Category Archives: श्रेष्ठ आर्य

आज भोजन करना व्यर्थ रहा: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

आज भोजन करना व्यर्थ रहा: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु फरवरी 1972 ई0 में जब स्वामी श्री सत्यप्रकाशजी सरस्वती अबोहर पधारे तो कई आर्ययुवकों ने उनसे प्रार्थना की कि वे पण्डित गंगाप्रसादजी उपाध्याय के सज़्बन्ध में कोई संस्मरण सुनाएँ।

श्रद्धेय स्वामीजी ने कहा-‘‘किसी और के बारे में तो सुना सकता हूँ परन्तु उपाध्यायजी के बारे में किसी और से पूछें।’’

एक दिन सायंकाल स्वामीजी महाराज के साथ हम भ्रमण को निकले तब वैदिक साहित्य की चर्चा चल पड़ी। मैंने पूछा-‘उपाध्यायजी का शरीर जर्जर हो चुका था, फिर भी वृद्ध अवस्था में उन्होंने इतना अधिक साहित्य कैसे तैयार कर दिया? अपने जीवन के अन्तिम दिनों में उन्होंने कितने अनुपम व महज़्वपूर्ण ग्रन्थों का सृजन कर दिया।’’

तब उत्तर  में स्वामीजी ने कहा-‘‘उपाध्यायजी कहा करते थे,

जिस दिन मैंने ऋषि मिशन के लिए कुछ न लिखा उस दिन मैं  समझूँगा कि आज मेरा भोजन करना व्यर्थ गया। भोजन करना तभी सार्थक है यदि कुछ साहित्य सेवा करूँ।’’

आपने बताया कि वे (उपाध्यायजी) एक साथ कई-कई साहित्यिक योजनाएँ लेकर  कार्य करते थे। एक से मन ऊबा तो दूसरे कार्य में जुट जाते थे, परन्तु लगे रहते थे। इससे उनका मन भी लगा रहता था, उनको यह भी सन्तोष होता था कि किसी उपयोगी धर्म-कार्य में लगा हुआ हूँ। बस, यही रहस्य था उनकी महान्  साधना का।

इसपर किसी टिह्रश्वपणी की आवश्यकता नहीं। प्रत्येक सामाजिक कार्यकर्ता था साहित्यकार के लिए यह घटना बड़ी प्रेरणाप्रद है।

 

अरे यह कुली महात्मा: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

अरे यह कुली महात्मा: प्रा राजेंद्र  जिज्ञासु

बहुत पुरानी बात है। आर्यसमाज के विख्यात और शूरवीर

संन्यासी, शास्त्रार्थ महारथी स्वामी श्री रुद्रानन्दजी टोबाटेकसिंह

(पश्चिमी पंजाब) गये। टोबाटेकसिंह वही क्षेत्र है, जहाँ आर्यसमाज

के एक मूर्धन्य विद्वान् आचार्य भद्रसेनजी अजमेरवालों का जन्म

हुआ। स्टेशन से उतरते ही स्वामीजी ने अपने भारी सामान के लिए

कुली, कुली पुकारना आरज़्भ किया।

उनके पास बहुत सारी पुस्तकें थीं। पुराने आर्य विद्वान् पुस्तकों

का बोझा लेकर ही चला करते थे। ज़्या पता कहाँ शास्त्रार्थ करना

पड़ जाए।

टोबाटेकसिंह स्टेशन पर कोई कुली न था। कुली-कुली की

पुकार एक भाई ने सुनी। वह आर्य संन्यासी के पास आया और

कहा-‘‘चलिए महाराज! मैं आपका सामान उठाता हूँ।’’ ‘‘चलो

आर्यसमाज मन्दिर ले-चलो।’’ ऐसा स्वामी रुद्रानन्द जी ने कहा।

साधु इस कुली के साथ आर्य मन्दिर पहुँचा तो जो सज्जन वहाँ

थे, सबने जहाँ स्वामीजी को ‘नमस्ते’ की, वहाँ कुलीजी को ‘नमस्ते

महात्मा जी, नमस्ते महात्माजी’ कहने लगे। स्वामीजी यह देख कर

चकित हुए कि यह ज़्या हुआ! यह कौन महात्मा है जो मेरा सामान

उठाकर लाये।

पाठकवृन्द! यह कुली महात्मा आर्यजाति के प्रसिद्ध सेवक

महात्मा प्रभुआश्रितजी महाराज थे, जिन्हें स्वामी रुद्रानन्दजी ने प्रथम

बार ही वहाँ देखा। इनकी नम्रता व सेवाभाव से स्वामीजी पर

विशेष प्रभाव पड़ा।

 

