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आचार्यों द्वारा कुमार का गर्भ में धारण :रामनाथ विद्यालंकार

आचार्यों द्वारा कुमार का गर्भ में धारण

ऋषिः वामदेवः। देवता पितरः। छन्दः निवृद्आर्षीगायत्री।

आर्धत्तपितरोगर्भकुमारंपुष्करस्रजम्।यथेहपुरुषोऽसत्॥

-यजु० २। ३३ |

हे ( पितर:१) पालनकता गुरुजनो! आचार्यो ! आप ( पुष्करस्त्रजं कुमारं ) कमल फूलों की माला पहने हुए इस कुमार को ( गर्भम् आधत्त ) गर्भ रूप में धारण करो, ( यथा ) जिससे यह (इह ) यहाँ, गुरुकुल में ( पुरुषः ) विद्वान् पुरुष ( असत्) ही जाए।

वेद के आदेश और अनुभवी शिक्षाविज्ञों के अनुभव के अनुसार राष्ट्र में बालक-बालिकाओं की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए। एक महान् शिक्षाशास्त्री के वचन हैं—“इसमें राजनियम और जातिनियम होना चाहिए कि पाँचवें अथवा आठवें वर्ष से आगे कोई अपने लड़कों और लड़कियों को घर में न रख सके, पाठशाला में अवश्य भेज देवे। जो न भेजे वह दण्डनीय हो ।” जब बालक या बालिका गुरुकुल, विद्यालय या पाठशाला में विद्या पढ़ने आचार्य या आचार्या के पास जाते हैं, तब आचार्य या आचार्या उनका उपनयन संस्कार करते हैं।

अथर्ववेद के ब्रह्मचर्य सृक्त में लिखा है कि ”जब आचार्य ब्रह्मचारी का उपनयन संस्कार करता है, तब वह उसे अपने गर्भ में धारण करता है।” प्रस्तुत मन्त्र में पितरः’ को सम्बोधन है। ‘पितर:’ को अर्थ पालनकर्ता गुरुजन और आचार्यगण है। माता-पिताअपने बालक को स्वच्छ वस्त्र पहना कर, उसके गले में कमलफूलों की माला डाल कर गुरुकुल में प्रवेशार्थ उपनयन संस्कार के लिए आचार्य के समीप लाये हैं। वे बालक को आचार्यों के हाथों में सौंपते हुए कहते हैं-‘ हे आचार्य आदि गुरुजनो ! कमल-फूलों की माला धारण किये हुए इस कुमार को आप अपने गर्भ में धारण कीजिए।’

गर्भ में धारण करना सामीप्य-सम्बन्ध का प्रतीक है। जैसे गर्भस्थ सन्तान का माता के साथ अतिनिकट का सम्बन्ध होता है, ऐसे ही कुमार बालक या ब्रह्मचारी का आचार्य तथा गुरुजनों के साथ निकट का सम्बन्ध रहना चाहिए। निकटता में रह कर ही गुरुजन विद्यार्थी की शिक्षा की ओर अधिक ध्यान दे सकते हैं, उसके गुण-दोषों को देख सकते हैं तथा गुणों को प्रोत्साहित एवं दोषों को दूर कर सकते हैं। पाठ्यपुस्तकों द्वारा अध्यापन भी निकटता की अपेक्षा रखता है। पाठभूल जाने पर या कोई शङ्का होने पर तुरन्त छात्र गुरुजनों से पूछ सकता है। गुरुजन छात्र को अपने पास रख कर उसकी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक उन्नति पर भी ध्यान दे सकते हैं । गर्भ में धारण करने का लाभ क्या होगा इस विषय में मन्त्र कह रहा है कि यह अशिक्षित कुमार गुरु-सान्निध्य में शिक्षित होकर सत्पुरुष तथा उत्तम नागरिक बन जायेगा।

इस मन्त्र के भावार्थ में भाष्यकार” लिखते हैं—” विद्वानों और विदुषियों को चाहिए कि विद्यार्थी कुमारों और विद्यार्थिनी कुमारियों को विद्या देने के लिए गर्भ के समान धारण करें । जैसे गर्भ में देह क्रम-क्रम से बढ़ता है, वैसे अध्यापक लोगों को चाहिए कि सुशिक्षा से ही ब्रह्मचारी, कुमार वा कुमारी की सविद्या में वृद्धि करें तथा उनका पालन करें, जिससे वे विद्या के योग से धर्मात्मा और पुरुषार्थ युक्त होकर सदैव सुखी हों।”

आचार्यों द्वारा कुमार का गर्भ में धारण

पाद-टिप्पणियाँ

१. (पितरः) ये पान्ति विद्यान्नादिदानेन, तत्सम्बुद्धौ–द०भा०।

२. विद्याग्रहणार्था स्रग् धारिता येन तम् कुमारं ब्रह्मचारिणम्-द०भा० ।

३. असत् भवेत्-अस भुवि, अदादिः, लेट् लकार।

४. स्वामी दयानन्द सरस्वती ।

आचार्यों द्वारा कुमार का गर्भ में धारण

हमें वज्र, जाल, दुर्यज्ञ और दुर्भोजन से बचाओ

हमें वज्र, जाल, दुर्यज्ञ और दुर्भोजन से बचाओ    -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता अग्निः सरस्वती च। छन्दः भुरिग् ब्राह्मी त्रिष्टुप् ।

अग्नेऽदब्धायोऽशीतम पाहि मा दिद्योः पाहि प्रसित्यै पहि दुरिष्ट्यै पाहि दुरद्मन्याऽअविषं नः पितुं कृणु सुषदा योनौ स्वाहा वाडग्नये संवेशपतये स्वाहा सरस्वत्यै यशोभूगिन्यै स्वाहा ।।।

-यजु० २ । २० |

हे ( अदब्धायो ) मनुष्य को अहिंसित, अक्षत रखने वाले, (अशीतम ) सर्वव्यापक (अग्ने ) अग्ननायक जगदीश्वर! आप हमें ( पाहि ) बचाओ ( दिद्यो:) वज्र से, ( पाहि ) बचाओ (प्रसियै ) जाल से, ( पाहि ) बचाओ ( दुरिष्ट्यै ) दुर्यज्ञ से, ( पाहि) बचाओ (दुरद्मन्यै ) दुर्भोजन से, ( अविषं ) विषरहित (नः पितुं कृणु ) हमारे भोजन को करो। हे सरस्वती ! तू हमारे ( योनौ ) घर में ( सुषदा ) सुस्थित हो। ( स्वाहा ) एतदर्थ हम प्रार्थना करते हैं, ( वाड्) पुरुषार्थ करते हैं । ( संवेशपतये अग्नये स्वाहा ) समाधि के रक्षक आप जगदीश्वर का हम स्वागत करते हैं। ( यशोभगिन्यै सरस्वत्यै स्वाहा ) यश का भागी बनाने वाली सरस्वती का हम स्वागत करते हैं।

जगदीश्वर इस जड़-चेतन जगत् की रचना करता है और वही इसकी रक्षा भी करता है। मनुष्य भी यद्यपि सर्वोत्कृष्ट प्राणी है, तो भी वह उसकी रक्षा के बिना रक्षित नहीं रह सकता। सच तो यह है कि मनुष्य स्वयं अपनी हिंसा को निमन्त्रण देता रहता है। यदि उसे चेतानेवाला उसका संरक्षक परमेश्वर न हो तो वह शत वर्ष क्या, कुछ वर्ष भी जीवित नहीं रह सकता । परमेश्वर की सर्वव्यापकता का ध्यान भी मनुष्य को ऐसे कुकर्मों को करने से रोकता है, जिनसे उसकी हिंसा या क्षति होती हो। शत्रु का वज्र या उसके संहारक अस्त्र-शस्त्र भी मनुष्य को मृत्यु के घाट उतारने के लिए पर्याप्त हैं।

