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पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अदुल कलाम का महाप्रयाण- सत्येन्द्र सिंह आर्य

भारत के पूर्व राष्ट्रपति श्री अबुल पाकीर जैनुलआबद्दीन अदुल कलाम का सोमवार 27 जुलाई की शाम को शिलांग में आई आई एम में व्यायान देते हुए दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। इस समाचार से सारे भारत में शोक की लहर फैल गई। वे 84 वर्ष के थे।

अक्टूबर 1931 में तमिलनाडु के छोटे से द्वीप धनुषकोडी में जन्मे अदुल कलाम विश्व भर में मिसाइलमैन के नाम से वियात हुए, यह उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति और असाधारण पुरुषार्थ का ही सुफल था। एक अत्यन्त साधारण परिवार में जन्म लेना उनकी उन्नति के मार्ग में कभी बाधक नहीं बना। बचपन में अपने पिता को नाव बनाते देखा तो उनके मन में राकेट बनाने की बात आई। ‘‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’’ वाली कहावत उन पर पूरी तरह चरितार्थ होती है। स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद लड़ाकू विमान बनाकर आसमान छूने की इच्छा भी मन में हुई और वह पूरी हुई अग्नि और पृथ्वी जैसी मारक मिसाइलें बनाकर। अन्तर्महाद्वीपीय मारक क्षमता वाली मिसाइलें बनाने की भारत राष्ट्र की क्षमता से विश्व स्तध है। राष्ट्र की इस सामर्थ्य के पीछे हमारे इस महावैज्ञानिक अदुल कलाम का बुद्धि कौशल और तप है। भारत की वैज्ञानिक उन्नति से अमेरीका और यूरोप के सारे देश ईर्ष्या करते हैं। अन्तरिक्ष अनुसन्धान के क्षेत्र में भारत अग्रणी देशों में है। अन्तरिक्ष में पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करने के लिए भारत श्री हरिकोटा केन्द्र से केवल अपने बनाए भारतीय राकेट (उपग्रह) का ही प्रक्षेपण नहीं करता बल्कि विश्व के अन्य राष्ट्रों के उपग्रह भी भेजता है और उससे करोड़ों रुपयों की विदेशी मुद्रा भी कमाता है। पूर्व महामहिम का यहाँ भी अभूतपूर्व योगदान रहा। इस क्षेत्र की तकनीक में विकसित राष्ट्र विकासोन्मुख राष्ट्रों को कोई सहयोग नहीं करते। भारत को बायोक्रोनिक इंजन की तकनीक उपलध कराने के लिए एक बार रूस सहमत हो गया था। परन्तु अमेरीकी दबाव के आगे रूस को झुकना पड़ा और भारत को वह तकनीक रूस से नहीं मिली। तथापि जहाँ अदुल कलाम जैसे प्रेरणा स्रोत वैज्ञानिक के रूप में मौजूद हों वहाँ अन्य देशों के असहयोग से कोई अन्तर नहीं पड़ता। दो वर्षों के कठोर परिश्रम के बल पर भारत ने स्वयं वह स्वदेशी इंजन बना लिया। श्री कलाम डी.आर.डी.ओ के सचिव भी रहे।

भारत को परमाणु शक्ति सपन्न राष्ट्र बनाने में कलाम साहब की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण रही। पोखरण में अणुशक्ति का प्रथम परीक्षण मई 1974 में किया गया। विश्व के परमाणु शक्ति सपन्न पांचों राष्ट्रों – अमरीका, इंग्लैण्ड, चीन, फ्रांस और सोवियत यूनियन ने उस समय भारत की ओर को आँखें तरेरी। परन्तु धुन के धनी और राष्ट्र को शक्ति सपन्न बनाने के लिए कृत संकल्प अदुल कलाम और उनकी टीम ने अणुशक्ति के उच्चस्तरीय विकास के प्रयत्न जारी रखे। कलाम ढाई दशक की लबी अवधि तक परमाणु शक्ति के विकास के गोपनीय कार्य में जी जान से जुटे रहे। परमाणु बम के परीक्षण की तैयारी सन् 1995 में भी की गई थी परन्तु तब अमेरीकी उपग्रहों ने हमारी तैयारी की सूचना प्राप्त कर ली थी और विदेशी दबाव के सामने भारत की नरसिंहराव सरकार ने परमाणु परीक्षण का कार्यक्रम स्थगित कर दिया था। परन्तु कलाम का लगाव-जुड़ाव पोखरण के साथ परमाणु परीक्षण की तैयारी और उसके क्रियान्वयन के सिलसिले में लगातार बना रहा और  उन्हीं का कमाल था कि मई 1998 में ‘‘बुद्धा पुनः मुस्कराए’’। कलाम साहब ने प्रधानमन्त्री वाजपेयी को हॉट लाइन पर यही शद बोलकर सफल परमाणु परीक्षण की सूचना दी थी। जब इसकी आधिकारिक घोषणा हुई तो दुनिया स्तध रह गयी।

परमाणु परीक्षण -2 की गोपनीयता-वर्ष 1995 में जिन अमरीकी उपग्रहों ने भारत के परमाणु परीक्षण की तैयारियों का पता लगा लिया था, वर्ष 1998 में उन्हें भारत की तैयारियों की भनक तक नहीं लगी। यह सब कलाम का ही कमाल था। उन्होंने ही परमाणु परीक्षण दो की परिकल्पना को साकार किया था। यद्यपि 1998 में हुए परमाणु परीक्षण की तैयारी वर्षों से चल रही थी। ‘आपरेशन शक्ति’ नाम से जो कार्य होना था उसके कोड (कूट-शद) अल्फा, ब्रावो, चार्ली….आदि कलाम के अतिरिक्त किसी को पता नहीं थे। मेजर पृथ्वी राज (कलाम) के पास कमान थी। परमाणु परीक्षण के दौरान कलाम ने सारे काम को इस गोपनीयता से पूरा किया कि किसी को पता ही नहीं लग सका कि भारत इतना बड़ा धमाका करने वाला है।

भारत में मिसाइल निर्माण एवं परमाणु परीक्षण जैसे महान कार्यों में योगदान देने वाले अदुल कलाम वर्ष 2002 से 2007 तक भारत के राष्ट्रपति रहे। इससे पूर्व वे वर्ष 1992 से 1999 तक प्रधानमन्त्री के मुय वैज्ञानिक सलाहकार रहे। जीवनभर जहाँ भी जिस पद पर रहे, विवादों से सदैव दूर ही रहे। उनका निधन राष्ट्र की महती क्षति है।

ज्ञान, विज्ञान एवं भारत के विकास को समर्पित पूर्व राष्ट्रपति अदुल कलाम भारत मां के ऐसे सपूत थे जिन पर राष्ट्र एवं राष्ट्रवासियों को गर्व है। वे राष्ट्रीय एवं सामाजिक मूल्यों के लिए जिए। उनकी धार्मिक आस्था उनके आदर्श इन्सान बनने के मार्ग में कभी बाधा नहीं बनी। सलमान खान और ओबेसी (हैदराबाद) की भांति वे किसी आतंकी अपराधी, देशद्रोही के बचाव का प्रयत्न करने वाले नहीं थे। करोड़ों रुपये की फीस लेकर अर्द्धरात्रि के समय उच्चतम न्यायालय में एक अघन्य हत्यारे के पक्ष में दलील देने वालों की तुलना में वे लाखों गुना अच्छे इन्सान थे, आदर्श पुरुष थे। भारत के एक पूर्व राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन कीााँति उन्होंने राष्ट्रपति भवन में मस्जिद बनवाने की माँग भी सरकार से नहीं की। वे महान् भारत के वास्तविक प्रतीक, आदर्श नागरिक और सर्वाधिक सकारात्मक सोच वाले भारतीय थे। साधारण परिवार में जन्म लेकर वे अपनी प्रतिभा, परिश्रम और लगन के बल पर राष्ट्राध्यक्ष के सर्वोच्च पद पर पहुँचे। 30 जुलाई को उनके अन्तिम संस्कार के समय लाखों देशवासियों ने उन्हें अश्रुपूर्ण नेत्रों से अन्तिम विदाई दी।

युवाओं के वे सबसे बड़े प्रेरणा स्रोत थे।

जीवन की सुवास: स्वामी आत्मानन्द जी महाराज- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

जीवन की सुवासः स्वामी आत्मानन्द जी महाराज एक बार आर्यसमाज देहरादून के एक कार्यक्रम में आमन्त्रित किये गये। समाज के अधिकारियों को यह पता था कि उन्हें रक्तचाप का रोग है। समाज के सज्जनों ने स्वामी जी महाराज से बड़ी श्रद्धा भक्ति से कहा कि सब अतिथियों के भोजन की समुचित व्यवस्था कर दी गई है। आपको रक्तचाप रहता है। आपको वही भोजन मिलेगा जो डाक्टरों ने आपके लिये निर्धारित कर रखा है। अब आप बतायें डाक्टर ने आपको क्या लेने केलिए कहा है। वैसा ही भोजन बन जायेगा।