अतिथि यज्ञ ऐसे किया : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

अतिथि यज्ञ ऐसे किया

श्री रमेश कुमार जी मल्होत्रा का श्री पं0 भगवद्दज़ जी के प्रति

विशेष भज़्तिभाव था। पण्डित जी जब चाहते इन्हें अपने घर पर

बुला लेते। एक दिन रमेश जी पण्डित जी का सन्देश पाकर उन्हें

मिलने गये।

उस दिन पण्डित जी की रसोई में अतिथि सत्कार के लिए

कुछ भी नहीं था। जब श्री रमेश जी चलने लगे तो पण्डित जी को

अपने भज़्त का अतिथि सत्कार न कर सकना बहुत चुभा। तब

आपने शूगर की दो चार गोलियाँ देते हुए कहा, आज यही स्वीकार

कीजिए। अतिथि यज्ञ के बिना मैं जाने नहीं दूँगा। पं0 भगवद्दत जी

ऐसे तपस्वी त्यागी धर्मनिष्ठ विद्वान् थे।

 

ऋषि भक्त मथुरादास जीःराजेन्द्र जिज्ञासु

ऋषि भक्त मथुरादास जीः ऋषि के जिन अत्यन्त प्यारे शिष्यों व भक्तों की अवहेलना की गई या जिन्हें बिसार दिया गया, परोपकारी में उन पर थोड़ा-थोड़ा लिखा जायेगा। इससे इतिहास सुरक्षित हो जायेगा। आने वाली पीढ़ियाँ ऊर्जा प्राप्त करेंगी। आर्य अनाथालय फीरोजपुर के संस्थापक और ऋषि जी को फीरोजपुर आमन्त्रित करने वाले ला. मथुरादास एक ऐसे ही नींव के पत्थर थे। उनका फोटो अनाथालय में सन् 1977 तक था। मुझे माँगने पर भी न दिया गया। अब नष्ट हो गया है। आप मूलतः उ.प्र. के थे। आप अमृतसर आर्य समाज के भी प्रधान रहे। मियाँ मीर लाहौर छावनी में भी रहे। आपका दर्शनीय पुस्तकालय कहाँ चला गया? स्वामी सर्वानन्द जी महाराज ने इसे देखा था। आप जैनमत के  अच्छे विद्वान् थे। आप हिन्दी, उर्दू दोनों भाषाओं के कुशल लेखक थे। आपने ऋषि जी की अनुमति के बिना ही ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका का सार छपवा दिया। पंजाब में हिन्दी भाषा के प्रचार व पठन पाठन के लिए पाठ्य पुस्तकें भी तैयार कीं। इनका जैनमत विषयक बहुत-सा साहित्य अप्रकाशित ही रह गया। सेवानिवृत्त होने के बाद अपने पैतृक ग्राम सहारनपुर जनपद में रहने लगे। जिस आर्य अनाथालय की देश भर में धूम रही है, राजे-महाराजे जिसे दान भेजते थे, उसके संस्थापक महाशय मथुरादास का नाम ही आर्य समाज भूल गया। वह आरभिक युग के आर्य समाज के एक निर्माता थे।

इन्होंने ऋषि जी को अन्तिम दिनों एक सौ रुपये का मनीआर्डर भेजा था। महर्षि के अन्तिम हस्ताक्षर इसी मनीआर्डर फार्म के टुकड़े पर हैं। यह मनीआर्डर मथुरादास जी ने भेजा था, स्वामी ईश्वरानन्द जी ने नहीं। डॉ. वेदपाल जी के अथक प्रयास से इस भूल का सुधार हो गया। इसके लिए हम डॉ. वेदपाल जी तथा सभा- दोनों को बधाई देते हैं।

पण्डित ताराचरण से शास्त्रार्थ: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

 

