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हम इस शरीर को असमय नष्ट न होने दें

हम इस शरीर को असमय नष्ट न होने दें
डा. अशोक आर्य
परमपिता परमात्मा ने हमें यह जीवन , यह शरीर कर्म करने के लिए दिया है । इसलिए हम प्रतिदिन वेद आदि उत्तम ग्रन्थों का स्वाध्याय करें तथा जितेन्द्रिय बन विषयों से उपर उठते हुए प्रभु के दिए इस शरीर की रक्षा करें । इसे समय से पूर्व नष्ट न होने दें । इस भावना को ही स्पष्ट करते हुए यह मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहा है : –
म आ नो मती अभि द्रुहन तनूनामिन्द्र गिर्वाण: ।
ईशानो यवया वधम ॥ रिग्वेद १.५.१० ॥
मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हे जितेन्द्रिय मानव ! जिस मनुष्य ने अपनी वासनाओं पर अधिकार स्थापित कर लिया हो , अपनी वासनाओं को पराजित कर दिया हो तथा जिस व्यक्ति ने अपने अन्दर के शत्रुओं को यथा काम , क्रोध, मद , लोभ , अहंकार आदि पर विजय पा ली हो , उसे जितेन्द्रिय कहा जाता है । मन्त्र एसे ही व्यक्ति को सम्बोधन करते हुए उसे कह रहा है कि विगत मन्त्र के अनुसार तूंने सात्विक अन्नों का प्रयोग किया है । इन सात्विक अन्नों के सेवन से तूं सोम का रक्षण करने वाला बन गया है तथा सोम के रक्षण से तूने विषयों को पीछे छोड दिया है तथा कहा भी है कि जो लोग विषयों के पीछे पड़े होते हैं, वासनाओं में दुबे रहते हैं , वासनाओं में डूबे होने के कारण जिन्हें अपनी ही सुध नहीं होती । एसे लोग सदा बिना पुरुषार्थ के सब कुछ पाना चाहते हैं | इस के लिए दूसरों का बुरा ही चाहते हैं , दूसरों के धन पर अधिकार जमाने का यत्न तथा दूसरों की सम्पति पर सदा बुरी नजर रखते हैं ।
विषय वासनाओं के यह गुलाम कभी किसी के हित के लिए तो कार्य कर ही नहिंसकते अपितु दूसरों को मारने में भी आनन्द का ही अनुभव करते है क्योंकि दूसरे को मार कर ही वह उसके धन पा सकते हैं । मन्त्र कहता है कि हम न तो ताम्सिक अन्न का ही सेवन करें तथा न ही एसे अन्न का सेवन करने वालों के हाथों हम अपने नाश को प्राप्त करें कितु तामसिक लोग यह सब नहीं साझ सकते वह तो धन कि लालसा में मरते फ़िरते हैं | अपनी इस कुवृति को , अपनी इस लालसा को कभी छोडते नहीं | मन्त्र हमें यह ही तो उपदेश कर रहा है कि हम दुष्ट वृतियों वाले न बनेंताथा सदैव दुष्ट वृतियों को छोड़ें | उतम अन्न का सेवन करें तथा उतम सोम को सदा अपने शरीर में धारण करें | इस के साथ ही यह भी कहा है कि जो लोग दुष्ट वृतियों वाले होते हैं , वह हमारे इस शरीर का हनन करने की इच्छा कभी न करें ।
इस से एक तथ्य सामने आता है , वह है कि सात्विक आन्न का जो लोग सेवन न कर सदा ताम्सिक अन्न का ही सेवन करते हैं , वह न केवल अपने शरीर में अनेक दोषों को ही स्थान दे देते हैं , अनेक व्याधियों को अपने अन्दर स्थान देते हैं बल्कि एसे दुर्गुण भी भर लेते हैं , जो विनाश कारी होते हैं । इन दुर्गुणों के कारण संसार में उनकी सदा अपकीर्ति होती है | एक मनुष्य तो अपनी कीर्ति पाने के लिए दान , धर्म , पुन्य के कार्य करता है किन्तु यह तामसिक वृति के लोग , यह वासनाओं के गुलाम अपयश में ही अपनी इर्ति समझते हैं , अपना यश समझते हैं |
जो लोग अपकीर्ति के कार्यों को करने में ही अपना यश समझते हैं | इस प्रकार से बुराई के माध्यम से जो उनका नाम दूर तक जाता है | इस में ही अपना यश समझते हाँ , वह नहीं जानते कि वह इस प्रकार कि बुराइयों के कारण निरंतर मृत्यु को आमंत्रित कर रहे हैं | वह निरंतर मन्त्र कि भावना से दूर जा रहे हैं | भाव यह है कि मन्त्र तो हमें उपदेश कर रहा है कि हम यश व कीर्ति को पाने के लिए उतम कर्म करें ताकि हमारा शरीर असमय नष्ट न हो | समय से पूर्व मृत्यु आदि को न प्राप्त हों किन्तु हमारे यह बुरे कर्म हमें निरंतर नष्ट होने की और ले जा रहे हैं | हम निरंतर अपने आप को नष्ट करने कि और जा रहे हैं |
मन्त्र इस सम्बंध में ही उपदेश कर रहा है कि मनुष्य सदा अपनी कीर्ति को बढ़ता हुआ देखे , यश को चारों दिशाओं में फैलता हुआ देखे | इस के लिए वह सदा उतम कार्य करे, पुरुषार्थी बने तथा जितेन्द्रियता पाने के लिए उतम अन्नों का सेवन करने के साथ ही साथ जितेन्द्रिय बनने का प्रयास निरंतर करता रहे | इस से ही वह उतम यश व कीर्ति का अधिकारी बनेगा | इस लिए हम मन्त्र की शिक्षाओं के अनुरूप अपने जीवन को चालते हुए अपने शरीर को समय से पूर्व नष्ट न होने दें |

