Category Archives: मांसाहार निषेध

क्या भारत में गोहत्या कभी पुण्यदा थी यश आर्य

http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2015/04/150331_beef_history_dnjha_sra_vr

वैदिक साहित्य में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि उस दौर में भी गोमांस का सेवन किया जाता था. जब यज्ञ होता था तब भी गोवंश की बली दी जाती थी.

उत्तर: प्रमाण कहां  है ?

धर्मशास्त्रों में यह कोई बड़ा अपराध नहीं है इसलिए प्राचीनकाल में इसपर कभी प्रतिबंध नहीं लगाया गया.

उत्तर :ये  झूठ है।वेद में गो वध निषेध है ।
सारा विवाद 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ जब आर्य समाज की स्थापना हुई और स्वामी दयानंद सरस्वती ने गोरक्षा के लिये अभियान चलाया. और इसके बाद ही ऐसा चिह्नित कर दिया गया कि जो ‘बीफ़’ बेचता और खाता है वो मुसलमान है. इसी के बाद साम्प्रदायिक तनाव भी होने शुरू हो गए. उससे पहले साम्प्रदायिक दंगे नहीं होते थे.

उत्तर: ऋषि द्यानंद ने कहां कहा है  कि गो  मांस भक्षक केवल मुसल्मान होता है , और   ईसाइ आदि  नहीं ? क्या  साम्प्रदायिक दंगे अंग्रेज़ सरकार आदि ने नहीं भडकाए ? बंगाल विभाजन क्यों हुआ ?

सारांश :  द्विजेंद्र नारायण झा  एक मांसाहारी  समाज का सदस्य है । उसका समाज तंत्र [शक्ति ] को मानता है । तंत्र अवैदिक मत है,मांसाहार करने देता है । वह स्वयम कार्ल मार्क्स का पुजारी है ।  यदि वह वेद मंत्र लिखता  तो मैं  खंडित करता ।  सारा लेख झा जी की कल्पना पर आधारित है । अत: लेख निराधार है । क्या यह व्यक्ति यह सिद्ध  कर सकता है, कि वेदिक संहिताओं में गोहत्या  करने पर अमुक पुण्य प्राप्त होगा ,  ऐसा लिखा है  ?  देखो वेद क्या कह्ता है :
http://www.onlineved.com/yajur-ved/?language=2&adhyay=14&mantra=8

बैल से बिजली

मार्क्स वाद के  कारनामे:

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http://www.aryamantavya.in/beef-ban-strengthens-secularism-by-yash-arya/

http://www.aryamantavya.in/beef-eating-in-ancient-time/

http://www.aryamantavya.in/whether-beef-was-allowed-in-vedic-time/

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http://satyarthprakash.in/

Beef ban strengthens secularism by Yash Arya

http://www.bbc.com/news/world-asia-india-32172768

Mr Justin Rowlatt argues that beef ban endangers secularism. He cites the following reasons:

1. The Hindu majority – 80% of the country’s 1.2 billion people – regard cows as divine; the 180 million-strong Muslim minority see them as a tasty meal.

2. Secularism in India means something a little different from elsewhere. It doesn’t mean the state stays out of religion, here it means the state is committed to supporting different religions equally.

3. India’s secularism was a response to horrors of the partition when millions of people were murdered as Hindus and Muslims fled their homes. The country’s first prime minister, Jawaharlal Nehru, argued equal treatment was a reasonable concession to the millions of Muslims who’d decided to risk all by staying in India.

4. India’s triumph has been forging a nation in which Hindus and Muslims can live happily together. The fear is that the beef ban is part of a process that is gradually undermining the compromises that made that possible.

My anwer is as follows.

a1. U have not cited any evidence from the quran along with the authentic tafseer as to how beef ban is anti-islam.

a2. The state is right in supporting the beef ban till u answer a1 above.

a3. The horrors of partition were engineered by the British Imperialists and their Jesuit teachers. They experimented with it during the bengal partition and perfected it in 1947. Just look at Korea, Ottoman empire, etc for the records of european catholic brand imperialism.

a4. The mughal king Babar does not agree with your insinuation that ‘The fear is that the beef ban is part of a process that is gradually undermining the compromises that made that possible.’ Read what ur own website says:
“His [Mughal King Babar] first act after conquering Delhi was to forbid the killing of cows because that was offensive to Hindus.” [http://www.bbc.co.uk/religion/religions/islam/history/mughalempire_1.shtml]

Mr Rowlatt further says that :

Unfortunately for India’s buffaloes, they aren’t regarded as close enough to God to deserve protection. Buffalo is banned in just one of the country’s 29 states. [ I am for banning the slaughter of buffaloes too. Why dont u join PETA and espouse their cause].

There is an economic issue here.

Beef is significantly cheaper than chicken and fish and is part of the staple diet for many Muslims, tribal people and dalits – the low caste Indians who used to be called untouchables. It is also the basis of a vast industry which employs or contributes to the employment of millions of people.

A: People can be employed in areas where they dont have to murder animals. Whenn u murder animals, the habit carries on with u and u find it easy to murder humn beings too.

http://en.wikipedia.org/wiki/St._Bartholomew%27s_Day_massacre

http://www.gutenberg.org/ebooks/20321

–And yes we had untouchability. U have slaveryhttp://www.religioustolerance.org/sla_bibl3.htm

— The fact is that the european settlers are committing genocide on the native american people. And one of the methods employed to decimate the population of the red indians was destruction of cattle [http://indiancountrytodaymedianetwork.com/2011/05/09/genocide-other-means-us-army-slaughtered-buffalo-plains-indian-wars-30798%5D . In India the british imperialists used muslims to do this job.

In this video one can see how a living non-milk producing cow is more beneficial to the Indians than a dead cow’s meat. And how the mouthpiece of the urea/pesticide corporates r trying to mislead the populations. This misinformation and the urea/pesticide/bank-credit causes the farmer suicides.

Again, we can produce electricity using animal power and stop paying the germans for solar cells.

onclusion:

Why should we killl our animals so that the west is able to eat cheap meat ?

Secularism will be strengthened by the beef ban since murders will be reduced on our land. Ahimsa paramo dharma….

We will work towards import substitution to reduce our dependence on the west. That will give more jobs to the indians.

 

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प्राचीन काल में हिन्दू गौ मांस खाते थे – BBC का खंडन यश आर्य

भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माताओं में से एक डॉक्टर बीआर अंबेडकर अच्छे शोधकर्ता भी थे. उन्होंने गोमांस खाने के संबंध में एक निबंध लिखा था, ‘क्या हिंदुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया?’

यह निबंध उनकी किताब, ‘अछूतः कौन थे और वे अछूत क्यों बने?’ में है.

दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम ने इस निबंध को संपादित कर इसके कुछ हिस्से बीबीसी हिंदी के पाठकों के लिए उपलब्ध करवाए हैं.

‘पवित्र है इसलिए खाओ’

अपने इस लेख में अंबेडकर हिंदुओं के इस दावे को चुनौती देते हैं कि हिंदुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया और गाय को हमेशा पवित्र माना है और उसे अघन्य (जिसे मारा नहीं जा सकता) की श्रेणी में रखा है.

अंबेडकर ने प्राचीन काल में हिंदुओं के गोमांस खाने की बात को साबित करने के लिए हिन्दू और बौद्ध धर्मग्रंथों का सहारा लिया.

उनके मुताबिक, “गाय को पवित्र माने जाने से पहले गाय को मारा जाता था. उन्होंने हिन्दू धर्मशास्त्रों के विख्यात विद्वान पीवी काणे का हवाला दिया. काणे ने लिखा है, ऐसा नहीं है कि वैदिक काल में गाय पवित्र नहीं थी, लेकिन उसकी पवित्रता के कारण ही बाजसनेई संहिता में कहा गया कि गोमांस को खाया जाना चाहिए.” (मराठी में धर्म शास्त्र विचार, पृष्ठ-180).

अंबेडकर ने लिखा है, “ऋगवेद काल के आर्य खाने के लिए गाय को मारा करते थे, जो खुद ऋगवेद से ही स्पष्ट है.”

ऋगवेद में (10. 86.14) में इंद्र कहते हैं, “उन्होंने एक बार 5 से ज़्यादा बैल पकाए’. ऋगवेद (10. 91.14) कहता है कि अग्नि के लिए घोड़े, बैल, सांड, बांझ गायों और भेड़ों की बलि दी गई. ऋगवेद (10. 72.6) से ऐसा लगता है कि गाय को तलवार या कुल्हाड़ी से मारा जाता था.”

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ये झूठ है । देखो

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download the original from here

http://www.aryamantavya.in/rigveda-7-7-harisharan-siddhantalankar/
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‘अतिथि यानि गाय का हत्यारा’

अंबेडकर ने वैदिक ऋचाओं का हवाला दिया है जिनमें बलि देने के लिए गाय और सांड में से चुनने को कहा गया है.

अंबेडकर ने लिखा “तैत्रीय ब्राह्मण में बताई गई कामयेष्टियों में न सिर्फ़ बैल और गाय की बलि का उल्लेख है बल्कि यह भी बताया गया है कि किस देवता को किस तरह के बैल या गाय की बलि दी जानी चाहिए.”
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माध्यंदिनी सन्हिता ही यजुर्वेद है । तैत्तिरीय  वेद  नहीं है ।
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वो लिखते हैं, “विष्णु को बलि चढ़ाने के लिए बौना बैल, वृत्रासुर के संहारक के रूप में इंद्र को लटकते सींग वाले और माथे पर चमक वाले सांड, पुशन के लिए काली गाय, रुद्र के लिए लाल गाय आदि.”

“तैत्रीय ब्राह्मण में एक और बलि का उल्लेख है जिसे पंचस्रदीय-सेवा बताया गया है. इसका सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, पांच साल के बगैर कूबड़ वाले 17 बौने बैलों का बलिदान और जितनी चाहें उतनी तीन साल की बौनी बछियों का बलिदान.”

अंबेडकर ने जिन वैदिक ग्रंथों का उल्लेख किया है उनके अनुसार मधुपर्क नाम का एक व्यंजन इन लोगों को अवश्य दिया जाना चाहिए- (1) ऋत्विज या बलि देने वाले ब्राह्मण (2) आचार्य-शिक्षक (3) दूल्हे (4) राजा (5) स्नातक और (6) मेज़बान को प्रिय कोई भी व्यक्ति.

कुछ लोग इस सूची में अतिथि को भी जोड़ते हैं.

मधुपर्क में “मांस, और वह भी गाय के मांस होता था. मेहमानों के लिए गाय को मारा जाना इस हद तक बढ़ गया था कि मेहमानों को ‘गोघ्न’ कहा जाने लगा था, जिसका अर्थ है गाय का हत्यारा.”

‘सब खाते थे गोमांस’

इस शोध के आधार पर अंबेडकर ने लिखा कि एक समय हिंदू गायों को मारा करते थे और गोमांस खाया करते थे जो बौद्ध सूत्रों में दिए गए यज्ञ के ब्यौरों से साफ़ है.

अंबेडकर ने लिखा है, “कुतादंत सुत्त से एक रेखाचित्र तैयार किया जा सकता है जिसमें गौतम बुद्ध एक ब्राह्मण कुतादंत से जानवरों की बलि न देने की प्रार्थना करते हैं.”

अंबेडकर ने बौद्ध ग्रंथ संयुक्त निकाय(111. .1-9) के उस अंश का हवाला भी दिया है जिसमें कौशल के राजा पसेंडी के यज्ञ का ब्यौरा मिलता है.

संयुक्त निकाय में लिखा है, “पांच सौ सांड, पांच सौ बछड़े और कई बछियों, बकरियों और भेड़ों को बलि के लिए खंभे की ओर ले जाया गया.”

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यहाँ  बौद्ध लोगों ने वाम मार्गी लोगों की चर्चा की  है। सच्चे  ब्राह्मणों की नहीं  ।

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अंत में अंबेडकर लिखते हैं, “इस सुबूत के साथ कोई संदेह नहीं कर सकता कि एक समय ऐसा था जब हिंदू, जिनमें ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण दोनों थे, न सिर्फ़ मांस बल्कि गोमांस भी खाते थे.”

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अ‍ॅम्बेद्कर और  B B C  और   दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम  और  गो मांस भक्षक हिंदुओं का मत असत्य है ।

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रोगों का घर मांसाहार

हमारे भारतीय ऋषियों ने भोजन के विषय में बहुत की खोज तथा छानबीन की थी । इसीलिये घोर तमोगुणी भोजन सब रोगों का घर होता है । दुर्गन्धयुक्त सड़े हुए मांस से रोग ही उत्पन्न होंगे । मनुष्य का भोजन न होने से यह देर से पचता है, जठराग्नि पर व्यर्थ का भार डालता है । किस पदार्थ के पचने में कितना समय लगता है, इस की निम्न तालिका अनुभवी डाक्टरों ने दी है –

 

 

मांस पचने का समय
बकरे का मांस ३ घण्टे में
शोरबा ३ घण्टे में
मुर्गी का मांस ४ घण्टे में
मछली ४ घण्टे में
सूवर का मांस ५ घण्टे में
गोमांस ५ घण्टे में

अन्न, फल, दूध आदि के पचने का समय इस प्रकार है –

 

रोटी ३ घण्टे
आलू भुना हुआ २ घण्टे
जौ पका हुआ २ घण्टे
दूध धारोष्ण वा गर्म २ घण्टे
सेब पका हुआ १ घण्टा
चावल उबला हुआ १ घण्टा
मीठी रोटी ७०.४३ ग्रेन

इसलिये जौ, चावल, दूध के सात्त्विक भोजन को हमारे पूर्व-पुरुष अधिक महत्त्वपूर्ण समझकर खाते थे । वैसे सभी अन्न जो अपने प्रकृति के अनुकूल हों, मनुष्य को खाने चाहियें । यथार्थ में अन्न, फल, शाक, सब्जी, दूध, घी आदि पदार्थों पर ही मनुष्य का जीवन है । इन्हें बिना पकाये भी खाया-पीया जा सकता है । विज्ञान यह बतलाता है कि पकाने तथा ऊपर के नमक-मिर्च आदि डालने से पदार्थ की शक्ति न्यून हो जाती है । जो पदार्थ जिस रूप में प्रकृति से मिलता है, वह उसी रूप में खाया जाने से अधिक शक्ति प्रदान करता है तथा शीघ्र पचता है, किन्तु मांस बिना पकाये नहीं खाया जा सकता । इसीलिये सिंह, भेड़िया, कुत्ते और बिल्ली आदि को ही मांसभक्षी कहा जा सकता है जो अपने आप अपने शिकार को मारकर ताजा मांस खाते हैं । मनुष्य मांसाहारी नहीं, न इसे कोई मांसाहारी कहता है क्योंकि हम देखते हैं कि बिल्ली का बच्चा बिना सिखाये चूहे के ऊपर टूट पड़ता है । इसी प्रकार सिंह का शावक (बच्चा) भी अपने शिकार पर चढ़ाई करता है । किन्तु मानव का बच्चा फल उठाकर भले ही मुख में देने का यत्न करता है किन्तु वह मांसाहारी जीवों के समान मांस के टुकड़े, रक्त, मच्छी, चूहा, कीट, पतंग किसी पदार्थ को उठाकर खाने की चेष्टा नहीं करता ।

यह सब सिद्ध करता है कि मांस मनुष्य का भोजन नहीं । मूक और असहाय जीव जन्तुओं पर निर्दय होना मनुष्य के लिये सर्वाधिक कलंक की बात है । सभ्य और शिक्षित मनुष्य में तो क्रूरता नहीं होनी चाहिए, उसके स्थान पर सौम्यता, सुशीलता एवं दयाभाव होना चाहिये ।

मुसलमानों की एक धार्मिक पुस्तक अबुलफजल के तीसरे दफतर में लिखा है कि अज्ञानी पुरुष अपने मन की मूढ़ता में ग्रसित हुआ अपने छुटकारे का मार्ग नहीं ढ़ूंढ़ता । ईश्वर उसके सृजनहार ने मनुष्य के लिये अनेक पदार्थ उत्पन्न कर दिये हैं । उन पर सन्तुष्ट न रहकर उसने अपने अन्तःकरण (पेट) को पशुओं का कब्रिस्तान बनाया है और अपना पेट भरने के लिये कितने ही जीवों को परलोक पहुंचाया है । यदि ईश्वर मेरा शरीर इतना बड़ा बनाता कि ये मांसभक्षण की हानि न समझने वाले सब लोग मेरे ही मांस को खाकर तृप्त हो सकते और किसी अन्य जीव को न मारते तो तेरा बड़ा कृतार्थ होता ।

इलमतिबइलाज की पुस्तक मखजन-उल अदविया में मांस के विषय में इस प्रकार व्यवस्था दी है –

रात्रि में मांस खाने से तुखमा जो हैजे से कुछ न्यून होता है, हो जाता है और खिलतै जो वात, पित्त और कफ कहलाते हैं उनमें दोष आ जाता है । मन काला अर्थात् मलिन हो जाता है । आंखों में धुंधलापन उत्पन्न हो जाता है । जहन कुन्द (बुद्धिमान्द्य) हो जाता है ।

 

क्योंकि कच्चे मांस पर भिनभिनाती हुई मक्खियां और सड़ने की दुर्गन्ध देखकर किसका मुख उसका स्वाद लेना चाहेगा ? जो वस्तु नेत्रों को भी अप्रिय है, अच्छी नहीं लगती, उसे जिह्वा कब स्वीकार कर सकती है ?

 

 

डाक्टर मिचलेट साहब अपनी एक भोजन की पुस्तक में लिखते हैं –

जीवन-मृत्यु और नित्य की हत्यायें जो केवल क्षणिक जीभ के स्वाद के लिये हम नित्य करते हैं तथा अन्य तामसिक और कठोर समस्यायें हमारे सन्मुख उपस्थित हैं । हाय, यह कैसी हृदयविदारक और उल्टी चाल है ? क्या हमें किसी ऐसे लोक की आशा करनी चाहिये, जहां पर ये क्षुद्र और भयंकर अत्याचार न हों ?

अमेरिका के प्रसिद्ध विद्वान् शिटडेन Ph.D, D.Sc, L.L.D ने एक प्रयोग किया । उन्होंने छः मस्तिष्क से कार्य करने वाले बुद्धिजीवी प्रोफेसर और डाक्टर तथा २० शारीरिक श्रम करने वालों को, जो सेना से छांटे गये थे, और एक यूनिवर्सिटी से आठ पहलवानों को लिया । उन सब पर भोजन संबन्धी प्रयोग किया गया । यह प्रयोग अक्तूबर १९०३ से आरम्भ हुआ और जून १९०४ तक चलता रहा । इसमें उन्हें थोड़ा प्राण-पोषक तत्त्व दिया जाता था, जिससे उनमें आरोग्यता और शक्ति बनी रहे । इस प्रयोग से पूर्व डाक्टरों का मत था कि प्रत्येक मनुष्य के लिये केवल १२० ग्राम (२ छटांक) प्राणपोषक तत्त्व की आवश्यकता है । जितना वह अधिक मिले, उतना अच्छा है । वे भूल करते हैं । प्रो० शिटडेन ने यह सिद्ध कर दिया कि २० सिपाहियों के लिये ५० ग्राम प्राणपोषक तत्त्व पर्याप्त था और आठ पहलवानों के लिये ५५ ग्राम बहुत होता था । प्रोफेसर महोदय ने स्वयं ३६ ग्राम अपने लिये प्रयोग किया, फिर भी उनकी शक्ति बढ़ती गई । प्रयोग में जो सिपाही लिये गये थे, उनकी खुराक पहले ७५ ओंस (२ सेर) थी जिसमें उन्हें २२ ओंस कसाई के यहां से मांस मिलता था । प्रयोग में मांस बिल्कुल बंद करके इनकी खुराक केवल ५१ ओंस कर दी गई । नौ मास वे उस भोजन पर रहे । यद्यपि वे लोग पहले भी आरोग्य स्वस्थ थे, तथापि नौ मांस तक बिना मांस का भोजन किये वे बहुत अधिक बलवान्, शक्तिशाली और अच्छी अवस्था में पाये गये । इस प्रयोग में डाइनमोमीटर से ज्ञात हुआ कि उनकी शक्ति पहले से डेढ़ गुणी हो गई थी और उन्हें कार्य में विशेष उत्साह रहता था । इस प्रयोग के पश्चात् कहने पर भी उन्होंने मांस नहीं खाया । सदैव के लिये मांस खाना छोड़ दिया ।

स्वर्गीय दादाभाई नौरोजी से उनकी ८६वीं वर्षगांठ के दिन एक पत्र प्रतिनिधि ने पूछा कि आप की आरोग्यता का क्या कारण है ? तो उन्होंने उत्तर दिया – मैं न मांस खाता हूं, न शराब पीता हूं, न मसाले खाता हूं । मैं सदा शुद्ध वायु सेवन करता हूं । यही मेरे स्वस्थ रहने के कारण हैं ।

अमेरिका के डाक्टर जानहार्न का मत है कि मांस बड़ी देर से पचता है । इसके पचने के समय कलेजे की धड़कन दो सौ के लगभग बढ़ जाती है, जिससे हृदयरोग हो जाता है और मेदा कमजोर हो जाता है । इसी कारण मांसाहारी लोग हृदय के रोगों के कारण ही अधिक संख्या में मरते हैं । हृदय के कमजोर होने से मांसाहारी भीरू वा कायर हो जाते हैं ।

“इंडियन मैडिकल जनरल” नामल पत्र में लिखा है कि मांस भक्षकों के मूत्र में तिगुणी यूरिक एसिड अधिक बढ़ जाती है । इसी प्रकार यूरिया भी दूनी मात्रा में आने लगती है । ये दोनों पदार्थ विष हैं । उनके गुर्दों को अधिक कार्य करना पड़ता है, जिससे गठिया, वातरोग, अस्थि रोग और बलोदर रोग उत्पन्न होते हैं ।

डाक्टर अलैक्जेण्डर मार्सडन M.D. F.R.C.S. चेयरमैन आफ कैंसर हस्पताल, लंदन, लिखते हैं – इंग्लैंड में कैंसर के रोगी दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं । प्रतिवर्ष ३०,००० (तीस सहस्र) मनुष्य कैंसर के रोग से मरते हैं । मांसाहार जितनी तेजी से बढ़ रहा है, उससे भय है कि भविष्य की सन्तानों में से ढ़ाई करोड़ लोग इसकी भेंट होंगे । जिन देशों में मांस अधिक खाया जाता है, वहां के लोग रोगी अधिक होते हैं, उनकी कमाई का अधिकतर धन डाक्टरों के पास जाता है और डाक्टरों की फौज इसी कारण बढ़ती जा रही है ।
निम्नलिखित तालिका से इस पर प्रकाश पड़ता है –

 

देश एक मनुष्य पर एक वर्ष में एक मास का व्यय दस लाख मनुष्यों में डाक्टरों की संख्या
जर्मनी ६४ ओंस ३५५
फ्रांस ७७ ओंस ३८०
इंग्लैंड वा वेल्स ११८ ओंस ५७८
आस्ट्रेलिया २७६ ओंस ७८०

यह बहुत पहले की सूची है । अब तो डाक्टर इससे भी दुगुणे हो गये होंगे । हम भारत में देखते हैं कि शहरों और कस्बों में बाजार के बाजार डाक्टरों, वैद्य और हकीमों से भरे पड़े हैं ।

डाक्टरों ने खोज करके बताया है, निमोनियां, लकवा, रिडेरपेस्ट, शीतला, चेचक, कंठमाला, क्ष्य (तपेदिक) और अदीठ आदि विषैला फोड़ा इत्यादि भयंकर और प्राणनाशक रोग प्रायः गाय, बकरी और जलजन्तुओं का मांस खाने से होते हैं । सूवर के मांस में एक प्रकार के छोटे कीड़े कद्दूदाने होते हैं, उनके पेट में जाने से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं । बकरी के मांस में ट्रिक्नास्पिक्टस कीड़ा रहता है, जिससे भयंकर रोग ट्रिक्नोसेस हो जाता है । पठनी मछली के खाने से कुष्ठ रोग होता है । अतः समुद्र के तट पर रहने वाले अथवा मछली का मांस अधिक मात्रा में खाने वाले लोग अधिकतर कुष्ट रोग से पीड़ित देखे जाते हैं । मांस को देखकर यह कोई नहीं जानता कि यह रोगी पशु का मांस है वा स्वस्थ का । कसाई बूचड़ लोग पैसा कमाने के लिये रोगी पशुओं को काटते हैं क्योंकि उअका मांस ही सस्ता पड़ता है । रोगी पशुओं का मांस खाकर कोई स्वस्थ कैसे होगा, जबकि स्वस्थ पशुओं का मांस भी भयंकर रोग उत्पन्न करता है ।

इस विषय में कुछ अन्य डाक्टरों का अनुभव लिखता हूं –
“मेरा पच्चीस वर्ष से मछली और पक्षियों के मांसत्याग का अनुभव है । मेरे पिता की आयु इससे २० वर्ष बढ़ गई थी । मांस की अपेक्षा फल बहुत ही अधिक लाभ करते हैं ।” – डाक्टर वाल्टर हाडविन M.D.
“एक रोगी की गर्दन पर चार वर्ष से कैंसर थी । मुझे खोज करने पर उसके मांसाहारी होने का पता चला । उससे मांस छुड़ा दिया गया, अब वह स्वस्थ है ।” – डा० J.H.K. Lobb
“मांसाहार शक्ति प्रदान करने के बदले निर्बलता का शिकार बनाता और उससे नाइट्रोजिन्स पदार्थ उत्पन्न होता है । वह स्नायु पर विष का कार्य करता है ।” – डा० सर टी लोडर ब्रण्टन

 

“मांसाहार की बढ़ती के साथ-साथ नासूर के दर्द की असाधारण वृद्धि होती है ।” – डा० विलियम राबर्ट
“नासूर के दर्द का होना मांसाहार का परिणाम है ।” – डा० सर जेम्स सीयर M.D. F.R.C.P.
“८५% गले की आंतों के दर्द का कारण मांसाहार है ।” – डा० ली ओनार्ड विलियम्स
“डेढ़ सौ वर्ष पहले से दांत और पायोरिया के रोगी अधिक बढ़ गये हैं । इसका कारण मांसाहार है ।” – डा० मिस्टर आर्थर अन्डरबुड
“१०५००० विद्यार्थियों में से ८९२५ विद्यार्थी दांत के रोगों के रोगी पाये गये, ये सब मांस के कारण है ।” – डा० मिस्टर थोमस जे० रोगन
इस युग के महापुरुष महर्षि दयानन्द जी शाकाहारी होकर ही महाशक्तिशाली बने थे । उन्होंने मांस भक्षण करने का कभी जीवन भर विचार भी नहीं किया । उनके बलशक्ति सम्बंधी अनेक घटनायें प्रसिद्ध हैं । जैसे जालन्धर में एक बार उन्होंने दो घोड़ों की बग्घी को एक हाथ से रोक दिया था, घोड़ों के पूरा बल लगाने पर भी बग्घी टस से मस नहीं हुई थी । एक बार एक रहट को हाथ से खैंचकर एक बड़े हौज को भर दिया था, उससे भी उनका व्यायाम पूरा नहीं हुआ । उसकी पूर्ति के लिये उनको आगे जाकर दौड़ लगानी पड़ी । महर्षि कई-कई कोस की दौड़ प्रतिदिन करते थे ।

