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‘वेदों का ज्ञान और समाज का पुराण वर्णित अन्ध विश्वासों का आचरण’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून

सृष्टि की रचना करने के बाद से ईश्वर मनुष्यों को जन्म देता, पालन करता व उनकी सभी सुख सुविधा की व्यवस्थायें करता चला आ रहा है। हमारी यह सृष्टि लगभग 1 अरब 96 करोड़ वर्ष पूर्व ईश्वर के द्वारा अस्तित्व में आई है। सृष्टि को बनाकर ईश्वर ने वनस्पतियों व प्राणीजगत को बनाया और इसमें अपनी सर्वोत्तम कृति मनुष्य को उत्पन्न किया। युक्ति व तर्क से सिद्ध है कि सृष्टि के आरम्भ में जो भी प्राणी जगत की उत्पत्ति होती है वह अमैथुनी ही होती है। माता-पिता तो प्रथम अमैथुनी सृष्टि होने के बाद ही अस्तित्व में आते हैं। एक बार अमैथुनी अर्थात् माता-पिता के बिना पृथिवी माता के गर्भ अर्थात् भूमि के भीतर से वृक्ष-वनस्पतियों की उत्पत्ति की भांति मनुष्यों की उत्पत्ति होने के बाद फिर यही मनुष्य भावी सन्तानों के माता-पिता होते हैं जिनसे मैथुनी या जरायुज सृष्टि आरम्भ होती है। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य की उत्पत्ति होने के बाद जो प्रमुख समस्या होती है, वह मनुष्यों के परस्पर व्यवहार करने की होती है जिसके लिए उन्हें ज्ञान व एक भाषा की आवश्यकता होती है। सृष्टि के आदि काल में ईश्वर से भिन्न अन्य कोई चेतन सत्ता नहीं होती। ईश्वर सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ अर्थात् पूर्ण ज्ञानी है, अतः उसी से मनुष्यों को भाषा व ज्ञान मिलता हैं। उसके बाद वर्तमान की मैथुनी सृष्टि की तरह हमारे ऋषि, मुनि व आचार्य भावी सन्ततियों को ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद, जिसे सृष्टि के आरम्भ से आज तक हमारे ऋषि मुनियों द्वारा अनेक कष्ट सहकर सुरक्षित रखा गया है, उस ज्ञान को अपनी सन्ततियों को पीढ़ी दर पीढ़ी देते चले जाते हैं। यहां यह जान लें कि सृष्टि के आरम्भ में सर्वव्यापक व निराकार सृष्टिकर्त्ता ईश्वर ने आदि चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा, जो कि मनुष्य थे, उन्हें क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का भाषा तथा वेद के मन्त्रों के अर्थ सहित ज्ञान दिया था और इन चारों ऋषियों ने वेदों के इस ज्ञान को अपने समकालीन व समव्यस्क ब्रह्माजी को देकर इन पांचों ऋषियों ने शेष मनुष्यों में श्रवण व उपदेश के द्वारा वेद ज्ञान को स्थापित किया था। श्रवण व उपदेश द्वारा वेदों का ज्ञान दिये जाने के कारण ही वेद श्रुति कहलाये और अब भी इन्हें यदा कदा व प्रसंगानुसार श्रुति कहते हैं। यह भी जानने के योग्य है कि सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने सभी मनुष्यों को युवावस्था में उत्पन्न किया था क्योंकि यदि वह ऐसा न करता तो बच्चों का बिना माता-पिता के पालन पोषण नहीं हो सकता था और यदि वृद्धावस्था में मनुष्यों को उत्पन्न करता तो उनके द्वारा सन्तानोत्पत्ति न हो सकने से यह सृष्टि आगे नहीं चल सकती थी।

 

यह सिद्ध है कि वेद सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को प्रदत्त ईश्वरीय ज्ञान है जिसमें सभी विद्याओं की शिक्षा दी गई है। वेद ईश्वरीय ज्ञान इसलिए भी हैं कि सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को व्यवहार व कर्तव्याकर्तव्य का बोध कराने के लिए ईश्वर ही एकमात्र सत्ता होती है। वह यदि वेदों का ज्ञान न दे तो मनुष्य ज्ञान की प्राप्ति नहीं कर सकता व भाषा की रचना तथा उसे बोलना भी नहीं सीख सकता। बिना ईश्वर की सहायता से भाषा व ज्ञान को प्राप्त व उत्पन्न करने की सामथ्र्य मनुष्यों में सृष्टि के आरम्भ में नहीं होती। एक बार ईश्वर से ज्ञान व भाषा मिल जाने पर वह देश काल परिस्थितियों के अनुसार इसमें कुछ कुछ परिवर्तन करने में समर्थ हो जाते हैं। ज्ञान व भाषा अलौकिक एवं दिव्य वस्तु वा पदार्थ है जो ईश्वर में सदा सर्वदा से अर्थात् नित्यस्वरूप से विद्यमान है और उसी को प्रत्येक सृष्टि-कल्प के आरम्भ में परमात्मा मनुष्यों को देता है। वेदों की भाषा संस्कृत, जो लौकिक संस्कृत से कुछ भिन्न है, ईश्वर की अपनी भाषा है जिसे कृपा सिन्धु ईश्वर ने अपने अमृत पुत्रों को उपहार के रूप में भेंट किया है। यह ऐसा ही है कि जैसे माता-पिता अपनी ही भाषा को अपनी सन्तानों को सिखाते हैं। मनुष्यों का कर्तव्य है कि ईश्वर से प्रदत्त इस वेद ज्ञान की रक्षा करें और उसका प्रचार व प्रसार करें जिससे संसार के किसी कोने में अज्ञान रूपी अन्धकार न रहे। सभी मनुष्य सूर्य से प्रेरणा ग्रहण करें व विचार करें कि सूर्य किस तरह से अपनी परिधि पर घूमते हुए अपने चारों ओर घूमने वाले पृथिवी व अन्य सभी ग्रहों, उपग्रहों आदि का अन्धकार दूर करता है। इसी प्रकार से विद्वान मनुष्यों को भी अपने चहुंओर विद्यमान मनुष्यों का अज्ञान दूर करना चाहिये। यह वेदों के ज्ञान का प्रचार ही सृष्टि की आदि से सभी मनुष्यों का परम कर्तव्य और परम धर्म रहा है। महाभारत काल के बाद वेदाध्ययन, वेदोपदेश व वेद प्रचार में बाधायें आयीं जिससे न केवल भारत अपितु सारे विश्व में अज्ञान अन्धकार उत्पन्न हो गया। इस महाभारत युद्ध का परिणाम यह हुआ कि संसार में अज्ञान व अविद्या सहित अन्धविश्वासों की उत्पत्ति हुई। ईश्वर की महती कृपा हुई कि उसने वर्तमान कालगणना की उन्नीसवीं शताब्दी में महर्षि दयानन्द को उत्पन्न किया और उन्होंने अपूर्व उत्साह, तप व पुरूषार्थ से विलुप्त वेद ज्ञान को प्राप्त कर उसका पुनरुद्धार एवं प्रचार किया।

 

महर्षि दयानन्द द्वारा उपलब्ध कराये गये वेदज्ञान से संसार के सभी अन्धविश्वासों को दूर कर मनुष्यों को ज्ञानी व सुखी बनाया जा सकता है। यह दुःख का विषय है कि हमारे तत्कालीन पौराणिक लोगों ने महर्षि दयानन्द के वेदों के प्रचार के लोकहितकारी कार्यों में अपने स्वार्थों व अज्ञान के कारण बाधायें उपस्थित की। उन्हें अपमानित किया और उनकी जीवन लीला समाप्त करने के प्रयत्न तक किये। वह पुराणानुयायी प्रत्यक्षतः और हमारे विदेशी शासक अंग्रेज दयानन्द जी के वेदों के प्रचार व इससे ईसाई मत के प्रचार में उपस्थित बाधाओं के कारण से उनके विरोधी थे। इस कारण महर्षि दयानन्द उनके गुप्त षडयन्त्रों का शिकार हुए और उनकी जीवन लीला समाप्त हो गई। उनके द्वारा किया जा रहा मानव मात्र के हित का वेद प्रचार का कार्य 30 अक्तूबर, सन् 1883 को उनकी मृत्यु के कारण अवरूद्ध हो गया था। सौभाग्य से उनके कार्यों को उनके योग्य शिष्यों ने जारी रखा और उनके प्रयत्नों व ईश्वर की कृपा से वह कार्य अब भी चल रहा है। यह देश और मानवजाति का दुर्भाग्य ही था कि वैदिक धर्मी हमारे पौराणिक भाईयों व अन्य मतों के अनुयायियों ने महर्षि दयानन्द के वेद प्रचार के कार्य में उनका सहयोग नहीं किया और इसके विपरीत उनके ईश्वर प्रेरित वेद प्रचार के कार्य में बाधायें उपस्थित कीं। महर्षि दयानन्द की मृत्यु के पश्चात हमारे पौराणिक बन्धुओं ने उन्हीं अन्धविश्वासों, पाखण्डों, कुरीतियों व मिथ्या पूजा अर्चना को जारी रखा जो महाभारत काल के वेद ज्ञान के विलुप्त होने व विपरीत परिस्थितियों में उत्पन्न हुए थे। इन्हीं वेद विरोधी लोगों के उत्तराधिकारी आजकल यत्र तत्र पुराणों की कथायें करके अपने मनोरथ, लोकैषणा व वित्तषैणा आदि को सिद्ध करते हैं जिससे अज्ञान बढ़ रहा है और मनुष्य समाज में एकता होने के सथान पर उसमें फूट पड़ रही है। वेद ज्ञान से रहित समाज के सामन्य लोग ईश्वर के सच्चे स्वरूप की स्तुति, प्रार्थना, उपासना आदि करने के स्थान पर अपने अपने आज के तथाकथित गुरुओं की स्तुति करने, उन्हें अनापशनाप धन देने व उन्हें ही महिमा मण्डित कर रहे हैं। बहुत व अनेकों मिथ्याधर्म प्रचारकों के अनुचित कृत्य व व्यवहारों के सामने आने पर भी उनके अनुयायियों में उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति में कोई कमी नहीं आती। यह अन्धविश्वास की चरम परिणति है जिसने उन्हें ज्ञान व विवेक से शून्य बना दिया है। वेदों के प्रति इन गुरुओं व उनके भक्तों की उदासीनता ने देश व समाज तथा सत्य सनातन वैदिक धर्म, संस्कृति व सभ्यता के लिए अनेक समस्यायें पैदा कर दी हैं परन्तु उन्हें इनकी कोई चिन्ता नहीं है।

 

महर्षि दयानन्द के दिवंगत होने के बाद पुराणों की प्रतिष्ठा, मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, जन्मना जातिवाद की विषम सामाजिक व्यवस्था, बाल विवाह, सतीप्रथा आदि व्यवस्थायें व प्रथायें जारी रहीं। आज दिन प्रतिदन नये नये पुराणों के कथाकार उत्पन्न हो रहे हैं जो इनमें से अधिकांश अन्धविश्वासों व मिथ्याचारों का ही प्रचार करते हैं। हमारे पुराण ग्रन्थ अन्धविश्वासों व काल्पनिक मिथ्या कथाओं से भरे पड़े हैं जिनका दिग्दर्शन महर्षि दयानन्द ने अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ व उपदेशों में किया था। इन कथाकारों को इन कथाओं को करने में ही आनन्द आता है जिससे उन्हें प्रसिद्धि व अपने भक्तों से प्रभूत द्रव्यों की प्राप्ति होती है। हमारी धर्मभीरूजनता के पैतृक संसार क्योंकि अधिकांशतः पौराणिक व मिथ्याविश्वासों से पूर्ण हैं, अतः ऐसे लोगों की दाल समाज में अच्छी तरह गल रही है। यह लोग पुराणों की कथा इसलिये करते हैं कि वेदों का अध्ययन करने में पुरुषार्थ करना पड़ता है। यह पुराणों की तुलना में कठिन कार्य है। यदि वह पुराणों को छोड़कर वेदाध्ययन व वेद प्रचार करें भी तो वेदों में अन्धविश्वास न होने से इन कथाकारों के मनोरथ सिद्ध नहीं हो सकते। इसलिए इन पुराणों के प्रशंसकों ने सकारण ईश्वर प्रदत्त सत्य ज्ञान वेदों को जो धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के साधक हैं, अपने अपने स्वार्थ व अज्ञान के कारण ठुकरा दिया है। महर्षि दयानन्द के विचारों से सहमत हम इन कृत्यों को देश का दुर्भाग्य ही मानते हैं। भारत की गुलामी का मुख्य कारण मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, वेदविरुद्ध सामाजिक व्यवस्था जिसमें बाल विवाह, बेमेल विवाह, विधवाओं के पुनर्विवाह को नकारना, सतीप्रथा जैसी कुरीतियां व जन्मना जाति वाद, अनुचित छुआछूत व ऐसी अनेक विसंगतियों से युक्त व्यवहार व मुख्यतम् सामाजिक व धार्मिक असंगठन के भाव थे। यही सब कुछ वर्तमान आधुनिक समय में भी हो रहा है जिसका परिणाम भविष्य में देश, जाति व धर्म के लिए भयंकर हो सकता है। आज भी यत्र तत्र हिन्दू व पौराणिक अकारण अपमानित होते रहते हैं। देश के कई भागों में हिन्दू होने के कारण ही लोगों को भारी दुख उठाने पड़े हैं फिर भी हम लोगों में एकता उत्पन्न नहीं होती जिसका कारण हमारी अज्ञानता की यह सभी बातें, अन्धविश्वास व कुरीतियां आदि हैं। यह सब हमारे इन धार्मिक पौराणिक कथाकारों के कारण ही अस्तित्व में है तथा इनका इनके निवारण में कोई योगदान नहीं हैं।

 

