ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान भेद से वेद के चार विभाग ऋग्, यजुः, साम और अथर्व नाम से सृष्टि के आदि में प्रसिद्ध हुए। 🔥ऋचन्ति[१] स्तुवन्ति पदार्थानां गुणकर्मस्वभावमनया सा ऋक’ – पदार्थों के गुण कर्म स्वभाव बताने वाला ऋग्वेद है। 🔥’यजन्ति येन मनुष्या ईश्वरं धार्मिकान् विदुषश्च पूजयन्ति, शिल्पविद्यासङ्गतिकरणं च कुर्वन्ति शुभविद्यागुणदानं च कुर्वन्ति तद् यजुः’ – अर्थात् जिससे मनुष्य ईश्वर से लेकर पृथिवीपर्यन्त पदार्थों के ज्ञान से धार्मिक विद्वानों का सङ्ग, शिल्पक्रियासहित विद्याओं की सिद्धि, श्रेष्ठ विद्या, श्रेष्ठ गुणों का दान करें वह यजुर्वेद है। 🔥’स्यति कर्माणाति सामवेदः’ – जिससे कर्मों की समाप्ति द्वारा कर्म बन्धन छूटें, वह सामवेद है। ‘थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्-प्रतिषेधः’ (निरु॰ ११।१८), 🔥चर संशये (चुरादिः), संशयराहित्यं सम्पाद्यते येनेत्यर्थकथनम् – अर्थात् जिस के द्वारा संशयों की निवृत्ति हो उसे अथर्ववेद कहते हैं ।
[📎पाद टिप्पणी १. निरु॰ १३।७ में – 🔥“यदेनमृग्भिः शंसन्ति, यजुर्भिर्यजन्ति, सामभिः स्तुवन्ति” और काठक सं॰ ४०।७ के ब्राह्मण में – 🔥”ऋग्भिः शंसन्ति, यजुर्भिर्यजन्ति, सामभिः स्तुवन्ति अथर्वभिर्जपन्ति॥” ऐसा कहा है।]
ऋग्वेद ज्ञान काण्ड है, यजुर्वेद कर्मकाण्ड, सामवेद उपासनाकाण्ड और अथर्ववेद विज्ञानकाण्ड है। सब पदार्थों के गुणों का निरूपण ऋग्वेद करता है, ‘ऋग्भिः शंसन्ति’ का यही अभिप्राय है, पदार्थों के लक्षण बताना उनका शंसन करना ही है। वस्तु के ज्ञान हो जाने के पश्चात् उसको कार्यरूप में परिणत करने की क्रिया का नाम कर्मकाण्ड है, जो यजुर्वेद का प्रधान विषय है। जिसके द्वारा मनुष्यों की कर्म ग्रह ग्रन्थियाँ परिसमाप्त होती हैं, वह उपासना सामवेद का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। यह सब हो जाने पर विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने का नाम विज्ञान है, जो अथर्ववेद का विषय है। इन-इन विषयों की उस-उस वेद में प्रधानता है, ऐसा समझना चाहिये। इस विषय में विशेष ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका प्रश्नोत्तरविषय (पृ॰ ३६४ से ३६६) में देखें।
अब हमें यह विचार करना है कि [२]दुर्ग, भट्टभास्कर, महीधरादि ने जो यह लिखा कि ब्रह्मा से परम्परा द्वारा प्राप्त एक वेद के चार विभाग महर्षिव्यास ने किये, उनका यह कथन कहाँ तक सत्य है?
[📎पाद टिप्पणी २. महीधर अपने भाष्य के आरम्भ में, भट्टभास्कर तै॰ सं॰ भाष्य के आरम्भ में, दुर्ग निरु॰ १।२० की टीका में ‘व्यासजी ने वेद को चार विभाग में किया ऐसा लिखते हैं। विष्णुपुराण ३।३।१९,२० तथा मत्स्यपुराण १४४।११ में भी ऐसा ही कहा गया है।]
स्वयं ऋग्वेद (१०।९०।९) में तथा अथर्ववेद (१०।७।२०) में चारों वेदों का विभागशः वर्णन है। अथर्ववेद (४।३५।६ तथा १९।९।१२ में) “वेदा” बहुवचन पद स्पष्ट आता है। इससे वेद एक है, यह बात अयुक्त सिद्ध हो जाती है। ब्राह्मणग्रन्थों में शतपथ (१४।५।४।१०) तथा गोपथ (१।१।१६ तथा ३।१) में स्पष्ट चारों वेदों का नाम निर्देश तथा ‘सर्वांश्च वेदान्’ इत्यादि लेख पाया जाता है।
उपनिषदों में ‘अपरा’ विद्या का परिगणन करते हुए स्पष्ट ही उल्लेख है –
मनु के श्लोक हम पूर्व लिख चुके हैं[३], चरक तथा काश्यप संहिता में भी चारों वेदों की सत्ता स्पष्ट वर्णित है (देखो चरक सूत्रस्थान अध्याय ३०।१८ तथा काश्यप संहिता पृ॰ ४३)।
[📎पाद टिप्पणी ३. द्र॰ पूर्ववर्ती लेख – “वेद और प्राचीन ऋषि-मुनियों की परम्परा” (लेखक – पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु) – 🌺 ‘अवत्सार’]
महाभारत में भी वेद चार हैं, ऐसा कहा है (देखो शल्यपर्व अ॰ ४१। श्लो॰ ३१४॥ द्रोणपर्व अ॰ ५१ । श्लो॰ २२)।
रामायण में भी इस प्रकार लिखा है – 🔥नानुग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः। नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्॥ (रामा॰ किष्किन्धा काण्ड सर्ग ३ श्लोक २८)
जब स्वयं वेद से तथा अन्य आप्तवचनों से यह सिद्ध है कि वेद सृष्टि में आदि में ही ऋग यजुः साम अथर्व इन चार विभागों में विभक्त विद्यमान थे, तब वेदव्यास ने एक वेद के चार विभाग किये- यह कल्पना सर्वथा अयुक्त है। हाँ वेदव्यास ने उस काल में भिन्न-भिन्न बहुत सी शाखायें बन चुकने के कारण ब्राह्मण और श्रौतादि का सम्बन्ध निश्चय कर दिया हो, कि किस-किस शाखा का कौन-कौन ब्राह्मण है। अथवा उन्होंने वेद की कुछ शाखाओं का प्रवचन या उनकी व्यवस्था की हो। जैसे आजकल भी काशी आदि में ऋग्वेदी कुलों ने ही अथर्ववेद का ग्रहण, (उसकी रक्षा का परम पवित्र कर्त्तव्य समझकर) स्वयं अपनी इच्छा से अपने ऊपर लिया हुआ है। ऐसे कुलों का विभाग व्यासजी के समय में प्रथम आरम्भ हुआ हो, ऐसा भी सम्भव है।
प्रकृत विषय में एक विचार और उपस्थित होता है, वह यह कि वैदिकसाहित्य में तीन वेद वा चार वेद दोनों प्रकार का व्यवहार मिलता है। वेद चार हैं यह व्यवहार ऋग-यजुः-साम-अथर्व चारों वेदों में, तैत्तिराय, काठक, मैत्रायणी, पप्पलाद, जैमिनीय आदि शाखाओं में, तथा प्रायः सभी ब्राह्मण, श्रोत, गह्यादि में सर्वत्र मिलता है । ऋग्वेद के 🔥‘चत्वारि वाक् परिमिता पदानि’ (ऋ॰ १।१६४।४५) तथा 🔥‘चत्वारि श्रृङ्गा॰’ (ऋ॰ ४।५८।३) आदि के व्याख्यान में यास्क ने –
🔥”चत्वारि शृङ्गति वेदा वा एत उक्ताः” (निरु॰ १३।७) में स्पष्ट ही चारों वेदों का ग्रहण किया है।
यहाँ पूर्वपक्षी कह सकता है कि यजु॰ ३१।७ में तीन वेदों की उत्पत्ति का वर्णन है। मनु महाराज भी 🔥’त्रयं ब्रह्म सनातनम्’ (मनु. १।२३) वेद तीन हैं, यह स्वीकार करते हैं। शतपथब्राह्मण में 🔥’अग्नेर्ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात सामवेदः’ (श॰ १४।५।४।१०) तीन वेद माने हैं। अतः वेद तीन ही हैं।
इसका समाधान हमारे पूर्वोक्त कथन से हो जाता है कि वेद चार हैं, इस विषय में वेद तथा अन्य सब वैदिक ग्रन्थ सहमत हैं। अब प्रश्न यह रह जाता है कि फिर तीन विभाग का क्या अभिप्राय है? जहाँ भी वेद के तीन होने का वर्णन है, वहाँ विद्याभेद से है, क्योंकि जिस शतपथब्राह्मण में चारों वेदों का नामों सहित उल्लेख है, उसी में यह भी कहा है –
अर्थात् त्रयी नाम ऋग्-यजुः-साम का विद्या के कारण है।
मीमांसा द्वितीय अध्याय के प्रथमपाद में ऋग् आदि का लक्षण इस प्रकार किया है –
🔥तेषामृग यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था॥ मी॰ २।१।३५॥ इस शास्त्र में ‘ऋक्’ शब्द से पादबद्ध ऋचाओं का ग्रहण करना चाहिये।
🔥गीतिषु सामाख्या॥ मी॰ २।१।३६॥ गान विधायक मन्त्र ‘साम’ कहलाते हैं।
🔥शेषे यजुः शब्दः॥ मी॰ २।१।३७॥ शेष में ‘यजुः’ का व्यवहार समझना चाहिये।
इस प्रकार विद्याभेद से याज्ञिक प्रक्रिया में पारिभाषिक रीति से वेद मन्त्र तीन प्रकार के माने जाते हैं, वास्तव में वेद चार ही हैं जो ज्ञान, कर्म, उपासना तथा विज्ञान काण्ड के भेद से हैं। यही प्राचीन परम्परा है।
✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
जिस समय डाल्टन का परमाणुवाद संसार के सम्मुख प्रस्तुत हुआ उस समया एटम (परमाणु) को किसी भी पदार्थ का मूल कण माना जाने लगा परन्तु इलेक्ट्रोन आदि की खोज से डाल्टन का परमाणुवाद इतिहास की बात होकर रह गया। एटम को विखण्डित करते-करते आज मूल कण कहे जाने वाले कणों की संख्या दौ सौ के लगभग ही हो चुकी है। इन कणों को भी वैज्ञानिक उत्पन्न कर रहा है, दूसरों में परिवर्तित कर रहा है उदासीन पाई मैसोन की त्रिज्या १० से, मानी जा रही है तब इन्हें कैसे मूलकण माना जाये ?
आज एटम का स्टेण्डर्ड मॉडल प्रस्तुत किया जा रहा है। इस प्रारूप में छः क्वार्क (u, d, c, b, t) तथा छः लैप्टोन (इलेक्ट्रॉन, म्यूऑन, टाऊन, इलेक्ट्रॉन-न्यूट्रिनो, म्यूऑन-न्यूट्रिनो तथा टाऊन-न्यूट्रिनो) ये मूल कण कहे जा रहे है। अन्य मूल कणों को इन्हीं से निर्मित माना जा रहा है। वैज्ञानिकों का मानना है-
All evidences point to the fact that the leptons
have no internal structure and are point particles. They are considered more
elementary than handrons which have internal structure ¼quark-structure½ Leptons and quarks seem to be at the
same level of elementriness.
अर्थात् लप्टोन तथा क्वार्क कणों की आन्तरिक संरचना नहीं होती इस कारण ये कण प्रोटीन, न्यूट्रोन आदि कणों की अपेक्षा अधि कमूल कण हैं। इसके आगे यही ग्रन्थकार लिखता है-
Each type of Lepton
is associated with a neutrino. The elementriness
अर्थात् प्रत्येक लेप्टान के साथ लगभग शून्य द्रव्यमान का कण न्यूट्रिनों संयुक्त होता है। इस कण के बारे में ब्रिटिश वैज्ञानिक लिखते हैं-
Every particles is accompanies by another particles called neutrino
which mass in rest is zero. It is high energy particles. Its speed is equal to
light speed.
¼Atomic energy-macmillon & Co.Ltd.-London-१९६२½
अर्थात् विरामावस्था में शून्य द्रव्यमान वाला न्यूट्रिनो कण प्रत्येक कण के साथ संयुक्त होता है जिसमें उच्च ऊर्जा होती है तथा प्रकाश वेग गति करता है।
प्रश्न यह है कि क्या न्यूट्रिनो तथा उसके संयोगी कणों का संयोग अनादि है? ऐसा हो ही नहीं सकता तब ये कण भी विशेषकर वे जिसके साथ न्यूट्रिनों का संयोग अनिवार्य है, मूलकण नहीं हो सकता तब सिद्ध है कि लेप्टोनों का निर्माण कभी न कभी हुआ है। इसी प्रकार क्वार्क कणों के साथ ग्लूऑन कणों की कल्पना की जाती है। जिस आधार पर लेप्टोनों का अनादित्व असिद्ध हुआ उसी प्रकार क्वार्कों का भी अनादित्व असिद्ध होगा। तब जो कण अनादि नहीं हो सकते वे मूल कण भी कैसे कहे जा सकते हैं? फिर वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रत्येक कण गतिशील ही होता है। वेद भी ऐसा स्पष्ट रूपेण कहता है। विज्ञान और वेद दोनों ही यह भी मानते हैं कि कणीय गति से ही कणों की सत्ता है।
वायवायाहि दर्शते मे सोभा अरंकृताः तेषां पाहि-ऋग्वेद १/२/१
मंत्र बतला रहा है कि गति गुण ने ही संसार भर के मूर्तिमान पदार्थों को सजा रखा है और वही इनकी रक्षा भी कर रहा है।
विज्ञान के शब्दों में-
Only Few are stable, such as the proton, electron,
neutrino, positron, photon, and poton, the rest are all unstable.
¼ Atomic & Nuclear Physics-S.N.GHOSHAL, P.९०१½
निश्चित ही गति की सत्ता अनादि नहीं है तब वर्तमान में मूलकण कहे जाने वाले कणों में से कोई भी कण आद्य अवस्था में विद्यमान नहीं था। जब इनका अस्तित्व गति के अभाव में समाप्त हो जाता है तब ये कण किसमें परिवर्तित हो जाते हैं उस सत्ता को मूलावस्था क्यों न माना जाय? प्रश्न यह भी है कि बिना गति इन कणों की सत्ता रहती नहीं और वैज्ञानिक इन कणों का द्रव्यमान विराम अवस्था में ही मापते और बतलाते हैं तब क्यों कर इन्हें विराम में प्राप्त कर पाते हैं? फिर वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि गतिशील कण का द्रव्यमान अपेक्षाकृत वर्धमान होता जाता है। इससे सिद्ध है कि ऊर्जा में कुछ न कुछ द्रव्यमान अवश्य होता है।
अब वैज्ञानिक सृष्टि की आदिम अवस्था में इन कणों का निर्माण स्वीकार करते हैं, वे मानते हैं कि प्रारम्भ में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कल्पनातीत ताप था।
Thus at the time + १०-४५ after zero time
the temperature was about १०-३२ K. Between + १०-३५ s only rwo of the fundamental
interactions were operative. These were the unfield strong weak force and the
gravitati onal force. A type of very heavy particles are called the X-Bosons
exited during the period, which helped
change the quarks into leptons and vikce weasa———-As we approached the
time + १०-१०s there is defreezing of the strong plus electron weak interaction is
and the two interactions now appear as Distinct. So there are now the there
fundamental interaction – gravitational strong nuclear and electro weak in
operation. W+ and Zo Bos appear at + १०-१० s The electron weak interaction begin
to defreeze electro-megnetic and weak forces become seperated now we have all
the four distinct interactions operative. Between १०-६s -१०-४s there is another transition. The
neutrons and the protons being to take shape due to the combination of the
quark. So that the fundamental particles are produed familiar to us in the
present day universe begin to appear.
At
about + १०-३s the temp has fallen to ८*१० १० K. Hundrads of
different elementry particles are produced by collisions at the available
energy.
At
the time zero plus there minutes the temp is about to ७० times, that found in the core of the sun. This is when the protons and
neutrons begin to combine to from the complet nueclai.
The
formation of the atoms came much later at the time zero plus ५००००० years. The universe cooled down sufficiently so
that electrons and the nuclei could join together to from the atoms.
{
Atomic and Nuclear Physics – Page ९५१-५२}
उपर्युक्त उदाहरण पर विचारने से निम्न तथ्य सामने आते हैं-
१. आदिम अवस्था का ताप सूर्य के केन्द्रीय ताप का १ करोड़ अरब गुना था, जो वर्तमान में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कहीं सम्भव नहीं होगा।
२. उस ताप में अत्यन्त तेजी से गिरावट आती है।
३. उस समय किसी भी प्रकार के कण नहीं होते हैं। कहा गया है कि सर्वप्रथम उत्पन्न बोसोन कण लेप्टोन को क्वार्क तथा क्वार्कों को लेप्टोनों में परिवर्तित करते हैं।
४. लगभग ५ लाख वर्ष में एटम का निर्माण हो पाता है।
५. पूर्व में दो ही बल थे जो बाद में चार बलों में विभक्त हो गये। उपर्युक्त बिन्दुओं की समीक्षा से निम्न प्रश्न उपस्थित होते हैं-
१. वह उच्चतम ताप कैसे, किसमें तथा किसके द्वारा उत्पन्न हुआ? यदि ईश्वरीय सत्ता को भी यह प्रश्न शेष रहेगा कि ताप किस प्रकार तथा किस उपादान पदार्थ से उत्पन्न किया गया। यह ताप वाली स्थिति अनादि तो हो नहीं सकती तब उपर्युक्त प्रश्न अनुत्तरित रहेगे ही।
२. उस ताप में इतनी तेजी से गिरावट आना भी कैसे हुआ? केवल ३ मिनट में ताप १० ३२ K से लगभग ३-४ अरब K तक पहुंच जाना अप्रत्याशित सा प्रतीत होता है। केवल तीन मिनट में नाभिकों का निर्माण हो जाना जबकि एटम के निर्माण में ५ लाख वर्ष, लगे, यह बात उचित प्रतीत नहीं होती।
३. बोसोनों की उत्पत्ति के पश्चात् क्वार्क से लेप्टान तथ लेप्टान से क्वार्क बनने के सिद्धान्त में अन्योन्य आश्रय का दोष आयेगा। इन दोनों में कौन प्रथम, इसका उत्तर कैसे दिया जायेगा? फिर जो प्रथम बना तो किससे और यदि दोनों एक साथ कैसे बने और जिससे भी बने उसी से फिर क्यों नहीं बने ?
जैसा कि हम विचार कर चुके हैं कि अब तक मूलकण कहे जाने वाले कणों में से मूलकण कोई प्रतीत नहीं होता, हाँ ग्लूऑन, न्यूट्रिनों, फोटोन जैसे कुछ कण अवश्य ही ज्ञान कणों में प्राथमिक प्रतीत होते हैं।
-: अब हम वैदिक विचारधारा को प्रस्तुत करें:-
सर्वप्रथम यह विचारणीय है कि सृष्टि सृजन के पूर्व अर्थात् आदिम अवस्था क्या थी?
गीर्णिभुवनं तमसापगूढ़म……………ऋग्वेद १०१/८८/२
अर्थात् उस समय सब कुछ निगला हुआ सा और अंधकार से आवृत था।
अर्थात् उस समय शून्य रूप असत् आकाश भी नहीं था क्योंकि उसका व्यवहार नहीं था और न ही सत् अर्थात् सत्व, रज, तम से बना प्रधान ही था अथवा उस समय अभाव रूप असत् तथा भावरूप व्यक्त जगत् दोनों ही नहीं थे। और न रजस् अर्थात् परमाणु ही थे। इसी को भगवान मनु ने इस प्रकार कहा-
आसीदिदं तमोभूतम प्रज्ञातम लक्षणम्।
अग्रतक्र्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः।। मनु १/५
अर्थात् उस समय की अवस्था पूर्णतः अन्धकारमय, न जानने योग्य, लक्षणविहीन, तर्क न करने योग्य प्रसुप्त जैसी थी। कोई ध्वनि, प्रकाश, गति आदि कुछ भी नहीं था।
इसके साथ
ऽस्वधया तदेकम्…………………..ऋ. १०/१२९/२
अर्थात् वह परमात्मा स्वधा (प्रकृति ) के साथ रहता है क्योंकि
योऽस्याधयक्षः………………………..ऋ. १०/१२९/७
अर्थात् वह परमात्मा ही इस सृष्टि का अध्यक्ष है, वही इसकी रचना, पालन तथा धारण आदि करता है। वेद यह भी स्पष्ट करता है कि उपर्युक्त अवस्था न केवल स्थान विशेष में बल्कि…………..
उपर्युक्त बिन्दुओं पर विचार करने पर निम्नलिखित तथ्य प्राप्त होते हैं-
१. वह अवस्था पूर्णतः अंधकार व प्रसुप्त होने से अव्यक्त एवं अज्ञेय ही होती है। जिस प्रकार हम किसी वस्तु को निगल लेते हैं तब निगली हुई वस्तु का अभाव तो नहीं होता परन्तु वह छिप जाती है। इसी प्रकार उस समय सब कुछ अंधकार द्वारा निगला हुआ होता है। अंधकार, शांत, निष्क्रियता की सीमा इतनी कि उससे अधिक ब्रह्माण्ड में कहीं एवं कभी सम्भव नहीं हो सकती।
वैज्ञानिक प्रारम्भिक अवस्था को अत्यन्त तप्त, तेजस्वी बतलाते हैं जहां प्रकाश एवं ऊष्मा की चरम सीमा है जो कहीं तथा कभी उसके पश्चात् कल्पित भी नहीं की जा सकती जबकि वैदिक विचारधारा इसके ठीक विपरीत है अर्थात् उस समय इतना शैत्य जितना कभी और कहीं भी इस ब्रह्माण्ड में इस अवस्था के पश्चात् सम्भव नहीं है।
२. उस समय एटम आदि नहीं होते हैं। यहां ‘परमाणु’ शब्द का अर्थ एटम या अणु (मॉलीक्यूल) आदि ही है न कि सबसे सूक्ष्म कण भगवान यास्क के शब्दों में-
अर्थात् प्रकाश एवंज ल का सूक्ष्मतम कण वा लोक को रजस् कहते हैं। प्रकाश का सूक्ष्म कण फोटोन जल का एक अणु अर्थात् किसी भी साधन से दृष्टि में आने योग्य कण वा लोक लोकान्तर। ये सभी उस समय अविद्यमान थे।
३. उस समय जो भी मूलकण होते हैं, वे सलिल अवस्था जैसे होते हैं। ‘‘सलति गच्छति निम्नं देशं सलिलम्’’ अर्थात् जो नीचे की ओर सरकता है, फिसलता है ‘सलिल’ कहलाता है। इस का तात्पर्य यह नहीं कि उस समय ऐसी अवस्था वास्तव में होती है बल्कि यहां आशय मात्र यह है कि कण परस्पर किसी भी प्रकार के चिपचिपेपन से रहित अर्थात् एक दूसरे पर पूर्णतः फिसलने योग्य होते हैं। पूर्णतः पारस्परिक बन्धन (आकर्षण या प्रतिकर्षण) रहित। और यह सलिल भी कैसा था।-
आपं वा इयमग्रे सलिल…………………….मासीत् तै. १/१/३/५
अर्थात् प्रारम्भ में यह ‘आपस्’ ही सलिल था। और आपस् क्या है-
अिर्वाइदं सर्वमाप्तम्……………….शतपथ १/१/१/१४
अर्थात् ऐसा पदार्थ सर्वत्रव्याप्तथा और भी-
अगृता ह्यापः……………………..-शत. ३/९/४।१६
अर्थात् वह आपस् अमृत था अर्थात् अनादि था ऊपर, नीचे, दांये, बांये सर्वत्र वह सलिल रूपी मूलपदार्थ भरा रहता है। इसी कारण आकाश अर्थात् अवकाश का अभाव बताया गया है।
४. इस अवस्था को वेद ‘स्वधा’ नाम से सम्बोधित करता है।
स्वधा शब्द का अर्थ है- ‘‘स्वं दधातीति स्वधा’’ अर्थात् जो स्व को धारण करती है। अब स्व क्या है-
स्वरित्यसौ (द्यु) लोकः-शत. ८/७/४/५
अन्तो वै स्वः – ऐत. ५/२०
अर्थात् द्यु को धारण करने वाली। यहां ‘द्यु’ शब्द का अर्थ विद्युत् से है अर्थात् जो विद्युत को धारण करने वाली है।-
यजुर्वेद ३३/२२ के शब्दों में- ‘‘अमृतानि तस्थौ’’ अर्थात् विद्युत रूपी ‘स्वधा’ कहा।
इस स्वधा को शतपथकार ने और भी स्पष्ट किया-
स्वधाकांर पितरः (उपजीवन्ति) – शत. १४/८/१
मत्र्याः पितरः – शत. २/१/३/४
अर्थात् जो उत्पन्न होते हैं और नाश को प्राप्त होते हैं, वे पदार्थ वा कण पितर कहलाते हैं तथा वे पितर स्वधा के कारण ही जीवित रहते हैं अर्थात् वह पदार्थ जिसके आश्रय पर विनाशी कण निर्भर हैं, स्वधा कहलाता है और इसी का अपर नाम प्रकृति है।
५. इस अव्यक्त स्वधा प्रकृति के साथ परमात्मा चेतन तत्व सदैव रहता है जो सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माता, नियन्त्रक व संचालक है। उसके बिना उस निष्क्रिय, शान्त, अन्धकारावृत मूलपदार्थ प्रकृति में क्रिया का होना सर्वथा असम्भव है।
अब प्रकृति की इस स्थिति के गुणों पर विचार करते हैं। वर्तमान विज्ञान इस स्थिति तक विचार नहीं पाया है। वेद उस अव्यक्त प्रकृति को ‘‘त्रितस्य धारया” -ऋ. ९/१०२/३ तथा ‘त्रिधातु’ – ऋ. १/१५४/४ कहकर तीन सत्व, रजस् तथा तमस् का बोध करा रहा है। वेद में अनेकत्र प्रकृति के त्रैत का उल्लेख है।
इस त्रैत को भी ‘सलक्ष्मा’ ऋ. १०/१२/६ कहकर साम्यावस्था वाली सिव् कर रहा है प्रकृति के त्रैत और उसकी साम्यावस्था विषय में भगवत्कपिलर्षि ने लिखा-
सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः – सांख्य दर्शन १/२६
अर्थात् सत्व, रजस् तथा तमस् की साम्यावस्था का नाम, प्रकृति है। अब यह विचारणीय है कि सत्व, रजस् तथा तमस् क्या है? इनकी साम्यावस्था क्या है? कुछ आर्य विद्धान् प्रोटोन, इलेक्ट्रोन तथा न्यूट्रोन को क्रमशः सत्व, रजस् तथा तमस् मानते रहे हैं परन्तु अब इलेक्ट्रोन को छोड़कर अन्य कणों की मौलिकता विज्ञान ने असिद्ध कर दी है। हमारीदृष्टि में इलेक्ट्रोन भी मूल कण नहीं है।
प्र व्यासर्षि भाष्य अर्थात् सत्व प्रीति आकर्षण एवं प्रकाश युक्त, रजस् अप्रीति (प्रतिकर्षण) तथा क्रियाशीलता युक्त तमस् विषाद् (उदासीनता) युक्त तथा स्थितिशील है। सांख्य सिद्धान्त में ख्यातिर्लब्ध आर्य विद्वान् आचार्य उदयवीर शास्त्री ने इनके अतिरिक्त अन्य गुणों का भी वर्णन किया है। यथा-सत्व = लघु, रजस् = चल तथा प्रवर्तन, तमस् = उदासीन एवं अकर्मण्य।
अर्थात् ऐसा कण जो प्रकाश तथा आकर्षण का अधिष्ठान होते हुये लघु हो, सत्व, ऐसा कण जो क्रियाशीलता गति तथा प्रतिकर्षण का अधिष्ठान हो, रजस् तथा ऐसा कण जो गुरूता तथा निष्क्रियता का अधिष्ठान हो तमस्, साथ में ये सभी आदि मूलकण होवें। वर्तमान में कहे जाने वाले मूलकणों में से न्यूट्रिनों, फोटोन तथा ग्लूऑन की स्थिति कुछ मूल प्रतीत होती है। फोटोन जैसा सत्व, न्यूट्रोन जैसा रजस् तथा ग्लूऑन जैसा तमस् हो सके परन्तु फोटोन में आकर्षण न्यूट्रोन में प्रतिकर्षण जब तक सिद्ध न हो तथा ग्लूऑन का स्वरूप पूर्ण स्पष्ट न हो तब तक ऐसी तुलना उचित नहीं कही जा सकती। विज्ञान जो भी सिद्ध वा प्राप्त करे, हमारी मान्यता है कि मूल प्रकृति उन मूलकणों का समूदाय है संयोग नहीं जो परस्पर पूर्णबन्धन सहित, शान्त एवं उपर्युक्त गुणों से युक्त होते हैं। इस पूर्ण शिथिल, शान्त अंधकार में-
‘‘सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति” (तै. उप.)
‘‘कामस्तदग्रे समवर्तताधि’’ -ऋ. १०/१२९/४
अर्थात् परमात्मा सर्वप्रथम सृष्टि रचना करने की कामना करता है। किसी भी कार्य के लिये सर्वप्रथम इच्छा का होना अनिवार्य है परन्तु परमात्मा की इच्छा, ज्ञान व क्रिया सब स्वभाविक होते हैं।
‘‘स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च” – श्रे्व. उप.
ळम जिस प्रकार की इच्छा करते हैं, उस प्रकार की इच्छा नहीं बल्कि जीवों के पालनार्थ ( भोग एवं मोक्ष हेतु) इच्छा करता है। भगवान मनु ने कहा-
कहकर सत्व, रजस् तथा तमस् को परमात्मा की ज्योति रूप जड़ शक्तियां कहा है। इस तेज को ही ऋग्वेद में अग्नि नाम दिया है।
‘‘यस्मिन् देवा विदथे मादयन्ते’’ -ऋ. १०/१२/७
‘‘यस्मिन् देवा मन्मनि संचरन्ति’’ -ऋ. १०/१२/८
अर्थात् विद्युद्रूपाग्नि के शक्तिशाली एवं सक्रिय होने पर ही सभी दिव्य शक्तियां गति और क्रिया का संचार करती हैं। इस विद्युद्रूपाग्नि को मानव कभी जान भी सके परन्तु उस ईश्वरीय तेज को कभी परीखित वा निरीक्षित नहीं किया जा सकेगा। यजुर्वेद में……………….
‘‘द्यौरासीत्पूर्वचिति’’……………२३/५४ का भाष्य करते हुये भगवान् दयानन्द कहते हैं कि विद्युत पहिला संचय है। ऋ. ४/१/११ में कहा- स जायत प्रथमः अर्थात् वह विद्युद्रूपाग्नि सर्वप्रथम उत्पन्न होता है ऐसा प्रतीत होता है कि कारणावस्था में परमात्मा द्वारा तेज प्रदान करने से मूल उपादान में क्षोभ उत्पन्न होता है जिससे तीन तीनों गुणों का अन्तर्निहित भाव उत्पन्न होता है आकर्षण, प्रतिकर्णण, प्रकाशशीलता, क्रियाशीलता, गुरूता, लघुता आदि सभी गुण अस्तित्व में आ जाते हैं अथवा जो अन्तर्मुखी थे वे बहिर्मुखी हो जाते हैं। यहां विद्युत् की उत्पत्ति संकेत है परन्तु वास्तव में विद्युत् की उत्पत्ति नहीं होती। वेद विद्युत को ‘प्रत्ना’ (ऋ. ६/६२/५) अर्थात् पुरातन मानता है। यजुर्वेद ३/१६ में भी महर्षि के भाष्य में इसे प्राचीन और अनादि कहा है। त बवह प्रथम अवस्था अव्यक्त होना मात्र है।
प्रश्न यह हो सकता है कि सभी गुण अव्यत्त वा साम्य कैसे रहते हैं? यह अत्यन्त रहस्यमय तथ्य है कि जिसका उद्घाटन सम्भव प्रतीत मुझे तो नहीं होता। हां इतना भी कहूंगा कि वर्तमान विज्ञान भी व्यक्त ऊर्जा के भी स्वरूप को स्पष्ट नहीं कर सका है तब अव्यक्त को स्पष्ट कर देना क्यों कर सम्भव है? कोई बताये कि स्थितिज ऊर्जा के लिये कोई पिण्ड जब नीचे गिरने लगता है और उसकी स्थितिज ऊर्जा का गतिज ऊर्जा में परिवर्तन होता है। मान लें उस पिण्ड ने नीचे गिरकर किसी वस्तु को तोड़ दिया तब वह ऊर्जा कहां गयी? प्रोटोन तथा न्यूट्रोन की अधिकता वा न्रूवता से कोई वस्तु आवेशित हो जाती है। कोई बताये कि इलेक्ट्रोन, प्रोटोन आदि में आवेश क्यों होता है आवेश का स्परूप क्या होता है, सर्वप्रथम इसे कौन उत्पन्न करता है, ये प्रश्न हैं जिनका समाधान नहीं हो सका है तब अव्यक्त को व्यक्त करवाना कैसे सम्भव है? आज तक इलेक्ट्रोन के स्वरूप को भी पूर्णतः जान नहीं पाये जबकि इसके प्रयोग से संसार में विराट् क्रान्ति खड़ी हो गयी तब मूलावस्था में गुणों की साम्यता का स्वरूप दर्शाना क्योंकर हो सकता है?
कुछ विद्वानों की मान्यता है कि प्रकृति का प्रत्येक कण तीनों गुणों (सत्व, रजस् तथा तमस्) का युग्म है जिनके संयोग विशेष से धन ऋण वा उदासीन कण अस्तित्व में आते हैं। मेरे विचार से इस मान्यता का यह दोष होगा कि आवेश का युग्म अनादि नहीं हो सकता तब प्रकृति का अनादित्व असिद्ध होगा, जो अनेक प्रश्नों को जन्म देगा। इस कारण प्रत्येक कण को स्वतंन्त्र ही मानना होगा और उन्हीं कणों को सत्यार्थ प्रकाश में परमाणु कहा है। कोई यह कहे कि विद्युत् का प्रथम प्राकट्य कैसे होता है? तो इसका उत्तर यह है कि चेतन कत्र्ता के रहते तो यह होना सम्भव है परन्तु इसके बिना अवश्य ही असम्भव रहेगा। मैं तो यह पूछना चाहता हूँ कि प्रारम्भ में अत्युच्च ताप के अस्तित्व को कैसे सम्भव मानते हैं? यह अवस्था तो नियन्त्रक एवं नियामक सत्ता परमात्मा के सहाय से भी सम्भव नहीं। हां कुछ कालोपरान्त अवश्य सम्भव है। मुझे विश्वास है कि जैसे-जैसे विज्ञान उन्नत होगा वैदिक प्रक्रिया को अवश्य स्वीकार करेगा। अब इसके पश्चात्
‘‘प्रकृतेर्महान्……………………………’’-सां.द. १/२६
१. शब्द तन्मात्रा:- इस तन्मात्रा से आकाश की उत्पत्ति मानी गयी है। शब्द तन्मात्रा शब्द ऊर्जा का सूक्ष्मतम रूप है जिसके स्वरूप का निर्धारण करना अति दुष्कर कार्य है। आकाश कोई पदार्थ विशेष न होकर शून्य वा अवकाश का ही नाम है। ऋषि दयानन्द जी का कहना है- ‘‘वास्तव में आकाश की उत्पत्ति नहीं होती क्योंकि बिना आकाश के प्रकृति और परमाणु कहां ठहर सकें’’ (सत्यार्थ प्रकाश-अष्टम समुल्लास)
भगवान कणादर्षि ने शब्द को आकाश का गुण बतलाया है। इस आधार पर अनेक विद्वान् आकाश को शून्य न मानकर पदार्थ विशेष मानते हुए कहते हैं कि गुण शून्य नहीं तो गुणी शून्य क्योंकर हो सकता है? मेरे विचार से वे कणाद ऋषि का आशय नहीं समझते । आचार्य ने शब्द को आकाश का गुण उस प्रकार सहज भाव से नहीं माना है जिस प्रकार अन्य गुण-गुणियों के सम्बन्ध दर्शाये हैं बल्कि अन्य किसी भी भूत का गुण सम्भव न मानकर आकाश के ही शेष रह जाने पर -‘‘परिशेषालिंगमा-काशास्य’’ वै. द. २/१/२७
इसके आगे आचार्य ने आकाश का समवाय वा असमवाय कोई कारण नहीं माना और न ही आकाश के वायु आदि के समान परमाणु ही स्वीकार किये हैं।
भगवत्कणाद ने काल, दिशा के समान आकाश को भी निष्क्रिय माना है। मेरे विचार से इन तीनों का व्यवहारार्थ ही उपयोग है। यह न किसी का उपादान है और न उसका कोई उपादान है। इसका मुख्य लिंग आचार्य लिखते हैं-
अर्थात् निकलना, प्रवेश करना, इस प्रकार की क्रिया का सम्भव होना, आकाश का लिंग है। ऐसे ही गुण कुछ सर आलीवर लाज ने ईथर रूपी आकाश के बताये हैं परन्तु वे इसे पदार्थ विशेष मानते हैं साथ ही ईथर को सर्वव्यापक, प्रसार संकुचन से पूर्णतः रहित मानते हैं, जो उचित नहीं।
२. स्पर्श तन्मात्रा:- स्मर्तव्य है कि आकाश शून्य है परन्तु शब्द तन्मात्रा शून्य नहीं है। ऐसा अनुमान होता है कि सर्वप्रथम उस तामस् प्रधान अहंकार में शब्द (नाद) उत्पन्न होता है। वैसे महत् अवस्था से ही गति का प्रादुर्भाव मानना होगा अन्यथा अहंकार की उत्पत्ति भी सम्भव न हो परन्तु वह गति क्षेत्रीय सम्पीडन, अक्षीयचक्रण वा कम्पन के रूप में ही हो सकती है।
वायु की भांति उन कणों का स्वेच्छया गति करना, उस समय (प्रारम्भ में) सम्भव नहीं इसी कारण ‘‘आकाशाद्वायुः’’ – तै. उप.