एक बार उन्होंने कश्मीरी पहलवानों की उपस्थिति में अपने व्याख्यान में घोषणा की थी कि मेरी पचास वर्ष से अधिक आयु है, आप में ऐसा कौन शक्तिशाली पुरुष है जो मेरे इस खड़े हुए हाथ को झुका दे । इस पर किसी भी पहलवान में उठने का साहस नहीं हुआ ।

एक बार कुछ पहलवानों ने महर्षि जी का शक्तिपरीक्षण करना चाहा । महर्षि उनके विचार को भाँप गए । उस समय ऋषिवर स्नान करके आ रहे थे, उनके पास गीली कौपीन थी । उन्होंने कहा कि इसमें से एक बूंद जल निकाल दीजिये । किन्तु कोई भी पहलवान एक बूंद भी जल नहीं निकाल सका । तदन्तर महर्षि ने स्वयं उस कौपीन को एक हाथ से निचोड़ कर जल निकाल कर दिखा दिया ।

इस प्रकार उनकी शक्ति के अनेक उदाहरण हैं, जिन से सिद्ध है कि घी, दूध आदि सात्विक पदार्थों से ही बल बढ़ता है । महर्षि जी का भोजन सर्वथा विशुद्ध और सात्विक था । उन्होंने कभी मांस भक्षण का समर्थन नहीं किया, किन्तु सदा घोर विरोध ही करते रहे । उनके ग्रन्थों में मांस निषेध की अनेक स्थलों पर चर्चा है ।

जब ऋषिवर ने भारत भूमि पर जन्म लिया, उस समय इस देश की अवस्था बहुत शोचनीय थी । उसका वर्णन एक कवि ने इस प्रकार किया है –

छाया घोर अन्धकार मिथ्या पन्थन को,

शुद्ध बुद्ध ईश्वरीय ज्ञान बिसराया था ॥

वैदिक सभ्यता को अस्त व्यस्त करने के काज,

पश्चिमी कुसभ्यता ने रंग बिठलाया था ॥

गौ विधवा अनाथ त्राहि त्राहि करते थे,

धर्म और कर्म चौके चूल्हे में समाया था ॥

रक्षक नहीं कोई, भक्षक बने थे सभी,

ऐसे घोर संकट में दयानन्द आया था ॥

 

उपर्युक्त भयंकर समय में महर्षि दयानन्द ने क्रान्ति का बिगुल बजाया । उल्टी गंगा बहाकर दिखाई । यह अदम्य साहस, वीरता, बल, शक्ति ऋषिवर दयानन्द में कहां से आई ? वे ब्रह्मचारी थे । वीर्यं वै बलम् वीर्यवान् थे । इसीलिये, सुदृढ़, सुन्दर, सुगठित, सुडौल, स्वस्थ शरीर के स्वामी थे । उनकी ऊंचाई छः फीट नौ इञ्च थी । चलते समय भूमि भी कम्पायमान होती थी । सारे शरीर में कान्ति, तेज और विचित्र छवि थी । वे शुद्ध, सात्विक आहार और घोर तपस्या के कारण अखण्ड ब्रह्मचारी रहे । मांसाहारी कभी ब्रह्मचारी नहीं रह सकता । मांस खाने वाले के लिये ब्रह्मचर्यपालन वा वीर्यरक्षा असम्भव है । शुद्ध भोजन के बिना शुद्ध विचार नहीं हो सकते । शुद्ध विचार ही ब्रह्मचर्य का मुख्य साधन है । मांसाहारी देशों में ब्रह्मचारी के दर्शन दुर्लभ ही नहीं असम्भव हैं । व्यभिचार अनाचार के घर कहीं देखने हों तो मांसाहारी देश हैं । कुमार कुमारियों की अनुचित सन्तानों की वहां भरमार है । मांसाहारी देश सभी पापों की खान हैं । यह वहां होने वाले पापों के आंकड़े सिद्ध करते हैं । अप्राकृतिक मैथुन मांसाहारी जातियों तथा व्यक्तियों में ही विशेष रूप से पाया जाता है ।

आदि सृष्टि से भारत देश शुद्ध शाकाहारी सात्त्विक भोजन प्रधान रहा है । इसीलिये यह ऋषियों, देवताओं और ब्रह्मचारियों का देश माना जाता है । इस देश में –

 

अष्टाशीतिसहस्राणि ऋषीणामूर्ध्वरेतसां बभूवुः (महाभाष्य ४.१।७९)

इस देश में ८८ (अट्ठासी) हजार ऊर्ध्वरेता अखण्ड ब्रह्मचारी ऋषि हुये हैं । ब्रह्मचारियों की परम्परा महाभारत युद्ध के कारण टूट गई थी । उसके पांच हजार वर्ष पश्चात् आदर्श अखण्ड ब्रह्मचारी महर्षि, देव दयानन्द ने उस टूटी हुई परम्परा को पुनः जोड़ दिया और उन्हीं की प्रेरणा से ब्रह्मचर्य के क्रियात्मक प्रचारार्थ अनेक गुरुकुलों की स्थापना हुई । ब्रह्मचर्यपूर्वक आर्षशिक्षा की गुरुकुल प्रणाली का पुनः प्रचलन ब्रह्मचारी दयानन्द की कृपा से पुनः सारे भारतवर्ष में हो गया जहां पर ब्रह्मचारी लोग सर्वथा और सर्वदा शुद्ध, सात्विक और निरामिष आहार करते हैं और यत्र तत्र सर्वत्र पुनः ब्रह्मचारियों के दर्शन होने लगे हैं ।

शुद्ध शाकाहारी ब्रह्मचारियों ने आज तक क्या क्या किया, उस पर चन्द्र कवि के इस भजन ने प्रकाश डाला है, जिसे आर्योपदेशक स्वामी नित्यानन्द जी आदि सभी सदा झूम झूमकर गाते हैं ।

 

भजन

ब्रह्मचर्य नष्ट कर डाला, हो गया देश मतवाला ॥टेक॥

ब्रह्मचारी हनुमान् वीर ने कितना बल दिखलाया था,

ब्रह्मचर्य के प्रताप से लंका को जाय जलाया था,

रावण के दल से अंगद का पैर टला नहीं टाला ॥१॥

शक्ति खाय उठे लक्ष्मण जी कैसा युद्ध मचाया था,

मेघनाद से शूरवीर को क्षण में मार गिराया था,

रामायण को पढ़ कर देखो, है इतिहास निराला ॥२॥

परशुराम के भी कुठार का जग मशहूर फिसाना था,

बाल ब्रह्मचारी भीष्म को जाने सभी जमाना था,

जग कांपे था उसके भय से, कभी पड़ न जाये कहीं पाला ॥३॥

डेढ़ अरब के मुकाबले में इकला वीर दहाड़ा था,

जो कोई उनके सन्मुख आया, पल में उसे पछाड़ा था,

जिसका शोर मचा दुनियां में ऋषि दयानन्द आला ॥४॥

चालीस मन के पत्थर को धर छाती पर तुड़वाता था,

लोहे की जंजीरों को वह टुकड़े तोड़ बगाता था,

राममूर्ति दो मोटर रोके है प्रत्यक्ष हवाला ॥५॥

ब्रह्मचर्य को धारो लोगो, यह चीज अनूठी है,

मुर्दे से जिन्दा करने की यह संजीवनी बूटी है,

चन्द्र कहे इस कमजोरी को दे दो देश निकाला ॥६॥

 

इस भजन में भारत के निरामिषभोजी ब्रह्मचारियों के उपक्रमों का वर्णन किया है ।

इसी प्रकार अन्य देशों के निवासी जो मांस नहीं खाते, वे मांसाहारियों से बलवान् और वीर होते हैं ।

लाल समुद्र तथा नहर स्वेज के तट पर रहने वाले भी मांस नहीं छूते, वे बड़े परिश्रमी और बली होते हैं । काबुल के पठान मेवा अधिक खाते हैं, इसी से वे पुष्ट और बलवान् होते हैं । इन उपर्युक्त बातों से सिद्ध होता है कि मांसाहारी लोगों की अपेक्षा शाकाहारी निरामिषभोजी अधिक परिश्रमी, अनथक और बलवान् होते हैं ।

मांसाहारी क्रोधी और भयानक अत्याचारी हो जाते हैं । पैशाचिक और निर्दयता की भावना उनमें घर कर जाती है तथा स्थिर हो जाती है । पर वे बलवान् नहीं होते । उनकी आत्मा कमजोर हो जाती है । शेर अरने (जंगली) भैंसे से मुकाबला नहीं कर सकता । अनेक शेरों के बीच में जंगली

भैंसा जल पी जाता है, वह उनसे नहीं डरता, किन्तु शेर जंगली भैंसे से डर कर दूर रहने का यत्न करते हैं । जितना भार (बोझ) एक बैल वा घोड़ा खींच ले जा सकता है, उतना भार दस शेर मिलकर भी नहीं खींच सकते । मथुरा के चौबों के मुकाबले पर कोई मांसाहारी नहीं आ सकता ।

भारत के प्रसिद्ध बली प्रो० राममूर्ति ने योरुप के पहलवानों को दाल चावल घी-दूध के बल पर विजय कर डाला था ।

भारत के पहलवान जो मांस खाते हैं, वे भी घी, दूध, बादामों का अधिक सेवन करते हैं । उनमें बल घी, दूध के कारण होता है । सारी दुनियां को जीतने वाला पहलवान गामा भी इसी प्रकार का था, वह रुस्तमे-जहां कहलाया । किन्तु भारतीय पहलवान भगवानदास जो नराणा बसी (दिल्ली राज्य) का रहने वाला था, के साथ गामा पहलवान की कुश्ती हुई, वे दोनों बराबर रहे । विश्वविजयी गामा पहलवान भगवानदास को नहीं जीत नहीं सका ।

मैंने भगवानदास पहलवान के अनेक बार दर्शन किये । वह सर्वथा निरामिषभोजी एवं शाकाहारी था । वह बहुत सुन्दर, स्वस्थ, सुदृढ़, सुडौल शरीर वाला छः फुटा बलिष्ठ पहलवान था । उसने पत्थर की चूना पीसने वाली चक्की में बैलों के स्थान पर स्वयं जुड़कर चूना पीसकर पक्की हवेली (मकान) बनाई थी, उनकी यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है । वह सारी आयु ब्रह्मचारी रहा तथा बहुत ही सदाचारी एवं सरल प्रकृति का पहलवान था । उसकी जोड़ के पहलवान भारत में दो-चार ही थे ।

भगवानदास पहलवान महाराजा कोल्हापुर के पहलवान थे, जैसे कि गामा महाराजा पटियाले के पहलवान थे । एक बार भगवानदास पहलवान हैदराबाद के पहलवान के साथ, जो कि मीर उस्मान अली नवाब का अपना निजी पहलवान था, कुश्ती लड़ने हैदराबाद गये । नवाब का पहलवान अली नाम से प्रसिद्ध था, जो गामा की जोड़ का ही था । नवाब की आज्ञा से कुश्ती की तिथि नियत हो गई और दो मास की तैयारी का समय दिया गया । पहलवान भगवानदास हिन्दूगोसाईं के बाग में रहता था, वहीं पर गोसाईं ने घी-दूध का प्रबन्ध कर दिया था, किन्तु जोर करने के लिये कोई जोड़ का पहलवान इन्हें वहां नहीं मिला, विवशता थी । इन्होंने गोसाईं जी से कहकर लोहे का झाम के समान एक बड़ा फावड़ा (कस्सी) तैयार करवाया । व्यायाम के पश्चात् बाग में उस कस्सी से तीन-चार बीघे भूमि खोद डालना यही प्रतिदिन का पहलवान भगवानदास का जोर था । दो मास बीत गये । दोनों पहलवान मैदान में आये । नवाब की देखरेख में कुश्ती आरम्भ हुई । पहले भारत में तोड़ की अर्थात् पूर्ण हार-जीत की कुश्ती होती थी । जब तक चित्त करके सारी पीठ और कमर भूमि पर न लगा दे और छाती आकाश को न दिखा दे, तब तक जीत नहीं मानी जाती थी, न ही कुश्ती बीच में छूटती थी । दो अढ़ाई घण्टे पहलवानों की जंगली भैंसों के समान कुश्ती हुई । बड़े पहलवान थे, बराबर की जोड़ी थी, हार-जीत सहज में नहीं होनी थी । अन्त में अली पहलवान जो प्रतिदिन दो बकरों का शोरबा खा जाता था, थकने लगा और अन्त में थककर, बेहोश होकर भूमि पर गिर पड़ा । पहलवान भगवानदास की जय हुई । वह सर्वथा शाकाहारी निरामिषभोजी था । मांसाहारियों पर यह शाकाहारियों की विजय थी ।

एक परीक्षण इस विषय में अंग्रेजों ने अपने राज्यकाल में बबीना छावनी में निरामिषभोजी पहलवानों पर किया था । उन्होंने ६० पहलवान शाकाहारी निरामिषभोजी और ६० मांसाहारी छांटे । तोल के अनुसार इनकी जोड़ मिलाई और एक दो मास की तैयारी का समय दे दिया । जब कुश्ती की निश्चित तिथि आ गई तो पहलवानों का दंगल हुआ । उन ६० जोड़ों में ५९ कुश्तियां शाकाहारी निरामिषभोजी पहलवान जीत गए तथा ६०वीं कुश्ती में वह जोड़ बराबर रही । ये जीतने वाले सभी पहलवान प्रायः हरयाणे के थे । इसने प्रत्यक्ष रूप से सिद्ध कर दिया कि निरामिषभोजी घी, दूध, अन्न, फल खाने वाले ही बलवान्, वीर और बहादुर होते हैं ।

अब वर्त्तमान समय की बात लीजिये । जो सबके सम्मुख है, वह हैं भारत केसरी हरयाणे के प्रसिद्ध, होनहार पहलवान मास्टर चन्दगीराम के विषय में । उसका विवरण संक्षेप में पढ़ें ।

भारत में हरयाणा प्रान्त अन्य प्रान्तों की अपेक्षा कुछ विशिष्टतायें रखता है । यहाँ के वीर निवासी इतिहास प्रसिद्ध वीर यौधेयों की सन्तान हैं । यौधेयों के पूर्वजों में मनु, पुरूरवा, ययाति, उशीनर और नृग आदि बड़े-बड़े राजा हुये हैं । इसी वंश में यौधेयों के चचा शिवि औशीनर के सुवीर, केकय और मद्रक – इन तीन पुत्रों से तीन गणराज्यों की स्थापना हुई । इसी प्रकार इनके चचेरे भाई सुव्रत के पुत्र अम्बष्ठ ने एक गणराज्य की स्थापना की । यदुवंश भी, जिसमें योगिराज श्रीकृष्ण एवं बलवान् बलराम हुये हैं, एक गण हैं तथा कौरव, पांडव भी पुरुवंशी हैं और यौधेय अनुवंशी हैं । पुरु, अनु और यदु तीनों सगे भाई चक्रवर्ती राजा ययाति की सन्तान हैं । वैसे तो सभी भारतवासी ऋषियों की सन्तान हैं । ऋषि, महर्षि सभी निरामिष, शुद्ध सात्त्विक आहार-विहार करने वाले थे । यौधेय उन्हीं ऋषियों की सन्तान हैं । वैवस्त मनु के वंश में उत्पन्न होने से यौधेयों का ऊंचा स्थान है । सप्तद्वीपों का स्वामी चक्रवर्ती सम्राट् महामना यौधेयों का प्रपितामह (परदादा) था ।

यौधेयों का भोजन सदा से गोदुग्ध, दही, घृत, फल अन्नादि सात्त्विक तथा पवित्र रहा है । वे अपने वंश चलाने वाले मनु जी महाराज की सब वेद विहित आज्ञाओं को मानते थे । वेदानुसार बनाये गये वैदिक विधान ग्रन्थ मनुस्मृति में लिखे अनुसार चलने में वे अपना तथा सारे विश्व का कल्याण समझते थे । वे मनुस्मृति के इस श्लोक को कैसे भूल सकते थे –

 

स्वमांसं परमांसेन यो वर्द्धयितुमिच्छति ।

अनभ्यचर्य पितृन् देवान् ततोऽन्यो नास्त्यपुण्यकृत् ॥

(मनु० ५।५२)

जो व्यक्ति केवल दूसरों के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है, उस जैसा कोई पापी है ही नहीं ।

इन्हीं विशिष्टताओं के कारण यौधेय वंश सहस्रों वर्षों तक भारतीय इतिहास में सूर्यवत् प्रकाशमान् रहा है । इस विषय में मेरी लिखी पुस्तक हरयाणे के वीर यौधेय में विस्तार से लिखा है । शतियां बीत गईं, अनेक राज्य इस आर्यभूमि की रंगस्थली पर अपना खेल खेलकर चले गये, किन्तु यौधेयों की सन्तान हरयाणा निवासियों में आज भी कुछ विशेषतायें शेष हैं । आहार-विहार में सरलता, सात्त्विकता इनमें कूट-कूट कर भरी है । अर्थात् अन्य प्रान्तों की अपेक्षा इनका आचार, विचार, आहार, व्यवहार शुद्ध सात्त्विक है । ये आदि सृष्टि से आज तक परम्परा से सर्वथा शाकाहारी निरामिषभोजी हैं । मांस को खाना तो दूर रहा, कभी इन्होंने छुवा भी नहीं ।

देशों में देश हरयाणा । जहाँ दूध दही का खाना ।

इनकी यह लोकोक्ति जगत्प्रसिद्ध है । जैन कवि सोमदेव सूरि ने भी अपने पुस्तक यशस्तिलकम् चम्पू में यौधेयों की खूब प्रशंसा की है ।

स यौधेय इति ख्यातो देशः क्षेत्रोऽस्ति भारते ।

देवश्रीस्पर्धया स्वर्गः स्रष्ट्रा सृष्ट इवापरः ॥४२॥

भारतदेश में प्रसिद्ध यह यौधेय देश अत्यधिक मनोहर होने के कारण ऐसा प्रतीत होता था मानो ब्रह्मा ने अथवा परमात्मा स्रष्टा ने दिव्य श्री से ईर्ष्या करके दूसरे स्वर्ग की रचना कर डाली है ।

महर्षि व्यास ने भी विवश होकर यौधेयों की राजधानी रोहतक के विषय में इसी प्रकार लिखा है –

ततो बहुधनं रम्यं गवाढ्यं धनधान्यवत् ।

कार्तिकेयस्य दयितं रोहितकमुपाद्रवत् ॥

नकुल ने बहुत धनधान्य से सम्पन्न, गौवों की बहुलता से युक्त तथा कार्तिकेय के अत्यन्त प्रिय रमणीय नगर रोहितक पर आक्रमण किया । हरयाणा के शूरवीर मस्त क्षत्रिय यौधेयों से उसका घोर संग्राम हुआ । यौधेयानां जयमन्त्रधराणाम् – जिन यौधेयों को सभी जयमन्त्रधर कहते थे, जो कभी किसी से पराजित नहीं होते थे, उन विजयी यौधेयों की प्रशंसा उनके शत्रुओं ने भी की है । इन्हीं से भयभीत होकर सिकन्दर की सेना ने व्यास नदी को पार नहीं किया । अपने पूर्वज यौधेयों के गुण आज इनकी सन्तान हरयाणावासियों में बहुत अधिक विद्यमान हैं । जैसे अल्हड़पन से युक्त वीरता और भोलेपन से मिश्रित उद्दण्डता आज भी इनके भीतर विद्यमान है । इन्हें प्रेम से वश में करना जितना सरल है, आंखें दिखाकर दबाना उतना ही कठिन है । अपने पूर्वज यौधेयों के समान युद्ध करना (लड़ना) इनका मुख्य कार्य है । यदि लड़ने को शत्रु न मिले तो परस्पर भी लड़ाई कर बैठते हैं, लड़ाई के अभ्यास को कभी नहीं छोड़ते ।

पाकिस्तान और चीन के युद्ध में इनकी वीरता की गाथा जगत्प्रसिद्ध है जिसकी चर्चा मैं पहले भी कर चुका हूँ । इन्हीं यौधेयों की सन्तान आर्य पहलवान श्री मास्टर चन्दगीराम जी भारत के सभी पहलवानों को हराकर दो बार भारत केसरी और दो बार हिन्द केसरी उपाधि प्राप्त कर चुके हैं । इसी प्रकार हरयाणे के रामधन आर्य पहलवान हरयाणे के पहलवानों को हराकर हरयाणा-केसरी उपाधि प्राप्त कर चुके हैं । ये दोनों पहलवान न मांस, न अण्डे, मच्छी आदि अभक्ष्य पदार्थों को छूते और न ही तम्बाकू, शराब आदि का ही सेवन करते हैं । आचार व्यवहार में शुद्ध सात्त्विक हैं । सर्वथा और जन्म से ही शुद्ध निरामिषभोजी (शाकाहारी) हैं ।

श्री मास्टर चन्दगीराम जी सब पहलवानों को हराकर दो बार (सन् १९६२ और १९६८ ई०) हिन्दकेसरी विजेता बने और दो बार (सन् १९६८ और १९६९ ई०) भारतकेसरी विजेता बने । इन्होंने बड़े बड़े भारी भरकम प्रसिद्ध मांसाहारी पहलवानों को पछाड़कर दर्शकों को आश्चर्य में डाल दिया । जैसे मेहरदीन पहलवान मांसाहारी है । दोनों बार भारतकेसरी की अन्तिम कुश्ती इसी के साथ मा० चन्दगीराम की हुई है और दोनों बार मा० चन्दगीराम शाकाहारी पहलवान जीता तथा मांसाहारी मेहरदीन हार गया । एक प्रकार से यह शाकाहारियों की मांसाहारियों से जीत थी । प्रथम बार जिस समय मेहरदीन के मुकाबले पर मा० चन्दगीराम जी अखाड़े में कुश्ती के लिये निकले तो उनके आगे बालक से लगते थे। किसी को भी यह आशा नहीं थी कि वे जीत जायेंगे ।

क्योंकि चन्दगीराम की अपेक्षा मेहरदीन में १६० पौंड भार अधिक है । ३५ मिनट तक घोर संघर्ष हुवा । इसमें मेहरदीन इतना थक गया कि अखाड़े में बेहोश होकर गिर पड़ा, स्वयं उठ भी नहीं सका, आर्य पहलवान रूपचन्द आदि ने उसे सहारा देकर उठाया । यदि मेहरदीन में मांस खाने का दोष नहीं होता तो चन्दगीराम उसे कभी भी नहीं हरा सकता था । मांसाहारी पहलवानों में यह दोष होता है कि वे पहले ५ वा १० मिनट खूब उछल कूद करते हैं, फिर १० मिनट के पीछे हांफने लगते हैं । उनका दम फूल जाता है और श्वास चढ़ जाते हैं । फिर उनको हराना वामहस्त का कार्य है । गोश्तखोर में दम नहीं होता, वह शाकाहारी पहलवान के आगे अधिक देर तक नहीं टिक सकता । इसी कारण सभी मांसाहारी पहलवान थककर पिट जाते हैं, मार खाते हैं । इसी मांसाहार का फल मेहरदीन को  भोगना पड़ा । यह १९६८ में हुई कुश्ती की कहानी है । इस बार १९६९ ई० में दिल्ली में पुनः भारत केसरी दंगल हुवा और फिर अन्तिम कुश्ती मा० चन्दगीराम और मेहरदीन की हुई । यह कुश्ती मैंने प्रोफेसर शेरसिंह की प्रेरणा पर स्वयं देखी । मैं काशी जा रहा था । मेरे पास समय नहीं था, चलता हुआ कुछ देख चलूं, यह विचार कर वहां पहुँच गया । उस दिन बड़ी भारी भीड़ थी । कुश्ती देखने के लिए दिल्ली की जनता इस प्रकार उमड़ पड़ेगी, मुझे यह स्वप्न में भी ध्यान नहीं आ सकता था । वैसे यह दंगल २८ अप्रैल से चल रहा था । इस भारत केसरी दंगल में क्रमशः सुरजीतसिंह, भगवानसिंह, सुखवन्तसिंह तथा रुस्तमे अमृतसर बन्तासिंह को १० मिनट के भीतर अखाड़े से बाहर करने वाला हरयाणा का सिंहपुरुष अखाड़े में उतरा । उधर जिससे टक्कर हुई थी, वह उपविजेता मेहरदीन सम्मुख आया । दोनों में टक्कर होनी थी । बड़े-बड़े पहलवान कुश्ती जीतकर पुनः उसी प्रतियोगिता में भाग नहीं लेते । क्योंकि पुनः हार जाने पर सारे यश और कीर्ति के धूल में मिलने का भय रहता है । किन्तु कौन चतुर व्यक्ति हरयाणे के इस नरकेसरी की प्रशंसा किये बिना रह सकता है ? जो अपनी शक्ति और बल पर आत्मविश्वास करके पुनः भारतकेसरी के दंगल में कूद पड़ा और अपने द्वारा हराये हुये मेहरदीन से पुनः टकराने के लिये अखाड़े में उतर आया । इधर मा० चन्दगीराम को अपने भुजबल पर पूर्ण विश्वास था । उसने गतवर्ष इसी आधार पर समाचार पत्रों में एक बयान दिया था –

“भीमकाय मेहरदीन पर दाव कसना खतरे से खाली नहीं था । भारतकेसरी की उपाधि मैंने भले ही जीत ली, पर मेहरदीन के बल का मैं आज भी लोहा मानता हूँ । पर इतना स्पष्ट कर दूं कि अब वह मुझे अखाड़े में चित्त नहीं कर पायेगा । मैंने उसकी नस पकड़ ली है और अब मैं निडर होकर उससे कुश्ती लड़ सकता हूं और इन्हीं शब्दों के साथ मैं  मेहरदीन को चुनौती देता हूं कि वह जब भी चाहे, जहां उसकी इच्छा हो, मुझ से फिर कुश्ती लड़ सकता है ।”

“मेरी जीत का रहस्य कोई छिपा नहीं, मैं शक्ति (स्टेमिना) और धैर्य के बल्पर ही अपने से अधिक शक्तिशाली और भारत के रुस्तमे-हिन्द मेहरदीन को पछाड़ने में सफल रहा ।”

