अब ब्राह्मणादि वर्णों की व्यवस्था कैसे माननी चाहिये, इसका विचार किया जाता है। क्या ब्राह्मणादि वर्ण विद्यादिसम्बन्धी गुणकर्मों के विभागमात्र से मानने चाहियें कि जिसमें विद्यादि उत्तम गुण-कर्म-स्वभाव हों वही ब्राह्मण है अथवा जन्म से ही माने जावें कि जो-जो ब्राह्मणादि के कुल में उत्पन्न हो वह-वह ब्राह्मणादि माना जावे। इस विषय में मानवधर्मशास्त्र का क्या सिद्धान्त है, सो दिखाते हैं। विद्यादि गुणकर्म और जन्म दोनों से ब्राह्मणादि का पूरा-पूरा ब्राह्मणादिपन सिद्ध होता है। जैसे गुणकर्मों से ब्राह्मणादि की परीक्षा हो सकना मानकर यह कहा गया कि- ‘जैसे काठ का हाथी और केवल चाम में भूसा भरकर बनाया हरिण, हाथी और हरिण का काम न दे सकने से व्यर्थ वा नाममात्र है वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण ये तीनों हाथी, हरिण और ब्राह्मण नाम धरानेमात्र हैं किन्तु वास्तव में नहीं। तथा जो द्विज वेद को न पढ़कर अन्यत्र ही श्रम करता है अर्थात् अन्य ग्रन्थों को ही पढ़ता रहता है वह अपनी वर्त्तमान दशा में ही अपने कुटुम्ब- बाल-बच्चों सहित शूद्र हो जाता है।’१ यह मनु का आशय है। तथा- ‘मनुष्य को अपना आचरण बड़े उद्योग से ठीक रखना चाहिये और धन तो आता-जाता बना रहता है, इसलिये धन से निर्बल मनुष्य निर्बल नहीं किन्तु जिसके आचरण बिगड़े हैं वह वास्तव में बिगड़ा जानो। सत्य, दान, क्षमा, शुद्धि, अहिंसा, तप और दया ये धर्म के लक्षण जिसमें विद्यमान हों वह ब्राह्मण है।’२ यह महाभारत का लेख है। तथा जन्म से भी ब्राह्मणादि का होना मानकर बीज और खेत के प्रधान वा अप्रधान पक्ष का व्याख्यान किया है तथा- ‘शर्मशब्द युक्त ब्राह्मण का और रक्षायुक्त क्षत्रिय का नाम रखे।’३ यह भी नामकरणसंस्कार के अवसर पर कथन करना जन्म से ब्राह्मणादिपन होने में ही बन सकता है। सो यह सूक्ष्म और विशेष विचार करने से ज्ञात हो सकता है कि शरीरों के बीच में ब्राह्मणादिपन क्या वस्तु है ? इसमें मुख्य सिद्धान्त यही है कि अन्तःकरण के साथ वा चेतना धातु के साथ सम्बन्ध रखने वाले ऐसे कई गुण हैं, जिनके होने से उस-उस व्यक्ति को ब्राह्मणादि कहना बन सकता है। वे गुण प्रकृति-पुरुष के संयोग वाले जड़-चेतन शरीर के साथ ही रहते अर्थात् गर्भावस्था से ही उनमें होते हैं। बाल्यावस्था में उनके आविर्भाव प्रकटता का समय नहीं होता। इस कारण दबे रहते हैं परन्तु अधिक विचारशील लोग बाल्यावस्था में भी परीक्षा कर सकते हैं कि यह आगे ऐसा होगा। इसी विचार के अनुसार व्याकरण महाभाष्यकार ने भी कहा है कि- ‘विद्या, तप और योनि अर्थात् उत्पत्ति का कारण ये तीनों ब्राह्मण के चिह्न हैं अर्थात् इन तीनों के ठीक वा उत्तम होने से ब्राह्मण हो सकता है। जो विद्या और तप नाम अपने अध्यापनादि धर्मशास्त्रोक्त छह कर्मों से रहित है वह केवल जातिब्राह्मण है अर्थात् ब्राह्मण का वीर्य होने से ब्राह्मण कहाता है।’१ इसी जातिब्राह्मण पदवाच्य को मनु जी ने ब्राह्मणब्रुव२ शब्द से कहा है और जैसे काठ का हाथी वैसा ही गुणकर्म रहित ब्राह्मण है, इससे निष्फल दिखाया है।३ और मुख्य बात यही है कि जिस-जिस गुण के होने से वह-वह शब्द उस-उस वस्तु का वाचक ठहराया गया है। उस-उस गुण के विद्यमान रहने से ही वह-वह शब्द उस-उस वाच्य वस्तु का वाचक हो सकता है। जैसे गन्ध वाली पृथिवी रूप और दाहगुण वाला अग्नि है, यह माना जाता है। परन्तु गन्ध और रूप वा दाह गुणों के बिना पृथिवीपन वा अग्नि का होना नहीं कह सकते, क्योंकि रूप देखने और स्पर्श में दाह होने से जानते हैं कि यह अग्नि है। इसी आशय को लेकर महाभाष्यकार ने भी लिखा है कि- ‘द्रव्य में जिस गुण के विद्यमान होने से उस-उस शब्द को वाचक नियत किया जाता है उसी गुण की प्रधानता कहने के लिये व्याकरण में त्व, तल् प्रत्यय होते हैं।’४ इसी प्रकार ब्राह्मणादिपदवाच्यों में उस-उस ब्राह्मणादिपन गुण के होने पर ही ब्राह्मणादि शब्द उन-उन व्यक्तियों के वाचक होने चाहियें। जैसे लोक में भी रूप और दाहगुणों से रहित किसी वस्तु को कोई अग्नि नहीं कहता वा न जानता-मानता है। इसी प्रकार शास्त्र की मर्यादा के अनुसार जिन-जिन गुणों के होने से ब्राह्मणादिवर्ण कहे वा माने-जाने चाहियें उनके न होने पर उन-उन को ब्राह्मणादि कहना वा मानना अनुचित है। परन्तु लोक में ऐसा नहीं होता किन्तु गुणहीनों को भी ब्राह्मणादि कहते, मानते हैं। सो यह शब्द की मर्यादा वा विद्वानों की शैली से विरुद्ध है। इस पूर्वोक्त कथन से गुण को छोड़कर द्रव्य क्या वस्तु है यह भी नहीं कह सकते, क्योंकि गुण ही प्रत्यक्ष होता और गुण से ही द्रव्य के स्वरूप का निश्चय करते हैं। तो भी यह नहीं कह सकते कि द्रव्य कुछ नहीं, किन्तु द्रव्य कुछ है कि जो गुण के बदल जाने से वा न रहने पर भी पूर्व के तुल्य बना रहता है। इसी के अनुसार गुण का लक्षण व्याकरण महाभाष्य में ऐसा लिखा है कि- ‘अन्य किसी वस्तु को छोड़कर अन्य को प्राप्त होता और वही गुण द्रव्यान्तरों में भी दीखता है और तीनों लिगें का वाचक होता ऐसा गुण द्रव्य से भिन्न है।’