अर्थात् आकाश से वायु उत्पन्न होता है अर्थात् नाद से हलचल उत्पन्न होना ही वायु का उत्पन्न होना है। कणों की हलचल के समय ही अवकाश उत्पन्न हो जाता है, वहीं आकाश कहलाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अहंकार की स्थिति में ही वायव्य स्थिति उत्पन्न हो जाती है, और उसी स्थिति में विभिन्न कणों का निर्माण होता है। तथा हाईड्रोजन आयनों के निर्माण तक की प्रक्रिया तक की प्रक्रिया स्पर्श तन्मात्रा निर्माण के अन्तर्गत माना जा सकता है। ये सभी कण विशाल गैसीय मेघ के रूप में परिवर्तित हुये। तदुपरान्त-
३. रूप तन्मात्रा:- सम्भवतः दृश्य प्रकाश के सूक्ष्मतम फोटोन को रूप तन्मात्रा कहते हैं। अब तक जो ऊर्जा थी, उसे अदृश्य तरंगो के रूप ही माना जा सकता है। स्थान-स्थान पर हाईड्रोजन आयनों के संलयन से नेब्यूलाओं को निर्माण होने लगा इसे ही ‘‘वायोरग्निः’’ – तै. उप. कहा। और भी
‘‘अग्निना अग्निः समिध्यते’’ – ऋ. १/१२/६
अर्थात् विद्युद्रूपाग्नि से अग्नि प्रकट होती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ऊर्जा की उत्पत्ति का यह एक नया मार्ग खुल जाता है। जो अब तक जारी है। तब तक ऊर्जा का निरन्तर पतन हो रहा था अब इससे स्थायित्व वा वृद्धि का एक नया स्त्रोत खुल जाता है।
अर्थात् प्रकृति से महत् तत्व का निर्माण होता है इसी को भगवान मनु ने ‘मन’ कहा है। यह महत् तत्व सम्भवतः फोटोन, न्यूट्रिनों एवं ग्लूऑन से पूर्व की स्थिति हो क्योंकि साम्यावस्था भंग होने मात्र से ही महत् तत्व का निर्माण होता है इस कारण ये फोटोन आदि की पूर्वावस्था जिनमें उपर्युक्त सत्वादि गुण हों, होगी। इन तीनों को सात्विक, रजस् तथा तामस् महत् कह सकते हैं। तदुपरान्त- ‘‘महतोऽहंकारः’’ -सां. द. १/२६
अर्थात् उस महत् तत्व तीन प्रकार का होता है विचारपूर्वक यह प्रतीत होता है कि फोटोन, न्यूट्रिनों तथा ग्लूऑन की स्थिति यहां बन जाती है सम्भव है एक्स वा गामा जैसी किरणों का निर्माण प्रथम होता है और इन्हीं के फोटोन प्रथम निर्मित होते हों। मेहता रिसर्च इन्सटीट्यूट प्रयाग में अन्तराष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिक डॉ. अशोक सेन का स्ट्रिंग सिद्धान्त यहां प्रारम्भ होता हो परन्तु यहां तक प्रकाश ऊष्मा तो है परन्तु दृश्य प्रकाश की उत्पत्ति अभी वैदिक विचारधारा से तो नहीं मानी जा सकती क्योंकि दृश्य प्रकाश-रूप तन्मात्रा का ही अपर नाम हो सकता है तथा इन से ही लेप्टानों विशेषकर इलेक्ट्रोन, पाजिट्रॉन को भी अहंकार के अन्तर्गत मान सकते हैं, की उत्पत्ति होती है। सात्विक अहंकार गौण तथा तामस की प्रधानता से क्वार्क आदि कणों का भी निर्माण होता है। पुनरपि क्वार्क आदि कणों को अहंकार के अन्तर्गत ही समाहित किया जायेगा। ‘ अहंकार शब्द का अर्थ है जो व्यक्त किया जा सके। अब से पूर्व यद्यपि अव्यक्त अवस्था कब की ही भंग हो गयी परन्तु ऐसी अवस्था जिसे विज्ञान वा बुद्धि द्वारा व्यक्त किया जा सके, वह अहंकार ही है।
ऐसा प्रतीत होता है कि यहां तक उत्पन्न कण अपने प्रतिकणों से मिलकर अपार ऊर्जा पैदा करते हैं अथवा यह भी सम्भव है कि फोटोन आदि की अधिकता ही उस ऊर्जा का कारण हो जो भी हो मन का वह स्वरूप दृश्य नहीं होगा। इन्हीं प्रक्रियाओं के चलते तन्मात्राओं की उत्पत्ति भी होती जाती है-
‘‘अहंकारात् पंचतन्मात्राणि’’ – १/२६ सां. द.
अर्थात् अहंकार से पांच तन्मात्रायें उत्पन्न होती हैं जिनमें से शब्द तन्मात्रा की उत्पत्ति अहंकार के प्रथम चरण में ही हो जाती प्रतीत होती है।
प्रश्न यह है कि सूक्ष्म तन्मात्रा क्या होती है अथर्ववेद १/३३/१, ३ में सूक्ष्म तन्मात्राओं के गुण निम्न प्रकार दर्शाये हैं।
(हिरण्यवर्णाः) अर्थात् व्यापनशील और कमनीय गुणों वाली (यासु सविता यासु अग्निः जातः) जिनमें सूर्य और पार्थिव अग्नि उत्पन्न हुई (याः) जिन (आपः अग्नि द्धिरे) तन्मात्राओं ने विद्युद्रूपाग्नि को गर्भ के सामन धारण किया है (यासां देवाः दिवि भक्षम्) जिन तन्मात्राओं का सब प्रकाशमय पदार्थ आकाश में भोजन करते हैं।
इससे निम्न तथ्य उद्घाटित होते हैं-
१. तन्मात्रायें सम्पूर्ण अवकाश रूपी आकाश में फैली रहती हैं।
२. तन्मात्रायें कमनीय स्वरूप वाली अर्थात् आकर्षण-प्रतिकर्षण आदि बलों से युक्त होती हैं। फोटोन से लेकर नाभिक वा एटम वा आयन इन सबको तन्मात्रायें कह सकते हैं।
३. सूर्य और पार्थिव अग्नि उनमें होती हैं अर्थात् इनके अन्दर ही नाभिकीय संलयन आदि क्रियाओं के होने से प्रकाशमय पदार्थों द्वारा तन्मात्राओं का भोजन करना लिखा है।
‘तन्मात्रा’ शब्द का अर्थ है- उतना सा, सूक्ष्म सा अर्थात् जिसका अपना कोई वैशिष्ट्य हो उसके और सूक्ष्म होने से समाप्त हो जाये। प्रतीत होता है कि भगवत्कणाद का परमाणु है।
तन्मात्राओं के भेदः
पंच तन्मात्राओं की उत्पत्ति क्रमशः होती है।
तन्मात्राओं को प्रकाश में भक्षण करने की बात यही कि हाईड्रोजन का भक्षण हीलियम तथा ऊर्जा की उत्पत्ति होती है इसके उपरान्त ब्रह्माण्ड में अनेकत्र नेब्यूलाओं का निर्माण हो जाता है-
‘‘यद्देवा यतयो यथा भुवनान्यपिन्वत।
अत्रा समुद्र आ गुढ़हमः सूर्यमाजभर्तन।’’ – ऋ. १०/७२/७
अर्थात् जब दैवी शक्तियां मेघों की तरह लोकों को अपने परमाणुओं से पूरित करती हैं, तब आकाश में निगूढ़ सूर्य को चमका देते हैं। अन्यच-
अर्थात् सभी ओर विविध लोकों का धारक सूर्य (हिरण्यगर्भ) उदक, नदी और मेघों को प्राप्त होते हैं। यहां उदक, नदी तथा मेघ जल के नहीं बल्कि वह सूर्य ही आग का विशाल समुद्र होता है
जिसमें अनेक आग्नेय धारायें होती है। अन्दर होने वाली प्रक्रिया के विषय में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भारतीय खगोलज्ञ डॉ. जयन्त विष्णु नार्लीकर का मानना है- हाईड्रोजन का संलयन होकर हीलियम के नाभिक पुनः कार्बन पुनः तारे के संकुचन से तारे के ताप में वृद्धि होकर कार्बन तथा हीलियम मिलकर ऑक्सीजन तथा अन्य तत्व नियॉन, सल्फर, नाईट्रोजन से लेकर लोहा आदि सभी तत्व बनते हैं-………………(विज्ञान, मानव और ब्रह्माण्ड, १९९९) इसी प्रक्रिया का प्रमाण ऋग्वेद में भी मिलता है-
अर्थात् उस विराट् में स्थित हिरण्यगर्भ को प्रकृति परमाणु पहिले धारण करते हैं जिसमें समस्त पदार्थ संगत होते हैं।
इस प्रकार वर्तमान में कहे जाने वाले सभी तत्वों के परमाणुओं को निर्माण नेब्यूलाओं में होता रहता है। अब तक सम्पन्न प्रक्रिया में लाखों वर्ष लगते हैं।
हम इस पर गम्भीरता से विचार करें तो प्रतीत होता है कि वर्तमान विज्ञान तथा वैदिक विचारधारा इस विषय में बहुत भिन्न नहीं है। हां वैदिक विचारधारा वर्तमान प्रचलित विज्ञान की विचारधारा से कुछ आगे है। जैसे-जैसे विज्ञान प्रगति करेगा, उसे अपनी अवधारणायें परिवर्तित वा स्पष्ट करके वैदिक विचारधारा के अनुकूल आने को विवश होना होगा। अन्त में विषय के अधिकारी विद्वानों की सेवा विनम्र निवेदन है कि लेखक सिद्ध नहीं बल्कि साधक है। न्यूनतायें सम्भव हैं। विद्धान उनको दूर करने का ही यत्न करेंगे ऐसी आशा है।
सृष्टि के पदार्थों का वर्णीकरण या विभाजन इतना सरल, सुकर नहीं है जितना कि हम समझते हैं, क्योंकि पदार्थ निर्माता परमात्मा अनन्त ज्ञान वाला है अतः उसके निर्माण भी अनन्त हैं दुज्र्ञेय हैं। पृथिवी के जिन पदार्थों को हम अहर्निश देखते हैं, उनमें बाहुल्य उन पदार्थों का होता है जिनके हम नाम तक नहीं जानते, गुण, कर्म को जानता तो दूर की बात है, उनमें कुछ एक ही ऐसे पदार्थ होते हैं जिनके रूप, रंग, नाम, गुण आदि से परिचय रखते हैं, पुनरपि हमारे ऋषि मुनियों ने पदार्थों के वर्गीकरण में उनके विभाजन में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी है, अपनी ऊहा से तीनों लोकों के पदार्थों का स्वरूप वैदिक ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है।
पृथिवी के जिन पदार्थों को वृक्ष, पेड़, बेल, तृण, घास, फूस आदि नामों से पहचानते हैं और नित्य रोपते, उखाड़ते, रौंदते, फेंकते हैं उनका विभाजन आयुर्वेद के चरक, सुश्रुत ग्रन्थों में तथा अन्य चिकित्सकीय शास्त्रों में वनस्पति, ओषधि आदि नामों से किया जाता है। वनस्पतियों का यह विभाजन सुगन्धित छिलके वाली, फल-फूल या बीज की समानता रखने वाली गोंद पाली गांठदार जड़ वाली इत्यादि प्रकार के आधारों पर किया है।
चरक में इन वनस्पतियों का विभाग औद्रिद द्रव्य के नाम से चतुर्धा वर्णित है-
भौममौषधमुद्दिष्टम् औद्रिदं तु चतुर्विधम्।
वनस्पतिर्वीरूधश्र्व वानसपत्यस्तथौषधिः।
फलैर्वनस्पतिः पुष्पैर्वानस्पत्यः फलैरपि।
ओषध्यः फलपाकान्ताः प्रतानैर्वीरूधः स्मृताः।।
चरक. सू. १। ७०, ७१ ।।
अर्थात् वनस्पति, वीरूध, वानस्पत्य और ओषधि ये चार प्रकार के औद्रिद द्रव्य हैं। फलवाले पौधे, वनस्पति, जिनमें फल और फूल दोनों प्रकार होते हैं वे वानस्पत्य, फल पकने बाद नष्ट होने वाले औषधि तथा बहुत विस्तार वाले वीरूध कहे जाते हैं।
अर्थात् स्थावर द्रव्य चार प्रकार के हैं-वनस्पति, वृक्ष, वीरूध और ओषधि। जिन पौधों में पुष्प् न हो फल आते हों वे वनस्पति जिनमें पुष्प, फल दोनों आते हो, वह वृक्ष जो फैलने वाले और गुल्म=झाड़ वाले हैं वे वीरूध तथा जो फलों के पकने तक ही जीवित रहते हैं अर्थात् पकने के बाद स्वयं सूखकर गिर पड़ते हैं उन्हें ओषधि कहा जाता है। चरक और सुश्रुत के वचनों में कुछ थोड़ा सा अन्तर है। चरक जिसे वानस्पत्य कहता है सुश्रुत उसे वृक्ष नाम से अभिहित करता है।
पाणिनीय सूत्र ‘‘विभाषौषधि वनस्पतिभ्यः’’पा. ८।४।६ के व्याख्यान में काशिकाकार जयादित्य ने भी वनस्पतियों का वर्गीकरण इस प्रकार किया है- फलीवनस्पतिज्र्ञेयो वृक्षाः पुष्पफलोपगाः ।
इस वचन की व्याख्या करते हुये न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि तथा पदमञ्चजरीकार हरदत्त मिश्र ने वनस्पतिः = उदुम्बर, प्लक्ष, अश्र्वत्थ आदि, पुष्पोपगाः = वेतस् बाँस आदि, फलोपगाः = उदुम्बर, प्लक्ष आदि तथा पुष्पफलोपगाः = आम्र इत्यादि वृक्ष होते हैं, अर्थात् जो वपस्पति होता है वह निश्चित वृक्ष होता है, और जो वृक्ष होता है उसका निश्चित रूप से वनस्पति होना आवश्यक नहीं है। औषध्यः = शालि = धान, गेहूं कदली आदि, लता – मालती इत्यादि, गुल्माः = हृस्व शाखाओं वाले होते हैं और वीरूधः = बहुत व पत्तों वाले कहलाते हैं ऐसा व्याख्यान किया है।
मनु महाराज ने भी वनस्पतियों का विभाग दर्शाया है-
उद्रिजाः स्थावराः सर्वे बीजकाण्डप्ररोहिणः।
ओषध्यः फलपाकान्ताः बहुपुष्पफलोपगाः।
अपुष्पाः फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृताः।
पुष्पिणः फलिनश्रै्वव वृक्षास्तूभयतः स्मृताः।
गुच्छगुल्मं तु विविधं तथैव तृणजातयः।
बीजकाण्डरूहाण्येव प्रताना वल्ल्य एव च।।
– मनु. १।४६, ४७, ४८
बीज तथा शाखा से लगने वाले स्थावन जीव उद्रिज होते हैं। फल के पकने पर जिनके पौधे नष्ट हो जाते हैं और जिनमें बहुत फल, फूल लगते हैं वे ओषधि कहाते हैं, बिना फूल लगे फलने वालों को वनस्पति और फूल लगने के बाद फलने वाले को वृक्ष कहते हैं।
इस प्रकार लोक में फल, फूल आदि के आधार पर वनस्पति, वीरूध, ओषधि आदि का विभाजन पृथक्-पृथक् किया गया है, यानी इनका जातिगत भेद स्थापित किया गया है, पर वेदों में वनस्पति, वीरूध औषधि आदि शब्द पर्याय रूप में ही आये हुए हैं अतः वनस्पतियों के विभाग का फल, फूल आदि के आधार पर स्पष्ट संकेत नहीं प्राप्त है अपितु वनस्पतियों के रंग, रूप, गुण आदि द्वारा उनका विभाजन स्पष्ट लक्षित होता है।
वैसे तो चारों वेदों में ही औषधियों का वर्णन है तथापि अथर्ववेद में बहुलता से दृष्टिगोचर होता है, एतदर्थ ही अथर्ववेद भैषज्य वेद भी कहा जाता है।
वनस्पतियों के वर्गीकरण के लिये अथर्ववेद के ८ वें काण्ड का ७ वाँ सूक्त विशेष रूप से द्रष्टव्य है। सांकेतिक सूक्त में रूप, रंग, आकार द्वारा वनस्पतियों का वर्गीकरण निम्न प्रकार है-
प्रस्तृणतीः = (स्तृञ् आच्छादने) बहुत छादन करने वाली अर्थात् मूल से ही विभिन्न शाखाओं में फैलने वाली अनार, मेंहदी आदि, स्तम्बिनीः = (स्था + अम्बच्, इनिः) एक तने रूप खम्भे वाली अशोक, कदम्ब आदि, एकशुगाः = एक अकुर, कोपल वाली, आक आदि, प्रतन्वतीः = बहुत फैली हुई ब्राह्मी, हेलेञ्चा, पुदीना आदि, ओषधीः = ओषधियों को, आ वदामि = (मैं परमात्मा या वैद्य) आदेश देता हूँ, बुलाता हूँ, तथा याः = जो, अंशमतीः = काटों वाली, नागफनी, भटकटैय्या, ऊँटकटारा आदि, काण्डिनीः = बहुत काण्ड = शाखा वाली ईख, सरकण्डा, दूर्वा आदि, विशाखाः = शाखाहीन खजूर, ताड़ आदि (विगताः शाखाः) तथा शाखा सहित आम, अमरूद आदि (विशिष्टाः शाखाः), वैश्र्वदैवीः = सभी धारण कराने वाली, वीरूधः = विशेष रूप से उगती हुई ओषधियाँ (विशेषण रोहन्तीति वीरूधः) ते ह्नयामि = तुम्हारे लिये बुलाता हूँ, उपयोग में लाता हूँ।
इस मन्त्र में रूप भेद सेऔषधियों का वर्णन है। विभिन्न शाखा, एक तना, काँटा आदि विशेषण औषधियों के रूप को बता रहे हैं। मन्त्र में ‘ओषधी’ तथा ‘वीरूधः’पद आये हैं जो लोकोक्त अर्थों के वाचक नहीं है। अपितु वनस्पति इस सामान्य अर्थ में प्रयुक्त हैं।
रंगभेद- या बभ्रवो याश्र्व शुक्रा रोहिणीरूत पृश्रयः।
याः = जो, बभ्रवः = भूरे रंग वाली पोषण, धारण करने वाली, कत्था आदि (डुभृञ् धारणपोषणयोः) याश्र्व = और जो, शुक्राः = श्वेत रंग वाली, वीर्य बढ़ाने वाली, सफेद फूल की कटेरी आदि, रोहिणीः = लाल रंग की अथवा स्वास्थ्य उत्पन्न करने वाली, कुटकी, मजीठ आदि (रूह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च) उत = और, पृश्नयः = चितकबरी (व्याघ्र रूपं वै पृश्निः त्रै. ४।२।२४) , असिक्नीः = श्याम = नील वर्ण वाली, अबद्ध शक्ति वाली, बाकुची आदि, कृष्णाः = आकर्षण करने वाली, काले वर्ण वाली पिपरामूल, पीपल आदि, औषधीः = औषधियाँ हैं, सर्वाः = उन सबको, अच्छ्रावदामसि = अच्छे प्रकार, मैं वैद्य आदेश देता हूँ।
यह मन्त्र ओषधियों को रंगभेद से वर्णन कर रहा है। औषधीः शब्द सामान्य अर्थ वाली है, फल पाकान्त ओषधि के लिये नहीं।
आसां वीरूधाम् = इन ओषधियों का, मूलं मधुमत् = जड़ माधुर्य वाला, अग्रम् = ऊपरीभाग – सिरा, मधुमत् = माधुर्य युक्त, मध्यमम् = मध्य भाग, मधुमत् = माधुर्य युक्त, पर्णम् = पत्ते, मधुमत् = माधुर्य वाले, पुष्पम् = फूल, मधुमत् = मधुर्य वाले, बभूव = हैं, आसाम् = इन ओषधियों का, अमृतस्य भक्षः = अमृत का भोजन है अर्थात् अमरता देने वाला है मधोः संभक्ताः = मधुरता से परिपूर्ण हैं, गोपुरोगवम् = गौओं का पालन करने वाले या गौओं का प्राधान्य मानने वाले इन ओषधियों से , घृतम् = घी, अन्नम् = अन्न का, दुहृताम् = दोहन करें।
यहाँ ओषधियों का आकार रूप से वर्णन है तथा गौओं को इन ओषधियों का भक्षण कराके घृतादि पदार्थ ग्रहण करें, यह निर्दिष्ट किया है। मन्त्र का ‘वीरूधाम्’ पद सामान्य रूप से ओषधि अर्थ में प्रयुक्त है। प्रतान विशिष्ट वनस्पतियों के लिये नहीं।
यावतीः कितयीश्रे्वमाः पृथिव्यामध्योषधीः।
ता मा सहसुपण्र्यो मृत्योर्मृञ्चन्त्वहंसः।। -अथर्व. ८।७।१३।।
यावतीः = जितनी, च = और, कियतीः = कितनी भी अर्थात् विभिन्न परिमाण वाली, इमाः = ये, पृथिव्याम् अधि = पृथिवी के ऊपर, ओषधिः = ओषधियाँ है, ताः = वे, सहस्त्रपण्र्यः = सहस्त्र पत्तों वाली, हजार प्रकार से पोषण करने वाली, सफेद दूब आदि (प पालनपूरणयोः) मा = मुझको, मृत्योः = मृत्यु से अहंसः = पाप से, मुञ्चन्तु = छुड़ावें।
यहाँ पत्तों के आकार रूप से ओषधियों का वर्गीकरण है, और ‘ओषधी’ पद सामान्य अर्थवाला है, फल पाकान्त अर्थ वाला नहीं।
मुमुचाना ओषधयोऽग्नेर्वैश्वानरादधि।
भूमिं संतन्वतीरित यासां राजा वनस्पतिः। -अथर्व. ८।७।१६।।
मुमुचानाः = रोगों को छुड़ाने वाली, ओषधयः = ओषधियाँ हैं वे, वैश्वानरात् अग्नेः = सब मनुष्यों को ले जाने वाले, प्रेरक अग्रगणी परमेश्वर से, अधि = अधिकृत होकर, भूमिम् = भूमि पर, सन्तन्वतीः विस्तृत होती हुई दूब, पुनर्नवा आदि लतायें, इतः = गई हुई हैं, यासाम् = जिन ओषधियों का, राजा = राजा, वनस्पतिः = सोम है (सोमो वै वनस्पतिः मै. १।१०।९।।)
परमेश्वर द्वारा विस्तृत की हुई जो ओषधियाँ हैं, जो रोगों को दूर करती हैं उनका फैलने के आकार रूप से वर्णन है। मन्त्र में आये ‘ओषधयः’ एवं ‘वनस्पतिः’ पद लोक प्रसिद्ध अर्थ वाले नहीं हैं।
जीवलाम् = जीवन देने वाली, नघारिषाम् = कभी भी हानि न करने वाली, जीवन्तीम् = प्राण धारण करने वाली, गिलोय आदि, अरून्धतीम् = बाधा न डालने वाली, चोट आदि प्रहारों को भरने वाली, औधा हेली, भंगरैला आदि, उन्नन्तीम् = उन्नत बनाने वाली, पुष्पाम् = फूलों वाली, मधुमतीम् = माधुर्य रस वाली, ओषधीम् = ताप नाशक, अन्नादि ओषधि को (ओषद् (दहत्) धयन्तीति वा ओषति दहति एनाः धयन्तीति वा, दोष धयन्तीति वा। निरू. ९।२६। धेर पाने) इह = यहाँ, अस्मै = इस मनुष्य के लिये, अरिष्टतातये = कल्याण करने के लिये, अहम् = परमात्मा या वैद्य, हुवे = बुलाता हूँ, उपयोग में लाता हूँ।
इस मन्त्र में जीवन आदि देने वाली ओषधियों के गुणों का वर्णन है। मन्त्र का ‘ओषधीः’ शब्द सामान्य वनस्पति वाचक है।
इहा यन्तु प्रचेतसो मेदिनीर्वचसो मम।
यथेमं पारमामसि पुरूषं दुरितादधि।। -अथर्व. ८।७।७।।
प्रचेतसः = चेतनता देने वाली, मेदिनीः = प्रीति करने वाली, (ञमिदा स्नेहने + अच्, इनिः, डीष्) रूक्षता हटाकर स्निग्धता प्रदान करने वाली ओषधियाँ, इह = यहाँ मेरे पास, मम वचसा = मुझ चिकित्सक के वनन के साथ अर्थात् चिकित्सा का विचार करने पर, आयन्तु = आवें, यथा = जिससे, इमं पुरूषम् = इस मनुष्य को दुरितात्, अधि = कष्ट से ऊपर, दूर, पारयामसि = पार लगा दूँ।
याः = जो, उन्मुञ्चन्तीः = रोग से मुक्त करने वाली, विवरूणाः = विशेष करके स्वीकार करने योग्य, उग्राः = तीक्ष्ण, बल, गन्ध रसादि वाली, विषदूषणीः = विष हरण करने वाली, इलायची आदि, अथ = और, यः = जो, बलासनाशनीः = बल गिराने वाले सन्निपात, कफ आदि को नाश करने वाली ( बल + असु क्षेपणे + अण्, बलम् अस्यति क्षिपतीति = बलासः, तस्य नाशनीः इति बलासनाशनीः), च = और, कृत्यादूषणीः = हिंसा, पीड़ा मिटाने वाली अजवाइन, लाक्षा गुग्गुल आदि (कृञ् हिंसायाम् + क्यप्, टाप), ओषधीः = ओषधियाँ हैं ताः = वे, आयन्तु = आवें, प्राप्त होवें।
यहाँ पर विष नाशक औषधियों के गुणों का वर्णन है। ‘ओषधिः’ पद का पूर्वतम् सामान्य अर्थ है।
आगिरसी = अग्नि, विद्युत् आदि गुणों से युक्त या अगों में रस भरने वाली, पर्वततेषु = पर्वतों में, च = और, समेषु = चैरस भू प्रदेशों में, रोहन्ति = उगती हैं, ताः = वें, पयस्वतीः = दुग्ध तथा रस वाली, शिवाः = कल्याण करने वाली,
ओषधीः = ओषधियाँ, नः = हमारे, हृदे = हृदय के लिये शम् = शान्तिदायक, सन्तु – होवें।
इस मन्त्र में पर्वत आदि स्थानों में होने वाली ओषधियों का औत्पत्तिक भेद दर्शाया है। ‘ओषधीः’ पद का अर्थ पूर्ववत् है।
पृश्निमातरः = पृथिवी को माता मानने वाली अर्थात् पृथिवी से उत्पन्न होने वाली (इयं पृथिवी वै पृश्निः तै. ब्रा. १।४।१।५), ओषधीः = ओषधियों, उज्जिहीध्वे = तुम खड़ी हो जाती हो, उत्पन्न हो जाती हो (ओहाड्. गतौ) यदा = जब, पर्जन्यः = मेघ, स्तनयति = गरजता है, अभ्रिक्रन्दति = कड़कता है और वः = तुमको, रेतसा = जल से (रेतः उदक नामसु, निघ. १।१२) अवति = तृप्त करता है (अव तृप्तौ)।
इस मन्त्र में वर्षा ऋतु में होने वाली औषधियों का संकेत है। औषधीः समान्यार्थक है।
उपयोग भेद- वराहो वेद वीरूधं नकुलो वेद भेषजीम्।
सर्पा गन्धर्वा या विदुस्ता अस्या अवसे हुवे।। -अथर्व. ८।७।२३।।
वराहः = सूअर, वीरूधम् = औषधी को, वेद = जानता है, नकुलः = नेवला, भेषजीम् = रोग जीतने वाली, भय दूर करने वाली औषधियों को, वेद = जानता है, सर्पाः = साँप् और गन्र्धवाः = गौ-पृथिवी को धारण करने वाले अर्थात् = भूमि में बिल बनाकर रहने वाले चूहे, छछुन्दर, गोह आदि प्राणी (गौः इति पृथिव्याः नामधेयम् निघ. १।१), याः = जिन औषधियों को, विदुः =जानते हैं, ताः = उन को, अस्मै = इस पुरूष के लिये, अवसे = रक्षा हेतु, मैं वैद्य अथवा परमेश्वर, हुवे = बुलाता हूँ, उपयोग में लाता हूँ।
मन्त्र में जंगली पशुओं, जन्तुओं द्वारा उपयोग में ली जाने वाली औषधियों का उपयोग भेद से वर्णन है। यहाँ बताया गया है कि जिन कन्द आदि औषधियों को सूअर आदि उपयोग में लाते हैं, बलिष्ठ बनते हैं उनसे मनुष्यों को भी अपना उपचार करना चाहिये। मन्त्र में ‘वीरूधम्’, ‘भेषजीम्’ पद पर्यायार्थक हैं।
याः सुपर्णा आगिरसीर्दिव्या या रघटो विदुः।
वयांसि हंसा या विदुर्याश्र्व सर्वे पतत्रिणः।।
मृगा या विदुरोषधीस्ता अस्मा अवसे हुवे।। -अथर्व. ८।७।२४।।
याः = जिन, आगिरसीः = अगों में गति लाने वाली तथा अग्नि, विद्युत् आदि गुणों वाली औषधियों को, रसायन पदार्थों को रघटः = गरूड़, गिद्ध आदि, याः दिव्याः = जिन दिव्य ओषधियों को, रसायन पदार्थों को रघटः = आकाश में उड़ने वाले पक्षी (रघि गतौ + अच्, अट गतौ + क्पि्
= रघटः, रघे गन्तवे आकाशे अटन शीलाः = रघटः), विदुः = जानते हैं, याः = जिनको, वयांसि = जिन ओषधियों को मृगाः = सभी पंख वाले जीव, विदुः = जानते हैं, याः ओषधीः = जिन ओषधियों को मृगाः = वन्य पशु, विदुः = जानते हैं, ताः = उन सबको, अस्मै = इस मनुष्य के लिये, अवसे = रक्षणार्थ, मैं परमात्मा या वैद्य, हुवे = बुलाता हूँ, उपयोग में लेता हूँ।
यह मन्त्र भी औषधियों के उपयोग भेद का वर्णन कर रहा है। गरूड़ आदि पक्षी जिन औषधियों को व्यवहार में लाते हैं उनसे विष नाश, दूर दृष्टि, स्फूर्ति आदि का लाभ उठाते हैं उनसे मनुष्य को भी लाभ उठाते हैं उनसे मनुष्य को भी लाभ लेना चाहिये यह मन्त्र में स्पष्ट किया गया है। ‘ओषधीः’ पद का पूर्ववत् सामान्य अर्थ है।
यावतीषु = जितनी ओषधियों में, भिषजः मनुष्याः = वैद्य लोग (भिषज् चिकित्सायाम् क्विप्, भिषक्), भेषजम् = चिकित्सा, विदुः = जानते हैं, तावतीः = उतनी, विश्र्वभेषजीः = सब रोगों को जीतने वाली ओषधियों को, त्वाम् अभि = तुम्हारी ओर मैं परमात्मा और वैद्य, आभरामि = लाता हूँ।
मन्त्र में वैद्य जनों द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली क्वाथ, कषाय, चूर्ण, अवलेह, भस्म आदि औषधियों का वर्गीकरण है।
अथर्ववेद के उपर्युक्त सूक्त में विभिन्न प्रकार की औषधियों का वर्गीकरण अपने ढंग का है। जिन औषधियों को लोक में वनस्पति, वीरूध, औषधि आदि अलग-अलग नामों से विभाजित करके जाना जाता है। उन्हें वेद में रूप, रंग, आकार, गुण, उत्पत्ति, औषधि महौषधि प्राधान्य = ऋतु एवं उपयोग के आधार पर विभाजित किया गया है।
तात्पर्य यह हुआ वेद में वनस्पति, वीरूध, औषधि आदि शब्द जो उद्धिज पदार्थों का ज्ञान करा रहे हैं वे परस्पर पर्यायवाची शब्द हैं, जैसा कि मन्त्रों में आये वीरूध, वनस्पति आदि पदों से स्पष्ट है। यानी वनस्पति आदि शब्द फल वाले पौधों के लिये ही प्रयुक्त नहीं है अपितु सामान्यतः पौधे अर्थ में प्रयुक्त हैं अर्थात् वे शब्द यौगिकता, व्यापकता के अर्थ को लिये हुये हैं, यथा- वनस्पति- वनानां पाता वा पालयिता वा। निरू. ८।३।।
जो वन = जल को, रस को सुरक्षित रखते हैं वे वनस्पति।
वैदिक विज्ञान के मूल तत्व-ऋत और सत्य (पदार्थ विद्या के विशेष सन्दर्भ में) -डॉ. कृष्णलाल
आधुनिक विज्ञान की सभी गवेषणाओं का लक्ष्य सृष्टि के तत्वों के मूल तक पहुंचना है। विज्ञान समस्त दृष्टि में क्या, क्यों और कैसे की खोज करता है। सभी पदार्थों में कोई मूल तत्व, अपरिवर्तित गुण की खेज करके विज्ञान यथार्थ की गहराई तक उत्तर कर सूक्ष्मेक्षिका द्वारा मूल सूत्र को ढूँढता है। एक ओर इससे जहां नये तथ्य उद्घाटित होते हैं, वहीं उस सूत्र को मानवता के उपकार में लगाया जा सकता है।
वेद के अनुसार सृष्टि का मूल सूत्र ही ऋत और सत्य है जो सब ओर समिद्ध तप या उष्णता से उत्पन्न होते हैं। उन्हीं से व्यक्त संसार से पहले अव्यक्त प्रकृतिरूप रात्रि उत्पन्न होती है (विद्यमान रहती है) और गतिशील सूक्ष्म कणों के रूप में व्यापक जल बनता है।
ऋत वह मूलभूत तत्व है जो निरन्तर अपने स्वाभाविक रूप में गतिशील रहता है। वह गति प्रत्येक पदार्थ की गति, सापेक्ष गति भी हो सकती है, वह काल अबाध गति भी हो सकती है और वही प्रत्येक पदार्थ या तत्व के केन्द्र में विद्यमान परमाणुओं की गति भी हो सकती है। सार यह कि इस गति के बिना सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उस समय की स्थिति में सत् असत् का विश्लेषण हो ही नहीं सकता।
थ्जसे उपरिनिर्दिष्ट मन्त्र में समुद्र अर्णव कहा गया है उसके मूल में भी गति (ऋ-क्षत) तत्व विद्यमान है। इसे ही एक अन्य स्थल पर सब देवों (तत्वों) का मिलना अथवा गति करना कहा गया है।
उपर्युक्त ऋत के साथ-साथ सत्य भी सृष्टि के आधार में स्थायी तत्व है। ऋत गतिशील या गति प्रदान करने वाला तत्व है तो सत्य वास्तविकता है, अरितत्व है। (सन्तमर्थमाययति)। सम्भवतः दोनों तत्वों के इस मौलिक तथा सभी पदार्थों के आधार में समान महत्व के कारण बहुत स्थानों पर वेद में ही इन दोनों का प्रयोग पर्यायवाची रूप में भी हुआ है।
अथर्ववेद (१२.१.१) के अनुसार पृथ्वी को धारण करने वाले ये दो प्रमुख तत्व हैं। सम्य जहाँ बृहत् महान् या व्यापक हैं, वहीं ऋत् उग्र, कठोर, शाश्र्वत है। ‘एक अन्य मन्त्र’ में कहा गया है कि पृथ्वी सत्य के द्वारा थामी गई है.. द्युलोक भी सत्य के द्वारा थामा गया है, ऋत अर्थात् निरन्तर गति से आदित्य अपने स्थान पर स्थिर है। इसी प्रकार ऋत से ही सोम (चन्द्रमा) द्युलोक में स्थित है।
ऋत गति है क्योंकि सभी आदित्यादि ज्योतिःपिण्ड अपने-अपने मार्ग में निश्चित गति करते हैं। इस गति के प्रतीक रूप में ऋत की व्याख्या निरूक्त में जल के रूप में सब ओर पहुंचने वाला बताकर दी गई है। ऋत के मूल में गत्यर्थक ऋ धातु है। सदा एक ही स्थिति में निर्विकार रहने वाले परमेश्वर की तुलना में समस्त व्यक्त सृष्टि में गति मूल तत्व है। साम्यावस्था में सृष्टि हो ही नहीं सकती। जब तत्व, रजस्, तमस् तीनों गुणों की साम्यावस्था में विक्षोभ होता है, तभी सृष्टि का आरम्भ होता है। विक्षोभी अथवा हलचल गति का ही दूसरा नाम है। यह गति प्रत्येक तत्व के एक-एक कण में विद्यमान है जिसके नाभिक अथवा केन्द्र में निरन्तर प्रोटोन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन गति करते रहते हैं। वैज्ञानिकों ने इनसे भी सूक्ष्म परमाणुओं का पता लगाया है जिन्हें न्यूट्रॉन नाम दिया गया है। इन न्यूट्रॉन का प्रतिकण भी होता है। इन दोनों में से एक अपने कक्ष पर दक्षिणावर्त घूमना है तो उसका प्रतिकण वामावर्त घूमता है। यह अत्यधिक ऊर्जा का कण है। इसकी गति प्रकाश की गति के समान होती है।
एक मन्त्र में नदियों (धाराओं) की गति के बताने के लिए ऋत शब्द प्रयुक्त है और सूर्य को सत्य का विस्तार करने वाला कहा गया है। क्या यहाँ नदियों से सूक्ष्म कणों की धाराओं की गति अभिप्रेत नहीं हे? अन्यथा भी ऋत गति का द्योतक तो है ही।
जैसा कि ऊपर बताया गया है, ये ऋत और सत्य दोनों ही नाम वेदों में ही अनेक स्थानों पर समानार्थक हो गये हैं। एक मन्त्र में सत्य के साथ असत्य के अर्थ में अनृत के प्रयोग से इस तथ्य की पुष्टि होती है। वह मन्त्र आपः (व्यापक सृष्टि-जल) के सम्बन्ध में बताता है कि सूक्ष्म वाष्प-कणों के रूप में यह जल सम्पदा मध्यमस्थान (अन्तरिक्ष) में व्यास (आप्) रहता है और वहीं अपनी व्याप्ति के द्वारा वरूण (व्यापक परमेश्वर) सबका राजा होकर पहुँचा रहता है और वहीं से समस्त जनों के सत्य और असत्य आचरणों को देखता रहता है।
वैदिक दृष्टि से सत्याचरण के साथ-साथ सत्य वास्तविक तत्व भी है। तभी तो अन्यत्र कहा गया है कि प्रजापति ने सत्य और असत्य (अवास्तविक) दोनों को अलग किया और केवल सत्य (वास्तविकता) में श्रद्धा (विश्वास) का आधान किया, अनृत (अवास्तविक, मिथ्या) में नहीं।
पदार्थों की ऊपरी, बाह्म रूप-रचना देख्कार जिसे हम वास्तविक समझ बैठते हैं, वास्तविक तत्व वह नहीं है। उस वास्तविक तत्व को जानने पर पहचानने के लिए ऊपरी अवारनण हटाकर उसके पीछे देखना पड़ता है। तब वास्तविक सत्य तत्व ज्ञान होता है। वही तत्व सृष्टि के सभी पदार्थों के मूल में है।
अग्नि भी अपने स्वरूप से और अपने दाहक तथा दान और आदान (हु दानादानयोः) -अग्नि सभी कुछ लेकर भस्म करके वायुमण्डल में उसका प्रभाव और दग्ध पदार्थों का भस्म देता है करने वाले तत्वों से युक्त है और क्रान्त (स्थूल दृष्टि से न देखे-जाने योग्य) कार्य करता है। इसलिए वह सत्य है और अद्भुत कीर्ति वाला है। विज्ञान उसके इस स्वरूप को समझ उसके विविध प्रयोग करता है। अगिन का स्वरूप सत्य इसलिए भी है क्योंकि विद्युत् और सूर्य में भी यही रूप होने के कारण उन्हें भी अग्नि ही कहा गया है।
वेद सभी पदार्थों, या मौलिक भौतिक तत्वों में एक ऋत, सदास्थायी सूत्र कहाँ है और अनृत मिथ्या तत्व कौन सा है, इसकी खोज करता हे। वहां प्रेरणा दी गई है कि पृथ्वी और आकाश को प्रत्यक्ष जानने वाले विद्वान् इस तथ्य का अन्वेषण करें क्योंकि विज्ञान का रहस्य इस अन्वेषण में छिपा हुआ है।
इससे अगले मन्त्र में फिर ऋत की खोज कर स्वर मुखर हुआ है क्योंकि वहाँ फिर प्रश्न है कि हे देवो अथवा मूल तत्वों, तुम्हारे ऋत (शाश्र्वत नियम) का स्थान क्या है और सर्वव्यापक वरूण (आवरक तत्व) की दृष्टि कहाँ है? हम महान् अर्यमा (शत्रुओं के नियामक सूर्य) के किस सत्य मार्ग से दुरूह ग्रन्थियों का उत्क्रमण करें। निश्चय ही हम शाश्र्वत नियम का मार्ग है।
ऋत ही ऐसा तत्व है जो पदार्थों को उनके मूल रूप में स्थिर रखता है। इस मूलभूत स्थिरता, शाश्र्वतरूपता का नाम ऋत है। इसके विपरीत पदार्थों का परिवर्तनशील रूप अनृत है। यह रूप आयु से सीमित है। वा.सं. ७.४० के मन्त्र ‘‘एष ते योनिर्ऋतायुभ्यां त्वा’’ की व्याख्या करते हुए शतपथ में कहा गया है कि ब्रह्म ही ऋत है, ब्रह्म ही मित्र है, ब्रह्म ही ऋत है। वरूण ही आयु है, वरूण संवत्सर है (क्योंकि वह परिवर्तनशील है), वरूण ही संवत्सर है, आयु है।
बृहस्पति, परमेश्वर (बृहतां पाता वा पालयिता वा) भी ऋतप्रजात (ऋ. २.२३.१५) है क्योंकि उससे ही ऋत, शाश्र्वत नियम का जन्म होता है। अग्रि को भी ऋतप्रजात कहा गया है क्योंकि वह ऋत का वाहक है (ऋ. १.६५.५) उसके मूल में शाश्र्वत नियम निरन्तर रहता है, जल से सम्बद्ध विद्युत् रूप अग्नि में भी वही शाश्र्वत तत्व विद्यमान रहता है। ऋ. १०.६७.१ में भी बुद्धि को ऋतप्रजाता कहा गया है क्योंकि वही उत्तम स्थिति में ऋत को उत्पन्न करती है। उत्कृष्ट रूप मे बुद्धि, अध्याम अथवा विज्ञान के माध्यम से ऋत का ही अन्वेषण करती है।
इसी क्रम में उषा को भी ऋतपा और ऋतेजा कहा गया है क्योंकि वह शाश्र्वत नियम का पालन करती हुई चलती है।
