मांसाहार ही रोगोत्पत्ति का कारण

food and disease

मांसाहार ही रोगोत्पत्ति का कारण

लेखक – स्वामी ओमानंदजी सरस्वती 

मांस में यूरिक एसिड नाम का एक विष सबसे अधिक मात्रा में होता है, इसको सभी डाक्टर मानते हैं । मांसाहारी का शरीर उस अधिक विष को भीतर से बाहर निकालने में असमर्थ होता है, इसलिये मनुष्य के शरीर में वह विष (यूरिक एसिड) इकट्ठा होता रहता है । क्योंकि शाकाहारी मनुष्यों की अपेक्षा वह यूरिक एसिड मांसाहारी के शरीर में तीन गुणा अधिक उत्पन्न होता है । यह इकट्ठा हुआ विष अनेक प्रकार के भयंकर रोगों को उत्पन्न करने वाला बनता है ।

मानचैस्टर के मैडिकल कालिज के प्रोफेसर हॉल ने अनुभव करके निम्नलिखित तालिका भिन्न-भिन्न पदार्थों में यूरिक एसिड के विषय में बनाई है ।

नाना प्रकार के मांस एक पौंड मास में यूरिक एसिड की मात्रा
मछली का मांस ८.१५ ग्रेन
बकरी वा भेड़ का मांस ०.७५ ग्रेन
बछड़े का मांस ८.१४ ग्रेन
सूवर का मांस ८.४८ ग्रेन
गोमांस (कबाब) १४.४५ ग्रेन
जिगर के मांस में १९.२६ ग्रेन
मीठी रोटी ७०.४३ ग्रेन

 

शाक आदि तथा अन्न में यूरिक एसिड

गेहूं की रोटी में बिल्कुल नहीं
बन्द गोभी बिल्कुल नहीं
फूल गोभी बिल्कुल नहीं
चावल बिल्कुल नहीं
दूध, दही, मक्खन, तक्र बिल्कुल नहीं
आलू, ०.१४ ग्रेन
मटर २.५४ ग्रेन

 

यह तो सत्य है कि यह यूरिक ऐसिड नाम का विष कुछ सीमा तक तो मनुष्य के शरीर से बाहर निकाला जा सकता है किन्तु दिन-रात में अर्थात् २४ घंटे में १० ग्रेन यूरिक ऐसिड से अधिक मात्रा मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट हो जाये तो वह सारी नहीं निकलती और रक्त के प्रवाह (दौरे) के साथ मिलकर शारीरिक पट्ठों (माँसपेशियों) में इकट्ठी हो जाती है । यूरिक ऐसिड के इकट्ठा होने से इस विष से रक्त (खून) अशुद्ध (गन्द) हो जाता है और खुजली, फोड़े, फुन्सी आदि अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं ।

यूरिक ऐसिड की अधिकता से पाचनशक्ति निर्बल हो जाती है, मलबद्धता (कब्ज) रहने लगती है । ऐसी अवस्था में यह विष अधिक हो जाने से दुर्बलता बढ़ती जाती है । इस दुर्बलता के कारण हुक्का, शराब आदि के सेवनार्थ प्रवृत्ति बढ़ती है और नशों के व्यसनों में फंसने से सर्वनाश ही हो जाता है । सभी नशे रोगों का तो घर ही हैं । नशे करने वाले शराब आदि में बहुत व्यय करते हैं, जिसकी पूर्ति के लिये समाज में रिश्वत, जूआ, चोरी, ठगी, भ्रष्टाचार आदि का सहारा लेते हैं । जो मांस खाता है, वह शराब पीता है तथा जो शराब पीता है वह मांस खाता है । इनका परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है, इसके लिए मुस्लिम बादशाहों का इतिहास सन्मुख है । इस्लाम में शराब हराम (सर्वथा वर्जित) है । किन्तु भारतीय मुगल बादशाहों में बाबर से लेकर अन्तिम बादशाह बहादुरशाह तक देख लें शायद ही कोई शराब से बचा होगा, क्योंकि वे मांसाहारी थे । मांस से शराब पीने की प्रवृत्ति बढ़ती है तथा दोनों से व्यभिचार फैलता है । इसी कारण मुगल बादशाहों के रणिवास (जनानखाने) में बेगमों, लौंडियों तथा दासियों की सेना (फौज की फौज) तथा भेड़ों के समान भारी रेवड़ रहता था । इससे यही सिद्ध होता है कि मांस और शराब सब पापों की जड़ है ।

मांस को पचाने के लिये भी शराब तक अनेक उत्तेजक पदार्थों, मसालों का सेवन करना पड़ता है । उसको स्वादिष्ट बनाने के लिये तथा उसकी सड़ांद (बदबू) को दबाने के लिये भी गर्म मसाले, सुगन्धित पदार्थ डाले जाते हैं जो अनेक रोगों की उत्पत्ति के कारण हैं । मांस बासी तथा सड़ा हुआ होता है, इसी कारण उसमें दुर्गन्ध होती है और दुर्गन्धयुक्त पदार्थ खाने के योग्य नहीं होता, वह अभक्ष्य है । जहां मांस पकाया जाता है वहां भयंकर दुर्गन्ध दूर तक फैल जाती है जो सर्वथा असह्य होती है । मांस खाने वालों के मुख से भी बहुत बुरी दुर्गन्ध आती रहती है ।

यहां तक कि उनके शरीर, पसीने और वस्त्रों से भी दुर्गन्ध आती रहती है जिसको सहन करना बहुत ही कठिन होता है । और दुर्गन्ध वाले सभी पदार्थ रोगों को उत्पन्न करते हैं, वे सर्वथा अभक्ष्य होते हैं । अच्छे भोजन की पहचान यही है कि उसे अग्नि में डालकर देखें । यदि उसमें सुगन्ध आये तो वह भक्ष्य और दुर्गन्ध आये तो वह सर्वथा अभक्ष्य है । आर्यों की यह भक्ष्याभक्ष्य भोजन के निर्णय की सर्वोत्तम प्राचीन पद्धति है । इसलिये जो भोजन आर्यों की पाकशाला में बनता था, उसकी पहले अग्नि में आहुतियां देकर परीक्षा की जाती थी । यही पंचमहायज्ञों में बलिवैश्वदेव यज्ञ का एक भाग है, जो प्रत्येक गृहस्थ को अनिवार्य रूप से करना पड़ता था । कोई भी दुर्गन्धयुक्त अग्नि पर पकाया जाये, वा पका हुवा अग्नि में डाला जाए तो उसकी दुर्गन्ध दूर तक फैलती और असह्य होती है । इसी प्रकार लाल मिर्च, तम्बाकू आदि पदार्थों को अग्नि पर डालने से पड़ौसियों तक को बड़ा कष्ट होता है, सबका जीना दूभर हो जाता है । इससे यही सिद्ध होता है कि मांसादि दुर्गन्धयुक्त तथा मिर्च, तम्बाकू आदि तीक्ष्ण तथा नशीले पदार्थ अभक्ष्य हैं, हेय हैं । इनका प्रयोग कभी नहीं करना चाहिये । मांस यदि रख दिया जाये तो वह बहुत शीघ्र सड़ने लगता है, उसमें असह्य दुर्गन्ध पैदा हो जाती है और यह दुर्गन्ध उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है । जो मांस पकाया जाता है वह शरीर के अन्दर जाकर और अधिक सड़कर अधिक दुर्गन्ध उत्पन्न करता है । इसी कारण मांसाहारियों के वस्त्र, मुख, शरीर, पसीना सभी में दुगन्ध आती है । जिन मोटरों, रेलगाड़ी के डब्बों में मांसाहारी यात्रा करते हैं, वहां निरामिषभोजी वयक्ति को यात्रा करना वा ठहरना बहुत ही कठिन होता है । जिस स्थान वा मकान में मांसाहारी रहते हैं, वहां भी दुर्गन्ध का कोई ठिकाना नहीं होता । मांस की दुकानों, होटलों में इसीलिये बड़ी दुर्गन्ध आती है और जहां मछली बिकती है वहां किसी भले मानस का ठहरना या जाना ही असम्भव सा हो जाता है । बहुत दूर से ही असह्य दुर्गन्ध आनी प्रारम्भ हो जाती है । इससे यही प्रत्यक्ष सिद्ध होता है कि मांस में भयंकर दुर्गन्ध होती है । अतः वह कभी भी तथा किसी को भी नहीं खाना चाहिए क्योंकि दुर्गन्ध रोगों का घर है ।

