मनुष्य का आहार क्या है

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मनुष्य का आहार क्या है ?

सत्त्व, रज और तम की साम्यावस्था का नाम प्रकृति है । भोजन की भी तीन श्रेणियां हैं । प्रत्येक व्यक्ति अपने रुचि वा प्रवृत्ति के अनुसार भोजन करता है । श्रीकृष्ण जी महाराज ने गीता में कहा है –

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः

सभी मनुष्य अपनी प्रवृत्ति के अनुसार तीन प्रकार के भोजन को प्रिय मानकर भक्षण करते हैं । अर्थात् सात्त्विक वृत्ति के लोग सात्त्विक भोजन को श्रेष्ठ समझते हैं । राजसिक वृत्ति वालों को रजोगुणी भोजन रुचिकर होता है । और तमोगुणी व्यक्ति तामस भोजन की ओर भागते हैं । किन्तु सर्वश्रेष्ठ भोजन सात्त्विक भोजन होता है ।

सात्त्विक भोजन

आयुः – सत्त्व – बलारोग्य – सुख – प्रीति – विवर्धनाः ।

रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥

आयु, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रसीले, चिकने स्थिर, देर तक ठीक रहने वाले एवं हृदय के लिये हितकारी – ऐसा भोजन सात्त्विक जनों को प्रिय होता है । अर्थात् जिस भोजन के सेवन से आयु, बल, वीर्य, आरोग्य आदि की वृद्धि हो, जो सरस, चिकना, घृतादि से युक्त, चिरस्थायी और हृदय के लिये बल शक्ति देने वाला है, वह भोजन सात्त्विक है ।

सात्त्विक पदार्थ – गाय का दूध, घी, गेहूं, जौ, चावल, मूंग, मोठ, उत्तम फल, पत्तों के शाक, बथुवा आदि, काली तोरई, घीया (लौकी) आदि मधुर, शीतल, स्निग्ध सरस, शुद्ध पवित्र, शीघ्र पचने वाले तथा बल, ओज अवं कान्तिप्रद पदार्थ हैं वे सात्त्विक हैं । बुद्धिमान् व्यक्तियों का यही भोजन है ।

गोदुग्ध सर्वोत्तम भोजन है । वह बलदायक, आयुवर्द्धक, शीतल, कफ पित्त के विकारों को शान्त करता है । हृदय के लिये हितकारी है तथा रस और पाक में मधुर है । गोदुग्ध सात्त्विक भोजन के सभी गुणों से ओतप्रोत है ।

प्राकृतिक आहार दूध ही है । मनुष्य-जन्म के समय भगवान् ने मनुष्य के लिये माता के स्तनों में दूध का सुप्रबन्ध किया है । मनुष्य के शरीर और मस्तिष्क का यथोचित पालन पोषण करने के लिये पोषक तत्त्व जिन्हें आज का डाक्टर विटेमिन्स (vitamins) नाम देता है, सबसे अधिक और सर्वोत्कृष्ट रूप में दूध में ही पाये जाते हैं जो शरीर के प्रत्येक भाग अर्थात् रक्त, मांस और हड्डी को पृथक्-पृथक् शक्ति पहुंचाते हैं । मस्तिष्क अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार इस अन्तःकरण चतुष्टय को शुद्ध करके गोदुग्ध सब प्रकार का बल प्रदान करता है । इसमें ऐतिहासिक प्रमाण है –