हे जगदीश! आप ही उसे शत्रु से लोहा लेकर उस पर विजय पाने का महाबल प्रदान कर सकते हो। काम, क्रोध आदि आन्तरिक षड् रिपु भी अपना जाल फैला कर संसार सागर में तैरते हुए मनुष्य को ऐसे ही फँसाने के लिए तत्पर हैं, जैसे मछुआरा मछलियों को अपने जाल में फँसाता है।

हे प्रभु, आप ही उसे उस जाल के प्रलोभन से दूर रहने की प्रेरणा कर सकते हो। मानव कुसङ्गति में पड़ कर दुर्भोजन भी करने लगता है। उसका स्वाभाविक भोजन तो फल, कन्दमूल, दूध, नवनीत, अन्न, रस, बादाम, किशमिश, छुहारा आदि ही हैं, किन्तु वह अण्डे, मांस, मदिरा आदि का भी सेवन करने लगता है। वह जिह्वा के स्वाद के वश होकर विषैले खाद्य और पये को भी अपने दैनिक भोजन का अङ्ग बना लेता है। उसे इसका परिज्ञान ही नहीं होता कि व्यापारिक कम्पनियाँ धन कमाने के लिए उसके आगे खट्टे, मीठे, तीखे, चरपरे, स्वादिष्ठ विषैले खाद्य और पेयों को परोस रही हैं। उसे तो स्वाद का आकर्षण होता है ।

हे महेश्वर ! आप ही किसी साधु बाबा को भेज कर मनुष्य को यह शिक्षा दिलाते हो कि वह इन विषैली वस्तुओं का बहिष्कार करे। आप हमें यह सीख दो और बल दो कि हम शत्रु के वज्र को निर्वीर्य करने का सामर्थ्य जुटायें, आन्तरिक रिपुओं के जाल में न फैंसने की दूर-दर्शिता प्राप्त करें और दुर्भोजन का विषपान न करें। हे परमात्मन्! मनुष्य जब योगाभ्यास में तत्पर होता है और यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान की क्रियाओं को करता हुआ समाधि तक पहुँचता है, तब उसकी उस समाधि के रक्षक भी आप ही होते हो। इस योगैश्वर्य के दाता के रूप में भी हम आपका स्वागत करते हैं।

हे अग्निसम तेजस्वी देवाधिदेव ! जैसे हम आपका स्वागत कर रहे हैं, वैसे ही आपकी दी हुई सरस्वती अर्थात् वेदविद्या का भी स्वागत करते हैं, उसका अध्ययन-अध्यापन करते हैं। और उसके उपदेशों को जीवन में चरितार्थ करते हैं। हमारे घरों में वह सरस्वती सदा ‘सुषदा’ रहे, सुस्थिर रहे। हे वेदविद्यारूप सरस्वती ! तू ‘यशोभगिनी’ है, हमें यश का भागी बनाने वाली है। तेरा स्वागत है।

हमें वज्र, जाल, दुर्यज्ञ और दुर्भोजन से बचाओ 

पदटिप्पणियाँ

१. अदब्धो ऽ नुपहंसितः आयुर्मनुष्यो यजमानो यस्य सो ऽ दब्धायु: म० । आयु=मनुष्य, निघं० २.३।

२. अशू व्याप्तौ । अश्नुते व्याप्नोति इत्यशी, अतिशयेन अशी अशीतमः, दीर्घश्छान्दस:-म० ।

३. दिद्युत्=वज्र, निघं० २.२०, तकारलोप । अथवा दिवु मर्दने चुरादिः । देवयति मृनाति अनेन इति दिद्युः वज्रः । दिव धातो: बाहुलकाद् उणादिः कुः प्रत्ययः, द्वित्वं च ।

४. प्रसितिः प्रसयनात् तन्तुर्वा जालं वा । निरु० ६.१२।।

५. अदनम् अद्मनी, दुष्टा अद्मनी दुरद्मनी दुर्भोजनम्-म० ।।

६. पितु=अन्न, निघं० २.७।।

७. योनि=गृह, निघं० ३.४

८. (वाड्) क्रियार्थे–२०भा० ।

९. संवेश–निद्रा, योगक्षेत्र में समाधि।

१०.यशांसि भजितुं शीलं यस्याः तस्यै–द०भा० ।

हमें वज्र, जाल, दुर्यज्ञ और दुर्भोजन से बचाओ 

होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ -रामनाथ विद्यालंकार

होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता: अग्निवायू यज्ञश्च । छन्दः भुरिक् पङिः।

घृताची स्थो धुर्यों पात सुम्ने स्थः सुम्ने मा धत्तम्। यज्ञ नमश्च तऽउप च यज्ञस्य शिवे सन्तिष्ठस्व स्विष्टे मे सन्तिष्ठस्व।

-यजु० २ । १९

हे अग्नि और वायु ! तुम (घृताची ) घृत आदि हवि को फैलाने वाले और मेघ-जल को भूमि पर लाने वाले, तथा ( धुर्यों ) होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ के धुरे को वहन करने वाले (स्थः ) हो, ( पातं ) मेरी रक्षा करो। तुम (सुम्ने स्थः ) सुखदायक हो, ( सुम्ने मा धत्तम् ) सुख में मुझे रखो। ( यज्ञ ) हे सब जनों के पूजनीय परमेश्वर । ( नमः च ते ) आपको नमस्कार है। आप ( यज्ञस्य शिवे ) होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ के मङ्गलप्रद सुख प्राप्त कराने हेतु ( उप सं तिष्ठस्व ) सामीप्य के साथ संनद्ध हों, (मे स्विष्टे ) मेरे यज्ञ का सुफल प्राप्त कराने हेतु ( सं तिष्ठस्व) संनद्ध हों।

मन्त्र के देवता अग्नि-वायु और यज्ञ हैं। अग्नि से पार्थिव अग्नि, विद्युत् और सूर्य तीनों ग्राह्य हैं। यज्ञ से होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ दोनों अभीष्ट हैं। होमयज्ञ में यज्ञाग्नि और वायु घृत आदि हव्य द्रव्य को दूर-दूर तक फैलाने का कार्य करते हैं। वे हविर्द्रव्य के सूक्ष्म परमाणुओं को अन्तरिक्षस्थ मेघजल तक भी ले जाते हैं, जिससे जल उन परमाणुओं से भरपूर तथा सुगन्धित हो जाता है। अग्नि-वायु मेघस्थ जल को बरसाने का काम भी करते हैं। इस वृष्टि में यज्ञाग्नि, अन्तरिक्षस्थ विद्युत् और द्युलोकस्थ सूर्य तीनों अग्नियाँ कारण बनती हैं। सुगन्धित जल बरस कर वनस्पतियों और प्राणियों को प्राप्त होता है तथा रोगों को नष्ट करता एवं प्राण प्रदान करता है और सुख देता है। इस प्रकार अग्नि और वायु होमयज्ञ के धुर्य (धुरे को वहन करने वाले) होते हैं। तीनों अग्नियाँ और वायु शिल्पयज्ञ के भी धूर्वह या साधक बनते हैं। ये भूमियानों, जलयानों और विमानों को तथा विविध यन्त्रों एवं कल-कारखानों को चलाने के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं और मनुष्यों को सुख देते हैं।

मन्त्र के उत्तरार्ध में ‘यज्ञ’ सम्बोधन पूजनीय परमेश्वर के लिए प्रयुक्त हुआ है। उसे नमस्कार करके उससे प्रार्थना की गयी है कि आप होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ का मङ्गलप्रद सुखदायक फल हमें प्राप्त कराते रहें, क्योंकि अग्नि-वायु भी ईश्वरीय नियमों के अनुसार ही कार्य करते हैं।

उवट एवं महीधर ने यज्ञ के शिव में संस्थित होने का आशय लिया है यज्ञ को न्यून या अधिक न होने देना और उसके लिए श्रुतिप्रमाण भी प्रस्तुत किया है।

होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ

 