हमारा विश्लेषण यह है कि यदि हम वेदों को मुख्य धर्म ग्रन्थ के रूप में नहीं अपनायेंगे और वेद विरुद्ध मान्यताओं को अस्वीकार नहीं करेंगे तो धार्मिक दृष्टि से न तो हम उन्नत होंगे और न ही हम मनुष्य जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को ही प्राप्त कर सकेंगे। वेदों की शिक्षाओं को जीवन में आत्मसात कर उसका आचरण करना उन्नति का मार्ग है और इस मार्ग के विपरीत जितने भी मार्ग हैं, उनसे जीवन की यथार्थ उन्नति न हुई है और न हो सकती है। यह मानना भूल होगी कि जिसके पास अधिक धन व सुख सुविधायें हैं, वह अधिक उन्नत है। धन सम्पन्न व्यक्तियों को ईश्वरीय कर्म-फल व्यवस्था के अनुसार अपने अपने पाप-पुण्यों का भोग भोगना ही होगा जिसके अन्र्तगत उन्हें परजन्मों में उचितानुचित तरीकों से कमाये धन व पात्र व्यक्तियों को दान न दिये जाने के कारण भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। हमें लगता है कि परजन्मों में आजकल के सुविधाहीन मनुष्य जो अज्ञानों व अन्धविश्वासों से पृथक व वेद मार्ग के पथिक हैं, वह अधिक लाभ की स्थिति में होगें। मनुष्य को मनुष्य मननशील होने के कारण कहते हैं। भविष्य में दुःखों से बचने के लिए सभी जिज्ञासुओं को वेद एवं सत्यार्थप्रकाश आदि सद्ग्रन्थों का अध्ययन कर स्वयं सत्य वा असत्य का निर्णय करना चाहिये और असत्य का त्याग और सत्य को स्वीकार करना चाहिये क्योंकि सत्य का व्यवहार ही मनुष्य की उन्नति का प्रमुख कारण है और असत्य को मानना व आचरण करना ही पतन का मार्ग हैं। ईश्वर हमें सत्य के ग्रहण और असत्य को छोड़ने की सामथ्र्य प्रदान करें। इत्योम्।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

 देहरादून-248001

फोनः09412985121

 

ईश्वरः जैन एवं वैदिक दृष्टि -डॉ. वेदपाल, मेरठ

[वर्ष 2013 में ऋषि – मेले के अवसर पर आयोजित वेद-गोष्ठी में प्रस्तुत एवं पुरस्कृत यह शोध लेख पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत है।]                                                             -सपादक%मनुष्य के अस्तित्वकाल से ही उसके विचारणीय महत्त्वपूर्ण विषयों में एक है- ईश्वर। ईश्वर के सबन्ध में कल्पना बाहुल्य उपलध है। जिसका आधार देश, मत – पन्थ तथा धार्मिक विश्वास हैं। इसी कारण उसे अनेक नाम से सबोधित किया गया है। ईश्वर के स्वरूपविषयक कल्पनाएं भी कम मनोरंजक नहीं हैं। शिव के किरात रूप की कल्पना इसका निदर्शन है। इसी प्रकार न कुछ से सब कुछ (अर्थात् अभाव से भाव) करने वाला-मानना (इस्लाम के अनुसार)।

सामान्यतः ऐश्वर्य सपन्न,  जगत् कर्त्ता, सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ तथा जीव के कर्मफल प्रदाता1 के रूप में उसे स्वीकार किया जाता है। एक मत-धर्म ऐसा भी है जो उक्त जगत्कर्तृत्व आदि रूप में तो उसकी सत्ता स्वीकार नहीं करता, किन्तु सर्वज्ञ गुण सपन्न व्यक्ति को ही जिसने अर्थतः और तत्त्वतः आत्मतत्त्व को जान लिया तथा कर्म से विप्रमोक्ष हो गया है उसे सर्वज्ञ2 केवली/ईश्वर कहा गया है। यद्यपि यहाँ यह विशेषण स्मरणीय है कि तत्त्वसूत्र (उमास्वामी विरचित जैनधर्म के प्रमुख दार्शनिक ग्रन्थ) तथा आचार्य कुन्दकुन्द विरचित ‘समयसार’ (जैनमत का प्रमुख आध्यात्मिक ग्रन्थ) में ईश्वर पद का प्रयोग नहीं हुआ है।

यह सर्वानुमत है कि संसार में जितने भी कार्य पदार्थ हैं, उनसब का कोई चेतन कर्त्ता है। जैसे-घड़ी, वस्त्र, मोटरकार, कागज, लेखनी आदि पदार्थ किसी न किसी व्यक्ति, सत्ता द्वारा बनाए गये हैं। इनमें से कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है, जिसे किसी ने बनाया न हो और वह स्वयं बन गया हो अथवा अनादि निधन हो। जो पदार्थ जितना व्यवस्थित और बेहतर ढंग से डिजायन किया गया है उसका कर्त्ता उतना ही बुद्धिमान् माना जाता है।

इस दृश्य संसार के लिए सृष्टि, जगत् तथा संसार शदों का प्रयोग किया जाता है। सृष्टि शद ‘सृज् विसर्गे’ धातु से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है-रची हुई, पैदा हुई। जगत् शद का अर्थ है- ‘गच्छतीतिजगत्’। संसार का अर्थ भी संसरणशील है3 संसार का कोई भी जड़ पदार्थ ऐसा नहीं है, जिसमें स्वतः गति हो अथवा वह संसरणशील हो या स्वयं ही निर्मित हो गया हो। अर्थात् इन पदार्थों का स्वभाव बनना गतिशील होना हो। इनमें बनना या इनका गतिशील होना किसी अन्य बनाने वाले अथवा इन्हें गति देने वाले की अपेक्षा रखते हैं।

सृष्टि एवं सृष्टा ईश्वर के विषय में जैन सिद्धान्तों को निम्नवत् समझा जा सकता है-

  1. सृष्टि नाम भले ही प्रयोग किया जाए, किन्तु यह सृष्ट नहीं है। अणु-स्कन्ध के स्वाभाविक परिणमन से पुद्गल की उत्पत्ति होती है, किन्तु यह अकृत है। स्वभावतः अनादिनिधना है। अतः स्रष्टा अपेक्षित नहीं।
  2. 2. सृष्टि प्रयोजन कर्मफल भोग के सर्न्दा में- कर्म स्वतः फलप्रदाता है और कर्त्ता जीव स्वयं भोक्ता है, इसमें किसी अन्य के हस्तक्षेप का अवकाश नहीं।
  3. 3. सृष्ट वस्तु के आधार पर कार्यत्व हेतु- ‘क्षित्यादिकं सकर्तृकं घटवत्’ सयुक्तिक नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार इस जगत् का कर्त्ता इष्ट है, उसी प्रकार ईश्वर कााी कोई कर्त्ता होना चाहिए। इस प्रकार अनवस्था दोष होगा।
  4. 4. यदि ईश्वर सृष्टि का स्वभावतः रूचिवशात् या कर्मवशात् कर्त्ता है तो ईश्वर का स्वातन्त्र्य कहाँ? क्योंकि उसे तो उक्त कारणो से चाहे-अनचाहे सृष्टि करनी ही होगी। तब तो वह स्वतन्त्र रहा ही नहीं।
  5. 5. जैनमत के संयमप्रधान तपोधर्म होने से ईश्वर के अस्तित्व पर विचार ही नहीं किया गया है अथवा उसकी आवश्यकता ही अनुभव नहीं की गयी, किन्तु जैन मत आध्यात्मिक (आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत समयसार) एवं दार्शनिक (उमास्वामी प्रणीत तत्वार्थसूत्र तथा आचार्य समन्तभद्र प्रणीत आप्तमीमांसा प्रभूति) ग्रन्थों में ईश्वर का निषेध भी उपलध नहीं है। अतः कहा जा सकता है कि- ईश्वरपद ही वहाँ अपराभृष्ट है भले ही आज व्यवहार में जिनेश, जिनेश्वर, जिनभगवान् जैसे शदों का प्रयोग क्यों न किया जाता हो।

जैन मत में ईश्वर से मिलती-जुलती अवस्था केवली की है इसे ही सर्वज्ञ कहा गया है। मोह का क्षय होने पर अन्तर्मुहूर्त तक क्षीणकषाय रहकर एक साथ ज्ञानावरण- दर्शनावरण तथा अन्तराय क्षय होने पर केवल ज्ञान प्राप्त होता है।4 वह केवली ही बन्ध हेतुओं (मिथ्यात्व आदि) के अभाव होने तथा तप आदि निर्जरा हेतुओं द्वारा पूर्वोपार्जित कर्मों का विप्रमोक्ष होकर मोक्ष को प्राप्त होता है।5 ऐसा मुक्तात्मा ही सर्वज्ञ पद भाक् है।

जैन मत में ईश्वर की चर्चा न होने के सबन्ध में एक अन्य दृष्टिकोण भी ध्यातव्य है, जिसके अनुसार- ईश्वर विषयक अवधारणा का मूल स्रोत वेद है। जैन मत वेदोपनिषद् से पूर्व भारत में प्रचलित मुनिजनों के संयमात्मक तपोधर्म से उदित है।6 अर्थात् उस समय ईश्वर की संकल्पना ही नहीं थी।

वैदिक दृष्टि– ईश्वर के सबन्ध में वैदिक दृष्टि सुस्पष्ट है। तदनुसार प्रकृति के परमाणुओं -(जो कि जड़ हैं अतः अक्रिय हैं।) को अव्यक्तावस्था से व्यक्तावस्था में लाने वाली चेतन सत्ता ईश्वर पद वाच्य है। जिस प्रकार लौकिक घट-पट आदि कार्य पदार्थों का उपादान कारण मृत्तिका-तन्तु आदि सर्वस्वीकृत हैं इन कार्य पदार्थों का कर्त्ता-निमित्त कारण कुभकार तन्तुवाय आदि हैं। उसी प्रकार इस कार्य जगत् का उपादान प्रकृति के परमाणु तथा निमित्त कारण ईश्वर है।

दृश्यमान जगत्/संसार कार्य है। किसी भी कार्य/पदार्थ के सपन्न हेने में तीन कारण सभव हैं। सर्वप्रथम उसके लिए उसका मूल, जिसके रूपान्तरित होने पर वह वस्तु बनती है। जिस प्रकार पार्थिव घर के लिए  मृत्तिका आदि। इसे उपादान कारण कहा जाता है। दूसरा कारण है, जिसके बनाने से कोई वस्तु बने और न बनाने से न बने तथा वह स्वयं रूपान्तरित न हो, अपितु किसी अन्य पदार्थ-उपादान को कुछ बना देवे। जैसे कुभकार मृत्तिका को घट रूप में रूपान्तरित कर देता है। अतः वह उसका निमित्त होने से निमित्त कारण कहा जाता है। तीसरा कारण है- साधारण, जिन साधनों का उपयोग पदार्थ निर्माण में सामान्येन अपेक्षित रहता है वह साधारण होने से साधारण कारण कहलाता है। उपादान के गुण पदार्थ में रहते हैं।

संसार में दो ही प्रकार के पदार्थ हैं- 1. चित्-चेतन। 2. अचित्-अचेतन-जड़।7 अचेतन पदार्थ अक्रिय हैं, उनसे स्वतः किसी अन्य पदार्थ का निर्माण नहीं होता अथवा यों कहें कि वह किसी पदार्थ का निर्माण नहीं कर सकते। जैसे- पृथिवी जड़ है, इससे बिना बनाये ईंट, घर आदि पदार्थ कभी नहीं बन सकते। जब कोई चेतन कर्त्ता इच्छापूर्वक प्रयत्न करता है तब उससे ईंट-घर आदि पदार्थ बना लेता है। इसी प्रकार कपास से तन्तु/वस्त्र  आदि चेतन कर्त्ता के इच्छा-प्रयत्न से ही बनते हैं। जब यह छोटे से छोटे पदार्थ भी चेतन कर्त्ता के बिना नहीं बनते, तब इतने व्यवस्थित संसार/ब्रह्माण्ड का निर्माण बिना चेतन कर्त्ता के किस प्रकार सभव है। स्कन्ध के स्वतः परिणमन से संसार का निर्माण मानने वाले पार्थिव परमाणुओं (पुद्गल/स्कन्ध) से स्वतः घर का निर्माण क्यों नहीं मानते अथवा बिना कुभकार/ तन्तुवाय के स्वयं बनते हुए घट-पट क्यों नहीं दिखा देते? स्वयं केलिए भवन व वस्त्र क्यों बनाते हैं? अर्थात् सृजन क्रिया के लिए चेतन कर्त्ता अपेक्षित है। संसार में जितनेाी चेतन कर्त्ता हैं, उनका ज्ञान व सामर्थ्य सीमित है। अतः इतना व्यवस्थित नियमबद्ध संसार8 जिसका कर्त्ता सीमित ज्ञान प्रयत्न वाला (मनुष्य) होना सभव नहीं। इसका कर्त्ता निश्चय ही सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ होना चाहिए। उसी का नाम ईश्वर है। यदि ईश्वर के स्थान पर कोई अन्य संज्ञा रखें तब भी संज्ञा उक्त गुणयुक्त ही होगा। अन्य संज्ञा पराी वही प्रश्न सभव है। अतः अन्वर्थ संज्ञा के प्रयोग से कोई हानि नहीं।

जगत् कारणता विषय में कार्यकारण सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण है, किन्तु जैन दर्शन में इस पर स्पष्ट विचार उपलध नहीं है। केवल जीव द्वारा किए कर्म जिनसे कार्मण वर्गणाएं बनती हैं और वह पुद्गल रूप में रहती हैं, क्योंकि ‘‘कर्म-पुद्गल द्रव्य का पर्याय है….अर्थात् कर्मरूप से परिणत कार्मण वर्गणाओं की सत्ता पौद्गलिक रूप में बनी रहती है9’’। कार्य कारण सिद्धान्त पर जैन की अपेक्षा बोद्धाचार्यों ने अधिक विचार किया है। कल्याण रक्षित (829 ई.) ने ईश्वर भंगकारिका में ईश्वरास्तित्व का निरसन किया है। इनके शिष्य धर्मोत्तराचार्य (847 ई.) ने भी कल्याणरक्षित की परपरा का अपने ग्रन्थों (अपोह नामसिद्धि, क्षणभंगसिद्धि) में पुष्ट किया है।

कार्य कारण सिद्धान्त का खण्डन करने वालों ने अग्नि की कारणता के खण्डन (वह्विदाह का कारण है- अन्वय व्यतिरेक….किन्तु अरणि सत्त्वेवह्रिसत्ता…, मणिसत्त्वेवह्रिसन्ता…., तृणसत्त्वेवह्रिसत्ता…. अन्वय तो बनेगा किन्तु व्यतिरेक नहीं। यथाअरण्यभावे वह्रयभावः…., मण्यभावे वह्रयभावः…, तृणभावे बह्रयभावः नहीं….) के द्वारा अन्य सभी प्रकार की कारणता का भी खण्डन किया है। वस्तुतः यह सद् हेतु न होकर हेत्वाभास है, क्योंकि अग्नि दाह के प्रति स्वरूपतः कारण नहीं, अपितु शक्ति मत्त्वेन कारण (शक्तिवाद मीमांसक मत है) है। अर्थात् कारणावच्छेदकता धर्म अरणित्व-मणित्व-तृणत्व न होकर वह्यनुकूलैकशक्तिमत्त्वे सति बह्रिसत्ता-अन्वयः वह्न्यनुकूलैक शक्तिमत्त्वाभावे सति बह्न्यभावः- व्यतिरेकः। इस प्रकार हेत्वाभास का वारण हो जाता है।