१ यौवन अवस्था में जिन गुणों का प्रादुर्भाव होता है वे वृद्धावस्था में नहीं रहते तो भी वही युवावस्था के गुणों वाला जीवात्मा पूर्व बीती बातों का स्मरण करता है। यहां भी ज्ञान, बुद्धि और स्मृति आदि गुण आत्मा, ज्ञाता और द्रव्यरूप है। सो वह आत्मा ज्ञानादि गुणों के विपरीत होने पर भी यथावस्थित रहता है, यही द्रव्य-गुण का भेद है। गुण भी कोई नित्य और कोई नैमित्तिक होते हैं। नैमित्तिक गुण समय-समय पर देश-काल-वस्तु भेद से अपने-अपने प्रकाशक वा नाशक कारणों से उत्पन्न वा नष्ट होते रहते हैं, तथा नित्य गुण भी समय-समय पर अपने अनुकूल वा विरुद्ध सामग्री के संयोग से प्रबलता वा निर्बलता को प्राप्त हुए उछलते-दबते रहते हैं। शरीरादि में रहने वाले नैमित्तिकगुण नित्य के आहार-विहार से बदलते रहते हैं, परन्तु नित्यगुण कारण से ही कार्य में आते हैं और जो गुण कार्य कारण दोनों में रहते हैं अर्थात् कारण से कार्य में अन्वित होते हैं, वे ही नित्य हैं जैसे कठिनाई मट्टी और घड़ा दोनों में रहती है। इसी प्रकार यहां भी बहुत गुण होते हैं जो कारण से कार्य में आते हैं। जैसे सब प्राणियों के शरीर में सत्त्व, रजस् और तमोरूप सब गुण देश-काल-वस्तु भेद से न्यूनाधिकता को प्राप्त हुए सदा ही ठहरते हैं। वे ही गुण ब्राह्मणादिवर्ण के सूचक हैं क्योंकि गुणों का होना ही ब्राह्मणादिपन जताता है। अर्थात् जिन गुणों से ब्राह्मणादिवर्णों का विभाग बनता है वे सत्त्वादि कारण से कार्य में आते हैं इस कारण नित्य हैं। इस प्रकार एक-एक मनुष्य के शरीर में चारों वर्ण रहते हैं अर्थात् ब्राह्मणादि चारों वर्ण में चारों का समावेश रहता है। ब्राह्मण में ब्राह्मण का गुण प्रधान और अन्य तीन का गौण रहता तथा ऐसे ही क्षत्रियादि में जानो। इसी के अनुसार वेद में भी लिखा है कि- ‘इस मनुष्य शरीररूप समुदाय के चार अवयव मुख्य हैं, उनमें सर्वोपरि उत्तम वेदादि के पढ़ने-पढ़ाने, मनन वा विचार के हेतु धर्म के उपदेश वा प्रचार को बढ़ाने वाला शिरमात्र मुख ब्राह्मण है अर्थात् विद्या और धर्म के प्रचाररूप मुख्यकर मुख अवयव से सिद्ध होने योग्य कर्म में तत्पर पुरुष ब्राह्मण है। दुष्टों का ताडन तथा श्रेष्ठों की रक्षा करनेरूप भुजबल से सिद्ध होने योग्य प्रजारक्षणरूप काम में मुख्यकर तत्पर बाहुप्रधान क्षत्रिय कहाता तथा मुख्यकर गोड़ों से सिद्ध होने योग्य पशुओं की रक्षा आदि काम में प्रवीण वैश्य और पगों से सम्बन्ध रखने वाले इधर-उधर भागनेरूप दासकर्म में प्रवृत्त शूद्र हैं।’१ अर्थात् एक-एक शरीर में मुख ब्राह्मण, भुजा क्षत्रिय और गोड़े वैश्य तथा पग शूद्र हैं यह मन्त्र का आशय है। सत्त्वगुणी ब्राह्मण, रजोगुणप्रधान क्षत्रिय तथा रजस् और तमोगुण के मेल में वैश्य और तमोगुणप्रधान शूद्र है अर्थात् एक-एक शरीर में चारों वर्णों का गुण वा धर्म रहने पर भी जिस-जिस व्यक्ति में जिस-जिस वर्ण के धर्म की प्रधानता हो वह-वह उसी ब्राह्मणादिपद का वाच्य होता है उसमें सत्त्वादिगुण उदाहरण वा दृष्टान्त हैं। ऐसा होने पर गर्भाधान के समय माता-पिता के शरीर में जिस गुण का जैसा उत्कर्ष स्वाभाविक प्रवृत्ति से हो वा नैमित्तिक सत्सग् आदि व्यवहार से होवे तो उनका सन्तान वैसे ही गुण को विशेष कर धारण करने वाला होगा। सो सुश्रुत के शारीरस्थान में कहा भी है कि- ‘जैसे-जैसे आहार, आचार और चेष्टा से युक्त हुए स्त्री-पुरुष गर्भाधान करें, उस समय उन दोनों के मन की वासना जैसी होगी वैसे ही संस्कारों वाला सन्तान होगा।’