस्तूरी व वनौषधि आदि सुगन्धित पदार्थों से उसे काष्ठ की चिता में जलाकर पंचतत्वों में विलीन किया जाता है। बहुत से लोग इस सर्वोत्तम प्रक्रिया को तत्वतः व यथार्थतः नहीं जानतेख् अतः वह अन्य प्रकार से  अन्त्येष्टि करते हैं जिसमें उनकी कुछ साम्प्रदायिक भावनाये व अज्ञान भी होता है। अब प्रश्न यह है कि शरीर से चेतन जीवात्मा कैसे निकलती है व कहां जाती है?

 

इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए वैदिक ज्ञान के प्राचीनतम व प्रमाणिक होने के साथ ही यह हमारा सहायक होता है। वैदिक ज्ञान के अनुसार यह समस्त संसार सत्व, रज व तम गुणों वाली अति सूक्ष्म मूल जड़ प्रकृति का विकार है जिसे ईश्वर अस्तित्व में लाता है। सृष्टि की रचना का कारण जीवों के पूर्वजन्मों के कर्म होते हैं जिनका भोग करना जीवात्माओं के लिए शेष रहता है। इन भोग करने वाले कर्मों के अनुसार ही ईश्वर जीवात्माओं को नाना प्रकार की योनियों में जन्म देता है। जिन-जिन योनियों में जिसको जन्म मिलता है, उन-उन योनियों में रहकर जीवात्मा अपने पूर्वजन्मों के कर्मों का भोग करते हैं। भोग करने के बाद मृत्यु आने पर जो कर्म भोग करने के लिए शेष रह जाते हैं उनके अनुसार फिर नया जन्म होता है। मनुष्य योनि एकमात्र ऐसी योनि है जिसमें मनुष्य पूर्वजन्मों के कर्मों को भोगता भी है और नये शुभ व अशुभ कर्मों को करके उनका संचय कर आत्मा की उन्नति व अवनति करता है। इसे इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि धर्मात्मा मनुष्य जन्म में आत्मा की उन्नति करते हैं और धर्महीन लोग अवनति कर दुःखों के भागी बन परजन्मों में दुःखों को भोगते हैं। जीवात्मा को मनुष्य जन्म में यह सुविधा भी दी गई है कि वह ईश्वरीय ज्ञान वेदों का अध्ययन करे, वेद विहित कर्मों ब्रह्मचर्य पालन, ईश्वरोपासना अर्थात् ईश्वर के गुणों का ध्यान व चिन्तन, यज्ञादि कर्म, माता-पिता-आचार्य आदि की सेवा व सत्कार, सभी प्राणियों के प्रति दया, हिंसा का पूर्ण त्याग, समाज व देश का उपकार आदि कार्य करे। यह सभी कर्म मनुष्य को बार-बार के जन्म व मृत्यु के चक्र से छुड़ाकर मोक्ष प्राप्ति में सहायक होते हैं। मोक्ष को प्राप्त जीवात्मा को अन्य जीवात्माओं की तरह बार-बार जन्म व बार-बार मरण की स्थिति से नहीं गुजरना पड़ता। मोक्ष की यह अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों की होती है। यह मोक्ष की अवस्था भी जीवात्मा का श्रेष्ठतम परलोक है। जिन जीवात्माओं के मनुष्य जन्म में वेद व वैदिक मान्यताओं के अनुसार श्रेष्ठ कर्म नहीं होते उनकी गीता के श्लोकों के अनुसार पुर्नजन्म होता है। मृत्यु के बाद जीवात्मा की आकाश व वायुमण्डल में स्थिति, उसके बाद पिता व माता के शरीरों में प्रवेश, गर्भावस्था में शरीर के निर्माण के बाद जन्म व जन्म से आगे मृत्यु का समय किसी भी जीवात्मा का परजन्म व परलोक होता है। हम इस संसार में मनुष्यों की सुख-दुःख व सुविधा व असुविधाओं सहित शरीर के सौन्दर्य व शक्तियों के अनुसार भिन्न-भिन्न स्थितियों को देखते हैं। इनमें से कुछ संसार व समाज निर्णीत हैं और कुछ ईश्वर द्वारा निर्धारित हैं। ईश्वर व संसार द्वारा निर्धारित हमारी परिस्थितियां ही हमारे पूर्वजन्म का परजन्म या परलोक है। जिस प्रकार हमारा यह जन्म व स्थिति हमारे पूर्वजन्म का परलोक है उसी प्रकार से हमारा अगला जन्म इस जन्म के कर्मानुसार श्रेष्ठ व निम्न मनुष्य योनि व गो आदि वा सर्प आदि योनियों में भी हो सकता है। यही हमारे इस जन्म का परलोक होगा।

 

मुक्ति भी जीवात्मा का परलोक ही होती है। मुक्ति विषयक महर्षि दयानन्द के यथार्थ विचार प्रस्तुत कर रहे हैं। (प्रश्न) मुक्ति किस को कहते हैं? (उत्तर) जिस में छूट जाना हो उस का नाम मुक्ति है। (प्रश्न) किस से छूट जाना? (उत्तर) जिससे छूटने की इच्छा सब जीव करते हैं। (प्रश्न) किससे छूटना चाहते हैं? (उत्तर) दुःख से। (प्रश्न) छूट कर किस को प्राप्त होते हैं और कहां रहते हैं? (उत्तर) सुख को प्राप्त होते और ब्रह्म में रहते हैं। (प्रश्न) मुक्ति और बन्धन किन किन बातों से होता है? (उत्तर) परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म, अविद्या, कुसंग, कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहने, और सत्यभाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्याय, धर्म की वृद्धि करने, वैदिक पद्धति के अनुसार परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अर्थात् योगाभ्यास करने, विद्या पढ़ने-पढ़ाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने, सब से उत्तम साधनों को करने और जो कुछ करे वह सब पक्षपातरहित न्यायधर्मानुसार ही करे, इत्यादि साधनों से मुक्ति और इनसे विपरीत ईश्वर की आज्ञा भंग करने आदि काम से बन्ध अर्थात् जन्म-मरण रूपी बन्धन होता है। (प्रश्न) मुक्ति में जीव का लय होता है वा विद्यमान रहता है? (उत्तर) विद्यमान रहता है। (प्रश्न) कहां रहता है? (उत्तर) ब्रह्म में। (प्रश्न) ब्रह्म कहां है और वह मुक्त जीव एक ठिकाने रहता है वा स्वेच्छाचाचरी होकर सर्वत्र विचरता है? (उत्तर) जो ब्रह्म सर्वत्र पूर्ण है, उसी में मुक्तजीव अव्याहतगति अर्थात् उस को कहीं रुकावट नहीं, विज्ञान, आनन्द पूर्वक स्वतन्त्र विचरता है। (प्रश्न) मुक्त जीव का स्थूल शरीर रहता है वा नहीं? (उत्तर) नहीं रहता। (प्रश्न) फिर वह सुख और आनन्द का कैसे भोग करता है? (उत्तर) उसके सत्य संकल्पादि स्वाभाविक गुण, सामथ्र्य सब रहते हैं, भौतिक संग नहीं रहता, उनसे भोग करता है।

 