पशुओं का मांस जो खाया जाता है वह प्रायः रोगी, निर्बल, कम मूल्य वाले तथा अनुपयोगी पशुवों का होता है । क्योंकि जब तक पशु नाना प्रकार के कार्यों में हितकर, सहायक, उपयोगी होते हैं तब तक उनका मूल्य अधिक होता है, वे मांस के लिये नहीं बेचे जाते, उनकी हत्या नहीं होती । जब ऐसे पशु दुर्बल, रोगी और बूढ़े हो जाते हैं तथा कार्य के योग्य नहीं रहते, निकम्मे हो जाते हैं, तब कसाइयों के पास बेचे जाते हैं । क्योंकि उनका उपयोग न होने से उनका मूल्य थोड़ा होता है और उधर मांस की बहुत बड़ी मांग को पूर्ण करने के लिए विवश होते हैं और इसी में उनको आर्थिक लाभ भी रहता है । मूल्यवान, उपयोगी पशुवों की हत्या करने में आर्थिक लाभ की अपेक्षा हानि होती है, अतः रोगी पशु ही अधिक मारे जाते हैं । और ऐसे पशुओं को अला-बला रद्दी पदार्थ खिलाकर कसाई लोग मांस बढ़ाने के लिए मोटा करते हैं । उन्हें तो मांस की मांग की पूर्ति करनी होती है । इसलिये उपर्युक्त प्रकार के पशुओं के मांस में डाक्टरों के मतानुसार रोगों के कीटाणु होते हैं जो आंखों से प्रत्यक्ष दिखायी नहीं देते और वे बढ़ते जाते हैं और मांस को और अधिक गन्दा, गला, सड़ा हुआ बना देते हैं और पकाने से भी उसका प्रभाव दूर नहीं होता । जैसे बासी रोटी वा गले सड़े फलों एवं सब्जियों को हम चाहे कितना ही पकायें, उनको स्वास्थ्यप्रद नहीं बना सकते । सड़े हुये मांसादि में जो दुर्गन्ध उत्पन्न हो जाती है, वह इसकी साक्षी देती है कि इसमें विष है, यह खाने योग्य नहीं है । विषाक्त भोजन रोगों का मूल है, वह स्वास्थ्यप्रद कैसे हो सकता है ?

जिन पशुओं का मांस खाया जाता है, स्वयं उनमें भी क्षय, मृगी हैजा आदि अनेक रोग होते हैं, जिनके कारण मांसाहारी मनुष्य भी उन रोगों में फंस जाते हैं । अतः मांसाहार स्वास्थ्य का नाश करता तथा अनेक रोगों को उत्पन्न करता है ।

मांस का भोजन मनुष्य की जठराग्नि को निर्बल करके पाचनशक्ति बिगाड़ देता है । मुख में जो थूक वा लार होती है उसमें जो खारीपन (तेजाब) होता है, मांस का भोजन उस प्रभाव को बदल देता है । फिर मुख का रस जो भोजन के साथ मिलकर पाचन-क्रिया में सहायक होता है, उस में न्यूनता आ जाती है और भोजन ठीक न पचने के कारण मलबद्धता (कब्ज) हो जाती है । मल नहीं निकलता वा थोड़ा निकलता है, इसी कारण मांसाहारी प्रायः कब्ज के रोगी होते हैं ।

उनकी जीभ पर बहुत मल जमा रहता है । उनके दांत शीघ्र ही खराब हो जाते हैं । ९९ प्रतिशत मांसाहारियों के दांत युवावस्था में ही बिगड़ जाते हैं । उनको प्रायः सभी को पायोरिया रोग हो जाता है । अमेरिका आदि देशों में प्रायः अधिकतर लोगों के दांत बनावटी देखने में आते हैं । उनको अपने प्राकृतिक दांत उपर्युक्त रोगों के कारण निकलवाने पड़ते हैं । मांसाहारियों के पेशाब में तेजाब अधिक होता है । उनकी नब्ज बहुत शीघ्र-शीघ्र चलती है । वे हृदय के रोगों से ग्रस्त रहते हैं । प्रायः मांसाहारी लोग हृदय की गति के रुकने से अकाल मृत्यु के मुख में चले जाते हैं । मांसाहार में जो यूरिक एसिड का विष होता है वह बहुत अधिक मात्रा में शरीर के अन्दर जाता है, वही अधिकतर उपर्युक्त रोगों का कारण है ।

मांसाहारी लोगों को मस्तिष्क सम्बन्धी रोग अधिक होते हैं जैसे मृगी, पागलपन, अन्धापन, बहरापन इत्यादि । क्योंकि मांस तमोगुणी भोजन है । सात्त्विक आहार मस्तिष्क को बल देता है । मानसिक शक्तियों की दृष्टि से मांसाहारी स्वयं यह अनुभव करते हैं कि मांस का भोजन छोड़ देने से उनके मस्तिष्क बहुत शुद्ध होकर बुद्धि कुशाग्र हो जाती है ।

मृगी के रोगी, पागल, अन्धे तथा बहरे लोग मांसाहारी लोगों में (जैसे मुसलमान) अधिक संख्या में देखने में आते हैं । गोदुग्ध, गाय का मक्खन आदि सात्त्विक आहार अधिक देने से मृगी, पागलपन के रोगी अच्छे हो जाते हैं ।

न्यूयार्क में एक अनाथालय के प्रिंसीपल ने १३० बच्चों को वनस्पति आहार अर्थात् शाक, फल आदि पर ही रक्खा था । इससे बच्चों की मानसिक शक्तियों में इतना विशेष अन्तर आ गया कि उनकी किसी विषय को झटपट समझ लेने, किसी बात की तह तक पहुंचने और मस्तिष्क की शक्ति दिन प्रतिदिन अधिक होती चली गई जिससे वह प्रिंसीपल स्वयं बहुत विस्मित हुआ । यह भी प्रसिद्ध है कि यूनान के बहुत बड़े दार्शनिक विद्वान (फिलास्फर) मांस नहीं खाते थे, अतः वहां अरस्तू, लुकमान, सुकरात और अफलातून जैसे अनेक जगत् प्रसिद्ध विद्वान् हुये हैं ।

भारत के ऋषि महर्षि विद्वान् ब्राह्मण सभी उच्च कोटि के दार्शनिक विद्वान् हुये हैं जिनके चरणों में सारे संसार के लोग चरित्र आदि की शिक्षा ग्रहण करने के लिये आते थे । मनु जी महाराज लिखते हैं –

एतद्‍देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥

भारतवर्ष विद्या का भंडार था । हजारों वर्ष की दासता के कारण इसका बड़ा भारी पतन हुआ, किन्तु फिर भी गिरी हुई अवस्था में भी आध्यात्मिक दृष्टि से आज भी संसार का शिरोमणि है । इसका मुख्य कारण यहां का निरामिष सात्विक आहार है । सर आईजक न्यूटन ने सारी आयु (८३ वर्ष तक) मांस नहीं खाया । योरुप के लोगों को पृथिवी की आकर्षण-शक्ति का ज्ञान उन्हीं ने कराया । वे उच्चकोटि के विद्वान् थे । इस युग के आदर्श सुधारक, पूर्णयोगी, पूर्ण ज्ञानी महर्षि दयानन्द जी महाराज हुये हैं । वे सर्वथा निरामिषभोजी थे । गोकरुणानिधि आदि ग्रन्थों में उन्होंने इस मांस भक्षण रूपी महापाप की बहुत निन्दा की है । वे सर्वप्रथम ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अंग्रेजी राज्य में गोहत्या के विरुद्ध आवाज उठाई और उसे बन्द करने के लिये जनता के लाखों हस्ताक्षर करवाये किन्तु देश का दुर्भाग्य था उस समय भारत का वह कलंक धुल नहीं सका, जो आज तक भारतमाता के मुख को काला किये हुए है ।

मांसाहार रुधिर को गन्दा करता है । अतः मांसाहारी के रुधिर के भीतर रोगों से संघर्ष (मुकाबला) करने की शक्ति क्षीण (नष्ट) हो जाती है । अतः मांसाहारी पर रोग का बार-बार आक्रमण होता है । यह अनुभव-सिद्ध है कि यदि किसी का कोई अंग कट जाये अथवा काटा जाये तो मांसाहारी की तुलना में शाकाहारी बहुत शीघ्र अच्छा होता है । यह सत्यता भारतीय सेना के अस्पतालों में खूब हो चुकी है ।

रोगों का घर मांसाहार

हमारे भारतीय ऋषियों ने भोजन के विषय में बहुत की खोज तथा छानबीन की थी । इसीलिये घोर तमोगुणी भोजन सब रोगों का घर होता है । दुर्गन्धयुक्त सड़े हुए मांस से रोग ही उत्पन्न होंगे । मनुष्य का भोजन न होने से यह देर से पचता है, जठराग्नि पर व्यर्थ का भार डालता है । किस पदार्थ के पचने में कितना समय लगता है, इस की निम्न तालिका अनुभवी डाक्टरों ने दी है –