ऋत को सभी पदार्थों की आद्य शक्ति के रूप में देखा गया है। यह शक्ति विनाशकारक भी है। वैज्ञानिक इस विषय में निश्चित ज्ञान रखते हैं कि ऋतरूप परमाणुओं के विखण्डन में कितनी शक्ति निहित है जो विनाशक भी हो सकती है। यही नहीं, ऋत के, अर्थात् प्रत्येक पदार्थ के मूल सूक्ष्म तत्व के धारणस्थान सुदृढ़ और सुनिश्चित होते हैं। एक-एक पदार्थ-शरीर के लिए वे ही बहुत आह्लादक अर्थात् उसे उसके रूप में धारणा कर महत्व प्रदान करने वाले होते हैं। अन्न भी उस ऋत का फल है और ऋत से ही गौएं (सूर्य-किरणें) ऋत में (शाश्र्वत नियम में) प्रविष्ट होती हैं। सार यह कि वेद के अनुसार प्रत्येक पदार्थ, और उसकी गति में मूल तत्व के रूप में ऋत विद्यमान है। विस्तार के कारण बहुत रूपों वाले पृथ्वी और अनतरिक्ष को पृथ्वी बताकर उन्हें गम्भीर कहा गया है क्योंकि उनमें विद्यमान प्रत्येक तत्व का अभी तक पूर्ण ज्ञान नहीं हो सका है। ये दोनों ही परम गौएं कही जाती हैं जो ऋत अर्थात् शाश्र्वत तत्व के लिए (उसके नियमानुसार) दोहन करती हैं अर्थात् असंख्य पदार्थों को उत्पन्न करती रहती हैं (प्रकट करती हैं)।
एक मन्त्र में अग्नि (परमेश्वर) को सम्बोधित करके कहा गया है कि अविनाशिनी, अखण्ड रूप में बहने वाली, मधुर जलों वाली दिव्य नदियाँ (अर्थात् सर्वत्र व्याप्त जलकण) ऋत या शाश्र्वत नियम से प्रेरित होकर सदैव बहने के लिए धारण की गई है, निरन्तर गति करती है।
जिन नदियों का वर्णन ऊपर किया गया है, ये सामान्य जल की नदियाँ नहीं हैं। ये अमर हैं और अबाधित हैं। इससे संकेत मिलता है कि ये सृष्टि के आरम्भ से ब्रह्माण्ड में व्याप्त सूक्ष्म जलकणों (आपः) की धारायें हैं जो ऋत (शाश्र्वत नियम, निरन्तर गति) से प्रेरित हैं। यह गति ऐसी है जैसी युद्ध के लिए सदैव तैयार घोड़े की होती है, अर्थात् निरन्तर गति है। ऋत निरन्तर गति का ही नाम है।
सूर्यरूपी पौरूषयुक्त बलिष्ठ अग्नि वृषभ अर्थात् वर्षा के रूप में कामनाओं का वर्षक है। वह भी ऋत से अर्थात् निरन्तर गतिरूपी शाश्र्वत नियम से लिपटा हुआ अर्थात् युक्त है। वह स्पन्दित न होता हुआ अथवा स्तिमित गति से विचरण करता है। सबकी आयु को धारण करने वाला वह वर्षक पृश्नि अन्तरिक्षरूपी ऊध का दोहन करता है और शुक्र अर्थात् बलिष्ठ जल की वृष्टि करता है।
इससे अगले ही मन्त्र में ऋत (नियमित गति) के साथ अंगिरसों (वायु सहित विद्युतों), गौओं (किरणों), ऊषा, सूर्य और अग्नि का सम्बन्ध स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि इस ऋत के द्वारा ही अंगिरस विद्युत् मेघ का भेदन करते हुए उसे (खाली करके) दूर फेंक देते हैं और (गतिशील) किरणों के साथ संयुक्त होकर प्रशंसित होते हैं, वे नेतृत्वगुणयुक्त (ऋतपालक) उषा के पास रहते हैं और जब (उषा का तीव्र प्रकाश रूप) अग्नि प्रकट होता है तो सूर्य दिखाई देता है। अग्नि, सूर्य, उषा-तीनों अग्निरूप होने के कारण ऋत (शाश्र्वत गतिमय नियम) से ही सम्बद्ध हैं। सब प्राणियों के सुख के लिए उनकी यह क्रिया-प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। मन्त्र से मेघस्थ विद्युत, वायु और अग्नि का गतियुक्त स्थायी सम्बन्ध स्पष्ट होता है।
बहुत काव्यात्मक शब्दों में एक मन्त्र मं प्रश्न किया गया है। कि पहले वाला (पुराना) ऋत कहाँ गया और नया कौन उसे धारणा करता है? द्युलोक और पृथ्वी-ये दोनों ही मेरे लिए उस तत्व को जानती हैं (और बताती हैं)।
मरूत् (विभिन्न स्तरों पर विभिन्न प्रकार से चलने वाली वायएँ) ऋतसाप हैं अर्थात् ऋत से संयुक्त हैं। वे ऋत अर्थात् शाश्र्वत नियम के अनुसार चलती हैं। इस ऋत के द्वारा ही वे सत्य को प्राप्त होती हैं। मेघ, वर्षा, विद्युत, आदि के माध्यम से उनका सत्य स्वरूप प्रकट होता है, उनके वास्तविक कार्य उनके दीर्घकालिक हित से प्रकट होते हैं। कारण यह है कि वे शुचिज मा हैं, उनका जन्म ही पवित्रता से पवित्रता के लिए हुआ है। वे पवित्र हैं। अथवा वे ज्वलनशील तत्वों से युक्त हैं।
उषाओं को ऋत (शाश्र्वत नियम) से युक्त घोड़ों अर्थात् किरणों के द्वारा सब लोकों पर फैल जाने वाली कहा गया है। किरणों की यह गति ही ऋत है-यह ऐसा ऋत है जिससे विज्ञान ज्योतिःपिण्डों की दूरी मापता है। विज्ञान के शाश्र्वत नियम के अनुसार सदा से ये उषायें एक सी हैं; अतः इसके लिए यह कहना असम्भव है कि इनमें से कौन सी पुरानी है और वह कहां है? वे सब एक जैसी चमक वाली चलती हैं और जीर्ण न होने वाली वे नये पुराने के भेद से नहीं जानी जातीं। विज्ञान भी इन्हीं शाश्र्वत रूपों और नियमों की खोज करता है। उषाओं के पीछे एक ही तत्व की समानता है जिसे ऋत कहा जाता है। उसके प्रकाश में, गति में, काल में, स्वरूप में वही एक समान तत्व विद्यमान रहता है। उसे ही सत्य कहा जाता है।
इस प्रसंग में उषा का ‘ऋतावरी’ विशेषण ध्यान देने योग्य है जिससे स्पष्ट होता है कि उषा ऋत अथवा शाश्र्वत नियम अथावा सत्य को धारण करने वाली है और उससे ही प्रकाशित होने वाली या उसको अपने व्यवहार से प्रकाशित करने वाली है। यह ऋत अथवा सत्य उषा के मूल रूप सूर्य से ही अनुप्रेरित है। अनेक वेदमन्त्रों में उषा/उषाओं के प्रसंग में ‘ऋतावरी’ विशेषण का प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार विद्युत और अन्तरिक्ष ऋतावरी है, द्युलोक और पृथ्वी भी ऋतावरी है क्योंकि सबके पीछे ऋत अथवा सत्य-नियम कार्य कर रहा है। ये दोनों बलिष्ठ हैं, देवों-विभिन्न दानादिगुणयुक्त पदार्थों को उत्पन्न करने वाली (और इस प्रकार) ये यज्ञ को आगे ले जाने वाली बढ़ाने वाली हैं।
इसी प्रकार सूर्य और पवन अथवा रस और ज्योतिरूप अश्र्वितनौ भी ऋत अथवा शाश्र्वत नियम से बढ़ने वाले बताये गये हैं। मित्रावरूणौ अर्थात् सूर्य और वायु भी सत्यनियम से बढ़ने वाले हैं।
सूर्य के विभिन्न रूप तथा वरूण (व्यापक प्रकाश वाला और अन्धकाररोधक), मित्र (मित्र के समान हितकारी और सुखकरग) तथा अर्यमा (शत्रुओं को नियन्त्रित करने वाला) ऋत से युक्त हैं, अपनी क्रियाओं और गति में ऋत का स्पर्श करने वाले, गतिशील जनों को आगे ले जाने वाले, शोभनदानी और शोभन नेतृत्व करने वाले हैं।
इस प्रकार वेद में ऋत और सत्य देवों अथवा दानादिगुणयुक्त प्राकृतिक पदार्थों के मूल में बताये गये हैं। उनके पीछे शाश्र्वत नियम और सतत गति की प्रच्छन्न प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है
पाद -टिप्पणी
१. त्रतं च सत्यं चाभीद्वात्तपसोऽध्यजायत। रान्न्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः।। ऋ.१०.१९०.१
७. Every particle is accompanied by another particle called neutrino. It is
high energy particle. Its speed is eqyal to hight speed. ¼ Atomic energy-Macmillon and Co. Ltd., London½
वेद का विषय बहुत लम्बे समय से विवादास्पद रहा है। वेद के प्राचीन प्रामाणिक विद्वान् ऋषि आचार्य यास्क ने अपने वेदार्थ-पद्धति के पुरोधा ग्रन्थ निरूक्त के वेदार्थ के ज्ञाताओं की तीन पीढ़ियों का उल्लेख किया है। पहली पीढ़ी वेदार्थ ज्ञान की साक्षात् द्रष्टा थी जिसे वेदार्थ ज्ञान में किञ्चित् मात्र भी सन्देह नही था। (साक्षात्कृत धर्माण, सृषमो बभुवः।) दूसरी पीढ़ी उन वैदिक विद्वानों की हुई जिन्हें वेदार्थ ज्ञान साक्षात् नहीं था, उन्होंने अपने से पुरानी ऋषियों की उस पीढ़ी से जो साक्षात्कृत धर्मार्थी, उपदेश के द्वारा वेदार्थ ज्ञान प्राप्त किया। इस दूसरी पीढ़ी को भी वेदार्थ ज्ञान सर्वथा शुद्ध और अपने वास्तविक रूप में ही मिला (ते पुनरवरेभ्योऽसाक्षात्कृत धर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान् सम्प्रादुः।) और तीसरी पीढ़ी उन लोगों की आयी जो उपदेश के द्वारा भी वेदार्थ ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ थी। उन्होंने वेद वेदाग आदि ग्रन्थों का सम्मान किया और उन ग्रन्थों की सहायता से वेदार्थ ज्ञान प्राप्त किया। इस तीसरी पीढ़ी को वेदार्थ ज्ञान साक्षात् रूप में नहीं हुआ अपितु परोक्ष रूप में प्राप्त हुआ। अतः इनका ज्ञान परतः प्रामाण्य ग्रन्थों पर आधारित था, वेद का स्वतः प्रामाण्य ज्ञान तो वेदार्थ को साक्षात् वेद की अन्तःसाक्षी के आधार पर समझने वाले लोगों को था। फिर इन तीनों पीढ़ियों में समय का परस्पर अन्तराल बहुत था। और इस तीसरी पीढ़ी के बाद तो उत्तरवर्ती लोगों को वेद-वेदाग आदि ग्रन्थ जो वेदार्थ के लिये परतः प्रामाण्य के ग्रन्थ हैं, और भी अधिक दुरूह और समझ से दूर हो गये। यास्क के समय तक आते-आते यह परिणाम हुआ कि वेदार्थ अधिकतर ओझल हो गया। विद्वान् वेद का मनमाना अर्थ करने लगे। एक-एक मन्त्र का अर्थ करने की परम्परा १०, ११ प्रकार की चल पड़ी, यह स्वयं यास्क ने लिखा है, ‘‘इति याज्ञिकाः, इति पौराणिंका, इत्यैतिहासिकाः, इति वैयाकरणाः, इत्यन्ये, इन्यपरे, इत्येके”, इन शब्दों में यास्क ने अपने ग्रन्थ निरूक्त में एक मन्त्र की व्याख्या अनेक प्रकार से करनेका ब्यौरा दिया है। परिणामस्वरूप वेदार्थ इतना अनिश्चित, विवादास्पद बन गया कि एक सम्प्रदाय वैदिक विद्वानों की इसी कमी का दुरूपयोग और लाभ उठाकर कहने लगा कि वेद जब इतना अस्पष्ट विवादस्पद और अज्ञात है तो वेद के मन्त्र अनर्थक हैं, उसका कोई अर्थ नहीं है (‘‘अनर्थकाः मन्त्रा इति कौत्सः”) यह वेदार्थ के अत्यन्त अन्धकार की स्थिति भी जो यास्क के समय तक थी।
यास्क ने वेदार्थ उद्धार का बीड़ा उठाया। सर्वप्रथम यास्क आचार्य ने उन वैदिक शब्दों और वैदिक धातुओं का संकलन अपने निघण्टु में किया जो वेदार्थ के लिये उस समय दुरूह तथा अधिक आवश्यक थे। फिर यास्क ने निरूक्त की रचना की। जिसमें पहले वेदार्थ पद्धति का प्रतिष्ठापन किया। वेद को अनर्थक मानने वाले सम्प्रदाय का उन्हीं की युक्तियों से खण्डन किया, उन्हीं का जूता उन्हीं के सिर पर मारा। यास्क ने उद्घोष दिया कि सब नाम आख्यातज हैं और वेदार्थ करने के लियें वे यौगिक होते हुवे भी किसी एक निश्चितार्थ में रूढ़ हैं, उदाहरणार्थ परिव्राजक, भूमिज इत्यादि जिनको पूर्व पक्षी भी यौगिक मानते हुवे भी योगरूढ़ मानता है, जिससे शब्दों की यौगिक व्युत्पत्ति करने के बावजूद भी मनमाना काल्पनिक अर्थ न किया जा सके। यह उन लोगों के लिये करारा जवाब था जो यौगिक पद्धति पर आक्षेप करके कहते थे कि तृण शब्द का अर्थ केवल तिनका न करके वे सब अर्थ तृण शब्द के होने चाहिये जो भी कुरेदने का काम करते हैं। खैर हमारा यहां यह विषय नहीं है, इस पर हम अन्यत्र विस्तार से लिख चुके हैं (द्र. ले. द्वारा वेदभाष्य पद्धति और स्वामी दयानन्द एक सर्वेक्षण।)
यास्क सर्वप्रथम वैदिक विद्धान् थे जिनका लिखित ग्रन्थ न केवल यह कहता है कि वेद में भैतिक विज्ञान है, अपितु वेद की व्याख्या भी इस आधार पर करता है। यास्क ने अपने निरूक्त के प्रारम्भ में ही देवता शब्द की परिभाषा दी जो देवता वेद के प्रत्येक सूक्त या अध्याय के प्रारम्भ में दिये हुवे होते हैं। ‘‘यास्क ऋषि र्यस्यां देवतायामार्थपत्यमिच्छत् स्तुतिं प्रगुड्.क्ते तद्दैवतः स मन्त्रो भवति” इस यास्कीय परिभाषा के अनुसार देवता उस सूक्त का वर्णनीय विषय होता है जो शीर्षक के रूप् में प्रत्येक सूक्त या अध्याय के प्रारम्भ में वेद में दिया हुआ होता है ताकि पाठक को निश्चय रहे कि अमुक्त मन्त्रों का वर्णनीय विषय अमुक है। यास्क ने समूचे वेदों के अध्याय के आधार पर यह निर्णय दिया कि सभी वैदिक मन्त्रों के देवता अर्थात् वर्णनीय विषय केवल तीन ही हैं, वे या तो पृथ्वी स्थानीय भौतिक विज्ञान अग्नि है, या अन्तरिक्ष स्थानीय भौतिक विज्ञान इन्द्र मेघ या विद्युत आदि हैं, या द्युस्थानीय भौतिक विज्ञान सूर्य है। (र्द्रतिस्त्र एव देवताः इत्यादि) अग्निः पृथ्वीस्थानीय इन्द्रन्तरिक्षास्थानीयः, सूर्यो द्युस्थानीयः। समग्र विश्व मण्डल की सृष्टि (समष्टि) इन्हीं तीन भौतिक भागों में विभक्त है, और वेद इसी समृद्धि के विज्ञान की व्याख्या है जिनमें आत्मा और परमात्मा चेतन तत्व भी समाहित हैं, अतः वेद के मन्त्रों के ये तीन ही विषय या देवता है। निरूक्तकार यास्क ने इस स्थापना के बाद वेद के सभी देवताओं का इन्हीं तीनों भागों में बांट कर इनकी भौतिक वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की। यहां इस दिशा में रिरूक्त के दो उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ।
वेद में ‘असुर’ शब्द सूर्य के विशेषण के रूप में प्रयक्त किया गया है यथा असुरत्व मे कम जिसका शब्दिक अर्थ हुआ कि एकमात्र सूर्य ही असुर हैं। अब यहां ‘असुर’ शब्द का अर्थ बड़ा ही आपत्तिजनक और अनर्थक है जैसा कि साधारणतः समझा जाता है और आधुनिक भाष्यकारों ने किया भी है, जिससे सूर्य असुर कहते हैं। इससे स्पष्ट हुआ कि सूर्य वेद में असुर इसलिये कहा गया क्योंकि वह संसार में प्राणदायक शक्ति है तो वह केवल मात्र सूर्य है। यह कितना महत्वपूर्ण भौतिक विज्ञान का रहस्य वेद में छुपा हुवा है। आज संसार के वैज्ञानिक कह रहे हैं कि संसार में जीवन (प्राणी) तभी तक है जब तक सूर्य है, यदि सूर्य नष्ट होता है तो विश्व में जीवन प्राणी भी समाप्त हो जायेंगे। यह भौतिक वैज्ञानिक तथ्य वेद में बड़े ही सहज भाव से कह दिया गया है। सूर्य से ही सब प्राणी वनस्पति आदि जीवित हैं।
दूसरा उदाहरण ‘वैश्र्वानर’ शब्द का है। वैदिक शब्द ‘वैश्र्वानर’ का क्या अर्थ है? यह यास्क के समय बड़ा विवादास्पद बन गया था। अतः यास्क ने निरूक्त में प्रश्न उठाया ‘अथ को वैश्र्वानर?’ इसका समाधान भी यास्क ने इस शब्द की व्युत्पत्ति से किया है। वैश्र्वानरः की व्युत्पत्ति है ‘‘विश्र्वानराज्जायते इति वैश्र्वानरः’’ अर्थात् विश्र्वानर से पैदा होने वाले को वैश्र्वानरः कहते हैं। विश्र्वानरः का अर्थ है सूर्य। सूर्य से साक्षात् क्या वस्तु उत्पन्न होती है इसका परीक्षण यास्क ने वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा किया। यास्क ने कहा कि एक आतिशी शीशे का एक भाग सूर्य की ओर रखो और उसके दूसरी तरफ से सूर्य की किरणों को गुजारने दो। जिधर सूर्य की किरणें गुजर रही हैं उधर किरणों के समक्ष सूखा गोबर (शुष्क गोमय) ऐसे रखो कि सूर्य की किरणें उस गोबर पर पड़े। थोड़ी देर बाद उस गोबर में धुआं क उठेगा और आग पैदा हो जायेंगी। यह अग्नि ही वैश्र्वानर है क्योंकि यह विश्र्वानर अर्थात् सूर्य से पैदा होती है। इस प्रकार यास्क ने यह भौतिक वैज्ञानिक तथ्य स्थिर किया कि समूची पार्थिव अग्नि वैश्र्वानर है क्योंकि यह सूर्य से पैदा होती है। यही आज की सौर ऊर्जा (Solar Energy) है जिसे आज के वैज्ञानिक अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं। यही तथ्य यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र में ही कह दिया गया जिसका देवता सविता है ‘‘इषे त्वोज्र्जे त्वा’’ अर्थात् हे सूर्य हम तेरा उपयोग ऊर्जा शक्ति की प्राप्ति के लिये करें।
यह भौतिक वैज्ञानिक तथ्य ब्राह्मण ग्रन्थ और पूर्व मीमांसा के याज्ञिक दर्शन में भी भरे पड़े हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है ‘‘अग्नीषोमी यमिन्द्रं जगत’’ यह संसार अग्नि और सोम दो भौतिक शक्तियों से निर्मित है। यही अग्नि और सोम आज की ऋणात्मक और धनात्मक, सरकार और नकारात्मक (Positive और Negative) शक्तियाँ हैं। यही वे दो धुरी हैं जिन पर आज का कम्प्यूटर विज्ञान केन्द्रित है जिसका आधार (Binary System) (द्विधुरीय पद्धति) है। पूर्व मीमांसा का समग्र यज्ञ विज्ञान इसी दर्शन पर आधारित है। उदाहरणार्थ वर्षा की आवश्यकता होने पर वर्षा करवाने के लिये वर्षेष्टि याग जो इसी वैज्ञानिक ज्ञान पर आधारित है कि वर्षा करवाने वाली भौतिक शक्तियों को कैसे वृष्टि-अनुकूल वातावरण पैदा करने के लिये यज्ञ द्वारा आवर्जित किया जाये।
भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण अतिवृष्टि और अनावृष्टि की समस्या जो कृषि को एकदम सीधे विनाशकारी रूप से प्रभावित करती है, का समाधान ढूंढने के लिये बड़ी वैज्ञानिक खोजें प्राचीनकाल में हुई थीं। इन्हीं समस्याओं का समाधान, वृष्टियाग है जो आज भी देश की आर्थिक दशा जिसका आधार कृषि है को सुधारने के लिये अत्यन्त उपयोगी और प्रासगिक है। वेद में इसीलिये एक पूरा सूक्त कृषि सूक्त है। प्राचीनकाल में कृषि विज्ञान पर भारत से बढ़ कर वैज्ञानिक खोज और किसी देश में नहीं हुई। कौटिल्यार्थ शास्त्र इसी के विस्तार से भरा पड़ा है। आज तो इसके साथ पर्यावरण की समस्या भी जुड़ गई है जो कृषि और छोटे वृक्षों को नष्ट करने तथा यज्ञ-याग आदि के अभाव के कारण पैदा हुई हैं।
इसी प्रकार अन्य याग हैं जो भौतिक पदार्थों की प्राप्ति के लिये की गई कामनाओं की पूर्ति के निमित्त किये जाते हैं। इसीलिये पूर्व मीमांसा में महर्षि जैमिनि ने यज्ञ की परिभाषा दी है ‘‘देवतोद्देश्येन द्रव्यत्यणः याग’’।
वैदिक विज्ञान की यह धारा वैदिक दर्शनों में विशेष विषय के रूप में निष्पन्दित हुई जिसमें न्याय और वैशेषिक दर्शन में भौतिक विज्ञान के (Physics) आधारभूत पांच महाभूत, सांख्य दर्शन में प्राणिक विज्ञान (Biologycal Science) के प्रमुख तत्व बुद्धि, मन, चित्त, अहकार, ज्ञानेन्द्रियाँ तथा तन्मात्रायें आदि और वेदान्त दर्शन में आध्यात्मिक (Metaphysics) चेतना तत्व का विशेष गम्भीर और व्यापक विश्लेषण किया गया। पद्धति और प्रक्रिया का विशद् प्रतिपादन किया गया। इनमें एक-एक दर्शन के प्रत्येक भौतिक वैज्ञानिक तत्व पर गम्भीर और स्वतन्त्र खोज और चिन्तन करने की आवश्यकता है।
यास्क के बाद मध्यवर्ती काल में यह वैदिक विज्ञान लुप्त हो गया और आधुनिक काल में ऋषि दयानन्द ने इसे फिर से मूल रूप में समझा। उन्होंने घोषणा कि ‘‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है’’ और इसमें समूचा भौतिक विज्ञान मौजूद है। उन्होंने सभी वेदों का भाष्य करने का बीड़ा उठाया और भूमिका के रूप में ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पुस्तक लिखी। इसमें उन्होंने न केवल यह घोषणा की अपितु स्थान-स्थान पर भौतिक विज्ञान के नमूने वेदमन्त्रों की व्याख्या करके प्रस्तुत किये। उन्होंने कहा कि आध्यात्मिक विज्ञान प्रथम कोटि का विज्ञान है और आत्मा और परमात्मा का भी विज्ञान है। भौतिक विज्ञान बिना आध्यात्मिक विज्ञान के अधूरा पगु और अप्रासगिक है। आधुनिक विज्ञान में यह उन्होंने नया अध्याय जोड़ा जो कोरे और नंगे भौतिक विज्ञान की पूर्ति की पराकाष्ठा ही नहीं अपितु विज्ञान जन्य अनेक कमियों और समस्याओं का एकमात्र समाधान भी है। वायुयान विज्ञान, तार विज्ञान, विद्युत् विज्ञान आदि अनेक भौतिक विज्ञानों के नमूने ऋषि दयानन्द ने वेदमऩ्त्रों की व्याख्या करके उस समय प्रस्तुत किये जब इन विज्ञानों का आधुनिक आविष्कार भी नहीं हुआ था। वेदों में भौतिक विज्ञान का उद्घोष ऋषि दयानन्द का आधुनिक युग का अद्वितीय नारा था।
वेदों में विज्ञान के कुछ नमूने हम पेश करते हैं। ऋग्वेद का सर्वप्रथम प्रारम्भिक मन्त्र है ‘‘अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्’’।। इसी मन्त्र में ईळे क्रियावाची शब्द है। इसका अर्थ अन्य सभी वेद भाष्यकारों ने अशुद्ध किया है। स्वामी दयानन्द ने इसके वास्तविक अर्थ को निरूक्त के आधार पर किया है।
निघण्टु में वेद के पा्रणाणिक भाष्य पद्धति के व्याख्याता यास्क ने कहा है, ‘‘ईळिरध्येषणा कर्मा”, अर्थात् ईळ धातु अध्येषणार्थक है। अध्येषणा का अर्थ यास्क ने किया है ‘‘अध्येषणा सत्कार पूर्व को व्यापारः”, अर्थात् अध्येषणा का अर्थ है किसी वस्तु के गुणों और क्रियाओं को ठीक-ठीक समझ कर उसके उन गुणों के उपयोगार्थ उस वस्तु को उसी प्रकार के काम में लाना। यही अर्थ स्वामी दयानन्द ने भी किया है। यहां इस मन्त्र का देवता-वर्णनीय विषय-अग्नि है। अतः इसका अर्थ हुआ कि मैं (मनुष्य) अग्नि (भौतिक पदार्थ) को उसके गुण और क्रिया समझ कर उस का उसी प्रकार का उपयोग करूं। यहां अग्नि के कुछ गुण दिये हैं। यहां अग्नि को ‘देवम्’ कहा गया है, देव का अर्थ है प्रकाश और गति। (दिवु धातु द्युति और गति अर्थ वाली) स्पष्ट है कि अग्नि के दो गुण प्रकाश और गति का भौतिक विज्ञान में अत्यधिक महत्व है। अग्नि के लिये एक और शब्द ‘होतारम्’ का यहां प्रयोग है जिसका अर्थ है ध्वनि करने वाला (ह्नेञ् शब्दे) तथा वस्तुओं को खाने या नष्ट करने वाला (हू दानांदनयोः धातु) । अग्नि का विस्फोटक रूप और विध्वंसकारी ध्वनि सर्वविदित ही है। तथा अग्नि अपने में डाली गयी प्रत्येक वस्तु को खा डालती, जला डालती या नष्ट कर डालती है। इसी प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त का पांचवा मन्त्र हैः- अग्निर्होता कविक्रतु सत्यश्र्वित्रश्रवस्तमः। देवो देवे भिरागमत्।। यहां भौतिक अग्नि को दो औरू विशेषणों का प्रयोग है। एक है कविक्रतुः जिसका अर्थ पारदर्शक कर्म वाला (कविः, क्रान्तदर्शी भक्ति यास्क) (क्रतु कर्मपर्याय)। अग्नि पारदर्शक होने से, आधुनिक टेलिविजन, एक्सरे आदि के काम में लाया जाता है। दूसरा गुण है ‘चित्रश्रवस्तमः’, अग्नि अद्भुत तरीके से ध्वनि का श्रवण करवाता है, यह गुण टेलिफोन आदि के कार्यों को सम्भव और सयोग आविष्कार का कारण बना है। हमने अग्नि आदि अनेक भौतिक पदार्थों के गुणों को भौतिक विज्ञान के सन्दर्भ में अपनी पुस्तक (Glorious Vision Of The Vedas)में वर्णित किया है, जो हौलेण्ड से छपी है, पाठक विस्तार से वहीं से देख सकते हैं।
वेद में सविता और सूर्य इन दो भिन्न-भिन्न शब्दों से सूर्य का वर्णन मिलता है, यह क्यों? सविता शब्द की व्युत्पत्ति सर्जनार्थक षुञ् धातु से है अतः सविता का अर्थ है सर्जन करने वाला, सविता सूर्य का वह रूप है जो सर्जन करने वाला है अतः सविता के वर्णन में सूर्य के सभी सर्जनात्मक रूपों का वर्णन है। और सूर्य शब्द की व्युत्पत्ति है गत्यर्थक सृ धातु से जिसका अर्थ है गति देने वाला। अतः सूर्य के वर्णन में उन रूपों का समावेश है जो सूर्य के गतिप्रद रूप हैं। इसी प्रकार किरणों के १५ नाम निघण्टु में दिये हैं जो किरणों के भिन्न-भिन्न स्वरूपों के निदर्शक हैं। आधुनिक विज्ञान को अभी तक सात प्रकार की किरणें ही विदित हैं वेद की शेष किरणों पर शोध करके पता लगाने की आवश्यकता है। इसी प्रकार यास्क ने वैदिक निघुण्टु में पानी के एक सौ नाम दिये हैं जो पानी के भिन्न-भिन्न स्वरूपों के वाचक हैं। अभी तक पानी के रूप, पानी, बादल, भाप, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन आदि ही ज्ञात हैं, शेष पानी के कौन से रूप हैं? शोध करके पता लगाने की आवश्यकता है। वैदिक देवता मरूत और वायु आदि में भी मौलिक अन्तर हैं, ये एक ही भौतिक पदार्थ के पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। इस प्रकार वैदिक भौतिक विज्ञान का बहुत व्यापक विश्नल क्षेय है जो खोज चाहता है। हम यहां केवल एक ही और वेद में भौतिक विज्ञान का आधुनिकतम उदाहरण देकर अपनी लेखनी को विराम देंगे।
आइन्सटाइन आधुनिक युग के महान्-वैज्ञानिक माने जाते हैं। उन्होंने देश और काल (Time & Space) के विषय में भौतिक विज्ञान के अद्भुत सिद्धान्तों का आविष्कार करके सृष्टि-विज्ञान की नयी व्याख्या प्रस्तुत की। आइन्सटाइन को अभी-अभी मात दी है स्टीफन्स हौकिग ने। स्टीफन हौकिग की आधुनिकतम वैज्ञानिक खोज यह है कि प्रलय काल में भी समय की सत्ता रहती है। यह तथ्य उन्होंने अपने आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर नये फामूर्ले पेश करके सिद्ध किया है। प्रलय-अवस्था के काल की गण्ना करने के फामूर्ले भी उन्होंने दिये हैं। इस अपनी वैज्ञानिक नयी खोज का बड़ा रोचक वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक ‘‘Story of Creation: From Big-Bang to Big Crunch” में बड़े विस्तार से किया है।
यह वैज्ञानिक तथ्य वेद में पहले से ही वर्णित हैं। यह हमने खोजा है। ऋग्वेद के चार सूक्त अर्थात् मं. १०, सू. १२९, मं. १०, सूक्त १५४, मं. १०, सूक्म १९१, ये चार सूक्त भाववृत्तम् नाम से प्रसिद्ध हैं क्योंकि इन चारों सूक्तों में सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय अवस्था का वर्णन है, अतः ये चारों सूक्त ऋग्वेद के सृष्टि विज्ञान के सूक्त कहे जाते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि सृष्टि विज्ञान के विषय पर स्टीफन्स हौकिग की पुस्तक (Story of Creation) का नाम भी यही ‘भाववृत्तम्’बनता है। लगता है (Story of Creation) ‘भाववृत्तम्’ का ही अनुवाद हो यह अद्भुत संयोग ही कहा जा सकता है। अस्तु ऋग्वेद के प्रथम भाववृत्तम् सूक्त अर्थात् १०वें मण्डल का १२९वां सूक्त जो नासदीय सूक्त से भी जाना जाता है, इन शब्दों से प्रारम्भ होता हैः- नासदासीत्रो सदासीत्तदानीम्। मन्त्र के इस प्रथम चरण में सृष्टि के पहले प्रलय अवस्था का वर्णन है जिसमें कहा गया है कि प्रलय अवस्था में सत् और असत् देनों ही नहीं थे। यहां यह उल्लेखनीय है कि ‘सत्’ और असत् में दोनों ही वैदिक शब्द बड़े वैज्ञानिक तकनीकी अर्थ में प्रयुक्त हैं जिनकी व्याख्या का यहां अवकाश नहीं है। यहां हम यह बतलाना चाह रहे हैं कि उस प्रयावस्था में जिस अवस्था का वर्णन यहां ऋग्वेद में ‘सत्’ और ‘असत्’ के अभाव के रूप में किया है, एक पदार्थ का भाव स्पष्ट माना है और वह है काल, जिसे ‘तदानीम’ शब्द से विज्ञात घोषित किया है। ‘तदानीम्’ अर्थात् उस समय-जब ‘सत्’ और ‘असत’ भी नहीं थे, किन्तु समय (काल) था। स्टीफन्स हौकिग और आइन्स्टाइन की काल सम्बन्धी प्रमुख खोज को वेद ने एक ही सहज और सरल शब्द ‘तदानीम्’ से धाराशायी कर दिया। वैदिक विद्धानों का अभी तक समूचे भाववृत्त सूक्त की वैज्ञानिक व्याख्या तथा इस मन्त्र की इस व्याख्या पर ध्यान नहीं गया है। प्रलय अवस्था में काल की सत्ता और प्रलय अवस्था के काल की गणना जो एक अत्यन्त कठिन वैज्ञानिक चुनौती है, भारतीय दर्शनों में बड़े विस्तार से दी है। प्रलय अवस्था में सूर्य के अभाव में काल गणना का मापक दण्ड या साधन यन्त्र क्या हो यह बड़ी वैज्ञानिक समस्या है। किन्तु प्राचीन भारतीय ऋषियों ने इस गुत्थी को बड़े वैज्ञानिक कार्ल सागम ने इस तथ्य की पुष्टि को ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में २६ जनवरी १९९७ को छपे अपने साक्षात्कार में बड़े प्रशंसनीय शब्दों में स्वीकारा है। यहां यह सब यहां लिखना सम्भव नहीं है। दो वर्ष पूर्व अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हमने इस विषय पर शोधलेख पढ़ा था, जिसकी चर्चा स्थानीय समाचार पत्रों में खूब रही थी।
इस खोजपूर्ण तथ्य के उद्घाटन के साथ ही हम अपने लेख समाप्त करने से पहले २१वीं सदी और वैदिक विज्ञान की याद दिलाना चाहेंगे। २१वीं सदी पश्चिम के विज्ञान की आंधी और तूफान लेकर विश्व में आयेगी। वैज्ञानिक आविष्कार प्रकृति के रहस्यों को खोल कर रख देंगे। भौतिक विज्ञान की उपलब्धियां मानव को इतना साधन सम्पन्न बना देंगे कि जीवन के तौर तरीके सर्वथा बदल जायेंगे। समाज और राष्ट्र का एक नया भौतिक रूप उभर कर सामने आयेगा। आधुनिक Information Technology, रोबोट, शरीर विज्ञान की नयी खोजें, आने वाले समय का पूर्वाभास करवा रही हैं। ऐसे समय में आर्यसमाज की ही नहीं अपितु समूचे भारत राष्ट्र की परिचायक सत्ता का प्रश्न होगा। वेद और प्राचीन भारतीय भारतीय शास्त्रों का ज्ञान-विज्ञान पश्र्विम की इस आन्धी के साथ टक्कर लेने की पूरी क्षमता रखते हैं, देश की गरिमा को वैदिक ज्ञान-विज्ञान ही सर्वोपरि स्थान पर रख पायेगा, यही देश और समाज की सबसे महत्वपूर्ण धरोहर होगी जिस पर राष्ट्र गर्व करके पश्र्विम के भौतिक अन्धकार में सूर्य के समान विश्व को प्रकाश दिखला सकता है। परोपकारिणी सभा जो स्वामी दयानन्द जी महाराज की एकमात्र उत्तराधिकारिणी सभा है, का विशेष रूप सेयह दायित्व बन जाता है कि ऐसेसमय में वैदिक ज्ञान विज्ञान की खोज करके मानव मात्र का प्रकाश स्तम्भ बने, जिससे दयानन्द और वेद की पताका सर्वोपरि लहराती रहेगी। आधुनिक भौतिक विज्ञान में अपने आप को भूलते हुवे मानव को ज्ञान-विज्ञान की चरम पराकाष्ठा आध्यात्मिक चेतना की याद दिलाती रहे। जो अखण्ड समाप्ति के दश्ज्र्ञन की समूची वैज्ञानिक व्याख्या है।
(अग्नौ ) यज्ञाग्नि में (अग्निः ) परमात्माग्नि ( प्रविष्टः ) प्रविष्ट हुआ (चरति ) विचरता है। यज्ञाग्नि ( ऋषीणां पुत्रः ) ऋषियों का पुत्र है, ( अभिशस्तिपावा) निन्दाओं और शत्रुओं से बचानेवाला है। हे यजमान ! (न: स्योनः ) हमारे लिए सुखकारी (सः ) वह प्रसिद्ध तू ( सुयजा ) सुयज्ञ से (इह) यहाँ (सदं ) सदा ( देवेभ्यः ) वायु, जल आदि दिव्य पदार्थों को सुगन्धित करने के लिए अथवा विद्वानों के हितार्थ (अप्रयुच्छन्) बिना प्रमाद किये ( स्वाहा ) स्वाहापूर्वक अग्नि में (हव्यं यज) हव्य का दान किया कर।।
हे यजमान ! क्या यज्ञकुण्ड में ज्वालाओं से ऊर्ध्वगामिनी होती हुई यज्ञाग्नि के अन्दर एक और अग्नि मुस्कराता हुआ नहीं दीखता ? ध्यान से देख, इस भौतिक अग्नि के अन्दर एक अभौतिक दिव्य अग्नि तेजस्वी परमेश्वर बैठा हुआ है, वही इसे आभा, ज्योति और प्रकाश दे रहा है। यज्ञाग्नि की ज्वालाओं में उस दिव्य अग्नि के दर्शन कर लेगा, तो यज्ञ का दुहरा लाभ तुझे प्राप्त हो सकेगा। एक तो पर्यावरणशुद्धि का, दूसरा परमेश के दर्शन का। यज्ञकुण्ड में प्रदीप्त यज्ञाग्नि का परिचय भी जान ले। यह ऋषियों का पुत्र है,, महाव्रती ऋषि-मुनि प्रतिदिन सायं-प्रात: अरणिमन्थन द्वारा इसे यज्ञकुण्ड में उत्पन्न करते रहे हैं। यह निन्दाओं से और काम, क्रोध, रोग आदि शत्रुओं से बचानेवाला है। घृत एवं अन्य शुद्ध सुगन्धप्रद रोगहर हव्यों की आहुति से बढ़ती हुई निष्कलङ्क ज्योति को देख कर यजमान के मन में भी यह . भाव आता है कि मैं अपने जीवन को उज्वल और ज्योतिष्मान् करूँ, निन्दनीय कर्मों को छोड़कर सत्कर्म करूं, काम-क्रोध-अविद्या आदि आन्तरिक तथा दुर्गन्ध रोग आदि बाह्य शत्रुओं को नष्ट करूं, जिससे मेरी निन्दा न होकर सर्वत्र प्रशंसा हो। यज्ञ द्वारा यजमान जो जल, वायु, वृक्ष-वनस्पति आदि की शुद्धि करता है, उससे भी वह प्रशंसाभाजन बनता है।
मन्त्र प्रेरणा कर रहा है कि हे यजमान! तू शुभ यज्ञ द्वारा सदा बिना प्रमाद के सायं-प्रात: सुगन्धि, मिष्ट, पुष्टिप्रद, रोगहर हव्यों की स्वाहापूर्वक आहुति देकर वातावरण को शुद्ध करता रह। यह ‘स्वाहा’ शब्द हविर्द्रव्यों की अग्नि में आहुति के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों की सत्पात्रों में दान करने की भावना को भी जगाता है। ‘सु-आ-हा’ का अर्थ है सुन्दरता के साथ चारों ओर त्याग करना।
आओ, हम भी अग्नि आदि प्राकृतिक पदार्थों के अन्दर प्रभुसत्ता की झाँकी लें, हम भी अग्निहोत्र के व्रती बनकर प्रशंसाभाजन हों।
अग्नि में एक और अग्नि प्रविष्ठ है।- रामनाथ विद्यालंकार
हनूमान्वास्तविकस्वरूप :
डॉ. शिवपूजनसिंहकुशवाहएम. ए.
