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नया सांस्कृतिक धार्मिक आक्रमणः- – राजेन्द्र जिज्ञासु

आर्यसमाज के जन्मकाल से ही इस पर आक्रमण होते आये हैं। राजनैतिक स्वार्थों के  लिए राजनेताओं तथा राजनीतिक दलों ने भी समय-समय पर आर्य समाज पर निर्दयता से वार किये। विदेशी शासकों, देसी रजवाड़ों व विरोधियों ने भी वार किये। कमी किसी ने नहीं छोड़ी। समाज सुधार विरोधी पोंगा-पंथियों ने भी समय -समय पर डट कर वार किये। घुसपैठ करके कई एक ने आर्यसमाज का विध्वंस करने के लिए पूरी शक्ति लगा दी। गांधी बापू ने वेद पर, सत्यार्थप्रकाश पर, ऋषि दयानन्द व स्वामी श्रद्धानन्द पर बहुत चतुराई से प्रहार किया था। आर्य नेताओं तथा विद्वानों ने बड़े साहस से यथोचित उत्तर दिया। जवाहर लाल नेहरु ने भी लखनऊ में आर्यसमाज के महासमेलन में आर्य समाज पर घिनौना आक्रमण किया था। यह सन् 1963 की घटना है। तब भी आर्य समाज ने नकद उत्तर दिया था।

अब संघ परिवार एक योजनाबद्ध ढंग से अपनी पंथाई विचारधारा देश पर थोपने में लगा है। आर्यसमाज पर सीधा-सीधा आक्रमण होने लगा है। भाजपा के नये-नये मन्त्री-तन्त्री इस काम में जुट गये हैं। देहली में स्वामी विवेकानन्द की आड़ में श्री वी.के. सिंह ने अपनी सर्वज्ञता दिखाई। फिर गुरुकुल आर्यनगर हिसार के उत्सव पर हरियाणा के मन्त्रियों ने वही कुछ करते हुए संघ का जी भर कर बखान किया। इसके लिए गुरुकुल के प्रधान महाविद्वान्? सुमेधानन्द जी बधाई के पात्र हैं। वह भाजपा का ऋण चुकाने में लगे हैं।

  1. दत्त तथा चटर्जी नाम के दो बंगाली इतिहासकारों ने अपने ग्रन्थ में लिखा है कि महर्षि दयानन्द प्रथम भारतीय थे जिन्होंने भारत भारतीयों केलिए घोष लगाया या सुनाया। स्वदेशी व स्वराज्य के इस घोष लगाने से उस युग का कौन-सा नेता व धर्मगुरु ऋषि दयानन्द के समकक्ष था? बड़ा होने का तो प्रश्न ही नहीं।
  2. जब स्वामी विवेकानन्द को कोई नरेन्द्र के रूप में भी अभी नहीं जानता था तब मथुरा की कुटी से दीक्षा लेकर महर्षि दयानन्द पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र में गायत्री व यज्ञ हवन प्रचार, स्त्रियों को वेद का अधिकार, जाति भेद निवारण, अस्पृश्यता उन्मूलन व स्वदेशी का शंखनाद करने में लगे थे। उस काल में विदेश में निर्मित चाकूके प्रयोग से महर्षि का मन आहत हुआ। विदेशी वस्त्रों को तजकर ऊधो को स्वदेशी वस्त्रों के धारण करने की इसी काल में प्रेरणा दी गई। इससे पहले किसने स्वदेशी आन्दोलन का शंखनाद किया? स्वदेशी वस्तुओं व वस्त्रों के प्रयोग में सभी नेता व विचारक ऋषि दयानन्द को नमन करते आये हैं। अब संघ परिवार ने नया इतिहास गढ़ना आरभ किया है। जो मैक्समूलर तथा नेहरु न कर पाया वह भागवत जी के चेले करके दिखाना चाहते हैं।
  3. उन्नीसवीं शतादी के बड़े-बड़े विद्वान्, सुधारक और नेता प्रायः करके गोरी सरकार व गोरों की सर्विस में रहे। पैंशनधारी भी कई एक थे। स्वामी विवेकानन्द जी ने तो अंग्रेज जाति की कभी भूरि-भूरि प्रशंसा भी की थी। गांधी जी की दृष्टि में सूर्य के तले और धरती के ऊपर अंग्रेज जाति जैसा न्यायप्रिय और कोई है ही नहीं। महर्षि दयानन्द ने किसी सरकार की, किसी राजा, महाराजा की नौकरी नहीं की। अंग्रेज जाति व अंग्रेज सरकार का कभी स्तुतिगान नहीं किया। हाँ। धर्मप्रचार की स्वतन्त्रता के लिए मुगलों की तुलना में वे अंग्रेजी राज की प्रशंसा करते थे।

न जाने किस आधार पर संघ परिवार स्वामी विवेकानन्द को उन्नीसवीं शतादी का सबसे बड़ा महापुरुष बताते हुए ऋषि दयानन्द को नीचा दिखाने पर तुला बैठा है। आश्चर्य का विषय है कि समर्थ गुरु रामदास व छत्रपति शिवाजी का गुणकीर्तन छोड़कर संघ ने स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श कैसे मान लिया?

स्वामी विवेकानन्द ने एक बार यह भी कहा था कि मुझे कायस्थ होने पर अभिमान या गौरव है। जो जन्म की जाति-पाँति पर इतराता है वह कितना भी बड़ा क्यों न हो वह आदर्श साधु महात्मा नहीं हो सकता। साधु की कोई जात व परिवार नहीं होता।

  1. अंग्रेजी न्यायालय का (Contempt of court) अपमान करने वाला सबसे पहला भारतीय महापुरुष महर्षि दयानन्द था। उन्हीं से प्रेरणा पाकर महात्मा मुंशीराम जी (स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज) ने हुतात्मा कन्हाई लाल दत्त के अभियोग के समय बड़ी निड़रता से अंग्रेजी न्यायालय का अपमान ((Contempt of court)ç किया था। क्या किसी बड़े से बड़े नेता को इन दो ऐतिहासिक तथ्यों का प्रतिवाद करने की हिमत है?

ऋषि दयानन्द के काल की तो छोड़िये, महर्षि के बलिदान के पच्चीस वर्ष पश्चात् तकाी कोई भी भारतीय नेता अंग्रेजी न्यायपालिका (British Judiciary)का अपमान नहीं कर सका। न जाने संघ परिवार को महर्षि दयानन्द की यह विलक्षणता, गरिमा, बड़प्पन, देशप्रेम व शूरता क्यों नहीं दिखाई देती?

  1. किसी भी अन्य भारतीय महापुरुष द्वारा उस युग में न्यायपालिका के अपमान की घटना सप्रमाण दिखाने की विवेकानन्दी बन्धुओं को हमारी खुली चुनौती है। लोकमान्य तिलक को उन्नीसवीं शतादी के अन्तिम वर्षों में क्राफर्ड केस में अंग्रेजी न्यायालय ने दण्डित किया था। उन्हें बन्दी बनाया गया। सब नेता न्यायालय के निर्णय को माँ का दूध समझकर पी गये। कांग्रेस तब देश व्यापी हो चुकी थी। कौन बोला न्यायालय के इस घोर अन्याय पर? देशवासी नोट कर लें कि तब शूरता की शान स्वामी श्रद्धानन्द जी ने महात्मा मुंशीराम के रूप में इस निर्णय पर विपरीत टिपणी की थी। महात्मा जी की वह सपादकीय टिप्पणी हमारे पास सुरक्षित है।
  2. महर्षि दयानन्द जी सन् 1877 के सितबर अक्टूबर मास में जालंधर पधारे थे। तब आपने एक सार्वजनिक सभा में अपनी निर्भीक वाणी से दुखिया देश का दुखड़ा रखते हुए अंग्रेजी राज के अन्याय, पक्षपात तथा उत्पीड़न को इन शदों में व्यक्त किया थाः- ‘‘यदि कोई गोरा अथवा अंग्रेज किसी देशी की हत्या कर दे तथा वह (हत्यारा) न्यायालय में कह दे कि मैंने मद्यपान कर रखा था तो उसको छोड़ देते हैं।’’

इस व्यायान का सार सपूर्ण जीवन चरित्र महर्षि दयानन्द के पृष्ठ 73 पर कोई भी पढ़ सकता है। हुतात्मा पं. लेखराम जी ने स्वामी विवेकानन्द जी के जीवन काल में अपने ग्रन्थ में यह पूरी घटना दे दी थी।

ऐसी निर्भीक वाणी उस युग के किसी भी साधु, सन्त व राजनेता के जीवन में दिखाने की क्या कोई हिमत करेगा?

जालन्धर के इसी व्यायान में ऋषि दयानन्द जी ने सन् 1857 की क्रान्ति को गदर (Mutiny) न कहकर विप्लव कहकर अपने प्रखर राष्ट्रवाद का शंख फूं का था। स्वातन्त्र्य वीर सावरकर जी ने वर्षों बाद हमारा प्रथम स्वातन्त्र्य संग्राम ग्रन्थ लिखकर घर-घर ऋषि की हुँकार पहुँचा दी। अंग्रेजी जानने वाले किसी और बाबा व नेता में तो इतनी हिमत न हुई।

  1. जब देशभक्त सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी को कारावास का दण्ड सुनाया गया तब महर्षि दयानन्द के मिशन के एक मासिक पत्र में सरकारी न्यायालय के इस अन्याय की निन्दा की गई। क्या किसी सन्यासी महात्मा ने देश में सुरेन्द्रनाथ जी के पक्ष में मुँह खोला या लिखा । हम इस घटना के प्रमाण स्वरूप अलय Document दस्तावेज दिखा सकते हैं।

दुर्भाग्य का विषय है कि आर्य समाज भी ऋषि की इन घटनाओं को विशेष प्रचारित (Highlight) नहीं करता।

  1. देश को सुनाना बताना होगा कि उन्नीसवीं शतादी के महापुरुषों में एकमेव सुधारक विचारक ऋषि दयानन्द थे जिन्होंने देश, धर्म व जाति हित में अपना बलिदान देकर बलिदान की परपरा चलाई। किसी और संगठन, किसी बाबा की परपरा में एक भी साधु, युवक, बाल, वृद्ध गोली खाकर, फांसी पर चढ़कर, छुरा खाकर, जेल में गल सड़कर देश धर्म के लिए बलिवेदी पर नहीं चढ़ा। यहाँ पं. लेखराम जी से लेकर वीर राम रखामल (काले पानी में), वीर वेदप्रकाश, भाई श्यामलाल और धर्मप्रकाश, शिवचन्द्र तक शहीदों की एक लबी सूची है। सेना प्रमुख श्रीयुत वी.के.सिंह तथा आर्यनगर हिसार में सुमेधानन्द महाराज की बुलाई नेता-पलटन इतिहास को क्या जाने?
  2. महर्षि दयानन्द का पत्र व्यवहार पढ़िये। प्रत्येक दो या तीन पत्रों के पश्चात् प्रत्येक पत्र में देश जाति के उत्थान कल्याण की ऋषि बात करते हैं। किसी अंग्रेजी पठित साधु, नेता के जीवन चरित्र व पत्रावली में ऐसा उद्गार, ऐसी पीड़ा और गुहार दिखा दीजिये। ऋषि दयानन्द की देन व व्यक्तित्व का अवमूल्यन करने वाले सब तत्त्वों को यह मेरी चुनौती है कि इन दस बिन्दुओं को सामने आकर झुठलावें।