महात्मा बुद्ध तप करते-करते सर्वथा कृशकाय हो गये थे । वे चलने फिरने में भी सर्वथा असमर्थ हो गये थे । उस समय अपने वन के इष्ट देवता की पूजार्थ गोदुग्ध से बनी खीर लेकर एक वैश्य देवी सुजाता नाम की वहां पहुंची जहां वट-वृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध निराश अवस्था में (मरणासन्न) बैठे थे । उस देवी ने उन्हें ही अपना देवता समझा और उसी की पूजार्थ वह खीर उसके चरणों में श्रृद्धापूर्वक उपस्थित कर दी । महात्मा बुद्ध बहुत भूखे थे, उन्होंने उस खीर को खा लिया । उससे उन्हें ज्योति मिली, दिव्य प्रकाश मिला । जिस तत्त्व की वे खोज में थे, उसके दर्शन हुए । निराशा आशा में बदल गई । शरीर और अन्तःकरण में विशेष उत्साह, स्फूर्ति हुई । यह उनके परम पद अथवा महात्मा पद की प्राप्ति की कथा वा गौरव गाथा है । सभी बौद्ध इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि सुजाता की खीर ने ही महात्मा बुद्ध को दिव्य दर्शन कराये । वह खीर उस देवी ने बड़ी श्रद्धा से बनाई थी । उनके घर पर एक हजार दुधारू गायें थीं । उन सबका दूध निकलवाकर वह १०० गायों को पिला देती थी और उन १०० गायों का दूध निकलवाकर १० गौवों को पिला देती थी और दस गौवों का दूध निकालकर १ गाय को पिला देती थी ।

इस गाय के दूध से खीर बनाकर वन के देवता की पूजार्थ ले जाती । उसका यह कार्यक्रम प्रतिदिन चलता था । इस प्रकार से श्रद्धापूर्वक बनायी हुई वह खीर महात्मा बुद्ध के अन्तःकरण में ज्ञान की ज्योति जगाने वाली बनी ।

छान्दोग्य उपनिषद् में लिखा है –

आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः ।

स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः ॥

आहार के शुद्ध होने पर अन्तःकरण मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार शुद्ध हो जाते हैं । अन्तःकरण की शुद्धि होने पर स्मरणशक्ति दृढ़ और स्थिर हो जाती है । स्मृति के दृढ़ होने से हृदय की सब गांठें खुल जाती हैं । अर्थात् जन्म-मरण के सब बन्धन ढीले हो जाते हैं । अविद्या, अन्धकार मिटकर मनुष्य दासता की सब श्रृंखलाओं से छुटकारा पाता है और परमपद मोक्ष की प्राप्ति का अधिकारी बनता है । निष्कर्ष यह निकला कि शुद्धाहार से मनुष्य के लोक और परलोक दोनों बनते हैं । योगिराज श्रीकृष्ण जी ने भी गीता में इसकी इस प्रकार पुष्टि की है –

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥६-१७॥

यथायोग्य आहार-विहार करने वाले, यथोचित कर्म करनेवाले, उचित मात्रा में निद्रा (सोने और जागने) का यह योग दुःखनाशक होता है । शुद्ध आहार-विहार करने वाले मनुष्य के सब दुःख दूर हो जाते हैं ।

इसी के अनुसार महात्मा बुद्ध को सुजाता की खीर से ज्ञान का प्रकाश मिला । दूसरी ओर इससे सर्वथा विपरीत हुआ, अर्थात् महात्मा बुद्ध को उनके एक भक्त ने सूवर का मांस खिला दिया, यही उनकी मृत्यु का कारण बना । उनको भयंकर अतिसार (दस्त) हुये । कुशीनगर में उन्हें यह शरीर छोड़ना पड़ा । मांस तो रोगों का घर है और रोग मृत्यु के अनुचर सेवक हैं । अतः गोदुग्ध की बनी सुजाता की खीर सात्त्विक भोजन ने ज्ञान और जीवन दिया तथा तमोगुणी भोजन मांस ने महात्मा बुद्ध को रोगी बनाकर मृत्यु के विकराल गाल में धकेल दिया । इसीलिये प्राचीनकाल से ही गोदुग्ध को सर्वोत्तम और पूर्ण भोजन मानते आये हैं ।

आयुर्वेद के ग्रन्थों में सात्त्विक आहार की बड़ी प्रशंसा की है –

आहारः प्रणितः सद्यो बलकृद् देहधारणः ।

स्मृत्यायुः-शक्ति वर्णौजः सत्त्वशोभाविवर्धनः ॥(भाव० ४-१)

