Category Archives: श्रेष्ठ आर्य

जिसने महर्षिकृत ग्रन्थ कई बार फाड़ डाले: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

 

आर्यसमाज के आरम्भिक  काल के निष्काम सेवकों में श्री

सरदार गुरबक्श सिंहजी का नाम उल्लेखनीय है। आप मुलतान,

लाहौर तथा अमृतसर में बहुत समय तक रहे। आप नहर विभाग में

कार्य करते थे। बड़े सिद्धान्तनिष्ठ, परम स्वाध्यायशील थे। वेद,

शास्त्र और व्याकरण के स्वाध्यय की विशेष रुचि के कारण उनके

प्रेमी उन्हें ‘‘पण्डित गुरुदत्त  द्वितीय’’ कहा करते थे।

आपने जब आर्यसमाज में प्रवेश किया तो आपकी धर्मपत्नी

श्रीमति ठाकुर देवीजी ने आपका कड़ा विरोध किया। जब कभी

ठाकुर देवीजी घर में सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका को

देख लेतीं तो अत्यन्त क्रुद्ध होतीं। आपने कई बार इन ग्रन्थों को

फाड़ा, परन्तु सरदार गुरबक्श सिंह भी अपने पथ से पीछे न हटे।

पति के धैर्य तथा नम्रता का देवी पर प्रभाव पड़े बिना न रहा। आप

भी आर्यसमाज के सत्संगों में पति के संग जाने लगीं।

पति ने पत्नी को आर्यभाषा का ज्ञान करवाया। ठाकुर देवी ने

सत्यार्थप्रकाश आदि का अध्ययन किया। अब तो उन्हें वेद-प्रचार

की ऐसी धुन लग गई कि सब देखकर दंग रह जाते। पहले भजनों

के द्वारा प्रचार किया करती थीं, फिर व्याख्यान  देने लगी। व्याख्याता

के रूप में ऐसी प्रसिद्धि पाई कि बड़े-बड़े नगरों के उत्सवों में उनके

व्याख्यान होते थे। गुरुकुल काङ्गड़ी का उत्सव तब आर्यसमाज का

सबसे बड़ा महोत्सव माना जाता था। उस महोत्सव पर भी आपके

व्याख्यान हुआ करते थे। पति के निधन के पश्चात् आपने धर्मप्रचार

में और अधिक उत्साह दिखाया फिर विरक्त होकर देहरादून के

समीप आश्रम बनाकर एक कुटिया में रहने लगीं। वह एक अथक

आर्य मिशनरी थीं।

 

‘पं. गणपति शर्मा का वैदिक धर्म व महर्षि दयानन्द के प्रति श्रद्धा से पूर्ण प्रेरणादायक जीवन’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

प्राचीनकाल में धर्म विषयक सत्य-असत्य के निणर्यार्थ शास्त्रार्थ किया जाता था। अद्वैतमत के प्रचारक स्वामी शंकराचार्य के बाद विलुप्त हुई इस प्रथा का उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में महर्षि दयानन्द ने पुनः प्रचलित किया। इसी शास्त्रार्थ परम्परा को पं. गणपति शर्मा ने अपने जीवन में अपनाया और यह सिद्ध किया कि किसी विषय में एक या अधिक मत होने पर उसका निर्णय शास्त्रार्थ द्वारा सरलता से किया जा सकता है।

 

पं. गणपति शर्मा का जन्म राजस्थान राज्य के अन्तर्गत चुरू नामक नगर में सन् 1873 में पं. भानीराम वैद्य के यहां हुआ था। आप पाराशर गोत्रीय पारीक ब्राह्मण थे। आपके पिता सच्चे ईश्वर भक्त थे और ईश्वर के प्रति अटूट श्रद्धा और विश्वास पंडित गणपति शर्मा के जीवन में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। आपकी शिक्षा काशी और कानपुर आदि स्थानों पर हुई। 22 वर्ष की आयु तक आपने संस्कृत व्याकरण और दर्शनों का अध्ययन किया। जब आप अपने पैतृक स्थान चुरू आये तो वहां महर्षि दयानन्द के शिष्य व राजस्थान में वैदिक धर्म के महान प्रचारक श्री कालूराम जी जोशी के प्रभाव से आर्यसमाजी बने। आर्यसमाजी बनकर आपने वैदिक धर्म व संस्कृति का प्रचार का कार्य आरम्भ कर दिया।