“मुझे पूरा विश्वास था कि यदि दस मिनट तक मैं मेहरदीन के आक्रमण को विफल करने में सफल हो सका तो उसे निश्चय ही हरा दूंगा । आपने ही क्या, दुनियां ने देखा कि आरम्भ के १०-१२ मिनट तक मैं मेहरदीन पर कोई दाव लगाने का साहस नहीं कर सका । १३वें मिनट में मेहरदीन ने ज्यों ही पटे निकालने का यत्न किया, त्यों ही मैंने उसकी कलाई पकड़कर झटक दी । वह औंधे मुंह अखाड़े पर गिरता-गिरता बचा और दर्शकों ने दाद देकर (प्रशंसा करके) मेरे साहस को दूना कर दिया । कई बार जनेऊ के बल पर मैंने नीचे पड़े मेहरदीन को चित्त करने का यत्न किया । यदि आपने ध्यान किया हो तो मैं निरन्तर अपने चेहरे से मेहरदीन की स्टीलनुमा (फौलादी) गर्दन को रगड़ता रहा था ।”

“मैं हरयाणे के एक साधारण किसान परिवार का जाट हूं । स्वर्गीय चाचा सदाराम अपने समय के एक नामी (प्रसिद्ध) पहलवान थे । मरते समय उन्होंने मेरे पिता श्री माड़ूराम से कहा था – इसे दो मन घी दे दो, यही पहलवानी में वंश का नाम उज्ज्वल कर देगा ।”

“मैं किसी प्रकार से इण्टर पास कर आर्ट एण्ड क्राफ्ट में प्रशिक्षण ले मुढ़ाल गांव के सरकारी स्कूल में खेलों का इन्चार्ज मास्टर लग गया । मैं बचपन से उदास रहता था । प्रायः यही सोचा करता था कि संसार में निर्बल मनुष्य का जीवन व्यर्थ है ।”

उपर्युक्त कथन से यह प्रकट होता है कि अपने चचा की प्रेरणा से ये पहलवान बने । पहलवानी इनके घर में परम्परा से चली आती थी । वैसे  तो तीस-चालीस वर्ष पूर्व हरयाणे के सभी युवक-युवती कुश्ती का अभ्यास करते थे । उसी प्रकार के संस्कार मास्टर जी के थे, अपने पुरुषार्थ से वे इतने बड़े निर्भीक नामी पहलवान बन गये । इस प्रकार एक वर्ष की पूर्ण तैयारी के बाद १९६९ में होने वाले दंगल में पुनः १२ मई के सायं समय भारत केसरी दंगल में मेहरदीन से आ भिड़े । आज भारत केसरी का निर्णायक दंगल था । इससे पूर्व इसी दिन हरयाणे के वीर युवक मुरारीलाल वर्मा “भारत कुमार” के उपाधि विजेता बने थे । यह भी पूर्णतया निरामिषभोजी विशुद्ध शाकाहारी हैं । यह भी सारे भारत के विद्यार्थी पहलवानों को जीतकर भारतकुमार बना था । अब विख्यात पहलवान दारासिंह की देखरेख में (निर्णायक के रूप में) भारत-केसरी उपाधि के लिये मल्ल्युद्ध प्रारम्भ हुआ । प्रारम्भ में ही मा० चन्दगीराम ने अपने फौलादी हाथों से मेहरदीन के हाथ को जकड़ लिया । मेहरदीन पहली पकड़ में ही घबरा गया । उसे अपने पराजय का आभास होने लगा । जैसे-तैसे टक्कर मारकर हाथ छुड़ाया किन्तु फिर दूसरी पकड़ में वह हरयाणे के इस शूरवीर के पंजे में फंस गया, वह सर्वथा निराश हो गया । विवश होकर केवल ७ मिनट ४५ सैकिण्ड में उससे छूट मांग ली अर्थात् बिना चित्त हुये उसने आगे लड़ने से निषेध कर दिया और अपनी पराजय स्वीकार कर भीगे चूहे के समान अखाड़े से बाहर हो गया । दर्शकों को भी ऐसा विश्वास नहीं था कि विशालकाय मेहरदीन हलके फुलके मा० चन्दगीराम से इतना घबरा कर बिना लड़े अपनी पराजय स्वीकार कर अखाड़ा छोड़ देगा । दर्शकों को तो भय था कि कभी चन्दगीराम हार न जाये । लोग उसकी जीत के लिये ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे । हार स्वीकार करने से पूर्व दारासिंह निर्णायक ने मेहरदीन को कुश्ती पूर्ण करने को कहा था, किन्तु वह तो शरीर, मन, आत्मा सबसे पराजित हो चुका था । उसके पराजय स्वीकार करने पर निर्णायक दारासिंह ने हजारों दर्शकों की उपस्थिति में मास्टर चन्दगीराम को विजेता घोषित कर दिया । फिर क्या था, तालियों की

गड़गड़ाहट तथा मा० चन्दगीराम के जयघोषों से सारा क्रीडाक्षेत्र गूंज उठा । श्री विजयकुमार मल्होत्रा मुख्य कार्यकारी पार्षद ने दूसरी बार विजयी हुये मा० चन्दगीराम को भारतकेसरी के सम्मानजनक गुर्ज से अलंकृत किया । सारे भारत में इनके विजय की धूम मच गई । स्थान-स्थान पर स्वागत होने लगा । इनके अपने ग्राम सिसाय (जि० हिसार) में भी इनका बड़ा भारी स्वागत हुवा । उस स्वागत समारोह में मैं स्वयं भी गया और मा० चन्दगीराम को इनके दोबारा विजय पर स्वागत करते हुये बधाई दी । गत वर्ष प्रथम भारत केसरी विजय पर हरयाणे के आर्य महासम्मेलन पर सारे आर्यजगत् की ओर से भारतकेसरी मा० चन्दगीराम तथा हरयाणाकेसरी आर्य पहलवान रामधन – इन दोनों का रोहतक में स्वागत किया था ।

इस प्रकार मा० चन्दगीराम की देशव्यापी ख्याति, कुश्ती कला की जानकारी, लम्बा श्वास वा दम, उनकी हाथों की फौलादी पकड़ से देशवासियों के हृदयों में नवीन आशाओं का संचार होने लगा है । पुनः मल्ल्युद्ध (कुश्ती) के प्रति श्रद्धा और प्रेम उत्पन्न हो गया है ।

मा० चन्दगीराम का विजय उनका अपना विजय नहीं है, यह शाकाहारियों का मांसाहारियों पर विजय है । यह ब्रह्मचर्य का व्यभिचार पर विजय है क्योंकि मा० चन्दगीराम सात मास के पश्चात् अब अपने घर पर गया था, वह गृहस्थ होते हुये भी ब्रह्मचारी है । अगले दिन प्रातःकाल पुनः दिल्ली को चल दिया । इस श्रेष्ठ आर्ययुवक हरयाणे के नरपुंगव की जीत आबाल वृद्ध वनिता सभी अपनी जीत समझते हैं । मा० चन्दगीराम को यह सदाचार की प्रेरणा आर्यसमाज की शिक्षा महर्षि दयानन्द के पवित्र जीवन से ही मिली है। वे इसे अपने भाषणों में बार-बार स्वयं कहते रहते हैं । इससे बढ़कर और क्या उदाहरण हो सकता है जिस से यह सिद्ध होता है कि घी-दूध ही बल का भण्डार है । घृतं वै बलम् – घृत ही बल है, मांस नहीं । मांस से बल बढ़ता है, इस भ्रम को मा० चन्दगीराम ने सर्वथा दूर कर दिया है ।

एक बार हरयाणे के पहलवानों को एक मुस्लिम पहलवान कटड़े ने जो झज्जर का था, छुट्टी दे दी । फिर ब्रह्मचारी बदनसिंह आर्य पहलवान निस्तौली निवासी से इसकी कुश्ती झज्जर में ही हुई । उस कसाई पहलवान का शरीर बड़ा भारी भरकम था और ब्र० बदनसिंह चन्दगीराम के समान हलका फुलका था । उस कसाई पहलवान के पिता ने कहा इस बालक को मरवाने के लिये क्यों ले आये ? शुभराम भदानी वाले पहलवान को लाओ, उसकी और इसकी जोड़ है । किन्तु भदानियां शुभराम पहलवान कुश्ती लड़ना नहीं चाहता था । उसके पिता जी ही पहलवान बदनसिंह को कुश्ती के लिये निस्तौली से लाये थे । कुश्ती हुई । ब्र० बदनसिंह ने पहले तो बचाव किया । कसाई कट्टा पहलवान पहले तो खूब उछलता-कूदता रहा, फिर १५-२० मिनट के पीछे उसका दम फूलने लगा, जैसे कि मांसाहारियों का दम फूलता ही है । फिर क्या था, ब्र० बदनसिंह का उत्साह बढ़ने लगा और अन्त में भीमकाय कसाई पहलवान को चारों खाने चित्त मारा । ब्र० बदनसिंह को कसाई पहलवान के पिता ने स्वयं पगड़ी दी और छाती से लगाया ।

इस प्रकार की सैंकड़ों घटनायें और लिखी जा सकती हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि मांसाहारी बली वा शक्तिशाली नहीं होता, और न ही मांस से बल मिलता है । किन्तु घी दूध ही बल और शक्ति प्रदान करते हैं ।

 

मांस मनुष्य का भोजन नहीं – स्वामी ओमानन्द सरस्वती

पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि जितने भी संसार में प्राणी हैं, सब अपने-अपने स्वभाव भोजन को भली-भांति जानते तथा पहचानते हैं । अपने भोजन को छोड़कर दूसरे पदार्थों को सर्वथा अभक्ष्य समझते हैं, उनको न देखते हैं, न सूंघते हैं । अतः अपने आपको सब प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ समझने वाले इस मनुष्य से तो सभी अन्य प्राणी ही अच्छे हैं । जैसे जो पशु घास आदि चारा खाते हैं, वे मांस की ओर देखते भी नहीं और जो मांसाहारी पशु हैं, वे घासफूस की ओर खाने के लिये दृष्टिपात तक नहीं करते । उसी प्रकार कन्दमूल और फलफूल भक्षी प्राणी इन पदार्थों को छोड़कर घास-फूस नहीं खाते । इसी प्रकार पेय पदार्थों की वार्ता है । भयंकर से भयंकर प्यास लगने पर भी कोई पशु मद्य, शराब, सोडावाटर, चाय, काफी और भंग आदि नहीं पीते । परन्तु यह अभिमानी मनुष्य संसार का एक विचित्र प्राणी है, इसको भक्ष्य-अभक्ष्य का कोई विचार नहीं, पेय-अपेय की कोई मर्यादा नहीं । यह खान-पान में सर्वथा उच्छृंखल है, खानपान में इसका कोई नियम नहीं । यह सर्वभक्षी बना हुवा है । पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि सबको चट कर जाता है । इसका उदर (पेट) सभी प्राणियों का कब्रिस्तान बना हुआ है । निरपराध निर्बल प्राणियों को मारकर खाने में इसने न जाने कौन सी वीरता समझ रक्खी है । राष्ट्रीय कवि श्री मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी पुस्तक भारत-भारती में इसका अच्छा चित्र खींचा है –

वीरत्व हिंसा में रहा जो मूल उनके लक्ष्य का,

कुछ भी विचार उन्हें नहीं है आज भक्ष्याभक्ष्य का ।

केवल पतंग विहंगमों में, जलचरों में नाव ही,

बस भोजनार्थ चतुष्पदों में चारपाई बच रही ॥

अर्थात् जो अपने शत्रुओं का वध (हिंसा) युद्ध में करके अपनी वीरता दिखाते थे, आज वे भक्ष्याभक्ष्य का कुछ विचार न करके निर्दोष प्राणियों को मारकर अभक्ष्य भोजन करने के लिये अपनी वीरता दिखाते हैं । पापी मनुष्य ने सब प्राणी खा लिये । केवल आकाश में उड़ने वालों में कागज के पतंग, जल में रहने वालों में लकड़ी की नाव और चौपाये पशुओं में केवल चारपाई को यह नहीं खा सका । यही इसके भक्ष्य नहीं बने । इन तीनों को छोड़कर शेष सबको इसने अपने पेट में पहुंचा दिया । इसी के फलस्वरूप मनुष्य सभी प्राणियों की अपेक्षा अधिक रोगी वा दुःखी रहता है ।

महर्षि दयानन्द जी ने इस सत्य को इस प्रकार प्रकट किया है –

“क्योंकि दुःख का पापाचरण और सुख का धर्माचरण मूल कारण है । जो कोई दुःख को छुड़ाना और सुख को प्राप्त होना चाहें वे अधर्म को छोड़, धर्म अवश्य करें । क्योंकि जिन मिथ्या भाषणादि पापकर्मों का फल दुःख है उनको छोड़ सुख रूप फल को देने वाले सत्यभाषणादि धर्माचरण अवश्य करें ।”

महर्षि दयानन्द जी ने दुःख का कारण असत्य भाषणादि कर्मों को लिखा है । अहिंसा का स्थान यमों में सत्य से प्रथम है । क्योंकि –

“तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः”

अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी त्याग), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह – पांच यमों में महर्षि योगिराज पतञ्जलि ने अहिंसा को सर्वप्रथम स्थान दिया है । इसे सार्वभौम धर्म माना है ।

महर्षि दयानन्द जी ने बहुत बलपूर्वक लिखा है –

“जब से विदेशी मांसाहारी इस देश में आके गौ आदि पशुओं को मारने वाले मद्यपानी राज्याधिकारी हुये हैं तब से क्रमशः आर्यों के दुःख की बढ़ोतरी होती जाती है ।”

“जब आर्यों का राज्य था तब ये महोपारक गाय आदि पशु नहीं मारे जाते थे, तभी आर्यावर्त वा अन्य भूगोल देशों में बड़े आनन्द में मनुष्य आदि प्राणी वर्तते थे ।”

क्योंकि सभी पृथिवी के मनुष्य वेदाज्ञा तथा ऋषियों के धर्मोपदेशानुसार चलते थे । इसीलिए सुखस्य मूल धर्मः सुख का मूल धर्म है, महर्षि चाणक्य की इस आज्ञानुसार धर्माचरण करने से सब सुखी थे, रोगरहित और पूर्ण स्वस्थ थे । स्वस्थ मानव ही पूर्णतया सुखी होता है । स्वस्थ रहने के लिये ऋषियों ने भोजन के विषय में तीन नियम बनाये हैं ।

एम बार ऋषियों की शरण में जाकर किसी ने जिज्ञासा की और तीन बार प्रश्न किया कि रोग रहित पूर्ण स्वस्थ कौन रहता है ?

प्रश्न – कोऽ‍रुक्, कोऽरुक्, कोऽरुक्

उत्तर – ऋतभुक्, हितभुक्, मितभुक्

कौन नीरोग रहता है ? कौन नीरोग रहता है ? कौन नीरोग रहता है ?

उत्तर (१) जो धर्मानुसार भोजन करता है, (२) हितकारी भोजन करता है, (३) और जो मितभोजन – भूख रखकर अल्पाहार करता है, वह सर्वथा रोगरहित और पूर्ण स्वस्थ वा सुखी रहता है ।

मांसाहार कभी धर्मानुसार मनुष्य का भोजन नहीं हो सकता । मांसाहारी ऋतभुक् नहीं हो सकता क्योंकि बिना किसी प्राणी के प्राण लिये मांस की प्राप्ति नहीं होती और किसी निरपराध प्राणी को सताना, मारना, उसके प्राण लेना ही हिंसा है और हिंसा से प्राप्त हुई भोग की सामग्री भक्ष्य नहीं होती । महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं – “जितना हिंसा और चोरी, विश्वासघात, छलकपट आदि से पदार्थों को प्राप्त होकर भोग करना है, वह अभक्ष्य और अहिंसा, धर्मादि कर्मों से प्राप्त होकर भोजनादि करना भक्ष्य है ।”

 

(२) हितभुक् – जो हितकारी पदार्थों का भोजन करता है, वह हितभुक् सदा स्वस्थ रहता है ।

(३) जो भूख रखकर थोड़ा मिताहार करता है, वह पूर्ण स्वस्थ होता रहता है । इस विषय में महर्षि दयानन्द जी सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं –

“जिन पदार्थों से स्वास्थ्य, रोगनाश, बुद्धिबल, पराक्रमवृद्धि और आयुवृद्धि होवे, उन तण्डुल, गोधूम, फल, मूल, कन्द, दूध, घी, मिष्ट आदि पदार्थों का सेवन यथायोग्य पाक मेल करके यथोचित समय पर मित आहार भोजन करना, सब भक्ष्य कहाता है । जितने पदार्थ अपनी प्रकृति से विरुद्ध विकार करने वाले हैं, उन उन का सर्वथा त्याग करना और जो जो जिसके लिये विहित हैं, उन उन पदार्थों का ग्रहण करना यह भी भक्ष्य है ।”

अतः जो पदार्थ हिंसा से किसी को सताकर, मारकर, छल कपट, अधर्म से प्राप्त हों, उनका कभी सेवन नहीं करना चाहिये । ईश्वर सभी प्राणियों का पिता है । सब उसके पुत्र तुल्य हैं, वह सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य को अपने पुत्र पशु पक्षी आदि की हिंसा करके खाने की आज्ञा कैसे दे सकता है, तथा अपने पुत्रों की हिंसा से कैसे प्रसन्न हो सकता है ? महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं –

“क्या एक को प्राण कष्ट देकर दूसरों को आनन्द कराने से दयाहीन ईसाइयों का ईश्वर नहीं है ? जो माता पिता एक लड़के को मरवाकर दूसरे को खिलाते तो महापापी नहीं हो ? इसी प्रकार यह बात है क्योंकि ईश्वर के लिये सब प्राणी पुत्रवत् हैं, ऐसा न होने से इनका ईश्वर कसाईवत् काम करता है और सब मनुष्यों को हिंसक भी इसी ने बनाया है ।” – सत्यार्थप्रकाश

वे आगे लिखते हैं –

“जिसको कुछ दया नहीं और मांस के खाने में आतुर रहे वह बिना हिंसक मनुष्य के कभी ईश्वर हो सकता है ? मनुष्य का स्वाभाविक गुण दया है और दयाहीन हिंसक होकर ही मनुष्य मांस

खाने के लिये अन्य प्राणियों के प्राण लेता है तथा इसको मांस खाने को मिलता है । मांसाहारी अपने इस स्वाभाविक गुण दया, प्रेम, सहानुभूति को तिलाञ्जलि देकर शनैः शनैः सर्वथा अत्याचारी, निष्ठुर, निर्दयी, कसाई बन जाता है । फिर उन को हजारों पशुओं के गले को छुरी से काटते हुए तनिक भी दया नहीं आती ।”

मनु जी महाराज ने तो आठ कसाई लिखे हैं –

अनुमन्ता, विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।

संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः ॥५१॥

सम्मति देने वाला, अंग काटने वाला, मारने वाला, खरीदने वाला, बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला, खाने वाले – ये सब घातक हैं । अर्थात् मारने वाले आठ कसाई होते हैं । ऐसे हिंसक कसाई अधर्मियों के लोक परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं । मनु जी लिखते हैं –

योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया ।

स जीवंश्च मृत्श्चैव न क्वचित् सुखमेधते ॥

जो अहिंसक निर्दोष प्राणियों को खाने आदि के लिये अपने सुख की इच्छा से मारता है वह इस लोक और परलोक में सुख नहीं पाता । क्योंकि पापी अधर्मी को कभी सुख नहीं मिलता । पाप का ही तो फल दुःख है । हिंसक से बढ़कर पापी कोई नहीं होता । इसलिये अहिंसा परमो धर्मः अहिंसा को परम धर्म कहा है और इसीलिये यमों में अहिंसा का सर्वप्रथम स्थान है ।

नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित् ।

न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ॥

प्राणियों की हिंसा किये बिना मांस उत्पन्न नहीं होता है अर्थात् मांस की प्राप्ति नहीं होती और प्राणियों का वध वा हिंसा स्वर्गकारक नहीं है अर्थात् दुःखदायी है । निरपराध प्राणियों के प्राण लेकर अपने पेट को भरना अथवा अपनी जिह्वा का स्वाद पूर्ण करना घोर अन्याय और महापाप है और पाप का फल दुःख है । सभी महापुरुषों, सन्त-साधु, महात्माओं तथा धार्मिक ग्रन्थों में मांसाहार की निन्दा की है तथा इसे वर्जित तथा निषिद्ध ठहराया है ।

 

पापों का मूल मांसभक्षण

paapo ka mul

पापों का मूल मांसभक्षण

लेखक – स्वामी ओमानंदजी सरस्वती 

मांसभक्षण से निरपराध प्राणियों का वध होता है जैसे – कराची जैसे नगर के लिये पांच हजार पशु प्रतिदिन मारे जाते हैं, इस प्रकार सारे पाकिस्तान के लिये प्रतिदिन की गणना १ लाख १० हजार पशुओं के मारे जाने की हुई । इस प्रकार १ वर्ष में ४ करोड़ से अधिक पशु मारे जाते हैं । और अण्डे इससे पृथक् हैं ।

भारतवर्ष की जनसंख्या ५० करोड़ से क्या न्यून होगी । हमारी सरकार के मांसाहार के प्रचार से मांसाहारियों की संख्या बढ़ रही है । २०-२२ वर्ष में १०-१२ करोड़ से अधिक लोग मांसाहारी हो गये होंगे । अगर पाकिस्तान के अनुपात से संख्या लगायें तो ६ वा सात करोड़ पशुओं को भारत के लोग चट कर जाते हैं । पक्षी, अण्डे, मछली इनसे अलग हैं, जो इनसे कम नहीं हो सकते । इस प्रकार चौदह-पन्द्रह करोड़ निर्दोष जीवों की कब्रें मनुष्यों के पेट में बन जाती हैं । इसी कारण इतने प्राणियों की हत्या करने वाले देश के भाग्य में दरिद्रता, दुर्भिक्ष, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, बाढ़, सूखा, भूचाल अनेक महामारियों की सदैव कृपा बनी रहती है । यदि यों ही मांसाहारियों की संख्या बढ़ती रही तो छः मास में सारे पशुओं को भोजन में खा जायेंगे । फिर मनुष्य परस्पर एक दूसरे को खाने लगेंगे । जैसे ऋषिवर दयानन्द ने लिखा, जो उद्धरण मैंने अन्यत्र दिया है । यदि ये गाय, बकरी, भेड़ आदि न मारें तो इनके दूध आदि से देश का अधिक लाभ हो । सभी पशु पक्षी भगवान् ने संसार के हितार्थ बनाये हैं । निम्नलिखित कविता इस पर अच्छा प्रकाश डालती है –

हाथियन के दातन के खिलोने भांति भांतियन के ।

मृग की खाल किसी योगी मन भावेगी ॥

शेर की भी खाल पै कोई बैठेंगे जति यति ।

बकरी की खाल कछु पानी भर लावेगी ॥

गैंडे हू की ढ़ाल से कोई लड़ेंगे सिपाही लोग ।

साबरे की खाल राजा राना मन भायेगी ॥

नेकी और बदी ये रह जावेंगी जगत बीच ।

मनुष्य तेरी खाल किसी काम नहीं आवेगी ॥

यह ब्रजभाषा का कवित्त है, जिसको हरयाणे के स्वामी नित्यानन्द जी, स्वामी धर्मानन्द जी आदि सभी आर्योपदेशक गाते हैं ।

यह मनुष्य जो अपने आपको सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानता है, इसकी हड्डी, चमड़ा, बाल, नाखून आदि किसी कार्य में नहीं आते । पशुओं की हत्या करके संसार का बड़ा भारी अहित, हानि करते हैं, अतः महापापी हैं । जगत् का अहित ही महापाप कहलाता है । दूध-घी जो यथार्थ में मानव का भोजन है, उसके स्रोत गाय भैंस आदि, उनको मांसाहारी लोग खा गये । उनकी संख्या १९२८ में चौदह करोड़ छप्पन लाख थी । १९४१ में यह नौ करोड़ रह गई थी और १९६१ में ४ करोड़ हो गई । अब संभव है इनकी संख्या २ करोड़ ही हो । घी तो रहा नहीं, अब लोग मूंगफली, नारियल, वनस्पति तैल से पकाकर खाते हैं जिससे भिन्न-भिन्न प्रकार के रोगों की वृद्धि हो रही है । लोगों में अन्धे, बहरे, कोढ़ी, पागल और कैंसर के रोगी बढ़ते जा रहे हैं, जो मांसाहार का फल है । सर्वथा लोग शक्ति, बल से हीन हो रहे हैं । भारत का कद ३० वर्ष में २ इंच घट गया है और घी-दूध खाने वाले स्वीडन, हालैंड आदि देशों में ५ वा ६ इंच कद दो सौ वर्ष में बढ़ गया । महाभारत काल तक भी हमारा कद लम्बाई ६ वा ७ फीट से न्यून नहीं होती थी । क्योंकि महाभारत के बहुत पीछे मेगास्थनीज यूनानी यात्री आया था, उसने लिखा है कि मुझे भारत में किसी का कद ६ फीट से न्यून देखने में नहीं आया । महाभारत के समय तो ७ फीट से न्यून कद किसी का भी नहीं होना चाहिये । उस समय ३००-४०० वर्ष की आयु तक लोग जीवित रहते थे । १०० वर्ष से पूर्व तो कोई नहीं मरता था । १७६ वर्ष की आयु में राजर्षि भीष्म जी कौरव पक्ष के मुख्य सेनापति थे तथा सबसे बलवान् थे । महाराजा शान्तनु के भाई भीष्म पितामह के चचा वाह्लीक भी रणभूमि में लड़ रहे थे । उनके बेटे सोमदत्त, पौत्र महारथी भूरिश्रवा तथा उनके प्रपौत्र (भूरिश्रवा के पुत्र) भी युद्धभूमि में अपना रण-कौशल दिखा रहे थे । अर्थात् एक साथ ४ पीढ़ियां युद्ध में भाग ले रही थीं । ऐसी दशा में वे चार पीढियां युवा ही थीं । अब युवावस्था के दर्शन ही दुर्लभ हैं । किसी किसी भाग्यवान् को युवावस्था के दर्शनों का सौभाग्य मिलता है । बालक वा वृद्ध दो ही अवस्था के स्त्री-पुरुष अधिकतया देखने में आते हैं । बिना ब्रह्मचर्य पालन तथा अच्छे घी दुग्धयुक्त सात्विक आहार के कोई युवा नहीं होता । ब्रह्मचर्यपालन, बिना शुद्ध विचार तथा शुद्ध सात्विक आहार के असम्भव है । ब्रह्मचर्य ही सब शक्तियों का भण्डार है । सब सुधारों का सुधार, सब उन्नतियों की उन्नति और सब शुभकर्मों का शुभकर्म ब्रह्मचर्य जीवन ही है । मांसाहारी सात जन्म में भी ब्रह्मचारी नहीं रह सकता क्योंकि मांसाहार का उत्तेजक भोजन तो कामवासना की अग्नि को भड़काने वाला है । इसका इतिहास साक्षी है । भारतभूमि के तो ८८ हजार ऋषि सारी आयु अखण्ड ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी रहे । भारत में प्रत्येक स्त्री-पुरुष १६ तथा २५ वर्ष की आयु तक ब्रह्मचारी रहते थे । कोई ब्रह्मचर्यरहित अथवा खण्डित ब्रह्मचर्य स्त्री-पुरुष गृहस्थ में भी प्रवेश नहीं कर सकता था । यह पवित्र देश ब्रह्मचारियों का देश था ।

