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हमारी आकांक्षाएं सत्य हों -रामनाथ विद्यालंकार

हमारी आकांक्षाएं सत्य हों

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता इन्द्रः । छन्दः भुरिग् ब्राह्मी पङ्किः।

मीदमिन्द्रऽइन्द्रियं दधात्वस्मान् रायो मघवानः सचन्ताम्। अस्माक सन्त्वाशिषः सत्या नः सन्त्वाशिषऽउपहूता पृथिवी मातोप मां पृथिवी माता हृयतामग्निराग्नीध्रात् स्वाहा ॥

– यजु० २ । १० |

( मयि ) मुझमें ( इन्द्रः ) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वर ( इदम् इन्द्रियम् ) इस इन्द्रिय-बल को ( दधातु ) स्थापित करे। ( अस्मान् ) हमें, हमारे राष्ट्र को ( रायः ) आध्यात्मिक धने तथा सुवर्ण, चक्रवर्ती राज्य आदि भौतिक धन और (मघवानः ) आध्यात्मिक एवं भौतिक धनों के धनी जन ( सचन्ताम् ) प्राप्त हों। ( अस्माकं ) हमारी ( सन्तु) हों (आशिषः ) उच्च आकांक्षाएँ। ( सत्याः सन्तु ) सत्य हों (नः आशिषः ) हमारी आकांक्षाएँ और हमारे आशीर्वाद। मेरे द्वारा ( उपहूता ) पुकारी जा रही है (पृथिवीमाता) भूमि माता, ( माम् ) मुझे ( पृथिवी माता ) भूमि माता ( उप ह्वयताम् ) अपने समीप पुकारे । ( अग्निः ) यज्ञाग्नि और सूर्याग्नि ( आग्नीध्रात् ) अन्तरिक्ष से (स्वाहा ) भूमि पर जल की आहुति दे, अर्थात् वर्षा करे।

प्रत्येक मनुष्य जीवन में उन्नति करने के लिए कुछ आकांक्षाएँ अपने अन्दर संजोता है। हमारी भी कुछ आकांक्षाएँ हैं। प्रथम आकांक्षा यह है कि जगदीश्वर हमारे अन्दर इन्द्रिय बल को स्थापित करे। बलविहीन इन्द्रियाँ अकिंचित्कर होती हैं । हम प्रतिदिन प्रात: सायं अपनी दैनिक सन्ध्या में अङ्गस्पर्श के मन्त्रों द्वारा इन्द्रिय-बल की प्रार्थना करते हैं-हमारे वाक्, प्राण, चक्षु, श्रोत्र आदि अङ्गों को बल और यश प्राप्त हो ।

इन्द्रियों में बल नहीं होगा, तो यश प्राप्त नहीं हो सकता। इस प्रार्थना में मन-रूप अन्तरिन्द्रिय को भी सम्मिलित समझना चाहिए। हमारे मन को भी बल और यश प्राप्त होना चाहिए। मनोबल के बली लोगों ने बहुत यश प्राप्त किया है। मनोबल से ही उपनिषद् के ऋषि महिदास ऐतरेय ने अपने जीवन को यज्ञरूप में चला कर ११६ वर्ष की आयु पाने का यश अर्जित किया था। हमारी ये सब इन्द्रियाँ कर्मेन्द्रियोंसहित जरामरणपर्यन्त अपनी-अपनी शक्ति से समन्वित रहें, तो हम जराजीर्ण कभी नहीं होंगे। | हमारी दूसरी आकांक्षा यह है कि हमें, हमारे समाज को और हमारे राष्ट्र को विद्या, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, न्याय, धर्मात्मता, भूतदया आदि आध्यात्मिक धन तथा सुवर्ण, हीरे, मोती, चक्रवर्ती राज्य आदि भौतिक धन प्रचुर रूप में प्राप्त हो तथा आध्यात्मिक एवं भौतिक धन के धनी धर्मनिष्ठ जन भी प्राप्त हों। आध्यात्मिक धन के धनी योगी महात्मा जन लोक में आध्यात्मिकता का प्रवाह चलाते हैं और भौतिक धन के धनी लोग विविध शुभ कार्यों में अपनी सम्पत्ति को लगा कर लोककल्याण करते हैं।

हम यह भी चाहते हैं कि हमारी आकांक्षाएँ उच्च हों और वे सत्य सिद्ध हों। यों ही शेखचिल्ली की तरह हम आकांक्षाओं के पुल न बाँधते रहें, प्रत्युत प्रयास करके उन्हें पूर्ण भी करें। ‘आशिष:’ का अर्थ आशीर्वाद भी होता है। हमारे आशीर्वाद भी सत्य सिद्ध हों। वे पापी को पुण्यात्मा बना सकें। हम पृथिवी माता को पुकारते हैं, पृथिवी माता हमें पुकारे, दुलराये, अपनी खानों में से उत्तमोत्तम वस्तुएँ निकाल कर हमें दे। पृथिवी माता को पुकारने का आशय यह है कि हम पृथिवी से लाभ प्राप्त करने का अधिक से अधिक प्रयास करें। खेती करके हम पृथिवी से अन्न, फल आदि प्राप्त कर सकते हैं, पृथिवी से सोना, चाँदी, लोहा, तांवा, अभ्रक, कोयला, गन्धक आदि खनिज प्राप्त कर सकते हैं, पृथिवी में से तेल और तेल द्रव्य निकाल सकते हैं। हम पृथिवी को पुकारेंगे अर्थात् पृथिवी को दुहने का पूर्ण प्रयास करेंगे, तभी पृथिवी भी हमें अपने अन्दर विद्यमान वस्तुएँ लेने के लिए पुकारेगी। परन्तु पृथिवी हमें तभी पुकार सकती है, अर्थात् अभीष्ट पदार्थ दे सकती है, जब यज्ञाग्नि और सूर्याग्नि द्वारा अन्तरिक्ष से पृथिवी पर प्रचुर वृष्टि होती रहे, पृथिवीरूप यज्ञवेदि में वृष्टिधाराओं की आहुति पड़ती रहे। इसीलिए मन्त्र के अन्त में कहा गया है कि अग्नि (यज्ञाग्नि तथा सूर्याग्नि) अन्तरिक्ष से पृथिवी पर स्वाहापूर्वक वृष्टि की आहुति देता रहे।

हमारी आकांक्षाएं सत्य हों

पाद-टिप्पणियाँ

१. षच समवाये, भ्वादिः ।।

२. अन्तरिक्षं वा आग्नीध्रम्। -श० ९.२.३.१५

 

हमारी आकांक्षाएं सत्य हों

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा -रामनाथ विद्यालंकार

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा

राक्षस प्रकम्पित हों, अराति प्रकम्पित हों

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता:  यज्ञः । छन्दः स्वराड् जगती ।

शर्मास्यवधूतरक्षोऽवधूताऽअरितयोऽदित्यास्त्वगसि प्रति त्वादितिर्वेत्तु। अद्रिरसि वानस्प॒त्यो ग्रावसि पृथुबुध्नुः प्रति॒  त्वादित्यस्त्वग्वेत्तु ॥

-यजु० १ । १४

हे नायक!

तू राष्ट्र का (शर्म असि) शरणरूप और सुखदाता है। ऐसा प्रयत्न कर कि (रक्षः) राक्षस (अवधूतं) प्रकम्पित हो उठे, (अरातयः) शत्रु (अवधूताः) प्रकम्पित हो जाएँ। हे सेना ! तू (अदित्याः) राष्ट्रभूमि की (त्वक् असि) त्वचा है, (अदितिः) राष्ट्रभूमि (त्वा प्रति वेत्तु) तुझे जाने । हे नायक! तू (अद्रिः असि) पहाड़ है, बादल है, वज्र है, (वानस्पत्यः) ईंधन है, (ग्रावा असि) पाषाण है, (पृथुबुध्नः) विशाल मस्तिष्क वाला है। (अदित्याः त्वक्) राष्ट्रभूमि की त्वचारूप सेना (त्वा प्रति वेत्तु) तुझे जाने।।

हे राजन् !

हमने आपको अपना नेता चुना है, राष्ट्र का नायक बनाया है, क्योंकि आप प्रजा को शरण और सुख देने में समर्थ हैं। जब तक आपके प्रतिद्वन्द्वी राक्षसजन और शत्रु हैं, तब्र तक राष्ट्र सुखी नहीं हो सकता । निर्दय, हत्यारे, कुटिल, स्वार्थी लोग राक्षस कहलाते हैं, जिनसे सज्जनों की अपनी रक्षा करनी पड़ती है, जो एकान्त पाकर घात करते हैं या रात्रि में अपनी गतिविधि करते हैं । शत्रु वे हैं जो आपको पद्दलित करके आपका राज्य हथियाना चाहते हैं। वे शत्रु कुछ व्यक्ति भी हो सकते हैं और एक बड़ा सङ्गठन या शत्रु-राष्ट्र भी हो सकता है। आप उन आततायी, आतङ्कवादी राक्षसों और शत्रुओं लोगों के भी वश के नहीं होते ।

उत्साह का सञ्चय करके ही हनुमान् सीता की खोज में समुद्र पार करके लङ्का पहुँच गये थे और लक्ष्मण को पुनर्जीवित करने के लिए गन्धमादन पर्वत से संजीवनी बूटी ले आये थे। तू देवयज्ञ की अग्नि को भी अपने अन्दर धारण कर। परमात्मदेव की पूजा की अग्नि, विद्वानों के सेवा-सत्कार की अग्नि और अग्निहोत्र की अग्नि ही देवयज्ञ की अग्नि है। तू चिन्ताग्नि को विदा करके उसके स्थान पर परमेश्वर का चिन्तन कर, विद्वजनों के सत्कार का अतिथियज्ञ रचा और सायं-प्रात: अग्निहोत्र करके वायुमण्डल को शुद्ध और सुगन्धित कर।।

हे मेरे मन!

