सब प्रकार से विजयी हो नि:श्रेयस को पावें
डा. अशोक आर्य
हम परम पिता की अपार क्रिपा से वाजों में विजयी हों, एसे विजेता बनकर हम अभ्युदय को पावें तथा सहस्रप्रधनों में भी हम विजय पा कर नि:श्रेयस को पावें । इस बात को रिग्वेद का यह मन्त्र इस प्रकार प्रकट कर रहा है :-
इन्द्र वाजेषु नोऽव सहस्रप्रधनेषु च । उग्र उग्राभिरुतिभि:॥रिग्वेद १.७.४॥
इस मन्त्र में तीन बातों पर प्रकाश डालते हुए पिता उपदएश कर रहे हैं कि :-
१.हम हमारे छोटे छोटे युद्धो में विजयी हों :-
वैदिक साहित्य में प्रत्येक शब्द क अर्थ कुछ विशेष ही होता है । हम अपने जीवन में सदा संघर्ष करते रहते हैं , हम सदा किसी न किसी प्रकार के युद्ध में लडाई में लगे रहते हैं किन्तु इस मन्त्र में जिस युद्ध को वाज कहा गया है , वह युद्ध कौन सा होता है ? इसे जाने बिना हम आगे नहीं बध सकते । वैदिक सहित्य में हम जो छोटे छोटे युद्ध लडते हैं , उन को वाज का नाम दिया गया है ।
जो लडाईयां , जो युद्ध , जो संघर्ष शक्ति की प्राप्ति के लिए लडे जाते हैं , धनादि कि प्राप्ति के लिए लडे जाते हैं , उन्हें हम वाज की श्रेणी में रखते हैं । इतिहास की जितनी भी लडाईयां हुई हैं , चाहे वह राम – रावण युद्ध हो अथवा महाराणा प्रताप तथा अकबर का युद्ध हो , यह सब वाज ही कहे जावेंगे । प्रभु भक्त इस मन्त्र के माध्यम से पिता से प्रार्थना करता है कि हे शत्रुओं को रुलाने वाले प्रभो !, हे शत्रुओं का नाश करने वाले , संहार करने वाले प्रभो ! आप हमें धन आदि की प्राप्ति के लिए हमारे जीवन के इन छोटे छोटे संग्रामों में हमें विजेता बनावें । आप ही की क्रिपा से हम धनों के स्वामी बन कर , विजेता बनकर अभ्युदय को , उन्नति को प्राप्त करें ।
२. हम अपने अन्दर के युद्ध में विजयी हों :-
ऊपर बताया गया है कि जो युद्ध धन एश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिए लडे जाते हैं , वह वाज की श्रेणी में आते हैं । इससे स्पष्ट है कि यह युद्ध किसी अन्य प्रकार के भी होते हैं । इस मन्त्र में दूसरी प्रकार के युद्ध को सहस्रप्रधन का नाम दिया गया है । मन्त्र इस शब्द के अर्थ रुप में बता रहा है कि जीव अपने अध्यात्मिक जीवन को सुन्दर बनाने के लिए , आकर्षक बनाने के लिए अपने अन्दर के शत्रुओं के साथ भी युद्ध करता रहता है । जब मानव अपने बाहर के शत्रुओं के साथ लडता है तो उसे वाज कहा जाता है किन्तु जब वह अपने अन्दर के शत्रुओं के साथ लडता है तो इस लडाई का नाम सहस्रप्रधन होता है । सहस्रप्रधन नामक युद्ध में हम अपने अन्दर के काम , क्रोध, मद , लोभादि आदि शत्रुओं से लडाई करते हैं ।
प्रार्थना की गयी है कि हम अपने इन आध्यात्मिक युद्धों में भी विजयी होते हुए काम का नाश कर प्रेम रुपि धन को प्राप्त करें , क्रोध रुपि शत्रु को मार कर दया रुपि धन को पावें , हम लोभ रुपि शत्रु पर भी विजयी होवें तथा दान रुपि धन की प्राप्ति करें । इस प्रकार हम आनन्द रुप प्रक्रिष्ट धनों के स्वामी बनें । इस प्रकार हे प्रभो ! इन संसाधनों को पाने के लिए आप हमारे सहयोगी बनें, रक्शक बनें ।
३. प्रभो इन युद्धो में हमें विजयी बनावें :-
मानव का काम है यत्न करना , पुरुषार्थ करना । जब हम यत्न करते हैं , परिश्रम करते हैं , पुरुषार्थ करते हैं तो इस पुरुषार्थ का उतम फ़ल प्रभु हमें देता है क्योंकि उस ने जीव को कर्म करने में स्वतन्त्र किया है किन्तु किये गये कर्म का फ़ल वह प्रभु अपनी व्यवस्था के आधीन ही रखे हुए है । इस कारण हम कर्म करते हुए भी सदा उतम फ़ल की प्रार्थना उस पिता से करते रहते हैं । हम अपने पुरुषार्थ द्वारा जीवन में सब प्रकार से विजयी होने की कामना के साथ ही परमपिता परमात्मा से फ़िर प्रार्थना करते हैं कि हे तेजस्वी पिता ! आप तेज से परिपूर्ण हैं,आप प्रबल रक्शक हैं । अपने तेज व रक्शण से हमें हमारे जीवन में होने वाले सब प्रकार के युद्धों में विजेता बनावें । हम अकेले इन कामादि शत्रुओं को नहीं जीत सकते । इसलिए आप का सहयोग , आपकी सहायता हमारे लिए आवश्यक हो जाती है । अत: हमें एसी शक्ति दें कि हम इन युद्धों में सदा विजयी होते रहें तथा उन्नति की ओर सर्वदा अग्रसर रहें ।
डा. अशोक आर्य
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प्रभु हमारे पालक हैं तथा हमें सब कुछ देते हैं
प्रभु हमारे पालक हैं तथा हमें सब कुछ देते हैं
(सम्पूर्ण सूक्त)
डा. अशोक आर्य
ऋग्वेद के प्रथम मण्ड्ल के इस सप्तम सूक्त में बताया गया है कि सूर्य तथा मेघादि उस पिता की ही विभूतियां हैं । पिता ही हमें विजय़ी करते हैं , वेद ज्ञान का ओढना देता हैं, अनन्त दान करते हैं,हम प्रभु की ( उस गोपाल की ) गोएं हैं , जो हमारा पालन करने वाले हैं तथा हमें आवश्यक धन प्राप्त करते हैं ।
प्रभु गुणगान से मन शान्त,बुद्धि तीव्र व यज्ञात्मक
कर्म से शक्ति मिलती है
डा. अशोक आर्य
प्रभु के गुणगान करने वाले मानव का मन शान्त होता है । उसकी बुद्धि दीप्त हो जाती है , तेज हो जाती है। उसके हाथ यज्ञ जैसे उत्तम कर्म करते हैं , जिससे उसके अन्दर शक्ति का उदय होता है । इस मन्त्र में यह बात इस प्रकार प्रकट की गई है : –
इन्द्रमिद्गाथिनोबृहदिन्द्रमर्केभिरर्किणः।
इन्द्रंवाणीरनूषत॥ ऋ01.7.1
इस मन्त्र में तीन बातों पर बल देते हुए बताया गया है कि :-
१. साम गायन से शांति कि प्राप्ति