२ इसी कारण एक ही पुरुष के सन्तानों में भिन्न-भिन्न बुद्धि वा स्वभावादि होते हैं। क्योंकि सबके गर्भाधान में पिता-माता की वासना एक सी नहीं रह सकती। इससे सिद्ध हो गया कि कारण से कार्य में गुण आया करते हैं। वर्णविचार दो प्रकार का है, एक लौकिक और दूसरा शास्त्रीय। लौकिक विचार में गुणकर्मों के अभाव होने पर भी ब्राह्मणादि शब्दों का प्रयोग उन-उन व्यक्तियों के साथ किया जाता है, यह सिद्धानुवाद है। और शास्त्र की आज्ञा वा सम्मति से जिस-जिस में ब्राह्मणादि के गुण-कर्म हों वे-वे ही ब्राह्मणादिपद वाच्य हों। और गुण-कर्मों की प्रधानता परीक्षा के आधीन है। जैसे ब्राह्मणत्व की परीक्षा के लिये जो सत्यादि गुण हैं उनका आपत्काल में भी त्याग न करे, कितनी ही हानि वा दुःख उठाना स्वीकार कर ले, पर जो अपने सत्याचरणादि धर्म को न छोड़े। धर्म छोड़ने से अपना शरीर बचता हो वा धर्मानुकूल वर्त्तने से पुत्रादि के वध का अवसर आ गया हो वा धनादि वस्तुओं की बड़ी हानि होती हो तो भी जो सत्य और असत्य में से सत्य का ही आचरण स्वीकार करे। अपने धर्म की रक्षा के लिये अपने जीवनादि को भी अर्पण कर दे लेकिन धर्म को कभी न छोड़े, वह ब्राह्मण है। जहां विशेष हानि-लाभ नहीं है वहां किसी के सत्यभाषण की दृढ़ता भी ब्राह्मणपन को सिद्ध नहीं कर सकती क्योंकि सब समय सब बातों की परीक्षा नहीं होती। इसीलिये नीति में कहा है कि- ‘किसी विशेष समय कठिन प्रदेश में विशेष दुःख में भेजने की आज्ञा देकर भृत्य की परीक्षा करे। व्यसन में कुटुम्बियों की, आपत्काल में भिन्न की और निर्धनता के समय स्त्री की परीक्षा करे।’१ इत्यादि प्रकार सब बातों की परीक्षा विशेष दशा में हुआ करती है, सब समय में सबकी परीक्षा नहीं होती। इसी प्रकार प्रजा की रक्षा के लिये दुष्टों को दण्ड देने के अर्थ जो अपने प्राण का भी अर्पण करता है तथा युद्ध के समय जो प्राण बचाने के लिये मुख न मोड़े, वह क्षत्रिय है। इसी प्रकार वैश्यादि भी अपने धर्म को प्राण से भी अधिक प्रिय मानकर सेवन करते हुए परीक्षा में उत्तीर्ण होकर उस-उस वर्ण में प्रविष्ट हो सकते हैं। यदि कोई कहे कि ऐसी परीक्षा में उत्तीर्ण तो कोई ही हो सकते हैं सब वा प्रायः नहीं, तो उत्तर यही है कि जो परीक्षा में उत्तीर्ण हों वे ही पूरे-पूरे ब्राह्मणादि हैं, सब नहीं। अन्यों में से जिसमें जिसकी अपेक्षा जैसे गुण की जितनी प्रधानता होगी वह उसकी अपेक्षा वैसा ही न्यूनाधिक ब्राह्मणादि होगा वा माना जायेगा क्योंकि सब बातें सापेक्ष हुआ करती हैं। परन्तु ब्राह्मणादि पदों का जो मुख्य अर्थ है उसका सर्वथा अभाव होने से उनको ब्राह्मणादि न कहना वा न मानना चाहिये। जैसे ब्रह्मशब्द से ब्राह्मणशब्द बना है। यद्यपि ब्रह्मशब्द के कई अर्थ हैं, तथापि धर्मशास्त्र के सिद्धान्तानुसार यहां वेद के पर्यायवाचक ब्रह्मशब्द से ब्राह्मणपद बनता है। अर्थ यह है कि ब्रह्मनाम वेद का पढ़ने-पढ़ाने-जानने तथा उपदेशादिद्वारा प्रचार करने वाला ब्राह्मण है। धर्मशास्त्र में लिखा है कि- ‘तब तक वह शूद्र के ही तुल्य है जब तक यज्ञोपवीत संस्कार होकर उसका वेद में प्रवेश न हो।’२ वेद के पढ़ने-पढ़ाने-जानने वा प्रचारादि करने में जिसका जितना उद्योग वा प्रवेश है उसमें उतना ही ब्राह्मणपन है। सन्ध्या, गायत्री तथा अग्निहोत्रादि पञ्चमहायज्ञों का जानना, करना भी कुछ वेद के साथ सम्बन्ध रखता वा उसमें प्रवेश है इसलिये सन्ध्यादि करने वा जानने वाले को भी किसी प्रकार ब्राह्मण कह सकते हैं। प्रयोजन यह है कि सत्यादि धर्म के लक्षणों का सेवनमात्र ब्राह्मणत्व का प्रयोजक नहीं किन्तु ब्रह्मनाम वेद का जानना और वेदोक्त कर्मों का करना ही ब्राह्मण बनाता है, किन्तु केवल सत्यादि के आचरण से ब्राह्मण नहीं होता और दोनों के होने से ठीक-ठीक ब्राह्मण हो सकता है। क्षत्र शब्द का अर्थ है कि क्षत नाम घाव वा पीड़ा से बचावे अर्थात् बलवान् जीव निर्बलों को दुःख न देने पावें ऐसा उद्योग करने वाला क्षत्रिय, व्यवहार ज्ञान में प्रवेश करने वाला वैश्य और कार्यों की सिद्धि के लिये शीघ्र भागने वाला शूद्र कहाता है। ये चारों गुण एक-एक में भी रहते हैं परन्तु जिसमें विशेष प्रवृत्ति होती उसी-उसी गुण की प्रधानता से वह यथोचित ब्राह्मणादि कहाने योग्य होता है। यह शास्त्र की व्यवस्था है परन्तु लोक में गुणकर्मादि की अपेक्षा को छोड़कर केवल जन्म से भी ब्राह्मणादि वर्णों का एक-एक समुदाय माना जाता है। जिस-जिस ब्राह्मणादि समुदाय में जिस-जिस वर्ण की उत्पत्ति होती है वह-वह ब्राह्मणादि पदवाच्य माना जाता है। इस दोनों प्रकार की वर्णविभाग व्यवस्था में गुण-कर्मों से ब्राह्मणादि के मानने की प्रधानता है क्योंकि जो कुछ जन्म से भी ब्राह्मणादिपन है वह कारण के गुण कार्य में आने से ही बन सकता है। सो जाति की अपेक्षा गुण-कर्मों की ही प्रधानता को मानकर महाभारत (महा॰ वन॰ अध्याय १८०) में ऐसा कहा है कि- एक अजगर बोला कि- ‘हे राजन् युधिष्ठिर ! ब्राह्मण कौन हो सकता और जानने योग्य क्या है ? तुम्हारे वचन सुनकर मुझे अनुमान हुआ कि आप बड़े विचारशील विद्वान् हैं।’