डा. अशोक आर्य

सोमकण हमें कर्मशील व शान्त रखते हैं

ओउम
सोमकण हमें कर्मशील व शान्त रखते हैं
डा. अशोक आर्य
जब हम अपने शरीर में सोमकणों को संभाल लेते हैं तो हमारा शरीर अत्यधिक क्रियाशील हो उत्तम कर्म करता है । हमारा मन सदा शान्त रहता है । शान्त मन वाले होने से हम प्रकृष्ट चेतना वाले बनते हैं । इस बात की ओर ही यह मन्त्र संकेत करते हुए कह रहा है कि : –
आ त्वा विशन्त्वाशव: सोमास इन्द्र गिर्वण: ।
शं ते सन्तु प्रचेतसे ॥ रिग्वेद १.५.७ ॥
इस मन्त्र में चार बातों पर प्रकाश डालते हुए मन्त्र उपदेश कर रहा है कि
१. सोमकण शरीर में सत्ता स्थापित करें
हे इन्द्रिय विजेता जितेन्द्रिय पुरुष ! , हे आसुरी प्रवृतियों का संहार , नाश करने वाले जीव ! यहां पर जितेन्द्रिय तथा आसुरी प्रवृतियों को नष्ट करने वाला शब्द का सम्बोधन करते हुए जीव को पुकारा गया है । जितेन्द्रीय कौन होता है ?, जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया हो अर्थात जो व्यक्ति सोमकणों की रक्षा कर इन्द्रिय संयम में सक्षम हो गया हो , वह व्यक्ति ही जितेन्द्रीय कहलाता है ।
दूसरी बात जो कही गयी है , वह है आसुरी प्रवृतियों के संहार करने वाले पुरु्ष । अब प्रश्न उठता है कि आसुरी प्रवृतियों का संहारक कौन है ?, यहां भी उपर वाली बात ही आती है । मानव शरिर में काम , क्रोध आदि अनेक प्रकार की आसुरी प्रवृतियां होती हैं , जो सदा उस मानव का नाश करने का यत्न करती रहती हैं किन्तु इन प्रवृतियों को वह व्यक्ति नष्ट कर देता है , जिसने सोम को अपने शरीर में व्याप्त कर इसे पवित्र बनाकर कर्मशील बन गया हो । यहां भी सोम की ही उपयोगित का वर्णन है । अत: मानव जीवन में सोमकणॊं के महत्व को ही प्रतिष्ठित किया गया है ।
अत: मन्त्र कह रहा है कि हे पुरूष तुझे जितेन्द्रिय बनाने के लिए तथा तुम्हें आसुरी प्रवृतियों से बचाने के लिए यह सोमकण तुझ में सदा तथा सामान्य रूप से प्रवेश करें । यह सोमकण तेरे शरीर में केवल प्रवेश ही न करें बल्कि तेरे शरीर में सब ओर फ़ैलकर अपनी शक्ति की सत्ता स्थापित करें ताकि :
२. सोम रक्षक कभी आलसी नहीं बनाता
इन सोम कणों के कारण तूं सदा कर्मशील बन कोई न कोई कर्म अथवा कार्य करता रहे । कभी निठल्ला न रहे । जब यह सोम तेरे शरीर में रक्षित हो जाता है तो तुझे कभी अकर्मण्यता आ कर नहीं घेर सकती । तेरा मन सदा किसी न किसी कर्म में लगना ,किसी कार्य मे लगे रहना ही पसन्द करता है ,कभी खाली व निठला नहीं रहना चाहता । यह सोम कण ही तुझे कर्मशील बनाते हैं । इससे यह तथ्य सामने आता है कि जो व्यक्ति सोम को अपने शरीर मे धारण करने से सोमी बन जाता है वह सदा कर्म में लगा रहता है , इस प्रकार वह कभी आलसी तो हो ही नहीं सकता ।
३. सोम ज्ञान को दीप्त कर शान्ति का कारण
सोमरक्षण का उद्देश्य ज्ञान को एकत्र करना होता है क्योंकि इस की रक्षा से बुद्धि तीव्र हो कर ज्ञान का संग्रह करने में , स्वाध्याय में जुट जाती है । इस प्रकार यह सोम ज्ञान का भण्डार एकत्र करने वाला भी होता है । इस लिए यहां कहा है कि ज्ञान की वाणियों का सेवन करने वाले जीव अथवा पुरुष ! यह जो सोमकण तूंने अपने शरीर में एकत्र किये हैं , रक्षित किये हैं , यह तुझे शान्ति देने वाले हों क्योंकि सोम ही मानवीय शक्तियों का कारण होते हैं तथा शक्ति सम्पन्न व्यक्ति कभी भयभीत नहीं होता ।
जिसमें भय नहीं है , वह ही शान्त रह सकता है । इससे स्पष्ट होता है कि सोम की रक्षा का उद्देश्य बुद्धि को सम्पन्न कर मानव को शान्त बनाना ही है । स्पष्ट है कि सोम से युक्त प्राणी का शरीर सदा निरोग रहता है , उसका मन सब बुराईयों के धुल जाने के कारण निर्मल हो जाता है तथा मस्तिष्क में ज्ञान का दीप जलने लगता है जिससे उसका ज्ञान भी दीप्त हो जाता है । इससे ही यह शान्ति प्राप्त करने वाले बनेंगे ही ।
४. सोमकणों से विचारवान मानव निर्माण
यह सोमकण तेरे अन्दर चेतना पैदा करने वाले हों । मानव शरीर की चेतना का कारण सोम ही तो होते हैं , जो ज्ञान को दीप्त कर उसे चेतन बनाते हैं । अत: मन्त्र कहता है कि यह सोम तेरे लिए भरपूर चेतना देने वाले हों , चेतना को प्रकाशित करने वाले हों । इस सोम की रक्षा से तूं सदा आत्म स्मरण , आत्म चिन्तन करने वाला हो । सदा अपने विषय में विचार करने वाला , चिन्तन करने वाला बन कर इस तथ्य को समझने का यत्न करता रह कि तूं कौन है ? तूं कहां से आया है तथा तूं क्यों आया है ? सदा इन बातों पर विचार करता रह । कभी इन बातों को भूल न जाए क्योंकि इस चेतना को भूलने से ही तो हमारे जीवन का क्रम ऊट – पटांग सा हो जाता है , अस्त व्यस्त सा हो जाता है , जीवन उलझ सा जाता है । इस प्रकार के बिगडे हुए क्रम के जीवन वाले होने से हमारे जीवन में प्रभु का स्थान धन ले लेता है । अब हम प्रभु चिन्तन के स्थान पर धन का चिन्तन करने लगते हैं । अब हमारा धन ही सब कुछ बन जाता है । हम धन संग्रह को ही अपना एक मात्र उद्देश्य बना लेते हैं । हम जीवन मूल्यों को ऊंचा उठाने वाले धन को भूल कर भौतिक धन के पीछे भागने लगते हैं ।
जहां हम इस अवसर पर भौतिक भोगों को ही धन समझने लगते हैं वहां हम योग के स्थान पर भोग प्रधान बन जाते हैं । जब हम ने सोम की रक्षा करने के लिए योग का साधन अपनाना होता है ,वहां हम भोग के द्वारा संकलित किए , एकत्र किये सोम का नाश करने लगते हैं क्योंकि योग तो सोम को जोडने का काम करता है तथा भोग से सोम का क्रम टूट कर एकत्रण के स्थान पर टूटन पैदा करता है । सोम के संग्रह के कारण मानव का जो मन प्रेम वाला होने के कारण सब जगत के प्राणियों को अपनी ओर खैंचता था , वह मन अब भोग के कारण राग , द्वेष में फ़ंस जाता है । इस प्रकार राग – द्वेष में फ़ंसा मन कभी प्रेम की ओर बढ ही नहीं सकता अत: इस में ईर्ष्या व द्वेष का निवास होने से यह लडाई झगडा , कलह व क्लेष का केन्द्र बन जाता है । जो व्यक्ति इस प्रकार की व्याधियों से ग्रसित होता है , वह निरन्तर अपने अन्दर के सोम का नाश करता रहता है । इस प्रकार सोम से मुक्त होने से वह शिथिल पड जाता है ।
सोम के नष्ट होने से मानव में जो नम्रता थी , वह भी नष्ट हो जाती है । इस नम्रता का स्थान अब अभिमान ले लेता है । जिस आध्यात्मिक धन से हम उस पिता से जुडकर उसे पिता मानते थे, उसे दाता मानते थे तथा नम्र होकर उसके सान्निध्य को , उसकी निकटता को पाने का यत्न करते थे , इस भौतिक धन को पाने की लालसा ने हमारी यह सब नम्रता दूर कर दी । हम अत्यधिक भौतिक धन के स्वामी होने पर भी ओर धन एकत्र करना चाहते हैं , हमारी यह धन एकत्रण की भावना ने हमें अभिमानी बना दिया । अब हम अपने धन एशवर्य पर गर्व कर उस परम पिता परमात्मा को भूल गये । अब हम अपने को ही ईश्वर मानने लगे ओर कहने लगे कि यह धन ही है , जिससे हम कुछ भी प्राप्त कर सकते हैं । हम अपरीमित , असीमित धन के स्वामी हैं । अब हम कुछ भी कर सकते हैं । ईश्वर नाम की कोई वस्तु इस संसार में नहीं है ओर यदि है तो वह है धन , जिसके स्वामी हम हैं ।
इस प्रकार हम ही ईश्वर हैं , हम ही इस संसार को चलाने वाले हैं । इस प्रकार का अभिमान हमारे अन्दर आ जाता है । इस का परिणाम यह होता है कि एक ओर तो हमारा सोम हम से दूर होता चला जाता है दूसरी ओर संसार में धनवान के अत्याचार बढने लगते हैं , बढने लगते ही नहीं निरन्तर बढते चले जाते हैं । इस से इस संसार में अन्याय का घर बन जाता है , यह अन्याय ही अभाव का कारण बनता है । अन्याय से ग्रसित व्यक्ति कर्म को भूल जाता है , अकर्मी के भी सोम कण नष्ट होते हैं , वह भी शिथिल हो जाता है । जब कोई कर्म करने वाला नहीं रहता तो उपभोग के लिए कुछ पैदा भी करने वाला कोई नहीं होता । इससे सब ओर अभाव ही अभाव हो जाता है ओर जो थोडा कुछ होता है , उसे यह धनवान व्यक्ति अपने भण्डारों में भर लेता है जिससे साधारण व्यक्ति का जीवन दूभर हो जाता है । परिणाम स्वरूप जिस संसार ने स्वर्गिक आनन्द देना था वह संसार दु:ख रुपा बन कर घोर नरक का चित्र पेश करता है ।