इसी प्रकार अकस्मात् वाद (पूर्वपक्ष-‘अनिमित्ततो भावोसत्तिः कण्टक तैक्ष्ण्यादिदर्शनात्’ न्याय 4.1.22 प्रत्यायान-‘अनिमित्तनिमित्तत्वान्नानिमित्ततः’, ‘निमित्तानिमित्तयोरर्थान्तर भावादप्रतिषेधः’ 23-24)। का प्रत्यायान न्याय के साथ ही उदयनार्च ने न्याय कुसुमाञ्जलि 1.5 में किया है-

हेतुभूतिनिषेध न स्वानुपायविचिर्न च।

स्वभाववर्णना नैवमवचेर्नियत त्वतः।।

प्रस्तुतकारिका में उदयनाचार्य ने अकस्मात्-अकारणात् की पाँच व्यायाओं 1. कारणं विना भवति 2. कारण व्यतिरिक्ताद्भवति प्रथम के दो अर्थों-– हेतु का निषेधक . उत्पत्ति का निषेधक तथा द्वितीय के तीन अर्थों-वा- स्वस्माद् भवति घ. अलीकाद भवति और स्वभावाद् भवति- इन पाँचों का खण्डन एक ही- अवधेर्नियतत्वतः= ‘नियतकालावधिककार्यदर्शनात्’ द्वारा किया है। कार्यों की स्थिति नियतकाल तक ही दिखाई देती है। कार्य नित्य रहने वाला पदार्थ नहीं है। यह स्थिति तभी बन सकती है, जब कार्यों का कोई कारण माना जाए।

  1. 1. यदि उत्पत्ति ही न होती हो या 2. उसका कोई कारण न हो तो उन्हें नित्यपदार्थ के समान होना चाहिए। 3. यदि स्वयं अपने से अथवा 4. अलीक वन्ध्यापुत्र सदृश मिथ्या पदार्थ से अथवा 5. स्वभाव से कार्य (जगत्) की उत्पत्ति मानी जाए तो कार्य के नाश का कोई कारण नहीं बनता। क्योंकि जिन पदार्थों का कारण कोई भाव पदार्थ है। उस कारण के नाश होने से कार्य का नाश हो जाता है। परन्तु स्वस्मात्-अलीकात्-स्वभावात् (…स्वानुपारव्यविधिर्न च। स्वभाववर्णनाा नैवम्…) से उत्पन्न होने की स्थिति में किसके नाश से कार्य का नाश माना जाएगा?

इसलिए नाश का सभव न होने से इन तीनों पक्षों में भी कार्य कादाचित्क-अकस्मात्-क्यों है? इसका उपपादन नहीं किया जा सकता है। इसलिए 1. न कार्य के हेतु या कारण का निषेध किया जा सकता है और 2. न उसकी उत्पत्ति या भवन का खण्डन हो सकता है (हेतुभूति निषेधो न) इसलिए अकस्मात् भवति यह कथन करना सर्वथा युक्तिविरुद्ध है।

सांयदर्शन में पूर्वपक्ष के रूप में उपन्यस्त ‘ईश्वरासिद्धेः’ 1.92 नास्तिकों का सर्वप्रमुख एवं प्रिय प्रमाण है। जबकि यह सूत्र पूर्व पक्ष है तथा उत्तर पक्ष सांय में ही द्रष्टव्य है, कि उदयनाचार्य ने इस पूर्वपक्ष के समाधानार्थ आठ हेतु उपस्थित किए हैं-

कार्यायोजन-घृत्यादेः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः।

वाकयात् संया विशेषाच्च साध्यो विधिवदव्ययः।।10

महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास में प्रश्नोत्तर के रूप तथा द्वादश समुल्लास में आस्तिक-नास्तिक के संवाद (प्रश्नोत्तर) के माध्यम से जगत् कारण (निमित्त) ईश्वर के स्वरूप को सुव्यक्त कर दिया है। जिज्ञासु वहीं देख सकते हैं।

वेद में ईश्वर को ‘अज एकपात्’11 ‘अकायमव्रणम्’12 सर्वज्ञ वेद भुवनानि13, विश्वा

साक्षी-‘अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति’14 सृष्टिकर्त्ता-  ‘य इदं विश्वं भुवनं जजान’15 ‘हृदयगुहा में दर्शनयोग्य – वेनस्तत्पश्यन्निहितं गुहा यत्’16 अमर्त्य-‘अमर्त्योमर्त्येना सयोनिः’17 आदि विशेषण विशेषित रूप में वर्णित किया गया है।

सक्षेप में कहा जा सकता है कि जैन मतानुसार प्रत्यक्ष दृश्य जगत्/सृष्टि अनादिनिधना है। वहाँ न तो ईश्वर की स्थापना है और न ही निषेध । हाँ केवली पुरुष/तीर्थंकर अवश्य सर्वज्ञ कहे गए हैं। व्यावहारिक दृष्टि से विचारने पर स्पष्ट है कि जगत्/ सृष्टि कार्य है। इसका मूल उपादान प्रकृति तथा निमित्त कारण सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ ईश्वर है। नास्तिकों द्वारा कार्यकारण के निषेधक हेतु मात्र हेत्वाभास हैं। वेद में ईश्वर को सर्वज्ञ, न्यायकारी, सृष्टिकर्त्ता, अज, अमर्त्य आदि विशेषण विशेषित कहा गया है।

सन्दर्भः

  1. तत्रैश्वर्य विशिष्टः संसार धर्मैरीषदप्यस्पष्टः।

परो भगवान् परमेश्वरः सर्वज्ञः सकलजगद्विधाता।। न्यायसार आगम परिच्छेद

  1. दोषावरणयोहीनिर्निश्शेषास्त्यतिशायनात्ः।।

क्वचिघथा स्वहेतुयो बहिरन्तर्मलक्षयः।।

सूक्ष्मान्तरित दूरार्थाः प्रत्यक्षः कस्यचिद्यथा।

अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरितिसर्वज्ञ संस्थितिः।। समन्तभद्र, आप्तमीमांसा, परिच्छेद 1,4-5

  1. स्वोपात्तकर्मवशादात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसारः
  2. मोहक्षयाज्ज्ञान दर्शनावरणान्तराय क्षयाच्च केवलम्-तत्त्वार्थसूत्र 10.1
  3. बन्ध हेत्वभाव निर्जरायां कृत्स्न कर्मविप्रमोक्षो मोक्षः – 10.2
  4. भारतीय संस्कृतिकोश-सपादक – पं. महादेव शास्त्री जोशी, खण्ड-3 पृ.367
  5. जीव-पुद्गल-दोनों भिन्न-भिन्न हैं-समयसार पूर्वरंग 23-25, टीकायाम् चेतन-जड़
  6. आकृष्टि शक्तिस्तु महीयत्, स्वस्थं गुरुस्वाभिमुख स्वशक्त्या।

आकृष्यते तत् पततीव भाति, समे समन्तात् वच पतत्ययं रवेः।।

-भास्कराचार्य, सिद्धान्त शिरोमणि 19-6 (समय-1171 वि.)

  1. प्रो. उदयचन्द्र जैन,-‘आप्त मीमांसा’ 1.4 की व्याया, पृ. 71
  2. न्यायकुसुमाञ्जलि 5.1
  3. यजु. 34.53
  4. वही 40.4
  5. वही 32.10
  6. ऋक् 1.164.20
  7. अथर्व. 13.3.15
  8. अथर्व. 2.1.1
  9. ऋक् 1.64.6