 

मांस पचने का समय
बकरे का मांस ३ घण्टे में
शोरबा ३ घण्टे में
मुर्गी का मांस ४ घण्टे में
मछली ४ घण्टे में
सूवर का मांस ५ घण्टे में
गोमांस ५ घण्टे में

अन्न, फल, दूध आदि के पचने का समय इस प्रकार है –

 

रोटी ३ घण्टे
आलू भुना हुआ २ घण्टे
जौ पका हुआ २ घण्टे
दूध धारोष्ण वा गर्म २ घण्टे
सेब पका हुआ १ घण्टा
चावल उबला हुआ १ घण्टा
मीठी रोटी ७०.४३ ग्रेन

इसलिये जौ, चावल, दूध के सात्त्विक भोजन को हमारे पूर्व-पुरुष अधिक महत्त्वपूर्ण समझकर खाते थे । वैसे सभी अन्न जो अपने प्रकृति के अनुकूल हों, मनुष्य को खाने चाहियें । यथार्थ में अन्न, फल, शाक, सब्जी, दूध, घी आदि पदार्थों पर ही मनुष्य का जीवन है । इन्हें बिना पकाये भी खाया-पीया जा सकता है । विज्ञान यह बतलाता है कि पकाने तथा ऊपर के नमक-मिर्च आदि डालने से पदार्थ की शक्ति न्यून हो जाती है । जो पदार्थ जिस रूप में प्रकृति से मिलता है, वह उसी रूप में खाया जाने से अधिक शक्ति प्रदान करता है तथा शीघ्र पचता है, किन्तु मांस बिना पकाये नहीं खाया जा सकता । इसीलिये सिंह, भेड़िया, कुत्ते और बिल्ली आदि को ही मांसभक्षी कहा जा सकता है जो अपने आप अपने शिकार को मारकर ताजा मांस खाते हैं । मनुष्य मांसाहारी नहीं, न इसे कोई मांसाहारी कहता है क्योंकि हम देखते हैं कि बिल्ली का बच्चा बिना सिखाये चूहे के ऊपर टूट पड़ता है । इसी प्रकार सिंह का शावक (बच्चा) भी अपने शिकार पर चढ़ाई करता है । किन्तु मानव का बच्चा फल उठाकर

भले ही मुख में देने का यत्न करता है किन्तु वह मांसाहारी जीवों के समान मांस के टुकड़े, रक्त, मच्छी, चूहा, कीट, पतंग किसी पदार्थ को उठाकर खाने की चेष्टा नहीं करता ।

यह सब सिद्ध करता है कि मांस मनुष्य का भोजन नहीं । मूक और असहाय जीव जन्तुओं पर निर्दय होना मनुष्य के लिये सर्वाधिक कलंक की बात है । सभ्य और शिक्षित मनुष्य में तो क्रूरता नहीं होनी चाहिए, उसके स्थान पर सौम्यता, सुशीलता एवं दयाभाव होना चाहिये ।

मुसलमानों की एक धार्मिक पुस्तक अबुलफजल के तीसरे दफतर में लिखा है कि अज्ञानी पुरुष अपने मन की मूढ़ता में ग्रसित हुआ अपने छुटकारे का मार्ग नहीं ढ़ूंढ़ता । ईश्वर उसके सृजनहार ने मनुष्य के लिये अनेक पदार्थ उत्पन्न कर दिये हैं । उन पर सन्तुष्ट न रहकर उसने अपने अन्तःकरण (पेट) को पशुओं का कब्रिस्तान बनाया है और अपना पेट भरने के लिये कितने ही जीवों को परलोक पहुंचाया है । यदि ईश्वर मेरा शरीर इतना बड़ा बनाता कि ये मांसभक्षण की हानि न समझने वाले सब लोग मेरे ही मांस को खाकर तृप्त हो सकते और किसी अन्य जीव को न मारते तो तेरा बड़ा कृतार्थ होता ।

इलमतिबइलाज की पुस्तक मखजन-उल अदविया में मांस के विषय में इस प्रकार व्यवस्था दी है –

रात्रि में मांस खाने से तुखमा जो हैजे से कुछ न्यून होता है, हो जाता है और खिलतै जो वात, पित्त और कफ कहलाते हैं उनमें दोष आ जाता है । मन काला अर्थात् मलिन हो जाता है । आंखों में धुंधलापन उत्पन्न हो जाता है । जहन कुन्द (बुद्धिमान्द्य) हो जाता है ।

क्योंकि कच्चे मांस पर भिनभिनाती हुई मक्खियां और सड़ने की दुर्गन्ध देखकर किसका मुख उसका स्वाद लेना चाहेगा ? जो वस्तु नेत्रों को भी अप्रिय है, अच्छी नहीं लगती, उसे जिह्वा कब स्वीकार कर सकती है ?

डाक्टर मिचलेट साहब अपनी एक भोजन की पुस्तक में लिखते हैं –

जीवन-मृत्यु और नित्य की हत्यायें जो केवल क्षणिक जीभ के स्वाद के लिये हम नित्य करते हैं तथा अन्य तामसिक और कठोर समस्यायें हमारे सन्मुख उपस्थित हैं । हाय, यह कैसी हृदयविदारक और उल्टी चाल है ? क्या हमें किसी ऐसे लोक की आशा करनी चाहिये, जहां पर ये क्षुद्र और भयंकर अत्याचार न हों ?

अमेरिका के प्रसिद्ध विद्वान् शिटडेन Ph.D, D.Sc, L.L.D ने एक प्रयोग किया । उन्होंने छः मस्तिष्क से कार्य करने वाले बुद्धिजीवी प्रोफेसर और डाक्टर तथा २० शारीरिक श्रम करने वालों को, जो सेना से छांटे गये थे, और एक यूनिवर्सिटी से आठ पहलवानों को लिया । उन सब पर भोजन संबन्धी प्रयोग किया गया । यह प्रयोग अक्तूबर १९०३ से आरम्भ हुआ और जून १९०४ तक चलता रहा । इसमें उन्हें थोड़ा प्राण-पोषक तत्त्व दिया जाता था, जिससे उनमें आरोग्यता और शक्ति बनी रहे । इस प्रयोग से पूर्व डाक्टरों का मत था कि प्रत्येक मनुष्य के लिये केवल १२० ग्राम (२ छटांक) प्राणपोषक तत्त्व की आवश्यकता है । जितना वह अधिक मिले, उतना अच्छा है । वे भूल करते हैं । प्रो० शिटडेन ने यह सिद्ध कर दिया कि २० सिपाहियों के लिये ५० ग्राम प्राणपोषक तत्त्व पर्याप्त था और आठ पहलवानों के लिये ५५ ग्राम बहुत होता था । प्रोफेसर महोदय ने स्वयं

३६ ग्राम अपने लिये प्रयोग किया, फिर भी उनकी शक्ति बढ़ती गई । प्रयोग में जो सिपाही लिये गये थे, उनकी खुराक पहले ७५ ओंस (२ सेर) थी जिसमें उन्हें २२ ओंस कसाई के यहां से मांस मिलता था । प्रयोग में मांस बिल्कुल बंद करके इनकी खुराक केवल ५१ ओंस कर दी गई । नौ मास वे उस भोजन पर रहे । यद्यपि वे लोग पहले भी आरोग्य स्वस्थ थे, तथापि नौ मांस तक बिना मांस का भोजन किये वे बहुत अधिक बलवान्, शक्तिशाली और अच्छी अवस्था में पाये गये । इस प्रयोग में डाइनमोमीटर से ज्ञात हुआ कि उनकी शक्ति पहले से डेढ़ गुणी हो गई थी और उन्हें कार्य में विशेष उत्साह रहता था । इस प्रयोग के पश्चात् कहने पर भी उन्होंने मांस नहीं खाया । सदैव के लिये मांस खाना छोड़ दिया ।

स्वर्गीय दादाभाई नौरोजी से उनकी ८६वीं वर्षगांठ के दिन एक पत्र प्रतिनिधि ने पूछा कि आप की आरोग्यता का क्या कारण है ? तो उन्होंने उत्तर दिया – मैं न मांस खाता हूं, न शराब पीता हूं, न मसाले खाता हूं । मैं सदा शुद्ध वायु सेवन करता हूं । यही मेरे स्वस्थ रहने के कारण हैं ।