स्वामी जी ने कहा, मैं भी वही भोजन लूँगा जो अन्य सज्जन लेंगे। मेरे लिये पृथक् से कुछ न बनाया जाये। समाज के अधिकारियों ने बार-बार आग्रह पूर्वक स्वामी जी से अपनी बात कही। यह भी कहा कि हमें इसमें असुविधा नहीं । आप बता दें कि क्या बनाया जावे।

स्वामी जी ने क हा,‘‘मैं जानता हँॅू कि आपका समाज सपन्न है। आपमें सामर्थ्य है परन्तु मैं साधु हूँ। मुझे छोटे बड़े सब समाजों में जाना पड़ता है। यदि अपनी इच्छा के अनुसार भोजन की मांग करुंगा तो लोग क्या कहेंगे? यह साधु तो अपने ही ढंग का भोजन चाहता है। इससे क्या सन्देश जाायेगा? मैं भोजन तो वही लूँगा जो सब लेंगे। जो वस्तु अनुकूल नहीं होगी वह थोड़ी लूँगा।’’

इस घटना को आधी शतादी से भी अधिक समय हो गया। यह प्रेरक प्रसंग श्री सत्येन्द्र सिंह जी ने सुनाया। वह इसके प्रत्यक्षदर्शी हैं। इस प्रसंग से एक आदर्श संन्यासी, एक महामुनि, यशस्वी दार्शनिक के जीवन की सुवास आती है।स्वामी जी ने देहरादून के आर्यों पर अपने जीवन की अमिट व गहरी छाप छोड़ी । सार्वजनिक जीवन में कार्य करने वाले सब छोटे बड़े व्यक्तियों के लिये यह घटना एक बहुत बड़ी सीख है।

‘आर्यसमाज के यशस्वी साहित्यकार प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

Jigyasu JI

आज चिन्तन करते समय हमारा ध्यान आर्य साहित्य के लेखन, सम्पादन, उर्दू से हिन्दी अनुवाद व प्रकाशन में क्रान्ति करने वाले आर्यजगत के वयोवृद्ध विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की ओर गया तो ध्यान आया कि वर्तमान में उर्दू, अरबी व फारसी का ज्ञान रखने वाले विद्वानों में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी न केवल अग्रणीय है अपितु उनके समान हमें उन जैसा दूसरा कोई विद्वान दिखाई ही नहीं देता। हम जानते हैं कि आर्यसमाज वेद और वैदिक साहित्य को प्रमाणित मानता है और वह सब केवल संस्कृत भाषा में ही है। उर्दू, फारसी व अरबी भाषा में आर्यसमाज की स्थापना से पूर्व का कोई वैदिक धर्म विषयक प्रमाणिक साहित्य नहीं है। सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि महर्षि दयानन्द जी की कालजयी कृतियां हैं जिन्हें उन्होंने संस्कृत में लिखने की योग्यता होने पर भी देश व जाति के हित में आर्य भाषा हिन्दी में लिखा है। देश के स्वतन्त्र होने के बाद उर्दू का प्रभाव व पठन-पाठन कम होकर नाम मात्र का रह गया। शायद इसी कारण आर्यसमाज के अनेक विद्वानों ने उर्दू, अरबी व फारसी के अध्ययन को गौण समझा व माना है। उन्होंने अंग्रेजी पर तो पर्याप्त श्रम किया परन्तु उर्दू आदि की निश्चय ही उपेक्षा की। यह उपेक्षा इस कारण से हमें हानिकर प्रतीत होती है कि महर्षि दयानन्द के 30 अक्तूबर, सन् 1883 को मुक्तिधाम जाने के बाद पंजाब में उर्दू भाषा का अत्यधिक प्रभाव, पठन-पाठन, प्रचार व प्रसार रहा है। इस कारण हमारे अधिकांश विद्वान उर्दू, फारसी व अरबी भाषाओं के अच्छे जानकार रहे हैं और उन्होंने यहां की आर्य जनता के लाभार्थ उर्दू में ही प्रभूत आर्य साहित्य की रचना की है। पंजाब की उर्दू जानने व समझने वाली जनता के लिये हमारे इन आर्य विद्वानों सत्यार्थ प्रकाश सहित वेदों भाष्य के कुछ भाग का अनुवाद भी उर्दू में किया व कुछ अन्य मौलिक साहित्य जिनमें भजन आदि भी सम्मिलित हैं, का लेखन व प्रकाशन हुआ है। महर्षि दयानन्द जी के बाद जिन विद्वानों ने संस्कृत व हिन्दी के साथ-साथ उर्दू का साहित्य लेखन, सम्पादन व प्रचार-प्रसार आदि कार्यों में उपयोग किया उनमें हम स्वामी श्रद्धानन्द, रक्तसासक्षी पं. लेखराम जी, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, पं. चमूपति, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, महाशय कृष्ण, महात्मा नारायण स्वामी, मेहता जैमिनी, पं. गंगा प्रसाद उपाध्याय, कुंवर सुखलाल जी, स्वामी अमरस्वामी, पं. शान्ति प्रकाश जी, मास्टर लक्ष्मण आर्य, प्रो. उत्तमचन्द शरर जी आदि विद्वानों को सम्मिलित कर सकते हैं। इन विद्वानों मे से अनेकों ने उर्दू के माध्यम से साहित्य की साधना व सेवा की है। हम यह भी जानते है कि आरम्भ में आर्य जगत के अनेक पत्र व पत्रिकायें यथा सद्धर्म प्रचारक, आर्य मुसाफिर, आर्य गजट, प्रकाश, मिलाप व प्रताप आदि उर्दू में ही प्रकाशित होते रहे हैं। अतः यह स्वाभाविक ही है कि आर्यसमाज की बहुमूल्य इतिहास विषयक सामग्री हमारे तत्कालीन उर्दू के पत्रों व ग्रन्थों में सुरक्षित व उपलब्ध है। जो विद्वान उर्दू नहीं जानता, वह उस दुर्लभ व महत्वपूर्ण सामग्री से लाभान्वित नहीं हो सकता। हमने जिन विद्वानों के नाम लिखे हैं, उसी परम्परा में हमारे ऋषि भक्त विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी हैं। आपने अपने उर्दू व फारसी आदि भाषा ज्ञान तथा तप व पुरूषार्थ पूर्वक साहित्यिक अनुंसधान कार्य कर दुर्लभ व महत्वपूर्ण आर्य साहित्य में सर्वाधिक वृद्धि की है और ऐसा कीर्तिमान बनाया है कि जिसे प्राप्त करना भविष्य के किसी विद्वान के लिए स्यात् सम्भव न हो।

प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने महर्षि दयानन्द और आर्य समाज से संबंधित समस्त उर्दू साहित्य, ग्रन्थ, पुस्तक व पत्र-पत्रिकाओं आदि का आलोडन कर बहुमूल्य साहित्य प्रदान कर आर्य जगत की जो सेवा की है उससे उन्होंने आर्यसमाज व आर्य जाति के इतिहास में  अपना अमर स्थान बना लिया है। उनकी सेवाओं से आर्यसमाज धन्य हुआ है। हम आर्यसमाज के समस्त विद्वानों व प्रचारकों का आवाह्न करते हैं कि वह प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की साहित्य सेवाओं का उचित मूल्यांकन करें और उनका सार्वजनिक सम्मान न सही, एक पत्र लिखकर ही उन्हें कहें कि आपने साहित्य के माध्यम से जो अपूर्व व प्रभूत सेवा की है उसके लिए आर्यसमाज और हम आपके आभारी हैं और आपके व आपके परिवार के लिए हार्दिक शुभकामनायें व्यक्त करते हैं। हमें लगता है कि यह कार्य अत्यन्त आवश्यक है जो प्रत्येक आर्य समाज के विद्वान व सदस्य को अपने सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अवश्य करना चाहिये, ऐसा हम अनुभव करते हैं। यदि श्री जिज्ञासु जी किसी कारण आर्यसमाज को न मिले होते तो आर्यसमाज उनके द्वारा किये गये इन सभी महत्वपूर्ण कार्यों से वंचित रहता। इसके लिए ईश्वर का कोटिशः धन्यवाद है।