१ युधिष्ठिर बोले कि- ‘सत्य बोलना, मानना वा करना, दान देना, सहनशीलता का धारण करना, कोमल स्वभाव, अच्छा आचरण, हिंसा का सर्वथा त्याग, निन्दा-स्तुति आदि द्वन्द्व का सहना और सब पर दया रखना ये गुण वा स्वभाव जिसमें दीख पड़ें, उसे ब्राह्मण मानना चाहिये।’२ फिर सर्प बोला कि- ‘चारों वर्णों में जब सामान्य कर ही सत्य का प्रमाण है क्योंकि वेदादि शास्त्रों में सबको सत्य बोलना चाहिये ऐसी आज्ञा दी गयी है। शूद्रों में भी सत्य का आचरण तथा दान और क्षमा हो सकती और सबमें एकता बढ़ाना और हिंसा का त्याग तथा दया करना इत्यादि धर्म के सामान्य लक्षण शूद्र में भी मिल सकते हैं तो क्या शूद्र भी ब्राह्मण होगा ?’३ अर्थात् आप के ब्राह्मणविषयक लक्षण में अतिव्याप्ति दोष आता है। युधिष्ठिर फिर बोले कि- ‘निद्रा, आलस्य, प्रमाद, अत्यन्त मैथुन में आसक्ति, मिथ्याभाषण में रुचि इत्यादि निकृष्ट कर्मों में रमण करना ही शूद्र का चिह्न है, वह ब्राह्मण में नहीं है क्योंकि ब्राह्मण सत्त्वगुणप्रधान होता है इस कारण एक ब्राह्मणादि के शरीर में सत्त्वगुण और तमोगुण की एक काल में एक साथ प्रधानता नहीं हो सकती। लोक में जिसको शूद्र और जिसको ब्राह्मण मानते हैं शास्त्र की मर्यादा के अनुसार भी वही शूद्र और ब्राह्मण माना जावे सो नहीं हो सकता क्योंकि अज्ञानी लौकिक लोगों में अन्धेर फैल सकता है पर वेदादि शास्त्रों का विचार करने वाले विद्वान् लोग वैसा नहीं मान सकते किन्तु विद्वानों का यही सिद्धान्त है कि जिसमें सत्य और दान आदि पूर्वोक्त गुणों का ठीक-ठीक आचरण हो वह ब्राह्मण और जिसमें सत्यादि का वर्त्तावरूप चिह्न न दीख पड़े वही शूद्र वा क्षत्रिय वा वैश्य है।’१
सर्प फिर बोला कि- ‘हे राजन् ! यदि तुम केवल गुण-कर्मों का आचरण देखने मात्र से ब्राह्मण मानते हो तो जब तक कर्म न हों तब तक जाति वृथा है अर्थात् जाति नाम उन-उन कुलों में जन्म होने से ब्राह्मणादि मानना सर्वथा निष्फल हुआ जाता है पर ऐसा होना अनुचित है।’२
इस पर युधिष्ठिर बोले कि- ‘जिस जाति को शास्त्रकारों ने भिन्न-भिन्न नित्य और सत्य अव्यभिचारिणी माना है वह जाति यहां मनुष्यमात्र की एक लेनी चाहिये अर्थात् मनुष्यजाति सत्य और अव्यभिचारिणी है, कभी मनुष्य से पशु-पक्षी आदि नहीं बन सकता। और ब्राह्मणादि मुख्यकर जाति नहीं किन्तु वर्ण हैं। गुणकर्मों को देखकर उस-उस वर्ण का अधिकार वा प्रतिष्ठा दी जाती है, इस कारण वर्ण कहाते हैं। उनकी परीक्षा ब्राह्मणादि के कुल में जन्म होनेमात्र से नहीं हो सकती क्योंकि यद्यपि ब्राह्मणादिपन गुण-कर्म से ही कार्य में आता है तथापि व्यभिचार के होने और माता-पिता के संस्कार वा आचरण गर्भाधान समय में विपरीत होने से परीक्षा होना दुस्तर है। प्रायः कुलों में गुप्त वा प्रसिद्ध वर्णसटर तथा धर्मसटरता का दोष लगता रहता है। सब ब्राह्मणादि लोग सब ऊंच वा नीच कुल की स्त्रियों में सदा सन्तानों को उत्पन्न करते रहते हैं। वाणी, मैथुन, जन्म और मरण आदि सब मनुष्यों का तुल्य ही स्वाभाविक काम है अर्थात् ब्राह्मणादि की स्वाभाविक वाणी आदि में भेद नहीं। जो कुछ नैमित्तिक भेद है वह विद्या पढ़ने आदि से ब्राह्मण और शूद्र में बराबर होगा अर्थात् व्याकरणादि पढ़ने से जैसे ब्राह्मण की वाणी आदि का संशोधन होगा वैसे ही शूद्र की वाणी का भी होगा, इससे नैमित्तिक में भी तुल्यता रही। वाणी, मैथुन और जन्म-मरण ही मनुष्यादि जातियों के भेदक हैं। मनुष्य पशु पक्षी आदि की वाणी भिन्न-भिन्न है और जिनमें वाणी आदि का भेद नहीं उनका जातिभेद मानना भी ठीक नहीं है। इसी के अनुसार मनुष्यमात्र की वाणी आदि में भेद नहीं, इस कारण सब मनुष्य एक जाति हैं। तथा (ये यजामहे) यह वेद का प्रमाण है इसका अभिप्राय यह है कि हम लोग ब्राह्मण वा अन्य जो हैं वे यज्ञ करते हैं अर्थात् हम नहीं जान सकते कि हम ब्राह्मण हैं वा कौन। इस प्रकार जाति से ब्राह्मण होने में व्यभिचारादि का सन्देह मानकर यज्ञकर्म करने में दृढ़ प्रीति और प्रवृत्ति होने से ब्राह्मण होने का निश्चय होता है, इसलिये हमको यज्ञ करना चाहिये। इस कारण तत्त्वज्ञानी लोग शील, अच्छा स्वभाव, शुभकर्म में रुचि वा प्रवृत्ति ही को मुख्यकर ब्राह्मणादि वर्णव्यवस्था का हेतु मानते हैं। इस प्रकार ब्राह्मणादि के होने में गुण-कर्म की प्रधानतापरक वैदिकप्रमाण देकर मनुस्मृति का प्रमाण देते हैं कि- मनु जी भी जन्ममात्र से ब्राह्मणादि नहीं मानते। बालक का जन्म होते ही नालच्छेदन करने से पूर्व ही पुरुष का जातकर्म संस्कार कहा है। उस समय वेद के मन्त्रों से मधु और घृत बालक को चटाया जाता है, उस वैदिक संस्कार से वह पवित्र किया जाता है।