तू मेरे आत्मा के साथ ध्रुव रूप में रहनेवाला महारथी है, तू मेरा ध्रुव तारा है। मैं तुझे अपने आत्मा के सहायक महामन्त्री के रूप में प्रतिष्ठित करता हूँ। तू ‘ब्रह्मवनि’ हो, ब्रह्म के चिन्तन में सहायक बन, ब्रह्म के कीर्तन में सहायक बन, ब्रह्मबल के अर्जित करने में साधन बन, ब्राह्मण का कार्य करने में साधन बन । तू ‘ क्षत्रवनि’ हो, क्षात्रधर्म का पालन करने में सहायक हो, दीन-दु:खियों की रक्षा करने में साधन बन । तू ‘सजातवनि’ हो, शरीर में तेरे साथ आयी हुई जो ज्ञानेन्द्रियाँ चक्षु, श्रोत्र, रसना, नासिका और त्वचा हैं, उनसे प्राप्त होने वाले ज्ञानों की प्राप्ति में साधन बन, क्योंकि तेरा सहयोग यदि नहीं है तो मनुष्य आँखों से देखता हुआ भी नहीं देखता, कानों से सुनता हुआ भी नहीं सुनता, जिह्वा से चखता हुआ भी स्वाद नहीं पहचानता, नासिका से सूंघता हुआ भी गन्ध अनुभव नहीं करता, त्वचा से स्पर्श करता हुआ भी कोमल-कठोर को नहीं जानता।

हे मेरे मन!

मैं तुझे शत्रु के वध के लिए प्रतिष्ठित करता हूँ। पहले तो जो आन्तरिक षड् रिपु हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, इनके विनाश में तुझे आत्मा का सहयोगी बनना है। दूसरे हैं बाह्य शत्रु, जो मेरी उन्नति में बाधक बनते हैं। उनका संहार करने के लिए या उन्हें मित्र बनाने के लिए भी मनोबल की आवश्यकता है।

हे मेरे आत्मन् !

हे मेरे मन! तुम यदि मिल कर उद्यम करो, तो बड़े से बड़ा अन्तः साम्राज्य और बाह्य साम्राज्य प्राप्त हो सकता है, बड़े से बड़ा अन्तः-शत्रु और बाह्य शत्रु पराजित हो सकता है।

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा

 

पाद-टिप्पणियाँ

१. (ञि) धृषा प्रागल्भ्ये, स्वादिः, क्तिन् ।

२. आमान् अपक्वान् अत्ति तम्-द०भा० ।

३. क्रव्यं पक्वमांसम् अत्ति तस्मान्निर्गतः तम्-द०भा० |

४. षिधु गत्याम्, भ्वादिः । ‘सेधति’ गत्यर्थक, निघं० २.१४।।

५. ब्रह्म वनति संभजते तत्। वन शब्दे संभक्तौ च, भ्वादिः ।

६. भ्रातृ-व्यन् प्रत्यय शत्रु अर्थ में । व्यन् सपत्ने, पा० ४.१.१४५ ।।

७. चिता चिन्ता द्वयोर्मध्ये चिन्ता चैव गरीयसी । चिता दहति निर्जीवं चिन्ता चैव सजीवकम् ।।

८. ध्रुवं ज्योतिर्निहितं दृशये कं मनो जविष्ठं पतयत्स्वन्तः।। —ऋ० ६.९.५

 

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा

अग्निहोत्र -रामनाथ विद्यालंकार

अग्निहोत्र

ज्योति से ज्योति मिले

-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता अग्निः । छन्दः जगती ।

अग्ने वेर्होत्रं बेर्दूत्युमर्वतां त्वां द्यावापृथिवीऽअव त्वं द्यावापृथिवी स्विष्टकृद्देवेभ्य॒ऽइन्द्रऽआज्येन हविषा भूत्स्वाहा सं ज्योतिष ज्योर्तिः॥

-यजु० २।९

( अग्ने ) हे विद्वन् ! तू ( वेः ) जानता है ( होत्रं ) अग्निहोत्र को, ( वेः ) जानता है ( दूत्यं ) अग्नि के दूतकर्म को। ( अवतां ) रक्षित करें ( त्वां ) तुझे ( द्यावापृथिवी ) राष्ट्र के पिता-माता। (अव) रक्षित कर ( त्वं ) तू ( द्यावापृथिवी ) राष्ट्र के पिता-माताओं को। (इन्द्रः ) ऐश्वर्यशाली यजमान ( आज्येन ) घृत से, तथा ( हविषा ) हवि से ( देवेभ्यः ) विद्वानों के लिए ( स्विष्टकृत् ) उत्तम यज्ञ का कर्ता तथा उत्कृष्ट अभीष्ट का साधक (भूत्) हुआ है, ( स्वाहा ) हम भी स्वाहापूर्वक यज्ञ करें। ( सं ) मिले ( ज्योतिषा) ज्योति के साथ ( ज्योतिः ) ज्योति।

हे अग्ने ! हे अग्रनायक विद्वन्!

आप अग्निहोत्र को जानते हो। कितना और कैसा घृत हो, अन्य कौन-कौन सा हविर्द्रव्य हो, घृत तथा अन्य हव्यों की कितनी मात्रा में आहुति दी जाए, किस ऋतु में कौन-सी हवन-सामग्री हो, समिधाएँ किन वृक्षों की हों, कब विशाल यज्ञों का आयोजन किया जाए, उनमें कितना आर्थिक व्यय हो, पुरोहित किसे बनाया जाए, दक्षिणा कितनी दी जाए इत्यादि यज्ञ-सम्बन्धी सब बातें आपको विदित हैं।

आप यज्ञाग्नि के दूत-कर्म के भी ज्ञाता हो। अग्नि को वेदों में देवों का दूत इस कारण कहा गया है कि वह यज्ञकर्ता और विद्वज्जनरूप देवों के बीच दूत-कर्म करता है। जब कोई किसी कार्य को सीधा स्वयं न करके उसे कार्य के लिए किसी को माध्यम बनाता है, तब उसे माध्यम बनने वाले को दूत और उसके द्वारा किये जाने वाले कार्य को दूत कर्म कहा जाता है।

यज्ञकर्ता घृत तथा अन्य हव्यों की रोगहर स्वास्थ्यप्रद सुगन्ध को स्वयं विद्वज्जनरूप देवों के पास न पहुँचा कर अग्नि को माध्यम बनाता है। वह अग्नि में हवि का प्रक्षेप करता है और अग्नि उस हव्य को सूक्ष्म करके उसकी सुगन्ध वायु की। सहायता से विद्वज्जनों के पास पहुँचाता है, इसलिए यज्ञाग्नि दूत है।

हे विद्वन् !

अग्नि के इस दूतकर्म को भी आप जानते हो, अर्थात् अग्नि हविर्द्रव्यों को ग्रहण करके कैसे उनकी सुगन्ध चारों और फैलाता है तथा कैसे परोपकार करता है, इस यज्ञविद्या को भी आप जानते हो। राष्ट्र के द्यावापृथिवी अर्थात् पिता-माताओं या पुरुषों और नारियों का कर्तव्य है कि वे आपको पुरोहित का आदर देकर गौरव प्रदान करें और आपका कर्तव्य है कि आप उनका यज्ञ करा कर यज्ञ से उनका स्वास्थ्य-वर्धन करके उनकी रक्षा करें। यजमान द्वारा यज्ञ में आज्य (घृत) और सुगन्धि, मिष्ट, पुष्टिकारक एवं रोगहर हव्यों की आहुति दी जाती है।

यजमान को ऐश्वर्यवान् होने के कारण इन्द्र भी कहते हैं । उसे यजमानरूप इन्द्र के लिए कहा गया है कि वह घृत तथा अन्य हवियों की यज्ञ में आहुति देकर देवजनों के लिए स्विष्टकृत्’ हो गया है। स्विष्टकृत्’ का अर्थ है साधु प्रकार से यज्ञ को अथवा अभीष्ट को सिद्ध करने वाला। यजमान यज्ञ को भी सिद्ध करता है और जिस अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिए यज्ञ किया जाता है, उसे भी सिद्ध करता है। ‘इष्ट’ शब्द यज धातु तथा इच्छार्थक ‘इष्’ धातु दोनों से ही क्त प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है। हम सबको भी कर्तव्य है कि हम ‘स्वाहा’ का उच्चारण करके यज्ञाग्नि में आहुति दें। उसका अन्य फलों के साथ एक फल यह भी होगा कि ‘ज्योति से ज्योति मिलेगी’। हम यज्ञाग्नि की ज्योति से परमात्माग्नि की बृहत् ज्योति का अनुमान करके परमात्माग्नि की ज्योति में ध्यान केन्द्रित करेंगे।

इस प्रकार हमारे आत्मा की ज्योति का परमात्मा की ज्योति से सम्पर्क होगा और हमारी आत्मज्योति उस विशाल ज्योति से ज्योति पाकर और भी अधिक ज्योतिर्मय हो उठेगी। आओ, ज्योति से ज्योति मिलाने के लिए हम यज्ञ करें ।

अग्निहोत्र

पाद-टिप्पणियाँ

१. वेः=अवेः । विद ज्ञाने, लङ् सिप्, अडागम नहीं हुआ।

२. दूतस्य कर्म दूत्यम्, ‘दूतस्य भागकर्मणी’ पा०, ४.४.१२१ से कर्म

अर्थ में यत् प्रत्यय । ।

३. द्यौष्पितः पृथिवि मातः। –ऋ० ६.५१.५

४. इन्द्रो वै यजमानः। -श० २.१.२.११

५. भूत्=अभूत् । भू सत्तायाम्, लुङ्। ‘बहुलं छन्दस्यमाड्योगेऽपि’ पा०६.४.७५ से अट् का आगम नहीं हुआ।