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हनूमान्कावास्तविकस्वरूपश्रीहनूमान्कीउत्पत्ति
हनुमान जी की जन्म-कथा भिन्न-भिन्न पुराणों में भिन्न-भिन्न प्रकार की पाई जाती है पर इस विषय में सभी एकमत हैं कि हनूमान् के पिता केसरी और माता अंजनी थी। किसी भी प्राणी का जन्म एक बाप द्वारा एक ही माता के गर्भ से देखा जाता है परन्तु हनूमान् केसरी और अंजनी के अतिरिक्त, महादेव-पार्वती तथा वायु (मरुत्) के पुत्र भी कहे गये हैं, अर्थात् ३ पितामों से हनुमान जी उत्पन्न हुए, क्या यह माननीय है ? पुराणों ने बड़ा ही अनर्थ विश्व में फैलाया है। मिथ्या कथा लिखकर हनुमान जी को कहीं का न छोड़ा।
शिवपुराण, शतरुद्रसंहिता अध्याय २० श्लो०१ से १० तक’
नन्दीश्वर बोले, हे मुने ! इसके आगे हनुमान्जी का चरित्र सुनो, जिस प्रकार हनुमानजी के रूप से किंवजी ने सुन्दर लीला की है ।।१।। हे प्रिय ! परमेश्वर शिव ने प्रीति करके रामचन्द्रजी का परमहित किया है, उन सब सुखों को देनेवाले चरित्र को सुनो,२।। एक समय गुणयुक्त लीला करनेवाले, प्रभु शिव ने विष्णु का मोहिनीरूप देखा ॥३।। तो कामदेव के बाण से ताड़ित हुए शिवजी ने अपने-आपको काम से व्याकुल किया और रामचन्द्रजी के कार्य के अर्थ प्रपना वीर्य गिराया ॥४॥ तब पादर से रामचन्द्र के कार्य के अर्थ मन से शिवजी के द्वारा प्रेरणा किये हुए उन सप्त ऋपियों ने उस वीर्य को पत्ते पर स्थापित किया ॥५॥ उन महपियों ने वह शिवजी का वीर्य गौतम की पुत्री में कर्ण के द्वारा तथा मंजनी में रामचन्द्रजी के कार्यार्थ प्रवेश किया ॥६॥ उस समय उस वीर्य से महाबली तथा पराक्रमयुक्त वानर के शरीरवाले हनुमान् नामक शिवजी उत्पन्न हुए ॥७॥ वह महाबली वानर हनुमान् बालकपन में ही सूर्य को लघुफल जान सूर्यमण्डल को खाने को उद्यत हए ।।८।। और देवताओं की प्रार्थना से सूर्य को त्यागा, तब देवता तथा ऋषियों ने महाबली शिव का अवतार जान उनको वरदान दिये ।।६।। तब वह हनुमान्जी प्रति प्रसन्न हो अपनी माता के निकट गये
और उससे पादरपूर्वक सब वृत्तान्त (वर पाने का) कहा ॥१०॥
१. “शिवमहापुराण” पृष्ठ ६४३ [संवत् २०१६ वि० सन् १९५६ ई० में
खेमराज श्रीकृष्णदास, अध्यक्ष श्री वेङ्कटेश्वर’ स्टीम्-प्रेस, बम्बई-४ द्वारा प्रकाशित।
समीक्षा-आख्यायिकाकार शैवों ने हनूमान् को शिवावतार (रुद्रावतार) सिद्ध करने के लिए यह उपर्युक्त पाख्यायिका लिखी जो सर्वथा अश्लील, सुष्टि क्रमविरुद्ध और अज्ञानमूलक है।
हनूमान् को शिव का अवतार सिद्ध करने के लिए यह कया गढ़ी गई है, इसलिए शिव ने स्वयं अपना वीर्य अपनी इच्छा से गिरा दिया, न कि वीर्य पार्वती के रूप के कारण स्खलित हुआ। जब वीर्य गिरा तो उसी समय सप्तर्षि कहाँ से आ गये? और ‘पत्ते पर लेकर उसे सुरक्षित रखा’ यह होगप्पा) सप्तर्षि कौन हैं, पुराणकर्ता ने नहीं लिखा, नहीं तो पो खुल जाती। उत्तरोग में सप्तषि-मण्डल है, जो बरावर ध्रुव के चारों ओरममता दिखलाई देता है। हमारा सप्तपि-मण्डल इसी शरीर में दो नेत्र, दो कान, दो नाक, एक नीम है इस कार सप्त (७) ऋपि हैं-“सप्त ऋषयः प्रति हिता शरीर यह वेदमन्त्र है। इस कथाकार से पूछना चाहिए कि इनमें से कौन पाये थे? सौ जन्म में भी शैव लोग इसकी उत्तर नहीं दे सकते। जब सप्तर्षियों का कथन ही सर्वथा मिच्यो सिंहो गया तब पत्ते पर वीर्य का सुरक्षित रखना और अंजनी के कान में डालनी तो स्वयं ही प्रसिद्ध हो गया। पुनश्च कान में वीर्य डालने से सन्तान कैसे होगी? यह तो गप्पों की परदादी है। है अतः शिवपुराण की सारी कथा असम्भव एवं सृष्टिक्रमविरुद्ध होने से इसे बीसवीं शताब्दी में कोई भी बुद्धिमान् मान नहीं सकता। निष्कर्ष यह निकला कि हनूमान् न तो शंकर के अवतार थे, न शिव के वीर्य से भवानी में उत्पन्न हुए थे वरन् केसरी के क्षेत्रज (नियोगज) पुत्र थे।
वायुनन्दन, इसपर कवि की कल्पना देखिए भविष्यपुराण में
“शिवोऽपि च स्वपूर्वार्धाज्जातो वे मानसोत्तरे। गिरी यत्र स्थिता देवी गौतमस्य तनूभवा। प्रजना नाम विख्याता कोशकेसरिमोगिनी ॥३२॥
अध्याय १३ श्लोक ३२ से ४१ तक – प्रर्थ- “एक बार शिवजी मानसोत्तर पर्वत पर गये। वहाँ गौतम की पुत्री अंजना, केसरी की पत्नी रहती थी। शिवजी का तेज (वीर्य) केसरी के मुख में चला गया और उससे कामातुर होकर केसरी अंजना से भोग करने लगा। इसी बीच में वायु ने भी केसरी के शरीर में प्रवेश किया और वह बलपूर्वक उसके प्रभाव से १२ वर्ष तक अंजना से विषयभोग करता रहा। इस लम्बे मैथुन से मंजना के गर्भ रह गया और एक वर्ष के पश्चात् वानर के सदृश मुखवाले रुद्र (हनूमान्) जी को जन्म दिया जो कि अत्यन्त कुरूप था। इससे माता ने उसे त्याग दिया। हनूमान् बालक ने बलपूर्वक सूर्य को निगल लिया। महादेवजी देवताओं के साथ वहां आ गये किन्तु वच से ताडित होने पर भी उन्होंने सूर्य को नहीं छोड़ा, तब सूर्य ने भयभीत होकर त्राहि-त्राहि (बचानो-बचानो) की पुकार की, तव उसके दीन वचनों को सुनकर रावण ने हनूमान् को पूंछ पकड़कर खींची। इसपर हनूमान् ने सूर्य को तो छोड़ दिया परन्तु क्रोधित होकर रावण से युद्ध करने लगे और एक वर्ष तक उससे मल्लयुद्ध करते रहे। रावण थक गया और डरकर तथा हनुमान जी से ताडित होकर वहां से भाग गया।”
समीक्षा-भविष्यपुराण की उपर्युक्त कथा शिवपुराण की कथा से नितान्त भिन्न है। दोनों में सही कोन है ? जब पौराणिकों के मत में अष्टादश पुराणों के रचयिता एक ही व्यक्ति वेदव्यास जी हैं, तब उत्पत्ति तो एक प्रकार को होनी चाहिए । यह पुराणलीला है। वास्तव में दोनों कथाएं काल्पनिक एवं मिथ्या हैं । .. इस कथा से यह बात तो सिद्ध है कि अंजना मनुष्य-कन्या थी, अत: केसरी भी मनुष्य ही था, अाजकल के समान वानर पशु न था। ऐसी दशा में हनुमान जी पूंछवाले वानर पशु नहीं वरन् मनुष्य थे।
शिवपुराण की कथा में शिव-वीर्य अंजना के कान में डाला गया, पर इस कथा में केसरी के मुख में, कल्पना मिथ्या है न ? जैसे कान में वीर्य डालना असत्य है उसी प्रकार मुख में वीर्य डालना भी मिथ्या ही है। क्योंकि वहाँ सप्तर्षि भी कोई नहीं था, तो वीर्य का पतन और पत्ते में लेकर सुरक्षित रखना और मुख में डालना ये दोनों बातें स्वयं मिथ्या सिद्ध हो जाती हैं और प्रमाण की आवश्यकता ही क्या रही? दोनों में सत्य कौन ? फिर बारह वर्ष तक केसरी भोग करता ही रह गया, क्या यह सम्भव है ? इसे तो पौराणिक ही बतलायेंगे कि यह महा घोटाला क्यों ? विश्व में जो न कभी हुमा, न होगा और न हो सकता है । सृष्टि नियमविरुद्ध बातें कालत्रय में मिथ्या होती हैं।
अतः हनूमान जी न शंकर-पार्वती के पुत्र थे और न इस कथा के अनुसार वायु के ही पुत्र थे। तर्क की कसौटी पर कसने से उक्त दोनों कथाएँ मिथ्या सिद्ध हो जाती हैं। – हनूमान्जो का उत्पन्न होते ही सूर्य को निगलना भी गप्पों का सिरताज है। कहां सूर्य पृथिवी से साढ़े तेरह लाख गुणा बड़ा और नौ करोड़ तीस लाख मील पृथिवी से दूर और कहाँ हनूमान् ! क्षुद्र शरीर वालक वानर के साथ कैसी असम्भव कथा रची गई है ! पुनः सूर्य के पास रावण कहाँ से, क्यों कूद पड़ा यह भी मिथ्या कल्पनामात्र है। सूर्य तो अग्नि का पिण्ड है, वहां जाना भी असम्भव है उसका निगलना तो और कठिन है। यह तो कवि की कल्पना की उड़ान है। हनूमानजी व रावण का मल्लयुद्ध कहाँ पर हुआ? युद्ध के लिए शरीर का आधार चाहिए। क्या वहां पर उनको मल्लयुद्ध के लिए भूमि थी? या पुराणकर्ता की छाती पर लड़े? यह सब कवि की कल्पना नहीं तो क्या है ? ऐतिहासिक सत्य का इसमें लेशमात्र भी नहीं है।
हनूमान् नाम क्यों पड़ा, इसपर भी लालबुझक्कड़ों ने एक कथा गढ़ डाली .’कि जब हनुमान जी उत्पन्न हुए तो सूर्य को एक फल समझकर उसको लेने के लिए उछल पड़े। यह विपत्ति देखकर इन्द्र ने वन मारा जिससे उनकी बायीं – ठुड्डी टूट गई इसी से इनका नाम हनूमान् पड़ा।
____ यही कथा वाल्मीकीय रामायण, युद्धकाण्ड में देखिए, वहाँ न सूर्य को निगलने का तथा न द्वारा वन से मारने का वर्णन है
‘जब यह बालक था उस समय की बात है, एक दिन इसको बहुत भूख लगी थी। उस समय उगते हुए सूर्य को देखकर यह तीन हजार योजन ऊँचा उछल गया था। उस समय मन-ही-मन यह निश्चय करके कि ‘यहाँ के फल प्रादि से मेरी भूख नहीं जाएगी, इसलिए सूर्य को (जो आकाश का दिव्य फल है) ले आऊंगा’ यह बलाभिमानी वानर ऊपर को उछला था॥१२।।-||१३॥
देवर्षि और राक्षस भी जिन्हें परास्त नहीं कर सकते, उन सूर्यदेव तक न पहुँचकर यह वानर उदय गिरि पर ही गिर पड़ा ॥१४||
वहां के शिलाखण्ड पर गिरने के कारण इस वानर की एक हनु (ठोढ़ी) कुछ कट गई; साथ ही अत्यन्त दृढ़ हो गई, इसलिए यह ‘हनूमान्’ नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥१५॥
समीक्षा-यह कथा भी सर्वथा खयाली पुलाव है। यहां पर सूर्य के निगलने की वात नहीं है, निगलने से पहले ही गिर पड़े थे। इस प्रकार सभी कथानों में भिन्नता है। पुनः वाल्मीकीय रामायण में हनुमानजी की जन्म-कथा
“(वीरवर ! तुम्हारे प्रादुर्भाव की कथा इस प्रकार है)
पुञ्जिकस्थला नाम से विख्यात जो अप्सरा है, वह समस्त अप्सरात्रों में अग्रगण्य है। तात! एक समय शापवश वह कपियोनि में अवतीर्ण हुई। उस समय वह वानरराज महामनस्वी कुञ्जर की पुत्री इच्छानुसार रूप धारण करने वाली थी। इस भूतल पर उसके रूप की समानता करनेवाली दूसरी कोई स्त्री नहीं थी। वह तीनों लोकों में विख्यात थी। उसका नाम अञ्जना था। वह वानरराज केसरी की पत्नी हई ।।८-६।।
एक दिन की बात है, रूप और यौवन से सुशोभित होनेवाली अञ्जना मानवी स्त्री का शरीर धारण करके वर्षाकाल के मेघ की भांति श्याम कान्तिवाले एक पर्वतशिखर पर विचर रही थी। उसके अंगों पर रेशमी साड़ी शोभा पाती थी। वह फूलों के विचित्र आभूषणों से विभूषित थी॥१०-११॥
उस विशाललोचना बाला का सुन्दर वस्त्र तो पीले रंग का था, किन्तु उसके किनारे का रंग लाल था। वह पर्वत के शिखर पर खड़ी थी। उसी समय वायु देवता ने उसके उस वस्त्र को धीरे से हर लिया ॥१२॥
तत्पश्चात् उन्होंने उसकी परस्पर सटी हुई गोल-गोल जांघों, एक-दूसरे से लगे हुए पीन उरोजों तथा मनोहर मुख को भी देखा ॥१३॥
उसके नितम्ब ऊंचे और विस्तृत थे। कटिभाग बहुत ही पतला था। उसके सारे अंग परम सुन्दर थे। इस प्रकार वलपूर्वक यशस्विनी अञ्जना के अंगों का अवलोकन करके पवन देवता काम से मोहित हो गये ।।१४।।
उनके सम्पूर्ण अंगों में कामभाव का आवेश हो गया। मन प्रजना में ही लग गया। उन्होंने उस अनिन्द्य सुन्दरी को अपनी दोनों विशाल भुजामों में भरकर हृदय से लगा लिया। अञ्जना उत्तम व्रत का पालन करने वाली सती नारी थी, अतः उस अवस्था में पड़कर वह वहीं घबरा उठी और बोली-कौन मेरे इस पातिव्रत्य का नाश करना चाहता है ? ॥१६॥
अञ्जना की बात सुनकर पवनदेव ने उत्तर दिया-‘सुश्रोणि ! मैं तुम्हारे एकपत्नी-व्रत का नाश नहीं कर रहा हूँ, अतः तुम्हारे मन से यह भय दूर हो जाना चाहिए।॥१७॥
यशस्विनि ! मैंने अव्यक्त रूप से तुम्हारा आलिङ्गन करके मानसिक संकल्प के द्वारा तुम्हारे साथ समागम किया है। इससे तुम्हें बल-पराक्रम से सम्पन्न एवं बुद्धिमान् पुत्र प्राप्त होगा ।।१८।
वह महान् धैर्यवान्, महातेजस्वी, महावली, महापराक्रमी तथा लांघने और छलांग मारने में मेरे समान होगा’ ॥१६॥
महाकपे ! वायुदेव के ऐसा कहने पर तुम्हारी माता प्रसन्न हो गईं। महाबाहो! वानरथंष्ठ ! फिर उन्होंने तुम्हें एक गुफा में जन्म दिया ।।२०।।
बाल्यावस्था में एक विशाल वन के भीतर एक दिन उदित हुए सूर्य को देखकर तुमने समझा कि यह भी कोई फल है; अतः उसे लेने के लिए तुम सहसा आकाश में उछल पड़े ॥२१।।
महाकपे! तीन सौ योजन ऊँचे जाने के बाद सूर्य के तेज से आक्रान्त होने पर भी तुम्हारे मन में खेद या चिन्ता नहीं हुई ॥२२॥
कपिप्रवर! अन्तरिक्ष में जाकर जब तुरन्त ही तुम सूर्य के पास पहुंच गये, तव इन्द्र ने कुपित होकर तुम्हारे ऊपर तेज से प्रकाशित वज्र का प्रहार किया ।।२३।।
उस समय उदयगिरि के शिखर पर तुम्हारे हनु (ठोडी) का बायां भाग वज्र की चोट से खण्डित हो गया। तभी से तुम्हारा नाम हनूमान् पड़ गया ॥२४॥
समीक्षा–यदि यह कथा ज्यों-की-त्यों सत्य मान ली जाती है तो ऐतिहासिक दृष्टि से हनूमान् का जन्म संदिग्ध ही रह जाता है। वायु जड़ है, सर्वत्रगामी है, ‘पंचभूतों में एक भूत है। जड़ वायु नारी को देखकर, मनुष्यवत् न कामी बन सकता है और न किसी से सम्भोग कर सकता है। आजकल एक से एक अञ्जना से बढ़कर उन्नतकुचा नारियां देखी जाती हैं, पर वायु क्यों नहीं कामातुर होकर पकड़ता है ? उन्हें मनुष्यवत् पकड़कर भोग क्यों नहीं करता? ऐसा न सुना गया न देखा गया। कथा पालंकारिक है। इसलिए मानना पड़ेगा कि वायु नाम का कोई पुरुष था जिसने अञ्जना के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उसके साथ “भोग किया और हनुमान जी उत्पन्न हुए। इन्हें क्षेत्रज कह सकते हैं।
नियोग से उत्पन्न पुत्र क्षेत्रज कहलाते हैं इसलिए हनूमान् केसरी के क्षेत्रज पुत्र हैं जैसाकि रामायण में ही स्पष्ट लिखा हुआ है
“इस प्रकार तुम केसरी के क्षेत्रज पुत्र हो । तुम्हारा पराक्रम शत्रुओं के लिए भयंकर है। तुम वायुदेव के पौरस पुत्र हो, इसलिए तेज की दृष्टि से भी उन्हीं के समान हो ॥२६-1||
अतः हनुमान जी केसरी के क्षेत्रज पुत्र थे ।
‘हनूमान्चालीसा’ किसी अज्ञानी का बनाया हुमा है जिसने हनूमानजी को शंकर व पार्वती का पुत्र लिख मारा जिससे सर्वत्र मिथ्या प्रचार हो गया। सब ही एक ही माता-पिता से उत्पन्न होते हैं, पुनः हनूमान् के तीन पिता मानना हनूमद्भक्तों की अज्ञानता और नासमझी है। श्री हनुमान जी की अद्भुत शक्ति व विद्वत्ता रामकथा के पात्रों में हनुमानजी का बल, बुद्धि और अद्भुत कृत्यों के कर्ता तथा रामचन्द्रजी के अनन्य सेवक होने के कारण महत्त्वपूर्ण स्थान है। मध्य कालीन रामकथा-साहित्य में हनुमान जी के चरित्र का जो विकास हुआ है उसका उत्कृष्ट उदाहरण तुलसी-साहित्य के द्वारा प्राप्त होता है। ‘विनय-पत्रिका’ में तुलसीदासजी ने राम के भक्त होने के कारण और स्वतन्त्र रूप से भी हनुमान जी के प्रति भक्ति प्रदर्शित करते हुए स्तोत्रों की रचना की है। इस ग्रन्थ के अतिरिक्त ‘कवितावली’, ‘उत्तरकाण्ड’ और ‘हनूमान्-बाहुक’ में भी उन्होंने स्वतन्त्र नायक के रूप में हनूमान् का गौरव-गान किया है। आदिकाव्य रामायण में वे कपिकुंजर तथा वायुपुत्र भी माने जाने लगे। प्रचलित रामायण में वानरत्व-विषयक विशेषणों के बाहुल्य से उनके वास्तविक वानरत्व की धारणा बनने लगी। तत्पश्चात् कपि योनि में रुद्रावतार और राम के प्रादर्श भक्त के रूप में उनकी पूजा होने लगी।’ हनूमानजी का शारीरिक बल व शक्ति हनुमान जी अनेक साहसिक कार्यों के कर्ता हैं।
अनेक अद्भुत और महान् कृत्यों का श्रेय हनुमान जी को प्राप्त है जैसे सागर पार करना, अशोक वन-विध्वंस, लंका-दहन, द्रोणाचल-प्रानयन और युद्ध विषयक पराक्रम । उनके द्रुमशिला-युद्ध, उनकी लांगूल के दांव-पेंच, उनके पाद प्रहार, उनके विकराल तमाचे और थप्पड़ विश्व के एक अद्वितीय मल्ल का चित्र प्रस्तुत करते हैं। राम व लक्ष्मण को वे अपनी पीठ पर चढ़ाकर पम्पासर से ले गये थे। बड़े-बड़े पर्वत उनके शरीर के भार से दब जाते या कसमसा उठते वा फूट पड़ते थे। वे अणिमा-गरिमा सिद्धियों पर अधिकार रखनेवाले महान् योगी भी हैं।
यौगिक सिद्धियाँ ‘पणिमा’ आदि आठ प्रकारों में संख्यात हैं, यथा-(१) अणिमा, (२) महिमा, (३) गरिमा, (४) लघिमा, (५) प्राप्ति, (६) प्राकाम्य, (७) ईशित्व, और (८) वशित्व।
प्रणिमा व लघिमा-सागर को तैरते हुए, पार कर लंका की द्वारपालिका ‘लंकिनी’ निशाचरी को निहत करने के पश्चात् जनकनन्दिनी के अन्वेषण-क्रम में श्री हनुमान जी गोस्वामी तुलसीदास के मत से मशक के समान सूक्ष्मातिसूक्ष्म रुप धारण कर रात्रि में सारी लंकानगरी का निरीक्षण कर लेते हैं, किन्तु अत्यन्त अणु या लघु रूप होने के कारण वहां के निवासियों को उनका कुछ पता तक नहीं चलता। हनुमान जी शत्रुओं के लिए सर्वथा अदृश्य हो गये थे (अध्यात्मरामायण ५।११२)। अशोकवाटिका में पहुंचकर और सीसम वृक्ष के पत्तों में बैठे-बैठे वे जानकी माता को अपना परिचय देते हुए श्रीराम की अवस्था का वर्णन करते हैं (अध्यात्मरामायण ।२।३)।
इन विवृत्तियों से मारुति में अणिमा और लधिमा इन दो सिद्धियों की सम्पूर्ण प्रतिष्ठा का परिचय मिल जाता है। . महिमा-सागर को पार करने के समय परीक्षाकारिणी मुरसा के साथ प्रतियोगिता में मारुति ने अपने शरीर को क्रमशः उससे प्रायः सौ योजनों तक विस्तृत किया था (अध्यात्मरामायण ॥१२२०; वाल्मीकीय रामायण ५।११ १६५) और जब हनुमान जी ने ‘वानर-सेनाओं के साथ पाकर श्रीराम राक्षस मंडित लंका को क्षणभर में भस्म कर देंगे’-ऐसी बात कही, तब जानकीजी ने पूछा- “हे कपे! तुम तो अत्यन्त लघुशरीरवाले हो और अन्य वानर-भालू भी तो तुम्हारे ही समान लघुकाय होंगे, फिर वे ऐसे बलिष्ठ विशाल शरीरधारी राक्षसों से कैसे लड़ेंगे?” सीताजी द्वारा ऐसा सन्देह व्यक्त किये जाने पर महावीर मारुति ने उन्हें आश्वस्त कराते हुए अपने को स्वर्ण शैल के समान विशाल बना कर अपनी अतुल शक्ति का परिचय दिया (अध्यात्म रामायण ५।३।६४-1)।
१. इन दोनों अवसरों पर इनका क्रमिक वर्धमान शरीर विशालता के कारण अनन्त आकाश में मानो समावेश नहीं पा रहा था। १. गरिमा-एक बार हनुमान जी गन्धमादन के एक भाग में अपनी पंछ फलाकर स्वच्छन्द पड़े थे मोर भीमसेन उसको हटा न सके (महाभारत ३।१४७१ १५-१६,१६-२०)।
प्राप्ति-‘प्राप्ति’ सिद्धि के प्रतिष्ठित होने पर साधक योगी को इच्छित वांछित पदार्थ मिल जाता है। श्रीमती सीताजी का अन्वेषण सर्वप्रथम इन्होंने ही किया [अध्यात्मरामायण ।२।६-११] ।
… ‘प्राकाम्य-‘प्राकाम्य’ सिद्धि की प्रतिष्ठा होने पर साधक जिस वस्तु की .. इच्छा करता है, वह उसे प्रचिर उपलब्ध हो जाती है। श्रीरामजी ने उनकी अनन्य भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें मनपायिनी भक्ति का वर प्रदान किया [वाल्मीकीय रामायण ७।४०।१५:२४; अध्यात्म रामायण ६।१६।१०-१४-1] ।
ईशित्व-हनूमानजी भगवान् श्रीराम की वानर-भालुओं की सेना का सम्यक् संचालन करनेवाले सफल सेनानायक थे और साथ ही परमभक्त भी ये, अतः ईशित्व-सिद्धि का भी प्रतिष्ठित रूप महावीरजी में साक्षात् दृष्टिगोचर होता है। .