मोक्ष में भौतिक शरीर वा इन्द्रियों के गोलक जीवात्मा के साथ नहीं रहते किन्तु अपने स्वाभाविक शुद्ध गुण रहते हैं। जब सुनना चाहता है तब श्रोत्र, स्पर्श करना चाहता है तब त्वचा, देखने के संकल्प से चक्षु, स्वाद के अर्थ रसना, गंध के लिये घ्राण, संकल्प-विकल्प करते समय मन, निश्चय करने के लिये बुद्धि, स्मरण करने के लिये चित्त और अहंकार के अर्थ अहंकाररूप अपनी स्वशक्ति से जीवात्मा मुक्ति में हो जाता है और संकल्पमात्र शरीर होता है। जैसे शरीर के आधार रहकर इन्द्रियों के गोलक के द्वारा जीव स्वकार्य करता है वैसे अपनी शक्ति से मुक्ति में सब आनन्द भोग लेता है। (प्रश्न) उस की शक्ति कितने प्रकार की और कितनी है? (उत्तर) मुख्य एक प्रकार की शक्ति है, परन्तु बल, पराक्रम, आकर्षण, प्रेरणा, गति, भीषण, विवेचन, क्रिया, उत्साह, स्मरण, निश्चय, इच्छा, प्रेम, द्वेष, संयोग, विभाग, संयोजक, विभाजक, श्रवण, स्पर्शन, दर्शन, स्वादन और गंध ग्रहण तथा ज्ञान इन 24 चैबीस प्रकार के सामथ्र्ययुक्त जीव हैं। इन शक्तियों से मुक्ति में भी आनन्द की प्राप्ति व भोग करता है। जो मुक्ति में जीवात्मा का लय होता तो मुक्ति का सुख कौन भोगता? और जो जीव के नाश ही को मुक्ति समझते हैं वे तो महामूढ़ हैं क्योंकि मुक्ति जीव की यह है कि दुःखों से छूट कर आनन्द स्वरूप सर्वव्यापक अनन्त परमेश्वर में जीव का आनन्द में रहना।

 

मुत्यु और परलोक का संक्षिप्त विवरण हमने प्रस्तुत किया है। विस्तार से जानने के लिए सत्यार्थप्रकाश का नवम समुल्लास द्रष्टव्य है। महर्षि दयानन्द वेदों व वैदिक साहित्य के महान ज्ञाता-विद्वान और योग की सिद्धि ब्रह्म वा ईश्वर साक्षात्कार को प्राप्त योगी थे। हमारा ज्ञान व अनुभव उनसे बहुत निम्न व अनेकानेक भ्राान्तियों से युक्त है। जिस प्रकार हम ज्ञान व विज्ञान में प्रमाणित विद्वानों की पुस्तकों पर विश्वास करते हैं उसी प्रकार हमें महर्षि दयानन्द के वचनों के अनुसंधान युक्त वा स्वानुभूत होने पर भी विश्वास करना चाहिये। उन्होंने केवल भाषण व ग्रन्थ ही नहीं लिखे अपितु अपनी समस्त शिक्षाओं को अपने जीवन में चरितार्थ भी कर दिखाया था। अतः मानवता के आदर्श महर्षि दयानन्द के मार्ग व शिक्षाओं को यदि हम अपनायेंगे तो लाभ में रहेंगे अन्यथा वर्तमान व भावी जन्मों में दुःखों से बच नहीं सकते। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

            –मनमोहन कुमार आर्य

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मनुष्य और अनेक प्राणी योनियों में जीवात्माओं के जन्म का कारण’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

यदि हम अतीत की बातें छोड़कर वर्तमान संसार में विद्यमान मनुष्यादि अनेक प्राणी योनियों में जीवात्माओं के जन्म पर विचार करें तो हम देखते हैं कि सभी प्राणियों में जन्म व मृत्यु का सिद्धान्त काम कर रहा है। हमसे पहले व बाद में जन्में अनेक मनुष्य और अन्य प्राणियों को हमने समय समय पर मरते हुए देखा है। सृष्टि की आदि से वर्तमान समय तक अनेक प्राणी योनियों में अनन्त संख्या में प्राणियों के जन्म हुए हैं, सब अपना जीवन काल पूरा करते हैं और उसके बाद सभी प्राणियों की मृत्यु हो जाती है। इससे यह सिद्धान्त बना है कि जन्म लेने वाले सभी प्राणियों की कुछ समय व वर्षों के बाद मृत्यु अवश्यमेव होती है। वेद, शास्त्र और कर्म-फल विज्ञान के विशिष्ट ज्ञाता हमारे ऋषियों ने यह सिद्धान्त दिया है कि मनुष्य व अन्य प्राणियों के अपने किसी जन्म में मृत्यु से पूर्व तक किये गये शुभाशुभ कर्मों, जिनका फल भोगा नहीं गया हो, उनको भोगने के लिए नाना योनियों में जीवात्माओं के जन्म होते हैं। इस कारण से भिन्न जन्म का अन्य कोई कारण नहीं हो सकता। जो लोग इस सिद्धान्त को नहीं मानते उन्हें विचार करना चाहिये कि इस संसार में हमें सर्वत्र नियम देखने को मिलते हैं। ऋतु परिवर्तन नियमों के अनुसार होता है, ब्रह्माण्ड के सभी पिण्ड गतिशील हंै जो कि विज्ञान के नियमों के अनुसार हो रहा है। इन नियमों का आधार व आदि कारण ईश्वर व परमात्मा है। अति सूक्ष्म एक परमाणु तक में भी विज्ञान के नियमों के अनुसार गति व क्रियायें होती हैं तो फिर मनुष्य का जन्म व मरण का कारण भी अवश्य ही किसी सिद्धान्त व नियम पर आधारित है, यह ज्ञात होता है। ऋषियों ने अपनी साधना व गहन चिन्तन से कर्म-फल सिद्धान्तों पर विचार किया और वेद व अन्य ऋषियों के बनाये शास्त्रों के आधार पर यह निश्चित किया है कि किसी भी मनुष्य व प्राणी के पूर्वजन्मों के शुभ व अशुभ कर्म ही इस मनुष्यादि जन्म के कारण हैं। यह सिद्धान्त पूर्ण युक्तिसंगत एवं ज्ञान-तर्क-विज्ञान से युक्त व पोषित है। इसमें अन्धविश्वास व अज्ञान जैसी कोई बात नहीं है। जिनको यह सिद्धान्त समझ में नहीं आता व जो इसे नहीं मानते उन्हें इस सिद्धान्त का अधिक अध्ययन, विचार व चिन्तन करने की आवश्यकता है।

 

मनुष्य व सभी प्राणियों के जन्म में जीवात्मा, ईश्वर सहित प्रकृति की भी भूमिका है। ईश्वर हमें जन्म देने वाली सत्ता का नाम है। जिस प्रकार माता-पिता मनुष्य आदि के जन्म में अपनी भूमिका निभाते हैं, उसी प्रकार ईश्वर भी मृत्यु के पश्चात जीवात्मा को उसके कर्मानुसार माता-पिता का चयन कर उनसे जीवात्मा के जन्म की प्रक्रिया पूरी कराता है। यदि परमात्मा यह कार्य न करे तो कोई भी जीवात्मा जन्म न ले सके। जीवात्मा तो जन्म की इस पूरी प्रक्रिया में घटने वाली घटनाओं व क्रियाओं से पूरी तरह अपरिचित व अनभिज्ञ रहता है। ईश्वर अपने विधान के अनुसार जीवात्मा को एक शरीर से निकाल कर उसके भावी माता-पिता के शरीर में प्रविष्ट कराता व उनसे उसे जन्म दिलाता है। जन्म होने के बाद से जीवात्मा का शरीर वृद्धि को प्राप्त होता है और माता-पिता-आचार्यों व विद्वानों से ज्ञान अर्जित कर वह जीवात्मा वा मनुष्य शुभाशुभ कर्मों में प्रवृत्त रहकर अपने पूर्वजन्म के अवशिष्ट कर्म=प्रारब्ध को सुख व दुःख के रुप में भोगता है। लगभग ऐसी ही स्थिति मनुष्येतर सभी प्राणियों के साथ होती है। इससे यह निश्चित है कि मनुष्य योनि में जीवात्मा के कर्म ही उसके भावी जन्म की नींव का कार्य करते हैं और उनके भोग व नवीन कर्मों से भावी जन्म के लिए आधार बनता है।

 