६. अग्नावग्निश्चरति प्रविष्टः । –अ० ४.३९.९

अग्निहोत्र

मन की दृढ़ता -रामनाथ विद्यालंकार

मन की दृढ़ता  -रामनाथ विद्यालंकार

 

तू कुटिल है, हवियों का निधन है

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता विष्णुः । छन्दः निवृत् त्रिष्टुप् । अहृतमसि हविर्धानं दृहस्व मा ह्वार्मा ते यज्ञपतिर्षीत् । विष्णुस्त्वा क्रमतामुरु वातायार्पहतरक्षो यच्छन्तां पञ्च॥

-यजु० १।९ |

हे मेरे मन! तू (अहुतम् असि) कुटिलतारहित है, (हविर्धानम्) हवियों का निधान है, (दूंहस्व) तू स्वयं को दृढ़ कर, (मा ह्वाः) भविष्य में भी कभी कुटिल मत हो। (मा ते यज्ञपतिः ह्वार्षीत्) न ही तेरा यज्ञपति आत्मा कुटिल होवे । (विष्णुः) विष्णु परमेश्वर (त्वा क्रमताम्”) तुझे अग्रगामी करे। (वाताय) गति के लिए तू (उरु) विशाल हो। तुझसे (रक्षः) राक्षसवृत्ति (अपहतं) नष्ट हो जाए। (पञ्) अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ये पाँचों व्रत, तुझे (यच्छन्ताम्) नियन्त्रण में रखें।

यदि मन कुटिल है तो मनुष्य कुटिलता के कार्यों में लगेगा और यदि मन पवित्र है तो उसके कार्य भी पवित्र होंगे। जिसने साधना द्वारा मन को पवित्र बना लिया है, ऐसा मनुष्य मन्त्र में मन को सम्बोधन कर रहा है।

हे मेरे मन! तू कुटिलता से रहित हो गया है। तू हविर्धान है, हवियों का निधान है। देह में चक्षु, श्रोत्र आदि जो भी ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, वे सब अपने दृष्ट, श्रुत आदि हव्य की आहुति पहले मन में देती हैं, तभी मनुष्य का आत्मा देखना, सुनना आदि व्यापारों को करता है। यदि मन देखने, सुनने आदि में समाहित नहीं है, या यों कहें कि आँख से देखे, कान से सुने, जिह्वा से चखे द्रव्य की हवि यदि मन में नहीं पड़ रही है, तो आत्मा ज्ञानेन्द्रियों के प्रवृत्त होते हुए भी ज्ञान ग्रहण करने में असमर्थ रहता है। अतएव मन को हविर्धान कहा गया है।

हे मेरे मन ! तू सदा दृढ़ बना रह। यदि तू ही दृढ़ता को त्याग कर विचलित होने लगेगा, तो सब इन्द्रियाँ भी विचलित हो जायेंगी । तू दृढ़ रह कर वैसे ही इन्द्रियों को साधे रह सकता है, जैसे उत्तम सारथि रथ के घोडों को साधे रहता है। हे मेरे मन ! जैसे तू इस समय । अकुटिल एवं पवित्र है, वैसे ही भविष्य में भी बने रहना। ऐसा न हो कि मेरी अब तक की सब साधना व्यर्थ हो जाए

और तू कुछ ही दिन अकुटिल रह कर कुटिल मनुष्यों के कुटिल विचारों की सङ्गत से फिर कुटिलता पर चल पड़े। यदि तू सदा अकुटिल बना रहेगा, तो मेरे यज्ञपति आत्मा के पास भी कालुष्य और कुटिलता फटकने नहीं पायेगी तथा मेरा

आत्मा सदा पवित्र ज्ञान और पवित्र कर्मों से ही युक्त रहेगा। है मेरे मन! सर्वान्तर्यामी विष्णु प्रभु, जो तेरे अन्दर भी व्याप्त हैं, तुझे सदा अग्रगामी बनाये रखें और उनसे प्रेरित होकर तू सदा मेरे जीवन को उन्नति की दिशा में ही अग्रसर करता रह।

हे मेरे मन ! मुझे वेद ने ‘दूरंगम’ अर्थात् दूर-दूर तक जानेवाला या दूरदर्शी कहा है। तू विशाल गति करता रह, ऊँची उड़ानें लेता रह, मुझे ऊध्र्वारोहण के लिए प्रेरित करता रह। तू ऐसा उद्योग कर कि यदि कोई राक्षसी वृत्तियाँ मेरे पास आने लगें, तो वे तुझसे टकरा कर चूर-चूर हो जाएँ। तू अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँचों व्रतों को धारण किये रख। इनके नियन्त्रण में रह कर तू मेरे जीवन को सदा पवित्र ही पवित्र बनाती चल ।

मन की दृढ़ता  -रामनाथ विद्यालंकार

 

पाद-टिप्पणियाँ

१. हृ कौटिल्ये-क्त प्रत्यय। ‘हु ह्वरेश्छन्दसि’ से धातु को हु आदेश।

२. दृहि वृद्धौ, भ्वादिः ।।

३. हृ कौटिल्ये, लुङ्, अडागमाभावे।

४. क्रमु पादविक्षेपे, भ्वादिः ।

५. वात सुखसेवनयोः गतौ च, चुरादिः ।

६. (यच्छन्ताम्) निगृह्वन्तु-द०भा० | यम उपरमे, धातु को यच्छ आदेश।

मन की दृढ़ता  -रामनाथ विद्यालंकार

व्रतग्रहण : अमृत से सत्य की ओर -रामनाथ विद्यालंकार

व्रतग्रहण : अमृत से सत्य की ओर  

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता: अग्निः । छन्दः आर्ची त्रिष्टुप् ।

अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्। इदमूहमनृतात् सत्यमुपैमि

-यजु० १।५

हे ( व्रतपते ) व्रतों का पालन करनेवाले (अग्ने) अग्रनायक जगदीश्वर, राजन् व विद्वन् ! मैं ( व्रतं चरिष्यामि ) व्रत का अनुष्ठान करूंगा। (तत् ) उस व्रत को ( शकेयम् ) पालन करने में समर्थ होऊँ। ( तत् मे ) वह मेरा व्रत (राध्यताम् ) सिद्ध हो। वह व्रत यह है कि ( अहं ) मैं ( इदं ) यह ( अनृतात् ) अनृत को छोड़ कर ( सत्यम् ) सत्य को ( उपैमि) प्राप्त होता हूँ।

हे सर्वाग्रणी विश्वनायक जगदीश्वर आप सबसे बड़े व्रतपति हैं। आपने उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय, न्याय, निष्पक्षता, परोपकार, सत्यनिष्ठा आदि अनेक व्रतों को स्वेच्छा से ग्रहण किया हुआ है, जिनका आप सदैव पालन करते हैं। अतएव आपको साक्षी रख कर आज मैं भी एक व्रत ग्रहण करता हूँ। वह मेरा व्रत यह है कि आज से मैं अमृत को त्याग कर सदा सत्य को अपनाऊँगा। अब तक मैं अपने जीवन में अनेक अवसरों पर असत्य भाषण और सत्य आचरण करता रहा हूँ, कई बार प्रलोभनों में पड़ कर मन, वाणी और कर्म से असत्य में लिप्त होता रहा हूँ। परन्तु आज मैं आपके संमुख उस असत्य से मुँह मोड़ने की प्रतिज्ञा करता हूँ। मेरे गुरु ने मुझे सिखाया है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। आप ऐसी शक्ति दीजिए कि इस व्रत का मैं पालन कर सकें।

यदि कभी मैं अपने व्रत को भूल कर सत्य से विमुख होने लगूं तो मेरे हृदय में बैठे हुए आप मुझे मेरा व्रत स्मरण करा कर होनेवाले स्खलन से मुझे बचा लीजिए। ऐसी कृपा कीजिए कि मैं अपने जीवन के अन्त तक इस व्रत का पालन करता रहूँ और इस व्रतपालन से मिलनेवाले सुमधुर फलों के आस्वादन से कृतकृत्य होता रहूँ।

व्रतपति जगदीश्वर के अतिरिक्त अन्य व्रतपतियों को भी मैं अपने इस व्रत का साक्षी बनाता हूँ। यदि मैं अपने राष्ट्र का प्रतिनिधि होकर संयुक्त राष्ट्रसंघ में गया हूँ, तो उसके अध्यक्षरूप व्रतपति के संमुख सदा सत्य का ही पक्ष लेने की प्रतिज्ञा करता हूँ। यदि में राज्यपरिषद् का सदस्य या राज्य का कोई उच्च अधिकारी हूँ तो राष्ट्रनायक के समक्ष प्रण लेता हूँ कि मैं सदा सत्य का ही पक्षपोषण करूंगा। यदि किसी सभा का सदस्य हूँ तो उसके सभापति के संमुख, यदि मैं किसी संस्था का कर्मचारी हूँ तो उस संस्था के अध्यक्ष के संमुख, यदि किसी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय का शिक्षक या विद्यार्थी हूँ तो उसके कुलपति या प्राचार्य के संमुख, यदि मैं किसी संघ का सदस्य हूँ तो संघचालक के संमुख और जिस परिवार का मैं अङ्ग हूँ, उस परिवार के गृहपति के संमुख मैं सदा सत्य पर ही चलने का व्रत ग्रहण करता हूँ।