१ यज्ञोपवीतसंस्कार में सावित्री मन्त्र२ से परमेश्वर की प्रार्थना-उपासना बतलायी जाती है, उस समय माता के तुल्य हितकारिणी गायत्री और गुरु उस शिष्य ब्रह्मचारी का पिता होता है और उत्पादक माता-पिता का साथ उस समय छुड़ा दिया जाता है। जब तक यज्ञोपवीतसंस्कार होकर वेदोक्तकर्म करने और वेद के पढ़ने में प्रवेश न हो तब तक ब्राह्मणादि के बालक भी शूद्र के तुल्य जानने चाहियें। इस प्रकार जगत् में दो प्रकार की बुद्धि है, कोई जन्म से ब्राह्मणादि जाति मानते और कोई गुण-कर्मों के विद्यमान होने से मानते हैं। इस पर स्वायम्भुव मनु ने (जिनकी मनुस्मृति है) कहा है कि यदि अपने-अपने गुण-कर्मों का बर्त्ताव नहीं तो वे ब्राह्मणादि नहीं मानने चाहियें। वे अपने कर्त्तव्य से च्युत होकर शूद्र तुल्य हो गये, उनके लिये कुछ कर्त्तव्य नहीं। इस ब्राह्मणादि वर्णों के पतित वा नीच हो जाने में व्यभिचार वा धर्म के त्याग से सटर हो जाना ही बड़ा कारण माना गया है। जिस व्यक्ति में शुद्ध आचरण ठीक धर्मानुकूल हो उसको मैंने प्रथम ब्राह्मण कहा वा माना है सो यही सिद्धान्तपक्ष है।’३ तथा इसी वनपर्व के ३१३ अध्याय में लिखा है कि- ‘हे राजन् युधिष्ठिर ! कुल, गुण, कर्म, वेदादि के पढ़ने अथवा बहुश्रुत होने से (इनमें से किस कारण से) ब्राह्मणत्व होता है ? यह निश्चय कर कहो।’१ इस यक्ष के प्रश्न को सुनकर युधिष्ठिर जी बोले कि- ‘ब्राह्मण होने में कुल, स्वाध्याय और बहुश्रुत होना ये कोई भी कारण नहीं किन्तु ठीक-ठीक सत्यादि का आचरण ही मुख्य कारण है। इसलिये विशेषकर ब्राह्मण को अपना आचरण ठीक रखना चाहिये क्योंकि जिसका आचरण नहीं बिगड़ा वह निर्बल नहीं और आचरण बिगड़ने पर मारा जाता है। पढ़ने-पढ़ाने और शास्त्र का विचार करने वाले जितने मनुष्य हैं वे यदि वेदादि शास्त्रों से निषिद्ध अधर्म का सेवन करें तो सब मूर्ख वा शूद्र हैं और जो क्रियावान् अर्थात् वेदोक्तधर्मसम्बन्धी कर्म करने वाला है वही पण्डित नाम ब्राह्मण है। कोई ब्राह्मणादि कुल में उत्पन्न होकर चारों वेद भी पढ़ा हो परन्तु दुराचारी हो तो शूद्र से भी अधिक नीच है तथा जो अग्निहोत्रादि कर्म करता और इन्द्रियों वा मन को वश में रखने वाला है वह ब्राह्मण है।’२ यहां भी अन्य कुल आदि की अपेक्षा सत्यादि के सेवन की प्रधानता दिखायी है। यहां सर्प वा यक्षादि शब्दों से इतिहास का सम्भव-असम्भव नहीं देखना चाहिये। जैसे हितोपदेशादि पुस्तकों में बनावटी काक वा मूषक आदि के इतिहास उपदेश करने के लिये कल्पित कर लिये जाते हैं वैसे यहां भी इतिहास कल्पित जानने चाहियें। सर्पादि का इतिहास बनाकर ऐसी बातों का उपदेश करना रुचि बढ़ाने के लिये है तथा यह भी दिखाना है कि धर्म वा नीति का बर्त्ताव तिर्यग्योनि में भी किसी प्रकार कुछ होता है तो मनुष्य को अवश्य ही करना चाहिये क्योंकि इस मनुष्य जाति को परमेश्वर ने विचार और धर्म के सेवने से अपने कल्याण कर सकने की सामग्री अन्य पश्वादि की अपेक्षा अधिक दी है।
इस प्रकार यदि कोई क्षत्रिय, वैश्य वा शूद्र के समुदाय में भी उत्पन्न हुआ हो तो वह भी अच्छे आचरणों का ठीक-ठीक सेवन करने से ब्राह्मणादि उच्च वर्ण के अधिकार को प्राप्त हो सकता है तथा ब्राह्मणादि उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ भी नीचकर्मों के सेवन से नीचवर्ण हो जाता है। सो मानवधर्मशास्त्र के दसवें अध्याय में लिखा है कि- ‘शूद्र ब्राह्मण हो जाता तथा ब्राह्मण शूद्र हो जाता है और क्षत्रिय तथा वैश्य भी अपने से निकृष्ट वा उत्तमवर्ण के अधिकार को प्राप्त हो जाते हैं।’१ तथा आपस्तम्ब धर्मसूत्रों में लिखा है कि- ‘धर्म के आचरण से नीच शूद्रादि वर्ण अपने से पूर्व-पूर्व वर्ण को प्राप्त होता और अधर्म के सेवन से पूर्व वर्ण अपने से नीच-नीच वर्ण को प्राप्त होता जाता है।’