अमेरिका के डाक्टर जानहार्न का मत है कि मांस बड़ी देर से पचता है । इसके पचने के समय कलेजे की धड़कन दो सौ के लगभग बढ़ जाती है, जिससे हृदयरोग हो जाता है और मेदा कमजोर हो जाता है । इसी कारण मांसाहारी लोग हृदय के रोगों के कारण ही अधिक संख्या में मरते हैं । हृदय के कमजोर होने से मांसाहारी भीरू वा कायर हो जाते हैं ।

“इंडियन मैडिकल जनरल” नामल पत्र में लिखा है कि मांस भक्षकों के मूत्र में तिगुणी यूरिक एसिड अधिक बढ़ जाती है । इसी प्रकार यूरिया भी दूनी मात्रा में आने लगती है । ये दोनों पदार्थ विष हैं । उनके गुर्दों कोअधिक कार्य करना पड़ता है, जिससे गठिया, वातरोग, अस्थि रोग और बलोदर रोग उत्पन्न होते हैं ।

डाक्टर अलैक्जेण्डर मार्सडन M.D. F.R.C.S. चेयरमैन आफ कैंसर हस्पताल, लंदन, लिखते हैं – इंग्लैंड में कैंसर के रोगी दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं । प्रतिवर्ष ३०,००० (तीस सहस्र) मनुष्य कैंसर के रोग से मरते हैं । मांसाहार जितनी तेजी से बढ़ रहा है, उससे भय है कि भविष्य की सन्तानों में से ढ़ाई करोड़ लोग इसकी भेंट होंगे । जिन देशों में मांस अधिक खाया जाता है, वहां के लोग रोगी अधिक होते हैं, उनकी कमाई का अधिकतर धन डाक्टरों के पास जाता है और डाक्टरों की फौज इसी कारण बढ़ती जा रही है ।

निम्नलिखित तालिका से इस पर प्रकाश पड़ता है –

देश एक मनुष्य पर एक वर्ष में एक मास का व्यय दस लाख मनुष्यों में डाक्टरों की संख्या
जर्मनी ६४ ओंस ३५५
फ्रांस ७७ ओंस ३८०
इंग्लैंड वा वेल्स ११८ ओंस ५७८
आस्ट्रेलिया २७६ ओंस ७८०

यह बहुत पहले की सूची है । अब तो डाक्टर इससे भी दुगुणे हो गये होंगे । हम भारत में देखते हैं कि शहरों और कस्बों में बाजार के बाजार डाक्टरों, वैद्य और हकीमों से भरे पड़े हैं ।

डाक्टरों ने खोज करके बताया है, निमोनियां, लकवा, रिडेरपेस्ट, शीतला, चेचक, कंठमाला, क्ष्य (तपेदिक) और अदीठ आदि विषैला फोड़ा इत्यादि भयंकर और प्राणनाशक रोग प्रायः गाय, बकरी और जलजन्तुओं का मांस खाने से होते हैं । सूवर के मांस में एक प्रकार के छोटे कीड़े कद्दूदाने होते हैं, उनके पेट में जाने से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं । बकरी के मांस में ट्रिक्नास्पिक्टस कीड़ा रहता है, जिससे भयंकर रोग ट्रिक्नोसेस हो जाता है । पठनी मछली के खाने से कुष्ठ रोग होता है । अतः समुद्र के तट पर रहने वाले अथवा मछली का मांस अधिक मात्रा में खाने वाले लोग अधिकतर कुष्ट रोग से पीड़ित देखे जाते हैं । मांस को देखकर यह कोई नहीं जानता कि यह रोगी पशु का मांस है वा स्वस्थ का । कसाई बूचड़ लोग पैसा कमाने के लिये रोगी पशुओं को काटते हैं क्योंकि उअका मांस ही सस्ता पड़ता है । रोगी पशुओं का मांस खाकर कोई स्वस्थ कैसे होगा, जबकि स्वस्थ पशुओं का मांस भी भयंकर रोग उत्पन्न करता है ।

इस विषय में कुछ अन्य डाक्टरों का अनुभव लिखता हूं –

“मेरा पच्चीस वर्ष से मछली और पक्षियों के मांसत्याग का अनुभव है । मेरे पिता की आयु इससे २० वर्ष बढ़ गई थी । मांस की अपेक्षा फल बहुत ही अधिक लाभ करते हैं ।” – डाक्टर वाल्टर हाडविन M.D.

“एक रोगी की गर्दन पर चार वर्ष से कैंसर थी । मुझे खोज करने पर उसके मांसाहारी होने का पता चला । उससे मांस छुड़ा दिया गया, अब वह स्वस्थ है ।” – डा० J.H.K. Lobb

“मांसाहार शक्ति प्रदान करने के बदले निर्बलता का शिकार बनाता और उससे नाइट्रोजिन्स पदार्थ उत्पन्न होता है । वह स्नायु पर विष का कार्य करता है ।”

– डा० सर टी. लोडर ब्रण्टन“मांसाहार की बढ़ती के साथ-साथ नासूर के दर्द की असाधारण वृद्धि होती है ।” – डा० विलियम राबर्ट

“नासूर के दर्द का होना मांसाहार का परिणाम है ।” – डा० सर जेम्स सीयर M.D. F.R.C.P.

“८५% गले की आंतों के दर्द का कारण मांसाहार है ।” – डा० ली ओनार्ड विलियम्स

“डेढ़ सौ वर्ष पहले से दांत और पायोरिया के रोगी अधिक बढ़ गये हैं । इसका कारण मांसाहार है ।” – डा० मिस्टर आर्थर अन्डरबुड

“१०५००० विद्यार्थियों में से ८९२५ विद्यार्थी दांत के रोगों के रोगी पाये गये, ये सब मांस के कारण है ।” – डा० मिस्टर थोमस जे० रोगन

इस युग के महापुरुष महर्षि दयानन्द जी शाकाहारी होकर ही महाशक्तिशाली बने थे । उन्होंने मांस भक्षण करने का कभी जीवन भर विचार भी नहीं किया । उनके बलशक्ति सम्बंधी अनेक घटनायें प्रसिद्ध हैं । जैसे जालन्धर में एक बार उन्होंने दो घोड़ों की बग्घी को एक हाथ से रोक दिया था, घोड़ों के पूरा बल लगाने पर भी बग्घी टस से मस नहीं हुई थी । एक बार एक रहट को हाथ से खैंचकर एक बड़े हौज को भर दिया था, उससे भी उनका व्यायाम पूरा नहीं हुआ । उसकी पूर्ति के लिये उनको आगे जाकर दौड़ लगानी पड़ी । महर्षि कई-कई कोस की दौड़ प्रतिदिन करते थे ।

एक बार उन्होंने कश्मीरी पहलवानों की उपस्थिति में अपने व्याख्यान में घोषणा की थी कि मेरी पचास वर्ष से अधिक आयु है, आप में ऐसा कौन शक्तिशाली पुरुष है जो मेरे इस खड़े हुए हाथ को झुका दे । इस पर किसी भी पहलवान में उठने का साहस नहीं हुआ ।

एक बार कुछ पहलवानों ने महर्षि जी का शक्तिपरीक्षण करना चाहा । महर्षि उनके विचार को भाँप गए । उस समय ऋषिवर स्नान करके आ रहे थे, उनके पास गीली कौपीन थी । उन्होंने कहा कि इसमें से एक बूंद जल निकाल दीजिये । किन्तु कोई भी पहलवान एक बूंद भी जल नहीं निकाल सका । तदन्तर महर्षि ने स्वयं उस कौपीन को एक हाथ से निचोड़ कर जल निकाल कर दिखा दिया ।

इस प्रकार उनकी शक्ति के अनेक उदाहरण हैं, जिन से सिद्ध है कि घी, दूध आदि सात्विक पदार्थों से ही बल बढ़ता है । महर्षि जी का भोजन सर्वथा विशुद्ध और सात्विक था । उन्होंने कभी मांस भक्षण का समर्थन नहीं किया, किन्तु सदा घोर विरोध ही करते रहे । उनके ग्रन्थों में मांस निषेध की अनेक स्थलों पर चर्चा है ।

जब ऋषिवर ने भारत भूमि पर जन्म लिया, उस समय इस देश की अवस्था बहुत शोचनीय थी । उसका वर्णन एक कवि ने इस प्रकार किया है –