महर्षि का पण्डित ताराचरण से जो शास्त्रार्थ हुआ था, उसकी

चर्चा प्रायः सब जीवन-चरित्रों में थोड़ी-बहुत मिलती है। श्रीयुत

दज़जी भी इसके एक प्रत्यक्षदर्शी थे, अतः यहाँ हम उनके इस

शास्त्रार्थ विषयक विचार पाठकों के लाभ के लिए देते हैं। इस

शास्त्रार्थ का महज़्व इस दृष्टि से विशेष है कि पण्डित श्री ताराचरणजी

काशी के महाराज श्री ईश्वरीनारायणसिंह के विशेष राजपण्डित थे।

पण्डितजी ने भी काशी के 1869 के शास्त्रार्थ में भाग लिया था।

विषय इस शास्त्रार्थ का भी वही था अर्थात् ‘प्रतिमा-पूजन’।

पण्डित ताराचरण अकेले ही तो नहीं थे। साथ भाटपाड़ा (भट्ट

पल्ली) की पण्डित मण्डली भी थी। महर्षि यहाँ भी अकेले ही

थे, जैसे काशी में थे। श्रीदज़ लिखते हैं, ‘‘शास्त्रार्थ बराबर का न

था, कारण ताराचरण तर्करत्न में न तो ऋषि दयानन्द-जैसी

योग्यता तथा विद्वज़ा थी और न ही महर्षि दयानन्द-जैसा वाणी

का बल था। इस शास्त्रार्थ में बाबू भूदेवजी, बाबू श्री अक्षयचन्द

सरकार तथा पादरी लालबिहारी दे सरीखे प्रतिष्ठित महानुभाव उपस्थित

थे।’’

 

पादरी लालबिहारी डे से शास्त्रार्थ : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

हुगली में महर्षि का हुगली कालेज के प्राध्यापक (प्राचार्य भी

रहे) से ईसाईमत विषयक शास्त्रार्थ हुआ। ऋषि के जीवनी लेखकों

ने प्रा0 दे से उनके शास्त्रार्थ का उल्लेख किया है। श्रीदज़ ने

एतद्विषयक जो संस्मरण लिखे हैं, उन्हें हम यहाँ देते हैं।

‘‘अगले चार दिन तक हमारी परीक्षा रही, हम परीक्षा में व्यस्त

रहे, तथापि हम कम-से-कम एक बार ऋषि-दर्शन को जाया करते

थे। एक दिन हमने पण्डितजी (ऋषिजी) के पास रैवरेण्ड लाल

बिहारी दे को जो हुगली कॉलेज में प्राध्यापक थे, देखा। उनके साथ

कुछ और पादरी भी थे। वे पण्डितजी के साथ ईसाईमत की

विशेषताओं पर गर्मागर्म वादविवाद में व्यस्त थे। अल्प-आयु के

होने के कारण हम शास्त्रार्थ की युक्तियों को तो न समझ सके और

न उस शास्त्रार्थ की विशेषताओं व गज़्भीरता को अनुभव कर सके,

परन्तु एक बात का हमें विश्वास था कि श्रोताओं पर पण्डितजी की

अकाट्य युक्तियों एवं चमकते-दमकते तर्कों का जो सर्वथा मौलिक

व सहज स्वाभाविक थे, अत्यन्त उज़म प्रभाव पड़ा। लोग उनकी

वक्तृत्व कला, बाइबल सज़्बन्धी उनके विस्तृत ज्ञान से बड़े प्रभावित

हुए। जब मैं एफ0ए0 में पढ़ता था तो पादरी लालबिहारी दे ने

भी इस तथ्य की पुष्टि की थी।1

 

यह मन गढ़न्त गायत्री!: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज अपने व्याख्यानों  में

अविद्या की चर्चा करते हुए निम्न घटना सुनाया करते थे। रोहतक

जिला के रोहणा ग्राम में एक बड़े कर्मठ आर्यपुरुष हुए हैं। उनका

नाम था मास्टर अमरसिंहजी। वे कुछ समय पटवारी भी रहे। किसी

ने स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज को बताया कि मास्टरजी को एक

ऐसा गायत्री मन्त्र आता है जो वेद के विज़्यात गायत्री मन्त्र से न्यारा

  1. रावण जोगी के भेस में (उर्दू) है। स्वामीजी महाराज गवेषक थे ही। हरियाणा की प्रचार यात्रा

