Category Archives: Ashok Arya

हम उत्तम सन्तानों वाले तथा वीर बनें

औ३म
हम उत्तम सन्तानों वाले तथा वीर बनें
हम सब मिलकर पर्मपिता के उपासक बने , उस पिता के समीप आसन लगावें , उस के निकट बैथें । हम अपने कर्म से कुछ प्राप्त कर उसका उपभोग करं , किसी आश्रित न हों , किसी पर बोझ न बनें । अपने घरों में भी दरिद्रता न आने देम , द्रिद्रता से र्हित हो तथा इस प्रकार हम उत्तम सन्तान्को प्राप्त करें । इस घर मेम हम वीरता से युक्त होकर निवास करें । इस तथ्य को रिग्वेद के इस सप्तम मण्डल के प्रथम सूक्त में आये एकादश मन्त्र में इस प्रकार उप्देश किया गया है : –
मा शूने अग्ने नि शदाम न्रिणां माशेश्सो॓वीरता परित्वा ।
प्रजावतीशु सुर्यमु दुर्य ॥ रिग्वेद ७.१.११ ॥
हे प्रभि ! आप की उपासना करते हुये हम चाह्ते हैं कि हम सद अपने निवास पर हि आ कर विश्राम करें, अपने घर मेही रहें, अन्य लोगों के घर पर हीन बैथे रहें । जिन घरों में धन क अभाव हो , जो घर शून्य कि स्थिति में हों , जिन घरों में आर्थिक अभाव हो, एसे घरों मेम हम निवास न करें । धन वैभव की हमें कमीं न हो । हम अभाव से टूटे हुये होकर दूसरों के घरों में ही न बैथे रहेण, दूसरों पर बोझ हीन बने रहेण । हमार निवास शून्य स्से भरे घरों में , जिन्घरों में धनाभाव हो, एसे घरों मं कभी भी न हो । जो हमारे सम्पन्न घर हैं , उनमें भी हम भर पूर परिवार सहित हों , उत्तम सन्तान सहित हों । सन्तान्क हमें अभाव न हो । इतना ही नहिं अपने घरों में उत्तम सन्तान के साथ ही साथ हम वीरता से युक्त हों, भर्पूर वीरता के स्वामी हों । हमारी वीरता में कभी कमीं न आव्द ।
हमारे घरों के रक्शक हे पिता ! हम सदा आप के निकट बैथ्ने वाले हों, आप की उपासना करने वाले हों , आप की सदा स्तुति पूर्वक प्राथना करते हुये आप ही के निकत बैथें । इस प्रकार आप के पास रहते हुये भी हम उत्तम व वॊर सन्तानों वाले हों ।

हमारा घर दतक सन्तान से भी सदा व्रिद्धि को ही बधे
हम प्रशतेन्द्रिय होकर ही उस पिता की अपने घर में उपासना करें , उस पिता के पास बैथें । हमारे घर उत्तम सन्तान से युक्त हों यदि किन्ही कारण से हमें दतक सन्तान लेनी पडती है तो भी हम व्रिद्धि को उन्नति को ही प्राप्त हों । इस बात को इस मन्त्र मे इस प्रकर प्रकाशित किया गया है : –
यमश्वी नित्यमुपयाति यग्यं प्रजावन्तं स्वपत्यं क्शैये न: ।
स्वजन्मना शेशसा वाव्रिधानम ॥ रिग्वेद ७.१.१२ ॥
हे प्रभो ! हम प्रतिदिन प्रात: सायं प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाला पुरुश आप की उपासना के लिये आप के चरणों में उपस्थित होते हैं । इस लिये हे प्रभु ! आप हमें एसा ग्रह दें, जो उत्तम प्रकार के पुरूशों से भरा हो, उत्तम सन्तानों से भरा हो । इस का भाव यह है कि इस घर में जो बडे लोग अर्थात माता पिता आदि निवास करते हैं ,वह उत्तम जीवन मूल्यों से भरपूर हो , उत्तम मार्ग पर चलने वाले तथा उत्तम कार्य करने वाले हों । इतना ही नहीं इस प्रकार के मुखिया से युक्त इस घर की सन्तानें भी उत्तम ही हों ।
यहां प्रभु से इस मन्त्र के माध्यम से यह भी प्रार्थना की गयी है कि हमें जो घर प्राप्त हो , वह घर अपने से उत्पन्न सन्तानों से उन्नति पावे तथा ऒरस सन्तानों से भी व्रिद्धि को , उन्नति को, सफ़लताओं को प्राप्त करे ।