प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी वर्तमान के अन्य आर्य विद्वानों से काफी कुछ भिन्न प्रकार का व्यक्तित्व रखते हैं। वह महर्षि दयानन्द के प्रति सर्वात्मा समर्पित हैं। ईश्वर और वेद भक्ति, महर्षि दयानन्द का शिक्षामय जीवन, दयानन्दजी सहित पूर्व ऋषियों व विद्वानों का साहित्य और आर्य महापुरूषों के प्रेरणाप्रद जीवन ही उनकी शक्ति का मुख्य आधार है। इससे प्राप्त शक्ति से ही उन्होंने आर्यसमाज में अपूर्व व प्रभूत साहित्य सृजन का कार्य करके नया कीर्तिमान बनाया है। उन्होंने जितनी स्वलिखित, अनुदित व सम्पादित साहित्यिक सामग्री प्रदान की है, उससे वह वर्तमान के आर्यजगत के सभी विद्वानों में प्रथम स्थान पर खड़े दिखाई देते हैं। विषय की भिन्नताओं के कारण सभी विद्वानों का अपना-अपना महत्व हम समझते हैं परन्तु एक स्कूल के शिक्षक के रूप में सेवा व पारिवारिक दायित्व के साथ वेद व आर्यसमाज के प्रचार, लेखन, अनुसंधान व अनुवाद आदि कार्यों को साथ-साथ निभाते हुए साहित्य का जो विशाल भण्डार हमारे सामने प्रस्तुत किया है, वह आने वाली पीढि़यों के मार्गदर्शन और प्रेरणा का स्रोत बनेगा। आरम्भ से ही हमारा यह विचार रहा है कि वैदिक विद्वान किसी समूह विशेष का नहीं होता। विद्वान सर्वत्र पूज्यते के अनुसार विद्वान सबका पूज्य होता है। इसी के आधार पर हम प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी को भी आर्यसमाज की एक महान विभूति और समाज के सभी अनुयायियों व विद्वानों का पूज्य मानते हैं। हमने यदा-कदा यह भी अनुभव किया है कि कुछ विद्वानों में एक दूसरे के प्रति राग व द्वेष होता है। यह उचित नहीं है। हम महर्षि दयानन्द के शिष्य हैं और हमें उनका ही अनुकरण करना चाहिये। राग, द्वेष व पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सभी विद्वानों का अन्य सभी विद्वानों के प्रति सम्मान, आदर, प्रशंसा, वन्दना का भाव होना चाहिये तथा प्रत्येक को परस्पर पे्ररक व सहयोगी होना चाहिये। हम जिज्ञासु जी को ऐसा ही मानते हैं और आशा करते हैं कि महर्षि दयानन्द के प्रति समर्पित विद्वानों के प्रति वह व सभी विद्वान ऐसा ही भाव रखते हैं व रखेंगे।

प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु सम्प्रति 84 वर्ष की वय पूरी कर वयोवृद्ध हैं फिर भी वह एक युवक की तरह लेखन, अनुवाद, सम्पादन व प्रचार कार्यों में लगे हुए हैं। हमें जानकारी मिली है कि सम्प्रति वह मेहता जैमिनी जी की उर्दू पुस्तक गोमाता प्राणादाता का अन्तिम ईक्ष्यवाचन कर रहे हैं। यह ग्रन्थ विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, नईसड़क, दिल्ली से प्रकाशित होकर कुछ ही दिनों, श्रावणी पर्व अथवा कृष्णजन्माष्टमी पर्व पर उपलब्ध होने की सम्भावना है। जिज्ञासु जी ने इस उर्दू पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद कर गोमाता के महत्व पर उपलब्ध अन्य नवीन सामग्री का समावेश भी उसमें कर दिया है। इस पुस्तक के अनुवाद व प्रकाशन की प्रेरणा हमें प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु लिखित व प्रकाशित मेहता जैमिनी के जीवनचरित को पढ़ते हुए हुई थी जिसके लिए हमने प्रकाशक श्री अजय आर्य जी से निवेदन किया था। जिज्ञासु जी सतत साहित्य के अनुसंधान तथा ऊहापोह में लगे रहते हैं। महर्षि दयानन्द के एक भक्त ठाकुर मुकुन्द सिंह द्वारा सन् 1890 के लगभग उर्दू में प्रकाशित एक 200 पृष्ठीय दुर्लभ ग्रन्थ को भी उन्होंने अलीगढ़ के आर्य बन्धुओं की सहायता से प्राप्त कर लिया है। इस पुस्तक में एक पूरा अध्याय गोमाता के महत्व पर है। इसके अनुवाद कार्य को आप आरम्भ करने वाले हैं। एक आर्यबन्धु द्वारा महाराणा रणजीत सिंह जी पर लिखित पुस्तक भी अपने प्राप्त की है। इस आर्यबन्धु ने अपनी 18 वर्ष की आयु में महाराणा रणजीत सिंह के दर्शन किये थे। इस ग्रन्थ व इसमें विशेषकर आर्यसमाज के लिए लाभप्रद स्थलों के अनुवाद व प्रकाशन की भी आपकी योजना है। इसके साथ ही आप आचार्य वेदपाल जी द्वारा सम्पादित महर्षि दयानन्द के पत्र व विज्ञापनों के अद्यतन संशोधित प्रकाशनाधीन संस्करण के प्रूफ संशोधन व उन पत्रों को महर्षि के जीवन चरित्रों आदि से मिलानकर उसे पाठकों के लिए अधिकाधिक उपयोगी बनाने के कार्य में भी जुटे हैं। इससे पूर्व यही कार्य स्वामी श्रद्धानन्द जी, पं. भगवद्दत्त जी, पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी तथा श्री मामराज जी ने भी किया है। हम यह भी कहना चाहेंगे कि परोपकारिणी सभा को इसका प्रकाशन करते समय इस बात पर भी ध्यान देना चाहिये कि इससे रामलाल कपूर ट्रस्ट के हितों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े जिसने महर्षि दयानन्द के पत्र-व्यवहार का प्रकाशन चार भागों में किया हुआ है।

प्रा. जिज्ञासु जी पाक्षिक पत्र परोपकारी, अजमेर में कुछ तड़पकुछ झड़प नाम से स्तम्भ लिखते हैं। इस शीर्षक से आप प्रत्येक अंक में कुछ प्रमुख ऐतिहासिक, विलुप्त, दुर्लभ व नई जानकारी से पाठको को अवगत कराते हैं। इस बार के अंक में आपने बताया है कि महर्षि दयानन्द अंग्रेजी न्यायालय का अपमान करने वाले पहले भारतीय थे। इसका उदाहरण देते हुए उन्होंने लिखा है कि महर्षि दयानन्द जी सन् 1877 के सितम्बरअक्टूबर मास में जालंधर पधारे थे। तब आपने एक सार्वजनिक सभा में अपनी निर्भीक वाणी से दुखिया देश का दुखड़ा रखते हुए अंग्रेजी राज के अन्याय, पक्षपात तथा उत्पीड़न को इन शब्दों में व्यक्त किया था-‘‘यदि कोई गोरा अथवा अंग्रेज किसी देशी (भारतीय) की हत्या कर दे तथा वह (हत्यारा) न्यायालय में कह दे कि मैंने मद्यपान कर रखा था तो उसको छोड़ देते हैं। इसी लेख से यह भी ज्ञात होता है कि आपकी दो नई पुस्तकें इतिहास की साक्षी, महर्षि दयानन्द सरस्वती और पण्डित श्रद्धाराम फिल्लौरी के सम्बन्ध और प्रसाद’ (उर्दू के महाकवि प्रो. तिलोकचन्दमहरूमके अपने एक प्रसिद्ध शिष्य महाकविमहाशय जैमिनीशरशार को लिखे पत्रों का संग्रह) प्रकाशित हुई हैं। परोपकारी के अगस्त-द्वितीय अंक में यह महत्वपूर्ण जानकारी भी दी गई है कि स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा महाराष्ट्र के सूपा में गुरूकुल स्थापित किया गया था। विगत माह प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु अपनी यात्रा में यहां पधारे। इस गुरूकुल, सूपा में कभी महान देशभक्त नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आकर रहे थे। यह कुछ संक्षिप्त उदाहरण हमने दिये हैं। पत्रिका में उनके दोनों लेख अतीव महत्वपूर्ण हैं। शायद अन्य विद्वानों से ऐसे लेखों की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