छाया घोर अन्धकार मिथ्या पन्थन को,

शुद्ध बुद्ध ईश्वरीय ज्ञान बिसराया था ॥

वैदिक सभ्यता को अस्त व्यस्त करने के काज,

पश्चिमी कुसभ्यता ने रंग बिठलाया था ॥

गौ विधवा अनाथ त्राहि त्राहि करते थे,

धर्म और कर्म चौके चूल्हे में समाया था ॥

रक्षक नहीं कोई, भक्षक बने थे सभी,

ऐसे घोर संकट में दयानन्द आया था ॥

उपर्युक्त भयंकर समय में महर्षि दयानन्द ने क्रान्ति का बिगुल बजाया । उल्टी गंगा बहाकर दिखाई । यह अदम्य साहस, वीरता, बल, शक्ति ऋषिवर दयानन्द में कहां से आई ? वे ब्रह्मचारी थे । वीर्यं वै बलम् वीर्यवान् थे । इसीलिये, सुदृढ़, सुन्दर, सुगठित, सुडौल, स्वस्थ शरीर के स्वामी थे । उनकी ऊंचाई छः फीट नौ इञ्च थी । चलते समय भूमि भी कम्पायमान होती थी । सारे शरीर में कान्ति, तेज और विचित्र छवि थी । वे शुद्ध, सात्विक आहार और घोर तपस्या के कारण अखण्ड ब्रह्मचारी रहे । मांसाहारी कभी ब्रह्मचारी नहीं रह सकता । मांस खाने वाले के लिये ब्रह्मचर्यपालन वा वीर्यरक्षा असम्भव है । शुद्ध भोजन के बिना शुद्ध विचार नहीं हो सकते । शुद्ध विचार ही ब्रह्मचर्य का मुख्य साधन है । मांसाहारी देशों में ब्रह्मचारी के दर्शन दुर्लभ ही नहीं असम्भव हैं । व्यभिचार अनाचार के घर कहीं देखने हों तो मांसाहारी देश हैं । कुमार कुमारियों की अनुचित सन्तानों की वहां भरमार है । मांसाहारी देश सभी पापों की खान हैं । यह वहां होने वाले पापों के आंकड़े सिद्ध करते हैं । अप्राकृतिक मैथुन मांसाहारी जातियों तथा व्यक्तियों में ही विशेष रूप से पाया जाता है ।

आदि सृष्टि से भारत देश शुद्ध शाकाहारी सात्त्विक भोजन प्रधान रहा है । इसीलिये यह ऋषियों, देवताओं और ब्रह्मचारियों का देश माना जाता है । इस देश में –

अष्टाशीतिसहस्राणि ऋषीणामूर्ध्वरेतसां बभूवुः (महाभाष्य ४.१।७९)

इस देश में ८८ (अट्ठासी) हजार ऊर्ध्वरेता अखण्ड ब्रह्मचारी ऋषि

हुये हैं । ब्रह्मचारियों की परम्परा महाभारत युद्ध के कारण टूट गई थी । उसके पांच हजार वर्ष पश्चात् आदर्श अखण्ड ब्रह्मचारी महर्षि, देव दयानन्द ने उस टूटी हुई परम्परा को पुनः जोड़ दिया और उन्हीं की प्रेरणा से ब्रह्मचर्य के क्रियात्मक प्रचारार्थ अनेक गुरुकुलों की स्थापना हुई । ब्रह्मचर्यपूर्वक आर्षशिक्षा की गुरुकुल प्रणाली का पुनः प्रचलन ब्रह्मचारी दयानन्द की कृपा से पुनः सारे भारतवर्ष में हो गया जहां पर ब्रह्मचारी लोग सर्वथा और सर्वदा शुद्ध, सात्विक और निरामिष आहार करते हैं और यत्र तत्र सर्वत्र पुनः ब्रह्मचारियों के दर्शन होने लगे हैं ।

शुद्ध शाकाहारी ब्रह्मचारियों ने आज तक क्या क्या किया, उस पर चन्द्र कवि के इस भजन ने प्रकाश डाला है, जिसे आर्योपदेशक स्वामी नित्यानन्द जी आदि सभी सदा झूम झूमकर गाते हैं ।

भजन

ब्रह्मचर्य नष्ट कर डाला, हो गया देश मतवाला ॥टेक॥

ब्रह्मचारी हनुमान् वीर ने कितना बल दिखलाया था,

ब्रह्मचर्य के प्रताप से लंका को जाय जलाया था,

रावण के दल से अंगद का पैर टला नहीं टाला ॥१॥

शक्ति खाय उठे लक्ष्मण जी कैसा युद्ध मचाया था,

मेघनाद से शूरवीर को क्षण में मार गिराया था,

रामायण को पढ़ कर देखो, है इतिहास निराला ॥२॥

परशुराम के भी कुठार का जग मशहूर फिसाना था,

बाल ब्रह्मचारी भीष्म को जाने सभी जमाना था,

जग कांपे था उसके भय से, कभी पड़ न जाये कहीं पाला ॥३॥

डेढ़ अरब के मुकाबले में इकला वीर दहाड़ा था,

जो कोई उनके सन्मुख आया, पल में उसे पछाड़ा था,

जिसका शोर मचा दुनियां में ऋषि दयानन्द आला ॥४॥

चालीस मन के पत्थर को धर छाती पर तुड़वाता था,

लोहे की जंजीरों को वह टुकड़े तोड़ बगाता था,

राममूर्ति दो मोटर रोके है प्रत्यक्ष हवाला ॥५॥

ब्रह्मचर्य को धारो लोगो, यह चीज अनूठी है,

मुर्दे से जिन्दा करने की यह संजीवनी बूटी है,

चन्द्र कहे इस कमजोरी को दे दो देश निकाला ॥६॥

इस भजन में भारत के निरामिषभोजी ब्रह्मचारियों के उपक्रमों का वर्णन किया है ।

इसी प्रकार अन्य देशों के निवासी जो मांस नहीं खाते, वे मांसाहारियों से बलवान् और वीर होते हैं ।

लाल समुद्र तथा नहर स्वेज के तट पर रहने वाले भी मांस नहीं छूते, वे बड़े परिश्रमी और बली होते हैं । काबुल के पठान मेवा अधिक खाते हैं, इसी से वे पुष्ट और बलवान् होते हैं । इन उपर्युक्त बातों से सिद्ध होता है कि मांसाहारी लोगों की अपेक्षा शाकाहारी निरामिषभोजी अधिक परिश्रमी, अनथक और बलवान् होते हैं ।

मांसाहारी क्रोधी और भयानक अत्याचारी हो जाते हैं । पैशाचिक और निर्दयता की भावना उनमें घर कर जाती है तथा स्थिर हो जाती है । पर वे बलवान् नहीं होते । उनकी आत्मा कमजोर हो जाती है । शेर अरने (जंगली) भैंसे से मुकाबला नहीं कर सकता । अनेक शेरों के बीच में जंगली

भैंसा जल पी जाता है, वह उनसे नहीं डरता, किन्तु शेर जंगली भैंसे से डर कर दूर रहने का यत्न करते हैं । जितना भार (बोझ) एक बैल वा घोड़ा खींच ले जा सकता है, उतना भार दस शेर मिलकर भी नहीं खींच सकते । मथुरा के चौबों के मुकाबले पर कोई मांसाहारी नहीं आ सकता ।

भारत के प्रसिद्ध बली प्रो० राममूर्ति ने योरुप के पहलवानों को दाल चावल घी-दूध के बल पर विजय कर डाला था ।

भारत के पहलवान जो मांस खाते हैं, वे भी घी, दूध, बादामों का अधिक सेवन करते हैं । उनमें बल घी, दूध के कारण होता है । सारी दुनियां को जीतने वाला पहलवान गामा भी इसी प्रकार का था, वह रुस्तमे-जहां कहलाया । किन्तु भारतीय पहलवान भगवानदास जो नराणा बसी (दिल्ली राज्य) का रहने वाला था, के साथ गामा पहलवान की कुश्ती हुई, वे दोनों बराबर रहे । विश्वविजयी गामा पहलवान भगवानदास को नहीं जीत नहीं सका ।

मैंने भगवानदास पहलवान के अनेक बार दर्शन किये । वह सर्वथा निरामिषभोजी एवं शाकाहारी था । वह बहुत सुन्दर, स्वस्थ, सुदृढ़, सुडौल शरीर वाला छः फुटा बलिष्ठ पहलवान था । उसने पत्थर की चूना पीसने वाली चक्की में बैलों के स्थान पर स्वयं जुड़कर चूना पीसकर पक्की हवेली (मकान) बनाई थी, उनकी यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है । वह सारी आयु ब्रह्मचारी रहा तथा बहुत ही सदाचारी एवं सरल प्रकृति का पहलवान था । उसकी जोड़ के पहलवान भारत में दो-चार ही थे ।