मनुष्य के जन्म व मृत्यु का कारण जान लेने पर ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप को भी जानना चाहिये। ईश्वर के बारे में सारे संसार में नाना प्रकार की अज्ञानजनित भ्रान्तियां हैं। इन भ्रान्तियों के कारण मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्य के यथार्थ ज्ञान से भी दूर अर्थात् भटकाव की स्थिति में रहता है। ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्य स्वरुप का ज्ञान हो जाने पर मनुष्य अपने कर्तव्य व अकर्तव्यों को जानकर अपने जीवन के उद्देश्य को भी समझ सकता है जिससे वह उद्देश्य के अनुरुप कर्मों को करते हुए सुखों का भोग करे और मृत्यु के पश्चात उसको उसका प्रमुख उद्देश्य वा लक्ष्य मोक्ष प्राप्त हो जाये। प्रथम ईश्वर के स्वरुप पर विचार कर लेते हैं। ईश्वर मुख्यतः इस सृष्टि की रचना करने, इसका पालन करने और अवधि पूरी होने पर इस सृष्टि की प्रलय करने वाली एकमात्र सत्ता है। सभी जीवात्माओं को जन्म देना भी ईश्वर के ही अधीन है। इसके स्वरुप पर विचार करें तो यह सच्चिदानन्दस्वरूप सिद्ध होती है। यह सत्य अर्थात् सत्तात्मक है, यह तो इस सृष्टि की उत्पत्ति व व्यवस्था से ही सिद्ध है। चेतन होना इसलिए अनिवार्य है कि बिना चेतन तत्व व सत्ता के कोई बुद्धिपूर्ण रचना अस्तित्व में नहीं आती है। संसार में हम अनेक बुद्धिपूर्वक बनाये हुए पदार्थों को देखते हैं। किसी निर्मित पदार्थ को देखकर हमें यह अनुमान नहीं होता कि यह किसी बुद्धियुक्त सत्ता द्वारा बिना विचार किये बनाये जा सकते हैं। हां, यह बात भी है कि कई बार बनाने वाला प्रत्यक्ष होता है और कई बार अप्रत्यक्ष वा दूर। अप्रत्यक्ष निमित्त कारण अर्थात् पदार्थों का निर्माता दो प्रकार का हो सकता है। एक कारण निर्माता की हमसे दूरी हो सकती है जिससे वह हमें दिखाई न दे। रचित पदार्थ का दूसरा कारण ऐसी रचनायें हो सकती हैं जो मनुष्यों व मनुष्यों के समूह से बन ही न सकें। इस श्रेणी में सूर्य, चन्द्र, ब्रह्माण्ड, अग्नि, जल, वायु आदि नाना पदार्थ आते हैं। इन्हें मनुष्यों द्वारा नहीं बनाया जा सकता परन्तु इन्हें भी बनाता कोई अवश्य है क्योंकि इनकी रचना में बुद्धि अर्थात् विचार शक्ति व ज्ञान-विज्ञान का प्रयोग दिखाई देता है। ऐसे सभी पदार्थ अपौरूषेय अर्थात् मनुष्यों से इतर अप्रत्यक्ष अदृश्य ईश्वरीय सत्ता के द्वारा बनाये गये सिद्ध होते हैं। इससे अपौरूषेय सत्ता का चेतन स्वरूपवाला होना सिद्ध होता है। ईश्वर आनन्दस्वरूप है, वह इस कारण से है कि सुख व आनन्द रहित सत्ता कोई छोटा सा भी पदार्थ नहीं बना सकती। इसके लिए उसका दुःख रहित, सुखी व आनन्दित होना आवश्यक है। अतः ईश्वर की तीन विशेषतायें विदित हैं, उसका सत्य, चेतन आनन्द से युक्त होना। उसके अन्य गुणों में उसका निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सृष्टिकर्ता होना और जीवात्माओं को कर्मानुसार जन्ममृत्यु प्राप्त कराकर सुख दुःख उपलब्ध कराना है। यह संक्षिप्त स्वरुप ईश्वर का वेद, शास्त्र, ज्ञान, विचार चिन्तन से सिद्ध प्राप्त होता है।

 

जीवात्मा के स्वरुप पर भी संक्षेप में विचार करते हैं। जीवात्मा भी सत्य, चित्त, आनन्द सुख से रहित, इस सुख वा आनन्द के लिए अन्यान्य प्राकृतिक पदार्थों ईश्वर के सान्निध्य का आश्रय लेने वाला, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अविनाशी, एकदेशी, ससीम, आकाररहित, कर्मानुसार जन्म मृत्यु को प्राप्त होने भिन्नभिन्न प्राणी योनियों में जन्म लेने वाला और इसके साथ ही वेद, शास्त्रों विद्वान आचार्यों की संगति से ज्ञान प्राप्त कर, योगध्यान आदि साधना से ईश्वर का साक्षात्कार कर दुःखों जन्ममरण से छूटकर आनन्द को प्राप्त होने वाली सत्ता, पदार्थ तत्व है। इसका अनुभव हम अपने स्वरुप में स्थित होकर अर्थात् स्व-अस्तित्व का चिन्तन कर प्रत्यक्ष जान सकते हैं।

 

हम अपनी आंखों से संसार व सृष्टि को देखते हैं। यह सृष्टि परमाणुओं से बनी है। यह परमाणु भी सत्व, रज व तम गुणों वाली मूल प्रकृति के विकार हैं। मूल प्रकृति अनादि व नित्य है तथा परिमाण में मनुष्यों की दृष्टि में अनन्त परिमाण वाली है। इन्हीं को परमाणुरूप देकर ईश्वर ने इस जगत को बनाया है। सृष्टि यज्ञ का कर्ता ईश्वर है। इसका सम्पूर्ण विज्ञान उसी को विदित है जिस प्रकार किसी वैज्ञानिक खोज का ज्ञान उसके अन्वेषक को ही होता है। अन्य सामान्यजन तो उसका भोग व उपयोग ही करते हैं परन्तु उसके निर्माण की विधि व प्रयुक्त पदार्थों के गुणों का ज्ञान व बनाने की क्रिया को वह वैज्ञानिक व बुद्धिमान पुरुष ही मुख्यतः जानता है। इस विषय से संबंधित महर्षि दयानन्द के विचार प्रस्तुत हैं। वह लिखते हैं कि प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों अज अर्थात् जिन का जन्म कभी नहीं होता और न कभी ये जन्म लेते अर्थात् ये तीन सब जगत् के कारण हैं, इनका कारण कोई नहीं। उस अनादि प्रकृति का भोग अनादि जीव करता हुआ फसता है और उस में परमात्मा न फसता और न उस का भोग करता है। प्रकृति का लक्षण है, शुद्ध, मध्य, जाड्य अर्थात् जड़ता, तीन वस्तु मिलकर जो एक संघात है, उस का नाम प्रकृति है। उससे महत्तत्व बुद्धि, उससे अहंकार, उस से पांच तन्मात्रा, पांच सूक्ष्म भूत और दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन। पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच भूत, ये चैबीस और पच्चीसवां पुरुष अर्थात् जीव और परमेश्वर है। इनमें से प्रकृति अविकारिणी, और महत्तत्व, अहंकार तथा पांच सूक्ष्म भूत, इन्द्रियां, मन तथा स्थूल भूत, प्रकृति का कार्य और प्रकृति इनका कारण है। पुरुष किसी की प्रकृति, उपादान कारण और किसी का कार्य है। इस विषय में रूचि रखने व अधिक जानने के लिए पाठकों को सत्यार्थप्रकाश, सांख्य व वैशेषिक दर्शन तथा वेद व उपनिषदों का अध्ययन करना चाहिये।

 

इस लेख से यह निष्कर्ष विदित होता है कि मनुष्य व सभी प्राणियों के जन्म का कारण उनके पूर्वजन्म के कर्म हैं जिनका सुख-दुःख रुपी भोग करने के लिए अनेकानेक योनियों में ईश्वर जीवात्माओं को जन्म देता है। मनुष्य का जन्म पूर्व कर्मों के भोग व नये वेदविहित कर्मों को कर मोक्ष की प्राप्ति है। इन्हीं शब्दों के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