वशित्व-वशित्व-सिद्धि के प्रतिष्ठित हो जाने पर व्यक्ति में प्रात्मजयित्व भी स्वत: सिद्ध हो जाता है। हनुमान जी अखण्ड ब्रह्मचारी एवं पूर्ण जितेन्द्रिय थे (रामरक्षास्तोत्र ३३) अत: अतुलित बलधामता उनमें निरन्तर विद्यमान रहती है। बल-पुरुषार्थ महामारुति के शारीरिक, मानसिक और यात्मिक वल की इयत्ता न थी। वे देव, दानव और मानव प्रादि समस्त प्राणियों के लिए अजेय थे । वे कभी किसी से पराजित नहीं हुए, न कभी पाहत ही हुए। यद्यपि एक वार मेघनाद ने इन्हें बन्धन में डाल दिया था, परन्तु वहाँ इनके बंध जाने का कारण कुछ पौर ही था। जब मेघनाद ने इनपर ब्रह्माजी के द्वारा प्रदत्त अस्त्र चलाया, तब उस ब्रह्मास्त्र का महत्त्व रखने के लिए ही स्वयं उसमें बंध गये थे। यदि वे चाहते तो उस ब्रह्मास्त्र को भी व्यर्थ कर देते, पर ऐसा न करने में दो कारण थे-प्रथम यह कि यदि वह अस्त्र विफल हो जाता तो जगत्स्रष्टा को अपार महिमा मिट जाती।
जाम्बवान् के मादेश पर ये हिमालय से प्रोषधियुक्त पर्वत को ही उठा लाये, जिससे उन प्रोषधियों के प्रयोग से मूच्छित श्रीराम, लक्ष्मण तथा समस्त वानर पुन: स्वस्थ हो गये। लक्ष्मणजी के मूछित हो जाने पर जव श्रोग्रेस विलाप करने लगे, तव सुषेण के आदेशानुसार हनुमान जी पुनः हिमालय से प्रोपधियुक्त पर्वत ले आये और उसकी प्रोषधि प्रयोग से लक्ष्मण स्वस्थ हुए। [वाल्मीकीय रामायण ६।१०१३०] हनुमानजी का प्रोषधिज्ञान
हनुमान जी को प्रोषधियों का भी पर्याप्त ज्ञान प्रतीत होता है चाहे वह सुषेण या जाम्बवान् की भांति परिपक्व न रहा हो, अन्यथा इनकोसलाना के हेतु न भेजा जाता। श्री हनुमानजी वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् थे
सचिवोऽयं कपीन्द्रस्य सुप्रीवस्य महात्मन। तमेव का क्षमाणस्य ममान्तिकमिहागतः ॥२६॥
“सुमित्रानन्दन! ये महामनस्वी वानरराज सुग्रीव के सचिव हैं और उन्हीं के हित की इच्छा से यहाँ मेरे पास आये हैं ॥२६॥
लक्ष्मण ! इन शत्रुदमन सुग्रीव सचिव कपिवर हनुमान् से, जो वात के मर्म को समझनेवाले हैं, तुम स्नेहपूर्वक मीठी वाणी में बातचीत करो ॥२७॥
जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का अभ्यास नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान् नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता’ ॥२८॥
“सम्भापण के समय इनके मुख, नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सब अंगों से भी कोई दोष प्रकट हुमा हो, ऐसा कहीं ज्ञात नहीं हुआ ॥३०॥
इन्होंने थोड़े में ही बड़ी स्पष्टता के साथ अपना निवेदन किया है । रुक-रुककर अथवा शब्दों या अक्षरों को तोड़-मरोड़कर किसी ऐसे वाक्य का उच्चारण नहीं किया है, जो सुनने में कर्णकटु हो । इनकी वाणी हृदय में मध्यमा रूप से स्थित है और कण्ठ से बैखरी रूप में प्रकट होती है। अतः वोलते समय इनकी आवाज न बहुत धीमी रही है, न बहुत ऊँची । मध्यम स्वर में ही इन्होंने सब बातें कही हैं।।३१।।”
“ये संस्कार [व्याकरण के नियमानुकूल शुद्ध वाणी को संस्कार-सम्पन्न (संस्कृत) कहते हैं। और क्रम [शब्दोच्चारण की शास्त्रीय परिपाटी का नाम क्रम है। से सम्पन्न, ‘अद्भुत’, अविलम्बित [बिना रुके धाराप्रवाह रूप से बोलना प्रविलम्बित कहलाता है तथा हृदय को आनन्द प्रदान करनेवाली कल्याणमयी वाणी का उच्चारण करते हैं ॥३२॥
हृदय, कण्ठ और मूर्धा-इन तीनों स्थानों द्वारा स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त होनेवाली इनकी इस विचित्र वाणी को सुनकर किसका चित्त प्रसन्न न होगा! वध करने के लिए तलवार उठाये हुए शत्रु का हृदय भी इस अद्भुत वाणी से बदल सकता है । ३३॥”‘
हनुमान जी का ब्रह्मचर्य व प्रध्ययन ___हनुमान जी ने गोकर्ण के ऋषियों तथा सूर्य से सम्पूर्ण व्याकरण तथा वेद वेदाङ्ग का पूर्ण अध्ययन कर सम्पूर्ण विद्यानों और कला आदि में बृहस्पति की भांति पूर्ण योग्यता को प्राप्त किया। हनुमान जी प्रादर्श राजदूत
(श्री रामचन्द्रजी ने कहा कि:–)
. “एवं विधो यस्य दूतो न भवेत् पार्थिवस्य तु। सिद्धयन्ति हि कयं तस्य कार्याणां गतयोऽनघ ॥३४॥
“निष्पाप लक्ष्मण ! जिस राजा के पास इनके समान दूत न हो, उसके कार्यों की सिद्धि कैसे हो सकती है ॥३४॥ जिसके कार्यसाधक दूत ऐसे उत्तम गुणों से युक्त हों, उस राजा के सभी मनोरथ दूतों की बातचीत से ही सिद्ध हो जाते हैं ।।३।।
“संसार में ऐसा कौन है जो पराक्रम, उत्साह, बुद्धि, प्रताप, सुशीलता, मधुरता, नीति-अनीति के विवेक, गम्भीरता, चतुरता, उत्तम बल और धैर्य में हनुमान्जी से बढ़कर हो ॥४४॥ ये असीम शक्तिशाली कपिश्रेष्ठ हनुमान् व्याकरण का अध्ययन करने के लिए शङ्काएँ पूछने की इच्छा से सूर्य की ओर मुंह रखकर महान् ग्रन्य धारण किये उनके आगे-आगे उदयाचल से प्रस्ताचल तक जाते थे ॥४५।। इन्होंने सूत्र, वृत्ति, वार्तिक, महाभाष्य और संग्रह, इन सबका अच्छी तरह अध्ययन किया है। अन्यान्य शास्त्रों के ज्ञान तथा छन्दःशास्त्र के अध्ययन में भी इनकी समानता करनेवाला दूसरा कोई विद्वान् नहीं है ।।४६।। सम्पूर्ण विद्यानों के ज्ञान तथा तपस्या के अनुष्ठान में ये देवगुरु बृहस्पति की बरावरी करते हैं। व्याकरणों के सिद्धान्त को जानने वाले ये हनुमानजी आपकी कृपा से साक्षात् ब्रह्मा के समान आदरणीय होंगे ॥४७॥” हनुमान जी प्रनेकभाषाविद् थे
रावण की अशोकवाटिका में सीता की कुटिया के निकट वृक्ष पर छुपे हुए हनुमान जी मन ही मन विचार कर रहे थे कि मैं सीताजी से बातें किये बिना ही वापस चला जाऊँ, तो यह सीताजी, श्री रामचन्द्रजी तथा मेरे लिए भी बहुत बुरी बात होगी। यदि सीताजी के साथ वार्तालाप प्रारम्भ करूं तो किस भाषा में बोलू
“परन्तु ऐसा करने में एक बाधा है, यदि मैं द्विज की भांति संस्कृत वाणी का प्रयोग करूंगा तो सीता मुझे रावण समझकर भयभीत हो जाएंगी॥१८॥
ऐसी दशा में अवश्य ही मुझे उस सार्थक भापा का प्रयोग करना चाहिए, जिसे अयोध्या के आसपास की साधारण जनता बोलती है । अन्यथा इन सती-साध्वी सीता को मैं उचित आश्वासन नहीं दे सकता ॥१६॥”
” हनुमान जी सन्ध्याविधि भलीभांति जानते थे
सन्ध्याकालमनाः श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी। नदी चेमां शुमजला संध्यायें वरवणिनी॥४६॥
तस्याश्चाप्यनुरूपेयमशोकवनिका शुभा। शुमायाः पार्थिवेन्द्रस्य पत्नी रामस्य सम्मता ॥५०॥
यदि जीवति सा देवी ताराधिपनिभानना। प्रागमिष्यति सावश्पमिमां शीतजला नदीम् ॥५१॥
“यह प्रातःकाल की सन्ध्या (उपासना) का समय है। इसमें मन लगाने वाली और सदा सोलह वर्ष की ही अवस्था में रहनेवाली अक्षययौवना जनक कुमारी सुन्दरी सीता सन्ध्याकालिक उपासना के लिए इस पुष्पसलिला नदी के तट पर अवश्य पधारेंगी।।४६।। जो राजाधिराज श्री रामचन्द्रजी की समादरणीया पली है, उन शुभलक्षणा सीता के लिए यह सुन्दर अशोकवाटिका भी सब प्रकार से अनुकूल ही है ।।५०।। यदि चन्द्रमुखी सीतादेवी जीवित हैं तो वे इस शीतल जलवाली सरिता के तट पर अवश्य पदार्पण करेंगी ॥५१॥”” हनुमान जी की वीरता का कार्य-समुद्र को पार करना
क्या हनुमान जी ने समुद्र को तैरकर पार किया था या उड़कर पार किया था? यह एक विवादास्पद प्रश्न है। हनुमान जी सागर को तर करके गये थे
-[वाल्मीकीय रामायण, सुन्दरकाण्ड, सर्ग १] अर्थ-पर्वत के समान दृढ़ हनूमान् महावेगवान् (मानो वेगवान् वायु के पुत्र ही हों) वरुणालय (समुद्र) को तैरने लगे। पर्वतशिला की तरह सुन्दर दृढ़ अपनी (उरसा अर्थात्) छाती से समुद्र के तरंगों पर धक्का देते हुए महावेगवान् कपि तैरने लगे। (महान् सारे जल में) अर्थात् महासागर में लहरों के जाल को चीरते हए कपि शार्दूल उसी प्रकार (वेग से) तैरने लगे जैसेकि आकाश में फेंकी हुई कोई वस्तु (जा रही हो), वा द्यावापृथिवी-आकाश में चल रहे हों। उस समुद्र में मेरुमन्दर (पर्वतों) के समान उठे हुए तरंगों को गिनते हुए के समान महावेगवान् हनुमान् लांघ गया (तैर गया)। उस समय (उसके तैरने के) वेग से ऊपर को फैका हुआ जल मेघ के साथ आकाश में ऐसा शोभने लगा जैसाकि फैला हुआ शरद ऋतु का अभ्र वा बादल (हनूमान् के तैरने से पानी के छींटे बहुतायत से जो ऊपर उठते थे उन्हीं का समूह मेघवत् प्रतीत होता था। ऐसा भी ज्ञात होता है कि तैरने के समय मेघ भी छाये हुआ था)।
इस प्रकरण में बहुत-से श्लोक ऐसे भी हैं जिनसे प्रतीत होता है कि हनूमान् उड़ते हुए जाते थे, परन्तु उनका भावार्य यह है कि हनूमान् बड़े वेग से जाते थे। अंग्रेजी भाषा में भी “फ्लाई” शब्द जिसका अर्थ “उड़ना” है “विशेष शीघ्रता के साथ चलने” के अर्थ में भी प्रयुक्त हुना करता है । परन्तु “उड़ने” के तात्पर्य को न समझ पीछे से लोगों ने इस प्रकरण में बहुत-से श्लोक ऐसे भी प्रक्षिप्त कर दिये हैं जिनसे प्रतीत हो कि हनूमान् सचमुच आकाश में ही उड़ रहे थे। परन्तु हनूमान् मनुष्य थे पक्षी नहीं और बिना पंखवाले को अाकाश में उड़ना सृष्टि नियमविरुद्ध है (और वहाँ यह भी नहीं लिखा है कि हनूमान् किसी प्राकाश यान पर जा रहे थे) अत: यही सिद्ध होता है कि समुद्र में हनूमान् के बड़े वेग से तैरने को ही उड़ने के साथ उपमा दी है। हनूमान् लंका से लौटते हुए भी समुद्र तैरकर ही भारत में पाये। हनूमान् के इस तैरने का इस प्रकार वर्णन किया गया है
[सुन्दरकाण्ड ५७।६] अर्थात-समगति से जानेवाले बिना थके हुए हनूमान् अपार सागर (अपार सागर के जल को) पाहत करते हुए नील मेघजाल की तरह समुद्रजाल को काटते हुए जाने लगे।
महाशय सी० वी० वैद्य, एम० ए० ने जो यह लिखा है कि हनूमान् समुद्र फांदकर भारत से लंका गये वह सर्वथा अयुक्त है।…”
ब्रह्मचारी पं० प्रखिलानन्दजी, झरिया ने उपर्युक्त सुन्दरकाण्ड के श्लोकों द्वारा हनुमान जी का समुद्र में तैरना ही अर्थ किया है।’ हनुमान जी प्रादि वानर किसको सन्तान थे?
यदि वानर लोग बन्दरों की सन्तान थे, तो इनके हनूमान्, वाली, सुग्रीव, अंगद आदि नाम किसने रक्खे या रखवाये थे? क्या आजकल भी बन्दरों में बच्चों के नामकरण-संस्कार कराये जाते हैं, और क्या वन आदि में स्वतन्त्र स्वच्छन्द विचरण करनेवाले बन्दरों के व्यक्तिगत पृथक्-पृथक् नाम होते हैं ? अथवा ये लोग उस समय के मनुष्यों के पालतू बन्दर थे जो उन पालनेवालों ने इनके नाम रख लिये हों । अध्ययनशील सज्जन जानते हैं, ऐसा कुछ नहीं था। इसलिए सीधा समझ में आता है कि इनके माता-पिता भी सभ्य और सुशिक्षित मनुष्य ही होंगे जिन्होंने इनके नाम रक्खे या रखवाये। . क्या वानर क्षत्रिय थे?
– श्री दुर्गाप्रसाद ‘सनातनी’ लिखते हैं-.”सम्पूर्ण वानर जाति क्षत्रियों की एक उच्चकोटि की जाति थी। उनमें बड़े-बड़े शूरवीर राजे-महाराजे, बड़े-से-बड़े शिल्प-इंजीनियर, महाबलशाली शूरवीर, वेदों व व्याकरण के उद्भट विद्वान्, वायुसेना के चालक व महायोगी हुए हैं ।”३
श्री ईश्वरी प्रसाद ‘प्रेम’ एम० ए०, सिद्धान्तशास्त्री, सम्पादक ‘तपोभूमि’ लिखते हैं :-“सम्पूर्ण वानरजाति क्षत्रियों की एक उच्चकोटि की जाति थी, उनमें बड़े-बड़े शूरवीर राजे-महाराजे, बड़े-से-बड़े शिल्पी (इंजीनियर), महाबल शाली शूरवीर, वेदों व व्याकरण के उद्भट विद्वान्, वायुसेना के चालक, तथा महायोगी विद्यमान थे।” वानर को व्युत्पत्ति व अर्य “वानरः पुं०-स्त्री० (वा विकल्पिनो नरः; यद्वा वाने वने भवं फलादिकं रातीति । वान+रा+क) पशुविशेषः, कपिः, प्लवङ्गः, प्लवगः, शाखामृगः, वलीमुखः; मर्कट, कोश:, वनौका:, मर्कः, प्लवः, प्रवङ्गः, प्रवग:, प्लवङ्गमः, प्रवङ्गमः, गोलाङ्गलः, कपित्यास्यः, दधिशोणः, हरिः, तरुमृगः, नगाटन:, झम्पी, झम्पारु:, कलिप्रिय:, किखिः, शालावृक:।” पं० वामन शिवराम प्राप्टे
– “वानरः (वानं वनसंबंधि फलादिकं राति गृहति-रा+क, वा विकल्पेन नरो वा) वन्दर, लंगूर ।…” चतुर्वेदी पं० द्वारका प्रसाद शर्मा, एम०पार० ए० एस० व पं० तारिणीश झा व्याकरण-वेदान्ताचार्य:
“महात्मा, ऋपि, सिद्ध, विद्याधर, नाग और चारणों ने भी वन में विचरने वाले वानर-भालुनों के रूप में वीर पुत्रों को जन्म दिया।”
इससे स्पष्ट होता है कि वानर-भाल आदि ऋषियों को सन्तान हैं।
‘वनचारी’ का अर्थ है “वन में रहनेवाला”, वन में विचरण करनेवाला और वन के फलादि खानेवाला।
जिस भाव से उनको वनचारी कहा गया है उसी भाव से ‘वानर’ कहा जाता है।
अतः ‘वानर’ और ‘वनचारी’ एक ही हैं। “वानर-यानसम्बन्धि फलादिकं राति गृह्णाति”. .
। -शब्दस्तोममहानिधिकोष)
१. अमरकोषः ‘सुधा’ संस्कृत-हिन्दी व्याख्योपेतः (द्वितीयं काण्डम), पृष्ठ ६४
[सन् १९७६ ई० में मोतीलाल बनारसीदास, चौक, वाराणसी-१ द्वारा
प्रकाशित, द्वितीय संस्करण] २. वही, पाद-टिप्पणी पृष्ठ ९४ ३. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, प्रथम भाग, पृष्ठ ६५
जो वन के कन्दमूल फल खाते हैं वे वानर हैं।
‘वा-गति गन्धनयोः=”वा धातु गति और गन्धन अर्थ में है.मीर गति के तीन अर्थ हैं-ज्ञान, गमन और प्राप्ति । जो गतिशील नर हैं, गमनशील (तीव्र गति से चलनेवाले, दौड़नेवाले) हैं और जो प्राप्ति करने में सफल मनुष्य हैं वे ‘वानर’ कहे जा सकते हैं।
रामायण में वानरों के लिए इन शब्दों का प्रयोग वानर शब्द के स्थान में उससे मिलता-जुलता-सा होने के कारण श्लोकों में जहां ‘वानर’ शब्द से छन्दो भङ्ग होते देखा वहाँ कर लिया गया। वैसे ‘प्लव’ के अर्थ “शब्दस्तोममहानिधि” में मेंढक, वानर, श्वपच, जलकाक प्रवण, (चतुष्पथ चौराहा, नीचा स्थान, उदर, नम्र) पायत दीर्घ, खिचा हुना (प्राकृष्ट), अति यत्नशाली, स्निग्ध, कारण्डव पक्षी, शब्द, शत्रु, जलभेद, जलकुक्कुट, जलचर पक्षी सारसादि दिये गये हैं। देखिए-प्लव, प्रवण और आयत शब्दों के अर्थ।
लवग’ का अर्थ-‘प्लवनसन् गच्छति’ पानी पर तैरता हुमा-सा चलना दिया है। यही अर्थ ‘प्लवङ्गम’ का है।
वानर लोग बहुत फुर्तीले, चुस्त, दौड़ने-भागने, शीघ्रता से कार्य करने में अति प्रवीण होते थे। कवि ने अपने काव्य में उनको ‘प्लवङ्गम’ कह दिया तो क्या आश्चर्य है ?
शूरवीर मनुष्य को सिंह, सिंहपुरुप, नृसिंह, व्याघ्रपुंगव, पुरुषर्षभ आदि कहा जाता है । क्षत्रियों की वीरता के कारण उनके नामों के अन्त में ‘सिंह’ उपाधि है।
श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन को “भरतर्षभ’ कहा है। ऋषभ बैल होता है तो इसका अर्थ ‘भरतकुलवालों का बैल’ होना चाहिए, पर ‘भरतकुल का वीर बलवान् व्यक्ति’ ही सही अर्थ है। । ‘कपि’ शब्द के अर्थ=”कपिः, पु० [कम्पते यः सदा। कपि चलने ‘कुण्डित कम्प्योन लोपश्च’ इति इ प्रत्ययः] वानरः”वराहः, रक्तचन्दनं, पिङ्गलम… [कं जलं पिबति किरणः इति कपिः सूर्यः’-इत्युपनिषद्व्याख्यां रामानुजाचार्याः”
‘कपि’ का अर्थ ‘सूर्य’ होने से ‘सूर्यवंशी क्षत्रिय कपिवंशी भी कहला सकते हैं। _ ‘वृहदारण्यकोपनिषद्’ अध्याय २, ब्राह्मण ६, वाक्य ३ “केशोर्य काप्यः” कपिवंशी कशोर्य ऋषि का उल्लेख है।
वृहदारण्यकोपनिषद् अध्याय ३, ब्राह्मण ३, कंडिका १ में व अध्याय ३, ब्राह्मण ७, पंडिका १ में “पतञ्जलस्य काप्यस्य’ =पतंजल कपिवंशी का उल्लेख है। कपिवंशी लोगों को कहीं ‘कापेय’ तथा ‘काप्य’ कहा गया होगा और कहीं कपि। वानरों की उत्पत्ति
“देवराज इन्द्र ने वानरराज बाली को पुत्ररूप में उत्पन्न किया, जो महेन्द्र पर्वत के समान विशालकाय और बलिष्ठ था। तपनेवालों में श्रेष्ठ भगवान सूर्य ने सुग्रीय को जन्म दिया ।।१०।। बृहस्पति ने तार नामक महाकाय वानर को उत्पन्न किया, जो समस्त वानर सरदारों में परम बुद्धिमान् और श्रेष्ठ था ।।११।। तेजस्वी वानर गन्धमादन कुबेर का पुत्र था। विश्वकर्मा ने नल नामक महान्
वानर को जन्म दिया ॥१२॥ अग्नि के समान तेजस्वी श्रीमान् नील साक्षात् अग्निदेव का ही पुत्र था। वह पराक्रमी वानर तेज, यश और बलवीर्य में सबसे बढ़कर था॥१३॥ रूप-वैभव से सम्पन्न, सुन्दर रूपवाले दोनों अश्विनीकुमारों ने स्वयं ही मैन्द और द्विविद को जन्म दिया था।।१४। वरुण ने सुपेण नामक वानर को उत्पन्न किया और महावली पर्जन्य ने शरभ को जन्म दिया ॥१५॥ हनूमान् नामवाले ऐश्वर्यशाली वानर वायुदेवता के पोरस पुत्र थे । उनका शरीर वज़ के समान सुदृढ़ था। वे तेज चलने में गरुड़ के समान थे। सभी श्रेष्ठ वानरों में वे सबसे अधिक बुद्धिमान् और बलवान् थे । इस प्रकार कई हजार वानरों की उत्पत्ति हुई। वे सभी रावण का वध करने के लिए उद्यत रहते थे ॥१७॥” क्या वानरों की माताएँ बदरियां थीं?
इन्द्र, सूर्य, बृहस्पति, कुबेर, विश्वकर्मा, अग्नि, अश्विनीकुमार, वरुण, पर्जन्य व वायु, ये सव विशिष्ट पुरुप थे, सबकी ही प्रायः पलियां थीं, सब ही के पुत्र थे। इनमें कई राजा थे, कई ऋपि थे। इन नामों और पदोंवाले व्यक्ति सृष्टि के प्रारम्भ से महाभारत काल तक के इतिहासों में मिलते हैं। पशुनों प्रादि से मैथुन करना धर्मशास्त्र के अनुसार भी पाप है और राज नियमों में दण्डयोग्य अपराध है । वर्तमान विधानों के अनुसार भी पशुनों से मैथुन करनेवालों के लिए दण्ड नियत है, अतः ऋषियों ने पशुओं से मैथुन करके यह पापकर्म मौर अपराध कदापि नहीं किया होगा। इससे स्पष्ट है कि हनुमान जी आदि की माताएँ बन्दरियां नहीं हो सकती हैं।
। “समानप्रसवात्मिका जातिः” ॥७॥
– -न्यायदर्शन प्र० २, प्राह्निक २] पं० तुलसीराम स्वामी
“द्रव्यों में प्रापस का भेद होते हुए भी जिसमें समान प्रसवपना पाया जाता है वह जाति है।”
१. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण (सचित्र, हिन्दी भाषान्तर सहित) प्रथम भाग,
पृष्ठ ६५-६६ . २. “न्यायदर्शन भाषा भाष्य” पृष्ठ ६४ [स्वामी प्रेस, मेरठ द्वारा मुद्रित व
प्रकाशित, सप्तम वार] ..–. : प्रर्थात् एक जाति के नर व मादा मिलकर उसी जाति की सन्तान उत्पन्न
करते हैं । मनाम व पशु मिलकर सन्तानोत्पत्ति नहीं कर सकते हैं। यह सृष्टिक्रम के विरुद्ध है।
ऋक्षीषु च तथा जाता वानराः किन्नरीषु च । … देवा :महषिगन्धर्वास्ताक्ष्ययक्षा यशस्विनः ॥२१॥
“चारणाश्च सुतान् वीरान् ससृजुर्वनचारिणः । वानरान् सुमहाकायान् सर्वान् वै वनचारिणः ॥२३॥ अप्सरस्सु च मुख्यासु तथा विद्याधरीषु च । नागकन्यासु च तथा गन्धर्वोणां तनूषु च । कामरूपबलोपेता यथाकामविचारिणः॥२४॥”
अप्सरस्सु च मुख्यासु तथा विद्याधरीषु च । नागकन्यासु च तथा गन्धर्वोणां तनूषु च । कामरूपबलोपेता यथाकामविचारिणः॥२४॥”
“कुछ वानर रीछ जाति की माताओं से तथा कुछ किन्नरियों से उत्पन्न हुए। देवता, महर्षि, गन्धर्व, गरुड़, यशस्वी यक्ष, नाग, किम्पुरुष, सिद्ध, विद्याधर तथा सर्प जाति के बहुसंख्यक व्यक्तियों ने अत्यन्त हर्प में भरकर सहस्रों पुत्र उत्पन्न किये ॥२१-२२।। देवताग्गों का गुण गानेवाले वनवासी चारणों ने बहुत-से वीर, विशालकाय वानरपुत्र उत्पन्न किये। वे सव जंगली फल-मूल खानेवाले थे॥२३।। मुख्य-मुख्य अप्सरानों, विद्याधरियों, नागकन्याओं तथा गन्धर्व-पत्नियों के गर्भ से भी इच्छानुसार रूप और बल से युक्त तथा स्वेच्छानुसार सर्वत्र विचरण करने में समर्थ वानरपुत्र उत्पन्न हुए ॥२४॥
उपर्युक्त जो नाम लिये गये हैं ये सब मनुष्यवर्ग के नाम हैं, बन्दर-बन्दरियों के नहीं हैं। __ अत: वानर बर्बर नहीं वरन् ऋषि-मुनियों की सन्तान हैं। वानर लोग अपने-अपने पितानों के रूपवाले ही थे
जिस देवता का जैसा रूप, वेप और पराक्रम है, इससे के समान : पृथक्-पृथक् पुत्र उत्पन्न हुआ। लंगूरों में जो देवता हुए, वे देवावस्य। की अपेक्षा भी कुछ अधिक पराक्रमी थे ॥१६-२०॥
“सुग्रीव ने लंगोट से अपनी कमर खूब कस ली और बाली को बुलाने के लिए भयंकर गर्जना की। वेगपूर्वक किये हुए उस सिंहनाद से मानो वे आकाश को फाड़े डालते थे ।।१। ।
कुछ लोग ‘कटिवस्त्र’ का अर्थ (फेटा) भी करते हैं।
यहाँ सुग्रीव को कमर में ‘लंगोट’ या कटिवस्त्र कसकर बांधे हुए बतलाया गया है।
राजस्थान के क्षत्रिय अब भी कमर में ‘पटुका’ (कमर में बांधने का वस्त्र विशेष, कमरबन्द, कमरपेच) बांधते हैं। सिपाहियों की कमर में पेटी आदि सर्वत्र ही बांधी जाती है। कमर कसकर खड़े हो जाने की लोकोक्ति भी प्रसिद्ध है। सुग्रीव ने भी बाली से युद्ध करने के लिए कपड़े से कमर कसी हुई थी।
ब्रह्मचारी पं०अखिलानन्द जी, झरिया ने पूर्वोक्त स्थल का अर्थ यह किया है-“बाली को बुलाने के लिए कमर कसफर सुग्रीव ने भयंकर पोर गर्जना करना प्रारम्भ कर दिया जिसकी ध्वनि से प्राकाश गुञ्जायमान हो गया।”
“इतने ही में श्रीमान् बाली ने सुवर्ण के समान पिंगल वर्णवाले सुग्रीव को देखा जो लंगोट बांधकर युद्ध के लिए उठकर खड़े थे और प्रज्वलित अग्नि के – समान प्रकाशित हो रहे थे।
बालब्रह्मचारी पं० अखिलानन्द जी, झरिया
“विशाल भुजावाले बाली ने सुग्रीव को सब प्रकार से सन्नद्ध देखकर अत्यन्त .. क्रोध करते हुए अपने वस्त्रों को दृढ़ता के साथ बांधा।”
“ऐसा कहकर वानरराज बाली ने निर्भयतापूर्वक मुझे घर से निकाल दिया। उस समय मेरे शरीर पर एक ही वस्त्र रह गया था।”
यहाँ ‘वस्त्रेणकेन’ एक वस्त्र से निकाला जाना यह सूचित करता है कि वानर लोग धोती के अतिरिक्त अंगरखा, दुपट्टा आदि अनेक वस्त्र पहनते थे। सुग्रीव के गीले वस्त्र वाली की अन्त्येष्टि क्रिया (दाहसंस्कार) करने के बाद सुग्रीव गीले वस्त्र धारण किये हुए था और उसने सचैल स्नान किया था ऐसा कहा गया है
“तदनन्तर वानर सेना के प्रधान-प्रधान वीर (हनूमान् आदि) भीगे वस्त्रवाले शोक-संतप्त सुग्रीव को चारों ओर से घेरकर उन्हें साथ लिये न कर्म करनेवाले महावाहु श्रीराम की सेवा में उपस्थित हुए हनुमान जी के श्वेत वस्त्र
“तव शाखा के भीतर छिपे हुए, विद्युत्पुज के समान् अत्यन्त पिङ्गल वर्ण वाले और श्वेत वस्त्रधारी हनुमान जी पर उनकी दृष्टि पड़ी:”२
कुछ वन्दर वर्तमानकाल में भी वस्त्र धारण किये हुए देखे जाते हैं। वन्दर नचानेवालों के पास जो बन्दर होते हैं वे वस्त्र धारण किये हुए होते हैं। वास्तव में ये वन्दर स्वयं वस्त्र नहीं धारण करते वरन् उनके पालक बलपूर्वक धारण कराते हैं। वानर लोग प्राभूषण पहनते थे, सोना व्यवहार में लाते थे
सुग्रीव ने वाली के बल-पौरुष का वर्णन करते हुए श्री रामचन्द्रजी को दुन्दुभी दैत्य के साथ वाली के मल्लयुद्ध की कथा सुनाते हुए कहा
-(वाल्मीकीय रामायण, किष्किन्धाकाण्ड, सर्ग १४) साहित्याचार्य पं० रामनारायणदत्त शास्त्री राम
“इसलिए सुग्रीव ! तुम सुवर्णमालाधारी बाली को बुलाने के लिए इस समय ऐसी गर्जना करो, जिससे तुम्हारा सामना करने के लिए वह वानर नगर से बाहर निकल पाये।”३
बाली सोने की माला धारण करता था यह यहाँ स्पष्ट है । प्रागे किष्किन्धा काण्ड, सर्ग १६ श्लोक १८ में “वालिनं हेममालिनम्” आया है जिसका अर्थ है “सुवर्ण मालाधारी बाली।”
सर्ग १७ श्लोक २ में बाली के लिए माया है-‘कांचनभूषणः-तपाये हुए सोने के आभूषण ।’
सर्ग १७ श्लोक ६ में बाली के लिए-“मालया वीरो हैमया हरियूथपः” उस सुवर्णमाला से विभूषित हुया यानरयूथपति ।”…
मरते हुए बाली ने सुग्रीव से कहा-“इमां च मालामाधत्स्व दिव्यां सुग्रीव कांचनीम्”-(किष्किन्धाकां०, सगं २२ श्लोक १६) हे सुग्रीव ! मेरी यह सोने की दिव्य माला तुम धारण करलो।” वानरों के सोने व चांदी के पलंग
अर्थ-उसमें जहां-तहां चांदी और सोने के बहुत-से पलंग तथा अनेकानेक श्रेष्ठ प्रासन रखे हुए थे और उन सबपर बहुमूल्य बिछौने विछे थे। उन सबसे वह अन्तःपुर सुसज्जित दिखाई देता था।” सुग्रीव के भूषण
श्री रामचन्द्रजी ने सुग्रीव को अपने बल और अपनी धनुविद्या का परिचय देने के लिए एक ही बाण से सात तालवृक्षों को काट कर गिरा दिया तब
स मूर्ना न्यपतद् भूमौ प्रलम्बीकृतभूषणः। सुग्रीवः परमप्रीतो राघवाय कृताञ्जलिः॥६॥
-[वाल्मीकीय रामायण, किष्किन्धाकाण्ड, सर्ग १२]
अर्थ-“साथ ही उन्हें मन-ही-मन बड़ी प्रसन्नता हुई। सुग्रीव ने हाय जोड़ कर धरती पर माथा टेक दिया और श्री रघुनाथजी को साष्टाङ्ग प्रणाम किया। प्रणाम के लिए झुकते समय उनके कण्ठहारादि भूषण लटकते हुए दिखाई देते थे।”
सुग्रीव व बाली जब गुत्थमगुत्था हो गये और बाली का कठोर मुक्का न सहकर जब सुग्रीव भागा और श्रीरामचन्द्रजी से उसने कहा कि आप तो कहते थे कि मैं बाली को मारूंगा, मापने उसे क्यों नहीं मारा और मुझको उससे पिटवा दिया। इसपर श्रीरामचन्द्र जी ने वाली को न मारने का कारण यह बताया
“प्रलंकारेण वेषेण प्रमाणेन गतेन च।। त्वं च सुग्रीव वाली च सदशौ स्यः परस्परम्”॥३०॥
-वाल्मीकीय रामायण, किष्किन्धाकाण्ड सर्ग १२]
अर्थ-‘सुग्रीव ! वेशभूषा, कद और चाल ढाल में तुम और वाली दोनों एक-दूसरे से मिलते-जुलते हो।”
यहाँ ‘भूषणों =अलंकारों’ को चर्चा है। तारा के प्राभूषण
सा प्रस्खलन्ती मदविह्वलाक्षी,
प्रलम्बकाञ्ची गणहेमसूत्रा।
सलक्षणा लक्मणसंनिधानं,
जगाम तारा नमिताङ्गयष्टिः॥३८॥
[वाल्मीकीय रामायण, किष्किन्धाकाण्ड, सर्ग ३३]
अर्थ-“सुग्रीव के ऐसा कहने पर शुभलक्षणा तारा लक्ष्मण के पास गई। उसका पतला शरीर स्वाभाविक संकोच एवं विनय से झुका हुआ था। उसके नेत्र मद से चञ्चल हो रहे थे, पर लड़खड़ा रहे थे और उसकी करधनी के सुवर्णमय सूत्र लटक रहे थे।”
सुप्रीव के दिव्य लाभूषण
(श्री लक्ष्मणजी ने सुग्रीव को देखा)
दिव्यामरणचित्राङ्गदिव्यरूपं यशस्विनम्। र दिव्यमाल्याम्बरधरं महेन्द्रमिव दुर्जयम् ॥१४॥
-वाल्मीकीय रामायण, किष्किन्धाकांड, सर्ग ३३]
अर्थ-“उस समय दिव्य आभूषणों के कारण उनके शरीर की विचित्र शोभा हो रही थी। दिव्य रूपधारी यशस्वी सुग्रीव दिव्य मालाएं और दिव्य वस्त्र धारण करके दुर्गम वीर देवराज इन्द्र के समान दिखाई दे रहे थे।” सुग्रीव के अन्तःपुर की महिलाओं के प्राभूषण पण श्री लक्ष्मणजी ने सुग्रीव के भवन में स्त्रियों को देखा
बह्वीरव विविधाकारा रूपयोवनविताः। स्त्रियः सुग्रीवभवने ददर्श स महाबलः॥२२॥
अर्थ-“महाबली लक्ष्मण ने मुग्रीव के उस अन्तपुर में अनेक रूप-रंग की वहत-सी सुन्दरी स्त्रियाँ देखी, जो रूप और यौवन के गवं से भरी हई थीं ॥२२॥ समय-की-सब उत्तम कुल में उत्पन्न हुई थीं। फूलों के गजरों से अलंकृत थीं,
उत्तम पुष्पहारों के निर्माण में लगी हुई थीं और सुन्दर आभूषणों से विभूषित थीं।।२३।।
नूपुरों की झनकार और करधनी की खनखनाहट सुनकर श्रीमान् मुमित्राकुमार लज्जित हो गये (परायी स्त्रियों पर दृष्टि पड़ने के कारण उन्हें स्वभावतः संकोच हुआ) ॥२५।। तत्पश्चात् पुनः आभूषणों की झनकार सुनकर लक्ष्मण रोष के आवेग से और भी कुपित हो उठे और उन्होंने अपने धनुष पर टंकार दी, जिसकी ध्वनि से समस्त दिशाएं गूंज उठीं।” ॥२६॥
अर्थ-“उन सबको देखकर लक्ष्मण ने सुग्रीव के सेवकों पर भी दृष्टिपात किया, जो अतृप्त या असन्तुष्ट नहीं थे। स्वामी के कार्य सिद्ध करने के लिए अत्यन्त फुर्ती की भी उनमें कमी नहीं थी तथा उनके वस्त्र और आभूषण भी निम्न श्रेणी के नहीं थे”॥२४॥
वानर राज्य में मन्त्रिमण्डल
श्रीरामचन्द्रजी व लक्ष्मणजी को ऋष्यमूकपर्वत की ओर आते देखकर सुग्रीव, उसके अनुचरों और उसके मन्त्रिमण्डल को बहुत चिन्ता हो गई, क्योंकि वे सब बाली से बहुत भयभीत थे, अत: लिखा है
अर्थ-“वानरराज सुग्रीव के हृदय में बड़ा उद्वेग हो गया था। वे श्रीराम मौर लक्ष्मण की ओर देखते हुए अपने मन्त्रियों से इस प्रकार बोले ॥५॥ निश्चय ही ये दोनों वीर बाली के भेजे हए ही इस दुर्गम वन में विचरते हुए यहाँ पाये हैं। इन्हान छल से चीरवस्त्र धारण कर लिये हैं, जिससे हम इन्हें पहचान न सकें।६।। उधर सुग्रीव के सहायक दूसरे-दूसरे वानरों ने जब उन महाधनुर्धर श्रीराम और लक्ष्मण को देखा, तब वे उस पर्वततट से भागकर दूसरे उत्तम शिखर पर जा पहुंचे ॥७।। इस प्रकार सुग्रीव के सभी सचिव पर्वतराज ऋष्यमूक पर जा पहुंचे और एकाग्रचित्त हो उस वानरराज से मिलकर उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये ॥१२॥
अर्थ-“पाप सब लोग बाली के कारण होनेवाली इस भारी घबराहट को जोड दीजिए! यह मलयनामक श्रेष्ठ पर्वत है। यहां वाली से कोई भय नहीं है॥१॥
सौम्य ! आपको अपने जिस पापाचारी बड़े भाई से भय प्राप्त हुआ है, वह दुरात्मा बाली यहाँ नहीं पा सकता; अतः मुझे मापके भय का कोई कारण नहीं दिखाई देता ।।१६।।
हनुमान जी के मुख से निकले हुए इन सभी श्रेष्ठ वचनों को सुनकर सुग्रीव ने उनसे बहुत ही उत्तम बात कहो ॥१॥
इन दोनों वीरों की भुजाएं लम्बी और नेत्र बड़े-बड़े हैं। ये धनुष, बाण और तलवार धारण किये देवकुमारों के समान शोभा पा रहे हैं। इन दोनों को देखकर किसके मन में भय का संचार न होगा ।।२०।।
मेरे मन में सन्देह है कि ये दोनों श्रेष्ठ पुरुष वाली के ही भेजे हुए हैं। क्योंकि गजामों के बहुत-से मित्र होते हैं, अतः उनपर विश्वास करना उचित नहीं है ॥२१॥
प्राणिमात्र को छद्मवेष में विचरनेवाले शत्रुओं को विशेष रूप से पहचानने की चेष्टा करनी चाहिए, क्योंकि वे दूसरों पर अपना विश्वास जमा लेते हैं परन्तु स्वयं किसी का विश्वास नहीं करते और अवसर पाते ही उन विश्वासी पुरुषों पर ही प्रहार कर बैठते हैं ॥२२॥
अतः कपिश्रेष्ठ ! तुम भी एक साधारण पुरुष की भांति यहाँ से जानो और उनकी चेप्टानों से, रूप से तथा वातचीत के तौर-तरीकों से उन दोनों का यथार्थ परिचय प्राप्त करो॥२४॥
यदि उनका हृदय शुद्ध जान पड़े, तो भी तरह-तरह की बातों और प्राकृति के द्वारा यह जानने की विशेप चेष्टा करनी चाहिए कि ये दोनों कोई दुर्भावना लेकर तो नहीं पाये हैं ।।२७।।
वानरराज सुग्रीव के इस प्रकार प्रादेश देने पर पवनकुमार हनुमान जी ने उस स्थान पर जाने का विचार किया, जहाँ श्रीराम और लक्ष्मण विद्यमान थे ॥२८॥
हनुमान जी ने जब बहुत अच्छी तरह राम-लक्ष्मण का परिचय प्राप्त कर लिया और कुछ भी सन्देह शेष न रहा, तब श्रीरामचन्द्रजी को कहा कि–
अर्थ-“उनकी यह बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजी का मुख प्रसन्नता से खिल उठा । वे अपनी बगल में खड़े हुए छोटे भाई लक्ष्मण ने इस प्रकार कहने लगे।। २५॥
सुमित्रानन्दन ! ये महामनस्वी वानरराज सुग्रीव के सचिव हैं और उन्हीं के हित की इच्छा से यहाँ मेरे पास पाये हैं” ॥२६॥
सुग्रीव ने अपनी व्यथा सुनाते हुए श्रीरामचन्द्रजी को बतलाया कि मेरे अग्रज बाली ने एक दैत्य को मारने के लिए उसके पीछे एक पहाड़ी गुफा में प्रवेश किया। मैंने उसकी वहाँ बहुत प्रतीक्षा की, भ्राता तो वापस न पाये, रुधिर की धार बहती हुई बाहर पाई तो मैंने समझा कि मेरे भ्राता को उस दैत्य ने मार दिया। ऐसा समझकर मैं उस गुफा के द्वार पर एक बड़ा पत्थर लगाकर अपने नगर में मा गया।
“गृहमानस्य मे तत्त्वं यत्नतो मन्त्रिभिः श्रुतम् ॥२०॥
ततोऽहं तः समागम्य संमतरभिषेचितः” ॥२१॥
-[वाल्मीकीय रामायण, किष्किन्धाकांड, सगं ]
अर्थ-“यद्यपि मैं इस यथार्थ बात को छिपा रहा था, तथापि मन्त्रियों ने यल करके सुन लिया ।।२०।।
तब उन सबने मिलकर मुझे राज्य पर अभिषिक्त कर दिया” ॥२१॥
बाली के जीवित वापस पाने पर सुग्रीव ने उससे कहा कि
“तस्माद्देशावपाक्रम्य किष्किन्धां प्राविशं पुनः । विषावात्त्विह मां दृष्ट्वा पौरमन्त्रिभिरेव च ॥६।।
अभिषिक्तो न कामेन तन्मे त्वं क्षन्तुमर्हसि । त्वमेव राजामानाहः सदा चाहं ययापुरम् ॥७॥
अर्थ-“मैं उस स्थान से हट गया पौर पुनः किष्किन्धापुरी में चला पाया। यहाँ विषादपूर्वक मुझे अकेला लौटा देख पुरवासियों और मन्त्रियों ने ही इस राज्य पर मेरा अभिषेक कर दिया ॥६॥
मैंने स्वेच्छा से इस राज्य को नहीं ग्रहण किया है। अतः अज्ञानवश होनेवाले मेरे इस अपराध को पाप क्षमा करें ॥६॥