 

सन् 1905 के गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार के वार्षिक उत्सव में आप सम्मिलित हुए थे। इस उत्सव में देश भर के आर्यसमाजों से भी लोग सम्मिलित हुए थे। लगभग 15 हजार श्रोताओं की उपस्थिति में आपने व्याख्यान दिया। इस व्याख्यान से आपकी विद्वता एवं प्रभावशाली प्रवचन शैली की धाक जम गई। सारे आर्यजगत का ध्यान आपकी ओर आकर्षित हुआ और इसके बाद आप आर्यसमाज के एक प्रमुख विद्वान के रूप में प्रसिद्ध रहे। गुरुकुल के उत्सव में मिया अब्दुल गफूर से शुद्ध होकर धर्मपाल बने सज्जन भी उपस्थित थे। गुरुकुल के आयोजन पर अपने विस्तृत समाचार एवं संस्मरण विषयक लेख में उन्होंने पं. गणपति शर्मा के व्याख्यान की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लिखा था कि वह शब्दों में कुछ कहने में असमर्थ हैं। पंडित जी की ज्ञान प्रसूता वाणी का आनन्द तो सुनकर ही लिया जा सकता है।

 

पं. गणपति शर्मा की एक विशेषता यह भी थी कि वह बिना लाउडस्पीकर के 15-15 हजार की संख्या में 4-4 घटों तक धारा प्रवाह व्याख्यान करते थे। उनकी विद्वता एवं व्याख्यान में रोचकता के कारण श्रोता थकते नहीं थे। इसका एक कारण जन-जन में पंडित जी के प्रति श्रद्धा का होना भी था। अपने युग के प्रसिद्ध नेता स्वामी श्रद्धानन्द ने इस संबंध में लिखा था किलोगों में पण्डित जी के प्रति श्रद्धा का कारण उनकी विद्वता एवं व्याख्यान कला नहीं, अपितु उनका शुद्ध एवं उच्च आचरण तथा सेवाभाव है। यही कारण है कि शास्त्रार्थ में वह जिस विधर्मी विद्वान से वार्तालाप करते थे वह उनका मित्र एवं प्रशंसक हो जाता था।

 

सन् 1904 में पसरूर (पश्चिमी पंजाब) में पादरी ब्राण्डन ने एक सर्व धर्म सम्मेलन का आयोजन किया। आर्यसमाज की ओर से इस आयोजन में पं. गणपति शर्मा सम्मलित हुए। उनकी विद्वता एवं सद्व्यवहार का पादरी ब्राण्डन पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह पं. जी का मित्र एवं प्रशंसक हो गया। इसके बाद उन्होंने जब भी कोई आयोजन किया वह आर्य समाज जाकर पं. गणपति को भेजने का आग्रह करते थे। ऐसे ही अनेक उदाहरण और हैं जब प्रतिपक्षी विद्वान शास्त्रार्थ में पराजित होने पर भी उनके सदैव प्रशंसक रहे।

 

जहां पण्डित जी के व्यक्तिगत आचरण में सभी के प्रति आदर था वहीं धर्म प्रचार में भी वह सदैव तत्पर रहते थे। सन् 1904 में उनके पिता एवं पत्नी का देहावसान हुआ। पिता की अन्त्येष्टि सम्पन्न कर आप धर्म प्रचार के लिए निकल पड़े और चूरु से कुरुक्षेत्र गये जहां उन दिनों सूर्यग्रहण पर मेला लगा था। अन्य मतावलम्बियों ने भी यहां प्रचार शिविर लगाये थे। इस मेले पर पायनियर पत्रिका में एक योरोपियन लेखक का लेख छपा जिसमें उसने स्वीकार किया था कि मेले में आर्यसमाज का प्रभाव अन्य प्रचारकों से अधिक था। इसका श्रेय भी पं. गणपति शर्मा को है जो इस प्रचार के प्राण थे। धर्म प्रचार की धुन के साथ पण्डित जी त्यागवृत्ति के भी धनी थे। इसका उदाहरण उनके जीवन में तब देखने को मिला जब पत्नी के देहान्त हो जाने पर उसके सारे आभूषण लाकर गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर को दान कर दिये।

