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ईश्वर का साक्षात्कार समाधि अवस्था में ही सम्भव

ओ३म्

ईश्वर का साक्षात्कार समाधि अवस्था में ही सम्भव

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

संसार के अधिकांश मत-सम्प्रदाय और लोग ईश्वर के अस्तित्व को मानते हैं और यह भी स्वीकार करते हैं कि इस संसार को उसी ने बनाया है। यह बात अलग है कि सृष्टि रचना के बारे में वेद मत के आचार्यों व अनुयायियों के अतिरिक्त अन्य मत के आचार्यों व अनुयायियों को वैसा यथार्थ ज्ञान नहीं था व है जैसा कि तर्क व युक्ति संगत यथार्थ मत वेदों व वैदिक साहित्य में उपलब्ध है। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि यदि ईश्वर है तो वह अन्य पदार्थों की भांति हमें आंखों से दिखाई क्यों नहीं देता? इसके अनेक कारण हैं। यह प्रश्न वैदिक मत के अनुयायियों से उत्तर व समाधान की अधिक अपेक्षा रखता है। जो मत व सम्प्रदाय ईश्वर को एकदेशी अर्थात् एक स्थान पर रहने वाला मानते हैं, वह कह सकते हैं कि ईश्वर यहां पृथिवी पर है ही नहीं तो उसके दिखने का प्रश्न ही नहीं होता। वैदिक धर्म ईश्वर को सर्वव्यापक मानता है। अतः ईश्वर हमारे अन्दर व बाहर दोनों स्थानों पर हमारे समीपस्थ है। अब यदि ईश्वर हमारे समीपस्थ है तो वह हमें अवश्य दिखना चाहिये। ईश्वर वैदिक धर्मियों व अन्यों को दिखाई नहीं देता तो इसका एक कारण तो उसका सर्वव्यापक न होना वा एकदेशी होना ही ठीक प्रतीत होता है। यह बात कहने व सुनने में उचित लगती है परन्तु यह सत्य नहीं है। ईश्वर वस्तुतः सर्वव्यापक है जो कि हमारे सम्मुख, पीछे, दायें, बायें, ऊपर नीचे आदि सभी दशों दिशाओं में होने पर भी इस कारण दिखाई नहीं देता कि वह सर्वातिसूक्ष्म है। हम वायु के कणों वा परमाणुओं को क्यों नहीं देख पाते? इसका कारण होता है कि वह परमाणु इतने सूक्ष्म हैं कि वह आंखों से दिखाई नहीं देते। सभी मनुष्यों के शरीर में एक चेतन जीवात्मा होता है जो हमें अपनी आंखों से दूसरों के शरीर से पृथक दिखाई नहीं देता परन्तु शरीर में प्राणों व अन्य क्रियाओं से ही उसका साक्षात् व प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। ईश्वर जीवात्मा व वायु के परमाणु से भी कहीं अधिक सूक्ष्म होने के कारण दिखाई नहीं देता। यह तर्क व युक्तिसंगत स्वीकार करने योग्य प्रमाण है। इसका दूसरा कारण है कि अति दूर व अति समीपस्थ वस्तुयें भी दिखाई नहीं देती हैं। हम अपने से 1 किमी. दूर की वस्तु भी नहीं देख पाते। इसी प्रकार हम आंखों में पड़े तिनके को भी अपनी ही आंख से नहीं देख पाते जिसका कारण होता कि आंखों का तिनका आंख के अति निकटस्थ है। ईश्वर दूरतम भी है और समीपतम भी है। इस कारण भी वह दिखाई नहीं देता। अन्य कारणों में से एक प्रमुख कारण ईश्वर का अभौतिक होना भी है। हम आंखों से केवल भौतिक पदार्थ जो एक सीमा से आकार में अधिक बड़े होते है, उन्हें ही देख पाते हैं। उससे छोटे पदार्थों को देखने के लिए हमें माइक्रोस्कोप की सहायता की आवश्यकता होती है। ईश्वर इन सूक्ष्मतम भौतिक पदार्थों से भी अत्यन्त सूक्ष्म अभौतिक पदार्थ होने के कारण आंखों से दिखाई नहीं देता। अतः ईश्वर का आंखों से दिखाई न देना आंखों की सीमित दृष्य शक्ति के कारण है। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि ईश्वर नहीं है।

 

हम पुस्तकें पढ़ते हैं तो बहुत सी बातों का ज्ञान हमें हो जाता है जिन्हें हम पहले से जानते नहीं हैं। हमने सन्ध्या व हवन के मन्त्र व उसकी विधि को पुस्तक पढ़कर ही जाना व समझा है। उपदेशों को सुनकर भी हमें नाना विषयों का ज्ञान होता है। ईश्वर विषयक ज्ञान भी हमें वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन करने वा वेदानुकूल अन्य पुस्तकें मुख्यतः सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय तथा महर्षि दयानन्द का वेदभाष्य पढ़कर हो जाता है। वैदिक विद्वानों के उपदेश भी ईश्वर का ज्ञान कराने में सहायक होते हैं। ग्रन्थों को पढ़कर उपदेशों की बातों पर विचार चिन्तन कर हम ईश्वर के सत्य स्वरुप से परिचित होते हैं हुए हैं। हमें यह ज्ञान अनुभव हुआ है कि ईश्वर सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामी है। इस कारण वह हमारी आत्मा में निहित विद्यमान है। यदि हम उसका ध्यान व चिन्तन करते हैं वा उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते हैं अथवा यज्ञ अग्निहोत्र व अन्य शुभ-अशुभ कर्मों को करते हैं, तो संसार में होने वाले प्रत्येक कार्य का साक्षी ईश्वर हमारी उस क्रिया को अपनी सर्वव्यापकता व सर्वान्तर्यामित्व के गुण से जान लेता है, यह ज्ञान, प्रतीती व अनुभूति हमें ईश्वर के विषय में होती है। यह जानकर, अपने आप से तर्क-वितर्क करने व इस ज्ञान को स्थिर व दृण कर लेने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ईश्वर निराकार है अतः उसकी पूजा, उपासना एवं सत्कार आदि कार्य केवल उस ईश्वर का अपनी जीवात्मा में ध्यान, चिन्तन, स्तुति, प्रार्थना व उपासना आदि के द्वारा ही हो सकता है। अन्य कार्य यथा मूर्तिपूजा, कुछ ग्रन्थों का पाठ व नाना प्रकार के आसन आदि क्रियायें करके हम उसे प्राप्त व प्रसन्न नहीं कर सकते। ईश्वर के गुणों स्वरूप का ध्यान तथा प्रार्थना आदि करने से हमारे अन्तःकरण के दोष मल दूर होने आरम्भ हो जाते हैं। यह कार्य मुख्यतः ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रन्तन्न आसुव।। द्वारा भली प्रकार किया जा सकता है जिसमें ईश्वर से जीवात्मा के सभी दुर्गुण, दुव्र्यसन व दुःखों को दूर करने तथा जीवात्मा के लिए जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव व पदार्थ हैं, वह प्रदान करने की प्रार्थना की जाती है। जैसे-जैसे व जितने समय तक हम ईश्वर की उपासना आदि कार्यों को करते हैं, उसे विधिपूर्वक करने से उसके प्रभाव से हमारा अन्तःकरण शुद्ध, पवित्र व निर्मल हो जाता है और उसमें ईश्वर का ज्ञान व प्रकाश का आभास होने लगता है। वेदों व ऋषियों के वचनों के सत्य होने के कारण ईश्वरोपासना के हमारे साधनों व उपायों में दृणता व स्थिरता उत्पन्न होती है व उसके सत्य होने से निभ्र्रान्त अनुभव होता है। यह उपासना वा योगाभ्यास नियत समय पर करते रहने से समाधि की अवस्था उत्पन्न होकर ईश्वर साक्षात्कार ईश्वर का प्रत्यक्ष किया जा सकता है। इसके लिये योगदर्शन के अध्ययन के साथ निष्कपट व निर्लोभी अनुभवी योग गुरू की शरण ली जा सकती है। सच्चा व सिद्ध योगी ही गुरु हो सकता है। ऐसा व्यक्ति मिलना कठिन अवश्य है।

 

ईश्वर साक्षात्कार को विस्तार से जानने व समझने के लिए महर्षि पतंजलि रचित योगदर्शन का अध्ययन आवश्यक है। इसके लिए महात्मा नारायण स्वामी व दर्शनाचार्य पं. उदयवीर शास्त्री जी के योगदर्शन पर हिन्दी में भाष्य उपलब्ध हैं, उन्हें देखा जा सकता है। इसके साथ ही आर्यजगत के विख्यात संन्यासी व दर्शनों के विद्वान स्वामी सत्यपति जी के प्रवचनों पर तीन खण्डों में आचार्य श्री सुमेरू प्रसाद, सम्प्रति स्वामी ब्रह्मविदानन्द, द्वारा सम्पादित वृहती ब्रह्म मेधा ग्रन्थ भी उपयोगी है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए सिद्ध योगी थे। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के उपासना प्रकरण में उन्होंने ईश्वर साक्षात्कार का वर्णन करते हुए लिखा है कि जिस समय इन (योग, ध्यान उपासना के) सब साधनों से परमेश्वर की उपासना करके उस (ईश्वर) में प्रवेश किया चाहें, उस समय इस रीति से करें कि कण्ठ के नीचे, दोनों स्तनों के बीच में और उदर से ऊपर जो हृदय देश है, जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त है, उसमें कमल के आकार का वेश्म अर्थात् अवकाशरूप एक स्थान है और उसके बीच में जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा बाहर भीतर एकरस होकर भर रहा है, वह आनन्दस्वरूप परमेश्वर उसी प्रकाशित स्थान के बीच में खोज करने (ध्यान, चिन्तन, धारणा, स्तुति, प्रार्थना आदि करने) से मिल जाता है। दूसरा उसके मिलने का कोई उत्तम स्थान वा मार्ग नहीं है। यहां आनन्दस्वरूप परमेश्वर मिल जाता है से महर्षि दयानन्द का अभिप्राय समाधि अवस्था में योगी व उपासक को ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता है, से ही है।

 

आजकल ईश्वर वा सृष्टिकर्त्ता को प्राप्त करने के लिए भिन्न-भिन्न मतों में जो कर्मकाण्ड व उपासना पद्धतियां हैं, वह योगदर्शन की वैदिक उपासना प़द्धति के अनुरूप न होने के कारण उनसे ईश्वर की प्राप्ति व साक्षात्कार होने की संभावना नहीं है। यम व नियमों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान ये युक्त जिस आचरण की अपेक्षा योगी से की गई है, वह भी अन्य मत-मतान्तरों के अनुयायी व आचार्य पूरी नहीं करते। अतः वह ईश्वर साक्षात्कार व ईश्वर का प्रत्यक्ष होने का अनुभव प्राप्त नहीं कर सकते। यदि किसी को ईश्वर का साक्षात्कार करना है और इससे जीवन का लक्ष्य ईश्वर साक्षात्कार सहित मोक्ष प्राप्त करना है तो वेद व वैदिक साहित्य के ज्ञान सहित योग व वैदिक उपासना पद्धति को अपनाना ही होगा। वैदिक उपासना पद्धति ही ईश्वर साक्षात्कार की एकमात्र वह प़्रद्धति है जो ईश्वर का साक्षात्कार कराने के साथ मनुष्य जीवन के लक्ष्य ‘‘मोक्ष को प्राप्त कराती है। इन्हीं शब्दों के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

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पृथिवी पर श्रेष्ठ धर्म वैदिक धर्म और श्रेष्ठ संगठन आर्यसमाज