आप ही यहां के सम्माननीय राजा हैं और मैं सदा पापका पूर्ववत् सेवक हूँ॥७॥
मन्त्रियों तथा पुरवासियों ने मिलकर जबर्दस्ती मुझे इस राज्य पर बिठाया है ।।१०।।
यह भी इसलिए कि राजा से रहित राज्य देखकर कोई शत्रु इसे जीतने की इच्छा से अाक्रमण न कर बैठे” ॥११॥
मेरे ऐसा कहने पर भी बाली ने
“प्रकृतीश्च समानीय मन्त्रिणश्चव संमतान् ।१२॥ मामाह सुहृदां मध्ये वाक्यं परमगहितम्”।
-वाल्मीकीय रामायण, किष्किन्धाकांड, सर्ग १०]
अर्थ-“तत्पश्चात् उसने प्रजाजनों और सम्मान्य मन्त्रियों को बुलाया तथा सुहृदों के बीच में मेरे प्रति अत्यन्त निन्दित वचन कहा” ॥१२॥
इन उपर्युक्त प्रमाणों से वानरों की राज्य-व्यवस्था का पता चलता है कि उनके राज्य में विधिवत् मन्त्रिमण्डल होते थे और मन्त्रियों द्वारा विचार-विमर्श किये जाते थे। वानरों के अनुचर (सेवक) भी थे
नातृप्तान्नापि च व्यप्रान्नानुदात्तपरिच्छदान् । – सुग्रीवानुचश्चिापि लक्षयामास लक्ष्मणः॥२४॥
-वाल्मीकीय रामायण, किष्किन्धाकांड, सर्ग ३३]
अर्थ-“उन सबको देखकर लक्ष्मण ने सुग्रीव के सेवकों पर भी दृष्टिपात किया, जो अतृप्त या असन्तुष्ट नहीं थे। स्वामी के कार्य सिद्ध करने के लिए अत्यन्त फुर्ती की भी उनमें कमी नहीं थी तथा उनके वस्त्र प्रोर आभूषण भी निम्न श्रेणी के नहीं थे” ॥२४॥
वानरों के गुप्तचर विभाग :
– तारा ने बाली को कहा कि तुम सुग्रीव से युद्ध करने के लिए इस समय मत जामो, इस समय सुग्रीव अकेला नहीं है
अर्थ-“एक दिन कुमार अङ्गद वन में गये थे। वहाँ गुप्तचरों ने उन्हें एक समाचार बताया, जो उन्होंने यहां आकर मुझसे भी कहा था ।।१६।।
वह समाचार इस प्रकार है-अयोध्या-नरेश के दो शूरवीर पुत्र, जिन्हें युद्ध में जीतना अत्यन्त कठिन है, जिनका जन्म इक्ष्वाकुकुल में हुआ है तथा जो श्रीराम और लक्ष्मण के नाम से प्रसिद्ध हैं, यहां वन में आये हुए हैं ।।१७।।
वे दोनों दुर्जय हैं और सुग्रीव का प्रिय करने के लिए उनके पास पहुंच गये हैं। उन दोनों में से जो आपके भाई के युद्धकर्म में सहायक बताये गये हैं, वे श्रीराम शत्रुसेना का संहार करनेवाले तथा प्रलयकाल में प्रज्वलित हुई अग्नि के समान तेजस्वी हैं । वे साधु पुरुषों के आश्रय दाता कल्पवृक्ष हैं और संकट में पड़े हुए प्राणियों के लिए सबसे बड़ा सहारा हैं”।।१८-१६॥
बाली ने गुप्तचरों की सूचना से लाभ न उठाया यह तो उसकी भूल है, पर इसमें कुछ सन्देह नहीं कि उस वानर राज्य में गुप्तचर होते थे जोकि जानने योग्य सब-कुछ जान लेते थे और अपने स्वामी को पूरा परिचय कराते थे। वानर लोग वेदों और शास्त्रों के विद्वान थे–
अर्थ–“वानरश्रेष्ठ वीर सुग्रीव इस समृद्धिशालिनी दिव्य गुफा में प्रवेश करें और वहाँ शीघ्र ही इनका विधिपूर्वक राज्याभिषेक कर दिया जाए।”
जो लोग विधि नहीं जानते, वे विधि के साथ किसी भी कार्य को नहीं कर सकते हैं। विधि के जाननेवाले ही विधिपूर्वक कार्य कर सकते हैं, अतः स्पष्ट है कि वानर लोग राज्याभिषेक की शास्त्रोक्त विधि को जानते थे, जैसा कि आगे और भी स्पष्ट है । यथा
अर्थ-“तदनन्तर उन सबने श्रेष्ठ ब्राह्मणों को नाना प्रकार के रत्न, वस्त्र और भक्ष्य पदार्थों से सन्तुष्ट करके वानरश्रेष्ठ सुग्रीव का विधिपूर्वक अभिषेक कार्य प्रारम्भ किया ।।२६॥
मन्त्रवेत्ता पुरुषों ने वेदी पर अग्नि की स्थापना करके उसे प्रज्वलित किया पौर अग्निवेदी के चारों मोर कुश बिछाये। फिर अग्नि का संस्कार करके मन्त्र पूत हविष्य के द्वारा प्रज्वलित अग्नि में माहुति दी ॥३०॥
तत्पश्चात् रंग-बिरंगी पुष्पमालाओं से सुशोभित रमणीय अट्टालिका पर एक सोने का सिंहासन रक्खा गया और उसपर सुन्दर बिछौना बिछाकर उसके ऊपर सुग्रीव को पूर्वाभिमुख करके विधिवत् मन्त्रोच्चारण करते हुए बिठाया गया” ॥३१॥
अन्य अनेक वानर भी बड़े-बड़े विद्वान थे
(प्रगस्त्यजी ने श्रीरामचन्द्रजी से कहा)
५ “एषेव चान्ये च महाकपीन्द्राः, सुग्रीवर्मन्दद्विविवाः सनीलाः। सतारतारेयनलाः सरम्भा स्त्वत्कारणाद् राम सुरेहि सृष्टा” ॥४६॥
… -वाल्मीकीय रामायण, उत्तरकाण्ड, मर्ग २६]
अर्थ-“श्रीराम ! वास्तव में ये तथा इन्हीं के समान दूसरे-दूसरे जो सुग्रीव, मैन्द, द्विविद, नील, तार, तारेय (अङ्गद), नल तथा रम्भ प्रादि महाकपीश्वर हैं, इन सबकी सृष्टि देवताओं ने प्रापकी सहायता के लिए ही की है” ॥४॥
सुग्रीव मी विद्वान् था “महानुभावस्य वचो निशम्य हरिनपाणामधिपस्य तस्य। कृतं स मेने हरिवीरमुख्यस्तदा च कार्य हृदयेन विद्वान्” ॥२५॥
-वाल्मीकीय रामायण, किष्किन्धाकाण्ड, सर्ग ७]
अर्थ-“राजाधिराज महाराज श्रीरघुनाथ जी की बात सुनकर वानरवीरों के प्रधान विद्वान् सुग्रीव ने उस समय मन-ही-मन अपने कार्य को सिद्ध हुया ही माना” ॥२॥ बाली की पत्नी तारा भी विदुषी थी
अर्थ-“सुपेण की पुत्री यह तारा सूक्ष्मविपयों के निर्णय करने तथा नाना प्रकार के उत्पातों के चिह्नों को समझने में सर्वथा निपुण है ।।१३।।
यह जिस कार्य को अच्छा बताये, उसे सन्देहरहित होकर करना। तारा की किसी भी सम्मति का परिणाम उलटा नहीं होता” ॥१४॥
श्रीरामचन्द्रजी ने भी तारा को पण्डिता कहा
“जानास्यनियतामेवं भूतानामागतिगतिम् । तस्माच्छु हि कर्तव्यं पण्डिते नेह लौकिकम्” ॥५॥
-[वाल्मीकीय रामायण, किष्किन्धाकाण्ड, सर्ग २१]
अर्थ-“देवि! तुम विदुषी हो, अतः जानती ही हो कि प्राणियों के जन्म और मृत्यु का कोई निश्चित समय नहीं है। इसलिए शुभ (परलोक के लिए सुखद) कर्म ही करना चाहिए। अधिक रोना-धोना आदि जो लौकिक कर्म (व्यवहार) है, उसे नहीं करना चाहिए” ॥५॥
अर्थ-“वह पति की विजय चाहती थी और उसे मन्त्र का भी ज्ञान था। इसलिए उसने वाली की मंगल कामना से ‘स्वस्तिवाचन’ किया और शोक से मोहित हो वह अन्य स्त्रियों के साथ अन्तःपुर को चली गई” ॥१२॥
अर्थ-“उसमें प्रवेश करते ही लक्ष्मण के कानों में संगीत की मीठी तान सुनायी पड़ी, जो वहां निरन्तर गूंज रही थी । वीणा के लय पर कोई कोमल कण्ठ से गा रहा था। प्रत्येक पद और प्रक्षर का उच्चारण सम, ताल का प्रदर्शन करते हुए हो रहा था।”
‘सम’ शब्द पर पं० रामनारायणदत्त शास्त्री ‘राम’ टिप्पणी लिखते हैं कि “संगीत में वह स्थान जहाँ गाने-बजानेवालों का सिर या हाथ पाप-से-आप हिल जाता है। वह स्थान ताल के अनुसार निश्चित होता है। जैसे तिताले में दूसरे ताल पर और चौताल में पहले ताल पर सम होता है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न तालों में भिन्न-भिन्न स्थानों पर सम होता है । वाद्यों का प्रारम्भ और गीतों तथा वाद्यों का अन्त उसी सम पर होता है । परन्तु गाने-बजाने के बीच-बीच में भी सम बराबर माता रहता है।” बाली सन्ध्या करता था
रावण बाली के साथ युद्ध करने के लिए किष्किन्धापुरी गया। बाली समुद्र यात्रा करने के लिए गया हुआ था। उसने निश्चय किया था कि मैं चार समुद्रों पर सन्ध्या करूंगा। रावण के आने पर बाली के सम्बन्धियों ने रावण से कहा कि
अर्थ-“राक्षसराज ! इस रामय तो वाली बाहर गये हुए हैं। वे ही आपकी जोड़ के हो सकते हैं। दूसरा कोन वानर आपके सामने ठहर सकता है ॥५॥
अथवा यदि आपको मरने के लिए बहुत जल्दी लगी हो तो दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाइए। वहीं प्रापको पृथिवी पर स्थित हुए अग्निदेव के समान बाली का दर्शन होगा ॥१०॥
तब लोकों को रुलानेवाले रावण ने तारा को भला-बुरा कह कर पुष्पकविमान पर प्रारूढ़ हो दक्षिण समुद्र की मोर प्रस्थान किया ॥११॥
वहाँ रावण ने सुवर्णगिरि के समान ऊंचे वाली को सन्ध्योपासन करते हुए देखा। उनका मुख प्रभातकाल के सूर्य की भांति अरुणप्रभा से उद्भासित हो रहा था” ॥१२॥
बाली वेदमन्त्रों का जप कर रहा था
“इत्येवं मतिमास्याय बाली मौनमुपास्थितः। जपं व नंगमान् मन्त्रास्तस्यो पर्वतराडिव”॥१८॥
-वाल्मीकीय रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग ३४]
अर्थ-“ऐसा निश्चय करके बाली मौन हो रहे और वैदिक मन्त्रों का जप करते हुए गिरिराज सुमेरु की भांनि खड़े रहे”॥१८॥
“क्रमशः सागरान् सर्वान् सन्ध्याकालमवन्दत” ।।२७॥
-वाल्मीकीय रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग ३४]
अर्थ-“उन महावेगशाली वानरराज ने क्रमशः सभी समुद्रों के तट पर पहुंचकर सन्ध्या-वन्दन किया।”…
न च ते मर्षये पापं क्षत्रियोऽहं कुलोद्गतः। पौरसी भगिनीं वापि भार्यो वाप्यनुजस्य यः। प्रचरेत नरः कामात् तस्य दण्डो वधः स्मृतः” ॥२२॥
-[वाल्मीकीय रामायण, किष्किन्धाकाण्ड, सगं १८]
अर्थ-“मैंने तुम्हें क्यों मारा है ? उसका कारण सुनो और समझो। तुम सनातन धर्म का त्याग करके अपने छोटे भाई की स्त्री से सहवास करते हो ॥१८॥
इस महामना सुग्रीव के जीते-जी इसकी पत्नी रुमा का, जो तुम्हारी पुत्रवधू के समान है, कामवश उपभोग करते हो, अतः पापाचारी हो ।।१६।।
मैं उत्तम कुल में उत्पन्न क्षत्रिय हूँ; अतः मैं तुम्हारे पाप को क्षमा नहीं कर सकता। जो पुरुष अपनी कन्या, बहिन अथवा छोटे भाई की स्त्री के पास काम-बुद्धि से जाता है, उसका वध करना ही उसके लिए उपयुक्त दण्ड माना गया है” ।।२२।।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी “रामचरितमानस’ के ‘किष्किन्धाकाण्ड’ में कहा है
(बाली के श्रीरामचन्द्रजी के प्रति यह कहने पर कि)– ..
“मैं बरी सुग्रीव पिप्रारा। अवगुन कवन नाय मोहि मारा। इसपर धीरामचन्द्रजी ने कहा था
अनुजवधू भगिनी सुतनारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी।
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि वधे कछु पाप न होई ।। अर्थ-“हे शठ, सुनो! छोटे भाई की पत्नी, बहिन, पुत्रवधू, इनके साथ कन्या के समान पाचरण करना चाहिए । इनको जो कोई कुदृष्टि से देखता है उसे मारने में कोई पाप नहीं होता है।”
विचारशील पाठक विचार कर सकते हैं कि यह उपर्युक्त कथन (सनातन ‘धर्म) बन्दरों का है या मनुष्यों का है ?
अर्थ-“यदि राजा होकर तुम धर्म का अनुसरण करते तो तुम्हें भी वही काम करना पड़ता, जो मैंने किया है। मनु ने राजोचित सदाचार का प्रतिपादन करनेवाले दो श्लोक कहे हैं, जो स्मृतियों में मुने जाते हैं और जिन्हें धर्मपालन में कुशल पुरुषों ने सादर स्वीकार किया। उन्हीं के अनुसार इस समय यह मेरा बर्ताव हुमा (वे श्लोक इस प्रकार हैं-)॥३०॥
मनुष्य पाप करके यदि राजा के दिये हुए दण्ड को भोग लेते हैं तो वे शुद्ध होकर पुण्यात्मा साधु पुरुषों की भांति स्वर्गलोक में जाते हैं । (चोर आदि पापी जब राजा के सामने उपस्थित हों उस समय उन्हें) राजा दण्ड दे अथवा दया करके छोड़ दे। चोर आदि पापी पुरुष अपने पाप से मुक्त हो जाता है, किन्तु यदि राजा पापी को उचित दण्ड नहीं देता तो उसे स्वयं उसके पाप का फल भोगना पड़ता है”॥३१-३२।।
मनुस्मृति ८।३१८, ८।३१६ में उपर्युक्त दोनों श्लोक किञ्चित् पाठान्तर के साथ पाये जाते हैं। सीताजी-और सुग्रीव का मन्त्रिमण्डल
प्रात्मना पञ्चमं मां हि वृष्ट्वा शैलतले स्थितम्। उत्तरीयं तया त्यक्तं शुभान्याभरणानि च ॥११॥ तान्यस्माभिर्गहीतानि निहितानि च राघव । मानयिष्याम्यहं तानि प्रत्यभिज्ञातुमर्हसि” ॥१२॥
-वाल्मीकीय रामायण, किष्किन्धाकाण्ड, सर्ग ६]
अर्थ-“एक दिन मैंने देखा भयंकर कर्म करनेवाला कोई राक्षस किसी स्त्री को लिये जा रहा है । मैं अनुमान से समझता हूँ वह मिथिलेशकुमारी सीता ही रही होगी, इसमें संशय नहीं है, क्योंकि वह टूटे हुए स्वर में ‘हा राम ! हा राम ! हा लक्ष्मण ! पुकारती हुई रो रही थी तथा रावण की गोद में नागराज की वधू (नागिन) की भांति छटपटाती हुई प्रकाशित हो रही थी॥६-१०।। चार मन्त्रियों सहित पांच मैं इस शैल-शिखर पर बैठा हुअा था। मुझे देखकर देवी सीता ने अपनी चादर और कई सुन्दर-सुन्दर आभूषण ऊपर से गिराये ॥११।। रघुनन्दन ! वे सब वस्तुएँ हम लोगों ने लेकर रख ली हैं। मैं अभी उन्हें लाता हूँ। आप उन्हें ‘पहचान सकते हैं” ॥१२॥
निश्चय ही उनको मनुष्य समझकर सीताजी ने अपना चिह्न उनके निकट ‘फेंका होगा । स्पष्ट है कि प्राकृति से वे मानव थे, बन्दर नहीं थे।
सुग्रीव ने अपने-आपको मनुष्य कहा
सुग्रीव ने हनूमान् को राम व लक्ष्मण का परिचय लेने के लिए भेजते हुए यह कहा कि
___”अरयश्च मनुष्येण विज्ञेयाश्छद्मचारिणः ॥२२॥
वाल्मीकीय रामायण, किष्किन्धाकाण्ड, सर्ग २]
अर्थ-“मनुष्यमात्र को छद्मवेश में विचरनेवाले शत्रुओं को विशेष रूप से पहचानने की चेष्टा करनी चाहिए।”
रामायण के अनुसार श्रीरामचन्द्रजी आर्य थे, रावण भी पार्यों में से था, यद्यपि अनार्य कर्म करने लग गया था तथा वाली आदि भी आर्य थे। जो वेदों और शास्त्रों को जानते, मानते और तदनुकूल ही संस्कार आदि करते थे, वे अनार्य कसे? ___ सीताजी ने जैसे रामचन्द्रजी को मार्यपुत्र कहा, वैसे ही तारा ने भी बाली को मार्यपुत्र कहा
“प्रार्यपुत्र पिता माता माता पुनस्तथा स्नुषा”॥४॥
-वाल्मीकीय रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग २७]
अर्थ- “हे आर्यपुत्र ! पिता, माता, भाई, पुत्र और पुत्रवधू”….” ॥४॥
यहां सीताजी ने रामचन्द्रजी को ‘आर्यपुत्र’ कहा, उसी प्रकार तारा ने बाली के मरने पर रोते हुए कहा कि
अर्थ-“उन्हें देखकर उसके मन में बड़ी व्यथा हुई और वह अत्यन्त व्याकुल होकर पृथिवी पर गिर पड़ी ॥२६॥ फिर मानो वह सोकर उठी हो, इस प्रकार ‘हा प्रार्यपुत्र !”…..॥२७॥
सुग्रीव ने बाली को प्रार्य कहा
“प्राज्ञापयत् तदा राजा सुग्रीवःप्लवगेश्वरः। प्रौर्वदेहिकमार्यस्य क्रियतामनुकूलतः” ॥३०॥
-[वाल्मीकीय रामायण, किष्किन्धाकाण्ड, सर्ग २५]
अर्थ-“तदनन्तर वानरों के स्वामी राजा सुग्रीव ने आज्ञा दी कि मेरे बड़े भाई (मार्य) का प्रौर्ध्वदेहिक संस्कार शास्त्रानुकूल विधि से सम्पन्न किया जाए” ॥३०॥ वानरों के कलाकौशल का एक और प्रमाण – वानर लोग विशाल भवन सात-सात तल्ले के बनाते थे। बड़े-बड़े दुर्गों का निर्माण करते थे, भांति-भांति के रंगों से भी चित्र बनाते तथा लकड़ियों आदि में भी चित्र खोदते थे। वस्त्र बनते, सीते तथा सोने आदि के भूपण भी बनाते थे। अस्त्रों व शस्त्रों का प्रयोग करते थे। लंका पर आक्रमण करने के लिए समुद्र का पुल बांधना भी वानरों का ही काम था।
विश्वकर्मा के पुत्र नल नामक वानर ने श्रीरामचन्द्रजी को कहा कि
अर्थ-“प्रभो! मैं पिता की दी हई शक्ति को पाकर इस विस्तृत समुद्र पर सेतु का निर्माण करूंगा। महासागर ने ठीक कहा है ।।४८।। मैं महासागर पर पुल बांधने में समर्थ हूँ, प्रत: सब वानर अाज ही पुल बांधने का कार्य आरम्भ कर दें”॥५३॥
अर्थ-“महाकाय महाबली वानर हाथी के समान बड़ी-बड़ी शिलानों और पर्वतों को उखाड़कर यन्त्रों (विभिन्न साधनों) द्वारा समुद्रतट पर ले पाते थे ॥६०॥ उन वानरों ने सब ओर पत्थर गिराकर समुद्र में हलचल मचा दी। कुछ दूसरे वानर सौ योजन लम्बा सूत पकड़े हुए थे ॥६२॥ नल नदों और नदियों के स्वामी समुद्र के बीच में महान् सेतु का निर्माण कर रहे थे। भयंकर कर्म करने वाले वानरों ने मिल-जुलकर उस समय सेतु-निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया था॥६३॥ कोई नापने के लिए दण्ड पकड़ते थे तो कोई सामग्री जुटाते थे। श्रीरामचन्द्रजी की प्राज्ञा शिरोधार्य करके सैकड़ों वानर जो पर्वतों और मेघों के समान प्रतीत होते थे” ॥६४॥ स्वामी ब्रह्ममुनिजी परिव्राजक विद्यामार्तण्ड’
“नलचके……” (वा० रा०, युद्ध० २२६२) का अर्थ करते हैं-
अर्थ-“उस समय देवता, गन्धर्व, सिद्ध और महो। उसे अद्भुत कार्य को देखने के लिए ग्राकाश में आकर खड़े थे ।।७५। वह पुल बड़ाही विशाल सन्दरता से बनाया हुशा, शोभासम्पन्न, समतल और सुसम्बद्ध था। वह महान सतु सागर में सीमन्त के समान शोभा पाता था ।।७६|
जटायु गरुड़ पक्षी था या मनुष्य ?
जटायु दशरथजी का मित्र बताया गया है । ‘समानशीलव्यसनेषु सख्यम्’ समान गुणवालों में ही मित्रता होती है, अतः यह सिद्ध है कि गृध्र पक्षी नहीं था। उसने जटा बढ़ाई हुई थी और वहां सी० आई० डी० का कार्य करता था। फिर गध्र मीठी और मधुर वाणी बोलते हैं या कर्कश ? एक बात और, यहां गृध्र का एक विशेषण द्विज भी है। यहां यह आपत्ति हो सकती है कि द्विज तो पक्षी को भी कहते हैं । जटायु को पक्षी कहने का एक और कारण भी है । जटायु परमात्मा प्राप्ति के प्रयत्न में संलग्न थे। ज्ञान और कर्म ही उनके दो पल थे।
जो गध्र को उड़नेवाला पक्षी ही मानते हैं उनके लिए एक अन्य अकाट्य प्रमाण भी प्रस्तुत है। वाल्मीकिजी ने जटायु के लिए प्रायं विशेषण दिया है। जब रावण सीताजी को उठाकर ले जा रहा था तब जटायु को देखकर सीताजी ने कहा था-“जटायो पश्य मामार्य ह्रियमाणामनायवत्” (अर०४६।३६)। – यहाँ जटायु को स्पष्ट ही ‘पाय’ कहा है, अतः जटायु गीध नहीं था।
जटायु ने अपने कुल और गोत्र का वर्णन किया है। क्या पक्षियों के कुल और गोत्र होते हैं ?’
अर्थ-“ब्राह्मण लोग परलोकवासी मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति कराने के उद्देश्य से जिन पितृसम्बन्धी मन्त्रों का जप आवश्यक बतलाते हैं, उन सबका भगवान् श्रीराम ने जप किया ॥३४॥ महर्षितुल्य श्रीराम के द्वारा दाहसंस्कार होने के कारण गृध्रराज जटायु को आत्मा का कल्याण करनेवाली परम पवित्र गति प्राप्त हुई। उन्होंने रणभूमि में अत्यन्त दुष्कर और यशोवर्धक पराक्रम प्रकट किया था। परन्तु अन्त में रावण ने उन्हें मार गिराया” ॥३७॥
इन उपर्युक्त प्रमाणों से वानर जाति, पशु या पक्षी नहीं थी, वरन् मनुष्य थी। मनुष्येतर जातियों के नामों पर कुछ उपजातियां ___ ‘नाग’ नाम की मनुष्यजाति रामायण व महाभारतकाल में थी। नागराज ऐरावत की कन्या स्नुपा उलपी से अर्जुन का विवाह हुआ था। इसका वर्णन महा भारत भीष्मपर्व में है। नागजाति में कुछ लोग सर्प (दौड़ने, भागनेवाले) भी कहलाते हैं । उलक व मत्स्यजाति का वर्णन महाभारत, सभापर्व में है।
__ वानर, कपि, प्लवंग, राक्षस प्रावि मनुष्य थे। इस सम्बन्ध में पाश्चात्य विद्वानों के विचार रेवरेंड फ़ादर कामिल बुल्के एस० जे०, एम० ए०, डी० फिल०
“सबसे स्वाभाविक अनुमान यह है कि आजकल के आदिवासियों के समान
१. द्रष्टव्य-ब्रह्मचारी जगदीश विद्यार्थी विद्यावाचस्पति, एम० ए० लिखित
‘मर्यादा पुरुषोत्तम राम’ पुस्तक, पृष्ठ ७३-७४ की पाद-टिप्पणी [संवत् २०२१ वि० में गोविन्दराम हासानन्द, मार्य साहित्य भवन, ४४०८, नई सड़क, दिल्ली द्वारा प्रकाशित, प्रथम संस्करण] ।
उन जातियों के भिन्न-भिन्न कुल भिन्न-भिन्न पशों और वनस्पतियों की पूजा करते थे। जिस कुल के लोग जिस पशु या वनस्पति की पूजा करते ये वे उसी के नाम से पुकारे जाते थे। इस पशु अथवा वनस्पति को आजकल के विद्वान् ‘टोटम’ कहते हैं। आधुनिक भारत में ऐसी जातियां मिलती हैं जिनके भिन्न गिरोहों के टोटम वाघ, बकरा, ऋक्ष, वानर मादि हैं।”
भारतीय विद्वानों के विचार
श्री चिन्तामणि वैद्य विनायक एम० ए०-“वानरजाति के लोग सचमुच वानर के समान दिखाई पड़ते थे और इससे उनका यह नाम चल पड़ा।” महामहोपाध्याय पं० श्रीपाद दामोदर सातवलेकर गीतालंकार
“क्या वानर (बार्वेरियन्) बर्वर थे?”शीपंक में लिखते हैं
……………”वानरों के पास अतिशय शक्तिशाली और वेगवाली यंत्रसामग्री (Extremely powerful and
speedly machinary) थी अर्थात् वानर बर्बर नहीं थे। यह बात निश्चित रूप से सिद्ध होती है।
सेतु किस प्रकार बांधा गया, इसका वर्णन महर्षि वाल्मीकिजी के शब्दों में ही देखिए
१. “रामकथा” पृष्ठ ११७ [नवम्बर १९५० ई० में हिन्दी परिषद्, विश्व विद्यालय, प्रयाग द्वारा प्रकाशित, प्रथम संस्करण] इसी शोधप्रबन्ध के पृष्ठ ११७ की ही पादटिप्पणी में लिखा है
“दे० सी वान फरर : हाइमेनदार्फ, दि रेदिस प्राव दि विद्यन हिल्स, पृ० ३२६ (ज० रा० ए० सो०१९४८, पृ० १६०)” छोटा नागपुर में रहने वाली ऊरानों नामक द्राविड जाति में तिग्गा अथवा वजरंगी गोत्र पाया जाता है जिसका अर्थ हनुमान (वन्दर) ही है। मुण्डा जाति में भी गड़ी (अर्थात् बन्दर) का टोटम मिलता है।
२. The Riddle of the Ramayan, pp 153
[Bombay, 1906] तुलना करो-‘रामकथा’ पृष्ठ ११७ की पादटिप्पणी पृ० सं०१। ३. “बालकाण्ड की समालोचना” पृष्ठ २६ से ३६ तक [संवत् २०११
सन् १९५५ ई० में स्वाध्याय मण्डल, प्रानन्दाश्रम, किल्लापारडी द्वारा प्रकाशित, प्रथमावृत्ति।
अर्थात्-कोई वानरवीर हाथ में सूत्र लिये हुए लम्बाई-चौड़ाई नापने के काम करने पर नियुक्त थे और कोई दण्ड हाथ में लेकर ऊंचाई-नीचाई (लेवल) देखते थे और शेष वानरवीर पत्थर, मिट्टी, वृक्ष आदि लाकर यथास्थान गड्ढों में डालते थे और उनको पाटकर बराबर कर देते थे।”
उपर्युक्त वर्णन में जो ‘सूत्र’ शब्द है वह आधुनिक फीता या Measuring tape और ‘दण्ड’ शब्द Measuring Pole या Levelling staff यानी ‘लढें’ के द्योतक हैं। फीते से लम्बाई और चौड़ाई नापी जाती है और लठे से लेवल देखकर किस जगह कितना भराव डालना या किस जगह कितना खोदना इसका ज्ञान होता है।
वर्तमानकालीन मिलिटरी इंजीनियरिंग में बेड़ों के पुल वगैरह बनाने के काम इसी प्रकार के होते हैं । इससे मालूम होता है कि प्राधुनिक Military Enginee ring में भी त्रेतायुगीन वानर पीछे नहीं थे, किन्तु इतना बड़ा विस्तीर्ण समुद्र केवल पांच ही दिन के अत्यल्प काल में पाट दिया, इस वर्णन से तो वानरों का Military Engineering बहुत ही उच्च श्रेणी का था, यह मान्य करना ही पड़ेगा। इससे भी वानर बबर नहीं थे, यही सिद्ध होता है।
अब यहां पर पाश्चात्य विद्वानों के साम्प्रदायिक हमारे आधुनिक विद्वान् लोग यह शंका उपस्थित करेंगे कि, “बारूद का प्राविष्कार तो सबसे पहले यूरोप में ईसवी सन् १२४७ में फायर वेकन नामक एक यूरोपीय रासायनिक ने किया है। इससे पूर्व वारूद जब संसार में ही नहीं थी, तो वह रामायणकालीन भारतवर्ष में कहाँ से आती?” लेखक महाशय को “हमारी संस्कृति सर्वोच्च थी”यह बात किसी प्रकार से प्रमाणित करना है, सो उसके लिए रामायण के श्लोकों के मनगढन्त और खींचतान कर प्रर्य कर रहे हैं। आधुनिक विद्वान् लोगों की इस प्रकार विपरीत भावना हमारे उपर्युक्त विधानों के कारण हो जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इसलिए यूरोपीय विद्वानों के ग्रन्यों से हम आगे कतिपय प्रमाण उद्धृत करते
(१) यूरोप की वर्तमान युद्ध-प्रणाली के पाद्य प्रणेता नेपोलियन बोनापार्ट अपने “Aid Memory to Military
Sciences” नामक ग्रन्य में लिखते हैं “Gun-powder was known to
India and China, and was used for the purpose of war many centuries before
Christian cra.” wafp बारूद बनाना और युद्ध में उसका उपयोग करना, दोनों यातें भारतीय तथा चीनी लोगों को ईसामसीह के जन्मकाल से कई शताब्दियों पूर्व मालूम थीं।
ग्रीनर नामक एक पाश्चात्य इतिहासकार ने अपने “Gunnery in 1857” नामक ग्रन्थ में लिखा है-“The inhabitants of India were
unquestion ably acquainted with its (of gun-powder) composition at an early
date. अर्थात् भारतीय लोग बहुत प्राचीन काल से वारूद और उसके घटक द्रव्यों को जानने थे।
प्रोफेसर गस्टाव और भी कहते हैं कि “विपक्षी के विरुद्ध जिन-जिन अस्त्रों का प्रयोग किया जाता है, उनमें बारूद-भरे धुएँ के गोलों का भी प्रयोग होता है, ऐसा महर्षि वैशम्पायन अपने ‘नीति-प्रकाशिका’ नामक ग्रन्य में लिखते हैं। इन धुएं के गोलों को संस्कृत भाषा में ‘धूम्र-गोलक’ अथवा ‘चूर्णगोलक’ कहते हैं और उन्हीं को इंग्लिश भाषा में ‘Smoke balls’ कहते हैं।” ___पाश्चात्य विद्वानों के ग्रन्थों से उद्धृत किये हुए उपर्युक्त प्रमाणों से हमें प्राणा है कि हमारे प्राधुनिक विद्वानों को यह विश्वास करने में अब कोई प्रत्यवाय नहीं होगा कि वानरों को सुरंग लगाने का, बारूद बनाने का तया उसका प्रयोग करने का यथेष्ट ज्ञान था अर्थात् वानर बर्बर नहीं थे, किन्तु यह बात निर्विवाद प्रमाणित हो रही है कि उनको Military Engineering का इतना ज्ञान था कि जो माधुनिक पाश्चात्य इंजिनीयरों से कम नहीं कहा जा सकता।” वानर मानवी वेष में न रहें। ____ राम-रावण युद्ध के प्रारम्भ में प्रभु रामचन्द्र की मोर से स्थिर माज्ञा (Standing order) सब सेना को दी गई थी, वह देखिए
“इस युद्ध में वानर कभी मानवी वेष न धारण करें। इस हमारे सैन्य का वेप (Uniform) वानरवेष ही सवका रहे । मैं स्वयं, लक्ष्मण और अपने चार मंत्रियों के साथ विभीषण ये सात ही मनुष्यवेष में रहकर शत्रु से युद्ध करेंगे।” यह स्थिर प्राज्ञा थी। जबतक युद्ध समाप्त होगा तबतक यह प्राज्ञा जारी रहनेवाली थी। इससे स्पष्ट है कि मनुष्य, वानर और राक्षस के वेप ही अलग-अलग थे। उनके शरीर समान अर्थात् मानवी शरीर ही थे। नहीं तो विभीषण मानव-वेष में रहेंगे इसका और क्या अर्थ हो सकता है ? सैनिकों की पहचान वेष से (Unifrom से) होती है। इसीलिए कौन किस वेष में रहे इसकी स्थिर आज्ञा (Standing order) इस तरह दी गई थी। इससे वानर मोर राक्षस मानव-शरीरधारी थे यह बात सिद्ध होती है।”
डॉ० रामप्रकाश अग्रवाल एम० ए० (हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी), पी-एच० डी०, अध्यक्ष : हिन्दी विभाग, मेरठ कॉलेज, मेरठ लिखते हैं–“वा० रामायण के मनुसार वानर जाति के भी वास्तविक मानव जानि होने के प्रमाण मिलते हैं, जब कि मानस में इस जाति का भी अस्तित्व अधिकांशतः काल्पनिकता और पौराणिकता से प्राच्छादित है। इस जाति में पार्यों के-से नैतिक आदर्श और राक्षसों जैसी भौतिक समृद्धि नहीं थी, फिर भी कथाक्रम में इनके उच्च प्राचरण और विचारों के संकेत प्राप्त होते हैं।
दोनों कवियों ने उनके कामरूपधारी होने के विषय में कहा है, उनके कपित्व अर्थात् चापल्य और उच्छंखलता का चित्रण किया है। उनके अपार बल, शक्ति, मल्लविद्या, उछल-कूद, मार-काट, तोड़-फोड़, द्रुम-शिला-नख-दंत-लात-मुष्टिका थप्पड़ प्रादि से युद्ध करने, लम्बी दौड़ और लम्बी छलांग भरने, भार उठाने, भार जमाने मादि शारीरिक बल-सम्बन्धी विशेषताओं का वर्णन दोनों कवियों ने किया है जिससे उनकी प्रकृति-प्रदत्त शक्ति और एक वनेचर जाति होने का स्पष्ट प्रमाण मिलता है। अन्तर यह है कि तुलसी ने उनके अधिकांश गुणों और शक्तियों को रामभक्ति से प्रेरित माना है, वाल्मीकि ने उन्हें अधिकांश ऐतिहासिक स्तर पर देखा है। उनके सुन्दर राजभवन, वस्त्र, संगीत-प्रेम आदि की भी चर्चा की है। उनकी विविध जातियों और विशाल संगठन का वर्णन किया है। उनकी वनस्पति विषयक जानकारी का भी चमत्कार दिखलाया है।”
डॉ० शान्तिकुमार नानुराम व्यास एम० ए०, पी-एच०डी० लिखते हैं
“वानरों को संस्कृति को महान् एवं समुन्नत अंकित किया गया है। सुग्रीव का राज्याभिषेक तथा बाली की अन्त्येष्टि दोनों वैदिक विधि से सम्पन्न हुए थे। सुग्रीव, हनूमान् तथा अंगद का जो प्रभावशाली चित्रण कवि ने किया है, वह उनकी महान् संस्कृति का सूचक है। वानरों के सम्पत्ति-वैभव, वसनाभरण, शिक्षा-दीक्षा, धर्म-कर्म तथा सामाजिक और राजनैतिक संगठन के वर्णन से यही स्वाभाविक निष्कर्ष निकलता है कि रामायणकार ने राम के सहयोगियों को वस्तुतः बन्दर नहीं माना है।
___ इस जाति के जिन नामों का उल्लेख रामायण में पाया है, उनमें ‘वानर’ शब्द १०८० बार प्रयुक्त हुआ है और उसी के पर्याय रूप में ‘बनगोचर’, ‘वन कोविद’, ‘वनचारी’, ‘वनीकस्’ आदि शब्द माये हैं। इससे स्पष्ट है कि ‘वानर शब्द बन्दर का सूचक न होकर वनवासी का द्योतक है। उसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार करनी चाहिए-वनसि (अरण्ये) भव: चरो वा इति वानरः= वनोकसः, आरण्यकः । वानरों के लिए ‘हरि’ शब्द ५४० बार माया है। इसे भी ‘वनवासी’ आदि समासों से स्पष्ट किया गया है। ‘प्लवंग’ शब्द २४० बार प्रयुक्त हुमा है, और दौड़ने की क्षमता का व्यंजक है। वानरों की कूदने-दौड़ने की प्रवृत्तिको सूचित करने के लिए प्लवंग या प्लवंगम शब्द का व्यवहार उपयुक्त भी है। हनूमान् उस युग के एक अत्यन्त शीघ्रगामी दौड़ाक या धावक थे, इसीलिए उनकी सेवाओं की कई बार आवश्यकता पड़ी थी। ‘कपि’ शब्द ४२० बार माया है, जो सामान्यतः बन्दर के अर्थ में प्रयुक्त होता है। क्योंकि रामायण में वानरों को पूंछयुक्त बताया गया है, इसलिए वे कपयः थे। वानरों को मनुष्य मानने में सबसे बड़ी बाधा उनकी यही पूंछ है । पर यदि मूक्ष्मता से देखा जाए तो यह पूंछ हाथ-पैर के समान शरीर का अभिन्न अंग न होकर वानरों की एक विशिष्ट जातीय निशानी थी, जो सम्भवत: बाहर से लगाई जाती थी; तभी तो हनुमान् की पूंछ जलाये जाने पर भी उन्हें किसी प्रकार की शारीरिक पीड़ा का अनुभव नहीं हुआ। रावण ने पूंछ को कपियों का सर्वाधिक प्रिय भूषण बताया था–‘कपीनां किल लांगूलमिष्टं भवति भूषणम् (२३३।३)। – बन्दर न होते हुए भी वानरों की प्राकृति, रूप-रंग, मानसिक चेष्टाओं तथा शारीरिक हरकतों में बन्दरों के-से लक्षण अवश्य मौजूद थे। चपल, निरंकुश और रूखा स्वभाव, रोएंदार, विकृत प्राकृति, कूदने-फांदने की प्रवृत्ति, विलास-प्रियता, यौन-सम्बन्धों में अनियमितता, जंगलों और पहाड़ों में निवास, पेड़ों, चट्टानों, नखों मोर दांतों का शस्त्ररूप में व्यवहार, किलकारियां मारने में रुचि-इन विशेषताओंवाली विचित्र जाति को देखकर आर्यों ने उसे बन्दरों के समान ही समझ लिया होगा, और जब कभी वह इन वानरी प्रवृत्तियों को प्रकट करती, तव पार्य उसे कपि या शाखामृग जैसे नामों से सम्बोधित करते। राक्षस लोग वानरों को कपि या वानर अहंकारवश या उनके प्रति तुच्छता की भावना के कारण कहते थे, वैसे ही जैसे रूसी लोग किसी समय जापानियों को पीला बन्दर (यलो मंकी) कहकर उनका उपहास किया करते थे।
: अब यह प्रायः स्वीकार कर लिया गया है कि प्राचीन भारत में पशुओं के नाम से अभिहित कई जातियां निवास करती थीं, जैसे नाग (साँप), ऋक्ष (भालू) और वानर (बन्दर)। कालान्तर में लोक-मानस ने उन्हें प्राकृति और स्वभाव में उन-उन पशुओं का ही प्रतिरूप मान लिया, जिनका नाम वे धारण करती थीं, या जिनके साथ उनका कुछ-कुछ रूपसाम्य था अथवा जिनकी वे देवतारूप में पूजा करती थीं, अथवा जिनको उन्होंने अपना जातीय चिह्न मान लिया था।” :: श्री के० एस० रामस्वामी शास्त्री ने वानरों को एक प्रार्यजाति माना है, जो दक्षिण भारत में बस जाने के कारण उत्तर भारतवासी अपने मूल बन्धुनों से दूर पड़ गई। बाद में मार्य-संस्कृति से प्रभावित होने पर वह प्रगति करने लगी।”
१. “रामायणकालीन समाज” पृष्ठ ७१-७२-७३ [सन् १९५८ ई० में सस्ता ” साहित्य मण्डल, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित, प्रथमावृत्ति]
२. “वही, पृष्ठ ७३ तुलना करो-“सरस्वती भवन स्टडीज” भाग ५, पृष्ठ ७३
डॉ० जनार्दनदत्त शुक्ल अपने “वानर बन्दर नहीं एक जाति है” शीर्षक लेख’ में लिखते हैं
__ “रामायण में वर्णित देवता, वानर, राक्षस, पक्षी, ऋक्ष, दानव, भूत, पिशाच, गन्धर्व, किन्नर, दैत्य, असुर, सर्प, नाग, भृग, सिद्ध मादि सभी मनुष्य थे। निश्चय ही बन्दर यानी वानर, रीछ, गिद्ध इत्यादि पशु-पक्षी नहीं थे। यदि ये पशु-पक्षी होते तो रामायण की कथा ही न बनती। यदि तारा वन्दरी होती तो राम द्वारा ज्ञान देना असंगत था, वह कैसे समझती कि……
क्षिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित यह अधम सरीरा॥
और हनूमान् राम से और सीता से और रावण तथा विभीषण से वार्तालाप कैसे करते यदि वन्दर होते ?