शुभ धन एश्वर्य की प्राप्ति जागृत को ही होती है

शुभ धन एश्वर्य की प्राप्ति जागृत को ही होती है

डा. अशोक आर्य
आज का मनुष्य जीवन में अतुल धन सम्पति की अभिलाषा रखता है | धन सम्पति की अभिलाषा ने उसका जीवन क्रम ही बादल दिया है | इस जीवन क्रम के परिवर्तन के साथ ही उसकी आवश्यकताएं भी निरंतर बढती व बदलती ही चली जा रही हैं | एक सामूहिक परिवार में जहाँ एक रसोई में केवल एक चाक़ू होता था ,वहां आज परिवारों के विभाजन के पश्चात भी एक रसोई में कम से कम बीस प्रकार के तो केवल चाक़ू ही हो गए हैं | एक छीलने वाला, एक काटने वाला , एक डबल रीती पर जैम लगाने वाला ………. इस प्रकार जहाँ केवल चाकुओं की ही इतनी संख्या बढ़ गयी है, वहां शेष सामग्री की गणना करें तो आज एक छोटे से परिवार के पास आकूत सामग्री की आवश्यकता हो गयी है | आवश्यकता की क्या कहें आज तो अनावश्यक सामग्री पर धन पानी की भाँती बहाया जा रहा है | इसी सामग्री की एक प्रतिस्पर्धा सी चल रही है | एक के पास एक कपडे धोने की मशीन है तो उसके पडौसी का प्रयास होता है कि वह ऐसी मशीन लावे, जिस में कपडे सूख भी जावे ताकि वह पडौसी को पीछे छोड़ सके | इस अवस्था में अन्य पडौसी चाहता है कि वह उसे भी पीछे छोड़ कर ऐसी मशीन लावे जो न केवल कपड़ों की धुलाई व सुखाने का कार्य करे अपितु प्रैस भी कर देवे | इस अंधी दौड़ ने धन की आवश्यकता को ओर भी बढ़ा दिया है | धन की इस अंधी दौड़ ने परिवार , पास – पडौस व रिश्तों को भी भुला दिया है | आज का मानव साम ,दाम , दंड , भेद का प्रयोग केवल धन प्राप्ति में ही करना चाहता है | धन की इस अंधी दौड़ के कारण संसार में आपसी लडाई, झगडा, कलह क्लेश में निरंतर वृद्धि हो रही है | इस से बचने का एकमेव उपाय है पवित्र धन | यदि हम ऋग्वेद व साम वेद में वर्णित विधि से शुद्ध धन को अपने उपभोग के लिए एकत्र करेंगे तो हम निश्चय ही शांत व सुखी जीवन व्यतीत कर सकेंगे | आओ हम वेद की इस भावना का अध्ययन करें | वेद मन्त्र का मूल पाठ इस प्रकार है : –
अगिर्जागार तमृच: कामयन्ते , अग्निर्जागार समु सामानी यन्ति |
अग्निर्जागार तमयं सोम आह, तवाह्मस्मी सख्ये न्योका: || ऋग्वेद ५.४४.१५ सामवेद १८२७ ||
वेद की ऋचाएं ऐसे व्यक्ति को ही पसंद करती हैं जो जागृत अवस्था में है | अग्नि जागता है तो उसके पास सामवेद कि रचाएं आती हैं | इस जागृत अग्नि को ही सोम कहता है कि मैं तेरी मित्रता में प्रसन्नचित व सुखपूर्वक निवास करूँ |
मन्त्र तथा इसके भावार्थ से एक बात स्पष्ट होती है कि वह सोम रूप परमात्मा उसके साथ ही सम्बन्ध रखना चाहता है , जो सदा जागृत रहता है | जो दिन में भी सोया रहता है , उसका कोई साथी नहीं बनना चाहता | इस का कारण भी है | जो दिन में सोया रहता है अर्थात जो पुरुषार्थ से भागता है , मेहनत से भागता है, वह कभी धन एश्वर्य नहीं पा सकता | जिसके पासा धन एश्वर्य नहीं है ,उसके मित्र कभी प्रसन्न व सुखी नहीं रह सकते | इस कारण उसकी मित्र मंडली बन ही नहीं पाती | आज के युग में तो मित्र होते ही धन के स्वामी के हैं , गरीब को कौन चाहता है ? हितोपदेश्ब में भी यही बात बतायी गयी है कि :-
उद्योगिनं पुरुशासिन्हामुपैती लक्ष्मी: | हितोपदेशे प्रस्ता.३१
इसका भाव है कि संसार में वही सफल होता है, वही उन्नत होता है, वही आगे बढ़ता है, जो उद्योग करता है, जो पुरुषार्थ करता है | पुरुषार्थ ही सुखी जीवन का आधार है | जो पुरुषार्थी नहीं उसके पास धन नहीं , जिस के पास धन नहीं उसके पास मित्र नहीं , यह बात भी संस्कृत के शलोक में स्पष्ट कही गयी है :-
आलसस्य कुतो विद्या , अविदस्य कुतो धनं |
अधनस्य कुतो मित्रं अमित्रस्य कुतो सुखं ||
श्लोक से स्पष्ट है कि आलसी कभी अच्छी विद्या नहीं पा सकता | विद्या के बिना शुद्ध धन कि प्राप्ति नहीं होती , जिसके पास धन नहीं, उसके मित्र भी नहीं बनते तथा जिस के सुख़- दु:ख में साथ देने के लिए मित्र ही नहीं हैं, वह सुखी कैसे रह सकता है ? अर्थात वह सुखी कभी नहीं हो सकता | इस लिए हे मनुष्य ,उठ ! पुरुषार्थ कर तथा आकूत धन कमा | शुद्ध धन ही तुझे सच्चा सुख़ देगा | इस तथ्य का रामचरित मानस में भी बड़े ही सुन्दर शब्दों में इस प्रकार बताया गया है :-
सकल पदार्थ हैं जग माहीं ,
करमहीन नर पावत नाहीं | रामचरित मानस
रामचरित मानस भी तो यही ही क ह रही है कि धन ऐश्वर्यों का स्वामी वही व्यक्ति बन सकता है , जो कर्म करता है | बिना कर्म के, बिना पुरुषार्थ के कोई धन ऐश्वर्यों का स्वामी नहीं बन सकता | यहाँ भी कर्म करने, मेहनत करने , पुरुषार्थ करने पर बल दिया गया है | बिना मेहनत के हम कुछ भी नहीं पा सकते | यहाँ तक कि भोजन सामने पड़ा है, जब तक पुरुषार्थ कर हम उसे अपने मुंह में नहीं रख लेते तब तक हम उस भोजन से तृप्त नहीं हो सकते |
हम जानते हैं कि मनुष्य उस परम प्रभु की सन्तान है | जिस परमात्मा की यह मानव सन्तान है, वह परमात्मा संसार के समस्त धन ऐश्वर्यों का स्वामी है , मालिक है, अधिपति है | इस आधार पर यह मानव उत्तराधिकार नियम के आधीन अपने पिता कि सर्व सम्पति को पाने का अधिकारी है | मानव केवल उतराधिकार के नियम के अधिकार को ही न समझे अपितु इस अधिकार के साथ उसका कुछ कर्तव्य भी जुड़ा है , उसे भी समझे | जब तक वह अपने कर्तव्य को नहीं समझता, तब तक उतराधिकार से प्राप्त इस सम्पति से उसका कुछ भी कल्याण नहीं होने वाला क्योंकि वह पुरुषार्थ से यदि इस सम्पति को नहीं बढाता, उस की यथोचित सुरक्षा नहीं करता तो कुछ ही समय में वह पुन: सम्पति विहीन हो जावेगा | इसलिए सम्पति देते हुए प्रभु ने मनुष्य को यह भी उपदेश दिया है कि यदि तूं ठीक ढंग से इस सम्पति का रक्षक बनेगा तथा इसे बढ़ाने के लिए परिश्रम करेगा तो तेरा व तेरे परिवार का जीवन सुखी होगा, यदि तू एसा पुरुषार्थ नहीं करेगा तो यह अतुल धन तेरे पास बहुत समय तक रहने वाला नहीं |
मन्त्र के इस भाव से जो एक तथ्य उभर कर सामने आता है वह है की मनुष्य जन्म के साथ ही अपार धन एश्वर्य का स्वामी बन जाता है | उस परमपिता परमात्मा ने जन्म के साथ ही उसे जो धन दिया है , उसकी व्रद्धि करना इस मनुष्य का परम कर्तव्य भी है | इस सम्पति को वह कैसे सुरक्षित रखे, इस का भी उपाय इस वेद मन्त्र में दिया है | मन्त्र कहता है की इस सम्पति को सुरक्षित रखने के लिए उसे शद्ध वृतियों को अपनाना होगा, क्योंकि शुभ वृतियां धन को सुरक्षित रखती हैं तथा अशुभ वृतियां इस का नाश भी कर देती हैं | हम प्रतिदिन देखते भी हैं की जिस मनुष्य के पास उतराधिकार में कुछ सम्पति है, वह शुभ वृतियों में रहते हुए उस धन की रक्षा करने में सक्षम होता है तथा पुरुषार्थ से इसे बढाने में भी सफल होता है किन्तु धन पा कर जो व्यक्ति अभिमानी हो जाता है, इस धन से किसी की सहायता नहीं करता तथा रक्षक के स्थान पर भक्षक बनाकर बुरी वृतियों में लिप्त हो जाता है, मांस शराब का सेवन, वैश्या गमन आदि दुराचारों में फंस जाता है तो न केवल उसके परिवार में कलह बढती है अपितु कुछ ही समय में धन उसका साथ छोड़ जाता है | इस लिए ही तो मन्त्र कहता है की हे मानुष ! तुझे जो आकूत धन दिया है तू उस की रक्षा करते हुए उसे बढाने के भी उपाय कर, पुरुषार्थ कर |
अत: इश्वर की इस दी सम्पति को, धन , को बचाए रखने के लिए तथा इसे बढ़ाने के लिए हमें अपने में शभ वृतियों को, अच्छी आदतों को बढ़ाना होगा , जितने भी शुभ विचार हैं , उन्हें अपने जीवन में धारण करना होगा | शुभ विचार, सत्य कर्म तथा शुभ वृतियां जहाँ हैं वहां ही लक्ष्मी अर्थात धन एश्वर्य का निवास है | पापाचरण, कुमार्ग गमन,मद्य मांस सेवन आदि अशुभ वृतियां लक्ष्मी अर्थात धन एश्वर्य के नाश का कारण होती हैं | यही कारण है की वेद हमें आदेश देता है कि हे मनुष्य ! अपने जीवन में पाप वृतियों को प्रवेश न करने देना शुभ वृतिओं को खूब फलने फूलने का अवसर देना | यदि तू अपने जीवन में एसा करेगा तो तू इश्वर से प्राप्त आकूत धन एश्वर्य से सुखी जीवन व्यतीत करेगा तथा तेरा परिवार व तुझ पर आश्रित लोग भी सुखी रहेंगे | यह धन सम्पदा पूर्णत: सुरक्षित रहेगी तथा यह निरंतर बढती ही चली जावेगी, जिससे तेरे सुख़ भी बढ़ते ही जावेंगे | यदि तू एसा नहीं कर इस के उलट पापाचरण की और बढेगा तो धीरे धीरे तू इस सम्पति से वंचित हो दु:खों के सागर में डूब जावेगा | अत: उठ शुभ विचारों को अपना, शुभ आचरण कर तथा इश्वर से प्राप्त इस सम्पति की वृद्धि के उपाय कर सुख़ का मार्ग पकड़ |