इन सबके अतिरिक्त यज्ञाग्नि भी व्रतपति है। प्रभु ने सृष्टि के आरम्भ में जो व्रत उसके लिए निश्चित कर दिया था, उसी व्रत का वह आज तक पालन करता चला आया है। अतः प्रतिदिन प्रात:सायं अग्निहोत्र करते हुए उस व्रतपति अग्नि के सामने भी सत्य का व्रत लेता हूँ। उस व्रतपति अग्नि की ऊपर उठती हुई ज्वालाएँ नित्य मेरे अन्तरात्मा में सत्य की ज्योति को जागृत करती रहें।

शतपथकार का कथन है कि देवजन सत्य के व्रत का ही आचरण करते हैं, इस कारण वे यशस्वी होते हैं। इसी प्रकार अन्य भी जो कोई सत्यभाषण और सत्य का आचरण करता है, वह यशस्वी होता है।

व्रतग्रहण

पादटिप्पणियाँ

१. शकेयम्, शक्लै शक्तौ ।

२. राध्यताम्, राध संसिद्धौ।

३. एतद्ध वै देवा व्रतं चरन्ति यत् सत्यं, तस्मात् ते यश, यशो ह भवति य एवं विद्वांत्सत्यं वदति। -श० १.१.१.५

व्रतग्रहण   -रामनाथ विद्यालंकार

हे गौ माता -रामनाथ विद्यालंकार

हे गौ माता। 

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता सविता। छन्दः क. स्वराड् बृहती, र. ब्राह्मी उष्णिक्।

ओ३म् इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमा कर्मणूऽआप्यायध्वमघ्न्याऽइन्द्राय भागं ‘प्रजार्वतीरनमीवाऽ अयक्ष्मा मा व स्तेनऽईशत माघशसो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौ स्यात ह्वीर्यजमानस्य शून् पाहि॥

-यजु० १ । १ 

हे गौ माता !

मैं (इषे त्वा ) अन्नोत्पत्ति के लिए तुझे पालता हूँ, (अर्जे त्वा ) बलप्राणदायक गोरस के लिए तुझे पालता हूँ। हे गौओ ! तुम (वायवः स्थ) वायु के समान जीवनाधार हो। ( देवः सविता ) दाता परमेश्वर व राजा ( श्रेष्ठतमाय कर्मणे ) श्रेष्ठतम कर्म के लिए, हमें (वः प्रार्पयतु) तुम गौओं को प्रदान करे। (अघ्न्याः ) हे न मारी जानेवाली गौओ! तुम (आप्यायध्वम् ) वृद्धि प्राप्त करो, हृष्टपुष्ट होवो। ( इन्द्राय) मुझ यज्ञपति इन्द्र के लिए ( भागं ) भाग प्रदान करती रहो। तुम (प्रजावतीः ) प्रशस्त बछड़े-बछड़ियों वाली, ( अनमीवा:६) नीरोग तथा ( अयक्ष्माः ) राजयक्ष्मा आदि भयङ्कर रोगों से रहित होवो। ( स्तेनः ) चोर (वः मा ईशत ) तुम्हारा स्वामी न बने, ( मा अघशंसः ) न ही पापप्रशंसक मनुष्य तुम्हारा स्वामी बने। (अस्मिन् गोपतौ ) इस मुझ गोपालक के पास ( धुवाः ) स्थिर और ( बह्वीः७) बहुत-सी ( स्यात ) होवो। हे परमेश्वर व राजन ! आप ( यजमानस्य ) यजमान के (पशून्) पशुओं की ( पाहि ) रक्षा करो।

 हे गौ माता !

मैं तुझे पालता हूँ तेरी सेवा के लिए, अन्नोत्पत्ति के लिए और गोरस की प्राप्ति के लिए। तू सबका उपकार करती है, अत: तेरी सेवा करना मेरा परम धर्म है, इस कारण तुझे पालता हूँ।

तुझे पालने का दूसरा प्रयोजन अन्नोत्पत्ति है। तेरे गोबर और मूत्र से कृषि के लिए खाद बनेगा, तेरे बछड़े बैल बनकर हल जोतेंगे, बैलगाड़ियों में जुत कर अन्न खेतों से खलिहानों तक और व्यापारियों तथा उपभोक्ताओं तक ले जायेंगे।इस प्रकार तू अन्न प्राप्त कराने में सहायक होगी, इस हेतु तुझे पालता हूँ।

तीसरे तेरा दूध अमृतोपम है, पुष्टिदायक, स्वास्थ्यप्रद, रोगनाशक तथा सात्त्विक है, उसकी प्राप्ति के लिए तुझे पालता हूँ। हे गौओ ! तुम वायु हो, वायु के समान जीवनाधार हो, प्राणप्रद हो, इसलिए तुम्हें पालता हूँ।

दानी परमेश्वर की कृपा से तुम मुझे प्राप्त होती रहो। राष्ट्र के ‘सविता देव’ का, राष्ट्रनायक राजा प्रधानमन्त्री और मुख्य मन्त्रियों का भी यह कर्तव्य है कि वे श्रेष्ठतम कर्म के लिए तुम्हें गोपालकों के पास पहुँचाएँ राष्ट्र की केन्द्रीय गोशाला में अच्छी जाति की गौएँ पाली जाएँ, जो प्रचुर दूध देती हों और गोपालन के इच्छुक जनों को उचित मूल्य पर दी जाएँ।

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार श्रेष्ठतम कर्म यज्ञ है। अग्निहोत्र रूप यज्ञ के लिए भी और परिवार के सदस्यों तथा अतिथियों को तुम्हारा नवनीत और दूध खिलाने-पिलाने रूप यज्ञ के लिए भी प्रजाजनों को राजपुरुषों द्वारा उत्तम जाति की गौएँ प्राप्त करायी जानी चाहिएँ।

हे गौओ!

तुम ‘अघ्न्या’ हो, न मारने योग्य हो । राष्ट्र में राजनियम बन जाना चाहिए कि गौएँ। मारी–काटी न जाएँ, न उनका मांस खाया जाए। यदि किसी। प्रदेश में बूचड़खाने हैं तो बन्द होने चाहिएँ। दुर्भाग्य है हमारा कि वेदों के ही देश में वेदाज्ञा का पालन नहीं हो रहा है। मांस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं है, न उसके दाँत मांस चबाने योग्य हैं, न आँतें मांस पचाने योग्य हैं।

हे गौओ !

तुम अच्छी पुष्ट होकर रहो। मुझ यज्ञपति इन्द्र का भाग मुझे देती रहो, बछड़े-बछड़ियों का भाग उन्हें प्रदान करती रहो। तुम प्रजावती होवो, उत्तम और स्वस्थ बछड़े-बछड़ियों की जननी बनो । तुम रोगरहित और यक्ष्मारहित होवो। तुम मुझ सदाचारी याज्ञिक गोस्वामी के पास रहो, चोर तुम्हें न चुराने पावे। पापप्रशंसक और पापी मनुष्य तुम्हारा स्वामी न बने। पापी नर-पिशाचों को गोरस नसीब न हो। मुझ गोपालक के पास तुम स्थिररूप से रहो, संख्या में बहुत होकर रहो, जिससे मैं गोशाला चलाकर उन्हें भी तुम्हारा दूध प्राप्त करा सकें, जो स्वयं गोपालन नहीं कर सकते हैं।

हे परमेश्वर ! मुझ यजमान के पशुओं की रक्षा करो, हे राजन् ! मुझ यजमान के पशुओं की रक्षा करो।


पाद-टिप्पणियाँ

१. इष्=अन्न, निघं० २.७।

२. ऊर्ग रसः, श० ५.१.२.८ । ऊर्जा बलप्राणनयोः, चुरादिः ।।

३. दीव्यति ददातीति देवः दाता। देवो दानाद्, निरु० ७.१५ ।

४. षु प्रसवैश्वर्ययोः, भ्वादिः, घूङ् प्राणिगर्भविमोचने, अदादिः । | ( सविता सर्वजगदुत्पादकः सकलैश्वर्यवान् जगदीश्वरः-द०भा० । (सवितः) सकलैश्वर्ययुक्त सम्राट्, य० ९.१-द०भा० ।।

५. (ओ) प्यायी वृद्धौ, भ्वादिः ।।

६. (अनमीवाः) अमीवो व्याधिर्न विद्यते यासु ताः । अम रोगे इत्यस्माद् | बाहुलकाद् औणादिक ईवन् प्रत्यय:-द०भा० ।

७. बह्वीः=बह्वयः । बह्वी+जस्, पूर्वसवर्णदीर्घ, वा छन्दसि पा० ६.१.१०६ ।।

८. यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म। -श०१.७.१.५

९. अघ्न्या=गौ, निघं० २.११। अघ्न्या अहन्तव्या भवति, निरु० ११.४० । अघ्न्या इति गवां नाम के एता हन्तुमर्हति, म०भा० शान्तिपर्व २६३ ।

-रामनाथ विद्यालंकार

प्राण अपान शब्द पर शंका समाधान :- डॉ वेदपाल

शंङ्का – समाधान 

– डॉ. वेदपाल

शङ्का-    शरीर में श्वास लेते समय प्राणवायु ऑक्सीजन प्रवेश करती है, अत: श्वास लेने को प्राण कहना ही युक्तिसंगत है।श्वास छोड़ते समय हानिकारक गैस कार्बन-डाइऑक्साइड शरीर से बाहर निकलती है, इसलिये श्वास छोडऩे को अपान कहना युक्तिसंगत है। वैसे भी पान का अर्थ है, ग्रहण करना। अत: अपान शब्द पान शब्द का विलोम हुआ। इस कारण अपान का अर्थ हुआ छोडऩा। अत: श्वास छोडऩे को ही अपान तथा श्वास लेने को प्राण कहना तार्किक एवं सही है। महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के ‘वेदोक्त धर्म-विषय’ में अथर्ववेद के मन्त्र-१२/५/९ की व्याख्या करते हुये प्राण और अपान के सम्बन्ध में जो उल्लेख किया गया है, वह इससे उलटा है। इसमें श्वास छोडऩे को प्राण और श्वास लेने को अपान कहा है। अथर्ववेद के मन्त्र-४/१३/२ एवं ३ की व्याख्या करते हुये श्री क्षेमकरणदास त्रिवेदी और पण्डित हरिशरण सिद्धान्तालंकार ने श्वास लेने को प्राण और छोडऩे को अपान ही लिखा है। ऋग्वेद के मन्त्र-१०/१३७/२ एवं ३ में भी ऐसा ही लिखा है। पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘जीवात्मा’ में भी पृष्ठ-५६ पर श्वास लेने को प्राण और छोडऩे को अपान ही लिखा है।