आर्य और ईस्वी महीनो की तुलना – आर्य महीनो का वैज्ञानिक दृष्टिकोण

पाठकगण ! इस लेख द्वारा हम यूरोपीय (ईसाई) तथा पंचांगों की तुलना करना चाहते हैं और यह दिखाना चाहते हैं की आर्य पंचांग में विशेषता और गुण क्या हैं।

ये जानना आज इसलिए भी आवश्यक है की हमारे देश में एक ऐसी प्रजाति भी विकसित हो रही है जो ईसाइयो के अवैज्ञानिक और पाखंडरुपी चुंगल में फंसकर अपनी वैदिक संस्कृति जो पूर्ण वैज्ञानिक आधार पर है उसे नकार कर अन्धविश्वास में लिप्त होकर देश व धर्म का अहित करते जा रहे हैं।

देखिये जो हमारे आर्य महीनो के वैदिक आधार पर पंचांगानुसार नाम हैं वो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कितना उन्नत और व्यवस्थित रूप है जबकि ईसाइयो के महीनो का कच्चा चिटठा हम इस पोस्ट के माध्यम से रखेंगे। आशा है आप सत्य को जान असत्य को त्याग देंगे।

ईसाई महीनो के नाम :

जनवरी (January) : यह वर्ष का प्रथम मास (Astronomy) ज्योतिष है जिसे रोमननिवासियो ने एक देवता जेनस को समर्पित किया और उसके नाम पर महीने का नाम रखा। उनका विश्वास था की इस देवता के दो शीश (सर) थे, इसलिए यह दोनों और (आगे, पीछे) देख सकता था। यह देव आरम्भ देव था जिसको प्रत्येक काम के आरम्भ में मनाया जाता था। चूँकि जनवरी वर्ष का प्रथम मास है इसलिए इसका नाम जेनसदेव के नाम पर रखा गया।

फ़रवरी – प्रायश्चित का महीना।

मार्च – लड़ाई के देवता “मार्स” के नाम पर रखा गया।

अप्रैल – यह महीना जब पृथ्वी से नए नए पत्ते, कलियाँ और फल फूल उत्पन्न होते हैं। यह नाम उस महीने की ऋतु का द्योतक है।

मई – यह महीना प्रारंभिक भाग। भावार्थ यह है की इस मास में ऋतु ऐसी शोभायमान होती है जैसे नवयुवक और नवयुववतिया।

जून – छठा महीना जो आरम्भ में केवल २६ दिन का होता था इसके नाम का शब्दार्थ छोटा महीना है। महाराज जूलियस सीज़र के समय से इस महीने की अवधि ३० दिन की मानने लगे हैं।

जुलाई : जूलियस सीज़र के नाम पर, जो इस महीने मैं पैदा हुआ था यह नाम रखा गया।

अगस्त : महाराज अगस्टस सीज़र के नाम पर यह नाम रखा गया। चूंकि जूलियस सीज़र के नाम पर रखा जाने वाला जुलाई का महीना ३१ दिन का होता था और है, इसलिए अगस्टस सीज़र ने अगस्त का महीना भी उतने ही अर्थात ३१ दिन का रखा। और यह महीना तब से ३१ दिन का चला आता है।

सितम्बर : शब्दार्थ सातवां महीना क्योंकि रोमनिवासी अपना वर्ष मार्च से प्रारम्भ करते थे।

अक्तूबर : शब्दार्थ आठवां महीना। रोमनिवासीयो के अनुसार आठवां महीना।

नवम्बर : शब्दार्थ नवां महीना। रोमनिवासीयो के अनुसार नवां महीना।

दिसम्बर : शब्दार्थ दसवां महीना। रोमनिवासियो के अनुसार दसवां महीना।

तो मेरे मित्रो ऊपर दिए शब्दार्थो से आपको विदित होगा की अंग्रेजी महीनो के कुछ के नाम देवताओ के नाम पर, कुछ के ऋतु के अनुसार, कुछ के महाराजाओ के नाम पर और शेष के क्रम के अनुसार नाम रखे गए हैं। यानी कोई वैज्ञानिक आधार इस अंग्रेजी वर्ष और उसके दिए महीनो में नहीं निकलता।

अब हम आपको आर्य महीनो के नाम जो वैदिक पंचाग व्यवस्थानुसार सम्पूर्ण वैज्ञानिक रीति पर आधारित हैं उनसे परिचय करवाते हैं।

इन आर्य महीनो के नामो के शब्दार्थ समझने से पहले हमें कुछ ज्योतिष सिद्धांत समझ लेने चाहिए तभी इन महीनो का वैज्ञानिक आधार और नामो का शब्दार्थ पूर्ण रूप से समझ आएगा। पोस्ट बड़ी न हो इसलिए थोड़ा ही समझाया जा रहा है।

1. आर्य ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी सूर्य के चारो और एक अंडाकार वृत्त में ३६५-२४ दिन में घूमती है। यह अंडाकार मार्ग बारह भागो में विभाजित है और उन १२ भागो के नाम मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ, मीन हैं। इन १२ भागो नाम भी १२ राशियों के नाम से विख्यात हैं। इसी ज्योतिष गणना को यदि विस्तार से बतलाओ तो लेख बहुत लम्बा हो जाएगा इसके बारे में किसी अन्य पोस्ट पर विस्तार से बताया जाएगा।

जिस प्रकार पृथ्वी सूर्य के चारो और एक अंडाकार वृत्त में घूमती है। इसी प्रकार चन्द्रमा भी पृथ्वी के चारो और एक अंडाकार वृत्त में २७ दिन ८ घंटे में घूम आता है। इसका मार्ग २७ भागो में विभाजित है और प्रत्येक भाग को नक्षत्र कहते हैं। २७ नक्षत्रो के नाम इस प्रकार हैं :

1. अश्विनी 2. भरणी 3. कृत्तिका 4. रोहिणी 5. मृगशिरा 6. आर्द्रा 7. पुनर्वसु 8. पुष्य ९. अश्लेषा 10. मघा 11. पूर्वाफाल्गुनी 12. उत्तराफाल्गुनी 13. हस्त 14. चित्रा 15. स्वाती 16. विशाखा 17. अनुराधा 18. ज्येष्ठा 19. मुल 20. पुर्वाषाढा 21. उत्तरषाढा 22. श्रवण 23. धनिष्ठा 24. शतभिषा 25. पूर्वभाद्रपद 26. उत्तरभाद्रपद 27. रेवती

आज पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र है इसका अभिप्राय है की आज चन्द्रमा पृथ्वी के चारो और के मार्ग के पूर्वाषाढ़ा नामक भाग में है।

हम पृथ्वी पर रहने वाले हैं पृथ्वी के साथ साथ घुमते हैं। इस कारण हमको पृथ्वी स्थिर प्रतीत होती है और सूर्य तथा चन्द्रमा दोनों घुमते दिखते हैं।

जब सूर्य और चन्द्रमा के बीच में पृथ्वी होती है तो चन्द्रमा का वह अर्थ भाग जिस पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है पृथ्वी की और होता है। इसी कारण ऐसी अवस्था में चन्द्रमा सम्पूर्ण प्रकाशवान दीखता है अतः पूर्णमासी को जब चन्द्रमा पूर्ण प्रकाशित होता है, चन्द्रमा और सूर्य पृथ्वी के दोनों और उलटी दिशा में होते हैं।

आर्य महीनो के नाम नक्षत्रो के नाम पर रखे गए हैं। पूर्णमासी को जैसा नक्षत्र होता है उस महीने का नाम उसी नक्षत्र पर रखा गया है, क्योंकि पूर्णिमा को सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी के दोनों और उलटी दिशा में होते हैं।*

महीनो के नाम नक्षत्रानुसार इस प्रकार हैं :

1. चैत्र – चित्रा

2. वैशाख – विशाखा

3. ज्येष्ठ – ज्येष्ठा

4. आषाढ़ – पूर्वाषाढ़

5. श्रावण – श्रवण

6. भाद्रपद – पूर्वाभाद्रपद

7. आश्विन – अश्विनी

8. कार्त्तिक – कृत्तिका

9. मार्गशिर – मृगशिरा

१० पौष – पुष्य

11. माघ – मघा

12. फाल्गुन – उत्तरा फाल्गुन

इसी आधार पर हमें अंतरिक्ष में सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि सभी ग्रहो की चाल, और अभी वो किस जगह स्थित हैं ये पूर्ण जानकारी इसी विज्ञानं के आधार पर मिलती जाती है।

सर डब्ल्यू जोंस की यह भी सम्मति है की आर्यो के महीनो के नाम इत्यादि से पूरा पता लगता है की आर्य ज्योतिष अत्यंत पुरानी है। आर्यो में प्राचीन काल में वर्ष पौष मास से आरम्भ होता था जब दिन अत्यंत छोटा और रात अत्यंत बड़ी होती है। इसी कारण मार्गशिर मास का द्वितीय नाम अग्र्ह्न्य था, जिसका अर्थ यह है की वह महीना जो वर्ष आरम्भ होने से पहले हो।

मेरे सभी हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई भाइयो से निवेदन है की वो इस अंग्रेजी महीने जो देवता, महाराज ऋतु इत्यादि के नाम पर रखे गए हैं त्याग देवे और अपने पूर्ण विज्ञानी रीति से जो आर्य महीने हैं उनकी प्रतिष्ठा को जान लेवे।

प्राचीन आर्य पुरुष ज्योतिष में अवश्य विशेष ज्ञान प्राप्त कर चुके थे और उनके ज्ञान के टूटे फूटे चिन्ह ही आज तक आर्य समाज में पाये जाते हैं। क्या अच्छा हो यदि हम प्राचीन आर्य सभ्यता का मान करे और उसके बचे बचाये चिन्हो से नयी नयी खोज कर समाज के सामने रखे जिससे देश व धर्म का कल्याण हो।

ये केवल संक्षेप में बताया गया फिर भी इतनी बड़ी पोस्ट हो गयी, लेकिन इसे नजरअंदाज न करे और वेद धर्म का प्रचार करे ताकि हमारे अन्य हिन्दू भाई ईसाइयो के अन्धविश्वास में न पड़े।

आओ लौटो वेदो की और

नमस्ते।

* इसमें सूर्य सिद्धांत प्रमाण है :

भचक्रं भ्रमणं नित्यं नाक्षत्रं दिनमुच्यते।
नक्षत्र नाम्ना मासास्तु क्षेयाः पर्वान्त योगतः।

अर्थात दैनिक भचक्र का भ्रमण करना ही नाक्षत्रिक दिन है।

पूर्णिमानताधिष्ठित नक्षत्र के नाम से मास का नाम जानना चाहिए।

क्या ईश्वर संसार में किसी स्थान विशेष में, किसी काल विशेष में रहता है? क्या ईश्वर किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष के कल्याण के लिए और दुष्टों का नाश करने के लिए भेजता है? – आचार्य सोमदेव जी

क्या ईश्वर संसार में किसी स्थान विशेष में, किसी काल विशेष में रहता है? क्या ईश्वर किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष के कल्याण के लिए और दुष्टों का नाश करने के लिए भेजता है?