डा. अशोक आर्य

इशान इन्द्रियों के स्वामी हम समय से पूर्व मृत्यु को प्राप्त न हों

ओउम
इशान इन्द्रियों के स्वामी हम समय से पूर्व मृत्यु को प्राप्त न हों
डा. अशोक आर्य
इस सूक्त का प्रारम्भ हम सब मिलकर उस प्रभु का गायन करने के निर्देशन के साथ करते हैं तथा कहते हैं कि हम सामुहिक रुप से मिल कर प्रभु का कीर्तन करें तथा उपदेश किया है कि हमारे यह प्रभु पालकों के भी पालक हैं अर्थात जिस माता पिता ने हमारा पालन किया है , उनके साथ ही साथ हमारा पालन भी उस पिता ने ही किया है ।
जब हम उस पिता के ह्रदय में निवास करते हैं तो हमारे अन्दर काम, क्रोध आदि शत्रु हमारी इन्द्रियों को किसी प्रकार की भी हानि नहीं पहुंचा सकते , पराजित नहीं कर सकते । इस प्रकार के व्यवहार से जो सोम का रक्षन होता है , वह इस की रक्षा करने वाले का सहायक हो जाता है । इस सोम की रक्षा करने वाले प्राणी को सदा सात्विक अन्न का ही सेवन करना चाहिये ।
उसे इन ईशान = इन्द्रियों का स्वामी बनकर उसे हमारे शरीरों को असमय अर्थात समय से पूर्व नष्ट नहीं होने देना चाहिये । इन सुरक्षित शरीरों , जिन में हमारा शरीर , हमारा मन तथा हमारी बुद्धि भी सम्मिलित है, को हम किन कार्यों में , किन कर्मों में लगावे या व्यस्त करे ? इस सम्बन्ध में ऋग्वेद का यह सूक्त इस विषय का ही उपदेश इस प्रकार कर रहा है :
प्रतिदिन सामूहिक रुप से प्रभु स्मरण करें
डा. अशोक आर्य
आज का मानव अकेले ही तो प्रभु के चरणों में बैठकर उसका स्तुतिगान करता है किन्तु सामुहिक रूप में प्रभु के समीप जाने से न जाने क्यों भयभीत सा होता है । ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का यह पांचवा सूक्त अपने प्रथम मन्त्र द्वारा उपदेश कर रहा है कि हम सामुहिक रुप से एक साथ सम्मिलित हो कर उस प्रभु का गुण्गान करें । इस आश्य को इस सूक्त के प्रथम मन्त्र में इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
आ त्वेता षीदतेन्द्रमभि प्र गायत ।
सखाय: स्तोम्वाहस ॥ ऋग्वेद १.५.१ ॥
इस मन्त्र में उपदेश करते हुए कहा है कि
१ हम एक साथ प्रभु स्तवन करें
हे परमात्मा के स्तोमों को धारण करने वाले मित्रो ! यहां पर न तो उस पिता को सम्बोधन किया है तथा न ही परिवार को । यहां तो केवल मित्रों को सम्बोधन किया गया है । मित्रों से अभिप्राय: उस समूह से लिया जाता है , जो हमारे समीप निवास करता है , हमारा हितचिन्तक है , एक दूसरे का सहायक है अथवा जिन पर वह विशवस करता है , एसे लोगों को वह व्यक्ति आमन्त्रित करते हुए कह रहा है कि आप सब लोग निश्चय से आईये ।
इन शब्दों में उन्हें प्रभु प्रार्थना के लिए आह्वान करते हुए कह रहा है कि आप एक दृढ निश्चय से यहां आवें क्योंकि यहां आने के लिए अधिक सोच -विचार की आवश्यकता नहीं है । मन में एक संकल्प से , एक निश्चय से यहां आईये । यहां आ कर आप सब लोग अपने अपने आसन पर बैठ जावें । आप के बैठने के लिए यहां जो आसन लगा रखे हैं , जो आसन बिछा रखे हैं, उन पर विराजमान हो जाईये । इन आसनों पर बैठते हुए एक बात का ध्यान रखिये कि यहां पर आने वाले को, यहां पर बैठने वाले को नम्र होना , नत होना चाहिये , । इस लिए यहां नम्रता पूर्वक बैठिये । यहां नम्रता पूर्वक केवल गुण्गान नम्र हुए बिना नहीं किया जा सकता क्योंकि अपने से बडे के आगे याचक बन कर ही जाया जाता है , इसलिए यहां याचक बन कर , अपने में नम्रता ला कर ही बैठिये ओर फ़िर उस पिता के गुणों का सामूहिक रुप से गान कीजिए , उसका स्मरण कीजिए , उसका आराधन कीजिए ।
यह सब कैसे करें ? , इस की पद्धति , इस का तरीका , इसका ढ̇ग भी बताते हुए मन्त्र कहता है , आदेश देता है कि उस प्रभु का स्मरण न केवल मन से ही करें अपितु वाणी से भी करें ।
इस प्रकार स्पष्ट किया गया है कि अपने मन से हम सदा प्रभु स्तवन करें तथा जब सामुहिक प्रार्थना मे आते हैं तो इसे हम अपनी वाणी से भी बोल कर प्रभु स्तुति का गायन करें ।
२. प्रार्थनाओं को क्रियाओं में अनूदित करें
मन्त्र के इस दूसरे चरण में एक शब्द ” स्तोमवाहस:” का प्रयोग किया गया है । यह शब्द संकेत कर रहा है कि हम प्रभु के स्तवनों को ,प्रभु के गुण गान में जो प्रार्थनाएं कर रहे हैं , उन प्रार्थनाओं को हम अपनी क्रियाओं में अनूदित करने वाले हों । हम जब प्रभु की सामुहिक रुप से , सम्मिलित रूप से प्रार्थना कर रहे है तो हम इसे अपनी क्रिया में , अपने व्यवहार में , अपनी भाव भंगिमा में बदल देवें । अकेले तो हम केवल मन में ही उसे याद करते हैं , स्मरण करते हैं किन्तु जब हम सामूहिक रुप से उसको याद कर रहे है तो यह सब हमारे भावों में स्पष्ट दिखाई दे , इस रुप में हम इसे बदल दें ।
३. दयालु बनें
यह सम्मिलन प्रभु का स्मरण करते हुए उस प्रभु को दयालु बता कर , उसका स्मरण करते है । स्पष्ट है कि जिस रुप में हम स्मरण करते है ,वैसा ही बनने का हम यत्न भी करते हैं । जब हम प्रभु को दयालु मानकर उसका स्मरण करते है तो हम भी दयालु बनने का यत्न करें । इस का भाव है हम भी दूसरों पर दया करें , दूसरों की सहायता करे , उनके कष्टों को बांटे । जब हम दूसरों के दु:खों के साथी बनते हैं तो ही हम प्रभु को दयालु कहने के सच्चे अर्थों मे अधिकारी होते हैं ।
४. मित्र भाव से प्रभ स्मरण करें
हम मन्त्र मे प्रभु को सखाया अर्थात मित्र भी कहते हैं । एक मित्र अपने दूसरे मित्र को अपने समान ही मानता है । यदि वह नीचे है तो उसे उठाने का यत्न करता है ओर यदि वह उपर है तो स्वयं भी उस जैसा बनने का यत्न करता है । अत: जब हम मित्र भाव से प्रभु का स्मरण करते हैं तो हम निश्चय ही उस प्रभु के गुणों के समान के से गुण अपने में भी लाने वाला बनना चाहते हैं तथा इन गुणों को पाकर हम अपने मित्र उस प्रभु जैसा बनना चाहते हैं । यह हमारी उन्नति का सर्वोत्तम मार्ग है ।
एसे ही साथियों को , एसे ही व्यक्तियों को प्रभु के निकट बिछाए गए इन आसनों पर बैठने का निर्देश यह मन्त्र दे रहा है तथा कह रहा है कि आप सब मिलकर इन आसनो पर बैठो तथा उस पिता की स्तुति का गायन करो । आप ने जो कुछ भी अपने मन में विचार कर रखा है , उस के अनुरूप गीतों से , उसके अनुरूप भाषण से हाथ जोड कर स्तुति गायन करो । यह मित्रता क्या है ? यह सम्मिलित रुप से किया जाने वाला प्रभु स्तवन ही इस मित्रता का मूल है , आधार है , मूल आधार है । इस लिए इन आसनों पर बैठकर मिलकर प्रभु के गुणों का गायन हम नम्रता पूर्वक करते हैं ।
५. सम्मिलित स्तवन से मानव दीप्त होता है
जब हम सम्मिलित होकर , इन आसनों पर बैठकर प्रभु स्तवन करते हैं तो इससे मानव का जीवन दीप्त होता है । इस प्रकार के प्रभु स्तवन से मानव जीवन मे एक प्रकार का प्रकाश पैदा होता है, आभा पैदा होती है , उसमे अनेक प्रकार की उमंगें हिलोरे मारने लगती हैं । इस प्रकार सम्मिलित होने तथा प्रभु स्मरण करने का मूल ही सम्मिलित रुप से प्रभु स्मरण व गायन करना ही होता है ।
६. सफ़लता मे प्रभु का हाथ

यह क्यों ? क्योंकि मन्त्र कह रहा है कि हम अपनी सफ़लताओं को देख कर फ़ूल न जावें । हम अभिमानी न हो जावें । अभिमान विनाश का मार्ग होता है । इस मार्ग पर चलकर हम अपना नाश न कर लें । इस लिए हम अपनी इन सफ़लताओं का श्रेय उस पिता को देंगे तो हम अभिमान से बचे रहेंगे तथा नत हो कर इन सफ़लताओं को प्राप्त कर हम प्रसन्न रहेंगे ।