डा. अशोक आर्य,

प्रभु उपासक को पोषण को,यशस्वी बनाने को तथा वीरता बटाने वाला धन मिलता है

औ३म
प्रभु उपासक को पोषण को,यशस्वी बनाने को तथा  वीरता बटाने वाला धन मिलता है

डा अशोक आर्य
जो मानव परमपिता के समीप बैट कर उस प्रभु का स्मरण करता है , प्रभु उसे अनेक प्रकार के धनों को देता है । यह धन पोषण को बनाने वाला होता है , उसको यश दे कर यशस्वी बनाता है तथा उपासक में वीरता का संचार करता है । यह मन्त्र इस तथ्य पर ही प्रकाश डालते हुये उपदेश करता है कि : –
अग्निना रयिमश्रवत पोषमेव दिवे दिवे ।
यशसं विरत्तमम ॥ रिग्वेद १.१.३ ॥
यह मन्त्र अग्नि स्तवन पर बल देते हुये कहता है कि मनुष्य प्रभु की उपासना करने से कभी सांसारिक द्रिष्टि स्वे असफ़ल नहीं होता । प्रभु स्तवन से ही वह निरन्तर आगे बटता है । वास्तव में प्रभु स्तवन से ही लक्श्मी के दर्शन होते हैं । स्पष्ट है कि जहां प्रभु स्तवन है, वहां लक्श्मी तो है ही, तब ही तो कहा जाता है कि मानव अग्नि से धन को प्राप्त करता है अर्थात जो प्रतिदिन यग्य करता है, उसे धन एश्वर्य के नियमित रुप से दर्शन होते रहते हैं ।
सामान्यत:; लोग इस बात को जानते हैं कि जिसके पास अपार धन सम्पदा होती है , उसके लिये अवनति का मार्ग खुला रहता है । इस धन की सहायता से वह अपनी इन्दियों को सुखी बनाने का यत्न करता है ,शराब, जुआ आदि अनेक प्रकार की बुराइयां उस में आ जाती हैं किन्तु जो धन प्रभु स्मरण से मिलता है,जो धन प्रभु स्तवन से मिलता है, जो धन अग्निहोत्र से मिलता है, जो धन यग्य से मिलता है, उस धन की एक विशेषता होती है , इस प्रकार से प्राप्त धन प्रतिदिन हमारे पोषण का कारण होता है । इससे हमारा किसी प्रकारका नाश, किसी प्रकार का ह्रास नहीं होता । इस प्रकार प्राप्त धन हमें कभी विनाश की ओर , म्रित्यु की ओर नहीं ले जाता अपितु यह् तो हमें व्रिद्धि की ओर , उन्नति की ओर ले जाता है , जीवन को जीवन्त बनाने व उंचा उटाने की ओर ले जता है ।
इस प्रकार यग्यीय विधि से हमें जो धन मिलता है , यह धन हमें यश्स्वी बनाता है, यश से युक्त करता है । इस धन में परोपकार की भावना भरी होने से हम इसे दान में लगाते हैं , दूसरों की सहायता में लगाते हैं । इस कारण हम निरन्तर यशस्वी होते चले जाते हैं । हमारा यश व कीर्ति दूर दूर तक जाती है । मानव अनेक बार अपार धन सम्पदा पा कर इसके अभिमान में मस्त हो जाता है । इस मस्ती में वह अनेक बार एसे कार्य भी कर लेता है , जो उसे अपयश का कारण बनाते हैं । किन्तु यग्य आदि में धन का प्रयोग करने से उस का यश व कीर्ति बटते हैं ।
प्रभु उपासना से प्राप्त धन हमें अत्यधिक सशक्त करने वाला होता है, हमारी शक्ति बटाने वाला होता है । जब अत्यधिक धन के अभिमान में व्यक्ति अनेक नोकर – चाकरों को रख कर आलसी बन जाता है , कोइ कार्य नहीं करता, निट्ला हो जाता है तो स्वाभाविक रूप से शारीरिक कार्य वह स्वयं नहीं करता, इस कारण निर्बल हो जाता है । क्रिया अर्थात मेहनत ही सब प्रकार की शक्तियों का आधार होती है , जो व्यक्ति क्रियाशील रहता है , उसमें शक्ति की सदा व्रिद्धि होती रहती है, ह्रास नहीं होता । यह क्रिया शीलता ही शक्ति की जन्मदाता होती है । जब क्रिया का क्शय हो जाता है तो शक्ति का नाश होता है । हम अपने शरीर को ही देखे , हमारे दो हाथ हैं , एक दायां तथा दूसरा बायां । प्रत्येक व्यक्ति का बायां हाथ उसके अपने ही दायें हाथ से कमजोर होता है । एसा क्यों , क्योंकि मानव अपना सब काम दायें हाथ से ही करता है, बायें हाथ से वह बहुत कम कार्य करता है । इस कारण बायां हाथ दायें की अपेक्शा कमजोर रह जाता है । यही कारण है कि क्रियाशीलता के बिना तो प्रभु स्मरण भी नहीं होता । अत: प्रभु स्मरण हमें क्रियाशील बना कर बलवान बनाता है । क्रियाशील होने से हमारा शरीर पुष्ट होता है, पुष्टी से हम अधिक कार्य करने में सक्शम होते हैं, धनेश्वर्य के स्वामी बनते हैं। हमें यश व कीर्ति मिलतै हैं तथा हम में शक्ति का संचय होता है , जिससे हम वीर बनते हैं ।

डा. अशोक आर्य

घरों में सब लोग मिलकर यग्य कर अपनी आहुति देते हैं

ओउम्
घरों में सब लोग मिलकर यग्य कर अपनी आहुति देते हैं
डा.अशोक आर्य
प्रत्येक घर में, प्रत्येक परिवार में प्रति दिन यज्ञ होता है तथा इस घर के सब लोग, इस परिवार के सदस्य लोग इस यज्ञ में मिल कर बैठते हैं तथा इस यज्ञ में मिलकर ही अपनी आहुति देते हैं । घर की पवित्र अग्नि से यज्ञ की अग्नि को प्रदीप्त कर , उस अग्नि में यथावश्यक आहुति डालते हैं । इस प्रकर के यज्ञों के द्वारा इस घर के लोग महानˎ अग्नि का पूजन करते हैं । इस तथ्य को इस चोथे मन्त्र में इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
प्रतेअग्नयो॓Sग्निभ्योवरंनि:सुवीरस:शोशुचन्तद्युमन्त: ।
यत्रानर:समासतेसुजाता: ॥ रिग्वेद ७.१.४ ॥
गार्हपत्य अग्नि अर्थातˎ घर की अग्नि , सदा हम उस अग्नि को प्रणयन करते हैं, हम सदा उस अग्नि को बुलाते हैं , सदा उस अग्नि को जलाते हैं , जिस अग्नि का हमने आह्वान करना होता है । इस लिये ही कहा जाता है कि हे गार्हपत्य अग्नियों ! तुझ से ही य यज्ञ की अग्नियां जला करें । यह अग्नियां अच्छे से ज्योतित हो कर , यह अग्नियाँ तेज को धारण कर, यह अग्नियाँ तीव्र होकर अच्छी प्रकार से , ठीक से रोग के कृमियों को , रोग के कीटाणुओं को कम्पित करने वाली, भयभीत करने वाली हों, यह अग्नियाँ रोगाणुओं को मारने वाली हों । इस प्रकार यह यज्ञ की अग्नि सब प्रकार के भूत आदि को पीछे धकेल दे , भगा दे । किसी प्रकार के भय को रहने ही न दे ।
इस अग्नि अर्थात इस यज्ञ की अग्नि के पास सदा ही उत्तम प्रकृति वाले अथवा कुलीन लोग ही रहते हैं, इस यज्ञ की अग्नि के पास सदा अच्छे लोग ही निवास करते हैं । यह सब लोग बडे प्रेम से इस अग्नि के समीप अपना आसन लगा कर रहते हैं । यह लोग ,जिस प्रकार नाभि के आरे होते हैं , वैसे ही इस यज्ञाग्नि के चारों ओर मिलकर गति करते हुये , कर्म करते हुये, यज्ञ सम्बन्धी व्यवहार करते हुये यज्ञ के आसन पर आसीन होते हैं । इस प्रकार यह लोग यज्ञ की इस अग्नि का पूजन करते हैं तथा इस में यथावश्यक घी तथा सामग्री की आहुति देते हैं ।
इस मन्त्र परमपिता परमात्मा प्राणी मात्र को उपदेश करते हुए बता रहे हैं कि यज्ञ के क्या लाभ्होते है ?, यज्ञ के क्या आभ होते हैं, जिस परिवार में नित्य प्रति यज्ञ होता है, उस परिवार में सदा सुखों की वर्षा क्यों होती रहती है ? परिवार क्यों रोग रहित होकर धनधान्य से भर जाता है ? इन सब गुणों का , इन लाभों का वर्णन करने का अभिप्राय यह है कि जो परिवार सुखों की अभिलाषा करता है , जो परिवार चाहता है कि ए सब सदस्य सदा इरोग रहें , जो परिवार चाहता है कि हमारे परिवार में कभी कोई कष्ट न आवे तथा सदा उनके पास धन धान्य के भण्डार भरे रहें तो इस परिवार में प्रतिदिन दो समय यज्ञ किया जाना चाहिये |

