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राधे माँ : पाखण्ड की पाखण्ड के विरुद्ध लड़ाई: धर्मवीर

एक बार एक चोर चोरी करता पकड़ा गया। उसे राजा के कर्मचारियों द्वारा पकड़ लिया गया, राजा ने उसे दण्ड देकर जेल में भेज दिया। चोर ने विचार किया और एक उपाय सोचा, उसने राज्य के कर्मचारी से राजा तक सन्देश भिजवाया कि वह सोने की खेती करना जानता है, यदि राजा उचित समझें तो वह खेती करके दिखा भी सकता है। राजा के मन में उत्सुकता जगी और उसने चोर द्वारा सोने की खेती देखने का निश्चय किया। चोर ने सोने के बीज मंगवाये, हल मंगवाया, एक खेत तैयार किया गया, राजा राज्य के अधिकारी और नागरिक बड़ी संया में खेती देखने के लिये एकत्रित हो गये। चोर किसान के रूप में हल पकड़कर एक हाथ में सोने के बीज लेकर खड़ा हो गया और चिन्ता की मुद्रा बनाते हुए राजा से बोला- राजन मेरे सामने एक समस्या है, यदि आप इसमें मेरी सहायता करें तो यह सोने की खेती सफल हो सकती है। राजा ने कहा- बताओ, क्या समस्या है? चोर ने हाथ जोड़कर राजा से कहा- सोने की खेती तभी सफल हो सकती है, जब कोई पवित्र व्यक्ति के द्वारा सोने के बीज खेत में बोये जावें। मैं तो चोरी करने के कारण अपराधी और पाप का भागी बन गया हूँ, अतः आपके नगर में ऐसे व्यक्ति बहुत होंगे, जिन्होंने कभी चोरी न की हो, आप ऐसे व्यक्ति को बुलवा लें और उससे ये सोने के बीज खेत में बुवा दें। राजा ने घोषणा कर दी- नगर का कोई व्यक्ति आ जाये, जिसने जीवन में कभी चोरी न की हो, उसके द्वारा ये बीज बोये जायेंगे। सब ही एक-दूसरे की ओर देखने लगे, सबको अपने द्वारा की गई चोरी याद आने लगी। नगरवासियों में से जब कोई नहीं निकला तो चोर ने राजा से निवेदन किया- आपके कर्मचारियों में तो ऐसे लोग बहुत होंगे जिन्होंने चोरी नहीं की। राजा ने राज्य के कर्मचारियों को आदेश दिया- जिसने चोरी न की हो, वह आगे आये और बीज बोये। कोई आगे नहीं आया, तब चोर ने कहा- महाराज फिर आप ही अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो पवित्र हैं, जिन्होंने कभी चोरी नहीं की, आप स्वयं ही यह सोने के बीज खेत में बोने का काम करें। राजा सोच में पड़ गया और अपने पिछले जीवन पर विचार किया तो उसे स्मरण आया बचपन में माँ से छिपा कर लड्डू खाये थे, इस प्रकार राजा ने भी अपने जीवन में चोरी की, तब चोर ने कहा- महाराज! जब आपके राज्य में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं, जिसने चोरी नहीं की? फिर मुझ ही को दण्डित क्यों कर रहे हैं? यही स्थिति राधे माँ की है। राधे माँ तो पाखण्ड कर ही रही है परन्तु इस पाखण्ड का विरोध करने वाले स्वयं सारे ही पाखण्डी हैं। यथार्थ तो यह है कि कोई पाखण्ड का विरोध नहीं करना चाहता। जो व्यक्ति दूसरे के पाखण्ड से पीड़ित है, वह पहले व्यक्ति के पाखण्ड का विरोधी है। ऐसी स्थिति में कोई जीते और कोई हारे, पाखण्ड ही जीतता है और पाखण्ड ही हारता है। भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई सत्य, अहिंसा के प्रेमी थे, उनसे एक व्यक्ति ने एक प्रश्न किया- आप कहते हैं सच-झूठ की लड़ाई में सदा सत्य की विजय होती है परन्तु हमारे अनुभव में यह आता है, प्रायः सत्य और असत्य की लड़ाई में असत्य का पक्ष विजयी होता है। तब मोरार जी भाई ने कहा- यह सत्य नहीं है, विजय तो सदा सत्य की ही होती है। तब मोरार जी भाई ने उस व्यक्ति से पूछा- क्या सत्य की बात करने वाला थोड़ा भी असत्य की सहायता नहीं लेता, तब उस व्यक्ति ने कहा- क्या हुआ कहीं थोड़ी भूल हो गई हो। तब मोरार जी देसाई ने उस व्यक्ति से कहा- भाई! तब यह लड़ाई छोटे झूठ और बड़े झूठ की है, इस परिस्थिति में बड़े झूठ का जीतना निश्चित है। आज राधे माँ पर आरोप है- हत्या, दहेज प्रताड़ना, अश्लील आचरण, आर्थिक शोषण आदि सभी तथाकथित धार्मिक लोग यही करते हैं। उन्हें ऐसा करने के लिए धर्म और धार्मिक स्थानों की आड़ सबसे सरल उपाय है। ईसाई, मुसलमान, हिन्दू जितने भी धार्मिक संगठन है, ये सब धर्म का केवल अपने को बचाने के लिये आश्रय लेते हैं, धार्मिक होने में किसी की आस्था नहीं है परन्तु धार्मिक दीखने का प्रयत्न सभी करते हैं, इस व्यवस्था के लिये लोग धर्म को दोषी मानते हैं। उनके विचार से धर्म की आड़ न हो तो इन अपराधों से बचा जा सकता है। जो लोग आज ऐसा कहते हैं, जब पाखण्ड करने वाले लोगों की संया बड़ी हो जाती है, तब उनको आस्था की बात कह कर बचाने का प्रयास किया जाता है। आज धर्म के नाम पर हजारों सन्त, महन्त, महात्मा, गुरु, महाराज, भगवान, देवी बने घूम रहे हैं परन्तु उनका विरोध करने पर लोग, इसे धर्म का अनादर समझने लगते हैं, धार्मिक विद्वेष की संज्ञा देते हैं। इन धार्मिक सप्रदायों से सरकारायभीत होती है। चुनाव जीतने में पार्टियाँ उनसे हाथ जोड़कर विजयी बनाने का आशीर्वाद माँगती हैं। आसाराम जैसे लोग अपने भक्तों व पैसों के बल पर लबी लड़ाई धर्म के नाम पर ही लड़ते हैं। डेरा सच्चा सौदा जैसे मठों की ताकत सरकार को डराती है। सन्त रामपाल दास जैसे लोग कानून के शिकञ्जे में कभी-कभी ही फंसते हैं। इस सब के होने पर भी यह प्रक्रिया कभी रुकती नहीं, क्यों? संसार में समाज के सभी लोग कम अधिक पाखण्ड, अधार्मिक, अनैतिक होने पर भी ऐसे लोग धर्म बुरा है तो उसे छोड़ क्यों नहीं देते। इसके विपरीत वे अधर्म पाखण्ड को बुरा मानने वाले लोग धर्म को अपना क्यों नहीं लेते। दोहरा जीवन हमारी विवशता क्यों बन गया है। सामान्य रूप में धर्म के नाम पर अधर्म पाखण्ड होते देखकर मन में यह बात आना स्वाभाविक है, ऐसे धर्म नैतिकता, सच्चाई जैसी बातों का क्या लाभ है। पचास वर्ष पहले तक सायवादी लोग एक बात बहुत बार दोहराते थे, धर्म अफीम है, इसको व्यक्ति को अपने जीवन से निकाल देना चाहिए। समाज में धर्म का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। सायवादी देशों ने धार्मिक बातों, क्रियाकलापों को प्रतिबन्धित कर दिया था। उनका मानना