सृष्टि की रचना करने के बाद से ईश्वर मनुष्यों को जन्म देता, पालन करता व उनकी सभी सुख सुविधा की व्यवस्थायें करता चला आ रहा है। हमारी यह सृष्टि लगभग 1 अरब 96 करोड़ वर्ष पूर्व ईश्वर के द्वारा अस्तित्व में आई है। सृष्टि को बनाकर ईश्वर ने वनस्पतियों व प्राणीजगत को बनाया और इसमें अपनी सर्वोत्तम कृति मनुष्य को उत्पन्न किया। युक्ति व तर्क से सिद्ध है कि सृष्टि के आरम्भ में जो भी प्राणी जगत की उत्पत्ति होती है वह अमैथुनी ही होती है। माता-पिता तो प्रथम अमैथुनी सृष्टि होने के बाद ही अस्तित्व में आते हैं। एक बार अमैथुनी अर्थात् माता-पिता के बिना पृथिवी माता के गर्भ अर्थात् भूमि के भीतर से वृक्ष-वनस्पतियों की उत्पत्ति की भांति मनुष्यों की उत्पत्ति होने के बाद फिर यही मनुष्य भावी सन्तानों के माता-पिता होते हैं जिनसे मैथुनी या जरायुज सृष्टि आरम्भ होती है। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य की उत्पत्ति होने के बाद जो प्रमुख समस्या होती है, वह मनुष्यों के परस्पर व्यवहार करने की होती है जिसके लिए उन्हें ज्ञान व एक भाषा की आवश्यकता होती है। सृष्टि के आदि काल में ईश्वर से भिन्न अन्य कोई चेतन सत्ता नहीं होती। ईश्वर सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ अर्थात् पूर्ण ज्ञानी है, अतः उसी से मनुष्यों को भाषा व ज्ञान मिलता हैं। उसके बाद वर्तमान की मैथुनी सृष्टि की तरह हमारे ऋषि, मुनि व आचार्य भावी सन्ततियों को ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद, जिसे सृष्टि के आरम्भ से आज तक हमारे ऋषि मुनियों द्वारा अनेक कष्ट सहकर सुरक्षित रखा गया है, उस ज्ञान को अपनी सन्ततियों को पीढ़ी दर पीढ़ी देते चले जाते हैं। यहां यह जान लें कि सृष्टि के आरम्भ में सर्वव्यापक व निराकार सृष्टिकर्त्ता ईश्वर ने आदि चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा, जो कि मनुष्य थे, उन्हें क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का भाषा तथा वेद के मन्त्रों के अर्थ सहित ज्ञान दिया था और इन चारों ऋषियों ने वेदों के इस ज्ञान को अपने समकालीन व समव्यस्क ब्रह्माजी को देकर इन पांचों ऋषियों ने शेष मनुष्यों में श्रवण व उपदेश के द्वारा वेद ज्ञान को स्थापित किया था। श्रवण व उपदेश द्वारा वेदों का ज्ञान दिये जाने के कारण ही वेद ‘श्रुति’ कहलाये और अब भी इन्हें यदा कदा व प्रसंगानुसार श्रुति कहते हैं। यह भी जानने के योग्य है कि सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने सभी मनुष्यों को युवावस्था में उत्पन्न किया था क्योंकि यदि वह ऐसा न करता तो बच्चों का बिना माता-पिता के पालन पोषण नहीं हो सकता था और यदि वृद्धावस्था में मनुष्यों को उत्पन्न करता तो उनके द्वारा सन्तानोत्पत्ति न हो सकने से यह सृष्टि आगे नहीं चल सकती थी।