डा. अशोक आर्य

यज्ञकर्ता को उत्तम सन्तान, प्रशस्त जीवन तथा पवित्र धन

ओउम्
यज्ञकर्ता को उत्तम सन्तान, प्रशस्त जीवन तथा पवित्र धन
परमपिता प्रभु नित्य यज्ञ करने वालों को एसा पवित्र धन दे जो उसे वीर बनावे, उसे उत्तम सन्तान दे, उंचे जीवन वाला बनावे तथा यह धन चॊर आदि चुरा न सकें । इस तथ्य को इस ऋचा के इस पांचवें मन्त्र में कुछ इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
दानोअग्नेधियारयिंसूवीरंस्वपत्यंसहस्यप्रशस्तम् ।
नयंयावातरतियातुमावान ॥ ऋग्वेद ७.१.५ ॥
विगत मन्त्र में यह प्रार्थना कि गयी थी कि हे प्रभो ! हम इस यज्ञ अग्नि के समीप बैठे परिजन यज्ञ की समाप्ति पर आप से प्रार्थना करते हैं कि आप हमें आगे से पवित्र कर्मों के कारण हमें अपार धन दीजिये । हमारे काम , क्रोध आदि दुष्ट शत्रुओं को यज्ञ दूर कर देता है । दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि हे प्रभो हमें वह धन दीजिये , जो हमें वीर बनाता है , जो हमें उत्तम सन्तान वाला बनाता है , जिस धन की प्राप्ति हमने पवित्र साधनों से ही की है ।
१ हम उन्नति पथ पर रहें
मन्त्र हमें प्रथम सन्देश , प्रथम उपदेश दे रहा है कि हम उन्नति के पथ पर प्रशस्त रहें | हम ने यह जो यज्ञ किया है , यह यज्ञ हमें उन्नति की और ले जाने वाला हो | हम जो नित्य यज्ञ करते हैं , यह यज्ञ हमें निरंतर उन्नत करता रहे | हमारी उन्नति के मार्ग में कोई भी व्यवधान , कोई भी बाधा न आवे | हम निरंतर आगे और आगे बढ़ते ही चले जावें |
२ धन सम्पदा प्राप्त हो
मन्त्र के माध्यम से हम जो दूसरी प्राथना करते हैं , वह यह है कि हम अपार धन संपदाओं के स्वामी बनें | नित्य यज्ञ करने से सब के ह्रदय पवित्र होते हैं | पवित्र हृदयों वाले व्यक्ति पुरुषार्थी होते हैं | यह अत्यधिक मेहनत करके अपार धन प्राप्त कर स्वयं तो सुखी होते ही हैं , अन्यों के भरण पोषण में भी सहयोगी होते हैं | इस प्रकार यह यज्ञ हमारे लिए अपार धन सम्पदा प्राप्ति का साधन होता है |
३. हम पवित्र कर्म करें
मन्त्र आगे उपदेश कर रहा है कि हम पवित्र हृदयों के , हम शुद्ध हृदयों के स्वामी बनें | यज्ञ सदा स्वयं को शुद्ध करके किया जाता है | जब हम स्नानादि से अपने अन्दर और बाहर को शुद्ध पवित्र कर लेते हैं , तब ही यज्ञ करने के लिए आसन पर बैठते हैं | इस प्रकार शुद्ध हो कर जब हम शुद्ध भावना से , पवित्र भावना से यज्ञ करते हैं तो हमें इस यज्ञ के परिणाम भी पवित्र ही प्राप्त होते हैं तथा हम नित्य जो भी कर्म करते हैं , उनमें भी पवित्रता आ जाती है | इस प्रकार हमारे सब कर्म पवित्र होते हैं | हम पवित्र होते हैं | हमारे कर्म न केवल हमारे अपने लिए ही अपितु अन्यों के हित का भी ध्यान रख कर किये जाने के कारण पवित्रता से लबालब भरे रहते हैं | यह पवित्र कर्म ही पुरुषार्थ का साधन होने से हम अपार धनों के स्वामी बनते हैं |
४ हम वीर बनें
यज्ञ करते समय हमारे मानों में यह भावना भी रहती है कि हम अपने अन्दर और आहार दोनों प्रकार के शत्रुओं को पराजित करने में संपन्न हों | हम इस प्रकार की शक्ति प्राप्त करने के सदा इच्छुक रहते हैं | बाहरी शत्रुओं को पराजित करने के लिए शारीर का शक्तिशाली और पुष्ट होना आवश्यक होता है , जबकि आतंरिक शत्रु यथा काम,क्रोध , लोभ , मोह, अहंकार आदि हमारे अन्दर ही बैठे हुए हमें अन्दर से ही खोखला करने में लगे रहते हैं | यज्ञ हमें वीर बनाता है, हमें पुष्ट करता है , हमें पुरुषार्थी अनाकर अनेक धनों का स्वामी बनाता है | जिस से हम वीरता पूर्वक इन शत्रुओं को नष्ट करने में सफल होते हैं |
५. हम उतम संतानों वाले हों
प्रत्येक प्राणी की यह हार्दिक इच्छा होती है कि उसकी संतान उतम हो | वह चाहता है कि उसकी संतान सत्यमार्ग पर चलते हुए इस प्रकार इस प्रकार के उतम कार्य करे , जिस से उसका यश और कीर्ति दूर दूर तक जा सके | इस प्रकार की संतान यज्ञ की छत्रछाया के बिना संभव ही नहीं है | जहां नित्य प्रति यज्ञ होता है , वहां यज्ञ के प्राकृतिक गुण तो यज्ञकर्ता और उसके आसपास के निवासी लोगों को मिलते ही हैं किन्तु यज्ञ वेदी पर बैठे लोगों को कुछ विशेष लाभ भी मिलते हैं | इन लाभों में मुख्य रूप में जो लाभ माना जाता है , वह है शिष्टाचार | यज्ञ के आरम्भ से पूर्व ही शिष्टाचार का व्यवहार आरम्भ हो जाता है |
यज्ञ में किसे कैसे व्यवहार करना है ? , किस ने कहाँ व कैसे बैठना है ?, किस परिधान में बैठना है ?, किस प्रकार से यज्ञ की विभिन्न क्रियाएं करना है ?, बड़ों को कहाँ ओर कैसे बैठना है ?, छोटों को कहाँ और कैसे बैठना है ?, यह तो यज्ञ में साधारण शिष्टाचार की बातें हैं , जो यज्ञ कर्ता को आनी चाहियें | यह सब सिखाने की आवश्यकता नहीं होती | जहां यज्ञ होते रहते हैं , वहां के लोगों को स्वयमेव ही आ जाती हैं और जहाँ या जिस परिवार में प्रतिदिन दो काल यज्ञ होता है , वहां के बालक तो शिष्टाचार की इस परम्परा में पारंगत होते हैं |
यज्ञ की समाप्ति पर एक विशेष प्रकार के शिष्टाचार की परम्परा भी है | यज्ञ करते हुए हम परमपिता की गोदी में बैठ कर उस प्रभु का आशीर्वाद पाने का यत्न कर रहे थे | प्रभु की गोदी में छोटे बड़े सब समान रूप से बैठे थे | पिता का सब को समान रूप से आशीर्वाद मिल रहा था | यज्ञ की समाप्ति पर हम सांसारिक लोक में आते हैं और अब सांसारिक संबंधों के आधार पर एक दूसरे का अभिवादन करते हैं | इस अभिवादन के क्रम में आयु व सम्बन्ध में छोटे लोग अपने बड़े लोगों का अभिवादन करते हैं | उन बड़ों के पाँव छू कर उनका स्नेह माँगते हैं | बड़े अथवा सम्बन्ध में बड़े लोग ही उनके कार्यों पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उन सब को समान रूप से अपना आशीर्वाद देते हैं | इस प्रकार परस्पर स्नेह के साथ प्रसन्नता का वातावरण बनता है तथा सब एक दूसरे के लिए शुभ की अभिलाषा करते हैं |
बालक जो देखता है , सदा उसका ही अनुसरण करता है | प्रतिदिन यज्ञ करते हुए वह अनेक उतम व्यवस्थाओं को देखते हुए उन सब का अनुसरण करता है | अत: वह भी उतम कार्यों की और अपने को अग्रसर करता है | इस प्रकार प्रतिदिन के यज्ञ से हमारी संतानों में भी उतमता का आघान होता है | अत: उतम संतान की प्राप्ति का साधन भी यह यज्ञ ही है |
७. पवित्र धन की प्राप्ति
हम यह सब कुछ प्राप्त करना चाहते हैं किन्तु उतम धन के बिना , पवित्र धन के व्यय के बिना यह सब संभव नहीं है | आज के भौतिक धन की प्राप्ति की दौड़ में हम धन की पवित्रता की आवश्यकता को भूल जाते हैं | इस का ही परिणाम है कि आज के इस अपवित्र धन के कारण समाज के लोगों के सुख नष्ट हो रहे हैं , शांति भाग रही है , कष्ट निरंतर बढ़ते ही जा रहे हैं | जहाँ माता पिता अपनी संतान से दु:खी हैं , वहां संतान भी अपने माता पिता के व्यवहार से बेहद दु:खी है | सब एक दूसरे को कोसते रहते हैं , निंदा करते रहते हैं | इस कारण एक दूसरे के प्रति कहीं कोई आदर सत्कार ही नहीं रहता है | इस का कारण है प्रतिदिन यज्ञ का अभाव |
यह यज्ञ ही है जो प्रतिदिन करने पर हमें सुपथ देता है , उतम धन की प्राप्ति करता है , पवित्र धन की हम पर वर्षा करता है , सब प्रकार के सुख – समृधि का कारण होता है | सब प्रकार कि खुशियों का कारण होता है | यज्ञ से जहाँ हमारा वायुमंडल साफ़ होता है , वहां हमारा अन्दर और बाहर पवित्र होने से हमें सत्यनिष्ठा, कर्तव्य परायणता, मृदुभाषा, उतम शिष्टाचार के गुण रूपी अनेक प्रकार के पवित्र धन दे कर हमें मालामाल कर देता है | इस प्रकार के पवित्र धन को पा कर हम खुशियों से झूम उठाते हैं |
इतना ही नहीं इस मन्त्र में एक ओर प्रार्थना भी की गयी है , जो इस मन्त्र का सब से मुख्य अंग कही जा सकती है , वह यह कि हे प्रभो ! हमें एसा पवित्र धन दीजिये जिसको हिंसा की भावना से युक्त होकर हम पर आक्र्मण करने वाले शत्रु भी हमारे से छीन न सकें । इस प्रकार के पवित्र धन का साधन यज्ञ ही होता है |