कुछ विद्वानों ने वानर जाति को विंध्य पर्वतमाला के दक्षिण में निवास करने वाली एक वानर जाति माना है, जिन्होंने पार्यों को सहयोग दिया। रामस्वामी शास्त्री ने वानरों को प्रायजाति ही माना है, जो दक्षिण भारत में बस गये। प्राचीन भारत में पशुमों के नाम से अभिहित कई जातियां निवास करती थीं, जैसे नाग, ऋक्ष यानी भाल, वानर इत्यादि । कालान्तर में लोकमानस ने उन्हें आकृति एवं स्वभाव में उन पशुओं का ही प्रतिरूप मान लिया।” – श्री शिवनन्दन सहायजी लिखते हैं-मुग्रीव, अंगद, हनुमान् तथा यामवान् प्रभृति क्या सचमुच में वानर ही थे? रामायणपाठ से तो ऐसा ही प्रतीत होता है, परन्तु लोग कहते हैं कि वे एक जाति के वनपर्वतवासी मनुष्य ही थे। जिस जाति की ध्वजा पर बन्दर का चिह्न था वह वानर जाति कहलाती थी। जिसकी ध्वजा पर रीछ का चित्र या वह रीछ कहलाती थी। जैसे प्राजकल रूसियों की ध्वजा पर रीछ का तथा अंग्रेज जाति की ध्वजा पर सिंह का चित्र होने से उन देशों के वीरों को British Lions और Russion Bears कहते हैं । जनों की राम-रावण कथा में भी वानर चिह्नाङ्कित ध्वजा मुकुटधारी जाति वानरवंशीय कही गई है।”
श्री प्रमतसरिया राम भणोत का विचार है-“दक्षिण भारत में पंचवटी के दक्षिण की पोर किष्किन्धा नाम की एक नगरी थी जिसमें वानर जाति के लोग राज्य करते थे। ये लोग भी मनुष्य ही थे। बन्दर और रीछ नहीं थे। परन्तु उत्तरी भारत के लोगों की तरह अधिक सुन्दर और गौर वर्ण नहीं थे। उनके नाम भी प्रायः शरीर के अवयवों के अनुसार ही होते थे, जैसे बाली (घने वालोंवाला), सुग्रीव (सुन्दर ग्रीवावाला), हनुमान् (बड़ी ठोड़ी वाला), और अङ्गद (बाहुभूषण) पादि। अब तक इण्डोनेशिया के लोग इन जैसे नाम रखते हैं जैसे सुकर्ण (सुन्दर कानोंवाला) आदि।………….. . .. प्राचार्य रामदेव जी बी० ए०, गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय लिखते हैं
“हनूमान् और उनके सहचर मनुष्य थे, पूंछवाले वानर नहीं-कौन सत्-. असत् का विवेकी पुरुष ऐसा है जो विद्याव्रतस्नातक श्रीरामचन्द्रजी की इस सम्मति को पढ़कर कि हनूमान् ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अखिल व्याकरण शास्त्र के ज्ञाता थे, यह कह सके कि हनूमान वानर थे? क्या परमात्मा की सृष्टि में कही भी ऐसा नियम दिखाई देता है जिससे अनुमान किया जाय कि वानर भी वेदों का ज्ञान धारण कर सकता है ? अतः निश्चय है कि वैदिक जानों के धारण करनेवाले हनमान् तथा सुग्रीवादि पूंछवाले वानर नहीं थे। अभी थोड़े दिनों की बात है कि जब रूस और जापानियों का युद्ध प्रारम्भ हुआ था तो जापानियों की कूदफांद देख रूसियों ने उनका नाम “yellow monkeys” (‘पीले बन्दर’) रख दिया था [जापानियों का रंग कुछ पीला होता है। यह शब्द जापानियों के लिए वर्षों तक रूस में व्यवहृत होता रहा । Russian bear (रूसी भालू) ऐसे शब्द हैं जिन्हें आज भी सब यूरोपवाले तथा अन्यान्य कई देशों के लोग व्यवहत करते हैं। British Lion (ब्रिटिश सिंह) तथा John Bull (जॉन बुल) ऐसे शब्द हैं जो बराबर अंग्रेजों के लिए व्यवहृत होते हैं। नागवंशी क्षत्रिय प्रसिद्ध हैं जिनके वंश में ही छोटानागपुरादि के कई महाराज हैं जो अपने को साभिमान “नाग” कहते हैं। क्या वे नाग अर्थात् सर्प हैं ? नहीं, नाग की तरह क्षात्र क्रोध-धारण के कारण उनका वंश नाग कहलाता है। एवं विशेष स्फूति होने के कारण मुग्रीवादि के सहचर तथा अनुवरादि वानर कहलाते थे। महर्षि वाल्मीकि के वास्तविक भावों को न समझ भारत में जबकि अद्भुत गाथावर्णन-शैली पुराणों के समय से प्रचरित हुई तब हनूमान्, सुग्रीवादि के नामों के साथ अद्भुत गाथाएं बढ़ाई गई। क्या कभी ऐसा हो सकता है कि वानर जाति की राजधानी किष्किन्धा का वर्णन मनुष्यों की एक समृद्धिशालिनी राजधानी जैसा रामायण में विद्यमान हो और फिर उसके निवासी और राजकार्य में संचालक पूंछोंवाले वानर माने जाएं ? काव्य की शैली है कि किसी के नाम को भी उसके पर्यायवाची शब्दों से पुकारते हैं, इसी कारण वानर के स्थान में कप्यादि का भी रामायण में प्रयोग है।
अन्यान्य काव्यों में भी विश्वामित्र के लिए सर्वमित्र तथा दशरथ के लिए पंक्तिरथ व्यवहृत हुए हैं।”
पं० उदयवीर शास्त्री, अपने “किष्किन्धा का वानर-राजवंश” शीर्षक लेख में लिखते हैं—“…..”वाल्मीकि ने किष्किन्धा के राजवंश का वर्णन उन्हें ‘बन्दर’ समझकर नहीं किया। इस प्रकार सामूहिक रूप मे बन्दरों का न नामकरण होता है, न उनकी वंश-परम्परा का उल्लेखन, न उनके विवाह और सम्बन्धियों का वर्णन, न उनकी पढ़ाई-लिखाई और राजशासन-व्यवस्था व मन्त्रिमण्डल प्रादि का विवरण। या तो इसे ‘काकोलू कीयम्’ समझिए, या इसकी तह में जाकर इसकी वास्तविकता को उजागर कीजिए । ये बातें स्पष्ट करती हैं कि वाल्मीकि ने किष्किन्धा के राजवंश को प्राज जैसा ‘बन्दर’ समझकर उसका विवरण नहीं’ दिया।”….”
१. भारतवर्ष का इतिहास (वैदिक तथा पार्ष पर्व), पृष्ठ ३३१-३३२ २. मासिक पत्रिका “विश्वज्योति” होशियारपुर का “रामायण-विशेषांक”
वर्ष २० अप्रैल-मई १९७१ ई०, संख्या १ व २, पृष्ठ १४१पर प्रकाशित ।
क्या वानरों व हनुमानजी को पूंछ थीं? .
वानरजाति व हनूमान् को वास्तविक पूंछे नहीं थीं, वरन् वे कृत्रिम थीं। ,
“यह मानना पड़ेगा कि रामायणकालीन हनूमान् पूंछ नामक उपकरण से युक्त थे। जैन साहित्य में इसे इनका प्रायुध बताया गया है और किसी के पूंछ का वर्णन नहीं मिलता।”” श्री दिनेशचन्द्र सेन लिखते हैं
“पूंछ का वर्णन हनूमान् और उनके लंकादहन के प्रसंग में ही विशेष रूप से हुना है। बाली, मंगद, सुग्रीव तथा वानर स्त्रियों के पूंछ के विषय में कोई प्रमाण नहीं मिलता है। अन्वेषकों ने पूछ लगानेवाली जातियों के विषय में भी खोज की है। भारत में विजगापतन के शवरों में पूंछ प्राभूषण के रूप में पहिनी जाती है।”
श्री अमृतसरियाजी भणोत भी हनुमान जी की पूंछ को कृत्रिम मानते हुए ‘लिखते हैं-..”रावण हनुमान जी को देखकर उपहास करता हुअा बोला, अहो !
यह पुरुष तो वानरजाति का नहीं है, बन्दरों की जाति से मालूम होता है। निरा बन्दर है । केवल एक पूंछ की कसर है सो अभी सर्जरी के द्वारा एक लम्बी पूंछ इसके जोड़ दी जाए। डाक्टरों को प्राज्ञा मिलने की ही देर थी। उन्होंने बहुत जल्दी बहुत लम्बी एक पूंछ हनुमानजी की पीठ के साथ जोड़ दी।
– श्री रामायण प्रेमी अपने ‘रामायण के वानर-ऋक्ष’ शीर्षक लेख में लिखते हैं-“रामायण के ऋक्ष-वानर साधारण पशु रीछ-वन्दर नहीं थे। यह कोई विवेक बुद्धि सम्पन्न अनार्य मानव-जाति थी जो आज नष्ट या कहीं रूपान्तरित हो गई है।
१. द्रष्टव्य : डॉ० रामगोविन्दचन्द्र जी लिखित “हनुमान के देवत्व तथा मूर्ति का विकास” पृष्ठ १७२ [सन् १९७६ ई० में हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा प्रकाशित ।
२. बंगाली रामायण, पृष्ठ ५२ [यूनिवर्सिटी प्रॉफ कलकत्ता, सन् १९२० ई०]
३. श्रीमदभगवद्गीता (अमृतवर्षिणी टीका सहित) प्रथम भाग, पृष्ठ ३० ।
४. मासिक पत्र “कल्याण” का “श्री रामायणांक” वर्ष ५, खण्ड १, श्रावण १९८७, जुलाई १६३० ई०, संख्या १, पृष्ठ ३६०
५. अनार्य जाति नहीं वरन् आर्य जाति थी,पीछे पर्याप्त प्रमाण दिये गये हैं।
संभव है इनके पूंछ रही हो, क्योंकि रामायण में पूंछ का वर्णन प्रायः मिलता है ।पूंछ के द्वारा श्री हनुमान जी का लंका-दहन प्रसिद्ध है। यह भी हो सकता है कि ये उस समय की अपनी जाति की सभ्यता के अनुमार कपड़े की पूंछ-सी बनाये रखते हों। कुछ मुसलमान जातियों में और राजपूताने में चाल थी और कहीं-कहीं अब भी है कि स्त्रियां अपनी चोटी को ऊन को प्राटी से गूंथकर इतनी लम्बी बना लेती थीं जो पीठ में परों तक लटकती रहती थी। जयपुर के नागे पूंछ-सी बनाये रखते हैं । इस सम्बन्ध में कुछ विशेष कहा नहीं जा सकता, परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वेदाध्ययन, यज्ञ-याग, दान-पुण्य, ज्ञान-विज्ञान, ईश्वर-भक्ति, राज्य सञ्चालन, गायन-वादन, कला-कौशल आदि कार्यों को करनेवाली जाति पशु जाति नहीं हो सकती, संभव है इस मानव जाति का नाम ‘वानर’ रहा हो।…”
डॉ० रामप्रकाश अग्रवाल एम०ए० (हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी), पी-एच०डी० लिखते हैं-“वानरों की पूंछ के विषय में दोनों ही कवियों ने स्पष्टीकरण नहीं किया है कि यह उनके शरीर का अंग था, अथवा ऊपर से धारण किया हुमा जातीय चिह्न जैसा कि कुछ विद्वानों का विचार है। पूंछ हिलाकर प्रसन्नता प्रकट करने से तो यह उनके शरीर का ही अंग प्रतीत होती है, परन्तु पंछ जलने पर भी शरीर न जलने और पूंछ के बुझाए जाने से यह पृथक् भी प्रतीत होती है। …….” ___ डॉ० शान्तिकुमार नानूराम व्यास एम०ए०, पी-एच० डी०-“पूंछ का वर्णन विशेषकर हनुमान् और उनके लंका-दहन के सिलसिले में ही अधिक हुआ है। वाली, सुग्रीव, अंगद तथा वानर-स्त्रियों में पूंछ होने का विशेष प्रमाण नहीं मिलता। अन्वेषकों ने इतिहास में पूछ लगानेवाले व्यक्तियों, जातियों का अस्तित्व ढूंढ निकाला है । बंगाल के कवि मातृगुप्त हनुमान् के अवतार माने जाते थे और वह एक पूंछ लगाते थे । (दिनेशचन्द्र सेन-‘बंगाली रामायण’ पु०५८) ! भारत के
१. “वाल्मीकि और तुलसी : साहित्यिक मूल्यांकन” पुष्ठ २५७-२५८
गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं-“विप्ररूप धरि कपि तह गयक, माथ नवाय पूछत प्रस भयऊ”=इसका तात्पर्य है जब हनुमान जी विप्ररूप में श्रीरामचन्द्रजी से मिलने गये थे तो उस समय उनकी पूंछ नहीं थी। यदि जन्म से उनकी पूंछ होती तो उस समय वह छिप नहीं सकती थी। इससे स्पष्ट प्रकट होता है कि हनूमानजी की पूंछ कृत्रिम थी-लेखक]
एक राज-परिवार में राज्याभिषेक के समय पूंछ धारण करने का रिवाज प्रचलित था (वही)। श्री विनायक दामोदर सावरकर ने अपने मंडमान-कारावास के संस्मरणों में लिखा है कि इस द्वीप में पूछ लगानेवाली एक प्रादिवासी जाति रहती है (महाराष्ट्रीयकृत ‘रामायण-समालोचना’) विजगापत्तन के शवरों में पूंछ आभूषण के रूप में पहनी जाती है (जी. रामदास)।”
श्री ईश्वरीप्रसादजी ‘प्रेम’ एम० ए०, साहित्यरत्न लिखते हैं
“लांगूल वास्तव में वानर जाति का एक जातीय भूषण था, जिसका पराये हाथ से बिगड़ जाना वे जातिमात्र का अपमान समझते थे। जैसे कि आजकल भी अंग्रेज लोग टोपी का, सिख पगड़ी वा केशों का, पठान कुरान का, आर्य (हिन्दू) यज्ञोपवीत का, राजपूत खण्डे का समझते हैं। इसी विचार से रावण ने यह दण्ड विचार किया, क्योंकि इसे वह महादण्ड जानता था। लांगूल नामक पूंछ के होने से जिन्होंने हनुमान् को पशु बना लिया उन्होंने लांगूल को पूंछ बना लिया, परन्तु यदि वास्तव में लांगूल पूंछ का वा किसी अंगविशेष का नाम होता तो रावण वा० रा० मुन्दर काण्ड सर्ग ५३ श्लोक में ‘इप्टं भवति भूपणम्’ न कहकर ‘अंगं भवति घुत्तमम्’ कहता। एक जैनी पण्डित ने हमें बताया था कि ‘दशरथजातक’ में ‘लांगूल’ ‘करकङ्कण’ का नाम है। संभावना भी यही है कि वह कंकण वीरता का पदक होता हो।”
श्री ब्रह्मचारी जगदीश विद्यार्थी एम०ए०, साहित्यरत्न (अव स्वामी जगदी श्वरानन्दजी सरस्वती)-“वन्दरों को सबसे प्रिय है उनकी अपनी पूंछ। इसी आधार पर वानर जाति के मनुष्य बनावटी पंछ धारण करते थे जो उन्हें कूदने फोदने में भी सहायता देती थी। इस पूंछ को ये बहुत सम्मान देते थे। इसके अपमान को वे जातीय अपमान समझते थे, तभी तो रावण ने इस पूंछ को जलाने की प्राज्ञा दी थी।”
स्वामी ब्रह्ममुनिजी परिव्राजक विद्यामार्तण्ड [पूर्व पण्डित प्रियरत्नजी,
१. “रामायणकालीन समाज” पृष्ठ ७२ की पाद-टिप्पणी।
२. “मासिक पत्रिका “तपोभूमि” मथुरा का “शुद्ध रामायण” वर्ष ११ पौष २०२१ : दिसम्बर १६६४ ई०, अंक ११, पृष्ठ ३०५ की पाद-टिप्पणी।”
३. “मर्यादा पुरुषोत्तम राम” पृष्ठ १०२-१०३ की पाद-टिप्पणी।
वैदिक अनुसन्धानकर्ता] लिखते हैं-“हनुमान् प्रादि वानर तो कहे जाते थे पर इतने मात्र से वे बन्दर थे ऐसा नहीं माना जा सकता, कारण कि नर मनुष्य को कहते हैं ‘वा-नर’ विकल्प से नर अर्थात् नरों की भांति प्रसिद्ध, नगरनिवास न करके गिरि-पर्वतों की गुहामों में, भूतल-गृहों में रहनेवाले होने से वे वानर कहे जाते हों जैसे रूस में गोरिल्ला सेना मौर सैनिक प्राजकल भी वर्तमान हैं। वानर उनका कर्मनाम हो सकता है, हां उनके पूंछ होने का वर्णन अवश्य वाल्मीकि रामायण में पाता है। इससे यदि उनको बन्दर ही कहा जाए तो यह भी बहुत ही चिन्तनीय है, कारण कि उनके ऐसे बहुत वर्णन आते हैं जो बन्दर होने के प्रतिकूल हैं और मनुष्य होने को सिद्ध करते हैं, जैसे राम के साथ उनका वार्तालाप करना और उनमें मित्रता होना तो है ही, पर साथ में उनका राज्यभार संभालना, वेद-व्याकरण का ज्ञाता होना, अस्त्रविद्या में कुशलता, प्राकृत बन्दरों से भिन्न वताया जाना प्रादि ।
सुग्रीव मनुष्यरूप धारण करके राम से बोला
हनुमान् और सुग्रीव का इस प्रकार बन्दररूप को छोड़कर मनुष्यरूप में माना सिद्ध करता है कि हनुमान् आदि का जो वानर-रूप था वह छोड़ा जानेवाला होने से जन्म का नहीं था किन्तु कृत्रिम (बनावटी) था। जवकि कृत्रिम वन्दर का रूप उन्होंने बनाया हुआ था तब पूंछ का होना अनिवार्य हुा । बन्दर का वेश उन्होंने अपना क्यों बनाया हुमा था? इसके कारण अनेक हो सकते हैं। राज नैतिक चाल से नागरिक नर सम्राटों के या राक्षसों के भय से उन्होंने वानरवेश धारण किया हो या सैनिक वेश के लिए हो, प्राजकल विषैली गैस छोड़नेवाले सैनिकों का वेश हाथी जैसा हो जाता है, मुख के प्रागे नाक के साथ लम्बी संड श्वास लेने की लगी रहती है, इस सेना को हाथी पलटन कह सकते हैं जैसे घाघरा पहिननेवाली पलटन घाघरा पलटन कहलाती और चोटी पलटन भी एक है जिनकी टोपियों के पीछे चोटी लगी रहती है। हनुमान् प्रादि की पूंछ कोई अस्त्रविणेष का साधन भी हो, जैसे प्राजकल के सैनिक बन्दूक पीछे लटकाये रहते हैं, यदि यह बन्दूक और ऊपर हो तो पूंछ-सी ही लगेगी, जिसे वे धारण करने के कारण ही पूंछयाले होने से वानर कहलाये गये हों ! पूंछ में स्प्रिंग और विद्यत् का प्रयोग हो उससे वे यथेष्ट उछल सकते हों पौर शत्रु पर प्रहार कर सकते हों! हनुमान को स्थान-स्थान पर विद्युत् से उपमा तो दी ही है
-(वा० रा० कि० ६७।२५) हनुमान् कहता है कि मैं एक निमेषमात्र में निरालम्बन आकाश में सहसा गति करूंगा मेघ से उठो विद्युत् की तरह।
” यया निपतत्युल्का उत्तरान्ताद्विनिःसृता। दृश्यते सानुबन्धा च तथा स कपिकुञ्जरः।।”
गति कींगा मेघपया निपतत्युत्का नया स कपिकुज रा० सु० १।६६)
हनुमान् प्राकाश में ऐसे चला जैसे पूंछसहित उल्का गति करती है।
“विचचाराम्बरे वीरः परिगृह्य च मारुतिः। सूदयमास वज्रेण दैत्यानिव सहस्रदक॥”
-(वा० रा० सु०४३।४०) हनुमान आकाश में उड़ा और वज्र से राक्षसों को ऐसे हिंसित किया जैसे इन्द्र ने दैत्यों को।
“निपपात महावेगो विधुद्राशिगिराविव।”
-(वा० रा० सु०४६।२५) महावेगवान् हनुमान् राक्षसों पर टूटा जैसे पर्वत पर विद्युद्राशि ।
इससे हनुमान् आदि की पूंछ अस्त्रविशेष का साधन भी हो सकती है और उन्हें उचकाने ऊपर उछालने का उपायविशेष भी हो सकता है । अस्तु ।”
डॉ० जनार्दनवत्त शुक्ल ‘पूंछ’ के सम्बन्ध में लिखते हैं कि-“जहां तक पूंछ का सवाल है, यह शरीर का अभिन्न अंग न थी बल्कि वानरजाति ही की एक विशिष्ट जातीय निशानी थी, इसी कारण उन्हें प्रिय थी और इसी कारण लंका दहन करते समय हनुमान को कोई शारीरिक कष्ट नहीं हुआ। सावरकर जी ने अपने अंडमाम-कारावास के संस्मरणों में लिखा है कि उस द्वीप में पंछ लगाने वाली एक आदिवासी जाति रहती है। ……”
१. “रामायण-दर्पण” पृष्ठ ९४ से 8 तक।
२. मासिक पत्रिका “कादम्बिनी” नई दिल्ली, वर्ष २३, अक्टूबर १९८३ ई०,
अंक १२, पृ० ६६
‘हनूमान्’ शब्द की व्युत्पत्ति
(क) ‘मह”हन्’ हिंसा तथा गतिमान् अर्थयुक्त धातु से प्रत्यय ‘माइतथा ‘हनुरस्ति
अस्य अस्मिन् वा’ इस अर्थ में तद्धितीय ‘मतुप’ प्रत्यय ‘नम्’ एवं दीर्घादि करने पर ‘हनूमान्’ शब्द की निष्पत्ति होती है। ‘मतुप्’ प्रत्यय से प्रकृति के अर्थ की अतिशय विशिष्टता अथवा विलक्षणता सूचित होती है। इस प्रकार
‘हनूमान्’ शब्द का अर्थ विलक्षण ‘चिबुक’-(ठुड्डी)-वाला होगा।’ (ख) ‘हनुमान्’ या ‘हनूमान्’ पद ‘हनुमत्’ या ‘हनूमत्’ शब्द की प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त रूप है । इस शब्द की शब्दशास्त्रीय व्युत्पत्ति अनेक प्रकार से होती है-(१) ‘हनु’ या ‘हनू’ (जो ठुड्डी-ऊपरी जबड़े का वाचक है) शब्द के आगे तदस्य अस्ति’ (पा० श६४) अर्थ में अथवा अतिशयन अर्थ में भी ‘तद्धितीय’ ‘मतुप्’ प्रत्यय के योग से ‘हनुमत्’ या ‘हनूमत्’ शब्द की सिद्धि होती है। यह शब्द सुग्रीव, सचिव, पवनपुत्र अथवा श्रीरामदूत हनुमान जी का बोधक है।” (ग) “हन्+उन् =हनु । स्त्रीत्वपक्षे ऊङ्-हन्+ऊ=हन+मतुप्-हनुमत्
अथवा हनूमत् = हनुमान् या हनूमान् ।” (घ) “हनु (नू) मत् (पुं) हनु (नू)+मतुप् = एक अत्यन्त शक्तिशाली वानर
का नाम । ……’
१. दैनिक पत्र “सन्मार्ग” वाराणसी का “वेद विशेषांक” २ अगस्त सन् १९८१ ई०, वर्ष ३६, अंक १६२, पृष्ठ १६
२. मासिक पत्र “कल्याण” गोरखपुर का ‘श्री हनुमान मंक’ वर्ष ४६, जनवरी सन् १९७५ ई०, संख्या १, पृष्ठ ६८
३. वही, पृष्ठ १५५ ४. पं० वामन शिवराम प्राप्टे कृत “संस्कृत-हिन्दी कोष” पृष्ठ ११६५
[Students Sanskrit-English Dictionary(स्टुडेण्ट्स संस्कृत-इंगलिश डिक्शनरी) का आर्य (हिन्दी) भाषा में अनुवाद, सन् १९६६ ई० में सर्वश्री मोतीलाल बनारसीदास, बंगलो रोड, जवाहर नगर, दिल्ली ७ द्वारा प्रकाशित]
(ङ) हनुमत्, हनूमत् [V हन्+उन्, स्त्रीत्वपक्षे ऊ] [हनु (न्)+मतुप] – सुग्रीव-सचिव एवं श्रीरामदूत हनुमान जी]”‘ क्या वैदिक साहित्य में ‘हनूमान् जी’ की चर्चा है ?
– मेरे विचार से चारों मूलसंहिताभाग वेदों में कहीं भी न ‘हनूमान्’ शब्द है पौरन उसकी चर्चा ही है।
कुछ पाश्चात्य वेदज्ञ व उनके चरण-चिह्नों पर चलनेवाले कुछ भारतीय विद्वानों को वेदों में ‘हनूमान् जी’ दृष्टिगोचर होते हैं जो उनकी कपोल-कल्पना ही है।
“ऋग्वेद गण्डल १०, सूक्त ८६, मन्त्र १-५,८,१२, १३, १८, २०, २१, २२ में ‘वृषाकपि’ शब्द भाता है। इसे कुछ विद्वान् हनूमान्’ की कल्पना करते हैं। श्री ए. ए. मैकडॉनल लिखते हैं-“एक पुराकथा, जिसका कोई सर्वसामान्य महत्त्व नहीं है और जो केवल ऋग्वेद के किसी बाद के कवि का आविष्कार मात्र है, इन्द्र तथा ‘वृषाकपि’ से सम्बद्ध है, जिसका विवरण कुछ अस्पष्ट रूप से ऋग्वेद १०, ८६ में मिलता है। यह सूक्त इन्द्र और ‘इन्द्राणी’ के बीच उस ‘वृषाकपि’ नामक एक बन्दरसम्बन्धी विवाद का वर्णन करता है जो इन्द्र का प्रियपात्र था और जिसने इन्द्राणी की सम्पत्ति को क्षति पहुँचायी थी।”फॉन वाड्के इस कथा को एक व्यंग्य मात्र मानते हैं जिसमें इन्द्र और इन्द्राणी के नाम से एक गजा तथा उसकी पत्नी का प्राशय है।”
श्री वेलंकर ने ‘वृषाकपि’ को दासों का राजा तथा इन्द्र का मित्र बतलाया
१. “संस्कृत-शब्दार्थ-कौस्तुभ” पृष्ठ १३२१ [सन् १९७५ ई० में सर्वश्री रामनारायणलाल बेनीप्रसाद, इलाहाबाद २११००२ द्वारा प्रकाशित, पंचम संस्करण]
२. MVedic Mythology का मार्य भाषा में श्री रामकुमार राय कृत अनुवाद
“वैदिक माइथोलोजी” (वैदिक पुराकथाशास्त्र) पृष्ठ १२०-१२१ सन १९६१ ई० में चौखम्बा विद्याभवन, चौक, वाराणसी-१ द्वारा प्रकाशित प्रथम संस्करण]
३. ऋग्वेद १०।८६।४ पर पादटिप्पणी
समीक्षा-‘वृषाकपि’ का अर्थ इन लालबुझक्कड़ों ने नहीं समझा है । लोकिक संस्कृत कोषों में भी इसका अर्थ ‘हनूमान्’ नहीं पाता है — “वृपाकपिः [वृपः कपिः अस्य, ब० स०, पूर्वपद दीर्घ, या वृषं धर्म न कम्पयति / कम्प+इन्, न लोप] = सूर्य, विष्णु, शिव, इन्द्र, अग्नि।’
अध्यात्म पक्ष में ‘इन्द्र’ आत्मा है, ‘इन्द्राणी’ बुद्धि है। ‘वृषाकपि’ मन है, जिसके साथ अहंकाररूपी ‘हरितमृग’ रहता है। मनुष्य जो भान्तरिक यज्ञ रचाता है, उसमें इन्द्रिय, प्राण प्रादि के समस्त हवियों का प्रपंण प्रात्मा को ही किया जाना चाहिए। परन्तु साधना की अपरिपक्वावस्था में वह मन (वृषाकपि) को अपना अधिष्ठातृदेव मान बैठता है, तथा उसे ही सब हवियों देता है। बुद्धि इस मन से बहुत रुष्ट है, क्योंकि इसके साथ जो अहंकाररूपी मृग रहता है, वह सव हवियों को दूषित कर देता है। जो हवि अहंभाव के साथ देवता को अर्पित की जाती है वह सात्विक एवं परिशुद्ध हवि नहीं होती, प्रतः बुद्धि इसका विरोध करती है, तो भी आत्मा का इस मन के साथ स्नेह और उसे इसके साथ मिलकर ही सोमपान या हविग्रहण रुचिकर है। ……”
आधिदैविक दृष्टि से लोकमान्य पं० वालगंगाधर तिलक ने अपनी ‘पोरायन’ (मृगशीर्ष) नामक अंग्रेजी पुस्तक में इस सूक्त की एक व्याख्या उपस्थित की है। उनका कथन है कि इस सूक्त में आकाश को उस प्राचीन स्थिति का उल्लेख है जब मृगशीर्ष नक्षत्र में वसन्त-सम्पात से प्रारम्भ होता था। इसे ही देवयान या सूर्य का उत्तरायण काल भी कहते थे। शरत्सम्पात से पितयाण या दक्षिणायन काल चलता था। उस समय यज्ञ निरुद्ध हो जाते थे। जब या चालू रहते हैं, उस समय इन्द्र तथा इन्द्राणी को सोमरस तथा हवि प्राप्त होती रहती है। तिलक जी के मत में प्रस्तुत सूक्त में वृपाकपि उस समय का सूर्य है जब वसन्त-सम्पात मृगशीर्ष नक्षत्र में था।”
१. संस्कृत शब्दार्य कौस्तुभ, पृष्ठ ११०२ २. डॉ० रामनाथ जी वेदालंकार, एम० ए०, पी-एच० डी० कृत “वेदों की वर्णन शैलियाँ” शोध प्रबन्ध, पृष्ठ १६६-१६७ [सन् १९७६ ई० में श्रद्धानन्द शोध संस्थान, गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार द्वारा प्रकाशित, प्रथम संस्करण]
स्कन्द स्वामी अपने ‘निरुक्त भाष्य’ में कहते हैं कि ऐतिहासिक पक्षा इन्द्राणी इन्द्र की भार्या तथा वृषांकपि इस नाम से प्रसिद्ध ऋषि है, किन्त पक्ष में इन्द्राणी ‘माध्यमिक वाणी’ एवं वृषाकपि ‘यादित्य’ है।’
राजनतिक दृष्टि से ‘इन्द्र’ राष्ट्र का राजा हो सकता है, इन्द्राणी राजपरिषद और वृषाकपि सामन्त राजा, जो प्रधान राजा या इन्द्र का प्रबल सहायक होने उसका सखा है, अथवा उसी के द्वारा राज्याभिषिक्त किये जाने के कारण उसका पुत्र है । इन्द्र वृषाकपि के साथ सोमपान करता है। इसका आशय यह है कि सामन राजा अपने राज्य से जो कर (टैक्स) एकसारखा है उसमें से कुछ अंश तो वह अपने राज्य में व्यय करने के लिए अपने पास रखना तथा कुछ प्रतिशत अंश प्रधान राजा को देता है। सामतू राजा का कोई अधिकार है, जो उसका शीर्ष स्थानीय है, तथा जो यह परामरा देता है कि अपनी प्रजा से प्राप्त सारा कर अपने ही पास रखो, प्रधान राजा मत दो एवं तुम स्वतन्त्र हो, जागो। यही ‘हरित मृग’ है। उसकी कुमन्त्रणा के कारभूत हो सामन्त वैसा ही करने लगता है, तब राज परिषद् (इन्द्राणी) इस समस्या भी विचार करने के लिए बैठती है। राजपरिषद् के सदस्य यह विचार प्रस्तुत करते हैं, कि.वृषाकपि का सिर काट देना उचित है, अर्थात् उसे राज्यच्युत कर देना चाहिए
पाश्चात्य विद्वात् पारजिटर ने ही वृषाकपि को हनुमान् से जोड़ा है।
3. Vrishakapi must, therefore, be taken
to represent the Sun ___in Orion [Orion 1955, Tilak Bros, Poona, 2, pp. 189]
२. “इन्द्राणी माध्यमिकामिन्द्रस्य वा भार्याम् । ……”नेह प्रसिद्धो वृषाकपि ऋषिः । तहिं ? धुस्थानोऽभिप्रेतः । निरुक्त ११.३८ का ‘स्कन्दस्वामीभाष्य’। ‘सख्यर्वशाकपेऋते संख्या वृषाकपिनामादित्येन ऋषिणा विनेत्यर्थः । निरुक्त ११.३६ का ‘स्कन्दस्वामी भाष्य’।
३. “वेदों की वर्णन-शैलियाँ” पृष्ठ १६६-१७० ४. एफ० ई० पारजिटर-‘Suggestions regarding Rigveda’ १०.६८,
जनरल ऑफ़ दी रायल एशियाटिक सोसाइटी, १९११ ई०, पृष्ठ ८०३ तथा आगे : १६१३ ई०, पृष्ठ ३९६
परन्तु पूर्वोक्त प्रमाणों से पारजिटर का भ्रमभजन हो जाता है।
पण्डित चन्द्रमणि जी विद्यालंकार, पालीरतवृषाकपि अर्थ धर्म है जैसा कि महाभारतान्तर्गत मोक्षधमं पवं के न श्लोक से (१४२ ८७ श्लो०) विदित होता है
१. “निरुक्त भाष्य” उत्तराद्ध, देवत कांड, पृष्ठ ६६७ [मार्च १९२६ ई०, प्रथम ___ संस्करण, हरिद्वार]
२. “निरुक्त सम्मर्श:” पृष्ठ ८१७ [१६६६ ई० में लेखक द्वारा प्रकाशित, नया आर्य साहित्य मण्डल लि० अजमेर द्वारा प्राप्य, प्रथम संस्करण]
३. वही, पृष्ठ ८५७
अर्थात्-‘वृषाकपि’ द्युस्थान में देवतापद है। प्रकाश के अभाव में अन्धकार से प्राणियों को भयभीत करता है, इसलिए निश्चित ‘वृषाकपि’ है।’ . पण्डित भगवद्दत जी बी० ए०-“वृषाकपिः । अब जब रश्मिभिः रवि से प्रमिप्रकम्पयन्-चारों ओर से कंपाता हुआ [सूर्य] एति-प्राप्त होता है, तब वृषोपि होता है।”
-[शौनकीय बृहद्देवता २.६३] पण्डित रामकुमारराय प्राध्यापक, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय कृत अनुवाद –
“यतः एक कपिल-वृपभ’ का रूप धारण करके वह आकाश में ऊपर चढ़ते हैं, अत: ‘विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः” (ऋग्वेद १०८६।२) ऋचा में यह ‘वृषाकपि’ है (७) हैं, (अथवा) यह उच्चतम वृपभरश्मियों से कम्पित करते हुए जाते हैं; क्योंकि यह सन्ध्या-समय प्राणियों को प्रसुप्त करते हुए अपने गृह को जाते हैं, इस कारण इनका ‘वृषाकपि’ नाम इस कर्म से भी व्युत्पन्न हुया हो सकता है । वृषाकपि सूक्त की ‘धन्व’ से प्रारम्भ होनेवाली तीन ऋचाओं (ऋग्वे०१०।८६।२०-२२) में इन्द्र ने इनकी इसी प्रकार स्तुति की है।
श्री के० सी० चट्टोपाध्याय का मत है-“वृषाकपि प्रादित्य है जिन्हें महा भारत में ‘कपिर्वराहः श्रेष्ठश्च’ कहा गया है। इनके मत से कवित्व ढंग से प्रादित्य को वाराह बताया गया है।”
१. “निरुक्त भापार्थ तथा भाषाभाष्य” पृष्ठ ६३४ [संवत् २०२१ वि०, प्रथम संस्करण, श्री रामलाल कपूर ट्रस्ट, अमृतसर]
२. ‘शौनकीय बृहद्देवता’ पृष्ठ ४६ [संवत् २०२२ वि० में चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी द्वारा प्रकाशित, प्रथम संस्करण]
३. “वृषाकपि हिम’ इलाहाबाद यूनिवर्सिटी स्टडीज, ख० १, १९२५ ई०,
श्री उमाकान्त पो० शाह का मत है कि वृषाकपि को हनूमान् से जोड़ना ठीक नहीं है, क्योंकि संस्कृत शब्द हनुमन्त नहीं अपितु हनुमान् या हनुमत् है, दूसरे हनुमान् का वृषाकपि नाम पीछे के संस्कृत साहित्य में नहीं मिलता।”
ब्राह्मणप्रन्यों में वृषाकपि “प्रादित्यो वै वृषाकपिः”
[गां० उ० ६.१२ श्री हंसराज कृत वैदिक कोषः, प्रथम सं०, पृष्ठ ५२५] “प्रात्मा व वृषाकपिः” ऐतरेयवाह्मण ६।२६]
अतः वेदों से ‘वृषाकपि’ को ‘हनूमान् वतलाना भारी भ्रम है। कुछ प्राच्य विद्वानों के कल्पित व भ्रमपूर्ण अयं “अग्नि दूतं वृणीमहे होतारं………”
[ऋ०१०.१२.१] श्री स्वामी गंगेश्वरानन्दजी उदासीन-“अग्निम्, अग्रणी, वानराग्रणी, वायु पुत्र को अथवा दैत्य-दाव-दहन (दैत्य-वन के दाहक अग्नि) को……..”