ओ३म्

पृथिवी पर श्रेष्ठ धर्म वैदिक धर्म और श्रेष्ठ संगठन आर्यसमाज

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का अस्तित्व सत्य है। किसी भी विषय में सत्य केवल एक ही होता है। जिस प्रकार दो व दो को जोड़ने से चार होता है, कुछ कम व अधिक नहीं हो सकता इसी प्रकार ईश्वर, जीव, प्रकृति, सृष्टि, धर्म, समाज, मानवीय आचार व विचार आदि सिद्धान्त व मान्यतायें भी भिन्न-भिन्न न होकर सर्वत्र एक समान ही होनी चाहिये। यदि यह पूछा जाये कि वेद पर आधारित वैदिक धर्म और आर्यसमाज संगठन की प्रमुख विशेषता क्या है तो इसका एक वाक्य में उत्तर है कि यह धर्म संगठन सत्य पर आधारित है। दूसरा उत्तर यह है कि वैदिक धर्म आर्य समाज का संगठन प्राणीमात्र के हित कल्याण के लिए हैं। यह कभी किसी के अकल्याण की बात सोचता है और ही करता है। एक अन्य उत्तर यह भी हो सकता है कि यह दोनों ज्ञान पर आधारित है तथा अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीति, रूढि़, मिथ्या परम्परा आदि से पूर्णतः रहित हैं। आर्यसमाज की मान्यता है कि वेद मन्त्रों के अर्थ वही स्वीकार्य होंगे जो सत्य हों व मानव सहित प्राणीमात्र के हित के लिए हों। यदि कहीं कोई भ्रान्ति हो तो उसे इस कसौटी पर कस कर संशोधित कर लेना चाहिये। अन्य मतों, सम्प्रदायों वा धर्मों में सत्य, तर्क व युक्ति को वैदिक धर्म की भांति महत्व नहीं दिया जाता। तर्क व युक्ति से सिद्ध बातें ही सत्य हुआ करती हैं। इसी से ज्ञान की उन्नति व अज्ञान की निवृत्ति होती है और यही मनुष्य के सुख व उन्नति का मुख्य कारण व आधार है।

 

वैदिक धर्म का आरम्भ कब, किसने व क्यों किया? इस प्रश्न पर विचार करना भी समीचीन है। इसका उत्तर है वैदिक धर्म का आरम्भ चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के ज्ञान से सृष्टि के आरम्भ में हमारे पहली पीढ़ी के ऋषियों ने किया। यह सभी ऋषि ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का साक्षात व यथार्थ ज्ञान रखने के साथ-साथ वेदों के पूर्ण वेत्ता व विद्वान थे। वेदों में जो मन्त्र व उनमें अलौकिक ज्ञान है वह किसी मनुष्य व ऋषि द्वारा रचित, निर्मित व उत्पन्न नहीं है अपितु यह वेद, इसके मन्त्र व ज्ञान इस सृष्टि के रचयिता व संचालक ईश्वर का निज ज्ञान है जो वह सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न आदि मनुष्यों, स्त्री व पुरूषों को, उनके कल्याणार्थ देता है। चार वेदों का यह ज्ञान सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ ईश्वर ने सृष्टि के आदि में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य अंगिरा की आत्माओं में प्रेरणा द्वारा स्थापित किया था। ईश्वर ने ही जीवात्मा को मनुष्य शरीर दिये, इन शरीरों में व्यवहार के लिए पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां व बुद्धि आदि प्रदान करने सहित सृष्टि के आरम्भ में वेदमन्त्रों का उच्चारण, परस्पर संवाद एवं व्यवहार करना भी सिखाया है। तर्क व विवेचन से यह सिद्ध है कि यदि ईश्वर इस सृष्टि के आदि मनुष्यों को वेदों का ज्ञान न देता, जिससे कि वह परस्पर संवाद आदि कर सके और सत्य व असत्य में भेद कर सकें, तो उनका जीवन व्यतीत करना संभव नहीं था। मान लीजिए हमें बोलना नहीं आता और हमारे आसपास के अन्य मनुष्यों को भी नहीं आता। हममें ज्ञान भी नहीं है। ऐसी स्थिति में हम क्या कोई व्यवहार कर सकते हैं? इसका उत्तर है कि हम परस्पर किसी प्रकार का कोई व्यवहार नहीं कर सकते। व्यवहार के लिए किसी न किसी भाषा सहित उठने, बैठने, चलने, फिरने, सोचने, समझने, खाद्य-अखाद्य पदार्थों का ज्ञान, भोजन की विधि, मल-मूत्र विसर्जन आदि सभी आवश्यक क्रियाओं का ज्ञान आवश्यक है। अतः सृष्टि की रचना के बाद अमैथुनी सृष्टि में मनुष्यों की उत्पत्ति के साथ ही उनको ईश्वर से ज्ञान मिलना तर्क संगत है। यही ज्ञान उसे परमात्मा से मिलता है और इसी का नाम वेद है।

 

परमात्मा प्रदत्त इसी ज्ञान से प्रथम चार ऋषियों से अध्ययन, अध्यापन, शिक्षा, प्रचार, प्रवचन व उपदेश की परम्परा आरम्भ हुई और सभी लोग ज्ञान सम्पन्न हुए। यह वेद ज्ञान आज भी अपने मूल स्वरूप में सुरक्षित है। महाभारत के बाद यह ज्ञान लुप्त हो गया था जिसके कारण देश व विश्व में अज्ञान का घोर अन्धकार फैला और अज्ञान पर आधारित अनेक मत व मतान्तर उत्पन्न हुए। महर्षि दयानन्द, जो कि वेदों के उच्च कोटि के मर्मज्ञ विद्वान थे, उन्होंने चारों वेदों की परीक्षा कर घोषणा की कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। वेद का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सभी मनुष्यों वा आर्यों का परम धर्म है। अपनी इस घोषणा को उन्होंने सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि अनेक ग्रन्थों को लिखकर पुष्ट किया। उन्होंने वेदों के सभी मन्त्रों का भाष्य करना आरम्भ किया था। ऋग्वेद आंशिक व यजुर्वेद का सम्पूर्ण भाष्य उन्होंने किया है। आकस्मिक मृत्यु के कारण वह वेदों के भाष्य को पूर्ण नहीं कर सके। उन्होंने जितने ग्रन्थ लिखे और उनकी जो शिक्षायें, उपदेश, पत्र, पुस्तकें, शास्त्रार्थों के विवरण आदि उपलब्ध हैं, उनसे वैदिक धर्म का विस्तृत सत्य स्वरूप प्रकट होता है। इस पर विचार करने पर यह पूर्व व पश्चात प्रचलित सभी धर्मों में श्रेष्ठ सिद्ध होता है। अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में उन्होंने प्रमुख सभी मतों का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया है जो वेद को विश्व के सभी मनुष्यों के धर्म की उनकी मान्यता को पुष्ट करता है।

 

वेद धर्म की पहली विशेषता तो यह है कि वेद की सभी मान्यताओं तर्क व युक्ति की कसौटी पर सत्य सिद्ध होती हैं। वेद, तर्क व युक्तियों से डरता नहीं अपितु उनका स्वागत करता है। वेदों की सभी मान्यतायें ज्ञान व विज्ञान की कसौटी पर भी सत्य सिद्ध हैं। ईश्वर, जीव व प्रकृति का जो स्वरूप वेदों में उपलब्घ होता है वह अपूर्व व आज भी सर्वोत्तम हैं एवं विवेक पर आधारित है। अन्य मतों में यह बात नहीं है। वेदाधारित ईश्वरोपासना वा पंचमहायज्ञ विधि में भी मुनष्यों के सर्वोत्तम कर्तव्यों का विधान किया गया है जिससे मनुष्य की व्यक्तिगत व सामाजिक उन्नति होने के साथ सभी प्राणियों का कल्याण होता है। कर्म-फल सिद्धान्त भी वेद प्रदत्त ज्ञान के अन्र्तगत ही सत्य सिद्धान्त है जिसके अनुसार मनुष्य जो शुभ व अशुभ कर्म करता है उसका फल उसे जन्म व जन्मान्तरों में अवश्य ही भोगना होता है। अशुभ कर्मों का त्याग व शुभ कर्मों को करके तथा साथ हि वेदविहित ईश्वरोपासना, यज्ञादि कार्य, मातृ-पितृ-आचार्यों की सेवा, परोपकार व विद्यायुक्त कर्मों को करने से ही मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होता है। यह वैदिक धर्म की विशेषता व युक्तिसंगत सिद्धान्त है।

 

आर्यसमाज वेदों के सत्य ज्ञान को संसार में फैलाने के लिए स्थापित किया गया एक संगठन है जिसकी स्थापना महर्षि दयानन्द सरस्वती ने 10 अप्रैल सन् 1875 को मुम्बई में की थी। इस संगठन की स्थापना का मुख्य उद्देश्य महर्षि दयानन्द के समय में वैदिक धर्म का संगठित रूप से प्रचार करना था और उनके बाद भी कृण्वन्तो विश्वमार्यम् (संसार को श्रेष्ठ बनाओ) के लक्ष्य की प्राप्ति तक संसार में वेदों का प्रचार अबाधित रूप से हो, यह मुख्य प्रयोजन था। महर्षि दयानन्द ने पृथिवी के सभी मनुष्यों के कल्याणार्थ वेदों की सार्वभौमिक व सार्वजनीन मान्यताओं व सिद्धान्तों के प्रचार के लिए अनेक ग्रन्थों की रचना की जिनमें सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, ऋग्वेद आंशिक व यजुर्वेद सम्पूर्ण वेदभाष्य आदि ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों के अनेक भाषाओं में अनुवाद भी उपलब्ध हैं। ग्रन्थ लेखन के इस स्थाई कार्य के अतिरिक्त महर्षि दयानन्द ने देश के प्रमुख स्थानों पर जाकर वैदिक विचारधारा का प्रचार किया और सभी मतों को अपनी-अपनी धर्म व समाज विषयक मान्यताओं पर शंकाओं का निवारण करने का अवसर दिया। प्रतिपक्षी मतों के आचार्यों को उन्होंने शंका समाधान का अवसर देने के साथ शास्त्रार्थ करने की चुनौती भी दी और अनेक प्रमुख मतों के विद्वानों से शास्त्रार्थ कर वैदिक मत की श्रेष्ठता, ज्येष्ठता, ज्ञानसम्पन्नता व सत्यता को प्रतिपादित व सम्पादित किया। इसके साथ ही महर्षि दयानन्द ने उदयपुर, शाहपुर, जोधपुर आदि अनेक देशी रियासतों के शासकों को भी अपना शिष्य व अनुगामी बनाया और वहां वैदिक मत की स्थापना में आंशिक सफलतायें प्राप्त कीं। अनेक पादरी व मुस्लिम विद्वान भी उनकी मित्र मण्डली में थे जो उनकी सभी मतों के अनुयायियों के प्रति सदाशयता के उदाहरण हैं। स्वामी दयानन्द जी ने अनेक अवसरों पर हिन्दी के प्रचार व प्रसार सहित गोरक्षा आदि आन्दोलनों का सूत्रपात भी किया जबकि ऐसे कार्य व उदाहरण पूर्व इतिहास में कहीं उपलब्ध नहीं होते। इस प्रकार से प्रचार करते हुए उन्होंने वेदों के ज्ञान को फैलाकर विश्व के मनुष्यों को प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी वैदिक धर्म की स्थापना व विश्व समुदाय में इसकी स्वीकृति में यथाशक्ति योगदान किया।

 