यह सिद्ध है कि वेद सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को प्रदत्त ईश्वरीय ज्ञान है जिसमें सभी विद्याओं की शिक्षा दी गई है। वेद ईश्वरीय ज्ञान इसलिए भी हैं कि सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को व्यवहार व कर्तव्याकर्तव्य का बोध कराने के लिए ईश्वर ही एकमात्र सत्ता होती है। वह यदि वेदों का ज्ञान न दे तो मनुष्य ज्ञान की प्राप्ति नहीं कर सकता व भाषा की रचना तथा उसे बोलना भी नहीं सीख सकता। बिना ईश्वर की सहायता से भाषा व ज्ञान को प्राप्त व उत्पन्न करने की सामथ्र्य मनुष्यों में सृष्टि के आरम्भ में नहीं होती। एक बार ईश्वर से ज्ञान व भाषा मिल जाने पर वह देश काल परिस्थितियों के अनुसार इसमें कुछ कुछ परिवर्तन करने में समर्थ हो जाते हैं। ज्ञान व भाषा अलौकिक एवं दिव्य वस्तु वा पदार्थ है जो ईश्वर में सदा सर्वदा से अर्थात् नित्यस्वरूप से विद्यमान है और उसी को प्रत्येक सृष्टि-कल्प के आरम्भ में परमात्मा मनुष्यों को देता है। वेदों की भाषा संस्कृत, जो लौकिक संस्कृत से कुछ भिन्न है, ईश्वर की अपनी भाषा है जिसे कृपा सिन्धु ईश्वर ने अपने अमृत पुत्रों को उपहार के रूप में भेंट किया है। यह ऐसा ही है कि जैसे माता-पिता अपनी ही भाषा को अपनी सन्तानों को सिखाते हैं। मनुष्यों का कर्तव्य है कि ईश्वर से प्रदत्त इस वेद ज्ञान की रक्षा करें और उसका प्रचार व प्रसार करें जिससे संसार के किसी कोने में अज्ञान रूपी अन्धकार न रहे। सभी मनुष्य सूर्य से प्रेरणा ग्रहण करें व विचार करें कि सूर्य किस तरह से अपनी परिधि पर घूमते हुए अपने चारों ओर घूमने वाले पृथिवी व अन्य सभी ग्रहों, उपग्रहों आदि का अन्धकार दूर करता है। इसी प्रकार से विद्वान मनुष्यों को भी अपने चहुंओर विद्यमान मनुष्यों का अज्ञान दूर करना चाहिये। यह वेदों के ज्ञान का प्रचार ही सृष्टि की आदि से सभी मनुष्यों का परम कर्तव्य और परम धर्म रहा है। महाभारत काल के बाद वेदाध्ययन, वेदोपदेश व वेद प्रचार में बाधायें आयीं जिससे न केवल भारत अपितु सारे विश्व में अज्ञान अन्धकार उत्पन्न हो गया। इस महाभारत युद्ध का परिणाम यह हुआ कि संसार में अज्ञान व अविद्या सहित अन्धविश्वासों की उत्पत्ति हुई। ईश्वर की महती कृपा हुई कि उसने वर्तमान कालगणना की उन्नीसवीं शताब्दी में महर्षि दयानन्द को उत्पन्न किया और उन्होंने अपूर्व उत्साह, तप व पुरूषार्थ से विलुप्त वेद ज्ञान को प्राप्त कर उसका पुनरुद्धार एवं प्रचार किया।
महर्षि दयानन्द द्वारा उपलब्ध कराये गये वेदज्ञान से संसार के सभी अन्धविश्वासों को दूर कर मनुष्यों को ज्ञानी व सुखी बनाया जा सकता है। यह दुःख का विषय है कि हमारे तत्कालीन पौराणिक लोगों ने महर्षि दयानन्द के वेदों के प्रचार के लोकहितकारी कार्यों में अपने स्वार्थों व अज्ञान के कारण बाधायें उपस्थित की। उन्हें अपमानित किया और उनकी जीवन लीला समाप्त करने के प्रयत्न तक किये। वह पुराणानुयायी प्रत्यक्षतः और हमारे विदेशी शासक अंग्रेज दयानन्द जी के वेदों के प्रचार व इससे ईसाई मत के प्रचार में उपस्थित बाधाओं के कारण से उनके विरोधी थे। इस कारण महर्षि दयानन्द उनके गुप्त षडयन्त्रों का शिकार हुए और उनकी जीवन लीला समाप्त हो गई। उनके द्वारा किया जा रहा मानव मात्र के हित का वेद