ईश्वर इस संसार के स्थान विशेष वा काल विशेष में नहीं रहता परमेश्वर संसार के प्रत्येक स्थान में विद्यमान है। जो परमात्मा को एक स्थान विशेष पर मानते हैं वे बाल बुद्धि लोग हैं। वेद ने परमेश्वर को सर्वव्यापक कहा है। वेदानुकुल सभी शास्त्रों में परमात्मा को सर्वव्यापक कहा है। एक स्थान विश्ेाष पर परमेश्वर को कोई सिद्ध नहीं कर सकता , न ही शद प्रमाण और न ही युक्ति तर्क से। हाँ ईश्वर शद प्रमाण और युक्ति तर्क से विभु= सर्वत्र व्यापक तो सिद्ध हो रहा है, हो सकता है। वेद में कहा-

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।

– प. 31.3

इस पुरुष की इतनी महिमा है कि यह सारा ब्रह्माण्ड परमेश्वर के एक अंश में है अर्थात् वह ईश्वर इस समस्त ब्रह्माण्ड में समाया हुआ अनन्त है, यह समस्त जगत् परमात्मा के एक भाग में है अन्य तीन भाग तो परमात्मा के अपने स्वरूप में प्रकाशित हैं अर्थात् परमात्मा अनन्त है अर्थात् सर्वत्र विद्यमान है उसको किसी एक स्थान पर नहीं कह सकते।

नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः।

जेषः स्वर्वतीरपः सं गा अस्मयं धूनुहि।।

– ऋ. 1.10.8

इस मन्त्र के भावार्थ में महर्षि लिाते हैं – ‘‘जब कोई पूछे कि ईश्वर कितना बड़ा है तो उत्तर यह है कि जिसको सब आकाश आदि बड़े-बड़े पदार्थ भी घेर में नहीं ला सकते, क्योंकि वह अनन्त है। इससे सब मनुष्यों को उचित है कि उसी परमात्मा को सेवन उत्तम उत्तम कर्म करने और श्रेष्ठ पदार्थों की प्राप्ति के लिए उसी से प्रार्थना करते रहें। जब जिसके गुण और कर्मों की गणना कोई नहीं कर सकता, तो कोई अंत पाने को समर्थ कैसे हो सकता है। और भी -’’

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविंर शुद्धमपापाविद्धम्।

कविर्मनीषी परिभूः स्वयभूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीश्यः समायः।।

– य. 40.8

इस मन्त्र में परमेश्वर को सब में व्याप्त कहा है, इस व्याप्ति से ज्ञात हो रहा है कि परमात्मा किसी एक स्थान विशेष पर नहीं अपितु सर्वत्र है। इस प्रकार परमेश्वर के सर्वत्र व्यापक स्वरूप को सिद्ध करने के लिए शास्त्र के हजारों प्रमाण दिये जा सकते हैं। कोईाी प्रमाण ऐसा उपलध नहीं होता जो परमात्मा को एकदेशीय सिद्ध करता हो।

युक्ति से भी कोई परमात्मा को किसी स्थान विशेष पर सिद्ध नहीं कर सकता। आज विज्ञान का युग है, वैज्ञानिकों ने समस्त पृथिवी, समुद्र, आकाश आदि को देख डाला है। जिन किन्हीं का भगवान् समुद्र, पहाड़ आकाश आदि में होता तो अब तक वह भगवान् वैज्ञानिकों के हाथ में होता। जो लोग ईश्वर को ऊपर सातवें वा चौथे आसमान अथवा इससे कहीं और ऊपर मानते हैं वे यह सिद्ध नहीं कर सकते कि कौनसा ऊपर, कौनसा आसमान। क्योंकि प्रमाण सिद्ध यह पृथिवी गोल है। इस गोल पृथिवी के लगभग चारों और मानव आदि प्राणी रहते हैं।

जो मनुष्य भारत में रहते हैं अर्थात् पृथिवी के ऊपरी भाग पर रहते हैं उनका आसमान उनके शिर के ऊपर और जो मनुष्य अमेरिका आदि देशों में है अर्थात् पृथिवी के निचलेााग में रहते हैं उनका आकाश (आसमान) भारत आदि देश में रहने वालों की अपेक्षा विपरीत होगा अर्थात् भारत वालों को पैरों में आकाश होगा ऐसा ही पृथिवी के अन्य स्थानों पर रहने वाले मनुष्य का आकाश जाने । पृथिवी के चारों ओर आकाश है, आसमान है, पृथिवी पर रहने वाले मनुष्यों के शिर जिस ओर होंगे उनका आसमान उसी ओर होगा। ऐसा विचार करने पर जो परमात्मा को आसमान में मानते हैं वे भी एक स्थान विशेष पर सिद्ध नहीं कर सकते। इस विचार से भी परमात्मा सर्वत्र ही सिद्ध होगा। इसलिए परमात्मा सब स्थानों पर विद्यमान है  न कि किसी एक स्थान विशेष पर।

स्थान विशेष की कल्पना ब्रह्माकुमारी मत वालों की भी है। उनका कहना है कि यदि ईश्वर को सर्वव्यापक मानते हैं तो ईश्वर गन्दगी में शौच आदि मेंाी होगा। यदि ऐसा होगा तो ईश्वराी गन्दा हो जायेगा। इन ब्रह्माकुमारी बाल बुद्धि वालों ने ईश्वर को कितना कमजोर बना दिया कि जो ईश्वर सदा पवित्र रहने वाला है, इन ब्रह्माकुमारी वालों का ईश्वर गन्दगी से गन्दा हो जाता है। इनको यह नहीं पता कि यह गन्दगी भौतिक है और ईश्वर अभौतिक। परमेश्वर के अभौतिक ओर सदा पवित्र होने से परमेश्वर के ऊपर इस गंदगी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हमारे ऊपर भी जो प्रभाव पड़ता है वह इसलिये क्योंकि हमारे पास भौतिक शरीर इन्द्रियाँ आदि हैं, इनसे रहित होने पर हम जीवात्माओं पर भी उस गंदगी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ईश्वर तो सर्वथा इनसे रहित है तो ईश्वर पर इस गंदगी का प्रभाव कैसे पड़ेगा। इसलिए मलिनता से बचाने के लिए ईश्वर को एक स्थान विशेष पर मानना मूर्खता ही है।

इसी प्रकार ईश्वर किसी काल विशेष में होता हो ऐसा नहीं है, परमेश्वर तो सदा सभी कालों में वर्तमान रहता है। काल विशेष में होने की कल्पना अवतारवादी कर सकते हैं, जो कि उनकी यह मान्यता सर्वथा असंगत है। वर्तमान, भूत, भविष्यत काल की आवश्यकता हम जीवों की अपेक्षा से है। परमेश्वर के लिए तो सदा वर्तमान रहता है, भूत भविष्य परमात्मा के लिए नहीं है। परमात्मा सदा एक रस रहता है।

परमात्मा किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष की रक्षा वा दुष्टों के नाश के लिए भेजता हो ऐसा नहीं है। यह कल्पना भी अवतारवादियों की है। परमात्मा तो जीवों के कर्मानुसार उनको जन्म देता है। जो जीव विशेष संस्कार युक्त होता हैं वे जगत् के कल्याण और दुष्टों के नाश में प्रवृत्त होते हैं। ऐसा करने पर परमात्मा उनको आनन्द उत्साह आदि प्रदान करता है। किन्तु ऐसा कदापि नहीं है कि परमात्मा ने किसी जीव विशेष को इस कार्य में लगााया है यदि ऐसा मानेंगे तो जीव की स्वतन्त्रता न रहेगी। ऐसा मानने पर सिद्धान्त की हानि होगी। कर्म फल व्यवस्था की सिद्धि ठीक से न हो पायेगी। किसी समुदाय की रक्षा करे तो दोष का भागी हो जायेगा क्योंकि ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि पूरे समुदाय में सभी लोग एक जैसे धर्मात्मा हों, उस समुदाय में उलटे लोग भी हो सकते हैं। समुदाय में होने से उनकी भी रक्षा करनी पड़ेगी तो न्याय न हो सकेगा। जब कि परमेश्वर न्याय कारी है उसके द्वारा भेजी गई आत्मा को भी न्याय करना चाहिए जो कि वह कर न सकेगी।

अधिकतर लोगों की मान्यता है कि परमेश्वर किसी आत्मा को न भेजकर स्वयं अवतार लेते हैं । ऐसा करके परमात्मा सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों का नाश करते हैं। इस प्रकार की यह मान्यता भी ईश्वर के स्वरूप से विपरीत तथा वेद-शास्त्र के प्रतिकूल है। क्योंकि ईश्वर विभु है, अनन्त है, वह अनन्त प्रभु एक छोटे से शान्त शरीर में कैसे आ सकता है? परमेश्वर जन्म मरण से परे है फिर शरीर में आकर जन्म-मृत्यु को कैसे प्राप्त कर सकता है? परमेश्वर का अवतार मानने पर इस प्रकार की अनेक दोषयुक्त बातों को मानाना पड़ेगा।

अवतारवादियों का अवतार मानने का मुय आधार ये दो श्लोक हैं-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अयुत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजायहम्।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।

इन श्लोकों में अवतार लेने का कारण कि जब-जब धर्म की हानि होगी तब-तब धर्म के उत्थान और अर्धा के नाश के लिए तथा श्रेष्ठों के परित्राण =रक्षा और दुष्टों के नाश के लिए अवतार लेता है। अब यहाँ विचारणीय यह है कि जिस परमात्मा ने बिना शरीर के इस सब ब्रह्माण्ड को रच डाला, हम सब प्राणियों के शरीरों की रचना की है, उस परमात्मा को कुछ क्षुद्र, दुष्ट व्यक्तियों को मारने के लिए शरीर धारण करना पड़े यह बात बुद्धिग्राह्य नहीं है। इससे तो ईश्वर का ईश्वरत्व न रहकर ईश्वर का बहुत लघुत्व सिद्ध हो रहा है। यदि परमात्मा को यही करना है तो वह इस प्रकार के कार्य बिना शरीर के भी कर सकता है क्योंकि वह पूर्ण समर्थ है। अस्तु

इन उपरोक्त गीता के श्लोकों में अवतार का कारण हमने देखा अब देवी भागवत पुराण में अवतार लेने का कारण देखिये कया लिखा –