करते हुए जा मिले मास्टर अमरसिंह से।

मास्टरजी से निराला ‘गायत्रीमन्त्र’ पूछा तो मास्टरजी ने बताया

कि उनकी माताजी भूतों से बड़ा डरती थी। माता का संस्कार बच्चे

पर भी पड़ा। बालक को भूतों का भय बड़ा तंग करता था। इस

भयरूपी दुःख से मुक्त होने के लिए बालक अमरसिंह सबसे पूछता

रहता था कि कोई उपाय उसे बताया जाए। किसी ने उसे कहा कि

इस दुःख से बचने का एकमात्र उपाय गायत्रीमन्त्र है। पण्डितों को

यह मन्त्र आता है।

मास्टरजी जब खरखोदा मिडिल स्कूल में पढ़ते थे। वहाँ एक

ब्राह्मण अध्यापक था। बालक ने अपनी व्यथा की कथा अपने

अध्यापक को सुनाकर उनसे गायत्रीमन्त्र बताने की विनय की।

ब्राह्मण अध्यापक ने कहा कि तुम जाट हो, इसलिए तुज़्हें गायत्री

मन्त्र नहीं सिखाया जा सकता। बहुत आग्रह किया तो अध्यापक

ने कहा कि छह मास हमारे घर में हमारी सेवा करो फिर

गायत्री सिखा दूँगा।

बालक ने प्रसन्नतापूर्वक यह शर्त मान ली। छह मास जी

भरकर पण्डितजी की सेवा की। जब छह मास बीत गये तो अमरसिंह

ने गायत्री सिखाने के लिए पण्डितजी से प्रार्थना की। पण्डितजी का

कठोर हृदय अभी भी न पिघला। कुछ समय पश्चात् फिर अनुनयविनय

की। पण्डितजी की धर्मपत्नी ने भी बालक का पक्ष लिया तो

पण्डितजी ने कहा अच्छा पाँच रुपये दक्षिणा दो फिर सिखाएँगे।

बालक निर्धन था। उस युग में पाँच रुपये का मूल्य भी आज

के एक सहस्र से अधिक ही होगा। बालक कुछ झूठ बोलकर कुछ

रूठकर लड़-झगड़कर घर से पाँच रुपये ले-आया। रुपये लेकर

अगले दिन पण्डितजी ने गायत्री की दीक्षा दी।

उनका ‘गायत्रीमन्त्र’ इस प्रकार था-

‘राम कृष्ण बलदेव दामोदर श्रीमाधव मधुसूदरना।

काली-मर्दन कंस-निकन्दन देवकी-नन्दन तव शरना।

ऐते नाम जपे निज मूला जन्म-जन्म के दुःख हरना।’