था धर्म शोषण का आधार है, जो वस्तु शोषण का कारण हो उसे समाप्त कर देना चाहिए। उन्होंने ऐसा किया भी परन्तु वे धर्म को समाप्त तो नहीं कर सके। क्योंकि शोषण का आधार वही वस्तु बन सकती है जो उसके लिये आवश्यक है। किसी मनुष्य या प्राणी को जिस वस्तु की आवश्यकता नहीं वह वस्तु उससे छीनकर, या न देकर उसे कोई भी विवश नहीं कर सकता। भोजन, वस्त्र, औषध, आवास, धन मनुष्य की आवश्यकता है, इनका प्रलोभन देकर या इन्हें छीन कर उस व्यक्ति को विवश किया जा सकता है, उसे आधीन बनाया जा सकता है। इसी प्रकार यदि धर्म से किसी का शोषण हो रहा है तो यह भी स्वीकार करना होगा कि धर्म मनुष्य जीवन के लिये आवश्यक है। एक सामान्य मनुष्य की समस्या यह है कि यदि धर्म नैतिकता, ईमानदारी, निष्ठा की बात न करे तो उसे कोई सुनना नहीं चाहता। व्यवहार में बेइमानी, अधर्म, अनैतिकता न करे तो जीवन में संकट आने लगता है। इस ऊहापोह में उसका पूरा जीवन निकल जाता है, परन्तु वह किसी निर्णय तक नहीं पहुँच पाता। दोनों सत्य उसके समुख हैं, वह दोनों से अपने को पृथक् नहीं कर सकता। इसका उत्तर है परन्तु उस उत्तर तक पहुँचने से पहले ही समाप्त हो जाता है। संसार धर्म-अधर्म, अच्छे-बुरे, पाप-पुण्य, सत्य-असत्य इसका मिश्रण है। ये दोनों शद सापेक्ष है, यदि धर्म नहीं तो अधर्म क्या और अधर्म की सत्ता न हो तो धर्म क्या? झूठ न हो तो सच किसे कहा जाय और सच न हो झूठ का अर्थ क्या? संसार में दोनों बातें थीं, हैं और सदा ही रहेगी। ऋषि दयानन्द लिखते हैं धर्म-अधर्म का सर्वथा अभाव कभी नहीं होता। इनकी वृद्धि और ह्रास होता रहता है। धर्म की मात्रा बढ़ने से समाज में सुख बढ़ता है। अधर्म की वृद्धि से समाज में दुःख की मात्रा बढ़ती है। सामान्य जन के लिए यह समझना कठिन है कि अधर्म से, अनैतिकता से, पाखण्ड से असत्य से दुःख बढ़ता है। इसके विपरीत समाज में तो हर व्यक्ति अनुभव करता है अधर्म, पाखण्ड, झूठ से मनुष्य सपन्न, सुखी, समानित हो रहा है, धार्मिक व्यक्ति दुःखी, पीड़ित, शोषित किया जा रहा है। यह कथन इस कारण सत्य नहीं है, यदि ये बात सच होती तो हर बेइमान आदमी सुखी और सन्तुष्ट होता। इतना ही नहीं वह समाज में सबके द्वारा समानित भी किया जाता परन्तु ऐसा नहीं है। संसार के नियम, विधान अधर्म, अन्याय, पाखण्ड, झूठ को समाप्त करने के लिये बने हैं। किसी को भी सत्य बोलने के लिये दण्डित नहीं किया जाता, कोई व्यक्ति सत्य बोलता है, यह कहकर जेल में नहीं डाला जाता। सच्चे व्यक्ति को झूठे आरोपों में फंसाकर दण्डित किया जाता है या जेल भेजा जाता है। समाज में धर्म व सत्य का ही समान किया जाता है। व्यक्तिगत स्तर पर भी हम देखें तो पाते हैं कि हमें कोई झूठा, बेईमान, पाखण्डी कहे, यह किसी को भी स्वीकार नहीं होगा। यदि झूठ बोलना लाभदायक है तो झूठा कहलाना हानि कारक कैसे हो सकता है। कोई व्यक्ति दुराचरण में लिप्त पाया जाता है परन्तु उसे कोई दुराचारी कहे, यह उसे सह्य नहीं हो