शपामि त्वां दुराचारं किमन्यत् प्रकरोमिते।

विध्ुारोहं कृतः पाप त्वयाऽहं शापकारणात्।।

अवतारा मृत्युलोके सन्तु मच्छापसंभवाः।

प्रापो गर्भभवं दुःख भुक्ष्ंव पापाज्जनार्दन।।

इन देवी भागवत के श्लोकों में अवतार का कारण धर्म की रक्षा वा अधर्म के नाश करने के लिए नहीं कहा अपतिु भृगु का शाप कहा है। अर्थात् महर्षि भृगु ने विष्णु को उसके दुराचार कर्म के कारण शाप दिया उनके शाप के प्रााव  से विष्णु का मृत्य ुलोक में अवतार हुआ। गीता के और देवी भागवत पुराण में अवतार के कारणों में परस्पर विरोध है। और देखिये-

बौद्धरूपस्त्वयं जातः कलौ प्राप्ते भयानके।

वेदधर्मपरायन् विप्रान् मोहयामास वीर्यवान्।

निर्वेदा कर्मरहितास्त्रवर्णा तामासान्तरे ।।

यहाँ गीता से सर्वथा विपरीत अवतार का कारण कहा है। गीता धर्म की रक्षा कारण कहती है और यहाँ तो धर्म के नाश के लिए अतवार ले लिया, अर्थात् भागवत पुराण कहता है- भगवान ने बुद्ध का अवतार लेकर, सबको विरुद्ध उपदेश देकर नास्तिक बनाया तथा वेद मार्ग का नाश किया। यहाँ ये अवतारवादियों के ग्रन्थ परस्पर विरुद्ध कथन कर रहे हैं।

यथार्थ में तो ईश्वर के किसी भी रूप में जन्म धारण करने की कल्पना ही युक्ति व शास्त्र विरुद्ध है। क्योंकि ईश्वर को किसी भी प्रकार के सहारे की आवश्यकता नहीं, चाहे वह सहारा किसी शरीर का हो अथवा किसी अन्य प्राणी का। परमेश्वर अपने सब कार्य करने में समर्थ है, उसको कोई अवतार लेने की आवश्यकता नहीं है।

वेद में ईश्वर को ‘‘अकायमव्रणमस्नाविरम्’’ कहा है। वह परमात्मा सूक्ष्म और स्थूल शरीर के बन्धन से रहित है अर्थात् इन बन्धन में नहीं पड़ता। श्वेताश्वतर उपनिषद् मेंऋषि ने कहा-

वेदाहमेतमजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात्।

जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनो हिप्रवदन्ति नित्यम्।।

– 4.21

अर्थात् वह परमात्मा अजर है, पुरातन (सनातन) है, सर्वान्तर्यामी है, विाु और नित्य है। ब्रह्मवादी सदा उसका बखान करते हैं वह कभी जन्म नहीं लेता।

उपरोक्त सभी प्रमाणों से सिद्ध हो रहा है कि परमात्मा जीव के कर्मानुसार उसके भोग के लिए शरीर स्थान, समुदाय आदि देता है न कि अपनी इच्छा से किसी का नाश वा रक्षा के लिए उसको भेजता है और ऐसे ही स्वयं भी अवतार लेकर कुछ नहीं करता अर्थात् स्वयं शरीर धारण करके किसी की रक्षा वा नाश नहीं करता।

मूर्तिपूजा के इतिहास पर महर्षि दयानन्द का उपदेश: मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द के इतिहास विषयक एक उपदेश जिसमें उन्होंने महाभारत काल उसके बाद देश में धर्म अध्ययन अध्यापन पर प्रकाश डाला है, को हमनें अपने पूर्व लेख में प्रस्तुत किया था। उसी क्रम में उसके बाद देश में वेदाध्ययन को छोड़कर मूर्तिपूजा के प्रचलन विषयक घटी घटनाओं के इतिहास पर उनके उपदेश को आज के लेख में किंचित सम्पादन के साथ पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। महर्षि का उपदेश आरम्भ करते हैं:

 

एक द्रविड़ देश के ब्राह्मण काशी में आकर, यहां एक गौड़पाद पण्डित थे, उनके पास व्याकरण पूर्वक वेद पर्यन्त विद्या पढ़ी थी जिसका नाम शंकराचार्य था। वह बड़े पण्डित हुए थे, उन्होंने विचार किया कि यह बड़ा अनर्थ हुआ कि नास्तिकों का मत आर्यावर्त्त देश में फैल गया है और वेदादिक संस्कृत विद्या का प्रायः नाश ही हो गया है, अतः नास्तिक मत का खयडन और वेदादिक सत्य संस्कृत विद्या का (मण्डन होना चाहिए)। वह अपने मन से ऐसा विचार करके सुधन्वा नाम का राजा था, उसके पास चले गए, क्योंकि बिना राजाओं के सहाय से यह बात नहीं हो सकेगी। वह सुधन्वा राजा भी संस्कृत में पण्डित था और जैनों के भी संस्कृत के सब ग्रन्थों को पढ़ा था। सुधन्वा जैन के मत का था, परन्तु बुद्धि और विद्या के होने से अत्यन्त विश्वास नहीं था, क्योंकि वह संस्कृत भी पढ़ा था और उसके पास जैन मत के पण्डित भी बहुत थे। फिर शंकराचार्य ने राजा से कहा कि आप सभा करावें और उनसे मेरा शास्त्रार्थ हो और आप सुनें। फिर जो सत्य हो उसको मानना चाहिए। उसने स्वीकार किया और सभा भी कराई। उसके अपने पास जैन मत के पण्डित थे और भी दूर-दूर से पण्डित जैन मत के बुलाए, फिर सभा हुई। उसमें यह प्रतिज्ञा हो गई कि हम वेद और वेद मत का स्थापन करेंगे और आपके मत का खण्डन तथा उन पण्डितों ने ऐसी प्रतिज्ञा की कि वेद और वेदमत का हम खण्डन करेंगे और अपने मत का मण्डन। सो उनका परस्पर शास्त्रार्थ होने लगा। उस शास्त्रार्थ में शंकराचार्य का विजय हुआ और जैन मत वाले पण्डितों का पराजय हो गया। फिर कोई युक्ति जैनों की नहीं चली, किन्तु शंकराचार्य ने कहा कि जैनों का आजकल बड़ा बल है और वेद मत का बल नहीं है। इससे शास्त्रार्थ तो हम करने को तैयार हैं, परन्तु कोई उपाधि करे अथवा शास्त्रार्थ ही न करें, तो हमारा कुछ बल नहीं। इसमें आप लोग प्रवृत्त होंवे कि कोई अन्याय करे, उसकी आप लोग शिक्षा करें। सो राजा ने उस बात को स्वीकार किया कि वह हम करेंगे, परन्तु हमारे छः राजा सम्बन्धी हैं, उनके पास हम चिट्ठी लिखते हैं और आपको भी शास्त्रार्थ करने के हेतु भेजेंगे। फिर वह भी यदि मिल जायें तो बहुत अच्छी बात है। फिर शंकराचार्य उन राजाओं के पास गए और सभा हुई, फिर जैन मत के पण्डितों का पराजय हो गया। फिर वे छः भी सुधन्वा से मिले ओर सबकी सम्मति से संस्कार भी हुआ तथा वेदोक्त कर्म भी करने लगे।

 

तब तो आर्यावर्त्त में सर्वत्र यह बात प्रसिद्ध हो गई कि एक शंकराचार्य नामक संन्यासी वेदादिक शास्त्रों के पढ़ने वाले बड़े पण्डित हैं जिससे बहुत जैन लोगों के पण्डित परास्त हो गए। फिर उन सात राजाओं ने शंकराचार्य की रक्षा के हेतु बहुत भृत्य तथा सेवक और सवारी भी रख दी और सबने कहा कि आप सर्वत्र आर्यावर्त्त में भ्रमण करे और जैनों का खण्डन करें। इसमें यदि कोई अन्याय से जबर्दस्ती करेगा तो उसको हम लोग समझा लेवेंगे। फिर शंकराचार्य जी ने जहां-जहां जैनों के पण्डित और अत्यन्त प्रचार था, वहां-वहां भ्रमण किया और उनसे सर्वत्र शास्त्रार्थ किया। शास्त्रार्थें में सर्वत्र जैन लोगों का पराजय ही होता गया, क्योंकि दो तीन दोष उन (जैनियों) के बड़े भारी थे। एक तो ईश्वर को नहीं मानना, दूसरा वेदादिक सत्य शास्त्रों का खण्डन करना और तीसरा जगत् स्वभाव ही से होता है, इसका रचने वाला कोई नहीं, इत्यादि अन्य भी बहुत दोष हैं, उन दोषों को जैन मत के खण्डन मण्डन में विस्तार से (कहेंगे)। फिर जितनी जैनों के मन्दिर में मूर्तियां थी, उनको सुधन्वादिक राजाओं ने तोड़वा डाली और कुवों (में डलवा दी) वा पृथिवी में गाड़ दी, सो आज तक जैनों की वे टूटी और बिना टूटी मूर्तियां पृथिवी खोदने से निकलती हैं। परन्तु मन्दिर नहीं तोड़े गए, क्योंकि शंकराचार्य और राजा लोगों ने विचार किया कि मन्दिरों को तोड़ना उचित नहीं है। इनमें वेदादिक शास्त्रों के पढ़ने के हेतु पाठशाला करेंगे, क्योंकि लाखों करोड़ों रूपये की इमारतें हैं, इसको तोड़ना उचित नहीं। और कुछ-कुछ गुप्त रूप से जैन लोग जहां-तहां रह गए थे सो आज तक देखने में आर्यावत्र्त देश में आते हैं। इसके बाद सर्वत्र वेदादि ग्रन्थों के पढ़ने और पढ़ाने की इच्छा बहुत मनुष्यों को हुई। शंकराचार्य, सुधन्वादि राजा तथा और आर्यावर्त्तवासी श्रेष्ठ लोगों ने विचार किया कि विद्या का प्रचार अवश्य करना चाहिए। वह विचार ही करते रहे। इतने में 32 वा 33 बरस की उमर में शंकराचार्य का शरीर टूट गया। उनके मरने से सब लोगों का उत्साह भंग हो गया। यह भी आर्यावर्त्त देशवालों का बड़ा अभाग्य था, यदि शंकराचार्य दश वा बारह बरस भी और जीते तो विद्या का प्रचार यथावत् हो जाता। फिर आर्यावत्र्त की ऐसी दुर्दशा कभी नहीं होती, क्योंकि जैनों का खण्डन तो हो गया, परन्तु विद्या प्रचार यथावत् नहीं हुआ। इससे मनुष्यों को यथावत् कर्तव्य और अकर्तव्य का निश्चय नहीं होने से मन में सन्देह ही रहा। कुछ तो जैनों के मत का संस्कार हृदय में रहा और कुछ वेदादिक शास्त्रों का भी। यह बात इक्कीस या बाइस सौ बरस पूर्व की है। इसके पीछे 200 वा 300 वर्षों तक साधारण पढ़ना और पढ़ाना रहा।