प्रचार का कार्य 30 अक्तूबर, सन् 1883 को उनकी मृत्यु के कारण अवरूद्ध हो गया था। सौभाग्य से उनके कार्यों को उनके योग्य शिष्यों ने जारी रखा और उनके प्रयत्नों व ईश्वर की कृपा से वह कार्य अब भी चल रहा है। यह देश और मानवजाति का दुर्भाग्य ही था कि वैदिक धर्मी हमारे पौराणिक भाईयों व अन्य मतों के अनुयायियों ने महर्षि दयानन्द के वेद प्रचार के कार्य में उनका सहयोग नहीं किया और इसके विपरीत उनके ईश्वर प्रेरित वेद प्रचार के कार्य में बाधायें उपस्थित कीं। महर्षि दयानन्द की मृत्यु के पश्चात हमारे पौराणिक बन्धुओं ने उन्हीं अन्धविश्वासों, पाखण्डों, कुरीतियों व मिथ्या पूजा अर्चना को जारी रखा जो महाभारत काल के वेद ज्ञान के विलुप्त होने व विपरीत परिस्थितियों में उत्पन्न हुए थे। इन्हीं वेद विरोधी लोगों के उत्तराधिकारी आजकल यत्र तत्र पुराणों की कथायें करके अपने मनोरथ, लोकैषणा व वित्तषैणा आदि को सिद्ध करते हैं जिससे अज्ञान बढ़ रहा है और मनुष्य समाज में एकता होने के सथान पर उसमें फूट पड़ रही है। वेद ज्ञान से रहित समाज के सामन्य लोग ईश्वर के सच्चे स्वरूप की स्तुति, प्रार्थना, उपासना आदि करने के स्थान पर अपने अपने आज के तथाकथित गुरुओं की स्तुति करने, उन्हें अनापशनाप धन देने व उन्हें ही महिमा मण्डित कर रहे हैं। बहुत व अनेकों मिथ्याधर्म प्रचारकों के अनुचित कृत्य व व्यवहारों के सामने आने पर भी उनके अनुयायियों में उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति में कोई कमी नहीं आती। यह अन्धविश्वास की चरम परिणति है जिसने उन्हें ज्ञान व विवेक से शून्य बना दिया है। वेदों के प्रति इन गुरुओं व उनके भक्तों की उदासीनता ने देश व समाज तथा सत्य सनातन वैदिक धर्म, संस्कृति व सभ्यता के लिए अनेक समस्यायें पैदा कर दी हैं परन्तु उन्हें इनकी कोई चिन्ता नहीं है।
महर्षि दयानन्द के दिवंगत होने के बाद पुराणों की प्रतिष्ठा, मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, जन्मना जातिवाद की विषम सामाजिक व्यवस्था, बाल विवाह, सतीप्रथा आदि व्यवस्थायें व प्रथायें जारी रहीं। आज दिन प्रतिदन नये नये पुराणों के कथाकार उत्पन्न हो रहे हैं जो इनमें से अधिकांश अन्धविश्वासों व मिथ्याचारों का ही प्रचार करते हैं। हमारे पुराण ग्रन्थ अन्धविश्वासों व काल्पनिक मिथ्या कथाओं से भरे पड़े हैं जिनका दिग्दर्शन महर्षि दयानन्द ने अपने ‘सत्यार्थप्रकाश’ ग्रन्थ व उपदेशों में किया था। इन कथाकारों को इन कथाओं को करने में ही आनन्द आता है जिससे उन्हें प्रसिद्धि व अपने भक्तों से प्रभूत द्रव्यों की प्राप्ति होती है। हमारी धर्मभीरूजनता के पैतृक संसार क्योंकि अधिकांशतः पौराणिक व मिथ्याविश्वासों से पूर्ण हैं, अतः ऐसे लोगों की दाल समाज में अच्छी तरह गल रही है। यह लोग पुराणों की कथा इसलिये करते हैं कि वेदों का अध्ययन करने में पुरुषार्थ करना पड़ता है। यह पुराणों की तुलना में कठिन कार्य है। यदि वह पुराणों को छोड़कर वेदाध्ययन व वेद प्रचार करें भी तो वेदों में अन्धविश्वास न होने से इन