इसी अर्थ की प्रतिलिपि मात्र पण्डित अर्जुन पाण्डेय ने अपने “ऋग्वेद में राम दूत श्री हनुमान्” शीर्षक लेख में की है।
समीक्षा-ऋग्वेद मण्डल १, सूक्त १२, मंत्र १ का सही अर्थ महर्षि दयानन्दजी महाराजकृत यूं है-“(अग्निम्) सर्वपदार्थच्छेदकम् (दूतम्) यो दावयति=देशा न्तरं पदार्थान् गमयत्युपतापयति वा तम्।…….
“=सब पदार्थों के छेदक भौतिक अग्नि को (दूतम्) पदार्थों को देशान्तर में प्रापक अथवा उनके उपतापक……..”
1. श्री
सायणाचार्य ने भी ‘अग्नि’ का अर्थ वायुपुत्र…….”आदि अर्थ नहीं किया है। उन्होंने भी अग्नि का अर्थ देवविशेष की कल्पना की है, अतः इन लोगों का अर्थ भ्रमपूर्ण है।
१. “वृषाकपि इन ऋग्वेद’ जनरल आफ दी मोरियण्टल इन्स्टीट्यूट एम० एस० 5 यूनिवर्सिटी आफ बड़ोदा, बड़ोदा, खण्ड ८, सितम्बर १९५८ ई०, नं० १, म पृष्ठ ४५
२. “विश्वतोमुख भगवान् वेद” पृष्ठ ११३-११४ [संवत् २०३७ वि० में राज धाम, गंगेश्वरधाम, निरंजनी अखाड़ा-मार्ग, हरिद्वार द्वारा प्रकाशित, प्रथम संस्करण] ; मासिक पत्र “कल्याण” गोरखपुर का “श्री हनुमान् अंक” वर्ष ४६, जनवरी १९७५ ई०, संख्या १, पृष्ठ ३७।
३. दैनिक “सन्मार्ग” वाराणसी का “वेद विशेषांक”
“ममच्चन ते मघवन् व्यंसोनिविविध्वाँ अप्प हन जघान……”
-ऋ०४।१८६]
चन’ निश्चित,
स्वामी गंगेश्वरानन्दजी-“हे इन्द्र ! ‘ते’ आपके सान्निध्य में ‘चन’ ‘ममत’ प्रमाद करते हुए ‘व्यंस’विशाल स्कन्धयुक्त आपके ऐरावत को फल कर खाने के लिए पकड़ने की इच्छा से भयंकर विशाल शरीरधारी कपिराजमा वीर ‘निविविध्वान्’ प्रापको लगातार सताने लगा।
समीक्षा-उदासीनजी का अर्थ ऊटपटांग, वैदिक व्याकरण, कोष वानिया के सर्वथा ही विपरीत है। यह उनकी कपोलकल्पना ही है। … शायद ‘हनू’ शब्द को देखकर आपको भ्रम हो गया है । ‘हन’ शब्द का अर्थ (हन) मुखणश्वी (महर्षि दयानन्दजी सरस्वती) है।
महर्षि दयानन्दजीकृत भावार्थ- “हे राजन् ! यो विरुद्धेन कर्मणा प्रजास विचेष्टते तं सदा निबद्धं शस्त्रव्यथितं कृत्वा सर्वतो निवनीहि”
“हे राजन् ! जो विरुद्ध कर्म से प्रजात्रों में चेष्टा करता है उसे सदा दृढबंधे को शस्त्रों से व्यथित कर सब प्रकार से बांधो।
पौराणिक पण्डित रामगोविन्द त्रिवेदी ‘वेदान्तशास्त्री व पण्डित गौरीनाथ झा ‘व्याकरणतीर्थ’ भी ‘हनूमान्’ परक अर्थ नहीं करते हैं। उन्होंने ‘हनू’ का अर्थ ‘इन्द्र के हनुद्वय (चिबुक अधोभाग)’ अर्थ किया है।’
स्वामी गंगेश्वरानन्दजी उदासीन-………”समुद्र के मध्य वर्तमान श्री. हनुमान् अभिवृद्ध हुए, उन्होंने विशाल कृति धारण कर ली।……..”
१. “विश्वतोमुख भगवान वेद ” पृष्ठ ११५; तथा “सन्मार्ग” का ‘वेदविशंपाक पृष्ठ १५२ [उदासीन जी के प्रथं की नकल] तथा मासिक ‘कल्याण’ का “हनुमान् ग्रंक’ पृष्ठ ३८ २. “ऋग्वेद भाष्यम्” चतुधमण्डलम् (षष्ठभागात्मकम्) पृष्ठ २३६ [संवत् १९८३ वि०, वैदिक यन्त्रालय, अजमेर] ३. “ऋग्वेद-संहिता” (सरल हिन्दी टीका सहित), तृतीय प्रष्टक, पृष्ठ १५४
[१६६० वि० संवत्, प्रथम संस्करण, सुलतानगंज]
समीक्षा-शायद ‘हन्मना’ शब्द को देखकर उदासीनजी को भ्रम हुआ है। आपका अर्थ निघण्टु, निरुक्त व व्याकरण के सर्वथा विरुद्ध है। सही अर्थ देखिए
महर्षि दयानन्दजी सरस्वती-“(हन्मना) हन्ति येन तेन हनन करने के साधन।
भावार्य-‘यथा विद्युता वृत्रं हत्वा निपातिता वृष्टिर्यवादिकमन्नं नदीतडाग समुद्रजलं च वर्धयति’ तथैव मनुष्यः सर्वेषां शुभगुणानां सर्वतो वर्षणेन प्रजाः सुख यित्वा शत्रून् हत्वा विद्यासद्गुणान् प्रकाश्य सदा धर्मः सेवनीय इति ।”=”जैसे विजुली के द्वारा मेघ को मारकर पृथिवी पर गिराई हुई वृष्टि यव प्रादि प्रत्येक अन्न को, और नदी, तड़ाग, समुद्र के जल को बढ़ाती है, वैसे ही मनुष्यों को चाहिए कि सब प्रकार से सव शुभगुणों की वर्षा से प्रजा को सुखी कर शत्रुओं को मारकर, और विद्यावृद्धि से उत्तम गुणों का प्रकाश करके धर्म का सेवन सदैव किया करें।”
श्री सायणाचार्यजी ने भी ‘हनूमान्’ परक अर्थ नहीं किया है। उनका भाष्य है, “प्रापः जलानि अस्य इन्द्रस्य स्वधाम् अन्न ग्रीह्मादिरूपमनुपलक्ष्य प्रक्षरन् मेघाद् वृष्टा अभवन् । तदानीमयं वृत्रः नाव्यानां नावा तरणयोग्यानां बह्वीनामयां मध्ये पा समन्तात् अवर्धत वृद्धि प्राप्तः। प्रभूतजले वर्तमानोऽपि न ममार किन्तु अभि वृद्ध एव । तदानीम् इन्द्रः सध्रीचीनेन सहगच्छता मनसा युक्तं तं वृत्रम् प्रोजिप्ठेन अतिबलयुक्तेन हन्मना हननसाधनेन वजेण अभिड्न कतिचिद् दिवमानभिलक्ष्य महन् तेषु दिवसेषु हतवान्।”
“जल इस इन्द्र के व्रीहादि अन्न का ध्यान न रखकर मेघ से वृष्टिरूप में गिरे। उस समय यह वृत्र नाव से तैरने योग्य बहुत जलों में चारों तरफ वृद्धि को प्राप्त हुआ। वृत्र बहुत जल में भी मग नहीं। तब इन्द्र ने साथ जाते हुए मन से युक्त उस वृत्र को बहुत शक्तिशाली मारने के साधन वन से कुछ दिनों के बाद मारा।”
पण्डित गोविन्द त्रिवेदी ‘वेदान्तशास्त्री व पण्डित गौरीनाथ का व्याकरण तीर्थ-“प्रकृति के अनुसार जल बहने लगा, किन्तु वृत्र नौकागम्य नदियों के बीच में बढ़ा । तब इन्द्र ने महाबलशाली और प्राण-संहारी प्रायुध द्वारा कुछ ही दिनों में स्थिर-मना वृत्र का वध किया था।”
_इन दोनों के अर्थ से सहमत न होते हुए भी मुझे यह प्रदर्शित करने के लिए देना पड़ा कि इस मन्त्र का अर्थ ‘हनूमान्’ परक नहीं है।
१. “विश्वतोमुख भगवान् वेद” पृष्ठ ११७; ‘कल्याण’ का श्री हनुमान् अंक,
-[ऋ०१। स्वामी गंगेश्वरानन्द उदासीन की कल्पना-‘यज्ञस्य’ संगमनमंत्री के निमित्त प्रथम सुग्रीव द्वारा श्रीराम के समीप प्रेषित ‘देवम्’ विजिगीषु ‘ऋत्विजम्’ समद्र पार करके राक्षसवृन्द के हृदय को भयभीत करनेवाले, ‘होतारम्’ युद्ध के लिए अशोक वाटिका में मन्त्री, मन्त्री के पुत्र, रावण के पुत्र अक्षयकुमार को ललकारने पर उपस्थित उन सबके संहारक, ‘रत्नधातमम्’ श्रीरामप्रदत्त अंगुलीयक अर्थात् रत्नजटित अंगूठी के धारक तथा सीताप्रदत्त चूड़ामणि के ग्राहक । ‘पुरोहितम्” दूतं, ‘अग्नि’ वायुपुत्र हनुमान की ‘ईळे’ स्तुतिपूर्वक वन्दना करता हूँ।
समीक्षा-कल्पना से दूर इन लालबुझक्कड़ों के अर्थ हैं। ऐसा न तो श्री सायणाचार्य और न किसी प्राच्य व प्रतीच्य विद्वान् ने ही स्वीकार किया है।
सत्यार्थ देखिए
महर्षि दयानन्दजी सरस्वती ने अपने ‘ऋग्वेदभाष्य’ में ‘अग्नि’ का परमात्मा” व ‘भौतिक अग्नि’ दो प्रकार के अर्थ किये हैं।
[भाष्य लम्बा होने से पूरा न देकर केवल भावार्थ दिया जा रहा है-]
(अग्निमीळे०) [इस मन्त्र में] परमार्थ और व्यवहार-विद्या की सिद्धि के लिए ‘अग्नि’ शब्द करके परमेश्वर और भौतिक ये दोनों अर्थ लिये जाते हैं। जो पहले
१. “ऋग्वेदसंहिता” (सरल हिन्दी टीकासहित), प्रथम अष्टक, पृष्ठ ४६ २. “विश्वतोमुख भगवान् वेद” पृष्ठ ११६, मासिक ‘कल्याण’ का ‘श्री हनुमान्.
अंक’ पृष्ठ ४० व ‘सन्मार्ग’ का “वेद विशेषांक” पृष्ठ १५३
महर्षि दयानन्दजी ने यहां श्लेप प्रलंकार से ‘अग्नि’ शब्द का ईश्वर और भौतिक अग्नि अर्थ ग्रहण किया है। ___श्री सायणाचार्य का अर्थ ‘हनूमान्’ परक नहीं वरन् उन्होंने ‘अग्नि’ का अर्थ ‘अग्नि नामक देव’ किया है। ___पं० रामगोविन्द त्रिवेदी ‘वेदान्तशास्त्री’ व पं० गौरीनाथ का व्याकरण तीर्य-“यज्ञ के पुरोहित, दीप्तिमान्, देवों को बुलानेवाले ऋत्विक् और रत्नधारी अग्नि की मैं स्तुति करता हूँ।”
स्वामी हरिप्रसाद जी उदासीन-“मैं सबके अग्रणी की पूजा करता हूँ, जो प्रथम ही सबका हितकारी, (इस नैसर्गिक) यज्ञ (ब्रह्माण्ड) का देव और कर्ता तथा सबको अपने पीछे चलने के लिए अपनी पोर बुलानेवाला और सबसे बढ़कर अभीष्ट पदार्थों का देनेवाला है।”३
समय में मार्य लोगों ने अश्वविद्या के नाम से शीघ्रगमन की हेतु शिल्पविद्या प्राविष्कृत की थी, वह अग्निविद्या की ही उन्नति थी। परमेश्वर के आप ही पाप प्रकाशमान सवका प्रकाश और अनन्त ज्ञानवान् होने से, तथा भौतिक अग्नि के रूप-दाह-प्रकाश-वेग-छेदन प्रादि गुण और शिल्पविद्या के मुख्य साधक होने से अग्नि शब्द को प्रथम ग्रहण किया है [ऐसा समझना चाहिए। – इस मन्त्र का देवता अर्थात् प्रतिपाद्य ‘अग्नि’ है जो मन्त्र में भी साक्षात् पढ़ा है।
क्या इस उदासीन विद्वान् से भी अपने को स्वामी गंगेश्वरानन्दजी अधिक विद्वान् समझते हैं ?
निरुक्त ७।१४ में ‘अग्नि’ का भौतिक अर्थ दिया है
हिरण्यरूपः स हिरण्यसंगा ……”
[ऋ० २।३५-१०], स्वामी गंगेश्वरानन्दजी उदासीन-“”इस ‘अपांनपात्’ देव हनुमान के लिए ‘अन्नम्’ अन्नोपलक्षित मधुर मोदकादि पदार्थ ‘ददाति’ देते हैं, उन्हें मोद कादि भोग लगाते हैं।”
१. “सानुवाद ऋग्वेदसंहिता”प्रथम अष्टक, पृष्ठ १ .
२. “वेद सर्वस्व” प्रथम संस्करण, पृष्ठ ८१
३. “विश्वतोमुख भगवान् वेद” पृष्ठ १२०-१२१ तथा ‘सन्मार्ग का ‘वेद विशेषांक’ पृष्ठ ५३ तथा ‘कल्याण’ का ‘श्री हनुमान् ग्रंक” पुष्ठ ४१
समीक्षा-इस मन्त्र में वायुपुत्र ‘हनूमान्’ का ढूंढना भी खपुष्प के सदृश है। उदासीनजी की कल्पना की लम्बी उड़ान है । सत्यार्थ देखिए
महर्षि दयानन्दजी सरस्वती-“भावार्थ:-योऽग्निर्वायुजोऽखिलवस्तुदर्शको. ऽन्तहितो सर्वविद्यानिमित्तोऽस्ति तं विज्ञाय प्रयोजनसिद्धिः कार्या।” ___ “जो अग्नि-पवन से उत्पन्न हुमा समस्त पदार्थों को दिखानेवाला सर्वपदार्थों के भीतर रहता हा सर्व विद्यानों का निमित्त है, उसको जानकर प्रयोजन सिंह करना चाहिए।
पं० रामगोविन्द त्रिवेदी ‘वेदान्तशास्त्री’ व गौरीनाथ झा ‘व्याकरणतीर्थ’_ “वह हिरण्यरूप, हिरण्याकृति, और हिरण्यवर्ण हैं। वह हिरण्यमय स्थान के ऊपर बैठकर शोभा पाते हैं । हिरण्यदाता उन्हें अन्न देते हैं।”
अतः आपका अर्थ कल्पनामात्र ही है। – पं० श्रीरामकुमार दास जी ‘रामायणी’ का ‘कल्याण’ के ‘श्री हनुमान अंक’ पृष्ठ ७१ से ७३ तक में “वेदों में श्री हनुमान” शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है।
आपने ‘मन्त्र रामायण’ श्री पं० नीलकण्ठ भाष्य का ‘हिन्दी अनुवाद’ “वेदों में रामकथा” नामक पुस्तक भी लिखी है।
इसी प्रकार “वेद रहस्यम्” रहस्यमार्तण्डभाष्यम् में ऊटपटांग कल्पना करके वेदों में ‘हनूमान्’ को खोजने का प्रयास किया है।
“देवास मायन् परशुं रविघ्रन्……” -[ऋ० १०।२८।८] इस मन्त्र से हनुमान जी द्वारा अशोक वाटिका उजाड़ने की कल्पना पं० श्रीरामकुमार दास जी ने की है।
१. “ऋग्वेद भाष्यम्” (चतुर्थ भागात्मकम्), द्वितीय मण्डलम्, पृष्ठ ३२१
[संवत् २०१६ वि०, वैदिक यन्त्रालय, अजमेर, तृतीयावृत्ति २. “सानुवाद ऋग्वेदसंहिता” द्वितीय अप्टक, पृष्ठ १८३ ३. प्रथमावृत्ति सेठ श्री ब्रजमोहनदासजी ‘विजय’ शुजालपुर (म० प्र०) द्वारा
प्रकाशित । ४. प्रथमावृत्ति, श्री त्रिदण्डि संस्थान, श्रीरामानन्द पीठ, श्री शेषमठ-विश्राम
द्वारका (शींगड़ा) सौराष्ट्र द्वारा प्रकाशित । ५. कल्याण’ का ‘श्री हनुमान् अंक’ पृष्ठ ७१, ‘वेदों में रामकथा’ पृष्ठ १४२
(दर्वि) हे सुवा! तू (पूर्णा) घृत से भरी हुई (परापत) यज्ञकुण्ड में जाकर गिर। वहाँ से (सुपूर्णा) खूब भरी हुई (पुनः आ पत) फिर हमारे पास आ । इस प्रकार हे (शतक्रतो) सैंकड़ों यज्ञों के कर्ता इन्द्र परमेश्वर ! हम (वस्ना इव) जैसे मूल्य से किसी वस्तु का क्रय-विक्रय किया जाता है, वैसे ही (इषम्) अन्न, रस आदि तथा (ऊर्जम्) बल, प्राण, स्वास्थ्य आदि (वि क्रीणावहै) विशेषरूप से खरीदें।
क्या तुम सोचते हो कि यज्ञ में घृत से भरी हुई खुवा जब अग्नि में घृत उंडेलती है, तब हमारे पास वापिस आती हुई वह खाली होती है? यदि ऐसा सोचते हो तो तुम भ्रम में हो। यदि ऐसा होता तो वेदादि शास्त्रों में यज्ञ की असीम महिमा वर्णित न होती। यज्ञ तो देने-लेने का व्यापार है। उसमें व्यय भी है, आय भी है। भौतिकता की दृष्टि से देखें तो हम अग्नि को हवि देते हैं, बदले में अग्नि जल-वायु की शुद्धि करके तथा हमारे शरीर में श्वास के साथ स्वास्थ्यवर्धक हवि का अंश पहुँचा कर हमें स्वास्थ्य तथा दीर्घायुष्य प्रदान करता है।
अग्नि की ऊर्ध्वगामी ज्वालाओं से हम ऊर्ध्वगामी होने की प्रेरणा लेते हैं। अग्नि के ताप और प्रकाश से हम तपस्वी और प्रकाशवान् होने का सन्देश ग्रहण करते हैं। अग्नि के मलिनताओं को भस्म करने के गुण से हम अपने पाप-ताप को भस्म करने का व्रत लेते हैं। जब हम ‘इन्द्राय स्वाहा’ बोलकर इन्द्र को आहुति प्रदान करते हैं, तब शतक्रतु इन्द्र से अर्थात् इन्द्र प्रभु के सृष्ट्युत्पत्ति, सृष्टिसञ्चालन, ऋतु-निर्माण, संवत्सर-रचना, जल-वाष्पीकरण, वृक्षारोपण, पुष्प-विकास, नदी-प्रवाह, ग्रहोपग्रह-व्यवस्था, तारकावलि-प्रकाशन आदि शत-शत यज्ञों की साधनारूप खुवा से हम यज्ञभावना को अपने अन्दर जागृत करते हैं।
इस प्रकार यज्ञ की खुवा जब अग्नि में आहुति डाल कर वापिस आती है, तब वह खाली नहीं होती, प्रत्युत वह स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य, ऊध्र्वज्वलन, तप, प्रकाश, निष्पापता, त्याग, आस्तिकता आदि से भरपूर होती है। जितनी बार सुवा से हम अग्नि में हवि का त्याग करते हैं, उतनी ही बार वह उत्तम ऐश्वर्यों से भरी-पूरी होती हुई हमारे पास वापिस आकर उन ऐश्वर्यों को हमारे मानस में उंडेल देती है। इस प्रकार जैसे कोई मूल्य देकर बदले में बहुमूल्य वस्तुएँ प्राप्त करता है वैसे ही अग्नि में हवि देकर बदले में हम नाना भौतिक एवं आध्यात्मिक ऐश्वर्यों को प्राप्त कर लेते हैं। एवं यह क्रय विक्रय का व्यापार अग्निहोत्र में निरन्तर चलता रहता है।
इस मन्त्र के दयानन्दभाष्य के भावार्थ में लिखा है-“जो मनुष्यों द्वारा सुगन्धि आदि द्रव्य अग्नि में होम किया जाता है। वह ऊपर जाकर वायु, वृष्टिजल आदि को शुद्ध करके पुनः पृथिवी पर आ जाता है, जिससे यव आदि ओषधियाँ शुद्ध होकर सुख और पराक्रम को देनेवाली हो जाती हैं। जैसे व्यापारी रुपया आदि दे-लेकर अन्न आदि अन्य द्रव्यों को खरीदते-बेचते हैं, वैसे ही अग्नि में द्रव्यों की आहुति देकर वृष्टि, सुख आदि को खरीदता है और वृष्टि, ओषधि आदि को लेकर पुनः वृष्टि के लिए अग्नि में होम करता है।”
ऋषिः अवत्सारः । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।
तुनूपाऽअग्नेऽसि तुन्वं मे पाह्यायुर्दाऽअग्नेऽस्यायुर्मे देहि वर्षोदाऽ अग्नेऽसि वर्षों में देहि।अग्ने यन्मे तन्वाऽऊनं तन्मऽआपृण।।
-यजु० ३ । १७
(अग्ने ) हे अग्रनायक जगदीश्वर और भौतिक अग्नि! तुम ( तनूपाः असि ) शरीरों के पालक व रक्षक हो, अतः ( मे तन्वं पाहि ) मेरे शरीर को पालित-रक्षित करो। (अग्ने ) हे परमात्मन् तथा अग्नि-विद्युत्-सूर्य रूप अग्नि! तुम ( आयुर्दाः असि ) आयु देने वाले हो, अत: ( मे आयुः देहि ) मुझे आयु दो। ( अग्ने ) हे परमेश्वर तथा उक्त अग्नियो ! तुम ( वच्चदा: असि ) वर्चस् देने वाले हो, अतः (मे वर्चः३ देहि ) मुझे वर्चस् दो। ( यत् ) जो ( मे तन्वाः ) मेरे शरीर का ( ऊनं ) न्यून है ( तत् मे ) मेरे उस सामर्थ्य को ( आ पृण) पूर्ण करो।।
प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि मैं सुपालित और सुरक्षित रहूँ, मुझ पर दैवी आपदाएँ न आयें, भूकम्प, अतिवृष्टि, नदी की बाढ़ों आदि का शिकार में न होऊँ, मुझे दीर्घायुष्य प्राप्त हो, मैं यशस्वी-वर्चस्वी बनूं, मेरे अन्दर जो न्यूनताएँ हैं, वे न रहें। किन्तु इसका उपाय क्या है? इसका उपाय है ‘अग्नि’ । अग्नि अग्रनायक, तेजस्वी, महिमाशाली परमेश्वर का नाम भी है और भौतिक अग्नि को भी अग्नि कहते हैं। भौतिक अग्नि में पार्थिव अग्नि, अन्तरिक्ष की विद्युत् और द्युलोक का सूर्य सभी आ जाते हैं। इनके अतिरिक्त भी जहाँ-कहीं अग्नि-तत्त्व है, वह भी अग्नि से गृहीत हो जाता है।
हे अग्नि! तू शरीरों का रक्षक है, मेरे शरीर की भी रक्षा कर। संसार में जितने भी जड़-चेतन शरीर हैं, वे सब ईश्वरीय छत्रछाया से ही रक्षित– पालित हो रहे हैं, अतः ईश्वर की वह छत्रछाया मेरे शरीर को भी प्राप्त होती रहे। इसके अतिरिक्त भौतिक अग्नि भी शरीरों की रक्षा कर रहा है। आग, बिजली और सूर्य हमारे कितने अधिक काम आने वाले तत्त्व हैं। कल्पना कीजिए ये तीनों हमसे छिन जाएँ तो न हम भोजन पका सकेंगे, न घरों, कारखानों आदि में विद्युत् का प्रकाश पा सकेंगे, न हमें दिन में सूर्य का प्रकाश मिलेगा, सदा हम रात्रि से ही घिरे पड़े रहेंगे। इन तीनों प्रकार की अग्नियों का प्रयोग करके सदा हम पालित-रक्षित होते रहें। साथ ही यदि शत्रु हमारी हिंसा करने का मनसूबा बाँधे, तो आग्नेयास्त्रों से उन्हें पराजित करके भी हम रक्षित होते रहें।
हे अग्नि! तू दीर्घायुष्य देनेवाला है, मुझे भी दीर्घायुष्य प्रदान कर। जगदीश्वररूप अग्नि के नियमों का हम पालन करते रहें, तो भी हमें दीर्घायुष्य प्राप्त हो सकता है। इसके अतिरिक्त उपर्युक्त तीनों प्रकार की भौतिक अग्नियों से लाभान्वित होकर भी हम दीर्घायु हो सकते हैं। अल्पायु होने में शारीरिक और मानसिक रोग बहुत बड़े कारण हैं। वैज्ञानिकों ने तीनों अग्नियों द्वारा रोगनिवारण के अनेक उपाय आविष्कृत किये हैं। चिकित्सकों द्वारा उन उपायों को अपने शरीर पर प्रयोग करवा कर भी हम दीर्घायुष्य पा सकते हैं।
हे अग्नि! तू वर्चस् को देनेवाला है, मुझे भी वर्चस्विता प्रदान कर। वर्चस् में ब्राह्म तेज, आत्मबल, विद्या और विद्वत्ता का तेज आदि आते हैं। परमेश्वराग्नि सब वर्चस्विताओं का स्रोत और पुञ्ज है। उसकी वर्चस्विताओं को अपना आदर्श बना कर हम भी वर्चस्वी बन सकते हैं। आग, विद्युत् और सूर्य के बल और प्रकाश का चिन्तन भी हमें वर्चस्वी बना सकता है।
हे अग्नियो ! मेरे शरीर में, शारीरिक अङ्गों में, रक्तसंस्थान, पाचनसंस्थान, मलविसर्जनसंस्थान, मन, मस्तिष्क आदि में जो कोई न्यूनता आ गयी है, बुद्धिबल, शौर्य आदि की कमी हो गयी है, उसे भी तुम दूर कर दो, जिससे मेरा शरीर संस्कृत, निर्दोष, सबल और प्रफुल्ल होकर अपने आत्मा को भी उपकृत करता रहे और परोपकार में भी संलग्न रहे।
तनूपाः अग्नि से प्रार्थना
पाद–टिप्पणियाँ
१. (तनूपाः) यस्तनूः सर्वपदार्थदेहान् पाति रक्षति स जगदीश्वरः पालनहेतुर्भोतिको वा-द०भा० ।
२. (वर्षोदा:) यो वर्षो विज्ञानं ददाताति, तत्प्राप्तिहेतुर्वा-द०भा० ।
( भूःभुवःस्वः ) सत्-चित्-आनन्द, पृथिवी-अन्तरिक्षद्यौ, अग्नि-वायु-आदित्य, ब्रह्म-क्षत्र-विट् का ध्यान करता हूँ।
मैं ( भूम्ना) बाहुल्य से ( द्यौःइव) द्युलोक के समान हो जाऊँ, ( वरिम्णा) विस्तार से ( पृथिवी इव) भूमि के समान हो जाऊँ। ( देवयजनिपृथिवि ) हे देव यज्ञ की स्थली भूमि! ( तस्याःतेपृष्ठे ) उस तुझे भूमि के पृष्ठ पर ( अन्नादम्अग्निम्) हव्यान्न का भक्षण करने वाली अग्नि को ( अन्नाद्याय) अदनीय अन्नादि का भक्षण करने के लिए ( आदधे ) आधान करता हूँ/करती हूँ।
अग्न्याधान से पूर्व व्याहृतियों द्वारा सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर का स्मरण करते हैं। शतपथ ब्राह्मण में भूः, भुवः, स्व: पूर्वक आहवनीय अग्नि के आधान का विधान करते हुए इन का सम्बन्ध क्रमशः पृथिवी-अन्तरिक्ष-द्यौ, ब्रह्म-क्षत्र-विट् तथा आत्मा-प्रजा-पशुओं से बताया गया है। इन सब में अपने-अपने प्रकार की अग्नि का वास है। तैत्तिरीय आरण्यक एवं तैत्तिरीय उपनिषद्में इन व्याहृतियों को क्रमशः भूलोक अन्तरिक्ष लोक-द्युलोक, अग्नि-वायु-आदित्य, ऋक्-साम-यजुः और प्राण-अपान-उदान का वाचक कहा है। वहाँ इनके द्वारा विधि करने का फल यह बताया गया है कि भू: के द्वारा अग्नि में, भुवः के द्वारा वायु में और स्वः के द्वारा आदित्य में प्रतिष्ठित हो जाता है, अर्थात् इन-इन के ऐश्वर्य का अधिकारी हो जाता है। इनका ध्यान करने वाला आत्मराज्य को और मन सस्पति को प्राप्त कर लेता है। वह वाक्पति, चक्षुष्पति, श्रोत्रपति हो जाता है, क्योंकि अध्यात्म में भूः, भुवः, स्व: का सम्बन्ध वाक्, चक्षु और श्रोत्र से भी है।
आगे यजमान कहता है कि बाहुल्य (भूमा) में मैं द्युलोक के समान हो जाऊँ, अर्थात जैसे द्यलोक में बहत-से नक्षत्र हैं। और इनकी रश्मियाँ हैं, वैसे ही मेरे अन्दर भी बहुत से सद्गुण रूप नक्षत्र एवं दिव्य अन्त: प्रकाश की किरणें उत्पन्न हों। फिर कहता है कि विस्तार में मैं पृथिवी के समान हो जाऊँ, अर्थात् मेरे आत्मा में अपनत्व का विकास इतना हो जाए कि सारी वसुधा को ही अपना कुटुम्ब मानने लगूं। फिर वह पृथिवी को सम्बोधन कर कहता है कि तुम ‘देवयजनी’ हो, अर्थात् तुम्हारे पृष्ठ पर सदा ही देवयज्ञ या अग्निहोत्र होते रहे हैं। अतः मैं भी तुम्हारे पृष्ठ पर अन्नाद (हव्यान्नभक्षी) अग्नि का आधान करता हूँ, जिससे वह अग्नि अदनीय (भक्षणीय) अन्नादि हव्य का भक्षण करके उसकी सुगन्ध को चारों ओर फैलाकर वातावरण को शुद्ध एवं रोग-परमाणुओं से रहित कर सके। शतपथ ब्राह्मण कहता है कि जैसे नवजात बच्चे को उस के भक्षण योग्य मातृ स्तन का दूध दिया जाता है, ऐसे ही नवजात अग्नि को उसके अदन के योग्य ही हव्यान्न दिया जाना चाहिए, अतःअन्नाद्य ( अद्य-अन्न) शब्द रखा गया है। * अन्नाद्याय’ का दूसरा भाव यह भी हो सकता है कि ‘भक्षणीयअन्न’ की प्राप्ति के लिए मैं अग्नि का आधान करता हूँ। अग्नि में डाली हुई आहुति आकाश में मेघमण्डल उत्पन्न करके वृष्टि द्वारा अन्नोत्पत्ति में कारण बनेगी और मुझे भक्षणीय अन्न प्राप्त होगा।*
अग्न्याधान
पाद–टिप्पणियाँ
१.श०२.१.४.१०-१४॥
२. तै०आ०७.५.१-३, तै०उ०शिक्षावल्ली५.१-४।।
३. भूरित्यग्नौप्रतितिष्ठति।भुवइतिवायौ।सुवरियादित्ये।