 

फिर उज्जैन में विक्रमादित्य राजा कुछ अच्छा हुआ। उसने राजधर्म का कुछ-कुछ प्रकाश किया और बहुत कार्य न्याय से होने लगे थे। उसके राज्य में प्रजा को सुख भी मिला था, क्योंकि विक्रमादित्य तेजस्वी, बुद्धिमान्, शूरवीर तथा धर्मात्मा था, इससे कोई और अन्याय नहीं करने पाता था। परन्तु वेदादिक विद्या का प्रचार उसके राज्य में भी यथावत् नहीं होता था। उसके पीछे ऐसा राजा नहीं हुआ, किन्तु साधारण होते रहे। फिर विक्रमादित्य से 500 वर्ष के पीछे राजा भोज हुए। उसने संस्कृत का प्रचार किया, अतः नवीन ग्रन्थों की रचना और प्रचार किया था वेदादि ग्रन्थों का नहीं। परन्तु कुछ-कुछ संस्कृत का प्रचार राजा भोज ने ऐसा कराया था कि चाण्डाल और हल जोतने वाले भी कुछ-कुछ लिखना पढ़ना और संस्कृत भी बोलते थे। देखना चाहिए कि कालिदास गड़रिया था, परन्तु श्लोकादिक रच लेता था और राजा भोज भी नये-नये श्लोक रचने में कुशल था। कोई एक श्लोक भी रच के उनके पास ले जाता था, उसका प्रसन्नता से सत्कार करता था और जो कोई ग्रन्थ बनाता था तो उसका बड़ा भारी सत्कार करता था। फिर बहुत मनुष्य लोग लोभ से नए ग्रन्थ रचने लगे, उससे वेदादिक सनातन पुस्तकों की अप्रवृत्ति प्रायः हो गई। संजीवनी नाम का इतिहास विषयक ग्रन्थ राजा भोज ने बनाया, उसमें बहुत पण्डितों की सम्मति है। उसमें यह बात लिखी है कि तीन ब्राह्मण पण्डितों ने ब्रह्मवैवत्र्तादिक तीन पुराण रचे थे। उनसे राजा भोज ने कहा कि और के नाम से तुमको ग्रन्थ रचना उचित नहीं था। संजीवनी ग्रन्थ में महाभारत की बात लिखी है कि कितने हजार श्लोक 20 बरस के बीच में व्यास जी का नाम करके लोगों ने मिला दिए हैं। ऐसे ही महाभारत का पुस्तक बढ़ेगा तो एक ऊंट का भार हो जायगा। और यदि ऐसे ही लोग दूसरे (महर्षि व्यास आदि) के नाम से ग्रन्थ रचेंगे तो बहुत भ्रम लोगों को हो जायगा। अतः उस संजीवनी ग्रन्थ में राजा भोज ने अनेक प्रकार की बातें उनके समय में विद्यमान पुस्तकों के विषय में और देश के वर्तमान के विषय में तथ्य पूर्ण इतिहास सम्मत लेख लिखे हैं। बटेश्वर के पास होलीपुरा एक गांव है, उसमें चैबे लोग रहते हैं, वह जानते हैं कि जिसके पास वह इतिहास विषयक वह संजीवनी ग्रन्थ है, परन्तु वह पण्डित लिखने वा देखने को किसी को नहीं देता, क्योंकि उसमें सत्यसत्य बात लिखी है। उसके प्रसिद्ध होने से पण्डितों की आजीविका नष्ट हो जाती है। इस स्वार्थरूपी भय से वह पण्डित उस ग्रन्थ को प्रसिद्ध नहीं करता। ऐसे ही आर्यावर्त्त निवासी मनुष्यों की बुद्धि क्षुद्र हो गई है कि अच्छा पुस्तक वा कोई इतिहास, उसको छिपाते चले जाते हैं। यह इनकी बड़ी मूर्खता है क्योंकि अच्छी बात जो लोगों के उपकार की हो, उसको कभी छिपाना चाहिए।

 

फिर राजा भोज के पीछे कोई अच्छा राजा नहीं हुआ। उस समय में जैन लोगों ने जहां-तहां मूर्तियां मन्दिरों में प्रसिद्ध की और वे कुछ-कुछ प्रसिद्ध भी होने लगे, तब ब्राह्मणों ने विचार किया कि इन जैनों के मन्दिरों में नहीं जाना चाहिए, किन्तु ऐसी युक्ति रचें कि हम लोगों की आजीविका जिससे हो। फिर उन्होंने ऐसा प्रपंच रचा कि हमको स्वप्न आया है, उसमें महादेव, नारायण, पार्वती, लक्ष्मी, गणेश, हनुमान, राम, कृष्ण, नृसिंह ने स्वप्न में कहा है कि हमारी मूर्ति स्थापन करके पूजा करें तो पुत्र, धन, नैरोग्यादिक पदार्थों की प्राप्ति होगी। जिस-जिस पदार्थ की इच्छा करेगा, उस-उस पदार्थ की प्राप्ति उसको होगी। फिर बहुत मूर्खों ने मान लिया और मूर्ति स्थापन करने को कोई-कोई घनी पुरुष लगा। फिर पूजा और आजीविका भी उनकी (मूर्तियों की) होने लगी। एक की आजीविका देख के दूसरा भी ऐसा करने लगा। और किसी महाधूर्त ने ऐसा किया कि मूर्ति को जमीन में गाड़ के प्रातः काल उठके कहा कि मुझको स्वप्न हुआ है। फिर उनसे बहुत लोग पूछने लगे कि कैसा स्वप्न हुआ है, तब उसने उनसे कहा कि देव कहता है कि मैं जमीन में गड़ा हूं और दुःख पाता हूं, मुझको निकाल के मन्दिर में स्थापन करें और तू ही पुजारी हो तो मैं सब काम सब मनुष्यों का सिद्ध करूंगा। फिर वे विद्याहीन मनुष्य उससे पूछते थे कि वह मूर्ति कहां है? जो तुम्हारा स्वप्न सत्य है तो तुम दिखलाओ। तब जहां उसने मूर्ति गाड़ी थी वहां सबको ले जाकर भूमि खोद कर वह मूर्ति निकाली। सबने देख के बड़ा आश्चर्य किया और सबने उससे कहा कि तू बड़ा भाग्यवान् है और तुझ पर देवता की बड़ी कृपा है।  इएलिए हम लोग धन देते हैं, इस धन से मन्दिर बनाओ। इस मूर्ति का उसमें स्थापन करो। तुम इसके पुजारी बनो और हम लोग नित्य दर्शन करेंगे। तब तो उसने प्रसन्न होके वैसा ही किया और उसकी आजीविका भी अत्यन्त होने लगी। उसकी आजीविका को देख के अन्य पुरुष भी ऐसी धूर्तता करने लगे और विद्याहीन पुरुष उसकी मान्यता व प्रतिष्ठा करने लगे। फिर प्रायः मूर्ति पूजन आर्यावर्त्त में फैला।

 

               महर्षि दयानन्द ने मूर्ति पूजा के भारत वा आर्यावर्त्त में प्रचलन का यह वृतान्त अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के प्रथम संस्कारण में सन् 1874 में प्रस्तुत किया था। सारा देश जिसमें सभी मूर्ति पूजक भी शामिल है, इन तथ्यों को नहीं जानता। सत्य को जानना मानना तथा असत्य को छोड़ना दूसरों से छुड़वाना ही मनुष्य जीवन का एक उद्देश्य है। इसी उद्देश्य से सत्यार्थ के प्रकाश के लिए महर्षि दयानन्द का यह उपदेश प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है कि पाठक इतिहास के इस भूले बिसरे पृष्ठ को जानकर लाभान्वित होंगे। इसके बाद महर्षि दयानन्द ने विदेशी विधर्मियों के भारत आगमन, मन्दिरों को लूटने और मूर्तियों को तोड़ने आदि की अनेक घटनाओं पर प्रकाश डाला है जिनको आगामी लेखों के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे। 

 

मनमोहन कुमार आर्य

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यह विवाह ऋषि दयानन्द जी की मान्यता के अनुसार जाति बन्धन तोड़कर हुआ है। प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

उत्तर ऐसा दियाः वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए शंका समाधान व प्रश्नोत्तर की कला में निष्णात होना आवश्यक है। कार्य क्षेत्र में आठ दस वर्ष तक कार्य करने का अनुभव होने पर जिसने इस कला में कोई सिद्धि प्राप्त नहीं की, उसको सफल मिशनरी तथा विद्वान् नहीं माना जा सकता। उसके लिए बोलना व लिखना एक व्यवसाय है। उसका जीवन उद्देश्यहीन जानो। यह कार्य वही कर सकता है जिसमें मिशन की पीड़ा होगी। जिसमें ज्ञान उजाला करने की ललक होगी। उसमें उत्तर देने की कला का अविर्भाव होगा ही। श्री पं. रामचन्द्र जी देहलवी एक बार पानीपत पधारे। एक घण्टे तक व्यायान दिया। फिर आधा घण्टा शंका समाधान के लिए दिया करते थे । एक श्रोता ने पूछा, आपके अपने से थोड़ा पहले यहाँ ठाकुर जी का तुलसीजी से विवाह हुआ है। भक्तों ने हर्षोल्लास से उसमें भाग लिया। आपका इसके बारे में क्या विचार है?