ईश्वर इस सृष्टि के सभी मनुष्यों व पूर्वजों का आदि गुरू है। इस सृष्टि में अब तक उत्पन्न हुए सभी आचार्य, विद्वान व ऋषि-मुनि ईश्वर के शिष्य सिद्ध होते हैं जिन्होंने अपने-अपने काल में ईश्वर द्वारा आदि ऋषियों को प्रदत्त वेद ज्ञान को ही जाना, समझा व प्रचारित किया। जिस प्रकार सृष्टि की आदि में ईश्वर अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को चार वेदों का उपदेश देने से उनका गुरू व चारों ऋषि ईश्वर के शिष्य सिद्ध होते हैं, उसी प्रकार से चार ऋषियों से आरम्भ आचार्य-शिष्य परम्परा के अनुसार उनके बाद के सभी आचार्य उसी ईश्वरीय ज्ञान के प्रचारक व प्रसारक सिद्ध होते हैं। सच्चा आचार्य माता-पिता के समान होता है। इस प्रकार से संसार में जितने भी सच्चे उपदेशक, ज्ञानी व ऋषि आदि हुए हैं वह-वह ज्ञानदाता व ज्ञानप्रसारक होने से अपने शिष्यों के मातृ-पितृ तुल्य ही रहे हैं। उसी परम्परा व ज्ञान प्रवाह का परिणाम ही आज का अन्यान्य विषयक ज्ञान-विज्ञान है। यदि उन्होंने वैदिक ज्ञान को सुरक्षित रखते हुए उपदेश आदि से उसका देश-देशान्तर में प्रचार न किया होता तो आज का मानव ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न न हो पाता। संसार के सभी मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह ज्ञान विज्ञान का क्षेत्र हो या मत-मतान्तरों का, उनकी सभी मान्यताओं वा सिद्धान्तों की परीक्षा कर उनमें विद्यमान सत्य को ही अपनायें और मिथ्या का त्याग करें। मत-मतान्तरों में निहित अज्ञान व भ्रम की बातें कि जिससे मनुष्यों में समरसता में बाधा पहुंचती है, उनका त्याग करें। सत्य का ग्रहण असत्य का त्याग ही वैदिक धर्म आर्यसमाज का मुख्य प्रयोजन है। आर्यसमाज सत्य का पोषक व प्रचारक है और विश्व के सभी मनुष्यों में वेदों के सत्य ज्ञान का प्रचार कर उनका कल्याण करना चाहता है। वैदिक ज्ञान ही एकमात्र मनुष्य के अभ्युदय व निःश्रेयस क कारण है, यह निर्विवाद सत्य है। आर्यसमाज के संगठन में कुछ दुर्बलतायें हो सकती हैं परन्तु विश्व के कल्याण की दृष्टि से आर्यसमाज की अवधारणा व उसका प्रभावशाली सशक्त रूप ही मानवता के हित में है। वेद और आर्यसमाज विश्व में मानवता को विद्यमान रखने की गारण्टी है। इसके साथ विश्व के सभी मनुष्यों को अभ्युदय व निःश्रेयस के मार्ग पर अग्रसर करने का एकमात्र संगठन हैं। इसके महत्व को जानकर सभी मनुष्यों को इसे सहयोग देना चाहिये और अपनी सर्वांगीण उन्नति करनी चाहिये।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

पाप दूर करने का वैदिक साधन अघमर्षण के तीन मन्त्र व उनके अर्थ

ओ३म्

पाप दूर करने का वैदिक साधन अघमर्षण के तीन मन्त्र उनके अर्थ

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य जाग्रत अवस्था में कोई न कोई कर्म अवश्य करता है। यह कर्म दो प्रकार के होते हैं जिन्हें शुभ व अशुभ अथवा पुण्य व पाप कह सकते हैं। मनुष्य का जन्म ही पूर्वजन्मों के शुभ व अशुभ कर्मों के फलों के भोग के लिए हुआ है। शुभ व सत् कर्मों का फल सुख व विपरीत कर्मों का फल दुःख होता है। संसार में मनुष्य अन्य प्राणियों से इस अर्थ में भिन्न है कि उसके पास निश्चयात्मक बुद्धि होती है जिससे निर्णय करके वह किसी कर्म को करता है। मनुष्येतर अन्य प्राणियों में बुद्धि होती तो है परन्तु वह अपने स्वभाविक ज्ञान के अनुसार ही कार्य करती है। वह सत्य व असत्य का निर्णय नहीं कर सकती। यदि वह विचार व चिन्तन कर सकते तो सम्भव था कि वह मनुष्य की तुलना में अधिक अच्छे व श्रेष्ठ कर्म करते। वर्तमान में भी गाय, बैल, घोड़ा, भैंस, भेड़, बकरी आदि पशु मनुष्यों से कहीं अधिक मनुष्यों का उपकार करते हुए दिखते हैं। मनुष्य तो इन पशुओं का उपयोग व दुरुपयोग ही करता है। मनुष्य योनी उभय-योनी है। इसमें मनुष्य पूर्व व वर्तमान जन्मों के कर्म भोगने के साथ नये शुभ-अशुभ कर्म भी करता है। अशुभ कर्मों का परिणाम दुःख होता है जिससे मनुष्य बच सकता है यदि दुःखों का कारण अशुभ कर्मो वा पाप को हटा दे अर्थात् अशुभ कर्म न करे। अतः मनुष्य को शुभ व अशुभ कर्मों का ज्ञान होना चाहिये और भविष्य में दुःखों से बचने के लिए उसे केवल शुभ कर्म ही करने चाहिये। बुरे कर्मों को विवेक पूर्वक रोक देना चाहिये। इन पाप कर्मों से बचने के लिए महर्षि दयानन्द ने अपनी वैदिक सन्ध्या पद्धति में अघमर्षण मन्त्र को लिखकर कर व इनकी व्याख्या करके शुभ व अशुभ कर्मों के परिणाम व फलों को जानकर पाप कर्मों के त्याग करने का विधान किया है जिससे हमारा भविष्य सुरक्षित व सुखी हो।

 

जिन अघमर्षण मन्त्रों की चर्चा हमने की है वह वैदिक सन्ध्या पद्धति का एक भाग है। महर्षि दयानन्द ने ईश्वर के सम्यक् ध्यान के लिए की जाने वाली वैदिक सन्ध्या में गायत्री मन्त्र से शिखा बन्धन, आचमन मन्त्र, इन्द्रियस्पर्शमन्त्र, मार्जनमन्त्र, प्राणायाममन्त्र, अघमर्षणमन्त्र, मनसापरिक्रमामन्त्र, उपस्थानमन्त्र, समर्पणमन्त्र और समाप्ती पर नमस्कारमन्त्र के मन्त्रों का पाठ करने का विधान किया है। महर्षि दयानन्द के यह विधान बहुत ही युक्तिसंगत हैं और साधक व उपासक को सन्ध्या के फल प्राप्त कराने में पूर्णतः समर्थ हैं। सन्ध्या करने का प्रयोजन है कि ईश्वर से हमें मनोवांछित आनन्द अर्थात ऐहिक सुख-समृद्धि, हम पर सर्वदा सुखों की वर्षा और पूर्णानन्द की प्राप्ति वा मोक्ष के आनन्द की प्राप्ति हो। इन लाभों के अतिरिक्त सन्ध्या में शरीर की रक्षा व इसको स्वस्थ रखने आदि की अनेक प्रार्थनायें निहित हैं। अघमर्षण के सन्ध्या में सम्मिलित तीन मन्त्र हैं-ओ३म्। ऋतं सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत। ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रोऽअर्णवः।।1।। समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोऽअजायत। अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी।।2।। सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवं पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः।।3।। अपने जीवन से पापों को दूर करने के लिए इन मन्त्रों का पाठ करने के बाद इनके यथार्थ अर्थों पर विचार करना व उससे मिलने वाली शिक्षा का पालन करना आवश्यक है। पहले मन्त्र का अर्थ है कि सब जगत का धारण और पोषण करनेवाला और सबको वश में करनेवाला परमेश्वर, जैसा कि उसके सर्वज्ञ विज्ञान में जगत् के रचने का ज्ञान था और जिस प्रकार पूर्वकल्प की सृष्टि में जगत् की रचना थी और जैसे जीवों के पुण्य-पाप थे, उनके अनुसार ईश्वर ने मनुष्यादि प्राणियों के देह बनाये हैं। जैसे पूर्व कल्प में सूर्य-चन्द्रलोक रचे थे, वैसे ही इस कल्प में भी रचे हैं जैसा पूर्व सृष्टि में सूर्यादि लोकों का प्रकाश रचा था, वैसा ही इस कल्प में रचा है तथा जैसी भूमि प्रत्यक्ष दीखती है, जैसा पृथिवी और सूर्यलोक के बीच में पोलापन है, जितने आकाश के बीच में लोक हैं, उनको ईश्वर ने रचा है। जैसे अनादिकाल से लोक-लोकान्तर को जगदीश्वर बनाया करता है, वैसे ही अब भी बनाये हैं और आगे भी बनावेगा, क्योंकि ईश्वर का ज्ञान विपरीत कभी नहीं होता, किन्तु पूर्ण और अनन्त होने से सर्वदा एकरस ही रहता है, उसमें वृद्धि, क्षय और उलटापन कभी नहीं होता। इसी कारण से यथापूर्वमकल्पयत् इस पद का ग्रहण किया है। इस मन्त्र व मन्त्रार्थ में सृष्टि रचना, उसका प्रयोजन, जीवों के पूर्व कर्मों के अनुसार मनुष्यादि देह बनाने पर प्रकाश डाला है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि इस सृष्टि का स्वामी ईश्वर है और जीवों के कर्मों के फल, दण्ड-दुःख व सुख, देने के लिए उसने मनुष्यादि प्राणियों के देह बनाये है।

 

अघमर्षण के दूसरे मन्त्र का अर्थ है कि उसी ईश्वर ने सहजस्वभाव से जगत् के रात्रि, दिवस, घटिका, पल और क्षण आदि को जैसे पूर्व थे वैसे ही रचे हैं। इसमें कोई ऐसी शंका करे कि ईश्वर ने किस वस्तु से जगत् को रचा है? उसका उत्तर यह है कि ईश्वर ने अपने अनन्त सामर्थ्य से सब जगत् को रचा है। ईश्वर के प्रकाश से जगत् का कारण प्रकाशित होता और सब जगत के बनाने की सामग्री ईश्वर के अधीन है। उसी अनन्त ज्ञानमय सामर्थ्य से सब विद्या के खजाने वेदशास्त्र को प्रकाशित किया है जैसाकि पूर्व सृष्टि में प्रकाशित था और आगे के कल्पों में भी इसी प्रकार से वेदों का प्रकाश करेगा। जो त्रिगुणात्मक अर्थात् सत्व, रज और तमोगुण से युक्त है, जो स्थूल और सूक्ष्म जगत् का कारण है, सो भी कार्यरूप होके पूर्वकल्प के समान उत्पन्न हुआ है। उसी ईश्वर के सामर्थ्य से जो प्रलय के पीछे एक हजार चुतुर्युगी के प्रमाण से रात्रि कहाती है, सो भी पूर्व प्रलय के तुल्य ही होती है। इसमें ऋग्वेद का प्रमाण है कि–‘‘जब जब विद्यमान सृष्टि होती है, उसके पूर्व सब आकाश अन्धकाररूप रहता है, उसी का नाम महारात्रि है। तदनन्तर उसी सामर्थ्य से पृथिवी और मेघ मण्डल=अन्तरिक्ष में जो महासमुद्र है, सो पूर्व सृष्टि के सदृश ही उत्पन्न हुआ है। तीसरे मन्त्र में ईश्वर ने मनुष्यों को शिक्षा देते हुए कहा है कि उसी समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात् संवत्सर, अर्थात् क्षण, मुहुर्त, प्रहर आदि काल भी पूर्व सृष्टि के समान उत्पन्न हुआ है। वेद से लेके पृथिवीपर्यन्त जो यह जगत् है, सो सब ईश्वर के नित्य सामथ्र्य से ही प्रकाशित हुआ है और ईश्वर सबको उत्पन्न करके, सबमें व्यापक होके अन्तर्यामिरूप से सबके पाप-पुण्यों को देखता हुआ, पक्षपात छोड़के सत्यन्याय से सबको यथावत् फल दे रहा है।

 