भगवानदास पहलवान महाराजा कोल्हापुर के पहलवान थे, जैसे कि गामा महाराजा पटियाले के पहलवान थे । एक बार भगवानदास पहलवान हैदराबाद के पहलवान के साथ, जो कि मीर उस्मान अली नवाब का अपना निजी पहलवान था, कुश्ती लड़ने हैदराबाद गये । नवाब का पहलवान अली नाम से प्रसिद्ध था, जो गामा की जोड़ का ही था । नवाब की आज्ञा से कुश्ती की तिथि नियत हो गई और दो मास की तैयारी का समय दिया गया । पहलवान भगवानदास हिन्दूगोसाईं के बाग में रहता था, वहीं पर गोसाईं ने घी-दूध का प्रबन्ध कर दिया था, किन्तु जोर करने के लिये कोई जोड़ का पहलवान इन्हें वहां नहीं मिला, विवशता थी । इन्होंने गोसाईं जी से कहकर लोहे का झाम के समान एक बड़ा फावड़ा (कस्सी) तैयार करवाया । व्यायाम के पश्चात् बाग में उस कस्सी से तीन-चार बीघे भूमि खोद डालना यही प्रतिदिन का पहलवान भगवानदास का जोर था । दो मास बीत गये । दोनों पहलवान मैदान में आये । नवाब की देखरेख में कुश्ती आरम्भ हुई । पहले भारत में तोड़ की अर्थात् पूर्ण हार-जीत की कुश्ती होती थी । जब तक चित्त करके सारी पीठ और कमर भूमि पर न लगा दे और छाती आकाश को न दिखा दे, तब तक जीत नहीं मानी जाती थी, न ही कुश्ती बीच में छूटती थी । दो अढ़ाई घण्टे पहलवानों की जंगली भैंसों के समान कुश्ती हुई । बड़े पहलवान थे, बराबर की जोड़ी थी, हार-जीत सहज में नहीं होनी थी । अन्त में अली पहलवान जो प्रतिदिन दो बकरों का शोरबा खा जाता था, थकने लगा और अन्त में थककर, बेहोश होकर भूमि पर गिर पड़ा । पहलवान भगवानदास की जय हुई । वह सर्वथा शाकाहारी निरामिषभोजी था । मांसाहारियों पर यह शाकाहारियों की विजय थी ।

एक परीक्षण इस विषय में अंग्रेजों ने अपने राज्यकाल में बबीना छावनी में निरामिषभोजी पहलवानों पर किया था । उन्होंने ६० पहलवान शाकाहारी निरामिषभोजी और ६० मांसाहारी छांटे । तोल के अनुसार इनकी जोड़ मिलाई और एक दो मास की तैयारी का समय दे दिया । जब कुश्ती की निश्चित तिथि आ गई तो पहलवानों का दंगल हुआ । उन ६० जोड़ों में ५९ कुश्तियां शाकाहारी निरामिषभोजी पहलवान जीत गए तथा ६०वीं कुश्ती में वह जोड़ बराबर रही । ये जीतने वाले सभी पहलवान प्रायः हरयाणे के थे । इसने प्रत्यक्ष रूप से सिद्ध कर दिया कि निरामिषभोजी घी, दूध, अन्न, फल खाने वाले ही बलवान्, वीर और बहादुर होते हैं ।

अब वर्त्तमान समय की बात लीजिये । जो सबके सम्मुख है, वह हैं भारत केसरी हरयाणे के प्रसिद्ध, होनहार पहलवान मास्टर चन्दगीराम के विषय में । उसका विवरण संक्षेप में पढ़ें ।

भारत में हरयाणा प्रान्त अन्य प्रान्तों की अपेक्षा कुछ विशिष्टतायें रखता है । यहाँ के वीर निवासी इतिहास प्रसिद्ध वीर यौधेयों की सन्तान हैं । यौधेयों के पूर्वजों में मनु, पुरूरवा, ययाति, उशीनर और नृग आदि बड़े-बड़े राजा हुये हैं । इसी वंश में यौधेयों के चचा शिवि औशीनर के सुवीर, केकय और मद्रक – इन तीन पुत्रों से तीन गणराज्यों की स्थापना हुई । इसी प्रकार इनके चचेरे भाई सुव्रत के पुत्र अम्बष्ठ ने एक गणराज्य की स्थापना की । यदुवंश भी, जिसमें योगिराज श्रीकृष्ण एवं बलवान् बलराम हुये हैं, एक गण हैं तथा कौरव, पांडव भी पुरुवंशी हैं और यौधेय अनुवंशी हैं । पुरु, अनु और यदु तीनों सगे भाई चक्रवर्ती राजा ययाति की सन्तान हैं । वैसे तो सभी भारतवासी ऋषियों की सन्तान हैं । ऋषि, महर्षि सभी निरामिष, शुद्ध सात्त्विक आहार-विहार करने वाले थे । यौधेय उन्हीं ऋषियों की सन्तान हैं । वैवस्त मनु के वंश में उत्पन्न होने से यौधेयों का ऊंचा स्थान है । सप्तद्वीपों का स्वामी चक्रवर्ती सम्राट् महामना यौधेयों का प्रपितामह (परदादा) था ।

यौधेयों का भोजन सदा से गोदुग्ध, दही, घृत, फल अन्नादि सात्त्विक तथा पवित्र रहा है । वे अपने वंश चलाने वाले मनु जी महाराज की सब वेद विहित आज्ञाओं को मानते थे । वेदानुसार बनाये गये वैदिक विधान ग्रन्थ मनुस्मृति में लिखे अनुसार चलने में वे अपना तथा सारे विश्व का कल्याण समझते थे । वे मनुस्मृति के इस श्लोक को कैसे भूल सकते थे –

स्वमांसं परमांसेन यो वर्द्धयितुमिच्छति ।

अनभ्यचर्य पितृन् देवान् ततोऽन्यो नास्त्यपुण्यकृत् ॥

(मनु० ५।५२)

जो व्यक्ति केवल दूसरों के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है, उस जैसा कोई पापी है ही नहीं ।

इन्हीं विशिष्टताओं के कारण यौधेय वंश सहस्रों वर्षों तक भारतीय इतिहास में सूर्यवत् प्रकाशमान् रहा है । इस विषय में मेरी लिखी पुस्तक हरयाणे के वीर यौधेय में विस्तार से लिखा है । शतियां बीत गईं, अनेक राज्य इस आर्यभूमि की रंगस्थली पर अपना खेल खेलकर चले गये, किन्तु यौधेयों की सन्तान हरयाणा निवासियों में आज भी कुछ विशेषतायें शेष हैं । आहार-विहार में सरलता, सात्त्विकता इनमें कूट-कूट कर भरी है । अर्थात् अन्य प्रान्तों की अपेक्षा इनका आचार, विचार, आहार, व्यवहार शुद्ध सात्त्विक है । ये आदि सृष्टि से आज तक परम्परा से सर्वथा शाकाहारी निरामिषभोजी हैं । मांस को खाना तो दूर रहा, कभी इन्होंने छुवा भी नहीं ।

देशों में देश हरयाणा । जहाँ दूध दही का खाना ।

इनकी यह लोकोक्ति जगत्प्रसिद्ध है । जैन कवि सोमदेव सूरि ने भी अपने पुस्तक यशस्तिलकम् चम्पू में यौधेयों की खूब प्रशंसा की है ।

स यौधेय इति ख्यातो देशः क्षेत्रोऽस्ति भारते ।

देवश्रीस्पर्धया स्वर्गः स्रष्ट्रा सृष्ट इवापरः ॥४२॥

भारतदेश में प्रसिद्ध यह यौधेय देश अत्यधिक मनोहर होने के कारण ऐसा प्रतीत होता था मानो ब्रह्मा ने अथवा परमात्मा स्रष्टा ने दिव्य श्री से ईर्ष्या करके दूसरे स्वर्ग की रचना कर डाली है ।  महर्षि व्यास ने भी विवश होकर यौधेयों की राजधानी रोहतक के विषय में इसी प्रकार लिखा है –

ततो बहुधनं रम्यं गवाढ्यं धनधान्यवत् ।

कार्तिकेयस्य दयितं रोहितकमुपाद्रवत् ॥

नकुल ने बहुत धनधान्य से सम्पन्न, गौवों की बहुलता से युक्त तथा कार्तिकेय के अत्यन्त प्रिय रमणीय नगर रोहितक पर आक्रमण किया । हरयाणा के शूरवीर मस्त क्षत्रिय यौधेयों से उसका घोर संग्राम हुआ । यौधेयानां जयमन्त्रधराणाम् – जिन यौधेयों को सभी जयमन्त्रधर कहते थे, जो कभी किसी से पराजित नहीं होते थे, उन विजयी यौधेयों की प्रशंसा उनके शत्रुओं ने भी की है । इन्हीं से भयभीत होकर सिकन्दर की सेना ने व्यास नदी को पार नहीं किया । अपने पूर्वज यौधेयों के गुण आज इनकी सन्तान हरयाणावासियों में बहुत अधिक विद्यमान हैं । जैसे अल्हड़पन से युक्त वीरता और भोलेपन से मिश्रित उद्दण्डता आज भी इनके भीतर विद्यमान है । इन्हें प्रेम से वश में करना जितना सरल है, आंखें दिखाकर दबाना उतना ही कठिन है । अपने पूर्वज यौधेयों के समान युद्ध करना (लड़ना) इनका मुख्य कार्य है । यदि लड़ने को शत्रु न मिले तो परस्पर भी लड़ाई कर बैठते हैं, लड़ाई के अभ्यास को कभी नहीं छोड़ते ।