उत्तम स्वर में गाए जाने योग्य जो वेद है , उसका नाम साम वेद है । एसे वेद के मन्त्रों से , जो गायन करने के योग्य है , के मन्त्रों को गायन करते हुए उस पिता के उदगाता , उस प्रभु के भक्त , उस पिता के गुणों का गायन करने वाले लोग, निश्चित रुप से ही शत्रुओं को नष्ट करने वाले , उनका विदारण करने वाले , उन्हें क्लेष देने वाले , शत्रुओं को रुलाने वाले ,सब प्रकार के एश्वर्यों के स्वामी होने के कारण सब प्रकार के एश्वर्यों से सम्पन्न उस परम पिता परमात्मा का भरपूरर स्तवन करते हैं , उसका अत्यधिक मन से कीर्तन करते हैं तथा उसके गुणों का , उसके यश का गुणगान करते हैं ।
यह भक्त उस पिता का गुण गान सामवेद के मन्त्रों से गायन ही हुए करते हैं अथवा साम गायन करते हैं , क्योंकि साम कहते हैं शान्ति को । इसलिए साम के मन्त्रों का गायन करने से वह भी साम से युक्त हो जाते हैं अर्थात शान्ति से युक्त हो जाते हैं । उन के सब क्लेष दूर होने से उन का मन सब प्रकार के क्लेषों से छूट कर शान्त हो जाता है । साम गायन वास्तव में शान्त करने वाला ही होता है ।
२. ऋग्वेद ऋग = विज्ञान का साधक
इतना ही नहीं हम ऋग्वेद के मन्त्रों से भी उस पिता के गुणों का गायन करते हैं । हमारा वह प्रभु ऋग्वेद के मन्त्रों में भी बसा हुआ है । इस कारण उसे ऋग्वेद रुप भी कहा जाता है । एसे ऋग्वेद रुप मन्त्रों से अर्थात ऋग्वेद के मन्त्रों से युक्त प्रभु के भक्त , प्रभु के होता, प्रभु के यश का गायन करने वाले , उसका स्तवन , उसका कीर्तन करने वाले , ऋग्वेद के ही मन्त्रों से उस ज्ञान रुप , उस ज्ञान के भण्डार तथा परम एश्वर्यों के स्वामी उस इन्द्र का , उस पिता का , उस पूज्य प्रभु का अत्यधिक स्तवन करते हैं , उसके निकट जाकर उसका गायन करते हैं ।
जब यह भक्तगण ऋग्वेद की इन ऋचाओं के द्वारा परम पिता का स्तवन करते हैं , प्रभु के गुणों का गायन करते हैं तो इन ऋचाओं का भाव भी उन के अन्दर आ जाता है । इन ऋचाओं का भाव क्या है ? इन ऋचाओं के मन्त्रों में ऋक का विज्ञान भरा रहता है । इस कारण प्रभु के एसे भक्त के मस्तिष्क में भी ऋग – विज्ञान भरने वाले यह मन्त्र बनते हैं । भाव यह कि इन के गायन से ऋग – विज्ञान इन के मस्तिष्क में आकर इन्हें प्रकशित करता है तथा यह लोग इस ज्ञान से प्रकाशित हो जाते हैं ।
३. यजुर्वेद के स्वाध्याय से सबल
उन्नति की ओर उठने वालों को , उपर उठने वालों को अर्ध्व्यु कहा जाता है । एसे अर्ध्व्यु लोग , सब प्रकार से बल से युक्त कर्मों को करने वाले , वह सब कर्म जो बल से होते हैं , उन्हें करने के प्रणेता प्रभु की ही त्रितीय अर्थ की वाणी अर्थात यजुर्वेद के मन्त्रों से उस पिता की स्तुति करते हैं , उसकी निकटता प्राप्त करते हैं , उसके गुणों का गायन करते हैं ।
यजुर्वेद के मन्त्रों रुपि वाणियों से , यजुर्वेद के मन्त्रों के गायन से उस पिता का गुणगान ,यशोगान , कीर्तन , भजन व स्तवन करते हुए पिता के यह भक्तजन अधर्वु , उपर उठने वाले लोग , उन्नति पथ पर बढने वाले लोग अपने हाथों से यज्ञ आदि , परोपकार से युक्त उत्तम कर्म करते हैं । यह सदा ही एसे उत्तम कर्म करते है , जिससे दूसरों का भी हित हो । इस प्रकार के कर्म इन भक्तों को सबल करते हैं , सब प्रकार के बलों से युक्त कर , इन्हें बलवान बनाते हैं ।
डा. अशोक आर्य
हम प्रभु स्तवन करते हुए अपने जीवन को गुणों से अलंकृत करें
हम प्रभु स्तवन करते हुए अपने जीवन को गुणों से अलंकृत करें
डा.अशोक आर्य
प्रभु सर्व व्यापक है । उसकी महिमा को हम प्रत्येक लोक में देखें । हम सदा स्वयं को प्रभु में ही स्थित रखते हुए उस प्रभु का स्तवन करें, गुणगान करें । इस प्रकार हम अपने जीवन को गुणों रुपी अलंकारों से अलंकृत करते हैं । इस बात को ही मन्त्र में इस प्रकार कहा गया है । :-
अतःपरिज्मन्नागहिदिवोवारोचनादधि।
समस्मिन्नृञ्जतेगिरः॥ ऋ01.6.9
१. प्रभु के प्रकाश की ज्योति को प्राप्त कर
उस परमपिता परमात्मा का भक्त उस की आराधना करते हुए उस से प्रार्थना करता है कि हे चारों दिशाओं में सर्वव्यापक प्रभो ! आप हमें प्राप्त होइये । मानव जन्म में प्रभु को पाने की अभिलाषा रखता है । इस अभिलाषा की पूर्ति ही इस मानव का लक्ष्य है । इसलिए वह पिता से प्रार्थना करता है की हे पिता ! आप मुझे शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त होइये, मिलिए, दर्शन दीजिए । आप हमें पृथ्वी लोक से , प्राप्त होवें चाहे आप हमें द्युलोक से प्राप्त होवें अथवा अन्तरिक्ष लोक से ( जो केन्द्र व विद्युत् की दीप्ती वाला है, जो केन्द्र व बिजली के प्रकाश से चमकने वाला है ) हमें प्राप्त होवें ।
पृथ्वी में जो अग्नि आदि देव हैं , जो आपके तेज को और भी तेजस्वी करने वाले देव हैं , मैं उन सब देवों का चिन्तन करता हुआ, स्मरण करता हुआ , उन सब देवों में आपसे स्थापित किये गए देवता का दर्शन करूं, उस देवता का दर्शन करुं, जिसे आपने अपने में स्थान दे दिया है । इतना ही नहीं मैं अंतरिक्ष लोक में भी, अंतरिक्ष के देवों के माध्यम से सदा आप ही की महिमा को देखूं , आप ही के दर्शन करुं । द्युलोक को प्रकाशित लोक कहते हैं, इस लोक में भी मैं सदा आप ही के प्रकाश को पाऊं, आप ही के प्रकाश को देखूं ।, आप ही का प्रकाश मुझे मिले । इस प्रकार तीनों लोकों में सर्वत्र मुझे आप ही के प्रकाश के दर्शन हों , आप ही का प्रकाश मुझे दिखाई दे तथा आप ही के प्रकाश की ज्योति को प्राप्त करुं ।
हे प्रभु मैं सर्वत्र आप ही की महिमा के दर्शन करुं । पृथिवी लोक हो चाहे अन्तरिक्ष लोक हो अथवा द्युलोक हो , जहां भी जाऊं सर्वत्र अपनी महिमा के द्वारा आप ही आप दिखाई दें , आप ही की महिमा सर्वत्र कार्यरत ,सर्वत्र गतिमान , सर्वत्र कर्मशील दिखाई दे तथा उस महिमा को देख कर , उस महिमा के दर्शन कर मैं अपने आप को उज्जवल करुं , धन्य करुं ।
२. परमात्मा में जीवन सुभाषित