इन अर्थों को प्रस्तुत कर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि कि ऐसा निश्चित जान के ईश्वर से भय करके सब मनुष्यों को उचित है कि मन, वचन और कर्म से पापकर्मों को कभी न करें। इसी का नाम अघमर्षण है अर्थात् ईश्वर सबके अन्तःकरण के कर्मों को देख रहा है, इससे पापकर्मों का आचरण मनुष्य लोग सर्वथा छोड़ देवें। महर्षि दयानन्द के इस सत्परामर्थ और प्रातः व सायं दोनों समय सन्ध्या करते समय अघमर्षण मन्त्रों के अर्थों पर विचार करते हुए मनुष्य जान लेता है कि वह जैसे पाप व पुण्य कर्म करेगा, ईश्वर की व्यवस्था से उसको उन कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल वा दण्ड आदि यथायोग्य अवश्य मिलेगा। इससे वह पाप व अशुभ कर्मों को छोड़ देता है। अतः सन्ध्या के यह तीन मन्त्र एवं इनके अर्थ पर विचार करने से मनुष्य पापों को करना छोड़ देता है। इस पर भी यदि कोई पाप करता रहता है तो उसे बुद्धिहीन व मलिन मन व आत्मा वाला मनुष्य ही कह सकते हैं जो अन्धकार में पड़कर दुःख का भागी होता है। यदि मनुष्य व संसार को पापों से बचाना है तो उसे वेदों की शरण में लाकर वेदों का अध्ययन कराकर अटल कर्म-फल सिद्धान्त को जनाकर अशुभ व पाप कर्मों को करने से छुड़ाना ही होगा। पाप कर्मों को छोड़ने व सन्ध्यादि करने से मनुष्य व जीवात्मा को अनेकानेक लाभ होंगे जिसमें इहलौकिक उन्नति सहित परजन्मों में उन्नति होने के साथ मोक्ष की सिद्धि भी हो सकती है। हम आशा करते हैं पाठक पाप त्याग के लिए इन मन्त्रों का प्रातःसायं पाठ करने के साथ इनके अर्थों पर भी गम्भीरता से विचार करेंगे और वैदिक साहित्य का अध्ययन कर अपने-अपने जीवन को वेदानुकूल बनायेंगे।

 

मनुष्य बुरे कर्मों के कठोर दण्ड के भय से ही बुराईयों व पापों से दूर रहता है। देश व समाज में जो लोग अपराध नहीं करते उनका एक कारण यह है कि वह ईश्वर व सरकारी दण्ड व्यवस्था दोनों से डरते हैं। महर्षि दयानन्द ने सन्ध्या में विधान किये अघमर्षण मन्त्रों में भी ईश्वर की सर्वोपरि सत्ता व उसके दण्ड विधान कर्मफल सिद्धान्त का उल्लेख किया है जो अनादि काल से चला आ रहा और अनन्त काल यथापूर्व चलता रहेगा। ज्ञानी व सज्जन पुरूष ईश्वर के दण्ड व मोक्ष विधान को जानकर अपने समस्त जीवन में अपराध, पाप व अशुभ कर्मों से बचे रहते हैं व सुख-शान्ति-समृ़िद्ध का अनुभव व भोग करते हैं। अतः महर्षि दयानन्द द्वारा अघमर्षण मन्त्रों का विधान सर्वथा उपयुक्त व समाज को अपराध मुक्त बनाने की दिशा में एक प्रशंसनीय कार्य है। अन्य मतों में तो संख्या बढ़ाने के लिए पाप क्षमा का विधान किया गया है जो कि सत्य नहीं हो सकता क्योंकि पापों को क्षमा करना एक प्रकार पाप को बढ़ावा देना है जिसे ईश्वर कदापि नहीं करेगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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ईश्वर का अवतार होना सत्य वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध है।

ओ३म्

ईश्वर का अवतार होना सत्य वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध है।

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महाभारत काल के बाद भारत में ज्ञान का लोप होने से अन्धकार फैला। ऐसे ही समय में वेद व वैदिक साहित्य से अनेक प्रसंगों में अज्ञान व कल्पनाओं का मिश्रण कर संस्कृत व काव्य रचने में प्रवीण विद्वानों ने पुराणों आदि ग्रन्थों की रचना की। ऐसे ही समय में, देश, काल व परिस्थितियों व बौद्ध-जैन मत के प्रभाव के कारण, ईश्वर के अवतार की भी कल्पना की गई जो आज भी प्रचलित है। अवतार सृष्टि की रचना व पालन करने वाले अजन्मा, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ ईश्वर के मनुष्य जन्म लेने को कहा जाता है। महाभारत काल के बाद जिन लोगों ने ईश्वर के अवतार लेने की कल्पना की है, वह ईश्वर को पूर्णतया जानते ही नहीं थे और न हि वह पूर्णतः निष्कपट व स्वार्थहीन थे, ऐसा आभास मिलता है। यदि वह वेदों को जानते होते तो उन्हें ईश्वर के सत्यस्वरूप का ज्ञान अवश्य होता और वह अवतारवाद की अज्ञानपूर्ण व मिथ्या कल्पना न करते। अवतार पर चर्चा करने से पूर्व ईश्वर के वैदिक व यथार्थ स्चरूप को जानना आवश्यक है। ईश्वर सत्य, चित्त व आनन्दस्वरूप, अनादि, अजन्मा, शरीर-नस-नाड़ी-बन्धन-से-रहित, नित्य, अनन्त, अमर, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय और सृष्टि का रचयिता है। हर कार्य का कारण होता है। ईश्वर का यदि अवतार मानेंगे तो उसका स्वीकार्य कारण भी बताना ही होगा। अवतारवाद मानने वालों के पास ऐसा कोई ठोस कारण नहीं है जिससे ईश्वर के अवतार लेने का प्रयोजन सिद्ध हो सके। अवतारवाद के पोषक कहते हैं कि दुष्टों का दमन व हनन करने के लिए ईश्वर मनुष्य का जन्म लेता है। यह कथन हास्यापद ही लगता है। यह इसलिए कि जो ईश्वर अपनी अनन्त सामथ्र्य से निराकार रूप से इस सृष्टि व जड़-जंगम जगत का निर्माण करता है, क्या वह अपने द्वारा उत्पन्न रावण व कंस जैसे क्षुद्र प्राणियों को अपने अनन्त बल व शक्ति से धराशायी व नष्ट नहीं कर सकता? यदि श्री रामचन्द्र जी का जन्म रावण को मारने के लिए ही हुआ था तो वह युवावस्था में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न होकर सीधे रावण के पास जाकर उसका वध कर देते और वहां के सभी धार्मिक लोगों को उपदेश देते कि मैंने रावण को इसके दुष्ट स्वभाव के कारण मारा है क्योंकि मैं स्वयं भी सर्वव्यापक रूप से ऐसा नहीं कर सकता था और न हि संसार का कोई मनुष्य ऐसा कर सकता था। ईश्वर या रामचन्द्र जी ने ऐसा नहीं किया और न रामायण के रचयिता वाल्मीकि जी ने ऐसा लिखा है, अतः यह मान्यता वाल्मीकि, ईश्वर व रामचन्द्रजी की नहीं है। देश काल व परिस्थितियों के अनुसार ही यह सब कार्य हुए हैं जैसे कि आजकल विश्व धरातल पर यत्र तत्र हो रहे हैं। श्री रामचन्द्र जी एक राज परिवार में जन्में होने से एक राजा था। वैदिक राजा का दायित्व होता है कि वह वेद धर्म के अनुयायियों, ऋषि, मुनियों व विद्वानों की आतंकियों व दुष्टों से रक्षा करे। श्री रामचन्द्र जी ने वैदिक राजा होने का अपना कर्तव्य निभाया। रावण क्योंकि अपने बुरे कार्यों को करता रहा, उसने छोड़ा नहीं, अतः परिस्थितियों के अनुसार ही उसका वध हुआ। यह सारा वर्णन वाल्मीकि रामायण में उपलब्ध है। वाल्मीकि जी श्री रामचन्द्र जी को अवतार नहीं मानते थे। यह मान्यता तो विगत दो से ढ़ाई सहस्र वर्ष पूर्व ही प्रचलित हुई है। यही स्थिति महाभारत में श्री कृष्ण जी की है। एक सर्वव्यापक व निराकार सत्ता जो असंख्य जीवों को मनष्यादि जन्म देती है और उनका नियमन करती है, अब भी कर रही है, वह किसी एक जीवात्माधारी मनुष्य को मारने के लिए यदि स्वयं मनुष्य का जन्म लेती है, यह विजय नहीं पराजय है व युक्ति-तर्क से सिद्ध नहीं होती। यदि श्री रामचन्द्र जी को ईश्वर मान भी लें तो सर्वशक्तिमान होने के कारण उन्हें न तो सुग्रीव, न हनुमान, न अंगद न अन्य महावीरों की आवश्यकता पड़ती। भारत व विश्व में केवल रावण और कंस दो ही कू्रर शासक नहीं हुए अपितु इन, इनके जैसे व इनसे भी अधिक क्रूर अमानुष शासक हुए हैं। परन्तु अवतार केवल दो ही महापुरूषों को माना जाता है। इससे भी अवतारवाद का सिद्धान्त अप्रमाणिक सिद्ध होता है। क्या महाभारतकाल के बाद औरंगजेब व उससे पूर्व व पश्चात के मानवीयता के शत्रुओं के हनन के लिए ईश्वर के अवतार की आवश्यकता नहीं थी? यदि थी तो ईश्वर का अवतार क्यों नहीं हुआ? ऐसे अमानुषों को ईश्वर ने अपने सर्वान्तर्यामी स्वरूप से ही उनकी जीवन ज्योति को बुझा दिया, यह सर्वज्ञात व सिद्ध है। अतः अतवारवाद प्रमाणों के अभाव में सत्य सिद्ध नहीं होता।

 