जिज्ञासु जी में आर्यसमाज के कार्यों के लिये जो दीवानापन और जुनून है, उससे जुड़ी घटना को प्रस्तुत कर हम लेख को विराम देंगे। जिज्ञासु जी का विगत 11 सितम्बर, 2014 को डा. धर्मवीर जी आदि के साथ केरल की प्रचार यात्रा पर जाने का कार्यक्रम था। 9 सितम्बर को आप कुछ विचारों में खोए हुए अबोहर में पैदल कहीं जा रहे थे। वहीं आसपास कुछ लोग झगड़ रहे थे। अचानक एक लकड़ी का टुकड़ा तेज गति से आकर आपके सिर से टकराया जिससे रक्त प्रवाह होने लगा। घाव काफी गहरा था। डाक्टरों ने आठ टांके लगाकर स्वास्थ्य लाभार्थ आपको पूर्ण विश्राम की सलाह दी। इस स्थिति में भी आप घर पर रूके नहीं और अगले दिन 10 सितम्बर को दिल्ली आ गये जबकि आपकी धर्मपत्नी जी ने आपको बहुंत समझाया। 14 सितम्बर, 2015 को आपने केरल के कार्यक्रम में भाग लिया। केरल में चिकित्सकों ने आपकी चोट की मरहम पट्टी की और इस स्थिति में यात्रा करने को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताया। इस पर भी आप केरल से जोधपुर होते अबोहर वापिस लौटे और लेखन व प्रवचन आदि का कार्य भी निरन्तर करते रहे। यह महर्षि व पं. लेखराम जी वाला जज्बा आपमें है जिससे आपकी ईश्वर-वेद व ऋषि भक्ति की झलक मिलती है। सभी ऋषिभक्तों को जिज्ञासु जी के जीवन की इस घटना से प्रेरणा लेनी चाहिये। इस वर्ष के आरम्भ में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी श्री लक्ष्मण जिज्ञासु, गाजियाबाद के पुत्र के नामकरण संस्कार में सम्मिलित हुए थे। अनेक अन्य आर्य विद्वान भी इस आयोजन में उपस्थित थे। इस अवसर पर डा. धर्मवीर जी ने जिज्ञासु जी को आर्यसमाज के भीष्म पितामह कहकर सम्बोधित किया। जिज्ञासु जी के लिए प्रयुक्त यह शब्द व उपधि उचित ही है। उन्होंने जीवन भर पं. लेखराम व अन्य प्रसिद्ध विद्वानों की परम्परा का निर्वाह किया है। उनके उत्तराधिकारी की आर्यसमाज को प्रतिक्षा है। ईश्वर से हमारी विनती है कि वह जिज्ञासु जी को स्वस्थ रखें और वह दीर्घायु हों तथा इसी उत्साह से अनुसंधान, लेखन, सम्पादन, अनुवाद व प्रकाशन का कार्य करते हुए ऋषि ऋण चुकाते रहे। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

इतिहास प्रदूषक विदुषि लेखिका बहन फरहाना ताज “पार्ट – २”

अंगिरा ऋषि के विषय में मत्स्य पुराण,  भागवत, वायु पुराण महाभारत और भारतवर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष में वर्णन किया गया है।

मत्स्य पुराण में अंगिरा ऋषि की उत्पत्ति अग्नि से कही गई है।

भागवत का कथन है कि अंगिरा जी ब्रह्मा के मुख से यज्ञ हेतु उत्पन्न हुए।

महाभारत अनु पर्व अध्याय 83 में कहा गया है कि अग्नि से महा यशस्वी अंगिरा भृगु आदि प्रजापति ब्रह्मदेव है।

भार्गववंश की मान्यतानुसार महर्षि भृगु का जन्म प्रचेता ब्रह्मा की पत्नी वीरणी के गर्भ से हुआ था। अपनी माता से सहोदर ये दो भाई थे। इनके बडे भाई का नाम
अंगिरा था।

ब्रह्मपुराण अध्याय – ३४ मे ऋषि अंगिरा को विषमबुद्धि से पढ़ाने वाला गुरु अर्थात शिष्यो मे भेदभाव कर पढ़ाने वाला बताया है

इसके अतिरिक्त अंगिरा ऋषि को शिवपुराण मे लोभी लालची आदि बताया है

आप सोच रहे होगे मै ये सब क्यो बता रहा हूं ?

इसलिए बता रहा हूं कि आर्यो के ऋषि सिद्धांतो को बदलने की गहरी साजिश चल रही है वेदो मे इतिहास सिद्ध करने का षडयंत्र रचा जा रहा है यकीन नही ?

फरहाना ताज जी जैसी विदुषि लेखिका का पोस्ट पढ़े वो ये साबित करने की फिराक मे नजर आती है कि कैलाश के राजा शंकर और हृदय मे वेद ज्ञान प्रकाश पाने वाले ऋषियो मे एक ऋषि अंगिरा एक ही है

इनकी लेखनी यही नही रुकी इसके आगे इन्होने और लिखते हुए जोर डाला कि शिव की पूजा करनी है मतलब सच्चे शिव की तो अंगिरा ऋषि को पूजो यही नही हमारी बहन फरहाना ताज जी लिखती है :
“अरे भोले लोगो देवो के देव आदि महादेव की ही पूजा करनी है तो अंगिरा की पूजा करो, शिवपुराण में भी शिव का आदि नाम अंगिरा ही है और अंगिरा के मुख से परमात्मा की वाणी अथर्ववेद प्रकट हुआ, इसलिए वेद पढ़ो।”

मतलब समझ आया ?

हम देवो के देव महादेव यानी ईश्वर की बात करते है क्योकि महादेव ईश्वर को ही संबोधन है हम उन्ही की उपासना करते है मगर हमारी बहन शायद हमारे सिद्धांतो पर चोट करके उन्हे बदल कर हमे ईश्वर के स्थान पर मनुष्य की पूजा करवाना सिखाना चाह रही है लेकिन भूल गई हिन्दू समाज मे भी मुर्दापूजा निकृष्ट है आप उन्हे सच्चाई बताने की जगह एक मुर्दापूजा से निकाल दूसरी मुर्दापूजा मे दाखिला दिलवा रही हो जैसे आर्य समाज मे अंगिरा ऋषि को शिव घोषित कर वेदो मे इतिहास साबित करना चाहती हो

ऋषि अंगिरा और शिव को एक बताने से पहले शिवपुराण पर ही सही से दृष्टि डाल ली होती है, क्योंकि शिवपुराण में ही शिव की शादी के चक्कर में अंगिरा ऋषि को लालची और लोभी बताया है,

क्या आप लोभी और लालची व्यक्ति को शिव या अंगिरा मान सकती हो ? ऊपर और भी प्रमाण दिए हैं की पुराणो में ऋषि अंगिरा का चरित्र कैसा दिखाया है – यदि आपने पुराण ही मानने हैं तो कृपया ऋषि सिद्धांतो पर चलने वाली स्वयं की उद्घोषणा न करे क्योंकि ऋषि ने महापुरषो के चरित्र पर दाग लगाने वाले पुराणो को त्याज्य बताया है और यहाँ ऋषि अंगिरा के चरित्र पर भी पुराण आक्षेप लगा रहे हैं, बेहतर है आप अपने लेख को ठीक करे।

मेरी बहन आर्य समाज सिद्धांत पर आधारित है कृपया अप्रमाणिक तथ्यहीन और मनगढंत बात लिखने से पूर्व एक बार ऋषि के सिद्धांत और उनके महान कर्मो पर दृष्टि जरूर डाले

हो सके तो सत्य को स्वीकार कर असत्य को त्याग दे

नमस्ते

इतिहास प्रदूषक “फरहाना ताज”

आर्य समाज में प्रक्षिप्त और झूठी बातो का प्रचार असहनीय है
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फरहाना ताज जी की बहुत सी पोस्ट देखी – बहुत से मित्र बंधू इन पोस्ट्स को व्हाट्सप्प पर प्रसारित भी करते हैं – कुछ चीज़े वैदिक संपत्ति पुस्तक से उद्धृत हैं और कुछ इनके अपने दिमाग की उपज है –

जो वैदिक संपत्ति से उद्धृत है वो ठीक लगता है मगर जो इनके अपने दिमाग की उपज (व्याख्या) है वो गड़बड़ झाला है – आर्य समाज को बदनाम न करे – आपकी बहुत सी पोस्ट पर कमेंट किया पर आपने आजतक जवाब नहीं दिया – ये बहुत ही खेद का विषय है – कृपया समझे –

1. आपकी पुस्तक “घर वापसी” में आपने अपने पति को आर्य समाजी बताया – मगर वही आर्य समाजी बंधू एक्सीडेंट के बाद पौराणिक बन जाता है ? ऐसा क्यों ?

क्या आप इसे मानती हैं ? यदि हाँ तो आप अंधविश्वास और चमत्कार वाली झूठी बातो का समर्थन करती हैं जो आर्य समाज के सिद्धांत विरुद्ध है। कृपया स्पष्टीकरण देवे।

2. हनुमान जी – एक ऐसा वीर, धर्मात्मा, श्रेष्ठ पुरुष जिसका रामायण में बहुत उत्तम चरित्र है जो रामायण में पूर्ण ब्रह्मचारी पुरुष है। महर्षि दयानंद भी हनुमान जी के ब्रह्मचर्य से पूर्ण सहमत थे। फिर आपने ऐसे महावीर हनुमान को गृहस्थ घोषित कर दिया वो भी बिना कोई प्रमाण ?

केवल दक्षिण के मंदिरो को देखकर ही आपको लग गया की हनुमान जी ब्रह्मचारी नहीं गृहस्थ थे ? ऐसा मंदिर तो दिल्ली के भैरो मंदिर में भी देख लेती वहां भी हनुमान जी के चरित्र को दूषित किया गया है जैसे आप दक्षिण के मंदिरो को प्रमाण मान कर एक पूर्ण ब्रह्मचारी को गृहस्थ घोषित करकर ? यदि वहां के मंदिरो को देखकर ही आपको सिद्ध हो गया की हनुमान जी गृहस्थ ही हैं तो वहां के मंदिरो में तो हनुमान जी बन्दर स्वरुप भी दर्शाया गया होगा तब उन्हें क्यों नहीं मान लेती ?