पाद टिप्पणियाँ

१. घृतम् आज्यम् उदकं च अञ्चयत: स्थानान्तरं प्रापयत: इति घृताच्यौ। घृताची+औ, पूर्वसवर्णदीर्घघृताची। अञ्चु गतिपूजनयोः, भ्वादिः ।

२. सुम्नम्-सुखम्, निघं० ३.६।।

३. इज्यते सर्वैर्जनैः स यज्ञ: ईश्वर:-द०भा० ।

४. यज्ञस्य शिवे संतिष्ठस्व अन्यूनातिरिक्तं यज्ञं कुर्वित्यर्थः ।। ‘यद्वै यज्ञस्यान्यूनातिरिक्तं तच्छिवं, तेन तदुभयं शमयति’ इति श्रुतेः म० ।

होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ

हमारी आकांक्षाएं सत्य हों -रामनाथ विद्यालंकार

हमारी आकांक्षाएं सत्य हों

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता इन्द्रः । छन्दः भुरिग् ब्राह्मी पङ्किः।

मीदमिन्द्रऽइन्द्रियं दधात्वस्मान् रायो मघवानः सचन्ताम्। अस्माक सन्त्वाशिषः सत्या नः सन्त्वाशिषऽउपहूता पृथिवी मातोप मां पृथिवी माता हृयतामग्निराग्नीध्रात् स्वाहा ॥

– यजु० २ । १० |

( मयि ) मुझमें ( इन्द्रः ) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वर ( इदम् इन्द्रियम् ) इस इन्द्रिय-बल को ( दधातु ) स्थापित करे। ( अस्मान् ) हमें, हमारे राष्ट्र को ( रायः ) आध्यात्मिक धने तथा सुवर्ण, चक्रवर्ती राज्य आदि भौतिक धन और (मघवानः ) आध्यात्मिक एवं भौतिक धनों के धनी जन ( सचन्ताम् ) प्राप्त हों। ( अस्माकं ) हमारी ( सन्तु) हों (आशिषः ) उच्च आकांक्षाएँ। ( सत्याः सन्तु ) सत्य हों (नः आशिषः ) हमारी आकांक्षाएँ और हमारे आशीर्वाद। मेरे द्वारा ( उपहूता ) पुकारी जा रही है (पृथिवीमाता) भूमि माता, ( माम् ) मुझे ( पृथिवी माता ) भूमि माता ( उप ह्वयताम् ) अपने समीप पुकारे । ( अग्निः ) यज्ञाग्नि और सूर्याग्नि ( आग्नीध्रात् ) अन्तरिक्ष से (स्वाहा ) भूमि पर जल की आहुति दे, अर्थात् वर्षा करे।

प्रत्येक मनुष्य जीवन में उन्नति करने के लिए कुछ आकांक्षाएँ अपने अन्दर संजोता है। हमारी भी कुछ आकांक्षाएँ हैं। प्रथम आकांक्षा यह है कि जगदीश्वर हमारे अन्दर इन्द्रिय बल को स्थापित करे। बलविहीन इन्द्रियाँ अकिंचित्कर होती हैं । हम प्रतिदिन प्रात: सायं अपनी दैनिक सन्ध्या में अङ्गस्पर्श के मन्त्रों द्वारा इन्द्रिय-बल की प्रार्थना करते हैं-हमारे वाक्, प्राण, चक्षु, श्रोत्र आदि अङ्गों को बल और यश प्राप्त हो ।

इन्द्रियों में बल नहीं होगा, तो यश प्राप्त नहीं हो सकता। इस प्रार्थना में मन-रूप अन्तरिन्द्रिय को भी सम्मिलित समझना चाहिए। हमारे मन को भी बल और यश प्राप्त होना चाहिए। मनोबल के बली लोगों ने बहुत यश प्राप्त किया है। मनोबल से ही उपनिषद् के ऋषि महिदास ऐतरेय ने अपने जीवन को यज्ञरूप में चला कर ११६ वर्ष की आयु पाने का यश अर्जित किया था। हमारी ये सब इन्द्रियाँ कर्मेन्द्रियोंसहित जरामरणपर्यन्त अपनी-अपनी शक्ति से समन्वित रहें, तो हम जराजीर्ण कभी नहीं होंगे। | हमारी दूसरी आकांक्षा यह है कि हमें, हमारे समाज को और हमारे राष्ट्र को विद्या, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, न्याय, धर्मात्मता, भूतदया आदि आध्यात्मिक धन तथा सुवर्ण, हीरे, मोती, चक्रवर्ती राज्य आदि भौतिक धन प्रचुर रूप में प्राप्त हो तथा आध्यात्मिक एवं भौतिक धन के धनी धर्मनिष्ठ जन भी प्राप्त हों। आध्यात्मिक धन के धनी योगी महात्मा जन लोक में आध्यात्मिकता का प्रवाह चलाते हैं और भौतिक धन के धनी लोग विविध शुभ कार्यों में अपनी सम्पत्ति को लगा कर लोककल्याण करते हैं।

हम यह भी चाहते हैं कि हमारी आकांक्षाएँ उच्च हों और वे सत्य सिद्ध हों। यों ही शेखचिल्ली की तरह हम आकांक्षाओं के पुल न बाँधते रहें, प्रत्युत प्रयास करके उन्हें पूर्ण भी करें। ‘आशिष:’ का अर्थ आशीर्वाद भी होता है। हमारे आशीर्वाद भी सत्य सिद्ध हों। वे पापी को पुण्यात्मा बना सकें। हम पृथिवी माता को पुकारते हैं, पृथिवी माता हमें पुकारे, दुलराये, अपनी खानों में से उत्तमोत्तम वस्तुएँ निकाल कर हमें दे। पृथिवी माता को पुकारने का आशय यह है कि हम पृथिवी से लाभ प्राप्त करने का अधिक से अधिक प्रयास करें। खेती करके हम पृथिवी से अन्न, फल आदि प्राप्त कर सकते हैं, पृथिवी से सोना, चाँदी, लोहा, तांवा, अभ्रक, कोयला, गन्धक आदि खनिज प्राप्त कर सकते हैं, पृथिवी में से तेल और तेल द्रव्य निकाल सकते हैं। हम पृथिवी को पुकारेंगे अर्थात् पृथिवी को दुहने का पूर्ण प्रयास करेंगे, तभी पृथिवी भी हमें अपने अन्दर विद्यमान वस्तुएँ लेने के लिए पुकारेगी। परन्तु पृथिवी हमें तभी पुकार सकती है, अर्थात् अभीष्ट पदार्थ दे सकती है, जब यज्ञाग्नि और सूर्याग्नि द्वारा अन्तरिक्ष से पृथिवी पर प्रचुर वृष्टि होती रहे, पृथिवीरूप यज्ञवेदि में वृष्टिधाराओं की आहुति पड़ती रहे। इसीलिए मन्त्र के अन्त में कहा गया है कि अग्नि (यज्ञाग्नि तथा सूर्याग्नि) अन्तरिक्ष से पृथिवी पर स्वाहापूर्वक वृष्टि की आहुति देता रहे।

हमारी आकांक्षाएं सत्य हों

पाद-टिप्पणियाँ

१. षच समवाये, भ्वादिः ।।

२. अन्तरिक्षं वा आग्नीध्रम्। -श० ९.२.३.१५

 

हमारी आकांक्षाएं सत्य हों

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा -रामनाथ विद्यालंकार

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा

राक्षस प्रकम्पित हों, अराति प्रकम्पित हों

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता:  यज्ञः । छन्दः स्वराड् जगती ।

शर्मास्यवधूतरक्षोऽवधूताऽअरितयोऽदित्यास्त्वगसि प्रति त्वादितिर्वेत्तु। अद्रिरसि वानस्प॒त्यो ग्रावसि पृथुबुध्नुः प्रति॒  त्वादित्यस्त्वग्वेत्तु ॥

-यजु० १ । १४

हे नायक!