इस प्रकार जो लोग सब स्थानों पर उस पिता की महिमा को देखते हैं , इस प्रभु स्मरण करने वाले लोग , प्रभु स्तवन करने वाले लोग, प्रभु का कीर्तन करने वाले लोग , प्रभु की निकटता पाने वाले प्रभु भक्त लोग इस परमात्मा में ही अपने जीवन को सुभाषित करते हैं , सजा लेते हैं । इस प्रकार इसे प्रभु की स्तुति करते हुए , इस प्रभु की आराधना करे हुए , इसे प्रभु का कीर्तन करते हुए , इसे प्रभु की समीपता पाने का यत्न करते हुए , यह प्रभु भक्त अपने जीवन को प्रभु के अनुरुप बनाने का यत्न करते हैं , जो गुण प्रभु में हैं , वैसे गुण स्वयं में धारण करने का निर्णय करते हैं । यह लोग स्वयं को भी उस पिता के सामान बनाने का निर्णय लेकर वैसा ही बनने का प्रयास करते हैं । जब यह लोग एसा यत्न ,प्रयास करते हैं तो उनके जीवन में सुन्दरता निरंतर बढ़ने लगती है तथा वह निरंतर सुन्दर तथा और सुन्दर बनते चले जाते हैं ।
डा. अशोक आर्य
संस्कृत के बारे में ये 20 तथ्य
संस्कृत के बारे में ये 20 तथ्य जान कर आपको भारतीय होने पर गर्व होगा आज हम आपको संस्कृत के बारे में कुछ ऐसे तथ्य बता रहे हैं, जो किसी भी भारतीय का सर गर्व से ऊंचा कर देंगे .1. संस्कृत को सभी भाषाओं की जननी माना जाता है। 2. संस्कृत उत्तराखंड की आधिकारिक भाषा है। 3. अरब लोगो की दखलंदाजी से पहले संस्कृत भारत की राष्ट्रीय भाषा थी। 4. NASA के मुताबिक, संस्कृत धरती पर बोली जाने वाली सबसे स्पष्ट भाषा है। 5. संस्कृत में दुनिया की किसी भी भाषा से ज्यादा शब्द है वर्तमान में संस्कृत के शब्दकोष में 102 अरब 78 करोड़ 50 लाख शब्द है। 6. संस्कृत किसी भी विषय के लिए एक अद्भुत खजाना है। जैसे हाथी के लिए ही संस्कृत में 100 से ज्यादा शब्द है। 7. NASA के पास संस्कृत में ताड़पत्रो पर लिखी 60,000 पांडुलिपियां है जिन पर नासा रिसर्च कर रहा है। 8. फ़ोबर्स मैगज़ीन ने जुलाई,1987 में संस्कृत को Computer Software के लिए सबसे बेहतर भाषा माना था। 9. किसी और भाषा के मुकाबले संस्कृत में सबसे कम शब्दो में वाक्य पूरा हो जाता है। 10. संस्कृत दुनिया की अकेली ऐसी भाषा है जिसे बोलने में जीभ की सभी मांसपेशियो का इस्तेमाल होता है। 11. अमेरिकन हिंदु युनिवर्सिटी के अनुसार संस्कृत में बात करने वाला मनुष्य बीपी, मधुमेह, कोलेस्ट्रॉल आदि रोग से मुक्त हो जाएगा. संस्कृत में बात करने से मानव शरीरका तंत्रिका तंत्र सक्रिय रहता है जिससे कि व्यक्ति का शरीर सकारात्मक आवेश(PositiveCharges) के साथ सक्रिय हो जाता है। 12. संस्कृत स्पीच थेरेपी में भी मददगार है यह एकाग्रता को बढ़ाती है। 13. कर्नाटक के मुत्तुर गांव के लोग केवल संस्कृत में ही बात करते है। 14. सुधर्मा संस्कृत का पहला अखबार था, जो 1970 में शुरू हुआ था। आज भी इसका ऑनलाइन संस्करण उपलब्ध है। 15. जर्मनी में बड़ी संख्या में संस्कृतभाषियो की मांग है। जर्मनी की 14 यूनिवर्सिटीज़ में संस्कृत पढ़ाई जाती है। 16. नासा के वैज्ञानिकों के अनुसार जब वो अंतरिक्ष ट्रैवलर्स को मैसेज भेजते थे तोउनके वाक्य उलट हो जाते थे. इस वजह से मैसेज का अर्थ ही बदल जाता था. उन्होंले कई भाषाओं का प्रयोग किया लेकिन हर बार यही समस्या आई. आखिर में उन्होंने संस्कृत में मैसेज भेजा क्योंकि संस्कृत के वाक्य उल्टे हो जाने पर भी अपना अर्थ नही बदलते हैं। जैसे अहम् विद्यालयं गच्छति। विद्यालयं गच्छति अहम्। गच्छति अहम् विद्यालयं । उक्त तीनो के अर्थ में कोई अंतर नहीं है। 17. आपको जानकर हैरानी होगी कि Computer द्वारा गणित के सवालो को हल करने वाली विधि यानि Algorithms संस्कृत में बने है ना कि अंग्रेजी में। 18. नासा के वैज्ञानिको द्वारा बनाए जा रहे 6th और 7th जेनरेशन Super Computers संस्कृतभाषा पर आधारित होंगे जो 2034 तक बनकर तैयार हो जाएंगे। 19. संस्कृत सीखने से दिमाग तेज हो जाता है और याद करने की शक्ति बढ़ जाती है। इसलिए London और Ireland के कई स्कूलो में संस्कृत को Compulsory Subject बना दिया है। 20. इस समय दुनिया के 17 से ज्यादा देशो की कम से कम एक University में तकनीकी शिक्षा के कोर्सेस में संस्कृत पढ़ाई जाती है। संस्कृत के बारे में ये 20 तथ्य जान कर आपको भारतीय होने पर गर्व होगा।
वार्तालाप संवाद समाप्त |
प्रभु की कृति में उसे देखने वाले का मन विषयों से बचता है
प्रभु की कृति में उसे देखने वाले का मन विषयों से बचता है
डा. अशोक आर्य
ऋग्वेद के पंचम सूक्त में बताया गया था कि हम सोम को शरीर में सुरक्षित कर इशान बनें व सामूहिक रुप से प्रभु की प्रार्थना करें । इन सुरक्षित शरीरों ( जिन में हमारा शरीर , हमारा मन तथा हमारी बुद्धि भी सम्मिलित है ) को हम किन कार्यों में , किन कर्मों में लगावे , व्यस्त करें ? हमारी इस जिज्ञासा का , इस बात को जानने का जो यत्न है , इसका उतर इस मण्डल के सूक्त छ: में दिया है । अत; इसे जानने के लिए सूक्त छ: का स्वाध्याय हम इस छ्टे सूक्त के प्रथम मन्त्र से करते हैं । मन्त्र उपदेश करता है कि : –
युञ्जन्तिब्रध्नमरुषंचरन्तंपरितस्थुषः।
रोचन्तेरोचनादिवि॥ ऋ01.6.1
युन्जन्ति ब्रघ्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुष: ।
रोचन्ते रोचना दिवि ॥रिग्वेद १.६.१ ॥
इस मन्त्र में पाच बातों की और मानव का ध्यान आकर्षित करते हुए इस प्रकार उपदेश किया गया है कि :
१. सूर्य सम्बन्धी ज्ञान :