राधे माँ : पाखण्ड की पाखण्ड के विरुद्ध लड़ाई: धर्मवीर

एक बार एक चोर चोरी करता पकड़ा गया। उसे राजा के कर्मचारियों द्वारा पकड़ लिया गया, राजा ने उसे दण्ड देकर जेल में भेज दिया। चोर ने विचार किया और एक उपाय सोचा, उसने राज्य के कर्मचारी से राजा तक सन्देश भिजवाया कि वह सोने की खेती करना जानता है, यदि राजा उचित समझें तो वह खेती करके दिखा भी सकता है। राजा के मन में उत्सुकता जगी और उसने चोर द्वारा सोने की खेती देखने का निश्चय किया। चोर ने सोने के बीज मंगवाये, हल मंगवाया, एक खेत तैयार किया गया, राजा राज्य के अधिकारी और नागरिक बड़ी संया में खेती देखने के लिये एकत्रित हो गये। चोर किसान के रूप में हल पकड़कर एक हाथ में सोने के बीज लेकर खड़ा हो गया और चिन्ता की मुद्रा बनाते हुए राजा से बोला- राजन मेरे सामने एक समस्या है, यदि आप इसमें मेरी सहायता करें तो यह सोने की खेती सफल हो सकती है। राजा ने कहा- बताओ, क्या समस्या है? चोर ने हाथ जोड़कर राजा से कहा- सोने की खेती तभी सफल हो सकती है, जब कोई पवित्र व्यक्ति के द्वारा सोने के बीज खेत में बोये जावें। मैं तो चोरी करने के कारण अपराधी और पाप का भागी बन गया हूँ, अतः आपके नगर में ऐसे व्यक्ति बहुत होंगे, जिन्होंने कभी चोरी न की हो, आप ऐसे व्यक्ति को बुलवा लें और उससे ये सोने के बीज खेत में बुवा दें। राजा ने घोषणा कर दी- नगर का कोई व्यक्ति आ जाये, जिसने जीवन में कभी चोरी न की हो, उसके द्वारा ये बीज बोये जायेंगे। सब ही एक-दूसरे की ओर देखने लगे, सबको अपने द्वारा की गई चोरी याद आने लगी। नगरवासियों में से जब कोई नहीं निकला तो चोर ने राजा से निवेदन किया- आपके कर्मचारियों में तो ऐसे लोग बहुत होंगे जिन्होंने चोरी नहीं की। राजा ने राज्य के कर्मचारियों को आदेश दिया- जिसने चोरी न की हो, वह आगे आये और बीज बोये। कोई आगे नहीं आया, तब चोर ने कहा- महाराज फिर आप ही अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो पवित्र हैं, जिन्होंने कभी चोरी नहीं की, आप स्वयं ही यह सोने के बीज खेत में बोने का काम करें। राजा सोच में पड़ गया और अपने पिछले जीवन पर विचार किया तो उसे स्मरण आया बचपन में माँ से छिपा कर लड्डू खाये थे, इस प्रकार राजा ने भी अपने जीवन में चोरी की, तब चोर ने कहा- महाराज! जब आपके राज्य में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं, जिसने चोरी नहीं की? फिर मुझ ही को दण्डित क्यों कर रहे हैं? यही स्थिति राधे माँ की है। राधे माँ तो पाखण्ड कर ही रही है परन्तु इस पाखण्ड का विरोध करने वाले स्वयं सारे ही पाखण्डी हैं। यथार्थ तो यह है कि कोई पाखण्ड का विरोध नहीं करना चाहता। जो व्यक्ति दूसरे के पाखण्ड से पीड़ित है, वह पहले व्यक्ति के पाखण्ड का विरोधी है। ऐसी स्थिति में कोई जीते और कोई हारे, पाखण्ड ही जीतता है और पाखण्ड ही हारता है। भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई सत्य, अहिंसा के प्रेमी थे, उनसे एक व्यक्ति ने एक प्रश्न किया- आप कहते हैं सच-झूठ की लड़ाई में सदा सत्य की विजय होती है परन्तु हमारे अनुभव में यह आता है, प्रायः सत्य और असत्य की लड़ाई में असत्य का पक्ष विजयी होता है। तब मोरार जी भाई ने कहा- यह सत्य नहीं है, विजय तो सदा सत्य की ही होती है। तब मोरार जी भाई ने उस व्यक्ति से पूछा- क्या सत्य की बात करने वाला थोड़ा भी असत्य की सहायता नहीं लेता, तब उस व्यक्ति ने कहा- क्या हुआ कहीं थोड़ी भूल हो गई हो। तब मोरार जी देसाई ने उस व्यक्ति से कहा- भाई! तब यह लड़ाई छोटे झूठ और बड़े झूठ की है, इस परिस्थिति में बड़े झूठ का जीतना निश्चित है। आज राधे माँ पर आरोप है- हत्या, दहेज प्रताड़ना, अश्लील आचरण, आर्थिक शोषण आदि सभी तथाकथित धार्मिक लोग यही करते हैं। उन्हें ऐसा करने के लिए धर्म और धार्मिक स्थानों की आड़ सबसे सरल उपाय है। ईसाई, मुसलमान, हिन्दू जितने भी धार्मिक संगठन है, ये सब धर्म का केवल अपने को बचाने के लिये आश्रय लेते हैं, धार्मिक होने में किसी की आस्था नहीं है परन्तु धार्मिक दीखने का प्रयत्न सभी करते हैं, इस व्यवस्था के लिये लोग धर्म को दोषी मानते हैं। उनके विचार से धर्म की आड़ न हो तो इन अपराधों से बचा जा सकता है। जो लोग आज ऐसा कहते हैं, जब पाखण्ड करने वाले लोगों की संया बड़ी हो जाती है, तब उनको आस्था की बात कह कर बचाने का प्रयास किया जाता है। आज धर्म के नाम पर हजारों सन्त, महन्त, महात्मा, गुरु, महाराज, भगवान, देवी बने घूम रहे हैं परन्तु उनका विरोध करने पर लोग, इसे धर्म का अनादर समझने लगते हैं, धार्मिक विद्वेष की संज्ञा देते हैं। इन धार्मिक सप्रदायों से सरकारायभीत होती है। चुनाव जीतने में पार्टियाँ उनसे हाथ जोड़कर विजयी बनाने का आशीर्वाद माँगती हैं। आसाराम जैसे लोग अपने भक्तों व पैसों के बल पर लबी लड़ाई धर्म के नाम पर ही लड़ते हैं। डेरा सच्चा सौदा जैसे मठों की ताकत सरकार को डराती है। सन्त रामपाल दास जैसे लोग कानून के शिकञ्जे में कभी-कभी ही फंसते हैं। इस सब के होने पर भी यह प्रक्रिया कभी रुकती नहीं, क्यों? संसार में समाज के सभी लोग कम अधिक पाखण्ड, अधार्मिक, अनैतिक होने पर भी ऐसे लोग धर्म बुरा है तो उसे छोड़ क्यों नहीं देते। इसके विपरीत वे अधर्म पाखण्ड को बुरा मानने वाले लोग धर्म को अपना क्यों नहीं लेते। दोहरा जीवन हमारी विवशता क्यों बन गया है। सामान्य रूप में धर्म के नाम पर अधर्म पाखण्ड होते देखकर मन में यह बात आना स्वाभाविक है, ऐसे धर्म नैतिकता, सच्चाई जैसी बातों का क्या लाभ है। पचास वर्ष पहले तक सायवादी लोग एक बात बहुत बार दोहराते थे, धर्म अफीम है, इसको व्यक्ति को अपने जीवन से निकाल देना चाहिए। समाज में धर्म का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। सायवादी देशों ने धार्मिक बातों, क्रियाकलापों को प्रतिबन्धित कर दिया था। उनका मानना था धर्म शोषण का आधार है, जो वस्तु शोषण का कारण हो उसे समाप्त कर देना चाहिए। उन्होंने ऐसा किया भी परन्तु वे धर्म को समाप्त तो नहीं कर सके। क्योंकि शोषण का आधार वही वस्तु बन सकती है जो उसके लिये आवश्यक है। किसी मनुष्य या प्राणी को जिस वस्तु की आवश्यकता नहीं वह वस्तु उससे छीनकर, या न देकर उसे कोई भी विवश नहीं कर सकता। भोजन, वस्त्र, औषध, आवास, धन मनुष्य की आवश्यकता है, इनका प्रलोभन देकर या इन्हें छीन कर उस व्यक्ति को विवश किया जा सकता है, उसे आधीन बनाया जा सकता है। इसी प्रकार यदि धर्म से किसी का शोषण हो रहा है तो यह भी स्वीकार करना होगा कि धर्म मनुष्य जीवन के लिये आवश्यक है। एक सामान्य मनुष्य की समस्या यह है कि यदि धर्म नैतिकता, ईमानदारी, निष्ठा की बात न करे तो उसे कोई सुनना नहीं चाहता। व्यवहार में बेइमानी, अधर्म, अनैतिकता न करे तो जीवन में संकट आने लगता है। इस ऊहापोह में उसका पूरा जीवन निकल जाता है, परन्तु वह किसी निर्णय तक नहीं पहुँच पाता। दोनों सत्य उसके समुख हैं, वह दोनों से अपने को पृथक् नहीं कर सकता। इसका उत्तर है परन्तु उस उत्तर तक पहुँचने से पहले ही समाप्त हो जाता है। संसार धर्म-अधर्म, अच्छे-बुरे, पाप-पुण्य, सत्य-असत्य इसका मिश्रण है। ये दोनों शद सापेक्ष है, यदि धर्म नहीं तो अधर्म क्या और अधर्म की सत्ता न हो तो धर्म क्या? झूठ न हो तो सच किसे कहा जाय और सच न हो झूठ का अर्थ क्या? संसार में दोनों बातें थीं, हैं और सदा ही रहेगी। ऋषि दयानन्द लिखते हैं धर्म-अधर्म का सर्वथा अभाव कभी नहीं होता। इनकी वृद्धि और ह्रास होता रहता है। धर्म की मात्रा बढ़ने से समाज में सुख बढ़ता है। अधर्म की वृद्धि से समाज में दुःख की मात्रा बढ़ती है। सामान्य जन के लिए यह समझना कठिन है कि अधर्म से, अनैतिकता से, पाखण्ड से असत्य से दुःख बढ़ता है। इसके विपरीत समाज में तो हर व्यक्ति अनुभव करता है अधर्म, पाखण्ड, झूठ से मनुष्य सपन्न, सुखी, समानित हो रहा है, धार्मिक व्यक्ति दुःखी, पीड़ित, शोषित किया जा रहा है। यह कथन इस कारण सत्य नहीं है, यदि ये बात सच होती तो हर बेइमान आदमी सुखी और सन्तुष्ट होता। इतना ही नहीं वह समाज में सबके द्वारा समानित भी किया जाता परन्तु ऐसा नहीं है। संसार के नियम, विधान अधर्म, अन्याय, पाखण्ड, झूठ को समाप्त करने के लिये बने हैं। किसी को भी सत्य बोलने के लिये दण्डित नहीं किया जाता, कोई व्यक्ति सत्य बोलता है, यह कहकर जेल में नहीं डाला जाता। सच्चे व्यक्ति को झूठे आरोपों में फंसाकर दण्डित किया जाता है या जेल भेजा जाता है। समाज में धर्म व सत्य का ही समान किया जाता है। व्यक्तिगत स्तर पर भी हम देखें तो पाते हैं कि हमें कोई झूठा, बेईमान, पाखण्डी कहे, यह किसी को भी स्वीकार नहीं होगा। यदि झूठ बोलना लाभदायक है तो झूठा कहलाना हानि कारक कैसे हो सकता है। कोई व्यक्ति दुराचरण में लिप्त पाया जाता है परन्तु उसे कोई दुराचारी कहे, यह उसे सह्य नहीं हो सकता। ये दोनों परस्पर विरोधी बातें प्रत्येक मनुष्य के भीतर ही हैं। इन्हीं से प्रेरित होकर वह कभी अधर्म की ओर प्रेरित होता है और कभी धर्म की ओर। एक ही व्यक्ति ऐसा व्यवहार क्यों करता है, इसको समझना बहुत कठिन नहीं है। इसका उत्तर इस बात से मिल जाता है, आप किस कार्य को कर के क्या प्राप्त करते हैं। अधर्म, असत्य, पाखण्ड, झूठ से हम क्या प्राप्त करना चाहते हैं। पहली वस्तु है, इन कार्यों को करके मनुष्य धन सपन्नता वैभव पाने की इच्छा रखता है, ऐसा करके वह सांसारिक वस्तुओं को पा जाता है। इस परिणाम के बाद उसे इसी मार्ग पर चलते हुए सन्तुष्ट रहना चाहिए, परन्तु इन सब बातों के साथ-साथ सच्चाई, ईमानदारी, धार्मिकता को अपने पास देखना चाहता है। इसका इतना ही अभिप्राय है मनुष्य अधार्मिक या अनैतिक होकर सन्तुष्ट नहीं हो सकता। दूसरा पक्ष है धार्मिकता से क्या मिलता है, इससे सन्तुष्टि, शान्ति, सुख का अनुभव मिलता है। मनुष्य की समस्या है शान्ति-सन्तुष्टि से भोजन, वस्त्र, आवास, औषधी, शिक्षा और दुनिया का जीवन उपयोगी सामान नहीं मिलता। भले ही संसार के अधिकांश लोगों का विचार ऐसा ही हो परन्तु यह विचार सत्य नहीं है। यह बात समझना भी कठिन नहीं है, मनुष्य झूठ बोलकर पाखण्ड करके जो पाता है, वह जीवन के लिये आवश्यक है। संसार में आवश्यकता का आधार शरीर है। संसार की सारी आवश्यकतायें शरीर से जुड़ी है। ईश्वर ने संसार में इतने पर्याप्त साधन साधन दिये हैं कि प्रत्येक मनुष्य नहीं प्रत्येक प्राणी की आवश्यकता पूर्ण हो सकती है। मनुष्य तीन स्तरों पर जीता है- प्रथम शरीर के स्तर पर, दूसरा मन के स्तर पर, तीसरा आत्मा के स्तर पर। आवश्यकता शरीर की होती है, इच्छा मन की होती है, तीसरा स्तर आत्मा है, जहाँ सुख, शान्ति, सन्तुष्टि का स्थान है। अब हम जो कर रहे हैं वह हम किसके लिये कर रहे हैं। शरीर की आवश्यकतायें बहुत सीमित है, इसके लिये हम जीवन भर का गणित करके भोजन, वस्त्र, आवाास का संग्रह करें तो जो आज हमारे पास है, उससे भी कम की आवश्यकता है। दूसरा हमारा साधन है मन वह हमारा है, हमें उसकी भी चिन्ता करनी चाहिए, उसकी आवश्यकता को हम इच्छा कहते हैं। वैसे भगवान ने मन को ऐसा बनाया है कि शरीर की भांति इसे भोजन, पानी, वस्त्र, आवास की आवश्यकता नहीं होती। शरीर के साधनों से उसका पोषण हो जाता है परन्तु उसकी इच्छा की पूर्ति के लिये शरीर को दण्ड भोगना पड़ता है। आपका पेट तो दो रसगुल्ले से भर जाता है परन्तु मन आपको छह खिला देता है, इसका दण्ड शरीर को भोगना पड़ता है। शरीर की आवश्यकतायें तो बहुत थोड़े साधनों से पूर्ण की जा सकती है परन्तु संसार के सारे साधन भी एक मन की इच्छा को पूरा नहीं कर पाते। थोड़ी सी ईमानदारी आत्मा को बहुत सारा सुख दे जाती है परन्तु जीवन भर की बेईमानी मनुष्य को कभी तृप्ति देने में समर्थ नहीं होती। संसार में मनुष्य अधर्म करने से तभी रुक सकता है या तो संसार की सारी सपत्ति उसे मिल जाय या मन तृप्त हो जाये, ये दोनों बातें अधर्म से सभव नहीं है, इसलिए मनुष्य कभी अधर्म करने से रुक नहीं पाता। विचारशील व्यक्ति के मन में यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है, शरीर की आवश्यकता थोड़ी क्यों मन की इच्छा अधिक क्यों। इसका उत्तर है, दोनों मनुष्य की आत्मा के साधन है। शरीर से इस जीवन की यात्रा होती है, मन से ससांर से मुक्ति की यात्रा करनी है। जैसे एक तोप गाड़ी में गाड़ी की आवश्यकता कम है तोप की अधिक किन्तु तोप का मुख अपनी सेना पर तो नहीं किया जा सकता है। हमने यही कर रखा, अपने मन को मुक्ति की ओर न करके संसार की ओर कर लिया है। तोप चलेगी तो गड्ढा होगा, फसेंगे हम ही, वही तो हो रहा है। मन आत्मा के साथ न होकर शरीर के साथ होता है, दुर्बल होता है, आत्मा के साथ होता है तो बलवान होता है। इस दुर्बलता में यह सदा भय और लोभ से ग्रस्त रहता है, परिणामस्वरूप अधर्म, अन्याय, अत्याचार, पाप में लिप्त रहता है। धर्म, न्याय, सत्य, आत्मा की आवश्यकता है, शरीर के कारण अधर्म को नहीं छोड़ पाता, आत्मा के कारण सत्य से भाग नहीं सकता। सारभूत बात तो इतनी है स्वामी तो आत्मा है। आत्मा का आदेश तो अन्तिम है। हम संसार में कितना भी झूठ क्यों न बोले कहना पड़ेगा कि यह सत्य है। न्यायालय में व्यक्ति साक्षी देता है, कितनी भी झूठी साक्षी दे परन्तु शपथ तो सत्य बोलने की ही खानी पड़ेगी। कोई कितना भी पाखण्ड, अधर्म, अन्याय, अत्याचार क्यों न करे, उसे न्याय और धर्म का ही नाम देना होगा। मनुष्य को विचार करने की बात पाखण्ड, झूठ, अधर्म, सब कुछ धर्म के नाम पर चढ़कर चल रहा है। यदि वह वास्तव में धर्म और सत्य हो तो उसमें कितना बल होगा। जब तक मनुष्य अपने मन को आत्मा से नहीं जोड़ेगा तब तक वह भय और प्रलोभन से मुक्त नहीं हो सकता। मनुष्य झूठ बोलकर पाखण्ड करके अपने को बुद्धिमान समझता है परन्तु वास्तविकता तो यह है जो जितना दुर्बल होता है, वह उतना ही अधिक झूठा और बेईमान होता है। व्यक्ति असत्य का सहारा तभी लेता है जब वह दुर्बल होता है। मनुष्य का भय सत्य से, ज्ञान से दूर होता है, ज्ञान में जितना-जितना सत्य ज्ञान आता जायेगा, मनुष्य निर्भय होता जायेगा। तभी मनुष्य पूर्ण धर्मात्मा और पाखण्ड रहित बन सकेगा। शरीर के स्तर पर जीने वाला दास होता है, मन के स्तर पर जीने वाला पाखण्डी होता है और आत्मा के स्तर पर जीने वाला धार्मिक होता है। मन के स्तर पर जीने वाले धर्म का उपयोग करते हैं परन्तु साधनों में, संसार में जीते हैं। वे धर्म-अधर्म जानते हुए भी दुर्योधन की तरह अधर्म करने के लिये विवश हैं, दुर्योधन कहता है- धर्म क्या है? जानता हूँ, करने की इच्छा नहीं होती, अधर्म को भी पहचानता हूँ, दूर होने का मन नहीं करता, वह हम सबका भी यही हाल है, हम भी कह उठते हैं-

जानामि धर्मं न च मे प्रवृतिः जानायधर्मं न च मे निवृत्तिः।

केनापि देवेन हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।।

– धर्मवीर

क्या राजा दशरथ शिकार के लिए गये थे ? क्या राजा दशरथ ने हिरण के धोखे में श्रवण कुमार को मार दिया था ?