पण्डित जी ने कहा, ‘‘जितनी यहाँ के भक्तों को इस विवाह पर प्रसन्नता हुई मुझे उससे भी कहीं अधिक हो रही है। यह विवाह ऋषि दयानन्द जी की मान्यता के अनुसार जाति बन्धन तोड़कर हुआ है।’’

यह उत्तर सुनकर श्रोताओं ने करतल ध्वनि से इसका स्वागत किया। फिर बोले, ‘‘विवाह का प्रयोजन सन्तान की उत्पत्ति है। ये जोड़ी अभागी ही रहेगी । ये ऊत ही रहेंगे। इनके सन्तान तो होगी नहीं।’’ इस पर फिर करतल ध्वनि हुई। सारी नगरी में पण्डित जी के इस उत्तर की चर्चा होने लगी। यह है उत्तर देने की कला की मौलिकता।

श्री तैलंग स्वामी की कहानीः- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

उ.प्र. से एक सुयोग्य आर्य युवक आशीष प्रताप सिंह ने चलभाष पर श्री तैलंग स्वामी की राष्ट्रधर्म में छपी कहानी पर प्रकाश डालने की मांग की। उन्हें बताया गया कि इस लेख पर परोपकारी में सप्रमाण विवेचन किया जा चुका है। श्रीयुत भावेश मेरजा गुजराती भाषा में एक पठनीय लेख में तैलंग स्वामी की कहानी की शव परीक्षा कर चुके हैं। संक्षेप से नये प्रमाणों के साथ उक्त गढ़न्त पर विचार किया जाता है। महर्षि दयानन्द जी ने वैदिक धर्म ध्वजा फहराने , एकेश्वरवाद के प्रचारार्थ, मूर्तिपूजा आदि अंधविश्वासों के उन्मूलन के लिये काशी पर सात बार चढ़ाई की। काशी शास्त्रार्थ में भले ही पण्डितों ने बहुत धाँधली मचाई थी परन्तु काशी के पण्डितों में एक हड़कप सा मच गया।

राष्ट्रधर्म के लेखानुसार तब तैलंग स्वामी का पत्र लेकर उनका कोई व्यक्ति ऋषि से मिला। पत्र में क्या था? यह राष्ट्रधर्म के लेखक को कतई ज्ञान नहीं। पत्र पढ़ते ही ऋषि दयानन्द ने काशी नगरी छोड़ दी। तब पण्ड़ितों की जान में जान आई। उस काल के पत्रों से यही प्रमाणित होता है। कोई भी ये प्रमाण देख ले।

प्रश्न यह है कि तैलंग स्वामी का पत्र पढ़ते ही महर्षि ने काशी से प्रस्थान कर दिया, लेखक ने किस आधार पर लिख दिया। साधु कहीं किसी नगर को चिपक कर तो रहता नहीं । यह कहानी आज तक किसी ने लिखी नहीं औरकही नहीं। तैलंग स्वामी की चर्चा उस काल के साहित्य व किसी पत्रिका में तो किसी ने की नहीं। काशी शास्त्रार्थ के पण्ड़ितों के जमघट में उसका नाम तक नहीं मिलता। ऋषि  इसके पश्चात् छह  बार काशी आये और हर बार शास्त्रार्थ की चुनौती देकर अपनी हुँकार सुनाते रहे। अन्तिम बार जब काशी आये तब श्री मुन्शी इन्द्रमणि जी को लिखा कि शास्त्रार्थ की चुनौती स्वीकार करके कोई भी पण्डित सामने नहीं आया। यह है इस कहानी की पोल पट्टी।

काशी शास्त्रार्थ के बारह वर्ष पश्चात् कोलकाता में पुनः देश भर के पौराणिक ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर ऋषि के विरोध में लाया गया । उस जमघट में भी तैलंग स्वामी का नाम नहीं मिलता।

काशी शास्त्रार्थ के छह वर्ष पश्चात् आर्यसमाज की स्थापना हुई। इस काल में जब ऋषि के साथ कोई संगठन नहीं था तब सागर पार के कई देशों में ऋषि पर लेख छपते रहे। ऐसे दस्तावेज हमने खोज लिये हैं। इन में महर्षि की पर्याप्त चर्चा है। काशी शास्त्रार्थ की भी चर्चा है। विरोध की भी चर्चा है परन्तु तैलङ्ग स्वामी का नामोलेख तक कहीं नहीं है। इससे प्रमाणित हो गया कि यह कहानी एक मनगढ़न्त गप्प है। दस्तावेजों में यह भी लिखा मिलता हे कि स्वामी दयानन्द काशी शास्त्रार्थ के उसी विषय (मूर्तिपूजा) पर शास्त्रार्थ करनेके लिए ललकार रहा है कि वेद के प्रमाण मूर्तिपूजा सिद्ध करने की किसी में हिमत हो तो आकर शास्त्रार्थ कर ले परन्तु देश भर के किसी भी विद्वान् में उसका सामना करने का साहस नहीं है।

प्रयाग से छपने वाले Tribune ट्रियून पत्र में भी एक लेा में ऐसा ही छपा मिलता है। इससे अधिक हम इस विषय में क्या लिखें। गप्पें गढ़-गढ़ कर कोई अपने अहं की तुष्टि करना चाहता है तो उसे कौन रोक सकता है?

‘धार्मिक अंधविश्वासों का कारण सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय न करना’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

अंधविश्वास को किसने जन्म दिया है? विचार करने पर ज्ञात होता है कि अविद्या और अज्ञान से अन्धविश्वास उत्पन्न होता है। अन्धविश्वास दूर करने का उपाय क्या है, इस पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि ज्ञान व विद्या से अन्धविश्वास दूर होते हैं। ज्ञान व अविद्या कहां मिलती है? इसका उत्तर है कि सदग्रन्थों का स्वाध्याय करने से ज्ञान व विद्या की प्राप्ति होती है। अतः अन्धविश्वास से बचने वा रक्षा के लिये सदग्रन्थों का स्वाध्याय आवश्यक है। सद्ग्रन्थ कौन से हैं और कौन से ग्रन्थ सद्ग्रन्थ नहीं है, इसका निर्धारण साधारण लोग नहीं कर सकते अपितु छल-कपट-स्वार्थ-अविद्या रहित शुद्ध हृदय वाले विद्वान ही कर सकते हैं।  विद्वानों की अनेक श्रेणियां हैं। पुराण व अन्य मत-मतान्तरों के ग्रन्थों के अध्ययन से अज्ञान व अविद्या उत्पन्न होने से अन्धविश्वास बढ़ते हैं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हम समाज व देश विदेश में होने वाली नाना घटनाओं में पाते रहते हैं। साधारण मनुष्यों के स्वाध्याय का सबसे उत्तम ग्रन्थ कौन सा है? इसका उत्तर है कि जिसमें अज्ञान, अविद्या व अन्धविश्वास से युक्त भ्रान्तिपूर्ण बातें न हों तथा इसके विपरीत ज्ञान व विद्या उत्पन्न करने वाली बातें हो उसे ही हम सद्ज्ञान युक्त ग्रन्थ की संज्ञा दे सकते हैं। ऐसे वेद, ज्योतिष, दर्शन, उपनिषद, स्मृति आदि अनेक ग्रन्थ हैं परन्तु संसार में सबसे उत्तम व सरल ग्रन्थ एकमात्र सत्यार्थ प्रकाश ही है।

 

प्रश्न किया जा सकता है कि सत्यार्थ प्रकाश ही अन्धविश्वासों से मुक्त ग्रन्थ है, इसका क्या प्रमाण है? इसका प्रथम उत्तर तो यह है कि यह एक सत्यान्वेषी महापुरूष महर्षि दयानन्द सरस्वती का लिखा हुआ ग्रन्थ है जिन्होंने अपना सारा जीवन सत्य की खोज, योग व ईश्वरोपासना तथा अध्ययन व अध्यापन में अर्पित किया तथा जो समाज, देश व मनुष्यमात्र सहित प्राणीमात्र के कल्याण की भावना से भरे हुए थे। यह महर्षि दयानन्द ने अपना सारा जीवन सच्चे ईश्वर, मृत्यु से बचने के उपायों, धर्म, समाज, देशहित की सभी बातों की खोज में लगाया और वह उसमें सफल हुए थे। वह इस कार्य में इसलिए सफल हो सके कि उन्हें वेद और वैदिक व्याकरण के सच्चे गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती मिले जिनका सारा जीवन ही सत्य की खोज व भ्रान्तिपूर्ण विषयों से सम्बन्धित सत्य के निर्णय में व्यतीत हुआ था। दोनों गुरू शिष्य ने मिलकर 3 वर्ष तक सच्चे ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति के स्वरूप तथा धर्म कर्म विषयक सभी विषयों पर गम्भीरता से चिन्तन किया। उनका मार्गदर्शक ईश्वरीय ज्ञान वेद था। वेद ईश्वरीय ज्ञान कैसे है? इसका एक उत्तर तो यह है कि यह संसार की सबसे प्राचीनतम पुस्तक होने के साथ ही सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को सीधे ईश्वर से इसका ज्ञान मिला था। सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में बड़ी संख्या में युवा स्त्री-पुरुष उत्पन्न हुए थे। माता-पिता आरम्भ में होते नहीं हैं, अतः सृष्टिकर्त्ता ईश्वर बिना माता-पिता के अमैथुनी सृष्टि करता है जो अण्डज व जरायुज न होकर उद्भिज सृष्टि के अनुरूप होती है। इन उत्पन्न मनुष्यों को अपने जीवन के कर्तव्यों को जानने, समझने व करने के लिए भाषा सहित ज्ञान की आवश्यकता थी। ज्ञान व भाषा वर्तमान में सभी को माता-पिता व आचार्यों से मिलती है। सृष्टि के आरम्भ में यह तीनों ही नहीं थे। केवल एक चेतन सत्ता ईश्वर थी जिसने इस संसार को बनाया था। दूसरी कार्य प्रकृति वा सृष्टि थी जिससे यह संसार बना था परन्तु जड़ व ज्ञानहीन होने से यह मनुष्यों को ज्ञान देने में सर्वथा असमर्थ होती है।

 

यह संसार ज्ञान व शक्ति के समन्वय तथा तप-पुरूषार्थ का परिणाम है जिसमें प्रकृति की भूमिका उपादान कारण के रूप में होती है। संसार को बनाने हेतु जिस ज्ञान की आवश्यक थी उसमें सब सत्य विद्यायें सम्मिलित थी। संसार की विशालता को देखकर उस चेतन व ज्ञानवान सर्वज्ञ शक्ति की विशालता व सर्वव्यापकता के भी दर्शन होते हैं। ज्ञानवान व सर्वव्यापक होने से उस शक्ति ईश्वर को सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न मनुष्यों को ज्ञान देने में कोई कठिनाई नहीं थी। अतः उसने मनुष्यों की आत्माओं में अपने सर्वान्तर्यामी स्वरूप से प्रेरणा द्वारा ज्ञान को स्थापित कर दिया। उस ज्ञान के कारण मनुष्य परस्पर बोलने लगे व आपस में सभी प्रकार के व्यवहार होने आरम्भ हो गये। सृष्टि को बनाने वाला ईश्वर सर्वज्ञ अर्थात् सर्वज्ञानमय होने के कारण उसका दिया हुआ वेद भी सब सत्य विद्याओं से युक्त है। इसमें अज्ञान का लेश भी नहीं है। इन तथ्यों का साक्षात्कार विद्यासम्पन्न तथा योग सिद्ध विद्वान समाधि अवस्था में करते हैं। महर्षि दयानन्द ने भी वेद व ईश्वर में निहित सत्य ज्ञान का साक्षात्कार किया और उसके आधार पर ही उन्होंने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की रचना की। अपने मन व मस्तिष्क से मत-मतान्तरों की बातों, पूर्वाग्रहों व निजी हितों से मुक्त होकर सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करने से सत्यार्थप्रकाश में निहित विषयों की सत्यता का साक्षात ज्ञान होता है जिसकी साक्षी स्वयं हमारी अर्थात् पाठक की आत्मा देती है। सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन कर उसे समझ लेने पर सभी मत-मतान्तरों की अच्छी व बुरी बातों का ज्ञान मनुष्यों को हो जाता है जिससे वह अन्धविश्वासों से मुक्त व विद्या व ज्ञान से युक्त हो जाते हैं। ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के स्वरूप के ज्ञान सहित अध्ययनकर्ता को अपने कर्तव्यों का ज्ञान भी हो जाता है। हमारे इस विवेचन से यह ज्ञात हुआ कि ईश्वर ज्ञान का देने वाला आदि स्रोत है। इसके बाद जो भी ग्रन्थ व पुस्तकें अस्तित्व में आई हैं वह सब ऋषि-मुनियों व साधारण मनुष्यों रचित पुस्तकें हैं। जिन ग्रन्थों में ईश्वर व सत्पुरूषों की प्रशंसा है, वह पठनीय हैं और जिसमें एक दूसरे की निन्दा व भ्रान्तियुक्त कथन व सृष्टिक्रम के विरूद्ध अविश्वनीय तर्क व युक्ति विरूद्ध बातें हैं वह पुस्तकें व ग्रन्थ साधारण मनुष्यों द्वारा लिखित होने से त्याज्य हैं। वह प्रमाण कोटि में नहीं आते हैं। ऐसे ग्रन्थ विष सम्पृक्त अन्न के समान होते हैं। महर्षि दयानन्द ने समस्त वैदिक साहित्य से ज्ञान का आलोडन कर प्राप्त हुए सत्य ज्ञान को सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ में प्रस्तुत किया था। इसे पढ़कर निष्पक्ष भाव से इसके संसार का अन्धविश्वास निवारण व सभी आधयात्मिक व सांसारिक सत्य व यथार्थ ज्ञान को प्रदान करने वाला अपूर्व सर्वोत्तम ग्रन्थ कहा जा सकता है।