डा. अशोक आर्य

आध्यात्म संग्राम में विजयी हो धनवान बनें

ओउम
आध्यात्म संग्राम में विजयी हो धनवान बनें
. डा. अशोक आर्य
हम परमपिता परमात्मा के आराधक है । इस कारण ही वह प्रभु हमें हमारे आध्यात्मिक संग्रामों में विजयी बनाते हैं तथा सब प्रकार के धन प्राप्त कराते हैं । इस बात का वर्णन करते हुये यह मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहा है : –
तं त्वा वाजेषु वाजिन वाजयाम: शतक्रतो ।
धनानामिन्द्र सातये ॥ ऋग्वेद १.४.९ ॥
इस मन्त्र में दो बातों की ओर संकेत किया गया है :-
१. हम अपने आतंरिक शत्रु को पराजित करें : यह मन्त्र प्रथमतया उपदेश करते हुए कहता है कि हे शतक्रतो अर्थात अनन्त प्रज्ञान वाले प्रभो ! ( हे कभी न समाप्त होने वाले उत्तम ज्ञानों से युक्त परमात्मन !) इस का भाव है कि हमारा वह प्रभु सब प्रकार के ज्ञानों , ज्ञान भी वह जिनके अन्त की कोई सीमा ही नहीं है , एसे कभी न समाप्त होने वाले उत्तम ज्ञानों के स्वामी पिता ! आप ही वाजेषु अर्थात हमारे काम , क्रोध , मद, लोभ , अहंकार आदि जो हमारे शत्रु , हमारे अन्दर ही विद्य्मान हैं ,हमारे अन्दर ही निवास कर रहे हैं , उन सब शत्रुओं के साथ युद्ध करने की , संग्राम करने की , उन्हें समाप्त करने के लिए , पराजित करने के लिए आप ही हमें वाजिनम अर्थात प्रशस्त शक्ति , भरपूर ताकत देने वाले हैं । हम एसे प्रभु को अर्चित करते हैं , हम एसे प्रभु की , जो हमे काम , क्रोध आदि हमारे अन्दर के शत्रुओं से लडने की शक्ति देता है , हम उस प्रभु का स्मरण करते हैं , जो प्रभु हमें हमारे आन्तरिक दोष रुपि शत्रुओं को मारने की शक्ति देता है , हम एसे प्रभु की प्रार्थना करते हैं , सदा उसके समीप रहने का यत्न करते हैं ।
मन्त्र का यह प्रथम खण्ड स्पष्ट कर रहा है कि हम एसे आध्यात्मिक यु्द्धों में , जिन में लडने वाले हमारे प्रतिद्वन्द्वी , हमारे शत्रु , हमारे विरोधी कोई बाहरी लोग न होकर हमारे अन्दर के ही दुर्गुण होते हैं , हमारे अन्दर की ही बुराईयां होती हैं । इन बुराईयों को दूर करने के लिए मार्ग – दर्शन , निर्देश , ढंग बताने वाला कोई है तो वह परमात्मा ही है , इन युद्धों में हमें रास्ता देने वाला , ज्ञान देने वाला यदि कोई है तो वह सब ज्ञानों का स्वामी , सब ज्ञानों का मालिक हमारा वह प्रभु ही है । इस लिए हम सदा उस प्रभु का स्मरण करते हुए उस पिता के , उस स्वामी के निकट रहने का यत्न करते हैं ।
वास्तव में मानव अपने इस अध्यात्मिक संग्राम में विजयी होने के लिए जो शक्ति प्राप्त करता है, वह शक्ति उसे उस पिता की उपासना करने से , उस पिता के समीप जाने से ही मिलती है क्योंकि वह पिता हमारा गुरु है । गुरु से यदि हमने कुछ प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करना है तो निश्चित रुप से उसके पास जाकर ही मांगना पडेगा । हम जब अपने आध्यात्मिक युद्ध में रत हैं तथा इसमें निरन्तर सफ़लता पाना चाहते हैं तो हमें उस पिता से मार्ग दर्शन लेना होता है , शक्ति प्राप्त करना होता है , जिसे लेने के लिए हम
उसका उपासन करते हैं , उसके समीप आसन लगाते हैं । एसा हम क्यों करते हैं क्योंकि हमारे पास इतनी शक्ति नहीं है कि हम स्वयं अपनी शक्ति के बल परहमारे इन शत्रुओं पर विजय पा सकें । अत: इस विजय को पाने के लिए हमें उस पिता से शक्ति प्राप्त करना होता है तथा उस शक्ति को पाने के लिए निश्चित रुप से हमें अपना निवास , अपना आसन , उस परमपिता परमात्मा के पास लगाना होता है , उसकी उपासना करना होता है ।
२. हम धन एश्वर्य के स्वामी हों :
इस मन्त्र में जो दूसरा तथ्य स्पष्ट करने का यत्न किया गया है ,वह है कि हे इन्द्र: अर्थात हे परम एश्वर्य शाली प्रभो ! हे सब प्रकार के एश्वर्यों के स्वामी प्रभो ! आप के सहयोग से , आपके मार्ग दर्शन से , आप के निर्देशन से , हम काम, क्रोध आदि , हमारे अन्दर के शत्रुओं पर विजयी होने के पश्चात हमारी अनेक प्रकार के धनों को प्राप्त करने की कामना होती है , इच्छा होती है , इसे पूरा करने के लिए हम आप की निकटता पाने की हमें आवश्यकता होती है क्योंकि सब प्रकार के धनों के स्वामी तो आप ही है , सब प्रकार के धनों से आप के कोष सदा ही भरे रहते हैं । इसलिए आप सब से बडे दाता हैं ,सब से बडे दानी है ,सब से बडे देने वाले है । याचक उसके पास जा कर ही कोई याचना करता है , जो दाता हो , भिखारी सदा उसके आगे ही अपने हाथ फ़ैलाता है , जिसके पास कुछ हो क्योंकि आप सब प्रकार के धनों के स्वामी तथा सब से बडे दानी हो , इसलिए हमें आपकी निकटता की आवशयकता होती है , ताकि हम कु्छ पा सकें । हम अपनी इस अभिलाषा को , इस इच्छा को तब ही पूर्ण कर सकते हैं , जब हम इस याचना को लेकर आप के निकट जावें । इस लिए हम आपकी अर्चना करते हैं , आप की प्रार्थना करते हैं , आपकी साधना करते है तथा यह सब करने के लिए आपके निकट आकर अपना आसन लगाते
हैं ।
हे प्रभु ! याचक , मांगने वाला उसके द्वार पर ही जाकर कुछ मांगता है ,जिसके पास वह वस्तु हो तथा वह कुछ देने वाला हो । हमारे सब प्रकार के धनों को देने की शक्ति आप ही के पास है । आप ही हमारी सब प्रकार की आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकते हो । इन सब आश्यकताओं की पूर्ति के लिए हम आपके पास आ कर याचना करते हैं | हम पर दया करते हुए हमें धन ऐश्वर्यों की प्राप्ति कराइये |
डा. अशोक आर्य