इनको कुछ नहीं कहा जा सकताः-राजेन्द्र जिज्ञासु

इनको कुछ नहीं कहा जा सकताः

दिल्ली के पड़ोस से श्री विजय आर्य नाम के एक युवक ने हमें ‘आर्य संदेश’ के नवबर 2015 के दूसरे अंक में ‘‘सरदार पटेल’’ पर छपे लेख को पढ़कर सत्यासत्य का निर्णय करने को कहा है। प्रश्नकर्त्ता ने कहा है कि लोकप्रिय पुस्तक ‘श्रुति सौरभ’ में पं. शिवकुमार जी ने सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन की जो प्रेरणाप्रद घटना दी है, इसे तोड़-मरोड़ कर ‘आर्य सन्देश’ के लेखक ने दिया है। क्या यही धर्म प्रचार है? हमारा निवेदन है कि यह ठीक है कि सत्य कथन को, प्रेरक इतिहास को प्रदूषित करना पाप है, परन्तु हम इन लोगों को कुछ नहीं कह सकते। ये नहीं सुधरेंगे। ‘गुरुमुख हार गयो जग जीता’ इनको कौन रोके? उस समय सरदार के पास महावीर त्यागी बैठे थे। यह लेखक एक क्रान्तिकारी को घसीट लाया है। मणिबेन को इस लेखक ने वहीं चरखा चलाने- सूत कातने पर लगा दिया है। पं. शिवकुमार जी को इतिहास का व्यापक ज्ञान था। इन उत्साही लोगों  को तो अपनाएक इतिहास प्रदूषण महामण्डल रजिस्टर्ड करवा लेना चाहिये।

अंधविश्वास पर चुप्पी क्यों?-राजेन्द्र जिज्ञासु

अंधविश्वास पर चुप्पी क्यों?ः-

 

मन्त्रिमण्डल ने 15 सितबर 1948 को हैदराबाद में पुलिस कार्यवाही का निर्णय लिया था। सरदार पटेल ने 13 को सेना को अपना कार्य करने का आदेश दिया। उस समय का अंग्रेज सेनापति 15 को ही सेना भेजने पर अड़ा रहा। जब सरदार अपने निश्चय पर अडिग रहे तो गोरे सेनापति ने हिन्दुओं के अंधविश्वास का मिजाईल चलाकर सरदार का मनोबल गिराने की चाल चली। उसने कहा, ‘‘13 का अंक अशुभ होता है।’’ लौह पुरुष पटेल बोले, ‘‘तुहारे लिए होगा। मेरे लिए नहीं। मैं गुजराती हूँ। गुजरात में 13 का अंक शुभ माना जाता है’’। सेना ने उसी दिन हैदराबाद को चारों ओर से घेरकर अपना कार्य आरभ कर दिया। यह घटना सरदार के रियासती विभाग के सचिव श्री मेनन ने अपने ग्रन्थ में दी है।

अब प्रातः से सायं तक टी.वी. पर कई बाबे, कई तिलकधारी ज्योतिषी, काले कुत्ते व शुभ अंकों वाले अंधविश्वास परोसते रहते हैं। हिन्दू-हिन्दू की रट लगाने वाले नेता, प्रवक्ता, साक्षी महाराज  की बयान मण्डली हिन्दुओं के अंधविश्वासों पर चुप्पी साधे रहते हैं। सब दलों के नेता तन्त्र-मन्त्र में विश्वास करते हैं। ये अंधविश्वास देश को डुबोने वाले हैं।

दयानन्द बावनी और उसके रचयिता महाकवि दुलेराय जी

दयानन्द बावनी और उसके रचयिता महाकवि दुलेराय जी :-

महाकवि दुलेराय काराणी भुज-कच्छ में जन्मे एक जैनी समाज सेवी सज्जन हुए हैं। वे गुजराती तथा हिन्दी के जाने माने कवि थे। आपने गाँधी जी पर गुजराती भाषा में बावनी लिखी। आपने एक आर्यसमाजी मित्र श्री वल्लभदास की सत्प्रेरणा से दयानन्द बावनी नाम से एक उत्तम काव्य रचा, जिसे सोनगढ़ गुरुकुल से प्रकाशित किया गया। गुजरात के प्रसिद्ध आर्यसमाजी सुधारक शिवगुण बापू जी भी भुज-कच्छ में जन्मे थे। अहमदाबाद में महाकवि जी श्री शिवगुण बापू जी से मिलने उनके निवास पर प्रायः आते-जाते थे। दयानन्द बावनी का दूसरा संस्करण पाटीदार पटेल समाज ने छपवाया था। इसका प्राक्कथन कवि ने ही लिखा था। इसके विमोचन के अवसर पर आप घाटकोपर मुबई पधारे।

शिवगुण बापूजी के परिवार की तीन पीढ़ियाँ आज भी इस काव्य को सपरिवार भाव-विभोर होकर जब गाती हैं तो एक समा बँध जाता है। इस वर्ष ऋषि मेला पर शिवगुण बापूजी के पौत्र श्री दिलीप भाई तथा उनकी बहिन नीति बेन ने बावनी सुनाकर सबको मुग्ध कर दिया। इसके प्रकाशन की वड़ी जोरदार माँग उठी। श्री डॉ. राजेन्द्र विद्यालङ्कर ने यह दायित्त्व अपने ऊपर लिया है। अगले वर्ष के ऋषि मेला पर श्री शिवगुण बापू की छोटी पौत्री प्रीति बेन से जब आर्यजन बावनी सुनेंगे तो वृद्ध आर्यों को कुँवर सुखलाल जी की याद आ जायेगी।

महाकवि दुलेराय ने महर्षि के प्रति अपनी श्रद्धाञ्जलि में लिखा हैः-

वैदिक उपदेश वेश, फैलाया देश देश

क्लेश द्वेष को विशेष मार हटाया।

सत्य तत्त्व खोल खोल, अनृत को तोड़ तोड़

तेरे मन्त्रों ने महाशोर मचाया।

धन्य धन्य मात तात, तेरा अवतार

होती है भारत मात आज निहाला।

‘आंध्रभूमि’ के सपादक श्री शास्त्री जीः- इस बार ऋषि मेले से ठीक पहले कुछ दुःखद घटनायें घटीं, इस कारण सभा से जुड़े सब जन कुछ उदास थे, तथापि मेले पर दूर दक्षिण से ‘आंध्रभूमि’ के सपादक श्री म.वी.र. शास्त्री जी तथा युवा विद्वान् पं. रणवीर शास्त्री जी के तेलंगाना से अजमेर पधारने पर सब हर्षित हुए। मान्य शास्त्री जी सपादक ‘आंध्रभूमि’ एक कुशल लेखक हैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी पर आपके ग्रन्थ ने धूम मचा दी है। अब आप राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने व नवचेतना के संचार के लिए वीर भगतसिंह पर एक ग्रन्थ लिखने में व्यस्त हैं। आर्य जनता की इच्छा है कि इसका विमोचन अगले ऋषि मेला पर हो।