२ अर्थात् शूद्र अच्छे धर्मसम्बन्धी आचरणों से वैश्य होता, वैश्य क्षत्रिय और क्षत्रिय ब्राह्मण हो जाता है और इसी प्रकार नीचकर्मों से ब्राह्मण क्षत्रिय हो जाता, क्षत्रिय वैश्य बन जाता और वैश्य शूद्र हो जाता तथा शूद्र अतिशूद्र हो जाता है। और मनु के पूर्वोक्त वचन का भी यह अभिप्राय नहीं है कि शूद्र क्षत्रिय और वैश्य नहीं बनता वा ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य नहीं बनता किन्तु यह सब होता है। ब्राह्मण और शूद्र शब्द उक्त श्लोक में ऊंच और नीच के उपलक्षणार्थ हैं कि ब्राह्मणादि नीचता को प्राप्त होते और शूद्रादि भी ऊंच हो जाते हैं। इसी प्रकार अन्यत्र श्रुतिस्मृतियों में भी बहुत से प्रमाण हैं जिनसे वर्णों का लौट-पौट होना स्पष्ट सिद्ध है। और युक्ति से भी यही सिद्ध होता है कि ब्राह्मणादि वर्ण लौट-पौट हुआ करते हैं, क्योंकि ब्राह्मणादि शब्द अधिकारवाचक हैं और अधिकार सदा बढ़ते-घटते रहते हैं। इसमें ब्राह्मणादि उच्च वंशस्थ मनुष्यों का चाण्डाल आदि के नीचकर्मों के सेवन से शीघ्र चाण्डालादि हो जाना तो प्रसिद्ध है इसको सभी लोग ऐसा ही स्वीकार भी कर लेते हैं। अर्थात् वैसे मनुष्य को उसी चाण्डाल वा ईसाई आदि के समुदाय में छोड़ देते और अपने समुदाय से निकाल देते हैं। जो कोई चाण्डालादि के साथ भोजन वा जलपानादि व्यवहार कर लेता है उसको श्रेष्ठ लोगों की कोटि से शीघ्र ही पतित कर देते हैं यह प्रत्यक्ष है, इसमें कुछ विशेष विवाद नहीं। परन्तु कोई नीच समुदाय में से अच्छे कर्म करके ऊंचा बनना चाहता है तो उसके ब्राह्मणादि ऊंचे बनने में बहुत लोग विवाद करते हैं सो यह विवाद निर्मूल है क्योंकि जब ब्राह्मणादि का पतित होना स्वीकार है तो शूद्रादि का ब्राह्मणादि होना न्याय से प्राप्त है। क्योंकि बनना-बिगड़ना दोनों साथ में लगे रहते हैं। जैसे घट-पटादि पदार्थ पहले-पहले बिगड़ते जाते हैं और नये-नये बनते जाते हैं। तथा जो बिगड़ते हैं वे भी पुनः संस्कार होकर साध्य हुए तो शुद्ध हो जाते हैं। परन्तु यह नहीं हो सकता कि पहले बिगड़ जावें और नये न बनें। इसी प्रकार जैसे ब्राह्मणादि का बिगड़ना सिद्ध है वैसे शूद्रादि का ब्राह्मणादि बनना भी मानना चाहिये। जगत् में जितने पदार्थ जड़ और चेतन हैं उन सभी में किसी का ऊपरी दशा से नीची दशा में आना और किसी का नीची दशा से ऊपरी दशा में जाना ये दोनों बातें प्रत्यक्ष हैं। ऊपर वालों का नीचे गिरना हो और नीचों का ऊपर को जाना न हो यह विरुद्ध है। उसमें इतना विचार अवश्य होना चाहिये कि जैसे मन्दिर आदि का गिर जाना वा गिरा देना शीघ्र हो सकता है पर उसी घर के बनाने में परिश्रम और काल दोनों अधिक लगते हैं। इसी प्रकार ब्राह्मणादि ऊंच लोग नीचकर्मों के सेवन से शीघ्र ही पतित हो जाते हैं और घर आदि के बनाने के तुल्य शूद्रादि के ब्राह्मणादि होने में बहुत अतिकाल बीतता है। यही सिद्धान्त श्रेष्ठ जान पड़ता है। विश्वामित्र क्षत्रियादि लोग भी बहुत काल तक तप करके ब्राह्मणादि अधिकार को प्राप्त हुए यहां दृष्टान्तरूप समझने चाहियें। और उत्तम वर्णों का कर्मों से नीच बन जाना तो लोक में भी प्रसिद्ध ही है।
कोई लोग जातिमात्र से वर्णव्यवस्था मानते हैं कि जो-जो ब्राह्मणादि के कुल में उत्पन्न हुए वे-वे ब्राह्मणादि हैं। ऐसा मानने वालों के मत में मिट्टी की गौ आदि भी गौ होनी चाहिये क्योंकि वे खिलौना भी गौ आदि की आकृति को लेकर ही बनाये जाते हैं। और धर्मशास्त्र के ‘जैसे काठ का हाथी वैसा गुणकर्महीन ब्राह्मण’१ इत्यादि वचन तथा- ‘वह मनुष्य स्थाणुनाम ठूंठ के समान निष्फल है कि जो वेद को पाठमात्र पढ़के उसके अर्थ को नहीं जानता’२ इत्यादि वेदवाक्य विरुद्ध होंगे क्योंकि इत्यादि वाक्यों से गुणकर्मों के होने पर ही ब्राह्मणादि का होना सिद्ध किया गया है। और केवल जातिमात्र से ब्राह्मणादि के होने को निष्फल ठहराया है। प्रयोजन यह कि गुण-कर्मों के होने से ही सब वस्तुओं की परीक्षा हो सकती है कि यह वस्तु ऐसा है। मिट्टी की गौ आदि में गुणकर्मों के न होने से गोत्व नहीं है इस बात को दिखाने के लिये ही ‘जैसे काठ का हाथी वैसा ही बिन पढ़ा ब्राह्मण’१ इत्यादि वचन धर्मशास्त्रकारों ने कहे हैं। इस कारण केवल जाति से ब्राह्मणादिपन सिद्ध कदापि नहीं हो सकता।
कोई लोग जाति को सर्वथा छोड़कर केवल गुणकर्मों से ही ब्राह्मणादि वर्णों का विभाग मानते हैं और कहते भी हैं कि यदि जाति से ब्राह्मणादिपन हो तो श्वेतादि वर्ण और शरीरस्थ रुधिरादि धातुओं में भेद दीख पड़ना चाहिये। शूद्र और ब्राह्मण का रंग वा रुधिरादि भिन्न-भिन्न हों, सो भेद तो उपलब्ध होता नहीं, इस कारण जाति से ब्राह्मणादि वर्णों का विभाग नहीं मानना चाहिये। ऐसा मानने वालों के मत में प्रथम तो ब्राह्मणादिपन जताने वाले गुणों की अनित्यता वा निर्मूलता प्राप्त होगी। जब गुण-कर्म प्रकृति के साथ लगे हैं तो जातिनिर्मूल न हुई किन्तु जन्म से ही जो गुणकर्ममूलरूप से सन्तान में रहते हैं उन्हीं के अनुकूल समय आदि उपयोगी कारण मिलने से वे प्रकट हो जाते हैं। तथा उनके मत में द्वितीय दोष यह भी आवेगा कि वीर्य के प्रधान वा अप्रधान होने से जिनकी श्रेष्ठता वा निकृष्टता दिखायी है ऐसे धर्मशास्त्रों के वाक्य विरुद्ध हो जायेंगे। जैसे लिखा है कि- ‘श्रेष्ठ आर्यपुरुष से अनार्या स्त्री में उत्पन्न हुआ अच्छे गुणों से आर्य अर्थात् श्रेष्ठ हो सकता है और अनार्य पुरुष से आर्या स्त्री में उत्पन्न हुआ अनार्य होना निश्चित है।’