हमारे देश में और वह भी केवल हिन्दुओं में ही अवातारवाद का सिद्धान्त पाया जाता है जिसका प्राचीन साहित्य वेद व वैदिक साहित्य में कहीं कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। हमें भी अपने पौराणिक परिवारों में बाल्यकाल से ही बताया गया कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी और योगेश्वर श्री कृष्ण जी ईश्वर थे। बचपन में जो बताया जाता है उस पर स्वतः विश्वास हो जाता है। युवावस्था में हम वेद व वैदिक साहित्य के सम्पर्क में आये और हमने महर्षि दयानन्द के विचारों को पढ़ा, समझा व जाना तथा अनेक विद्वानों के उपदेश व ग्रन्थों को पढ़ा तो इस विषयक पूर्व का हमारा विश्वास अन्धविश्वास सिद्ध हुआ। ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वदेशी है अतः वह सिकुड़ कर एक अत्यन्त सीमित आकर का एकदेशी पदार्थ नहीं बन सकता। यदि बनेगा तो वह ईश्वर नहीं जीवात्मा ही होगा। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में ईश्वर विषयक प्रश्न करते हुए बताया है कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है तो क्या वह दूसरा ईश्वर बना सकता है? क्या वह स्वयं को नष्ट कर सकता? इसका उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द जी कहते हैं कि सर्वशक्तिमान का अर्थ यह है कि वह अपने सभी कार्य अपने-आप, अकेले, बिना किसी अन्य की सहायता आदि के कर सकता है परन्तु वह सत्य व सत्य नियमों के विरुद्ध न कोई कार्य करता है और न कर सकता है। ईश्वर न तो दूसरा ईश्वर ही बना सकता है और न स्वयं को नष्ट ही कर सकता है। इसी प्रकार से वह सदैव ही अपने सत्यस्वरूप सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वव्यापक, अनादि, अजन्मा, नित्य, अनुत्पन्न, अविनाशी, अमर, अजर आदि स्वरूप में विद्यमान रहता है। अवतार लेना उसके स्वरूप, स्वभाव व सामर्थ्य में नहीं है और न सम्भव है। अतः वह कभी अवतार नहीं लेता। यदि ऐसा होता तो महाभारत काल के बाद उत्पन्न अल्प व स्वार्थ बुद्धि वालों से कहीं अधिक विद्वान, ज्ञानी, ईश्वर के साक्षात्कर्ता ऋषि व योगी महाभारत व उससे पूर्व काल रचित अपने वैदिक साहित्य में अवतारवाद का वर्णन अवश्य करते। लगभग साढ़े दस हजार मन्त्रों वाले चार वेदों में भी इसका कहीं न कहीं उल्लेख अवश्य होता। और नहीं तो ईश्वर साक्षात्कार करने के ज्ञान के लिए रचे गये योगदर्शन जिसमें ईश्वर प्राप्ति विषयक सभी साधनों का युक्ति व तर्कसंगत सत्यज्ञान प्रस्तुत किया गया है, ईश्वर के अवतार का भी अवश्य उल्लेख किया जाता। क्योंकि यह मिथ्या ज्ञान है, इसी कारण न वेद, न उपनिषद और न दर्शन आदि प्राचीन वैदिक ग्रन्थों और न हि ईश्वर का साक्षात्कार कराने वाले योगदर्शन के प्रणेता महर्षि पतंजलि ने इसका उल्लेख किया। वैदिक ज्ञान, युक्ति व तर्क के आधार पर केवल यही कहा जा सकता है कि मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र जी व योगेश्वर श्री कृष्ण जी आदि जो ऐतिहासक युगपुरूष हुए हैं वह ईश्वर के अवतार न होकर अपने समय के महापुरूष, युगपुरूष, महामानव, महात्मा, दिव्य व श्रेष्ठ पुरूष थे। गीता में स्वयं योगेश्वर कृष्ण जी कहते हैं कि जातस्य हि धु्रवो मृत्यु धु्रवं जन्म मृत्यस्य अर्थात् जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु और जिसकी मृत्यु होती है उसका जन्म निश्चित होता है। इस आधार पर जन्म लेना मृत्यु को प्राप्त होना और फिर जन्म लेना यह कार्य केवल जीवात्मा का होता है परमात्मा का नहीं। श्री कृष्ण जी का माता देवकी व पिता श्री वसुदेव जी से जन्म हुआ, भगवान (ऐश्वर्यवान) श्री रामचन्द्र जी का भी माता कौशल्या और पिता दशरथ से जन्म हुआ था और इनकी मनुष्यों की ही तरह एक सौ व एक सौ पचास वर्ष की आयु में मृत्यु होने से यह सृष्टि को रचने व चलाने वाले परमात्मा न होकर एक श्रेष्ठ व परमश्रेष्ठ जीवात्मा ही सिद्ध होते हैं। ऐसे ही अन्य अवतार माने जाने वाले ऐतिहासक महापुरूषों व देवियों के बारे में कहा जा सकता है।

 

वैदिक सनातन धर्मी भाग्यशाली हैं कि इन्हें सृष्टि संवत् का ज्ञान है। इस समय यह सृष्टिसंवत एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ सोलह वर्ष चल रहा है। लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत से पूर्व का हमारा इतिहास व इतर वैदिक साहित्य अनेक कारणों से सुरक्षित नहीं रखा जा सका। इस काल में श्री राम व श्री कृष्ण जी के समान सहस्रों महान दिव्य विभूतियों ने जन्म लिया होगा जिनके शुभ कर्मों को जानकर उनकी पूजा व अनुसरण किया जा सकता था परन्तु उन पर रामायण व महाभारत समान ग्रन्थ विलुप्त होने के कारण ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। सौभाग्य से हमें श्री राम व श्री कृष्ण जी, महर्षि दयानन्द आदि के सत्य इतिहास वाल्मीकि रामायण, महर्षि वेदव्यास कृत महाभारत व इतर ग्रन्थों से उपलब्ध होते हैं। अपनी विवेक बुद्धि से इन ग्रन्थों में मिथ्या प्रक्षेपों को छोड़कर हम इन महापुरूषों के सत्य इतिहास को जानकर इनके अनुसार आचरण कर व वैदिक ग्रन्थों के प्रमाणों के अनुसार कर्मकाण्ड व योगयुक्त जीवन व्यतीत कर अपने मानव जीवन को सफल सिद्ध कर सकते हैं। ऐसा करके ही हमारा जीवन श्रेष्ठ बनेगा व सफल होगा, देश भी संगठित सशक्त हो सकता है और विश्व का कल्याण भी इससे हो सकता है।

 

ईश्वर ईश्वर है जिसका कभी जन्म वा अवतार नहीं होता। जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु और पुनर्जन्म अवश्य होता है और वह मनुष्य वा जीवात्मा ही होता है। श्री राम व श्री कृष्ण सहित महर्षि दयानन्द हमारे आदर्श महापुरूष हैं। वैदिक शिक्षाओं सहित इन महापुरूषों के जीवनों की सत्य शिक्षाओं का आचरण व अनुकरण कर ही हम अपने जीवन को सही अर्थों में उन्नत व सफल कर सकते हैं। सत्य का आचरण व मिथ्या का त्याग ही मनुष्य जीवन की उन्नति का कारण हुआ करता है, इसके विपरीत आचरण मनुष्य की इस जन्म व परजन्म में अवनति ही करता है, यह सुनश्चित वैदिक सिद्धान्त है। हम आशा करते हैं कि इस लेख से पाठकों पर ईश्वर व महापुरूषों वा महान आत्माओं का भेद स्पष्ट हो सकेगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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आज भोजन करना व्यर्थ रहा: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

आज भोजन करना व्यर्थ रहा: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु फरवरी 1972 ई0 में जब स्वामी श्री सत्यप्रकाशजी सरस्वती अबोहर पधारे तो कई आर्ययुवकों ने उनसे प्रार्थना की कि वे पण्डित गंगाप्रसादजी उपाध्याय के सज़्बन्ध में कोई संस्मरण सुनाएँ।

श्रद्धेय स्वामीजी ने कहा-‘‘किसी और के बारे में तो सुना सकता हूँ परन्तु उपाध्यायजी के बारे में किसी और से पूछें।’’

एक दिन सायंकाल स्वामीजी महाराज के साथ हम भ्रमण को निकले तब वैदिक साहित्य की चर्चा चल पड़ी। मैंने पूछा-‘उपाध्यायजी का शरीर जर्जर हो चुका था, फिर भी वृद्ध अवस्था में उन्होंने इतना अधिक साहित्य कैसे तैयार कर दिया? अपने जीवन के अन्तिम दिनों में उन्होंने कितने अनुपम व महज़्वपूर्ण ग्रन्थों का सृजन कर दिया।’’

तब उत्तर  में स्वामीजी ने कहा-‘‘उपाध्यायजी कहा करते थे,

जिस दिन मैंने ऋषि मिशन के लिए कुछ न लिखा उस दिन मैं  समझूँगा कि आज मेरा भोजन करना व्यर्थ गया। भोजन करना तभी सार्थक है यदि कुछ साहित्य सेवा करूँ।’’

आपने बताया कि वे (उपाध्यायजी) एक साथ कई-कई साहित्यिक योजनाएँ लेकर  कार्य करते थे। एक से मन ऊबा तो दूसरे कार्य में जुट जाते थे, परन्तु लगे रहते थे। इससे उनका मन भी लगा रहता था, उनको यह भी सन्तोष होता था कि किसी उपयोगी धर्म-कार्य में लगा हुआ हूँ। बस, यही रहस्य था उनकी महान्  साधना का।

इसपर किसी टिह्रश्वपणी की आवश्यकता नहीं। प्रत्येक सामाजिक कार्यकर्ता था साहित्यकार के लिए यह घटना बड़ी प्रेरणाप्रद है।

 

अरे यह कुली महात्मा: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

अरे यह कुली महात्मा: प्रा राजेंद्र  जिज्ञासु

बहुत पुरानी बात है। आर्यसमाज के विख्यात और शूरवीर

संन्यासी, शास्त्रार्थ महारथी स्वामी श्री रुद्रानन्दजी टोबाटेकसिंह

(पश्चिमी पंजाब) गये। टोबाटेकसिंह वही क्षेत्र है, जहाँ आर्यसमाज

के एक मूर्धन्य विद्वान् आचार्य भद्रसेनजी अजमेरवालों का जन्म

हुआ। स्टेशन से उतरते ही स्वामीजी ने अपने भारी सामान के लिए

कुली, कुली पुकारना आरज़्भ किया।

उनके पास बहुत सारी पुस्तकें थीं। पुराने आर्य विद्वान् पुस्तकों

का बोझा लेकर ही चला करते थे। ज़्या पता कहाँ शास्त्रार्थ करना

पड़ जाए।

टोबाटेकसिंह स्टेशन पर कोई कुली न था। कुली-कुली की

पुकार एक भाई ने सुनी। वह आर्य संन्यासी के पास आया और

कहा-‘‘चलिए महाराज! मैं आपका सामान उठाता हूँ।’’ ‘‘चलो

आर्यसमाज मन्दिर ले-चलो।’’ ऐसा स्वामी रुद्रानन्द जी ने कहा।

साधु इस कुली के साथ आर्य मन्दिर पहुँचा तो जो सज्जन वहाँ

थे, सबने जहाँ स्वामीजी को ‘नमस्ते’ की, वहाँ कुलीजी को ‘नमस्ते

महात्मा जी, नमस्ते महात्माजी’ कहने लगे। स्वामीजी यह देख कर

चकित हुए कि यह ज़्या हुआ! यह कौन महात्मा है जो मेरा सामान

उठाकर लाये।

पाठकवृन्द! यह कुली महात्मा आर्यजाति के प्रसिद्ध सेवक

महात्मा प्रभुआश्रितजी महाराज थे, जिन्हें स्वामी रुद्रानन्दजी ने प्रथम

बार ही वहाँ देखा। इनकी नम्रता व सेवाभाव से स्वामीजी पर

विशेष प्रभाव पड़ा।

 

अतिथि यज्ञ ऐसे किया : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

अतिथि यज्ञ ऐसे किया

श्री रमेश कुमार जी मल्होत्रा का श्री पं0 भगवद्दज़ जी के प्रति

विशेष भज़्तिभाव था। पण्डित जी जब चाहते इन्हें अपने घर पर

बुला लेते। एक दिन रमेश जी पण्डित जी का सन्देश पाकर उन्हें

मिलने गये।

उस दिन पण्डित जी की रसोई में अतिथि सत्कार के लिए

कुछ भी नहीं था। जब श्री रमेश जी चलने लगे तो पण्डित जी को

अपने भज़्त का अतिथि सत्कार न कर सकना बहुत चुभा। तब

आपने शूगर की दो चार गोलियाँ देते हुए कहा, आज यही स्वीकार

कीजिए। अतिथि यज्ञ के बिना मैं जाने नहीं दूँगा। पं0 भगवद्दत जी

ऐसे तपस्वी त्यागी धर्मनिष्ठ विद्वान् थे।

 

‘सत्याचरण से अमृतमय मोक्ष की प्राप्ति मनुष्य जीवन का लक्ष्य’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म

हमारी जीवात्माओं को मनुष्य जीवन ईश्वर की देन है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान होने के साथ सर्वज्ञ भी है। उससे दान में मिली मानव जीवन रूपी सर्वोत्तम वस्तु का सदुपयोग कर हम उसकी कृपा व सहाय को प्राप्त कर सकते हैं और इसके विपरीत मानव शरीर का सदुपयोग न करने के कारण हमें नियन्ता ईश्वर के दण्ड का भागी होना पड़ सकता है। इस शिक्षा को एक उदाहरण से इस प्रकार समझ सकते हैं कि हमने किसी भूखे व्यक्ति को देखा। उसके पास भूख दूर करने के साधन नहीं है। उसके प्रति हमारे अन्दर दया उत्पन्न हुई। हमने उसे कुछ धन दिया जिससे वह भोजन कर सके। यदि वह भोजन कर अच्छे काम करेगा तो हमें स्वाभाविक रूप से प्रसन्नता होगी और यदि वह उस धन से भोजन न कर उस धन से अन्य किसी निकृष्ट पदार्थ मदिरापान का सेवन व अभक्ष्य पदार्थ को खाता है तो हमें अपने कृत्य पर पछतावा होगा। हम इसके बाद उसकी सहायत नहीं करेंगे। ईश्वर ने भी जीवात्मा पर दया करके उसे दुर्लभ व सर्वोत्तम मानव शरीर दिया है। अतः हमें इसका सदुपयोग कर ईश्वर की अधिक से अधिक सहायता व कृपा को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हम ईश्वर की सुख, सम्पत्ति, आत्मोन्नति, अच्छा स्वास्थ्य, अच्छे ज्ञानी व महात्मा स्वभाव वाले विद्वानों व मित्रों की संगति आदि भावी कृपाओं से वंचित हो जायेंगे।