डा. अशोक आर्य

उत्तम सामग्री से यज्ञ करें

ओउम्
उत्तम सामग्री से यज्ञ करें
डा. अशोक आर्य
यज्ञ करता यज्ञ करते समय जैसा शुद्ध घी तथा जैसी शुद्ध सामग्री का प्रयोग यज्ञ में करता है , उसे तदनुरूप ही वसुओ की प्राप्ति होती है | तदनुरुप ही सफ़लतायें मिलती हैं । इस लिए यज्ञ में सदा उत्तम घी व सामग्री का ही प्रयोग करना चाहिए । इस सम्बन्ध में ऋग्वेद का यह मन्त्र भी इस पर ही प्रकाश डालते हुए उपदेश करता है कि : –

उपयमेतियुवतिःसुदक्षंदोषावस्तोर्हविष्मतीघृताची।
उपस्वैनमरमतिर्वसूयुः॥ ऋ07.1.6
1. उतम हवियों से यज्ञ करें
उत्तम बल वाले अथवा जिस उत्तम बल की कारणभूत अग्नि को हम प्रतिदिन प्रात: व सायं काल में शुद्ध व तीव्र हवी अर्थात् घी व सामग्री आदि को इस अग्नि के साथ मिलाते हैं , घी व सामग्री की आहुति चम्मच द्वारा इस यज्ञ में देते हैं , इस से अग्नि को दीप्ति प्राप्त होती है । इस प्रकारत की आहुतियों से अग्नि तीव्र होती है , तेज होती है । इस प्रकार चम्मच से घी को पा कर अग्नि का प्रकाश बढ़ जाता है ।
२. वसुओं की यज्ञाग्नि
इस प्रकार से दीप्त यह अग्नि यज्ञ कर्ता को वसुओ की कामना वाली होती है , अनेक प्रकार के वसुओ को प्राप्त कराती है । इससे यज्ञ कर्ता को अनेक पकार की उपलब्धियां मिलती हैं । इस प्रकार यज्ञ करने वाले को सब प्रकार की प्राप्तियां हो जाती हैं । आओ इस प्रकार किये जाने वाले यज्ञ तथा इससे होने वाले हित पर विचार करें :-
३. यज्ञ की समिधा उतम हो
हैं | इससे एक परम्परा की लकीर तो हम पिट सकते हैं किन्तु यज्ञ में डालने योग्य समिधा से जब हम यज्ञ न कर किसी अन्य लकड़ी को समिधा बना कर यज्ञ अग्नि में डालते हैं तो जो गुण या दोष हमारे स्वास्थ्य के लिए हो सकते हैं , वह गुण या दोष ही हमें प्रतिफल में मिलते हैं | इस लिए यज्ञ में डाली जाने वाली लकड़ी वही ही प्रयोग की जानी चाहिए , जिस में रोग नाश कि क्षमता हो अन्यथा अंधविश्वास रूपी यज्ञ तो हम कर लेवेंगे किन्तु हितकारक यज्ञ न कर पावेंगे | यह भी हो सकता है कि जिस लकड़ी का हम यज्ञ में प्रयोग कर रहे अं , वह कहीं स्वास्थ्य के लिए हानि कारक ही हो | अत: इससे होने वाली हानि के परिणाम हमारे शरीर पर प्रकट हों तो हम यह कहते हुए यज्ञ के विरोधी ही हो जावें कि यह सब यज्ञ करने से हुआ है | इसलिए वह समिधा ही प्रयोग किया जावे , जिस का प्रयोग करने के लिए शास्त्रों में उपदेश किया गया हो |
४. यज्ञ में शुद्ध घी का प्रयोग
यज्ञ के प्रति श्रद्धा न रखने वाले लोग आज यह कहने लगे हैं कि शुद्ध घी न भी डाला जावे तो क्या है ? यज्ञ तो सरसों के तेल, तिल के तेल, भैंस के घी आदि किसी भी चिकनी वास्तु से कर लें | यह आवश्यक नहीं कि गाय का घी ही यज्ञ में प्रयोग किया जावे |
५. उतम सामग्री का प्रयोग
ठीक इस प्रकार ही सामग्री की भी अवस्था है | जैस सामग्री का प्रयोग करने का आदेश हमारे शास्त्रों ने दिया है , उसमें कहा गया है कि इस सामग्री में कुछ सुगंध बढाने वाली बूटियाँ डाली जावें | सामग्री का कुछ भाग पोष्टिक पदार्थों से बनाया जावे | इसके अतिरिक्त एक भाग रोग नाशक जड़ी बूटियाँ भी एक निश्चत मात्रा में डालने के लिए कहा गया है | जब हम यह सब पदार्थ एक निश्चित अनुपात में मिला कर सामग्री तैयार करते हैं और इस सामग्री से हमारी वायु मंडल शुद्ध हो कर सुगंध से भर जाता है | हमारा शरीर इस यज्ञ के वायु से , इस यज्ञ के धुएं को वायुमंडल से प्राप्त कर पुष्टि को प्राप्त होता है | इसा सब के साथ ही साथ जब इस प्रकार के यज्ञ के वायु क्षेत्र में हम निवास करते हैं तो हमारे शरीर के अन्दर निवास करने वाले रोग के कीटाणुओं का नाश होने लगता है तथा हम अनेक प्रकार के रोगों से बच जाते हैं |
जब हम यज्ञ को केवल एक परिपाटी मान लेते हैं | अंधविश्वास मान कर इस में किसी भी प्रकार की लकड़ी का प्रयोग करते हैं , किसी भी दुर्गन्ध से युक्त बूटियों को यज्ञ में प्रयोग करते हैं | कैसा भी तैलादि हम यज्ञ में प्रयोग करते हैं तो वायु मंडल में आने वाले प्रतिफल तो उस वस्तु के अनुरूप ही होगा , जो उस में डाली जा रही होगी | देखने और सुनाने में हम ने एक परिपाटी को पूर्ण करते हुए दिखावे का यज्ञ तो कर लिया किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से जिसे यज्ञ कहा गया है , आयुर्वेद की दृष्टि से जिसे यज्ञ कहा गया है , वेदादि शास्त्रों में जिसे यज्ञ कहा गया है , इस प्रकार की बेकार वस्तुओं के कारण यज्ञ का जो हितकारक परिणाम हमें मिलने वाला था , वह नहीं मिला पाता |
इस प्रकार के यज्ञ के कारण हमारे शारीर को अनेक प्रकार के संकट आ घेरते हैं | पास पडौस के लोग बगी इस प्रकार के यज्ञीय परिवार से बचना चाहते हैं | शास्त्रों ने यज्ञ करने के जो लाभ बताएं हैं , वह न मिलाने से हम यज्ञ से घृणा करने लगते है किन्तु यह दोष यज्ञ का न होकर हमारा अपना ही दोष होता है |
इस कारण ही यह मन्त्र हमें उपदेश कर रहा है कि हम प्रतिदिन दो काल यज्ञ करें और इस किये जाने वाले यज्ञ में शास्त्रोक्त समिधा , शास्त्रोक्त घी तथा शास्त्रोक्त सामग्री का ही प्रयोग करें तो कोई कारण नहीं कि इस यज्ञ का शास्त्र में बताये अनुसार लाभ हमें न मिले | यह लाभ निश्चित रूप से हमें मिलेगा | बस हम बड़ी श्रद्धा से उतम घी का, उत्तम समिधा का तथा उतम सामग्री का प्रयोग इस यज्ञ के अन्दर करें | इस प्रकार से परमात्मा प्रसन्न होगा तथा इसके उतम परिणाम हमें देगा |
डा. अशोक आर्य