कुछ मासाहारी ,मुस्लिम ,राजपूत समुदाय (केवल मासाहारी ),कामरेड वादी ,संस्कृति द्रोही लोग सनातन धर्म में मासाहार सिद्ध करने के लिए राजा दशरथ द्वारा शिकार पर जाना ओर हिरण के धोखे में श्रवण को मारने का उलेख करते है | लेकिन उनकी यह बात बाल्मिक रामायण के अनुरूप नही है वे लोग आधा सच दिखाते है ओर आधा छुपाते है | राज्य व्यवस्था व न्याय के निपुण आचार्य चाणक्य (ऋषि वात्साययन ) भी अपने सूत्रों में शिकार का निषेध बताते हुए लिखते है – ” मृगयापरस्य धर्मार्थो विनश्यत ” (चाणक्यसूत्राणि ७२ ) अर्थात आखेट करने वाले ओर व्यवसनी के धर्म अर्थ नष्ट हो जाते है | जब इस काल के आचार्य निषेध करते है तब दशरथ के समय जब एक से बढ़ एक ऋषि थे जेसे वशिष्ठ ,गौतम ,श्रृंगी ,वामदेव ,विश्वामित्र तब कैसे दशरथ शिकार कर सकते है | रामयाण के अनुसार दशरथ वन में शिकार के लिए नही बल्कि व्यायाम के लिए गये थे जेसा कि बाल्मिक रामायण के अयोध्याकाण्ड अष्टचत्वारिश: सर्ग: में आया है –
तस्मिन्निति सूखे काले धनुष्मानिषुमान रथी |
व्यायामकृतसंकल्प: सरयूमन्वगान्नदीम ||८||
अथान्धकारेत्वश्रौष जले कुम्भस्य पूर्यत: |
अचक्षुर्विषये घोष वारणस्येवनर्दत: ||
अर्थ – उस अति सुखदायी काल में व्यायाम के संकल्प से धनुषबाण ले रथ पर चढ़कर संध्या समय सरयू नदी के तट पर आया ,वहा अँधेरे में नेत्रों की पहुच से परे जल से भरे जाते हुए घट का शब्द मैंने इस प्रकार सूना जेसे हाथी गर्ज रहा हो ||
यहा पता चलता है कि वे व्यायाम हेतु गये थे ओर उन्हें जो शब्द सुनाई दिया वो हाथी की गर्जना समान सुनाई दिया न कि हिरण के समान …
राजा दशरथ इसे हाथी समझ बेठे और उन्होंने इसे वश में करना चाहा | ये हम सभी जानते है कि राजाओं की सेना में हाथी रखे जाते है उनहे प्रशीक्षण दिया जाता है ये हाथी जंगल से पकड़े जाते है और हाथी पकड़ने के लिए उसे या तो किसी जगह फसाया जाता है या फिर बेहोश कर लाया जाता है अत: हाथी को बेहोश कर वश में करने के लिए दशरथ ने तीर छोड़ा न कि जीव हत्या या शिकार के उद्देश्य से |
हाथी को सेना में रखने का उद्देश्य चाणक्य अपने अर्थशास्त्र में बताते है –
” हस्तिप्रधानो हि विजयो राज्ञाम | परानीकव्यूहदुर्गस्कन्धावारप्रमर्दना ह्मातिप्रमाणशरीरा: प्राणहरकर्माण हस्तिन इति ||६ || (अर्थशास्त्र भूमिच्छिद्रविधानम ) अर्थात हस्तिविज्ञान के पंडितो के निर्देशानुसार श्रेष्ठ लक्षणों वाले हाथियों को पकड़ते रहने का अभियान सतत चलाना चाहिए ,क्यूंकि श्रेष्ठ हाथी ही राजा की विजय के प्रधान और निश्चित साधन है | विशाल और स्थूलकाय हाथी शत्रु सेना को , शत्रुसेना की व्यूह रचना को दुर्ग शिविरों को कुचलने तथा शत्रुओ के प्राण लेने में समर्थ होते है और इससे राजा की विजय निश्चित होती है |
राजा दशरथ ने भी हाथी को प्राप्त करने के लिए बाण छोड़ा था न कि मारने के लिए इसकी पुष्टि भी रामयाण के अयोध्याकाण्ड अष्टचत्वारिश सर्ग से होती है –
ततोअहम शरमुध्दत्य दीप्तमाशीविषोपमम |
शब्द प्रति गजप्रेप्सुरभिलक्ष्यमपातयम ||
तत्र वागुषसि व्यक्ता प्रादुरासीव्दनौकस: |
हां हेति पततस्तोये वाणाद्व्यथितमर्मण:||
राजा दशरथ कहते है कि तब मैंने हाथी को प्राप्त करने की इच्छा से तीक्ष्ण बाण निकालकर शब्द को लक्ष्य में रखकर फैंका ,और जहा बाण गिरा वहा से दुखित मर्म वाले ,पानी में गिरते हुए मनुष्य की हा ! हाय ! ऐसी वाणी निकली ||
तो पाठक गण स्वयम ही देखे राजा दशरथ हाथी को वश में प्राप्त करना चाहते थे लेकिन ज्ञान न होने से तीर श्रवण को लग गया | ओर सम्भवत तीर ऐसा होगा (या तीर में लगा कोई विष ) जिससे हाथी आदि मात्र बेहोश होता है लेकिन मनुष्य उसे सह नही पाता और प्राण त्याग देता है इसलिए श्रवण उस तीर के घात को सह नही सका और प्राण त्याग दिए |
अत: शिकार और मासाहार के प्रकरण में दशरथ का उदाहरण देना केवल एक धोखा मात्र है |

योगेश्वर श्री कृष्ण और १६ कलाएं तथा जन्माष्टमी

नमस्ते मित्रो,

५००० वर्ष और उससे भी पूर्व अनेको मनुष्य उत्पन्न हुए मगर इतिहास में याद केवल कुछ ही लोगो को किया जाता है, इतिहास में केवल उनके लिए जगह होती है जो कुछ अनूठा करते हैं, कुछ लोग अपने द्वारा की गयी बुराई से अपना नाम इतिहास में दर्ज करवाते हैं, और कुछ अपने सदगुणो, सुलक्षणों और महान कर्तव्यों से अपना नाम अमर कर जाते हैं, क्योंकि आज कृष्ण जैसा सुलक्षण नाम अपने पुत्र का तो कोई भी रखना चाहेगा, मगर रावण, कंस आदि दुर्गुणियो के नाम कोई भी अपने पुत्र का न रखना चाहेगा, इसी कारण कृष्ण अमर हैं, राम अमर हैं, हनुमान अमर हैं, मगर रावण, कंस आदि मृत हैं।

आर्यावर्त में उत्पन्न हुए अनेको ऐतिहासिक महापुरषो में से एक महापुरुष, ज्ञानी, वेदवेत्ता योगेश्वर श्री कृष्ण का आज ही के दिन जन्म हुआ था, इस दिन को आज जन्माष्टमी कहते हैं, क्योंकि आज भाद्रपद मास की अष्टमी तिथि है, इसी दिन कृष्ण महाराज का जन्म हुआ था। इसलिए इस दिन को जन्माष्टमी के नाम से जाना जाता है।

हमारे बहुत से बंधू कृष्ण महाराज को पूर्ण अवतारी पुरुष कहते हैं। यहाँ हम अवतार का अर्थ संक्षेप में बताना चाहेंगे, “अवतार का शाब्दिक अर्थ “जो ऊपर से नीचे आया” और “पूर्ण” “पुरुष” इस हेतु कहते हैं पूर्ण कहते हैं जो अधूरा न रहा, और पुरुष शब्द के दो अर्थ हैं :

1. पुरुष शब्द का अर्थ सामान्य जीव को कहते हैं जिसे आत्मा से सम्बोधन करते हैं।

2. पुरुष शब्द का प्रयोग परमात्मा के लिए भी किया जाता है जिसने इस सम्पूर्ण ब्राह्मण की रचना, धारण और प्रलय आदि का पुरषार्थ किया और करता है।

हम सभी जीव जो इस धरती पर व अन्य लोको पर विचरण कर रहे वो सभी अवतारी हैं क्योंकि हम सब ऊपर से ही नीचे आये क्योंकि मरने के बाद हमारी आत्मा यमलोक (यम वायु का नाम है अतः वायुलोक यानी अंतरिक्ष में जाती है) तब नीचे आती है। और हम सभी अपनी आत्मा के उद्देश्य को पूर्ण नहीं कर पाते अर्थात मोक्ष को ग्रहण करने योग्य गुणों को धारण नहीं कर पाते और कुछ ही गुणों को आत्मसात कर पाते हैं। इसलिए हम आवागमन के चक्र में फंसे रह जाते हैं। अतः इसी कारण हम अवतार होते हुए भी मृतप्राय रह जाते हैं अमर नहीं हो पाते।

अब हम आते हैं कृष्ण को १६ कलाओ से युक्त पूर्ण अवतारी क्यों कहते हैं यहाँ हमारे कुछ पौराणिक बंधू पहले इस तथ्य को भली भांति समझ लेवे की परमात्मा जो पुरुष है वह अनेको कलाओ और विद्याओ से पूर्ण है, जबकि जीव पुरुष अल्पज्ञ होने से कुछ कलाओ में निपुण हो पाता है, यही एक बड़ा कारण है की जीव ईश्वर नहीं हो सकता। क्योंकि जीव का दायित्व है की ईश्वर के गुणों को आत्मसात करे इसीलिए कृष्ण महाराज ने योग और ध्यान माध्यम से ईश्वर के इन्ही १६ गुणों (कलाओ) को प्राप्त किया था इस कारण उन्हें १६ कला पूर्ण अवतारी पुरुष कहते हैं।

अब आप सोचेंगे ये १६ कलाएं कौन सी हैं, तो आपको बताते हैं, देखिये :

इच्छा, प्राण, श्रद्धा, पृथ्वी, जल अग्नि, वायु, आकाश, दशो इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, लोक और नाम इन सोलह के स्वामी को प्रजापति कहते हैं।

ये प्रश्नोपनिषद में प्रतिपादित है।

(शत० 4.4.5.6)

योगेश्वर कृष्ण ने योग और विद्या के माध्यम से इन १६ कलाओ को आत्मसात कर धर्म और देश की रक्षा की, आर्यवर्त के निवासियों के लिए वे महापुरष बन गए। ठीक वैसे ही जैसे उनसे पहले के अनेको महापुरषो ने देश धर्म और मनुष्य जाति की रक्षा की थी। क्योंकि कृष्ण महाराज ने अपने उत्तम कर्मो और योग माध्यम से इन सभी १६ गुणों को आत्मसात कर आत्मा के उद्देश्य को पूर्ण किया इसलिलिये उन्हें पूर्ण अवतारी पुरुष की संज्ञा अनेको विद्वानो ने दी, लेकिन कालांतर में पौरणिको ने इन्हे ईश्वर की ही संज्ञा दे दी जो बहुत ही

अब यहाँ हम सिद्ध करते हैं की ईश्वर और जीव अलग अलग हैं देखिये :

यस्मान्न जातः परोअन्योास्ति याविवेश भुवनानि विश्वा।
प्रजापति प्रजया संरराणस्त्रिणी ज्योतींषि सचते स षोडशी।

(यजुर्वेद अध्याय ८ मन्त्र ३६)

अर्थ : गृहाश्रम की इच्छा करने वाले पुरुषो को चाहिए की जो सर्वत्र व्याप्त, सब लोको का रचने और धारण करने वाला, दाता, न्यायकारी, सनातन अर्थात सदा ऐसा ही बना रहता है, सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान परमात्मा जिससे कोई भी पदार्थ उत्तम व जिसके सामान नहीं है, उसकी उपासना करे।

यहाँ मन्त्र में “सचते स षोडशी” पुरुष के लिए आया है, पुरुष जीव और परमात्मा दोनों को ही सम्बोधन है और दोनों में ही १६ गुणों को धारण करने की शक्ति है, मगर ईश्वर में ये १६ गुण के साथ अनेको विद्याए यथा (त्रीणि) तीन (ज्योतिषी) ज्योति अर्थात सूर्य, बिजली और अग्नि को (सचते) सब पदार्थो में स्थापित करता है। ये जीव पुरुष का कार्य कभी नहीं हो सकता न ही कभी जीव पुरुष कर सकता क्योंकि जीव अल्पज्ञ और एकदेशी है जबकि ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापी है, इसी हेतु से जीव पुरुष को जो गृहाश्रम की इच्छा करने वाला हो, ईश्वर ने १६ कलाओ को आत्मसात कर मोक्ष प्राप्ति के लिए वेद ज्ञान से प्रेरणा दी है, ताकि वो जीव पुरुष उस परम पुरुष की उपासना करता रहे।

ठीक वैसे ही जैसे १६ कला पूर्ण अवतारी पुरुष योगेश्वर कृष्ण उस सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान, परम पुरुष परमात्मा की उपासना करते रहे।

आइये हम भी इन गुणों को अपना कर कृष्ण के सामान अपने को अमर कर जाए। हम १६ कला न भी अपना पाये तो भी वेद पाठी होकर कुछ उन्नति कर पाये।

आइये सत्य को अपनाये और असत्य त्याग कर कृष्ण के जन्मदिवस जन्माष्टमी का त्यौहार मनाये। आप सभी मित्रो, बंधुओ को योगेश्वर कृष्ण के जन्मदिवस जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाये।

लौटिए वेदो की और।

नमस्ते।

नोट : अब स्वयं सोचिये जो पुरुष (जीव) इन १६ कलाओ (गुणों) को योग माध्यम से प्राप्त किया क्या वो :

कभी रास रचा सकता है ?

क्या कभी गोपिकाओं के साथ अश्लील कार्य कर सकता है ?

क्या कभी कुब्जा के साथ समागम कर सकता है ?

क्या अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य महिला से सम्बन्ध बना सकता है ?

क्या कभी अश्लीलता पूर्ण कार्य कर सकता है ?