ऋषि भक्त मथुरादास जीःराजेन्द्र जिज्ञासु

ऋषि भक्त मथुरादास जीः ऋषि के जिन अत्यन्त प्यारे शिष्यों व भक्तों की अवहेलना की गई या जिन्हें बिसार दिया गया, परोपकारी में उन पर थोड़ा-थोड़ा लिखा जायेगा। इससे इतिहास सुरक्षित हो जायेगा। आने वाली पीढ़ियाँ ऊर्जा प्राप्त करेंगी। आर्य अनाथालय फीरोजपुर के संस्थापक और ऋषि जी को फीरोजपुर आमन्त्रित करने वाले ला. मथुरादास एक ऐसे ही नींव के पत्थर थे। उनका फोटो अनाथालय में सन् 1977 तक था। मुझे माँगने पर भी न दिया गया। अब नष्ट हो गया है। आप मूलतः उ.प्र. के थे। आप अमृतसर आर्य समाज के भी प्रधान रहे। मियाँ मीर लाहौर छावनी में भी रहे। आपका दर्शनीय पुस्तकालय कहाँ चला गया? स्वामी सर्वानन्द जी महाराज ने इसे देखा था। आप जैनमत के  अच्छे विद्वान् थे। आप हिन्दी, उर्दू दोनों भाषाओं के कुशल लेखक थे। आपने ऋषि जी की अनुमति के बिना ही ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका का सार छपवा दिया। पंजाब में हिन्दी भाषा के प्रचार व पठन पाठन के लिए पाठ्य पुस्तकें भी तैयार कीं। इनका जैनमत विषयक बहुत-सा साहित्य अप्रकाशित ही रह गया। सेवानिवृत्त होने के बाद अपने पैतृक ग्राम सहारनपुर जनपद में रहने लगे। जिस आर्य अनाथालय की देश भर में धूम रही है, राजे-महाराजे जिसे दान भेजते थे, उसके संस्थापक महाशय मथुरादास का नाम ही आर्य समाज भूल गया। वह आरभिक युग के आर्य समाज के एक निर्माता थे।

इन्होंने ऋषि जी को अन्तिम दिनों एक सौ रुपये का मनीआर्डर भेजा था। महर्षि के अन्तिम हस्ताक्षर इसी मनीआर्डर फार्म के टुकड़े पर हैं। यह मनीआर्डर मथुरादास जी ने भेजा था, स्वामी ईश्वरानन्द जी ने नहीं। डॉ. वेदपाल जी के अथक प्रयास से इस भूल का सुधार हो गया। इसके लिए हम डॉ. वेदपाल जी तथा सभा- दोनों को बधाई देते हैं।

असहिष्णुता का मानवीय रोगःराजेन्द्र जिज्ञासु

इन दिनों भारत में असहिष्णुता के मानवीय महारोग पर बड़ा विवाद हो रहा है। अनादि ईश्वर के अनादि ज्ञान वेद के एक प्रसिद्ध मन्त्र में ईश्वर से बल, तेज, ओज, मन्यु व सहनशीलता आदि सद्गुणों की प्रार्थना की गई है। यह मन्त्र महर्षि दयानन्द ने आर्याभिविनय आदि पुस्तकों में दिया है। इससे स्पष्ट है कि असहनशीलता का महारोग मानव जाति के लिए घातक है। हिन्दू हो, मुसलमान हो या ईसाई, सबको इस मानवीय महारोग के कारण को जानकर इसका निवारण करना चाहिये।

हजरत मुहमद को तीन खलीफा हत्यारों ने मार डाला। मारने वाले काफिर नहीं थे। नमाजी मुसलमानों ने उनकी जान ले ली। क्या यह असहनशीलता नहीं थी? इस इतिहास से मुसलमानों ने क्या सीखा? वीर रामचन्द्र व वीर मेघराज की हत्या करने वाले हिन्दू ही थे। उनका दोष दलितोद्धार था। पं. लेखराम जी का वध करने वाले इस कुकृत्य पर आज भी इतराते हैं। क्या यह असहिष्णुता को बढ़ावा देने वाला कु कृत्य नहीं था? महात्मा गाँधी ने महाशय राजपाल द्वारा प्रकाशित रंगीला रसूल पर विपरीत टिप्पणी करके असहिष्णुता को उत्तेजित किया या नहीं? काशी के राजा काशी शास्त्रार्थ के अध्यक्ष थे, परन्तु सभा विसर्जित राजा ने नहीं की। सभा विसर्जित करने वालों की कृपा से हुल्लड़ मचा। इस असहिष्णुता पर किसने पश्चात्ताप किया? चलो! जनूनी राजनेताओं को इतनी समझ तो आ गई कि असहिष्णुता एक महामारी है। गुरु अर्जुनदेव जी से वीर हकीकतराय व स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज तक सब असहिष्णुता के शिकार हुए।

‘वेद आर्यसमाज और गणतन्त्र प्रणाली’ -मनमोहन कुमार आर्य

 

भारत का इतिहास उतना ही पुराना है जितना की इस सृष्टि के बनने के बाद प्राणी जगत व मानव उत्पत्ति के बाद का सृष्टि का इतिहास। सभी मनुष्यों को नियम में रखने व सभी श्रेष्ठ आचरण करने वाले मनुष्यों को अच्छा भयमुक्त व सद्ज्ञानपूर्ण वैदिक परम्पराओं के अनुरुप वातावरण देने के लिए एक आदर्श राजव्यवव्स्था की आवश्यकता एवं उपयोगिता स्वयंसिद्ध है। वैदिक मान्यताओं के अनुसार इस सृष्टि में मानव उत्पत्ति का इतिहास 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 115 वर्ष पूर्व आरम्भ होकर वर्तमान समय तक चला आया है। 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों की दासता से स्वतन्त्र होने से पूर्व भी इस देश में अगणित राजा हुए जिन्होंने देश पर राज किया और राज्य के संचालन के लिए उनके अपने संविधान, नियम व सिद्धान्त भी रहे हैं। वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि महाभारत काल व उसके बाद के भारत के आर्य राजाओं के संविधान वेद सम्मत नियमों व प्रक्षेप रहित मनुस्मृति के विधान हुआ करते थे। अभाग्योदय से प्राचीन भारत में वर्तमान समय से लगभग 5,200 वर्ष पूर्व महाभारत का विनाशकारी युद्ध हुआ जिसमें लाखों की संख्या में लोग मारे गये। इस युद्ध के परिणामस्वरुप देश की शैक्षिक, सामाजिक व प्रशासनिक व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा जिससे ज्ञान व विज्ञान का ह्रास होकर समाज में अन्धविश्वास, सामाजिक विषमता व लोगों का चारित्रिक पतन आदि देखने को मिलता है। इन कारणों से देश पहले मुगलों वा यवनों का और उसके बाद अंग्रेजों का दास बन गया। मुगलों व अंग्रेजों की दासता के समय में भी अनेक आर्य वा हिन्दू राजाओं ने विदेशी विधर्मी शासकों का पुरजोर विरोध किया। महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह जी आदि हमारे ऐसे ही पूर्वजों में थे जिन्होंने देश की स्वतन्त्रता व सुशासन के लिए अपना उल्लेखनीय योगदान किया।

 