प्रभु स्मरण से हम शक्तिशाली हो प्रभु से रक्षित होते हैं

ओउम
प्रभु स्मरण से हम शक्तिशाली हो प्रभु से रक्षित होते हैं
डा. अशोक आर्य
प्रभु का नाम स्मरण करने से हम वासनाओं से बचते हैं , वासनाओंसे ऊपर उठते हैं । इस प्रकार हम शरीर में सोंम को व्यापक करते हैं तथा जब हम इस अवस्था में आकर युद्धों में होते हैं तो प्रभु हमारी रक्षा करते हैं । इस पर ही यह मन्त्र प्रकाश डाल रहा है : –
अस्य पीतवा शतक्रतो घनो व्रत्राणामभव: ।
प्रावो वाजेषु वाजिनम ॥ ऋग्वेद १.४.८ ॥
इस मन्त्र में दो बातों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि
१. सोम वृत्रों के नाश का कारण
हे अनन्त कर्मों तथा प्रज्ञानों वाले प्रभु ! हमारे अन्दर स्थित काम ,क्रोध आदि जो शत्रु हैं , वह हमारे ज्ञान पर आवरण स्वरुप कार्य करते है । यह काम क्रोधादि हमारे ज्ञान के नाशक होने के कारण हमारे भयंकर शत्रु होते हैं । जब हमारे यह शत्रु हम पर हावी होते हैं तो यह हमारे ज्ञान को ढक लेते हैं , इसके आवरण स्वरुप कार्य करते हैं । हमारे ज्ञान का प्रकाश निकलने ही नहीं देते । इन शत्रुओं से घिरे होने के कारण हम ज्ञान की गंगा में गोते लगा ही नहीं सकते । हमारे अन्दर अज्ञान का अन्धेरा बढने लगता है तथा हम धीरे धीरे विनाश की ओर बढते चले जाते हैं ।
इस सब को ध्यान में रखते हुए हे प्रभु ! हमारे शरीर मे इस सोम की रक्षा करके हमारे ज्ञान पर जो काम , क्रोध आदि का आवरण चढा है तथा यह हमारे शत्रु रुप कार्य कर रहे हैं , हमें नष्ट करने मे लगे हैं , आप हमें इतनी शक्ति दो कि आप की दया से हम हमारे शरीर में सोम की रक्षा करने में सफ़ल हों । इस प्रकार हम काम , क्रोधादि शत्रुओं को मारने में सक्षम हों , इसे मारने वाले बनें ।
उत्तम मानव सदा ही प्रभु के नाम स्मरण में रहता है । नाम स्मरण काम , क्रोधादि बुराईयों का शत्रु होता है । जो सदा प्रभु नाम का स्मरण करता रहता है , उस पर हमारे अन्दर के यह शत्रु कभी प्रभावी नहीं हो सकते तथा इन शत्रुओं के विनाश में वह सक्षम होता है । इस प्रकार नाम स्मरण मात्र से ही वासनाओं रुपि शत्रु नष्ट हो जाते हैं क्योंकि प्रभु नाम स्मरण वह ही कर सकता है , जिसके शरीर मे सर्वत्र सोम व्याप्त हो तथा सोम
के मालिक को कभी इस प्रकार के शत्रु हानि नहीं दे सकते । अत: प्रभु भक्त के शत्रुओं का विनाश निश्चय ही होता है ।
वह पिता सोमपान करने वाले तथा इस सोम की रक्षा करने वाले होते हैं। जब सोम की रक्षा एक मानव में हो जाती है तो यह मानव किसी भी अवस्था में काम , क्रोधादि बुराईयों का दास नहीं होता अपितु इन बुराईयों का वह विजेता होता है । इस प्रकार यह सोम वृत्रों के नाश का ,विनाश का साधन बनता है , कारण बनता है ।
२. हे प्रभो ! आप इन वसनाओं के संग्राम मे विजयी उसे ही करते हैं जो प्रशस्त अन्न वाले हों , जो प्रकर्षेण रक्षित हों । आप रक्षा करने वाले तो हैं किन्तु रक्षा उस की ही करते हैं जो अपनी रक्षा स्वयं करता है । जो
पूरा दिन व्यभिचार व बुरे कामों में लगावे, आप उसकी सहायता नहीं करते क्योंकि वह अपना विनाश स्वयं कर रहा होता है , शत्रु उसके दरवाजे पर आहट दे रहा होता है किन्तु तो भी वह निश्चिन्त हो आनन्द भोगों मे लगा रहता है , शत्रु का सामना नहीं करता , एसे को आप विजयी भी नहीं बनाते ।
सात्विक अन्न का सेवन करने वाले व्यक्ति के बुद्धि व मन भी सात्विक हो जाते हैं , स्वच्छ हो जाते हैं । जब उसने सेवन ही सात्विक अन्न का किया है तो शरीर में दुर्बलता या विलासिता आने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता । एसे व्यक्ति में सोम कणॊं की वृद्धि होती है , शक्ति का इस में संचार होता है । इस कारण एसे सात्विक अन्न को ग्रहण करने वाले को ” वाजिन ” कहा जाता है । यह जो वाजिन नामक व्यक्ति होता है , इस प्रकार के व्यक्ति की प्रत्येक प्रकार के संग्राम में विजय निश्चित होती है । इस वाजिनम का अर्थ बलवान् के रुप में भी लिया जाता है । सोमपान से जो वृत्र विनाश होता है , इस से ही वाजी बनना कहा गया है । वाजी का संग्राम में विजयी होना तय है । यह क्रम ही इस मन्त्र के माध्यम से निरन्तर चलता रहता है । यह क्रम ही इससे प्रतिपादित होता है । जो भी बलवान है , जिसने भी सोम की रक्षा की है तथा जो भी वाजी बन गया है , उसकी युद्ध में विजय निश्चित होती है । एसे व्यक्ति के रक्षक होने के कारण वह पिता इस की रक्षा करते हैं , इसे विजयी करते हैं ।
डा. अशोक आर्य

हम श्रमशील बन पभु आनन्द के भागी बनें

ओउम
हम श्रमशील बन पभु आनन्द के भागी बनें
डा. अशोक आर्य
हम सदा क्रोध जैसे दुर्गुणों से दूर रहते हुए भद्र , उत्तम जीवन बितावें तथा शत्रु द्वारा भी सौभाग्यशाली माने जावें । इस प्रकार हम श्रमशील बनकर प्रभु प्रदत आनन्द के भागी बनें । इस प्रकार क उपदेश देते हुए यह मन्त्र कह रहा है कि : –
उत न: सुभगां अरिर्वोचेयुर्दस्म क्रष्तय: ।
स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि ॥ रिग्वेद १.४.६ ॥
इस मन्त्र में मानव मात्र को तीन प्रकार के उपदेश दिए गए हैं :-
१. हमारे गुण हमारे शत्रु को प्रभावित करें
हे शत्रु विनाशक प्रभो ! हम पर एसी कृपा करो कि हमारा जीवन भद्रता से , उत्तम गुणों से इस प्रकार भरपूर हो कि हमारे गुणों के कारण हमारे शत्रु भी सदा हमारी प्रशंसा ही करे । हे प्रभो ! हमारे अन्दर विपुल भद्र भावनाओं को भरे दें , हमारे अन्दर उत्तम ज्ञान का आघान करो , हमें इतना भाग्यशाली बनाओ , तथा हमें इतनी धन सम्पदा दो कि हमारे शत्रु भी सदा हमारी प्रशंसा करें । हमारी भद्रता के कारण , हमारे उत्तम व्यवहार के कारण , हमारे शत्रु भी सदा हमें सौभाग्यशाली समझते हुए हमारी प्रशन्सा ही करें । शत्रु के ह्रदय ,शत्रु के मन हमारी भद्रता के कारण , हमारे उत्तम व्यवहार के कारण सदा प्रभावित रहें ।
जब हम गुणों के स्वामी होंगे , जब हम धन एश्वर्य के स्वामी होंगे ,जब हम उत्तम ज्ञान से प्रकाशित होंगे , जब हम ऊत्तम भावनाओं वाले होंगेतो हमारी प्रजा, हमारे प्रियजन , हमारे मित्र , हमारे पास पडोस के लोगसदा हमारी प्रशंसा करेंगे । जब हम सब ओर से प्रशंसित होंगे तो हमारे शत्रु भी निश्चय ही हमारी प्रशंसा किए बिना न रह सकेंगे , वह हमें उत्तम भाग्य वाला स्वीकार कर, हमारे गुणों की चर्चा करेंगे । एसा कोई कारण ही
नहीं रहेगा कि हमारे शत्रु हमारे इन गुणों से प्रभावित न हों ।
२. हम कर्मशील बनें
जब हम कर्म करेंगे , जब हम कर्म को , श्रम को ही प्रधानता देंगे तथा जब हम कर्मशील हो सदा कर्म में ही लिप्त रहेंगे तो निश्चय ही हम उस परम एशवर्यशाली पिता जो श्रम को ही अपना सब कुछ मानते हुए सदा श्रम के कार्य करने में ही लगे रहते हैं ।
श्रम ओर अकर्म यह दो प्रतिद्वन्द्वी शक्तियां है । जो श्रमशील होता है , वह कभी अकर्मण्य नहीं हो सकता तथा जो अकर्मण्य है वह कभी मेहनत नही करता । जो अकर्मण्य होता है , उसे प्रभु कभी पसन्द नही करता तथा उसे कभी किसी भी प्रकार का आनन्द नहीं देता ।
३. हमारे अन्दर के शत्रु नष्ट हो
यह मन्त्र शत्रुओं के विनाश का भी उपदेश कर रहा है । मानव के अन्दर काम , क्रोध , मद , लोभ , अहंकार आदि अनेक प्रकार के शत्रु निवास करते है । जो व्यक्ति सदा श्रम करता है , सदा मेहनत करता है , उसके पास इतना समय नहीं होता कि इन शत्रुओं की छत्रछाया प्राप्त करे , इन शत्रुओं की आधीनता स्वीकार कर , इन शत्रुओं की इच्छाओं का गुलाम बने । मानव के लिए यह अन्दर के शत्रु उसके सर्वनाश का कारण होते हैं । किन्तु यह मन्त्र शत्रु के विनाश का वाचक बनकर हमारे सामने आया है तथा हमें उपदेश करता है । यह मन्त्र एक स्पष्ट संकेत दे रहा है कि प्रभु के आशीर्वाद से हमारे यह अन्दर के सब शत्रु नष्ट हो जावे । यह नष्ट कैसे होंग ?, जब हम सदा कार्य करते हुए अपने आप को व्यस्त रखेंगे तो यह सब शत्रु हमारे निकट न आ पावेंगे तथा हम सुन्दर जीवन यापन करने वाले , हम उत्तम जीवन यापन करने वाले एश्वर्य से युक्त बनेंगे तथा प्रभु के द्वारा मिलने वाले सुख , वैभव व आनन्द में हमारी भी भागीदारी हो जावेगी व हम सुखी जीवन व्यतीत कर पाने मे सफ़ल होंगे ।

