श्री तैलंग स्वामी की कहानीः- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

उ.प्र. से एक सुयोग्य आर्य युवक आशीष प्रताप सिंह ने चलभाष पर श्री तैलंग स्वामी की राष्ट्रधर्म में छपी कहानी पर प्रकाश डालने की मांग की। उन्हें बताया गया कि इस लेख पर परोपकारी में सप्रमाण विवेचन किया जा चुका है। श्रीयुत भावेश मेरजा गुजराती भाषा में एक पठनीय लेख में तैलंग स्वामी की कहानी की शव परीक्षा कर चुके हैं। संक्षेप से नये प्रमाणों के साथ उक्त गढ़न्त पर विचार किया जाता है। महर्षि दयानन्द जी ने वैदिक धर्म ध्वजा फहराने , एकेश्वरवाद के प्रचारार्थ, मूर्तिपूजा आदि अंधविश्वासों के उन्मूलन के लिये काशी पर सात बार चढ़ाई की। काशी शास्त्रार्थ में भले ही पण्डितों ने बहुत धाँधली मचाई थी परन्तु काशी के पण्डितों में एक हड़कप सा मच गया।

राष्ट्रधर्म के लेखानुसार तब तैलंग स्वामी का पत्र लेकर उनका कोई व्यक्ति ऋषि से मिला। पत्र में क्या था? यह राष्ट्रधर्म के लेखक को कतई ज्ञान नहीं। पत्र पढ़ते ही ऋषि दयानन्द ने काशी नगरी छोड़ दी। तब पण्ड़ितों की जान में जान आई। उस काल के पत्रों से यही प्रमाणित होता है। कोई भी ये प्रमाण देख ले।

प्रश्न यह है कि तैलंग स्वामी का पत्र पढ़ते ही महर्षि ने काशी से प्रस्थान कर दिया, लेखक ने किस आधार पर लिख दिया। साधु कहीं किसी नगर को चिपक कर तो रहता नहीं । यह कहानी आज तक किसी ने लिखी नहीं औरकही नहीं। तैलंग स्वामी की चर्चा उस काल के साहित्य व किसी पत्रिका में तो किसी ने की नहीं। काशी शास्त्रार्थ के पण्ड़ितों के जमघट में उसका नाम तक नहीं मिलता। ऋषि  इसके पश्चात् छह  बार काशी आये और हर बार शास्त्रार्थ की चुनौती देकर अपनी हुँकार सुनाते रहे। अन्तिम बार जब काशी आये तब श्री मुन्शी इन्द्रमणि जी को लिखा कि शास्त्रार्थ की चुनौती स्वीकार करके कोई भी पण्डित सामने नहीं आया। यह है इस कहानी की पोल पट्टी।

काशी शास्त्रार्थ के बारह वर्ष पश्चात् कोलकाता में पुनः देश भर के पौराणिक ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर ऋषि के विरोध में लाया गया । उस जमघट में भी तैलंग स्वामी का नाम नहीं मिलता।

काशी शास्त्रार्थ के छह वर्ष पश्चात् आर्यसमाज की स्थापना हुई। इस काल में जब ऋषि के साथ कोई संगठन नहीं था तब सागर पार के कई देशों में ऋषि पर लेख छपते रहे। ऐसे दस्तावेज हमने खोज लिये हैं। इन में महर्षि की पर्याप्त चर्चा है। काशी शास्त्रार्थ की भी चर्चा है। विरोध की भी चर्चा है परन्तु तैलङ्ग स्वामी का नामोलेख तक कहीं नहीं है। इससे प्रमाणित हो गया कि यह कहानी एक मनगढ़न्त गप्प है। दस्तावेजों में यह भी लिखा मिलता हे कि स्वामी दयानन्द काशी शास्त्रार्थ के उसी विषय (मूर्तिपूजा) पर शास्त्रार्थ करनेके लिए ललकार रहा है कि वेद के प्रमाण मूर्तिपूजा सिद्ध करने की किसी में हिमत हो तो आकर शास्त्रार्थ कर ले परन्तु देश भर के किसी भी विद्वान् में उसका सामना करने का साहस नहीं है।

प्रयाग से छपने वाले Tribune ट्रियून पत्र में भी एक लेा में ऐसा ही छपा मिलता है। इससे अधिक हम इस विषय में क्या लिखें। गप्पें गढ़-गढ़ कर कोई अपने अहं की तुष्टि करना चाहता है तो उसे कौन रोक सकता है?

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