भोजन से तत्काल ही शरीर का पोषण और धारण होता है, बल्कि वृद्धि होती है तथा स्मरणशक्ति आयु, सामर्थ्य, शरीर का वर्ण, कान्ति, उत्साह, धैर्य और शोभा बढ़ती है । आहार ही हमारा जीवन है । किन्तु सात्त्विक सर्वश्रेष्ठ है । और सात्त्विक आहार में गोदुग्ध तथा गोघृत सर्वप्रधान और पूर्ण भोजन है ।

धन्वन्तरीय निघन्टु में लिखा है –

पथ्यं रसायनं बल्यं हृद्यं मेध्यं गवां पयः ।

आयुष्यं पुंस्त्वकृद् वातरक्तविकारानुत् ॥१६४)

(सुवर्णादिः षष्ठो वर्यः)

गोदुग्ध पथ्य सब रोगों तथा सब अवस्थाओं (बचपन, युवा तथा वृद्धावस्था) में सेवन करने योग्य रसायन, आयुवर्द्धक, बलकारक, हृदय के लिये हितकारी, मेधा बुद्धि को बनाने वाला, पुंस्त्वशक्ति अर्थात् वीर्यवर्द्धक, वात तथा रक्तपित्त के विकारों रोगों को दूर करनेवाला है । गोदुग्ध को सद्यः शुक्रकरं पयः तत्काल वीर्य बलवर्द्धक लिखा है । इस प्रकार आयुर्वेद के सभी ग्रन्थों में गोदुग्ध के गुणों का बखान किया है और इसकी महिमा के गुण गाये हैं । अतः इस सर्वश्रेष्ठ और पूर्णभोजन का सभी मनुष्यों को सेवन करना चाहिये । यह सर्वश्रेष्ठ सात्त्विक आहार है । जैसे अपनी जननी माता का दूध बालक एक से दो वा अधिक से अधिक तीन वर्ष तक पीता रहता है । माता के दुग्ध से उस समय बच्चा जितना बढ़ता और बलवान् बनता है उतना यदि वह अपनी आयु के शेष भाग में ४० वर्ष की सम्पूर्णता की अवस्था तक भी बढ़ता रहे तो न जाने कितना लम्बा और कितना शक्तिशाली बन जाये । माता का दूध छोड़ने के पश्चात् लोग गौ, भैंस, बकरी आदि पशुवों के दूध को पीते हैं । यदि केवल गोदुग्ध का ही सेवन करें तो सर्वतोमुखी उन्नति हो । बल, लम्बाई, आयु आदि सब बढ़ जावें । जैसे स्वीडन, डैनमार्क, हालैण्ड आदि देशों में गाय का दूध मक्खन पर्याप्त मात्रा में होता है । इसलिये स्वीडन में २०० वर्ष में ५ इंच कद बढ़ा है और भारतीयों के भोजन में पचास वर्ष से गोदुग्ध आदि की न्यूनता होती जा रही है, अतः इन तीस वर्षों में २ इंच कद घट गया । महाभारत के समय भारत देश के वासियों को इच्छानुसार गाय का घृत वा दुग्ध खाने को मिलता था । अतः ३०० और ४०० वर्ष की दीर्घ आयु तक लोग स्वस्थ रहते हुए सुख भोगते थे । महर्षि व्यास की आयु ३०० वर्ष से अधिक थी । भीष्म पितामह १७६ वर्ष की आयु में एक महान् बलवान् योद्धा थे । कौरव पक्ष के मुख्य सेनापति थे, अर्थात् सबसे बलवान् थे । महाभारत में चार पीढ़ियां युवा थी और युद्ध में भाग ले रही थी । जैसे शान्तनु महाराज के भ्राता बाह्लीक अर्थात् भीष्म के चचा युद्ध में लड़ रहे थे । उनका पुत्र सोमदत्त तथा सोमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा और भूरिक्षवा – ये सब युद्ध में रत अपना युद्ध कौशल दिखा रहे थे । इस प्रकार चार पीढ़ियां युवा थीं । ६ फीट से कम लम्बाई किसी की नहीं थी । १०० वर्ष से पूर्व कोई नहीं मरता था । यह सब गोदुग्धादि सात्त्विक आहार का ही फल था । सत्यकाम जाबाल को ऋषियों की गायों की सेवा करते हुए तथा गोदुग्ध के सेवन से ही ब्रह्मज्ञान हुआ । गोदुग्ध की औषध मिश्रित खीर से ही महाराज दशरथ के चार पुत्ररत्न उत्पन्न हुए । इसीलिये गाय के दूध को अमृत कहा है । संसार में अमृत नाम की वस्तु कोई है तो वह गाय का घी-दूध ही है ।