3. आपने अपनी एक पोस्ट में कहीं लिखा था की ऋषि अंगिरा ही शिव थे – जो कैलाश के राजा हुए – तो मेरी बहन मैं आप से कुछ पूछना चाहता हु –

यदि ऋषि अंगिरा ही शिव थे जो कैलाश के राजा हुए तो इसका मतलब बाकी के बचे तीन ऋषि भी कुछ न कुछ होंगे ? मतलब वो भी कहीं के राजा हुए होंगे ? यानी वो वेद ज्ञान प्राप्त कर राजा हो गये ? फिर उन्होंने वो ज्ञान अन्य मनुष्यो को कैसे सुनाया होगा ? क्योंकि ये वेद श्रुति हैं।

यदि फिर भी मानो तो एक बात बताओ – हमारा इतिहास यही बताता है की इस धरती का पहला राजा “स्वयाय्मभव मनु” महाराज थे – और इसी बात को महर्षि दयानंद भी बता गए। अब मुझे आप बताओ यदि “स्वयाय्मभव मनु” पहले राजा थे तो अंगिरा ऋषि इनसे पहले हुए होंगे क्योंकि उन्हें वेद ज्ञान प्रकाशित हुआ – तो वो आप शिव कल्पना कर कैलाश का राजा बना दिया – तो “स्वयाय्मभव मनु” पहले राजा कैसे हुए ?

कृपया अभी इन ३ के जवाब ही दे देवे – बाकी की आपकी अनेको पोस्ट्स पर जो आपत्ति है उनका भी निराकरण आपसे अवश्य मांगेंगे।

नोट : आपसे निवेदन है कृपया आर्य समाज के सिद्धांतो और नियमो को भली प्रकार समझ कर तब सत्य और असत्य निष्कर्ष निकालकर पोस्ट लिखा करे। हिन्दू समाज वैसे ही बहुत से अंधविश्वासों में डूबा है – अब आर्य समाज को भी अन्धविश्वास की दलदल न बनाये।

नमस्ते।

-इतिहास प्रदूषण- ‘पं. लेखराम एवं वीर सावरकर के जीवन विषयक सत्य घटनाओं का प्रकाश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य अल्पज्ञ है इसलिये उससे अज्ञानता व अनजाने में यदा-कदा भूल व त्रुटियां होती रहती है। इतिहास में भी बहुत कुछ जो लिखा होता है, उसके लेखक सर्वज्ञ न होने से उनसे भी न चाहकर भी कुछ त्रुटियां हो ही जाती हैं। अतः इतिहास विषयक घटनाओं की भी विवेचना व छानबीन होती रहनी चाहिये अन्यथा वह कथा-कहानी ही बन जाते हैं। आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु आर्यसमाज के इतिहास विषयक साहित्य के अनुसंधान व तदविषयक ऊहापोह के धनी है। हिन्दी, अंग्रेजी व उर्दू के अच्छे जानकार है। लगभग 300 ग्रन्थों के लेखक, अनुवादक, सम्पादक व प्रकाशक हैं। नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखते हैं। मिथ्या आरोपों का खण्डन करते हैं। वह इतिहास विषयक एक सन्दर्भ को एक ही पुस्तक में देखकर सन्तोष नहीं करते अपितु उसे यत्र-तत्र खोजते हैं जिससे कि उस घटना की तिथियां व उसकी विषय-वस्तु में जानबूझ, अल्पज्ञता व अन्य किसी कारण से कहीं कोई त्रुटि न रहे। उनके पास प्रकाशित पुस्तकों व लेखों में जाने-अनजाने में की गईं त्रुटियों की अच्छी जानकारी है जिस पर उन्होंने इतिहास प्रदूषण नाम से एक  पुस्तक भी लिखी है। 160 पृष्ठीय पुस्तक का हमने आज ही अध्ययन समाप्त किया है। इस पुस्तक में रक्तसाक्षी पं. लेखराम जी के जीवन की एक घटना के प्रदूषण की ओर भी उनका ध्यान गया है जिसे उन्होंने सत्य की रक्षार्थ प्रस्तुत किया है। हम यह बता दें कि पण्डित लेखराम महर्षि दयानन्द के अनन्य भक्त थे। आपने लगभग 7 वर्ष तक निरन्तर देशभर में घूम कर महर्षि दयानन्द के सम्पर्क में आये प्रत्येक व्यक्ति व संगठनों से मिलकर उनके जीवन विषयक सामग्री का संग्रह किया जिसके आधार पर उनका प्रमुख व सर्वाधिक महत्वपूर्ण जीवनचरित्र लिखा गया। 39 वर्ष की अल्प आयु में ही एक मुस्लिम युवक ने धोखे से इनके पेट में छुरा घोप कर इन्हें वैदिक धर्म का पहली पंक्ति का शहीद बना दिया था। कवि हृदय प्रा. जिज्ञासु जी ने इस शहादत पर यह पंक्तियां लिखी हैं-जो देश को बचा सकें, वे हैं कहां जवानियाँ ? जो अपने रक्त से लिखें, स्वदेश की कहानियां।। पं. लेखराम जी के जीवन की इस घटना को प्रस्तुत करने का हमारा उद्देश्य है कि पाठक यह जान सकें सच्चे विद्वानों से भी अनजाने में इतिहास विषयक कैसी-कैसी भूलें हो जाती हैं, इसका ज्ञान हो सके।

 

स्मृतिदोष की यह घटना आर्यजगत के प्रसिद्ध विद्वान जिन्हें भूमण्डल प्रचारक के नाम से जाना जाता है, उन मेहता जैमिनी से सम्बन्ध रखती है। मेहता जैमिनी जी की स्मरण शक्ति असाधारण थी। इस कारण वह चलते फिरते इतिहास के ग्रन्थ थे। उनकी स्मरण शक्ति कितनी भी अच्छी हो परन्तु वह थे तो एक जीवात्मा ही। जीव की अल्पज्ञता के कारण उनमें भी अपवाद रूप में स्मृति दोष पाया गया है। आपकी स्मृति दोष की एक घटना से आर्यसमाज में एक भूल इतिहास बन कर प्रचलित हो गई। प्रा. जिज्ञासु जी बताते हैं कि यह सम्भव है कि इस भूल का मूल कुछ और हो परन्तु उनकी खोज व जांच पड़ताल यही कहती है कि यह भ्रान्ति मेहता जैमिनि जी के लेख से ही फैली। घटना तो घटी ही। यह ठीक है परन्तु श्री मेहता जी के स्मृति-दोष से इतिहास की इस सच्ची घटना के साथ कुछ भ्रामक कथन भी जुड़ गया। कवियों ने उस पर कविताएं लिख दीं। लेखकों ने लेख लिखे। वक्ताओं ने अपने ओजस्वी भाषणों में उस घटना के साथ जुड़ी भूल को उठा लिया। घटना तो अपने मूल स्वरूप में ही बेजोड़ है और जो बात मेहता जी ने स्मृति-दोष से लिख दी व कह दी उससे उस घटना का महत्व और बढ़ गया।

 

घटना पं. लेखराम जी के सम्बन्ध में है। इसे आर्यसमाजेतर जाति प्रेमी हिन्दू भी कुछ-कुछ जानते हैं। यह सन् 1896 की घटना है। पं. लेखराम जी सपरिवार तब जालन्धर में महात्मा मुंशीराम (बाद में स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती) जी की कोठी से थोड़ी दूरी पर रेलवे लाईन के साथ ही एक किराये के मकान में रहते थे। मेहता जैमिनि जी (तब जमनादास) भी जालन्धर में ही रहते थे। मुंशीराम जी आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान थे। मेहता जैमिनि जी सभा प्रधान के पास बैठे हुए थे। पण्डित लेखराम जी प्रचार-यात्रा से लौटकर आये। महात्मा मुंशी राम जी ने उन्हें बताया कि मुस्तफाबाद (जिला अम्बाला) में पांच हिन्दू मुसलमान होने वाले हैं। आपका प्रिय पुत्र सुखदेव रूग्ण है। आप तो उसको देखें, सम्भालें ( उपचार करायें) मैं हकीम सन्तराम जी (जो शाहपुरा राजस्थान भी रहे) को तार देकर वहां जाने के लिए कहता हूं।

 

मेहता जी ने अपने इस विषयक लेख में लिखा है-‘‘नहीं, वहां तो मेरा (पं. लेखराम का) ही जाना ठीक है। मुझे अपने एक पुत्र से (आर्यहिन्दू) जाति के पांच पुत्र अधिक प्यारे हैं। आप वहां तार दे दें। मैं सात बजे की गाड़ी से सायं को चला जाऊंगा। यह भी लिखा कि वह केवल दो घण्टे घर पर रुके। उनकी अनुपस्थिति में डा. गंगाराम जी ने बड़ा उपचार निदान किया, परन्तु सुखदेव को बचाया न जा सका। 18 अगस्त 1896 ई. को वह चल बसा। (द्रष्टव्यः ‘आर्यवीर’ उर्दू का शहीद अंक सन् 1953 पृष्ठ 9-10)।  ईश्वर का विधि-विधान अटल है। जन्म-मृत्यु मनुष्य के हाथ में नहीं है।