डा. अशोक आर्य

हम व्यर्थ में निन्दा न कर खाली समय में प्रभु स्तवन करें

ओउम
हम व्यर्थ में निन्दा न कर खाली समय में प्रभु स्तवन करें
डा. अशोक आर्य
विगत मन्त्र में उपदेश किया था कि हम ज्ञानी व संयमी व्यक्तियों के समीप बैठ कर ,उनसे ज्ञान पावें । अब बताया गया है कि
(क) हम कभी किसी की निन्दा न करें ।
(ख) हम सदा व्यर्थ के कार्यों से दूर रहते हुए अवकाश के क्षणों में पभु की ही चर्चा करें , प्रभु नाम का ही स्मरण करें तथा उस के ही अर्थ का चिन्तन करें । इस बात को मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहा है: –
उत ब्रुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत ।
दधाना इन्द्र इद दुव: ॥ रिग्वेद १.४.५ ॥
इस मन्त्र में दो बातों पर बल दिया गया है : –
१) हम व्यर्थ में किसी की निन्दा न करें : –
हम कभी निन्दात्मक शब्द न बोलें । हम कभी किसी की निन्दा न करें । यहां तक कि हमारे मुख से कभी भूल कर भी निन्दात्मक शब्दों का उच्चारण न हो , हमारे मुख से कभी किसी की निन्दा में एक भी शब्द न निकले । हम सदा वेदों के दिए उपदेश के अनुगमन में रहते हुए भद्र शब्दों का ही उच्चारण करें । हमारा सदा यह व्रत रहे कि हम सूक्तात्मक अर्थात जो वेद मन्त्र के समूह रूप सूक्त में आदेश दिये गए हैं , उनके अनुरुप चलते हुए स्तुति रुप जो कव्य दिए गए हैं , जो कथन दिए गए हैं , उन्हें ही बोलूं , उनका ही
गायन करूं ।
मन्त्र के इस प्रथम खण्ड में यह जो कुछ कहा गया है , इस सब का भाव है कि मानव जीवन तपश्चर्या का जीवन है । इस जीवन में मानव ने जब भी पग आगे बढाना है बडा ही सोच समझ कर तथा जो समाज के मंगल के लिए हो , कल्याण के लिए हो वही सब करना है । यूं ही इधर उधर भटकते फ़िरना तथा अपने खाली समय में भटकते हुए किसी की निन्दा करते रहना , किसी के अमंगल के लिए सोचते रहना उतम नहीं है । किसी की निन्दा करना धर्म नहीं अधर्म है । इसलिए हम अपने मुख से किसी की निन्दा के लिए एक शब्द का भी उच्चारण न करें । सदा दूसरों के लिए शुभ ही सोचें , शुभ ही विचारें । इस में ही भला है , इसमें ही कल्याण है । जब हम इस प्रकार की प्रतीज्ञा लेकर समाज के कल्याण के लिए कृतसंकल्प होंगे तो हमें सब ओर मंगल ही मंगल दिखाई देगा ।
२.बेकार समय व्यर्थ करने से बचो : –
मन्त्र के इस भाग से हमारे वह पूज्य पिता हमें उपदेश करते हुए कह रहे हैं कि हम कभी दूसरों के कार्यों में अकारण हस्तक्षेप न करें । एसा करना निन्दनीय होता है , दूसरों को कलेश पहुंचाने वाला होता है , दूसरे का तिरस्कार करने वाला , अपमान करने वाला होता है । इसलिए हमें इस प्रकार के हस्तक्षेप से बचते हुए तथा दूसरों की निन्दा से बचते हुए सदा अपना जीवन चलाना चाहिए । अत: हम अनुपयोगी , अनावश्यक तथा बेकार के कामों से अपने को सदा दूर रखें ।
आज अनेक व्यक्ति अपने आप को खाली समझ कर अथवा गाडी आदि में यात्रा के समय ताश आदि खेल कर अपने समय को नष्ट करते हैं , यह उत्तम नही है । हम अपने इस बेकार समय को भी निर्माणात्मक कार्य में लगा कर अपनी हित लाभ के साथ ही साथ अन्य भी अनेक लोगों के भी हित के कार्य कर सकते हैं । इसलिए एसे बेकार के कार्यों में समय नष्ट न कर सदा उत्तम कार्यों में ही कार्यरत हों । यह ही उत्तम है, यह ही कल्याण का , प्रगति का साधन है । इस लिए मन्त्र की भावना के अनुसार बेकार के खेल खेलना तथा बेकार में गप शप करते रहना मानव की प्रगति के पथ में बाधक होता है , इसलिए एसे कार्यों से सदा दूर रहना ही उत्तम है ।
मन्त्र इस तथ्य को ही आगे बढाते हुए बता रहा है कि जब कभी भी हमारे पास अवकाश के क्षण आवें , हमारे पास जब भी कभी खाली समय हो अथवा जब भी हम अपने घर के सब आवश्यक कार्यों से निवृत हो कर स्वयं को खाली समझें , जब भी हम स्वाध्याय करते हुए श्रान्त हो जाये , थक गये हों तो इस समय को हम निश्चय ही उस परम एशवर्य से युक्त पभु में लगावे , प्रभु की परिचर्चा में लगावें , प्रभु के स्मरण में लगावें , प्रभु की स्तुति में लगावें , पभु के समीप बैठकर इस समय को व्यतीत करें । इस प्रकार हम सदा ही प्रभु परिचर्चा को , प्रभु स्तवन को , प्रभु संवाद को धारण करने वाले हों तथा
अपने चित की वृतियों को सदा ही प्रभु के साथ जोडे रखे , यह ही क्ल्याण का साधन है ।

डा. अशोक आर्य

आचार्य्रु रुप प्रभु से हम सुमति पावे

ओउम
आचार्य्रु रुप प्रभु से हम सुमति पावे
डा. अशोक आर्य
हमारा यह प्रभु ,हमारा आचार्य भी है । जिस गुरुकुल में हम ने शिक्षा प्राप्त करना है , उस गुरुकुल के आचार्य परम पिता परमात्मा के हम अन्त:वासी है । अन्त:वासी होने के नाते हम पिता के समीप रहते हुए उत्तम सुमति पाने का लाभार्थी हों । इस भावना को मन्त्र इस प्रकार कह रहा है :

