आर्यसमाज के आरम्भिक काल के निष्काम सेवकों में श्री
सरदार गुरबक्श सिंहजी का नाम उल्लेखनीय है। आप मुलतान,
लाहौर तथा अमृतसर में बहुत समय तक रहे। आप नहर विभाग में
कार्य करते थे। बड़े सिद्धान्तनिष्ठ, परम स्वाध्यायशील थे। वेद,
शास्त्र और व्याकरण के स्वाध्यय की विशेष रुचि के कारण उनके
प्रेमी उन्हें ‘‘पण्डित गुरुदत्त द्वितीय’’ कहा करते थे।
आपने जब आर्यसमाज में प्रवेश किया तो आपकी धर्मपत्नी
श्रीमति ठाकुर देवीजी ने आपका कड़ा विरोध किया। जब कभी
ठाकुर देवीजी घर में सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका को
देख लेतीं तो अत्यन्त क्रुद्ध होतीं। आपने कई बार इन ग्रन्थों को
फाड़ा, परन्तु सरदार गुरबक्श सिंह भी अपने पथ से पीछे न हटे।
पति के धैर्य तथा नम्रता का देवी पर प्रभाव पड़े बिना न रहा। आप
भी आर्यसमाज के सत्संगों में पति के संग जाने लगीं।
पति ने पत्नी को आर्यभाषा का ज्ञान करवाया। ठाकुर देवी ने
सत्यार्थप्रकाश आदि का अध्ययन किया। अब तो उन्हें वेद-प्रचार
की ऐसी धुन लग गई कि सब देखकर दंग रह जाते। पहले भजनों
के द्वारा प्रचार किया करती थीं, फिर व्याख्यान देने लगी। व्याख्याता
के रूप में ऐसी प्रसिद्धि पाई कि बड़े-बड़े नगरों के उत्सवों में उनके
व्याख्यान होते थे। गुरुकुल काङ्गड़ी का उत्सव तब आर्यसमाज का
सबसे बड़ा महोत्सव माना जाता था। उस महोत्सव पर भी आपके
व्याख्यान हुआ करते थे। पति के निधन के पश्चात् आपने धर्मप्रचार
में और अधिक उत्साह दिखाया फिर विरक्त होकर देहरादून के
समीप आश्रम बनाकर एक कुटिया में रहने लगीं। वह एक अथक
आर्य मिशनरी थीं।