वर्णसंकर का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब वर्णसंकर विषयक विचार किया जाता है, जिसके विषय में यह मुख्य वा प्रथम श्लोक है कि- ‘ब्राह्मणादि वर्णों का परस्पर व्यभिचार होने अर्थात् किसी वर्ण की स्त्री का किसी अन्य वर्ण के पुरुष से गुप्त वा प्रसिद्ध संयोग होने से तथा जिनके साथ विवाह न करना चाहिये उन भगिनी आदि के साथ विवाह कर लेने और अपने वर्ण के कर्मों को छोड़कर अन्य वर्ण के कर्मों का सेवन करने लगने से मनुष्य वर्णसंकर हो जाते हैं।’ अर्थात् पहले दो कर्मों से उत्पन्न होने वाले आगे वर्णसंकर बनते और उनके माता-पिता वर्णसंकर  नहीं होते किन्तु कुत्सित कर्म से निन्दित अवश्य हो जाते हैं। और तृतीय अपने कर्मों के त्याग से वे ही त्यागने वाले वर्णसंकर  हो जाते हैं। वर्णसंकर  होने में ये तीन कारण हैं।’१ ब्राह्मणादिवर्णों के अपने कर्म पढ़ने-पढ़ाने आदि धर्मशास्त्रोक्त हैं। व्यभिचार यहां दो प्रकार का लेना है। एक तो अपने-अपने वर्ण की उन स्त्रियों से संयोग करना जिनके साथ विवाह नहीं हुआ। और द्वितीय अपने से भिन्न वर्णों की उन दोनों प्रकार की स्त्रियों से संयोग करना जिनके साथ उस पुरुष का विवाह हुआ वा न हुआ हो, ऐसी अनुलोम-प्रतिलोम दोनों वर्ण की स्त्रियों से संयोग करना भी व्यभिचार ही है। ऐसे व्यभिचार कर्म से उत्पन्न होने वाले सब वर्णसंकर कहाते हैं। सटर नाम दो प्रकार के मेल का है विरुद्ध गुण वाले दो वस्तुओं वा प्राणियों के संयोग से उत्पन्न हुआ सटर कहाता है। वैशेषिकशास्त्र में लिखा है कि- ‘जैसे गुण कारण में होते हैं वैसे ही कार्य में आते हैं।’२ इसी के अनुसार व्यभिचार करने वाले स्त्री-पुरुषों में धर्म का लेश नहीं होता किन्तु चोरी, लम्पटता, कामासक्ति, लज्जा-शटा-भय-कामवश होकर झूठ, विश्वासघात और हिंसादि करने में तत्पर होते हैं। इस कारण वैसे ही गुण सन्तान में आते हैं, इससे वह सन्तान द्विरग वा वर्णसंकर कहाता है। जैसे दूध के साथ लवण का संयोग होने से अनिष्टगुण उत्पन्न होता है वैसे ही शास्त्र की आज्ञा और युक्ति से जिसका जिस स्त्री के साथ संयोग होना अनुचित है उस पुरुष का उस स्त्री से संयोग होना व्यभिचार है, उस व्यभिचार से उत्पन्न हुआ पुरुष लोक में सटर कहा जाता है। अपने कर्मों के त्याग से जो वर्णसंकर होते हैं उनका वर्णन- ‘जो वेद को न पढ़ के अन्य शास्त्रों में परिश्रम किया करता है वह जीवित ही अपने कुटुम्ब सहित शूद्र हो जाता है।’३ इत्यादि प्रकार सामान्य कर इस  मानवधर्मशास्त्र के सभी अध्यायों में किया गया है। तथा वर्णों के व्यभिचार और विवाह न करने योग्य स्त्रियों के साथ विवाह करने से उत्पन्न होने वाले सटरों का इस दशमाध्याय में विशेष कर वर्णन किया गया है। वे सटर दो प्रकार के हैं- एक अनुलोमज अर्थात् ब्राह्मणादि उत्तम वर्णस्थ पुरुषों का अपने से निकृष्ट-निकृष्ट वर्ण की स्त्रियों से विवाह वा व्यभिचार होकर उत्पन्न हुए अनुलोमज कहाते और शूद्रादि नीच वर्णस्थ पुरुषों का अपने से ऊंच-ऊंच वर्ण की स्त्रियों से व्यभिचार होकर उत्पन्न हुए प्रतिलोमज सटर कहाते हैं। बीज के प्रधान पक्ष को आगे लेकर प्रतिलोमज सटरों की अपेक्षा अनुलोमज सटर अतिश्रेष्ठ माने जाते हैं। और ये अनुलोमज किसी प्रकार शुद्ध संस्कारी होने से कुछ काल तक शुभ कर्मों का सेवन करके द्विजों में संख्यात हो सकते हैं। अम्बष्ठ आदि अनुलोमज और सूतादि प्रतिलोमज हैं। तथा अन्य प्रकार से भी वर्णसटरों के दो भेद हैं- एक तो चारों वर्णों के परस्पर व्यभिचार से उत्पन्न होने वाले और द्वितीय सटर पुरुषों से भिन्न-भिन्न सटरों की स्त्रियों में उत्पन्न हुए। इन दोनों के साथ प्रतिलोमज-अनुलोमज दोनों भेद बने रहते हैं। वे सटर जातिस्थ लोग व्यभिचार बढ़ते जाने से नवीन-नवीन अवान्तर भेदों से बढ़ते जाते हैं, उनके कर्मानुकूल नाम पूर्वजों ने किये और करते हैं।