नहीं, कभी नहीं, क्योंकि जो इन कलाओ (गुणों) को आत्मसात कर ले तभी वो पूर्ण कहलायेगा और जो इन सोलह कलाओ को अपनाने के बाद भी ऐसे कार्य करे तो उसे निर्लज्ज पुरुष कहते हैं, पूर्ण अवतारी पुरुष नहीं।

इसलिए कृष्ण का सच्चा स्वरुप देखे और अपने बच्चो को कृष्ण के जैसा वैदिक धर्मी बनाये।

योगेश्वर महाराज कृष्ण की जय।

धन्यवाद

वेशों का ईद मुबारक : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

माननीय सपादक जी, परोपकारी,

सप्रेम नमस्ते।

 

वेशपंथियों ने सार्वदेशिक सभा के भवन के बाहर ‘ईद मुबारक’ के बैनर लगाकर यह प्रमाणित कर दिया है कि उनके मन में क्या है। इनके मन में कुछ भी  हो सकता है परन्तु आर्यसमाज और वैदिक धर्म के प्रति लेशमात्र भी कोई भावना नहीं।

जब नेपाल में सायवादी प्रधानमन्त्री सत्तासीन हुआ तो श्री अग्निवेश ने ब्र. नन्दकिशोर जी से कहा, ‘‘लो नेपाल में मेरा राज हो गया।’’

सत्यार्थप्रकाश के विरुद्ध अमृतसर में जो कुछ कहा, उस समय के दैनिक पत्रों में छपा मिलता है।

समलैङ्गिकता का समर्थन, बिग बॉस में जाकर साधुवेश की शोभा बढ़ाने वाले ने अब याकूब की रक्षा के लिए झण्डा उठा लिया है।

जिन लोगों ने कभी अग्निवेश के अपमान पर रोष प्रकट करते हुए दिल्ली में कभी जलूस निकाला था, उन्हें अब अग्निवेश के नेतृत्व में बकर ईद (गो-मांस वाली ईद) पर नारे लगाते हुए जलूस निकालना चाहिये।

पं. लेखराम, वीर राजपाल, वीर नाथूराम, हुतात्मा श्यामलाल और वीर धर्मप्रकाश वेदप्रकाश के बलिदान पर्व पर तो इन्होंने कभी बैनर लगाया नहीं।

ये लोग ईद, रोजे व क्रिसमिस मनाने में हाजियों से भी आगे-आगे रहेंगे। इस पंथ का जन्म ही आर्य जाति के विनाश के प्रयोजन से हुआ- यह अब सर्वविदित है।

इन्होंने तो कभी अपने दीक्षा-गुरु स्वामी ब्रह्ममुनि जी का भी कभी नाम नहीं लिया।

– राजेन्द्र जिज्ञासु, वेद सदन, अबोहर, पंजाब

‘मृतक श्राद्ध विषयक भ्रान्तियां: विचार और समाधान’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हिन्दू समाज आज कल अन्धविश्वासों का पर्याय बन गया है। श्राद्ध शब्द को पढ़कर धर्म-कर्म में रूचि न रखने वाला एक अल्प ज्ञानी सामान्य व्यक्ति भी समझता है कि श्राद्ध अवश्य ही श्रद्धा से सम्बन्ध रखता है। जिस प्रकार से देव से देवता शब्द बनता है उसी प्रकार से श्रद्धा से श्राद्ध बनता है। श्रद्धा उन पारिवारिक जनों व विद्वानों के प्रति होती है जिनसे हमें कुछ लाभ हुआ होता है। हमारे माता-पिता व वृद्ध पारिवारिक लोग व आचार्यगण हमारी श्रद्धा के मुख्य रूप से पात्र होते हैं। माता-पिता, दादी-दादा, प्रपितामही-प्रपितामह आदि के अतिरिक्त चाचा, ताऊ, बुआ, फूफा, मामा व मौसी आदि सभी संबंधियों के प्रति हमारी श्रद्धा व आदर का भाव होता है। अतः श्रद्धा पूर्वक उन जीवित अपने से अधिक आयु वालों को अपने सद्व्यवहार व सेवा से सन्तुष्ट रखना ही श्राद्ध व तर्पण हो सकता है। यदि हम माता-पिता, अन्य वृद्धों व आचार्यों, सभी को भोजन, वस्त्र व उनकी आवश्यकतानुसार धन आदि उन्हें देते हैं और वह हमारी इस सेवा व दान से प्रसन्न होते हैं तो हमारा यह कृत्य श्राद्ध व तर्पण में आता है। श्राद्ध है श्रद्धापूर्वक सेवा और तर्पण अपने आचरण व सेवा से उन्हें सन्तुष्ट करना। माता-पिता को सेवा की आवश्यकता तभी तक होती है जब तक की वह जीवित होते हैं। मरने के बाद अन्त्येष्टि द्वारा उनका शरीर भस्म कर दिया जाता है। उनका मुख, उदर व सभी शरीरांग जल कर नष्ट हो जाते हैं और कुछ मुट्ठी राख ही बचती है। अब चेतन तत्व हमारी व अन्यों की अनादि, अजर, अमर, आत्मा क्योंकि शरीर से पृथक हो जाती है अतः उसे भोजन की आवश्यकता नहीं होती। अब तो परलोक व परजन्म में उनका सहायक ईश्वर तथा उनके कर्म अर्थात् प्रारब्ध ही होते हैं। हम कुछ भी कर लें, हमारे कुछ भी करने से हमारे किसी मृतक सगे सम्बन्धी माता-पिता आदि को कोई, किसी प्रकार का व किंचित लाभ नहीं हो सकता। ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि इसलिए नहीं दी की वह किसी भी कार्य को इस लिए करे कि उसके पूर्वज व अन्य लोग इस कार्य को करते चले आ रहे हैं अपितु इसलिए दी है कि वह प्रत्येक कार्य को सत्य व असत्य का विचार कर करे।  यदि श्राद्ध को देखे तो इससे हमारे ब्राह्मण वर्ग के पुरोहितों को विशेष आर्थिक व भौतिक लाभ होता है। वह अच्छा भोजन करते हैं और उन्हें कुछ वस्तु भी दान स्वरूप भेंट करनी होती हैं। किसी कार्य आदि से जिस व्यक्ति को कोई लाभ होता है तो उसका वह संस्कार बन जाता है। उसे कितना ही कोई मना करे, वह उस कार्य को छोड़ता नहीं है। रिश्वत, कामचोरी, शराब, मांसाहार जैसी बुरी आदतों की ही तरह हर कार्य जिससे किसी को कोई लाभ होता हो, उसे वह छोड़ नहीं पाता। अतः मनुष्य को स्वयं ही सत्य व असत्य का विचार करना चाहिये और असत्य को छोड़कर सत्य को ग्रहण करना चाहिये। इस कारण कि संसार में आपसे अधिक आपका कोई हितैषी नहीं है। और तो अपना प्रयायेजन सिद्ध करते हैं। अपना हित व अहित देखना और बुद्धि पूर्वक निर्णय करना आपका ही काम है, यह बात गांठ बांध लेनी चाहिये। यही मनुष्य जीवन का मुख्य कर्तव्य व उद्देश्य है।

 

श्राद्ध में जो भोजन ब्राह्मणों को कराया जाता है उससे उनकी क्षुधा की निवृति वा पेट भरता है। हमारे मृतक पूर्वजों का न तो हमें पता है और न हि हमारे श्राद्ध खाने वाले व बड़े से बड़े किसी विद्वान को कि वह आत्मायें जिनका श्राद्ध हो रहा है, वह कहां हैं? मृत्यु के बाद मृतक की आत्माओं की ओर से अपने किसी सगे सम्बन्धी को कभी भी अपना न तो कोई समाचार बताया जाता है और न हमारे हाल चाल ही पूछे जाते हैं। मरने के बाद मनुष्य सब कुछ भूल जाता है। परमात्मा की प्रेरणा से वह अपने कर्मों के अनुसार नई योनि में जन्म लेता है। मनुष्य जन्म लेने वाला कोई बच्चा यह नहीं बताता कि मैं पहले मरा हूं, वहां रहता था, अमुक नाम के लोग मेरे पुत्र-पुत्री थे, आदि आदि। कारण कि वह सब कुछ भूल चुका है। मनुष्य जन्म लेने में जीवात्मा को मात्र न्यूनतम गर्भावास में 10 महीनों का समय लगता है। किसी किसी मामले में कुछ अधिक भी हो सकता है। अब विचार कीजिए कि इस नये उत्पन्न शिशु का इसके पूर्व जन्म के पारिवारिक जनों ने श्राद्ध किया होगा तो इसको तो कभी भोजन मिलता उसे स्वयं व उसके परिवार जनों को अनुभव नहीं हुआ। यह तो जन्म लेने के बाद प्रातः सायं प्रतिदिन माता से भोजन पाता व करता है। यदि श्राद्ध के दिन इसके पूर्व जन्म की कोई सन्तान इसका श्राद्ध करे तो एक समय के भोजन की इसकी निवृत्ति होकर अनुभव भी होना चाहिये। ऐसा तो कभी किसी को मिलता ही नहीं है। यदि कोई यह मानता है कि श्राद्ध करने से पूर्वजों को भोजन पहुंचता है तो उन्हें प्रातःसायं दोनों समय पूरे वर्ष भर ही श्राद्ध करना चाहिये जैसे कि जीवित माता-पिता, दादी दादा व परदादी व परदादा को दिन में दो बार भोजन कराया जाता है। हर दृष्टि से मृतक श्राद्ध करना, तर्क, युक्ति व वेदादि शास्त्र विरूद्ध है। आर्य समाज के विद्वानों ने इस विषय का पर्याप्त साहित्य सृजित किया है। इनमें से एक ग्रन्थ ‘‘श्राद्ध निर्णय” वेदों के शीर्ष विद्वान पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ जी का रचा हुआ है। उसमें श्राद्ध के सभी पहलुओं पर विस्तार से विचार कर निर्णय किया गया है कि मृतकों का श्राद्ध अन्धविश्वास के अलावा कुछ नहीं है। यह भी बता दें कि हमारे यह पण्डित जी व हम भी पहले पौराणिक परिवारों के रहे हैं जहां मृतक श्राद्ध होता था और हमारे सम्बन्धी जो अज्ञान में फंसे हुए हैं, वह अब भी मृतक श्राद्ध करते हैं। अभी तक सनातनी कहे जाने वाले हमारे बन्धुओं ने कोई ऐसा प्रमाण व युक्ति नहीं दी है जिससे श्राद्ध को युक्ति व तर्क से सिद्ध किया जा सके। अतः बुद्धि से विचार कर हमें केवल अपने जीवित माता-पिता व परिवार के सभी वृद्ध जनों जिन्हें हमारा भोजन, वस्त्र, ओषधि वा चिकित्सा आदि के रूप में किसी भी प्रकार से सेवा की आवश्यकता है, हमें कर्तव्य पूर्वक प्रतिदिन प्रातः व सायं उनकी यथोचित सेवा करनी चाहिये। अपनों की तो सेवा सभी को करनी है, इसके साथ हि सभी ज्ञानी व वृद्ध लोगों का भी सेवा सत्कार यथा सामर्थ्य सभी को करना चाहिये। यही मनुष्य धर्म व वैदिक धर्म है। यदि हम बुद्धिपूर्वक कार्य करेंगे और अन्धविश्वासों का त्याग करेंगे तो हम वैदिक काल के अपने स्वर्णिम वैभव को पुनः प्राप्त कर सकते हैं। हम भविष्य में पराधीनता व निजी व अपनी जाति व समाज के लोगों के अपमान से बच सकते हैं जैसा कि मध्यकाल, मुस्लिम व व्रिटिश शासन आदि में हमारे पूवजों को झेलना पड़ा है। यदि ऐसा नहीं करेंगे और बीती बातों से सबक व शिक्षा नहीं लेंगे तो उन घटनाओं की पुनरावृत्ति हो सकती है। ठोकर लगने पर जो न सम्भले उसका जो हश्र होता है, वही हश्र हमारा पुनः हो सकता है।

 

एक अन्य दृष्टि से भी श्राद्ध पर विचार करते हैं। हम इस समय 63 वर्ष के हैं। जब 63 वर्ष पूर्व पूर्व जन्म लेकर पूर्व जन्म की मृत्यु के बाद हम इस जीवन में आये तो सम्भव है कि हमारा 30 से 35 वर्ष का कोई पुत्र रहा होगा जो अब लगभग 93 वर्ष का होगा। उसका पुत्र भी लगभग 63 का और उस 63 वर्षीय का पुत्र लगभग 33 वर्ष का हो सकता है। इस प्रकार से पूर्व जन्म के हमारे पोते और पड़पोतों का जीवित होना सम्भव है। हमें अपने विगत 63 वर्षों के जीवन में इन सभी वंशजों से कभी श्राद्ध नाम का भोजन मिला हो, ऐसा अनुभव नहीं हुआ और न हि उससे होने वाली तृप्ति अनुभव हुई। संसार में सम्प्रति 7 अरब लोग हैं, शायद इसका एक भी गवाह नहीं मिलेगा जो दावा करे कि कभी उसके पूर्व जन्म के वशंजों के श्राद्ध से उसकी क्षुधा व अन्य कोई समस्या हल हुई हो। अतः यह मृतक श्राद्ध अन्धविश्वास ही सिद्ध होता है। महाभारतकालीन व पूर्व के साहित्य मुख्यतः वेद आदि में मृतक श्राद्ध आदि का कहीं कोई वर्णन नहीं है। अतः मृतक श्राद्ध असिद्ध है और अन्धविश्वास से अधिक कुछ नहीं है। यह भी कहना है कि हमारे कुछ ग्रन्थों में मध्यकाल में कुछ स्वार्थी लोगों ने प्रक्षेप कर दिये थे। यदि कहीं कोई उल्लेख मृतक श्राद्ध के पक्ष में है तो उस पर युंक्ति पूर्वक विचार होना चाहिये। हर विद्वान, पुस्तक व ग्रन्थ लेखक को अपनी मान्यता के सम्बन्ध में तर्क व प्रमाण देने चाहिये। यदि कोरा प्रवचन हो तो उसे बुद्धि, युक्ति व तर्क हीन होने पर स्वीकार नहीं करना चाहिये। हम आशा करते हैं कि पाठक हमारे विचारों से सहमत होंगे। हम निवेदन करते हैं कि महर्षि दयानन्द, ईश्वर व आप्त विद्वानों व ऋषि-मुनियों द्वारा प्रदत्त वैदिक साहित्य को पढ़कर अपने जीवित पितरों का श्रद्धापूवक सेवा सत्कार नित्य प्रति कर उनकी आत्माओं को सन्तुष्ट व प्रसन्न करें और ऐसा करके लौकिक और पारलौकिक उन्नति करें, यही वेद, शास्त्र और ऋषि दयानन्द सम्मत है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

सच्चे तीर्थ माता-पिता-आचार्य व आप्त विद्वानों के सदुपदेश आदि हैं।’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

आजकल कुछ स्थानों अथवा नदी व सरोवरों को तीर्थ कहा जाता है। किसी से कोई पूछे कि इन तीर्थ स्थानों से इतर देश के अन्य सभी स्थान सच्चे तीर्थ क्यों नहीं है, तो इसका उत्तर शायद कोई नहीं दे सकेगा। तीर्थ शब्द संस्कृत भाषा का है और इसका प्रयोग वेद व वैदिक साहित्य में मिलता है। समस्त वैदिक साहित्य का अध्ययन करने के बाद जो निष्कर्ष निकलता है, उसके अनुसार तीर्थ में क्या भाव निहित है, यह जानना आवश्यक है। तीर्थ शब्द का अर्थ है जिससे मनुष्य दुःखसागर से पार उतरता है, वह तीर्थ होता है। वेदों में सत्याभाषण, विद्या, सत्संग, पांच यम अहिंसासत्यअस्तेयब्रह्मचर्यअपरिग्रह आदि, योगाभ्यास, पुरुषार्थ तथा विद्यादानादि शुभ कर्मों को दुःखसागर से निवृत्ति कराने वाले बताया गया है। यही सब वस्तुतः तीर्थ हैं। इसके विपरीत दुःखसागर में डूबाने वाले अशुभ कर्म हैं जिनमें मुख्यतः असत्याभाषण, अविद्या, कुसंग, पांच यमों के विपरीत आचरण व व्यवहार करना, योगाभ्यास न करना, निठल्ला होना व तपस्वी न होना एवं विद्याहीनता आदि। विचार करने पर ज्ञात होता है कि आजकल के जल-स्थल आदि तीर्थ इन तीर्थ विपरीत गुण-कर्म-स्वभाव को चरितार्थ करते हैं। जलस्थलादि कोई भी स्थान तीर्थ नहीं है क्योंकि किसी स्थान या नदी, सरोवर जल के समीप जाने स्नानादि करने से मनुष्य के दुःख दारिद्रय दूर नहीं होते अर्थात् इन तीर्थों से कोई दुःखों से पार नही होता। इससे तो धन जीवन के सबसे मूल्यवान समय अर्थात् जीवनकाल का अपव्यय होने से हानि ही हानि दुःखों में वृद्धि होती है। इन बातों को केवल विवेकशील मनुष्य ही जान सकते हैं, अज्ञानी व अविद्याग्रस्त बन्धु नहीं जान सकते और इसी कारण से अज्ञानी लोगों को भ्रम में डालकर कुछ लोग अपना मनोरथ सिद्ध करते हैं जो कि कालान्तर में उनके लिए भी दुःखदायी ही होता है।