 

पंडित जी ने देश भर में पौराणिक, ईसाई, मुसलमान एवं सिखों से अनेक शास्त्रार्थ किये एवं वैदिक धर्म की मान्यताओं को सत्य सिद्ध किया। 12 सितम्बर सन् 1906 को श्रीनगर (कश्मीर) में पादरी जानसन से महाराजा प्रताप सिंह जम्मू कश्मीर की अध्यक्षता में पंडित गणपति शर्मा जी ने शास्त्रार्थ किया। पादरी जानसन संस्कृत भाषा एवं दर्शनों का विद्वान था। उसने कश्मीरी पण्डितों को शास्त्रार्थ की चुनौती दी थी परन्तु जब कोई तैयार नहीं हुआ तो पादरी महाराजा प्रताप सिंह के पास गया और उनसे कहा कि आप राज्य के पण्डितों से शास्त्रार्थ कराईयें अन्यथा उसे विजय पत्र दीजिए। महाराज के कहने पर भी राज्य का कोई पण्डित शास्त्रार्थ के लिए तैयार नहीं हुआ, कारण उनमें विद्वता शास्त्रार्थ करने की योग्यता थी। इस स्थिति से महाराजा चिन्तित व दुःखी हुए। इसी बीच महाराज को कहा गया कि एक आर्यसमाजी पण्डित श्रीनगर में विराजमान है। वह पादरी जानसन का दम्भ चूर करने में सक्षम है। राज-पण्डितों ने पंडित गणपति शर्मा का आर्य समाजी होने के कारण विरोध किया जिस पर महाराज ने पण्डितों को लताड़ा ओर शास्त्रार्थ की व्यवस्था कराई। पं. गणपति शर्मा को देख पादरी घबराया और बहाने बनाने लगा, परन्तु महाराजा की दृणता के कारण उसे शास्त्रार्थ करना पड़ा। शास्त्रार्थ में पण्डित जी ने पादरी जानसन के वैदिक दर्शनों पर किये प्रहारों का उत्तर दिया और उनसे कुछ प्रश्न किये? शास्त्रार्थ संस्कृत में हुआ। सभी राज-पण्डित शास्त्रार्थ में उपस्थित थे। पं. गणपति शर्मा जी के तर्कों व युक्तियों तथा वेद आदि शास्त्रों के कभी न देखे, सुने व पढ़े प्रमाणों व उनके अर्थों को सुनकर राजपण्डित विस्मित हुए। अगले दिन 13 सितम्बर, 1906 को भी शास्त्रार्थ जारी रहना था। परन्तु पादरी जानसन जी चुपचाप सिसक गये। वह जान गये थे कि आर्यसमाज के इस पर्वत के शिखर तुल्य ज्ञानी पण्डित पर शास्त्रार्थ में विजय पाना असम्भव है। इस विजय से पं. गणपति शर्मा की कीर्ति देशभर में फैल गई। कश्मीर नरेश महाराज प्रतापसिंह जी ने पण्डित जी का उचित आदर सत्कार कर उन्हें कश्मीर आते रहने की प्रार्थना की और निमन्त्रण दिया।

 

पं. गणपति शर्मा का वृक्षों में अभिमानी जीव है या नहीं, विषय पर आर्य समाज के ही सुप्रसिद्ध विद्वान व शास्त्रार्थ महारथी स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती से 5 अप्रैल 1912 को गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर में शास्त्रार्थ हुआ था। दोनों विद्वानों में परस्पर मैत्री सम्बन्ध थे। यद्यपि इसमें हार-जीत का निर्णय नहीं हुआ फिर भी दोनों ओर से जो प्रमाण, युक्तियां एवं तर्क दिये गये, वह खोजपूर्ण एवं महत्वपूर्ण थे।

 