 

अतः सफल जीवन व्यतीत करने के लिए किसी भी मत, सम्प्रदाय व पन्थ में न फंस कर यदि सत्यार्थ प्रकाश व अन्य वैदिक साहित्य को पढ़ा जाये तो मनुष्य अज्ञान व अन्धविश्वासों सहित अन्धी श्रद्धा व आस्था से भी बच सकता है। जो व्यक्ति ईश्वर से प्राप्त मनुष्य जीवन में सत्य को जानने व उसे धारण करने का प्रयत्न नहीं करता व परम्परागत मतों को आंख मूंद कर यथावत् स्वीकार कर लेता है, उसका जन्म लेना इसलिए व्यर्थ सिद्ध होता है कि परमात्मा से प्राप्त सत्य व असत्य का विवेचन करने के लिए प्राप्त बुद्धि का उसने सदुपयोग नहीं किया है। वैदिक विचारधारा जिसका पूरा पोषण सत्यार्थ प्रकाश में हुआ है, उसके अनुसार मनुष्य जीवन का उद्देश्य अभ्युदय व निःश्रेयस (मोक्ष प्राप्ति) है। इन दोनों की प्राप्ति वैदिक विचाराधारा के अनुसार जीवनयापन कर धर्मअर्थकाममोक्ष के रूप में होती है। अतः जीवन के कल्याण व सफलता के लिए सत्यार्थ प्रकाश व वैदिक साहित्य के इतर ग्रन्थों का सजग होकर विवेकपूर्वक अध्ययन करना चाहिये। यह भी बताना है कि सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर एक माह में जो अधिकांश ज्ञान प्राप्त होता है वह समस्त वैदिक साहित्य के द्वारा कई वर्षों में होता है। अतः सत्यार्थप्रकाश वैदिक वांग्मय का सार व अर्वाचीन मत-मतान्तरों के यथार्थ स्वरूप का परिचय कराने वाला दुर्लभ व मूल्यावान ग्रन्थ है। एक कवि की दो पंक्तियां लिखकर इस लेख को विराम देते हैं।

 

भरोसा कर तू ईश्वर पर तुझे धोखा नहीं होगा।

यह जीवन बीत जायेगा, तुझे रोना नहीं होगा।।

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

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धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण ? स्वघोषित विद्वान का ज्ञान घोटाला

क्या धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण है ?
“ वेद प्रकाश” के फरवरी २०१५ के अंक में स्वघोषित  विद्वान  का एक लेख शंका समाधान प्रकाशित हुआ था | जिसमें उन्होंने एक शंका उठाकर उसका समाधान प्रस्तुत किया है |
इस लेख में उन्होंने कहा है कि धर्म आत्मा का साभाविक गुण है | इसीलिए धर्म के जो दस लक्षण हैं वह आत्मा के स्वाभाविक लक्षण हैं |
इस सम्बन्ध में डा. अशोक आर्य , का पत्र प्राप्त हुआ है जिसमें उन्होंने इसका खंडन करते हुए इसे वैदिक सिद्धांतों के विरुद्ध बताया है | वह कहते हैं कि – “ कि इसके उत्तर में बताना चाहूँगा कि यह सत्य है कि धर्म के दस लक्षण तो हैं किन्तु यह आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं है क्योंकि परम पिता परमात्मा ने आत्मा को एक शरीर के माध्यम से इस जगत में भेजा है ताकि :
१. विगत जन्मों में किये गए शुभ – अशुभ कर्मों का फल भोग सके |
२. इस जन्म में कुछ नए कर्म करते हुए कुछ नया भी संचय कर सके |
हम जानते हैं कि परम पिता परमात्मा ने जीव को कर्म करने के लिए स्वतन्त्र बनाया है किन्तु फल भोगने के लिए वह प्रभु की व्यवस्था के आधीन है | स्वतन्त्र नहीं है | जब उसे उसके कर्मों के अनुसार फल मिलना है तो इसमें धर्म के दस नियम कहाँ से आ गए ? यदि जीव अर्थात् आत्मा का स्वाभाविक गुण यह दस प्रकार के लक्षण हैं तो फिर प्रतिदिन क़त्ल हो रहे हैं, व्यभिचार हो रहे हैं, बलात्कार हो रहे हैं , चोरी की घटनाएं सामने आती हैं , लोग ए टी एम् तक तोड़ कर धन निकाल कर ले जाते हैं तो यह सब कौन कर रहा है ? यदि आत्मा का स्वाभाविक गुण यह दस लक्षण ही हैं तो फिर आत्मा तो यह कर ही नहीं सकता | कोई चोरी करता ही न , कोई बलात्कार करता ही न, किसी का कभी क़त्ल होता ही न, किन्तु यह सब हो रहा है | यदि आत्मा का गुण यह दस लक्षण ही है तो फिर यह सब कौन कर रहा है ? यह सब किस के आदेश से हो रहा है ? नित्य प्रति जुआ खेलने , शराब व अन्य अनेक प्रकार के नशा करने , दुराचार करने आदि की कथाएँ हमारे सामने आती हैं, दूरदर्शन व् समाचार पत्र इस प्रकार के समाचारों से भरे रहते हैं , यह सब कौन कर रहा है ? इन दस लक्षणों वाली आत्मा जिसे अपने स्वाभाविक गुणों में संजोए हुए है , वह तो यह सब कर ही नहीं सकेगी , फिर या तो यह सब कुछ परमात्मा कर रहा है या फिर मानव कर्म करने में स्वतन्त्र होने के कारण , सब प्रकार के अच्छे व बुरे कर्म वह स्वेच्छा से कर रहा है | जिन का फल उसे भोगना होता है | कुछ अच्छे व बुरे कर्म वह विगत जन्मों के संचित कर्मों के आधार पर फल स्वरूप कर रहा है तथा कुछ नए कर्म भी कर रहा है |
स्वामी जगदीश्वरानन्द जी ने एक पुस्तक “ आदर्श नित्यकर्म विधि” के “समर्पण प्रकरण” में “ हे दयानिधे ! ” … की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि –
हे दया, कृपा, करुणा व वात्सल्य के अनन्तागार प्रभुदेव ! आप एसी कृपा कीजिए कि हम आप की जो स्तुति – प्रार्थना व उपासना कर रहे हैं , उसमें हम नितांत तन्मय तल्लीन व एकाग्रमना हो सकें , हमारी यह प्रार्थानोपासना एसी सार्थक व प्रभाकारी हो जिससे हमारे धर्म ( आत्मा के स्वाभाविक गुण ) अर्थ ( साधना स्वरूप आपसे प्राप्त दिव्य विभूतियाँ , काम ( आप की वेदाज्ञा का सतत पालन एवं आपको मिलने की इच्छा ) मोक्ष ( पूर्णत: आपके आनंद स्वरूप को प्राप्त होना ) आदि पुरुषार्थ चतुष्टय हैं, वह अविलम्ब सिद्ध हों |
इसमें स्वामी जी ने धर्म को आत्मा का स्वाभाविक गुण बताया है |
सोशल मीडिया के कुछ लोगों का भी मानना है की धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं है |
श्री मदन रहेजा , मुंबई लिखते हैं :-
यदि धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण होता तो मनुष्य को धर्म धारण करने के लिए बार – बार क्यों कहना पड़ता हाँ ! आत्मा धर्म को सहजता से धारण कर सकता है क्योंकि धर्म सरल, सीधा और सहज होता है | आत्मा अल्पज्ञ होने से धर्म की बातों को भूल जाता है इसलिए धर्म ( अच्छे गुणों को ) धारण करने का नाम है |
यदि धर्म जीवात्मा का स्वाभाविक गुण होता तो कोई भी मनुष्य इतना दू:खी नहीं होता | धर्म धारण करके ही वह सुखी होता है | धर्माचरण करने से वह अपवर्ग का भागी होता है |
मनुष्य शुद्र ( अज्ञानी ) पैदा होता है उसको मनुष्य बनाया जाता है , संस्कार दिए जाते हैं तभी वह मनुष्य बनता है इसीलिए वेद भी कहता है – “ मनुर्भव ” | धार्मिक बनने के लिए धर्म धारण करना पड़ता है | पशु – पक्षी मांसाहारी भी होते हैं और शाकाहारी भी इस का यह अर्थ नहीं कि वे धार्मिक या अधार्मिक होते हैं |
एक और मित्र श्री विश्वभूषण जी लिखते हैं | यदि धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण होता तो सभी धार्मिक ही होते किन्तु ऐसा नहीं है , जिन – जिन को धार्मिक वातावरण मिलता है वे धार्मिक हो जाते हैं और जिन्हें धार्मिक वातावरण नहीं मिलता वे धार्मिक नहीं हो पाते | यदि धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण होता तो पशु पक्षी भी धार्मिक होते | क्या आप मानते हैं कि मनुष्यों की आत्मा और पशु पक्षियों की आत्माओं में कोई अंतर होता है | नहीं | आत्मा का तो कोई लिंग भी नहीं होता , आत्मा का दोनों लिंगों में प्रयोग किया जाता है | आत्मा कभी नहीं मरता और आत्मा कभी नहीं मरती | दोनों ही ठीक हैं | अंतिम बात आत्मा के दो ही स्वभाव हैं | दुःख से छूटना और सुख प्राप्त करना | यह मनुष्य और पशुओं में समान है | अत: धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं अपितु नैमितिक गुण है |
स्वाध्यायशील पाठक इस पर चिंतन मनन करें तथा जो सत्य है वह ग्रहण करें तथा असत्य का त्याग करें | – सम्पादक