 

आजकल कुछ विशेष मन्दिरों और नदियों में स्नान आदि को तीर्थ की संज्ञा दी जाती है। यह विचार व भावना वेद और दर्शन, उपनिषद, शुद्ध मनुस्मृति आदि शास्त्रों के विचारों से विरूद्ध होने से असत्य, भ्रामक व अन्धविश्वास की श्रेणी में ही मानी जा सकती है। जिन वेद आदि शास्त्रों में ईश्वर, जीव, प्रकृति तथा जीवों के परमार्थ व सांसारिक सभी कर्तव्यों का युक्ति व तर्क संगत ज्ञान है, उनमें किसी स्थान व नदी में स्नान आदि को तीर्थ न बताना सकारण ही है क्योंकि कोई स्थान व नदियों का जल पूजा व स्नानादि के रूप में तीर्थ होता ही नहीं है। महर्षि दयानन्द धार्मिक जगत में सत्य के अन्वेषी थे, अतः उन्होंने अपने समय में उपलब्ध सभी धार्मिक ग्रन्थों को पढ़ा था तथा ग्रन्थों में निहित विचारों पर युक्ति व तर्क को सामने रखकर चिन्तन भी किया था। उन्होंने अपने गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती, जो कि वेदों सहित आर्ष ज्ञान के प्रमाणित विद्वान थे, उनसे सभी विषयों पर चर्चा कर सत्य को प्राप्त किया था। उनका उद्देश्य जनता को बहका फुसला कर उनका धन हड़पना व उन्हें अपना चेला व शिष्य बनाना नहीं था अपितु जनता को सत्य मार्ग दिखा कर स्वयं और सभी को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति कराना था। उनके समय में ही सहस्रों बुद्धिजीवी लोग उनके विचारों व मान्यताओं की महत्ता व सत्यता को जानकर उनके अनुयायी बने थे। उनसे वैदिक विद्वानों की एक लम्बी श्रृंखला चली है जिन्होंने उनकी वैदिक मान्यताओं को अनेक शास्त्रीय प्रमाणों, युक्तियों व तर्कों से सत्य सिद्ध किया है। स्वामी दयानन्द ने अपने समय में अन्य मत वालों से किसी भी धार्मिक विषय पर शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी थी। उन्होंने अनेकों से  शास्त्रार्थ किए भी तथा सभी शास्त्राथों में उनकी ही विजय हुई। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उनकी सभी मान्यतायें सत्य पर आधारित व अकाट्य थी। उनमें अज्ञान नहीं था और न ही उनका अपना कोई निजी हित व स्वार्थ था जिसके लिए वह यह सब कार्य कर रहे थे। उनका उद्देश्य तो मात्र ईश्वर का आज्ञा का पालन करना वा कराना था जो वेदों में विहित है और जिसका आचरण करना ही सभी मनुष्यों का परम कर्तव्य व परम धर्म है।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल में समूचे देश का भ्रमण किया था और तीर्थ स्थानों आदि में जो कुछ धर्माचरण के विरूद्ध होता है, उसे व उसकी सच्चाई को सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से सबके सामने प्रस्तुत किया है जिसको जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन करना आवश्यक है। सत्यार्थ प्रकाश के एकादश समुल्लास में स्वामी जी ने प्रश्न उठाते हुए कहा है कि क्या कोई तीर्थ सत्य है वा नहीं? इसका उत्तर हां में देकर वह लिखते हैं कि वेदादि सत्य शास्त्रों का पढ़ना-पढा़ना, धार्मिक विद्वानों का संग, परोपकार, धर्मानुष्ठान, योगाभ्यास, निर्वैर, निष्कपट, सत्यभाषण, सत्य का मानना, सत्य करना, ब्रह्मचर्य पालन, आचार्य-अतिथि-माता-पिता की सेवा, परमेश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना, शान्ति से युक्त जीवन, जितेन्द्रियता, सुशीलता, धर्मयुक्तपुरुषार्थ, ज्ञान-विज्ञान आदि शुभ गुण व कर्म दुःखों से तारने वाले होने से तीर्थ हैं। और जो जल स्थलमय स्थान हैं, वे तीर्थ कभी नहीं हो सकते क्योंकि जना यैस्तरन्ति तानि तीर्थानि अर्थात् मनुष्य जिन कर्मों को करके दुःखों से तरे उन का नाम तीर्थ है। जल स्थल तराने वाले नहीं किन्तु डुबाकर मारने वाले हैं। प्रत्युत नौका आदि का नाम तीर्थ हो सकता है क्योंकि उन से भी समुद्र आदि को तरते हैं। वैदिक साहित्य के प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ अष्टाध्यायी के 4/4/107 सूत्र में कहा गया है कि समानतीर्थे वासी अर्थात् जो ब्रह्मचारीगण एक आचार्य से एक शास्त्र को साथ-साथ पढ़ते हों वे सब ब्रह्मचारीगण सतीर्थ्य अर्थात् समानतीर्थसेवी होते हैं। इसी प्रकार यजुर्वेद अध्याय 16 में मन्त्र सूक्ति नमस्तीथ्र्याय में कहा गया है कि जो वेदादि शास्त्र और सत्यभाषाणादि धर्म लक्षणों में साधु हो उस को अन्नादि पदार्थ देना और उन से विद्या लेनी इत्यादि तीर्थ कहाते हैं। इस प्रकार वेदादि शास्त्रानुमोदित तीर्थ का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। मूर्तिपूजा, मन्दिर, जल व नदी युक्त स्थानों में स्नानादि से मनुष्य दुःखों से नहीं तरते, इस कारण इनका सच्चा तीर्थ न होकर मिथ्या होना सिद्ध होता है।

 

देश व समाज में हम देखते हैं कि तीर्थाटन करने से किसी का अज्ञान व दुःख दूर नहं होते। उत्तराखण्ड के केदारनाथ आदि तीर्थ स्थानों की विगत त्रासदी में यह देखा गया है कि इन स्थानों पर आकर तीर्थ यात्रियों को दुःख से तरने के स्थान पर मृत्यु आदि दुःख मिले हैं। अतः इनसे दुःख तारने की अपेक्षा पूरी नहीं होती। देहरादून आर्यसमाज में त्रासदी के बाद आर्य संन्यासी स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक से पूछे एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा था कि ईश्वर सर्वव्यापक है। इसलिए उसके दर्शन व प्राप्ति के लिये किसी को कहीं जाने की कोई आवश्यकता नहीं है, वह तो साधना करने से अपनी आत्मा में सर्वत्र हो सकते हैं। अतः वैदिक ज्ञान विज्ञान के संवाहक विद्वानों से रहित किसी स्थान विशेष की संज्ञा तीर्थ कदापि नहीं हो सकती और न ही ऐसी यात्रा तीर्थ यात्रा हो सकती है। तीर्थ माता-पिता-आचार्य-वैदिक शास्त्रों में निहित है और इनसे ज्ञानार्जन करना ही तीर्थ होता है। जिस प्रकार से कभी किसी को कोई रोगादि हो जाता है तो वैद्यों व चिकित्सकों के उपचार से वह स्वस्थ होता है अन्यथा नहीं। धनोपार्जन के लिए कृषि, व्यापार, सेवा आदि कार्य करने होते हैं, किसी मूर्ति आदि की पूजा व जलस्थलादि की यात्रा व पूजा आदि करने से दुःखों पर विजय प्राप्त नहीं होती, अतः वर्तमान के तीर्थ तीर्थ न होकर सत्य व यथार्थ तीर्थ की विकृतियां है जिससे मनुष्यों की भारी हानि हो रही है। यदि तीर्थों में किया जाने वाला पुरुषार्थ सत्य व ज्ञान पूर्वक स्वजीवन व सामाजिक के हित की भावना से हो, तो वह लाभकारी होता है। अतः वैदिक तीर्थों को जानकर उनका सेवन कर वर्तमान जीवन व परलोक के जीवन को सुधारना अर्थात् इनमें होने वाले दुःखों से पार होने के वैदिक उपायों को करना चाहिये। यही हमारे व्यक्तिगत व देश के हित में है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

रक्षाबंधन – स्वाध्याय द्वारा जीव और प्रकृति का रक्षण।

रक्षा बंधन, ये शब्द सुनते ही भाई और बहन का वो पवित्र रिश्ता आँखों के दिखना शुरू हो जाता है जो एक धागे से बंधा होता है।

इस दिन श्रावण मास की पूर्णमासी को ये धागा एक बहिन द्वारा अपने भाई की कलाई में बाँध कर भाई से अपनी रक्षा का वचन लेना बहन का कर्तव्य और भाई का अपनी बहन की रक्षा करने का वचन देना करने से ही पूर्ण हो जाता है ऐसा समझा जाता है, और इस कार्य की इतिश्री करके धागा बंधने से पूर्ण कर दिया जाता है। मगर क्या यही सनातन संस्कृति है ?

ऐसे अनेको प्रमाण मिलते हैं की इस प्रकार का रक्षा बंधन सनातन संस्कृति नहीं है बल्कि ये एक ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित कार्य है। इसके पीछे जो ऐतिहासिक तथ्य है उनमे पौराणिक बंधू इन्हे प्रमुखता देते हैं :

1. द्रौपदी का कृष्ण की आकस्मिक अंगुली कटने पर साडी व दुपट्टा का टुकड़ा बाँध देना।

2. कुंती का अपने पौत्र अभिमन्यु को महाभारत युद्ध में कलाई पर रक्षा कवच बाँध देना।

3. पौराणिक दानी दैत्य राजा बलि का रक्षा बंधन से रक्षा होना।

इन प्रमुख कारणों पर यदि ध्यान से देखा जाए तो भी ये रक्षा बंधन यानी बहन का भाई की कलाई पर राखी बांधना और रक्षा का वचन लेना सनातन संस्कृति सिद्ध नहीं होती। क्योंकि ये सभी ऐतिहासिक तथ्य हैं और ऐतिहासिक तथ्य कभी सनातन नहीं हो सकते हैं।

आखिर क्या कारण है की एक दिन के लिए ही भाई अपनी बहन की रक्षा का वचन देता है ? क्या पुरे साल उसे याद दिलाते रहने के लिए ?

मुझे तो नहीं लगता, लेकिन यदि कुछ सालो पीछे जाये तो याद आएगा की हमारे देश में मुगलो का राज था जिसमे महिलाओ की अस्मत और आबरू खतरे में थी, मुझे ऐसा लगता है की ये त्यौहार भाई बहन के लिए उस समय ज्यादा प्रचलन में आया ताकि सामाजिक तौर पर प्रत्येक हिन्दू जाती की महिला को सुरक्षा का भाव मिले। केवल अपने भाई से ही नहीं वरन सभी पुरुषो से।

अब सवाल उठेगा की फिर ये श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षाबंधन क्यों मनाते हैं ? इसका जवाब हमें अपने भारतीय जनजीवन और भौगोलिक परिस्थियों अनुरूप मिलता है। देखिये हमारा देश कृषि प्रधान राष्ट्र है, और कृषि प्रधान राष्ट्र होने के नाते हमारे देश में कृषक समुदाय अधिक हैं या वो लोग जो कृषि से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। इसलिए यदि आप ध्यान देवे तो आप पाएंगे की हमारे देश में आषाढ से लेकर सावन तक फ़सल की बुआई सम्पन्न हो जाती है। ये क्रम आज भी वैसा ही है जैसे पूर्व काल में होता था मगर बदला है आज का साधु समाज क्योंकि वैदिक काल में ॠषि-मुनि अरण्य में वर्षा की अधिकता के कारण गांव के निकट आकर रहने लगते थे। जो गाँव वालो को वेद धर्म की शिक्षा देते थे। क्योंकि इस समय कृषक समाज अपनी खेती आदि कार्यो से फारिग हो जाता था इसलिए इस धार्मिक कृत्य में प्रमुखता से जुड़ता था जिससे देश और धर्म दोनों का ही कल्याण होता था। इसमें पारस्कर गृह सूत्र का प्रमाण है :

अथातोSध्यायोपाकर्म। औषधिनां प्रादुर्भावे श्रावण्यां पौर्णमासस्यम् “ (2/10/2-2)

इसके पीछे जो रहस्य है वो ऊपर बताने और समझाने का प्रयास किया है।

वर्षा ऋतु में वेद के पारायण का विशेष आयोजन इसलिए भी किया जाता था क्योंकि वर्षा के दौरान बीमारिया फ़ैलाने वाले जीवाणु अधिक उतपन्न होते हैं इसलिए इनके निवारण हेतु यज्ञ अधिकमात्रा में होते थे जिसमे विशेष सामग्रियाँ डाली जाती थी।

यही रक्षाबंधन था उस यज्ञ का और जीव का जिससे प्रकृति की रक्षा होती थी और इसी स्वाध्याय के आधार पर यज्ञ होते थे जिससे वर्षा ऋतु में उत्पन्न हुए अनेको विषाणुओं का जो गंभीर बीमारियां उत्पन्न करते थे उनसे यज्ञ द्वारा जीव और प्रकृति की रक्षा होती थी, स्वाध्याय करते हुए नित नए औषधि युक्त सामग्रियों का निर्माण करना और यज्ञ करते हुए प्रकृति, कृषि और जीव इनकी रक्षा करना यही बंधन को ऋषि समझते थे, ज्ञान देते थे।