अत: ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदोक्त धर्म-विषय में उपरोक्त त्रुटि ‘लेखन-त्रुटि’ ही प्रतीत होती है। विद्वानों द्वारा गहन विचार-विमर्श उपरान्त एकमत होकर इस लेखन-त्रुटि को ठीक कर देना चाहिये।

– जगदीश प्रसाद शर्मा, भोपाल

समाधान-   सर्वप्रथम अथर्व १२.५.९ ‘आयुश्च रूपं च नाम च कीर्तिश्च प्राणश्चापानश्च चक्षुश्च श्रोत्रं च’-मन्त्रस्थ प्राण-अपान की महर्षि कृत व्याख्या को लें-‘‘शरीराद् बाह्यदेशं यो वायुर्गच्छति स ‘प्राण:’ बाह्यदेशाच्छरीरं प्रविशति स वायुरपान:’’(ऋ.भा.भू.)।

शर्मा जी का अभिमत कि महर्षिकृत व्याख्या अन्य विद्वानों द्वारा अनुमोदित नहीं है। अत: लेखन-त्रुटि मानकर ठीक कर देना चाहिए के सन्दर्भ में निम्र बिन्दु विचारणीय हैं-

१. शर्मा जी द्वारा अपान शब्द को पान शब्द का विलोम मानना उचित नहीं है। पान शब्द पा धातु से ल्युट् प्रत्यय होकर निष्पन्न हुआ है, जबकि अपान शब्द अप उपसर्ग पूर्वक अन प्राणने (अदादि.) धातु (पा नहीं)से अच् प्रत्यय होकर निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है-अपानयति मूत्रादिकम् (अप+आ+नी+ड वा)।

यदि दुर्जनतोष न्याय से अपान शब्द को पान शब्द से नञ् समास का अवशिष्ट अ पूर्वक मान भी लें तो नञ् (अ) केवल निषेधार्थक ही नहीं है। नञ् के छ: अर्थ हैं-

तत्सादृश्यं तदन्यत्वं तदल्पत्वं विरोधिता।

अप्राशस्त्यमभावश्च नञर्था: षट् प्रकीर्तिता:।।

वामन शिवराम आप्टे (संस्कृत हिन्दी कोष, प्रकाशक-मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) ने अपान शब्द के निम्र अर्थ किए हैं-

‘‘श्वास बाहर निकालना, श्वास लेने की क्रिया, शरीर में रहने वाले पांच पवनों में से एक जो कि नीचे की ओर जाता है तथा गुदा के मार्ग से बाहर निकलता है’’-पृ. ६२

२. प्राण शरीर में रहते हुए क्रिया भेद के आधार पर प्राण-अपान-व्यान-समान-उदान कहा जाता है। तद्यथा- ‘‘प्राणोऽन्त: शरीरे रसमलधातूनां प्रेरणादिहेतुरेक: सन् क्रियाभेदादपादानादिसंज्ञां लभते’’- प्रशस्तपाद (द्रव्ये वायु प्रकरणम्) सम्पूर्णानन्द-संस्कृतविश्वविद्यालय: वाराणसी, द्वि.सं. पृ. १२१

उपर्युद्धृत प्रशस्तपाद पर कन्दली भी द्रष्टव्य है-‘‘मूत्रपुरीषयोरधोनयनादपान:, रसस्य गर्भनाडीवितननाद् व्यान:, अन्नपानादेरूध्र्वं नयनादुदान:, मुखनासिकाभ्यां निष्क्रमणात् प्राण:, आहारेषु पाकार्थमुदरस्य वह्ने: समं सर्वत्र नयनात् समान इति न वास्तव्यमेतेषां पञ्चत्वमपितु कल्पितम्।’’

३. वेद के प्रसिद्ध भाष्यकार सायण का अथर्ववेद के १२ वें काण्ड पर भाष्य उपलब्ध नहीं है, किन्तु अथर्व १८.२.४६ ‘प्राणो अपानो व्यान:………’ मन्त्र की सायण व्याख्या द्रष्टव्य है-

‘‘मुख्य प्राणस्य तिस्रो वृत्तय: प्राणाद्या:। मुखनासिकाभ्यां बहिर्नि:सरन् वायु: प्राण:। अन्तर्गच्छन् अपान:। मध्यस्थ: सन् अशितपीतादिकं विविधम् आनयति कृत्स्नदेहं व्यापयतीति व्यान:।’’

आचार्य सायण भी प्राण अपान का वही अर्थ करते हैं जो ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में उपलब्ध है।

४. अथर्व ११.४.८ ‘नमस्ते प्राण प्राणते नमो अस्त्वपानते’- मंत्र का पं. जयदेव कृत अर्थ- हे (प्राण प्राणते नम:) प्राण! प्राणक्रिया करते, श्वास त्यागते हुए तुझे नमस्कार है।

(अपानते नम: अस्तु) श्वास ग्रहण करते हुए तुझे नमस्कार है।

इसी प्रकार अथर्व ११.४.१४ पर भी पं. जयदेव एवं सायण भाष्य भी द्रष्टव्य हैं।

५. वैशेषिक दर्शन ३.२.४-‘प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तरविकारा: सुखदु:खेच्छाद्वेषप्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गानि’ सूत्र पर पं. हरिप्रसाद वैदिक मुनिकृत प्राण-अपान की व्याख्या- ‘मुखनासिकाभ्यां बहिर्निष्क्रमणशील: ऊध्र्वगतिक: शरीरान्त: सञ्चारी वायु: प्राण:। मूत्रपुरीषयोरधोनयनहेतु वाग्गतिक: शरीरान्त: सञ्चारी वायुरपान:।’

उक्त सूूत्र पर पं. तुलसीराम स्वामी -‘‘मुख और नासिका से बाहर निकलने वाला, ऊपर को चलने वाला, शरीरस्थ वायु प्राण कहाता है, मूत्र और विष्ठा को नीचे निकालने वाला शरीरस्थ वायु अपान कहाता है।’’

६. सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास पृ. १२६ पर जीव के गुणों के वर्णन में महर्षि दयानन्द वैशेषिक के पूर्व उद्धृत सूत्र ३.२.४ की व्याख्य ‘(प्राण) प्राण वायु को बाहर निकालना (अपान) प्राण को बाहर से भीतर को लेना करते हैं।’

७. वाचस्पत्यम् शब्दकोष में भी-प्राण: वायुस्तस्य कर्म नासाग्रतो बहिर्गति: (भाग-६, पृ. ४५०८) नासाग्र से बाहर जाने वाले वायु को प्राण कहा है।

उक्त सभी सन्दर्भों को दृष्टिगत रखकर यह कहा जा सकता है कि महर्षि दयानन्दकृत अर्थ की सम्पुष्टि आचार्य सायण, महर्षि द्वारा मान्य वैशेषिक के भाष्यकार प्रशस्तपाद के कन्दली टीकाकार श्रीधर, पं. हरिप्रसाद वैदिक मुनि, संस्कृत के प्रसिद्ध कोष वाचस्पत्यम्, कोषकार आप्टे, पं. जयदेव तथा पं. तुलसीराम आदिकृत भाष्य से होती है। अत: परम्परा द्वारा स्वीकृ त होने से महर्षिकृत अर्थ त्रुटिपूर्ण नहीं है।

वेदों का काल क्या है ?

वेद
जिज्ञासा १ – कुछ विद्वान् वेदों का काल पाश्चात्य विद्वानों के आधार पर २००० या ३००० ईसा पूर्व ही मानते हैं, क्या यह ठीक है? और मैक्समूलर ऋग्वेद को दुनिया के पुस्तकालयों की सबसे पुरानी पुस्तक मानता है, क्या मैक्समूलर की यह मान्यता ठीक है? क्या हम आर्यों को भी इसी के अनुसार मानना चाहिए? कृपया, मार्गदर्शन करें।
– अनिरुद्ध आर्य, दिल्ली
समाधान- वेदों का काल जबसे मानवोत्पत्ति हुई है, तभी से है। आज इस काल को महर्षि दयानन्द के अनुसार १ अरब ९६ करोड़ ८ लाख ५३ हजार ११५वाँ वर्ष (२०१४ के अनुसार ) चल रहा है। पाश्चात्य विद्वानों द्वारा की गई वेदों की काल गणना ठीक नहीं है, क्योंकि इनके द्वारा की गई काल गणना निराधार, पक्षपात पूर्ण और कपोलकल्पना मात्र है। इस गणना के लिए इन विद्वानों के पास कोई ठोस प्रमाण नहीं है। जब हमारा लाखों वर्ष पुराना इतिहास सप्रमाण हमें प्राप्त हो रहा है, तब हम इनकी कुछ हजार वर्ष पूर्व की बात कैसे स्वीकार कर लें?  हाँ, इनकी बात को वह स्वीकार कर सकता है जो अपने ऋषियों, महापुरुषों से प्रभावित न होकर, पाश्चात्य संस्कृति व विद्वानों से प्रभावित रहा हो।
कुछ लोगों की निराधार व अल्पज्ञान भरी बात है कि ऋग्वेद की रचना सबसे पहले हुई और इसके बाद अन्य वेदों की। ऐसी मान्यता वाले लोग अथर्ववेद को तो ऋग्वेद से बहुत बाद का मानते हैं। इस बात का भी उनके पास कोई ठोस प्रमाण नहीं है।
हमारे ऋषियों के अनुसार चारों वेदों का काल एक ही है, एक ही साथ एक ही समय परमेश्वर ने ४ ऋषियों के हृदयों में चारों वेदों का अलग-अलग ज्ञान दिया, अर्थात् अग्नि ऋषि को ऋग्वेद का, वायु ऋषि को यजुर्वेद का, आदित्य ऋषि को सामवेद का और अङ्गिरा ऋषि को अथर्ववेद का ज्ञान दिया। ऋषियों ने ऐसा कहीं नहीं लिखा कि चारों वेदों की उत्पत्ति अलग-अलग समय में हुई। हमें वेद व ऋषियों के अनेक प्रमाण प्राप्त हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि चारों वेद एक ही समय में उत्पन्न हुए।