बहुत समय पश्चात् आर्यपण्डित श्री शज़्भूदज़जी तथा पण्डित

बालमुकन्दजी रोहणा ग्राम में प्रचारार्थ आये तो आपने घोषणा की

कि यदि कोई ब्राह्मण गायत्री सुनाये तो एक रुपया पुरस्कार देंगे,

बनिए को दो, जाट को तीन और अन्य कोई सुनाए तो चार रुपये

देंगे। बालक अमरसिंह उठकर बोला गायत्री तो आती है, परन्तु गुरु

की आज्ञा है किसी को सुनानी नहीं। पण्डित शज़्भूदज़जी ने कहा

सुनादे, जो पाप होगा मुझे ही होगा। बालक ने अपनी ‘गायत्री’ सुना

दी।

बालक को आर्योपदेशक ने चार रुपये दिये और कुछ नहीं

कहा। बालक ने घर जाकर सारी कहानी सुना दी। अमरसिंहजी की

माता ने पण्डितों को भोजन का निमन्त्रण भेजा जो स्वीकार हुआ।

भोजन के पश्चात् चार रुपये में एक और मिलाकर उसने पाँच रुपये

पण्डितों को यह कहकर भेंट किये कि हम जाट हैं। ब्राह्मणों का

दिया नहीं लिया करते। तब आर्यप्रचारकों ने बालक अमरसिंह को

बताया कि जो तू रटे हुए है, वह गायत्री नहीं, हिन्दी का एक दोहा

है। इस मनगढ़न्त गायत्री से अमरसिंह का पिण्ड छूटा। प्रभु की

पावन वाणी का बोध हुआ। सच्चे गायत्रीमन्त्र का अमरसिंहजी ने

जाप आरज़्भ किया। अविद्या का जाल तार-तार हुआ। ऋषि दयानन्द

की कृपा से एक जाट बालक को आगे चलकर वैदिक धर्म का एक

प्रचारक बनने का गौरव प्राप्त हुआ। केरल में भी एक ऐसी घटना

घटी। नरेन्द्रभूषण की पत्नी विवाह होने तक एक ब्राह्मण द्वारा रटाये

जाली गायत्रीमन्त्र का वर्षों पाठ करती रही

वेदज्ञान मति पापाँ खाय : प्रा जिज्ञासु

वेदज्ञान मति पापाँ खाय

यह राजा हीरासिंहजी नाभा के समय की घटना है। परस्पर

एक-दूसरे को अधिक समझने की दृष्टि से महाराजा ने एक शास्त्रार्थ

का आयोजन किया। आर्यसमाज की ओर से पण्डित श्री मुंशीरामजी

लासानी ग्रन्थी ने यह पक्ष रज़्खा कि सिखमत मूलतः वेद के विरुद्ध

नहीं है। इसका मूल वेद ही है। एक ज्ञानीजी ने कहा-नहीं, सिखमत

का वेद से कोई सज़्बन्ध नहीं। श्री मुंशीरामजी ने प्रमाणों की झड़ी लगा

दी। निम्न प्रमाण भी दिया गया-

दीवा बले अँधेरा जाई, वेदपाठ मति पापाँ खाई।

इस पर प्रतिपक्ष के ज्ञानीजी ने कहा यहाँ मति का अर्थ बुद्धि नहीं

अपितु मत (नहीं) अर्थ है, अर्थात् वेद के पाठ से पाप नहीं जा

सकता अथवा वेद से पापों का निवारण नहीं होगा। बड़ा यत्न करने

पर भी वह मति का ठीक अर्थ बुद्धि न माने तब श्री मुंशीरामजी ने

कहा ‘‘भाईजी! त्वाडी तां मति मारी होई ए।’’ अर्थात् ‘भाईजी

आपकी तो बुद्धि मारी गई है।’’

इस पर विपक्षी ज्ञानीजी झट बोले, ‘‘साडी क्यों  त्वाडी मति

मारी गई ए।’’ अर्थात् हमारी नहीं, तुज़्हारी मति मारी गई है। इस पर

पं0 मुंशीराम लासानी ग्रन्थी ने कहा-‘‘बस, सत्य-असत्य का

निर्णय अब हो गया। अब तक आप नहीं मान रहे थे अब तो मान

गये कि मति का अर्थ बुद्धि है। यही मैंने मनवाना था। अब बुद्धि से

काम लो और कृत्रिम मतभेद भुलाकर मिलकर सद्ज्ञान पावन वेद

का प्रचार करो ताकि लोग अस्तिक बनें और अन्धकार व अशान्ति

दूर हो।’’

 

गृहस्थ-सन्त – पं. भगवान सहाय : डॉ. धर्मवीर

गृहस्थ-सन्त – पं. भगवान सहाय

पं. भगवान सहाय, जिनको देश-विदेश में कोई नहीं जानता, समाचार पत्रों में जिनका नाम नहीं मिलता, स्थानीय स्तर पर भी किसी संगठन, संस्था के प्रधान या मन्त्री के रूप में जिनकी कोई पहचान नहीं, फिर भी उनके बड़प्पन में कोई कमी नहीं थी। जो कोई उनके सपर्क में आया, उनकी दयानन्द, वेद, ईश्वर के प्रति अनन्य निष्ठा, स्वभाव की सरलता, व्यवहार की सहजता, हृदय की उदारता से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था।