उधर मांसाहारियों का इतिहास क्या कह रहा है कि ९० वर्ष की आयु में भी महान् मुस्लिम फकीर मईउद्दीन चिश्ती अजमेरी विवाह करता है । अकबर महान् कहा जाने वाला इतिहास प्रसिद्ध मुगल बादशाह भी ५००० बेगमों की सेना का पति था, यह है पतन की पराकाष्ठा । छोटे-मोटे मांसाहारियों की बात जाने दें, वे क्या ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे ? इस समय उन्नति के शिखर पर चढ़े हुये योरुप अमेरिका आदि मांसाहारी देशों का मानचित्र (नक्शा) हमारे सम्मुख है । सारे पाप अनाचारों के घर और प्रचारक यही देश हैं । इसका दिग्दर्शन आप श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जी द्वारा लिखित “महर्षि दयानन्द जी का जीवनचरित्र” में उन्हीं के शब्दों में कीजिये –

क्या सारी पृथ्वी इस समय घोर अशान्ति से म्रियमाण दशा को प्राप्त नहीं हो रही है ? क्या नाना जाति, नाना जनपद, नाना राज्य, नाना देश, अनेक प्रकार की अशान्ति की अग्नि से जलकर छार खार नहीं हो रहे हैं ? क्या मनुष्य-संसार से शान्ति विदा नहीं हो गई है ? क्या कभी सभ्यता के नाम पर मनुष्यों ने इतने मनुष्यों के सिर काटे हैं ? क्या कभी उन्नति की पताका हाथ में लेकर मनुष्य ने वसुन्धरा को नर-रक्त से इतना रंगा है ? यदि पहले ऐसा कभी नहीं हुआ तो आज क्यों हो रहा है ? हम उत्तर देते हैं कि इसका कारण है – अनार्षशिक्षा और अनार्षज्ञान का विस्तार । इसका कारण यूरोप का पृथ्वीव्यापी प्रभाव और प्रतिष्ठा । यूरोप अनार्षज्ञान का गुरु और प्रचारक है, वही आज (कई शती तक) ससागर वसुन्धरा का अधीश्वर (रहा) है । छोटी-बड़ी, सभ्य-असभ्य, शिक्षित-अशिक्षित नाना जातियों और जनपदों में उसी यूरोप की शासन-पद्धति प्रतिष्ठित और प्रचलित है । इसलिये जो जाति वा राज्य यूरोप के संसर्ग में आ जाता है, उसमें अनार्षज्ञान का प्रचार और प्रतिष्ठा हो जाती है । इसी कारण से उस जाति वा राज्य के भीतर अनेक प्रकार की अशान्ति की अग्नि धक्-धक् करके जल उठती है । यूरोप के दो मुख्य सिद्धान्त हैं – क्रमोन्नति (Evolution) और दूसरा है योग्यतम का जय (Survival of the fittest); अर्थात् जिसकी लाठी उसकी भैंस । उपाध्याय जी लिखते हैं – इन दोनों अनार्ष सिद्धान्तों के द्वारा तूने जो संसार का अनिष्ट किया है, हम उसे कहना नहीं चाहते । योग्यतम का जय नाम लेकर तू सहज में ही दुर्बल के मुंह से भोजन का ग्रास निकाल लेता है । सैंकड़ों मनुष्यों को अन्न से वंचित कर देता है । एक एक करके सारी जाति को निगृहीत, निपीड़ित और निःसहाय कर देता है । जब तू बिजली से प्रकाशित कमरे में संगमरमर से मंडित मेज के चारों ओर अर्धनग्ना सुन्दरियों को लेकर बैठता है, उस समय यदि तेरे भोजन, सुख और संभाषण के लिए दस मनुष्यों के सिर काटने की भी आवश्यकता हो तो अनायास ही तू उन्हें काट डालेगा, क्योंकि तेरी शिक्षा यही है कि योग्यतम का जय होता है । यूरोप ! आसुरीय वा अनार्षशिक्षा तेरे रोम-रोम में भरी हुई है । अपनी अतर्पणीय धनलालसा को पूरी करने के लिये तू एक मनुष्य नहीं, दस मनुष्य नहीं, सौ मनुष्य नहीं, बल्कि बड़ी से बड़ी जाति को भी विध्वस्त कर डालता है । अपनी दुर्निवार्य भोगतृष्णा की तृप्ति के लिये तू केवल मनुष्य को ही नहीं, वरन् पशु-पक्षी और स्थावर-जंगम तक को अस्थिर और अधीर कर डालता है । अपनी भोग-विलासपिपासा की तृप्ति के लिये तू ललूखा मनुष्यों के सुख और स्वतन्त्रता को सहज में ही हरण कर लेता है । तेरे कारण सदा ही पृथ्वी अस्थिर और कम्पायमान रहती है । यूरोप ! तेरे पदार्पण मात्र से ही शान्ति देवी मुंह छिपाकर पलायमान हो जाती है । जिस स्थल पर तेरा अधिकार हो जाता है, वह राज्य सुखशून्य और शान्तिशून्य हो जाता है । जिस देश में तेरे शिक्षा-मन्दिर का स्कूल का द्वार खुलता है, तू उस देश को वञ्चना, प्रतारणा, कपट और मुकदमेबाजी के जाल में फांस देता है ।

यूरोप ! तूने संसार का जितना अनिष्ट और अकल्याण किया है उस में सब से बड़ा अनिष्ट और अकल्याण यही है कि तूने मनुष्य जीवन की प्रगति को उलटा करने का यत्न किया है । जिस मनुष्य ने निरन्तर मुक्तिरूप शान्ति पाने के उद्देश्य से जन्म लिया था, उसे तूने धन का दास और दुर्निवार्य भोगेच्छा का क्रीत-किंकर बनाने के लिये शिक्षित और दीक्षित कर दिया है । तेरी शिक्षा का उद्देश्य धन-सञ्चय करना ही सबसे अधिक वाञ्छनीय है । तू भोगमय और भोग सर्वस्व है । तूने ब्रह्म-वृत्ति (परोपकार की भावना) का अपमान किया और उसे नीचे गिरा दिया और वैश्यवृत्ति (भोग वा स्वार्थभावना) का सम्मान किया और उसे सब से ऊंचा आसन दिया है । इसकी अपेक्षा और किस बात से मनुष्य का अधिकतर अनिष्टसाधन हो सकता है ? यह यथार्थ बात है “Eat, Drink and be Merry” खावो पीवो और मजे उड़ाओ यही यूरोप की अनार्षशिक्षा का निचोड़ वा निष्कर्ष है । यही रावण जैसे राक्षस और पिशाचों का सिद्धान्त था । इसी आसुरी अनार्ष संस्कृति का प्रचार यूरोप कर रहा है । अपनी जबान के स्वाद के लिये लाखों नहीं, करोड़ों प्राणी मनुष्य प्रतिदिन मारकर चट कर जाता है और अपने पेट में उनकी कब्रें बनाता रहता है । यह सब यूरोप की इस अनार्ष-वाममार्गी शिक्षा का प्रत्यक्षफल है । स्वार्थी मनुष्य जो भोग-विलास ले लिये पागल है, वह कैसे संयमी, ब्रह्मचारी, दयालु, न्यायकारी और परोपकारी हो सकता है? स्वार्थी दोषं न पश्यति के अनुसार स्वार्थी भयंकर पाप करने में भी कोई दोष नहीं देखता, इसलिये यूरोप तथा उससे प्रभावित सभी देशों में मानव दानव बन गया है । उसे मांसाहार के चटपटे भोजन के लिये निर्दोष प्राणियों की निर्मम हत्या करने में कोई अपराध नहीं दीखता । उसे तड़फते हुये प्राणियों पर कुछ भी दया नहीं आती । आज सारा संसार वाममार्गी बना हुआ है । मद्य, मांस, मीन, मुद्रा और मैथुन जो नरक के साक्षात् द्वार हैं, उनको स्वर्ग समझ बैठा है । ऋषियों के पवित्र भारत में जहां अश्वपति जैसे राजा छाती ठोककर यह कहने का साहस करते थे –

न मे स्तनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः ।

नानाहिताग्निर्नाविद्वान्न स्वैरी स्वैरिणी कुतः ॥

अर्थात् मेरे राज्य में कोई चोर नहीं, कोई कञ्जूस नहीं और न ही कोई शराबी है । अग्निहोत्र किये बिना कोई भोजन नहीं करता । न कोई मूर्ख है तथा जब कोई व्यभिचारी नहीं तो व्यभिचारिणी कैसे हो सकती है !

आज उसी भारत में योरुप की दूषित अनार्ष शिक्षा प्रणाली के कारण चोरी, जारी, मांस, मदिरा, हत्या-कत्ल, खून सभी पापों की भरमार है । इन रोगों की एकमात्र चिकित्सा आर्ष शिक्षा है जिसका पुनः प्रचार कृष्ण द्वैपायन, महर्षि व्यास के पीछे आचार्य दयानन्द ने किया है । वेद आर्ष ज्ञान का स्वरूप हैं क्योंकि दयानन्द के समान वेदसर्वस्व वा वेदप्राण मनुष्य दिखाया जा सकता है ।

पाठको ! शायद आप हमारी बातों पर अच्छी प्रकार ध्यान नहीं देंगे । इसमें आपका अपराध नहीं है । “यथा राजा तथा प्रजा” – जैसा राजा होता है वैसी प्रजा भी हो जाती है । राजा अनार्ष विद्या का प्रचारक है । राजकीय शिक्षा पाने और उसका अभ्यास करने से आपके मस्तिष्क की अवस्था अन्यथा हो गई है और इसलिये हमारे कथन की आपके कानों में समाने की सम्भावना नहीं हो सकती । परन्तु आप सुनें वा न सुनें, हम बिना सन्देह और संकोच के घोषणा करते हैं कि वर्तमान युग में महर्षि दयानन्द ही एकमात्र वेदप्राण पुरुष और आर्षज्ञान का अद्वितीय प्रचारक हुआ है । आर्षज्ञान के विस्तार पर ही सारे विश्व की शान्ति निर्भर है । आर्षशिक्षा के साथ मनुष्य समाज की सर्व प्रकार की शान्ति अनुस्यूत है । जैसे और जिस प्रकार यह सत्य है कि एक और एक दो होते हैं, वैसे ही और उसी प्रकार यह भी सत्य है कि आर्ष ज्ञान ही मानवीय शान्ति का अनन्य हेतु है ।

अतः मद्य, मांस, मैथुन आदि भयंकर दोषों से छुटकारा आर्ष शिक्षा से ही मिलेगा । आर्ष शिक्षा के केन्द्र हैं – केवल गुरुकुल । अतः अपने तथा संसार के कल्याणार्थ अपने बालक बालिकाओं को केवल गुरुकुलों में ही शिक्षा दिलावो । स्कूल कालिजों में न पढ़ावो, इसी से संसार सुख और शान्ति को प्राप्त कर सकेगा ।

संसार के निरामिषभोजी महापुरुष

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संसार के निरामिषभोजी महापुरुष

लेखक – स्वामी ओमानंदजी सरस्वती 

जगद् गुरु श्री शंकराचार्य (शारदा पीठ, द्वारिका) 

यह अत्यन्त दुःख की बात है कि संसार की युवक पीढ़ी और विशेषकर हिन्दू युवक वर्ग पवित्र शाकाहार को छोड़ता जा रहा है और मांसाहार की ओर प्रवृत्त हो रहा है, जो हिन्दुत्व नहीं है । वह मानव का धर्म नहीं है । इसलिये हम सब को सावधान करते हैं और उपदेश देते हैं कि मानवमात्र को विशेष रूप से हिन्दुओं को शपथ लेनी चाहिये, प्रतिज्ञा करनी चाहिये कि हम शुद्ध शाकाहार ही करेंगे और मांस कभी नहीं खायेंगे । इस शपथ को सद्व्यवहार में लाना ।

श्री जगद् गुरु शंकराचार्य (श्रृंगेरी मठ) 

शाकाहार ने केवल शरीर को ही शुद्ध रखता है बल्कि आत्मा को भी शुद्ध पवित्र करता है । यह सार्वभौम स्वीकृत सिद्धान्त है कि शाकाहार ही सब राष्ट्रों और जातियों को अधिक स्वस्थ और सुखी करने वाला है ।

श्री जगद् गुरु शंकराचार्य (बद्रिकाश्रम) 

अब संसार शुद्ध शाकाहार के महत्त्व को समझने लगा है । क्योंकि शुद्ध सात्त्विक आहार मानसिक, शारीरिक और आत्मिक उन्नति का एकमात्र कारण है । यही स्वास्थ्य, शक्ति और पवित्रता को देता है ।

श्री जगद् गुरु कामाकोठी पीठ 

मनुष्यों में पूर्ण शक्ति और सुख की प्राप्ति के लिये वातावरण का निर्माण शुद्ध शाकाहार ही करता है ।

सन्त विनोबा भावे 

मानव को शीघ्रातिशीघ्र इस निष्कर्ष पर अवश्य पहुंचना है कि शाकाहार ही सब भोजनों में श्रेष्ठतम भोजन है, जो शक्ति प्रदान करता है ।

योरूप के महान् ईसाई सन्त बासिल (३२०-३७६ ई०) 

यदि मानव मांसाहार का परित्याग कर दे तो सब प्राणियों के प्राण बच जायेंगे । उनका व्यर्थ में खून नहीं बहेगा । भोजन की मेजों पर प्रचुर मात्रा में फलों के ढ़ेर लग जायेंगे, जो प्रकृति ने प्रभूत मात्रा में उत्पन्न किये हैं, और सर्वत्र शान्ति ही शान्ति हो जायेगी ।

ईसाई सन्त जेरोमे (Saint Jerome) (३४०-४२० ई०) 

ईसा मसीह हमें मांस खाने की अब आज्ञा नहीं देता । यह बहुत ही अच्छा है कि कभी मांस नहीं खाना चाहिये, न कभी शराब-मद्यपान करना चाहिये – “Jesus Christ today does not permit us to eat flesh according to Apostle (Rom XV-21). It is good never to drink wine and never to eat flesh.”

St. Augustine (354-430 ई०) 

Bishop of HIPPO in Africa says – not only abstain from flesh, wine, but also quotes “That is good never to eat meat and drink wine when by doing so we scandalize our brothers.”

कोन्स टेंटी नोपल का आर्कबिशप क्राइसोस्टोम Chrysostom 

लिखता है – रोटी और जल को छोड़कर मद्य मांस का कोई सेवन नहीं करता था – No streams o fblood are among them, no but cheering and cutting of flesh. Nor are there the horrible smells of flesh meats among them. Or disagreeable fumes from kitchen. No tumult and disturbance and scarisome clamours, but bread and water.

पीथागोरस (Pythagoras – 570-470 ईसा पूर्व) 

यह योरुप का एक बहुत बड़ा दार्शनिक, गणितज्ञ और संगीत विद्या का भी बहुत बड़ा विद्वान् था । उसने कभी मांस और मद्य का सेवन नहीं किया । वह शाक, सब्जी और रोटी ही खाता था ।

योरुप के कवि

अंग्रेज कवि सामुयल टेलर कॉलरिज (Samuel Taylor Coleridge – 1772-1834) लिखता है – “He prayeth best who loveth best. Both man and bird and beast for the dear God who loveth us. He made and loveth all.”

अर्थात् जो व्यक्ति मनुष्य, पक्षी और पशुओं अर्थात् सब प्राणियों से बहुत अधिक प्रेम करता है, वही भगवान् का सच्चा भक्त व उपासक है । जो प्रिय प्रभु के लिये हम सबसे प्रेम करता है, वही यथार्थ में सबका प्रेमी है ।

अमेरिका के हेनरी वाड्सवर्थ लोंगफैलो लिखते हैं – “मैं उस व्यक्ति को सबसे अधिक वीर मानता हूँ जो किसी बड़े नगर में बिना पक्षपात और भय के मित्रहीन पशुओं का मित्र बनकर उनकी सेवा और सुरक्षा, प्राणरक्षार्थ डटकर खड़ा रहता है ।”

अंग्रेज कवि जोहन विल्टन कहता है – “जो हिंसा से अन्य प्राणियों के प्राण लेते हैं, वे भी अग्नि, बाढ़, दुर्भिक्ष आदि के द्वारा नष्ट हो जायेंगे । मांस और मदिरापान से भूमि पर अनेक प्रकार के भयंकर रोग फैल जायेंगे । राष्ट्रहित के लिये लिखने वाला लेखक शुद्ध जल और शाकाहार पर ही निर्वाह करता है ।”

इसी प्रकार अंग्रेज कवि विलियम वर्डसवर्थ, विलियम शेक्सपीयर, परसी वेशी शैले और विलियम कोपर आदि सभी ने मद्य मांस के सेवन का अपने कविताओं और लेखों में सर्वथा निषेध किया है । विस्तार से उनके पृथक् उदाहरण नहीं दे रहा हूँ ।

मांसाहारी वीर नहीं होते

SAMBHAJI

मांसाहारी वीर नहीं होते

लेखक – स्वामी ओमानंदजी सरस्वती 

न जाने लोग मांस क्यों खाते हैं ! न इसमें स्वाद है और न शक्ति । मांस स्वाभाविक नहीं । मांस में बल नहीं, पुष्टि नहीं । वह स्वास्थ्य का नाशक और रोगों का घर है । मनुष्य मांस को कच्चा और बिना मसाले के खाना पसन्द नहीं करते । पहले-पहल मांस के खाने से उल्टी आ जाती है । डा० लोकेशचन्द्र जी तथा लेखक की रूस की यात्रा में मांस की दुर्गन्ध से कई बार बुरी अवस्था हुई, वमन आते-आते बड़ी कठिनाई से बची । फिर भी लोग इसे खाते हैं । कई लोग तो बड़ी डींग मारते हैं कि मांसाहार बड़ा बल और शक्ति बढ़ाता है । यह भी मिथ्या है । नीचे के उदाहरण से यह सिद्ध हो जायेगा ।

कुछ वर्ष पूर्व लोगों की यह धारणा थी कि कुश्ती लड़नेवाले पहलवानों और व्यायाम करनेवालों को मांसाहार करना आवश्यक है । इसलिये योरोप, अमेरिका और पश्चिमी देशों के पहलवान अधपके मांस और अन्य उत्तेजक पदार्थ खाते थे । पर अब उनकी यह धारणा बदल गई और वे शाकाहारी बनते जा रहे हैं । तुर्की के सिपाही मांस बहुत कम खाते हैं, इसलिये वे योरोप भर में बली और योद्धा समझे जाते हैं । १९१४ के विश्वयुद्ध में ६ नं० जाट पलटन ने अपनी वीरता के कारण सारे संसार में प्रसिद्धि पाई । इस पलटन के अनेक वीर सैनिकों ने अपनी वीरता के फलस्वरूप विक्टोरिया क्रास पदक प्राप्त किये । इस छः नम्बर पलटन में सभी हरयाणे के सैनिक निरामिषभोजी थे । उन्हें युद्ध के क्षेत्र में खाने के लिए जब बिस्कुट दिये गए, तो उन्होंने इस सन्देह से कि कभी इनमें अण्डा न हो, उन्हें छुआ तक नहीं । सूखे भुने हुए चने चबाकर लड़ते रहे । इन्हीं की वीरता के कारण अंग्रेजों की जीत हुई । अभी पाकिस्तान के साथ हुये सन् १९६५ के युद्ध में हरयाणे के निरामिषभोजी वीर सैनिकों ने हाजी पीर दर्रे, स्यालकोट, डोगराई, खेमकरण आदि के मोर्चों पर मांसाहारी पाकिस्तानियों को भयंकर पराजय (शिकस्तपाश) दी । खेमकरण के मोर्चे पर हरयाणे के पहलवानों ने ४८ टैंकों से पाकिस्तान के २२५ टैंकों से टक्कर ली और उनको हराकर टैंक छीन लिए, कितने ही टैंकों की होली मंगला दी । डोगराई का मोर्चा तो हरयाणे के वीर सैनिकों की वीरता का इतिहास प्रसिद्ध मोर्चा है । उसे विजय करके भारत तथा हरयाणे के यश और कीर्ति को चार चांद लगा दिए । इनकी वीरता का इतिहास कभी पृथक् लिखने का विचार है ।

हमारे निरामिषभोजी सैनिक

मैं ६ नं० जाट पलटन की चर्चा पहले कर चुका हूँ । इसी प्रकार ७ नं० रिसाले की गाथा है जिसमें अंग्रेज अफसर जे० एम० कर्नल बारलो थे । बर्मा में उस समय हमारी सेना गई हुई थी । वहां सेना में बलपूर्वक मांस खिलाने की बात चली । हरयाणा के सैनिक जाट, अहीर, गूजर उस समय प्रायः सब शाकाहारी थे । सब पर बड़ा दबाव दिया गया । यहां तक धमकी दी गई कि जो मांस नहीं खायेगा, सबको गोली मार दी जायेगी । उस रेजिमेन्ट में १२०० सैनिक थे । केवल हरयाणे के तीस-चालीस युवक थे जिन्होंने स्पष्ट रूप से मांस खाने से निषेध कर दिया । इन सब के नेता आर्य सैनिक जमादार रिसालसिंह भालौठ जिला रोहतक हरयाणा के रहने वाले थे । उन्हें सब सैनिकों से अलग करके कैद में बन्दी के रूप में बंद कर दिया । फिर तीन दिन के पश्चात् पुनः विचार करने के लिये छोड़ दिया गया । उन्हीं दिनों सारी रिजमेंट की लम्बी दौड़ होनी थी । उस दौड़ में जमादार रिसालसिंह (शाकाहारी) ने भाग लिया । वे सारी रेजिमेंट में १२०० आदमियों में से सर्वप्रथम दौड़ में आये । वह अंग्रेज कर्नल इससे बड़ा प्रसन्न हुआ । रिसालसिंह को बड़ी शाबाशी और पुरस्कार दिया । किन्तु दस दिन के पीछे फिर बलपूर्वक मांस खिलाने की चर्चा चली । इन्कार करने पर फिर रिसालसिंह की पेशी उस अंग्रेज आफिसर के आगे हुई । रिसालसिंह ने निर्भय होकर कह दिया, हमारे बाप-दादा सदैव से शाकाहार करते आये हैं, हम मांस नहीं खा सकते और मांस खाने की आवश्यकता भी नहीं । हम बिना मांस खाये किस कार्य में पीछे हैं वा किस से निर्बल हैं ? मैं १२०० सैनिकों में लम्बी दौड़ तथा अन्य खेलों में सर्वप्रथम आय हूँ, फिर हमें मांस खाने के लिये क्यों तंग वा विवश किया जा रहा है ? अंग्रेज अफसर की समझ में आ गया और उसने रिसालसिंह को छोड़ दिया और यह घोषणा कर दी कि मांस खाना आवश्यक नहीं, जो न खाना चाहे वह न खाये, जबरदस्ती (बलपूर्वक) किसी को न खिलाया जाये । इस प्रकार के संघर्ष फौजों में हरयाणे के सैनिक बहुत करते रहे । कप्तान दीवानसिंह बलियाणा निवासी को मांस न खाने के कारण बर्मा से लखनऊ जेल वापिस भेज दिया था । इनको उन्नति (प्रमोशन) भी नहीं मिली ।

सर्वश्री कप्तान रामकला धांधलाण रोहतक, सूबेदार-मेजर खजानसिंह रोहद रोहतक, पं० जगदेवसिंह सिद्धान्ती, रघुनाथ सिंह खरहर, छोटूराम (ब्रह्मदेव) नूनामाजरा, उमरावसिंह खेड़ी-जट, श्री रिसालसिंह महराणा, देवीसिंह हलालपुर, नेतराम भापड़ौदा, दफेदार रिसालसिंह बेरी, सुच्चेसिंह रोहणा निवासी इत्यादि हरयाणे के सैंकड़ों फौजी सिपाहियों ने मांस न खाने के कारण अंग्रेजी काल में फौज में बड़े-बड़े कष्ट सहे हैं । कितनों को जेल हुई, कितनों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा, कितनों को तरक्की नहीं मिली । दफेदार रिसालसिंह बेरी के सैंकड़ों शिष्य कप्तान, मेजर आदि बन गये किन्तु वे दफेदार रहते रहते ही दफेदारी की पेंशन लेकर चले आये, किन्तु मांस नहीं खाया । शुद्ध शाकाहारी रहते हुये हरयाणे के इन वीरों ने जो वीरता दिखलायी, उसकी चर्चा अन्यत्र कर चुका हूँ ।

सन् १९१७ में स्वामी सन्तोषानन्द जी महाराज ११३ नं० सेना में बगदाद में थे । उस समय हवलदार थे । इनका नाम भवानीसिंह था । अंग्रेज उस समय सैनिकों को मांस और शराब बलपूर्वक खिलाते थे, युद्ध के समय इस विष्य में अधिक कठोरता बरतते थे । सब से पूछने पर अनेक व्यक्तियों ने मांस खाने का निषेध (इन्कार) कर दिया । उनमें प्रमुख व्यक्ति रामजीलाल हवलदार कितलाना (महेन्द्रगढ़), हुकमसिंह गुड़गावां, चिरंजीलाल भरतपुर (राज्य), अमरसिंह गुड़गावां तथा भवानीसिंह (स्वामी सन्तोषानन्द जी) थे । अंग्रेज आफिसर ने मांस न खाने वाले ९ सैनिकों को पृथक् छांट लिया और गोली मारने का भय दिखाया गया । उस समय भवानीसिंह ने अंग्रेज आफिसर से यह निवेदन किया कि हमें गोली मारनी है तो भले ही मार लेना, हम तैयार हैं । मांस नहीं खायेंगे । किन्तु हम मांस खाने वालों से किस कार्य में पीछे हैं या हम उनसे कोई निर्बल हैं ? हमारा उन से मुकाबला करवा के देख लें । कुश्ती, रस्साकसी, कबड्ड़ी सब खेल कराये गये । स्वामी सन्तोषानन्द जी (माजरा), शिवराज रेवाड़ी वाले (भवानीसिंह) की कुश्ती मांसाहारी रामभजन तगड़े पहलवान से हुई थी । उसे बुरी प्रकार से हराया । जीत होने पर सब ओर जयघोष होने लगा । फौजी अफसरों ने सबको शाबासी दी और घी-दूध का भोजन देना आरम्भ कर दिया । निरामिषभोजियों की संख्या बढ़ गई । उनका सर्वत्र मान होने लगा । सब अंग्रेज आफिसर भी उनसे प्रसन्न रहने लगे ।