जहां लोग स्त्री के साथ धर्मानुकूल गृहस्थ धर्म के सेवन के लिये ब्राह्म आदि विवाह वेदोक्त रीति से ठीक-ठीक करते हैं, वहीं ब्राह्मणादि उत्तम वर्ण होते हैं। और जो धर्म-अधर्म के विचार को छोड़कर चित्त से कामासक्त होकर जिस किसी जाति की स्त्री के साथ संयोग करते हैं, उन्हीं के निन्दित संस्कारों से हुए सटर लोग भी हिंसक, मिथ्यावादी और वैदिक धर्म के द्वेषी होते हैं। गुप्त व्यभिचार से उत्पन्न हुए अच्छे-अच्छे घरों में गुप्त भी वर्णसंकर हो जाते हैं। कोई लोग प्रतिष्ठा की रक्षा अथवा स्वार्थ के साधने हेतु अपने को वर्णसंकर  जानते हुये भी छिपाते हैं। इसलिये मानवधर्मशास्त्र के दशवें अध्याय में यह कहा है कि- ‘द्वेष वा ईर्ष्या करने में तत्पर होना वा नास्तिकता को धारण करना कि जन्मान्तर वा परलोक में शुभाशुभ फलदाता कोई ईश्वर नहीं, इसलिये जो मन में आवे सो धर्म वा अधर्म करना चाहिये कि जिससे हम अभी सुखी रहें ऐसी बुद्धि वाला पुरुष अनार्य कहाता और इससे विपरीत आर्य है। निष्ठुरता- कठोर बोलना वा कुछ काम न करना, क्रूरता- निष्प्रयोजन हिंसा करना तथा निष्क्रियात्मता- धर्मसम्बन्धी काम से विमुख रहना ये बातें पुरुष का नीच वा वर्णसंकर होना प्रकट करती हैं। अर्थात् कोई बड़ा प्रतिष्ठित भी बनता हो परन्तु उपर्युक्त लक्षण मिलते हों तो जान लो कि वह नीच वा वर्णसंकर  है। व्यभिचार से उत्पन्न हुआ पुरुष पिता के जैसे गुणकर्मों वाला हो वा माता के तुल्य अथवा दोनों के लक्षण उसमें मिलेंगे परन्तु वह नीचों से उत्पन्न हुआ सटर अपने स्वभाव को कदापि छिपा नहीं सकता। भले ही मुख्य प्रशंसित कुल में उत्पन्न हुआ हो पर जो किसी नीच पुरुष के वीर्य से होगा तो उस नीच के स्वभाव को थोड़ा वा बहुत अवश्य ही वह सटर मनुष्य धारण करेगा।’१ ऐसे दोनों प्रकार के गुप्त सटरों की परीक्षा करनी चाहिये। इस मानवधर्मशास्त्र में ब्राह्मणादि वर्णों से वर्णसटरों का पृथक् होना दिखाया है तिससे अनुमान होता है कि पहले इस देश में अपने कर्मों को छोड़ देने वाले ब्राह्मणादि और गुप्त व्यभिचार से हुए सटर लोग ब्राह्मणादि वर्णों में मिले नहीं रहते थे किन्तु बीच-बीच में परीक्षा कर-कर के निकाल दिये जाते थे, तभी वर्णव्यवस्था भी शुद्ध थी। और अब आर्य राजाओं के न रहने से वे सब नियम टूट गये इससे कोई वर्ण ठीक-ठीक शुद्ध नहीं रहा। इसी कारण आर्यावर्त्त देश की बड़ी हानि हुई और होती जाती है। यही एतद्देशीय मनुष्यों के महादुःख का कारण है।

 

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