तू राष्ट्र का (शर्म असि) शरणरूप और सुखदाता है। ऐसा प्रयत्न कर कि (रक्षः) राक्षस (अवधूतं) प्रकम्पित हो उठे, (अरातयः) शत्रु (अवधूताः) प्रकम्पित हो जाएँ। हे सेना ! तू (अदित्याः) राष्ट्रभूमि की (त्वक् असि) त्वचा है, (अदितिः) राष्ट्रभूमि (त्वा प्रति वेत्तु) तुझे जाने । हे नायक! तू (अद्रिः असि) पहाड़ है, बादल है, वज्र है, (वानस्पत्यः) ईंधन है, (ग्रावा असि) पाषाण है, (पृथुबुध्नः) विशाल मस्तिष्क वाला है। (अदित्याः त्वक्) राष्ट्रभूमि की त्वचारूप सेना (त्वा प्रति वेत्तु) तुझे जाने।।

हे राजन् !

हमने आपको अपना नेता चुना है, राष्ट्र का नायक बनाया है, क्योंकि आप प्रजा को शरण और सुख देने में समर्थ हैं। जब तक आपके प्रतिद्वन्द्वी राक्षसजन और शत्रु हैं, तब्र तक राष्ट्र सुखी नहीं हो सकता । निर्दय, हत्यारे, कुटिल, स्वार्थी लोग राक्षस कहलाते हैं, जिनसे सज्जनों की अपनी रक्षा करनी पड़ती है, जो एकान्त पाकर घात करते हैं या रात्रि में अपनी गतिविधि करते हैं । शत्रु वे हैं जो आपको पद्दलित करके आपका राज्य हथियाना चाहते हैं। वे शत्रु कुछ व्यक्ति भी हो सकते हैं और एक बड़ा सङ्गठन या शत्रु-राष्ट्र भी हो सकता है। आप उन आततायी, आतङ्कवादी राक्षसों और शत्रुओं लोगों के भी वश के नहीं होते ।

उत्साह का सञ्चय करके ही हनुमान् सीता की खोज में समुद्र पार करके लङ्का पहुँच गये थे और लक्ष्मण को पुनर्जीवित करने के लिए गन्धमादन पर्वत से संजीवनी बूटी ले आये थे। तू देवयज्ञ की अग्नि को भी अपने अन्दर धारण कर। परमात्मदेव की पूजा की अग्नि, विद्वानों के सेवा-सत्कार की अग्नि और अग्निहोत्र की अग्नि ही देवयज्ञ की अग्नि है। तू चिन्ताग्नि को विदा करके उसके स्थान पर परमेश्वर का चिन्तन कर, विद्वजनों के सत्कार का अतिथियज्ञ रचा और सायं-प्रात: अग्निहोत्र करके वायुमण्डल को शुद्ध और सुगन्धित कर।।

हे मेरे मन!

तू मेरे आत्मा के साथ ध्रुव रूप में रहनेवाला महारथी है, तू मेरा ध्रुव तारा है। मैं तुझे अपने आत्मा के सहायक महामन्त्री के रूप में प्रतिष्ठित करता हूँ। तू ‘ब्रह्मवनि’ हो, ब्रह्म के चिन्तन में सहायक बन, ब्रह्म के कीर्तन में सहायक बन, ब्रह्मबल के अर्जित करने में साधन बन, ब्राह्मण का कार्य करने में साधन बन । तू ‘ क्षत्रवनि’ हो, क्षात्रधर्म का पालन करने में सहायक हो, दीन-दु:खियों की रक्षा करने में साधन बन । तू ‘सजातवनि’ हो, शरीर में तेरे साथ आयी हुई जो ज्ञानेन्द्रियाँ चक्षु, श्रोत्र, रसना, नासिका और त्वचा हैं, उनसे प्राप्त होने वाले ज्ञानों की प्राप्ति में साधन बन, क्योंकि तेरा सहयोग यदि नहीं है तो मनुष्य आँखों से देखता हुआ भी नहीं देखता, कानों से सुनता हुआ भी नहीं सुनता, जिह्वा से चखता हुआ भी स्वाद नहीं पहचानता, नासिका से सूंघता हुआ भी गन्ध अनुभव नहीं करता, त्वचा से स्पर्श करता हुआ भी कोमल-कठोर को नहीं जानता।

हे मेरे मन!

मैं तुझे शत्रु के वध के लिए प्रतिष्ठित करता हूँ। पहले तो जो आन्तरिक षड् रिपु हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, इनके विनाश में तुझे आत्मा का सहयोगी बनना है। दूसरे हैं बाह्य शत्रु, जो मेरी उन्नति में बाधक बनते हैं। उनका संहार करने के लिए या उन्हें मित्र बनाने के लिए भी मनोबल की आवश्यकता है।

हे मेरे आत्मन् !

हे मेरे मन! तुम यदि मिल कर उद्यम करो, तो बड़े से बड़ा अन्तः साम्राज्य और बाह्य साम्राज्य प्राप्त हो सकता है, बड़े से बड़ा अन्तः-शत्रु और बाह्य शत्रु पराजित हो सकता है।

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा

 

पाद-टिप्पणियाँ

१. (ञि) धृषा प्रागल्भ्ये, स्वादिः, क्तिन् ।

२. आमान् अपक्वान् अत्ति तम्-द०भा० ।

३. क्रव्यं पक्वमांसम् अत्ति तस्मान्निर्गतः तम्-द०भा० |

४. षिधु गत्याम्, भ्वादिः । ‘सेधति’ गत्यर्थक, निघं० २.१४।।

५. ब्रह्म वनति संभजते तत्। वन शब्दे संभक्तौ च, भ्वादिः ।

६. भ्रातृ-व्यन् प्रत्यय शत्रु अर्थ में । व्यन् सपत्ने, पा० ४.१.१४५ ।।

७. चिता चिन्ता द्वयोर्मध्ये चिन्ता चैव गरीयसी । चिता दहति निर्जीवं चिन्ता चैव सजीवकम् ।।

८. ध्रुवं ज्योतिर्निहितं दृशये कं मनो जविष्ठं पतयत्स्वन्तः।। —ऋ० ६.९.५

 

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा

अग्निहोत्र -रामनाथ विद्यालंकार

अग्निहोत्र

ज्योति से ज्योति मिले

-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता अग्निः । छन्दः जगती ।

अग्ने वेर्होत्रं बेर्दूत्युमर्वतां त्वां द्यावापृथिवीऽअव त्वं द्यावापृथिवी स्विष्टकृद्देवेभ्य॒ऽइन्द्रऽआज्येन हविषा भूत्स्वाहा सं ज्योतिष ज्योर्तिः॥

-यजु० २।९

( अग्ने ) हे विद्वन् ! तू ( वेः ) जानता है ( होत्रं ) अग्निहोत्र को, ( वेः ) जानता है ( दूत्यं ) अग्नि के दूतकर्म को। ( अवतां ) रक्षित करें ( त्वां ) तुझे ( द्यावापृथिवी ) राष्ट्र के पिता-माता। (अव) रक्षित कर ( त्वं ) तू ( द्यावापृथिवी ) राष्ट्र के पिता-माताओं को। (इन्द्रः ) ऐश्वर्यशाली यजमान ( आज्येन ) घृत से, तथा ( हविषा ) हवि से ( देवेभ्यः ) विद्वानों के लिए ( स्विष्टकृत् ) उत्तम यज्ञ का कर्ता तथा उत्कृष्ट अभीष्ट का साधक (भूत्) हुआ है, ( स्वाहा ) हम भी स्वाहापूर्वक यज्ञ करें। ( सं ) मिले ( ज्योतिषा) ज्योति के साथ ( ज्योतिः ) ज्योति।

हे अग्ने ! हे अग्रनायक विद्वन्!