सकता। ये दोनों परस्पर विरोधी बातें प्रत्येक मनुष्य के भीतर ही हैं। इन्हीं से प्रेरित होकर वह कभी अधर्म की ओर प्रेरित होता है और कभी धर्म की ओर। एक ही व्यक्ति ऐसा व्यवहार क्यों करता है, इसको समझना बहुत कठिन नहीं है। इसका उत्तर इस बात से मिल जाता है, आप किस कार्य को कर के क्या प्राप्त करते हैं। अधर्म, असत्य, पाखण्ड, झूठ से हम क्या प्राप्त करना चाहते हैं। पहली वस्तु है, इन कार्यों को करके मनुष्य धन सपन्नता वैभव पाने की इच्छा रखता है, ऐसा करके वह सांसारिक वस्तुओं को पा जाता है। इस परिणाम के बाद उसे इसी मार्ग पर चलते हुए सन्तुष्ट रहना चाहिए, परन्तु इन सब बातों के साथ-साथ सच्चाई, ईमानदारी, धार्मिकता को अपने पास देखना चाहता है। इसका इतना ही अभिप्राय है मनुष्य अधार्मिक या अनैतिक होकर सन्तुष्ट नहीं हो सकता। दूसरा पक्ष है धार्मिकता से क्या मिलता है, इससे सन्तुष्टि, शान्ति, सुख का अनुभव मिलता है। मनुष्य की समस्या है शान्ति-सन्तुष्टि से भोजन, वस्त्र, आवास, औषधी, शिक्षा और दुनिया का जीवन उपयोगी सामान नहीं मिलता। भले ही संसार के अधिकांश लोगों का विचार ऐसा ही हो परन्तु यह विचार सत्य नहीं है। यह बात समझना भी कठिन नहीं है, मनुष्य झूठ बोलकर पाखण्ड करके जो पाता है, वह जीवन के लिये आवश्यक है। संसार में आवश्यकता का आधार शरीर है। संसार की सारी आवश्यकतायें शरीर से जुड़ी है। ईश्वर ने संसार में इतने पर्याप्त साधन साधन दिये हैं कि प्रत्येक मनुष्य नहीं प्रत्येक प्राणी की आवश्यकता पूर्ण हो सकती है। मनुष्य तीन स्तरों पर जीता है- प्रथम शरीर के स्तर पर, दूसरा मन के स्तर पर, तीसरा आत्मा के स्तर पर। आवश्यकता शरीर की होती है, इच्छा मन की होती है, तीसरा स्तर आत्मा है, जहाँ सुख, शान्ति, सन्तुष्टि का स्थान है। अब हम जो कर रहे हैं वह हम किसके लिये कर रहे हैं। शरीर की आवश्यकतायें बहुत सीमित है, इसके लिये हम जीवन भर का गणित करके भोजन, वस्त्र, आवाास का संग्रह करें तो जो आज हमारे पास है, उससे भी कम की आवश्यकता है। दूसरा हमारा साधन है मन वह हमारा है, हमें उसकी भी चिन्ता करनी चाहिए, उसकी आवश्यकता को हम इच्छा कहते हैं। वैसे भगवान ने मन को ऐसा बनाया है कि शरीर की भांति इसे भोजन, पानी, वस्त्र, आवास की आवश्यकता नहीं होती। शरीर के साधनों से उसका पोषण हो जाता है परन्तु उसकी इच्छा की पूर्ति के लिये शरीर को दण्ड भोगना पड़ता है। आपका पेट तो दो रसगुल्ले से भर जाता है परन्तु मन आपको छह खिला देता है, इसका दण्ड शरीर को भोगना पड़ता है। शरीर की आवश्यकतायें तो बहुत थोड़े साधनों से पूर्ण की जा सकती है परन्तु संसार के सारे साधन भी एक मन की इच्छा को पूरा नहीं कर पाते। थोड़ी सी ईमानदारी आत्मा को बहुत सारा सुख दे जाती है परन्तु जीवन भर की बेईमानी मनुष्य को कभी तृप्ति देने में समर्थ नहीं होती। संसार में मनुष्य अधर्म करने से तभी रुक सकता है या तो संसार की सारी सपत्ति उसे मिल जाय या मन