 

जिज्ञासु जी आगे लिखते हैं कि यह तो हम समझते हैं कि पण्डित जी के लौटने पर मेहता जी ने महात्मा जी पण्डित जी का संवाद अवश्य सुना, परन्तु आगे का घटनाक्रम उनकी स्मृति से ओझल हो गया। पण्डित जी पुत्र की मृत्यु के समय जालन्धर में ही थे। घर से बाहर होने की बात किसी ने नहीं लिखी। वह पुत्र के निधन के पश्चात् मुस्तफाबाद जाति रक्षा के लिए गये। अब इस सम्बन्ध में और अधिक क्या लिखा जाए? एक छोटी सी चूक से इतिहास में भ्रम फैल गया। लोक झूम-झूम कर गाते रहे-

 

लड़का तिरा बीमार था

                        शुद्धि को तू तैयार था ।।

                        मरने का पहुंचा तार था।

                        पढ़कर के तार यूं कहा।।

                        लड़का मरा तो क्या हुआ।

                        दुनिया का है यह सिलसिला ।।

 

इससे भी अधिक लिफाफे वाले गीत को लोकप्रियता प्राप्त हुई। अब तो वह गीत नहीं गाया जाता। उस गीत की ये प्रथम चार पंक्तियां स्मृति-दोष से इतिहास प्रदूषण का अच्छा प्रमाण है।

 

लिफाफा हाथ में लाकर दिया जिस वक्त माता ने।

                        लगे झट खोलकर पढ्ने दिया है छोड़ खाने को।।

                        मेरा इकलौता बेटा मरता है तो मरने दो लेकिन

                        मैं जाता हूं हजारों लाल जाति के बचाने को।।

 

इस प्रसंग की समाप्ति पर जिज्ञासु जी कहते हैं कि स्मृति दोष से बचने का तो एक ही उपाय है कि इतिहास लेखक घटना के प्रमाण को अन्यान्य संदर्भों से मिलाने को प्रमुखता देवें।

 

विद्वान लेखक प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु ने वीर सावरकर पर भी एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। हम इस प्रसंग से पहली बार परिचित हुए हैं जिसे हम पाठकों के साथ साज्ञा कर रहे हैं। पुस्तक इतिहास प्रदूषण में लेखक ने लिखा है कि वीर सावरकर ने अपनी आत्मकथा में ऋषि दयानन्द तथा आर्य समाज से प्राप्त ऊर्जा प्रेरणा की खुलकर चर्चा की है। यदि ये बन्धु लार्ड रिपन के सेवा निवृत्त होने पर काशी के ब्राह्मणों द्वारा उनकी शोभा यात्रा में बैलों का जुआ उतार कर उसे अपने कन्धों पर धरकर उनकी गाड़ी को खींचने वाला प्रेरक प्रसंग (श्री आर्यमुनि, मेरठवैदिकपथपत्रिका में वीर सावरकर जी पर प्रकाशित अपने लेख में) उद्धृत कर देते तो पाठकों को पता चला जाता कि इस विश्व प्रसिद्ध क्रान्तिकारी को देश के लिए जीने मरने के संस्कार विचार देने वालों में ऋषि दयानन्द अग्रणी रहे। इसी क्रम में दूसरी घटना है कि मगर आर्यसमाज ने जब अस्पृश्यता निवारण के लिए एक बड़ा प्रीतिभोज आयोजित किया तो आप (यशस्वी वीर सावरकर जी) विशेष रूप से इसमें भाग लेने के लिए अपने जन्मस्थान पर पधारे। इससे यह एक ऐतिहासिक घटना बन गई। इस लेखक (प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु) ने कई बार लिखा है कि भारत के राजनेताओं में से वीर सावरकर ने सर्वाधिक आर्य हुतात्माओं तथा देशभक्तों पर हृदय उड़ेल कर लेख लिखे हैं। आर्यसमाज ऋषि के विरोधियों को लताड़ने में वीर सावरकर सदा अग्रणी रहे। कम से कम भाई परमानन्द स्वामी श्रद्धानन्द जी की चर्चा तो की जानी चाहिये। आपके एक प्रसिद्ध पत्र का नाम ही श्रद्धानन्द था। यह पत्र भी इतिहास साहित्य में सदा अमर रहेगा। 

 

महर्षि दयानन्द आर्यसमाज संगठन के प्रति समर्पित अनेक विद्वान हुए हैं परन्तु जो श्रद्धा, समर्पण, इतिहास साहित्य के अनुसंधान की तड़फ पुरूषार्थ सहित महर्षि समाज के प्रति दीवानगी वर्तमान समय में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी में दिखाई देती है, वह अन्यतम एव अनुकरणीय है। नाज नखरों से रहित उनका जीवन एक सामान्य सरल व्यक्ति जैसा है। आज की हाईफाई जीवन शैली से वह कोसों दूर हैं। उन्होंने आर्यसमाज को जो विस्तृत खोजपूर्ण प्रामाणिक साहित्य प्रदान किया है वह स्वयं में एक कीर्तिमान है। पाठकों हममें उनका समस्त साहित्य प्राप्त कर अध्ययन करने की क्षमता भी नहीं है। हम उनकी ऋषिभक्ति खोजपूर्ण साहित्यिक उपलब्धियों के प्रति नतमस्तक हैं।  उनके साहित्य का अध्ययन करते हुए जबजब हमें नये खोजपूर्ण प्रसंग मिलते हैं तो हम गद्गद् हो जाते हैं और हमारा हृदय उनके प्रति श्रद्धाभक्ति से भर जाता है। कुछ अधूरे प्रसंग पढ़कर संदर्भित पुस्तक तथा प्रमाण तक हमारी पहुंच होने के कारण मन व्यथित भी होता है। उनके समस्त साहित्य में ऋषि भक्ति साहित्यिक मणिमोती बिखरे हुए हैं जो अध्येता को आत्मिक सुख देते हैं। हम ईश्वर से अपने इस श्रद्धेय विद्वान की शताधिक आयु के स्वस्थ क्रियात्मक जीवन की प्रार्थना करते हैं।

हम समझते हैं कि लेखकों से स्मृति दोष व अन्य अनेक कारणों से ऐतिहासिक घटनाओं के चित्रण व वर्णन में भूलें हो जाती हैं। इतिहास में विगत कई शताब्दियों से अज्ञानता व स्वार्थ के कारण धार्मिक व सांस्कृतिक साहित्य में परिवर्तन, प्रेक्षप, मिलावट व हटावट होती आ रही है जिसे रोका जाना चाहिये। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की इतिहास प्रदूषण पुस्तक इसी उद्देश्य से लिखी गई है। विद्वान लेखक ने अपनी इस पुस्तक में जाने-अनजाने में होने वाली भूलों के सुधार के लिए एक से अधिक प्रमाणों को देखकर व मिलान कर ही पुष्ट बातों को लिखने का परामर्श दिया है जो कि उचित ही है। इतिहास प्रदूषण से बचने के उनके द्वारा दिये गये सभी सुझाव यथार्थ व उपयोगी हैं। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

अनवर जमाल साहब की पुस्तक “दयानंद जी ने क्या खोया क्या पाया” के प्रतिउत्तर में :

।। ओ३म ।।जनाब अनवर जमाल साहब ऋषि के ज्ञान और वेद के विज्ञानं पर शंका उत्पन्न करते हुए लिखते हैं :

यदि दयानन्द जी की अविद्या रूपी गांठ ही नहीं कट पायी थी और वह परमेश्वर के सामीप्य से वंचित ही रहकर चल बसे थे तो वह परमेश्वर की वाणी `वेद´ को भी सही ढंग से न समझ पाये होंगे? उदाहरणार्थ, दयानन्दजी एक वेदमन्त्र का अर्थ समझाते हुए कहते हैं-
`इसीलिए ईश्वर ने नक्षत्रलोकों के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया।´ (ऋग्वेदादि0, पृष्‍ठ 107)
(17) परमेश्वर ने चन्द्रमा को पृथ्वी के पास और नक्षत्रलोकों से बहुत दूर स्थापित किया है, यह बात परमेश्वर भी जानता है और आधुनिक मनुष्‍य भी। फिर परमेश्वर वेद में ऐसी सत्यविरूद्ध बात क्यों कहेगा?
इससे यह सिद्ध होता है कि या तो वेद ईश्वरीय वचन नहीं है या फिर इस वेदमन्त्र का अर्थ कुछ और रहा होगा और स्वामीजी ने अपनी कल्पना के अनुसार इसका यह अर्थ निकाल लिया । इसकी पुष्टि एक दूसरे प्रमाण से भी होती है, जहाँ दयानन्दजी ने यह तक कल्पना कर डाली कि सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रादि सब पर मनुष्‍यदि गुज़र बसर कर रहे हैं और वहाँ भी वेदों का पठन-पाठन और यज्ञ हवन, सब कुछ किया जा रहा है और अपनी कल्पना की पुष्टि में ऋग्वेद (मं0 10, सू0 190) का प्रमाण भी दिया है-
`जब पृथिवी के समान सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं पश्चात उनमें इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह? और जैसे परमेश्वर का यह छोटा सा लोक मनुश्यादि सृष्टि से भरा हुआ है तो क्या ये सब लोक शून्‍य होंगे? (सत्यार्थ., अश्टम. पृ. 156)
(18) क्या यह मानना सही है कि ईश्वरोक्त वेद व सब विद्याओं को यथावत जानने वाले ऋषि द्वारा रचित साहित्य के अनुसार सूर्य व चन्द्रमा आदि पर मनुष्‍य आबाद हैं और वो घर-दुकान और खेत खलिहान में अपने-अपने काम धंधे अंजाम दे रहे हैं?