आप अग्निहोत्र को जानते हो। कितना और कैसा घृत हो, अन्य कौन-कौन सा हविर्द्रव्य हो, घृत तथा अन्य हव्यों की कितनी मात्रा में आहुति दी जाए, किस ऋतु में कौन-सी हवन-सामग्री हो, समिधाएँ किन वृक्षों की हों, कब विशाल यज्ञों का आयोजन किया जाए, उनमें कितना आर्थिक व्यय हो, पुरोहित किसे बनाया जाए, दक्षिणा कितनी दी जाए इत्यादि यज्ञ-सम्बन्धी सब बातें आपको विदित हैं।

आप यज्ञाग्नि के दूत-कर्म के भी ज्ञाता हो। अग्नि को वेदों में देवों का दूत इस कारण कहा गया है कि वह यज्ञकर्ता और विद्वज्जनरूप देवों के बीच दूत-कर्म करता है। जब कोई किसी कार्य को सीधा स्वयं न करके उसे कार्य के लिए किसी को माध्यम बनाता है, तब उसे माध्यम बनने वाले को दूत और उसके द्वारा किये जाने वाले कार्य को दूत कर्म कहा जाता है।

यज्ञकर्ता घृत तथा अन्य हव्यों की रोगहर स्वास्थ्यप्रद सुगन्ध को स्वयं विद्वज्जनरूप देवों के पास न पहुँचा कर अग्नि को माध्यम बनाता है। वह अग्नि में हवि का प्रक्षेप करता है और अग्नि उस हव्य को सूक्ष्म करके उसकी सुगन्ध वायु की। सहायता से विद्वज्जनों के पास पहुँचाता है, इसलिए यज्ञाग्नि दूत है।

हे विद्वन् !

अग्नि के इस दूतकर्म को भी आप जानते हो, अर्थात् अग्नि हविर्द्रव्यों को ग्रहण करके कैसे उनकी सुगन्ध चारों और फैलाता है तथा कैसे परोपकार करता है, इस यज्ञविद्या को भी आप जानते हो। राष्ट्र के द्यावापृथिवी अर्थात् पिता-माताओं या पुरुषों और नारियों का कर्तव्य है कि वे आपको पुरोहित का आदर देकर गौरव प्रदान करें और आपका कर्तव्य है कि आप उनका यज्ञ करा कर यज्ञ से उनका स्वास्थ्य-वर्धन करके उनकी रक्षा करें। यजमान द्वारा यज्ञ में आज्य (घृत) और सुगन्धि, मिष्ट, पुष्टिकारक एवं रोगहर हव्यों की आहुति दी जाती है।

यजमान को ऐश्वर्यवान् होने के कारण इन्द्र भी कहते हैं । उसे यजमानरूप इन्द्र के लिए कहा गया है कि वह घृत तथा अन्य हवियों की यज्ञ में आहुति देकर देवजनों के लिए स्विष्टकृत्’ हो गया है। स्विष्टकृत्’ का अर्थ है साधु प्रकार से यज्ञ को अथवा अभीष्ट को सिद्ध करने वाला। यजमान यज्ञ को भी सिद्ध करता है और जिस अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिए यज्ञ किया जाता है, उसे भी सिद्ध करता है। ‘इष्ट’ शब्द यज धातु तथा इच्छार्थक ‘इष्’ धातु दोनों से ही क्त प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है। हम सबको भी कर्तव्य है कि हम ‘स्वाहा’ का उच्चारण करके यज्ञाग्नि में आहुति दें। उसका अन्य फलों के साथ एक फल यह भी होगा कि ‘ज्योति से ज्योति मिलेगी’। हम यज्ञाग्नि की ज्योति से परमात्माग्नि की बृहत् ज्योति का अनुमान करके परमात्माग्नि की ज्योति में ध्यान केन्द्रित करेंगे।

इस प्रकार हमारे आत्मा की ज्योति का परमात्मा की ज्योति से सम्पर्क होगा और हमारी आत्मज्योति उस विशाल ज्योति से ज्योति पाकर और भी अधिक ज्योतिर्मय हो उठेगी। आओ, ज्योति से ज्योति मिलाने के लिए हम यज्ञ करें ।

अग्निहोत्र

पाद-टिप्पणियाँ

१. वेः=अवेः । विद ज्ञाने, लङ् सिप्, अडागम नहीं हुआ।

२. दूतस्य कर्म दूत्यम्, ‘दूतस्य भागकर्मणी’ पा०, ४.४.१२१ से कर्म

अर्थ में यत् प्रत्यय । ।

३. द्यौष्पितः पृथिवि मातः। –ऋ० ६.५१.५

४. इन्द्रो वै यजमानः। -श० २.१.२.११

५. भूत्=अभूत् । भू सत्तायाम्, लुङ्। ‘बहुलं छन्दस्यमाड्योगेऽपि’ पा०६.४.७५ से अट् का आगम नहीं हुआ।

६. अग्नावग्निश्चरति प्रविष्टः । –अ० ४.३९.९

अग्निहोत्र

मन की दृढ़ता -रामनाथ विद्यालंकार

मन की दृढ़ता  -रामनाथ विद्यालंकार

 

तू कुटिल है, हवियों का निधन है

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता विष्णुः । छन्दः निवृत् त्रिष्टुप् । अहृतमसि हविर्धानं दृहस्व मा ह्वार्मा ते यज्ञपतिर्षीत् । विष्णुस्त्वा क्रमतामुरु वातायार्पहतरक्षो यच्छन्तां पञ्च॥

-यजु० १।९ |

हे मेरे मन! तू (अहुतम् असि) कुटिलतारहित है, (हविर्धानम्) हवियों का निधान है, (दूंहस्व) तू स्वयं को दृढ़ कर, (मा ह्वाः) भविष्य में भी कभी कुटिल मत हो। (मा ते यज्ञपतिः ह्वार्षीत्) न ही तेरा यज्ञपति आत्मा कुटिल होवे । (विष्णुः) विष्णु परमेश्वर (त्वा क्रमताम्”) तुझे अग्रगामी करे। (वाताय) गति के लिए तू (उरु) विशाल हो। तुझसे (रक्षः) राक्षसवृत्ति (अपहतं) नष्ट हो जाए। (पञ्) अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ये पाँचों व्रत, तुझे (यच्छन्ताम्) नियन्त्रण में रखें।

यदि मन कुटिल है तो मनुष्य कुटिलता के कार्यों में लगेगा और यदि मन पवित्र है तो उसके कार्य भी पवित्र होंगे। जिसने साधना द्वारा मन को पवित्र बना लिया है, ऐसा मनुष्य मन्त्र में मन को सम्बोधन कर रहा है।

हे मेरे मन! तू कुटिलता से रहित हो गया है। तू हविर्धान है, हवियों का निधान है। देह में चक्षु, श्रोत्र आदि जो भी ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, वे सब अपने दृष्ट, श्रुत आदि हव्य की आहुति पहले मन में देती हैं, तभी मनुष्य का आत्मा देखना, सुनना आदि व्यापारों को करता है। यदि मन देखने, सुनने आदि में समाहित नहीं है, या यों कहें कि आँख से देखे, कान से सुने, जिह्वा से चखे द्रव्य की हवि यदि मन में नहीं पड़ रही है, तो आत्मा ज्ञानेन्द्रियों के प्रवृत्त होते हुए भी ज्ञान ग्रहण करने में असमर्थ रहता है। अतएव मन को हविर्धान कहा गया है।

हे मेरे मन ! तू सदा दृढ़ बना रह। यदि तू ही दृढ़ता को त्याग कर विचलित होने लगेगा, तो सब इन्द्रियाँ भी विचलित हो जायेंगी । तू दृढ़ रह कर वैसे ही इन्द्रियों को साधे रह सकता है, जैसे उत्तम सारथि रथ के घोडों को साधे रहता है। हे मेरे मन ! जैसे तू इस समय । अकुटिल एवं पवित्र है, वैसे ही भविष्य में भी बने रहना। ऐसा न हो कि मेरी अब तक की सब साधना व्यर्थ हो जाए

और तू कुछ ही दिन अकुटिल रह कर कुटिल मनुष्यों के कुटिल विचारों की सङ्गत से फिर कुटिलता पर चल पड़े। यदि तू सदा अकुटिल बना रहेगा, तो मेरे यज्ञपति आत्मा के पास भी कालुष्य और कुटिलता फटकने नहीं पायेगी तथा मेरा