 

बृहदारण्यक उपनिषद के ऋषि ने जीवन निर्माण के स्वर्णिम सूत्र असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योर्तिगमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय।। दिये हैं। यह सूत्र उस प्रत्येक व्यक्ति के लिए उपयोगी व लाभदायक हैं जो जीवन को इसके वास्तविक लक्ष्य पर ले जाना वा पहुंचाना चाहते हैं। इसके लिए इसमें पहली शिक्षा यह दी गई है कि असतो मा सद्गमय अर्थात् मनुष्य जीवन को जीवात्मा में विद्यमान असत् को हटाकर सत्य मार्ग पर चलाना है। ऐसा इसलिये कहा गया है कि असत मार्ग अवनति वा दुःख की ओर ले जाता है और सत मार्ग उन्नति व सुख की ओर ले जाता है। संसार में कोई भी मनुष्य वा प्राणी दुःख नहीं चाहता। सभी कामना करते हैं कि मेरे सारे दुःख दूर हो जाये और सभी सुखों की उपलब्धि व प्राप्ति मुझे हो। इसका उपाय ही उपनिषद के ऋषि ने असतो मा सद्गमय कहकर बताया है। महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज का चैथा नियम इसके समान ही बनाया है। नियम है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। इसका प्रयोजन भी वही है जो कि असतो मा सद्गमय का है। इस नियम को विचार कर हमें लगता है कि इसे देश व विश्व का ध्येय वाक्य बना देना चाहिये। शिक्षा व विद्यालयों में हर स्तर पर इसका विवेचन व प्रचार हो और यह हमारे जीवन के लिए एक कसौटी का कार्य करे। हमें प्रतिदन विचार करना चाहिये कि हमारे जीवन में इस आदर्श का कितना भाग विद्यमान है। महर्षि दयानन्द सहित हमारे सभी ऋषि-मुनि व महापुरुष इसी मार्ग पर चले थे। उन्होंने इस वैदिक ज्ञानयुक्त मान्यता का अपने जीवनों में पूरा-पूरा पालन किया था और इसी से वह सब महान बने थे। आज मनुष्य जाति का जो पतन देखने को मिलता है उसमें कहीं न कहीं इस नियम की उपेक्षा ही दृष्टिगोचर होती दिखाई देती है। इस नियम के पालन न करने से ही प्राचीन काल में यज्ञों में पशुओं की हिंसा होती थी, इसी के कारण देश को मूर्तिपूजा, अवतारवाद की कल्पना, फलित ज्योतिष, वेदाध्ययन में प्रमाद, सामाजिक असमानता व विषमता, छोटे-बडे की भावना, बाल विवाह, मांसाहार, मदिरापान, धूम्रपान, असद् व्यवहार वा भ्रष्टाचार के रोग लगे। सन् 1863 से सन् 1883 तक महर्षि दयानन्द ने धार्मिक व सामाजिक इन अज्ञान, अविवेकपूर्ण व मिथ्या अन्धविश्वासों का खण्डन किया और सद्ज्ञान का प्रसार करने के लिए ईश्वर प्रदत्त सत्यज्ञान युक्त वेदों की मान्यताओं का देश व भूमण्डल में प्रचार किया। इसे जितने अंशों में देश समाज व विश्व ने अपनाया है उसी अनुपात में आज हम देश व समाज की उन्नति देख रहे हैं। उद्देश्य से अभी हम बहुत पीछे हैं। लगता है कि देश अब रूक गया है। लोग परा व आध्यात्म विद्या की उपेक्षा कर रहे हैं और केवल अपरा विद्या वा भौतिक ज्ञान में ही डूबकी लगा रहे हैं। अतः आध्यात्मिक विद्या की उन्नति द्वारा मनुष्य जीवन से असद् व्यवहार को हटाकर सद्व्यवहार को स्थापित करना ही ईश्वर को प्रसन्न करना व उससे सभी सात्विक सर्वोत्तम सम्पत्तियों को प्राप्त करने का मार्ग विदित होता है।

 

उपनिषद के ऋषि ने इसके बाद तमसो मा ज्योतिर्गमय कह कर यह भी सुस्पष्ट कर दिया कि जीवन में तम, अज्ञान व मिथ्याचरण नाम मात्र का भी नहीं होना चाहिये। यदि जीवन में तम रूपी अज्ञान व अन्धकार होगा तो वह सद्गमय के हमारे ध्येय में बाधक होगा। इसलिये तम के अज्ञान व अन्धकार को ज्ञान की ज्योति से दूर करने की शिक्षा उन्होंने दी है। यह तम व अज्ञान ऐसा है कि कई बार यह बडे-बड़े ज्ञानियों को भी लग जाता है। यह तम मनुष्यों में राग, द्वेष, काम, क्रोध व अहंकार आदि मिथ्या बातों के स्वभाव में आ जाने पर प्रविष्ट हो जाता है जिन पर विजय पाना कठिन होता है। आज देखा जाये तो साधारण मनुष्य से लेकर विद्वान तक प्रायः सभी इन तमों से ग्रसित हैं। इसके लिये वेदादि सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय व प्रातः सायं ईश्वरोपासना, योगाभ्यास, यज्ञाग्निहोत्रादि अनुष्ठान सहित सत्पुरुषों की संगति आवश्यक होती है। सन्ध्या में चिन्तन करते हुए भी यह देखना उचित होता है कि मेरे अन्तःकरण में ये मानसिक रोग व विकार हैं अथवा नहीं। यदि हों तो उन्हें विचार कर दूर करने का दृण संकल्प लेना चाहिये और प्रातः सायं उसकी विद्यमानता पर विचार कर उसको जीवन से दूर करने का प्रयत्न करना चाहिये। तम रहित ज्योतिर्मय जीवन ही सदगमय का प्रतीक सात्विक व पारमार्थिक जीवन होता है। सत्य का धारण और तम रूपी असत्य का निरन्तर त्याग ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है और इसको करके ही हम मनुष्य कहलाते हैं। हमें मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, योगेश्वर श्री कृष्ण और वेदभक्त महर्षि दयानन्द में सदाचार का धारण ही उनकी दिव्यता का कारण अनुभव होता है। उन्हीं का अनुकरण हमें भी करके उनके समान बनना है। यही इन महापुरुषों को मानने व उनके गुण-कीर्तन करने का प्रयोजन हेै।

 

सूत्र की तीसरी व अन्तिम शिक्षा है कि मृत्योर्मा अमृतं गमय अर्थात् मैं मृत्यु पर विजय प्राप्त करूं और अमृत अर्थात् जन्म-मरण से अवकाश प्राप्त कर मोक्ष की प्राप्ति करूं। यह अमृत वा मोक्ष ही मनुष्य जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य सम्पत्ति है। यही वास्तविक व सर्वोत्तम स्वर्ग, विष्णुलोक व 24×7 वा निरन्तर ईश्वर की उपलब्धता की स्थिति है जिसमें जीवात्मा ईश्वर में निहित अमृतमय आनन्द का भोग करते हुए ईश्वर के साथ ईश्वर प्रदत्त अनेक शक्तियों से विद्यमान रहता है। इसके विपरीत विद्वानो,ं धार्मिक गुरुओं वा प्रचारकों द्वारा स्वर्ग आदि की जो कल्पनायें की जाति है वह यथार्थ नहीं है। उपनिषद की इसी शिक्षा के समान यजुर्वेद के अध्याय 30 का तीसरा मन्त्र ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रन्तन्न आसुव।। भी है। इसका हम प्रतिदिन अर्थ सहित पाठ करते ही हैं जिसमें कहा गया है कि हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्त्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे समस्त दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको प्राप्त कीजिए।इस मन्त्र के अर्थ में जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको प्राप्त कीजिए।, इसमें   सभी प्रकार के सात्विक सांसारिक सुखों के साधनों व सम्पत्तियों सहित अमृतमय मोक्ष सुख भी सम्मिलित हैं।

 

हम आशा करते हैं कि पाठक इस लेख पर विचार कर उपनिषद वाक्य में वर्णित वैदिक शिक्षा को अपने जीवन में अपनायेंगे और महर्षि दयानन्द द्वारा जनसाधारण की भाषा में लिखित सत्यार्थ प्रकाश आदि अन्यान्य ग्रन्थों का अध्ययन वा स्वाध्याय कर अपने जीवन को मनुष्य जीवन के ध्येय सर्वोत्तम सुख मोक्ष की ओर अग्रसर करेंगे।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘महर्षि दयानन्द ने वेदों का प्रचार और खण्डन-मण्डन क्यों किया?’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महर्षि दयानन्द ने अपने वैदिक एवं यौगिक ज्ञान व तदनुरूप कार्यों से विश्व के धार्मिक व सामाजिक जगत में अपना सर्वोपरि स्थान बनाया है। उन्होंने सप्रमाण यह सिद्ध किया है कि ज्ञानविज्ञान का स्रोत ईश्वर वेद हैं। आर्यसमाज के दस नियमों में से उन्होंने पहला ही नियम बनाया कि सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है। यहां प्रयुक्त विद्या शब्द में ज्ञान विज्ञान दोनों सम्मिलित हैं। जिस मनुष्य को ईश्वर व वेदों का पूर्ण, स्पष्ट व निर्भ्रांत ज्ञान नहीं है वह अध्यात्म में पूर्णता=ईश्वर साक्षात्कार को प्राप्त नहीं कर सकता। ईश्वर का सत्य वा यथार्थ ज्ञान भी मुख्यतः वेदों व तदाधारित वैदिक साहित्य से ही होता है। वेद ही आध्यात्मिक व सामाजिक ज्ञान की प्रमाणिकता की प्रमुख कसौटी है। यही कारण है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक वेदों के आश्रय से ही कर्तव्य व अन्य शास्त्रों की रचना हमारे निर्भ्रांत ज्ञानी ऋषियों ने की और उन्हीं का प्रचार प्राचीन काल में समूचे विश्व में रहा है। वैदिक विचारधारा ने ही भारत को अतीत में अगणित ऋषियों सहित महाराजा हरिश्चन्द्र, अयोध्या के राजा राम और महाभारत के योगेश्वर श्री कृष्ण सदृश महात्मा व महापुरुष दिये थे। वैदिक धर्म व संस्कृति रूपी ज्ञान की निर्मल व पवित्र धारा वेदों के आविर्भाव से ही सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुई जो कि वैदिक काल गणना के अनुसार लगभग 1.96 अरब वर्षों वा महाभारत काल तक चली और आज भी यह विचारधारा सर्वाधिक प्रभावशाली होने के कारण गौरव के साथ देश में विद्यमान है।

 