पाकिस्तान और चीन के युद्ध में इनकी वीरता की गाथा जगत्प्रसिद्ध है जिसकी चर्चा मैं पहले भी कर चुका हूँ । इन्हीं यौधेयों की सन्तान आर्य पहलवान श्री मास्टर चन्दगीराम जी भारत के सभी पहलवानों को हराकर दो बार भारत केसरी और दो बार हिन्द केसरी उपाधि प्राप्त कर चुके हैं । इसी प्रकार हरयाणे के रामधन आर्य पहलवान हरयाणे के पहलवानों को हराकर हरयाणा-केसरी उपाधि प्राप्त कर चुके हैं । ये दोनों पहलवान न मांस, न अण्डे, मच्छी आदि अभक्ष्य पदार्थों को छूते और न ही तम्बाकू, शराब आदि का ही सेवन करते हैं । आचार व्यवहार में शुद्ध सात्त्विक हैं । सर्वथा और जन्म से ही शुद्ध निरामिषभोजी (शाकाहारी) हैं ।

श्री मास्टर चन्दगीराम जी सब पहलवानों को हराकर दो बार (सन् १९६२ और १९६८ ई०) हिन्दकेसरी विजेता बने और दो बार (सन् १९६८ और १९६९ ई०) भारतकेसरी विजेता बने । इन्होंने बड़े बड़े भारी भरकम प्रसिद्ध मांसाहारी पहलवानों को पछाड़कर दर्शकों को आश्चर्य में डाल दिया । जैसे मेहरदीन पहलवान मांसाहारी है । दोनों बार भारतकेसरी की अन्तिम कुश्ती इसी के साथ मा० चन्दगीराम की हुई है और दोनों बार मा० चन्दगीराम शाकाहारी पहलवान जीता तथा मांसाहारी मेहरदीन हार गया । एक प्रकार से यह शाकाहारियों की मांसाहारियों से जीत थी । प्रथम बार जिस समय मेहरदीन के मुकाबले पर मा० चन्दगीराम जी अखाड़े में कुश्ती के लिये निकले तो उनके आगे बालक से लगते थे । किसी को भी यह आशा नहीं थी कि वे जीत जायेंगे ।

क्योंकि चन्दगीराम की अपेक्षा मेहरदीन में १६० पौंड भार अधिक है । ३५ मिनट तक घोर संघर्ष हुवा । इसमें मेहरदीन इतना थक गया कि अखाड़े में बेहोश होकर गिर पड़ा, स्वयं उठ भी नहीं सका, आर्य पहलवान रूपचन्द आदि ने उसे सहारा देकर उठाया । यदि मेहरदीन में मांस खाने का दोष नहीं होता तो चन्दगीराम उसे कभी भी नहीं हरा सकता था । मांसाहारी पहलवानों में यह दोष होता है कि वे पहले ५ वा १० मिनट खूब उछल कूद करते हैं, फिर १० मिनट के पीछे हांफने लगते हैं । उनका दम फूल जाता है और श्वास चढ़ जाते हैं । फिर उनको हराना वामहस्त का कार्य है । गोश्तखोर में दम नहीं होता, वह शाकाहारी पहलवान के आगे अधिक देर तक नहीं टिक सकता । इसी कारण सभी मांसाहारी पहलवान थककर पिट जाते हैं, मार खाते हैं । इसी मांसाहार का फल मेहरदीन को भोगना पड़ा । यह १९६८ में हुई कुश्ती की कहानी है । इस बार १९६९ ई० में दिल्ली में पुनः भारत केसरी दंगल हुवा और फिर अन्तिम कुश्ती मा० चन्दगीराम और मेहरदीन की हुई । यह कुश्ती मैंने प्रोफेसर शेरसिंह की प्रेरणा पर स्वयं देखी । मैं काशी जा रहा था । मेरे पास समय नहीं था, चलता हुआ कुछ देख चलूं, यह विचार कर वहां पहुँच गया । उस दिन बड़ी भारी भीड़ थी । कुश्ती देखने के लिए दिल्ली की जनता इस प्रकार उमड़ पड़ेगी, मुझे यह स्वप्न में भी ध्यान नहीं आ सकता था । वैसे यह दंगल २८ अप्रैल से चल रहा था । इस भारत केसरी दंगल में क्रमशः सुरजीतसिंह, भगवानसिंह, सुखवन्तसिंह तथा रुस्तमे अमृतसर बन्तासिंह को १० मिनट के भीतर अखाड़े से बाहर करने वाला हरयाणा का सिंहपुरुष अखाड़े में उतरा । उधर जिससे टक्कर हुई थी, वह उपविजेता मेहरदीन सम्मुख आया । दोनों में टक्कर होनी थी । बड़े-बड़े पहलवान कुश्ती जीतकर पुनः उसी प्रतियोगिता में भाग नहीं लेते । क्योंकि पुनः हार जाने पर सारे यश और कीर्ति के धूल में मिलने का भय रहता है । किन्तु कौन चतुर व्यक्ति हरयाणे के इस नरकेसरी की प्रशंसा किये बिना रह सकता है ? जो अपनी शक्ति और बल पर आत्मविश्वास करके पुनः भारतकेसरी के दंगल में कूद पड़ा और अपने द्वारा हराये हुये मेहरदीन से पुनः टकराने के लिये अखाड़े में उतर आया । इधर मा० चन्दगीराम को अपने भुजबल पर पूर्ण विश्वास था । उसने गतवर्ष इसी आधार पर समाचार पत्रों में एक बयान दिया था –

“भीमकाय मेहरदीन पर दाव कसना खतरे से खाली नहीं था । भारतकेसरी की उपाधि मैंने भले ही जीत ली, पर मेहरदीन के बल का मैं आज भी लोहा मानता हूँ । पर इतना स्पष्ट कर दूं कि अब वह मुझे अखाड़े में चित्त नहीं कर पायेगा । मैंने उसकी नस पकड़ ली है और अब मैं निडर होकर उससे कुश्ती लड़ सकता हूं और इन्हीं शब्दों के साथ मैं मेहरदीन को चुनौती देता हूं कि वह जब भी चाहे, जहां उसकी इच्छा हो, मुझ से फिर कुश्ती लड़ सकता है ।”

“मेरी जीत का रहस्य कोई छिपा नहीं, मैं शक्ति (स्टेमिना) और धैर्य के बल्पर ही अपने से अधिक शक्तिशाली और भारत के रुस्तमे-हिन्द मेहरदीन को पछाड़ने में सफल रहा ।”

“मुझे पूरा विश्वास था कि यदि दस मिनट तक मैं मेहरदीन के आक्रमण को विफल करने में सफल हो सका तो उसे निश्चय ही हरा दूंगा । आपने ही क्या, दुनियां ने देखा कि आरम्भ के १०-१२ मिनट तक मैं मेहरदीन पर कोई दाव लगाने का साहस नहीं कर सका । १३वें मिनट में मेहरदीन ने ज्यों ही पटे निकालने का यत्न किया, त्यों ही मैंने उसकी कलाई पकड़कर झटक दी । वह औंधे मुंह अखाड़े पर गिरता-गिरता बचा और दर्शकों ने दाद देकर (प्रशंसा करके) मेरे साहस को दूना कर दिया । कई बार जनेऊ के बल पर मैंने नीचे पड़े मेहरदीन को चित्त करने का यत्न किया । यदि आपने ध्यान किया हो तो मैं निरन्तर अपने चेहरे से मेहरदीन की स्टीलनुमा (फौलादी) गर्दन को रगड़ता रहा था ।”

“मैं हरयाणे के एक साधारण किसान परिवार का जाट हूं । स्वर्गीय चाचा सदाराम अपने समय के एक नामी (प्रसिद्ध) पहलवान थे । मरते समय उन्होंने मेरे पिता श्री माड़ूराम से कहा था – इसे दो मन घी दे दो, यही पहलवानी में वंश का नाम उज्ज्वल कर देगा ।”