 

टिपण्णी :
वेद प्रकाश पत्रिका के इस लेख पर हम टिपण्णी करते हुए कह सकते हैं कि संभवतया इस स्वघोषित विद्वान  ने अपना यह कल्पित शंका समाधान का प्रश्न स्वामी जगदीश्वरानन्द के शब्दों से लिया होगा यह  जो भी लिखता है सब इधर उधर से उठाकर उसे अपने ढंग से लिखकर अपना बनाने का यत्न करता है | उसके इस शंका समाधान से इस बात की पुष्टी भी होती है कि संभवतया स्वामी जगदीश्वरानंद जी के उपर दिए एक शब्द को उसने उठाया और बिना विचारे यह शंका समाधान का रूप देकर पाठकों को मार्ग से च्युत करने का विफल प्रयास किया | साथ ही हम चाहते हैं कि पाठक और हमारे मित्र इस प्रकार के कथित लेखकों के लेखों व साहित्य को पढ़ने के पश्चात विचार करें कि इसमें कुछ सत्य है भी या नहीं | यह लेखक कथित रूप से बड़े लेखकों का अपमान करने के लिए कुछ उलटा सीधा बोलते रहते हैं तथा उन के लेखन पर दूसरों को फोन व किसी अन्य ढंग से उनके विरुद्ध भ्रांत लेख देने के लिए भी कहते हैं | हमारे मित्र सजग रहते हुए इस प्रकार के लेखकों के विचारों से बचाते हुए समाज के कल्याण के लिए लगे रहें | यही उत्तम होगा | –

इतिहास प्रदूषक विदुषि लेखिका बहन फरहाना ताज “पार्ट – २”

अंगिरा ऋषि के विषय में मत्स्य पुराण,  भागवत, वायु पुराण महाभारत और भारतवर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष में वर्णन किया गया है।

मत्स्य पुराण में अंगिरा ऋषि की उत्पत्ति अग्नि से कही गई है।

भागवत का कथन है कि अंगिरा जी ब्रह्मा के मुख से यज्ञ हेतु उत्पन्न हुए।

महाभारत अनु पर्व अध्याय 83 में कहा गया है कि अग्नि से महा यशस्वी अंगिरा भृगु आदि प्रजापति ब्रह्मदेव है।

भार्गववंश की मान्यतानुसार महर्षि भृगु का जन्म प्रचेता ब्रह्मा की पत्नी वीरणी के गर्भ से हुआ था। अपनी माता से सहोदर ये दो भाई थे। इनके बडे भाई का नाम
अंगिरा था।

ब्रह्मपुराण अध्याय – ३४ मे ऋषि अंगिरा को विषमबुद्धि से पढ़ाने वाला गुरु अर्थात शिष्यो मे भेदभाव कर पढ़ाने वाला बताया है

इसके अतिरिक्त अंगिरा ऋषि को शिवपुराण मे लोभी लालची आदि बताया है

आप सोच रहे होगे मै ये सब क्यो बता रहा हूं ?

इसलिए बता रहा हूं कि आर्यो के ऋषि सिद्धांतो को बदलने की गहरी साजिश चल रही है वेदो मे इतिहास सिद्ध करने का षडयंत्र रचा जा रहा है यकीन नही ?

फरहाना ताज जी जैसी विदुषि लेखिका का पोस्ट पढ़े वो ये साबित करने की फिराक मे नजर आती है कि कैलाश के राजा शंकर और हृदय मे वेद ज्ञान प्रकाश पाने वाले ऋषियो मे एक ऋषि अंगिरा एक ही है

इनकी लेखनी यही नही रुकी इसके आगे इन्होने और लिखते हुए जोर डाला कि शिव की पूजा करनी है मतलब सच्चे शिव की तो अंगिरा ऋषि को पूजो यही नही हमारी बहन फरहाना ताज जी लिखती है :
“अरे भोले लोगो देवो के देव आदि महादेव की ही पूजा करनी है तो अंगिरा की पूजा करो, शिवपुराण में भी शिव का आदि नाम अंगिरा ही है और अंगिरा के मुख से परमात्मा की वाणी अथर्ववेद प्रकट हुआ, इसलिए वेद पढ़ो।”

मतलब समझ आया ?

हम देवो के देव महादेव यानी ईश्वर की बात करते है क्योकि महादेव ईश्वर को ही संबोधन है हम उन्ही की उपासना करते है मगर हमारी बहन शायद हमारे सिद्धांतो पर चोट करके उन्हे बदल कर हमे ईश्वर के स्थान पर मनुष्य की पूजा करवाना सिखाना चाह रही है लेकिन भूल गई हिन्दू समाज मे भी मुर्दापूजा निकृष्ट है आप उन्हे सच्चाई बताने की जगह एक मुर्दापूजा से निकाल दूसरी मुर्दापूजा मे दाखिला दिलवा रही हो जैसे आर्य समाज मे अंगिरा ऋषि को शिव घोषित कर वेदो मे इतिहास साबित करना चाहती हो

ऋषि अंगिरा और शिव को एक बताने से पहले शिवपुराण पर ही सही से दृष्टि डाल ली होती है, क्योंकि शिवपुराण में ही शिव की शादी के चक्कर में अंगिरा ऋषि को लालची और लोभी बताया है,

क्या आप लोभी और लालची व्यक्ति को शिव या अंगिरा मान सकती हो ? ऊपर और भी प्रमाण दिए हैं की पुराणो में ऋषि अंगिरा का चरित्र कैसा दिखाया है – यदि आपने पुराण ही मानने हैं तो कृपया ऋषि सिद्धांतो पर चलने वाली स्वयं की उद्घोषणा न करे क्योंकि ऋषि ने महापुरषो के चरित्र पर दाग लगाने वाले पुराणो को त्याज्य बताया है और यहाँ ऋषि अंगिरा के चरित्र पर भी पुराण आक्षेप लगा रहे हैं, बेहतर है आप अपने लेख को ठीक करे।

मेरी बहन आर्य समाज सिद्धांत पर आधारित है कृपया अप्रमाणिक तथ्यहीन और मनगढंत बात लिखने से पूर्व एक बार ऋषि के सिद्धांत और उनके महान कर्मो पर दृष्टि जरूर डाले

हो सके तो सत्य को स्वीकार कर असत्य को त्याग दे

नमस्ते

इतिहास प्रदूषक “फरहाना ताज”

आर्य समाज में प्रक्षिप्त और झूठी बातो का प्रचार असहनीय है
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फरहाना ताज जी की बहुत सी पोस्ट देखी – बहुत से मित्र बंधू इन पोस्ट्स को व्हाट्सप्प पर प्रसारित भी करते हैं – कुछ चीज़े वैदिक संपत्ति पुस्तक से उद्धृत हैं और कुछ इनके अपने दिमाग की उपज है –

जो वैदिक संपत्ति से उद्धृत है वो ठीक लगता है मगर जो इनके अपने दिमाग की उपज (व्याख्या) है वो गड़बड़ झाला है – आर्य समाज को बदनाम न करे – आपकी बहुत सी पोस्ट पर कमेंट किया पर आपने आजतक जवाब नहीं दिया – ये बहुत ही खेद का विषय है – कृपया समझे –

1. आपकी पुस्तक “घर वापसी” में आपने अपने पति को आर्य समाजी बताया – मगर वही आर्य समाजी बंधू एक्सीडेंट के बाद पौराणिक बन जाता है ? ऐसा क्यों ?

क्या आप इसे मानती हैं ? यदि हाँ तो आप अंधविश्वास और चमत्कार वाली झूठी बातो का समर्थन करती हैं जो आर्य समाज के सिद्धांत विरुद्ध है। कृपया स्पष्टीकरण देवे।

2. हनुमान जी – एक ऐसा वीर, धर्मात्मा, श्रेष्ठ पुरुष जिसका रामायण में बहुत उत्तम चरित्र है जो रामायण में पूर्ण ब्रह्मचारी पुरुष है। महर्षि दयानंद भी हनुमान जी के ब्रह्मचर्य से पूर्ण सहमत थे। फिर आपने ऐसे महावीर हनुमान को गृहस्थ घोषित कर दिया वो भी बिना कोई प्रमाण ?

केवल दक्षिण के मंदिरो को देखकर ही आपको लग गया की हनुमान जी ब्रह्मचारी नहीं गृहस्थ थे ? ऐसा मंदिर तो दिल्ली के भैरो मंदिर में भी देख लेती वहां भी हनुमान जी के चरित्र को दूषित किया गया है जैसे आप दक्षिण के मंदिरो को प्रमाण मान कर एक पूर्ण ब्रह्मचारी को गृहस्थ घोषित करकर ? यदि वहां के मंदिरो को देखकर ही आपको सिद्ध हो गया की हनुमान जी गृहस्थ ही हैं तो वहां के मंदिरो में तो हनुमान जी बन्दर स्वरुप भी दर्शाया गया होगा तब उन्हें क्यों नहीं मान लेती ?

3. आपने अपनी एक पोस्ट में कहीं लिखा था की ऋषि अंगिरा ही शिव थे – जो कैलाश के राजा हुए – तो मेरी बहन मैं आप से कुछ पूछना चाहता हु –

यदि ऋषि अंगिरा ही शिव थे जो कैलाश के राजा हुए तो इसका मतलब बाकी के बचे तीन ऋषि भी कुछ न कुछ होंगे ? मतलब वो भी कहीं के राजा हुए होंगे ? यानी वो वेद ज्ञान प्राप्त कर राजा हो गये ? फिर उन्होंने वो ज्ञान अन्य मनुष्यो को कैसे सुनाया होगा ? क्योंकि ये वेद श्रुति हैं।

यदि फिर भी मानो तो एक बात बताओ – हमारा इतिहास यही बताता है की इस धरती का पहला राजा “स्वयाय्मभव मनु” महाराज थे – और इसी बात को महर्षि दयानंद भी बता गए। अब मुझे आप बताओ यदि “स्वयाय्मभव मनु” पहले राजा थे तो अंगिरा ऋषि इनसे पहले हुए होंगे क्योंकि उन्हें वेद ज्ञान प्रकाशित हुआ – तो वो आप शिव कल्पना कर कैलाश का राजा बना दिया – तो “स्वयाय्मभव मनु” पहले राजा कैसे हुए ?

कृपया अभी इन ३ के जवाब ही दे देवे – बाकी की आपकी अनेको पोस्ट्स पर जो आपत्ति है उनका भी निराकरण आपसे अवश्य मांगेंगे।

नोट : आपसे निवेदन है कृपया आर्य समाज के सिद्धांतो और नियमो को भली प्रकार समझ कर तब सत्य और असत्य निष्कर्ष निकालकर पोस्ट लिखा करे। हिन्दू समाज वैसे ही बहुत से अंधविश्वासों में डूबा है – अब आर्य समाज को भी अन्धविश्वास की दलदल न बनाये।

नमस्ते।