विगत पांच हजार वर्षों में भारत में धार्मिक, सामाजिक व राजनैतिक दृष्टि से अनेक उतार चढ़ाव आये हैं। महाभारत के महाविनाशकारी युद्ध के कारण देश भर में राजनैतिक, सामाजिक व शैक्षिक व्यवस्था ढीली वा भंग हो गई थी। इस कारण दिन प्रतिदिन ज्ञान व विज्ञान घटने लगा व आलस्य व प्रमाद वृद्धि को प्राप्त होता गया। इस कारण समाज में अन्धविश्वासों की सृष्टि हुई। यज्ञ व अग्निहोत्र जिसको ‘‘अध्वर इस कारण कहते हैं कि यह पूर्ण अंहिसक होता है, इसमें अज्ञानता व स्वार्थवश पशुओं की हत्याकर इनके मांस से आहुतियां दी जाने लगी। अश्वमेध यज्ञ जो राष्ट्र रक्षा के पर्याय कार्यों का यज्ञ होता था, उसमें घोड़े की हत्या कर उसके मांस से आहुतियां दी जाने लगी थी। इसी प्रकार अजामेध व गोमेध का भी हश्र हुआ। आश्चर्य होता है कि उस समय क्या भारत भूमि के एक भी ऐसा विद्वान नहीं रहा था जो इन दुष्कार्यों का विरोध करता? यह अत्याचार व अनाचार बढ़ता गया। अन्य अन्धविश्वास भी उत्पन्न होने लगे। क्योंकि यह सब हमारे वेद के यथार्थ अर्थों व अभिप्रायों को भूले हुए पण्डितों द्वारा किये जाते थे। इस कारण किसी मनुष्य में इसका विरोध करने का साहस नहीं होता था। गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर वैदिक काल में स्थापित और सुचारू रूप से कार्यरत वर्णव्यवस्था का स्थान जन्मना जाति व्यवस्था ने ले लिया जिससे दलित जातियों पर अत्याचार होने लगे। वैदिक काल में सभी स्त्रियों व शूद्रों को अन्यान्य विषयों के अध्ययन सहित वेदों के अध्ययन का भी अधिकार प्राप्त था जिसे मध्यकाल के पण्डितों ने समाप्त कर दिया। महर्षि दयानन्द (1825-1883) के समय में ऐसा भी एक समय आया कि जब वेदों के यथार्थ ज्ञान को जानने व समझने वाला एक भी विद्वान भारत में नहीं रहा। सारा समाज व देश अज्ञान व अन्धकार में डूब गया। इससे वैदिक धर्मी व अन्य मनुष्य जाति की हानि व पतन तो होना ही था, जो भरपूर हुआ, और इस कारण हम पहले यवनों के और बाद में अंग्रेजों के गुलाम बन गये। महर्षि दयानन्द के समय में ऐसी स्थिति आ गई थी कि गुलामी से निकलने का कोई रास्ता किसी देशवासी व महापुरुष को नजर नहीं आता था। अनेक अग्रणीय पुरूष तो अंग्रेजों कि मत व उनकी गुलामी के प्रशंसक भी देश में हुए हैं। ऐसे संक्रमण काल में यदि किसी ने देश समाज के धार्मिक सामाजिक रोगों का उपाय ढूंढा उससे समाज को रोग मुक्त करने का प्राणपण से प्रयास किया तो उस महान पुरूष का नाम है स्वामी दयानन्द सरस्वती।

 

स्वामी दयानन्द ने देश भर में भ्रमण कर विद्वानों की खोज की और उनसे जो ज्ञान प्राप्त हो सकता था, प्राप्त करते रहे। उन्होंने अनेक योगियों से योग की अनेक क्रियाओं व रहस्यों को जाना व उनका अभ्यास किया। इस क्रम में वह एक सफल योगी बन गये और योग के चरम लक्ष्य ईश्वर साक्षात्कार को भी प्राप्त किया। अभी उनकी विद्या की तृप्ति होनी शेष थी। सौभाग्य से उन्हें मथुरा में एक प्रज्ञाचक्षु दण्डी गुरु स्वामी विरजानन्द जी पता मिला। वह सन् 1860 में वहां पहुंचे और उनसे 3 वर्षों तक संस्कृत के आर्ष व्याकरण सहित वैदिक साहित्य का अध्ययन किया। उन्होंने अपने इन गुरुजी से सत्य व असत्य के ज्ञान की कसौटी प्राप्त की। इसी कसौटी से उन्होंने वैदिक शास्त्रों व अन्य मतों के ग्रन्थों के सत्यासत्य की भी परीक्षा व अनुसंधान किया। गुरु विरजानन्द जी के सान्निध्य में तीन वर्ष रहकर अध्ययन पूरा हुआ और गुरु दक्षिणा का समय आया। स्वामीजी ने अपने गुरु विरजानन्द जी को उनके प्रिय लौंग दक्षिणा में दिये। गुरुजी ने उनकी दक्षिणा को ससम्मान स्वीकार किया परन्तु अपने मन की पीड़ा को भी उन्होंने स्वामी दयानन्द जी पर प्रकट किया। उन्होंने देश की दयनीय अवस्था का वर्णन करने के साथ देश में फैले अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, रूढि़वाद, सामाजिक असमानता व विषमता, फलित ज्योतिष व अवतारवाद आदि की चर्चा की और बताया कि वह नेत्रहीन होने के कारण वेद प्रचार द्वारा धार्मिक सुधार, समाज सुधार व देशोन्नति के कार्य नहीं कर सके। उन्होंने स्वामी दयानन्द को इन कार्यों को करने की प्रेरणा करते हुए अपनी इच्छा व्यक्त की। यह इच्छा प्रेरणा भी थी और देशोन्नति के लिए एक पवित्र आदेश भी था। स्वामी दयानन्द ने गुरुजी के इस प्रस्ताव पर कुछ क्षण मौन रहकर विचार किया और गुरुजी को उनकी आज्ञानुसार कार्य करने का आश्वासन दिया। गुरुजी जी प्रसन्नता से भरकर साश्रु हो गये और उन्होंने अपने शिष्य को सफल मनोरथ होने का आशीर्वाद दिया। यही स्वामी दयानन्द जी के वेद प्रचार, धर्म सुधार प्रचार, समाज सुधार, देशोन्नति सहित असत्य पाखण्ड के खण्डन तथा सत्य के मण्डन की भूमिका है।

 

स्वामीजी ने अपने गुरु से विदा ली और असत्य व पाखण्डों का खण्डन और वैदिक सत्य मान्यताओं का मण्डन आरम्भ कर दिया। देश की सर्वाधिक हानि अवतारवाद की कल्पना, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, यज्ञ व अग्निहोत्र में विकार, ईश्वरोपासना का सत्यस्वरुप भूलने, सामाजिक असमानता व विषमता सहित स्त्रियों व शूद्रों के वेदाधिकार छीन लेने से हुई थी। कार्यक्षेत्र में उतर कर उन्होंने इन प्रचलित सभी मान्यताओं को धर्म के आदि स्रोत व परम प्रमाण ग्रन्थों वेद के विरुद्ध घोषित किया और विरोधियों को वेदों से सिद्ध करने की चुनौती दी। उन्होंने ने इन सभी विषयों के ज्ञान-विज्ञान युक्त वैदिक समाधान भी प्रस्तुत किये। काशी में 16 नवम्बर सन् 1869 को  मूर्तिपूजा पर काशी व देश के शीर्ष 30 पण्डितों के साथ काशी नरेश की मध्यस्था में उन्होंने शास्त्रार्थ किया और विजयी हुए। अनेक पौराणिक विषयों व मिथ्या विश्वासों पर देश के अनेक स्थानों पर आपने शास्त्रार्थ कर वैदिक मत व मान्यताओं को सत्य व प्रमाणित सिद्ध किया। ईसाई मत व इस्लाम के विद्वानों से भी आपके शास्त्रार्थ व चर्चायें हुईं जिसमें आपने वैदिक मत को युक्ति व तर्क के आधार पर सत्य सिद्ध किया। सभी मतों के विद्वानों ने आपकी विद्वता का लोहा माना परन्तु अपने अज्ञान व स्वार्थों के कारण वह वैदिक मत को स्वीकार नहीं कर सके जिसके प्रमुख कारणों में से एक उनकी आजीविका थी। आज भी न्यूनाधिक यही स्थिति है।

 

वेद सभी सत्य विद्याओं से युक्त धार्मिक ग्रन्थ है जो धर्म की दृष्टि से परम प्रमाण है। आज भी वेद पूरी तरह से प्रासंगिक एवं मनुष्य जाति के सभी प्रकार के भेदभाव मिटाकर उन्हें संगठित कर सबकी समान उन्नति करने में सक्षम व समर्थ हैं। वेदों की इसी विशेषता के कारण महर्षि दयानन्द ने वेदों को अपनाया था और मानवमात्र के हित व कल्याण की दृष्टि से उनका प्रचार किया और वैदिक मान्यताओं के विपरीत मत-मतान्तरों की अज्ञान व पाखण्ड मूलक बातों का खण्डन किया। खण्डन का कार्य कुछ ऐसा था जैसा कि दूषित स्थान पर झाडूं लगाकर उसे स्वच्छ बनाना अथवा किसी शल्य चिकित्सक द्वारा किसी रोगी के किसी वृहत शारीरिक विकार की शल्य क्रिया कर उसे स्वस्थ करना। इस कार्य में स्वामी जी का न तो अपना कोई निजी प्रयोजन था और न वेदों की भारतीय विचारधारा के प्रति पक्षपात। उन्होंने भारत में उपलब्ध सभी मतों के ग्रन्थों व उनकी मान्यताओं को अपनी ज्ञान की तराजू पर तोल कर सत्य सिद्ध होने पर ही अपनाया था। सत्य व असत्य के मन्थन से उन्हें जो अमृत प्राप्त हुआ था, उसे उन्होंने स्वयं इकिनक प्रयोग में न लेकर समस्त विश्व को उसका सहभागी बनाया था। अज्ञान व स्वार्थों में फंसा विश्व उनकी मानवहितकारी भावनाओं को समझ नहीं सका और उन्हें अनेकानेक प्रकार से पीडि़त करता रहा जिसकी अन्तिम परिणति विष देकर उनके प्राणहरण करके की गई। महर्षि दयानन्द ने जो कार्य किया उससे सारा संसार लाभान्वित हुआ है। बहुत से लोग जान कर भी उससे लाभ नहीं उठाना चाहते और अपने स्वार्थों में लगे हुए हैं।

 

आज यह भी देखा जाता है कि लोग धर्म विषयक सत्य वा असत्य को जानना ही नहीं चाहते। इसका एक कारण विज्ञान द्वारा सुख सुविधाओं में वृद्धि की चकाचैंध है जिससे आकृष्ट व विमोहित होकर सब उसमें फंस गये हैं और मतों के मताचार्य हैं जो सत्य का अनुसंधान व प्रचार नहीं करते। इन कार्यों ने मनुष्य का विवेक नष्ट कर दिया है। किसी को इस बात को जानने की चिन्ता ही नहीं है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य लक्ष्य क्या है? इन प्रश्नों का युक्ति तर्क प्रमाण सहित उत्तर वेदों वैदिक साहित्य में ही मिलता है। महर्षि दयानन्द का यह संसार के लोगों के लिए अनुपम उपहार है। जिस व जिन मनुष्यों को अपना भविष्य सुधारना व संवारना हो, वह वैदिक धर्म के सुख व शान्ति प्रदान करने वाले वटवृक्ष की शीतल छांव में आ सकता है। निष्पक्ष दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि महर्षि दयानन्द ने वेद प्रचार, पाखण्ड खण्डन व सत्य के मण्डन का जो कार्य किया है वह मानव जाति के कल्याण की दृष्टि से अपूर्व था। इसके लिए वह इतिहास में चिरकाल तक अमर रहेंगे। असत्य का खण्डन व सत्य का मण्डन मानव जाति की उन्नति के अनिवार्य होने के कारण मानव धर्म है। महर्षि दयानन्द ने इस कर्तव्य को ही अपने जीवन का उद्देश्य बनाया और संसार का अपूर्व उपकार किया। महर्षि दयानन्द को उनके कल्याणकारी कार्यों के लिए हमारा नमन।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘ईश्वर से क्या व कैसी प्रार्थना करें?’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