अथा ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम।
मा नोअतिक्य आ गहि ॥ ऋग्वेद १.४.३॥
विगत मन्त्र में पिता ने जीव को निर्देश दिया था कि हे जीव ! तुं अपने जीवन को यज्ञात्मक बना, जीवन में सोम पान कर तथा दान करने में ही अनन्द अनुभव कर । इस मन्त्र में प्रभु के इस आदेश का पालन करने की शक्ति पाने के लिए शान्ति की याचना के साथ जीव प्रभु से प्रार्थना करता है कि :
१. बुद्धियों में ज्ञानों का प्रकाश करें
हे पिता ! हम ने सोमपान पाने की कामना के लिए साधना आरम्भ की है। एसे साधक हम आप की अन्तिकम में अत:वासी बन कर अत्यन्त समीप रहें . हम आपके अधिक से अधिक समीप रहने के लिए आप हमारे हृदयों में स्थान ग्रहणकर विद्यमान हों । इस प्रकार उत्तम मतियों , बुद्धियों में उत्तम विचारों व उत्तम ज्ञानों का प्रकाश हमें प्राप्त करावें ।
हमारी प्राचीन वैदिक परम्परा यह ही है कि गुरु के चरणों में बैठकर हम शिक्षा प्राप्त करते हैं । शिक्षा काल में गुरु ही हमारा माता ,गुरू ही हमारा पिता होता है , वह ही हमारा भाई,मित्र तथा अन्य भी जितने शिक्षात्मक सम्बन्ध होते हैं ,वह सब गुरु ही होता है । विद्यार्थी जितना गुरु के समीप रहेगा , उतना ही अधिक व उत्तम ज्ञान का प्रकाश उसे मिलेगा । इस लिए ही हम गुरुकुलीय शिक्षा को उत्तम मानते हैं क्योंकि शिक्षा काल में ब्रहमचारी ( जिसे आजकल विद्यार्थी कहते हैं ) गुरु के पास ही निवास करते हुए शिक्षा प्राप्त करता था । इस शिक्षा के ही परिणाम स्वरुप भारत में महान योद्धा ,महान विद्वान व महान विचारकों को पाते हैं । यह तो अंग्रेज ने शिक्षा की विधि में परिवर्तन कर इस देश का सत्यानाश कर दिया , इसे अपनी ही संस्कृति का दुश्मन बना दिया अन्यथा हमारी धरोहर विश्व की महान धरोहर थी, जिससे पैदा होने वाले इस देश के शूर्मा प्रत्येक क्षेत्र मे अग्रणी थे ।
उत्तम शिक्षा पाने के लिए गुरु के समीप निवास होने का आदेश मन्त्र ने दिया है । इसलिए ही भारतीय विद्यार्थी गुरु को अपने हृदय में स्थान देकर , उसके अन्त:वासी बनकर , उससे शिक्षा पाता था । इस तथ्य के आधार पर जब हम मानते हैं कि वह परमात्मा हमारा सब से उत्तम गुरु होने के कारण हमारी यह कामना है कि वह हमारे हृदय में निवास करे । हम उसे अपने हृदय में आसीन कर उससे उत्तम बुद्धियों को उत्तम ज्ञानों को व उत्तम विचारों का ज्ञान प्रतिक्षण प्राप्त करते रहते हैं तथा हे प्रभु ! आपको अपने हृदयस्थ करते हैं तथा अपने ही अन्दर विद्यमान होने के नाते आप के ज्ञान को पाने के लिए हम सदैव ही यत्न करते रहते हैं ।
इस सूक्त के दूसरे मन्त्र में भी यज्ञ करने , सोमपान तथा दान से यह बात ही संकेत की गई थी । जब हम यज्ञशील होंगे, जब हम अपने सोम अर्थात अपने वीर्य की , अपनी शक्ति की रक्षा के लिए संयमी जीवन बनाएंगे तथा दान करेंगे , इस सब से यह ही भाव प्रकट किया गया है कि हम परोपकार की भावना को सम्मुख रखते हुए संयमी बनकर अपनी शक्तियों की रक्षा करते हुए शिक्षा प्राप्त करें तथा फ़िर प्राप्त ज्ञान का दान करें । इस प्रकार हम लोभ की भावना से उपर उठेंगे तो हे प्रभू ! क्योंकि आप हमारे अन्त: स्थित हैं , आपके अन्त:स्थित होने के कारण जो प्रकाश आप हमारे अन्दर दे रहे हैं उसके दर्शन हम क्यों न करेंगे ? अवश्य करेंगे ।
२. प्रभु हमें दान का पात्र समझे
मन्त्र में दूसरी बात का जो उपदेश किया गया है , वह यह है कि वह प्रभु हमें छोडकर अन्यों को ही अपने ज्ञान का दान न करे । इस का भाव यह है कि प्रभु हमें दान का पात्र समझे । कहीं एसा न हो कि हमें अपात्र समझ कर छोड दे तथा दूसरों को ही यह उतम ज्ञान बांटने लग जावे । इसलिए यहां प्रार्थना की है कि हम प्रभु से, उसका ज्ञान पाने के पात्र बनें । हम पुरुषार्थ कर अपने आप को इस योग्य बनावें कि हम उस प्रभु से ज्ञान पाने
के अधिकारी बनें ।
३. प्रभु हमारे हृदय में निवास करें
मन्त्र के इस तीसरे व अन्तिम खण्ड में प्रार्थना करते हुए जीव कह रहा है कि हे प्रभु ! आपका हमारे हृदय में निवास बना रहे । जैसे कि उपर उपदेश किया गया है कि ज्ञान के अभिलाषी प्राणी को गुरु ( परमात्मा ) के अधिक से अधिक समीप रहना आवश्यक है । जब हम उस पिता से ज्ञान की कामना करते है तो उस पिता के अधिक से अधिक समीप रहना आवश्यक हो जाता है । अत्यधिक समीपता हृदय से ही होती है । इसलिए हम उसे अपने हृदय में स्थापित करते हैं ,अपना अंत:वासी करते है ताकि उसके निकट रहते हुए , उससे सदा ही उत्तम ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करते रहें । एसा करने से ही हमारे प्रभु से सम्पर्क हो सकता है । प्रभू का यह सम्पर्क ज्ञान प्राप्ति के लिए ही तो होता है ओर किस लिए होता है ?
जब हम प्रभु को अपने हृदयस्त कर लेंगे तो वह प्रभु ही हमारे आचार्य होंगे, हम उस प्रभु के विद्यार्थी , उस प्रभु के शिष्य बन जावेंगे , तब ही हमे सुमति रुपि ज्ञान प्राप्ति का लाभ मिलेगा तथा हम कभी भी उस प्रभु से मिलने वाले ज्ञान के प्रकाश से रहित न होंगे ।

डा. अशोक आर्य

प्रभु दर्शन के लिए सात्विक भोजन आवश्यक

ओ३म
प्रभु दर्शन के लिए सात्विक भोजन आवश्यक

डा. अशोक आर्य
हमारी सदा ही यह इच्छा रही है कि हम उस पिता को , उस प्रभु को प्राप्त करें किन्तु कैसे ? इस निमित्त हम अपनी अन्दर की वासनाओं का नाश करें । वासना विनाश के लिए अपने अन्दर ग्यान का दीप जलाएं । ग्यान का दीप जलाने के लिए सात्विक अन्न का प्रयोग करना आवश्यक है । जब मन वासना रहित होगा , अन्दर ग्यान का प्रकाश होगा तथा जब यह शरीर सात्विक भोजन पर
निर्भर होगा तो हम प्रभु को पाने में सफ़ल होंगे । इस तथ्य पर ही यह मन्त्र इस प्रकार प्रकाश डाल रहा है :-
इन्द्रा याहि तुतुजान उप ब्रह्माणि हरिव: ।
सुते दधिष्व नश्चन: ॥रिग्वेद १.३.६ ॥
इस मन्त्र में ती बातों पर , तीन बिन्दुओं पर प्रकाश डालते हुए इस प्रकार कहा गया है , उप्देश किया गया है : –
१.
जितेन्दिय पुरुष को इन्द्र के नाम से सम्बोधित करते हुए मन्त्र कहता है कि हे जितेन्द्रिय पुरुष ! तूं अति शीघ्रता से सब वासनाओं का नाश करता हुआ मेरे समीप आ । इससे यह स्पष्ट होता है कि मन्त्र के अनुसार प्रभु प्राप्ति की प्र्थम तथा प्रमुख सीटी वासनाओं का नाश ही है । जब तक वासनाओं का नाश नहीं होता तब तक प्रभु प्राप्ति की ओर प्रथम कदम भी नहीं रखा जा सकता । इस लिए प्रभु दर्शन के अभिलाषी प्राणी को सर्व प्रथम जो कार्य करना होता है , उसे हम वासनाओं का नाश के नाम से जानते हैं । अत: प्रभु प्राप्ति के पथिक को सर्व प्रथम वासना नाश रुपि मार्ग को पकडना
होता है । यह ही प्रभु दर्शन का प्रथम साधन है , प्रथम सीटी है ।
२.
वासनाओं का नाश करने के इच्छुक हे प्रशस्त इन्द्रिय रुपि घोडों से युक्त प्राणी ! तुं सदा ग्यान के मध्य निवास करने वाला बन । ग्यान प्राप्ति की रुचि के बिना तुं ग्यान प्राप्त नहीं कर सकता । इस लिए तेरे लिए यह आवश्यक है कि यदि तूं ग्यान प्राप्ति की अभिलाषा रखता है तो अपने अन्दर ग्यान को पाने की इच्छा पैदा कर , रुचि पैदा कर । जब तक तेरे अन्दर ग्यान नहीं है , तब तक वासनाओं का नाश सम्भव ही नहीं है । जब तुझे अच्छे व बुरे का ग्यान ही नहीं है , तब तक तूं बुराई को कैसे छोड सकता है । अत: तूं यह अभिलाषा अपने अन्दर पैदा कर कि तुं ग्यान प्राप्त करे तथा यह इच्छा शक्ति भी अपने अन्दर पैदा कर कि तुं ने उत्तम ग्यान को पैदा करना है, ग्रहण करना है । जब तक तेरे अन्दर वासनाओं को मारने के लिए , वासनाओं का हनन करने के लिए ग्यान ही नहीं है , वासनाओं की बुराई को तुं जानता ही नहीं है , तब तक इनका नाश नही कर सकता । इस लिए महान ग्यानी बनना तेरे लिए आवश्यक है । यह ग्यान ही है जो हमें वासनाओं की हानियों की जानकारी देने वाला है । यह ग्यान ही तो है जो वासनाओं का नाश करता है ।
३.
अपने शरीर में हमने शक्ति पैद करनीहै । शक्ति ही सब सफ़लताओं का मर्ग है, सब सफ़लताओं का मूल है । इस शक्ती को ही सोम कहते हैं । इस लिए हे प्राणी अपने शरीर में सोम की उत्पति के लिए , शक्ति की उतपति के लिए , मैंने जो अन्न तेरे लिए दिया है , पैदा किया है , तुं उसे तुं धारण करने के योग्य बन , आने अन्दर एसे गुण पैदा कर कि तुं इस अन्न का उपभोग करने के योग्य्बन सके , इस अन्न को ग्रहण कर । यह अन्न ही तेरा भूजन है, यह अन्न ही तेरी क्शुधा पूर्ति का साधन है , यह अन्न ही तेरे जीवान का मुख्य भाग है । इस प्रकार यह मन्त्र उप्देश कर रहा है कि गेहूं , चावल , जौ, उडद,दालें, तिल आदि वस्तुएं , जिन्हें अन्न का नाम दिया गया है , ही तुं खाने के लिए सेवन कर , इनका ही उपभोग कर, इन्हें ही तुं ग्रहण कर । मांस मनुष्य का भोजन नहीं है , इसलिए तुंने मांस , मदिरा आदि तुच्छ पदार्थों का अपने भोजन के रूप में सेवन नहीं करना । एसे गन्दे भोजन का सेवन कर तूं अपनी बुद्धि को रजस व्रितियों वाला बना कर वैष्यिक व्रितिवाला बनकर , तामस व्रोइति वाला बनकर सोम रक्शन का कार्य नहीम क्लर पावेगा । सोम रक्शण एसी दूषित व्रितियों से नहीं होता ।यदि तूं अपने शरीर में सोम की ,शक्ति की रक्शा करना चाहता है तो यह आवश्यक है कि तुं उत्तम अन्न व दालों आदि का ही सेवन कर । मां , मदिरा के सम्बन्ध्में सोच भी ना , देख भी न ।
इसस्से ही शक्ति , सोम की प्राप्ति होगी । इस के अतिरिक्त हे जीव ! तुं यह भी कर:-
क) तुं सदा सात्विक भोजन कर
ख) सात्विक भोजन की प्राप्ति से तुं सुक्शम बुद्दि वाला बनकर ग्यान
प्राप्ति के कार्य में लग जा ।
ग) ग्यान प्राप्ती से तुण अच्छे व बुरेर की परख करने वाला बन ।
घ) अच्छे व बुरे का पारखी बनकर तुं अपने अन्दर की विषय वासनाओं की
हानि को समझ तथा अपनी वासनाओं का विनाश कर ।
ड) वासनाओं का विनाश कर तुं अस्पने आप को प्रभु को पाने के योग्य बना ।