वेद व वैदिक ज्ञान सत्य व न्याय पर आधारित राज्य का समर्थक व पोषक है। वेदों ने मनुष्यों को यह बताया है कि इस जगत में ईश्वर, जीव व प्रकृति यह तीन मुख्य व प्रमुख तत्व हैं। ईश्वर व जीव चेतन तत्व वा पदार्थ हैं तथा प्रकृति इनके विपरीत जड़ है। ईश्वर निराकार, सर्वव्यापक व सर्वज्ञ है तथा जीव अल्पज्ञ, एकदेशी व ससीम है। ईश्वर सृष्टि का निमित्त कारण तथा प्रकृति उपादान कारण है। जीव संख्या में अनन्त हैं व ईश्वर केवल एकमात्र व केवल एक सत्ता है। इन्हीं जीवों के पूर्वजन्म के कर्मों के फल रूपी सुख व दुःख के भोग के लिए ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया है जिससे कि ईश्वर की सामथ्र्य का उपयोग हो सके और जीवों को मानव आदि शरीरों की प्राप्ति के साथ कर्मानुसार सुख व दुःख मिल सके। मनुष्य जीवन का उद्देश्य पूर्व जन्मों के अवशिष्ट कर्मों के फलों का भोग करते हुए ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना व सभी वेद विहित कर्मों को करना जिससे दुःखों की पूर्णतया निवृति होकर मोक्ष की प्राप्ति हो सके। मनुष्य वा उसकी जीवात्मा को मोक्ष वैदिक ज्ञान की प्राप्ति कर उसके अनुसार निष्काम व फलों की इच्छा से रहित सभी प्राणियों के हितकारी कर्मों के आचरण सहित ईश्वर की उपासना से समाधि को सिद्ध करने अर्थात् ईश्वर का साक्षात्कार करने पर प्राप्त होता है। समाज में अपराध से मुक्त वातावरण हो, लोगों को उन्नति के अवसर मिलें, नागरिक सुखी व समृद्ध हों तथा राज्य विदेशी शत्रुओं से सुरक्षित रहे, ऐसे अनेक प्रयाजनों की व्यवस्था के लिए राज्य की स्थापना की जाती है। इस दृष्टि से रामराज्य अब तक हुए सभी राजाओं व राज्यों में श्रेष्ठ राज्य था। सज्जन पुरुष तो अनुशासन में रहते ही हैं परन्तु दुष्टों व अपराध प्रवृत्ति के स्त्री व पुरुषों को अनुशासन में रखने के लिए कठोर दण्ड का प्राविधान आवश्यक है। न केवल दण्ड का प्राविधान ही अपितु ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये कि जिसमें कोई अपराधी बिना दण्ड के बच न सके। सभी अपराधियों को उनके अपराध के अनुरुप कठोर दण्ड देकर ही समाज को अपराधमुक्त किया जा सकता है। दण्ड व्यवस्था के पूर्ण प्रभावशाली होने के साथ देश के सभी स्त्री-पुरुषों व उनके बच्चों के लिए एक समान, सबके लिए अनिवार्य, निःशुल्क व आदर्श वैदिक शिक्षा प्रणाली होनी चाहिये जिससे सभी बच्चों व नागरिकों को अच्छे संस्कार मिले। आजकल की हमारे देश की व्यवस्था में यह उत्तम बातें नहीं हैं। अतः यह कहना व मानना पड़ता है कि व्यवस्था में अनेक खामियां है जिनके सुधार की आवश्यकता है।

 

वेद क्या हैं, यह भी जानना आवश्यक है। वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न मनुष्यों में चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को ईश्वर द्वारा इन ऋषियों की आत्मा में प्रेरणा द्वारा स्थापित किया गया था। इस ज्ञान से ही संसार की प्रथम पीढ़ी के मनुष्यों का तिब्बत में जीवन निर्माण हुआ और नई पीढि़यों ने जन्म लेकर न केवल जनसंख्या की वृद्धि की अपितु जनसंख्या वृद्धि व कुछ लोगों के यायावरी स्वभाव के कारण यह सारा संसार वेदानुयायी आर्यों द्वारा बसाया गया। महाभारत काल तक वैदिक नियमों व इनके अनुसार बनाये गये ऋषियों के विधानों के आधार पर आर्य राजाओं ने संसार पर शासन किया। रामायण, महाभारत एवं महर्षि दयानन्द के ग्रन्थ आदि इसके प्रमाण हैं। महर्षि दयानन्द ने चारों वेदों का गम्भीर अध्ययन करके इसको पूर्णतया सत्य व निभ्र्रान्त पाया था और इसकी प्रमाणिकता को तर्क व युक्तियों से सिद्ध किया। उन्होंने ऋग्वेद का आंशिक एवं यजुर्वेद का संस्कृत व हिन्दी भाषा में भाष्य भी किया है। वेदों में देश के संचालन के लिए साम्प्रदायिक व मजहबी बातों से रहित शुद्ध सत्य व न्याय पर आधारित विधान दिये गये है जो भारत सहित संसार के सभी देशों के लिए माननीय हैं। वेदों से दूर जाने के कारण ही अतीत में भारत की दुर्दशा हुई और आज संसार में सर्वत्र जो अशान्ति, भय, हिंसा व अन्याय का वातावरण है उसका प्रमुख कारण भी संसार का वेदों से दूर जाना है।

 

महर्षि दयानन्द ने 10 अप्रैल, 1875 को वेदों के प्रचार व प्रसार हेतु मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की थी। अज्ञान, अन्धविश्वास, पक्षपात-अन्याय-अत्याचार-शोषण-असमानता आदि को दूर कर संसार में वेदानुरुप ईश्वर की सच्ची पूजा, पर्यावरण की शुद्धि सहित सभी नागरिकों को सद्ज्ञान व श्रेष्ठ संस्कारों से संयुक्त करना उनका मुख्य उद्देश्य था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने व उनके आर्यसमाज के अनुयायियों ने जो पुरुषार्थ किया है, वह इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। उनके विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों का सारे संसार पर प्रभाव पड़ा परन्तु बहुत सी बातें लोगों की अल्पज्ञता, अज्ञानता, स्वहित आदि अनेक कारणों से आज भी बनी हुई हैं। इसके लिए आर्यसमाज को अपने गुरुकुलों में वेदों के आधुनिक विद्वान तैयार करने चाहिये जो न केवल संसार की सभी समस्याओं के व्यवहारिक वैदिक समाधान दे सकें अपितु विश्व में वेदों का अपूर्व रीति से प्रभावशाली प्रचार भी करें जिससे कि एक ईश्वर, एक विचारधारा, एक सिद्धान्त व मान्यता, अन्याय-शोषण-हिंसा रहित समाज का निर्माण किया जा सके। यही आर्यसमाज का उद्देश्य, परम्परा,  कार्य व प्रचार की दिशा है।

 

हमारे देश में गणतन्त्र प्रणाली है जो कि अन्य प्रचलित प्रणालियों से श्रेष्ठ है। अनेक प्रावधान ऐसे भी हैं जिनका दुरुपयोग किया जाता है जिससे समाज में सामाजिक व आर्थिक असमानता अत्यधिक बढ़ गई है। इस देश में ऐसे भी लोग हैं जिनको रात दिन काम करने के बाद भी न भर पेट भोजन मिलता है, अच्छे वस्त्रों, निजी घर, उच्च शिक्षा की तो बात ही क्या है? गणतन्त्र प्रणाली में सबको एक समान, निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा का प्रबन्ध होना चाहिये। ब्रह्मचर्य व संयम पूर्ण जीवन की प्रतिष्ठा होनी चाहिये। मांसाहार, धूम्रपान, मदिरापान व नशा आदि पूर्ण प्रतिबन्धित होने चाहिये। गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध ही न हो अपितु गोसंवर्धन के लिए अनुसंधान केन्द्रों सहित गोपालन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये जिससे देश में दुग्ध व दुग्ध उत्पाद प्रचुरता से सर्वसुलभ हो सकें। गाय सहित सभी पशुओं के मांसाहारार्थ वध पर पूर्ण प्रतिबन्ध ही न हो अपितु ऐसा करने वालों को दण्डित भी किया जाना चाहिये। पशुओं की हत्या हिंसात्मक कार्य है और यह अमानवीय व्यवहार है। हम समझते हैं धर्म सदगुणों को धारण करने व उनके अनुसार व्यवहार करने को कहते हैं, अतः कोई भी धर्म अकारण व भोजनार्थ पशु की हत्या की अनुमति नहीं दे सकता। सारे देश में सरकार की ओर वेदों की अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था भी होनी चहिये। स्त्रि़यों का आदर व सम्मान होना चाहिये और सभी स्त्री-पुरुष नागरिकों को वैदिक संस्कृति के अनुसार आचरण-व्यवहार करने सहित आदर्श वेशभूषा को धारण करना चाहिये। जन्मना जातिवाद प्रतिबन्धित हो व पूर्णतया समाप्त हों। दलितों व पिछड़ों को शिक्षा में विशेष सुविधायें मिलनी चाहिये जिसका आधार उनकी सामाजिक व आर्थिक स्थिति होनी चाहिये। समाज में कोई दलित व पिछड़ा हो ही न अपितु सभी सामाजिक व आर्थिक दृष्टि उन्नत हो और सभी में परस्पर प्रेम व भातृभाव विकसित अवस्था में होना चाहिये। असत्य आचरण, अपरिग्रह व सच्चरित्रता को सामाजिक जीवन में अधिक महत्व दिया जाना चाहिये और इसके विपरीत की उपेक्षा होनी चाहिये। समाज में आध्यात्मिकता का विकास व विस्तार और साम्प्रदायिक विचारधारा पर अंकुश व प्रतिबन्ध होना चाहिये। जब यह व ऐसे सभी लक्ष्य प्राप्त हो जायेंगे तभी हमारी गणतन्त्र प्रणाली सफल मानी जा सकती है। क्या हम गणतन्त्र प्रणाली के आदर्श इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए काम कर रहें हैं, इस पर हमें आज के दिन विचार करना चाहिये। इन सभी प्रश्नों पर विचार करना व इनका हल ढूढंना ही गणतन्त्र दिवस को मनाना हमें प्रतीत होता है। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘ईश्वर का ध्यान व उपासना तथा मूर्तिपूजा’ -मनमोहन कुमार आर्य