गाय के घी के विषय में राजनिघन्टु में इस प्रकार लिखा है –

गव्यं हव्यतमं घृतं बहुगुणं भोग्यं भवेद्‍भाग्यतः ॥२०४॥

गौ का घी हव्यतम अर्थात् हवन करने के लिये सर्वश्रेष्ठ है और बहु-गुण युक्त है, यह बड़े सौभाग्यशाली मनुष्यों को ही खाने को मिलता है । यथार्थ में गोपालक ही शुद्ध गोघृत का सेवन कर सकते हैं । गाय के घी को अमृत के समान गुणकारी और रसायन माना है । सब घृतों में उत्तम है । सात्त्विक पदार्थों में सबसे अधिक गुणकारी है । इसी प्रकार गाय की दही, तक्र, छाछ आदि भी स्वास्थ्य रक्षा के लिये उत्तम हैं । दही, तक्र के सेवन से पाचनशक्ति यथोचित रूप में भोजन को पचाती है । इसके सेवन से पेट के सभी विकार दूर होकर उदर नीरोग हो जाता है । निघण्टुकार ने कितना सत्य लिखा है – न तक्रसेवी व्यथते कदाचित् – तक्र का सेवन करनेवाला कभी रोगी नहीं होता । गौ के घी, दूध, दही, तक्र – सभी अमृत तुल्य हैं । इसीलिये हमारे ऋषियों ने इसे माता कहा है । वेद भगवान् ने इस माता को आप्यायध्वमघ्न्या न मारने योग्य, पालन और उन्नत करने योग्य लिखा है अर्थात् गोमाता का वध वा हिंसा कभी नहीं करनी चाहिये क्योंकि यह सर्वश्रेष्ठ सात्त्विक भोजन के द्वारा संसार का पालन पोषण करती है । इसकी नाभि से अमृतस्य नाभिः अमृतरूपी दूध झरता है । यह सात्त्विक आहार का स्रोत है ।

राजसिक भोजन

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः ।

आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥ (गीता १७।९॥

कड़वे, खट्टे, नमकीन, अत्युष्ण, तीक्ष्ण, रूक्ष दाह, जलन उत्पन्न करने वाले नमक, मिर्च, मसाले, इमली, अचार आदि से युक्त चटपटे भोजन राजसिक हैं । इनके सेवन से मनुष्य की वृत्ति चंचल हो जाती है । नाना प्रकार के रोगों से ग्रस्त होकर व्यक्ति विविध दुःखों का उपभोग करता है और शोकसागर में डूब जाता है । अर्थात् अनेक प्रकार की आधि-व्याधियों से ग्रस्त होकर दुःख ही पाता है । इसलिये उन्नति चाहने वाले स्वास्थ्यप्रिय व्यक्ति इस रजोगुणी भोजन का सेवन नहीं करते । उपर्युक्त रजोगुणी पदार्थ अभक्ष्य नहीं, किन्तु हानिकारक हैं । किसी अच्छे वैद्य के परामर्श से औषधरूप में इनका सेवन हो सकता है । भोजनरूप में प्रतिदिन सेवन करने योग्य ये रजोगुणी पदार्थ नहीं होते ।