१ इत्यादि वाक्य व्यर्थ हो जायेंगे। तथा- ‘धान, मूंग, तिल, उड़द, यव, लशुन और ईख आदि वस्तु अपने-अपने बीज के तुल्य उत्पन्न होते हैं। अन्य कुछ बोया जाय और अन्य उत्पन्न हो यह नहीं हो सकता (गेहूं बोने से जौ नहीं उत्पन्न होता) किन्तु जो-जो बीज बोया जाता है वह-वह ही उत्पन्न होता है।’२ इत्यादि वाक्यों का भी यही आशय है कि जो ब्राह्मणादिपन को सूचित करने वाले गुण हैं वे गर्भाधान दशा में वीर्य से ही गर्भ में आते हैं। यदि कोई कहे कि उक्त वाक्यों का यह अभिप्राय हो कि मनुष्य के वीर्य से पशु नहीं हो सकते तो ठीक नहीं क्योंकि प्राप्ति में निषेध होते हैं। जब मनुष्य के वीर्य से पशु होना प्राप्त ही नहीं तो निषेध कैसे बन सकता है। इस उक्त मनुस्मृति के प्रकरण में- ‘बीज और खेत दोनों से बीज उत्तम है’३ ऐसा दिखाया है। सो बीज की प्रधानता का पक्ष लोक में भी स्पष्ट ही दीखता है। जैसे बैल से गौ का संयोग होता है वैसा ही बछड़ा उत्पन्न होता अर्थात् छोटे बैल के साथ संयोग होने से बड़ोहर बछड़ा कदापि नहीं हो सकता। इसी कारण बड़ी गौओं के साथ छोटे बैलों को प्रायः संयोग नहीं होने देते। तथा कोई घोड़े अपनी जाति में बड़े प्रबल प्रशंसनीय राशी कहाते विशेष गुणयुक्त होते और वे अश्वजाति में एक अवान्तर भेदभिन्न होते हैं वैसे घोड़े के साथ घोड़ी का संयोग होने से वैसे ही बछेड़ा उत्पन्न होते हैं परन्तु सामान्य मध्यम घोड़े के साथ संयोग होने से वैसे बछेड़ा नहीं होते। कदाचित् कहीं कभी बड़े घोड़े के साथ संयोग होने से भी मध्यम बछेड़ा होते हैं तब मध्यम घोड़ा ऋतुसमय घोड़ी ने देखा हो अर्थात् उस मध्यम घोड़े की छाया पड़ गयी ऐसा कहते वा मानते हैं। पर ऐसी विशेष अपवाद दशा में सामान्य नियम का विनाश नहीं होता। जैसे पुरुष से संयोग हो वैसा बच्चा हो यह बीज के प्रधान होने से सामान्य नियम है और छाया आदि पड़ने से कहीं अन्यथा होना अपवाद दशा है। यह पूर्वोक्त बीजप्रधान पक्ष जाति को दृढ़ करता है। जन्म से जो गुण विद्यमान हैं वे ही जाति को सिद्ध करते हैं। कहीं क्षेत्र की भी प्रधानता हो तो भी जाति सिद्ध होगी। वर्णसटरों का होना भी किसी प्रकार जाति को सिद्ध करता है क्योंकि अन्य-अन्य वर्ण के माता-पिता होने से सन्तान वर्णसटर होता है और माता-पिता के शरीरों से जो उत्तमता वा निकृष्टता आती है उसी का नाम जाति है कि जन्म से ही वे उत्तम वा निकृष्ट माने गये हैं। इससे सिद्ध हुआ कि सर्वथा जाति को छोड़कर केवल गुण-कर्मों से ब्राह्मणादि वर्णों का विभाग नहीं मान सकते और जहां कहीं केवल गुण-कर्मों से वर्णविपर्यास लोक में हुआ वा दीख पड़ता वा शास्त्रकारों ने माना है वहां भी पूर्व गर्भाधान दशा से ही उस वर्ण के गुण-कर्मों का मूल मानना पड़ेगा कि जो आगे जाकर वर्ण बनना है। जैसे विश्वामित्र जी क्षत्रिय से ब्राह्मण हो गये यहां ऐसा समझना चाहिये कि गर्भाधान दशा में उनके माता-पिता की बुद्धि आचरण वा चेष्टा ब्राह्मणत्व की ओर अर्थात् सत्त्वगुणप्रधान होगी उसी प्रकार का गुण सन्तान में हुआ उसी गुण ने अवस्था पाकर बल पकड़ा और तप आदि का विशेष सेवन कराकर प्रसिद्ध में ब्राह्मण बना दिया। लोक में ब्राह्मणादि वर्णों का मान लेना यह एक पृथक् बात है और वास्तव में गुण, कर्म और जाति की परीक्षा से ब्राह्मणादि ठहरना यह दूसरी बात है। जैसे इस समय लोकव्यवस्था के अनुसार जो ब्राह्मणवर्ण कहाता है उसमें सहस्रों क्षत्रियप्रकृति हो गये उनमें अधिकांश क्षत्रिय के लक्षण घटते हैं और वे ग्रामाधिपत्य (जमींदारी) आदि कार करने वाले ब्राह्मण कहाने से घृणा भी करते हैं किन्तु अपने को ठाकुर वा चौधरी कहाना पसंद करते हैं। तथा अनेक ब्राह्मण अनेक पीढ़ियों से वैसे ही काम करते-करते वैश्य प्रकृति वाले हो गये और अनेक निस्सन्देह शूद्र बन गये परन्तु लोक में वे सब ब्राह्मण कहाते हैं। यही दशा क्षत्रियादि के समुदायों की भी है अर्थात् उनमें भी एक-एक में चारों वर्ण मिले हैं परन्तु गुण, कर्म और जाति ये दोनों साथ लगे हैं। इसी के अनुसार हम कह सकते हैं कि विश्वामित्र जी जाति से भी ब्राह्मण थे और जो-जो ऐसे हुए वा होंगे वे सब जाति और गुण-कर्म दोनों से ब्राह्मणादि मानने चाहियें। विश्वामित्र के मन में