समीक्षा : अब हमारे जनाब अनवर जमाल साहब कुरान के इल्म से बाहर निकले तो कुछ ज्ञान विज्ञानं को समझे पर क्या करे अल्लाह मिया ने क़ुरान में ऐसा ज्ञान नाज़िल किया की जमाल साहब उसे पढ़कर ही खुद आलिम हो गए। देखिये जमाल साहब ऋषि ने क्या कहा और उसका अर्थ क्या निकलता है :

ऋषि ने लिखा :

`इसीलिए ईश्वर ने नक्षत्रलोकों के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया।´ (ऋग्वेदादि0, पृष्‍ठ 107)

अब इसका फलसफा और विज्ञानं देखो – ऋषि को वेदो से जो ज्ञान और विज्ञानं मिला वो इन जमाल साहब को नजर नहीं आएगा –

आकाश में तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं। साधारणतः यह चन्द्रमा के पथ से जुडे हैं, पर वास्तव में किसी भी तारा-समूह को नक्षत्र कहना उचित है।

ऋषि का अर्थ है क्योंकि चन्द्रमा नक्षत्रो के पथ से जुड़ा है इसलिए अलंकार रूप में वहां लिखा है की नक्षत्रलोको के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया –

अब इसका वैज्ञानिक प्रभाव देखो :

तारे हमारे सौर जगत् के भीतर नहीं है। ये सूर्य से बहुत दूर हैं और सूर्य की परिक्रमा न करने के कारण स्थिर जान पड़ते हैं—अर्थात् एक तारा दूसरे तारे से जिस ओर और जितनी दूर आज देखा जायगा उसी ओर और उतनी ही दूर पर सदा देखा जायगा। इस प्रकार ऐसे दो चार पास-पास रहनेवाले तारों की परस्पर स्थिति का ध्यान एक बार कर लेने से हम उन सबको दूसरी बार देखने से पहचान सकते हैं। पहचान के लिये यदि हम उन सब तारों के मिलने से जो आकार बने उसे निर्दिष्ट करके समूचे तारकपुंज का कोई नाम रख लें तो और भी सुभीता होगा। नक्षत्रों का विभाग इसीलिये और इसी प्रकार किया गया है।

चंद्रमा २७-२८ दिनों में पृथ्वी के चारों ओर घूम आता है। खगोल में यह भ्रमणपथ इन्हीं तारों के बीच से होकर गया हुआ जान पड़ता है। इसी पथ में पड़नेवाले तारों के अलग अलग दल बाँधकर एक एक तारकपुंज का नाम नक्षत्र रखा गया है। इस रीति से सारा पथ इन २७ नक्षत्रों में विभक्त होकर ‘नक्षत्र चक्र’ कहलाता है। नीचे तारों की संख्या और आकृति सहित २७ नक्षत्रों के नाम दिए जाते हैं।

इन्हीं नक्षत्रों के नाम पर महीनों के नाम रखे गए हैं। महीने की पूर्णिमा को चंद्रमा जिस नक्षत्र पर रहेगा उस महीने का नाम उसी नक्षत्र के अनुसार होगा, जैसे कार्तिक की पूर्णिमा को चंद्रमा कृत्तिका वा रोहिणी नक्षत्र पर रहेगा, अग्रहायण की पूर्णिमा को मृगशिरा वा आर्दा पर; इसी प्रकार और समझिए।

ये ज्ञान और विज्ञानं वेदो में ही दिखता है क़ुरान में नहीं जमाल साहब।

क़ुरान का विज्ञानं हम दिखाते हैं जरा गौर से देखिये :

1. अल्लाह मियां तो क़ुरान में चाँद को टेढ़ी टहनी ही बनाना जानता है :

और रहा चन्द्रमा, तो उसकी नियति हमने मंज़िलों के क्रम में रखी, यहाँ तक कि वह फिर खजूर की पूरानी टेढ़ी टहनी के सदृश हो जाता है
(क़ुरआन सूरह या-सीन ३६ आयत ३९)

क्या चाँद कभी अपने गोलाकार स्वरुप को छोड़ता है ? क्या अल्लाह मियां नहीं जानते की ये केवल परिक्रमा के कारण होता है ?

2. सूरज चाँद के मुकाबले तारे अधिक नजदीक हैं :

और (चाँद सूरज तारे के) तुलूउ व (गुरूब) के मक़ामात का भी मालिक है हम ही ने नीचे वाले आसमान को तारों की आरइश (जगमगाहट) से आरास्ता किया।
(सूरह अस्साफ़्फ़ात ३७ आयत ६)

क्या अल्लाह मिया भूल गए की सूरज से लाखो करोडो प्रकाश वर्ष की दूरी पर तारे स्थित हैं ?

3. क़ुरान के मुताबिक सात ग्रह :

ख़ुदा ही तो है जिसने सात आसमान पैदा किए और उन्हीं के बराबर ज़मीन को भी उनमें ख़ुदा का हुक्म नाज़िल होता रहता है – ताकि तुम लोग जान लो कि ख़ुदा हर चीज़ पर कादिर है और बेशक ख़ुदा अपने इल्म से हर चीज़ पर हावी है।

(सूरह अत तलाक़ ६५ आयत १२)

क्या सात आसमान और उन्ही के बराबर सात ही ग्रह हैं ? क्या खुदा को अस्ट्रोनॉमर जितना ज्ञान भी नहीं की आठ ग्रह और पांच ड्वार्फ प्लेनेट होते हैं।

4. शैतान को मारने के लिए तारो को शूटिंग मिसाइल बनाना भी अल्लाह मिया की ही करामात है।

और हमने नीचे वाले (पहले) आसमान को (तारों के) चिराग़ों से ज़ीनत दी है और हमने उनको शैतानों के मारने का आला बनाया और हमने उनके लिए दहकती हुई आग का अज़ाब तैयार कर रखा है।

(सूरह अल-मुल्क ६७ आयत ५)

मगर जो (शैतान शाज़ व नादिर फरिश्तों की) कोई बात उचक ले भागता है तो आग का दहकता हुआ तीर उसका पीछा करता है

(सूरह सूरह अस्साफ़्फ़ात ३७ आयत १०)

क्या अल्लाह को तारो और उल्का पिंडो में अंतर नहीं पता जो तारो को शूटिंग मिसाइल बना दिया ताकि शैतान मारे जावे ? और उल्का पिंड जो है वो धरती के वायुमंडल में घुसने वाली कोई भी वस्तु को घर्षण से ध्वस्त कर देती है जो जल्दी हुई गिरती है ये सामान्य व्यक्ति भी जानते हैं इसको शैतान को मारने वाले मिसाइल बनाने का विज्ञानं खुद अल्लाह मियां तक ही सीमित रहा गया।

रही बात सूर्यादि ग्रह पर प्रजा की बात तो आज विज्ञानं स्वयं सिद्ध करता है की सूर्य पर भी फायर बेस्ड लाइफ मौजूद है। ज्यादा जानकारी के लिए लिंक देखिये :

http://www.theonion.com/article/scientists-theorize-sun-could-support-fire-based-l-34559

अब किसको ज्ञान ज्यादा रहा जमाल साहब ?

आपके क़ुरान नाज़िल करने वाले अल्लाह मिया को ?

या वेद को पढ़कर पूर्ण ज्ञानी ऋषि की उपाधि प्राप्त करने वाले महर्षि दयानंद को।

लिखने को तो और भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है मगर आपकी इस शंका पर इतने से ही पाठकगण समझ जाएंगे इसलिए अपनी लेखनी को विराम देता हु – बाकी और भी जो आक्षेप आपकी पुस्तक में ऋषि और सत्यार्थ प्रकाश पर उठाये हैं यथासंभव जवाब देने की कोशिश रहेगी

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लौटो वेदो की और

नमस्ते

 

हिन्दुस्तान किस तरह मुसलमान हुआ ?