पं. भगवान सहाय आर्यसमाज, अजमेर के मन्त्री ताराचन्द के सपर्क से आर्यसमाजी बने। स्वाध्याय से उन्होंने अपने विचारों को दृढ़ बनाया, उसे जीवन में उतार कर एक आदर्श जीवन के धनी बने। दुकान पर ग्राहक उनकी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा से प्रभावित होकर आता था। सामान लेने से पहले उसे वेद, ईश्वर का स्वरूप, आर्यसमाज के सिद्धान्तों का परिचय लेना पड़ता था, तब उसे उसका सामान मिलता था।

यज्ञ के प्रति उनकी आस्था से वे लोग परिचित हैं, जिन्होंने कभी उनकी दुकान से हवन सामग्री खरीदी है। ऋषि उद्यान के सभी समारोहों के लिये उनका सामग्री दान उदारता से होता था। दैनिक यज्ञ भी उनकी सामग्री के बिना सभव नहीं थे। ऋषि उद्यान उनके लिये प्रिय और आदर्श स्थान था, जिसको वे मृत्युक्षण तक भी नहीं भूले। वे स्वयं ऋषि मेले के ऋग्वेद पारायण यज्ञ में उपस्थित नहीं हो सकते थे, अपने दोहित्र विवेक को भेजकर अपनी अन्तिम आहुति यज्ञ में डलवाई।

गुरुकुल के ब्रह्मचारियों और आर्य विद्वानों तथा साधु-सन्तों को भोजन कराने, स्वागत-सत्कार करने में उन्हें अपार सुख मिलता था। मृत्यु के समय भी आश्रमवासियों और समारोह के अतिथियों के लिए भोजन कराने का कार्य नहीं भूले। अन्तिम इच्छा के रूप में उन्होंने अपनी अन्त्येष्टि वैदिक रीति से करने और अपनी शरीर कीास्म को ऋषि उद्यान की मिट्टी में डालने का निर्देश अपने परिवार के लोगों को दे दिया था, साथ ही आदेश देनााी नहीं भूले कि अन्तिम संस्कार के बाद कोई पाखण्ड मेरे नाम पर मत करना। शान्ति यज्ञ के साथ सब क्रियायें समाप्त समझना।

पं. भगवान सहाय विद्वानों की श्रेणी में नहीं आते थे, परन्तु उनका सैद्धान्तिक ज्ञान इतना दृढ़ और स्पष्ट था कि अच्छे विद्वानों की बुद्धि भी काम नहीं करती। लगभग चालीस वर्ष पूर्व जूलाई का मास था, मैं अध्यापन के लिये अपने महाविद्यालय के लिये जा रहा था, मेरा मार्ग उनकी दुकान के सामने से होकर जाता था, जैसे ही में उनकी दुकान के सामने से निकला, उन्होंने मेरा नाम लेकर पुकारा, मैं रुका, वे दुकान से नीचे उतरकर आये, कहने लगे- पण्डित जी! वर्षा का समय है, वर्षा नहीं हो रही है, किसान व्याकुल हैं, वृष्टि-यज्ञ कराओ, जिससे वर्षा हो। मैंने उत्तर दिया- पण्डित जी! वृष्टि-यज्ञ वैज्ञानिक प्रक्रिया है, मैंने यज्ञ कराया भी और वर्षा नहीं हुई तो आप कहेंगे कि पण्डित ने झूठ बोला- यज्ञ से वर्षा होती है। इस पर भगवान सहाय जी का उत्तर में कभी नहीं भूला। उस उत्तर ने मेरे पूरे जीवन की समस्या का समाधान कर दिया, वे कहने लगे- पण्डित जी! कभी प्रार्थना करने वाला स्वयं प्रार्थना स्वीकार करता है क्या? अर्जी लगाना हमारा काम है, मंजूर करना, न करना ईश्वर का काम है। यज्ञ तो हमारी प्रार्थना है। पण्डित जी का उत्तर इतना सटीक था कि मैं उन्हें जीवन में कभी मना ही नहीं कर सका।

यज्ञ से उनका इतना प्रेम था कि जब कोई उनसे यज्ञ के विषय में पूछता तो वे कहते थे कि यज्ञ जड़-चेतन दोनों का भोजन है। हम मनुष्यों को भोजन कराते हैं तो केवल मनुष्यों की तृप्ति होती है, परन्तु यज्ञ से जड़-चेतन दोनों की तृप्ति होती है, इससे दोनों में पवित्रता आती है। आज उनसे सामग्री लेकर यज्ञ करने वालों की यही चिन्ता सता रही है- क्या यज्ञ की शुद्ध सामग्री हमको मिलती रहेगी? जिसकी आशा हम उनके उत्तराधिकारियों से कर रहे हैं।