ऊपर इशान बनने के लिए प्रेरित किया गया है । इशान बनने के लिए , दूसरे शब्दों में इन्द्रियों को विभिन्न प्रकार की वासनाओं से , विषयों से रोकने के लिए अभ्यास करने वाले अपने मन आदि को ब्रध्न में अर्थात आदित्य व सूर्य में लगाते हैं क्योंकि यह ही ब्रध्न हैं । इस प्रकार जब यह अपने मन को सूर्य में लगाते हैं तो यह लोग सूर्य समबन्धी सब ज्ञान को पाने का यत्न करते हैं । सूर्य क्या है ?, इसकी क्या बनावट है ?, इसके क्या लाभ हैं ?, यह कैसे गति करता है ? आदि , इन सब बातों को जानने की यत्न करते हैं । इस प्रकार सूर्य सम्बन्धी सब ज्ञान को पाते हैं तथा यथावश्यक सूर्य से लाभ प्राप्त करते हैं ओर इस से मिलने वाले लाभों में प्रभु की महिमा उन्हें दिखाई देती है , वह उस महिमा को देखते हैं ।
२. अग्नि प्रभु के गुणों का दर्शन :
सूर्य का सम्बन्ध अग्नि से होता है । अत: यह अपना सम्बन्ध अग्नि से जोडने का यत्न करते हैं । अपने मन को अग्नि में लगाते हैं । अब यह अग्नि विज्ञान का भी विषद अध्ययन करते हैं । इस के रहस्यों को भली प्रकार समझ कर अपने मन को इस में लगाते हैं । अग्नि में लगा हुआ यह मन प्रसंगवश जो विष्य आ जाते हैं, उन सब से हमारा यह मन बचा रहता है । जब मन विषयों से दूर होकर अग्नि में लग जाता है तो यह मन अग्नि का ठीक प्रकार से , उत्तम विधि से प्रयोग करता हुआ यह अग्निविद्या – वित पुरुष होने से अग्नि में भी उस प्रभु के महात्म्य का , उस प्रभु की महिमा का , उस प्रभु के गुणों का दर्शन करता है ।
३. वायु में प्रभु की महिमा :
अग्नि के रहस्यों को समझ व उन्हें आत्मसात करने के पश्चात हमारा यह मन वायु को जानने का यत्न करता है । यह वायु विज्ञान के अन्तर्गत वायु के गुणों को भी समझने का प्रयास करता है । वायु के ज्ञान को पाने पर यह इस का जब सदुपयोग काता है तो इससे हमारे स्वास्थ्य को पुष्टि मिलती है । हम स्वस्थ व पुष्ट हो जाते हैं । एसी अवस्था में हमें वायु में भी उस प्रभु की महिमा दिखाई देने लगति है। हम वायु को भी देव स्वीकार कर लेते हैं ।
४. अधिष्ठान्भूत लोकों का ज्ञान :
वायु के रहस्यों को समझने तथा इन्हें आत्मसत करने के पश्चात यह मधुछ्न्दा रुपी जीव अपने मन को अनेक प्रकार के विषयों में फ़ंसने से बचाना चाह्ता है तथा इस हेतु वह इसे इन लोकों के ज्ञान की प्राप्ति में व्यस्त करता है , लगाता है । वह देखता है कि अग्निदेव का निवास पृथिवी पर होता है । जिसे वह वायु रुपि देव स्वीकार कर चुका है , उस देव का निवास अन्तरिक्ष में होता है तथा अग्नि का प्रतीक जिसे उसने सूर्य को स्वीकार किया है , उसका निवास द्युलोक में होता है ।
एक ज्ञानी व्यक्ति अपने मन को जहां अग्नि ,वायु तथा अग्नि के ज्ञान को पाने में लगाता है । इन सब के सम्बन्ध में विस्तार से जानकारी पाने का यत्न करता है वहां वह इन सब के अधिष्ठान्भूत लोकों का , उन लोकों का जो इन सब के अधिष्ठाता कहे जाते हैं , जिनके सहारे यह सब टिके हैं , उन सबका भी ज्ञान पाने का , उन्हें भी विस्तृत रुप से पाने का यत्न करता है । हम जानते हैं कि खाली मन शैतान का घर होता है । जब हमारा मन इन सब प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करने में लग जाता है तो इस मन के पास अन्य किसी ओर जाने का समय ही नहीं होता । जो व्यक्ति सदा कर्म में लगा रहता है , अपने आप को किसी न कीसी कार्य में व्यस्त रखता है , उसके सामने से हाथी भी निकल जावे तो उसे पता नहीं चलता । इस प्रकार के व्यस्त मन का ध्यान कभी विषय – विकारों की ओर जावेगा ,यह तो कोई सोच भी नहीं सकता । अत: एसा मन विषयों के दोष से बचा रहता है । कभी विषयों की ओर जाता ही नहीं ।
५. तारों में प्रभु की कांति : मन्त्र का अन्तिम भाग बता रहा है कि जब मन सब प्रकार से व्यस्त रहता है तथा इन सब के गू्ढ रह्स्यों का ज्ञान पाने का यत्न करता है , सदा इस ज्ञान पाने में व्यस्त रहता है तो यह इन देदिप्यमान नक्षत्रों में लगता है । यह सब नक्षत्र द्युलोक में सदा चमकते हुए दिखाई देते हैं । ये नक्षत्र आकाश को अच्छादित करते हैं , आकाश इन नक्षत्रों , इन तारों से भर जाता है । यह तारे भी तो उस प्रभू का ही स्तवन कर रहे हैं , उस प्रभु के ही गुणों का गायन कर रहे हैं । उसका ही कीर्तन करते से दिखाई देते हैं । तारों में भी प्रभु की कांति दिखाई देती है ।
इस प्रकार यह ज्ञानी मन , यह ज्ञानी पुरूष सदा ज्ञान को पाने का यत्न करता रहता है , ज्ञान प्राप्ति में व्यस्त रहता है । इस कार्य के लिए यह सूर्य , अग्नि, वायु , द्युलोक, पृथिवीलोक, अन्तरिक्ष लोक व नक्षत्रों आदि में भी प्रभु की महिमा को देखता है तथा इस महिमा को देखकर , उसकी इस महान कृति को देखकर वह उस पिता के आगे नत हो जाता है , अपना सिर उस पिता की इस कारागरी के आगे झुका लेता है , वह जान जाता है कि वह प्रभु कितना महान है । उसकी महानता के आगे वह नत हो जाता है । जहां वह प्रभु की इस कारागरी को समझने के कारण वह उसके आगे नत हो जाता है , वहां इस ज्ञान को पाने के निरन्तर यत्न से उसका ध्यान वासनाओं की ओर नहीं जा पाता । वासनाओं से बचे रहने के कारण वह इशन भी बना रहता है । कर्मशील का मन विषयों में जाने से बचा रहता है ।
डा. अशोक आर्य
छिपे हुए सच
छिपे हुए सच
“टिकट नहीं है साहब !” लोकल ट्रेन में पास ही बैठे उस लड़के की आवाज से वह सहसा अपने विचारों से उभर आया जिसमें वह अक्सर अपनी यात्रा में खो जाया करता था। उस लड़के ने अपनी बात कहने के साथ ही अपनी कलाई टिकट चेकर की ओर बढ़ा रखी थी जिस पर ‘गोल स्टैम्प’ लगी हुयी थी जो आमतौर पर जेल से रिहा होते समय बतौर पहचान लगा दी जाती है।
चेकर टिकट चेक करता हुआ आगे निकल गया और वह शख्स अब अनायास ही उस लड़के के बारे में जानने को उत्सुक हो उठा।
“क्या किया था बेटा ? जो ‘सजा’ हुयी थी तुम्हे !”
“कुछ नहीं, बस मंदिर से एक मुकुट चोरी का आरोप था।” वह धीरे से मुस्करया।
“क्यों किया था ऐसा ?
“मैंने नही, मेरे एक दोस्त ने चुराया था।”
“और वो दोस्त….!