मौलवी जकाउल्ला प्रोफेसर फरमाते है । यह असली मुसलमान कुल मुसलमानों से जो इस मुल्क में आबाद है आधे होंगे। वाकी आधे ऐसे ही मुसलमान है जो हिन्दुओं से मुसलमान हुए है । सरकारी मर्दुमशुमारी से मालूम होता है कि हिन्दुस्तान में ४ करोड़ १० लाख मुसलमान रहते हैं । उनमें से जियादह मुसलमान जो हिन्दुओं से मुसलमान हुए हैं । गो इस्लाम

ने उनके सिद्धान्तो को बदल दिया मगर उनके रस्म रिवाज को न बदल सका । गोकि वह आपस में मिलकर खाने पीने लगे मगर शादी व्याह में अब तक गोत्र बचाते है जैसे हिन्दू-गरज इस्लाम का असर हिन्दुओं पर ऐसा नहीं हुआ जैसाकि हिन्दुओं का असर इस्लाम पर हुआ ।
(देखो तारीख हिन्द हिस्सा अव्वल फस्ल दौम सफा 6)

अब हम बतलाते हैं कि इतने जो मुसलमान है । ये किस तरह मुसलमान हुए हैं और कब से हुए हैं और सब से पहिला मुसलमान इस मुल्क में कौन हुआ है ।

मुल्क हिन्दुस्तान में सबसे अव्वल मुसलमान वापा राजपूत चित्तोड़ के मालिक ने सन् 812 ई० में खमात्त के हाकिस सलीम की लड़की से शादी कर सी और मुसलमान हुआ मगर मुसलमान हॉकर लज्जित हॉकर खुरासान चला गया … फिर न आया उसका हिन्दू बेट गद्दी पर
बैठा । (देखो आईन तारीख नुमा सफा सन् 1881 ई० ।)

सन् 812 ई॰ से खलीफा मामू रसीद ने बडी फोज के साथ हिन्दुस्तान पर चढाई की । वापा का पोता उस वक्त चितौड़ का हाकिम था … नाम उसका राजा कहमान था । उससे ओर मामूं से जो बीस लडाहयां हुई लेकिन आखिरकार मामूं शिकिस्त खाकर हिन्दूस्तान से भाग गया । (सफा 6 आईना तारीख नुमा सन् 1881 ई० और देखो मिफ्ताहुद तवारीख सफा
(7 सन् 1883 त्तवये सालिस हिस्सा अव्वल)

हिन्दुस्तान का दूसरा मुसलमान राजा सुखपाल नाम महमूद के हाथ राज्य के लालच में मुसलमान हुआ । मगर लिखा है जब महमूद बलख की तरफ़ गया तो उसने फिर हिन्दू बनकर उसकी तावेदारी की । महमूद ने सन् 1006 ई॰ में उसे पकड़कर जन्म भर के लिये कैद कर दिया (सफा 16 आईने त्तारीख नुमा सन् 1881 ई० और मुखताहुद तवारीख सफा 9 सन्
1883 ई० हिस्सा अव्वल)

मनुष्य का सैद्धांतिक और नीतिगत भोजन शाकाहार है, मांसाहार नहीं।

भोजन की बात होती है – तो सैद्धांतिक तौर पर – भोजन वो होना चाहिए – जिससे न तो किसी का दोष लगा हो – ना पाप करके चोरी करके लाये हो – न ही हत्या अथवा हिंसा करके –

हिंसा कहते हैं – जो वैर भाव से किया गया कृत्य हो।

लेकिन यदि हम भोजन के तौर पर देखे की क्या खाया जाये – तो एक निर्धारण होता है – एक नियम है – उसकी और ध्यान देना आवश्यक है – क्योंकि ईश्वर ने मनुष्य बनाया तो उसकी भोजन सामग्री भी अवश्य बनाई होगी और वो ऐसी होनी चाहिए जो सुगम हो सर्वत्र हो आकर्षित करने वाली हो – जो हमारे खाने योग्य हो –

तो ऐसी क्या चीज़ ईश्वर ने बनाई ?

पशु ? पक्षी ? बकरा ? मुर्गा ? बैल ? गाय ? सूअर ?

जी नहीं – क्योंकि न तो इनको देखकर खाने का आकर्षण होता – और न ही इन पशुओ को आपसे वैसा भय रहता जैसे की चीता शेर आदि हिंसक जानवरो से – यदि ये पशु मनुष्य के लिए बने गए होते तो आपके दांत – नाख़ून – पंजे – पेट की आंत – भोजन नली – आदि सब हिंसक जानवरो – पशुओ जैसी होती – जबकि ऐसा नहीं है –

पर यदि आप ध्यान से देखो – तो आपको सुन्दर प्राकृतिक वन – पेड़ पौधे – फल फूल – सुन्दर सुन्दर खुशबू – फूलो का प्राकर्तिक सौंदर्य आपके मन को भाता है – हम अपने घर आँगन को ऐसी ही सजाते हैं –

यदि हमें प्राकर्तिक तौर पर माँसाहारी बनाया होता तो हमें पेड़ पौधों फूलो की अपेक्षा हड्डी मांस खून आदि से विशेष लगाव होता – और अपने घर आदि भी ऐसे ही हड्डी मांस खून आदि से सजाते – जबकि ऐसा नहीं होता।

विशेष बात है की – जब हम पेड़ से आम तोड़ते या धान गेहू की फसल काटते तो कोई भागता नहीं है – क्योंकि वो भागने के लिए बनाये ही नहीं – और इसमें हिंसा भी नहीं हुई क्योंकि वैर भाव नहीं था वो जीवो के भोजन हेतु ही बनाये गए हैं – ये सिद्ध होता है।

दुनिया में सभी शाकाहारी है – क्योंकि बिना शाक – गेहू ज्वर बाजरा सरसो – मूली टमाटर = कुछ नहीं बना सकते – न खा ही सकते – इसलिए दुनिया का कोई मनुष्य अपने को शाकाहारी नहीं हु ऐसा सैद्धांतिक तौर पर नहीं कह सकता –

पर कुछ लोग वो खाते हैं जो सभी मनुष्य नहीं खाते –
और जो सब मनुष्य खाते हैं उसे ही शाकाहार कहा जाता है

इसलिए शाकाहारी तो सभी हैं – मांसभक्षी भी शाकाहार ही खाता है – पर क्योंकि सभी मनुष्य मांस नहीं खाते इसलिए वो अपने को मांसाहारी भी कहता है – और बिना शाकाहार उसका मांस व्यर्थ है – इसलिए क्यों नहीं शाकाहार अपनाया जाये ?

शेष फिर कभी………

ईश्वर निराकार है – एक तर्कपूर्ण समाधान

शंका निवारण :

पूर्वपक्षी : क्या ईश्वर के हाथ पाँव आदि अवयव हैं ?

उत्तरपक्षी : ये शंका आपको क्यों हुई ?

पूर्वपक्षी : क्योंकि बिना हाथ पाँव आदि अवयव ईश्वर ने ये सृष्टि कैसे रची होगी ? कैसे पालन और प्रलय करेगा ?

उत्तरपक्षी : अच्छा चलिए में आपसे एक सवाल पूछता हु – क्या आप आत्मा रूह जीव को मानते हैं ?

पूर्वपक्षी : जी हाँ – में आत्मा को मानता हु – सभी मनुष्य पशु आदि के शरीर में है – पर ये मेरे सवाल का जवाब तो नहीं – मेरे पूछे सवाल से इस जवाब का क्या ताल्लुक ? कृपया सीधा जवाब दीजिये।

उत्तरपक्षी : भाई साहब कुछ जवाब खोजने पड़ते हैं – खैर चलिए ये बताये शरीर में हाथ पाँव आदि अवयव होते हैं क्योंकि जीव को इनसे ही सभी काम करने होते हैं – पर जो आत्मा होती है उसके अपने हाथ पाँव भी होते हैं क्या ?

पूर्वपक्षी : नहीं होते।

उत्तरपक्षी : क्यों नहीं होते ?

पूर्वपक्षी : #$*&)_*&(*#$*$()
(सर खुजाते हुए – कोई जवाब नहीं – चुप)

उत्तरपक्षी : जब एक आत्मा जो सर्वशक्तिमान ईश्वर के अधीन है – बिना हाथ पाँव अवयव आदि के – मेरे इस शरीर में विद्यमान रहकर – शरीर को चला सकती है – तो ईश्वर जो सर्वशक्तिमान है – वो ये सृष्टि का निर्धारण उत्पत्ति प्रलय सञ्चालन वो भी बिना हाथ पाँव आदि अवयव क्यों नहीं कर सकता ? इसमें आपको कैसे शंका ? कमाल के ज्ञानी हो आप ?

पूर्वपक्षी : #$*&)_*&(*#$*$()
(चुपचाप गुमसुम चले गए)