पं. भगवान सहाय जी की सहनशीलता अद्भुत थी। उनके साथी, परिवारजन, ग्राहक, सेवक कोई भी किसी कारण से कष्ट हो जाय, क्रोध करे, कठोर शद कहे, वे कभी किसी से प्रभावित नहीं होते थे। उसे बड़े शान्त और सहज भाव से सुन लेते थे, मुस्करा देते थे। ऐसे समाज सेवक का अपने मध्य से जाना, किसको दुःखद नहीं लगेगा। परन्तु परमेश्वर की व्यवस्था और प्रकृति के नियम तथा मनुष्य की नियति कौन बदल सका है। हम दिवंगत आत्मा की शान्ति, सद्गति की प्रार्थना और परिवारजनों को इस दुःखद परिस्थिति को सहन करने की, सामर्थ्य की कामना परमेश्वर से करते हैं। वेद कहता है-

भस्मान्तं शरीरम्।

– डॉ. धर्मवीर

‘शहीद ऊधम सिंह जी की जयंती पर उनकी देशभक्ति के जज्बे को प्रणाम’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

आज देश की आजादी के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले देशभक्त अमर शहीद श्री ऊधम सिंह जी की 116 वीं जयन्ती है। शहीद ऊधम सिंह जी ने मानवता के इतिहास की एक निकृष्टतम नरसंहार की घटना जलियावाला बाग नरसंहार काण्ड के मुख्य दोषी पजांब के तत्कालीन गर्वनर माइकेल ओडायर को लन्दन में जाकर 13 मार्च, सन् 1940 को गोली मार कर अपनी प्रतिज्ञा को पूरा किया था। देश की आजादी के दीवाने और भारत माता के वीर देशभक्त महान पुत्र शहीद ऊधम सिंह पर देश को गर्व है। आज का दिन देश के प्रति उनके जज्बे और कुर्बानी को याद करने व उससे प्रेरणा लेने का दिन है।

 

शहीद ऊधम सिंह, पूर्वनाम शेर सिंह, का जन्म जिला संगरूर पंजाब के सुनाम स्थान पर 26 दिसम्बर, सन् 1899 को हुआ था। श्री चुहड़ सिंह उनके पिता थे जो रेलवे में नौकरी करते थे। आपकी माताजी का देहान्त सन1 1901 में आपकी 2 वर्ष की अवस्था में हो गया था। सन् 1907 में आपके पिता भी दिवगंत हो गये थे। आठ वर्षीय ऊधम सिंह जी व उनके भाई मुक्तासिंह का पालन अमृतसर के केन्द्रीय खालसा अनाथालय, पुतलीघर में हुआ जहां आप सन् 1919 तक रहे। 14 अप्रैल सन् 1919 को बैसाखी थी। इस दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में रालेट एक्ट के विरोध में सभा हुई जिसमें बड़ी संख्या में स्त्री-पुरुष और बच्चे सम्मिलित थे। इस सभा में बिना किसी चेतावनी दिये अंहिसक व शान्त देशवासियों पर ब्रिगेडियर जनरल डायर के आदेशों से उनके सैनिकों ने अन्धाधुन्ध गोलिया चलाई जिससे वहां 379 लोग मरे तथा लगभग 1200 लोग घायल हो गये। सरदार ऊधम सिंह वहां अपने एक साथी के साथ लोगों को जल पिलाने का काम कर रहे थे। इस नरसंहार को आपने अपनी आंखों से देखा। इस घटना से 20 वर्षीय युवक ऊधम सिंह का खून खौल उठा। उन्होंने घायलों की सेवा की। वहां से बाहर निकाल कर उन्हें सेवा व राहत शिविरों में पहुंचाया। बाद में इस अमानवीय घटना से सन्तप्त उन्होंने प्रतीज्ञा की कि इस घटना के दोषी व्यक्ति को उसकी जान लेकर सबक सिखायेंगे। इसके बाद यही संकल्प इनके जीवन का लक्ष्य बन गया।