तृप्त हो जाये, ये दोनों बातें अधर्म से सभव नहीं है, इसलिए मनुष्य कभी अधर्म करने से रुक नहीं पाता। विचारशील व्यक्ति के मन में यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है, शरीर की आवश्यकता थोड़ी क्यों मन की इच्छा अधिक क्यों। इसका उत्तर है, दोनों मनुष्य की आत्मा के साधन है। शरीर से इस जीवन की यात्रा होती है, मन से ससांर से मुक्ति की यात्रा करनी है। जैसे एक तोप गाड़ी में गाड़ी की आवश्यकता कम है तोप की अधिक किन्तु तोप का मुख अपनी सेना पर तो नहीं किया जा सकता है। हमने यही कर रखा, अपने मन को मुक्ति की ओर न करके संसार की ओर कर लिया है। तोप चलेगी तो गड्ढा होगा, फसेंगे हम ही, वही तो हो रहा है। मन आत्मा के साथ न होकर शरीर के साथ होता है, दुर्बल होता है, आत्मा के साथ होता है तो बलवान होता है। इस दुर्बलता में यह सदा भय और लोभ से ग्रस्त रहता है, परिणामस्वरूप अधर्म, अन्याय, अत्याचार, पाप में लिप्त रहता है। धर्म, न्याय, सत्य, आत्मा की आवश्यकता है, शरीर के कारण अधर्म को नहीं छोड़ पाता, आत्मा के कारण सत्य से भाग नहीं सकता। सारभूत बात तो इतनी है स्वामी तो आत्मा है। आत्मा का आदेश तो अन्तिम है। हम संसार में कितना भी झूठ क्यों न बोले कहना पड़ेगा कि यह सत्य है। न्यायालय में व्यक्ति साक्षी देता है, कितनी भी झूठी साक्षी दे परन्तु शपथ तो सत्य बोलने की ही खानी पड़ेगी। कोई कितना भी पाखण्ड, अधर्म, अन्याय, अत्याचार क्यों न करे, उसे न्याय और धर्म का ही नाम देना होगा। मनुष्य को विचार करने की बात पाखण्ड, झूठ, अधर्म, सब कुछ धर्म के नाम पर चढ़कर चल रहा है। यदि वह वास्तव में धर्म और सत्य हो तो उसमें कितना बल होगा। जब तक मनुष्य अपने मन को आत्मा से नहीं जोड़ेगा तब तक वह भय और प्रलोभन से मुक्त नहीं हो सकता। मनुष्य झूठ बोलकर पाखण्ड करके अपने को बुद्धिमान समझता है परन्तु वास्तविकता तो यह है जो जितना दुर्बल होता है, वह उतना ही अधिक झूठा और बेईमान होता है। व्यक्ति असत्य का सहारा तभी लेता है जब वह दुर्बल होता है। मनुष्य का भय सत्य से, ज्ञान से दूर होता है, ज्ञान में जितना-जितना सत्य ज्ञान आता जायेगा, मनुष्य निर्भय होता जायेगा। तभी मनुष्य पूर्ण धर्मात्मा और पाखण्ड रहित बन सकेगा। शरीर के स्तर पर जीने वाला दास होता है, मन के स्तर पर जीने वाला पाखण्डी होता है और आत्मा के स्तर पर जीने वाला धार्मिक होता है। मन के स्तर पर जीने वाले धर्म का उपयोग करते हैं परन्तु साधनों में, संसार में जीते हैं। वे धर्म-अधर्म जानते हुए भी दुर्योधन की तरह अधर्म करने के लिये विवश हैं, दुर्योधन कहता है- धर्म क्या है? जानता हूँ, करने की इच्छा नहीं होती, अधर्म को भी पहचानता हूँ, दूर होने का मन नहीं करता, वह हम सबका भी यही हाल है, हम भी कह उठते हैं-

जानामि धर्मं न च मे प्रवृतिः जानायधर्मं न च मे निवृत्तिः।

केनापि देवेन हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।।

– धर्मवीर