आज भी अनेको गुरुकुलों में पूर्णिमा को गुरुकुलों में विद्यार्थियों का प्रवेश हुआ करता है। इस दिन को विशेष रुप से विद्यारंभ दिवस के रुप में मनाया जाता है। बटूकों का यज्ञोपवीत संस्कार भी किया जाता है। श्रावणी पूर्णिमा को पुराने यज्ञोपवीत को धारण करके नए यज्ञोपवीत को धारण करने की परम्परा भी रही है।

भले ही इस पवित्र परंपरा को आज लोग भूल गए क्योंकि वो वेदो से विमुख होकर अनार्ष ग्रंथो के अध्यन में रत हुए मगर ये भी सत्य है की पूरी तरह से सिद्धांतो को न बदल पाये, मुगल काल में महिलाओ की रक्षा हेतु रक्षाबंधन का वचन देकर अपनी बहनो माताओ की रक्षण करना, यज्ञोपवीत धारण करना आदि अनेको भ्रान्तिया भी चली मगर सत्य सनातन वैदिक मत यही है की हम वेद और विज्ञानं आधारित बातो को माने क्योंकि सत्य वही है।

केवल भाई बहन तक सीमित न रहकर, इस पवित्र त्यौहार को पुरे विश्व बंधुत्व की और ले जाए, अग्रसर हो इस पवित्र त्यौहार को वैदिक रीति से मनाने के लिए, क्योंकि ये केवल भाई बहन तक सीमित नहीं रखा जा सकता।

आइये लौटियो उसी सनातन संस्कृति की और, लौटिए उस विज्ञानं की और जो ऋषियों ने वेदो के द्रष्टा बनकर हमें दिया। आइये लौटियो वेदो की और।

नमस्ते।

अंधविश्वासों का खण्डन समाज की उन्नति के लिए परम आवश्यक’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

जिस प्रकार से मनुष्य शरीर में कुपथ्य के कारण समय-समय पर रोगादि हो जाया करते हैं, इसी प्रकार समाज में भी ज्ञान प्राप्ति की  समुचित व्यवस्था न होने के कारण सामाजिक रोग मुख्यतः अन्धविश्वास, अपसंस्कृति एवं किंकर्तव्यविमूढ़ता आदि हो जाया करते हैं। अज्ञान, असत्य व अन्धविश्वास का पर्याय है। जहां अज्ञान होगा वहां अन्धविश्वास वर्षा ऋतु में खेतों में खरपतवार की तरह उग ही जाया करते हैं। उदाहरण के लिये हम प्रकृति वा सृष्टि को देखते हैं तो हमारे मन में प्रश्न आता है कि यह सुव्यवस्थित संसार किसकी रचना है अर्थात् इसका रचयिता कौन है? अब इस प्रश्न के उत्तर के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। ज्ञानी भी ऐसा हो जो लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति को ही परम प्रमाण न मानकर वैदिक परम्परा में हमारे ऋषियों व मुनियों ने विचार, ध्यान व चिन्तन द्वारा जिस सत्य को प्राप्त किया, उस ज्ञान व अनुभव से परिचित हो व उसको समझने वा मानने वाला हो। आजकल के हमारे पढ़े लिखे लोग हमारे वेद एवं अन्य ज्योतिष, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि का अध्ययन तो करते नहीं, केवल विज्ञान, इतिहास व भूगोल आदि विषयों का अध्ययन कर इन प्रश्नों पर विचार करते हैं तो वह इस संसार की रचना में छिपी हुई सत्ता को जान नहीं पाते। वेदों ने कहा है कि ‘‘ईशावास्यमिदं सर्वम् यत्किंच जगत्यां जगत्,  ‘ दाधार पृथिवीन्द्यामुतेमां आदि मन्त्र सूक्तियों में संसार के रचयिता को सर्वव्यापक ईश्वर बताया गया है और उसे ही पृथिवी व द्युलोक का आधार, धारणकर्त्ता व रचयिता बताया गया है। ईश्वर का युक्ति व तर्क संगत वर्णन भी वेदों में विस्तार से प्राप्त होता है। जो बात तर्क से सिद्ध वा अकाट्य हो वह सत्य होती है। सत्य निर्धारण की मुख्य विधि व प्रक्रिया यही है कि किसी विषय के पक्ष व विपक्ष के विचारों की समीक्षा की जायें और जो बातें अकाट्य हों, उनको सत्य माना जाये। ईश्वर विषय पर विस्तार से अध्ययन व निर्णय हेतु वेदान्त दर्शन की रचना महर्षि बादरायण वा वेद व्यास जी ने सहस्रों वर्ष पूर्व वैदिक काल में की थी। इसमें कहा गया है कि जिससे इस संसार की उत्पत्ति हुई है, जिससे इसका पालन वा संचालन होता है तथा अन्त में जिससे इस संसार का प्रलय व विनाश होता है, उसे ईश्वर करते है। यह ईश्वर हमारी ही तरह से एक चेतन तत्व है। अन्तर इतना है कि हम एकदेशी व अल्प हैं तथा ईश्वर सर्वव्यापक और सर्वज्ञ है। सर्वव्यापकता और सर्वज्ञता उसका अनादि व नित्य गुण है। वह सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदि मूल वा आदि स्रोत है। वेदान्त दर्शन में इन लक्षणों व गुणों से युक्त ईश्वर को सिद्ध भी किया गया है। दर्शन का आधार समस्त वैदिक विचार व उनका चिन्तन है। सभी छः दर्शन चार वेदों के पोषक हैं। अतः यह सिद्ध होता है कि एक सर्वव्यापक और सर्वज्ञ सत्ता ईश्वर है जिससे, जिसके द्वारा व जिसके ज्ञान व सामर्थ्य से मूल प्रकृति नामी सत्ता जो सत्व, रज व तम गुणों वाली अनादि व नित्य है, से पूर्वोक्त ईश्वर ने इस सृष्टि को रचा वा बनाया है। यह कार्य ऐसा ही है जैसे कि हम किसी वस्तु के निर्माण का ज्ञान अर्जित कर निर्माण में उपयोगी सभी पदार्थों को एकत्र कर ज्ञान व शक्ति रूपी सामर्थ्य का प्रयोग कर पदार्थों को बनाते हैं। उद्योग में पदार्थों का निर्माण भी इसी सिद्धान्त पर होता है। यदि इच्छित वस्तु के निर्माण का ज्ञान न हो, निर्माण में आवश्यक पदार्थ उपलब्ध न हो तथा हमारे उद्योग में यन्त्र पदार्थ निर्माण के सर्वथा वा सब प्रकार से उसके अनुकूल व अनुरूप न हो तो नया इच्छित पदार्थ नहीं बन सकता है।

 

खण्डन का अर्थ किसी पदार्थ को तोड़ना है। सत्य तो सत्य है उसका खण्डन वा उसका तोड़ना सम्भव नहीं है। असत्य व अज्ञान ऐसा है कि जिससे मनुष्य को हानि होती है और वह उस अज्ञानाधारित कार्य से इच्छित लक्ष्य व उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर पाता। अतः हमें अपनी बुद्धि से मनन कर इच्छित विषय के सभी पहलुओं पर विचार कर, जो उद्देश्य को पूरा करने वाले पहलु हैं, उन्हें उपयोग में लाना होता है और जो अनुपयोगी होते हैं, उन्हें छोड़ना होता है वा अज्ञानियों को उन अज्ञानतापूर्ण कार्यों से छुड़वाने के लिए उनका खण्डन व सत्य पदार्थ, पक्ष व पहलुवों का मण्डन कर समझाना होता है। इस कसौटी वा तुला पर हम अपने जीवन के प्रत्येक कार्य व चिन्तन को देख व परख कर ग्रहण व त्याग कर सकते हैं। सबसे पहला कार्य तो यह करना है कि हम सब सभी सत्य विद्याओं का अध्ययन करें। आधुनिक ज्ञान सब अच्छा नहीं है और प्राचीन ज्ञान सब बुरा व अनुपयोगी नहीं है। हमें दोनों में सत्य ज्ञान व विद्याओं का ग्रहण व असत्य ज्ञान तथा विद्याओं का त्याग करना चाहिये। जहां तक इस संसार के निर्माता को समझना है तो हमें केवल वेद और वैदिक साहित्य की ही शरण लेनी चाहिये। महर्षि दयानन्द ने ईश्वर के सत्य स्वरूप के निर्धारण के लिए सत्यार्थ प्रकाश नाम का ग्रन्थ लिखा है जो सभी प्रकार की सत्य मान्यताओं से हमारा परिचय कराता है। इसके साथ ही उन्होंने अपनी इसी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में असत्य, मिथ्या, अज्ञान व तर्कहीन मान्यताओं का परिचय कराकर उनका वेद, युक्ति व तर्क आदि प्रमाणों से खण्डन किया है। यदि हम सत्य को जानना चाहते हैं तो हमें सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन करना ही होगा। सत्य का ज्ञान हो जाने व जीवन में उसका आचरण करने से हम उन्नति को अथवा जीवन में विकास जो कि उन्नति का ही पर्याय है, प्राप्त होते हैं और विपरीत स्थिति में अवनति व गिरावट को प्राप्त होते हैं। इसी कारण महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहने को कहा है। वह उपदेश करते हैं कि सत्य को मानना और मनवाना और असत्य को छोड़ना और छुड़वाना उन्हें व सभी मनुष्यों का अभीष्ट होना चाहिये। बहुत से लोग उनके खण्डन करने को बुरा मानते थे परन्तु यही कहा जा सकता है कि ऐसे लोग अज्ञानी व स्वार्थी ही हो सकते हैं। कोई भी ज्ञानी व्यक्ति असत्य के खण्डन व सत्य के मण्डन से नाराज व उद्विग्न कभी नहीं हो सकता। ज्ञानी व विवेकपूर्ण व्यक्ति वही हो सकता है जो असत्य के खण्डन का प्रशंसक व सत्य के मण्डन का भी प्रशंसक हो। विगत लगभग 140 से कुछ अधिक वर्षों में महर्षि दयानन्द द्वारा खण्डित व मण्डित मान्यताओं को किसी मत, सम्प्रदाय, धार्मिक संस्था का कोई भी धर्म गुरू व विद्वान युक्ति व प्रमाण पूर्वक खण्डन व प्रतिवाद नहीं कर सका। इससे सिद्ध हो गया है कि महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में जो कहा था वह सर्वथा व पूर्णतः सत्य था व आज भी है।

 

अब खण्डन की देशोन्नति में भूमिका पर विचार करते हैं। खण्डन करने से असत्य व अज्ञान का नाश होता है। देशोन्नति में असत्य व अज्ञान बाधक होते हैं, यह सर्वमान्य सिद्धान्त है। उदाहरण रूप में विचार कर सकते हैं कि यदि देश व समाज के सभी लोग असत्य भाषी अर्थात् झूठे और मिथ्याचारी हों तो क्या समाज व देश उन्नति कर सकते हैं? उसका एकमात्र उत्तर है कि नहीं कर सकते। सत्य सदा सर्वदा प्रशंसनीय और असत्य व अन्धविश्वास सर्वदा निन्दनीय होने से खण्डनीय हैं। देश में जितने अधिक मनुष्य सत्याचारी वा सदाचारी, चरित्रवान, देशभक्त, ईश्वरभक्त, जातिवाद, ऊंच-नीच, छोटे-बड़े की भावना से मुक्त होंगे वह समाज व देश उतना ही उन्नत होगा। यूरोप में उन्नति का कारण ही वहां अन्धविश्वासों की कमी व देशवासियों के आदर्श चरित्र हैं। वहां भ्रष्टाचार, असत्य व्यवहार, जन्मना जातिवाद, ऊंच-नीच, सामाजिक विषमता, मिथ्या ईश्वरोपासना, मिथ्या धार्मिक कर्मकाण्ड, व्रत व उपवास आदि न्यूनातिन्यून है जिससे वह प्रगति व उन्नति कर रहे हैं। हमारा सारा देश व विश्व के सभी देश अधिकांश रूप में यूरोप के वैज्ञानिकों के आभारी हैं जिनकी कृपा व वैज्ञानिक अनुसंधानों के कारण हमें अपने दैनिक जीवन में उपयोग की वस्तुएं यथा विद्युत व इससे संचालित यन्त्र, कार, सुविधादायक भवन व आवास, टेलीफोन, कम्प्यूटर, रेल व वायुयान, अच्छी सड़के, रोगोपचार व शल्य क्रिया का ज्ञान आदि उपलब्ध हैं। यह सब सत्य की खोज व इससे प्राप्त देनें हैं। दूसरी ओर हमारा देश आज भी अज्ञान, अन्धविश्वास, असत्य, मिथ्याचारों व सामाजिक विषमताओं के झंझावतों में उलझा हुआ है जो हमें पतन, अवनति व गुलामी की ओर ले जा रहे हैं। आज इसी कारण कुछ लोग तो बड़े बड़े धन कुबेर बन गये हैं और दूसरी ओर न लोगों को पेट भर भोजन है, न चिकित्सा व्यवस्था है, न अच्छा आवास न अन्य सुविधायें हैं। हमारे अधिकांश देशवासियों का नरक से भी बुरा जीवन है और हम गर्व करते हैं कि हमारा देश सृष्टि का धर्म, ज्ञान व विद्या का आदि स्रोत रहा है। यह पूर्ण सत्य होते हुए भी वर्तमान परिस्थितियों में हमें मिथ्या अभिमान से ग्रसित प्रदर्शित करता है। देश के मानव मानव में जमीन आसमान का अन्तर हमारी शासन प्रणाली की देन के साथ सबके लिए एक समान, निःशुल्क, वैदिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा के न होने के कारण है। इसका उत्तरदायित्व भी किसी न किसी रूप में शासन प्रणाली को ही है जिसमें अनेक सुधारों की आवश्यकता है। अतः असत्य का खण्डन कर ही समस्याओं का निदान किया जा सकता है। असत्य के खण्डन से ही देश सबल, उन्नत व विकसित होगा। इस देश को उन्नत व विकसित उसी दिन कहा जायेगा जिस दिन सभी देशवासी वैदिक शिक्षा से शिक्षित होकर परस्पर एक दूसरे को मित्र, बन्धु व सबको एक परिवार के सदस्य अर्थात् वसुधैव कुटुम्बकम की दृष्टि से देखेंगे और  मानेंगे।

हम समझते हैं कि यह सिद्ध सत्य सिद्धान्त है कि असत्य के खण्डन और सत्य के मण्डन से ही व्यक्ति, समाज व देश का विकास व सर्वांगीण उन्नति सम्भव है और इसके विपरीत स्थिति हमें अवनति की ओर ले जाती है।

मनमोहन कुमार आर्य

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