कथाकारों के मनोरथ सिद्ध नहीं हो सकते। इसलिए इन पुराणों के प्रशंसकों ने सकारण ईश्वर प्रदत्त सत्य ज्ञान वेदों को जो धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के साधक हैं, अपने अपने स्वार्थ व अज्ञान के कारण ठुकरा दिया है। महर्षि दयानन्द के विचारों से सहमत हम इन कृत्यों को देश का दुर्भाग्य ही मानते हैं। भारत की गुलामी का मुख्य कारण मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, वेदविरुद्ध सामाजिक व्यवस्था जिसमें बाल विवाह, बेमेल विवाह, विधवाओं के पुनर्विवाह को नकारना, सतीप्रथा जैसी कुरीतियां व जन्मना जाति वाद, अनुचित छुआछूत व ऐसी अनेक विसंगतियों से युक्त व्यवहार व मुख्यतम् सामाजिक व धार्मिक असंगठन के भाव थे। यही सब कुछ वर्तमान आधुनिक समय में भी हो रहा है जिसका परिणाम भविष्य में देश, जाति व धर्म के लिए भयंकर हो सकता है। आज भी यत्र तत्र हिन्दू व पौराणिक अकारण अपमानित होते रहते हैं। देश के कई भागों में हिन्दू होने के कारण ही लोगों को भारी दुख उठाने पड़े हैं फिर भी हम लोगों में एकता उत्पन्न नहीं होती जिसका कारण हमारी अज्ञानता की यह सभी बातें, अन्धविश्वास व कुरीतियां आदि हैं। यह सब हमारे इन धार्मिक पौराणिक कथाकारों के कारण ही अस्तित्व में है तथा इनका इनके निवारण में कोई योगदान नहीं हैं।
हमारा विश्लेषण यह है कि यदि हम वेदों को मुख्य धर्म ग्रन्थ के रूप में नहीं अपनायेंगे और वेद विरुद्ध मान्यताओं को अस्वीकार नहीं करेंगे तो धार्मिक दृष्टि से न तो हम उन्नत होंगे और न ही हम मनुष्य जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को ही प्राप्त कर सकेंगे। वेदों की शिक्षाओं को जीवन में आत्मसात कर उसका आचरण करना उन्नति का मार्ग है और इस मार्ग के विपरीत जितने भी मार्ग हैं, उनसे जीवन की यथार्थ उन्नति न हुई है और न हो सकती है। यह मानना भूल होगी कि जिसके पास अधिक धन व सुख सुविधायें हैं, वह अधिक उन्नत है। धन सम्पन्न व्यक्तियों को ईश्वरीय कर्म-फल व्यवस्था के अनुसार अपने अपने पाप-पुण्यों का भोग भोगना ही होगा जिसके अन्र्तगत उन्हें परजन्मों में उचितानुचित तरीकों से कमाये धन व पात्र व्यक्तियों को दान न दिये जाने के कारण भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। हमें लगता है कि परजन्मों में आजकल के सुविधाहीन मनुष्य जो अज्ञानों व अन्धविश्वासों से पृथक व वेद मार्ग के पथिक हैं, वह अधिक लाभ की स्थिति में होगें। मनुष्य को मनुष्य मननशील होने के कारण कहते हैं। भविष्य में दुःखों से बचने के लिए सभी जिज्ञासुओं को वेद एवं सत्यार्थप्रकाश आदि सद्ग्रन्थों का अध्ययन कर स्वयं सत्य वा असत्य का निर्णय करना चाहिये और असत्य का त्याग और सत्य को स्वीकार करना चाहिये क्योंकि सत्य का व्यवहार ही मनुष्य की उन्नति का प्रमुख कारण है और असत्य को मानना व आचरण करना ही पतन का मार्ग हैं। ईश्वर हमें सत्य के ग्रहण और असत्य को छोड़ने की सामथ्र्य प्रदान करें। इत्योम्।
–मनमोहन कुमार आर्य
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