 

अपनी शपथ वा प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए ऊधम सिंह जी लन्दन पहुंचे। वहां सौभाग्य से उन्हें अपना उद्देश्य पूरा करने का अवसर मिल गया। 13 मार्च, 1940 को लन्दन के कैक्सन हाल में ईस्ट इंडिया एसोसियेशन तथा केन्द्रीय एशियन सोसायटी की एक बैठक थी जिसमें माइकेल ओडायर को भाषण देना था। ऊधम सिंह जी ने अपनी रिवालवर को अपने कोट की जेब में छुपाया जो उन्हें मालिसियान पंजाब के श्री पूरन सिंह बोघन से मिली थी। इसके बाद वह कैक्सन हाल में प्रविष्ट हुए और वहां एक सीट पर बैठ गये। जैसे ही मीटिंग समाप्त हुई, सरदार ऊधम सिंह ने अपनी पिस्तौल से माइकेल ओडायर पर दो फायर किये जिससे वह वहीं पर ढ़ेर हो गये। इस घटना में माइकेल ओडायर के समीप विद्यमान तीन अन्य व्यक्ति भी घायल हुए। घटना के बाद ऊधम सिंह जी ने घटना स्थल से भागने का प्रयास नहीं किया, वह वहीं पर खड़े रहे और स्वयं को गिरफ्तार करा दिया। इस प्रकार उन्होंने 14 अप्रैल, 1919 को जालियावालां बाग नरसंहार की अमानवीय घटना का 21 वर्ष बाद बदला लेकर अमानवीय कार्य करने वाले शासक व शोषक लोगों को देशभक्तों की भावनाओं से परिचित कराया। हमें लगता है कि इस घटना का देश की आजादी में महत्वपूर्ण योगदान है। इस घटना ने लन्दन में रह रहे अंग्रेजों को कुछ सोचने पर अवश्य मजबूर किया होगा।

 

ऊधम सिंह जी की गिरफ्तारी के बाद उन पर मुकदमा चला। 1 अप्रैल, 1940 को औपचारिक रूप से उन पर माइकेल ओडायर की हत्या का आरोप स्थापित किया गया। जेल में रहते हुए उन्होंने 42 दिनों की लम्बी भूख हड़ताल भी की थी जिसे बलात् तोड़ा गया था। 4 जून से उन पर मुकदमा चला और उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। ऊधम सिंह जी ने कोर्ट में अपने बयान में कहा था कि ‘‘मैंने माइकेल ओडायर को मारा है क्योंकि मैं उनसे नफरत करता था। वह मेरे द्वारा की गई इस हत्या के पात्र थे। वह जलियावालां बाग नरसंहार के असली दोषी थे। उन्होंने मेरे देशवासियों की भावनाओं को कुचला, इसलिये मैंने उन्हें कुचल दिया। 21 वर्षों तक मैं उनसे जलियावालां बाग नरसंहार का बदला लेने का प्रयत्न करता रहा। मुझे प्रसन्नता है कि मैंने अपना काम पूरा किया। मुझे मौत का डर नहीं है। मैं अपने देश के लिए शहीद हो रहा हूं। ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत मैंने अपने देशवासियों को भूखे मरते देखा है। मैंने इसके विरुद्ध यह आपत्ति की है, यह मेरा कर्तव्य था। अपनी मातृभूमि के लिए मृत्यु का आलिंगन करने से बड़ा दूसरा और क्या सौभाग्य मेरे लिए हो सकता है?’

 

ऊधम सिंह जी को 31 जुलाई, 1940 को पेण्टोविली जेल में फांसी दी गई और जेल में ही उन्हें दफना दिया गया। इस प्रकार भारतमाता का वीर सपूत देश की आजादी और भारतीयों के सम्मान के लिए शहीद हो गया। आज उनकी जयन्ती पर हम उन्हें अपनी श्रद्धाजंलि अर्पित करते हैं। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि इस देश के सभी नागरिक शहीद ऊधम सिंह जी व अन्य क्रान्तिकारियों जैसे हों जायें व भविष्य में भी ऐसे ही हों जिन्हें देश से उनके जैसा ही प्यार हो और उन्हीं की तरह से वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें।

मनमोहन कुमार आर्य

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