पं. जी का कुल जीवन मात्र 39 वर्ष का ही रहा। वह चाहते थे कि वह व्याख्यान शतक नाम से पुस्तक लिखें। हमें लगता है कि पंडित जी इस व्याख्यानों की पुस्तक में एक सौ विषयों पर तर्क, युक्ति प्रमाणों से पूर्ण व्याख्यान शैली में प्रवचन वा लेख देना चाहते थे। इसी क्रम में उन्होंने मस्जिद मोठ में एक लीथो प्रेस भी स्थापित किया था परन्तु प्रचार कार्य में व्यस्त रहने व समयाभाव के कारण वह इस योजना को सफल न कर सके। उन्होंने मात्र एक पुस्तक ‘‘ईश्वर भक्ति विषयक व्याख्यान ही लिखी है। पंडित जी ने देश भर का भ्रमण कर वैदिक धर्म का प्रचार किया। 103 डिग्री ज्वर में भी आप व्याख्यान दिया करते थे। जीवन में रोगी होने पर भी आपने कभी विश्राम नहीं किया जिसका परिणाम आपकी अल्पायु में 27 जून सन् 1912 को मृत्यु के रूप में हुआ। वैदिक धर्म और आर्यसमाज की यह बहुत बड़ी क्षति थी।

 

पण्डित जी ने अपने जीवनकाल में स्वयं को वैदिक धर्म के प्रचार के लिए समर्पित किया था। वर्तमान के आर्यसमाजों में पंडितजी जैसी त्यागपूर्ण भावनाओं का सर्वथा लोप हो गया दिखाई देता है। आज हमारे विद्वान जो अध्ययन-अध्यापन कार्यों से भी खूब धन कमाते हैं, दक्षिणा व यात्रा-व्यय लेकर ही कहीं प्रचार के लिए जाते हैं और रटे-रटाये भाषण देते हैं जिनका क्षणिक प्रभव होता है। इन विद्वानों का व्यक्तिगत जीवन आर्यसमाज के सिद्धान्तों से कितना मेल खाता है, कहा नहीं जा सकता। आर्यसमाज के उन विद्वानों, जो प्रतिष्ठा व स्वार्थ से ऊपर उठे हुए हैं और सच्चे ऋषि भक्त हैं, उन्हें विचार व चिन्तन कर समाज का मार्गदर्शन करना चाहिये जिससे आर्यसमाज की पुरानी प्रतिष्ठा व गौरव पुनः स्थापित हो सके।

 

आर्यकवि नाथूराम शंकर की पंडितजी पर निम्न पंक्तियों को प्रस्तुत कर लेख को विराम देते हैं:

 

भारत रत्न, भारती का बड़भागी भक्त, शंकर प्रसिद्ध सिद्ध सागर सुमति का।

मोहतमहारी ज्ञान पूषण प्रतापशील, दूषण विहीन शिरो भूषण विरितिका।।

लोकहितकारी पुण्य कानन विहारी वीर, वीर धर्मधारी अधिकारी शुभगति का।

देख लो विचित्र चित्र बांचलो चरित्र मित्र, नाम लो पवित्र स्वर्गगामी गणपति का।।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

ऋषि की राह में जवानी वार दी: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