आत्मा सदा पवित्र ज्ञान और पवित्र कर्मों से ही युक्त रहेगा। है मेरे मन! सर्वान्तर्यामी विष्णु प्रभु, जो तेरे अन्दर भी व्याप्त हैं, तुझे सदा अग्रगामी बनाये रखें और उनसे प्रेरित होकर तू सदा मेरे जीवन को उन्नति की दिशा में ही अग्रसर करता रह।

हे मेरे मन ! मुझे वेद ने ‘दूरंगम’ अर्थात् दूर-दूर तक जानेवाला या दूरदर्शी कहा है। तू विशाल गति करता रह, ऊँची उड़ानें लेता रह, मुझे ऊध्र्वारोहण के लिए प्रेरित करता रह। तू ऐसा उद्योग कर कि यदि कोई राक्षसी वृत्तियाँ मेरे पास आने लगें, तो वे तुझसे टकरा कर चूर-चूर हो जाएँ। तू अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँचों व्रतों को धारण किये रख। इनके नियन्त्रण में रह कर तू मेरे जीवन को सदा पवित्र ही पवित्र बनाती चल ।

मन की दृढ़ता  -रामनाथ विद्यालंकार

 

पाद-टिप्पणियाँ

१. हृ कौटिल्ये-क्त प्रत्यय। ‘हु ह्वरेश्छन्दसि’ से धातु को हु आदेश।

२. दृहि वृद्धौ, भ्वादिः ।।

३. हृ कौटिल्ये, लुङ्, अडागमाभावे।

४. क्रमु पादविक्षेपे, भ्वादिः ।

५. वात सुखसेवनयोः गतौ च, चुरादिः ।

६. (यच्छन्ताम्) निगृह्वन्तु-द०भा० | यम उपरमे, धातु को यच्छ आदेश।

मन की दृढ़ता  -रामनाथ विद्यालंकार

व्रतग्रहण : अमृत से सत्य की ओर -रामनाथ विद्यालंकार

व्रतग्रहण : अमृत से सत्य की ओर  

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता: अग्निः । छन्दः आर्ची त्रिष्टुप् ।

अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्। इदमूहमनृतात् सत्यमुपैमि

-यजु० १।५

हे ( व्रतपते ) व्रतों का पालन करनेवाले (अग्ने) अग्रनायक जगदीश्वर, राजन् व विद्वन् ! मैं ( व्रतं चरिष्यामि ) व्रत का अनुष्ठान करूंगा। (तत् ) उस व्रत को ( शकेयम् ) पालन करने में समर्थ होऊँ। ( तत् मे ) वह मेरा व्रत (राध्यताम् ) सिद्ध हो। वह व्रत यह है कि ( अहं ) मैं ( इदं ) यह ( अनृतात् ) अनृत को छोड़ कर ( सत्यम् ) सत्य को ( उपैमि) प्राप्त होता हूँ।

हे सर्वाग्रणी विश्वनायक जगदीश्वर आप सबसे बड़े व्रतपति हैं। आपने उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय, न्याय, निष्पक्षता, परोपकार, सत्यनिष्ठा आदि अनेक व्रतों को स्वेच्छा से ग्रहण किया हुआ है, जिनका आप सदैव पालन करते हैं। अतएव आपको साक्षी रख कर आज मैं भी एक व्रत ग्रहण करता हूँ। वह मेरा व्रत यह है कि आज से मैं अमृत को त्याग कर सदा सत्य को अपनाऊँगा। अब तक मैं अपने जीवन में अनेक अवसरों पर असत्य भाषण और सत्य आचरण करता रहा हूँ, कई बार प्रलोभनों में पड़ कर मन, वाणी और कर्म से असत्य में लिप्त होता रहा हूँ। परन्तु आज मैं आपके संमुख उस असत्य से मुँह मोड़ने की प्रतिज्ञा करता हूँ। मेरे गुरु ने मुझे सिखाया है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। आप ऐसी शक्ति दीजिए कि इस व्रत का मैं पालन कर सकें।

यदि कभी मैं अपने व्रत को भूल कर सत्य से विमुख होने लगूं तो मेरे हृदय में बैठे हुए आप मुझे मेरा व्रत स्मरण करा कर होनेवाले स्खलन से मुझे बचा लीजिए। ऐसी कृपा कीजिए कि मैं अपने जीवन के अन्त तक इस व्रत का पालन करता रहूँ और इस व्रतपालन से मिलनेवाले सुमधुर फलों के आस्वादन से कृतकृत्य होता रहूँ।

व्रतपति जगदीश्वर के अतिरिक्त अन्य व्रतपतियों को भी मैं अपने इस व्रत का साक्षी बनाता हूँ। यदि मैं अपने राष्ट्र का प्रतिनिधि होकर संयुक्त राष्ट्रसंघ में गया हूँ, तो उसके अध्यक्षरूप व्रतपति के संमुख सदा सत्य का ही पक्ष लेने की प्रतिज्ञा करता हूँ। यदि में राज्यपरिषद् का सदस्य या राज्य का कोई उच्च अधिकारी हूँ तो राष्ट्रनायक के समक्ष प्रण लेता हूँ कि मैं सदा सत्य का ही पक्षपोषण करूंगा। यदि किसी सभा का सदस्य हूँ तो उसके सभापति के संमुख, यदि मैं किसी संस्था का कर्मचारी हूँ तो उस संस्था के अध्यक्ष के संमुख, यदि किसी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय का शिक्षक या विद्यार्थी हूँ तो उसके कुलपति या प्राचार्य के संमुख, यदि मैं किसी संघ का सदस्य हूँ तो संघचालक के संमुख और जिस परिवार का मैं अङ्ग हूँ, उस परिवार के गृहपति के संमुख मैं सदा सत्य पर ही चलने का व्रत ग्रहण करता हूँ।

इन सबके अतिरिक्त यज्ञाग्नि भी व्रतपति है। प्रभु ने सृष्टि के आरम्भ में जो व्रत उसके लिए निश्चित कर दिया था, उसी व्रत का वह आज तक पालन करता चला आया है। अतः प्रतिदिन प्रात:सायं अग्निहोत्र करते हुए उस व्रतपति अग्नि के सामने भी सत्य का व्रत लेता हूँ। उस व्रतपति अग्नि की ऊपर उठती हुई ज्वालाएँ नित्य मेरे अन्तरात्मा में सत्य की ज्योति को जागृत करती रहें।

शतपथकार का कथन है कि देवजन सत्य के व्रत का ही आचरण करते हैं, इस कारण वे यशस्वी होते हैं। इसी प्रकार अन्य भी जो कोई सत्यभाषण और सत्य का आचरण करता है, वह यशस्वी होता है।

व्रतग्रहण

पादटिप्पणियाँ

१. शकेयम्, शक्लै शक्तौ ।

२. राध्यताम्, राध संसिद्धौ।

३. एतद्ध वै देवा व्रतं चरन्ति यत् सत्यं, तस्मात् ते यश, यशो ह भवति य एवं विद्वांत्सत्यं वदति। -श० १.१.१.५

व्रतग्रहण   -रामनाथ विद्यालंकार

हे गौ माता -रामनाथ विद्यालंकार

हे गौ माता। 

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता सविता। छन्दः क. स्वराड् बृहती, र. ब्राह्मी उष्णिक्।

ओ३म् इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमा कर्मणूऽआप्यायध्वमघ्न्याऽइन्द्राय भागं ‘प्रजार्वतीरनमीवाऽ अयक्ष्मा मा व स्तेनऽईशत माघशसो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौ स्यात ह्वीर्यजमानस्य शून् पाहि॥

-यजु० १ । १ 

हे गौ माता !