 तामसिक भोजन

यातयामं गतरसं पूतिपर्युषितं च यत् ।

उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥गीता १७।१०॥

बहुत देर से बने हुए, नीरस, शुष्क, स्वादरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी, उच्छिष्ट (जूंठे) और बुद्धि को नष्ट करने करनेवाले भोजन तमोगुणप्रधान व्यक्ति को प्रिय होते हैं । जो अन्न गला सड़ा हुआ बहुत विलम्ब से पकाया हुआ, बासी, कृमि कीटों का खाया हुआ अथवा किसी का झूठा, अपवित्र किया हुआ, रसहीन तथा दुर्गन्धयुक्त माँस, मछली, अण्डे, प्याज, लहसुन, शलजम आदि तामसिक भोजन हैं । इनका सेवन नहीं करना चाहिये । ये अभक्ष्य मानकर सर्वथा त्याज्य हैं । जो इन तमोगुणी पदार्थों का सेवन करता है, वह अनेक प्रकार के रोगों में फंस जाता है । उसका स्वास्थ्य बिगड़ जाता है, आयु क्षीण हो जाती है, बुद्धि, मन तथा आत्मा इतने मलिन हो जाते हैं कि उनको अपने हिताहित और धर्माधर्म का भी ज्ञान और ध्यान नहीं रहता । अतःएव तमोगुणी व्यक्ति मलिन, आलसी, प्रमादी होकर पड़े रहते हैं । चोरी, व्यभिचार आदि अनाचारों का मूल ही तामसिक भोजन है (इन तमोगुणी भोजनों में भी मांस, अण्डा, मछली सबसे अधिक तमोगुणी है । वैसे तो सभी तमोगुणी भोजन हानिकारक होने से सर्वथा त्याज्य हैं किन्तु मांस, मछली आदि तो सर्वथा अभक्ष्य है । इनको खाना तो दूर, कभी भूल कर स्पर्श भी नहीं करना चाहिये ।)

संस्कृत में मांस का नाम आमिष है, जिसका अर्थ है – अमन्ति रोगिणो भवन्ति येन भक्षितेन तदामिषम् जिस पदार्थ के भक्षण से मनुष्य रोगी हो जाये, वह आमिष कहलाता है । आजकल सभी मानते हैं कि मांसाहारी लोगों को कैंसर, कोढ़, गर्मी के सभी रोग, दांतों का गिर जाना, मृगी, पागलपन, अन्धापन, बहरापन आदि भयंकर रोग लग जाते हैं । मांस मनुष्य को रोगी करने वाला अभक्ष्य पदार्थ है । मनुष्य को इनसे सदैव दूर रहना चाहिये । इस विचार के मानने वाले लोग योरुप में भी हुये हैं ।

अंग्रेजी भाषा के ख्यातिनाम साहित्यकार बर्नाड शॉ ने मांस खाना छोड़ दिया था । वे मांस के सहभोज में नहीं जाते थे । मांस भक्षण के पक्षपाती डाक्टरों ने उनसे कहा कि मांस नहीं खाओगे तो शीघ्र मर जावोगे । उन्होंने उत्तर दिया मुझे परीक्षण कर लेने दो, यदि मैं नहीं मरा तो तुम निरामिषभोजी बन जाओगे अर्थात् मांस खाना छोड़ दोगे । बर्नाड शॉ लगभग १०० वर्ष की आयु के होकर मरे और मरते समय तक स्वस्थ रहे । उन्होंने एक बार कहा था – “मेरी स्थिति बड़ी गम्भीर है, मुझसे कहा जाता है गोमांस खाओ, तुम जीवित रहोगे । मैंने अपने वसीयत (स्वीकार पत्र) लिख दी है कि मेरे मरने पर मेरी अर्थी के साथ विलाप करती हुई गाड़ियों की आवश्यकता नहीं । मेरे साथ बैल, भेड़ें, गायें, मुर्गे और मछलियां रहेंगी क्योंकि मैंने अपने साथी प्राणियों को खाने की अपेक्षा स्वयं का मरना अच्छा समझा है । हजरत नूह की किस्ती को छोड़कर यह दृश्य सबसे अधिक और महत्त्वपूर्ण होगा ।”

इसी प्रकार आर्य जगत् के प्रसिद्ध विद्वान् स्व० पं० गुरुदत्त एम. ए. विद्यार्थी एक बार रोगी हो गये थे । डाक्टरों ने परामर्श दिया कि गुरुदत्त जी मांस खा लें तो बच सकते हैं । पं० गुरुदत्त जी ने उत्तर दिया कि यदि मैं मांस खाने पर अमर हो जाऊं, पुनः मरना ही न पड़े तो विचार कर सकता हूँ । डाक्टर चुप हो गये ।

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