“वो बच गया, मूर्ति मेरे पास थी।”
“ओह ! सच में क़ानून की आँखों पर पट्टी बंधी है।” उसने अफ़सोस जताया।
“नहीं साहब, उस पट्टी की ओट से बहुत कुछ देखा भी जाता है और झूठ-सच बेचा भी जाता है।” लड़के की बातों में बड़ो जैसी गंभीरता थी।
“मैं समझा नही, क्या कहना चाहते हो ?” उसने लड़के को कुरेदना चाहा।
“साहब ! मेरा दोस्त उसी मंदिर के पुजारी का बेटा है और उनकी सहमति से ही ये चोरी हुयी थी।”
“ओह ! सच में लोगों को अब कानून का डर नही रहा।”
“साहब, जिन्हें ईश्वर की खुली आँखों का डर नही वो कानून की बंद आँखों से क्या डरेंगे?” लड़का समझदारी की बात कह रहा था।
सही कहा बेटा ! पर तुम्हे तो इंसाफ नही मिला। व्यर्थ ही सजा काट आये।” उसने लड़के की ओर देख गहरी सांस ली।
“कोई बात नही साहब ! कभी कभी पर्दे के पीछे का सच भी दिखाई नही देता।” लड़का मुस्कराने लगा। “मुझे सजा काटने का कोई दुःख नही क्योंकि सौदे में मेरा हिस्सा तो मुझे पहले ही मिल गया था।
प्रभु सान्निध्य से प्रभु तुल्य दीप्त बनें
ओउम
प्रभु सान्निध्य से प्रभु तुल्य दीप्त बनें
डा. अशोक आर्य
प्रभु की निकटता पा लेने पर हमारा भय दूर होगा । सब प्रकार के धन एश्वर्यों के हम स्वामी बन जावेंगे । सब प्रकार का सुख – वैभव तथा अनन्द हमें मिलेगा तथा हम प्रभु के ही समान दीप्त हो जावेंगे । इस बात को यह मन्त्र इस प्रकार प्रकट कर रहा है : –
इन्द्रेणसंहिदृक्षसेसंजग्मानोअबिभ्युषा।
मन्दूसमानवर्चसा॥ ऋ01.6.7
यह मन्त्र चार बातों को इंगित करते हुए कहता है , उपदेश करता है कि :
१. प्रभु के समीप रह ऐश्वर्यों के स्वामी बनें
हे मानव निरन्तर प्रभु स्तवन कर , पिता का स्मरण कर , उसका कीर्तन कर तथा उसकी समीपता प्राप्त कर । तूं उस भय रहित , उस परम एशवर्यशाली प्रभु के मेल को प्राप्त होगा तथा उस की निकटता पाते हुए हे प्राणी तू ! निश्चय से ही उस की उपासना से ,. उस की निकटता से उन्नत होते हुए निरन्तर आगे ही बढता जाता है ।
हम जिस पिता के आराधक है , वह पिता सब प्रकार के भय से , सब प्रकार के डर से रहित होता है । जब हमारा पिता ही भयभीत नहीं होता तो उसके निकट रहने के कारण हमें भी किसी प्रकार का भय सता नहीं सकता । हम भी भय से रहित हो जाते हैं । वह तो भय के लवलेश से भी रहित होता है । उसे किंचित सा भय भी नहीं होता । वह पिता परमैश्वर्यशाली होता है , सब प्रकार के एश्वर्यों का स्वामी होता है । उसकी निकटता के कारण हम भी एश्वर्यों के स्वामी बनते हैं । यह सब उस प्रभु के समीप स्थान पाने से होता है , यह मेल उसकी उपासना का ही परिणाम होता है । जब हम उस पिता से मेल कर लेते हैं , उससे निकटता पा लेते हैं तो हम भी आगे बढने लगते हैं तथा उन्नत होने के अधिकारी बन जाते हैं ।
२. प्रभु के निकट रह भय मुक्त हों
यह एक स्वाभाविक नियम है कि जिस का साथी भय रहित होता है , उसके सान्निध्य के कारण वह भी सब प्रकार के डर से मुक्त हो जाता है । यह भी सत्य है कि जिसका मित्र सब प्रकार के एश्वर्यों का स्वामी होता है उस का यह साथी भी एश्वर्यों को प्राप्त करने में सशक्त हो जाता है । इस लिए हे प्राणी ! तूं उस प्रभु का सान्निध्य प्राप्त कर , उस प्रभु का गुणगान कर , उसकी उपासना ओर उसका कीर्तन कर ताकि तूं भी उस प्रभु के ही समान भय से मुक्त हो जावे तथा धन एशवर्य से सम्पन्न हो जावे ।
३. प्रभि गुणगान से आनंद प्राप्ति
हम जानते हैं कि निर्भय व्यक्ति सदा आनन्दित रहता है । जो आनन्दित रहता है , वह ही धन व एश्वर्य का स्वामी हो सकता है , अधिकारी हो सकता है , अन्य नहीं । हम यह भी जानते हैं कि हमारा वह पिता कभी भयभीत नहीं होता । वह तो है ही भय रहित । वह प्रभु सदा आनन्द मय ही रहता है क्योंकि वह भय से रहित है । वह परम पिता सदा आनन्द मय होता है इसलिए वह एश्वर्य से भरा रहता है । जब हम उस पिता के निकट जा कर उस का चिन्तन करते हैं तो हम भी भय से दूर हो जाते हैं , भय से रहित हो जाते हैं । भय रहित होने से हमारा जीवन भी आनन्द से भर जाता है तथा हम भी आनन्द से सम्पन्न हो कर अनेक प्रकार के धन एश्वर्यों को पाने में सक्षम हो जाते हैं , अनेक प्रकार के एश्वर्यों को पाकर सुखी हो जाते हैं । इस लिए सुख के अभिलाषी प्राणी को सदा प्रभु के समीप जा कर उस का गुणगान करना चाहिये ।
४. प्रभु स्तवन से दीप्ती
जब हम प्रभु की निकटता पाने में सफ़ल हो जाते हैं तो जिस प्रकार वह प्रभु दीप्ति से भर पूर दिखाई देता है , उस प्रकार हम भी दीप्त ही दिखाई देते हैं । प्रभु की आभा तथा हमारे मुख मण्ड्ल की आभा , चमक , दीप्ति एक समान ही दिखाई देती है । जिस प्रकार एक यज्ञकर्ता , एक होता , एक यज्ञमान , जब यज्ञ कर रहा होता है , अग्नि के सम्मुख बैठा होता है , उस समय उस की आभा , उसका मुख मण्डल भी अग्नि का सा ही हो जाता है । जैसा तेज अग्नि का होता है , यज्ञकर्ता भी वैसा ही दिखाई देता है । इस प्रकार अग्नि व उस अग्नि का उपासक दोनों ही समतुल्य दीप्ति वाले दिखाई देते हैं । इस प्रकार ही जब हम उस पिता के समीप आसन लगा लेते है तो हम भी उस पिता के से ही तेज वाले बन जाते हैं ।
यदि वेदान्त दर्शन की मानें तो हम इस प्रकार कह सकते हैं कि प्रभु का सान्निध्य पाने से , उसकी निकटता पाने से प्रभु के निकट जाने वाले प्राणी में भी वैसे ही गुण आने लगते हैं , जैसे उस प्रभु में होते हैं । इस प्रकार वह भी परमात्मा जैसा ही बन जाता है । बस अब प्रभु में ओर जीव में यह अन्तर ही रह जाता है कि प्रभु तो सृष्टि का निर्माण कर सकता है किन्तु जीव यह कार्य नहीं कर सकता क्योंकि सृष्टि के निर्माता होने के लिए उसका निराकार होना तथा सर्वशक्तिमान होना आवश्यक होता है , जो यह गुण है वह जीव कभी प्राप्त नहीं कर सकता । अन्य गुणों में वह प्रभु के बहुत निकट चला जाता है ।
डा. अशोक आर्य
प्रभु भक्त ज्ञान व दीप्ति बांट उषा वेला में उठता है़
प्रभु भक्त ज्ञान व दीप्ति बांट उषा वेला में उठता है़
डा. अशोक आर्य