जो ब्राह्मणत्व की वासना थी वही ब्राह्मण जाति का चिह्न है उसी की प्रेरणा से तप किया। तप करने के दो प्रयोजन हैं एक तो क्षत्रियकुल की उत्पत्ति और संसर्ग से ब्राह्मणत्व के बाधक जो गुण थे उनको निर्बल करना और लोगों को विश्वास कराना कि हम तप करके ब्राह्मण हुए। अर्थात् बिना तप किये लोक नहीं मान सकते कि ये ब्राह्मण हो गये क्योंकि यह प्रत्यक्ष है और भीतरी वासना की दृढ़ता इसी से प्रकट होती है। और यही दो प्रकार का प्रयोजन सर्वत्र वर्णविपर्यास में होना चाहिये। ऐसे ही लोक में दृष्टि देकर देखा जाय तो सब वर्णों में सब मिले हैं परन्तु बिना तप किये वे उन-उन उच्च वर्णों में शामिल नहीं हो सकते कि जिन वर्णों की उनमें पूर्ण योग्यता विद्यमान है। इस सब कथन से सिद्ध हुआ कि जाति और गुण-कर्म दोनों साथ हैं अर्थात् जो वर्ण बदलते हैं उनमें जन्म से ही गुण-कर्मों का सूक्ष्म संस्कार रहता है, वही प्रकट हो जाता है।
और ब्राह्मणादि वर्णों में रुधिरादि धातुओं का भेद भी होता है जिसके स्वभाव, खान, पान और आचरण में भेद है, उसके शरीरस्थ रुधिरादि धातुओं में अवश्य भेद होगा क्योंकि खान-पान और आचरण के अनुसार ही धातु बनते हैं। सात्त्विक आहार से धातुओं में शुद्धि और सत्त्वगुण बढ़ता और रजोगुणी, तमोगुणी आहार से धातु भी रजोगुण तमोगुणयुक्त बनते हैं, इससे भेद होना सिद्ध ही है। तथा देश और वस्तु के भेद से भेद होगा, इसको सभी जान सकते हैं। शरीरों का भिन्न-भिन्न होना वस्तुभेद और भिन्न-भिन्न अवकाश में होना देशभेद है। इसमें सबका रुधिरादि एक नहीं। यद्यपि जलत्व जाति में जल एक वस्तु है, उसमें जातिभेद नहीं है। तथापि देशभेद और व्यक्तिभेद प्रसिद्ध है अर्थात् इसी देशभेद और व्यक्तिभेद के कारण सब प्रकार के जलों में गुणभेद प्रसिद्ध दीख पड़ता है। कुआ, तालाब, सरोवर, झील, नदी, नहर आदि के जलों में भिन्न-भिन्न गुण हैं। कुओं के और नदियों आदि के जल में भी एक की अपेक्षा दूसरों-दूसरों में भिन्न-भिन्न गुण का स्वाद है। इसी प्रकार ब्राह्मणादि वर्णों तथा एक-एक शरीर में रुधिरादि धातुओं के गुण भिन्न-भिन्न हैं। वर्णभेद भी ब्राह्मणादि में हो सकता है। ब्राह्मण वर्ण के गुण-कर्म जिन-जिन में मिलेंगे वे अधिकांश में गौराग् होंगे। सामान्य प्रकार से संख्या करके देखा जावे तो अन्य की अपेक्षा ब्राह्मणसमुदाय में गौराग् अधिक निकलेंगे। किन्हीं-किन्हीं द्वीपों वा प्रदेशों में असुर वा दस्यु जाति के लोग वा क्षत्रियादि देश के जलवायु के कारण सभी गौराग् होते हैं तो वे सब ब्राह्मण होंगे ? अर्थात् नहीं। वास्तव में यह अतिव्याप्ति दोष इसलिये नहीं है कि हम गौराग् होनेमात्र को ब्राह्मणत्व का प्रयोजक हेतु नहीं मानते कि गौराग् होने से ब्राह्मण होता है किन्तु- ‘अन्य पूर्वोक्त मुख्य गुणों से ब्राह्मणपन के सिद्ध होने पर गौराग् होना भी किसी प्रकार ब्राह्मणपन की प्रशंसा बढ़ाने वाला है।’१ यह दोष तब आ सकता है जब हम गौराग् होनेमात्र से ब्राह्मण मानते कि जो-जो गौराग् हो वह-वह ब्राह्मण है। सो ऐसा तो हम मानते नहीं इसलिये कोई दोष नहीं। अन्य भी कोई दोष इस पक्ष में आवे तो इसी प्रकार समाधान कर लेना चाहिये। शारीरिक अवयवों की शुद्धि की न्यूनाधिकता होना ही वर्णभेद का कारण है। सो इस ब्राह्मणादि के शरीरों में रुधिरादि धातुओं के भेद को सूक्ष्मदर्शी बड़े-बड़े विद्वान् लोग ही जान सकते हैं। सात्त्विक आहार के सेवन से वैसे ही गुण वाले रसादि धातु उत्पन्न होते हैं। और धातुभेद को लेकर ही बीज के प्रधान होने का व्याख्यान हो सकता है। इस कारण ब्राह्मणादि वर्णों की जाति और गुण-कर्म से व्यवस्था माननी चाहिये। ‘शूद्र ब्राह्मण हो जाता वा ब्राह्मण शूद्र हो जाता है’२ इत्यादि कथन तो शूद्रसमुदाय में उत्पन्न हुए लोक में शूद्र करके प्रसिद्ध पुरुष का ब्राह्मणत्व दिखाने के लिये है। वास्तव में तो वह शूद्र समुदाय में उत्पन्न हुआ पूर्व गर्भाधान समय से ही किसी प्रकार ब्राह्मण के संस्कार वा गुणों से युक्त था। अर्थात् उसकी माता का ब्राह्मण के साथ विवाह होने अथवा गर्भाधान के समय उसके पिता के शरीर में सत्सगदि से प्राप्त हुए ब्राह्मणसम्बन्धी गुणों में उत्तेजना होने आदि से वह ब्राह्मण गुणधारी था। ऐसा ही मानने से वेदादिशास्त्रों के अनुकूल वर्णव्यवस्था हो सकती है। जो जिस समुदाय में उत्पन्न हुआ उसका वैसा ही ब्राह्मणादि पद से व्यवहार करना लोक की रीति है। वह शास्त्र के अनुकूल ब्राह्मणादिपन नहीं है। शास्त्र का सिद्धान्त जो कुछ है पूर्व संक्षेप से लिख दिया है।