पारिवारिक सुख के लिए वेद

ओउम
पारिवारिक सुख के लिए वेद
आर्य स्त्री समाज गोरे गाँव मुंबई मासिक सत्संग आज मंगलवार दिनांक १० जनवरी २०१७ सायं को ढिढोशी के एक परिवार में हुआ | इस अवसर पर यज्ञ के पश्चात श्रीमती दर्शनादेवी सहित अनेक महिलाओं ने भक्ति तथा प्रभु भक्ति तथा ऋषि दयानंद सम्बन्धी भजन गायन से समां बाँध दिया |
तदोपरांत कौशाम्बी , गाजियाबाद से पधा रे डा. अशोक आर्य ने अपने प्रवचन में बताया कि ऋग्वेद का अंतिम सूक्त संगठन सूक्त के रूपा में जाना गया है | इस सूक्त का एक मन्त्र है :-
संगच्छध्वंसंवदध्वंसंवोमनांसिजानताम्।
देवाभागंयथापूर्वेसंजानानाउपासते॥ ऋ010.191.2
इस मन्त्र में परिवार का दृश्य स्पष्ट किया गया है | परिवार के सुख उपदेश करते हुए कह रहा है संगच्छध्वं अर्थात हम साथ साथ चले | जिस परिवार के सब सदस्य एक साथ चलें ,वह उन्नति कि और सदा अग्रसर रहता है किन्तु तब जब संवदध्वं अर्थात न केवल साथ साथ ही चलते हों बल्कि एक जैसा या एक स्वर से बोलते भी हों | मन्त्र आगे उपदेश करता है कि साथ चलने और एक जैसा ओलाने के अतिरिक्त परिवार के सुख के लिए मन्त्र बताता है कि संवोमनांसिजानताम् अर्थात सब के मन भी एक जैसे हों | सब एक जैसा बोलते हों, एक जैसा सोचते हों , एक जैसा विचार करते हों |
इस मन्त्र के आधार पर दा. अशोक आर्य ने आगे बताया कि जिस परिवार में इस प्रकार के विचार होंगे , सब एक दुसरे का आदर सत्कार करेंगे , वहां निश्चय ही सब प्रकार के सुख होंगे अन्यथा परिवार में सुख आ ही नहीं सकता | सदा लड़ाई झगडा कलह क्लेश का वाता वरण बना रहेगा | इस अवस्था में परिवार के सब सदस्यों पर अनेक प्रकार के रोगों के आक्रमण होंगे | इस सब से बचने के लिए इस मन्त्र पर आचरण करें | अपने अहं को भुला करके बलिदान कि भावना से प्रत्येक सदस्य का आदर सत्कार करोगे तो परिवार में सब सुखों के साथ ही साथ सब प्रकार के धन ऐश्वर्यों की वर्षा होगी, परिवार को स्वर्गिक आनंद मिलेगा तथा परिवार का यश व कीर्ति दूर दूर तक जावेगी |