मैं (इषे त्वा ) अन्नोत्पत्ति के लिए तुझे पालता हूँ, (अर्जे त्वा ) बलप्राणदायक गोरस के लिए तुझे पालता हूँ। हे गौओ ! तुम (वायवः स्थ) वायु के समान जीवनाधार हो। ( देवः सविता ) दाता परमेश्वर व राजा ( श्रेष्ठतमाय कर्मणे ) श्रेष्ठतम कर्म के लिए, हमें (वः प्रार्पयतु) तुम गौओं को प्रदान करे। (अघ्न्याः ) हे न मारी जानेवाली गौओ! तुम (आप्यायध्वम् ) वृद्धि प्राप्त करो, हृष्टपुष्ट होवो। ( इन्द्राय) मुझ यज्ञपति इन्द्र के लिए ( भागं ) भाग प्रदान करती रहो। तुम (प्रजावतीः ) प्रशस्त बछड़े-बछड़ियों वाली, ( अनमीवा:६) नीरोग तथा ( अयक्ष्माः ) राजयक्ष्मा आदि भयङ्कर रोगों से रहित होवो। ( स्तेनः ) चोर (वः मा ईशत ) तुम्हारा स्वामी न बने, ( मा अघशंसः ) न ही पापप्रशंसक मनुष्य तुम्हारा स्वामी बने। (अस्मिन् गोपतौ ) इस मुझ गोपालक के पास ( धुवाः ) स्थिर और ( बह्वीः७) बहुत-सी ( स्यात ) होवो। हे परमेश्वर व राजन ! आप ( यजमानस्य ) यजमान के (पशून्) पशुओं की ( पाहि ) रक्षा करो।

 हे गौ माता !

मैं तुझे पालता हूँ तेरी सेवा के लिए, अन्नोत्पत्ति के लिए और गोरस की प्राप्ति के लिए। तू सबका उपकार करती है, अत: तेरी सेवा करना मेरा परम धर्म है, इस कारण तुझे पालता हूँ।

तुझे पालने का दूसरा प्रयोजन अन्नोत्पत्ति है। तेरे गोबर और मूत्र से कृषि के लिए खाद बनेगा, तेरे बछड़े बैल बनकर हल जोतेंगे, बैलगाड़ियों में जुत कर अन्न खेतों से खलिहानों तक और व्यापारियों तथा उपभोक्ताओं तक ले जायेंगे।इस प्रकार तू अन्न प्राप्त कराने में सहायक होगी, इस हेतु तुझे पालता हूँ।

तीसरे तेरा दूध अमृतोपम है, पुष्टिदायक, स्वास्थ्यप्रद, रोगनाशक तथा सात्त्विक है, उसकी प्राप्ति के लिए तुझे पालता हूँ। हे गौओ ! तुम वायु हो, वायु के समान जीवनाधार हो, प्राणप्रद हो, इसलिए तुम्हें पालता हूँ।

दानी परमेश्वर की कृपा से तुम मुझे प्राप्त होती रहो। राष्ट्र के ‘सविता देव’ का, राष्ट्रनायक राजा प्रधानमन्त्री और मुख्य मन्त्रियों का भी यह कर्तव्य है कि वे श्रेष्ठतम कर्म के लिए तुम्हें गोपालकों के पास पहुँचाएँ राष्ट्र की केन्द्रीय गोशाला में अच्छी जाति की गौएँ पाली जाएँ, जो प्रचुर दूध देती हों और गोपालन के इच्छुक जनों को उचित मूल्य पर दी जाएँ।

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार श्रेष्ठतम कर्म यज्ञ है। अग्निहोत्र रूप यज्ञ के लिए भी और परिवार के सदस्यों तथा अतिथियों को तुम्हारा नवनीत और दूध खिलाने-पिलाने रूप यज्ञ के लिए भी प्रजाजनों को राजपुरुषों द्वारा उत्तम जाति की गौएँ प्राप्त करायी जानी चाहिएँ।

हे गौओ!

तुम ‘अघ्न्या’ हो, न मारने योग्य हो । राष्ट्र में राजनियम बन जाना चाहिए कि गौएँ। मारी–काटी न जाएँ, न उनका मांस खाया जाए। यदि किसी। प्रदेश में बूचड़खाने हैं तो बन्द होने चाहिएँ। दुर्भाग्य है हमारा कि वेदों के ही देश में वेदाज्ञा का पालन नहीं हो रहा है। मांस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं है, न उसके दाँत मांस चबाने योग्य हैं, न आँतें मांस पचाने योग्य हैं।

हे गौओ !

तुम अच्छी पुष्ट होकर रहो। मुझ यज्ञपति इन्द्र का भाग मुझे देती रहो, बछड़े-बछड़ियों का भाग उन्हें प्रदान करती रहो। तुम प्रजावती होवो, उत्तम और स्वस्थ बछड़े-बछड़ियों की जननी बनो । तुम रोगरहित और यक्ष्मारहित होवो। तुम मुझ सदाचारी याज्ञिक गोस्वामी के पास रहो, चोर तुम्हें न चुराने पावे। पापप्रशंसक और पापी मनुष्य तुम्हारा स्वामी न बने। पापी नर-पिशाचों को गोरस नसीब न हो। मुझ गोपालक के पास तुम स्थिररूप से रहो, संख्या में बहुत होकर रहो, जिससे मैं गोशाला चलाकर उन्हें भी तुम्हारा दूध प्राप्त करा सकें, जो स्वयं गोपालन नहीं कर सकते हैं।

हे परमेश्वर ! मुझ यजमान के पशुओं की रक्षा करो, हे राजन् ! मुझ यजमान के पशुओं की रक्षा करो।


पाद-टिप्पणियाँ

१. इष्=अन्न, निघं० २.७।

२. ऊर्ग रसः, श० ५.१.२.८ । ऊर्जा बलप्राणनयोः, चुरादिः ।।

३. दीव्यति ददातीति देवः दाता। देवो दानाद्, निरु० ७.१५ ।

४. षु प्रसवैश्वर्ययोः, भ्वादिः, घूङ् प्राणिगर्भविमोचने, अदादिः । | ( सविता सर्वजगदुत्पादकः सकलैश्वर्यवान् जगदीश्वरः-द०भा० । (सवितः) सकलैश्वर्ययुक्त सम्राट्, य० ९.१-द०भा० ।।

५. (ओ) प्यायी वृद्धौ, भ्वादिः ।।

६. (अनमीवाः) अमीवो व्याधिर्न विद्यते यासु ताः । अम रोगे इत्यस्माद् | बाहुलकाद् औणादिक ईवन् प्रत्यय:-द०भा० ।

७. बह्वीः=बह्वयः । बह्वी+जस्, पूर्वसवर्णदीर्घ, वा छन्दसि पा० ६.१.१०६ ।।

८. यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म। -श०१.७.१.५

९. अघ्न्या=गौ, निघं० २.११। अघ्न्या अहन्तव्या भवति, निरु० ११.४० । अघ्न्या इति गवां नाम के एता हन्तुमर्हति, म०भा० शान्तिपर्व २६३ ।

-रामनाथ विद्यालंकार

प्राण अपान शब्द पर शंका समाधान :- डॉ वेदपाल

शंङ्का – समाधान 

– डॉ. वेदपाल

शङ्का-    शरीर में श्वास लेते समय प्राणवायु ऑक्सीजन प्रवेश करती है, अत: श्वास लेने को प्राण कहना ही युक्तिसंगत है।श्वास छोड़ते समय हानिकारक गैस कार्बन-डाइऑक्साइड शरीर से बाहर निकलती है, इसलिये श्वास छोडऩे को अपान कहना युक्तिसंगत है। वैसे भी पान का अर्थ है, ग्रहण करना। अत: अपान शब्द पान शब्द का विलोम हुआ। इस कारण अपान का अर्थ हुआ छोडऩा। अत: श्वास छोडऩे को ही अपान तथा श्वास लेने को प्राण कहना तार्किक एवं सही है। महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के ‘वेदोक्त धर्म-विषय’ में अथर्ववेद के मन्त्र-१२/५/९ की व्याख्या करते हुये प्राण और अपान के सम्बन्ध में जो उल्लेख किया गया है, वह इससे उलटा है। इसमें श्वास छोडऩे को प्राण और श्वास लेने को अपान कहा है। अथर्ववेद के मन्त्र-४/१३/२ एवं ३ की व्याख्या करते हुये श्री क्षेमकरणदास त्रिवेदी और पण्डित हरिशरण सिद्धान्तालंकार ने श्वास लेने को प्राण और छोडऩे को अपान ही लिखा है। ऋग्वेद के मन्त्र-१०/१३७/२ एवं ३ में भी ऐसा ही लिखा है। पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘जीवात्मा’ में भी पृष्ठ-५६ पर श्वास लेने को प्राण और छोडऩे को अपान ही लिखा है।