जैसे-
यस्मिन् वेदा निहिता विश्वरूपा:। -अथर्व. ४.३५.६
ब्रह्म प्रजापतिर्धाता लोका वेदा: सप्त ऋषयोग्नय:।
-अथर्व. १९.९.१२
इन दोनों मन्त्रों में वेद शब्द का बहुवचनान्त वेदा: शब्द प्रयुक्त हुआ है। यह वेदा: शब्द चारों वेदों का संकेतक है।
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत: ऋच: सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत।।
-ऋ. १०.९०.९, यजु. ३१.७
यस्मिन्नृच: साम यजुœंषि यस्मिन्
प्रतिष्ठिता रथानाभाविवारा:।           -यजु. ३४.५
यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन्।
सामानि यस्य लोमान्यथर्वाङ्गिरसो मुखम्-
स्कम्भं तं ब्रूहि कतम: स्विदेव स:।।
-अथर्व. १०.७.२०
स्तोमश्च यजुश्चऽऋक् च साम च बृहच्च रथन्तरञ्च।
-यजु. १८.२९
ऋचो नामास्मि यजुंœषि
नामास्मि सामानि नामास्मि।        -यजु. १०.६७
स उत्तमां दिशमनुव्यचलत्।।
तमृचश्च सामानि च यजंूषि च ब्रह्म चानुव्यचलन्।।
-अथर्व. १५.६.७-८
एवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य नि:श्वसितमेतद्
यदृग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस:।।
श.ब्र. १४.५.४.१० व बृहद्.उप. ३४.१०
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्ववेद:।
– मु. ५.१.१.५
इत्यादि अनेक वेद व ऋषियों के प्रमाण सिद्ध करते हैं कि चारों वेदों का काल एक ही है।
आप मैक्समूलर की मान्यता के विषय में भी जानना चाहते हैं कि उनकी मान्यता ठीक है या नहीं। मैक्समूलर ने तथाकथित भाषाशास्त्र के आधार पर वेदों के रचना काल की सम्भावना सर्वप्रथम १८५९ ई.  में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ए हिस्ट्री ऑफ एशियट संस्कृत लिटरेचर’ में की थी। उनकी यह कालावधि किसी तथ्य पर आश्रित न होकर विशुद्ध कल्पना पर अवलम्बित थी, किन्तु यह मान्यता इतनी बार दुहरायी गयी कि परवर्ती समय में आधुनिक इतिहासकारों में बिना सोचे-समझे स्थापित-सी मानी जाने लगी, लेकिन स्वयं मैक्समूलर ने १८८९ में ‘जिफोर्ड व्याख्यानमाला’ के अन्तर्गत अपने इस मत पर सन्देह प्रकट किया था और ह्विटनी जैसे पाश्चात्य व प्रो. कुञ्जन राजा प्रभृति भारतीय इतिहासकारों ने भी मैक्समूलर के भाषाशास्त्र के आधार पर वेदों के काल सम्बन्धी मत का जोरदार खण्डन किया था। दूसरा जो मैक्समूलर ऋग्वेद को दुनिया की सबसे पुरानी पुस्तक कहता है, उसकी यह बात वेदों की रचना के सम्बन्ध में भ्रम पैदा करने के उद्देश्य से कही गई प्रतीत होती है। ऋषियों-महर्षियों के आधार पर आर्यसमाज की दृढ़ मान्यता के विपरीत ये वेदों का क्रमिक विकास सिद्ध करते हैं, जिससे वेद ईश्वरीय रचना न होकर मानवीय रचना सिद्ध हो सके।
इस सारे प्रसंग को मैक्समूलर की इन मान्यताओं के सन्दर्भ में भी देखा जाना चाहिए कि वह वेदों को बाइबिल से निचली श्रेणी का मानता है। कैथोलिक कॉमनवैल्थ के दिये गये एक साक्षात्कार में यह पूछे जाने पर कि विश्व में कौन-सा धर्मग्रन्थ सर्वोत्तम है, तो मैक्समूलर ने कहा-

“There is no doubt, however, that ethical teachings are far more prominent in the old and New Testament than in any other sacred book.” He also said “It may sound prejudiced, but talking all in all, I say the New Testament. After that, I should place the Quran which in its moral teachings is hardly more than a later edition of the New Testament. Then would follow…. according to my opinion, the Old Testament, The southern Buddhist Tripitika….. The Veda and the Avesta.” (LLMM, Vol. II, PP. 322-323)
अर्थात् ‘‘इसमें कोई सन्देह नहीं कि यद्यपि किसी भी अन्य ‘पवित्र पुस्तक’ की अपेक्षा (ईसाइयों के धर्म ग्रन्थ) ओल्ड और न्यू टेस्टामेंट में नैतिक शिक्षायें प्रमुखता से विद्यमान् हैं। उसने यह भी कहा- यह भले ही पक्षपातपूर्ण लगे, लेकिन सभी दृष्टियों से मैं कहता हूँ कि न्यू टेस्टामेंट सर्वोत्तम है। इसके बाद मैं कुरान को कहूँगा जो कि अपनी नैतिक शिक्षाओं में न्यू टेस्टामेंट के नवीन संस्करण के लगभग समीप है। उसके बाद….. मेरे विचार से ओल्ड टेस्टामेंट (यहूदियों का धर्मग्रन्थ), दी सदर्न बुद्धिस्ट त्रिपिटिका, (बौद्धों का धर्मग्रन्थ) फिर वेद और अवेस्ता (पारसियों का ग्रन्थ) है।’’
अत: आर्यों को वेद के सन्दर्भ में मैक्समूलर जैसे लोगों के मत को उद्धृत करने से बचना चाहिए। इसके स्थान पर ऋषियों-महर्षियों के मत को रखना चाहिए। लेकिन अगर कोई आर्य वेदों की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए मैक्समूलर को इस रूप में उद्धृत करता है कि ‘मैक्समूलर भी वेदों की प्राचीनता के प्रसंग में एक सत्य को अस्वीकार न कर सका, उसे भी ऋग्वेद को प्राचीनतम पुस्तक स्वीकार करना पड़ा’ इस रूप में बात रखी जा सकती है।

ईश्वर कहाँ रहता है ? : आचार्य सोमदेव जी

शंका:- क्या ईश्वर संसार में किसी स्थान विशेष में, किसी काल विशेष में रहता है? क्या ईश्वर किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष के कल्याण के लिए और दुष्टों का नाश करने के लिए भेजता है?

समाधान- ईश्वर इस संसार के स्थान विशेष वा काल विशेष में नहीं रहता। परमेश्वर संसार के प्रत्येक स्थान में विद्यमान है। जो परमात्मा को एक स्थान विशेष पर मानते हैं, वे बाल बुद्धि के लोग हैं। वेद ने परमेश्वर को सर्वव्यापक कहा है। वेदानुकूल सभी शास्त्रों में भी परमात्मा को सर्वव्यापक कहा गया है। एक स्थान विशेष पर परमेश्वर को कोई सिद्ध नहीं कर सकता , न ही शब्द प्रमाण से और न ही युक्ति तर्क से। हाँ, ईश्वर शब्द प्रमाण और युक्ति तर्क से विभु= सर्वत्र व्यापक तो सिद्ध हो रहा है, हो सकता है। वेद में कहा-

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुष:।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।

– य. ३१.३

इस पुरुष की इतनी महिमा है कि यह सारा ब्रह्माण्ड परमेश्वर के एक अंश में है, अर्थात् वह ईश्वर इस समस्त ब्रह्माण्ड में समाया हुआ अनन्त है। यह समस्त जगत् परमात्मा के एक भाग में है, अन्य तीन भाग तो परमात्मा के अपने स्वरूप में प्रकाशित हैं अर्थात् परमात्मा अनन्त है, सर्वत्र विद्यमान है, उसको किसी एक स्थान पर नहीं कह सकते।

नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वत:।

जेष: स्वर्वतीरप: सं गा अस्मश्यं धूनुहि।।

– ऋ. १.१०.८

इस मन्त्र के भावार्थ में महर्षि लिखते हैं – ‘‘जब कोई पूछे कि ईश्वर कितना बड़ा है तो उत्तर यह है कि जिसको सब आकाश आदि बड़े-बड़े पदार्थ भी घेरे में नहीं ला सकते, क्योंकि वह अनन्त है। इससे सब मनुष्यों को उचित है कि उसी परमात्मा को सेवन, उत्तम-उत्तम कर्म करने और श्रेष्ठ पदार्थों की प्राप्ति के लिए उसी से प्रार्थना करते रहें। जब जिसके गुण और कर्मों की गणना कोई नहीं कर सकता, तो कोई अंत पाने को समर्थ कैसे हो सकता है? और भी -’’