स्वावलंबी को सर्वत्र प्रतिष्ठा व सम्मान मिलता है

स्वावलंबी को सर्वत्र प्रतिष्ठा व सम्मान मिलता है डा अशोक आर्य
यह वैदिक ही नहीं सामाजिक नियम है कि जो व्यक्ति स्वावलंबी है , जो व्यक्ति दूसरों पर निर्भर न हो कर अपने सब कार्य,सब व्यवसाय आदि स्वयं करता है , समाज उसे आदर की दृष्टि से देखता है , उसे सम्मान देता है | स्वावलंबी व्यक्ति जहाँ भी जाता है , उसका खूब आदर सत्कार होता है | ऐसे व्यक्ति द्वारा अपना कम स्वयं करने से उसका अनुभव दूसरों से अधिक होता है , उसकी कार्यकुशलता भी अन्यों से कहीं अधिक होती है तथा वह जो कार्य करता है , उसे करने में उसकी गति भी तीव्र होती है | इस तथ्य को ऋग्वेद में बड़े ही सुन्दर विधि से इस मन्त्र में स्पष्ट किया गया है :
स्वःस्वायधायसेकृणुतामृत्विगृत्विजम्।
स्तोमंयज्ञंचादरंवनेमाररिमावयम्॥ ऋ02.5.7
मन्त्र कहता है कि हे मानव ! स्वावलंबन को तुम अपनी पिष्टी के लिए धारण करो | हे यज्ञमान ! तुम ऋतु के अनुकूल यज्ञ करो | हमने दान दिया है , अत: हम अधिक प्रशंसा और यज्ञ ( संमान ) को प्राप्त करें |
मन्त्र में सर्वप्रथम स्वावलंबन पर बल दिया गया है | आगे बढ़ने से पूर्व स्वावलंबन के सम्बन्ध में जानकारी होना आवश्यक है , इसे जाने बिना हम मन्त्र के भाव को ठीक से नहीं समझ सकते | अत: आओ हम पहले हम स्वावलंबन शब्द को समझें : –
स्वावलंबन क्या है ? :-
स्वावाकंबन से अभिप्राय स्वत्व की अनुभूति और उसका प्रकाशन से होता है | जब मानव स्व को ही भूल जावे तो उसका अवलंबन भी कैसे करेगा ? एक पौराणिक कथा के अनुसार पवन पुत्र हनुमान को एक शाप के अंतर्गत स्वत्व से उसे भुला दिया गया था , इस कारण अत्यंत शक्तियों का स्वामी होने पर भी हनुमान जी निष्क्रीय से ही रहते थे | वह स्वशक्ति से अनभिज्ञ ही रहते थे | इस कारण सदा भयभीत से , भीरु से होकर भटकते रहते थे | जब उन्हें उनकी शक्तियों का स्मरण दिलाया गया तो उन्हें पुन:पता चला कि वह तो शक्ति का भण्डार है , बस फिर क्या था वीरों की भांति उठ खड़े हुए तथा शस्त्र हाथ में लिए , शत्रु के संहार को चल पड़े, जिधर भी निकले , शत्रु को दहलाते चले गए , उनका नाम सुनकर ही शत्रु कांपने लगे | इससे स्पष्ट होता है की जब तक हम स्व को नहीं जानते , तब तक हम कुछ भी नहीं कर पाते इस लिए स्व की जानकारी, स्व का परिचय ,स्व का ज्ञान होना आवश्यक है , किन्तु यह स्व किसे कहते हैं , इसे भी जानना आवश्यक है |
स्व का अर्थ है –
स्व से भाव होता है आत्मा या जीवात्मा | स्व का भाव स्पष्ट होंने से हम स्वालंबन का अर्थ भी सरलता से कर सकते है | स्व के अर्थ को आगे बढ़ाते हुए हम कह सकते हैं कि स्वावलंबन का अर्थ हुआ — उस आत्मा अथवा जीवात्मा के प्रकाश का आश्रय लेना अथवा उस आतंरिक शक्ति का उपयोग और प्रयोग करना | जब कोई व्यक्ति स्व का अवलंबन करता है तो उस में किसी प्रकार की स्वार्थ भावना नहीं रहती | सब प्रकार के स्वार्थों से वह ऊपर उठ जाता है |वह अपने पण को स्वाहा कर देता है , इदं न मम आर्थात यह मेरा नहीं है , की भावना उसमें बलवती होती है | इससे स्पस्ट होता है कि आत्मिक शक्ति का अवलंबन ही स्वावलंबन होने से वेद में स्वाहा और सवधा शब्दों का अत्यधिक व सम्मान से प्रयोग होता है | यग्य में हम जो भी पदार्थ डालते हैं यग्य अग्नि उसे अपने पास न रख कर सूक्षम कर आगे बढा देता है , इसे बढ़ने के पश्चात आगे बांटने के इए वायु मंडल को दे देता है | जब मानव अपने जीवन को यग्य मय बना लेता है तो वह भी दो हाथों से कमाता है तथा हजारों हाथों से बांटने लगता है . आप कहेंगे दो हाथों से कमा कर हजारों हाथों से बांटने के लिए तो सामग्री ही उसके पास न रहे गी , इसका अर्थ क्या हुआ ? इसका भाव है कि हे मानव ! तू इतना म्हणत कर , तू इतना पुरुषार्थ कर, इतना यत्न कर कि जो तू ने कमाया है वह तेरी शक्ति से कहीं अधिक होगा क्योंकि तुने आकूत प्रयत्न किया है , इससे तेरे पास इतनी सम्पति होगी कि जो हजारों हाथों से भी बांटने पर भी समाप्त न होगी अपितु निरंतर बढती ही चली जावेगी . यह ही मानव की यज्ञ रूपता है |
” इदं न मम” का अर्थ : –
जब हम स्वाहा शब्द का प्रयोग करते हैं तो साथ ही बोलते हैं ” इदं न मम”. अर्थात जो कुछ मैंने यग्य, में डाला है उसमें मेरा कुछ नहीं है , सब कुछ समाज का दिया हुआ होने के कारण उस समाज का ही है , इस त्याग बुद्धि की उत्पत्ति ही स्वाहा – बुद्धि है | इस शब्द के प्रयोग से हम में नम्रता आ जाती है , सेवा का भाव जागृत होता है, साथ ही यह भी हम जान जाते हैं कि हमारे पास जो कुछ भी है , वह हमारा नहीं है, हम तो मात्र रक्षक हैं , तो किसी को कुछ भी देते समय हमें कष्ट के स्थान पर गर्व होगा |
स्वधा स भाव : –
एक और तो स्वार्थ भाव को छोड़ना है तो दूसरी ओर स्वधा शब्द दिया गया है |जिसका भाव है — स्व – आत्मप्रकाश , मनोबल, आत्मिक बल को , ढ – धारण करना | तुच्छ स्वार्थ – बुद्धि को छोड़ना चाहिए ओर अपने अन्दर स्वधा या आत्मिक बल को धारण करना चाहिए | यही स्वाहा ओर स्वधा का वास्तविक अर्थ है | अतएव मन्त्र में कहा गया है कि स्व अर्था | अतएव आत्मा के ज्ञान के लिए स्वधा ( आत्मिक बल ) को प्राप्त करो | इससे स्पस्ट होता है कि स्वधा का अर्थ है आत्मिक बल | यह आत्म बल ही है जो मानव में नवशक्ति का संचार करता है , यह आत्मिक बल ही है , जिससे मानव बड़े महान एवं दुर्घर्ष कार्य करने में भी सफल हो जाता है , इसके बिना मानव कुछ भी नहीं कर सकता, वह अधूरा होता है . अत: आत्मबल अर्थात स्वधा के द्वारा ही मानव में यज्ञीय भावना आती है ,परोपकार की अग्नि उसमें प्रदीप्त होती है , दान देने में प्रवृति होती है ओर दूसरों के सहयोग की भावना जागृत होती है | इससे उसे यश मिलता है , उसे कीर्ति मिलती है तथा सर्वत्र उसका गुणगान होता है

डॉ.अशोक आर्य

परम पिता परमात्मा सदा ही दानदाता का कल्याण करते हैं

ओउम
परम पिता परमात्मा सदा ही दानदाता का कल्याण करते हैं
डा.अशोक आर्य
जो देता है, जो देव है , उसका वह प्रभु कल्याण करते हैं । यह ही प्रभु क सत्य है , यह ही प्रभु का व्रत है , यह ही प्रतिज्ञा है । इस तथ्य पर ही प्रकाश डालते हुये मन्त्र उपदेश कर रहा है :

यदङ्गदाशुषेत्वमग्नेभद्रंकरिष्यसि।
तवेत्तत्सत्यमङ्गिरः॥ ऋ01.1.6 ||
हे सब अस्तुओं के दाता, सब वस्तुओं को प्राप्त कराने वाले पिता,सब के अग्रणी, सब से आगे रहने वाले प्रभु ! धन देव तथा आप की प्रार्थना एक साथ नहीं की जा सकती । यह नियम तो आप ही ने बनाया है कि दाता की सदा प्रार्थना करो । प्रार्थना से ही दाता देता है । जब हम दाता से कुछ मांगते ही नहीं तो दाता को क्या पता की आप को किस वस्तु की इच्छा है , वह आप की इच्छा कैसे पूरा करेगा ? अत: आप के बनाये गये नियम के अनुरूप हम दाता से , दाश्वान से मांगते है, कुछ पाने के लिये प्रार्थना करते हैं । दात, देव अथवा दान देने वाला भी हमारे लिये दाता है तथा आप सब से बडे दाता है । हम किस को अपना अर्पण करें ? जो धन देने वाला दाता है, उसे अथवा आप के प्रति अपना अर्पण करें । दोनों के समीप एक साथ तो बैठा नहीं जा सकता । एसा सम्भव ही नहीं है ।
हे पिता ! आप कल्याण करने वाले हैं । आप ही हमारे लिये वित की व्यवस्था करने वाले हैं , आप ही हमारे लिये घर की , निवास की व्यवस्था करते हैं , आप ही हमारे लिये पशु आदि, धनादि रुप में सब प्रकार के भद्र पदार्थ देने वाले हैं । इस प्रकार आप का यह नियम निश्चय ही सत्य है , आप के इस नियम के द्वारा हमारे उन दाश्वान् के अंगों में मधुर रसों का संचार करने वाले आप ही तो हैं । सब अंग – प्रत्यंगों में जीवनीय शक्ति, जीवनीय रसों का संचार करते हुये आप ही वास्तव में इन अंगों में सब रसों का संचार करने वाले , प्रवाह करने वाले हैं । अत: आप ही जीवन दाता हैं, जीवन देने वाले हैं ।
जब एक नन्हा सा बालक अपने आपको पूरी तरह से अपने ही माता पिता के अर्पण कर देता है , अपनी इच्छाओं को अपने माता पिता की इच्छाओं से मिला लेता है । अब माता पिता की इच्छा ही उस बालक की इच्छा बन जाती है । एसी अवस्था में एसे बालक का माता पिता अपने से भी अधिक अपने इस बालक का ध्यान रखते हैं । इस प्रकार की उत्तम भावना से वह अपने इस बालक का उत्तम निर्माण करते हैं । ठीक इस प्रकार ही जब एक दाश्वान व्यक्ति उस पिता के प्रति स्वयं को समर्पित कर देता है ,अर्पण कर देता है तो बालक के माता पिता के ही समान प्रभु भी उसे अत्यधिक प्रिय मानते हैं । अत:वह पिता भी हमें सब प्रकार की अभ्युदय कारक , आगे बढाने वाली वस्तुएं, उन्नत कराने वाली वस्तुएं स्वयमेव ही उपलब्ध कराते हैं ।
जीव अल्पबुद्धि होता है । जीव की इस अल्पज्ञता के कारण जीव अपने द्वारा धारण किया कोई व्रत भूल भी जावे ,उससे कोई व्रत टूट भी जावे तो भी परम पिता का व्रत उसके पूर्ण ज्ञान के कारण टूट नहीं पाता । यह तो हम जानते हैं कि जीव अल्पज्ञ है । इस अल्पज्ञता के कारण कई बार कोई गल्त वस्तु भी दे देता है किन्तु हमारा वह प्रभु तो पूर्ण है । अपनी पूर्णता के कारण उससे कभी कोई भूल सम्भव ही नहीं है । अत:वह सदैव ठीक ही करता है तथा ठीक वस्तु ही देता है ।