अत: ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदोक्त धर्म-विषय में उपरोक्त त्रुटि ‘लेखन-त्रुटि’ ही प्रतीत होती है। विद्वानों द्वारा गहन विचार-विमर्श उपरान्त एकमत होकर इस लेखन-त्रुटि को ठीक कर देना चाहिये।

– जगदीश प्रसाद शर्मा, भोपाल

समाधान-   सर्वप्रथम अथर्व १२.५.९ ‘आयुश्च रूपं च नाम च कीर्तिश्च प्राणश्चापानश्च चक्षुश्च श्रोत्रं च’-मन्त्रस्थ प्राण-अपान की महर्षि कृत व्याख्या को लें-‘‘शरीराद् बाह्यदेशं यो वायुर्गच्छति स ‘प्राण:’ बाह्यदेशाच्छरीरं प्रविशति स वायुरपान:’’(ऋ.भा.भू.)।

शर्मा जी का अभिमत कि महर्षिकृत व्याख्या अन्य विद्वानों द्वारा अनुमोदित नहीं है। अत: लेखन-त्रुटि मानकर ठीक कर देना चाहिए के सन्दर्भ में निम्र बिन्दु विचारणीय हैं-

१. शर्मा जी द्वारा अपान शब्द को पान शब्द का विलोम मानना उचित नहीं है। पान शब्द पा धातु से ल्युट् प्रत्यय होकर निष्पन्न हुआ है, जबकि अपान शब्द अप उपसर्ग पूर्वक अन प्राणने (अदादि.) धातु (पा नहीं)से अच् प्रत्यय होकर निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है-अपानयति मूत्रादिकम् (अप+आ+नी+ड वा)।

यदि दुर्जनतोष न्याय से अपान शब्द को पान शब्द से नञ् समास का अवशिष्ट अ पूर्वक मान भी लें तो नञ् (अ) केवल निषेधार्थक ही नहीं है। नञ् के छ: अर्थ हैं-

तत्सादृश्यं तदन्यत्वं तदल्पत्वं विरोधिता।

अप्राशस्त्यमभावश्च नञर्था: षट् प्रकीर्तिता:।।

वामन शिवराम आप्टे (संस्कृत हिन्दी कोष, प्रकाशक-मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) ने अपान शब्द के निम्र अर्थ किए हैं-

‘‘श्वास बाहर निकालना, श्वास लेने की क्रिया, शरीर में रहने वाले पांच पवनों में से एक जो कि नीचे की ओर जाता है तथा गुदा के मार्ग से बाहर निकलता है’’-पृ. ६२

२. प्राण शरीर में रहते हुए क्रिया भेद के आधार पर प्राण-अपान-व्यान-समान-उदान कहा जाता है। तद्यथा- ‘‘प्राणोऽन्त: शरीरे रसमलधातूनां प्रेरणादिहेतुरेक: सन् क्रियाभेदादपादानादिसंज्ञां लभते’’- प्रशस्तपाद (द्रव्ये वायु प्रकरणम्) सम्पूर्णानन्द-संस्कृतविश्वविद्यालय: वाराणसी, द्वि.सं. पृ. १२१

उपर्युद्धृत प्रशस्तपाद पर कन्दली भी द्रष्टव्य है-‘‘मूत्रपुरीषयोरधोनयनादपान:, रसस्य गर्भनाडीवितननाद् व्यान:, अन्नपानादेरूध्र्वं नयनादुदान:, मुखनासिकाभ्यां निष्क्रमणात् प्राण:, आहारेषु पाकार्थमुदरस्य वह्ने: समं सर्वत्र नयनात् समान इति न वास्तव्यमेतेषां पञ्चत्वमपितु कल्पितम्।’’

३. वेद के प्रसिद्ध भाष्यकार सायण का अथर्ववेद के १२ वें काण्ड पर भाष्य उपलब्ध नहीं है, किन्तु अथर्व १८.२.४६ ‘प्राणो अपानो व्यान:………’ मन्त्र की सायण व्याख्या द्रष्टव्य है-

‘‘मुख्य प्राणस्य तिस्रो वृत्तय: प्राणाद्या:। मुखनासिकाभ्यां बहिर्नि:सरन् वायु: प्राण:। अन्तर्गच्छन् अपान:। मध्यस्थ: सन् अशितपीतादिकं विविधम् आनयति कृत्स्नदेहं व्यापयतीति व्यान:।’’

आचार्य सायण भी प्राण अपान का वही अर्थ करते हैं जो ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में उपलब्ध है।

४. अथर्व ११.४.८ ‘नमस्ते प्राण प्राणते नमो अस्त्वपानते’- मंत्र का पं. जयदेव कृत अर्थ- हे (प्राण प्राणते नम:) प्राण! प्राणक्रिया करते, श्वास त्यागते हुए तुझे नमस्कार है।

(अपानते नम: अस्तु) श्वास ग्रहण करते हुए तुझे नमस्कार है।

इसी प्रकार अथर्व ११.४.१४ पर भी पं. जयदेव एवं सायण भाष्य भी द्रष्टव्य हैं।

५. वैशेषिक दर्शन ३.२.४-‘प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तरविकारा: सुखदु:खेच्छाद्वेषप्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गानि’ सूत्र पर पं. हरिप्रसाद वैदिक मुनिकृत प्राण-अपान की व्याख्या- ‘मुखनासिकाभ्यां बहिर्निष्क्रमणशील: ऊध्र्वगतिक: शरीरान्त: सञ्चारी वायु: प्राण:। मूत्रपुरीषयोरधोनयनहेतु वाग्गतिक: शरीरान्त: सञ्चारी वायुरपान:।’

उक्त सूूत्र पर पं. तुलसीराम स्वामी -‘‘मुख और नासिका से बाहर निकलने वाला, ऊपर को चलने वाला, शरीरस्थ वायु प्राण कहाता है, मूत्र और विष्ठा को नीचे निकालने वाला शरीरस्थ वायु अपान कहाता है।’’

६. सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास पृ. १२६ पर जीव के गुणों के वर्णन में महर्षि दयानन्द वैशेषिक के पूर्व उद्धृत सूत्र ३.२.४ की व्याख्य ‘(प्राण) प्राण वायु को बाहर निकालना (अपान) प्राण को बाहर से भीतर को लेना करते हैं।’

७. वाचस्पत्यम् शब्दकोष में भी-प्राण: वायुस्तस्य कर्म नासाग्रतो बहिर्गति: (भाग-६, पृ. ४५०८) नासाग्र से बाहर जाने वाले वायु को प्राण कहा है।

उक्त सभी सन्दर्भों को दृष्टिगत रखकर यह कहा जा सकता है कि महर्षि दयानन्दकृत अर्थ की सम्पुष्टि आचार्य सायण, महर्षि द्वारा मान्य वैशेषिक के भाष्यकार प्रशस्तपाद के कन्दली टीकाकार श्रीधर, पं. हरिप्रसाद वैदिक मुनि, संस्कृत के प्रसिद्ध कोष वाचस्पत्यम्, कोषकार आप्टे, पं. जयदेव तथा पं. तुलसीराम आदिकृत भाष्य से होती है। अत: परम्परा द्वारा स्वीकृ त होने से महर्षिकृत अर्थ त्रुटिपूर्ण नहीं है।