मांस खाने वालों से बल, वीरता आदि सब गुणों में ही शाकाहारी, निरामिषभोजी बढ़कर होते हैं, इससे यही प्रत्यक्ष होता है ।

सन् १९५७ के हिन्दी सत्याग्रह में भी इसी प्रकार मांसाहारी तथा हरयाणे के शाकाहारी सत्याग्रहियों में संघर्ष रहता था । तो फिरोजपुर जेल तथा संगरूर जेल में कबड्ड़ी-कुश्ती में दोनों पक्षों का मुकाबला हुवा । उस में दोनों जेलों में कुश्ती तथा कबड्ड़ी में हरयाणे के निरामिषभोजी सत्याग्रहियों ने मांसाहारी सत्याग्रहियों को बहुत बुरी तरह हराया ।

इसी प्रकार हैदराबाद के सत्याग्रह में हरयाणे के निरामिषभोजी सत्याग्रही मांसाहारियों को कबड्ड़ी, कुश्ती आदि खेलों में सदैव हराते रहते थे ।

अण्डा और मछली

कुछ लोग अण्डे और मछली को मांस ही नहीं मानते । इससे बड़ी मूर्खता और धूर्तता और क्या हो सकती है ! क्या अण्डे मछली गाजर, मूली की भांति कंद मूल अथवा किन्हीं वृक्षों के फल हैं ? कुछ अकल के अंधे और गांठ के पूरे व्यक्ति कहते हैं कि अण्डे में जीव नहीं होता और मछलियां जल तोरियां हैं, अतःएव ये दोनों भक्ष्य हैं । मछलियां तो चलते फिरते जन्तु हैं और इनमें जीव नहीं ! मैं समझता हूं कि इस स्वार्थ निहित असत्य कल्पना को कोई भी विचारवान् व्यक्ति नहीं मान सकता । मछली का मांस सबसे खराब होता है । उसकी भयंकर दुर्गन्ध और दोषों की चर्चा पहले हो चुकी है । वह खाने की तो क्या, छूने की वस्तु भी नहीं है । वह सब रोगों का घर है । बहुत से अयोग्य, निकम्मे डाक्टरों ने मछली का तेल दवाई के रूप में पिला पिला कर सब का दीन भ्रष्ट कर डाला है । इनसे सावधान रहना चाहिये । इसी प्रकार के दुष्ट प्रकृति के डाक्टर अण्डों के खाने का प्रचार अनेक प्रकार की भ्रांतियां फैला कर करते हैं । “अण्डे में सब प्रकार के अर्थात् ए. बी. सी. डी. सभी प्रकार के विटामिन होते हैं, एक अण्डे में एक सेर दूध के समान शक्ति व बल होता है, एक अण्डा खा लिया मानो एक सेर दूध पी लिया – और अण्डे के खाने से जीव हिंसा का पाप भी नहीं लगता क्योंकि अंडे में जीव ही नहीं होता – फिर हिंसा किसकी होगी ? अतः अण्डे खाने चाहियें ।” इस प्रकार का नीचतापूर्ण भ्रामक प्रचार डाक्टर तथा अनेक अध्यापक और प्रोफेसर लोग खूब करते हैं । इनमें सार कुछ नहीं है । अण्डे में यदि जीव नहीं है तो अण्डज सृष्टि पक्षी, सर्प आदि की उत्पत्ति कैसे होती है ? बिना जीव के जीवन नहीं हो सकता और जीवन के बिना शरीर की वृद्धि व विकास नहीं हो सकता । अण्डा गर्भावस्था है । जिस अण्डे में जीव नहीं होता वह सड़ कर कुछ काल में समाप्त हो जाता है । प्रश्न अण्डे में जीव का ही नहीं, अपितु भक्षाभक्ष्य का भी है । अण्डे में जीव नहीं है यह थोड़ी देर के लिये मान भी लिया जाये तो वह मनुष्य का भोजन है यह कैसे माना जा सकता है ? अण्डे की उत्पत्ति रज वीर्य से होती है । वह मल-मूत्र के स्थान से बाहर आता है । जो गुण कारण में होते हैं वे ही कार्य में पाये जाते हैं – कारणगुण – पूर्वकाः कार्ये गुणाः दृष्टा – इसके अनुसार जो गुण कारण में होते हैं वे ही उसके कार्य में आते हैं । जैसे जो गुण गेहूं में हैं वे ही उसके बने पदार्थों रोटी, दलिया, पूरी, कचौरी आदि में भी मिलते हैं । अन्य पदार्थों के मिलाने से उन पदार्थों के गुण-दोष भी उनमें आ जाते हैं । अण्डे सारे संसार में मुर्गियों के ही खाये जाते हैं । मुर्गी गन्दे से गन्दे पदार्थ को खा जाती है । जैसे सभी के थूक, खखार, मल-मूत्र और टट्टी आदि एवं कीड़े-मकौड़े, चीचड़ आदि खाती है । गन्दी, सड़ी नालियों के कीड़ों और दुर्गन्धयुक्त मलमूत्र वाले पदार्थों को मुर्गी बड़े चाव से खाती है । किसी भी गन्दगी को वह नहीं छोड़ती । भूमि को शुद्ध करने के लिये भगवान् ने सच्चे भंगी मुर्गी और सूअरों को बनाया है । लोग इनको तथा इनके अण्डे एवं बच्चे सब कुछ हजम कर जाते हैं । अण्डों में सारे विटामिन होने की दुहाई देते हैं । फिर जो वस्तु थूक, खखार, श्लेष्मा, नाक के मल और टट्टी आदि को मुर्गी खा जाती है उन सब में भी विटामिन होने चाहियें ! तो फिर इन मुर्गी के अण्डों को खाने की क्या आवश्यकता है ! विटामिन का भंडार तो थूक और टट्टी आदि ही हुये ! इन्हें क्यों घर से बाहर फेंकते हो ? अच्छा हो उन्हें ही खा लिया करो ! इन मुर्गी आदि तथा इनके अण्डे और गर्भों में बच्चों के प्राण तो बच जायेंगे और मांसाहारियों के विटामिन्ज की पूर्ति बिना हिंसा के, सस्ते में ही मुर्गी पाले बिना हो जायेगी । कितनी विडम्बना, प्रवञ्चना और बुद्धि का दिवालियापन है कि इतनी गन्दी वस्तु भी मनुष्य का भोजन वा भक्ष्य है तो फिर अभक्ष्य क्या है ? कहां हमारे पूर्वज ऋषि महर्षि, कहां हम उनकी सन्तान । भयंकर पतन और सर्वनाश आज हमारी दशा देखकर मुख फाड़े खड़ा है । मनु महाराज लिखते हैं – अभक्ष्याणि द्विजातीनाममेध्यप्रभवाणि च । अर्थात् उन्होंने मल, मूत्र आदि गन्दगी से उत्पन्न होने वाले सभी पदार्थों को अभक्ष्य ठहराया है । जिन खेतों में मनुष्य के मल-मूत्र की खाद पड़ती है उनमें उत्पन्न हुई शाक सब्जियां तथा अन्न भी नहीं खाना चाहिये । जिन पदार्थों (लहसुन, प्याज, शलगम आदि) से दुर्गन्ध आती है, वे कभी खाने योग्य नहीं होते ।

रही अण्डों की बात । मैं स्वयं सेवा-भाव से रोगियों की चिकित्सा करता हूँ । कुछ दिन पूर्व मेरे पास एक युवक आया जो मस्तिष्क का रोगी था । पागलपन के कारण उसकी सरकारी नौकरी छूट गई थी । उसके घर वाले उसे मेरे पास लाये । वे पाकिस्तान से आये पंजाबी भाई थे । मैंने देखकर कहा कि इस रोगी युवक ने बहुत गर्म पदार्थ अधिक मात्रा में खाये हैं, इसकी चिकित्सा बहुत कठिन है । पूछने पर उन्होंने बताया कि वह बहुत अण्डे खाता रहा है, इसी के कारण पागल हुआ । एक दिन एक और दूसरा इसी प्रकार का रोगी मेरे पास आया । बह भी अधिक अण्डे खाने से पागल हो गया था । इसी प्रकार एक भारत के वाममार्गी को पागलावस्था में मैंने कलकत्ता के हस्पताल में स्वयं देखा, जो बुरी तरह पागल था । कभी रोता था, कभी हंसता था । उसकी दुर्गति देखकर मुझे बड़ी दया आई पर मैं क्या कर सकता था ? जो व्यक्ति अपने वाममार्गी साहित्य द्वारा मद्य-मांस और व्यभिचार का प्रचार करता रहा, स्वयं को महाविद्वान् प्रकट करता हुआ लोगों को पागल बनाता रहा, उसे भगवान् ने अन्तिम समय में पागल बनाकर उसको तथा उस पर झूठा विश्वास करने वाले लोगों को शिक्षा देकर सावधान किया । देश विदेश में चिकित्सा करवाने पर तथा सहस्रों रुपया पानी की भांति व्यय करने पर भी वह तथाकथित विद्वान् एवं महापण्डित अच्छा न हो सका और उसी पागल अवस्था में ही मृत्यु का ग्रास बन गया । वह था मांस, शराब और व्यभिचार का खुला प्रचार करने वाला राहुल सांस्कृत्यायन । उसे ही क्या, अपितु सभी को अपने पाप पुण्य का फल भगवान् की व्यवस्थानुसार भोगना ही पड़ता है । बौद्ध भिक्षु होने पर पुनः गृहस्थी बनना, मांस शराब का सेवन करना, बुढ़ापे में तीसरा विवाह करना, ऐसे पाप थे जिनका फल करने वाले के अतिरिक्त कौन भोगता ? स्पष्ट है कि मांस भक्षण आदि का दुःखरूपी पल सभी मांसाहारियों को भोगना पड़ता है । अतः अण्डा मनुष्य का भोजन नहीं है ।

योरुप के कुछ विचारशील डाक्टर अब मानने लगे हैं कि अण्डे में एक भयंकर विष होता है जो सिर दर्द, बेचैनी पागलपन आदि भयंकर रोगों को उत्पन्न करता है । रूस के कुछ डाक्टर तो यह मानते हैं कि अण्डे, मांस के खाने से बुढापे में अनेक भयंकर रोग उत्पन्न हो जाते हैं और उनके कारण मृत्यु से पूर्व ही मांसाहारी लोग चल बसते हैं । उनकी रीढ़ की हड्डी कठोर होकर बुढ़ापा शीघ्र आ जाता है । मांसाहारी मनुष्य कुबड़ा हो जाता है । रीढ़ की हड्डी का कमान बन जाता है । आंखों के रोग मोतियाबिन्द आदि हो जाते हैं । यह मत डॉ. प्रो० मैचिनकॉफ आदि अनेक रूसी विद्वानों का है ।

जो लोग अण्डों में जीव नहीं मानते, उनके लिए एक परीक्षा लिखी है ।

(१) जिन अण्डों में जीव का जीवन होता है, उन्हें आप किसी जल से भरे पात्र में डाल दें । वे सब डूब जायेंगे तथा नीचे सतह में चले जायेंगे ।

(२) जिन अण्डों में कुछ मरने के लक्षण उत्पन्न होने लगेंगे तो वे अण्डे पानी की तह में नीचे खड़े हो जायेंगे ।

(३) जिस अण्डे में जीवन समाप्त हो जाता है वह अण्डा ऊपर की तह पर मृत शव के समान तैरता रहेगा, डूबेगा नहीं । अतः अण्डों में जीव नहीं है, यह मिथ्या भ्रम उपर्युक्त परीक्षणों से दूर हो जाता है । अण्डों में जीव स्वीकार ही करना पड़ेगा और इस नाते उनका प्रयोग भी एक प्रकार से अमानुषिक और घृणित कार्य है ।

निरामिषभोजी सिंह और सिंहनी

सन् १९३७ ई० के लगभग की घटना है कि एक साधु ने किसी शेर के बच्चे को पकड़कर उसका दूध आदि के द्वारा पालन-पोषण किया । वह बड़ा होने पर भी केवल दूध आदि का ही भोजन करता रहा । वह सिंह उस साधु के साथ सभी नगरों में खुला घूमता था । उसने कभी किसी जीव जन्तु को हानि नहीं पहुंचाई । वह साधु उस सिंह को साथ लिये हुये दिल्ली में भी आया था । पालतू कुत्ते के समान वह शेर उस साधु के पीछे घूमता था । अनेक वर्षों तक यह प्रदर्शन उस साधु ने भारत के अनेक बड़े बड़े नगरों में घूमकर दिया और सिद्ध कर दिया कि मांसाहारी हिंसक शेर भी दुग्धाहारी और अहिंसक बन सकता है ।

इसी प्रकार महर्षि रमण ने भी एक सिंह को अहिंसक और अपना भक्त बना लिया था । वे योगी थे, शुद्ध सात्त्विक भोजन (आहार) करते थे । उनका भोजन रोटी, फल, शाक, सब्जी, दूध इत्यादि था । वे मांस, मछली, अण्डे आदि के भक्षण के सर्वथा विरोधी थे । शुद्ध सात्त्विक आहार पर बड़ा बल देते थे । उनका मत था कि स्वस्थ और समृद्ध शरीर में ही स्वस्थ मन तथा दृढ़ आत्मा का निवास होता है । वे कहा करते थे – Vegetables are the best food which contain all that is necessary for maintaining the body.

शाकाहारी भोजन में वे सब शक्तियां विद्यमान हैं जो शरीर को पुष्ट और शक्तिशाली बनाने के लिये आवश्यक हैं । महर्षि रमण अपने देशी, विदेशी सभी शिष्यों को सात्त्विक निरामिष भोजन का आदेश देते थे तथा वैसा ही अभ्यास कराते थे । उन्होंने अपने शिष्य Mr. Evans Wentz आदि सब को निरामिषभोजी बना दिया था ।

अहिंसक सिंह

महर्षि रमण का आश्रम जंगल में था, जहां शेर, चीते तथा हिंसक पशु रहते थे । एक दिन महर्षि जी भ्रमणार्थ गये तो उन्हें किसी दुःखी सिंह के करहाने की आवाज सुनाई दी । वे धीरे-धीरे उस ओर चले तो क्या देखते हैं कि एक सिंह के पैर में आर-पार एक कांटा निकल गया है । शेर का पैर पक गया था और उस पर पर्याप्त सूजन आ गया था । वह कई दिन से भूखा-प्यासा, चलने में असमर्थ तथा पीड़ा से व्याकुल, विवश पड़ा हुआ था । महषि जी धीरे से उसके निकट गये । शनैः-शनैः उसके कांटे को निकाला, जख्म को साफ करके जड़ी बूटियों का रस उसमें डाला और पट्टी बांध दी । इस प्रकार पांच दिन मरहम पट्टी करने से वह सिंह स्वस्थ हो गया और महर्षि के आश्रम तक चलकर उनके पीछे आया और उनके पैर चाटकर चला आया । वह शेर इसी प्रकार सप्ताह दस दिन में आता था और महर्षि के पैर चाटकर चला जाता था । वह किसी आश्रमवासी को कुछ नहीं कहता था ।

योगदर्शन के सूत्र अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः के अनुसार योगी के अहिंसा में प्रतिष्ठित होने पर शेर आदि हिंसक पशु भी योगी के प्रभाव से हिंसा छोड़ देते हैं । यही अवस्था महर्षि रमण के संसर्ग में इस शेर की हुई ।

दुग्धाहारी अमेरिकन सिंहनी

अमेरिका के एक चिड़ियाघर में एक सुन्दर सिंहनी थी । वह शेरनी वहां से ऊब गई थी और अपने बच्चे का पालन पोषण भी नहीं करती थी । चिड़ियाघर वाले उसके बच्चों को जीवित रखना चाहते थे । वहां जॉर्ज नामक एक व्यक्ति था, जो जानवरों से बड़ा प्रेम करता था । उसने जंगल में घोड़े, खच्चर, मोर, बिल्ली, मुर्गे, बत्तख और मृग आदि बहुत पाल रखे थे । शेरनी का प्रसव का समय था । चिड़ियाघर वालों ने जॉर्ज को बुलाया । शेरनी के प्रसव होने पर उसका बच्चा पिंजरे में बंद करके उसे सौंप दिया । बच्चे की आंखें बन्द तथा एक टांग टूटी हुई थी । उससे वह सिंह शावक बड़ा दुःखी था । उसे जॉर्ज ले आया । उसने उसका इलाज किया । उसे भोजन के रूप में वह गोदुग्ध देता रहा । टांग अच्छी हो गई । शेरनी का बच्चा नर नहीं, मादा था । जब इसका जन्म हुआ, उस समय इसका भार तीन पौंड था जो एक मनुष्य के बच्चे से भी बहुत थोड़ा था । किन्तु जब यह दस सप्ताह की आयु का हो गया तो उसका भार ६५ पौंड हो गया । अब तक जॉर्ज इसको गाय का दूध ही दे रहा था । अब उसने सोचा कि इसे ठोस भोजन दिया जाये । उसने इसे मांस खिलाने का विचार किया क्योंकि शेर प्रायः जंगल में मांस का ही आहार करते हैं । शेर के बच्चे के आगे मांस परोसा गया, किन्तु उसने इसको नहीं खाया । इसकी दुर्गन्ध से शेर का बच्चा रोगी हो गया । फिर जॉर्ज ने एक चाल चली । उसने मांस से तैयार किये हुये अर्क के १०, १५ और ५ बूंदें दूध में क्रमशः डाल कर जब जब उसे पिलाना चाहा, तब तब उस शेरनी के बच्चे ने दूध भी नहीं पीया । अब वे विवश हो गये । उन्होंने मांस के शोरबे की एक बूंद उसकी बोतल में रखी । किन्तु उसे भी उसने नहीं छुआ । कितनी ही बार वह भूखा रहा किन्तु उसने माँस अथवा माँस से बने किसी भी पदार्थ को नहीं खाया । वे उसे बूचड़ की दुकान पर ले गये कि वह अपनी इच्छानुसार किसी मांस को चुनकर खा लेगी । किन्तु वह शेरनी किसी प्रकार का भी मांस नहीं खाना चाहती थी । मांस, खून की दुर्गन्ध भी उसे व्याकुल कर देती थी । वह शेरनी सारे संसार में प्रसिद्ध हो गई क्योंकि वह निरामिषभोजी शाकाहारी शेरनी थी । वह अपने साथी अन्य जीवों बिल्ली, मुर्गी, भेड़, बत्तख आदि सबसे प्रेम करती थी । भेड़ के बच्चे उसकी पीठ पर निर्भयता से बैठे रहते थे । उसने कभी किसी को कोई पीड़ा नहीं दी । उसे गाड़ियों में घूमना, गाना सुनना बड़ा अच्छा लगता था । वह गायों, घोड़ों के साथ घूमती थी । उसमें बड़ी होने पर ३५२ पौंड भार हो गया था । उसके चित्र अमेरिका के सभी प्रसिद्ध समाचारपत्रों के प्रथम पृष्ठ पर छपते थे । अन्य देशों के पत्रों में भी उसके चित्र छपे । बच्चे उसकी पीठ पर सवारी करते थे । सिनेमा में भी उसके चित्रपट बना कर दिखाये गये । वह शेरनी ज्यों ज्यों बड़ी होती गई, त्यों त्यों अधिक विश्वासपात्र, सभ्य और सुशील होती चली गई । वह दूध और अन्न की बनी वस्तुओं को ही खाती थी । वह १० फीट ८ इंच लम्बी हो गई थी । वह चिड़ियाघर में सदैव खुली घूमती थी । किस प्रकार मांसाहारी शेर शेरनी हिंसक पशु शाकाहारी निरामिषभोजी अहिंसक हो सकते हैं, उपर्युक्त सच्चे उदाहरण इसके जीते जागते प्रतीक हैं । फिर मांस खाने वाले मनुष्य अस्वाभाविक भोजन मांस का परित्याग नहीं कर सकते ? अवश्य ही कर सकते हैं । थोड़ा सा गम्भीरता से विचार करें, मांसाहार की हानियां समझकर दृढ़ संकल्प करने मात्र की आवश्यकता ही तो है । संसार में असम्भव कुछ भी नहीं । केवल मनुष्य की अपनी दृढ़ शक्ति चाहिये और उसके क्रियान्वयन के लिये आत्मबल । फिर बड़े से बड़ा कार्य सुगम हो जाता है । मांसाहार छोड़ने जैसे तुच्छ से साहस की तो बात ही क्या ?

मांसाहार ही रोगोत्पत्ति का कारण

food and disease

मांसाहार ही रोगोत्पत्ति का कारण

लेखक – स्वामी ओमानंदजी सरस्वती 

मांस में यूरिक एसिड नाम का एक विष सबसे अधिक मात्रा में होता है, इसको सभी डाक्टर मानते हैं । मांसाहारी का शरीर उस अधिक विष को भीतर से बाहर निकालने में असमर्थ होता है, इसलिये मनुष्य के शरीर में वह विष (यूरिक एसिड) इकट्ठा होता रहता है । क्योंकि शाकाहारी मनुष्यों की अपेक्षा वह यूरिक एसिड मांसाहारी के शरीर में तीन गुणा अधिक उत्पन्न होता है । यह इकट्ठा हुआ विष अनेक प्रकार के भयंकर रोगों को उत्पन्न करने वाला बनता है ।

मानचैस्टर के मैडिकल कालिज के प्रोफेसर हॉल ने अनुभव करके निम्नलिखित तालिका भिन्न-भिन्न पदार्थों में यूरिक एसिड के विषय में बनाई है ।

नाना प्रकार के मांस एक पौंड मास में यूरिक एसिड की मात्रा
मछली का मांस ८.१५ ग्रेन
बकरी वा भेड़ का मांस ०.७५ ग्रेन
बछड़े का मांस ८.१४ ग्रेन
सूवर का मांस ८.४८ ग्रेन
गोमांस (कबाब) १४.४५ ग्रेन
जिगर के मांस में १९.२६ ग्रेन
मीठी रोटी ७०.४३ ग्रेन

 

शाक आदि तथा अन्न में यूरिक एसिड

गेहूं की रोटी में बिल्कुल नहीं
बन्द गोभी बिल्कुल नहीं
फूल गोभी बिल्कुल नहीं
चावल बिल्कुल नहीं
दूध, दही, मक्खन, तक्र बिल्कुल नहीं
आलू, ०.१४ ग्रेन
मटर २.५४ ग्रेन

 

यह तो सत्य है कि यह यूरिक ऐसिड नाम का विष कुछ सीमा तक तो मनुष्य के शरीर से बाहर निकाला जा सकता है किन्तु दिन-रात में अर्थात् २४ घंटे में १० ग्रेन यूरिक ऐसिड से अधिक मात्रा मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट हो जाये तो वह सारी नहीं निकलती और रक्त के प्रवाह (दौरे) के साथ मिलकर शारीरिक पट्ठों (माँसपेशियों) में इकट्ठी हो जाती है । यूरिक ऐसिड के इकट्ठा होने से इस विष से रक्त (खून) अशुद्ध (गन्द) हो जाता है और खुजली, फोड़े, फुन्सी आदि अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं ।

यूरिक ऐसिड की अधिकता से पाचनशक्ति निर्बल हो जाती है, मलबद्धता (कब्ज) रहने लगती है । ऐसी अवस्था में यह विष अधिक हो जाने से दुर्बलता बढ़ती जाती है । इस दुर्बलता के कारण हुक्का, शराब आदि के सेवनार्थ प्रवृत्ति बढ़ती है और नशों के व्यसनों में फंसने से सर्वनाश ही हो जाता है । सभी नशे रोगों का तो घर ही हैं । नशे करने वाले शराब आदि में बहुत व्यय करते हैं, जिसकी पूर्ति के लिये समाज में रिश्वत, जूआ, चोरी, ठगी, भ्रष्टाचार आदि का सहारा लेते हैं । जो मांस खाता है, वह शराब पीता है तथा जो शराब पीता है वह मांस खाता है । इनका परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है, इसके लिए मुस्लिम बादशाहों का इतिहास सन्मुख है । इस्लाम में शराब हराम (सर्वथा वर्जित) है । किन्तु भारतीय मुगल बादशाहों में बाबर से लेकर अन्तिम बादशाह बहादुरशाह तक देख लें शायद ही कोई शराब से बचा होगा, क्योंकि वे मांसाहारी थे । मांस से शराब पीने की प्रवृत्ति बढ़ती है तथा दोनों से व्यभिचार फैलता है । इसी कारण मुगल बादशाहों के रणिवास (जनानखाने) में बेगमों, लौंडियों तथा दासियों की सेना (फौज की फौज) तथा भेड़ों के समान भारी रेवड़ रहता था । इससे यही सिद्ध होता है कि मांस और शराब सब पापों की जड़ है ।

मांस को पचाने के लिये भी शराब तक अनेक उत्तेजक पदार्थों, मसालों का सेवन करना पड़ता है । उसको स्वादिष्ट बनाने के लिये तथा उसकी सड़ांद (बदबू) को दबाने के लिये भी गर्म मसाले, सुगन्धित पदार्थ डाले जाते हैं जो अनेक रोगों की उत्पत्ति के कारण हैं । मांस बासी तथा सड़ा हुआ होता है, इसी कारण उसमें दुर्गन्ध होती है और दुर्गन्धयुक्त पदार्थ खाने के योग्य नहीं होता, वह अभक्ष्य है । जहां मांस पकाया जाता है वहां भयंकर दुर्गन्ध दूर तक फैल जाती है जो सर्वथा असह्य होती है । मांस खाने वालों के मुख से भी बहुत बुरी दुर्गन्ध आती रहती है ।