 

ईश्वर व मनुष्य में क्या अन्तर है? यह प्रश्न आपको अनुपयुक्त सा लग सकता है परन्तु प्रश्न तो प्रश्न है। हम इसका उत्तर देने का प्रयास करते हैं। ईश्वर वह है जो जीवात्माओं के सुख व दुःखों के भोग के लिए सत्व, रज व तम गुण से युक्त सूक्ष्म जड़ प्रकृति के द्वारा इस दृश्यमान सृष्टि को बनाता है। ईश्वर ने यह सृष्टि अल्पज्ञ, एकदेशी, चेतन जीवात्माओं के लिए बनाई है। उसका अपना क्या कोई प्रयोजन इस सृष्टि को इस सृष्टि के बनाने व चलाने में दृष्टिगोचर नहीं होता। एक और प्रश्न लेते हैं कि जीवात्मा क्या है? इसका उत्तर बनाने में है? वैदिक साहित्य सहित युक्ति व तर्क द्वारा विचार करने पर ईश्वर का अपना निजी कोई प्रयोजन है जीवात्मा एक ज्ञान ग्रहण करने व कर्म करने वाली अल्पज्ञ, सूक्ष्म, एकदेशी व ससीम चेतन सत्ता का नाम है। इस जीवात्मा के सुख व मुक्ति के लिए ही ईश्वर ने अपने ज्ञान व बल की पराकाष्ठा, सर्वज्ञता व सर्वशक्तिमत्ता, से इस सृष्टि को बनाया है जिससे सभी जीवात्मायें अपने अपने पूर्वजन्मों के शुभाशुभ कर्मों के फलों का भोग कर सके। हमने वैदिक व अन्य मतों के सिद्धान्तों को जानने व समझने का प्रयास किया है। अनेक दशकों के अध्ययन व युक्ति व तर्क के आधार पर महर्षि दयानन्द द्वारा प्रचारित वैदिक साहित्य से पुष्ट यह उत्तर सत्य व अकाट्य सिद्धान्त है।  इन्हीं सिद्धान्तों पर वैदिक विचारधारा आधारित हैं।

 

जीवात्मा के स्वरुप का विचार करने पर यह एक सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम, अल्पज्ञ चेतन पदार्थ विदित होता है जो ज्ञान व कर्म की सामथ्र्य से युक्त अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अजर, अमर, मनुष्यादि योनियों में जन्म लेकर शुभाशुभ कर्म करने वाला व उनके फलों को भोगने वाला हैं। जीवात्मा में यह सामर्थ्य नहीं है कि वह अपनी इच्छा से किसी योनि में बिना ईश्वर की सहायता व कृपा के स्वयं जन्म ले सके। जीवात्मा के दो जीवनों के बीच एक मृत्यु अवश्य आती है। मृत्यु होने के बाद व जन्म लेने से पूर्व यह प्रायः सुषुप्ति अवस्था अर्थात् निद्रा जैसी निष्क्रिय अवस्था में रहता है। यदि ईश्वर इसको इसके कर्मानुसार जन्म न दे तो इसका अस्तित्व होकर भी यह अनुपयोगी वा निष्क्रिय ही रहेगा। ईश्वर द्वारा जन्म मिल जाने पर यह मनुष्यादि योनियों में कर्मों को करता भी है व पूर्वकृत प्रारब्ध व क्रियमाण कर्मों के फलों को भोगता हुआ सुख दुःख पाता है और इसका अस्तित्व सार्थक बन जाता है। जीव की सार्थकता ईश्वर से जन्म मिलने व इसके पाप-पुण्यरूपी फलों का भोग सुख दुःख रूप में मिलने से ही होती है।

 

ईश्वर का स्वरुप कैसा है? इसका उत्तर है कि ईश्वर सत्य, चित्त व आनन्द अर्थात् सच्चिदानन्दस्वरूप है। इसके प्रमुख गुणों इसका निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता होना सम्मिलित है। ईश्वर के यह कुछ गुण भी ईश्वर का स्वरुप प्रकाशित करते है। आनन्द की पराकाष्ठा ईश्वर का निजी स्वरुप व गुण है जो उसमें सदा-सर्वदा से है और रहेगा, अतः उसे किसी भौतिक पदार्थ व जीवों से किसी वस्तु, स्तुति-प्रार्थना-उपासना आदि की अपेक्षा नहीं है। ईश्वर अपने बिना किसी निजी प्रयोजन के जीवों के कल्याणार्थ इस विशाल ब्रह्माण्ड वा सृष्टि को बनाता है और जीवों के पूर्व जन्मों के कर्मानुसार उन्हें भिन्न भिन्न प्राणी योनियों में जन्म देता है जिससे वह अपने अपने कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल भोग सकें।

 

जीवात्मा और ईश्वर का स्वरुप विदित हो जाने पर अब हमें अर्थात् जीवात्मा को अपनी उन्नति व सुखों की वृद्धि के लिए अपना कर्तव्य निर्धारित करना है। वह क्या-क्या कार्य करें जिससे उनके सभी दुःखों का पराभव और सद्गुणों व सुखों की अभिवृद्धि हो? इसका एक सरल उत्तर तो यह है कि उसे सदैव ईश्वर के प्रति आभारी व कृतज्ञ होना चाहिये और मनुष्य जन्म देने के लिए उसकी प्रशंसा, स्तुति, धन्यवाद, आभार व कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिये। इन कार्यों को करने का नाम ही स्तुतिप्रार्थनाउपासना वा ईश्वर की पूजा है। जो व्यक्ति भलीप्रकार से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना आदि के द्वारा उसका आभार व धन्यवाद कर कृतज्ञ होता है वह कर्तव्यापालक और जो नहीं करता वह अविवेकी, मूर्ख, भ्रष्ट, अज्ञानी, स्वार्थी, अहंकारी व कृतघ्न होता व कहलाता है। ईश्वर की स्तुति आदि को कर्तव्य समझ लेने के बाद अन्य कर्तव्यों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। दूसरा प्रमुख कर्तव्य है कि हम मनुष्यों व अन्य सभी प्राणियों को शुद्ध वायु, शुद्ध जल, शुद्ध अन्न व शुद्ध व स्वच्छ पृथिवी वा पर्यावरण की आवश्यकता है। यदि वायु व जल सहित हमारा पर्यावरण शुद्ध, स्वच्छ व पवित्र नहीं होगा तो हमारे सुखों में बाधा आयेगी और हमारा जीवन अनेक रोगों से ग्रस्त होकर दुःखी हो जायेगा जिससे हम ईश्वर की उपासना व यज्ञ आदि सहित जीवन के अन्य निजी कार्यों का सम्पादन भी न कर पाने के कारण अधोगति व अवनति को प्राप्त होंगे। ईश्वर ने वेदों के द्वारा अग्निहोत्र करने की आज्ञा भी प्रदान की है जिसको जानकर हमारे ऋषियों ने अग्निहोत्र से अश्वमेध यज्ञ पर्यन्त यज्ञों का विधान किया है। इसके अतिरिक्त गोपालन, अन्य उपयोगी पशुओं का पालन, कृषि जिससे शुद्ध, पवित्र व बल-शक्ति से युक्त अन्न व फल आदि प्राप्त हो सकें आदि कार्यों को करना भी हमारा कर्तव्य सिद्ध होता है। मनुष्य को अज्ञानयुक्त कर्मों का त्याग कर विद्यायुक्त कर्मों को ही करना चाहिये। उसे विद्या व विज्ञान को उन्नत कर अपने उपयोग की सभी वस्तुओं का निर्माण कर सुख को सम्पादित करना चाहिये। मध्यकाल की दृष्टि से आधुनिक समय में इस दिशा में कुछ उन्नति अवश्य हुई है परन्तु लक्ष्य प्राप्ति से संसार की समग्र मनुष्य जाति अभी कोसों दूर है।