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापाविद्धम्।

कविर्मनीषी परिभू: स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्य:।।

– य. ४०.८

इस मन्त्र में परमेश्वर को सब में व्याप्त कहा है। इस व्याप्ति से ज्ञात हो रहा है कि परमात्मा किसी एक स्थान विशेष पर नहीं अपितु सर्वत्र है। इस प्रकार परमेश्वर के सर्वत्र व्यापक स्वरूप को सिद्ध करने के लिए शास्त्र के हजारों प्रमाण दिये जा सकते हैं। कोई भी प्रमाण ऐसा उपलब्ध नहीं होता जो परमात्मा को एकदेशीय सिद्ध करता हो।

युक्ति से भी कोई परमात्मा को किसी स्थान विशेष पर सिद्ध नहीं कर सकता। आज विज्ञान का युग है, वैज्ञानिकों ने समस्त पृथिवी, समुद्र, आकाश आदि को देख डाला है। जिन किन्हीं का भगवान् समुद्र, पहाड़ आकाश आदि में होता तो अब तक वह भगवान् वैज्ञानिकों के हाथ में होता। जो लोग ईश्वर को ऊपर सातवें वा चौथे आसमान अथवा इससे कहीं और ऊपर मानते हैं, वे यह सिद्ध नहीं कर सकते कि कौन-सा आसमान ऊपर है, कौन-सा आसमान नीचे, क्योंकि प्रमाण सिद्ध यह पृथिवी गोल है। इस गोल पृथिवी पर लगभग चारों और मानव आदि प्राणी रहते हैें।

जो मनुष्य भारत में रहते हैं, अर्थात् पृथिवी के  ऊपरी भाग पर रहते हैं, उनका आसमान उनके सिर के ऊपर और जो मनुष्य अमेरिका आदि देशों में है, अर्थात् पृथिवी के निचले भाग में रहते हैं, उनका आकाश (आसमान) भारत आदि देश में रहने वालों की अपेक्षा विपरीत होगा अर्थात् भारत वालों के पैरों में आकाश होगा। ऐसा ही पृथिवी के अन्य स्थानों पर रहने वाले मनुष्यों का आकाश जाने । पृथिवी के चारों ओर आकाश है, आसमान है, पृथिवी पर रहने वाले मनुष्यों के सिर जिस ओर होंगे, उनका आसमान उसी ओर होगा।

ऐसा विचार करने पर जो परमात्मा को आसमान में मानते हैं, वे भी एक स्थान विशेष पर सिद्ध नहीं कर सकते। इस विचार से भी परमात्मा सर्वत्र ही सिद्ध होगा, इसलिए परमात्मा सब स्थानों पर विद्यमान है, न कि किसी एक स्थान विशेष पर।

स्थान विशेष की कल्पना ब्रह्माकुमारी मत वालों की भी है। उनका कहना है कि यदि ईश्वर को सर्वव्यापक मानते हैं तो ईश्वर गन्दगी में शौच आदि में भी होगा, यदि ऐसा होगा तो ईश्वर भी गन्दा हो जायेगा। इन ब्रह्माकुमारी वालों ने ईश्वर को कितना कमजोर बना दिया? इन ब्रह्माकुमारी वालों को यह नहीं पता कि यह गंदगी भौतिक है और ईश्वर अभौतिक।

परमेश्वर के अभौतिक और सदा पवित्र होने से परमेश्वर के ऊपर इस गंदगी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हमारे ऊपर भी जो प्रभाव पड़ता है, वह इसलिये क्योंकि हमारे पास भौतिक शरीर इन्द्रियाँ आदि हैं, इनसे रहित होने पर हम जीवात्माओं पर भी उस गंदगी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ईश्वर तो सर्वथा इनसे रहित है तो ईश्वर पर इस गंदगी का प्रभाव कैसे पड़ेगा? इसलिए मलिनता से बचाने के लिए ईश्वर को एक स्थान विशेष पर मानना अज्ञानता ही है।

इसी प्रकार ईश्वर किसी काल विशेष में होता हो ऐसा नहीं है, परमेश्वर तो सदा सभी कालों में वर्तमान रहता है। काल विशेष में होने की कल्पना अवतारवादी कर सकते हैं, जो कि उनकी यह मान्यता सर्वथा असंगत है। वर्तमान, भूत एवं भविष्यकाल की आवश्यकता हम जीवों की अपेक्षा से है। परमेश्वर के लिए तो सदा वर्तमान रहता है, भूत-भविष्य परमात्मा के लिए नहीं है। परमात्मा सदा एक रस रहता है।

परमात्मा किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष की रक्षा वा दुष्टों के नाश के लिए भेजता हो- ऐसा भी नहीं है। यह कल्पना भी अवतारवादियों की है। परमात्मा तो जीवों के कर्मानुसार उनको जन्म देता है। जो जीव विशेष संस्कार युक्त होते हैं, वे जगत् के कल्याण और दुष्टों के नाश में प्रवृत्त होते हैं। ऐसा करने पर परमात्मा उनको आनन्द-उत्साह आदि प्रदान करता है, किन्तु ऐसा कदापि नहीं है कि परमात्मा ने किसी जीव विशेष को इस कार्य में लगााया हो। यदि ऐसा मानेंगे तो जीव की स्वतन्त्रता न रहेगी। ऐसा मानने पर सिद्धान्त की हानि होगी। कर्म फल व्यवस्था की सिद्धि ठीक से न हो पायेगी।

यदि कोई आत्मा किसी समुदाय की रक्षा करे तो दोष की भागी हो जायेगी, क्योंकि ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि पूरे समुदाय में सभी लोग एक जैसे धर्मात्मा हो, उस समुदाय में उलटे लोग भी हो सकते हैं। समुदाय में होने से उनकी भी रक्षा करनी पड़ेगी जो कि न्याय न हो सकेगा। परमेश्वर न्यायकारी है, उसके द्वारा भेजी गई आत्मा को भी न्याय करना चाहिए जो कि वह कर न सकेगी।

अधिकतर लोगों की मान्यता है कि परमेश्वर किसी आत्मा को न भेजकर स्वयं अवतार लेते हैं । ऐसा करके परमात्मा सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों का नाश करते हैं। इस प्रकार की मान्यता भी ईश्वर स्वरूप से विपरीत, वेद-शास्त्र के प्रतिकूल है, क्योंकि ईश्वर विभु है, अनन्त है, वह अनन्त प्रभु एक छोटे से सान्त शरीर में कैसे आ सकता है? परमेश्वर जन्म मरण से परे है, फिर शरीर में आकर जन्म-मृत्यु को कैसे प्राप्त कर सकता है? परमेश्वर का अवतार मानने पर इस प्रकार की अनेक दोषयुक्त बातों को मानना पड़ेगा।

अवतारवादियों का अवतार मानने का मुख्य आधार ये दो श्लोक हैं-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।

इन श्लोकों में अवतार लेने का कारण बतायाकि जब-जब धर्म की हानि होगी, तब-तब धर्म के उत्थान और अधर्म के नाश के लिए तथा श्रेष्ठों के परित्राण =रक्षा और दुष्टों के नाश के लिए ईश्वर अवतार लेता है। अब यहाँ विचारणीय यह है कि जिस परमात्मा ने बिना शरीर के इस सब ब्रह्माण्ड को रच डाला, हम सब प्राणियों के शरीरों की रचना की है, उस परमात्मा को कुछ क्षुद्र, दुष्ट व्यक्तियों को मारने के लिए शरीर धारण करना पड़े, यह बात बुद्धिग्राह्य नहीं है। इससे तो ईश्वर का ईश्वरत्व न रहकर ईश्वर का बहुत लघुत्व सिद्ध हो रहा है। यदि परमात्मा को यही करना है तो वह इस प्रकार के कार्य बिना शरीर के भी कर सकता है, क्योंकि वह पूर्ण समर्थ है।

गीता के उपरोक्त श्लोकों में अवतार का कारण हमने देखा, अब देवी भागवत पुराण में अवतार लेने का कारण देखिये। वहाँ लिखा है-

शपामि त्वां दुराचारं किमन्यत् प्रकरोमिते।

विधुरोहं कृत: पाप त्वयाऽहं शापकारणात्।।

अवतारा मृत्युलोके सन्तु मच्छापसंभवा:।

प्रापो गर्भभवं दु:ख भुक्ष्व पापाज्जनार्दन।।

देवी भागवत के इन श्लोकों में अवतार का कारण धर्म की रक्षा वा अधर्म के नाश करने के लिए नहीं कहा, अपितु भृगु का शाप कहा है। अर्थात् महर्षि भृगु ने विष्णु को दुराचार कर्म के कारण शाप दिया, उनके शाप के प्रभाव  से विष्णु का मृत्य ुलोक में अवतार हुआ। गीता के और देवी भागवत पुराण में अवतार के कारणों में परस्पर विरोध है। और देखिये-

बौद्धरूपस्त्वयं जात: कलौ प्राप्ते भयानके।

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वेदधर्मपरायन् विप्रान् मोहयामास वीर्यवान्।

निर्वेदा कर्मरहितास्त्रवर्णा तामासान्तरे।।

यहाँ गीता से सर्वथा विपरीत अवतार का कारण कहा है। गीता धर्म की रक्षा को कारण कहती है और यहाँ तो धर्म के नाश के लिए अवतार ले लिया, अर्थात् भागवत पुराण कहता है- भगवान ने बुद्ध का अवतार लेकर, सबको विरुद्ध उपदेश देकर नास्तिक बनाया तथा वेद मार्ग का नाश किया। यहाँ ये अवतारवादियों के ग्रन्थ परस्पर विरुद्ध कथन कर रहे हैं।