आर्यसामाज के आरम्भिक  युग में आर्यसमाज के युवक दिनरात

वेद-प्रचार की ही सोचते थे। समाज के सब कार्य अपने हाथों

से करते थे। आर्य मन्दिर में झाड़ू लगाना और दरियाँ बिछाना बड़ा

श्रेष्ठ कार्य माना जाता था। तब खिंच-खिंचकर युवक समाज में आते

थे। रायकोट जिला लुधियाना (पंजाब) में एक अध्यापक मथुरादास

था। उसने अध्यापन कार्य छोड़ दिया। आर्यसमाज के प्रचार में

दिन-रैन लगा रहता था। बहुत अच्छा वक्ता था। जो उसे एक बार

सुन लेता बार-बार मथुरादास को सुनने के लिए उत्सुक रहता।

मित्र उसे आराम करने को कहते, परन्तु वह किसी की भी न

सुनता था। ग्रामों में प्रचार की उसे विशेष लगन थी। सारी-सारी

रात बातचीत करते-करते आर्यसमाज का सन्देश सुनाने में

जुटा रहता। अपने प्रचार की सूचना आप ही दे देता था। खाने-पीने

का लोभ उसे छू न सका। रूखा-सूखा जो मिल गया सो खा लिया।

प्रान्त की सभा अवकाश पर भेजे तो अवकाश लेता ही न था।

रुग्ण होते हुए भी प्रचार अवश्य करता। ज्वर हो गया। उसने

चिन्ता न की। ज्वर क्षयरोग बन गया। उसे रायकोट जाना पड़ा। वहाँ

इस अवस्था में भी कुछ समय निकालकर प्रचार कर आता। नगर

के लोग उसे एक नर-रत्न मानते थे। लम्बी – लम्बी यात्राएँ करके,

भूखे-ह्रश्वयासे रहकर, दुःख-कष्ट झेलते हुए उसने हँस-हँसकर अपनी

जवानी ऋषि की राह में वार दी। तब क्षय रोग जानलेवा था। इस

असाध्य रोग की कोई अचूक ओषधि नहीं थी।

ऐसे कितने नींव के पत्थर हैं जिन्हें हम आज कतई भूल चुके

हैं। अन्तिम वेला में भी मथुरादासजी के पास जो कोई जाता, वह

उनसे आर्यसमाज के कार्य के बारे में ही पूछते। अपनी तो चिन्ता थी

ही नहीं।

 

वे दिल जले : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

बीसवीं शताज़्दी के पहले दशक की बात है। अद्वितीय

शास्त्रार्थमहारथी पण्डित श्री गणपतिजी शर्मा की पत्नी का निधन

हो गया। तब वे आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के उपदेशक थे।

आपकी पत्नी के निधन को अभी एक ही सप्ताह बीता था कि आप

कुरुक्षेत्र के मेला सूर्याग्रहण पर वैदिक धर्म के प्रचारार्थ पहुँच गये।

सभी को यह देखकर बड़ा अचज़्भा हुआ कि यह विद्वान् भी

कितना मनोबल व धर्मबल रखता है। इसकी कैसी अनूठी लगन

है। उस मेले पर ईसाई मिशन व अन्य भी कई मिशनों के प्रचारशिविर

लगे थे, परन्तु तत्कालीन पत्रों में मेले का जो वृज़ान्त छपा

उसमें आर्यसमाज के प्रचार-शिविर की बड़ी प्रशंसा थी। प्रयाग के

अंग्रेजी पत्र पायनीयर में एक विदेशी ने लिखा था कि

आर्यसमाज का प्रचार-शिविर लोगों के लिए विशेष आकर्षण

रखता था और आर्यों को वहाँ विशेष सफलता प्राप्त हुई।

आर्यसमाज के प्रभाव व सफलता का मुज़्य कारण ऐसे गुणी

विद्वानों का धर्मानुराग व वेद के ऊँचे सिद्धान्त ही तो थे।

 

मेरे साथ बहुत लोग थे : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

पन्द्रह-सोलह वर्ष पुरानी बात है। अजमेर में ऋषि-मेले के

अवसर पर मैंने पूज्य स्वामी सर्वानन्दजी से कहा कि आप बहुत

वृद्ध हो गये हैं। गाड़ियों, बसों में बड़ी भीड़ होती है। धक्के-पर-धक्के

पड़ते हैं। कोई चढ़ने-उतरने नहीं देता। आप अकेले यात्रा मत किया

करें।

स्वामीजी महाराज ने कहा-‘‘मैं अकेला यात्रा नहीं करता।

मेरे साथ कोई-न-कोई होता है।’’

मैंने कहा-‘‘मठ से कोई आपके साथ आया? यहाँ तो मठ

का कोई ब्रह्मचारी दीख नहीं रहा।’’

स्वामीजी ने कहा-‘‘मेरे साथ गाड़ी में बहुत लोग थे। मैं

अकेला नहीं था।’’

यह उत्तर  पाकर मैं बहुत हँसा। आगे क्या  कहता? बसों में,

गाड़ियों में भीड़ तो होती ही है। मेरा भाव तो यही था कि धक्कमपेल

में दुबला-पतला शरीर कहीं गिर गया तो समाज को बड़ा अपयश

मिलेगा। मैं यह घटना देश भर में सुनाता चला आ रहा हूँ।

जब लोग अपनी लीडरी की धौंस जमाने के लिए व मौत के

भय से सरकार से अंगरक्षक मांगते थे। आत्मा की अमरता की

दुहाई देनेवाले जब अंगरक्षकों की छाया में बाहर निकलते थे तब

यह संन्यासी सर्वव्यापक प्रभु को अंगरक्षक मानकर सर्वत्र विचरता

था। इसे उग्रवादियों से भय नहीं लगता था। आतंकवाद के उस

काल में यही एक महात्मा था जो निर्भय होकर विचरण करता

था। स्वामीजी का ईश्वर विश्वास सबके लिए एक आदर्श है।

मृत्युञ्जय हम और किसे कहेंगे? स्वामी श्रद्धानन्दजी महाराज

‘अपने अंग-संग सर्वरक्षक प्रभु पर अटल विश्वास’ की बात अपने

उपदेशों में बहुत कहा करते थे। स्वामी श्रद्धानन्दजी महाराज के

उस कथन को जीवन में उतारनेवाले स्वामी सर्वानन्दजी भी धन्य

थे। प्रभु हमें ऐसी श्रद्धा दें।

 

और लो, यह गोली किसने मारी : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

अब तो चरित्र का नाश करने के नये-नये साधन निकल आये

हैं। कोई समय था जब स्वांगी गाँव-गाँव जाकर अश्लील गाने

सुनाकर भद्दे स्वांग बनाकर ग्रामीण युवकों को पथ-भ्रष्ट किया करते

थे। ऐसे ही कुछ माने हुए स्वांगी किरठल उज़रप्रदेश में आ गये।

उन्हें कई भद्र पुरुषों ने रोका कि आप यहाँ स्वांग न करें। यहाँ हम

नहीं चाहते कि हमारे ग्राम के लड़के बिगड़ जाएँ, परन्तु वे न माने।

कुछ ऐसे वैसे लोग अपने सहयोगी बना लिये। रात्रि को ग्राम के

एक ओर स्वांग रखा गया। बहुत लोग आसपास के ग्रामों से भी

आये। जब स्वांग जमने लगा तो एकदम एक गोली की आवाज़

आई। भगदड़ मच गई। स्वांगियों का मुख्य  कलाकार वहीं मञ्च

पर गोली लगते ही ढेर हो गया। लाख यत्न किया गया कि पता

चल सके कि गोली किसने मारी और कहाँ से किधर से गोली आई

है, परन्तु पता नहीं लग सका। ऐसा लगता था कि किसी सधे हुए

योद्धा ने यह गोली मारी है।

जानते हैं आप कि यह यौद्धा कौन था? यह रणबांकुरा

आर्य-जगत् का सुप्रसिद्ध सेनानी ‘पण्डित जगदेवसिंह

सिद्धान्ती’ था। तब सिद्धान्तीजी किरठल गुरुकुल के आचार्य थे।

आर्यवीरों ने पाप ताप से लोहा लेते हुए साहसिक कार्य किये हैं।

आज तो चरित्र का उपासक यह हमारा देश धन के लोभ में अपना

तप-तेज ही खो चुका है।

 

यह नर-नाहर कौन था? प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

यह घटना प्रथम विश्वयुद्ध के दिनों की है। रियासत बहावलपुर

के एक ग्राम में मुसलमानों का एक भारी जलसा हुआ। उत्सव की

समाप्ति पर एक मौलाना ने घोषणा की कि कल दस बजे जामा

मस्जिद में दलित कहलानेवालों को मुसलमान बनाया जाएगा,

अतः सब मुसलमान नियत समय पर मस्जिद में पहुँच जाएँ।

इस घोषणा के होते ही एक युवक ने सभा के संचालकों से

विनती की कि वह इसी विषय में पाँच मिनट के लिए अपने विचार

रखना चाहता हैं। वह युवक स्टेज पर आया और कहा कि आज के

इस भाषण को सुनकर मैं इस परिणाम पर पहुँचा हूँ कि कल कुछ

भाई मुसलमान बनेंगे। मेरा निवेदन है कि कल ठीक दस बजे मेरा

एक भाषण होगा। वह वक्ता महोदय, आप सब भाई तथा हमारे वे

भाई जो मुसलमान बनने की सोच रहे हैं, पहले मेरा भाषण सुन लें

फिर जिसका जो जी चाहे सो करे। इतनी-सी बात कहकर वह

युवक मंच से नीचे उतर आया।

अगले दिन उस युवक ने ‘सार्वभौमिक धर्म’ के विषय पर

एक व्याख्यान  दिया। उस व्याख्यान में कुरान, इञ्जील, गुरुग्रन्थ

साहब आदि के प्रमाणों की झड़ी लगा दी। युक्तियों व प्रमाणों को

सुन-सुनकर मुसलमान भी बड़े प्रभावित हुए।

इसका परिणाम यह हुआ कि एक भी दलित भाई मुसलमान

न बना। जानते हो यह धर्म-दीवाना, यह नर-नाहर कौन था?

इसका नाम-पण्डित चमूपति था।

हमें गर्व तथा संतोष है कि हम अपनी इस पुस्तक ‘तड़पवाले

तड़पाती जिनकी कहानी’ में आर्यसमाज के इतिहास की ऐसी लुप्त-

गुप्त सामग्री प्रकाश में ला रहे हैं।

उसका मूल्य चुकाना पड़ेगा

मुस्लिम मौलाना लोग इससे बहुत खीजे और जनूनी मुसलमानों

को पण्डितजी की जान लेने के लिए उकसाया गया। जनूनी इनके

साहस को सहन न कर सके। इसके बदले में वे पण्डितजी के प्राण

लेने पर तुल गये। आर्यनेताओं ने पण्डितजी के प्राणों की रक्षा की

समुचित व्यवस्था की।

 

मियाँजी की दाढ़ी एक आर्य के हाथ में : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

 

1947 ई0 से कुछ समय पहले की बात है। लेखरामनगर

(कादियाँ), पंजाब में मिर्ज़ाई लोग 6 मार्च को एक जलूस निकालकर

बाज़ार में आर्यसमाज के विरुद्ध उज़ेजक भाषण देने लगे। वे 6

मार्च का दिन (पण्डित लेखराम का बलिदानपर्व) अपने संस्थापक

नबी की भविष्यवाणी (पण्डितजी की हत्या) पूरी होने के रूप में

मनाते रहे।

एक उन्मादी मौलाना भरे बाज़ार में भाषण देते हुए पण्डित

लेखरामकृत ऋषि-जीवन का प्रमाण देते हुए बोले कि उसमें ऋषिजी

के बारे में ऐसा-ऐसा लिखा है…….एक बड़ी अश्लील बात कह

दी।

पुराने आर्य विरोधियों के भाषण सुनकर उसका उत्तर  सार्वजनिक

सभाओं में दिया करते थे। एक आर्ययुवक भीड़ के साथ-साथ जा

रहा था। वह यही देख रहा था कि ये क्या  कहते हैं। भाषण सुनकर

वह उत्तेजित हुआ। दौड़ा-दौड़ा एक आर्य महाशय हरिरामजी की

दुकान पर पहुँचा-‘‘चाचाजी! चाचाजी! मुझे एकदम ऋषि-जीवन-

चरित्र दीजिए।’’ हरिरामजी ताड़ गये कि आर्यवीर जोश में है-

कोई विशेष कारण है। हरिरामजी तो वृद्ध अवस्था में भी जवानों

को मात देते रहे। ऋषि-जीवन निकाला। दोनों ही मिर्ज़ाई जलूस

की ओर दौड़े। रास्ते में उस युवक ज्ञानप्रकाश ने हरिरामजी को

भाषण का वह अंश सुनाया। मौलाना का भाषण अभी चालू था।

वह स्टूल पर खड़ा होकर फिर वही बात दुहरा रहा था।

हरिरामजी ने आव देखा न ताव, मौलानी की दाढ़ी अपने हाथों

में कसकर पकड़ ली। उसे ज़ोर से लगे खींचने। मौलाना स्टूल से

गिरे। दोनों आर्य अब दहाड़ रहे थे। ‘‘बोल! क्या  बकवास मार रहा

है? दिखा पण्डित लेखरामकृत ऋषि-जीवन में यह कहाँ लिखा

है? पहले ऋषि-जीवन में दिखा कहाँ लिखा है?’’