 

हमने ईश्वरोपासना सहित मनुष्य के कुछ प्रमुख कर्तव्यों की संक्षिप्त चर्चा की है। ईश्वर की कृपाओं के प्रति उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट कर उसका धन्यवाद करना ही ईश्वरोपासना है। हम देख रहे हैं कि मध्यकाल में ईश्वर उपासना का रूप विकृत होकर मूर्तिपूजा का प्रचलन हो गया और निराकार ईश्वर के ध्यान, चिन्तन तथा वैदिक प्रार्थनाओं से उसकी स्तुति आदि का स्थान मूर्तिपूजा ने ले लिया। मूर्तिपूजा वस्तुतः है क्या? मूर्तिपूजा निराकार ईश्वर को साकार मानने की एक मिथ्या कल्पना है। ईश्वर का स्वरूप अर्थात् निराकार व सर्वव्यापक आदि होना तो कभी बदलता नहीं, वह अपने मूल स्वरूप में ही सदा सर्वदा विद्यमान रहता है, परन्तु मनुष्यों ने मध्यकाल में अपने अज्ञान के कारण ईश्वर की स्थानापन्न मूर्तिपूजा का प्रचलन किया। मूर्तिपूजा में हम देखते हैं कि पाषाण, धातु व काष्ठ की मूर्तियां भिन्न-भिन्न मनुष्य, महापुरुषों व पशुओं की आकृतियों की बनाई जाती हैं। उनमें से कुछ को भवन व मन्दिर बना कर उसमें रखा जाता है। कुछ वेद व अन्य ग्रन्थों के मन्त्रों का पाठ कर उसमें प्राण-प्रतिष्ठा का नाम दे दिया जाता है। यह सब कर्मकाण्ड कर दिया जाता है और मूर्ति के आगे हाथ जोड़ कर खड़े होने या मनुष्य रचित कुछ पद्यों व गीतों को गाकर या फिर मूर्ति के आगे कुछ घूप व अगरबत्ती जला कर उसे घुमान व हिलाने-डुलाने को ही मूर्तिपूजा कहा जाता है। मूर्तिपूजा करने वाले कभी यह विचार नहीं करते कि उनके इस कृत्य से सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर प्रसन्न व सन्तुष्ट होता है या नहीं? कहीं असन्तुष्ट व अप्रसन्न तो नहीं होता, यह विचार ही मुर्तिपूजा करने वाले नहीं करते। हमारे प्राचीन ऋषि व विद्वान जिसमें महर्षि दयानन्द सरस्वती भी सम्मिलित हैं, इस मूर्तिपूजा से किसी प्रकार का लाभ नहीं मानते, अपितु इससे मूर्तिपूजा करने वालों को अनेक प्रकार की हानि ही होती है। ऐसा स्वामी दयानन्द का मत था जो कि अनेक प्रमाणों से पुष्ट है। मूर्तिपूजा पाषाण, धातु व काष्ठ से बनी हुई प्रतिमाओं की ही की जाती है जो कि जड़, भाव व संवेदनाशून्य हैं। जड़ पदार्थों में किसी भी प्रकार से सुख व दुःखी व प्रसन्न होना नहीं घटता। वह तो अपनी रक्षा तक भी नहीं कर सकती। जहां तक प्राण-प्रतिष्ठा की बात है, ऐसा करना व यह मानता कि मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा हो सकती है, मानवीय बुद्धि का एक अज्ञानमूलक हास्यापद पहलू है। यही कारण है कि यवनों ने हमारे देश में सोमनाथ मन्दिर सहित सहस्रों मन्दिरों व मूर्तियों को भ्रष्ट किया परन्तु कोई मूर्ति अपनी रक्षा नहीं कर सकी। हमारी पराधीनता का एक प्रमुख कारण भी मूर्तिपूजा व मूर्तियों से किन्हीं शुभ परिणामों की अपेक्षायें ही था जो कि कभी पूरी नहीं र्हुइं। अतः यदि ईश्वर की पूजा करनी है तो वह केवल वेदाध्ययन, वेदानुकूल शास्त्रों का अध्ययन, सत्यार्थप्रकाश व आर्याभिविनय आदि के अध्ययन सहित मुख्यतः योगदर्शन के अध्ययन व उसके अनुसार ईश्वर के ध्यान व समाधि के अभ्यास व प्रयत्नों से ही की जा सकती है।

 

महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन करने के बाद एक बात स्पष्ट होती है कि मूर्तिपूजा से मनुष्य जीवन की उन्नति नहीं अपितु अवनति ही होती है। मूर्तिपूजा से हमारे धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष भी प्राप्त होने के स्थान पर हम उनसे दूर हो जाते हैं। अतः हमारे सभी मूर्तिपूजा करने वाले बन्धुओं को निष्पक्ष भाव से महर्षि पतंजलि कृत योगदर्शन का अध्ययन करना चाहिये और उनके द्वारा निर्दिष्ट यम, नियमों का पालन, आसन व प्राणायाम का सेवन तथा प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि का अभ्यास कर ईश्वर का साक्षात करने का प्रयास करना चाहिये। यही वस्तुत यथार्थतः ईश्वर की पूजा है। मूर्तिपूजा ईश्वर की पूजा नहीं है, पाठक इस पर विचार करें। कहीं ऐसा न हो कि उपासना व पूजा सम्बन्धी किसी अपने गलत निर्णय के कारण हमें इस जन्म व जन्मान्तरों में भारी हानि उठानी पड़े। मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में यह भी ध्यातव्य है कि मातापिताआचार्यविद्वान आदि हमारे मूर्तिमान देव हैं। इनका आदर, सेवा-सत्कार व सहायता सदा करनी चाहिये, यही यथार्थ मूर्तिपूजा का वैदिक स्वरूप है। फलित ज्योतिष भी मनुष्य की अवनति का कारण बनता है। अतः इससे भी सभी को बचना चाहिये। फलित ज्योतिष लेख का विषय न होने के कारण इस पर विस्तार से विचार नहीं कर रहे हैं। हम आशा करते हैं कि ईश्वर का ध्यान व उपासना सहित मूर्तिपूजा पर प्रस्तुत इस लेख में विचारों से पाठक लाभान्वित होंगे। यह लेख सबके कल्याण की भावना से महर्षि दयानन्द के विचारों से प्रभावित होकर प्रस्तुत किया है। शास्त्रों में यह बताया गया है कि जो परिणाम में लाभदायक बातें होती है वह आरम्भ में विष के समान दिखाई देती हैं परन्तु विवेकशील लोग इस सत्य को जानने के कारण परिणाम में इष्ट सिद्धि दिलाने वाली बातों का ही आचरण करते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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