जो प्राणी प्रभु भक्त होता है , वह अज्ञानियों में सदा ज्ञान बांटता है , जो प्रसाद व दीप्ति से रहित होते हैं , उन्हें यह दीप्ति पाने में सहायक होता है तथा एसा प्राणी सदा उष:काल में उठ जाता है । इस बात को यह मन्त्र इस प्रकार समझा रहा है : –
केतुंकृण्वन्नकेतवेपेशोमर्याअपेशसे।
समुषद्भिरजायथाः॥ ऋ01.6.3
केतुं क्रण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे ।
समुषद्भिर्जायथा: ॥ रिग्वेद १.६.३ ॥
इस मन्त्र में मुख्य रुप से तीन बातों पर प्रकाश डाला गया है , जो इस प्रकार है :-
१. ज्ञान का प्रसार ही जीवन का ध्येय
जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को अपने शरीर रुपि रथ में जोडता है अर्थात जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को कभी स्वाधीनता से विचरण नहीं करने देता बल्कि इस प्रकार अपने काबू में रखता है ,जिस प्रकार एक उत्तम सारथि अपने घोडों को अपने काबू में रखता है । इस प्रकार इन्द्रियों को बस में रखते हुए वह प्रभु भक्त प्रभु के चिन्तन भजन में लगा रहता है , प्रभु के स्मरण व कीर्तन में लगा रहता है । प्रभु को साक्षात करने का यत्न करता है , प्रभु दर्शन का प्रयास करता है । एसा व्यक्ति उन लोगों के लिए ज्ञान का प्रकाश करने वाला बनता है , जो ज्ञान से रहित होते हैं । भाव यह कि जो व्यक्ति किन्हीं कारणों से ज्ञान नहीं पा सकते , यह व्यक्ति उन्हें उत्तम ज्ञान देकर अपने समकक्ष बनाने का यत्न करता है । इस प्रकार यह ज्ञान का प्रसार ही वह अपने जीवन का उद्देश्य , अपने जीवन का ध्येय बना लेता है ।
२. लडाई झगडों को कम कर दीप्ति बढाना
यह प्रभु भक्त अपने साथ ही साथ अन्यों को भी दीप्त करने वाला होता है । हे मानव ! यह प्रभु भक्त सब को आत्मवत ही , अपने समान ही समझते हुए अपने जैसा ही बनाने का यत्न करता है । जो सफ़लताएं , जो प्राप्तियां इसने पाली होतीहै, उन्हें दूसरों को भी प्राप्त कराने का यत्न यह करता है । जो दीप्ति रहित होते हैं उन्हें दीप्त करने का यत्न करता है । एसे लोगों को वह स्वास्थ्य सम्बन्धी ज्ञान देता है ताकि उस ज्ञान पर चलते हुए वह भी उत्तम स्वास्थ्य पा कर स्वास्थ्य में दीप्त हो सकें । इतना ही नहीं वह उनमें एक दूसरे के साथ व्यवहार कैसा किया जाना चाहिये , इस को भी समझाता है । परस्पर के व्यवहार की विभिन्न विधियों का उन्हें शिक्षण देता है , उन्हें बताता है । एक दूसरे के साथ प्रेम पूर्वक व्यवहार करते हुए रहने का उपदेश देता है । इस प्रकार परस्पर प्रेम में वृद्धि करता है प्रेम की इस वृद्धि से तथा आपसी झगडों में कमी करवा कर, उनके लडाई झगडों को कम करवा कर उन में दीप्ति को बढाने का कारण बनता है ।
३. उष:काल में उठना
मन्त्र में जिस तीसरी बात पर प्रकाश डाला गया है वह है – एसा व्यक्ति सदा ही उष:काल में . ब्रह्म मुहूर्त मे , सूर्य की प्रथम किरण निकलने के साथ ही उठ खडा होता है , शैय्या को त्याग देता है । इस समय कभी भी सोया हुआ दिखाई नहीं देता । वह यह जानता है कि जो प्रात:काल जल्दी उठता है , प्रभु उस पर सदा आशीर्वादों की वर्षा करता है तथा जो सोया रह जाता है , एसे व्यक्ति के तेज को उदय हो रहा सूर्य हर लेता है । यह तेज हीन , तेज रहित हो जाते हैं । इसलिए प्रात:काल उष:काल में निश्चित ही वह उठ खड़ा होता है |
डा. अशोक आर्य
मानव की इन्द्रियां
ओउम
डा. अशोक आर्य
मानव की इन्द्रियां मानव को अनेक पतन से भरे मार्ग पर ले जाकर उस का जीवन ही नष्ट कर देती हैं । जो मानव इन को अपने बस मे कर लेता है , वह उतम सारथी की भान्ति अपने गन्तव्य पर पहुंचने में सफ़ल हो्ता है । इस सूक्त का यह मन्त्र इस प्रकार का ही उपदेश करते हुए कह रहा है कि :-
युञ्जन्त्यस्यकाम्याहरीविपक्षसारथे।
शोणाधृष्णूनृवाहसा॥ ऋ01.6.2
युन्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्शसा रथे ।
शोणा ध्रष्णू न्रवाहसा ॥रिग्वेद १.६.२ ॥
इस मन्त्र में छ: बातों पर उपदेश देते हुए कहा गया है कि: –
१. इन्द्रियों को अपने बस में रखो
जो व्यक्ति अपने मन को सूर्यादि , ईश्वर के बनाए हुए ज्ञान के स्रोतों की प्राप्ति पर अपना ध्यान केन्द्रित कर इन के विज्ञानों को समझने का प्रयास करते हैं , वह अपनी इन्द्रियों को बडी सरलता से अपने बस में करने वाले होते हैं , यह लोग इन्द्रियों पर इस प्रकार काबू कर लेते हैं , जिस प्रकार एक सफ़ल सारथी अपने रथ के घोडों को अपने वश में कर लेता है । एसे लोग ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय रुपी घोडों को अपने शरीर रुपी रथ में सजाते हैं , जो्डते हैं ।
उपर की पंक्तियों से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि मानव जीवन के दो महत्व पूर्ण अंग होते हैं :
क) ज्ञानेन्द्रियां :
ख) कर्मेन्द्रियां :
इन दोनों प्रकार की इन्द्रियों पर उतम पकड बनाए रखने वाला व्यक्ति ही अपने जीवन के उद्देश्यों को सफ़लता से प्राप्त कर सकता है । इन दोनों को वश में रखने के लिए उसे यत्न करना होता है , परिश्रम करना होता है , पुरुषार्थ करना होता है ,मेहनत करना होता है । ज्ञानेन्द्रियां उसे विश्व का सब ज्ञान देती हैं , उसे बताती हैं कि क्या तेरे हित में है तथा क्या नहीं ?, क्या करना है तथा क्या नहीं ? जब भले बुरे का ज्ञान होता है तो ही कर्म सक्रिय होकर इस पर कार्य कर इसे अपना बना पाता है किन्तु यह प्रप्ति होती उसको ही है जो निरन्तर पुरुषार्थ में लगा रहता है । जो आलसी बनकर खटिया में पडा रहता है , उसे कुछ प्राप्त नहीं होता बल्कि जो उसके पास है वह भी धीरे धीरे समाप्त हो जाता है , लुट जाता है । अत: एसे व्यक्ति अपनी इन्द्रिय रुपी घोडों को कभी भी चरने के लिए खुला नहीं छोडते इन्हें सदा ही कर्म में लगाए रखते हैं , कर्म में व्यस्त रखते हैं । अत: इन्द्रियां कभी भी विषयों में ही चरती रहें , विचरण करती रहें , एसा सम्भव नहीं हो पाता ।
२. प्रभु में विचरण करने के लिए इन्द्रियों को काबू में कर
जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों पर काबू रखते हैं , अंकुश लगाए रखते है , उनकी यह इन्द्रियां सदा प्रभु में ही विचरण करती हैं , प्रभु के बताए मार्ग पर ही चलती हैं तथा उसके इंगित पर ही कार्य करती हैं ,कर्म करती हैं । मानव का अन्तिम लक्षय उस परम पिता की प्राप्ति ही होता है तथा उसकी यह इन्द्रियां उसे यह लक्षय पाने मे सफ़ल करती है किन्तु केवल तब जब उनकी लगाम को मजबूती से पकड रखा हो । अन्यथा यह उसे भटका देती हैं । अत: प्रभु में विचरण करने के लिए इन्द्रियों को काबू में कर आगे बटना होता है ।
३. उद्देश्यशील की इन्द्रियां गन्तव्य पावें
मानव के यह इन्द्रियरुप घोडे विशिष्ट परिग्रह से युक्त होते हैं । यह एक निश्चित तथा निर्धारित लक्षय को , ध्येय को लेकर चलते है , आगे बढते हैं तथा तब तक चलते चले जाते हैं , जब तक की गन्तव्य को प्राप्त नहीं कर लेते । जब एक लक्षय निश्चित है तो मार्ग भटकने का इन्द्रियों को दूसरी ओर लगाने का तो इन के पास समय ही नहीं होता । सीधी स्पाट सडक पर जाना होता है ,मार्ग मे कहीं मुडना नहीं होता , इस कारण मार्ग कैसे भटक जावेंगे , एसा तो उसके लिए सम्भव ही नहीं होता । अत: एक निर्धारित उद्देश्य को लेकर चलने वाली यह इन्द्रियां गन्तव्य पर जाकर ही सांस लेती है तथा निश्चित रुप से इसे पा लेती हैं ।
४. तेजस्विता ललाट में दिखाई दे
इनका उद्देश्य एक विशिष्ट उद्देश्य होता है । पूर्व निर्धारित उद्देश्य को इन इन्द्रियों ने प्राप्त करना होता है । इस निर्धारित उद्देश्य के कारण ये तेजस्वी होकर तीव्र गति से चल कर इसे पाने के लिए पुरुषार्थ करती हैं , प्रयास करती हैं । तेजस्वी हो कर कार्य मे लग जाती हैं । इन का रक्त वर्ण यह स्पष्ट कर रहा होता है कि यह तेजस्वी है , यह कर्मशील हैं , यह अपने निर्धारित गन्तव्य को पाने के लिए यत्नशील हैं । इसकी ही आभा , इसकी ही तेजस्विता उनके ललाट में दिखाई देती है ।
५. तेजस्विता ललाट में दिखाई दे
जब एक निर्धारित लक्षय होता है तो मार्ग की बाधाएं इनके मार्ग को रोक नहीं पातीं । इनमें इतनी शक्ति आ जाती है कि मार्ग के सब शत्रुओं को , मार्ग की सब बाधाओं को यह बडी सरलता से नष्ट कर दे्ती हैं । किसी प्रकार का विघ्न , किसी प्रकार की मार्ग की बाधा तथा किसी प्रकार का मार्ग का शत्रु इसके सामने आते ही नष्ट हो जाते है , मारे जाते है ,दूर हो जाते हैं । इस प्रकार यह सदा प्रगति की ओर , उन्नति की ओर अपने उद्देश्य प्रप्ति की ओर निरन्तर तेजस्विता उनके ललाट में दिखाई दे जाते हैं ।
६. इन्द्रियां मानव की अनुगामी हों
इस प्रकार वश में की गई इन्द्रियां जब एक निश्चित लक्षय को पाने के लिए अपने आगे चलने वाले मानव की अनुगामी होती हैं तो वह निरन्तर उसे आगे तथा आगे ही ले जाते हुए ,उसे लक्षय तक ले जाती है । यह बडी सफ़लता से उसे लक्षय तक ले जाने वाली होती हैं । जब मानव में अग्रगति की , आगे बढने की , सफ़लता पाने की , विजयी होने की भावना है तो फ़िर उसकी इन्द्रियां भी उसके पीछे चलने वाली होती हैं । एसे मानव की इन्द्रियां विषयों में भटक ही नहीं सकतीं बल्कि निरन्तर उसके पीछे चलते हुए आगे की ओर बढती ही चली जाती हैं । अन्त में उसे सफ़लता दिलाने वाली बनती हैं ।
डा. अशोक आर्य
समय पूर्व मृत्यु
समय पूर्व मृत्यु
?
डा.अशोक आर्य
समय पूर्व मृत्यु
?
डा.अशोक आर्य
नाम पुस्तक : समय पूर्व मृत्यु ?
लेखक : डा. अशोक आर्य वैदिक प्रवक्ता
१०४ शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी २०१०१० गाजियाबाद
चलभाष ०९७१८५२८०६८ (mobile 09718528068 )
प्रथम संस्करण वर्ष २०१७
सर्वाधिकार लेखक के आधीन
मूल्य : ३०.०० रुपये
मूल्य : सैंकड़ा २००० .०० रूपये ( डाक व्यय अतिरिक्त )
– प्रकाशक –
समय पूर्व मृत्यु
?
लेखक के दो शब्द
आदि ज्ञान
वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है | इस ज्ञान का प्रकाश परमपिता परमात्मा ने प्राणी मात्र के कल्याण के लिए सृष्टि के आरम्भिक महा ज्ञानी ,बुद्धिमान विचारक चार ऋषियों के मनों में संहिता के रूप में प्रकट किया | इन ऋषियों के नाम थे अग्नि , आदित्य अंगीरा और वायु | इन चार ऋषियों ने इस ज्ञान को मौखिक रूप से अन्य लोगों को दिया , इस लिए इसे श्रुति कहा गया | सृष्टि के आरम्भिक मानव होने के कारण इन की बुद्धि अत्यधिक तीव्र थी , इस लिए इस ज्ञान को मौखिक रूप से सुन कर ही उस समय के मानव को सब क्षण भंगुर में ही स्मरण हो जाता था | इसलिए इस के लेखन की आवश्यकता उस काल में कभी अनुभव नहीं हुई |
कल्याण का मार्ग
परमपिता परमात्मा का दिया हुआ आदि ज्ञान होने के कारण उस समय के प्राणी ने अपने कल्याण के लिए इस का खूब प्रयोग किया, लाभ उठाया | इस ज्ञान
४
के आधार पर ही अपना जीवन चलाया | इस सब का ही परिणाम था कि उस काल का मानव सब प्रकार से धर्मात्मा , सत्यवक्ता, दूसरों का सहायक थातथा किसी प्रकार का छल कपट उसके ह्रदय में नहीं था | इस कारण उस समय के लोग सब दूसरों को अपने जैसा ही मानते थे तथा जो सुख , सुविधाएं स्वयं को चाहियें , वह सब सुख सुविधायें अन्यों को देने व दिलाने में सहयोग करते थे | परिनाम स्वरूप यह जगत एक परिवार के सामान बना हुआ था |
जहाँ सब एक दुसरे के सहयोगी हों , जहाँ सब दूसरों को सुखी देखने वाले हों , वहां निश्चित रूप से ही स्वर्गिक आनंद होता है और कुछ इस प्रकार की ही अवस्था थी उस समय के समाज की | इस कारण उस समय के समाज को स्वर्ग कहा जाता था | यह सर्वकल्याण की भावना से कार्य करने के कारण कल्याण कारक था | सब लोग सुखी रहते हुए नित्य नए आविष्कार करते हुए समाज को निरंतर आगे बढ़ा रहे थे |
बुद्धि का क्षय
समय बितता गया | धीरे धीरे मानव में स्वार्थ के भाव जागृत होने लगे | इस स्वार्थ भाव के कारण छल , कपट , कलह, क्लेश , लड़ाई झगड़ा आदि होने लगा और इस कारण बुद्धि का भी ह्रास होने लगा तथा जन संख्या में भी धीरे धीरे वृद्धि होने लगी थी | इस सब के कारण अब लोग ज्ञान को विस्मृत होने लगे थे | इस लिए इस के लिखित स्वरूप कि आवश्यकता अनुभव हुई | परिणाम स्वरूप वेद का यह ईश्वरीय ज्ञान पुस्तक रूप में हमारे हाथों में आया |