यथार्थ में तो ईश्वर के किसी भी रूप में जन्म धारण करने की कल्पना ही युक्ति व शास्त्र विरुद्ध है, क्योंकि ईश्वर को किसी भी प्रकार के सहारे की आवश्यकता नहीं, चाहे वह सहारा किसी शरीर का हो अथवा किसी अन्य प्राणी का। परमेश्वर अपने सब कार्य करने में समर्थ है, उसको कोई अवतार लेने की आवश्यकता नहीं है।

वेद में ईश्वर को ‘‘अकायमव्रणमस्नाविरम्’’ कहा है। वह परमात्मा सूक्ष्म और स्थूल शरीर के बन्धन से रहित है, अर्थात् इन बन्धनों में नहीं पड़ता। श्वेताश्वतर उपनिषद् मेंऋषि ने कहा-

वेदाहमेतमजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात्।

जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनो हि प्रवदन्ति नित्यम्।।

– ४.२१

अर्थात् वह परमात्मा अजर है, पुरातन (सनातन) है, सर्वान्तर्यामी है, विभु और नित्य है। ब्रह्मवादी सदा उसका बखान करते हैं। वह कभी जन्म नहीं लेता।

उपरोक्त सभी प्रमाणों से सिद्ध हो रहा है कि परमात्मा जीव के कर्मानुसार उसके भोग के लिए शरीर स्थान, समुदाय आदि देता है न कि अपनी इच्छा से किसी का नाश वा रक्षा के लिए उसको भेजता है और ऐसे ही स्वयं भी अवतार लेकर कुछ नहीं करता, अर्थात् स्वयं शरीर धारण करके किसी की रक्षा वा नाश नहीं करता।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की मूर्ति सही या गलत : आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा  समाधान – ११९

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा:- आदरणीय सम्पादक महोदय सादर नमस्ते। निवेदन यह है कि मैंने आर्य समाज मन्दिर में महर्षि दयानन्द जी का एक स्टेचू (बुत) जो केवल मुँह और गर्दन का है जिसका रंग गहरा ब्राउन है, रखा देखा है। पूछने पर पता चला कि यह किसी ने उपहार में दिया है। आप कृपया स्पष्ट करें कि क्या महर्षि का स्टेचू भेंट में लेना, बनाना और भेंट देना आर्य समाज के सिद्धान्त के अनुरूप है? जहाँ तक मेरा मानना है महर्षि ने अपनी प्रतिमा बनाने की सख्त मनाही की थी। कृपया स्पष्ट करें।

धन्यवाद, सादर।

– डॉ. पाल

समाधान:- महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन मेंं कभी सिद्धान्तों से समझौता नहीं किया। वे वेद की मान्यतानुसार अपने जीवन को चला रहे थे और सम्पूर्ण विश्व को भी वेद की मान्यता के प्रति लाना चाहते थे। वेद ईश्वर का ज्ञान होने से वह सदा निभ्र्रान्त ज्ञान रहता है, उसमें किसी भी प्रकार के पाखण्ड अन्धविश्वास का लेश भी नहीं है। वेद ही ईश्वर, धर्म, न्याय आदि के विशुद्ध रूप को दर्शाता है। वेद में परमेश्वर को सर्वव्यापक व निराकार कहा है। प्रतिमा पूजन का वेद में किसी भी प्रकार का संकेत नहीं है। महर्षि दयानन्द ने वेद को सर्वोपरि रखा है। महर्षि दयानन्द समाज की अवनति का एक बड़ा कारण निराकार ईश्वर की उपासना के स्थापना पर प्रतिमा पूजन को मानते हैं। जब से विशुद्ध ईश्वर को छोड़ प्रतिमा पूजन चला है तभी से मानव समाज कहीं न कहीं अन्धविश्वास और पाखण्ड में फँसता चला गया। जिस मनुष्य समुदाय में पाखण्ड अन्धविश्वास होता है वह समुदाय धर्म भीरु और विवेक शून्य होता चला जाता है। सृष्टि विरुद्ध मान्यताएँ चल पड़ती हैं, स्वार्थी लोग ऐसा होने पर भोली जनता का शोषण करना आरम्भ कर देते हैं।

महर्षि दयानन्द और अन्य मत सम्प्रदाय में एक बहुत बड़ा मौलिक भेद है। महर्षि व्यक्ति पूजा से बहुत दूर हैं और अन्य मत वालों का सम्प्रदाय टिका ही व्यक्ति पूजा पर है। महर्षि ईश्वर की प्रतिमा और मनुष्य आदि की प्रतिमा पूजन का विरोध करते हैं, किन्तु अन्य मत वाले इस काम से ही द्रव्य हरण करते हैं। इस व्यक्ति पूजा के कारण समाज में अनेक प्रकार के अनर्थ हो रहे हैं। इसी कारण बहुत से अयोग्य लोग गुरु बनकर अपनी पूजा करवा रहे हैं। जीते जी तो अपनी पूजा व अपने चित्र की भी पूजा करवाते ही हैं, मरने के बाद भी अपनी पूजा करवाने की बात करते हैं और भोली जनता ऐसा करती भी है। इससे अनेक प्रकार के अनर्थ प्रारम्भ हो जाते हैं। महर्षि दयानन्द ने जो अपना चित्र न लगाने की बात कही है, वह इसी अनर्थ को देखते हुए कही है। महर्षि विचारते थे कि इन प्रतिमा पूजकों से प्रभावित हो मेेरे चित्र की भी पूजा आरम्भ न कर दें। इसी आशंका के कारण महर्षि ने अपने चित्र लगाने का निषेध किया था।

यदि हम आर्य महर्षि के सिद्धान्तों के अनुसार चल रहे हैं, प्रतिमा पूजन आदि नहीं कर रहे हैं तो महर्षि के चित्र आदि लगाए जा सकते हैं रखे जा सकते हैं। चित्र वा मूर्ति रखना अपने आप में कोई दोष नहीं है। दोष तो उनकी पूजा आदि करने में हैं। महर्षि मूर्ति के विरोधी नहीं थे, महर्षि का विरोध तो उसकी पूजा करने से था। यदि महर्षि केवल चित्र वा मूर्ति के विरोधी होते तो अपने जीवन काल में इनको तुड़वा चुके होते, किन्तु महर्षि के जीवन से ऐसा कहीं भी प्रकट नहीं होता कि कहीं महर्षि दयानन्द ने मूर्तियों को तुड़वाया हो। अपितु यह अवश्य वर्णन मिलता है कि जिस समय महर्षि फर्रुखाबाद में थे, उस समय फर्रुखाबाद बाजार की नाप हो रही थी। सडक़ के बीच में एक छोटा-सा मन्दिर था, जिसमें लोग धूप दीप जलाया करते थे। बाबू मदनमोहन लाल वकील ने स्वामी जी से कहा कि मैजिस्ट्रेट आपके भक्त हैं, उनसे कहकर इस मठिया को सडक़ पर से हटवा दीजिये। स्वामी जी बोले ‘‘मेरा काम लोगों के मनो से मूर्तिपूजा को निकालना है, ईंट पत्थर के मन्दिरों को तोडऩा-तुड़वाना मेरा लक्ष्य नहीं है।’’ यहाँ महर्षि का स्पष्ट मत है कि वे मूर्ति पूजा के विरोधी थे, न कि मूर्ति के।

आर्य समाज का सिद्धान्त निराकार, सर्वव्यापक, न्यायकारी आदि गुणों से युक्त परमेश्वर को मानना व उसकी उपासना करना तथा ईश्वर वा किसी मनुष्य की प्रतिमा पूजन न करना है। इस आधार पर महर्षि का स्टेचू भेंट लेना देना आर्य समाज के सिद्धान्त के विपरीत नहीं, सिद्धान्त विरुद्ध तब होगा जब उस स्टेचू की पूजा आरम्भ हो जायेगी। आर्य समाज का सिद्धान्त चित्र की नहीं चरित्र की पूजा अर्थात् महापुरुषों के आदर्शों को देखना अपनाना है।

कि सी भी महापुरुष के चित्र वा स्टेचू को देखकर हम उनके गुणों, आदर्शों, उनकी योग्यता विशेष का विचार करते हैं तो स्टेचू का लेना-देना कोई सिद्धान्त विरुद्ध नहीं है। जब हम उपहार में पशुओं वा अन्य किन्हीं का स्टेचू भेंट कर सकते हैं तो महर्षि का क्यों नहीं कर सकते?

घर में जिस प्रकार की वस्तुएँ या चित्र आदि होते हैं उनका वैसा प्रभाव घर में रहने वालों पर पड़ता है। जब फिल्मों में काम करने वाले अभिनेता अभिनेत्रियों के भोंडे कामुकतापूर्ण चित्र वा प्रतिमाएँ रख लेते हैं, लगा लेते हैं तो घर में रहने वाले बड़े वा बच्चों पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है आप स्वयं अनुमान लगाकर देख सकते हैं। इसके विपरीत महापुरुषों क्रान्तिकारियों के चित्र घर में होते हैं तो घर वालों पर और बाहर से आने वालों पर कैसा प्रभाव पड़ता होगा। घर में रहने वालों की विचारधारा को घर में लगे हुए चित्र व वस्तुएँ बता देती हैं। अस्तु।

महर्षि ने अपनी प्रतिमा बनाने का विरोध किया था, वह क्यों किया इसका कारण ऊपर आ चुका है। स्टेचू, चित्र आदि का भेंट में लेना-देना आर्य समाज के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं है। यह लिया-दिया जा सकता है, कदाचित् इसकी पूजा वा अन्य दुरुपयोग न किया जाय तो। इसमें इसका भी ध्यान रखें कि पुराण प्रतिपादित कल्पित देवता जो कि चार-आठ हाथ व चार-ेपाँच मुँह वाले वा अन्य किसी जानवर के  रूप में हों उनसे लेने देने से बचें।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर