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प्रारम्भ ही मिथ्या से – पंडित चमूपति जी

  प्रारम्भ ही मिथ्या से
वर्तमान कुरआन का प्रारम्भ बिस्मिल्लाह से होता है I सूरते  तौबा  के अतिरिक्त और सभी  सूरतों का प्रारम्भ में यह मंगलाचरण  के रूप में पाया जाता है ई यही नहीं इस पवित्र वाक्य का पाठ मुसलामानों के अन्य कार्यों के प्रारम्भ करना अनिवार्य माना गया है ई
ऋषि दयानंद  को इस कलमे ( वाक्य ) पर दो आपत्तियां है I प्रथम यह कुरआन के प्रारम्भ में यह कलमा परमात्मा की ओर से प्रेषित ( इल्हाम ) नहीं हुआ है I दूसरा यह की मुसलमान लोग कुछ ऐसे कार्यों में भी इसका पाठ करते है जो इस पवित्र वाक्य के गौरव के अधिकार क्षेत्र नहीं I
पहेली शंका कुरआन की वररण शैली के ओर ईश्वरी सन्देश के उतरने से सम्बन्ध रखती है I हदीसों ( इस्लाम की प्रामाणिक शुर्ति ग्रन्थ  ) में वरनन है कि सर्वप्रथम सूरत ” अलक” कि प्रथम पांच आयतें परमात्मा कि ओर से उतरी है I हज़रात जिब्रील ( ईश्वरीय दूत ) ने हज़रात मुहम्मद से कहा
” इकरअ बिइसमे रब्बिका अल्लज़ी खलका “
 पद ! अपने परमात्मा के नाम सहित जिसने उत्पन्न किया I इन आयतो के पश्चात सूरते मुजम्मिल के उतरने की साक्षी है I  इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ
                       ” या अय्युहल मुजम्मिलो ‘
                          ये वस्त्रों में लिपटे हुए !
 ये दोनों आयतें हज़रात मुहम्मद को सम्बोधित की गयी है I  मुसलमान ऐसे सम्बोधन को या हज़रात मुहम्मद के लिए विशेष भक्तो के लिए सामान्यतया नियत करते हैं I  जब किसी आयत का मुसलामानों से पाठ ( किरयात ) करना हो तो वह इकरअ ( पद / रीड ) या कुन ( कह ) भूमिका इस आयत के प्रारम्भ में ईश्वरीय सन्देश के इक भाग के रूप में वररन किया जाता है I यह है इल्हाम ईश्वरीय
सन्देश कुरआन की वररणशैली जिस से इल्हाम प्रारम्भ हुआ था I
अब यदि अल्लाह
को कुरआन के इल्हाम का प्रारम्भ बिस्मिल्लह से करना होता तो सूरते अलक के प्रारम्भ में हज़रात जिब्रील ने बिस्मिल्लाह पढ़ीं होती या इकरअ के पश्चात बीस्मेरब्बिका
के स्थान पर बिस्मिल्लाहिर्रहमनिर्हिम  कहा होता I
मुजिहुल कुरआन में सूरत फातिहा की टिप्पणी पर जो वर्तमान कुरआन की पहली सूरत है लिखा है –
 यह सूरत अल्लाह साहब ने भक्तो की वाणी से कहलवाई है की इस प्रकार कहा करें I
यदि यह सूरत होती तो इसके पूर्व कुल ( कह ) या इकरअ ( पढ़ ) जरूर पड़ा जाता I
 कुरआन की कई सूरतों का प्रारम्भ स्वयं कुरआन की विशेषता से हुआ है I  अतएव सूरते बकर के प्रारम्भ में जो कुरआन की दूसरी सूरत प्रारम्भ में ही कहा –
 ‘ जालिकल किटबोला रेबाफ़ीहे , हुडान लिलमुक्तकिन “
 यह पुस्तक है इसमें कुछ संदेह ( की सम्भावना ) नहीं ! आदेश करती परेहजगारों ( बुरियो से बचने वालों ) को I  तफ़सीरे इक्तकिन ( कुरआन भाष्य ) में वर्णन है की इब्ने मसूद अपने कुरआन में सूरते फातिहा को सम्मिलित नहीं करते थे I  उनकी कुरआन के प्रति का प्रारम्भ सूरते बकर से होता था I वे हज़रात मुहम्मद के विश्वस्त मित्रोँ ( सहाबा  ) में से थे I कुरआन की भूमिका के रूप में यह आयत आयत जिसका हमने ऊपर उल्लेख किया है ! समुचित है l  ऋषि दयानंद ने कुरआन के प्रारम्भ के लिए यदि इसे इल्हामी ( ईश्वरीय रचना ) माना जाए यह वाक्य प्रस्तावित किये है l यह प्रस्ताव कुरआन की अपनी वर्णन शैली  के सर्वथा अनुकूल है ओर अब्ने मसूद इस शैली को स्वीकार करते थे l मौलाना मुहम्मद अली अपने अंग्रेजी कुरआन अनुवाद में पृष्ठ ८२ पर लिखते हैं –
कुछ लोगो का विचार था की बिस्मिल्लाह जिससे कुरआन की प्रत्येक सूरत प्रारम्भ हुई हैं , प्रारम्भिक वाक्य ( कलमा ) के रूप में बढ़ाया गया हैं यह इस सूरत का भाग नहीं l
इक ओर बात जो बिस्मिल्ला के कुरआन शरीफ में बहार से बढ़ाने का समर्थन करती हैं वह हैं , प्रारंभिक वाक्य ( कलमा ) के रूप में बढ़ाया गया यह इस सूरत का भाग नहीं l
 इक ओर बात जो बिस्मिल्ला के कुरआन शरीफ में बहार से बढ़ाने का समर्थन करती हैं वह हैं सूरते तौबा  के प्रारम्भ में कालमाए तसीमआ ( बिस्मिल्ला ) का वर्णन
 ना करना I  वहां लिखने से छूट गया हैं I यह ना लिखा जाना पढ्ने वालों  ( कारियों ) में इस विवाद का भी विषय बना हैं की सूरते इंफाल ओर सूरते तौबा जिनके मध्य बिस्मिल्ला  निरस्त हैं दो पृथक सूरते हैं या इक ही सूरत के दो भाग – अनुमान यह होता हैं की बिस्मिल्ला कुरआन का भाग नहीं हैं I लेखको की ओर से पुण्य के रूप ( शुभ वचन ) भूमिका के रूप जोड़ दिया गया हैं और बाद में उसे भी ईश्वरीय सन्देश ( इल्हाम ) का ही भाग ही समझ लिया गया हैं I
यही दशा सूरते फातिहा की हैं यह हैं तो मुसलमानों के पाठ के लिए , परन्तु इसके प्रारम्भ में कुन  ( कह ) इकरअ ( पड़ ) अंकित नहीं हैं I और इसे भी इब्ने मसूद ने अपनी पाण्डुलिपि में निरस्त कर दिया था I
महर्षि दयानंद की शंका इक ऐतिहासिक शंका हैं यदि बिस्मिल्ला और सूरते फातिहा पीछे से जोड़े गए हैं तो शेष पुस्तक की शुद्धता का क्या विश्वास ? यदि बिस्मिल्ला ही अशुद्ध तो इंशा व इम्ला ( अन्य लिखने पढ़ने ) का तो फिर विश्वास ही कैसे किया जाए ?
कुछ उत्तर देने वालों ने इस शंका का इल्जामी ( प्रतिपक्षी ) उत्तर वेद की शैली से दिया हैं की वहां भी मंत्रो के मंत्र और सूक्तों के सूक्त परमात्मा की स्तुति में आये हैं ,और उनके प्रारम्भ में कोई भूमिका रूप में ईश्वरीय सन्देश नहीं आया I
वेद ज्ञान मौखिक नहीं – वेद का ईश्वरीय सन्देश आध्यत्मिक , मानसिक हैं मौखिक नही I ऋषियों के ह्रदय की दशा उस ईश्वरीय ज्ञान के समय प्रार्थी की दशा थी I उन्हें कुल ( कह ) कहने की क्या आवश्यकता थी I वेद में तो सर्वत्र यही शैली बरती गयी हैं I बाद के वेदपाठी वर्णनशैली से भूमिकागत भाव ग्रहण करते हैं | यही नहीं इस शैली के परिपालन में संस्कृत साहित्य में अब तक यह नियम बरता जाता हैं की बोलने वाले व सुननेवाले का नाम लिखते नहीं | पाठक भाषा के अर्थों से अनुमान लगता हैं | कुरआन में भूमिका रूप में ऐसे शब्द स्पष्टतया लिखे गए हैं क्योंकी कुरआन कुरआन का ईश्वरीय सन्देश मौखिक हैं जिबरालपाठ करतै हैं और हज़रात मुहम्मद करते हैं इसमें ” कह ” कहना होता हैं | संभव हैं कोई मौलाना ( इस्लामी विद्वान ) इस बाहा प्रवेश को उदाहरण निश्चिय करके यह कहे की अन्य स्थानों पर इस उदाहरण   की भांति ऐसी ही भूमिका स्वयं कल्पित करनी चाहिए | निवेदन यह हैं की उदहारण पुस्तक के प्रारम्भ में देना चाहिए था ना की आगे चलकर उदाहरण और वह बाद में लिखा जाए यह पुस्तक लेखन के नियमों के विपरीत हैं | महर्षि दयानंद  की दूसरी शंका बिस्मिल्ला
के सामान्य प्रयोग पर हैं | महर्षि ने ऐसे तीन कामों का नाम लिया हैं जो प्रत्येक जाती व प्रत्येकमत में निंदनीय हैं | कुरआन में मांसादि का विधान हैं और बलि का आदेश हैं |  इस पर हम अपनी सम्मति
ना देकर शेख खुदा बक्श M . A . प्रोफ़ेसर कलकत्ता विश्वविद्यालय के इक लेख से जो उन्होंने इद्ज्जुहा के अवसर पर कलकत्ता स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित करायी थी | निनलिखित हैं उदाहरण प्रस्तुत किये हैं देते हैं –
खुदा बक्श जी का मत – ” सचमुच – सचमुच बड़ा खुदा व दयालु व दया करने वाला हैं वह खुदा आज खून की नदियों का चीखते हुए जानवरों की असहा व अवर्णनीय पीड़ा का इच्छुक नहीं प्रायश्चित ….? वास्तविक प्रायश्चित वह हैं जो मनुष्य के अपने ह्रदय में होता हैं | सभी प्राणियों की और अपनी भावना परवर्तित कर दी जाए | भविष्य के काल का धर्म प्रायश्चित के इस कठोर व निर्दयी प्रकार को त्याग देगा | ताकि वह इन तीनों पर भी भी दयापूर्ण घृणा से दृष्टिपात करें | जब बलि का अर्थ अपने मन के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु अन्य सत्ता  का बलिदान हैं  ”  माडर्न रिव्यु  से अनुवादित ,
दयालु व दया करने वाले परमात्मा का नाम लेने का स्वाभाविक परिणाम यह होना चाहिए था की हम वाणी हैं जीवों पर दया का व्यवहार करते परन्तु किया हमने इसके सर्वथा विरोधी कार्य…..  |
मुजिहूल कुरआन में लिखा हैं –
जब किसी जानवर का वध करें उस पर बिस्मिल्ला व अल्लाहो अकबर पढ़ लिया करें कुरआन में जहाँ कहीं हलाल ( वैध )  व हराम ( अवैध ) का वर्णन आया हैं वहां हलाल ( वैध )  उस वध को निश्चित किया हैं जिस पर अल्लाह का नाम पढ़ा गया हो  |कलमा पवित्र हैं दयापूर्ण हैं परन्तु उसका प्रयोग उसके आशय के सर्वथा विपरीत हैं |
( २ ) इस्लाम में बहु विवाह की आज्ञा तो हैं ही पत्नियों के अतिरिक्त रखैलों की भी परम्परा हैं लिखा हैं – वल्लज़ीन लिफारुजिहिम हफीजुन इल्ला अललजुहुम औ मामलकात ईमानु हुम | सूरतुल
मोमिनन आयत ऐन और जो  रक्षा करते हैं अपने गुप्त अंगों की , परन्तु नहीं अपनी पत्नियों व रखैलों से | तफ़सीरे जलालेन सूरते बकर आयत २२३ निसाउक्कम हर सुल्ल्कुम फयातु हरसकम
अन्ना शीअतुम तुम्हारी पत्नियां तुम्हारी खेतिया हैं जाओ जिस प्रकार अपनी खेती की और जिस प्रकार चाहो | तफ़सीरे जलालेन  में इसकी व्याख्या करते हुए लिखा हैं – जिस बिस्मिल्ला कहकर – सम्भोग करो जिस प्रकार चाहो उठकर बैठकर लेटकर उलटे सीधे जिस प्रकार चाहो सम्भोग के समय बिस्मिल्ला कहलिया करो |                                                                                          बिस्मिल्ला का सम्बन्ध बहु विवाह से हो रखैलों की वैधता से हो | इस प्रकार के सम्भोग से यह स्वामी दयानंद को बुरा लगता हैं
( ३ ) सूरते आल इमरान आयत २७ ल यक्तखिजुमोमिंउनकफ़ीरिणा ओलियाया मिन्दुनिल मोमिना इल्ला अं तख़्तकु मीनहुम तुकतुन
ना बनायें मुसलमान काफिरों को अपना मित्र केवल मुसलमानोंको ही अपना मित्र बनाये |
 इसकी व्याख्या किसी भय के कारण सहूलियत के रूप में ( काफिरों के साथ ) वाणी से मित्रता का वचन कर लिया जाए और ह्रदय में उनसे ईर्ष्या
व वैरभाव रहे तो इसमें कोई हानि नहीं ….. जिस स्थान पर इस्लाम पूरा शक्तिशाली नहीं बना हैं वह अब भी यही आदेश प्रचिलत हैं | स्वामी दयानंद इस मिथ्यावाद की आज्ञा भी ईश्वरीय पुस्तक में नहीं दे सकते ऐसे आदेश या कामों का प्रारम्भ दयालु व दायकर्ता पवित्र और सच्चे परमात्मा के नाम से हो यह स्वामी दयानंद को स्वीकार नहीं |

 

“भगवाकरण” या “भगवा प्रबंधन” डॉ त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय

“भगवाकरण शब्द के इर्द-गिर्द भारतीय राजनीति घूम रही है। इस राजनीति में दोनों पक्ष भगवाकरण शब्द को नकार रहे हैं । कांग्रेस, कम्युनिस्ट, बसपा, सपा आदि को भगवा शब्द से एलर्जी चिढ़ सीमा तक है। एक बार मैं रेलगाड़ी में सफर कर रहा था । मरे बगल के कूपे में कांग्रेस के एक राज्य के शिक्षा मंत्री सपरिवार सफर कर रहे थे। मैं “अयोध्या विजय सूत्र” पुस्तक से कुछ परिभाषाएं पढ़ रहा था। उषा काल का समय था। बीच-बीच में मैं सूर्योदय का भी आनन्द उठा लेता था। वहां से निकलते-निकलते उन ब्राह्मण मन्त्री ने उस पुस्तक का शीर्षक देखा। वे रुके। उन्होंने पुस्तक उठाई, उलटी-पलटी। मैंने उन्हें बताया इसमें वैदिक परिभाषाएं हैं। उन्होंने कहा- वो तो ठीक है, पर ये शीर्षक- “अयोध्या विजय सूत्र” इस नाम से ही कैसा-कैसा लगता है। मैंने उन्हें बताने की कोशिश की कि इस पुस्तक में अयोध्या से तात्पर्य आठ चक्र नौ द्वार तथा हिरण्य कोष वाला सुखम शरीर रथ है। पर आगे वे कुछ समझने को तैयार ही नहीं हुए। उस एक शीर्षक शब्द “अयोध्या विजय सूत्र” ने उनके सारे सुबह स्वाद कड़वे कर दिये थे। मैंने उन्हें अपनी वह पुस्तक दे दी और सोचा कहीं वे उम्र भर कड़वाहट तो नहीं भोगते रहेंगे । वैसे वे राजनीति में आकंठ डूबे हैं अतः भगवाकरण उनकी उम्र की कड़वाहट है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ `भगवा’ का परम भक्त स्वयं को बताता है। संघ भगवा शब्द का अर्थ हिन्दू ध्वज समझता है, जिसका रंग भगवा है। वह भगवाकरण को “हिन्दू राष्ट्र” बनाने के सन्दर्भ में लेता है। संघ सूत्रों से उपजी भाजपा ने कभी भी खुलकर यह नहीं कहा कि वह भगवाकरण के पक्ष में है। उस पर जब शिक्षादि के भगवाकरण के आरोप लगे तो उसने इन्हें नकारा। उसका कहना था कि वह शिक्षा का भगवाकरण नहीं कर रही है। साहित्य वर्ग में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले लेखक स्वयं को प्रगतिशील या जनवादी आदि कहते हैं। इन सारे लेखकों ने भारतीय संस्कृति के मूल ग्रन्थ वेद, ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद पढ़ना तो दूर देखे भी नहीं। कभी कदा सुनी सुनाई बातों पर ये सस्ती, छिछली, घटिया कथाओं द्वारा उनका खंडन करते हैं। एक कथा जो सारे विद्वान कमलेश्वर, परसाई, नागार्जुन और नामावर सिंह आदि ससहमत सुना चुके हैं यह है कि एक जगह मंदिर, मसजिद, गिरजा, गुरुद्वारा सब थे। सब लोग अपने अपने पूजा गृह पूजा करने जाते थे। एक आदमी ने वहां एक शौचालय बनवा दिया। फिर सारे लोग पहले उस शौचालय में हाथ मुंह धो कर अपने अपने पूजा घरों में जाने लगे। जनवादियों- प्रगतिवादियों का इस कथा का उद्देश्य पूजा घरां को शौचालय से घटिया बताना है। कमलेश्वर, नागार्जुन तथा नामावर सिंह को चर्चा में मैं बता चुका हूँ कि घर में सारे लोग एक ही पाखने- स्नानघर स्नान करके अलग अलग कुर्सी बैठ अलग अलग प्लेटों में खाना खाते हैं या अलग अलग कोर्स पढ़ते हैं तो इससे कोई भी विद्या घटिया बढ़िया नहीं हो सकती। सब समान सोते हैं। जगने पर अलग अलग हो जाते हैं। तो सोना जगने से बेहतर है। यह घटिया असंगत तर्क है। वैसे भी मन्दिर, मसजिद, गिरजे, गुरुद्वारे में अपने-अपने शौचालय होते हैं।
जैसा कि नाम से स्पष्ट है `भगवा’ शब्द `भगवान’ का प्रवेशद्वार है। भगवा ध्वज भगवान की ओर इंगन करने वाली पताका है। उस स्तर उठकर देखो सृष्टि का चप्पा-चप्पा ज्ञान ध्वजों के समान भगवान की ओर इंगन कर रहा है। `भगवा’ यहां विश्व के समस्त स्फुरणों का नाम है जो भगवान की ओर इंगन करते हैं। “भज सेवायाम” धातु से `भग’ शब्द सिद्ध होता है। इससे मतुप् होने से `भगवान’ शब्द निर्मित हुआ है।
भग शब्द का अर्थ है ऐश्वर्य, सौभाग्य और समृद्धि। भगवान शब्द का भावार्थ “जो समग्र ऐश्वर्य, सौभाग्य तथा समृद्धि से युक्त, इनका न्याय पूर्वक संवाहक तथा इस सन्दर्भ में मानव द्वारा सेवन करने योग्य या भजने योग्य है।” भगवा शब्द भगवान के ऐश्वर्य पाने का हकदार होने का रास्ता दर्शाता है। यह रास्ता समृद्धि शब्द द्वारा भी अभिव्यक्त होता है। सम ऋद्धि – इद्धि इस शब्द द्वारा समृद्धि स्पष्ट है। अर्थापत्ति से इसमें सिद्धि शब्द भी जुड़ जाता है। ऋद्धि, सिद्धि, इद्धि विज्ञान वह भगवा विज्ञान है जो भगवान तक ले जाता है। ऋद्धि भौतिक ऐश्वर्य का नाम है। सिद्धि मानसिक बौद्धिक ऐश्वर्य का नाम है। इद्धि आत्मिक ऐश्वर्य का नाम है। ऋद्धि प्राप्ति का पथ कर्म है। सिद्धि प्राप्ति का पथ ज्ञान है। इद्धि प्राप्ति का पथ उपासना- अथर्व होना- या ब्रहम निकटतम होना है।
इन तीनों के प्रचलित नाम तप, तितिक्षा, मुमुक्षत्व हैं। तप द्वन्द्व सहते सौ वर्ष तक कर्म करते रहने का नाम है। द्वन्द्व- सुख-दुःख, गर्मी-सर्दी, दिन-रात, मान-अपमान को कहते हैं। द्वन्द्वों में भी सतत मेहनत करते रहना तप है। इससे निःसन्देह धनादि मिलता है। श्रम और धन एक दूसरे के पर्यायवादी शब्द हैं। धन वास्तव में संचित श्रम का नाम है, यही ऋद्धि है। तप- ऋद्धि भगवा विज्ञान का प्रथम चरण है। शारीरिक द्वन्द्व सहनशक्ति तप है। मानसिक द्वन्द्व सहनशक्ति तितिक्षा है। कर्मेन्द्रियां तथा नासिका, रसना, नेत्र, त्वक एवं कान तक के क्षेत्र हैं। प्राण तथा वाक् दोनां तप तितिक्षा के तथा मन, बुद्धि, धी, चित्त, मानसिक क्षेत्र हैं। ये ज्ञान के तितिक्षा क्षेत्र हैं। लगन, धैर्य, सन्तोष पूर्वक वस्तुओं को यथावत जैसी हैं वैसी जानना तथा वैसी ही कहना एवं वैसा ही उनका उपयोग करना तितिक्षा है। सत्य के प्रति दृढ़ निष्ठा तितिक्षा है। ऋत, शृत, प्राकृतिक, नैतिक शाश्वत नियमों का दृढ़ता पूर्वक त्रुटिहीन पालन करना तितिक्षा है। इससे सिद्धि प्राप्त होती है। सिद्धि मानव में अट्ठाइस शक्तियों का अवतरण है। इन शक्तियों का तात्पर्य आज गलत लिया जाता है।
तितिक्षा भगवा विज्ञान का दूसरा चरण है। भगवा संस्कृति का तीसरा चरण मुमुक्षत्व है। ब्रहम या लक्ष्य के प्रति उत्कट सतत तीव्र लगन का नाम मुमुक्षत्व है। लक्ष्य का कर्म़ों में, मानस में, अस्तित्व में ओत-प्रोत हो हर पल उतरना या सिद्ध होते जाना मुमुक्षत्व है। लक्ष्य तक कई उपलक्ष्यों की मदद से पहुंचा जाता है। इन कार्य़ों में भी लक्ष्य का सतत ध्यान रखना मुमुक्षत्व प्रबंधन है।
भगवा का अर्थ कर्म-ज्ञान-उपासना त्रयी है। इसे ही तप, तितिक्षा, मुमुक्षत्व कहते हैं। ये तीनों वेदों के विषय है। यजुर्वेद मुख्यतः कर्म वेद है या तप वेद है। त्यागन, लक्ष्यन, संगठन (मानव तथा संसाधन उपयोग) या यजन कर्मवेद का विषय है। ऋग्वेद ज्ञान का वेद है। ज्ञान दृढ़ता का नाम तितिक्षा है। ऋग्वेद तितिक्षा वेद है। सामवेद लक्ष्य निकटतम होने उपासना का वेद है। उपासना सातत्य का नाम मुमुक्षत्व है। सामवेद मुमुक्षत्व वेद है। अथर्ववेद में तीनों वेदों का मिश्र रूप है। अथर्व-बिना कम्पन या बिना तनाव त्रयी जीने के उद्देश्य से दिया गया है। वाक् में ऋग्वेद, मन में यजुर्वेद, प्राण में सामवेद, इन्द्रियों में अथर्ववेद भर लेना और जीवन के हर कदम में इनका प्रयोग करना वास्तविक भगवाकरण है।
एक बार भिलाई होटल के एक अपार्टमेंट में कवि अशोक बाजपेयी कवियों तथा प्रबन्धकों सहित अनेक विद्वानों के मध्य चर्चा चल रही थी। चर्चा में वेद का सन्दर्भ खण्डन रूप में आने पर मैंने पूछा आपने वेद पढ़े हैं..? अशोक बाजपेयी ने गर्व में कहा- हमें वेद पढ़ने की क्या आवश्यकता है हम वेद रचते हैं। लोगों ने तालियां बजाइऔ। कहा हाँ, हम वेद रचते हैं- हम वेद रचते है। मैंने बिना हतप्रभ हुए उत्तर दिया- मैंने वेद पढ़े हैं आपकी कविताएं भी पढ़ी हैं। आपकी कविताएं सारी मिलकर भी वेद जैसा एक शब्द जो पूरी व्यवस्था परिभाषित करे नहीं गढ़ सकी हैं। ऋग्वेद के पहले मंत्र में सात शब्द सात महान विधाओं को प्रदर्शित करते हैं- `अग्नि’- अग् धातु से बना गति, ज्ञान, गमन, प्राप्ति, पूजन, सत्कार व्यवस्था का प्रतीक ब्रहम-तेज व्यवस्था दर्शाता है। `इळे’ परिशुद्ध अवस्था में मुमुक्षत्व भाव ब्रहम अर्चना भक्ति व्यवस्था दर्शाता है। पुरोहितम्- घेरकर पुर में सुरक्षिततम् निकटतम् रखते अधिकतम् हित करते द्वितीय जन्म देने की शिक्षा व्यवस्था को दर्शाता है। यज्ञस्य देव- सृष्टि के व्यक्त अव्यक्त होने के महा विज्ञान का परिचायक है। ऋत्विजम्- ऋतु ऋतु की संधियों के ज्ञाता होने के विज्ञान के माध्यम से मौसम विज्ञान दायित्व तथा परियोजना प्रबन्धन विज्ञान दर्शाता है। `होतारम्’ गन्धर्व या नाद लय या गान विधा का बीज शब्द है। और रत्नधातम् ज्योर्तिमय द्यौ द्युति अर्थात क्वांटम स्तरीय शक्ति स्फुरण विज्ञान को दर्शाता है। और यह सब मात्र एक पंक्ति में “अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देव ऋत्विजं। होतारं रत्नधातमम्” रूप में अभिव्यक्त है। और तो और वर्डस्वर्थ जैसे कवि के सारे काव्य का बीज “पश्य देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यति” है। वेद में ऐसी लाखों व्यवस्था परिभाषाएं हैं। आप वेद रचना तो दूर वेद का `व’ भी नहीं जानते हैं।
अशोक बाजपेयी ने या किसी और ने कहा- पर आज इनकी कोई उपादेयता नहीं है। हम आज के वेद रचते हैं। मैं चुप रहा। पर सोचता रहा- घुग्घुओं को हजार सूरज बेकार हैं। मेरी यह सोच कमलेश्वर, नामवर, नन्दूलाल चोटिया, मायाराम सुरजन, आदि से चर्चा करने के बाद पैदा हुई है। यह और परिपक्व ही होती जा रही है।
भगवा शब्द की व्युत्पति में `भज’ सेवा शब्द हैं। यहां `इळे’ शब्द `भज्’ का परिष्कृत रूप है। ऋग्वेद का पहला मन्त्र कहता है कि हम अग्नि व्यवस्था, पुरोहितम शिक्षा व्यवस्था, यजन व्यवस्था, देव व्यवस्था, ऋत्विज व्यवस्था, होतार व्यवस्था और रत्नधातमम् ब्रह्म व्यवस्थाओं के निकटतम होते उनकी भक्ति करते अपना जीवन सार्थक करें। यह भगवाकरण है या भगवा प्रबन्धन है।
भगवा शब्द का अर्थ भगवत् अर्थात भगवान के समान भी होता है। विष्णु पुराण 6/5/66-69 में अव्यक्त, अजर, अचिन्त्य, अज, अव्यय, अनिर्देश्य, अरूप, अतीन्द्रिय, विभु (नियन्ता) व्यापक, नित्य, सर्व भूतात्मा, स्वयं अकारण, व्याप्य में व्याप्त, विद्वत जन सम्मत, ब्रहम (विस्तरण शील) परधाम, मुमुक्षु का ध्येय, श्रुति सम्मत, अक्षय, अनादि, सूक्ष्म, विष्णु परम पद आदि भगवत् शब्द के वाचक हैं। ये सारे अति उच्च प्रबन्धन या आदर्श प्रबन्धन के गुण हैं। यह असीम प्रबन्धन है। ससीम मानव इनका अपने जीवन में प्रयोग कर ऐश्वर्य सम्पन्न हो सकता है।
`भगवा’ शब्द तीन अक्षरों से बना है। भ, ग और व। भ- संभर्ता भाव, ग- नेतृत्व भाव तथा व सर्व व्यापक तथा सर्व सहेजक भाव दर्शाते हैं। सम्भर्ता अर्थात प्रकृति या संसाधनों को कार्य योग्य बनाने वाला तथा उनका पोषण करने वाला। ग- नेतृत्व के साथ-साथ गमयिता- संहर्ता और सृष्टा- रचनाकार रूप में प्रदर्शित करता है। (विष्णु पुराण 6/5/73-75) सम्भर्तीति तथा भर्ता भकारो।़र्थ द्वान्वितः। नेता गमयिता स्त्रष्टा गकारार्थस्तथा मुने। …वसन्ति तत्र भूतानि भूतात्मन्यखिलात्मनि। स च भूतेष्वशेषेशु वकारार्थस्तोतो।़व्ययः। `भ’ सम्भरण कर्ता भर्ता, `ग’ से नेतृत्वकर्ता गमनशील होता, सृष्टि करता या रचना करता तथा `व’ से सर्वभूतों में व्याप्त सर्व भूतों का निवास अर्थ भगवा में निहित है। यह सृष्टि प्रबन्धन का सूत्र है, जिसका उपयोग मानव उद्योग क्षेत्र में भी कर सकता है।
हर निर्माण के तीन कारण होते हैं- 1) निमित कारण, 2) उपादान कारण, 3) साधारण कारण। निमित कारण उसे कहते हैं जो कृति करता है- उसके कृत करने से कृति बनती है न करने से नहीं बनती। कृति करता स्वयं न बने पर कृति में परिवर्तन करे । चैतन्यता कृति का कारण है। ब्रहम तथा जीव निमित्त कारण हैं। ब्रहम असीम तो जीव ससीम है। पर इन दोनों का कृति कार्य अन्तर-अन्तर के मध्य के अन्तराल याने अन्तरिक्ष में होता है। अन्तराल शून्य रूप नहीं है वरन बिन्दु रूप है। बिना लम्बाई, चौड़ाई, गहराई, आयतन पर अस्तित्व रखते पदार्थ को बिन्दु कहते हैं। यह अन्तर अन्तर (जिसे शून्य समझा जाता है) बिन्दु बिन्दु से भरा है। इन बिन्दु बिन्दु पर अभौतिकी चिति शक्ति कार्य करती है यह शक्ति निमित्त कारण है। बिन्दु बिन्दु उपादान कारण या प्रकृति है। निमित्त कारण की शक्ति को ईक्षण कहते हैं। अन्तर-इक्ष नाम इसीलिए है। यहां स्फोट- विस्तरण संघनन कई स्तरीय पूरे ब्रह्माण्ड में सतत होने से ऊर्जा- पदार्थ का एक वितान ब्रह्माण्ड में फैल जाता है। इसमें से कुछ संसाधन रूप में और परिवर्तन में सहायक होते हैं। इन्हें साधारण कारण कहते हैं। उपादान कारण यहां बिन्दु बिन्दु प्रकृति के बिना कुछ भी नहीं बनता है। यह ही अवस्थान्तर होकर बनता बिगड़ता है। परिवर्तन सहायक कारकों को साधारण कारक कहते हैं।
ससीम निमित्त कारण हृदय में आदि कोषिका में एक अन्तर अन्तर गुहामात्र एक बिन्दु में कार्य करता है। यहां असीम ससीम निमित्त कारण मिलते हैं। सर्व सूक्ष्म होने के कारण भगवान तीनों कारणों में सूक्ष्म रूप में व्याप्त है। संसार में हर उद्योग में या कार्य में तीन कारण ही प्रबन्धन का आधार तत्व होते हैं। भगवा संस्कृति में एक सरल उदाहरण कुम्हार-बर्तन का है। कुम्हार निमित्त कारण, मिट्टी-पानी उपादान कारण तथा चाक, लकड़ी, रस्सी आदि साधारण कारण माने गए हैं। एक बड़े उद्योग में उद्योगपति मुख्य निमित्त कारण, प्रबन्धक- कार्मिक आदि उपनिमित्त कारण, कच्चा माल उपादान कारण और चल अचल मशीनें साधारण कारण हैं। इस प्रकार मूल रूप में उद्योग प्रबन्धन ही भगवाकरण है। इसका कोई भी विरोध विश्व प्रगति के पथ में बाधक है।
उद्योग लगाने के बाद नियमित अन्तराल पर उद्योग के कारण साधारण कारण- मशीनों, उपकरणों, आदि का रख रखाव किया जाता है। घर, साईकिल, स्कूटर, कार, हवाईजहाज, अन्तरिक्ष यान तक सभी के रख रखाव में उद्योगों के समान 1) दोषमार्जनम्- उत्पन्न दोषों को दूर किया जाता है। 2) हीनांगपूति- टूटे फूटे अंग बदलना, 3) अतिशय आधान- अतिरिक्त नव तकनीक का प्रावधान, से हुआ है। दोष-मार्जन, हीनांगपूति, अतिशयाधान त्रय को संस्कार करना या भगवाकरण कहते हैं। इस प्रकार विश्व के सारे उद्योग अ) निमित्त कारण, ब) उपादान कारण, स) साधारण कारण, द) दोष-मार्जनम्, इ) हीनांगपूर्ति, फ) अतिशयाधान पर ही आधारित हैं। विश्व उद्योग शास्त्र की परिभाषा ही भगवाकरण है। उद्योग ही हर राष्ट्र की उन्नति का आधार है और सारे राष्ट्र नायक चाहे कांग्रेस हो या किसी अन्य दल के वे औद्योगिक प्रगति चाहते हैं। अतः भगवाकरण का समर्थन करते हैं। वे खाते तो गुड़ हैं पर गुलगुले से परहेज करते हैं। यह तो वह बात हुई कि एक घोर अंग्रेजी मानसिकता वाला लार्ड मैकाले की औलाद व्यक्ति प्यास लगने पर जल पीता हुआ कहता है कि मैं पानी नहीं वाटर पी रहा हूँ।
`भग’ सम्यक् छै का नाम है। ये छै हैं- 1) सम्यक् ऐश्वर्य, 2) सम्यक् धर्म, 3) सम्यक् यश, 4) सम्यक् श्री, 5) सम्यक् ज्ञान तथा 6) सम्यक् वैराग्य। (विष्णु पुराण 6/5/74) यह षट् समग्र का निर्माण करते हैं। समकक्षों में प्रथम का नाम समग्र है। सम्यक् छै के आधार पर उद्योग करना या लगाना मानव जीवन को अभीष्ट है। ऐश्वर्य का आधार `ईश’ शब्द है, जिससे ईश्वर शब्द बना है। ऐश्वर्य के त्यागन से उद्योग उत्पत्ति होती है। दहलीज सीमा तक के ऐश्वर्य का उपभोग करते पूर्ण सन्तुष्ट रहते यजन याने त्यागन लक्ष्यन संगठन करना ऐश्वर्य प्रबन्धन है। सारे सफल उद्योग त्याग पर आधारित हैं। लगाए जा रहे उद्योग के निर्माण तथा परिचालन के धारणीय नियम धर्म हैं। ग्राहक, उपभोक्ता की पूर्ण सन्तुष्टि यश है। यश उद्योग में कार्यरत लोगों के धर्म पालन से उत्पन्न त्रुटिहीन उत्पादन से ही मिलता है। श्री शब्द पांच अर्थ देता है। 1) शृ-विस्तारे 2) शृण- दान- गति, 3) शृ- संहार, 4) शृ- श्रवण, 5) श्रिञ्- सेवा।  विस्तार दृष्टि- व्यापक दृष्टिकोण, दान- उदार दृष्टि, दोष संहारदृष्टि, सम्प्रेषण एवं सेवा भाव उद्योग के लिए श्री कारक हैं। सूचनाओं के पुलिंदों से उनके अन्तर्संबन्ध समझते हुए उनका सटीक विविध प्रयोग ज्ञान है। और ऐश्वर्य, धर्म, श्री, ज्ञान की सिद्धि, पश्चात् प्राप्त समृद्धि के प्रति समस्त लगाव का त्याग वैराग्य है। ऐश्वर्य, नियम, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य अर्थात सम समृद्धि पूर्वक नियमबद्ध दूसरों को दृष्टि देते, उदार- विस्तारदृष्टि रखते हुए प्रगति करते सुख पूर्वक शांति से रहना भगवाकरण है। संसार का घटिया से घटिया व्यक्ति भी अपने जीवन का भगवाकरण करना चाहेगा।
तुलसीदास भगवाकरण रूप में भगवान के नौ गुणों को देह में उतारने की बात इस प्रकार कहते हैं। “एक, अनीह, अरूप, अनामा, अज, सच्चिदानंद, परधामा, व्यापक, विस्वरूप, भगवाना।” “तेहिं धर देह चरित कृत नाना।” इन श्लोकों में देह के भगवाकरण की बात कही गई है। भगवान इन नौ गुणों के आधार पर ब्रह्माण्ड की रचना तथा प्रबन्धन करता है। आत्मा भी इन नौ गुणों के देह में धारण द्वारा जीवन चरित्र का प्रबन्धन करे।
1) एक :- एक महानतम प्रबन्धन सूत्र हैं। एकालाप- अपने आप से करना बात सर्वश्रेष्ठ सम्प्रेषण है, जिसमें सच ही सच का समावेश है और सही गुण दोष समालोचना है। एकालाप जैसा सम्प्रेषण सबसे करना व्यवस्था को पारदर्शी बना देगा। एक प्रबन्धन का दूसरा प्रारूप व्यवहार प्रारूप है। भगवान के बारे में कहा गया है कि दूसरा न तीसरा चौथा भी है नहीं। पांचवा न छठा सातवां भी है नहीं । आठवां न नौवां दसवां भी है नहीं। ग्यारहवां न सौवां अरबवां भी है नहीं। प्रथम ही प्रथम ब्रह्म प्रथम स्वर है। ब्रह्म पहला है। जिस प्रकार ब्रह्म जगत में पहला है इसी प्रकार जीवात्मा इस जीवन में पहला है। जन्मता पहला है फिर उस एक को नाम दिया जाता है। नाम के बाद वह क्रमशः बहुरूपा होता जाता है। बेटा-बेटी, भाई-बहन, भतीजा-भांजा, भतीजी-भांजी दोस्त आदि रूपों में बंटता बंटता वही एक पति, पत्नि, मां, पिता आदि आदि रूपों के साथ साथ दुकानदार – नौकरीपेशा आदि आदि होता चला जाता है और कई बार अपना `एक’ पहला रूप भूल जाता है। रूप भूलते ही दुःख पाता है। वह यह भी भूल जाता है कि दूसरा भी वास्तव में उसकी ही तरह `एक’ है। इस समय वह “तू तू मैं मैं” में उलझकर एक उलझन हो जाता है। एक प्रबन्धन का सार यह है कि मानव अपना तथा दूसरे का भी एक रूप समझे और दूसरे के साथ एक-वत या आत्मवत व्यवहार करे। जो संसार के प्राणियों को आत्मवत जानता है उनसे आत्मवत व्यवहार करता है उसे कहां मोह? कहां शोक? वह तो “एक ही एक” देखता है। यह `एक’ आपसी प्रबन्धन सूत्र है। `एक’ पहचान कर आपसी सही व्यवहार करना अस्तित्व पहचयान संकट (आयडेण्टिटी क्राईसिस) का इलाज है।
2) अनीह :- अनीह का अर्थ है अन + ईह। ईहा कहते हैं इच्छा को या एषणा को। एषणाएं तीन हैं। धन की इच्छा, पुत्र परिवार की इच्छा, पद- यश की इच्छा। तीनों इच्छाओं के कारण ही मानव कर्तव्य पथ या अनुशासन पथ से गिर जाता है। सच्चा प्रबन्धक ब्रह्म के जगतकार्य के समान अनीह होता है।
3) अरूप :- ब्रह्म जगत में सूक्ष्मतम अरूप हो कार्य करता है इसीलिए सर्वव्यापक होता है। एक कुशल प्रबन्धक भी सुसम्प्रेषण व्यवस्था के कारण कार्य के चप्पे चप्पे की परिवर्तनीय अवस्था को जानता है।
4) अनामा :- खुद के नाम को खो देना अनामा होता है। सफल प्रबन्धक को लोग सार्वजनीन नाम से पुकारते हैं। इन नामों में ज्यादा अपनत्व तथा श्रद्धा का भाव होता है। महात्मा गांधी को लोग बापू कहते थे इसी प्रकार विनोबा भावे को लोग बाबा कहते थे। पवनार आश्रम में विनोबा भावे का `बाबा’ सर्वव्यापक नाम से अनामा प्रबन्धन चलता था। एक, अनीह, अरूप, अनामा ये चारों प्रबन्धन अव्यक्त या अपरोक्ष या अप्रत्यक्ष प्रबन्धन हैं। अगले पांच प्रबन्धन व्यक्त या प्रत्यक्ष प्रबन्धन हैं। अज, सच्चिदानंद, परधामा, व्यापक तथा विश्वरूपा प्रबन्धन प्रत्यक्ष प्रबन्धन हैं।
5) अज :- अज सर्वाधिक प्रत्यक्ष प्रबन्धन है। `अज’ नाम ही सदायी प्रत्यक्ष का है। बढ़े चलो बढ़े चलो जो परिश्रम से थककर चकनाचूर नहीं होता है उसे सफलता नहीं मिलती। जो भाग्य के भरोसे बैठ जाता है उसका भाग्य भी बैठ जाता है। सोने वाला कलयुग है। करवट बदलने वाला द्वापर है। उठकर खड़ा होने वाला त्रेता है, चल पड़ने वाला सतयुग है और समय से तेज दौड़ने वाला अज युग है। ब्रह्म प्रगटते अनन्त है इसलिए समय से तेज चलता अज है। ब्रह्म तब अब तब रूपी अब अब सातत्य है। हमारा अस्तित्व तब न, अब, तब न रूपी अस्सी-सौ वर्षीय जीवन है। यदि हम इसे ब्रह्म अज-अब को जीना शुरू कर दें तो अजयुग हो जाएंगे, समयजित हो जाएंगे। यह समय प्रबन्धन का महासूत्र है। जीवन में हर पल हर कार्य हर समय ब्रह्म गुणों का ही प्रयोग अजयुग होना है। उपर भगवा `अजयुग’ होने का पहला सूत्र चरैवेति चरैवेति बढ़े चलो बढ़े चलो दिया गया है। भगवाकरण का दूसरा अजयुग प्रबन्धन सूत्र इस प्रकार है- “वह भगवान इन्द्रियां एवं उनके देवों का हित करने वाला तब अब तब है- वह शून्य समय में अनन्त गतित सर्वगुण सम्पन्न हमारे निकटतम है, हम जीवन में उसे वाचें (बोलें-पढ़े) शत अधिकम वर्ष, प्राणें शत अधिकम वर्ष, सुनें वर्ष शत अधिकम, देखें वर्ष शताधिकम, आस्वादें वर्ष शत अधिकम, आगंधे वर्षशताधिकम। उसके अज सानिध्य से अदीन -स्वस्थ रहें वर्षशताधिकम तक।” आज की औद्योगिक संस्कृति दस-पन्द्रह वर्ष़ों की परियोजनाओं का समय आयोजन करती है वर्ष, माह, सप्ताह, दिवस, घण्टा, एक मिनट प्रबन्धन करती हैं। यह आज का समय-प्रबन्धन है। भगवा समय प्रबन्धन अज युग – मानव गढ़ता है जो शताधिक वर्ष जीवन का ब्रह्म गुण प्रबन्धन कर समय साध होता है। `अज’ भगवा प्रबन्धन संसार का महानतम जीवन समय प्रबन्धन है- संसार का महानतम मूर्ख भी इस सरल सत्य को समझ सकता है। उससे घटिया जड़ भौतिकीय बुद्धि व्यक्ति ही इसका विरोध करेंगे वे कलयुग नहीं जड़युग हैं। अब के पल में गुण व्यापक होकर समय जीने का नाम अज प्रबन्धन है।
6) सच्चिदानंद :- सत, सतचित, सच्चिदानंद यह सच्चिदानंद प्रबंधन है। सामान्य अर्थ़ों में यह अचल, चल, संसाधनों का आनन्दपूर्वक प्रबन्धन हैं। कलपुर्जे, उपकरण, जल, भूमि, मशीनें तथा धन अचल संसाधन है। सतचित चल संसाधन विभिन्न पदों पर कार्यरत अतन्सम्बन्धित तथा कई समूहित श्रेणी बद्ध कार्मिक हैं और सच्चिदानंद हैं कार्य नियमों अर्हताओं का निर्माता ज्ञाता जो यजन अर्थात त्यागन, लक्ष्यन, संगठन करता है। सत, सतचित और सच्चिदानन्द प्रबन्धन नहीं उद्योगशास्त्र के मूल भगवा नियम हैं।
7) परधाम :- परधाम का अर्थ है दिव्यधाम या श्रेष्ठ धाम या उच्च समकक्षों में प्रथम (श्रेष्ठ)। वह व्यवस्था जिसमें श्रेष्ठ होने की एक स्वस्थ होड़ होती है परधाम व्यवस्था है। परधाम का दूसरा अर्थ तेज या प्रभाव में श्रेष्ठ होता है। जिस व्यवस्था में हर व्यक्ति अपने अपने क्षेत्र श्रेष्ठ निर्दोष प्रभावशाली होता है उस व्यवस्था को परधाम कहते है। धाम शब्द द्यामरूप प्रयुक्त करने पर जिस व्यवस्था में प्रकाश व्यवस्था कार्य परिस्थितिकी (इरगोनामिकलि) उपयुक्त सुखद और अन्य व्यवस्थाओं से श्रेष्ठ है वह परधामा है।
8) व्यापक :- अधिष्ठान-भूत व्याप्ति उसे कहते हैं जिसमें प्रबन्धक कहीं नजर तो नहीं आता है पर उसकी छाप व्यवस्था के चप्पे-चप्पे पर स्पष्ट दिखाई देती है। यह व्यापक- भगवा प्रबन्धन है।
9) विश्वरूप :- विश्वरूप वह है जो आत्मा देह सम्बन्ध से स्पष्ट होती है। देह में रहता आत्मा ऐसा प्रतीत होता है। मानों वह देह रूप ही हो। इसी प्रकार वह प्रबन्धन जिसमें अपने अपने क्षेत्र हर प्रबन्धक- क्षेत्ररूप ही हो विश्वरूप प्रबन्धन है।
10) भगवाना :- भगवाना अर्थात् उपरोक्त नौ प्रबन्धन गुणों का हर क्षेत्र प्रयोग करने से ऐश्वर्यमयी व्यवस्था का परिचालन करने वाला। नौ गुणों के संयुक्त रूप को भी भगवान कह सकते हैं। एक अनीह, अरूप, अनामा, अज, सच्चिदानंद, परधामा, व्यापक, विश्वरूप ये नौ संयुक्त स्वरूप में एक होने पर भगवाना है। “भज सेवायाम्” उच्च कोटि की भक्ति तथा जीवन में गुणों का सेवन भगवान का वास्तविक अर्थ है। उच्च कोटि की भक्ति का वैदिक नाम `ईड’ है। इसका सटीक स्वरूप ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र है। इसका बीज स्वरूप आलेख में पूर्व में दिया जा चुका है। अधिक विस्तार `प्रथमम्’ पुस्तक में पढ़ा जा सकता है। विष्णु पुराण 6/5/66-69, 73-75 में भगवान का संक्षिप्त विवरण पूर्व में दिया गया है उसका तनिक विस्तार अपेक्षित है।
अव्यक्त – प्रबन्धन वह प्रबन्धन है जिसे `अ’ प्रबन्धन कहा जा सकता है। `अ’ संसार के सारे अक्षरों का आधार है पर सामान्यतया इसकी प्रतीति नहीं होती। यह `अ’ अपना आधार स्वरूप अक्षर में विलय कर उसे स्वरूप दे देता है। `क’ में `अ’ है, `स’ में `अ’ है। इसी प्रकार सभी अक्षरों में `अ’ आधार तथ्य है। वह प्रबन्धन जो हर कार्मिक में आधार रूप इस प्रकार सभी में `अ’ आधार तथ्य है। वह प्रबन्धन जो हर कार्मिक में आधार रूप इस प्रकार विद्यमान रहता है कि वह कार्मिक का आधार स्वरूप रहता है पर कार्मिक को उसका पता नहीं रहता है अव्यक्त प्रबन्धन है।
अजर :- अजर प्रबन्धन उस कार्य व्यवस्था का नाम है जिसके द्वारा निर्मित वस्तु में न्यूनतम क्षरण होता है। `जर’ का अर्थ `क्षर’ भी होता है। जिसका जरण या क्षरण या क्रमशः नाश हो उसे जर कहते है। जिसमें नाश की सम्भावना न हो या कम से कम हो उसे `अक्षर’ या `अजर’ कहते हैं। सामान्य भाषा में इसे टिकाऊ कहते है। आज सारा संसार टिकाऊ माल बनाने की दौड़ में है। इस सन्दर्भ में भगवाकरण या अजर करण या अक्षत करण का विरोध करना महा पिछड़ापन है। अक्षत करण या अजर करण वह प्रबन्धन है जिसके द्वारा पूरा सैगा चावल प्राप्त किया जाता है। अनाजों में सैगा चावल प्राप्त करना सबसे श्रम साध्य प्रक्रिया है। सैगा गेंहू, मूंग, अरहर, बाजरा, मक्का आदि आसानी से प्राप्त किया जा सकता है पर सैगा चावल प्राप्त करना अत्यधिक सावधानी, लगन की अपेक्षा रखता है। इसलिए अक्षत सारी पूजाओं के काम आता है।
अचिन्त्य :- अचिन्त्य व्यवस्था का आधुनिक नाम नवीनीकरण है। वह व्यवस्था यथार्थ में लागू कर देना जो लोगों के लिए अचिन्त्य हो या लोग जिसके बारे में सोच भी न सकें। सारी विश्व प्रगति अचिन्त्य या नवीनीकरण व्यवस्था की ही उपज है। विश्व उद्योग जगत में विन्सेंट टेलर ने प्रबन्धन विज्ञान द्वारा, एल्टन मेयो ने सामाजिक विज्ञान द्वारा, इशिकावा ने सामाजिक तकनीक द्वारा अचिन्त्य नवीन क्रांति की। हम सांस्कृतिक तकनीक सामाजिक (सांतसा) द्वारा भगवाकरण कर भारत को विश्व श्रेष्ठ करें। विश्व में नई प्रबन्धन विधा को जन्म दें। न्यूटन, आंइस्टीन आदि वैज्ञानिक अचिन्त्य विचारों के कारण ही प्रसिद्ध हुए। वेद अचिन्त्य विज्ञान पथ बताते कहता है कि लकीर के फकीर ने नया कदम बढ़ाया नया सूर्य गढ़ लिया। अचिन्त्य प्रबन्धन का आधार बीज भगवान है जिसे “ज्ञेय-अज्ञेय” (केनोपनिषद में) कहा गया है। भगवाकरण के विरोधी नवीनीकरण के विरोधी हैं। इतिहास इन्हें कभी माफ नहीं करेगा ।
`अज’ प्रबन्धन का विवरण पूर्व में दिया जा चुका है। अव्यय प्रबन्धन उन आधारों पर किए गए प्रबन्धन का नाम है जो प्रक्रिया में अतिसहायक होते हुए भी व्यय न हों। वैज्ञानिक विधि को किससे नापोगे? आधुनिक वैज्ञानिक विधि के चरण हैं 1. प्राकल्पना, 2. अवलोकन, 3. तथ्य संकलन, 4. सारिणीकरण, 5. निष्कर्ष, 6. पुनर्सिद्धि। भारतीय संस्कृति की वैज्ञानिक विधि का नाम परीक्षा है जिसका एक भाग अवयव है। इस परीक्षा के चरण हैं- 1. ब्रह्म गुणों के अनुरूप, 2. प्राकृतिक नियमों के अनुरूप या ऋत, 3. नैतिक नियमों के अनुरूप या शृत, 4. आठ प्रमाणों द्वारा जांचित, 5. आत्मवत नियम अनुरूप, 6. अवयव सम्मत – अवयव के पांच चरण हैं – अ) प्रतिज्ञा (प्राकल्पना), ब) हेतु (अवलोकन), स) उदाहरण (तथ्य संकलन), द) उपनय (सारिणीकरण), ई) निगमन (निष्कर्ष पुर्न निष्कर्ष) 7. आप्त या दक्ष सिद्ध नियमों के अनुरूप। सप्त परीक्षा सिद्ध तथ्य ही सत्य है। ये पूरी प्रक्रिया में व्यय नहीं होते हैं अतः अव्यय भगवान हैं।
आधुनिक वैज्ञानिक विधि जिस पर वैज्ञानिकों को नाज है – भगवा संस्कृति की परीक्षा का मात्र सातवां हिस्सा है अर्थात पन्द्रह प्रतिशत से भी कम। अंश सत्य की बुनियाद पर खड़े आज के विश्व को पूर्ण सत्य की ओर लौटना ही होगा अर्थात पूरे विश्व को भगवाकरण अपनाना ही होगा। सारा का सारा आधार संस्कृत साहित्य उपरोक्त परीक्षा के अतिरिक्त मंगलाचरण (उत्तम आरम्भ अर्ध कार्य सम्पन्न), अनुबन्ध चतुष्टय तथा साहित्य क्षेत्र में अन्य साहित्य माप दण्डों के (दशरूपकम्, औचित्य, विज्ञान, काव्य- सिद्धान्तों) अनुरूप रचित वैज्ञानिक है। मूर्ख व्यक्ति ही इसे अवैज्ञानिक या सम्प्रदायी कहकर नकार सकता है या इसका विरोध कर सकता है। अनिर्देश्य प्रबन्धन वह प्रबन्धन है जिसमें व्यवस्था या कर्मिकों को बार बार निर्देश देने की कोई आवश्यकता नहीं होती है। एक बार पूर्ण विचार करके दिए गए सटीक निर्देश पूरे कार्य के दौरान पर्याप्त होते हैं। पुनर्निर्देश या अतिरिक्त निर्देश व्यवस्था में हर पदधारी अपने कार्य में इतना सुदक्ष होता है कि बिना सहायता मदद की अपेक्षा रखे अपना सारा कार्य स्वयं ही कर लेता है। यह स्व कार्यव्यवस्था होती है।
अरूप प्रबन्धन वह प्रबन्धन है जो सांचों में ढला हुआ नहीं है या नित नूतन नवीन होता रहता है। इस प्रबन्धन को पारदर्शी प्रबन्धन भी कहा जा सकता है। पाणिपादसंयुक्तम् प्रबन्धन वह है जो हस्त पाद आदि रहित या हस्तपाद आदि के संयम से युक्त या जिसमें हाथापाई आदि नहीं होती या घूंसे लात नहीं चलते। वर्तमान में हड़ताल प्रबन्धन घूंसेलात प्रबन्धन है। श्रमिक संघ प्रबन्धन चर्चाएं बातों के घूंसे लात होती है। संसद में घूंसेलात चलते लोग देख चुके हैं। इन व्यवस्थाओं का पाणिपादसंयुक्तम् अर्थात भगवाकरण होने से ये स्वस्थ संयत् शान्त हो जाएंगी तथा इनकी कार्य क्षमता असीम अति अधिक हो जाएगी।
विभु-प्रबन्धन :- विभु प्रबन्धन वह प्रबन्धन है जिसमें नियन्ता का सम्पूर्ण नियन्त्रण रहता है। जिस व्यवस्था में कार्य-लक्ष्य तथा फल नियत सटीक होते हैं व्यवस्था विभु होती है। कानूनों का निरर्थ पुलिंदा व्यवस्था घोर तहस नहस होती है अविभु होती है। व्यापक प्रबन्धन सटीक सम्प्रेषण युक्त होता है। द्वि तरफा सम्प्रेषण इसका लक्ष्य है। इसे सर्वगतं कहा गया है। हर एक में समाविष्ट और मूलरूप में समविष्ट प्रबन्धन का नाम सर्वगतं है। मधुमक्खी व्यवस्था में हर मधुमक्खी पूरे समुदाय का एक अभिन्न एकक भिन्न भिन्न होने पर भी होती है। इसकी व्यवस्था प्राकृतिक सर्वगतं है। मानव समूह व्यवस्था चैतन्य सर्वगतं इससे कहीं श्रेष्ठ हो सकती है।
नित्य प्रबन्धन :- नित्य प्रबन्धन वह है आज कल आज में जिसका सम सातत्य बना रहता है। जिस प्रकार इस धरा की अन्तरिक्ष नाव व्यवस्था सुखमय, अदिति, प्रवहणशील, अछिद्रमय, ज्योर्तिमय, उत्तम नित्य है ऐसी ही कार्यव्यवस्था नित्य प्रबन्धन को अभीष्ट है।
भूतयोनिकारणम प्रबन्धन :- भूतयोनिकारणम प्रबन्धन का अर्थ यह है कि व्यवस्था में अतिरिक्त संसाधनों की उत्पत्ति करते जाने का भी निश्चित कारण रूप प्रावधान होना चाहिए। वे व्यवस्थाएं डूब जाती हैं या थम जाती हैं जिनके निर्माण में ही विकास संसाधनों का प्रावधान नहीं किया जाता है।
व्याप्य व्याप्तम प्रबन्धन :- व्याप्य व्याप्तम प्रबन्धन वह है जिसमें संसाधन तथा उनके उपयोगकर्ता की पूर्ण उपयुक्तता है। जिस प्रकार शरीर और शरीरी एक दूसरे से इतने मिले हुए हैं कि सहसा अति दर्द तीव्रता में शरीरी कहता है- “हाय मैं मर गया..” या साधना की उच्चावस्था में साधक सम्पूर्ण अस्तित्व सहित आल्हादमय हो जाता है। ऐसी व्याप्य व्याप्त प्रबन्धन व्यवस्था भगवा संस्कृति को अभीष्ट है।
सूरयः पश्यन्ती : – विद्वान जन जिसकी प्रशंसा करते हैं वह प्रबन्धन सूरयः पश्यन्ती है। विद्वान जनों (प्रजा का नहीं) प्रशंसित उपरोक्त भगवा प्रबन्धन है।
इस प्रकार वह व्यवस्था जो अव्यक्त, अजर, अचिन्त्य, अज, अव्यय, अनिर्देश्य, अरूप, हस्तपादसंयुक्तम्, विभु, व्यापक, नित्य, भूतयोनिकारणम, व्याप्यव्याप्तम्, विद्वतजन प्रशंसित है और जो मुमुक्षत्व है (दृढ़ लगन – सतत आकांक्षा) से ब्रह्मरूप तथा परधामरूप प्राप्त होती है और श्रुति सम्मत है वह सूक्ष्म विष्णु परम पद – परम – आत्म (आत्मा की परम अवस्था) भगवत् शब्द से वाच्य है। ऐसा अनादि अक्षय आत्मा प्रबन्धक `भगवत्’ शब्द द्वारा अभिव्यक्त है। (विष्णु पुराण 6-5-66-69)
भगवान वह प्रबन्धक है “जो भौतिक अभौतिक संसाधनों की उत्पत्ति, आगमन, गमन, नाश विद्या तथा अविद्या को जानता है (विष्णु पुराण 6, 6, 78)। उपरोक्त परिभाषा में दिया भगवाकरण उद्योग शास्त्र के लिए यांत्रिकी मशीनों, उपकरणों तथा मानव शक्ति के आयोजन की आत्मा है। किसी भी यांत्रिकी मशीन को उद्योग में लगाने से पूर्व उसकी उत्पत्ति अर्थात निर्माण कारखाना व्यवस्था, गुणवत्ता, क्षमता आदि आंकना आवश्यक है। हर संस्थान उपकरणादि की उत्पत्ति जांच के लिए एक अलग विभाग रखता है। आगमन भी एक महत्वपूर्ण व्यवस्था है। भिलाई इस्पात संयन्त्र हेतु निर्माण अवस्था में विशालकाय ढाचों के आगमन पथ की सड़क, पुल आदि की पूर्व क्षमता आंकने के लिए अलग से एक समूह का निर्माण किया गया था। संयन्त्र की जटिल सड़कों और आवागमन व्यवस्था के साथ साथ, पाली के समय की भीड़ देखते ढांचों, मशीनों, उपकरणों, कच्चे माल, अवशेष आदि के आवागन-गमन के लिए विशेष व्यवस्था परियोजना निर्माण समिति द्वारा की जाती है। मशीनों के साथ साथ मानवों के आगमन-गमन का भी ध्यान रखा जाता है। ब्लास्टिंग आदि के समय को तय करने में उसकी महत्ता और बढ़ जाती है।
नाश प्रबन्धन :- नाश प्रबन्धन इसलिए महत्वपूर्ण है कि कल पुर्ज़ों की क्षरण गति चलन के अनुपात में परिवर्तित होती है इस कारण उनके विस्थापन का प्रबन्धन पूर्व में ही किया जाता है।
विद्या-अविद्या के जानने का अर्थ गुण-दोष उपयोग-अनुपयोग क्षेत्र, जानना या मानना। संसाधनों की योग्यता अयोग्यता जानकर संसाधनों का सटीक उपयोग करना है। किसी भी उद्योग या अन्य संस्थान में उत्पत्ति, आगमन, गमन, नाश, विद्या, अविद्या का षष्ट प्रबन्धन एक आवश्यकता है। `नाश’ व्यवस्था तो अपने आप में अति महत्वपूर्ण व्यवस्था है जो आगमन- भरती, गमन- सेवा निवृत्ति तथा क्षमता हास के आंकलन अर्थात विद्या-अविद्या आंकलन तथा प्रशिक्षण को दर्शाती है। क्षमता-नाश के प्रसिद्ध नियम- “हर मानव उद्योग में या व्यवस्था में अक्षमता के स्तर तक पहुंचने के लिए ही प्रवेश लेता है।” पर कई किताबें लिखीं जा चुकी हैं।
`भ’ शब्द का अर्थ प्रकाश तथा `ग’ शब्द का अर्थ गति भी है। प्रकाश और गति का एक साथ नियन्ता भगवान है। इसलिए भगवान को “प्रगटते अनन्तम्” कहा है। प्रकाश प्रकटते ही शाश्वत गति से विस्तारित होता है। भग शब्द से “प्रगटते अनन्तम्” से कई महासूत्र जो सारे ज्ञान विज्ञान के बीज सूत्र हैं, उत्पन्न हुए हैं। ये सूत्र हैं- 1) प्रगटते अनन्तम्, 2) सूक्ष्मतम् महानतम्, 3) आदितम् अन्ततम् 4) अकम्प सर्व कम्पनम्,  5) एकत्व सर्वगत, 6) निकटतम्-दूरतम्, 7) भीतरतम्-बाहरतम् 8) अरूपम्-सर्वरूपम् 9) एकम्-एक अनन्तानन्तम् आदि। शून्य शक्ति पर इक्षण शक्ति के प्रभाव या संसर्ग से स्फोट से भ + ग से आदि सृष्टि अभिव्यक्त हुई। इसी भग शब्द से ही वर्तमान प्रबन्धन की व्यक्तित्व प्रबन्धन की महान विधा का यह सूत्र अभिव्यक्त हुआ “वह आया, उसने देखा, वह फैला और उसने जीत लिया।” `भग’ शब्द इस प्रबन्धन को ठीक ठीक प्रदर्शित कर रहा है। `भग’ गुणों से युक्त राम और कृष्ण भी इस प्रबन्धन की सार्थकता सिद्ध करते हैं।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि भगवाकरण न केवल भारत वरन पूरे विश्व की आवश्यकता है। तथा विश्व को इसे तत्काल अपना कर हर मानव को सुखी समृद्ध बनाना चाहिए।
स्व. डा. त्रिलोकी नाथ क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (आठ विषय = दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), सत्यार्थ शास्त्री, बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

प्राचीन काल में हिन्दू गौ मांस खाते थे – BBC का खंडन यश आर्य

भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माताओं में से एक डॉक्टर बीआर अंबेडकर अच्छे शोधकर्ता भी थे. उन्होंने गोमांस खाने के संबंध में एक निबंध लिखा था, ‘क्या हिंदुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया?’

यह निबंध उनकी किताब, ‘अछूतः कौन थे और वे अछूत क्यों बने?’ में है.

दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम ने इस निबंध को संपादित कर इसके कुछ हिस्से बीबीसी हिंदी के पाठकों के लिए उपलब्ध करवाए हैं.

‘पवित्र है इसलिए खाओ’

अपने इस लेख में अंबेडकर हिंदुओं के इस दावे को चुनौती देते हैं कि हिंदुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया और गाय को हमेशा पवित्र माना है और उसे अघन्य (जिसे मारा नहीं जा सकता) की श्रेणी में रखा है.

अंबेडकर ने प्राचीन काल में हिंदुओं के गोमांस खाने की बात को साबित करने के लिए हिन्दू और बौद्ध धर्मग्रंथों का सहारा लिया.

उनके मुताबिक, “गाय को पवित्र माने जाने से पहले गाय को मारा जाता था. उन्होंने हिन्दू धर्मशास्त्रों के विख्यात विद्वान पीवी काणे का हवाला दिया. काणे ने लिखा है, ऐसा नहीं है कि वैदिक काल में गाय पवित्र नहीं थी, लेकिन उसकी पवित्रता के कारण ही बाजसनेई संहिता में कहा गया कि गोमांस को खाया जाना चाहिए.” (मराठी में धर्म शास्त्र विचार, पृष्ठ-180).

अंबेडकर ने लिखा है, “ऋगवेद काल के आर्य खाने के लिए गाय को मारा करते थे, जो खुद ऋगवेद से ही स्पष्ट है.”

ऋगवेद में (10. 86.14) में इंद्र कहते हैं, “उन्होंने एक बार 5 से ज़्यादा बैल पकाए’. ऋगवेद (10. 91.14) कहता है कि अग्नि के लिए घोड़े, बैल, सांड, बांझ गायों और भेड़ों की बलि दी गई. ऋगवेद (10. 72.6) से ऐसा लगता है कि गाय को तलवार या कुल्हाड़ी से मारा जाता था.”

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ये झूठ है । देखो

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‘अतिथि यानि गाय का हत्यारा’

अंबेडकर ने वैदिक ऋचाओं का हवाला दिया है जिनमें बलि देने के लिए गाय और सांड में से चुनने को कहा गया है.

अंबेडकर ने लिखा “तैत्रीय ब्राह्मण में बताई गई कामयेष्टियों में न सिर्फ़ बैल और गाय की बलि का उल्लेख है बल्कि यह भी बताया गया है कि किस देवता को किस तरह के बैल या गाय की बलि दी जानी चाहिए.”
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माध्यंदिनी सन्हिता ही यजुर्वेद है । तैत्तिरीय  वेद  नहीं है ।
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वो लिखते हैं, “विष्णु को बलि चढ़ाने के लिए बौना बैल, वृत्रासुर के संहारक के रूप में इंद्र को लटकते सींग वाले और माथे पर चमक वाले सांड, पुशन के लिए काली गाय, रुद्र के लिए लाल गाय आदि.”

“तैत्रीय ब्राह्मण में एक और बलि का उल्लेख है जिसे पंचस्रदीय-सेवा बताया गया है. इसका सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, पांच साल के बगैर कूबड़ वाले 17 बौने बैलों का बलिदान और जितनी चाहें उतनी तीन साल की बौनी बछियों का बलिदान.”

अंबेडकर ने जिन वैदिक ग्रंथों का उल्लेख किया है उनके अनुसार मधुपर्क नाम का एक व्यंजन इन लोगों को अवश्य दिया जाना चाहिए- (1) ऋत्विज या बलि देने वाले ब्राह्मण (2) आचार्य-शिक्षक (3) दूल्हे (4) राजा (5) स्नातक और (6) मेज़बान को प्रिय कोई भी व्यक्ति.

कुछ लोग इस सूची में अतिथि को भी जोड़ते हैं.

मधुपर्क में “मांस, और वह भी गाय के मांस होता था. मेहमानों के लिए गाय को मारा जाना इस हद तक बढ़ गया था कि मेहमानों को ‘गोघ्न’ कहा जाने लगा था, जिसका अर्थ है गाय का हत्यारा.”

‘सब खाते थे गोमांस’

इस शोध के आधार पर अंबेडकर ने लिखा कि एक समय हिंदू गायों को मारा करते थे और गोमांस खाया करते थे जो बौद्ध सूत्रों में दिए गए यज्ञ के ब्यौरों से साफ़ है.

अंबेडकर ने लिखा है, “कुतादंत सुत्त से एक रेखाचित्र तैयार किया जा सकता है जिसमें गौतम बुद्ध एक ब्राह्मण कुतादंत से जानवरों की बलि न देने की प्रार्थना करते हैं.”

अंबेडकर ने बौद्ध ग्रंथ संयुक्त निकाय(111. .1-9) के उस अंश का हवाला भी दिया है जिसमें कौशल के राजा पसेंडी के यज्ञ का ब्यौरा मिलता है.

संयुक्त निकाय में लिखा है, “पांच सौ सांड, पांच सौ बछड़े और कई बछियों, बकरियों और भेड़ों को बलि के लिए खंभे की ओर ले जाया गया.”

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यहाँ  बौद्ध लोगों ने वाम मार्गी लोगों की चर्चा की  है। सच्चे  ब्राह्मणों की नहीं  ।

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अंत में अंबेडकर लिखते हैं, “इस सुबूत के साथ कोई संदेह नहीं कर सकता कि एक समय ऐसा था जब हिंदू, जिनमें ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण दोनों थे, न सिर्फ़ मांस बल्कि गोमांस भी खाते थे.”

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अ‍ॅम्बेद्कर और  B B C  और   दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम  और  गो मांस भक्षक हिंदुओं का मत असत्य है ।

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आर्य समाज के मन्तव्य: त्रैतवाद शिवदेव आर्य गुरुकुल पौंधा, देहरादून

आर्य समाजः- श्रेष्ठ व्यक्ति का नाम आर्य है। जिसके कर्म अच्छे हों उसे श्रेष्ठ कहते हैं। सभ्य मनुष्यों के संगठन को समाज कहते हैं। संगठन अज्ञान, अन्याय, अभाव को दूर करने के लिए बनाया जाता है। आर्य समाज एक प्रजातान्त्रिक संगठन है जिसकी स्थापना महर्षि दयानन्द जी ने मुम्बई में सन् १८५७ ई॰ में की थी।

उद्देश्यः- संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।

आर्य समाज के मन्तव्य:

त्रैतवाद –आर्य समाज ईश्वर, जीव, प्रकृति इन तीनों को अनादि मानता है। किसी वस्तु के निर्माण में तीन कारणों का होना आवश्यक है।

१.उपादान कारण,             २. निमित्त कारण,         ३.साधारण कारण

१.उपादान कारणः- वस्तु के निर्माण में जो मूल तत्व है उसे उपादान कारण कहते हैं। जैसे घड़े का निर्माण में मिट्टी और आभूषण में सोना-चान्दी आदि उपादान कारण हैं।

२.निमित्त कारणः- जिसके बनाने से कुछ बने, न बनाने से न बने, प्रकारान्तर से दूसरे को बना दे उसे निमित्त कारण कहते हैं। इसके दो भेद हैं-

क. मुख्य निमित्त कारण- परमात्मा

ख. साधारण निमित्त कारण – आत्मा

३.साधारण कारणः-निमित्त और उपादान कारण के अतिरिक्त अन्य अपेक्षित कारण साधारण कारण कहलाते हैं। जैसे घड़े के निर्माण में मिट्टी उपादान कारण कुम्भकार निमित्त कारण और दण्ड, चक्रादि साधारण कारण है। वैसे ही सृष्टि निर्माण में प्रकृति साधारण कारण, ईश्वर निमित्त कारण और दिशा, आकाशादि साधारण कारण हैं।

उपादान कारण प्रकृति:- प्रकृति जगत् का उपादान कारण है जिससे कार्य जगत् उत्पन्न होता है। उपादान कारण में निम्न बातें पाई जाती हैं-

१. उपादान कारण परिणामी, नित्य और जड़ होता है। चेतन कभी भी उपादान कारण नहीं हो सकता है।

२. उपादान कारण के गुण कार्य में किसी न किसी रूप में आते हैं।

३. उपादान कारण से ही कार्य बनता है और उसी में लीन भी होता है।

४. उपादान कारण असत्य, मिथ्या और अमान रूप नहीं होता।

५. उपादान बनाने से कार्य रूप में बनता है और न बनाने से नहीं बनता।

यें सभी बातें प्रकृति में पाई जाती हैं अतः प्रकृति जगत् का उपादान कारण है। प्रकृति त्रिगुणात्मक सत्त्व रजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः सांख्य दर्शन, जड़ और अनादि है। क्योंकि कारण का कारण नहंी होता। प्रकृति के अनादि होने में हेतु

१.अभाव से भाव उत्पन्न नहंीं होता। जगत् भाव रूप है अतः उसका कारण भी भाव रूप होना चाहिये और वह प्रकृति है।

२. जगत् कार्य रूप होने से उसका कारण प्रकृति ही उपादान कारण सिध्द होती है।

३. कार्य अपने उपादान कारण में विद्यमान रहता है। जगत् कार्य है और उसकी विद्यमानता प्रकृति में है।

४. कार्य अपने कारण में लय को प्राप्त होता है अतः जगत् का उपादान कारण प्रकृति होना ही चाहिये।

५. कोई कार्य तभी सम्पन्न होता है जब उसके कारण में कार्य रूप में परिणत होने की शक्ति हो अतः प्रकृति रूपी कारण में जगत् रूप में परिणत होने की शक्ति विद्यमान रहती है।

६. किसी भी वस्तु का सर्वथा विनाश नहीं होता वह सूक्ष्म रूप हो अपने कारण में विलीन हो जाती है। प्रलयावस्था में जगत् अपने कारण प्रकृति में विद्यमान रहता है।

७. बीज के होने पर उससे अंकुर का प्रादुर्भाव होता है। प्रकृति ही जगत का मूल कारण होने से उसका अनादि होना सिध्द होता है।

प्रमाण-

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषष्वजाते।

                                                तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्यवश्न्नन्यो अभि चाकशीति।।       ऋ॰ १/१६४/२॰)

(द्वा) ब्रह्म और जीव दोनों (सुपर्णा) चेतनता और पालनादि गुणों से कुछ सदृश (सयुजा) व्याप्य-व्यापक भाव से संयुक्त (सखाया) परस्पर मित्रता युक्त (समानम्‍) वैसा ही (वृक्षम्द्ध प्रलय में छिन्न भिन्न होने वाले संसार रूप वृक्ष का (परिषष्वजाते) आश्रय लिये हुए हैं। (तयोरन्यः) इनमें से जो जीव है वह इस वृक्ष रूपी संसार में पाप-पुण्य रूप फलों को (स्वाद्वत्ति) स्वाद लेकर खा रहा है, भोग रहा है ओर दूसरा परमात्मा (अनश्नन्) न भोगता हुआ (अभि चाकशीति) चारों ओर विराजमान हो उसे देख रहा है।

अजामेकां लोहित शुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां स्वरूपाः।

                                                अजो हयेको जुषमाणोऽनुशेते जहाव्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः। (श्वेता॰उप॰ ४१५)

प्रकृति, जीव और परमात्मा ये तीनों अज अर्थात् इनका जन्म कभी नहीं होता। प्रकृति रजोगुणयुक्त, सत्त्वगुणात्मक और कृष्ण अर्थात् तमोगुणी होने से उससे विभिन्न पदार्थों की उत्पत्ति होती है। इसे अजन्मा जीवात्मा भोग रहा है और दूसरी अविनाशी, जन्म मरण से रहित ईश्वर जीवों द्वारा भोग्य होने के कारण इसका परित्याग अर्थात् भोग से पृथक है।

सृष्टि की उत्पत्ति में मूलतत्त्वों की गणना:-

१. एकत्ववाद एकत्ववाद का सिध्दान्त कहता है कि जड़ या चेतन तत्त्व से ही सृष्टि का निर्माण हुआ है। जड़ से सृष्टि का निर्माण हुआ है। जड़ से सृष्टि की उत्पत्ति चार्वाक और वर्तमान भौतिक वादियों (वैज्ञानिकों) की है।

चेतन तत्व से ही सृष्टि का निर्माण हुआ यह मान्यता शंकराचार्य, यहूदी, ईसाई, मुसलमानों की है। इनका कहना है कि एक ईश्वर ही अनादि तत्व है जिसने अभाव से अर्थात् अपनी माया से जीव तथा जगत् की उत्पत्ति की है।

२. द्वैतवाद द्वैतवादियों का कहना है कि मूलभूत सत्ता दो हैं चेतन जीव तथा भौतिक द्रव्य प्रकृति। यह धारणा सांख्य दर्शन की मानी जाती है।

३. त्रैतवाद इस सिध्दान्त को मानने वाले ईश्वर, जीव, प्रकृति को मूलभूत सत्ता मानते हैं रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य और महर्षि दयानन्द जी इसी सिध्दान्त को मानने वाले थे।

समीक्षा:-एकत्ववादियों का मानना है कि भौतिक द्रव्य से ही सृष्टि का निर्माण हुआ है। जैसे दही और गोबर को मिला देने से उसमें कुछ समय पश्चात् बिच्छू उत्पन्न हो जाते हैं। इसी भांति मदिरा बनाने के लिये कुछ पदार्थों को मिला देने से कालान्तर में उनमें गति उत्पन्न हो जाती है। वर्तमान समय में बैटरी का निर्माण भी तेजाब और जस्ता की प्लेट का संयोग होने पर विद्युत प्रवाहित होने लगती है। इसी भांति जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी के तत्वों का संयोग होने से सृष्टि का निर्माण स्वयमेव होता है और इन तत्वों के क्षीण हो जाने पर प्रलय भी अपने आप होती है। सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय का यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है।

समाधान:-यदि गोबर या दही को सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखें तो उसमें सूक्ष्म जीव पहले से विद्यमान दिखाई देंगे जो उचित वातावरण में बिच्छू के शरीर में परिणत हो गये। दही और गोबर को मिलाकर अनुकूल वातावरण में रखने वाली चेतन सत्ता का होना आवश्यक है।

यदि सृष्टि का बनना और बिगड़ना स्वभाव से माने तो स्वभाव से ही उत्पन्न पदार्थ का विनाश नहीं होगा। यदि विनाश को स्वाभाविक माने तो फिर उत्पत्ति नहीं होगी। दोनों अर्थात् उत्पत्ति और विनाश यदि स्वाभाविक माने जायें तो अनवस्था दोष आ जायेगा।

आज का विज्ञान यह मानता है कि सृष्टि की अन्तिम सत्ता आत्मा-परमात्मा न होकर ऊर्जा अर्थात् वे सूक्ष्म विद्युत तरंगे हैं जो मेंढक की गति से प्रवाहित हो रही है। ये तरंगें तीन प्रकार के विद्युत कणों से बनी हैं जिन्हें इलेक्ट्राॅन, प्रोटाॅन, न्यूट्राॅन कहा जाताहै।

समाधान- यदि विद्युत तरंगों का प्रवाह विच्छेद युक्त है अर्थात् मेंढक की भांति कुदान मार-मार कर प्रवाहित होता है और फिर बन्द हो जाता है तो उसके बन्द या विच्छेद होने पर उसे दोबारा गति किससे प्राप्त होती है। जड़ पदार्थ अपने आप गतिशील नहीं हो सकता।

जिन परमाणुओं से सृष्टि का निर्माण होता है वहां पर भी व्यवस्था है। प्रत्येक परमाणु के केन्द्र में न्यूट्राॅन होता है और उसके समीप ही प्रोटाॅन के कण रहते हैं। जितने प्रोटाॅन के कण होते हैं, उतने ही इलेक्ट्राॅनों की संख्या होती है। इलेक्ट्राॅन विपरीत दिशा में गतिशील रहते हैं। उनमें गति एवं निश्चित अनुपात में प्रोटाॅन, इलेक्ट्राॅन की विद्यमानता किसी दूसरी सत्ता द्वारा ही सम्भव है। जड़ में स्वयं यह गुण नहंी आ सकता।

‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ परमाणु सौरमण्डल की एक छोटी इकाई का ही नमूना है। सूर्य के चारों ओर हमारी पृथ्वी सहित दूसरे ग्रह-उपग्रह घूम रहे हैं। सूर्य भी अपनी कक्षा में गति कर रहा है। हमारी आकाश गंगा में सूर्य सदृश लाखों नक्षत्र एवं लोक लोकान्तर हैं जो अपनी-अपनी कक्षा में भ्रमण कर रहे हैं। ऐसी करोड़ों आकाशगंगाओं देखी जा चुकी हैं। इनहें कौन गति दे रहा है इसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं है।

शंकर का अद्वैतवाद:- शंकराचार्य का मत है कि सृष्टि की मूल सत्ता केवल एक चेतन ईश्वर है। ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या। जैसे मकड़ी अपने में से ही जाला बुनने के लिए तन्तु निकालती है और फिर उसे समेट भी लेती है वैसे ही ब्रह्म अपनी माया से सृष्टि की उत्पत्ति कर अपने में ही समेट लेता है। माया ब्रह्म की शक्ति है जो न सत् न ही असत् अर्थात अनिर्वचनीय है। जैसे अज्ञान के कारण रज्जु में सर्प और सीप में रजत का भ्रम हो जाता है वैसे ही यह जगत् स्वप्न के समान मिथ्या है। जैसे एक ही मूर्ख का प्रतिबिम्ब सहस्रों दर्पणों में अवभाषित हो अनेक रूपों में दिखाई देता है वैसे ही एक ब्रह्म अनेक अन्तः करणों से युक्त हो बहुत दिखाई दे रहा है।

समाधान:-जब अकेला ब्रह्म ही था तो उससे यह जड़ संसार कैसे उत्पन्न हो गया। यदि यह ब्रह्म की माया है तो फिर ब्रह्म और माया दो हो गये। यदि माया सत् है तो एकत्व का सिध्दान्त नहीं टिकता असत् मानने पर उसकी प्रतीति कैसे होगी। यदि उसे सत् असत् दोनों ही मान लिया जाये तो परस्पर विरोध उत्पन्न हो जायेगा। उसे सत्असत से भिन्न अनिर्वचनीय मानना निरर्थक है। मकड़ी और उसका सूत्र निकालना दो हो गये। क्योंकि सूत्र तो मकड़ी के शरीर से निकलता है और शरीर का निर्माण प्रकृति के पदार्थों से होता है। सीप में रजत और रज्जु में सर्प का भ्रम होना भी द्वैत को सिध्द करता है। जिसका भ्रम हो रहा है वह वस्तु दूसरी है। ऐसे ही स्वप्न भी देखे सुनें विषयों से सम्बन्धित होता है और जागने पर उन पदार्थों की सत्ता समाप्त हो जाती है परन्तु संसार तो दिखाई दे रहा है।

यदि ब्रह्म अपने में से ही जगत् का निर्माण करता है तो विकार वाला हो गया और उससे निर्मित जगत् भी चेतन स्वरूप वाला होना चाहिये। जो यह कहते हैं कि खुदा ने कुन कहा और सृष्टि रचना हो गई सो अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं हो सकती। कार्य से पहले उसके कारण का होना आवश्यक है।

द्वैतवाद:- यह पहले कहा जा चुका है कि अकेला जड़ या चेतन सृष्टि की उत्पत्ति करने में समर्थ नहीं हो सकता। जब तक चेतन उसका निमित्त कारण नहीं बने तब तक जड़ स्वयं बन या बिगड़ नहीं सकता। इसलिए सृष्टि उत्पत्ति के लिये दो सत्ताओं का मानना अनिवार्य है। सांख्य दर्शन में इसे प्रकृति पुरूष कहां है ओर गीता ने क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ। शरीर, मन, बुध्दि, इन्द्रियाँ क्षेत्र है और पुरूष इनका स्वामी।

सांख्य दर्शन के प्रमाण:-

संहत परार्थत्वात्।।१।१४॰।।

संहत शरीरादि पृथिव्यादि विभिन्न तत्वों के योग से निर्मित हैं ओर संघात दूसरों के लिए होता है। जैसे खट्वादि पुरूष के लिए निर्मित किये जाते हैं वैसे ही जीवात्मा के लिये यह शरीर प्राप्त हुआ है ओर वह इससे भिन्न है।

अधिष्ठानात्।।१।१४२।।

रथ तभी चलता है जब इसका चलाने वाला हो। शरीर भी एक रथ है। (आत्मानं रथं विध्दि शरीरं रथमेव च) जिसका अधिष्ठाता चेतन आत्मा है।

भोक्तृभावात् ।।१।१४३।।

संसार के सब विषय भोग्य और पुरूष उनका भोक्ता है।

कैवल्यार्थं प्रवृत्तेश्च।।१।१४४।।

सब जीवों की मोक्ष अर्थात् सांसारिक दुःखों से छूटने की प्रकृति देखी जाती है। बन्धन में कोई नहीं रहना चाहता। यदि आत्मा नहीं है तो दुःख से छूटना कौन चाहता है?

षष्ठी व्यपदेशादपि सांख्य ६/३

मेरा शरीर, मेरा मन इत्यादि व्यवहार से शरीर से भिन्न आत्मा सिध्द होता है।

अस्त्यात्मा नास्तित्व साधनाभावात् (सांख्य ६/१)

आत्मा है क्योंकि उसके न होने में कोई प्रमाण नहीं है। जो मैं कहता हुॅं वह शरीर से पृथक चैतन्य स्वरूप आत्मा ही जानना चाहिए।

अन्य प्रमाण:-

१. कोई भी मरना नहीं चाहता। यह मरने से बचने वाला चेतन आत्मा ही है जिसने अनेक जन्मों में मृत्यु दुःख का अनुभव किया है।

२. यदि जीव का पृथक अस्तित्व न माना जाये तो जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं का अभाव होगा। ये अवस्थायें होती है अतः जीव का अस्तित्व भी सिध्द है।

३. इच्छा, द्वेष, प्रधान, ज्ञान आदि से भी जीव प्रकृति से भिन्न सिध्द होता है।

४. जड़ का प्रकाशक, जड़ से भिन्न होता है, शरीर, इन्द्रिय, मन-बुध्दि को प्रकाश गति देने वाला जीव इससे भिन्न है।

       बालादेकर्मणायस्कमुतैकं नैव दृश्यते।

     ततः परिष्वजीयसी देवता सा मम प्रिया।।

(अथर्व॰ १॰/८/२५)

एक (जीवात्मा) बाल से भी अधिक सूक्ष्म है और एक (प्रकृति) मानो दीखती ही नहीं। उससे भी अधिक सूक्ष्म और व्यापक जो परमात्मा है वही मेरा प्रिय है।

आत्मा का परिणामः-

बालाग्र शत भागस्य शतधा कल्पितस्य च।

                                                                             भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते।।

(श्वेता॰ ५/९)

बाल के अगले भाग के सौ टुकड़े कर दिये जायें, उसके सौवें भाग के भी सौ हिस्से कर दिये जायें, उस सूक्ष्म भाग के समान जीव का प्रमाण दें किन्तु उसमें सामथ्र्य बहुत है। जीव स्व, सूक्ष्म पदार्थ है जो एक परमाणु में भी रह सकता है। उसकी शक्तियाँ शरीर में प्राण, बिजली और नाड़ी आदि के साथ संयुक्त होकर रहती है, उनसे सब शरीर का वर्तमान जानता है।

(सत्यार्थ प्रकाश द्वादश समुल्लास)

प्रश्न: जीव शरीर में विभु है या परिच्छिन्न?

उत्तर: परिच्छिन्न। जो विभु होता तो जागृत, स्वप्न सुषुप्ति, मरण, जन्म, संयोग, वियोग, जाना, आना कभी नहीं हो सकता। इसलिए जीव का स्वरूप अल्पज्ञ, अल्प अर्थात् सूक्ष्म है। सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास।

आत्मा के गुण, कर्म स्वभाव

प्रश्न: जीव और ईश्वर का स्वरूप, गुण कर्म और स्वभाव कैसा है?

उत्तर: दोनों चेतन स्वरूप है। स्वभाव दोनों का पवित्र, अविनाशी और धार्मिकता आदि हैं। परन्तु परमेश्वर के सृष्टि उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय सबको नियम में रखना, जीवों को पाप-पुण्य रूप फलों को देना आदि धर्मयुक्त कर्म हैं और जीव के सन्तानोत्पत्ति, उनका पालन, शिल्प विद्या आदि अच्छे-बुरे कर्म हैं।

इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिंगभूति      (न्याय द॰ १/१/१॰)

प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवन मनोगतीन्द्रियान्तरविकाराः सुख दुःखे इच्छाद्वेषौ प्रयत्नश्चात्मनो लिंगानि।।                                                 (वैशेषिक दर्शन ३/२/४)

दोनों सूत्रों में (इच्छा) पदार्थों के प्राप्ति की अभिलाषा (द्वेष) दुःखादि की अनिच्छा, वैर, (प्रयत्न), पुरूषार्थ, बल, (सुख) आनन्द (दुःख) विलाप, अप्रसन्नता (ज्ञान) विवेक, पहिचानना। ये तुल्य हैं परन्तु वैशेषिक में (प्राण) को बाहर निकालना (अपान) प्राण को बाहर से भीतर को लेना, (निमेष) आंख मींचना (उन्मेष) आंख का खोलना (जीवन) प्राण का धारण करना (मन) निश्चय, स्मरण और अहंकार करना (गति) चलना, (इन्द्रिय) सब इन्द्रियों को चलाना (अन्तरविकार) भिन्न-भिन्न क्षुधा, तृष्णा, हर्ष, शोकादि का होना, ये जीवात्मा के गुण परमात्मा से भिन्न हैं। इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी, क्योंकि वह स्थूल नहीं है।

जब तक आत्मा देह में होता है तभी तक ये गुण प्रकाशित रहते हैं और जब शरीर छोड़ कर चला जाता है, तब ये गुण शरीर में नहीं रहते। जिसे होने से जो हों और न होने से न हों, वे गुण उसी के होते हैं। जैसे दीप एवं सूर्यादि के होने से प्रकाशादि का होना और न होने से न होना है, वैसे ही जीव और परमात्मा का विज्ञान गुण द्वारा होता है।

पुरूष बहुत्व:-

जन्मादि व्यवस्थातः पुरूष बहुत्वम् (सांख्य १.१४९)

संसार में देखा जाता है किसी का जन्म हो रहा है और किसी की मृत्यु हो रही है। जन्म-मरणादि अवस्थायें तभी सम्भव है जब अनेक जीवात्मा होंवे। इसमें प्रश्न उठता है कि मुक्ति का साधन करके बहुत सारे लोग मुक्त हो जायेंगे। इसका उत्तर अगले सूत्र में दिया है-

  इदानीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेदः (सांख्य १/१५९)

हम देख रहे हैं कि वर्तमान समय में पुरूषों का सर्वथा उच्छेद नहीं है। कोई मरता है तो दूसरा जन्म लेता है। मुक्ति की अवधि समाप्त होने पर आत्मा फिर शरीर     धारण करता है। इसलिये सर्वथा उच्छेद का प्रश्न ही नहीं उठता। आवागमन का यह चक्र चलता ही रहता है।

त्रैतवाद:-

ईश्वर:  जिस प्रकार घड़े को बनाने में मिट्टी उपादान कारण और कुभ्म्भकार निमित्त कारण है वैसे ही सृष्टि की उत्पत्ति में प्रकृति उपादान कारण और ईश्वर निमित्त कारण है। जीव साधारण निमित्त कारण है। जड़ पदार्थ में यह सामथ्र्य नहीं कि वह स्वयं योजनाबध्द हो जगत् रूप हो जाये। जीव का भी सामथ्र्य इतना नहीं कि इस विशाल सृष्टि की रचना कर सके। तब केवल ईश्वर ही रह जाता है जो निराकार, सर्व व्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान होने के कारण परमाणु में भी व्याप्त हो उसे गति प्रदान कर सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय कर रहा है।

ईश्वर के कार्य:-

१. सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करना।

२. सब जीवों को कर्मानुसार यथायोग्य फल देना।

गुण:-ईश्वर सगुण और निगुण दोनों है।

स्वभाव:-ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप है।

ईश्वर की सिध्दि:-उदयनाचार्य ने न्याय कुसुमा´जलि में ईश्वर की सिध्दि में आठ प्रमाण दिये हैं-

कार्ययोजन धृत्यादेः पद प्रत्ययतः श्रुतेः।

                                                     वाक्यात् संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वकृदव्ययः।।

(न्याय कुसुमांजलि)

१. कार्य-सृष्टि की रचना कार्य है। अतः इसका कारण भी होना चाहिये। बिना कारण के कार्य नहीं हो सकता।

२. आयोजन-सृष्टि रचना के समय परमाणुओं को मिलाने में क्रिया हुई होगी। उस क्रिया का कर्ता होना चाहिये।

३. धृत्यादि-सृष्टि रचना के अनन्तर भी उसका कोई धारण करने वाला होना चाहिये।

४. पद – पद गति का वाचक है। सृष्टि के प्रारम्भ में मनुष्यों को बुना, खेती करना और अन्य लौकिक व्यवहार पहले किसी ने सिखाये होंगे क्योंकि ये नैमित्तिक कर्म हैं।

५. प्रत्यय – वेदों में ज्ञान-प्रदान करने की शक्ति मन्त्रों के माध्यम से किसने दी?

६. श्रुतेः – वेदों का ज्ञान किसने दिया?

७. वाक्य – मनुष्यों को बोलना किसने सिखाया भाषा किसने दी?

८. संख्या- यह किसको सूझा कि दो परमाणुओं से द्वयणु और तीन द्वयणु से त्रसरेणु इत्यादि बनते हैं।

इन प्रमाणों के आधार पर ईश्वर की सिध्दि होती है।

अन्य प्रमाण

१. जीवों के किये हुये कर्म न स्वयं फल दे सकते हैं और न स्वयं जीवन ही फल की व्यवस्था अपने आप कर सकते हैं। अतः ईश्वर की सिध्दि कर्मफल के दाता के रूप में भी है।

२. जगत् में सर्वत्र नियम देखा जाता है अतः उसका नियामक भी होना चाहिये।

उत्पत्ति :-

                                                इयं विसृष्टिर्यत आबभूव ॰ १॰/१२९/७

जिससे यह सृष्टि प्रकाशित हुई है।

स्थिति :-

 स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमाम् ॰ १॰/१२१/१

जिसने पृथिवी से लेके सूर्यपर्यन्त जगत् को धारण किया हुआ है।

प्रलय :-

नहि ते अग्ने तन्वः क्रूरमानंश मत्र्यः।

कपिर्बभस्ति तेजनम्।।(अथर्व॰ ६/४९/१द)

हे परमेश्वर! मनुष्य तेरे क्रूर स्वरूप को नहीं जानते प्रलय के समय कम्पाने वाले आप प्रकाशमान सूर्य मण्डल को खा जाते हैं जैसे प्रसूता गो अपनी झिल्ली को खा लेती है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश  के सप्तम समुल्लास में इस विषय पर लिखा है-

प्रश्न-आप ईश्वर-ईश्वर कहते हो, उसकी सिध्दि किस प्रकार करते हो?

उत्तर-सब प्रत्यक्षादि प्रमाणों से।

प्रश्न-ईश्वर में प्रत्यक्ष प्रमाण कभी नहीं घट सकता?

उत्तर-इन्द्रियों का विषयों के साथ जो सीधा सम्बन्ध होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। अब विचारना चाहिये कि इन्द्रिय और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं। जैसे शब्द, स्पर्श रूप, रस, गन्ध का ज्ञानेन्द्रियों से प्रत्यक्ष होता है वैसे ही इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना विशेष आदि ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। और जब आत्मा किसी गलत कार्य में प्रवृत्त होता है उस समय आत्मा के भीतर बुरे काम करने में भय, शंका, लज्जा तथा अच्छे कर्मों के करने में अभय, निशंकता और आनन्दोत्साह उठता है। यह जीवात्मा की ओर से नहीं किन्तु परमात्मा की ओर से है।

और जब जीवात्मा शुध्द होके शुध्दान्तकरण से युक्त योगी समाधिस्थ होकर आत्मा और परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है। तब उसको उसी समय दोनों (गुण और गुणी) प्रत्यक्ष होते हैं।

।। इत्योम्।।

The sad decline of the Arya Samaj By Dr. Vidhu Mayur

It is not possible to say with certainty as to when the Arya Samaj movement began to decay.  As good a guess as any on this is 1947, the year in which Punjab was partitioned into India and Pakistan.  It is probable that this dealt a grievous blow to the Arya Samaj movement because Lahore was where its heart had beat since its inception; with one fell swoop the arteries, connecting it to other parts of its body in India, were thus severed.  Whether this decline is terminal is too painful a question to contemplate. Why has the slump occurred?

For a start, the modern practice of democracy must shoulder considerable blame.  At its birth, the Arya Samaj movement adopted a constitution informed by the colonial system in place at that time. The legacy, left by the British legal and political system to India, includes the civil law guidance that charities should have in place an electoral system where leaders are elected by members who pay an annual subscription, on a one-member-one-vote basis.  There are fatal weaknesses in this because almost anyone can become a member of an Arya Samaj through the ridiculously expedient route of paying a tiny sum of money for annual membership, and by signing a form pledging allegiance to the movement.  Svami Dayanand must have recognised this flaw because, before he died, he set up the Arya Paropkarini Sabha to manage his affairs.  Crucially, this Sabha was, in legal terms, a Trust – a body run by Trustees who were not elected but appointed by him (presumably on the basis that he fully trusted them to be Aryas in the true sense of the word). Dharma is about one’s conduct being compatible with Vedic ethics – it takes a life-time (if not more) for an Arya to acquire sanskaars that signally cannot be acquired instantly.  It is true to say, therefore, that far too many so-called Samaj members, and leaders, have obtained their ‘brand’ identity through this completely insincere approach.  Amazingly, it is even possible to purchase life membership in many Arya Samajs – this is sold on the basis that, thereby, one can pay a greatly discounted annual fee!  Tragically, such is the extent of the rot that has set in within a movement intended to spread the practice of nishkaam (selfless and unconditional) yajna (altruism).  Arya Samajs are therefore dangerously vulnerable to easy infiltration and sabotage by enemies intent on weakening it; could it be that this is mainly why it has been brought to its knees?

Even worse, however, is that this system of organisation spawns leaders who are elected, exactly, as are politicians. Instead of leaders being appointed on merit, they come to the fore via popularity contests. It would be fair to say that the vast majority of Arya Samajs worldwide are and have been led by people whose political skills are far superior to their Vedic morals; greed for office is the result. Is it any surprise therefore that the sublime principles and goals Svami Dayanand Sarasvati intended for preservation and propagation by the society he set up have lapsed into dormancy?  For, politicians the world over are, essentially, populist.  Becoming popular in order to attract votes does not mix at all well with acting in a principled manner – in fact, are these two behaviours not mutually exclusive? Almost invariably, such people are more willing to compromise key principles (to remain in power) than preserving them.  For example, they fail with Principle 9 – no one should be content to promote their own good but should instead look for their own good in promoting the good of all.

Another historically alien concept that has taken root in the Arya Samaj is secular humanism.  Atheistic humanism is ultimately antithetic to the Vedic dharma – principles 1, 2 and 3 of the Arya Samaj embrace, celebrate and eulogise God, unambiguously so. Unfortunately, those who are too ignorant or lazy to worship God as taught by the Vedas tend to become followers of the idea of moral relativism that now is in the ascendancy all over the world, and consequently fail in practising principle 5 of the Arya Samaj, that is, all acts should be performed in accordance with dharma by differentiating right conduct from wrong.  How can people succeed in this if they are expected to accept that there are no absolute rights and wrongs?  And so, we see evils such as abortion, deviant sexual behaviour and mercy killing now being promoted as examples of modern day ethics.  Other such aberrations bequeathed by the so-called Age of Enlightenment are the industrialised slaughter of animals, genetic modification of living organisms and a selfish emphasis on human rights rather than selfless responsibilities – almost all resulting from the worship of science having supplanted that of God.  This explains why Samajs are following and teaching what is not truly Vedic, but a contaminated or diluted version of Dharma.

For a creed that totally rejects the idea of a hereditary caste system, it is shocking that the Arya Samaj has actually been infected with the notion of Aryan identity being inherited; it is not uncommon for people in positions of leadership uttering with pride ‘my father was a great servant of the Samaj’ or ‘I come from a strong Arya Samaj family’.  The intention behind such statements is to offer evidence of sincerity or authenticity of their qualifications for leadership or membership of the organisation, irrespective of the merits – or demerits – of their day-to-day conduct.  Nepotism, in the form of reserving committee posts for family members, is a consequence of this.  At AGMs or elections, dissensions between factions occur frequently and are settled on the basis of voter turnout.  Egos run rampant, with elections being won by those who boast their achievements most volubly.  It is a bitter irony that these so-called Aryas are, therefore, operating exactly like the corrupt Brahmins that have been the scourge of India for so long, justifying seizure of the status of dominant and self-perpetuating elite by dint of birth-right, and not on ability or merit.

Capitalism rears up its ugly head in the form of power-seekers trying to show that they have raised the most donations, held the biggest yajnas or organised the erection of big halls or new premises. Officers attend weekly meetings infrequently, but are unfailingly present at meetings of the executive committee.  The few sincere servants in each Samaj are taken for granted or sidelined.  Devout members are mocked for being unfashionably and unhealthily faithful to God.  Hypocrisy is rife, as commonly exemplified by non-vegetarianism, alcohol use or sympathy for non-Vedic religious practices and beliefs.  Fund-raising has become an end in itself with sizeable savings being deposited in bank accounts.  Herein lies a most sinister danger; because such wealth is a magnet for the corrupt to scurrilously try to acquire power as Samaj officials in order to attempt to embezzle such funds.  It is probably true to say that litigation has done more than anything else to weaken the Arya Samaj in India into a state of paralysis.  The motive behind such law suits is, usually, pecuniary gain or megalomania.  What has been completely forgotten is that the key reason for fund-raising through donations by the public is for the funds to be immediately spent on good causes; instead of making such charitable investments funds are being kept saved in ‘war-chests’ as an end in itself.

Sadly, what has also become vanishingly rare is the spirit of daana and seva; a painful irony in light of the sixth principle of Dayanand’s mission: that the prime object of the Arya Samaj is to do good to the world, that is, to promote the physical, social and spiritual good of all.  Philanthropic works or charitable schemes are so few and far between that the Samaj can no longer claim to be meaningfully active in ongoing social reform.  By becoming to depend on government funding the DAV schools have sold their soul, for he who pays the piper calls the tune.  The Indian State is secular and has no interest whatsoever in prioritising or preserving the teaching of the Vedic Dharma to schoolchildren.  For the DAV educational wing of the Arya Samaj to have sold out in this way was a monumental error.

Another fatal mistake made by the movement early in its history was to train and employ priests to run branches of the Samaj.  The deathly blow this has delivered is twofold: firstly sustaining an apathy amongst members to study the Vedas (because svaadhyaaya for them begins and ends with listening to the occasional sermon) and secondly because many priests succumb to the evil of monetary gain – ironically one of the evils of Puranic Hinduism that Dayanand wanted to stamp out most of all. The worst consequence of this is that the weekly agnihotra has become a meaningless religious ritual not dissimilar to attending a temple to worship an idol of God (in this case the idol being a fire). This hugely important point needs further explanation.  Devayajna is an act the daily performance of which is encouraged by the Vedas; this act of sacrifice is to be carried out at home for spiritual and environmental cleansing.  Instead, the vast majority of Samajists see fit to observe yajna being conducted by a priest as their main contribution towards practising the Vedic dharma.  Priests encourage this non-performance when their duty is actually as teachers, that is, to teach and propagate the domiciliary performance of yajna in community households.  Lay members capable of conducting homa are vanishingly rare.  So, purohits trained in Arya Samaj Gurukuls, with the intention of spreading the Vedic light, actually end up working to maintain darkness in community life.  This entirely thwarts not only the third principle of the Arya Samaj, namely, that it is the duty of every Arya to read, study and teach the Vedas in order to deliver the ideal of krinvanto vishvam aryam – making all humanity noble by cleansing society of wrong beliefs about God but even more importantly, failing with the seventh principle of the Arya Samaj – instilling a sense of devotion to duty, the duty to make the world a better place by promoting justice, morality and fraternal love.

The sad conclusion is that the Arya Samaj movement has, effectively, become yet another sect.  It was Dayanand’s intention to defeat sectarianism by uniting the entire human family and even having the lofty aspiration of a world with one country and one government.  Instead, Samajs behave as do other religions, such as, having their own church or temple as well as their own tribal identity.  Although communal worship is an essential means for promoting social cohesion, it should not be an end in itself.  Samajs were intended to function as adult education colleges aimed at training congregation members to (i) practise the five mahayajnas at home and (ii) go out into the world to spread the word of the Vedas.  Instead, members retreat inwards – by seeing their role as no more than attending a communal havan as their main act of worship.  It cannot be emphasised enough that the main cause of this is having priests in situ.  The great Vedic age dating back to six thousand years ago was based on preachers acting as atithis.  These were ascetics with no fixed abode who served the world by delivering Vedic education by, selflessly and dedicatedly, visiting place to place.  Our salaried priests, indolently, do the exact opposite (other than making money by conducting weddings and funerals).

The great philosopher Aristotle judged democracy to be the worst type of government.  He argued that suffrage is a type of mob rule.  Certainly, this is true for what has happened to the Arya Samaj movement – a body once great enough to play a key role in securing independence for India but now being led into irrelevance by unprincipled politicians working in cahoots with salaried priests.  Ultimately, the grass-root ‘members’ must take the blame for this downfall because of their individual diffidence and disinclination towards either practising the Vedic Dharma with dedication and diligence or, more importantly, seeing it as a major priority that the upbringing of their children is founded upon the sixteen sanskaars.  A key failing is that very few young people attend Arya Samaj meetings regularly; ultimately this is down to how parents bring up their children from infancy and whether parents bother with the Samaj themselves. Furthermore, income received from donations is embarrassingly low – the Arya Samaj movement is, effectively, failing with fund-raising. The format of the 3-hour long satsang is anachronistic i.e. belongs to a bygone era of 125 years ago. Arya Samajs are are failing to both spread Dayanand’s teachings as well as at putting them into a 21st century context.  A measure of the extent of the decline is that the websites of most branches are either quite primitive or not regularly updated; or both.

How Dayanand’s mission can be revived and resurrected is a most forbidding challenge that needs to be addressed urgently.

शैतान कहाँ है?- प्रो राजेंद्र जिज्ञासु (कुछ तड़प-कुछ झड़प फरवरी द्वितीय २०१५)

ईसाई तथा इस्लामी दर्शन का आधार शैतान के अस्तित्व पर है। शैतान सृष्टि की उत्पत्ति  के समय से शैतानी करता व शैतानी सिखलाता चला आ रहा है। उसी का सामना करने व सन्मार्ग दर्शन के लिए अल्लाह नबी भेजता चला आ रहा है। मनुष्यों से पाप शैतान करवाता है। मनुष्य स्वयं ऐसा नहीं सोचता। पूरे विश्व में आज पर्यन्त किसी भी कोर्ट में किसी ईसाई मुसलमान जज के सामने किसी भी अभियुक्त ईसाई व मुसलमान बन्धु ने यह गुहार नहीं लगाई कि मैंने पाप नहीं किया। मुझ से अपराध करवाया गया है। पाप के लिए उकसाने वाला तो शैतान है।

किसी न्यायाधीश ने भी कहीं यह टिप्पणी नहीं की कि तुम शैतान के बहकावे में क्यों आये? दण्ड कर्ता को ही मिलता है। कर्ता की पूरे विश्व के कानूनविद् यही परिभाषा करते हैं जो सत्यार्थप्रकाश में लिखी है अर्थात् ‘स्वतन्त्रकर्ता’ कहिये शैतान कहाँ खो गया? फांसी पर तो इल्मुद्दीन तथा अ    दुल रशीद चढ़ाये गये। क्या यह महर्षि दयानन्द दर्शन की विजय नहीं है? अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, इरान, पाकिस्तान व मिश्र में इसी नियम के अनुसार अपराधी फांसी पर लटकाये जाते हैं और कारागार में पहुँचाये जाते हैं।

सर सैयद अहमद का लेख याद कीजियेः मुसलमानों के सर्वमान्य नेता तथा कुरान के भाष्यकार सर सैयद अहमद खाँ ने अपने ग्रन्थ में एक कहानी दी है। एक मौलाना को सपने में शैतान दीख गया। मौलाना ने झट से उसकी दाढ़ी को कसकर पकड़ लिया। एक हाथ से उसकी दाढ़ी को खींचा और दूसरे हाथ से शैतान की गाल पर कस कर थप्पड़ मार दिया। शैतान की गाल लाल-लाल हो गई। इतने में मौलाना की नींद खुल गई। देखता क्या है कि उसके हाथ में उसी की दाढ़ी थी जिसे वह खींच रहा था और थप्पड़ की मार से उसी का गाल लाल-लाल हो गया था।

इस पर सर सैयद की टिप्पणी है कि शैतान का अस्तित्व कहीं बाहर नहीं (खारिजी वजूद) है। तुम्हारे मन के पाप भाव ही तुम से पाप करवाते हैं। अब प्रबुद्ध पाठक अपने आपसे पूछें कि यह क्रान्ति किसके पुण्य प्रताप से हो पाई? यह किसका प्रभाव है? मानना पड़ेगा कि यह उसी ऋषि का जादू है जिसने सर्वप्रथम शैतान वाली फ़िलास्फ़ी की समीक्षा करके अण्डबण्ड-पाखण्ड की पोल खोली।

‘जवाहिरे जावेद’ के छपने परः- देश की हत्या होने से पूर्व एक स्वाध्यायशील मुसलमान वकील आर्य सामाजिक साहित्य का बड़ा अध्ययन किया करता था। उस पर महर्षि के वैदिक सिद्धान्त का गहरा प्रभाव पड़ता गया परन्तु एक वैदिक मान्यता उसके गले के नीचे नहीं उतर रही थी। जब जीव व प्रकृति भी अनादि हैं, इन्हें परमात्मा ने उत्पन्न नहीं किया तो फिर परमात्मा इनका स्वामी कैसे हो गया? प्रभु जीव व प्रकृति से बड़ा कैसे हो गया? तीनों ही तो समान आयु के हैं। न कोई बड़ा और न ही छोटा है।

आचार्य चमूपति की मौलिक दार्शनिक कृति ‘जवाहिरे जावेद’ के छपते ही उसने इसे क्रय करके पढ़ा। पुस्तक पढ़कर वह स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के पास आया। महाराज के ऐसे कई मुसलमान प्रेमी भक्त थे। उसने स्वामी जी से कहा कि आर्यसमाज की सब मान्यताएँ मुझे जँचती थीं, अपील करती थीं परन्तु प्रकृति व जीव के अनादि व का सिद्धान्त मैं नहीं समझ पाया था। पं. चमूपति जी की इस पुस्तक को पढ़कर मेरी सब शंकाओं का उत्तर  मिल गया।

मित्रो! कहो कि यह किस की दिग्विजय है। इसी के साथ यह बता दें कि दिल्ली के चाँदनी चौक बाजार में किसी गली में एक प्रसिद्ध मुस्लिम मौलाना महबूब अली रहते थे। मूलतः आप चरखी दादरी (हरियाणा) के निवासी थे। आपने भी यह अद्भुत पुस्तक पढ़ी। फिर आपने एक बड़ा जोरदार लेख लिखा। श्री सत्येन्द्र सिंह जी ने हमें उस लेख का हिन्दी अनुवाद करने की प्रेरणा दी। अब समय मिलेगा तो कर देंगे। इस लेख में पण्डित जी के एतद्विषयक तर्कों को पढ़कर मौलाना ने सब मौलवियों से कहा था कि यदि प्रकृति व जीव के अनादित्व को स्वीकार न किया जावे तो कुरान वर्णित अल्लाह के सब नाम निरर्थक सिद्ध होते हैं। मौलाना की यह युक्ति अकाट्य है। कैसे? अल्लाह के कुरान में ९९ नाम हैं यथा न्यायकारी, पालक, मालिक, अन्नधन (रिजक) देने वाला आदि। अल्लाह के यह गुण व नाम भी तो अनादि हैं। जब जीव नहीं थे तो वह किसका पालक, मालिक था? किसे न्याय देता था? प्रकृति उत्पन्न नहीं हुई थी तो जीवों को देता क्या था? तब वह स्रष्टा (खालिक) कैसे था? किससे सृजन करता था? मौलाना की बात का प्रतिवाद कोई नहीं कर सका। अब प्रबुद्ध पाठक निर्णय करें कि यह किस की छाप है? यह वैदिक दर्शन की विजय है या नहीं?

परीक्षा में सफलता के 101 सूत्र : डॉ त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय

परीक्षा  पूर्व
पढ़े चलो
पढ़े चलो
चलता हुआ सतयुग है।
उठकर खड़ा हुआ त्रेता है।
करवट बदलता द्वापर है।
सोता हुआ कलयुग है।
तुम सतयुग हो।।1।।
परीक्षा कोर्स के विषयों में सर्वव्यापकता का नाम है। जो विषयों में जितना जितना सर्वव्यापक है वह उतने उतने अंक पाएगा। शत प्रतिशत अंक पाना असंभव नहीं है।।2।।
शत प्रतिशत कोर्स से अधिक भी तुम पढ़ सकते हो। शत प्रतिशत से अधिक पढ़ने से अंक सहजतः अधिक मिलते हैं।।3।।
पच्चीस पचहत्तर सिद्धान्त से पढ़ो।
पहली बार पूरी पुस्तक पढ़ो। दूसरी बार पूरी पुस्तक पढ़ते समय सार सार पच्चीस प्रतिशत पेंसिल से रेखांकित कर लो। भविष्य में सार सार पढ़ो।।4।।
सार सार का सार संक्षेप करीब पचास प्रतिशत निकालो जो पूरी पुस्तक का मात्र साढ़े बारह प्रतिशत होगा। यह नोट्स है।।5।।
सार संक्षेप को अपने विचार तथा चिन्तन में ढालो। आस-पास, पेपर, पत्रिका, रेडियो, टी.व्ही., चर्चा सार संक्षेप संबंधि विवरण तुलना से याद रखो।
परीक्षा स्मरण परीक्षा है। तुलना स्मरण का आधार सच है।।6।।
उन्मुक्त मस्तिष्क पढ़ो। सोने के बाद, मनोरंजन के बाद, टहलने के बाद, योग साधना के बाद मस्तिष्क उन्मुक्त होता है।।7।।
याद रखो मानव मस्तिष्क एकाग्रता सीमा दस से पंद्रह मिनट है। इतना सतत पढ़ने के बाद सतत अंगड़ाई लो। हरितमा देखो। आकाश देखो। आती जाती श्वांस देखो। फिर आगे पढ़ो।।8।।
पढ़ने में विषय परिवर्तन अपने आप में एक मनोरंजन है। विषय परिवर्तन लाभ लो- गणित के बाद हिन्दी पढ़ो।।9।।
मस्तिष्क में सर्वाधिक जल है। पढ़ने से पूर्व जल पियो।  मध्य में प्यास लगते ही जल पियो।।10।।
स्व-आकलन स्मरण की आत्मा है। बस में, ट्रेन में, रात को सोते समय, सिनेमाघर मध्यान्तर में पढ़े हुए का स्मरण कर स्व-आकलन करो।।11।।
नवीनता परीक्षा सफलता की कुंजी है। नूतनतम ज्ञान से भरो खुद को। परीक्षा में यथा स्थान नूतनतम का प्रयोग अवश्य करो।।12।।
बहुआयामी, बहुउपयोगी मुहावरे याद कर लो। यथा- “गुलाब तो गुलाब है”, “अमेरिकन बड़े गुलाब हेतु आस पास की कलियां नोचना जरूरी है”, “प्रौद्योगिकी लंगड़ी लड़की है कूद-कूद कर आती है”, “अवसर पीछे से गंजा है” आदि। इनका उत्तरों में सप्रयास प्रयोग करो।।13।।
और तकनीकों जैसे परीक्षा हेतु पढ़ना भी तकनीक है। पठन तकनीक का प्रयोग करो।।14।।
हर पढ़ने में आई नई बात एक “किक्” देती है। यह संसार की सर्वश्रेष्ठ “किक्” है। ऐसे किक् आह्लादें से झूमो। पढ़ाई आनन्द हो जाएगी।।15।।
भूलो मत जल स्नान से तन हलका होता है। पठन स्नान से मस्तिष्क हलका होता है। पढ़ना बोझ कतई नहीं है। हो भी नहीं सकता। लाख किताबे बंद्धि लाख गुना सूक्ष्म करती हैं।।16।।
स्वच्छ रात तारों भरे आकाश का सेवन करो। प्रातः सूर्योदय तथा संध्या सूर्यास्त का सेवन करो। ये चिन्तन उदात्त करते हैं। उदात्त चिन्तन जीवन को क्रमबद्ध करता है। पढ़ना क्रमबद्ध जीवन में सरल होता है।।17।।
स्थूल तथा अल्पबुद्धि रास्ता सफलता का महाद्वार है। कम पढ़ने से कम याद रहता है।।18।।
गहन तथा सूक्ष्म रास्ता सफलता का महाद्वार है। ज्यादा पढ़ने से ज्यादा याद रहता है।।19।।
परीक्षा तुम्हारे लिए है। तुम परीक्षा के लिए नहीं हो। पढ़ाई से बड़े होकर पढ़ो। ज्यादा याद रहेगा।।20।।
इस दृष्टि से पढ़ो कि कल ही परीक्षा है। जो हर समय परीक्षा देने के तैयारी में है परीक्षा उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती।।21।।
विद्यार्थी विद्या का अर्थी होता है। विद्या अर्थ में निहित होती है। अर्थ सूक्ष्म धरातल पर उतरता है। अर्थ से जुड़ो। परिभाषाएं अर्थ हैं।।22।।
सूक्ष्म धरातल साधना की उपलब्धि है। साधना शुभ विचारों से पूर्ण होती है। इक्कीस मिनट तक लगातार रहने पर शुभ विचार जिनेटिक कोड पर स्थाई अंकित हो जाते हैं। शुभ ही शुभ सोचो।।23।।
भाग्य भरोसे पढ़ने वालों का परीक्षा में भाग्य भी बैठ ही जाता है।।24।।
सत्तार्थ- सामाजिकता के लिए।
लाभार्थ- लाभ के लिए।
उपयोगार्थ- उपयोग के लिए।
विचारार्थ- विचार के लिए।
चार के लिए पढ़ना सफलता ही सफलता।।25।।
महेश योगी संस्थान के प्रयोग बताते हैं कि चेतना विस्तरण से मस्तिष्क सर्वाधिक सामंजस्यपूर्ण अवस्था को प्राप्त करता है। इस अवस्था वह सर्वाधिक उर्वर होता है। व्यापक सोचो।।26।।
चेतना विस्तरण के महासूत्र हैं- “अल्लाह सर्वव्यापक एक है”, “अगाओ ऊंचाइयों से उतरता है”, “ओsम् खं ब्रह्म”, “ओsम् नारायणः”, “आमीन”, “एक अनन्त”, “सूक्ष्मतम महानतम”, “अगाओ थम”, “शान्तिः शान्तिः शान्तिः” आदि। ये साधना सूत्र हैं। अतिपठन से उत्पन्न इन्द्रिय थकान भगाने की रामबाण औषधि हैं ये सूत्र। इन्हें जपो।।27।।
परीक्षा हमेशा स्मरण आधारित ही रहेगी। स्मरण आत्मा का गुण है। बुद्धि आत्मा की पहचान है। इसके महासूत्र सत्ताइस हैं।।28।।
स्मरण की इच्छा होना स्मरण मजबूत करता है। एक विषय पर एकाग्रता इच्छा को पक्का करती है।।29।।
एक पुस्तक के अनेक परस्पर अर्थें को संयुक्त संबंधित करना निबंध है। इससे स्मरण बढ़ता है।।30।।
बार बार पठन दुहराव से याद में विषय जम जाता है। यह स्मरण अभ्यास है।।31।।
निशान से निशानी तक पहुंचने का प्रयास करें। धुंए से अग्नि, पढ़ने से परीक्षा, परीक्षा से नौकरी आदि से अधिक स्मरण होता है।।32।।
चिह्न स्मरण कराते हैं। ध्वज देश का, चुनाव चिह्न राजनैतिक दल का, गेरुआ रंग सन्यासी का, कपि ध्वज अर्जुन रथ का स्मरण आधार है। ऐसे ही चिह्न शिक्षा हेतु चुन लें।।33।।
समानता से तुरन्त स्मरण होता है। चित्र से व्यक्ति का, मार्टिन लूथर अफ्रिकी गांधी थे। नचिकेता- कठोपनिषद से नचिकेता पायलेट का।।34।।
युगलता से स्मरण- राजा से रानी का, स्वामी से सेवक का, प्रश्न से उत्तर का।।35।।
आश्रय से स्मरण- पेन से ढक्कन का, कुर्ते से पायजमे का, शिक्षक से पढ़ाई का, उपाधि से शिक्षा का।।36।।
आश्रित से स्मरण- ताश से बावन पत्तों का, शतरंज से सोलह खानों, मुहरों का आदि।।37।।
संबंध से स्मरण- रिश्ते-नाते से संबंधियों का, घराने से संगीत परंपरा का, खेल से खिलाड़ियों का आदि।।38।।
सातत्य से स्मरण- नौकरी से प्रमोशन, रिटायरमेंट का; वेद से पाठों का, संगीत से स्वरों आवर्त सारिणी आदि का सातत्य से स्मरण होता है।।39।।
वियोग से संयोग का स्मरण- रासायनिक सूत्र, विघटन, संश्लेषण आदि। शून्य त्रुटि से त्रुटि सुधार का।।40।।
एक कार्य से स्मरण- दशरूपकम से प्रकरी, पताका,   अधिकारिक, परियोजना निर्माण से समूह कार्य़ों का, समूहों का, पदों का।।41।।
दुश्मनी से स्मरण- सांप-नेवला, कुत्ता-बिल्ली, चील-चूजा, चूहे-बिल्ली आदि का।।42।।
रिकार्ड से स्मरण- लिम्का या गिनिज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड का, कपिल से सर्वाधिक विकेट लेने का, गावस्कर के अधिकतम रन का आदि।।43।।
प्राप्ति से स्मरण- नौकरी से वेतन का, बैंक से पैसे का, कारखाने से उत्पादन का, न्यायाधीश से दंड का, प्रमोशन से बॉस का आदि।।44।।
व्यवधान से स्मरण- घूंघट से रूप का, भारत उत्तर में हिमालय का, चीन की दीवार का आदि।।45।।
सुख के कारणों से स्मरण- अतिशय सुखमय घटनाओं का, राष्ट्रीय संदर्भ में स्वतन्त्रता दिवस का, भारत-पाक युद्ध में विजय का, भारत की विश्वकप में जीत का, अमर्त्य सेन नोबल पुरस्कार प्राप्ति आदि का।।46।।
दुःख के कारणों से स्मरण- राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का निधन, राष्ट्रव्यापी अकाल, भूकम्प, ध्वंस, ज्वालामुखी फटना आदि।।47।।
द्वेष से स्मरण- इष्ट संबंधी द्वेष- इष्ट क्षेत्र दूसरे की अभिवृद्धि से, अनिष्ट संबंधी द्वेष- दूसरे को अनिष्ट में ढकेलना आदि।।48।।
इच्छापूर्ति से स्मरण- गौरव प्राप्ति से, महान पुरुष   संन्निधि से, उत्तम पुस्तक पठन से, इच्छापूर्ति व्यवधान से, एक नम्बर से फंल होने से, जीतते-जीतते हार जाने से आदि।।49।।
भय से स्मरण- परीक्षा भय से पठन, स्मरण, किसी चीज की भावी क्षति भय से पठन-स्मरण, मां-पिता वात्सल्य भय से स्मरण प्रयास आदि।।50।।
आर्थिक लाभ से स्मरण- इनाम के कारण, नौकरी के कारण, सुखद भविष्य के कारण।।51।।
क्रिया से स्मरण- कर्ता, अकर्ता, सुकर्ता, कुकर्ता आदि का इतिहास क्षेत्र का स्मरण क्रिया से होता है।।52।।
राग से स्मरण- चाहना से जल्दी स्मरण होता है। ना चाहना से भी स्मरण होता है पर प्रथम स्मरण श्रेष्ठ है।।53।।
धर्म से स्मरण- जीवन लक्ष्य प्राप्ति पथ धर्म है। इस पथ पर स्मरण सहज होता है।।54।।
अधर्म से स्मरण- जीवन लक्ष्य से गिर जाने का पश्चाताप होने पर भी उसके स्मरण की ओर देर-अबेर प्रवृत्ति हो जाती है।।55।।
सत्ताइस सूत्रों का बहुआयामी उपयोग स्मरण को नए आयाम देता है। यह परीक्षा विजय का सकारात्मक पक्ष है।।56।।
तनावमुक्त पढ़ना ही सर्वाधिक लाभप्रद है। तटस्थता बोध की आत्मा है। परीक्षा पूर्व स्थिति अधिक तनावमुक्त होती है। इस स्थिति में नियमबद्ध थोड़ी-थोड़ी पढ़ाई भी बड़ी समझ देती है जो परीक्षा में उपयोगी है।।57।।
सर्व से अंश पढ़ें। पुस्तक का प्राक्कथन, भूमिका और विषयवस्तु जरूर पढ़ें। विषयवस्तु के एक-एक शीर्षक पर अपनी याददाश्त से संदर्भित विचार सोचें। पुस्तक पूरी पढ़ने के बाद यही प्रक्रिया दुहराएं।।58।।
विषयवस्तु के आधार पर पूरी पूस्तक की संक्षेपिका पुस्तक के आकार के मात्र पांच प्रतिशत में बनाएं। इसे बीच-बीच में दुहराते रहें।।59।।
मात्र पांच वर्ष के प्रश्नपत्र देखें। उनमें से बीस दुहराव वाले, तिहराव वाले, चतुराव वाले चुन लें। उन्हें अत्यधिक ध्यानपूर्वक तैयारी करें।।60।।
छुट्टियों के समय टाइम टेबल बनाने का सरल तरीका है कि स्कूल या कालेज के टाइम टेबल के अनुरूप पढ़ाई करें। अन्य समय का मोटा-मोटा टाइम टेबल बना लें।61।।
लेटकर पढ़ने की तुलना में बैठकर पढ़ने से मस्तिष्क दस प्रतिशत अधिक कार्य करता है। बैठकर पढ़ने की तुलना में खड़े होकर पढ़ने से मस्तिष्क दस प्रतिशत अधिक कार्य करता है। वज्रासन में मस्तिष्क दस प्रतिशत और अधिक कार्य करता है।।62।।
परीक्षा तिथि घोषणा के बाद
तत्काल पठन “दशरूपकम्” चित्र बनाएं। इसमें परीक्षा तिथियां भी शामिल हों। अधिकारिक, प्रकरी, पताका भरें। अधिकारिक पर मुख्य विषय तथा प्रकरी पर सामान्य विषय रखें।।63।।
हर विषय कम से कम चार बार दुहराना आवश्यक है। पहला पूरा, दूसरा पच्चीस प्रतिशत, तीसरा नोट्स और चौथा संक्षेपिका।।64।।
दशरूपकम् का अर्थ है समानान्तर पढ़ाई। गणित के समानान्तर हिन्दी पढ़ें, विज्ञान के समानान्तर समाजशास्त्र पढ़ें तो परिवर्तन अथकान पूर्ण होगा। पठन योजना इस अनुरूप बनाना तथा विषयादि का समय निर्धारण करना, पढ़ाई सुव्यवस्था है।।65।।
याद रखें, जितनी बार विषय दोहराया जाएगा उतना ही याद रहेगा। लंदन के डॉ.होवे की बीस वर्ष की शोध का परिणाम है कि बौद्धिक प्रखरता कड़े परिश्रम का फल है न कि जन्मजात।।67।।
ध्यान रहे चालीस प्रतिशत तक अंक कम महनत से, पचास प्रतिशत तक महनत से, साठ प्रतिशत तक मेहनत से तथा उससे अधिक प्रति अंक पाने पूर्व से तिगुनी महनत लगती है।।68।।
इस समय के दौरान सात्विक भोजन करें। रात्रि भोजन जल्दी करें। दिवस में भी पढ़ने का टाइम टेबल बनाएं। ताजग रहें। सहज रहें। तनाव से बचें।।69।।
लिरिक से संक्षिप्त प्रथमाक्षरों से अक्षर बना के, वेदमन्त्र चरणों से, दोहा चरणों से विषय याद करें।।70।।
परीक्षा दिवस
प्रातः थोड़ा जल्दी उठें। बिस्तर पर ही स्व आकलन करें। समयानुसार पच्चीस प्रतिशत नोट्स तथा संक्षेपिका का अध्ययन करें। दही-शक्कर खाकर परीक्षा देने जाएं। भूखे पेट या अधिक खाकर पेपर देने न जाएं।।71।।
रिक्शे या ऑटो या दूसरे के वाहन पर जाते जाते स्व आकलन करें। जितना याद है उतना दोहराएं। दीर्घ श्वास-प्रश्वास लेते रहें। तन ओषजन कमी मस्तिष्क भारी करती है।।72।।
परीक्षा हॉल में प्रवेश पूर्व संक्षेपिका पढ़ लें। याददाश्त का समय नियम कहता है तत्काल पढ़ा तत्काल पूरा याद रहता है। समय बीतते कम होता चला जाता है। इस नियम को याद रखें।।73।।
कॉपी का इन्तजार करते आती-जाती श्वास प्रश्वास को तटस्थ भाव से देखते रहें। कॉपी हाथ में आते ही उदात्त वाक्य दुहराएं-
ज्ञान हमारा भैया है
महनत अपनी बहना है
मानवता अपनी देवी है
हर हित जीते रहना है।74।।
धीरजपूर्वक कॉपी में यथा स्थान रोल नंबर, दिवस, तिथि आदि विवरण भरें। हाशिया छोड़ें।।75।।
पेपर की प्रतीक्षा में आती-जाती श्वास प्रश्वास देखें। देखने से श्वास प्रश्वास कम अधिक नहीं होनी चाहिए। पेपर धीरजपूर्वक लें। इष्ट का नाम लें।।76।।
सहजतः पेपर पढ़ें। ऊपर दी टिप्पणी भी पढ़ें। प्रश्नों पर क्रम लिखें। परिभाषाएं या नोट लिखो आदि वाला प्रश्न पहले क्रम में ना रखें। एक उत्तम एक औसत एक उत्तम एक औसत क्रम में प्रश्न चयनित करें।।77।।
घुड़दौड़ शुरु। स्मरण रखें तीव्र गति से लिखना है।।78।।
छै प्रश्न तीन घंटे होने पर प्रति उत्तर सत्ताइस मिनट, पांच प्रश्न तीन घंटे होने पर प्रति उत्तर तैंतीस मिनट समय निर्धारित करें।।79।।
प्रश्न के उत्तर को निम्नलिखित खंड़ों में बांटिए-
1.प्रस्तावना या भूमिका या सामान्य विवरण या आरम्भ या शुरुआत।
2.पांच उपखंड। शीर्षक प्रश्नानुसार होंगे। शीर्षक मध्य में ऊपर देना है। एक पंक्ति छोड़ विवरण लिखना है। नया शीर्षक एक पंक्ति बाद देना है।
3.हर उपखंड के पांच-पांच पॉइण्ट होंगे जो करीब डेढ़-डेढ़ लाइन के होंगे।
4.प्रति प्रश्न का बिखराव करीब साढ़े तीन पेज होगा।।80।।
नया उत्तर नए पृष्ठ से प्रारम्भ करेंगे। एक गिलास पानी पिएंगे। प्रथम प्रश्न में अतिरिक्त लगे समय की क्षतिपूर्ति का प्रयास करेंगे।।81।।
तीसरा उत्तम उत्तर हल करेंगे। इसके बाद दो या तीन खंडों वाला उत्तर लिखेंगे- अर्थात् टिप्पणी लिखने वाला या नोट लिखने वाला।।82।।
आवश्यक नहीं आपको हर प्रश्न आए ही। उत्तर देने से पूर्व प्रश्न पूरा लिखें। लिखने से प्रश्न कई बार अच्छे से समझ आ जाता है तथा उसके शाब्दिक घुमाव की त्रुटि दूर हो जाती है।।83।।
यदि आपको उत्तर नहीं आता तो ठेठ गप्प मत मारिए। ठेठ गप्प का एक उदाहरण इस प्रकार है-
अच्छी नागरिकता पर एक विद्यार्थि ने लिखा-
1.अच्छी नागरिकता से रहना चाहिए।
2.अच्छी नागरिकता से व्यवहार करना चाहिए।
3.अच्छी नागरिकता से सड़क पर चलना चाहिए।
4.अच्छी नागरिकता से समाज में रहना चाहिए आदि।
परीक्षार्थी को ऋण दो नंबर मिले।।84।।
उपरोक्त आधार पर ही सही गप्प इस प्रकार बनाई जा सकती है-
1.नगर में रहने वाले को नागरिक कहते हैं।
2.नागरिक से नागरिकता शब्द बना है।
3.नगर नियमों के नियमों का पालन नागरिकता है।
4.सड़क नियमों का पालन सबको लाभप्रद है।
5.अच्छा व्यवहार करना नागरिक का गुण है।
6.समाज व्यवस्था का अनुपालन उत्तम है।
7.क्रमांक 3,4,5,6 आदि सबका पालन अच्छी नागरिकता है।।85।।
स्मरण रहे शब्द चयन शैली अर्थ बदल देती है- अर्थ बदल जाने से अंक बदल जाते हैं।।86।।
हर प्रश्न के अंत में “नवीन खोज” या “इस क्षेत्र का कल का ज्ञान” या “नवचिन्तन” या “संस्कृति चिन्तन” आदि टिप्पणी जरूर दें।।87।।
प्रश्न की समाप्ति सार संक्षेप से करें। इसमें अचानक याद आ गया नया तथ्य भी जोड़ सकते हैं।।88।।
निबंध शैली के प्रश्नों के उत्तर खंड, उप खंड, प्रति उपखंडों के साथ-साथ छोटे-छोटे पैराग्राफों में दें।।89।।
उत्तर न आने वाले प्रश्न को सबसे अन्त में हल करें। इसका उत्तर लिखते समय मात्र प्वाइंट ही लिखें। उनमें नंबर जरूर डाल दें। खंड, उपखंड बांट सके तो बेहतर है।।90।।
घसीटा न लिखें। साफ स्वच्छ लिखें। उत्तर देते समय निरर्थक न लिखें। उत्तर का कलेवर जबर्दस्ती न बढ़ाएं।।91।।
परीक्षा देना पढ़ने से भी अधिक सूक्ष्म तकनीक है। वर्तमान परीक्षा ज्ञान कसौटि करीब साठ सत्तर प्रतिशत है। शेष व्यवहार कसौटि है। प्रस्तुतिकरण कसौटि है।।92।।
समय बचे रहने पर भी यदि अंतिम प्रश्न तुम्हें नहीं आता है तो उस प्रश्न को प्वाइंट मात्र लिख कर हल करो। आखिर में उसे अधूरा छोड़ दो ताकि परीक्षक समझे कि परीक्षार्थी को समय नहीं मिला।।93।।
पांच सात मिनट जो समय बचा है उसमें एक लाल पेंसिल से या स्याही से समस्त खंड, शीर्षक, उपशीर्षक रेखांकित कर दें।।94।।
भूलो मत- आठ पेज के उत्तर से साढ़े तीन पेज का उत्तर बेहतर है।।95।।
यह भी मत भूलो कि डेढ़ दो पेज के उत्तर से भी तीन साढ़े तीन पेज का उत्तर बेहतर है।।96।।
यदि आपको कोई उत्तर ठीक-ठीक आता है पर उसका विवरण कम उपलब्ध है तो पहले उसके प्वाइंट या शीर्षक उपशीर्षक लिखें। फिर उन्हें एकेक करके हेडिंग देकर विस्तार करें।।97।।
समय से ज्यादा प्रश्न का उत्तर लिखने के लालच से बचें। ज्यादा जानने की स्थिति में सही और सटीक मात्र ही लिखें। कलेवर से विषयवस्तु महत्वपूर्ण है।।98।।
ख्याल रखें- एक प्रश्न का उत्तर अति लम्बा लिखने से औसतः दो प्रश्न समुचित समय में पूरे कर लेना अधिक अंक दिलाता है।।99।।
पानी ताप संतुलन करता है। पानी आवेग संतुलन करता है। परीक्षा दौरान दो बार एकेक गिलास पानी अवश्य पीएं।।100।।
दिमाग आपके पास है आपके हाथ में है। चिट आदि आपके बाहर है। हाथ की चिड़िया झाड़ी की छिपी चिड़िया से हमेशा बेहतर होती है।।101।।
साक्षर जो पढ़ता है जीता है।
नाक्षर जो पढ़ता है रौंदता है- सिगरेटची या शराबी।
आक्षर जो सुनता है जीता है।
तुम साक्षर हो।
आंखन देखी वो रस्ता है जो
कागद लेखी की समझ देता है।
आपने तैयारी कर परीक्षा दी।
आप सतयुग रहे।
आप पास हो गए हैं।
डॉ.त्रिलोकीनाथ क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), सत्यार्थ शास्त्री, बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)

विकास की तुलना में मुफ्त की बिजली-पानी भारी : डॉ. धर्मवीर

दिल्ली के चिरप्रतीक्षित चुनाव हो चुके। अप्रत्याशित चुनाव परिणामों ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। जीतने वालों को भी ऐसी आशा नहीं थी, हारने वालों के मन में ऐसी कल्पना नहीं थी। यह जनता का जादू है। जनता ने चला दिया, सभी ठगे रह गये। चुनाव के बाद खूब विश्लेषण हुए, होते ही हैं। इन विश्लेषकों ने मोदी-केजरीवाल की कमी और विशेषतायें खूब गिनाई। मोदी के लिए कहा गया मोदी प्रधानमन्त्री बनकर जमीन भूल गये हैं, वे आसमान में उड़ रहे हैं। राष्ट्रीय समस्याओं को छोड़ अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं की बात कर रहे हैं। मोदी साथियों को धमाका रहे हैं, धर्मान्धता को बढ़ावा दे रहे हैं, हिन्दू धर्मान्धता के कारण ही मोदी की छवि खराब हुई है। मोदी को अनुचित शब्दावली प्रयोग के कारण जनता की नाराजगी झेलनी पड़ी है। मोदी अपने व्यक्तित्व को बनाने में लगे हैं आदि-आदि। इसके विपरीत केजरीवाल सरल हैं, कर्मठ हैं, सादगी पसन्द हैं, जनता के आदमी जनता की बात करते हैं आदि।

ये सब बातें चर्चा में है तो कम-अधिक इनका अस्तित्व तो होगा ही परन्तु जिन बातों से मनुष्य पर सीधा प्रभाव नहीं पड़ता तब तक मनुष्य अधिक नहीं बदलता। जब कोई बात मनुष्य के निजी हित को हानि पहुँचाती है तब ही वह तीव्र प्रतिक्रिया करता है। दूसरी परिस्थिति है यदि मनुष्य को कहीं अधिक लाभ दिखाई देता है तब भी वह अनायास उधर की ओर झुक जाता है। इस चुनाव में भी ये दो कारण निश्चित रूप से रहे हैं। जिन आलोचकों और विश्लेषकों ने कम ही ध्यान दिया है। मूल रूप से मोदी और केजरीवाल में कुछ भी नहीं बदला है। बदला तो मतदाता है मतदाता को प्रभावित करने वाले कारणों पर विचार करने से ये सब बात स्पष्ट हो जाती हैं।

दिल्ली के चुनाव परिणाम तो न भूतो न भविष्यति है। यदि इससे कुछ अधिक हो सकता है तो केवल तीन स्थान और केजरीवाल को मिल सकते थे उसके बाद तो होने को कुछ बचता ही नहीं। तीन स्थानों की कमी से जीत का महत्व किसी प्रकार कम नहीं होता, यह तो पूरी विधानसभा ही केजरीवाल की है। इस चुनाव परिणाम को देखकर स्वयं केजरीवाल को ही कहना पड़ा इतनी बड़ी सफलता देखकर तो डर लगता है। डर लगना स्वाभाविक है, यह परिणाम आशाओं का अम्बार लेकर आया है जिसे भगवान् भी पूरा नहीं कर सकता फिर केजरीवाल की तो बात ही क्या है।

हम समाज में जब होते हैं तब आदर्शवादी बन जाते हैं जब अकेले होते हैं तो स्वार्थी होते हैं। मनुष्य समूह में होता है तब आदर्श की बात करता है परन्तु जब व्यक्तिगत रूप से उसे किसी बात का निर्णय करना होता है तो वह स्वार्थी बनने में संकोच नहीं करता। मोदी देश की, समूह की, समाज की बात करते रहे, दूसरी ओर केजरीवाल शुद्ध रूप से व्यक्तिगत लाभ की बातें की। चुनाव से एक-दो दिन पहले की बात है, दिल्ली मेट्रो में यात्रा करते हुए सुनने को मिला, चर्चा स्वाभाविक रूप से चुनाव की थी, खड़े एक व्यक्ति ने कहा भाई केजरीवाल आया तो दाल एक सौ बीस से अस्सी रूपये हो जायेगी और पानी फ्री मिलेगा। इस मनुष्य के अन्दर सस्ती दाल और मुफ्त पानी का उत्साह देखते ही बनता था। वहाँ से केजरीवाल अच्छा है या बुरा है।  ये नीति देश और समाज के हित में कैसी है? इन सब बातों पर विचार करने का अवसर ही कहाँ था?