यहां तक कि उनके शरीर, पसीने और वस्त्रों से भी दुर्गन्ध आती रहती है जिसको सहन करना बहुत ही कठिन होता है । और दुर्गन्ध वाले सभी पदार्थ रोगों को उत्पन्न करते हैं, वे सर्वथा अभक्ष्य होते हैं । अच्छे भोजन की पहचान यही है कि उसे अग्नि में डालकर देखें । यदि उसमें सुगन्ध आये तो वह भक्ष्य और दुर्गन्ध आये तो वह सर्वथा अभक्ष्य है । आर्यों की यह भक्ष्याभक्ष्य भोजन के निर्णय की सर्वोत्तम प्राचीन पद्धति है । इसलिये जो भोजन आर्यों की पाकशाला में बनता था, उसकी पहले अग्नि में आहुतियां देकर परीक्षा की जाती थी । यही पंचमहायज्ञों में बलिवैश्वदेव यज्ञ का एक भाग है, जो प्रत्येक गृहस्थ को अनिवार्य रूप से करना पड़ता था । कोई भी दुर्गन्धयुक्त अग्नि पर पकाया जाये, वा पका हुवा अग्नि में डाला जाए तो उसकी दुर्गन्ध दूर तक फैलती और असह्य होती है । इसी प्रकार लाल मिर्च, तम्बाकू आदि पदार्थों को अग्नि पर डालने से पड़ौसियों तक को बड़ा कष्ट होता है, सबका जीना दूभर हो जाता है । इससे यही सिद्ध होता है कि मांसादि दुर्गन्धयुक्त तथा मिर्च, तम्बाकू आदि तीक्ष्ण तथा नशीले पदार्थ अभक्ष्य हैं, हेय हैं । इनका प्रयोग कभी नहीं करना चाहिये । मांस यदि रख दिया जाये तो वह बहुत शीघ्र सड़ने लगता है, उसमें असह्य दुर्गन्ध पैदा हो जाती है और यह दुर्गन्ध उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है । जो मांस पकाया जाता है वह शरीर के अन्दर जाकर और अधिक सड़कर अधिक दुर्गन्ध उत्पन्न करता है । इसी कारण मांसाहारियों के वस्त्र, मुख, शरीर, पसीना सभी में दुगन्ध आती है । जिन मोटरों, रेलगाड़ी के डब्बों में मांसाहारी यात्रा करते हैं, वहां निरामिषभोजी वयक्ति को यात्रा करना वा ठहरना बहुत ही कठिन होता है । जिस स्थान वा मकान में मांसाहारी रहते हैं, वहां भी दुर्गन्ध का कोई ठिकाना नहीं होता । मांस की दुकानों, होटलों में इसीलिये बड़ी दुर्गन्ध आती है और जहां मछली बिकती है वहां किसी भले मानस का ठहरना या जाना ही असम्भव सा हो जाता है । बहुत दूर से ही असह्य दुर्गन्ध आनी प्रारम्भ हो जाती है । इससे यही प्रत्यक्ष सिद्ध होता है कि मांस में भयंकर दुर्गन्ध होती है । अतः वह कभी भी तथा किसी को भी नहीं खाना चाहिए क्योंकि दुर्गन्ध रोगों का घर है ।

पशुओं का मांस जो खाया जाता है वह प्रायः रोगी, निर्बल, कम मूल्य वाले तथा अनुपयोगी पशुवों का होता है । क्योंकि जब तक पशु नाना प्रकार के कार्यों में हितकर, सहायक, उपयोगी होते हैं तब तक उनका मूल्य अधिक होता है, वे मांस के लिये नहीं बेचे जाते, उनकी हत्या नहीं होती । जब ऐसे पशु दुर्बल, रोगी और बूढ़े हो जाते हैं तथा कार्य के योग्य नहीं रहते, निकम्मे हो जाते हैं, तब कसाइयों के पास बेचे जाते हैं । क्योंकि उनका उपयोग न होने से उनका मूल्य थोड़ा होता है और उधर मांस की बहुत बड़ी मांग को पूर्ण करने के लिए विवश होते हैं और इसी में उनको आर्थिक लाभ भी रहता है । मूल्यवान, उपयोगी पशुवों की हत्या करने में आर्थिक लाभ की अपेक्षा हानि होती है, अतः रोगी पशु ही अधिक मारे जाते हैं । और ऐसे पशुओं को अला-बला रद्दी पदार्थ खिलाकर कसाई लोग मांस बढ़ाने के लिए मोटा करते हैं । उन्हें तो मांस की मांग की पूर्ति करनी होती है । इसलिये उपर्युक्त प्रकार के पशुओं के मांस में डाक्टरों के मतानुसार रोगों के कीटाणु होते हैं जो आंखों से प्रत्यक्ष दिखायी नहीं देते और वे बढ़ते जाते हैं और मांस को और अधिक गन्दा, गला, सड़ा हुआ बना देते हैं और पकाने से भी उसका प्रभाव दूर नहीं होता । जैसे बासी रोटी वा गले सड़े फलों एवं सब्जियों को हम चाहे कितना ही पकायें, उनको स्वास्थ्यप्रद नहीं बना सकते । सड़े हुये मांसादि में जो दुर्गन्ध उत्पन्न हो जाती है, वह इसकी साक्षी देती है कि इसमें विष है, यह खाने योग्य नहीं है । विषाक्त भोजन रोगों का मूल है, वह स्वास्थ्यप्रद कैसे हो सकता है ?

जिन पशुओं का मांस खाया जाता है, स्वयं उनमें भी क्षय, मृगी हैजा आदि अनेक रोग होते हैं, जिनके कारण मांसाहारी मनुष्य भी उन रोगों में फंस जाते हैं । अतः मांसाहार स्वास्थ्य का नाश करता तथा अनेक रोगों को उत्पन्न करता है ।

मांस का भोजन मनुष्य की जठराग्नि को निर्बल करके पाचनशक्ति बिगाड़ देता है । मुख में जो थूक वा लार होती है उसमें जो खारीपन (तेजाब) होता है, मांस का भोजन उस प्रभाव को बदल देता है । फिर मुख का रस जो भोजन के साथ मिलकर पाचन-क्रिया में सहायक होता है, उस में न्यूनता आ जाती है और भोजन ठीक न पचने के कारण मलबद्धता (कब्ज) हो जाती है । मल नहीं निकलता वा थोड़ा निकलता है, इसी कारण मांसाहारी प्रायः कब्ज के रोगी होते हैं ।

उनकी जीभ पर बहुत मल जमा रहता है । उनके दांत शीघ्र ही खराब हो जाते हैं । ९९ प्रतिशत मांसाहारियों के दांत युवावस्था में ही बिगड़ जाते हैं । उनको प्रायः सभी को पायोरिया रोग हो जाता है । अमेरिका आदि देशों में प्रायः अधिकतर लोगों के दांत बनावटी देखने में आते हैं । उनको अपने प्राकृतिक दांत उपर्युक्त रोगों के कारण निकलवाने पड़ते हैं । मांसाहारियों के पेशाब में तेजाब अधिक होता है । उनकी नब्ज बहुत शीघ्र-शीघ्र चलती है । वे हृदय के रोगों से ग्रस्त रहते हैं । प्रायः मांसाहारी लोग हृदय की गति के रुकने से अकाल मृत्यु के मुख में चले जाते हैं । मांसाहार में जो यूरिक एसिड का विष होता है वह बहुत अधिक मात्रा में शरीर के अन्दर जाता है, वही अधिकतर उपर्युक्त रोगों का कारण है ।

मांसाहारी लोगों को मस्तिष्क सम्बन्धी रोग अधिक होते हैं जैसे मृगी, पागलपन, अन्धापन, बहरापन इत्यादि । क्योंकि मांस तमोगुणी भोजन है । सात्त्विक आहार मस्तिष्क को बल देता है । मानसिक शक्तियों की दृष्टि से मांसाहारी स्वयं यह अनुभव करते हैं कि मांस का भोजन छोड़ देने से उनके मस्तिष्क बहुत शुद्ध होकर बुद्धि कुशाग्र हो जाती है ।

मृगी के रोगी, पागल, अन्धे तथा बहरे लोग मांसाहारी लोगों में (जैसे मुसलमान) अधिक संख्या में देखने में आते हैं । गोदुग्ध, गाय का मक्खन आदि सात्त्विक आहार अधिक देने से मृगी, पागलपन के रोगी अच्छे हो जाते हैं ।

न्यूयार्क में एक अनाथालय के प्रिंसीपल ने १३० बच्चों को वनस्पति आहार अर्थात् शाक, फल आदि पर ही रक्खा था । इससे बच्चों की मानसिक शक्तियों में इतना विशेष अन्तर आ गया कि उनकी किसी विषय को झटपट समझ लेने, किसी बात की तह तक पहुंचने और मस्तिष्क की शक्ति दिन प्रतिदिन अधिक होती चली गई जिससे वह प्रिंसीपल स्वयं बहुत विस्मित हुआ । यह भी प्रसिद्ध है कि यूनान के बहुत बड़े दार्शनिक विद्वान (फिलास्फर) मांस नहीं खाते थे, अतः वहां अरस्तू, लुकमान, सुकरात और अफलातून जैसे अनेक जगत् प्रसिद्ध विद्वान् हुये हैं ।

भारत के ऋषि महर्षि विद्वान् ब्राह्मण सभी उच्च कोटि के दार्शनिक विद्वान् हुये हैं जिनके चरणों में सारे संसार के लोग चरित्र आदि की शिक्षा ग्रहण करने के लिये आते थे । मनु जी महाराज लिखते हैं –

एतद्‍देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥

भारतवर्ष विद्या का भंडार था । हजारों वर्ष की दासता के कारण इसका बड़ा भारी पतन हुआ, किन्तु फिर भी गिरी हुई अवस्था में भी आध्यात्मिक दृष्टि से आज भी संसार का शिरोमणि है । इसका मुख्य कारण यहां का निरामिष सात्विक आहार है । सर आईजक न्यूटन ने सारी आयु (८३ वर्ष तक) मांस नहीं खाया । योरुप के लोगों को पृथिवी की आकर्षण-शक्ति का ज्ञान उन्हीं ने कराया । वे उच्चकोटि के विद्वान् थे । इस युग के आदर्श सुधारक, पूर्णयोगी, पूर्ण ज्ञानी महर्षि दयानन्द जी महाराज हुये हैं । वे सर्वथा निरामिषभोजी थे । गोकरुणानिधि आदि ग्रन्थों में उन्होंने इस मांस भक्षण रूपी महापाप की बहुत निन्दा की है । वे सर्वप्रथम ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अंग्रेजी राज्य में गोहत्या के विरुद्ध आवाज उठाई और उसे बन्द करने के लिये जनता के लाखों हस्ताक्षर करवाये किन्तु देश का दुर्भाग्य था उस समय भारत का वह कलंक धुल नहीं सका, जो आज तक भारतमाता के मुख को काला किये हुए है ।

मांसाहार रुधिर को गन्दा करता है । अतः मांसाहारी के रुधिर के भीतर रोगों से संघर्ष (मुकाबला) करने की शक्ति क्षीण (नष्ट) हो जाती है । अतः मांसाहारी पर रोग का बार-बार आक्रमण होता है । यह अनुभव-सिद्ध है कि यदि किसी का कोई अंग कट जाये अथवा काटा जाये तो मांसाहारी की तुलना में शाकाहारी बहुत शीघ्र अच्छा होता है । यह सत्यता भारतीय सेना के अस्पतालों में खूब हो चुकी है ।

रोगों का घर मांसाहार

हमारे भारतीय ऋषियों ने भोजन के विषय में बहुत की खोज तथा छानबीन की थी । इसीलिये घोर तमोगुणी भोजन सब रोगों का घर होता है । दुर्गन्धयुक्त सड़े हुए मांस से रोग ही उत्पन्न होंगे । मनुष्य का भोजन न होने से यह देर से पचता है, जठराग्नि पर व्यर्थ का भार डालता है । किस पदार्थ के पचने में कितना समय लगता है, इस की निम्न तालिका अनुभवी डाक्टरों ने दी है –

 

मांस पचने का समय
बकरे का मांस ३ घण्टे में
शोरबा ३ घण्टे में
मुर्गी का मांस ४ घण्टे में
मछली ४ घण्टे में
सूवर का मांस ५ घण्टे में
गोमांस ५ घण्टे में

अन्न, फल, दूध आदि के पचने का समय इस प्रकार है –

 

रोटी ३ घण्टे
आलू भुना हुआ २ घण्टे
जौ पका हुआ २ घण्टे
दूध धारोष्ण वा गर्म २ घण्टे
सेब पका हुआ १ घण्टा
चावल उबला हुआ १ घण्टा
मीठी रोटी ७०.४३ ग्रेन

इसलिये जौ, चावल, दूध के सात्त्विक भोजन को हमारे पूर्व-पुरुष अधिक महत्त्वपूर्ण समझकर खाते थे । वैसे सभी अन्न जो अपने प्रकृति के अनुकूल हों, मनुष्य को खाने चाहियें । यथार्थ में अन्न, फल, शाक, सब्जी, दूध, घी आदि पदार्थों पर ही मनुष्य का जीवन है । इन्हें बिना पकाये भी खाया-पीया जा सकता है । विज्ञान यह बतलाता है कि पकाने तथा ऊपर के नमक-मिर्च आदि डालने से पदार्थ की शक्ति न्यून हो जाती है । जो पदार्थ जिस रूप में प्रकृति से मिलता है, वह उसी रूप में खाया जाने से अधिक शक्ति प्रदान करता है तथा शीघ्र पचता है, किन्तु मांस बिना पकाये नहीं खाया जा सकता । इसीलिये सिंह, भेड़िया, कुत्ते और बिल्ली आदि को ही मांसभक्षी कहा जा सकता है जो अपने आप अपने शिकार को मारकर ताजा मांस खाते हैं । मनुष्य मांसाहारी नहीं, न इसे कोई मांसाहारी कहता है क्योंकि हम देखते हैं कि बिल्ली का बच्चा बिना सिखाये चूहे के ऊपर टूट पड़ता है । इसी प्रकार सिंह का शावक (बच्चा) भी अपने शिकार पर चढ़ाई करता है । किन्तु मानव का बच्चा फल उठाकर

भले ही मुख में देने का यत्न करता है किन्तु वह मांसाहारी जीवों के समान मांस के टुकड़े, रक्त, मच्छी, चूहा, कीट, पतंग किसी पदार्थ को उठाकर खाने की चेष्टा नहीं करता ।

यह सब सिद्ध करता है कि मांस मनुष्य का भोजन नहीं । मूक और असहाय जीव जन्तुओं पर निर्दय होना मनुष्य के लिये सर्वाधिक कलंक की बात है । सभ्य और शिक्षित मनुष्य में तो क्रूरता नहीं होनी चाहिए, उसके स्थान पर सौम्यता, सुशीलता एवं दयाभाव होना चाहिये ।

मुसलमानों की एक धार्मिक पुस्तक अबुलफजल के तीसरे दफतर में लिखा है कि अज्ञानी पुरुष अपने मन की मूढ़ता में ग्रसित हुआ अपने छुटकारे का मार्ग नहीं ढ़ूंढ़ता । ईश्वर उसके सृजनहार ने मनुष्य के लिये अनेक पदार्थ उत्पन्न कर दिये हैं । उन पर सन्तुष्ट न रहकर उसने अपने अन्तःकरण (पेट) को पशुओं का कब्रिस्तान बनाया है और अपना पेट भरने के लिये कितने ही जीवों को परलोक पहुंचाया है । यदि ईश्वर मेरा शरीर इतना बड़ा बनाता कि ये मांसभक्षण की हानि न समझने वाले सब लोग मेरे ही मांस को खाकर तृप्त हो सकते और किसी अन्य जीव को न मारते तो तेरा बड़ा कृतार्थ होता ।

इलमतिबइलाज की पुस्तक मखजन-उल अदविया में मांस के विषय में इस प्रकार व्यवस्था दी है –

रात्रि में मांस खाने से तुखमा जो हैजे से कुछ न्यून होता है, हो जाता है और खिलतै जो वात, पित्त और कफ कहलाते हैं उनमें दोष आ जाता है । मन काला अर्थात् मलिन हो जाता है । आंखों में धुंधलापन उत्पन्न हो जाता है । जहन कुन्द (बुद्धिमान्द्य) हो जाता है ।

क्योंकि कच्चे मांस पर भिनभिनाती हुई मक्खियां और सड़ने की दुर्गन्ध देखकर किसका मुख उसका स्वाद लेना चाहेगा ? जो वस्तु नेत्रों को भी अप्रिय है, अच्छी नहीं लगती, उसे जिह्वा कब स्वीकार कर सकती है ?

डाक्टर मिचलेट साहब अपनी एक भोजन की पुस्तक में लिखते हैं –

जीवन-मृत्यु और नित्य की हत्यायें जो केवल क्षणिक जीभ के स्वाद के लिये हम नित्य करते हैं तथा अन्य तामसिक और कठोर समस्यायें हमारे सन्मुख उपस्थित हैं । हाय, यह कैसी हृदयविदारक और उल्टी चाल है ? क्या हमें किसी ऐसे लोक की आशा करनी चाहिये, जहां पर ये क्षुद्र और भयंकर अत्याचार न हों ?

अमेरिका के प्रसिद्ध विद्वान् शिटडेन Ph.D, D.Sc, L.L.D ने एक प्रयोग किया । उन्होंने छः मस्तिष्क से कार्य करने वाले बुद्धिजीवी प्रोफेसर और डाक्टर तथा २० शारीरिक श्रम करने वालों को, जो सेना से छांटे गये थे, और एक यूनिवर्सिटी से आठ पहलवानों को लिया । उन सब पर भोजन संबन्धी प्रयोग किया गया । यह प्रयोग अक्तूबर १९०३ से आरम्भ हुआ और जून १९०४ तक चलता रहा । इसमें उन्हें थोड़ा प्राण-पोषक तत्त्व दिया जाता था, जिससे उनमें आरोग्यता और शक्ति बनी रहे । इस प्रयोग से पूर्व डाक्टरों का मत था कि प्रत्येक मनुष्य के लिये केवल १२० ग्राम (२ छटांक) प्राणपोषक तत्त्व की आवश्यकता है । जितना वह अधिक मिले, उतना अच्छा है । वे भूल करते हैं । प्रो० शिटडेन ने यह सिद्ध कर दिया कि २० सिपाहियों के लिये ५० ग्राम प्राणपोषक तत्त्व पर्याप्त था और आठ पहलवानों के लिये ५५ ग्राम बहुत होता था । प्रोफेसर महोदय ने स्वयं

३६ ग्राम अपने लिये प्रयोग किया, फिर भी उनकी शक्ति बढ़ती गई । प्रयोग में जो सिपाही लिये गये थे, उनकी खुराक पहले ७५ ओंस (२ सेर) थी जिसमें उन्हें २२ ओंस कसाई के यहां से मांस मिलता था । प्रयोग में मांस बिल्कुल बंद करके इनकी खुराक केवल ५१ ओंस कर दी गई । नौ मास वे उस भोजन पर रहे । यद्यपि वे लोग पहले भी आरोग्य स्वस्थ थे, तथापि नौ मांस तक बिना मांस का भोजन किये वे बहुत अधिक बलवान्, शक्तिशाली और अच्छी अवस्था में पाये गये । इस प्रयोग में डाइनमोमीटर से ज्ञात हुआ कि उनकी शक्ति पहले से डेढ़ गुणी हो गई थी और उन्हें कार्य में विशेष उत्साह रहता था । इस प्रयोग के पश्चात् कहने पर भी उन्होंने मांस नहीं खाया । सदैव के लिये मांस खाना छोड़ दिया ।

स्वर्गीय दादाभाई नौरोजी से उनकी ८६वीं वर्षगांठ के दिन एक पत्र प्रतिनिधि ने पूछा कि आप की आरोग्यता का क्या कारण है ? तो उन्होंने उत्तर दिया – मैं न मांस खाता हूं, न शराब पीता हूं, न मसाले खाता हूं । मैं सदा शुद्ध वायु सेवन करता हूं । यही मेरे स्वस्थ रहने के कारण हैं ।

अमेरिका के डाक्टर जानहार्न का मत है कि मांस बड़ी देर से पचता है । इसके पचने के समय कलेजे की धड़कन दो सौ के लगभग बढ़ जाती है, जिससे हृदयरोग हो जाता है और मेदा कमजोर हो जाता है । इसी कारण मांसाहारी लोग हृदय के रोगों के कारण ही अधिक संख्या में मरते हैं । हृदय के कमजोर होने से मांसाहारी भीरू वा कायर हो जाते हैं ।

“इंडियन मैडिकल जनरल” नामल पत्र में लिखा है कि मांस भक्षकों के मूत्र में तिगुणी यूरिक एसिड अधिक बढ़ जाती है । इसी प्रकार यूरिया भी दूनी मात्रा में आने लगती है । ये दोनों पदार्थ विष हैं । उनके गुर्दों कोअधिक कार्य करना पड़ता है, जिससे गठिया, वातरोग, अस्थि रोग और बलोदर रोग उत्पन्न होते हैं ।

डाक्टर अलैक्जेण्डर मार्सडन M.D. F.R.C.S. चेयरमैन आफ कैंसर हस्पताल, लंदन, लिखते हैं – इंग्लैंड में कैंसर के रोगी दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं । प्रतिवर्ष ३०,००० (तीस सहस्र) मनुष्य कैंसर के रोग से मरते हैं । मांसाहार जितनी तेजी से बढ़ रहा है, उससे भय है कि भविष्य की सन्तानों में से ढ़ाई करोड़ लोग इसकी भेंट होंगे । जिन देशों में मांस अधिक खाया जाता है, वहां के लोग रोगी अधिक होते हैं, उनकी कमाई का अधिकतर धन डाक्टरों के पास जाता है और डाक्टरों की फौज इसी कारण बढ़ती जा रही है ।

निम्नलिखित तालिका से इस पर प्रकाश पड़ता है –

देश एक मनुष्य पर एक वर्ष में एक मास का व्यय दस लाख मनुष्यों में डाक्टरों की संख्या
जर्मनी ६४ ओंस ३५५
फ्रांस ७७ ओंस ३८०
इंग्लैंड वा वेल्स ११८ ओंस ५७८
आस्ट्रेलिया २७६ ओंस ७८०

यह बहुत पहले की सूची है । अब तो डाक्टर इससे भी दुगुणे हो गये होंगे । हम भारत में देखते हैं कि शहरों और कस्बों में बाजार के बाजार डाक्टरों, वैद्य और हकीमों से भरे पड़े हैं ।

डाक्टरों ने खोज करके बताया है, निमोनियां, लकवा, रिडेरपेस्ट, शीतला, चेचक, कंठमाला, क्ष्य (तपेदिक) और अदीठ आदि विषैला फोड़ा इत्यादि भयंकर और प्राणनाशक रोग प्रायः गाय, बकरी और जलजन्तुओं का मांस खाने से होते हैं । सूवर के मांस में एक प्रकार के छोटे कीड़े कद्दूदाने होते हैं, उनके पेट में जाने से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं । बकरी के मांस में ट्रिक्नास्पिक्टस कीड़ा रहता है, जिससे भयंकर रोग ट्रिक्नोसेस हो जाता है । पठनी मछली के खाने से कुष्ठ रोग होता है । अतः समुद्र के तट पर रहने वाले अथवा मछली का मांस अधिक मात्रा में खाने वाले लोग अधिकतर कुष्ट रोग से पीड़ित देखे जाते हैं । मांस को देखकर यह कोई नहीं जानता कि यह रोगी पशु का मांस है वा स्वस्थ का । कसाई बूचड़ लोग पैसा कमाने के लिये रोगी पशुओं को काटते हैं क्योंकि उअका मांस ही सस्ता पड़ता है । रोगी पशुओं का मांस खाकर कोई स्वस्थ कैसे होगा, जबकि स्वस्थ पशुओं का मांस भी भयंकर रोग उत्पन्न करता है ।

इस विषय में कुछ अन्य डाक्टरों का अनुभव लिखता हूं –

“मेरा पच्चीस वर्ष से मछली और पक्षियों के मांसत्याग का अनुभव है । मेरे पिता की आयु इससे २० वर्ष बढ़ गई थी । मांस की अपेक्षा फल बहुत ही अधिक लाभ करते हैं ।” – डाक्टर वाल्टर हाडविन M.D.

“एक रोगी की गर्दन पर चार वर्ष से कैंसर थी । मुझे खोज करने पर उसके मांसाहारी होने का पता चला । उससे मांस छुड़ा दिया गया, अब वह स्वस्थ है ।” – डा० J.H.K. Lobb

“मांसाहार शक्ति प्रदान करने के बदले निर्बलता का शिकार बनाता और उससे नाइट्रोजिन्स पदार्थ उत्पन्न होता है । वह स्नायु पर विष का कार्य करता है ।”

– डा० सर टी. लोडर ब्रण्टन“मांसाहार की बढ़ती के साथ-साथ नासूर के दर्द की असाधारण वृद्धि होती है ।” – डा० विलियम राबर्ट

“नासूर के दर्द का होना मांसाहार का परिणाम है ।” – डा० सर जेम्स सीयर M.D. F.R.C.P.

“८५% गले की आंतों के दर्द का कारण मांसाहार है ।” – डा० ली ओनार्ड विलियम्स

“डेढ़ सौ वर्ष पहले से दांत और पायोरिया के रोगी अधिक बढ़ गये हैं । इसका कारण मांसाहार है ।” – डा० मिस्टर आर्थर अन्डरबुड

“१०५००० विद्यार्थियों में से ८९२५ विद्यार्थी दांत के रोगों के रोगी पाये गये, ये सब मांस के कारण है ।” – डा० मिस्टर थोमस जे० रोगन

इस युग के महापुरुष महर्षि दयानन्द जी शाकाहारी होकर ही महाशक्तिशाली बने थे । उन्होंने मांस भक्षण करने का कभी जीवन भर विचार भी नहीं किया । उनके बलशक्ति सम्बंधी अनेक घटनायें प्रसिद्ध हैं । जैसे जालन्धर में एक बार उन्होंने दो घोड़ों की बग्घी को एक हाथ से रोक दिया था, घोड़ों के पूरा बल लगाने पर भी बग्घी टस से मस नहीं हुई थी । एक बार एक रहट को हाथ से खैंचकर एक बड़े हौज को भर दिया था, उससे भी उनका व्यायाम पूरा नहीं हुआ । उसकी पूर्ति के लिये उनको आगे जाकर दौड़ लगानी पड़ी । महर्षि कई-कई कोस की दौड़ प्रतिदिन करते थे ।

एक बार उन्होंने कश्मीरी पहलवानों की उपस्थिति में अपने व्याख्यान में घोषणा की थी कि मेरी पचास वर्ष से अधिक आयु है, आप में ऐसा कौन शक्तिशाली पुरुष है जो मेरे इस खड़े हुए हाथ को झुका दे । इस पर किसी भी पहलवान में उठने का साहस नहीं हुआ ।

एक बार कुछ पहलवानों ने महर्षि जी का शक्तिपरीक्षण करना चाहा । महर्षि उनके विचार को भाँप गए । उस समय ऋषिवर स्नान करके आ रहे थे, उनके पास गीली कौपीन थी । उन्होंने कहा कि इसमें से एक बूंद जल निकाल दीजिये । किन्तु कोई भी पहलवान एक बूंद भी जल नहीं निकाल सका । तदन्तर महर्षि ने स्वयं उस कौपीन को एक हाथ से निचोड़ कर जल निकाल कर दिखा दिया ।

इस प्रकार उनकी शक्ति के अनेक उदाहरण हैं, जिन से सिद्ध है कि घी, दूध आदि सात्विक पदार्थों से ही बल बढ़ता है । महर्षि जी का भोजन सर्वथा विशुद्ध और सात्विक था । उन्होंने कभी मांस भक्षण का समर्थन नहीं किया, किन्तु सदा घोर विरोध ही करते रहे । उनके ग्रन्थों में मांस निषेध की अनेक स्थलों पर चर्चा है ।

जब ऋषिवर ने भारत भूमि पर जन्म लिया, उस समय इस देश की अवस्था बहुत शोचनीय थी । उसका वर्णन एक कवि ने इस प्रकार किया है –

छाया घोर अन्धकार मिथ्या पन्थन को,

शुद्ध बुद्ध ईश्वरीय ज्ञान बिसराया था ॥

वैदिक सभ्यता को अस्त व्यस्त करने के काज,

पश्चिमी कुसभ्यता ने रंग बिठलाया था ॥

गौ विधवा अनाथ त्राहि त्राहि करते थे,

धर्म और कर्म चौके चूल्हे में समाया था ॥

रक्षक नहीं कोई, भक्षक बने थे सभी,

ऐसे घोर संकट में दयानन्द आया था ॥

उपर्युक्त भयंकर समय में महर्षि दयानन्द ने क्रान्ति का बिगुल बजाया । उल्टी गंगा बहाकर दिखाई । यह अदम्य साहस, वीरता, बल, शक्ति ऋषिवर दयानन्द में कहां से आई ? वे ब्रह्मचारी थे । वीर्यं वै बलम् वीर्यवान् थे । इसीलिये, सुदृढ़, सुन्दर, सुगठित, सुडौल, स्वस्थ शरीर के स्वामी थे । उनकी ऊंचाई छः फीट नौ इञ्च थी । चलते समय भूमि भी कम्पायमान होती थी । सारे शरीर में कान्ति, तेज और विचित्र छवि थी । वे शुद्ध, सात्विक आहार और घोर तपस्या के कारण अखण्ड ब्रह्मचारी रहे । मांसाहारी कभी ब्रह्मचारी नहीं रह सकता । मांस खाने वाले के लिये ब्रह्मचर्यपालन वा वीर्यरक्षा असम्भव है । शुद्ध भोजन के बिना शुद्ध विचार नहीं हो सकते । शुद्ध विचार ही ब्रह्मचर्य का मुख्य साधन है । मांसाहारी देशों में ब्रह्मचारी के दर्शन दुर्लभ ही नहीं असम्भव हैं । व्यभिचार अनाचार के घर कहीं देखने हों तो मांसाहारी देश हैं । कुमार कुमारियों की अनुचित सन्तानों की वहां भरमार है । मांसाहारी देश सभी पापों की खान हैं । यह वहां होने वाले पापों के आंकड़े सिद्ध करते हैं । अप्राकृतिक मैथुन मांसाहारी जातियों तथा व्यक्तियों में ही विशेष रूप से पाया जाता है ।

आदि सृष्टि से भारत देश शुद्ध शाकाहारी सात्त्विक भोजन प्रधान रहा है । इसीलिये यह ऋषियों, देवताओं और ब्रह्मचारियों का देश माना जाता है । इस देश में –

अष्टाशीतिसहस्राणि ऋषीणामूर्ध्वरेतसां बभूवुः (महाभाष्य ४.१।७९)

इस देश में ८८ (अट्ठासी) हजार ऊर्ध्वरेता अखण्ड ब्रह्मचारी ऋषि

हुये हैं । ब्रह्मचारियों की परम्परा महाभारत युद्ध के कारण टूट गई थी । उसके पांच हजार वर्ष पश्चात् आदर्श अखण्ड ब्रह्मचारी महर्षि, देव दयानन्द ने उस टूटी हुई परम्परा को पुनः जोड़ दिया और उन्हीं की प्रेरणा से ब्रह्मचर्य के क्रियात्मक प्रचारार्थ अनेक गुरुकुलों की स्थापना हुई । ब्रह्मचर्यपूर्वक आर्षशिक्षा की गुरुकुल प्रणाली का पुनः प्रचलन ब्रह्मचारी दयानन्द की कृपा से पुनः सारे भारतवर्ष में हो गया जहां पर ब्रह्मचारी लोग सर्वथा और सर्वदा शुद्ध, सात्विक और निरामिष आहार करते हैं और यत्र तत्र सर्वत्र पुनः ब्रह्मचारियों के दर्शन होने लगे हैं ।

शुद्ध शाकाहारी ब्रह्मचारियों ने आज तक क्या क्या किया, उस पर चन्द्र कवि के इस भजन ने प्रकाश डाला है, जिसे आर्योपदेशक स्वामी नित्यानन्द जी आदि सभी सदा झूम झूमकर गाते हैं ।

भजन

ब्रह्मचर्य नष्ट कर डाला, हो गया देश मतवाला ॥टेक॥

ब्रह्मचारी हनुमान् वीर ने कितना बल दिखलाया था,

ब्रह्मचर्य के प्रताप से लंका को जाय जलाया था,

रावण के दल से अंगद का पैर टला नहीं टाला ॥१॥

शक्ति खाय उठे लक्ष्मण जी कैसा युद्ध मचाया था,

मेघनाद से शूरवीर को क्षण में मार गिराया था,

रामायण को पढ़ कर देखो, है इतिहास निराला ॥२॥

परशुराम के भी कुठार का जग मशहूर फिसाना था,

बाल ब्रह्मचारी भीष्म को जाने सभी जमाना था,

जग कांपे था उसके भय से, कभी पड़ न जाये कहीं पाला ॥३॥

डेढ़ अरब के मुकाबले में इकला वीर दहाड़ा था,

जो कोई उनके सन्मुख आया, पल में उसे पछाड़ा था,

जिसका शोर मचा दुनियां में ऋषि दयानन्द आला ॥४॥

चालीस मन के पत्थर को धर छाती पर तुड़वाता था,

लोहे की जंजीरों को वह टुकड़े तोड़ बगाता था,

राममूर्ति दो मोटर रोके है प्रत्यक्ष हवाला ॥५॥

ब्रह्मचर्य को धारो लोगो, यह चीज अनूठी है,

मुर्दे से जिन्दा करने की यह संजीवनी बूटी है,

चन्द्र कहे इस कमजोरी को दे दो देश निकाला ॥६॥

इस भजन में भारत के निरामिषभोजी ब्रह्मचारियों के उपक्रमों का वर्णन किया है ।

इसी प्रकार अन्य देशों के निवासी जो मांस नहीं खाते, वे मांसाहारियों से बलवान् और वीर होते हैं ।

लाल समुद्र तथा नहर स्वेज के तट पर रहने वाले भी मांस नहीं छूते, वे बड़े परिश्रमी और बली होते हैं । काबुल के पठान मेवा अधिक खाते हैं, इसी से वे पुष्ट और बलवान् होते हैं । इन उपर्युक्त बातों से सिद्ध होता है कि मांसाहारी लोगों की अपेक्षा शाकाहारी निरामिषभोजी अधिक परिश्रमी, अनथक और बलवान् होते हैं ।

मांसाहारी क्रोधी और भयानक अत्याचारी हो जाते हैं । पैशाचिक और निर्दयता की भावना उनमें घर कर जाती है तथा स्थिर हो जाती है । पर वे बलवान् नहीं होते । उनकी आत्मा कमजोर हो जाती है । शेर अरने (जंगली) भैंसे से मुकाबला नहीं कर सकता । अनेक शेरों के बीच में जंगली

भैंसा जल पी जाता है, वह उनसे नहीं डरता, किन्तु शेर जंगली भैंसे से डर कर दूर रहने का यत्न करते हैं । जितना भार (बोझ) एक बैल वा घोड़ा खींच ले जा सकता है, उतना भार दस शेर मिलकर भी नहीं खींच सकते । मथुरा के चौबों के मुकाबले पर कोई मांसाहारी नहीं आ सकता ।

भारत के प्रसिद्ध बली प्रो० राममूर्ति ने योरुप के पहलवानों को दाल चावल घी-दूध के बल पर विजय कर डाला था ।

भारत के पहलवान जो मांस खाते हैं, वे भी घी, दूध, बादामों का अधिक सेवन करते हैं । उनमें बल घी, दूध के कारण होता है । सारी दुनियां को जीतने वाला पहलवान गामा भी इसी प्रकार का था, वह रुस्तमे-जहां कहलाया । किन्तु भारतीय पहलवान भगवानदास जो नराणा बसी (दिल्ली राज्य) का रहने वाला था, के साथ गामा पहलवान की कुश्ती हुई, वे दोनों बराबर रहे । विश्वविजयी गामा पहलवान भगवानदास को नहीं जीत नहीं सका ।

मैंने भगवानदास पहलवान के अनेक बार दर्शन किये । वह सर्वथा निरामिषभोजी एवं शाकाहारी था । वह बहुत सुन्दर, स्वस्थ, सुदृढ़, सुडौल शरीर वाला छः फुटा बलिष्ठ पहलवान था । उसने पत्थर की चूना पीसने वाली चक्की में बैलों के स्थान पर स्वयं जुड़कर चूना पीसकर पक्की हवेली (मकान) बनाई थी, उनकी यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है । वह सारी आयु ब्रह्मचारी रहा तथा बहुत ही सदाचारी एवं सरल प्रकृति का पहलवान था । उसकी जोड़ के पहलवान भारत में दो-चार ही थे ।

भगवानदास पहलवान महाराजा कोल्हापुर के पहलवान थे, जैसे कि गामा महाराजा पटियाले के पहलवान थे । एक बार भगवानदास पहलवान हैदराबाद के पहलवान के साथ, जो कि मीर उस्मान अली नवाब का अपना निजी पहलवान था, कुश्ती लड़ने हैदराबाद गये । नवाब का पहलवान अली नाम से प्रसिद्ध था, जो गामा की जोड़ का ही था । नवाब की आज्ञा से कुश्ती की तिथि नियत हो गई और दो मास की तैयारी का समय दिया गया । पहलवान भगवानदास हिन्दूगोसाईं के बाग में रहता था, वहीं पर गोसाईं ने घी-दूध का प्रबन्ध कर दिया था, किन्तु जोर करने के लिये कोई जोड़ का पहलवान इन्हें वहां नहीं मिला, विवशता थी । इन्होंने गोसाईं जी से कहकर लोहे का झाम के समान एक बड़ा फावड़ा (कस्सी) तैयार करवाया । व्यायाम के पश्चात् बाग में उस कस्सी से तीन-चार बीघे भूमि खोद डालना यही प्रतिदिन का पहलवान भगवानदास का जोर था । दो मास बीत गये । दोनों पहलवान मैदान में आये । नवाब की देखरेख में कुश्ती आरम्भ हुई । पहले भारत में तोड़ की अर्थात् पूर्ण हार-जीत की कुश्ती होती थी । जब तक चित्त करके सारी पीठ और कमर भूमि पर न लगा दे और छाती आकाश को न दिखा दे, तब तक जीत नहीं मानी जाती थी, न ही कुश्ती बीच में छूटती थी । दो अढ़ाई घण्टे पहलवानों की जंगली भैंसों के समान कुश्ती हुई । बड़े पहलवान थे, बराबर की जोड़ी थी, हार-जीत सहज में नहीं होनी थी । अन्त में अली पहलवान जो प्रतिदिन दो बकरों का शोरबा खा जाता था, थकने लगा और अन्त में थककर, बेहोश होकर भूमि पर गिर पड़ा । पहलवान भगवानदास की जय हुई । वह सर्वथा शाकाहारी निरामिषभोजी था । मांसाहारियों पर यह शाकाहारियों की विजय थी ।

एक परीक्षण इस विषय में अंग्रेजों ने अपने राज्यकाल में बबीना छावनी में निरामिषभोजी पहलवानों पर किया था । उन्होंने ६० पहलवान शाकाहारी निरामिषभोजी और ६० मांसाहारी छांटे । तोल के अनुसार इनकी जोड़ मिलाई और एक दो मास की तैयारी का समय दे दिया । जब कुश्ती की निश्चित तिथि आ गई तो पहलवानों का दंगल हुआ । उन ६० जोड़ों में ५९ कुश्तियां शाकाहारी निरामिषभोजी पहलवान जीत गए तथा ६०वीं कुश्ती में वह जोड़ बराबर रही । ये जीतने वाले सभी पहलवान प्रायः हरयाणे के थे । इसने प्रत्यक्ष रूप से सिद्ध कर दिया कि निरामिषभोजी घी, दूध, अन्न, फल खाने वाले ही बलवान्, वीर और बहादुर होते हैं ।

अब वर्त्तमान समय की बात लीजिये । जो सबके सम्मुख है, वह हैं भारत केसरी हरयाणे के प्रसिद्ध, होनहार पहलवान मास्टर चन्दगीराम के विषय में । उसका विवरण संक्षेप में पढ़ें ।

भारत में हरयाणा प्रान्त अन्य प्रान्तों की अपेक्षा कुछ विशिष्टतायें रखता है । यहाँ के वीर निवासी इतिहास प्रसिद्ध वीर यौधेयों की सन्तान हैं । यौधेयों के पूर्वजों में मनु, पुरूरवा, ययाति, उशीनर और नृग आदि बड़े-बड़े राजा हुये हैं । इसी वंश में यौधेयों के चचा शिवि औशीनर के सुवीर, केकय और मद्रक – इन तीन पुत्रों से तीन गणराज्यों की स्थापना हुई । इसी प्रकार इनके चचेरे भाई सुव्रत के पुत्र अम्बष्ठ ने एक गणराज्य की स्थापना की । यदुवंश भी, जिसमें योगिराज श्रीकृष्ण एवं बलवान् बलराम हुये हैं, एक गण हैं तथा कौरव, पांडव भी पुरुवंशी हैं और यौधेय अनुवंशी हैं । पुरु, अनु और यदु तीनों सगे भाई चक्रवर्ती राजा ययाति की सन्तान हैं । वैसे तो सभी भारतवासी ऋषियों की सन्तान हैं । ऋषि, महर्षि सभी निरामिष, शुद्ध सात्त्विक आहार-विहार करने वाले थे । यौधेय उन्हीं ऋषियों की सन्तान हैं । वैवस्त मनु के वंश में उत्पन्न होने से यौधेयों का ऊंचा स्थान है । सप्तद्वीपों का स्वामी चक्रवर्ती सम्राट् महामना यौधेयों का प्रपितामह (परदादा) था ।

यौधेयों का भोजन सदा से गोदुग्ध, दही, घृत, फल अन्नादि सात्त्विक तथा पवित्र रहा है । वे अपने वंश चलाने वाले मनु जी महाराज की सब वेद विहित आज्ञाओं को मानते थे । वेदानुसार बनाये गये वैदिक विधान ग्रन्थ मनुस्मृति में लिखे अनुसार चलने में वे अपना तथा सारे विश्व का कल्याण समझते थे । वे मनुस्मृति के इस श्लोक को कैसे भूल सकते थे –

स्वमांसं परमांसेन यो वर्द्धयितुमिच्छति ।

अनभ्यचर्य पितृन् देवान् ततोऽन्यो नास्त्यपुण्यकृत् ॥

(मनु० ५।५२)

जो व्यक्ति केवल दूसरों के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है, उस जैसा कोई पापी है ही नहीं ।

इन्हीं विशिष्टताओं के कारण यौधेय वंश सहस्रों वर्षों तक भारतीय इतिहास में सूर्यवत् प्रकाशमान् रहा है । इस विषय में मेरी लिखी पुस्तक हरयाणे के वीर यौधेय में विस्तार से लिखा है । शतियां बीत गईं, अनेक राज्य इस आर्यभूमि की रंगस्थली पर अपना खेल खेलकर चले गये, किन्तु यौधेयों की सन्तान हरयाणा निवासियों में आज भी कुछ विशेषतायें शेष हैं । आहार-विहार में सरलता, सात्त्विकता इनमें कूट-कूट कर भरी है । अर्थात् अन्य प्रान्तों की अपेक्षा इनका आचार, विचार, आहार, व्यवहार शुद्ध सात्त्विक है । ये आदि सृष्टि से आज तक परम्परा से सर्वथा शाकाहारी निरामिषभोजी हैं । मांस को खाना तो दूर रहा, कभी इन्होंने छुवा भी नहीं ।

देशों में देश हरयाणा । जहाँ दूध दही का खाना ।

इनकी यह लोकोक्ति जगत्प्रसिद्ध है । जैन कवि सोमदेव सूरि ने भी अपने पुस्तक यशस्तिलकम् चम्पू में यौधेयों की खूब प्रशंसा की है ।

स यौधेय इति ख्यातो देशः क्षेत्रोऽस्ति भारते ।

देवश्रीस्पर्धया स्वर्गः स्रष्ट्रा सृष्ट इवापरः ॥४२॥

भारतदेश में प्रसिद्ध यह यौधेय देश अत्यधिक मनोहर होने के कारण ऐसा प्रतीत होता था मानो ब्रह्मा ने अथवा परमात्मा स्रष्टा ने दिव्य श्री से ईर्ष्या करके दूसरे स्वर्ग की रचना कर डाली है ।  महर्षि व्यास ने भी विवश होकर यौधेयों की राजधानी रोहतक के विषय में इसी प्रकार लिखा है –

ततो बहुधनं रम्यं गवाढ्यं धनधान्यवत् ।

कार्तिकेयस्य दयितं रोहितकमुपाद्रवत् ॥

नकुल ने बहुत धनधान्य से सम्पन्न, गौवों की बहुलता से युक्त तथा कार्तिकेय के अत्यन्त प्रिय रमणीय नगर रोहितक पर आक्रमण किया । हरयाणा के शूरवीर मस्त क्षत्रिय यौधेयों से उसका घोर संग्राम हुआ । यौधेयानां जयमन्त्रधराणाम् – जिन यौधेयों को सभी जयमन्त्रधर कहते थे, जो कभी किसी से पराजित नहीं होते थे, उन विजयी यौधेयों की प्रशंसा उनके शत्रुओं ने भी की है । इन्हीं से भयभीत होकर सिकन्दर की सेना ने व्यास नदी को पार नहीं किया । अपने पूर्वज यौधेयों के गुण आज इनकी सन्तान हरयाणावासियों में बहुत अधिक विद्यमान हैं । जैसे अल्हड़पन से युक्त वीरता और भोलेपन से मिश्रित उद्दण्डता आज भी इनके भीतर विद्यमान है । इन्हें प्रेम से वश में करना जितना सरल है, आंखें दिखाकर दबाना उतना ही कठिन है । अपने पूर्वज यौधेयों के समान युद्ध करना (लड़ना) इनका मुख्य कार्य है । यदि लड़ने को शत्रु न मिले तो परस्पर भी लड़ाई कर बैठते हैं, लड़ाई के अभ्यास को कभी नहीं छोड़ते ।

पाकिस्तान और चीन के युद्ध में इनकी वीरता की गाथा जगत्प्रसिद्ध है जिसकी चर्चा मैं पहले भी कर चुका हूँ । इन्हीं यौधेयों की सन्तान आर्य पहलवान श्री मास्टर चन्दगीराम जी भारत के सभी पहलवानों को हराकर दो बार भारत केसरी और दो बार हिन्द केसरी उपाधि प्राप्त कर चुके हैं । इसी प्रकार हरयाणे के रामधन आर्य पहलवान हरयाणे के पहलवानों को हराकर हरयाणा-केसरी उपाधि प्राप्त कर चुके हैं । ये दोनों पहलवान न मांस, न अण्डे, मच्छी आदि अभक्ष्य पदार्थों को छूते और न ही तम्बाकू, शराब आदि का ही सेवन करते हैं । आचार व्यवहार में शुद्ध सात्त्विक हैं । सर्वथा और जन्म से ही शुद्ध निरामिषभोजी (शाकाहारी) हैं ।

श्री मास्टर चन्दगीराम जी सब पहलवानों को हराकर दो बार (सन् १९६२ और १९६८ ई०) हिन्दकेसरी विजेता बने और दो बार (सन् १९६८ और १९६९ ई०) भारतकेसरी विजेता बने । इन्होंने बड़े बड़े भारी भरकम प्रसिद्ध मांसाहारी पहलवानों को पछाड़कर दर्शकों को आश्चर्य में डाल दिया । जैसे मेहरदीन पहलवान मांसाहारी है । दोनों बार भारतकेसरी की अन्तिम कुश्ती इसी के साथ मा० चन्दगीराम की हुई है और दोनों बार मा० चन्दगीराम शाकाहारी पहलवान जीता तथा मांसाहारी मेहरदीन हार गया । एक प्रकार से यह शाकाहारियों की मांसाहारियों से जीत थी । प्रथम बार जिस समय मेहरदीन के मुकाबले पर मा० चन्दगीराम जी अखाड़े में कुश्ती के लिये निकले तो उनके आगे बालक से लगते थे । किसी को भी यह आशा नहीं थी कि वे जीत जायेंगे ।

क्योंकि चन्दगीराम की अपेक्षा मेहरदीन में १६० पौंड भार अधिक है । ३५ मिनट तक घोर संघर्ष हुवा । इसमें मेहरदीन इतना थक गया कि अखाड़े में बेहोश होकर गिर पड़ा, स्वयं उठ भी नहीं सका, आर्य पहलवान रूपचन्द आदि ने उसे सहारा देकर उठाया । यदि मेहरदीन में मांस खाने का दोष नहीं होता तो चन्दगीराम उसे कभी भी नहीं हरा सकता था । मांसाहारी पहलवानों में यह दोष होता है कि वे पहले ५ वा १० मिनट खूब उछल कूद करते हैं, फिर १० मिनट के पीछे हांफने लगते हैं । उनका दम फूल जाता है और श्वास चढ़ जाते हैं । फिर उनको हराना वामहस्त का कार्य है । गोश्तखोर में दम नहीं होता, वह शाकाहारी पहलवान के आगे अधिक देर तक नहीं टिक सकता । इसी कारण सभी मांसाहारी पहलवान थककर पिट जाते हैं, मार खाते हैं । इसी मांसाहार का फल मेहरदीन को भोगना पड़ा । यह १९६८ में हुई कुश्ती की कहानी है । इस बार १९६९ ई० में दिल्ली में पुनः भारत केसरी दंगल हुवा और फिर अन्तिम कुश्ती मा० चन्दगीराम और मेहरदीन की हुई । यह कुश्ती मैंने प्रोफेसर शेरसिंह की प्रेरणा पर स्वयं देखी । मैं काशी जा रहा था । मेरे पास समय नहीं था, चलता हुआ कुछ देख चलूं, यह विचार कर वहां पहुँच गया । उस दिन बड़ी भारी भीड़ थी । कुश्ती देखने के लिए दिल्ली की जनता इस प्रकार उमड़ पड़ेगी, मुझे यह स्वप्न में भी ध्यान नहीं आ सकता था । वैसे यह दंगल २८ अप्रैल से चल रहा था । इस भारत केसरी दंगल में क्रमशः सुरजीतसिंह, भगवानसिंह, सुखवन्तसिंह तथा रुस्तमे अमृतसर बन्तासिंह को १० मिनट के भीतर अखाड़े से बाहर करने वाला हरयाणा का सिंहपुरुष अखाड़े में उतरा । उधर जिससे टक्कर हुई थी, वह उपविजेता मेहरदीन सम्मुख आया । दोनों में टक्कर होनी थी । बड़े-बड़े पहलवान कुश्ती जीतकर पुनः उसी प्रतियोगिता में भाग नहीं लेते । क्योंकि पुनः हार जाने पर सारे यश और कीर्ति के धूल में मिलने का भय रहता है । किन्तु कौन चतुर व्यक्ति हरयाणे के इस नरकेसरी की प्रशंसा किये बिना रह सकता है ? जो अपनी शक्ति और बल पर आत्मविश्वास करके पुनः भारतकेसरी के दंगल में कूद पड़ा और अपने द्वारा हराये हुये मेहरदीन से पुनः टकराने के लिये अखाड़े में उतर आया । इधर मा० चन्दगीराम को अपने भुजबल पर पूर्ण विश्वास था । उसने गतवर्ष इसी आधार पर समाचार पत्रों में एक बयान दिया था –

“भीमकाय मेहरदीन पर दाव कसना खतरे से खाली नहीं था । भारतकेसरी की उपाधि मैंने भले ही जीत ली, पर मेहरदीन के बल का मैं आज भी लोहा मानता हूँ । पर इतना स्पष्ट कर दूं कि अब वह मुझे अखाड़े में चित्त नहीं कर पायेगा । मैंने उसकी नस पकड़ ली है और अब मैं निडर होकर उससे कुश्ती लड़ सकता हूं और इन्हीं शब्दों के साथ मैं मेहरदीन को चुनौती देता हूं कि वह जब भी चाहे, जहां उसकी इच्छा हो, मुझ से फिर कुश्ती लड़ सकता है ।”

“मेरी जीत का रहस्य कोई छिपा नहीं, मैं शक्ति (स्टेमिना) और धैर्य के बल्पर ही अपने से अधिक शक्तिशाली और भारत के रुस्तमे-हिन्द मेहरदीन को पछाड़ने में सफल रहा ।”

“मुझे पूरा विश्वास था कि यदि दस मिनट तक मैं मेहरदीन के आक्रमण को विफल करने में सफल हो सका तो उसे निश्चय ही हरा दूंगा । आपने ही क्या, दुनियां ने देखा कि आरम्भ के १०-१२ मिनट तक मैं मेहरदीन पर कोई दाव लगाने का साहस नहीं कर सका । १३वें मिनट में मेहरदीन ने ज्यों ही पटे निकालने का यत्न किया, त्यों ही मैंने उसकी कलाई पकड़कर झटक दी । वह औंधे मुंह अखाड़े पर गिरता-गिरता बचा और दर्शकों ने दाद देकर (प्रशंसा करके) मेरे साहस को दूना कर दिया । कई बार जनेऊ के बल पर मैंने नीचे पड़े मेहरदीन को चित्त करने का यत्न किया । यदि आपने ध्यान किया हो तो मैं निरन्तर अपने चेहरे से मेहरदीन की स्टीलनुमा (फौलादी) गर्दन को रगड़ता रहा था ।”

“मैं हरयाणे के एक साधारण किसान परिवार का जाट हूं । स्वर्गीय चाचा सदाराम अपने समय के एक नामी (प्रसिद्ध) पहलवान थे । मरते समय उन्होंने मेरे पिता श्री माड़ूराम से कहा था – इसे दो मन घी दे दो, यही पहलवानी में वंश का नाम उज्ज्वल कर देगा ।”

“मैं किसी प्रकार से इण्टर पास कर आर्ट एण्ड क्राफ्ट में प्रशिक्षण ले मुढ़ाल गांव के सरकारी स्कूल में खेलों का इन्चार्ज मास्टर लग गया । मैं बचपन से उदास रहता था । प्रायः यही सोचा करता था कि संसार में निर्बल मनुष्य का जीवन व्यर्थ है ।”