“मैं किसी प्रकार से इण्टर पास कर आर्ट एण्ड क्राफ्ट में प्रशिक्षण ले मुढ़ाल गांव के सरकारी स्कूल में खेलों का इन्चार्ज मास्टर लग गया । मैं बचपन से उदास रहता था । प्रायः यही सोचा करता था कि संसार में निर्बल मनुष्य का जीवन व्यर्थ है ।”

उपर्युक्त कथन से यह प्रकट होता है कि अपने चचा की प्रेरणा से ये पहलवान बने । पहलवानी इनके घर में परम्परा से चली आती थी । वैसे तो तीस-चालीस वर्ष पूर्व हरयाणे के सभी युवक-युवती कुश्ती का अभ्यास करते थे । उसी प्रकार के संस्कार मास्टर जी के थे, अपने पुरुषार्थ से वे इतने बड़े निर्भीक नामी पहलवान बन गये । इस प्रकार एक वर्ष की पूर्ण तैयारी के बाद १९६९ में होने वाले दंगल में पुनः १२ मई के सायं समय भारत केसरी दंगल में मेहरदीन से आ भिड़े । आज भारत केसरी का निर्णायक दंगल था । इससे पूर्व इसी दिन हरयाणे के वीर युवक मुरारीलाल वर्मा “भारत कुमार” के उपाधि विजेता बने थे । यह भी पूर्णतया निरामिषभोजी विशुद्ध शाकाहारी हैं । यह भी सारे भारत के विद्यार्थी पहलवानों को जीतकर भारतकुमार बना था । अब विख्यात पहलवान दारासिंह की देखरेख में (निर्णायक के रूप में) भारत-केसरी उपाधि के लिये मल्ल्युद्ध प्रारम्भ हुआ । प्रारम्भ में ही मा० चन्दगीराम ने अपने फौलादी हाथों से मेहरदीन के हाथ को जकड़ लिया । मेहरदीन पहली पकड़ में ही घबरा गया । उसे अपने पराजय का आभास होने लगा । जैसे-तैसे टक्कर मारकर हाथ छुड़ाया किन्तु फिर दूसरी पकड़ में वह हरयाणे के इस शूरवीर के पंजे में फंस गया, वह सर्वथा निराश हो गया । विवश होकर केवल ७ मिनट ४५ सैकिण्ड में उससे छूट मांग ली अर्थात् बिना चित्त हुये उसने आगे लड़ने से निषेध कर दिया और अपनी पराजय स्वीकार कर भीगे चूहे के समान अखाड़े से बाहर हो गया । दर्शकों को भी ऐसा विश्वास नहीं था कि विशालकाय मेहरदीन हलके फुलके मा० चन्दगीराम से इतना घबरा कर बिना लड़े अपनी पराजय स्वीकार कर अखाड़ा छोड़ देगा । दर्शकों को तो भय था कि कभी चन्दगीराम हार न जाये । लोग उसकी जीत के लिये ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे । हार स्वीकार करने से पूर्व दारासिंह निर्णायक ने मेहरदीन को कुश्ती पूर्ण करने को कहा था, किन्तु वह तो शरीर, मन, आत्मा सबसे पराजित हो चुका था । उसके पराजय स्वीकार करने पर निर्णायक दारासिंह ने हजारों दर्शकों की उपस्थिति में मास्टर चन्दगीराम को विजेता घोषित कर दिया । फिर क्या था, तालियों की गड़गड़ाहट तथा मा० चन्दगीराम के जयघोषों से सारा क्रीडाक्षेत्र गूंज उठा । श्री विजयकुमार मल्होत्रा मुख्य कार्यकारी पार्षद ने दूसरी बार विजयी हुये मा० चन्दगीराम को भारतकेसरी के सम्मानजनक गुर्ज से अलंकृत किया । सारे भारत में इनके विजय की धूम मच गई । स्थान-स्थान पर स्वागत होने लगा । इनके अपने ग्राम सिसाय (जि० हिसार) में भी इनका बड़ा भारी स्वागत हुवा । उस स्वागत समारोह में मैं स्वयं भी गया और मा० चन्दगीराम को इनके दोबारा विजय पर स्वागत करते हुये बधाई दी । गत वर्ष प्रथम भारत केसरी विजय पर हरयाणे के आर्य महासम्मेलन पर सारे आर्यजगत् की ओर से भारतकेसरी मा० चन्दगीराम तथा हरयाणाकेसरी आर्य पहलवान रामधन – इन दोनों का रोहतक में स्वागत किया था ।

इस प्रकार मा० चन्दगीराम की देशव्यापी ख्याति, कुश्ती कला की जानकारी, लम्बा श्वास वा दम, उनकी हाथों की फौलादी पकड़ से देशवासियों के हृदयों में नवीन आशाओं का संचार होने लगा है । पुनः मल्ल्युद्ध (कुश्ती) के प्रति श्रद्धा और प्रेम उत्पन्न हो गया है ।

मा० चन्दगीराम का विजय उनका अपना विजय नहीं है, यह शाकाहारियों का मांसाहारियों पर विजय है । यह ब्रह्मचर्य का व्यभिचार पर विजय है क्योंकि मा० चन्दगीराम सात मास के पश्चात् अब अपने घर पर गया था, वह गृहस्थ होते हुये भी ब्रह्मचारी है । अगले दिन प्रातःकाल पुनः दिल्ली को चल दिया । इस श्रेष्ठ आर्ययुवक हरयाणे के नरपुंगव की जीत आबाल वृद्ध वनिता सभी अपनी जीत समझते हैं । मा० चन्दगीराम को यह सदाचार की प्रेरणा आर्यसमाज की शिक्षा महर्षि दयानन्द के पवित्र जीवन से ही मिली है । वे इसे अपने भाषणों में बार-बार स्वयं कहते रहते हैं । इससे बढ़कर और क्या उदाहरण हो सकता है जिस से यह सिद्ध होता है कि घी-दूध ही बल का भण्डार है । घृतं वै बलम् – घृत ही बल है, मांस नहीं । मांस से बल बढ़ता है, इस भ्रम को मा० चन्दगीराम ने सर्वथा दूर कर दिया है । एक बार हरयाणे के पहलवानों को एक मुस्लिम पहलवान कटड़े ने जो झज्जर का था, छुट्टी दे दी । फिर ब्रह्मचारी बदनसिंह आर्य पहलवान निस्तौली निवासी से इसकी कुश्ती झज्जर में ही हुई । उस कसाई पहलवान का शरीर बड़ा भारी भरकम था और ब्र० बदनसिंह चन्दगीराम के समान हलका फुलका था । उस कसाई पहलवान के पिता ने कहा इस बालक को मरवाने के लिये क्यों ले आये ? शुभराम भदानी वाले पहलवान को लाओ, उसकी और इसकी जोड़ है । किन्तु भदानियां शुभराम पहलवान कुश्ती लड़ना नहीं चाहता था । उसके पिता जी ही पहलवान बदनसिंह को कुश्ती के लिये निस्तौली से लाये थे । कुश्ती हुई । ब्र० बदनसिंह ने पहले तो बचाव किया । कसाई कट्टा पहलवान पहले तो खूब उछलता-कूदता रहा, फिर १५-२० मिनट के पीछे उसका दम फूलने लगा, जैसे कि मांसाहारियों का दम फूलता ही है । फिर क्या था, ब्र० बदनसिंह का उत्साह बढ़ने लगा और अन्त में भीमकाय कसाई पहलवान को चारों खाने चित्त मारा । ब्र० बदनसिंह को कसाई पहलवान के पिता ने स्वयं पगड़ी दी और छाती से लगाया ।

इस प्रकार की सैंकड़ों घटनायें और लिखी जा सकती हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि मांसाहारी बली वा शक्तिशाली नहीं होता, और न ही मांस से बल मिलता है । किन्तु घी दूध ही बल और शक्ति प्रदान करते हैं ।

2 thoughts on “मांसाहार ही रोगोत्पत्ति का कारण”

  1. bhut sudar adbhut likha hai bhut bariki se sab bhut aacha likha hai padhke bhut gyan mila bhut bhut dhanyewad,,,,vande maatram
    08805656878

  2. mansahar se rog utpatti bahut hi sar garbhit article hai.aajkal to budh dharam wale bhi mansahari hain.mansa harionke sath reh kar aryon ka bhi bura haal ho gya hai. dakshin bharti hindu machli ko jaltori keh kar kha jate hain.Rishi daya nand ne likha hai rakshash log mansa hai hote the aaj kal adhiktar log khan pan ki parwah nahi karte. Jab tak Gyan ki Prapti nahi hoti satsang aapt vidwanon ka nahi milta ye durdasha hoti rahegi
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