५
आशा की किरण
समय बीतता गया | समय के बितने के साथ ही साथ मानव की सोच में भी परिवर्तन आने लगा | अब मानव में स्वार्थ अत्यधिक घर कर गया | परिणाम यह हुआ कि मानव वेद के इस सत्य , वेद के इस कल्याणकारी मार्ग से हटकर भौतिक सुख सुविधाओं को ही अपना सब कुछ समझने लगा | इस सब का ही परिणाम यह हुआ कि मानव अनेक समुदायों में बंट गया तथा यह समुदाय अपने अपने मन से अपने अपने नियम बनाने लगे | इस प्रकार वेद ज्ञान से दूर होने लगे तथा अपने मन माने नियम बनाने लगे | के स्थान पर बहुत से गुरु आ गए और नित्य आ रहे हैं | अत: अब वेद का स्थान गुरुडम ने लिया तथा इन गुरुओं के उपदेश ही इन लोगों के धर्म ग्रन्थ बन गए | इस प्रकार ईश्वरीय ज्ञान वेद को आधुनिक लोग भूल गए | इस का यह परिणाम हुआ कि हमारा यह समाज प्राणिमात्र के लिए कल्याणकरी ज्ञान वेद से दूर होता चला गया तथा रुढियों . अन्ध विशवास आदि अनेक कुरीतियों ने यहाँ अपना आधिपत्य जमा लिया | इन कुरीतियों के कारण आपसी झगड़े बढ़ते चले गए और शनै: शनै: मानव मृत्यु की और बढ़ने लगा |
वेदोद्धार का कार्य
स्वामी दयानंद सरस्वती ने समाज का जब नाडी परीक्षण किया तो उनहोंने पाया कि वेद को भूलने के कारण समाज में संकट निरंतर बढ़ रहा है | इस विश्व के लोग अनेक समुदायों में , अनेक देशों में तथा अनेक मत पंथों में बंट कर लड़ाई झगड़े करते हुए अनेक प्रकार कि कुरीतियों के गुलाम बन चुके हैं | इन सब से मुक्ति का एक ही मार्ग है वेद की ओर लौटना | अत: स्वामी जी ने समग्र विश्व को
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वेद कि और लोट कर वेद की शिक्षाओं के अनुसार अपने जीवन को चलाने का उपदेश दिया | जिस मानव ने स्वामी जी के इस आह्वान को स्वीकार किया , उसने वेद के उपदेशों को अपने जीवन में लाने का प्रयास किया | इस प्रयास में वह जितना सफल हुआ , उस सीमा तक वह सुखी हो गया | जब उसे वेद के ज्ञान के अनुसार अपना जीवन चलाने से सुख का आभास हो गया तो उसने वेद को ही अपने जीवन का आवश्यक अंग बनाने का प्रयास आरम्भ कर दिया | इससे उसके तथा उसके परिवार में सुखों की वर्षा होने लगी | इस प्रकार स्वामी दयानंद जी के आह्वान से वेद का ज्ञान पुन: इस जगत में लौटने लगा |
मेरा विचार
मेरा यह सोचना है कि स्वामी जी ने जो विचार वेद प्रचार का प्राणी मात्र के कल्याण के लिए आर्य समाज को दिया , आज एक मात्र वह विचार ही प्राणी मात्र का कल्याण कर रहा है | इस विचार के विस्तार के लिए वेद का स्वाध्याय , वेद का पढ़ना पढ़ाना तथा वेद के अनुसार अपने जीवन को बनाना आज की एक महती आवश्यकता है | इस सब को मध्यदृष्टि रखते हुए विगत कुछ वर्षों से मैंने प्रतिदिन वेद के एक मन्त्र की विशद व्याख्या ( प्राप्त भाष्यों की सहायता से ) का एक क्रम आरम्भ किया था | मैंने प्रतिदिन एक मन्त्र कि व्याख्या करते हुए , इस व्याख्यात्मक लेख को फेसबुक पर डालना आरम्भ किया तथा इसे आर्य जगत से सम्बंधित विभिन्न पत्र पत्रिकाओं को भेजना भी आरम्भ किया | फेसबुक के उपयोग कर्ताओं तथा पत्रिकाओं के पाठकों ने इसे पसंद करते हुए मुझे भरपूर प्रोत्साहन दिया | उन सबके दिए प्रोत्साहन के परिणाम स्वरूप ही आज मैंने इसे एक पुस्तक के रूप में लाने का विचार किया और समय पूर्व मृत्यु ? नामक यह पुस्तक आपके हाथों में देते हुए अपार
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प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ |
उत्तम व्याख्याता बनें
वेद मन्र् तथा इनकी व्याख्या आर्य समाज की वेदी सहित अन्यत्र कहीं भी व्याख्यान में प्रयोग किये जा सकते हैं | इस प्रकार के व्याख्यानों का आज के मानव , इसे कंठस्थ कर किसी भी सत्संग में व्याख्यान के रूप में लोगों को दें अथवा इसे सत्संग में पढ़ कर सुनाएं तो आप के साथ ही साथ न केवल अन्य लोग ही लाभान्वित होंगी अपितु इससे एक उतम व्याख्याता के रूप में आप कि ख्याति भी दूर दूर तक जावेगी | मुझे प्रसन्नता होगी यदि आप इससे कुछ भी लाभ उठाने में सफल हो सकें |
आभार
मेरे इस प्रयास पूर्ण लेखन का पाठकों को अत्यधिक लाभ होगा, एसा मेरा मानना है | यदि इसके पाठन से कुछ पाठक अपना जीवन सुधार पाए और मृत्यु पर विजय पाने में सफल हुए तो मैं अपने लेखन के इस प्रयास को सफल समझुंगा |
इस के लेखन में जो कुछ भी लाभकारी तथा हितकारी है , वह सब परमपिता परमात्मा का दिया है तथा जो कुछ भी त्रुटियाँ हैं , उनके लिए मैं स्वयं उतरदायी हूँ | आप मेरी त्रुटियों से मुझे अवगत करेंगे ताकि मैं उन पर विचार कर , यदि वह ग्राह्य हुईं तो आगामी संस्करण में उन्हें दूर कर सकूंगा |
अंत में मैं उन सब वेद भाष्यकारों का आभारी हूँ , जिनके वेद भाष्यों से मुझे इस पुस्तक को तैयार करने में सहायता मिली | इस पुस्तक के मुद्रक ,प्रकाशक , मशीन चालक तथा जिल्दबंदी कर उतम कलेवर में इस पुस्तक को परोसने वाले सब
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महानुभावों का मैं ह्रदय से आभारी हूँ , जिनके अथक तप से यह पुस्तक आप के हाथों तक आ पाई | आप का सहयोग इसी प्रकार बना रहा तो इस प्रकार की ही और पुस्तकें भी आप को दे सकूंगा |
इस के साथ ही मैं पुन: परमपिता परमात्मा का आभार प्रकट करता हूँ , जिनकी प्रेरणा ही मेरी इस कृति का स्रोत बनी है | आप सब पाठकों तथा उन सब का , जिनका प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में इस पुस्तक के लेखन व प्रकाशन में मुझे किसी प्रकार का भी सहयोग मिला है , ह्रदय से आभारी हूँ |
कौशाम्बी , गाजियाबाद डा. अशोक आर्य वैदिक प्रवक्ता
दिनांक १ दिसंबर २०१६ १०४ शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी २०१०१० गाजियाबाद
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