भारी भीड़ में से किसी मिर्ज़ाई को यह साहस न हुआ कि

लेखराम-श्रद्धानन्द के शेर से मियाँजी की दाढ़ी बचा सके। तब

कादियाँ में मुीभर हिन्दू रहते थे, आर्य तो थे ही 15-20 घर। इस

घटना के कई प्रत्यक्षदर्शी लेखक ने देखे हैं। ज़्या यह घटना साहसी

आर्यों का चमत्कार नहीं है? आर्यो! इस अतीत को पुनः वर्तमान

कर दो। लाला जगदीश मित्रजी ने बताया कि मौलाना का भाषण

उस समय लाला हरिरामजी की दुकान के सामने ही हो रहा था,

वहीं लाला हरिराम ने शूरता का यह चमत्कार दिखा दिया।

 

आर्यसमाज का एक विचित्र विद्वान्:  प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

महामहोपाध्याय पण्डित श्री आर्यमुनिजी अपने समय के भारत

विख्यात  दिग्गज विद्वान् थे। वे वेद व दर्शनों के प्रकाण्ड पण्डित थे।

उच्चकोटि के कवि भी थे, परन्तु थे बहुत दुबले-पतले। ठण्डी भी

अधिक अनुभव करते थे, इसी कारण रुई की जैकिट पहना करते थे।

वे अपने व्याख्यानों  में मायावाद की बहुत समीक्षा करते थे

और पहलवानों की कहानियाँ भी प्रायः सुनाया करते थे। स्वामी श्री

स्वतन्त्रानन्दजी महाराज उनके जीवन की एक रोचक घटना सुनाया

करते थे। एक बार व्याख्यान देते हुए आपने पहलवानों की कुछ

घटनाएँ सुनाईं तो सभा के बीच बैठा हुआ एक पहलवान बोल

पड़ा, पण्डितजी! आप-जैसे दुबले-पतले व्यक्ति को कुश्तियों की

चर्चा नहीं करनी चाहिए। आप विद्या की ही बात किया करें तो

शोभा देतीं हैं।

 

पण्डितजी ने कहा-‘‘कुश्ती भी एक विद्या है। विद्या के

बिना इसमें भी जीत नहीं हो सकती।’’ उस पहलवान ने कहा-

‘‘इसमें विद्या का क्या  काम? मल्लयुद्ध में तो बल से ही जीत

मिलती है।’’

पण्डित आर्यमुनिजी ने फिर कहा-‘‘नहीं, बिना विद्याबल के

केवल शरीरबल से जीत असम्भव है।’’

पण्डितजी के इस आग्रह पर पहलवान को जोश आया और

उसने कहा,-‘‘अच्छा! आप आइए और कुश्ती लड़कर दिखाइए।’’

पण्डितजी ने कहा-‘आ जाइए’।

 

सब लोग हैरान हो गये कि यह क्या हो गया? वैदिक

व्याख्यान माला-मल्लयुद्ध का रूप धारण कर गई। आर्यों को भी

आश्चर्य हुआ कि पण्डितजी-जैसा गम्भीर  दार्शनिक क्या  करने जा

रहा है। शरीर भी पण्डित शिवकुमारजी शास्त्री-जैसा तो था नहीं कि

अखाड़े में चार मिनट टिक सकें। सूखे हुए तो पण्डितजी थे ही।

रोकने पर भी पण्डित आर्यमुनि न रुके। कपड़े उतारकर वहीं

कुश्ती के लिए निकल आये।

 

पहलवान साहब भी निकल आये। सबको यह देखकर बड़ा

आश्चर्य हुआ कि महामहोपाध्याय पण्डित आर्यमुनिजी ने बहुत

स्वल्प समय में उस पहलवान को मल्लयुद्ध में चित कर दिया।

वास्तविकता यह थी कि पण्डितजी को कुश्तियाँ देखने की सुरुचि

थी। उन्हें मल्लयुद्ध के अनेक दाँव-पेंच आते थे। थोड़ा अभ्यास  भी

रहा था। सूझबूझ से ऐसा दाँव-पेंच लगाया कि मोटे बलिष्ठकाय

पहलवान को कुछ ही क्षण में गिराकर रख दिया और बड़ी शान्ति

से बोले, ‘देखो, बिना बुद्धि-बल के केवल शरीर-बल से कुश्ती के

कल्पित चमत्कार फीके पड़ जाते हैं।