प्रार्थना अपने से अधिक सामथ्र्य व क्षमतावान सत्ता से किसी आवश्यक व उपयोगी वस्तु को मांगने व याचना करने को कहते हैं।  मनुष्य शिशु के रूप में माता-पिता से इस पृथिवी पर जन्म लेता है। उसे अपने शरीर का समुचित विकास और ज्ञान व बुद्धि सहित सत्कर्मों की प्रेरणा की अपेक्षा रहती है जिससे वह अपने उद्देश्य, लक्ष्य व उनकी प्राप्ति के उपायों को जान सके। इस कार्य में उसके माता-पिता व आचार्य सहित ऋषि महर्षियों के पूर्ण विद्या व अज्ञान से रहित ग्रन्थ सहायक होते हैं। हमारे माता-पिता, आचार्य व सभी ऋषि-मुनि भी वेदों वा ईश्वर से ही ज्ञान प्राप्त करते थे। ईश्वर एक सत्य, चित्त, आनन्दस्वरुप, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सृष्टि की रचना, पालन व लय करने वाली सत्ता है जो हमारे इस जीवन व अनेकानेक पूर्व जीवनों से पूर्व से ही हमारे साथ है और हर पल व हर क्षण हमारे साथ रहती है व रहेगी। अतः हमें प्रातः व सायं उसकी संगति वा उपासना कर उसकी स्तुति व प्रार्थना करनी चाहिये जिससे हमें सभी श्रेष्ठ पदार्थों की प्राप्ति सुगमता से हो सके। महर्षि दयानन्द सच्चे व सिद्ध योगी थे और वेदों के मर्मज्ञ व अपूर्व विद्वान थे। उनके अनेक ग्रन्थों का मार्गदर्शन हमें प्राप्त है जिससे हम अपने जीवन को सुखी व सफल बना सकते हैं। ईश्वर से प्रार्थना करने से मनुष्य का अहंकार दूर होकर निरभिमानता उत्पन्न होती है और प्रार्थना के अनुरुप ईश्वर से पदार्थों की प्राप्ति होती है। हमें केवल अपनी सभी इन्द्रियों को वश व नियन्त्रण में रखते हुए अपने अन्तःकरण को स्वच्छ व पवित्र रखना है। यही ईश्वर को प्रसन्न व उससे प्राप्त हो सकने वाले पदार्थों की प्राप्ति के लिए आवश्यक पात्रता है। आज इस लेख में महर्षि दयानन्द द्वारा ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना विषयक वेद मन्त्रों के आधार पर की गई कुछ प्रार्थनायें प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें भी नित्य प्रति इसी प्रकार की व ऐसी ही प्रार्थनायें सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापक परमात्मा से करनी चाहिये।

 

प्रार्थना आरम्भ करने से पूर्व उपासक को अपने शरीर की शुद्धि कर अपने मन को सांसारिक बातों से हटाकर सुखासन आदि किसी एक आसन में बैठकर एकाग्र चित्त होकर ईश्वर का ध्यान करते हुए मौन रहकर अपने मन से इन व इस प्रकार की प्रार्थनाओं को करना चाहिये। पहले यह मन्त्रपाठ करें, ओ३म् सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीय्र्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।। ओ३म्  शान्तिः शान्तिः शान्तिः।। हे सर्वशक्तिमान् ईश्वर ! आपकी कृपा, रक्षा और सहाय से हम लोग परस्पर एक-दूसरे की रक्षा करें, हम सब लोग परमप्रीति से मिलके सबसे उत्तम ऐश्वर्य अर्थात् चक्रवर्तिराज्य आदि सामग्री व आपके अनुग्रह से आनन्द को सदा भोगें। हे कृपानिधे ! आपके सहाय से हम लोग एक-दूसरे के सामथ्र्य को अपने-अपने पुरुषार्थ से सदा बढ़ाते रहें, और हे प्रकाशमय सब विद्या के देने वाले परमेश्वर ! आपके सामथ्र्य से ही हम लोगों का पढ़ा और पढ़ाया सब संसार में प्रकाश को प्राप्त हो और हमारी विद्या सदा वृद्धि को प्राप्त होती रहे। हे प्रीति के उत्पादक ! आप ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे हम लोग परस्पर विरोध कभी न करें, किन्तु एक-दसरे के मित्र होके सदा वर्तें। हे भगवन्! आपकी करुणा से हम लोगों के तीन ताप-एक आध्यात्मिक जो कि ज्वरादि रोगों से शरीर में पीड़ा होती है, दूसरा आधिभौतिक जो दूसरे प्राणियों से कष्ट व पीड़ा होती है, और तीसरी आधिदैविक जो कि मन और इन्द्रियों के विकार, अशुद्धि और चंचलता से क्लेश होता है, इन तीनों तापों को आप शान्त अर्थात् निवारण कर दीजिये जिससे हम वेदों का ज्ञान प्राप्त कर तदनुकूल आचरण करते हुए अपना व अन्य सभी मनुष्यों का उपकार कर सकें। यही हम आपसे चाहते हैं सो कृपा करके हम लोगों की सब दिनों में सहायता कीजिये।

 

प्रार्थना के लिए यजुर्वेद का 30/3 मन्त्र ओ३म् विश्वानिदेव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रं तन्न आसुव।। भी एक श्रेष्ठ मन्त्र है। इससे इस प्रकार प्रार्थना करें कि हे सत्यस्वरुप ! हे विज्ञानमय ! हे सदानन्दस्वरुप ! हे अनन्तसामर्थ्ययुक्त ! हे परमकृपालो ! हे अनन्तविद्यामय ! हे विज्ञानविद्याप्रद ! हे परमेश्वर ! आप सूर्यादि सब जगत् का और विद्या का प्रकाश करने वाले हैं तथा सब आनन्दों के देने वाले हैं, हे सर्वजगदुत्पादक सर्वशक्तिमन् ! आप सब जगत् को उत्पन्न करने वाले हैं, हमारे सब जो दुःख हैं उनको और हमारे सब दुष्ट गुणों को कृपा से आप दूर कर दीजिये, अर्थात् हमसे उनको और हमको उनसे सदा दूर रखिये, और जो सब दुःखों से रहित कल्याण है, जो कि सब सुखों से युक्त भोग है, उसको हमारे लिए सब दिनों में प्राप्त कीजिये। सो सुख दो प्रकार का है–एक जो सत्य विद्याओं की प्राप्ति में अभ्युदय अर्थात् चक्रवर्ति राज्य, इष्ट मित्र, धन, पुत्र, स्त्री और शरीर से अत्यन्त उत्तम सुख का होना, और दूसरा जो निःश्रेयस् सुख है कि जिसको मोक्ष कहते हैं ओर जिसमें ये दोनों सुख होते हैं उसी को भद्र कहते हैं। उस सुख को आप हमारे लिये सब प्रकार से प्राप्त कीजिए।  हे  परमेश्वर ! आपकी कृपा व सहाय से सब विघ्न हमसे दूर रहें कि जिससे कि वेदाध्ययन व वेदाचरण का हमारा व्रत सुख से पूरा हो। इससे हमारे शरीर मे आरोग्य, बुद्धि, सज्जनों का सहाय, चतुरता और सत्यविद्या का प्रकाश सदा बढ़ता रहे। इस भद्रस्वरूप सुख को आप अपनी सामथ्र्य से ही हमको दीजिये, जिस आपकी कृपा के सामर्थ्य से हम लोग सत्य विद्या से युक्त जो आपके बनाये वेद हैं उनके यथार्थ अर्थ से युक्त भाष्य को सुख से विधान करें कि जिसके प्रचार व मनुष्यों द्वारा आचरण से मनुष्यमात्र लाभान्वित हो।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में उर्युक्त मन्त्रों सहित अन्य अनेक महत्वपूर्ण मन्त्रों को भी प्रस्तुत कर उनके संस्कृत व हिन्दी में भावार्थ दिये हैं। कुछ अन्य मन्त्रों के भावार्थ इस प्रकार हैं। जो परमेश्वर एक भूतकाल जो व्यतीत हो गया है, दूसरा जो वर्तमान है और तीसरा जो होने वाला भविष्यत् कहलाता है, इन तीनों कालों के बीच में जो कुछ होता है उन सब व्यवहारों को वह ईश्वर यथावत् जानता है। जो सब जगत् को अपने विज्ञान से ही जानता, सब जगत् व पदार्थों की रचना, पालन, लय करता और संसार के सब पदार्थों का अधिष्ठाता अर्थात् स्वामी है, जिस का सुखरूप ही केवल स्वरूप है, जो कि मोक्ष और व्यवहार व सुख का भी देने वाला है, सबसे बड़ा सब सामथ्र्य से युक्त ब्रह्म जो परमात्मा है उसको अत्यन्त प्रेम से हमारा नमस्कार हो। ईश्वर कि जो सब कालों के ऊपर विराजमान है, जिसको लेशमात्र भी दुःख नहीं होता, उस आनन्दघन परमेश्वर को हमारा नमस्कार प्राप्त हो। जिस परमेश्वर ने अपनी सृष्टि में पृथिवी को पादस्थानी रचा है, अन्तरिक्ष जो पृथिवी और सूर्य के बीच में आकाश है सो जिसने उदरस्थानी किया है और जिसने अपनी सृष्टि से दिव अर्थात् प्रकाश करने वाले सूर्य आदि पदार्थो को सबके ऊपर मस्तकस्थानी किया है अर्थात् जो पृथिवी से लेके सूर्यलोकपर्यन्त सब जगत् को रच के उसमें व्यापक होके, जगत् के सब अवयवों में पूर्ण होके सबको धारण कर रहा है, उस परब्रह्म को हमारा अत्यन्त नमस्कार हो।

 

हे जगदीश्वर ! आपने नेत्रस्थानी सूर्य और चन्द्रमा को रचा है तथा कल्प-कल्प के आदि में आप ही सूर्य और चन्द्रमादि पदार्थों को वारम्वार नये-नये रचते हैं। आपने ही मुखस्थानी अग्नि को उत्पन्न किया है। आपको हम लोगों का नमस्कार हो। हे सृष्टिकर्ता परमेश्वर ! आपने ब्रह्माण्ड के वायु को प्राण और अपान के समान किया है तथा जो प्रकाश करने वाली किरण है उसे चक्षु के समान रची हैं अर्थात् सूर्य के प्रकाश से ही रूप का ग्रहण होता है। दश दिशाओं को जिसने सब व्यवहारों को सिद्ध करने वाली बनाई हैं, ऐसा जो अनन्तविद्यायुक्त परमात्मा सब मनुष्यों का इष्टदेव है, उस को निरन्तर हमारा नमस्कार हो।

 

उपर्युक्त लेख में हमने महर्षि दयानन्द के द्वारा उनके ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ से ईश्वर से की जाने वाली श्रेष्ठ प्रार्थनाओं की एक झलक प्रस्तुत की है। वैदिक सन्ध्या वा पंचमहायज्ञविध, आर्याभिविनय, संस्कार विधि, सत्यार्थप्रकाश, वेदभाष्य आदि उनके अन्य ग्रन्थों में भी इसी प्रकार के उत्तमोत्तम विचार मिलते हैं। विश्व के धार्मिक व सामाजिक साहित्य में इस प्रकार की प्रार्थनायें उपलब्ध नहीं होती। अतः जीवन का कल्याण चाहने वाले सभी मनुष्यों को महर्षि दयानन्द व वेद की शरण में आकर वेदाध्ययन आदि के द्वारा सत्य वैदिक रीति से सन्ध्योपासना, अग्निहोत्र आदि के द्वारा प्रार्थनायें करके सभी अभिलषित पदार्थों की प्राप्ति करनी चाहिये। ईश्वर व जीवात्मा की सत्तायें सत्य है जो वेद के प्रमाणों सहित तर्क व युक्ति से भी सिद्ध है। ईश्वर सर्वऐश्वर्यसम्पन्न व इसका स्वामी है, वह सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापक है तथा जीवों को कर्मानुसार सुख व दुःख तथा पदार्थों को प्राप्त कराता है, अतः ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखकर समर्पित होकर ईश्वर का ध्यान, चिन्तन व प्रार्थना कर अपने सभी उचित मनोरथ सिद्ध करने चाहिये। हम आशा करते हैं कि पाठक ईश्वर से उपुर्यक्त प्रार्थनाओं को करके लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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