डा. अशोक आर्य

हम दिव्यगुणों के ग्रहण से प्रभु को धारण करें

ओउम
हम दिव्यगुणों के ग्रहण से प्रभु को धारण करें
डा.अशोक आर्य
परम पिता परमात्मा होता, कविक्रतु , सत्य तथा चित्रश्रवस्तम व देव हंत । उन्हें प्राप्त करने के लिये हमें दिव्यगुणों को ग्रहण करना होता है । जैसे जैसे तथा जितना जितना हम प्रभु को , उस पिता को धारण करने का यत्न करते हैं , उतना उतना ही हम दिव्यगुणों वाले होते चले जाते हैं । इस मन्त्र में इस बात पर ही प्रकाश डालते हुये इस प्रकार व्याख्यान किया है : –
अग्निर्होताकविक्रतु:सत्यश्चित्रश्रवस्तम: ।
देवोदेवेभिरागम ॥ ऋ0 १.१.५ ॥
१. प्रभु ही यज्ञ करता
गत मन्त्र की भावना अनुरूप ही यह मन्त्र भी कहता है कि संसार में जितने प्रकार के भी यज्ञ आदि कार्य होते हैं , उनको करने वाले वह देव ही होते हैं , जो सब को गति देने वाले हैं, जिन्हें हम प्रभु के नाम से जानते हैं । हम तो मात्र इन यज्ञों को करने के माध्यम मात्र ही होते हैं , वह भी तब जब हम पर उस प्रभु की कृपा हो जाती है, उस प्रभु का जब हमें आशीर्वाद मिल जाता है , तब ही तो हम इन सब यज्ञों को पूर्ण होता हुआ देख पाते है । यह सृष्टि भी एक प्रकार का यज्ञ ही तो है । इस यज्ञ के होता, इस यज्ञ को करने वाले तो स्वयं वह पिता ही हैं , इस तथ्य को तो हम सब लोग भली प्रकार से जानते हैं , इस सब से तो हम स्पष्ट रूप से तथा भली – भान्ति से परीचित हैं ।
२. पूर्ण प्रभु की पूर्ण कृति
यह मन्त्र जो दूसरा उपदेश हमें दे रहा है , वह है – वह पिता कविक्रितु हैं अर्थात वह पिता क्रान्तदर्शी हैं । क्रान्तदर्शी होने के कारण वह प्रभु सब कामों को करने वाले हैं । चाहे हम कविक्रितु कहें, चाहे हम क्रान्तदर्शी कहें , भाव यह ही है कि वह पिता सब प्रकार के कामों को करने वाले हैं , कारण हैं क्योंकि वह पिता ही सब कामों को करने वाले होते है , इस कारण ही सृष्टि आदि कार्य जिन्हें उस पिता ने किया है , उनमें कहीं कोई न्यूनता नहीं दिखाई देती , यह सब कार्य कहीं अपूर्ण नहीं होते , पूर्णतया पूर्ण ही होते है । जब हमारे वह पिता पूर्ण हैं तो उनके द्वारा ही किया गया यह कार्य , जिसे हम सृष्टि कहते हैं, वह अपूर्ण कैसे हो सकती है ? अत: यह सृष्टि रुपी यह यज्ञ भी पूर्ण है ।
अनेक बार हमें अपनी ही अज्ञानता के कारण इस सृष्टि में कुछ न्यूनतायें दिखाई देती हैं , एसा हम अनुभव करते हैं । जैसे अनेक बार जब हम भूकम्पों का प्रकोप देखते हैं , तो उस पिता को कोसने लगते हैं । हमारे शरीर में अनेक प्रकार की अनेक ग्रन्थियां हैं । उस पिता ने इन का निर्माण किसी विशेष प्रयोजन से किया होगा किन्तु हम अपने ज्ञान की कमी से इन में से कुछ ग्रन्थियों को निष्प्रयोजन मान लेते हैं । इस संसार में अनेक प्राणी एसे हैं , जिनके विषय में हमें कुछ भी जानकारी नहीं है , अनेक वनस्पतियां एसी हैं , जिनके उप्योग के सम्बन्ध में हम कुछ भी ज्ञान नहीं रखते । हम अपने बचपन में जो थोडा सा जानते थे, वह बढते बढते , आज हम काफ़ी आगे निकल गये हैं । आज हमे अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर हमारे अपने ही बाल्यकाल से कहीं अधिक ज्ञान है । अत: हम यह नहीं कह सकते कि जिसे हम नहीं जानते, वह है ही नहीं । जैसे जैसे हम इन सब को जानते जावेंगे, इनके उपयोग को समझते जावेंगे, त्यों त्यों ही हमारा ज्ञान भी बढता ही चला जावेगा । जितना हम जान लेंगे, उतना संसार हमें पूर्ण दिखायी देगा, शेष को हम जानने का यत्न करते रहेंगे ।
उस पिता द्वारा जब सृष्टि की उत्पति की जाती है तो आरम्भ मे प्राणी को ज्ञान की आवशकता होती है क्योंकि इस समय उसे ज्ञान देने वाला अन्य कोई नहीं होता । अत: उस परमपिता परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ मे प्राणी को वेद का ज्ञान दिया । जिस प्रकार हम आज स्कूल , कालेज अथवा गुरूकुल ,में जा कर ज्ञान प्राप्त करते हैं , प्रभु उस प्रकार से ज्ञान नहीं देता । उसका ज्ञान देने का ढंग भी अद्भुत ही है । हम जानते हैं कि वह सर्वव्यापक प्रभु सर्वव्यापक होने के कारण ही हमारे अन्दर ही नहीं हमारे हृदय में भी निवास करता है । इस प्रकार हृदयस्त होने से , बिना किसी अन्य यत्न के हमारे पवित्र हृदयों को प्रकाशित कर देते हैं । अपने ज्ञान के कारण वह प्रभू अत्यन्त कीर्तिमान से युक्त हैं । दूसरे श्ब्दों में वह प्रभु सर्वाधिक ज्ञान वाले हैं , ज्ञान के भण्डारी हैं । इस लिये ही तो उन्हें निरतिशय ज्ञान के अधिष्ठाता माना गया है ।
(क) पभु गुणों के साथ आते हैं :-
वह प्रभु सब देवताओं के,जो सब गुणों के पुन्ज रुप होते हैं , के साथ हमारे पास आते हैं । इसका भाव यह है कि उस प्रभु का निवास हमारे हृदयों में होता है । उस प्रभु का निवास होने के कारण हृदय में ही बैठे हुये वह प्रभु हमे सब प्रकार के दिव्यगुणों से स्वयमेव ही भरता चला जाता है । इस प्रकार यह दिव्य गुण हममें स्वय्मेव ही प्रादुर्भूत हो जाते हैं ।
(ख) प्रभु दिव्य गुणों वालों का साथी :-
हम यूं भी कह सकते हैं कि इन दिव्यगुणों के कारण ही वह पिता हम मे आते हैं । इस सब का भाव यह ही है कि उस पिता को पाने के लिये हम अपने आचरण को देवों के समान उत्तम बनावे , हमारे व्यवहार भी देवों के समान ही हों, आसुरी प्रवृति हमारे व्यवहार में किन्चित भी न हो । प्रभु दिव्य गुणों वालों के पास ही रहता है, निवास करता है । अत:हम जितना जितना दिव्यता को दिव्यगुणॊं को अपनायेंगे, उतना उतना ही उस पिता के समीप होते चले जावेंगे । दाश्वान का कल्याण ही प्रभु का सत्य व्रत है |

डा. अशोक आर्य