उपर्युक्त कथन से यह प्रकट होता है कि अपने चचा की प्रेरणा से ये पहलवान बने । पहलवानी इनके घर में परम्परा से चली आती थी । वैसे तो तीस-चालीस वर्ष पूर्व हरयाणे के सभी युवक-युवती कुश्ती का अभ्यास करते थे । उसी प्रकार के संस्कार मास्टर जी के थे, अपने पुरुषार्थ से वे इतने बड़े निर्भीक नामी पहलवान बन गये । इस प्रकार एक वर्ष की पूर्ण तैयारी के बाद १९६९ में होने वाले दंगल में पुनः १२ मई के सायं समय भारत केसरी दंगल में मेहरदीन से आ भिड़े । आज भारत केसरी का निर्णायक दंगल था । इससे पूर्व इसी दिन हरयाणे के वीर युवक मुरारीलाल वर्मा “भारत कुमार” के उपाधि विजेता बने थे । यह भी पूर्णतया निरामिषभोजी विशुद्ध शाकाहारी हैं । यह भी सारे भारत के विद्यार्थी पहलवानों को जीतकर भारतकुमार बना था । अब विख्यात पहलवान दारासिंह की देखरेख में (निर्णायक के रूप में) भारत-केसरी उपाधि के लिये मल्ल्युद्ध प्रारम्भ हुआ । प्रारम्भ में ही मा० चन्दगीराम ने अपने फौलादी हाथों से मेहरदीन के हाथ को जकड़ लिया । मेहरदीन पहली पकड़ में ही घबरा गया । उसे अपने पराजय का आभास होने लगा । जैसे-तैसे टक्कर मारकर हाथ छुड़ाया किन्तु फिर दूसरी पकड़ में वह हरयाणे के इस शूरवीर के पंजे में फंस गया, वह सर्वथा निराश हो गया । विवश होकर केवल ७ मिनट ४५ सैकिण्ड में उससे छूट मांग ली अर्थात् बिना चित्त हुये उसने आगे लड़ने से निषेध कर दिया और अपनी पराजय स्वीकार कर भीगे चूहे के समान अखाड़े से बाहर हो गया । दर्शकों को भी ऐसा विश्वास नहीं था कि विशालकाय मेहरदीन हलके फुलके मा० चन्दगीराम से इतना घबरा कर बिना लड़े अपनी पराजय स्वीकार कर अखाड़ा छोड़ देगा । दर्शकों को तो भय था कि कभी चन्दगीराम हार न जाये । लोग उसकी जीत के लिये ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे । हार स्वीकार करने से पूर्व दारासिंह निर्णायक ने मेहरदीन को कुश्ती पूर्ण करने को कहा था, किन्तु वह तो शरीर, मन, आत्मा सबसे पराजित हो चुका था । उसके पराजय स्वीकार करने पर निर्णायक दारासिंह ने हजारों दर्शकों की उपस्थिति में मास्टर चन्दगीराम को विजेता घोषित कर दिया । फिर क्या था, तालियों की गड़गड़ाहट तथा मा० चन्दगीराम के जयघोषों से सारा क्रीडाक्षेत्र गूंज उठा । श्री विजयकुमार मल्होत्रा मुख्य कार्यकारी पार्षद ने दूसरी बार विजयी हुये मा० चन्दगीराम को भारतकेसरी के सम्मानजनक गुर्ज से अलंकृत किया । सारे भारत में इनके विजय की धूम मच गई । स्थान-स्थान पर स्वागत होने लगा । इनके अपने ग्राम सिसाय (जि० हिसार) में भी इनका बड़ा भारी स्वागत हुवा । उस स्वागत समारोह में मैं स्वयं भी गया और मा० चन्दगीराम को इनके दोबारा विजय पर स्वागत करते हुये बधाई दी । गत वर्ष प्रथम भारत केसरी विजय पर हरयाणे के आर्य महासम्मेलन पर सारे आर्यजगत् की ओर से भारतकेसरी मा० चन्दगीराम तथा हरयाणाकेसरी आर्य पहलवान रामधन – इन दोनों का रोहतक में स्वागत किया था ।

इस प्रकार मा० चन्दगीराम की देशव्यापी ख्याति, कुश्ती कला की जानकारी, लम्बा श्वास वा दम, उनकी हाथों की फौलादी पकड़ से देशवासियों के हृदयों में नवीन आशाओं का संचार होने लगा है । पुनः मल्ल्युद्ध (कुश्ती) के प्रति श्रद्धा और प्रेम उत्पन्न हो गया है ।

मा० चन्दगीराम का विजय उनका अपना विजय नहीं है, यह शाकाहारियों का मांसाहारियों पर विजय है । यह ब्रह्मचर्य का व्यभिचार पर विजय है क्योंकि मा० चन्दगीराम सात मास के पश्चात् अब अपने घर पर गया था, वह गृहस्थ होते हुये भी ब्रह्मचारी है । अगले दिन प्रातःकाल पुनः दिल्ली को चल दिया । इस श्रेष्ठ आर्ययुवक हरयाणे के नरपुंगव की जीत आबाल वृद्ध वनिता सभी अपनी जीत समझते हैं । मा० चन्दगीराम को यह सदाचार की प्रेरणा आर्यसमाज की शिक्षा महर्षि दयानन्द के पवित्र जीवन से ही मिली है । वे इसे अपने भाषणों में बार-बार स्वयं कहते रहते हैं । इससे बढ़कर और क्या उदाहरण हो सकता है जिस से यह सिद्ध होता है कि घी-दूध ही बल का भण्डार है । घृतं वै बलम् – घृत ही बल है, मांस नहीं । मांस से बल बढ़ता है, इस भ्रम को मा० चन्दगीराम ने सर्वथा दूर कर दिया है । एक बार हरयाणे के पहलवानों को एक मुस्लिम पहलवान कटड़े ने जो झज्जर का था, छुट्टी दे दी । फिर ब्रह्मचारी बदनसिंह आर्य पहलवान निस्तौली निवासी से इसकी कुश्ती झज्जर में ही हुई । उस कसाई पहलवान का शरीर बड़ा भारी भरकम था और ब्र० बदनसिंह चन्दगीराम के समान हलका फुलका था । उस कसाई पहलवान के पिता ने कहा इस बालक को मरवाने के लिये क्यों ले आये ? शुभराम भदानी वाले पहलवान को लाओ, उसकी और इसकी जोड़ है । किन्तु भदानियां शुभराम पहलवान कुश्ती लड़ना नहीं चाहता था । उसके पिता जी ही पहलवान बदनसिंह को कुश्ती के लिये निस्तौली से लाये थे । कुश्ती हुई । ब्र० बदनसिंह ने पहले तो बचाव किया । कसाई कट्टा पहलवान पहले तो खूब उछलता-कूदता रहा, फिर १५-२० मिनट के पीछे उसका दम फूलने लगा, जैसे कि मांसाहारियों का दम फूलता ही है । फिर क्या था, ब्र० बदनसिंह का उत्साह बढ़ने लगा और अन्त में भीमकाय कसाई पहलवान को चारों खाने चित्त मारा । ब्र० बदनसिंह को कसाई पहलवान के पिता ने स्वयं पगड़ी दी और छाती से लगाया ।

इस प्रकार की सैंकड़ों घटनायें और लिखी जा सकती हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि मांसाहारी बली वा शक्तिशाली नहीं होता, और न ही मांस से बल मिलता है । किन्तु घी दूध ही बल और शक्ति प्रदान करते हैं ।

मनुष्य का आहार क्या है

vegetarian thought

मनुष्य का आहार क्या है ?

सत्त्व, रज और तम की साम्यावस्था का नाम प्रकृति है । भोजन की भी तीन श्रेणियां हैं । प्रत्येक व्यक्ति अपने रुचि वा प्रवृत्ति के अनुसार भोजन करता है । श्रीकृष्ण जी महाराज ने गीता में कहा है –

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः

सभी मनुष्य अपनी प्रवृत्ति के अनुसार तीन प्रकार के भोजन को प्रिय मानकर भक्षण करते हैं । अर्थात् सात्त्विक वृत्ति के लोग सात्त्विक भोजन को श्रेष्ठ समझते हैं । राजसिक वृत्ति वालों को रजोगुणी भोजन रुचिकर होता है । और तमोगुणी व्यक्ति तामस भोजन की ओर भागते हैं । किन्तु सर्वश्रेष्ठ भोजन सात्त्विक भोजन होता है ।

सात्त्विक भोजन

आयुः – सत्त्व – बलारोग्य – सुख – प्रीति – विवर्धनाः ।

रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥

आयु, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रसीले, चिकने स्थिर, देर तक ठीक रहने वाले एवं हृदय के लिये हितकारी – ऐसा भोजन सात्त्विक जनों को प्रिय होता है । अर्थात् जिस भोजन के सेवन से आयु, बल, वीर्य, आरोग्य आदि की वृद्धि हो, जो सरस, चिकना, घृतादि से युक्त, चिरस्थायी और हृदय के लिये बल शक्ति देने वाला है, वह भोजन सात्त्विक है ।

सात्त्विक पदार्थ – गाय का दूध, घी, गेहूं, जौ, चावल, मूंग, मोठ, उत्तम फल, पत्तों के शाक, बथुवा आदि, काली तोरई, घीया (लौकी) आदि मधुर, शीतल, स्निग्ध सरस, शुद्ध पवित्र, शीघ्र पचने वाले तथा बल, ओज अवं कान्तिप्रद पदार्थ हैं वे सात्त्विक हैं । बुद्धिमान् व्यक्तियों का यही भोजन है ।

गोदुग्ध सर्वोत्तम भोजन है । वह बलदायक, आयुवर्द्धक, शीतल, कफ पित्त के विकारों को शान्त करता है । हृदय के लिये हितकारी है तथा रस और पाक में मधुर है । गोदुग्ध सात्त्विक भोजन के सभी गुणों से ओतप्रोत है ।

प्राकृतिक आहार दूध ही है । मनुष्य-जन्म के समय भगवान् ने मनुष्य के लिये माता के स्तनों में दूध का सुप्रबन्ध किया है । मनुष्य के शरीर और मस्तिष्क का यथोचित पालन पोषण करने के लिये पोषक तत्त्व जिन्हें आज का डाक्टर विटेमिन्स (vitamins) नाम देता है, सबसे अधिक और सर्वोत्कृष्ट रूप में दूध में ही पाये जाते हैं जो शरीर के प्रत्येक भाग अर्थात् रक्त, मांस और हड्डी को पृथक्-पृथक् शक्ति पहुंचाते हैं । मस्तिष्क अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार इस अन्तःकरण चतुष्टय को शुद्ध करके गोदुग्ध सब प्रकार का बल प्रदान करता है । इसमें ऐतिहासिक प्रमाण है –

महात्मा बुद्ध तप करते-करते सर्वथा कृशकाय हो गये थे । वे चलने फिरने में भी सर्वथा असमर्थ हो गये थे । उस समय अपने वन के इष्ट देवता की पूजार्थ गोदुग्ध से बनी खीर लेकर एक वैश्य देवी सुजाता नाम की वहां पहुंची जहां वट-वृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध निराश अवस्था में (मरणासन्न) बैठे थे । उस देवी ने उन्हें ही अपना देवता समझा और उसी की पूजार्थ वह खीर उसके चरणों में श्रृद्धापूर्वक उपस्थित कर दी । महात्मा बुद्ध बहुत भूखे थे, उन्होंने उस खीर को खा लिया । उससे उन्हें ज्योति मिली, दिव्य प्रकाश मिला । जिस तत्त्व की वे खोज में थे, उसके दर्शन हुए । निराशा आशा में बदल गई । शरीर और अन्तःकरण में विशेष उत्साह, स्फूर्ति हुई । यह उनके परम पद अथवा महात्मा पद की प्राप्ति की कथा वा गौरव गाथा है । सभी बौद्ध इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि सुजाता की खीर ने ही महात्मा बुद्ध को दिव्य दर्शन कराये । वह खीर उस देवी ने बड़ी श्रद्धा से बनाई थी । उनके घर पर एक हजार दुधारू गायें थीं । उन सबका दूध निकलवाकर वह १०० गायों को पिला देती थी और उन १०० गायों का दूध निकलवाकर १० गौवों को पिला देती थी और दस गौवों का दूध निकालकर १ गाय को पिला देती थी ।

इस गाय के दूध से खीर बनाकर वन के देवता की पूजार्थ ले जाती । उसका यह कार्यक्रम प्रतिदिन चलता था । इस प्रकार से श्रद्धापूर्वक बनायी हुई वह खीर महात्मा बुद्ध के अन्तःकरण में ज्ञान की ज्योति जगाने वाली बनी ।

छान्दोग्य उपनिषद् में लिखा है –

आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः ।

स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः ॥

आहार के शुद्ध होने पर अन्तःकरण मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार शुद्ध हो जाते हैं । अन्तःकरण की शुद्धि होने पर स्मरणशक्ति दृढ़ और स्थिर हो जाती है । स्मृति के दृढ़ होने से हृदय की सब गांठें खुल जाती हैं । अर्थात् जन्म-मरण के सब बन्धन ढीले हो जाते हैं । अविद्या, अन्धकार मिटकर मनुष्य दासता की सब श्रृंखलाओं से छुटकारा पाता है और परमपद मोक्ष की प्राप्ति का अधिकारी बनता है । निष्कर्ष यह निकला कि शुद्धाहार से मनुष्य के लोक और परलोक दोनों बनते हैं । योगिराज श्रीकृष्ण जी ने भी गीता में इसकी इस प्रकार पुष्टि की है –

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥६-१७॥

यथायोग्य आहार-विहार करने वाले, यथोचित कर्म करनेवाले, उचित मात्रा में निद्रा (सोने और जागने) का यह योग दुःखनाशक होता है । शुद्ध आहार-विहार करने वाले मनुष्य के सब दुःख दूर हो जाते हैं ।

इसी के अनुसार महात्मा बुद्ध को सुजाता की खीर से ज्ञान का प्रकाश मिला । दूसरी ओर इससे सर्वथा विपरीत हुआ, अर्थात् महात्मा बुद्ध को उनके एक भक्त ने सूवर का मांस खिला दिया, यही उनकी मृत्यु का कारण बना । उनको भयंकर अतिसार (दस्त) हुये । कुशीनगर में उन्हें यह शरीर छोड़ना पड़ा । मांस तो रोगों का घर है और रोग मृत्यु के अनुचर सेवक हैं । अतः गोदुग्ध की बनी सुजाता की खीर सात्त्विक भोजन ने ज्ञान और जीवन दिया तथा तमोगुणी भोजन मांस ने महात्मा बुद्ध को रोगी बनाकर मृत्यु के विकराल गाल में धकेल दिया । इसीलिये प्राचीनकाल से ही गोदुग्ध को सर्वोत्तम और पूर्ण भोजन मानते आये हैं ।

आयुर्वेद के ग्रन्थों में सात्त्विक आहार की बड़ी प्रशंसा की है –

आहारः प्रणितः सद्यो बलकृद् देहधारणः ।

स्मृत्यायुः-शक्ति वर्णौजः सत्त्वशोभाविवर्धनः ॥(भाव० ४-१)

भोजन से तत्काल ही शरीर का पोषण और धारण होता है, बल्कि वृद्धि होती है तथा स्मरणशक्ति आयु, सामर्थ्य, शरीर का वर्ण, कान्ति, उत्साह, धैर्य और शोभा बढ़ती है । आहार ही हमारा जीवन है । किन्तु सात्त्विक सर्वश्रेष्ठ है । और सात्त्विक आहार में गोदुग्ध तथा गोघृत सर्वप्रधान और पूर्ण भोजन है ।

धन्वन्तरीय निघन्टु में लिखा है –

पथ्यं रसायनं बल्यं हृद्यं मेध्यं गवां पयः ।

आयुष्यं पुंस्त्वकृद् वातरक्तविकारानुत् ॥१६४)

(सुवर्णादिः षष्ठो वर्यः)

गोदुग्ध पथ्य सब रोगों तथा सब अवस्थाओं (बचपन, युवा तथा वृद्धावस्था) में सेवन करने योग्य रसायन, आयुवर्द्धक, बलकारक, हृदय के लिये हितकारी, मेधा बुद्धि को बनाने वाला, पुंस्त्वशक्ति अर्थात् वीर्यवर्द्धक, वात तथा रक्तपित्त के विकारों रोगों को दूर करनेवाला है । गोदुग्ध को सद्यः शुक्रकरं पयः तत्काल वीर्य बलवर्द्धक लिखा है । इस प्रकार आयुर्वेद के सभी ग्रन्थों में गोदुग्ध के गुणों का बखान किया है और इसकी महिमा के गुण गाये हैं । अतः इस सर्वश्रेष्ठ और पूर्णभोजन का सभी मनुष्यों को सेवन करना चाहिये । यह सर्वश्रेष्ठ सात्त्विक आहार है । जैसे अपनी जननी माता का दूध बालक एक से दो वा अधिक से अधिक तीन वर्ष तक पीता रहता है । माता के दुग्ध से उस समय बच्चा जितना बढ़ता और बलवान् बनता है उतना यदि वह अपनी आयु के शेष भाग में ४० वर्ष की सम्पूर्णता की अवस्था तक भी बढ़ता रहे तो न जाने कितना लम्बा और कितना शक्तिशाली बन जाये । माता का दूध छोड़ने के पश्चात् लोग गौ, भैंस, बकरी आदि पशुवों के दूध को पीते हैं । यदि केवल गोदुग्ध का ही सेवन करें तो सर्वतोमुखी उन्नति हो । बल, लम्बाई, आयु आदि सब बढ़ जावें । जैसे स्वीडन, डैनमार्क, हालैण्ड आदि देशों में गाय का दूध मक्खन पर्याप्त मात्रा में होता है । इसलिये स्वीडन में २०० वर्ष में ५ इंच कद बढ़ा है और भारतीयों के भोजन में पचास वर्ष से गोदुग्ध आदि की न्यूनता होती जा रही है, अतः इन तीस वर्षों में २ इंच कद घट गया । महाभारत के समय भारत देश के वासियों को इच्छानुसार गाय का घृत वा दुग्ध खाने को मिलता था । अतः ३०० और ४०० वर्ष की दीर्घ आयु तक लोग स्वस्थ रहते हुए सुख भोगते थे । महर्षि व्यास की आयु ३०० वर्ष से अधिक थी । भीष्म पितामह १७६ वर्ष की आयु में एक महान् बलवान् योद्धा थे । कौरव पक्ष के मुख्य सेनापति थे, अर्थात् सबसे बलवान् थे । महाभारत में चार पीढ़ियां युवा थी और युद्ध में भाग ले रही थी । जैसे शान्तनु महाराज के भ्राता बाह्लीक अर्थात् भीष्म के चचा युद्ध में लड़ रहे थे । उनका पुत्र सोमदत्त तथा सोमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा और भूरिक्षवा – ये सब युद्ध में रत अपना युद्ध कौशल दिखा रहे थे । इस प्रकार चार पीढ़ियां युवा थीं । ६ फीट से कम लम्बाई किसी की नहीं थी । १०० वर्ष से पूर्व कोई नहीं मरता था । यह सब गोदुग्धादि सात्त्विक आहार का ही फल था । सत्यकाम जाबाल को ऋषियों की गायों की सेवा करते हुए तथा गोदुग्ध के सेवन से ही ब्रह्मज्ञान हुआ । गोदुग्ध की औषध मिश्रित खीर से ही महाराज दशरथ के चार पुत्ररत्न उत्पन्न हुए । इसीलिये गाय के दूध को अमृत कहा है । संसार में अमृत नाम की वस्तु कोई है तो वह गाय का घी-दूध ही है ।

गाय के घी के विषय में राजनिघन्टु में इस प्रकार लिखा है –

गव्यं हव्यतमं घृतं बहुगुणं भोग्यं भवेद्‍भाग्यतः ॥२०४॥

गौ का घी हव्यतम अर्थात् हवन करने के लिये सर्वश्रेष्ठ है और बहु-गुण युक्त है, यह बड़े सौभाग्यशाली मनुष्यों को ही खाने को मिलता है । यथार्थ में गोपालक ही शुद्ध गोघृत का सेवन कर सकते हैं । गाय के घी को अमृत के समान गुणकारी और रसायन माना है । सब घृतों में उत्तम है । सात्त्विक पदार्थों में सबसे अधिक गुणकारी है । इसी प्रकार गाय की दही, तक्र, छाछ आदि भी स्वास्थ्य रक्षा के लिये उत्तम हैं । दही, तक्र के सेवन से पाचनशक्ति यथोचित रूप में भोजन को पचाती है । इसके सेवन से पेट के सभी विकार दूर होकर उदर नीरोग हो जाता है । निघण्टुकार ने कितना सत्य लिखा है – न तक्रसेवी व्यथते कदाचित् – तक्र का सेवन करनेवाला कभी रोगी नहीं होता । गौ के घी, दूध, दही, तक्र – सभी अमृत तुल्य हैं । इसीलिये हमारे ऋषियों ने इसे माता कहा है । वेद भगवान् ने इस माता को आप्यायध्वमघ्न्या न मारने योग्य, पालन और उन्नत करने योग्य लिखा है अर्थात् गोमाता का वध वा हिंसा कभी नहीं करनी चाहिये क्योंकि यह सर्वश्रेष्ठ सात्त्विक भोजन के द्वारा संसार का पालन पोषण करती है । इसकी नाभि से अमृतस्य नाभिः अमृतरूपी दूध झरता है । यह सात्त्विक आहार का स्रोत है ।

राजसिक भोजन

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः ।

आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥ (गीता १७।९॥

कड़वे, खट्टे, नमकीन, अत्युष्ण, तीक्ष्ण, रूक्ष दाह, जलन उत्पन्न करने वाले नमक, मिर्च, मसाले, इमली, अचार आदि से युक्त चटपटे भोजन राजसिक हैं । इनके सेवन से मनुष्य की वृत्ति चंचल हो जाती है । नाना प्रकार के रोगों से ग्रस्त होकर व्यक्ति विविध दुःखों का उपभोग करता है और शोकसागर में डूब जाता है । अर्थात् अनेक प्रकार की आधि-व्याधियों से ग्रस्त होकर दुःख ही पाता है । इसलिये उन्नति चाहने वाले स्वास्थ्यप्रिय व्यक्ति इस रजोगुणी भोजन का सेवन नहीं करते । उपर्युक्त रजोगुणी पदार्थ अभक्ष्य नहीं, किन्तु हानिकारक हैं । किसी अच्छे वैद्य के परामर्श से औषधरूप में इनका सेवन हो सकता है । भोजनरूप में प्रतिदिन सेवन करने योग्य ये रजोगुणी पदार्थ नहीं होते ।

 तामसिक भोजन

यातयामं गतरसं पूतिपर्युषितं च यत् ।

उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥गीता १७।१०॥

बहुत देर से बने हुए, नीरस, शुष्क, स्वादरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी, उच्छिष्ट (जूंठे) और बुद्धि को नष्ट करने करनेवाले भोजन तमोगुणप्रधान व्यक्ति को प्रिय होते हैं । जो अन्न गला सड़ा हुआ बहुत विलम्ब से पकाया हुआ, बासी, कृमि कीटों का खाया हुआ अथवा किसी का झूठा, अपवित्र किया हुआ, रसहीन तथा दुर्गन्धयुक्त माँस, मछली, अण्डे, प्याज, लहसुन, शलजम आदि तामसिक भोजन हैं । इनका सेवन नहीं करना चाहिये । ये अभक्ष्य मानकर सर्वथा त्याज्य हैं । जो इन तमोगुणी पदार्थों का सेवन करता है, वह अनेक प्रकार के रोगों में फंस जाता है । उसका स्वास्थ्य बिगड़ जाता है, आयु क्षीण हो जाती है, बुद्धि, मन तथा आत्मा इतने मलिन हो जाते हैं कि उनको अपने हिताहित और धर्माधर्म का भी ज्ञान और ध्यान नहीं रहता । अतःएव तमोगुणी व्यक्ति मलिन, आलसी, प्रमादी होकर पड़े रहते हैं । चोरी, व्यभिचार आदि अनाचारों का मूल ही तामसिक भोजन है (इन तमोगुणी भोजनों में भी मांस, अण्डा, मछली सबसे अधिक तमोगुणी है । वैसे तो सभी तमोगुणी भोजन हानिकारक होने से सर्वथा त्याज्य हैं किन्तु मांस, मछली आदि तो सर्वथा अभक्ष्य है । इनको खाना तो दूर, कभी भूल कर स्पर्श भी नहीं करना चाहिये ।)

संस्कृत में मांस का नाम आमिष है, जिसका अर्थ है – अमन्ति रोगिणो भवन्ति येन भक्षितेन तदामिषम् जिस पदार्थ के भक्षण से मनुष्य रोगी हो जाये, वह आमिष कहलाता है । आजकल सभी मानते हैं कि मांसाहारी लोगों को कैंसर, कोढ़, गर्मी के सभी रोग, दांतों का गिर जाना, मृगी, पागलपन, अन्धापन, बहरापन आदि भयंकर रोग लग जाते हैं । मांस मनुष्य को रोगी करने वाला अभक्ष्य पदार्थ है । मनुष्य को इनसे सदैव दूर रहना चाहिये । इस विचार के मानने वाले लोग योरुप में भी हुये हैं ।

अंग्रेजी भाषा के ख्यातिनाम साहित्यकार बर्नाड शॉ ने मांस खाना छोड़ दिया था । वे मांस के सहभोज में नहीं जाते थे । मांस भक्षण के पक्षपाती डाक्टरों ने उनसे कहा कि मांस नहीं खाओगे तो शीघ्र मर जावोगे । उन्होंने उत्तर दिया मुझे परीक्षण कर लेने दो, यदि मैं नहीं मरा तो तुम निरामिषभोजी बन जाओगे अर्थात् मांस खाना छोड़ दोगे । बर्नाड शॉ लगभग १०० वर्ष की आयु के होकर मरे और मरते समय तक स्वस्थ रहे । उन्होंने एक बार कहा था – “मेरी स्थिति बड़ी गम्भीर है, मुझसे कहा जाता है गोमांस खाओ, तुम जीवित रहोगे । मैंने अपने वसीयत (स्वीकार पत्र) लिख दी है कि मेरे मरने पर मेरी अर्थी के साथ विलाप करती हुई गाड़ियों की आवश्यकता नहीं । मेरे साथ बैल, भेड़ें, गायें, मुर्गे और मछलियां रहेंगी क्योंकि मैंने अपने साथी प्राणियों को खाने की अपेक्षा स्वयं का मरना अच्छा समझा है । हजरत नूह की किस्ती को छोड़कर यह दृश्य सबसे अधिक और महत्त्वपूर्ण होगा ।”

इसी प्रकार आर्य जगत् के प्रसिद्ध विद्वान् स्व० पं० गुरुदत्त एम. ए. विद्यार्थी एक बार रोगी हो गये थे । डाक्टरों ने परामर्श दिया कि गुरुदत्त जी मांस खा लें तो बच सकते हैं । पं० गुरुदत्त जी ने उत्तर दिया कि यदि मैं मांस खाने पर अमर हो जाऊं, पुनः मरना ही न पड़े तो विचार कर सकता हूँ । डाक्टर चुप हो गये ।