दर्शना देवी डा. अशोक आर्य

प्रभु प्राप्ति के लिए विद्वान व संयमी से ज्ञान आवश्यक

ओ३म
प्रभु प्राप्ति के लिए विद्वान व संयमी से ज्ञान आवश्यक

डा अशोक आर्य
मानव सदा ही प्रभु की शरण में रहना चाहता है किन्तु वह उपाय नहीं करता जो , प्रभू शरण पाने के अभिलाषी के लिए आवश्यक होते हैं । यदि हम प्रभु की शरण में रहना चाहते हैं तो हमारी प्रत्यएक चेष्टा , प्रत्येक यत्न बुद्धि को पाने के उद्देश्य से होना चाहिये । दूसरे हम सदा ग्यानी ,विद्वान लोगों से प्रेरणा लेते रहें तथा हम सदा उन लोगों के समीप रहें , जो विद्वान हों , संयमी हों , ज्ञानी हों । एसे लोगों के समीप रहते हुये हम उनसे ज्ञान प्राप्त करते रहें । इस बात को ही यह मन्त्र अपने उपदेश में हमें बता रहा है । मन्त्र हमें इस प्रकार उपदेश कर रहा है : –
इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूता: सुतावत: ।
उप ब्रह्माणि वाघत: ॥ रिग्वेद १.३.५ ॥
इस मन्त्र में चार बातों की ओर संकेत किया गया है : =-
१.
जीव ने विगत में जो परमपिता प्रमात्मा से जो प्रार्थना की थी , उस का उत्तर देते हुये पिता इस मन्त्र में हमें उपदेश कर रहे हैं कि हे इन्द्रियों के अधिष्टाता जीव ! हे इन्द्रियों को अपने वश में कर लेने वाले जीव । अर्थात प्रभु उस जीव को सम्बोधन कर रहे हैं , जिसने अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है । उस पिता का एक नियम है कि वह पिता उसे ही अपने समीप बैटने की अनुमति देता है , उसे ही अपने समीप स्थान देता है , जो अपनी इन्द्रियों के आधीन न हो कर अपनी इन्द्रियों को अपने आधीन कर लेता है , जो इन्द्रियों की इच्छा के वश में नहीं रहता अपितु इन्द्रियां जिसके वश में होती है । अत: इन्द्रियों पर आधिपत्य पा लेने में सफ़ल रहने वाला जीव जब उस प्रभु को पुकारता है तो एसे जीव की प्रार्थना को प्रभु अवश्य ही स्वीकार करता है तथा जीव को कहता है कि हे इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाले जीव तु आ मेरे समीप आकर स्थान ले , मेरे समीप आ कर बैठ ।
२.
हे जीव ! तूं अपने सब प्रयास , सब यत्न , सब कर्म बुद्धि को पाने के लिए, बुद्धि को बढाने के लिए ही करता है । तूं सदा बुद्धि से ही प्रेरित रहता है । बुद्धि सदा तुझे कुछ न कुछ प्रेरणा करती रहती है । तूं जितने भी कार्य करता है , वह सब तूं या तो बुद्धि से करता है अथवा तूं जो भी करता है , वह सब बुद्धि को पाने के यत्न स्वरुप करता है । तेरी सब प्रेरणाएं बुद्धि को पाने के लिए प्रेरित होती हैं । इतना ही नहीं तूं जितनी भी चेष्टाएं करता है , जितने भी यत्न करता है, जितना भी परिश्रम करता है , जितना भी प्रयास करता है , वह सब भी तूं बुद्धि को पाने के लिए ही करता है । तूं अपने इस यत्न को निरन्तर बनाए रख । तेरे इस यत्न से ही तेरी बुद्धि सूक्शम हो सकेगी , जिस बुद्धि के द्वारा तूं इस ब्रह्माण्ड में मेरी महिमा , मेरी सृष्टि को देख पाने में सफ़ल होगा ।
३.
तेरे अन्दर जो यह तीव्र बुद्धि आई है, जो सूक्षम बुद्धि का स्रोत बह रहा है, वह तूंने अपने ब्रह्मचर्य काल में अपने ज्ञानी , विद्वान तथा सूक्षम बुद्धि से युक्त आचार्यों से , गुरुजनों से , प्रेरित हो कर एकत्र किया है । इतना ही नहीं तूं अब भी उत्तम बुद्धि को पाने के लिए अपनी अभिलाषा को बनाए हुए है । इस कारण तूं ने अब भी उत्तम विद्वान पुरूषों की शरण को नहीं छोडा है , सूक्शम बुद्धि से युक्त गुरुजनों के चरणों में ही रहने का यत्न कर रहा है अर्थात इतनी बुद्धि का स्वामी होने पर भी बुद्धि पाने का यत्न तूंने छोडा नहीं है अपितु अब भी तूं इसे पाने के लिये निरन्तर प्रयास में लगा है ।
४.
हे उत्तम बुद्धि के स्वामी जीव ! तूं सोम का सम्पादन करने वाला है । तूं प्रतिक्षण अपने जीवन में एसे यत्न , यथा प्राणायाम, द्ण्ड , बैठक आदि में व्यस्त रहता है, जिन से सोम की तेरे शरीर में उत्पति होती ही रहती है । तूं ने अपना जीवन इतना संयमित व नियमित कर लिया है कि सोम का कभी तेरे शरीर में नाश हो ही नहीं सकता अपितु सोम तेरे शरीर में सदा ही रक्षित है । इतना ही नहीं तूं सदा एसे लोगों का , एसे विद्वानों का, एसे गुरुजनों का साथ पाने व सहयोग लेने के लिए , मार्ग-दर्शन पाने के लिए यत्नशील रहता है , जो सोम को अपने यत्न से अपने शरीर में उत्पन्न कर , उसकी रक्षा करते हैं । सोम रक्षण से वह मेधावी होते हैं । एसे मेधावी व्यक्ति के , एसे ज्ञान के भण्डारी के , एसे संयमी व्यक्ति के समीप रह कर तूं उससे ज्ञान रुपि बुद्धि को ओर भी मेधावी बनाने के लिए यत्न शील है ।
डा. अशोक आर्य