मनुष्य कितना भी पढ़-लिख जाये या कितनी भी धोखा खा जाये परन्तु धोखे का अवसर आने पर वह लाभ की इच्छा को पूरा करने के लिए धोखा खाना स्वीकार कर लेता है। केजरीवाल ने व्यक्ति लाभ की पचासों घोषणाएँ कर डाली। इस चुनाव में केजरीवाल ने ५०० नये स्कूल, २० डिग्री कॉलेज, ३००० स्कूलों में खेल मैदान, ५०० नई बसें, डेढ़ लाख सीसी टीवी कैमरे, दो लाख शौचालय, झुग्गी वालों के लिये फ्लैट और आधी दरों पर बिजली-पानी देने का  वादा किया है, जिन्हें एक आदमी अपने लिये आवश्यक समझता है। इसीलिए उसे लगता है यही व्यक्ति उसके लिए सबसे उपयुक्त है।

केजरीवाल कहते हैं दिल्ली को पूर्ण राज्य का स्तर दिलायेंगे। अधूरे राज्य की अपनी समस्याये हैं। यह ठीक बात है। आज दिल्ली के निर्णय केन्द्र सरकार गृह मन्त्रालय करता है। पुलिस गृह मन्त्रालय के आधीन है। केजरीवाल ने अपने पिछले कार्यकाल में जिस पुलिस अधिकारी का तबादला करने के लिए मुख्यमन्त्री होकर धरना तक दिया परन्तु उस अधिकारी का वे स्थानान्तरण नहीं करा सके। इसी प्रकार बड़े अधिकारियों की नियुक्ति और उनपर कार्यवाही दिल्ली मुख्यमन्त्री नहीं कर सकता। इन परिस्थितियों में कोई भी मुख्यमन्त्री और उसकी सरकार चाहेगी उसे पूर्ण अधिकार मिले। सब  पर उसकी पूरी पकड़ हो। भारत के किसी कोने में ऐसी परिस्थिति हो तो दिल्ली को पूर्ण राज्य का स्तर देना सरल है परन्तु दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाना इस कारण सम्भव नहीं होगा कि दिल्ली में दो सरकारें हैं एक है केन्द्र की सरकार और दूसरी होगी दिल्ली की सरकार, दोनों में से दिल्ली में किसका अधिकार होगा। आज दिल्ली की सरकार केन्द्र पर निर्भर है कल दिल्ली को पूर्ण राज्य का अधिकार दिये जाने पर केन्द्र सरकार को दिल्ली में किरायेदार की स्थिति में रहना पड़ेगा। आज दिल्ली पूरे देश की राजधानी है, केन्द्र सरकार पर पूरे देश का अधिकार है। यह केन्द्र की राजधानी होने से अन्तर्राष्ट्रीय अतिथियों के आने का स्थान है, ऐसी परिस्थिति में उनकी व्यवस्था केन्द्र सरकार करेगी या दिल्ली की सरकार। अन्तिम और महत्वपूर्ण  बात है मतभेद होने पर किसका आदेश मान्य होगा। आज पुलिस या प्रशासन केन्द्र के अनुसार चलता है, दिल्ली को पूर्ण राज्य का अधिकार मिलने पर जैसे राज्य के मन्त्री और विधानसभा सदस्य थानेदार पर रोब डालकर कार्य कराते हैं तब पुलिस के काम करने की क्या शैली होगी यह विचारणीय है। हमें इतिहास भी देखना चाहिए जब रूस का विधान हुआ तब ……मास्को में किन्तु गोर्बचोव का केन्द्र सरकार के पास अपना शासन चलाने के लिए कोई स्थान नहीं था। मास्को की सरकार ने संसद के निर्णयों को मानने से इन्कार कर दिया था तथा संसद पर तोप के गोले दागे थे। जहाँ दो समान अधिकारी होंगे वहाँ संघर्ष की सम्भावना तो सदा ही बनी रहेगी। यह  परिस्थिति केन्द्र सरकार की जानकारी में न हो यह सम्भव तो नहीं है फिर केजरीवाल दिल्ली को पूर्ण राज्य अधिकार कैसे दिलायेंगे। आज दिल्ली में दिल्ली की सरकार और दिल्ली नगर निगम में विरोधी पार्टी की सरकार  है, उसमें प्रशासन और सामान्य जन उलझा होगा यह सोचा जा सकता है। इस प्रकार की सारी समस्याओं के रहते दिल्ली की केजरीवाल सरकार कितनी सफल होती है यह तो समय ही बतायेगा।

जिस प्रकार एक सामान्य व्यक्ति में उसकी दैनिक असुविधाओं को दूर करने की आशा केजरीवाल में दिखाई दी उसी प्रकार मोदी सरकार के आने से जिनको हानि हुई वे भी मोदी को अपना मत क्यों देंगे। उनमें दो वर्ग मुख्य है एक है किसान और दूसरा व्यापारी। ये दोनों ही मोदी सरकार से दुःखी हैं। मोदी के शासन में आने के समय जनता मंहगाई से दुःखी थी और मंहगाई तेजी से बढ़ रही थी। मंहगाई का मुख्य कारण बाजार में सामान की कमी है, देश से खाद्य वस्तुओं का निर्यात बड़ी मात्रा में हो रहा था अतः मंहगाई का बढ़ना निरन्तर जारी था, मोदी सरकार ने बहुत सारी वस्तुओं के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगा दिया जिसके परिणाम स्वरूप वस्तुओं के मूल्य गिर गये। इससे सामान्य जनता को भले ही लाभ हुआ परन्तु व्यापारी को लाभ कैसे होता? व्यापारी को लाभ तो तब होगा जब  बाजार में वस्तु मंहगे दाम पर बिके। इसके साथ ही व्यापारी मंहगे दाम पर बेच नहीं सकता तो वह किसान से मंहगे दाम पर खरीदेगा कैसे? इससे किसान को भी अपना माल व्यापारी को सस्ते दाम पर ही बेचना होगा। ऐसे व्यापारी और किसान मोदी का समर्थन कैसे करेंगे? यह विचारणीय होगा।

केजरीवाल का सारा जोर गैर भाजपा सरकार पर केन्द्रित रहा, दिल्ली के चुनाव के कुछ समय पूर्व दिल्ली के गिरजाघरों पर लूटपाट व तोड़-फोड़ की घटनायें होना और चुनाव से दो दिन पहले दिल्ली के चर्च और केजरीवाल के तत्वाधान  में धरना प्रदर्शन करना, ठीक उसी समय अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा का भारत में बढ़ती हुई धार्मिक असहिष्णुता के बारे में वक्तव्य देना। यह आकस्मिक संयोग नहीं है। इसी तरह दिल्ली में अल्पसंख्यकों का ३२ सीटों पर प्रभाव है उनका निर्णायक रूप से केजरीवाल के साथ जाना, यह एक सुनियोजित कार्यक्रम की ओर संकेत करते हैं।

दिल्ली के चुनाव में पराजय के बहुत सारे कारण हैं, वहाँ एक सामाजिक कारण भी है दिल्ली में ग्रामीण क्षेत्र के किसानों में जाट मतदाता बड़ी संख्या में हैं परिणामों को देखने से पता लगता है कि वे जहाँ किसान होने से घाटे में हैं अतः मोदी विराधी हैं, वहीं जाट मतदाताओं में एक और प्रतिक्रिया भी देखने में आयी है, वह है हरियाणा का मुख्यमन्त्री गैर जाट को बनाना। राजनीति की दृष्टि से हरियाणा में मोदी को गैरजाट मतदाताओं ने ही विजय दिलाई है, अधिकांश जाट मतदाता चौटाला और हुड्डा में बंटा हुआ था। अतः मत विभाजन से इतर जातियों के मत निर्णायक बन गये। इसीलिए सरकार भी उन्हीं की बनी परन्तु जाट बहुल क्षेत्र में इतर जातियों का वर्चस्व इस समुदाय को सहज स्वीकार्य नहीं हुआ। इसका प्रभाव भी दिल्ली के चुनावों में देखा जा सकता है। इन चुनावों में भाजपा के हार की चर्चा की जा रही है, उनमें एक है पार्टी में चुनाव को लेकर गलत निर्णय लिये। इसमें किसी को भी सन्देह नहीं रहना चाहिए कि दुर्घटना गलत निर्णय का ही परिणाम होता है। मूल्यांकन में भूल कहीं भी हुई हो परिणाम तो गलत आयेगा ही। इसके अतिरिक्त इस चुनाव में ध्यान देने की बात है जो लोग मोदी के नकारात्मक चुनाव की आलोचना कर रहे हैं वे वास्तव में मोदी के नकारात्मक प्रचार के सूत्रधार हैं। मोदी प्रधानमन्त्री बन गये यह तो ठीक है परन्तु जिनको मोदी का प्रधानमन्त्री बने रहना रास नहीं आ रहा, उन समाचार पत्रों, दूरदर्शनतन्त्र संचालकों की तथा समाचार समीक्षकों की कमी नहीं है। उदाहरण के लिए ये समालोचक मोदी की हार के लिए संघ के घर वापसी या धर्मान्तरण की घटनाओं की गला फाड़कर आलोचना करते हैं, वे अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत विरोधी आलोचना की निन्दा करने के स्थान पर मोदी के विरोध में उस कथन को प्रमाण मानने में गौरव का अनुभव करते हैं। कोई हिन्दू ईसाई या मुसलमान बनता है तो उसे धर्मपरिवर्तन का अधिकार वैयक्तिक स्वन्त्रता कहा जाता है, उसके विपरीत यदि कोई ईसाई हिन्दू बन जाये तो इसे साम्प्रदायिक संकीर्णता घोषित कर दिया जाता है। यह दोहरापन इसी कारण है कि इन लोगों की निष्ठा न अपने देश के प्रति है, न अपने धर्म के प्रति,  इनकी निष्ठा तो इन्हें सुविधा और साधन उपल ध कराने वालों के प्रति है जो देश और संगठन इस समाचार तन्त्र को बड़ी मात्रा में धन राशि उपल  ध कराते हैं, ये समाचार पत्र, चैनल उन्हीं का पक्ष लेते हैं, उन्हीं का गुणगान करते हैं। न तो मोदी ने अपना दृष्टिकोण बदला है और न ही केजरीवाल ने फिर यह जीत-हार का इतना बड़ा अन्तर आया तो कैसे? यह परिस्थिति उसकी व्याख्या करती है जो लोग जिन कारणों से केजरीवाल का विरोध करते थे, तो क्या केजरीवाल बदल गये हैं? केजरीवाल के विचार तो वही है, चाहे विदेशी धन लेने का हो या मुसलमानों के तुष्टिकरण का। बदला तो केवल मतदाता का मन है। यह चुनाव जनता की विजय है, वह जिसको चाहे हरा दे, जिसको चाहे जिता दे परन्तु राष्ट्रीयता की दृष्टि से देखें तो यह जीत तुष्टिकरण को बढ़ावा देने वाली और राष्ट्रीय विचारधारा को दुर्बल करने वाली है। अन्ततोगत्वा दिल्ली की जनता ने जो किया है उसका आदर ही करना चाहिए। वेद ने कहा है जो दिल में है वह कब बदल जाये कहा नहीं जा सकता। दूसरा क्या सोचता है अपने निश्चय को कब बदल देता है निश्चयपूर्वक कहा नहीं जा सकता, अतः कहा गया है-

अन्यस्य चि ामभिसंचरेण्यमुताधीतं विनश्यति।

– धर्मवीर

 

स्वामी विवेकानन्द का हिन्दुत्व (स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती की दृष्टि में)

स्वामी विवेकानन्द का हिन्दुत्व

(स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती की दृष्टि में)

– नवीन मिश्र

स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती एक वैज्ञानिक संन्यासी थे। वे एक मात्र ऐसे स्वाधीनता सेनानी थे जो वैज्ञानिक के रूप में जेल गए थे। वे दार्शनिक पिता पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय के एक दार्शनिक पुत्र थे। आप एक अच्छे कवि, लेखक एवं उच्चकोटि के गवेषक थे। आपने ईशोपनिषद् एवं श्वेताश्वतर उपनिषदों का हिन्दी में सरल पद्यानुवाद किया तथा वेदों का अंग्रेजी में भाष्य किया। आपकी गणना उन उच्चकोटि के दार्शनिकों में की जाती है जो वैदिक दर्शन एवं दयानन्द दर्शन के अच्छे व्याख्याकार माने जाते हैं। परोपकारी के नवम्बर (द्वितीय) एवं दिसम्बर (प्रथम) २०१४ के सम्पादकीय ‘‘आदर्श संन्यासी- स्वामी विवेकानन्द’’ के देश में धर्मान्तरण, शुद्धि, घर वापसी की जो चर्चा आज हो रही है साथ ही इस सम्बन्ध में स्वामी सत्यप्रकाश जी के ३० वर्ष पूर्व के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। इसी क्रम में स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘अध्यात्म और आस्तिकता’’ के पृष्ठ १३२ से उद्धृत स्वामी जी का लेख  पाठकों के विचारार्थ प्रस्तुत है-

‘‘विवेकानन्द का हिन्दुत्व ईसा और ईसाइयत का पोषक है।’’

‘‘महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अवतारवाद और पैगम्बरवाद दोनों का खण्डन किया। वैदिक आस्था के अनुसार हमारे बड़े से बड़े ऋषि भी मनुष्य हैं और मानवता के गौरव हैं, चाहे ये ऋषि गौतम, कपिल, कणाद हों या अग्नि, वायु, आदित्य या अंगिरा। मनुष्य का सीधा सम्बन्ध परमात्मा से है मनुष्य और परमात्मा के बीच कोई बिचौलिया नहीं हो सकता- न राम, न कृष्ण, न बुद्ध, न चैतन्य महाप्रभु, न रामकृष्ण परमहंस, न हजरत मुहम्मद, न महात्मा ईसा मूसा या न कोई अन्य। पैगम्बरवाद और अवतारवाद ने मानव जाति को विघटित करके सम्प्रदायवाद की नींव डाली।’’

हमारे आधुनिक युग के चिन्तकों में स्वामी विवेकानन्द का स्थान ऊँचा है। उन्होंने अमेरिका जाकर भारत की मान मर्यादा की रक्षा में अच्छा योग दिया। वे रामकृष्ण परमहंस के अद्वितीय शिष्य थे। हमें यहाँ उनकी फिलॉसफी की आलोचना नहीं करनी है। सबकी अपनी-अपनी विचारधारा होती है। अमेरिका और यूरोप से लौटकर आये तो रूढ़िवादी हिन्दुओं ने उनकी आलोचना भी की थी। इधर कुछ दिनों से भारत में नयी लहर का जागरण हुआ-यह लहर महाराष्ट्र के प्रतिभाशाली व्यक्ति श्री हेडगेवार जी की कल्पना का परिणाम था। जो मुसलमान, ईसाई, पारसी नहीं हैं, उन भारतीयों का ‘‘हिन्दू’’ नाम पर संगठन। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना हुई। राष्ट्रीय जागरण की दृष्टि से गुरु गोलवलकर जी के समय में संघ का रू प निखरा और संघ गौरवान्वित हुआ, पर यह सांस्कृतिक संस्था धीरे-धीरे रूढ़िवादियों की पोषक बन गयी और राष्ट्रीय प्रवित्तियों  की विरोधी। यह राजनीतिक दल बन गयी, उदार सामाजिक दलों और राष्ट्रीय प्रवित्तियों  के विरोध में। देश के विभाजन की विपदा ने इस आन्दोलन को प्रश्रय दिया, जो स्वाभाविक था। हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य की पराकाष्ठा का परिचय १९४७ के आसपास हुआ। ऐसी परिस्थिति में गाँधीवादी काँग्रेस बदनाम हुई और साम्प्रदायिक प्रवित्तियों  को पोषण मिला। आर्य समाज ऐसा संघटन भी संयम खो बैठा और इसके अधिकांश सदस्य (जिसमें दिल्ली, हरियाणा, पंजाब के विशेष रूप से थे) स्वभावतः हिन्दूवादी आर्य समाजी बन गए। जनसंघ की स्थापना हुई जिसकी पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ था। फिर विश्व हिन्दू परिषद् बनी। पिछले दिनों का यह छोटा-सा इतिवृत्त  है।

हिन्दूवादियों ने विवेकानन्द का नाम खोज निकाला और उन्हें अपनी गतिविधियों में ऊँचा स्थान दिया। पिछले १००० वर्ष से भारतीयों के बीच मुसलमानों का कार्य आरम्भ हुआ। सन् ९०० से लेकर १९०० के बीच दस करोड़ भारतीय मुसलमान बन गये अर्थात् प्रत्येक १०० वर्ष में एक करोड़ व्यक्ति मुसलमान बनते गये अर्थात् प्रतिवर्ष १ लाख भारतीय मुसलमान बन रहे थे। इस धर्म परिवर्तन का आभास न किसी हिन्दू राजा को हुआ, न हिन्दू नेता को। भारतीय जनता ने अपने समाज के संघटन की समस्या पर इस दृष्टि से कभी सूक्ष्मता से विचार नहीं किया था। पण्डितों, विद्वानों, मन्दिरों के पुजारियों के सामने यह समस्या राष्ट्रीय दृष्टि से प्रस्तुत ही नहीं हुई।

स्मरण रखिये कि पिछले १००० वर्ष के इतिहास में महर्षि दयानन्द अकेले ऐेसे व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने इस समस्या पर विचार किया। उन्होंने दो समाधान बताए- भारतीय समाज सामाजिक कुरीतियों से आक्रान्त हो गया है- समाज का फिर से परिशोध आवश्यक है। भारतीय सम्प्रदायों के कतिपय कलङ्क हैं, जिन्हें दूर न किया गया तो यहाँ की जनता मुसलमान तो बनती ही रही है, आगे तेजी से ईसाई भी बनेगी। हमारे समाज के कतिपय कलङ्क ये थे-

१. मूर्तिपूजा और अवतारवाद।

२. जन्मना जाति-पाँतवाद।

३. अस्पृश्यता या छूआछूतवाद।

४. परमस्वार्थी और भोगी महन्तों, पुजारियों, शंकराचार्यों की गद्दियों का जनता पर आतंक।

५. जन्मपत्रियों, फलित ज्योतिष, अन्धविश्वासों, तीर्थों और पाखण्डों का भोलीभाली ही नहीं शिक्षित जनता पर भी कुप्रभाव। राष्ट्र से इन कलङ्कों को दूर न किया जायेगा, तो विदशी सम्प्रदायों का आतंक इस देश पर रहेगा ही।

दूसरा समाधान महर्षि दयानन्द ने यह प्रस्तुत किया कि जो भारतीय जनता मुसलमान या ईसाई हो गयी है उसे शुद्ध करके वैदिक आर्य बनाओ। केवल इतना ही नहीं बल्कि मानवता की दृष्टि से अन्य देशों के ईसाई, मुसलमान, बौद्ध, जैनी सबसे कहो कि असत्य और अज्ञान का परित्याग करके विद्या और सत्य को अपनाओ और विश्व बन्धुत्व की संस्थापना करो।

विवेकानन्द के अनेक विचार उदात्त  और प्रशस्त थे, पर वे अवतारवाद से अपने आपको मुक्त न कर पाये और न भारतीयों को मुसलमान, ईसाई बनने से रोक पाये। यह स्मरण रखिये कि यदि महर्षि दयानन्द और आर्य समाज न होता तो विषुवत रेखा के दक्षिण भाग के द्वीप समूह में कोई भी भारतीय ईसाई होने से बचा न रहता। विवेकानन्द के सामने भारतीयों का ईसाई हो जाना कोई समस्या न थी।

आज देश के अनेक अंचलों में विवेकानन्द के प्रिय देश अमेरिका के षड़यन्त्र से भारतीयों को तेजी से ईसाई बनाया जा रहा है। स्मरण रखिये कि विवेकानन्द के विचार भारतीयों को ईसाई होने से रोक नहीं सकते, प्रत्युत मैं तो यही कहूँगा कि यदि विवेकानन्द की विचारधारा रही तो भारतीयों का ईसाई हो जाना बुरा नहीं माना जायेगा, श्रेयस्कर ही होगा। विवेकानन्द के निम्न श     दों पर विचार करें- (दशम् खण्ड, पृ. ४०-४१)

मनुष्य और ईसा में अन्तरः अभिव्यक्त प्राणियों में बहुत अन्तर होता है। अभिव्यक्त प्राणि के रूप में तुम ईसा कभी नहीं हो सकते। ब्रह्म, ईश्वर और मनुष्य दोनों का उपादान है। …… ईश्वर अनन्त स्वामी है और हम शाश्वत सेवक हैं, स्वामी विवेकानन्द के विचार से ईसा ईश्वर है और हम और आप साधारण व्यक्ति हैं। हम सेवक और वह स्वामी है।

इसके आगे स्वामी विवेकानन्द इस विषय को और स्पष्ट करते हैं, ‘‘यह मेरी अपनी कल्पना है कि वही बुद्ध ईसा हुए। बुद्ध ने भविष्यवाणी की थी, मैं पाँच सौ वर्षों में पुनः आऊँगा और पाँच सौ वर्ष बाद ईसा आये। समस्त मानव प्रकृति की यह दो ज्योतियाँ हैं। दो मनुष्य हुए हैं बुद्ध और ईसा। यह दो विराट थे। महान् दिग्गज व्यक्ति      व दो ईश्वर समस्त संसार को आपस में बाँटे हुए हैं। संसार में जहाँ कही भी किञ्चित ज्ञान है, लोग या तो बुद्ध अथवा ईसा के सामने सिर झुकाते हैं। उनके सदृश और अधिक व्यक्तियों का उत्पन्न होना कठिन है, पर मुझे आशा है कि वे आयेंगे। पाँच सौ वर्ष बाद मुहम्मद आये, पाँच सौ वर्ष बाद प्रोटेस्टेण्ट लहर लेकर लूथर आये और अब पाँच सौ वर्ष फिर हो गए हैं। कुछ हजार वर्षों में ईसा और बुद्ध जैसे व्यक्तियों का जन्म लेना एक बड़ी बात है। क्या ऐसे दो पर्याप्त नहीं हैं? ईसा और बुद्ध ईश्वर थे, दूसरे सब पैगम्बर थे।’’

कहा जाता है कि शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म को भारत से बाहर निकाल दिया और आस्तिक धर्म की पुनः स्थापना की। महात्मा बुद्ध (अर्थात् वह बुद्ध जो ईश्वर था) को भी मानिये और उनके धर्म को देश से बाहर निकाल देने वाले शंकराचार्य को भी मानिये, यह कैसे हो सकता है? विश्व  हिन्दू परिषद् वाले स्वामी शंकराचार्य का भारत में गुणगान इसलिए करते हैं कि उन्होंने भारत को बुद्ध के प्रभाव से बचाया, वरना ये ही विश्व हिन्दू परिषद् वाले सनातन धर्म स्वयं सेवक संघ की स्थापना करके बुद्ध की मूर्तियों के सामने नत मस्तक होते। यह हिन्दुत्व की विडम्बना है। यदि स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि में बुद्ध और ईसा दोनों ईश्वर हैं तो भारत में ईसाई धर्म के प्रवेश में आप क्यों आपत्ति करते हैं। पूर्वोत्तर भारत में ईसाइयों का जो प्रवेश हो रहा है, उसका आप स्वागत कीजिये। यदि विवेकानन्द को तुमने ‘‘हिन्दुत्व’’ का प्रचारक माना है तो तुम्हें धर्म परिवर्तन करके किसी का ईसाई बनना किसी को ईसाई बनाना क्यों बुरा लगता है?

मैं स्पष्ट कहना चाहता हूँ कि विवेकानन्दी हिन्दू (जिन्हें बुद्ध और ईसा दोनों को ईश्वर मानना चाहिए) देश को ईसाई होने से नहीं बचा सकते। भारतवासी ईसाई हो जाएँ, बौद्ध हो जायें या मुसलमान हो जाएँ तो उन्हें आपत्ति  क्यों? ईसा और बुद्ध साक्षात् ईश्वर और हजरत मुहम्मद भी पैगम्बर!

महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज की स्थिति स्पष्ट है। हजरत मुहम्मद भी मनुष्य थे, ईसा भी मनुष्य थे, राम और कृष्ण भी मनुष्य थे। परमात्मा न अवतार लेता है न वह ऐसा पैगम्बर भेजता है, जिसका नाम ईश्वर के  साथ जोड़ा जाए और जिस पर ईमान लाये बिना स्वर्ग प्राप्त न हो।

भारत को ईसाइयों से भी बचाइये और मुसलमानों से भी बचाइये जब तक कि यह ईसा को मसीहा और मुहम्मद साहब को चमत्कार दिखाने वाला पैगम्बर मानते हैं।

– आर्यसमाज, अजमेर

मख (त्रुटिहीन) प्रबन्धन (सांतसा विशेषांक प्रथम भाग) : डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय

हमारे सद्-प्रयासों और उद्योगों से हमारा जीवन तथा जीवन व्यवहार मख हो। `म’ का अर्थ होता हैं `नहीं’ औंर `ख’ का अर्थ होता हैं छिद्र या त्रुटि। 5 कर्मेन्द्रियों, 5 ज्ञानेन्द्रियों – दश प्राणों, तीन हठों, चार-वाक्, एक मन, एक बुद्धि, एक धी, स्व, अहम्, अध्यात्म, अन्तरात्म, देवात्म, सभी मख हों। मख का अर्थ `त्रुटिहीन’ या शून्य त्रुटिविधा होता है।
हमारे जीवन का लक्ष्य या आदर्श हमारा ईश्वर या परमात्मा होता है। यह लक्ष्य परिपूर्ण या सम्पूर्ण होना चाहिए। यदि हमारे माने गए परमात्मा में छिद्र है, या दोष है, या जडत्व है; तो वह शून्य त्रुटि नहीं हो सकता। अपूर्ण को पूर्ण मान लेने से वह कभी पूर्ण नहीं हो सकता है। परमात्मा जो पूर्ण है उसके नाम अक्षर, अक्षय, अक्षत, अव्रण, अपापविद्ध, अचल, अस्नाविर, अजर, अमर, अमृत, अरपा आदि मख परक हैं। ये सारे शब्द `मख’ शब्द का अनेकानेक सन्दर्भ़ों में अर्थ प्रदर्शित कर रहे हैं। ये सारे शब्द अलग अलग अर्थ़ों मे क्षेत्र विशेष के लिए शून्यत्रुटि विभाा का प्रबन्धन दर्शाते हैं। आज विश्व में जापान, जर्मनी, अमेरिका, ब्रिटेन आदि देशों ने शून्य त्रुटि विद्या में एक क्रान्ति कर दी है। सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि विश्व के देशों में शून्यत्रुटि जैसे दो शब्दो के लिए प्रयुक्त होनेवाला एक शब्द भी नहीं हैं, और वे भारत से शून्यत्रुटि क्रान्ति में आगे चल रहे हैं। वे इस क्षेत्र भारत के गुरु सिद्ध हो गए हैं। भारत इसलिए पिछड़ गया कि उसने सदियों पहले संस्कृति प्रदत्त इन शब्दों का प्रयोग छोड़ दिया है।
आज भारत को आवश्यकता है कि मख प्रबन्धन को अपनाए और विश्व गुरु रूप में इसका निर्यात करे। म-ख याने निर्दोष प्रबन्धन लागू करने का व्यवहारिक रूप वेद तथा वैदिक शब्द एवं उनकी नियतियों में दिया गया है। वैदिक संस्कृति `शून्य त्रुटि’ व्यवस्था का आधारतल मानव को मानती है। मानव ही चल, अचल, धन, मशीन, संसाधनों का संचालक नियामक है। वह ही नियम बनाता उन पर चलता और उन्हें तोड़ता मरोड़ता है। मानव को `मख’ करने की महान योजना वेदों में है। उस योजना का नाम संस्कार (दोषमार्जन, हीनांगपूर्ति, अतिशयाधान), यजन (त्याग, अर्चन-लक्ष्यन, संगठन), आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास) पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष), आचार्य (माता, पिता, गुरु, अतिथि), वर्ण-धर्म (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शिल्पी, सेवी) त्रयी (ज्ञान, कर्म, उपासना) आदि हैं। इसी योजना को सार्थक करने के लिए पंचयजन, ऋतु संधी यजन, यजन द्वारा आयु कल्पन, ऋत, शृत, सत्य, बृहत्, यश, श्री, आदि नियामक हैं। मख को यज्ञ भी कहा जाता है। पूरा वैदिक साहित्य मानव जीवन मख करने के उद्देश्य से लिखा गया है। वैदिक साहित्य से सना जीवन एक महान अनुशासन योजना है। इसमें यम सामाजिक जीवन अनुशासन है जो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह रूप में है तो नियम व्यक्तिगत जीवन अनुशासन है जो शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान है।
वैदिक शिक्षा शब्द अनुशासन है कि व्यक्ति मख या शून्यत्रुटि अभिव्यक्ति कर सके जिससे शून्यत्रुटि सम्प्रेषण हो। शिशु को अक्षर का स्थान, प्रयत्न और करण समझाते अपना मुंह खोल कर बताते माता पिता अक्षरज्ञान कराएं। `प’ वर्ग के अक्षरो का स्थान ओष्ठ, प्रयत्न स्पृष्ट (स्पर्शन-घर्षण) एवं करण जिव्हा एवं प्राण सम्मिश्र हैं। इसके पश्चात पाणिनी सूत्र अनुशासन, धातु अनुशासन आदि व्याकरण अनुशासन हैं। अर्थ अनुशासन हेतु निघण्टु एवं निरुक्त हैं। रचना करने का लिखन अनुशासन का नाम छन्द है। संवत्सर अनुशासन का नाम ज्योतिष है। मीमांसा कर्म अनुशासन, न्याय तटस्थता या बुद्धि अनुशासन, सांख्य स्तर या क्रम अनुशासन, योगसूत्र योगानुशासन एवं वेदांत ब्रह्म अनुशासन की पुस्तकें हैं। ये समस्त पुस्तकें महान जीवन अनुशासन सिखाती हैं। आयुर्वेद स्वास्थ्य अनुशासन, धनुर्वेद राज्य अनुशासन, गांधर्ववेद स्वर अनुशासन तथा आयोजन अनुशासन, अर्थवेद शिल्प अनुशासन के ग्रन्थ हैं। ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक ये दश उपनिषद अर्थात दश ब्रह्म के निकटतम होने के दशानुशासन हैं। इन अनुशासनों के पठन, पालन से मानव जीवन अरण्यक अर्थात् युद्धरहित शान्त हो जाएगा। ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथ ये चार ब्रह्म अनुशासन हैं। ब्रह्म का अर्थ विस्तरणशील है। ब्रह्म प्रकटते अनन्त अहसास अनुभूति है। ब्रह्मानुशासन इस अनुभूति प्राप्ति का व्यवहार विज्ञान है। इसके अनन्तर ज्ञानानुशासन है, जिसे वेदानुशासन कहते हैं। वेदों को स्वर, शब्द, अर्थ, सम्बन्ध, क्रिया सहित ही पढना चाहिए। इस प्रकार वेदांग, वेद-उपांग, उपवेद, उपनिषद, ब्राह्मण, वेद प्रणीत शिक्षा तथा उसका आचरण मानव को मख याने शून्य त्रुटि करता है। ऐसा व्यक्ति अपने जीवन मे प्रकृष्ट शून्यत्रुटि निर्माण करेगा ही।
परमात्मा के मख या शून्य त्रुटि नाम मख प्रबन्धन का व्यावहारिक रूप प्रदर्शित करते हैं। अक्षर का अर्थ है जो क्षर नहीं है, पर क्षर को जानता अपने नियन्त्रण में रखता है। क्षर नाम है परिवर्तनशील का। परिवर्तन क्षरण का महत्वपूर्ण कारण है। अक्षर प्रबन्धक परिवर्तन कारण से होनेवाले क्षरण का अग्रिम ध्यान रखता है। वैकल्पिक कलपुर्ज़ों की व्यवस्था तथा निश्चित समय के बाद अनार्थिक सुधार वाली मशीनों की परिवर्तन योजना अक्षर प्रबन्धन का भाग है। नई तकनीक के आ जाने से पुरानी तकनीक का त्याग भी क्षर या परिवर्तन, प्रबन्धन के अर्न्तगत किया जाता है। क्षमता क्षरण या अक्षमता के स्तर तक व्यक्ति या संस्थान या मशीन के पहुंचने पर उसमें उत्साहन, उन्नयन या संस्कार करना भी अक्षर प्रबन्धन है।
अक्षय वह उत्पाद या निर्माण है जिसमे क्षय या विनष्टि उन परिस्थितियों में कम से कम हो। यह गुणवत्ता प्रत्यय है। लौह धातु को क्षय से बचाने के लिए उसे परिशुद्ध दुर्लभ भाातुओं के निश्चित अनुपात में मिलाकर या उनका लेपन करके या दुर्लभ मिश्र धातु की परत चढ़ाकर अक्षय करने के उच्च गुणवत्तामय कार्य प्रयास गुरुत्वाकर्षण रहित अवस्था में किए जा रहे हैं। एक समय में बजाज स्कूटर अक्षयता में उत्तम होने के कारण सर्वाधिक पसन्द किया जाता था।
अक्षत उत्पाद में क्षत या उतार चढाव सतह दोषों खुरदरेपन का न होना उसका अक्षत होना है। अक्षत नाम उस चावल का है जो पूर्ण कोढ़े सहित भूरापन लिए हुए ढेंकी द्वारा सास-बहू या परिवार सदस्यों के सौंहार्द सामंजस्यमय रिस्तों के रहते छिलका अलग कर प्राप्त किया जाता है। अक्षत चावल प्राप्त करना एक अति लम्बी सावधान जागरूक खेतबनाई, बीज चुनाव, रोपा लगाई, सिंचाई, निंदाई, कटाई, छिटकाई, कुटाई, फटकाई आदि का परिणाम है। अक्षत चावल मध्यम पाचन होने के कारण मधुमेह के सावधान रोगियों द्वारा भी उपयोग में लाया जा सकता है। अन्य चावल द्रुत पाचन के कारण इन्सुलिन उत्पादन सहसा बढ़ा देने के कारण हानिकर होते हैं। अक्षत चावल की भारत में संस्कारों में इतनी महत्ता इसीलिए है। व्यवस्था में `क्षत’ या `घाव’ या व्यतिक्रम या उबड़-खाबड़पन का तत्काल इलाज अक्षत प्रबन्धन की आवश्यकता है। अन्यथा घाव सड़ जाने पर कई बार अंग ही काट देना पडता है। भिलाई इस्पात संयन्त्र में प्रारम्भिक प्रशिक्षण व्यवस्था में लापरवाही हो जाने के कारण एक समय वह अव्यवस्था बढ़ जाने पर उसे सुधारने अन्त्य प्रयास करने पड़े थे।
अव्रण व्यवस्था अक्षत से अधिक सावधानी चाहती है। क्षत छोटे सतही घाव का नाम है, पर व्रण बड़े फोडे का नाम है। वह फोडा जिसकी जड़े गहरी हों व्रण कहलाता है। भारतीय संविधान में `किन्तु’ `परन्तु’ `लेकिन’ के महा प्रावधान व्रण हैं। मूल नियमों में रह गई भूलें वे व्रण हैं जो व्यवस्था के लिए, उम्र भर के लिए रिसते घाव का काम करती हैं। अव्रण व्यवस्था की मांग है कि व्यवस्था के मूल प्रावधान या नीति प्रावधान बिलकुल स्पष्ट याने ऋत, शृत, सत्य, ज्ञान, श्रम, तप, तितिक्षा, मुमुक्षुत्व तत्वों पर आधारित हो। इनमें एक खोट, एक त्रुटि कभी कभी सब तहस-नहस कर देती है। आर्य समाज श्रेष्ठ सिद्धान्त संस्था है। उसमें “प्रजातन्त्री चुनाव” के व्रण ने पूरी संस्था को तहस नहस कर डाला है।
अपापविद्धम् प्रबन्धन चल मानव संसाधन से सम्बधित है। मानवीय दोषों का नाम पाप है। निर्दोष मानव अपाप है। सदा निर्दोष या हर बार निर्दोष मानव अपापविद्ध है।
अमल उस व्यवस्था का नाम है जिसमें मल या अपशेष नाम मात्र का ही हो तथा उसका भी उपयोग कर लिया जाए। शून्य अवशेष होना या अमल व्यवस्था एक आदर्श व्यवस्था है। इस्पात संयंत्र में स्लैग से स्लैग सीमेंट, प्रदूषित जल का पुनरुपयोग, ऐश से गेंलीनियम धातु, ऐश का सड़को या ईटों में निर्माण उपयोग, स्क्रेप का पुर्नगलन, वायु प्रदूषण नियन्त्रण आदि व्यवस्था `अमल’ प्रबन्धन के अर्न्तगत ली जा सकती है। अमल व्यवस्था का मापदण्ड पर्यावरण मन्त्र या शान्ति मन्त्र है, जिसके अनुसार 1) सहज प्राकृतिक प्रकाश व्यवस्था, 2) अन्तरिक्ष व्यवस्था, 3) आधार व्यवस्था, 4) प्रवहणशील पदार्थ व्यवस्था, 5) औषध अन्न व्यवस्था, 6) वनस्पति फल व्यवस्था, 7) सामंजस्य व्यवस्था, 8) देव व्यवस्था, 9) ज्ञान व्यवस्था, 10) फैलाव व्यवस्था, 11) स्थैर्य एवं सन्तुलन व्यवस्था, 12) आधिभौतिक व्यवस्था, 13) आधिदैविक व्यवस्था, 14) आध्यात्मिक व्यवस्था की अपेक्षा की गई है कि मानव इन्हे प्राकृतिक शुद्ध अप्रदूषित जी सके। ध्वनि, रूप, स्पर्श, रस तथा गन्ध की अति मानव के लिए मल या प्रदूषण है। ये मानव की कार्य क्षमता को कम करते हैं। अतः इनका निराकरण कर अमल व्यवस्था लागू करना उद्योगों की महान आवश्यकता है।
अमल व्यवस्था से युजित मख प्रबन्धन कः मल है। क्या है मल ? कैसा है मल। मल प्रबन्धन के कः मल स्वरूप में मल का स्तरीकरण किया जाता है। इसके लिए सारे मलों, अपशेषों की सूची बना ली जाती है। इस सूची में सर्वाधिक नुकसानकारी मलों को पहले और बाकी मलों को बाद में रखते हैं। इस क्रम में पहले वे पच्चीस प्रतिशत मल अलग कर लिए जाते हैं जो पचहत्तर प्रतिशत महत्वपूर्ण निराकरण की नजर से होते हैं। इनका निराकरण कर देने से व्यवस्था पचहत्तर प्रतिशत के करीब समस्या मुक्त हो जाती है। अन्य मलों का निराकरण भी क्रमशः कर लिया जाता है।
स्नाविर नाम सबन्धन का है। नस नाडियों के युजन के सम्बन्ध में इस शब्द का प्रयोग होता है। ये युजन अतिजटिल हैं। उद्योग जगत में अन्तर्विभागों तथा सम्प्रेषण आदि के जटिल अन्तर्सम्बन्धों को सहज और सरल करना अस्नाविर प्रबन्धन है। एल्टन मेयो ने कार्य दौरान प्रति घण्टे 5 मिनिट विश्राम का प्रावधान करके व्यवस्था को अस्नाविर करने का प्रयास किया था। उससे उत्पादकता में तेरह प्रतिशत वृद्धि हुई थी। सम्प्रेषण का आधार पंच परीक्षा, अवयय (वैज्ञानिक विधि) प्रमाणसम्मत एवं दर्शनसम्मत होने से सम्प्रेषण यथावत, सारगर्भित, अर्थपूर्ण तथा वैज्ञानिक ही होगा और व्यवस्था सम्प्रेषण क्षेत्र अस्नाविरं होगी।
`अजर’ वह उत्पाद है या व्यवस्था है जो जरा को प्राप्त नहीं होती है। उम्र प्रभाव को जरा कहते हैं। जिस प्रकार सामान्य मानव की क्षमता उम्र के साथ घटती है, उसका शरीर वृद्ध होता है, बाल सफेद हो जाते हैं, त्वचा में झुर्रियां पड़ जाती हैं, याददाश्त कम हो जाती है; उसी प्रकार सामान्य संस्थान भी बूढे हो जाते हैं। उनके भवनों के प्लास्टर उखड़ जाते हैं, उत्साहन कम हो जाता है, कर्मचारी मानसिकता परिवर्तित हो जाती है, संस्थान रूढ़ी ग्रस्त होकर एक लीक पर चलने लगते हैं, कल-पुर्जे घिस जाते हैं, सारी व्यवस्था खटर-खटर करने लगती है। अजर प्रबन्धन इस तथ्य को ध्यान में रखते व्यवस्था को नूतनीकरण (उसकी भौतिक व्यवस्था का उन्नयनीकरण), नवीनीकरण (मशिनों को परिवर्तन), पुनर्जागरण (नव विचारों का संस्थान में प्रवेश), योग (नए लक्ष्य निर्धारित कर उससे युजन की प्रेरणा), नव अनुभवीकरण (पुराने अनुभवों का नए क्षेत्रों मे प्रयोग), सांतसाकरण (सांस्कृतिक तकनीक सामाजिक द्वारा उन्नयन) आदि एक साथ करके व्यवस्था को अजरता देता है।
अमर वह व्यवस्था है जो मरती नहीं है। व्यक्ति आधारित व्यवस्था मरणशील होती है। प्रजातन्त्र व्यवस्था में तथा कई संस्थानों में मुख्य कार्यकारी अत्यधिक शक्तिशाली होता है। ऐसी अवस्था में प्रधानमन्त्री या मुख्य कार्यकारी के परिवर्तन के साथ ही पूरी व्यवस्था तहस-नहस हो जाती है, या मरण को प्राप्त होती है। अमर प्रबन्धन का मुख्य तत्व समाज है। व्यक्ति मरण तय है, समाज मरण असम्भव है। इसी प्रकार व्यक्ति नियम अस्थायी है, ऋत-शृत नियम स्थायी हैं। यदि व्यवस्था व्यक्ति नियमाधारित है तो उसका मरण निश्चित है।
ऋत तथा शृत नियमाभाारित व्यवस्था अमर रहती हैं। ऋत शाश्वत प्राकृतिक नियमों का नाम है। शृत आप्त ज्ञान या पंच परीक्षा द्वारा सिद्ध ज्ञान है। भारत सदियों से भी अधिक अमर रहा कि उसके पास सिद्ध ज्ञान- वैदिक साहित्य का आधार था। बौद्ध-जैन काल के विकृत प्रभावों में वह ज्ञान भारत खोता चला गया। बुद्धि को मूर्ति जडत्व से जोड़ दिया गया और उसके लिए पतन के सारे द्वार खुल गए। ऋत शृत व्यवस्था यशकर होती है। समाज यश का आदर करता है। व्यक्ति मर जाता है पर उसका यश जिन्दा रहता है। यश अमर व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण तत्व है।
अमर और अमृत करीब-करीब समानार्थी शब्द हैं पर इनमें प्रयोग का अन्तर है। अमर शब्द दीर्घकालीन व्यवस्था अमरता आधारित है तो अमृत वर्तमानकालिक व्यवस्था का द्योतक है। मृत्योर्मा अमृतं गमय। मृत्यु नहीं अमृत में गति कर। समय से तेज गति के सवार सिद्ध को अवकाश ही अवकाश है। अवकाश है कि वह और अधिक कार्य सहजता पूर्वक कर सके। अमृत में गति एक महान प्रबन्धन का द्योतक है। अमृत का अर्थ है मृत नहीं। दो कल दो मरण हैं। अतीत कल मृत है तथा भविष्य कल मृत है। आज वर्तमान पल अमृत है, जिन्दा है। आज भरपूर कार्य करना है, यही अमृत प्रबन्धन है। जो संस्थान आज में कार्य करते, आज का ध्यान रखते जीते हैं उनके दोनों कल भी जीवित हो जाते हैं। परमात्मा अमृत है कि उसका कल नहीं होता। परमात्म प्रबन्धन का तकाजा है कि उससे जुड़कर उसके गुणों को धारण करके अपने दोनों कलों को भी अमृत करके आज रूप में जियो। आज के अमृत का ही उसमे विस्तार करो। `कल’ की छाया आज पर न हो वरन आज का प्रकाश कल पर हो। आज को विचार पूर्वक जीना है।
एक व्यक्ति कल की चिन्ताओं में डूबा चला जा रहा था। सडक पर एक केले का टुकड़ा पड़ा हुआ था उसका पैर पड़ा और वह रपट-फिसल कर गिर गया। अचानक रपट-फिसल जाने का कारण `रप’ होता है। यह बिना विचारे सहसा होता है। विचार हीन कार्य रप होता है। `रप’ नाम भी पाप का, त्रुटि का या `रव’ का है। रप छिद्र है, दोष का छिद्र है। चाहे उद्योग हो, चाहे घर हो, चाहे सड़क हो, चाहे कार्यालय हो; रप या दोष या त्रुटि या छिद्र या रव नुकसानदेह ही होता है। सड़क पर दोष तो कई कई मृत्युओं का कारण बन जाता है। घर में दोष तलाकों, बटवारों को जन्म देता है। उद्योगों में दोष गुणवत्ताहीनता, उत्पादन हास को जन्म देता है। कार्यालय में दोष कार्यहीनता को जन्म देता है।
इन दोषों का निराकरण व्यवस्था का `रप’ याने फिसल त्रुटि से रहित करना `अरपा’ प्रबन्धन है। अरपा प्रबन्धन का प्रमुख तत्व है `जागरूकता’।  “जागरूकता शत प्रतिशत, त्रुटि या रप शून्य प्रतिशत” यह अरपा प्रबन्धन का आधार तथ्य है।
इस प्रकार अक्षर, अक्षय, अक्षत, अव्रण, अपापविद्ध, अमल, अस्नाविर, अजर, अमर, अमृत, अरपा आदि शब्द `मख’ प्रबन्धन या “शून्य त्रुटि प्रबन्धन” की महान विधाए हैं। ये सारे के सारे शब्द परमात्मा के लिए भी वेद में प्रयुक्त हैं। इन शब्दों का वेद-ज्ञान हमें परमात्मा तक पहुंचाता है तथा उनका विद्-ज्ञान संसार में सत्ता, विचार, उपयोग, लाभ भी दिलाता है। भारतीय वैदिक साहित्य वैज्ञानिक आधार पर लिखा गया है जो हमें आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक ज्ञान देता है। इसीलिए सर्वांगणीय उपयोगी है।
हमारी संस्कृति के छै दर्शन जैसा कि हम पूर्व में इंगन कर आए हैं छै अनुशासन हैं। ये अनुशासन मानव तथा व्यवस्था को `मख’ करते हैं। जैमिनी का मीमांसा (1) मीमांसा : तथ्य संकलन, विश्लेषण, शास्त्रीय सिद्धान्त मनन चिन्तन, (2) नित्य कर्म़ों का या दैनिक कर्म़ों का आयोजन कर उन्हें `मख’ करने की जीवन कार्य योजना, (3) नैमित्तिक कर्म़ों की या विशिष्ट लक्ष्य प्राप्ति (माईल स्टोन उपलब्धि) तथा (4) पुरुषार्थ आदि पर योजना बनाने की, (5) काम्य- अ) निषिद्ध या त्रुटि कारक कार्य़ों के निराकरण की योजना, ब) प्रायश्चित्त याने अचानक त्रुटि हो जाने पर सुधार की योजना, स) यज्ञ करने का दर्शन है। इसे जीवन मख करने या शून्य त्रुटि करने का दर्शन कह सकते हैं।
आधुनिक शून्य त्रुटि विचारक जोसेफ एम.जुरान की मख योजना इस प्रकार है-
(1) लक्ष्य निर्धारण, (2) लक्ष्य हेतु आयोजन (संख्या 1 और 2 को मीमांसा कहा जा सकता है), (3) संसाधन विकास, (4) लक्ष्य का गुणात्मक अनुवाद (संख्या 3 एवं 4 नैमित्तिक निमित्त कारण या संसाधनात्मक चिन्तन है), (5) अपक्षय में कमी, (6) माल देने में सुधार, (7) स्वसंतोष, (8) ग्राहक सन्तुलन, (9) लाभ। इनको पुरुषार्थ, यजन, काम्य-निषिद्ध तथा प्रायश्चित्त आदि कार्य़ों के अन्तर्गत ले सकते हैं। मीमांसा दर्शन जीवन संष्लिष्ट है। जबकि जुरान दर्शन उद्योग संष्लिष्ट है।
जैमिनी की शून्य त्रुटि विधा का विवरण देना यहां आवश्यक है। जैमिनी दर्शन को पूर्व मिमांसा कहा जाता है। पूर्व मीमांसा का विषय है धर्म जिज्ञासा या धर्म अनुशासन। मूलतः धर्म आत्मा को मख करने की योजना है। तन जल से, मन तप से, बुद्धि परिश्रम से, धी सत्य से, स्व ऋत से, स्वः शृत से तथा आत्मा धर्म से मख या शून्य त्रुटि होती है। मीमांसा का पहला सूत्र है- अब धर्म अनुशासन का प्रारम्भ। वर्तमान युग में धर्म का “अर्थ आधार उद्देश्य” है। दूसरे उद्देश्य में “प्रेरण को धर्म लक्षण” कहा गया है। प्रेरण : अ) प्रेरणा, ब) उपदेश, क) आदेश तत्वों से बना है। ये तीनों नियत हैं इसलिए नियम हैं।
नियम के तीन क्षेत्र हैं 1) ऋत, 2) शंसन या शासन तथा 3) श्रृत। ऋत शाश्वत प्राकृतिक नियम हैं। शंसन शासन नियम हैं। शृत शाश्वत नैतिक नियम हैं। शाश्वत प्राकृतिक नियमों के अनुरूप शून्य त्रुटि व्यवस्था के लिए चलना एक बाध्यता है। शंसन पकड़े जाने पर दण्डात्मक है। अधिकतर ये शासन की सर्वव्यापकता, कठोरता, स्वअनुशासन बद्धता पर निर्भर है। शृत नियम या नैतिक नियम अपेक्षा या चाहिए आधारित हैं। ये हर व्यक्ति के लिए बाध्यकर नहीं है। इनका नियन्ता ब्रह्म है जिसका न्याय निश्चित है, पर मानव समझ से परे है। शासन को ऋत तथा शृत नियमों की व्यवहार प्रयोग सार्थकता पर आधारित होना चाहिए, तब `मख’ उत्पाद की प्राप्ति होती है। सारांश में प्रकृति नियम प्रेरणा देते हैं। नैतिक नियम उपदेशात्मक हैं और राज्य नियम आदेशात्मक तीनों का समन्वित रूप मानव के लिए महत्वपूर्ण है।
जैमिनी का धर्म कर्मपरक है। जैमिनी गुणवत्ता गुरु था। वह द्रव्यों के उपयोग क्षेत्र में गुण और संस्कार की महत्ता का प्रतिपादन करता है। द्रव्य का “गुणानुरूप संस्कार” एक महान इन्जीनियरिंग हैं। संस्कार में तीन चरण आवश्यक हैं 1) दोषों का निराकरण करना यह निराकरण शून्य तक होना चाहिए। 2) हीन अंगों की प्रतिपूर्ती योजना का क्रियान्वयन करना और (3) अतिशय का (अतिरिक्त) आधान करना कि गुणवत्ता तथा उपयोग में और वृद्धि हो। इन चरणों में गुणों के आधार पर परिष्कार का ध्यान रखना आवश्यक है। गुण संस्कार के साथ पुरुषार्थ और यजन तत्व भी जैमिनी की नजर में सतत रहते हैं।
चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष उद्योग जगत के महान सन्देश पच्चीस पचहत्तर सिद्धान्त का भी प्रतिपादन करते हैं। धर्म का पच्चीस प्रतिशत अर्थ, काम और मोक्ष इन तीनों में हैं। धर्म वह पच्चीस प्रतिशत है जो पचहत्तर प्रतिशत महत्व पूर्ण है। इसका दृढ़ता पूर्वक पालन अर्थ, काम, मोक्ष के पचहत्तर प्रतिशत को सरल साध्य का देता है।
यजन के दो रूप हैं। कव्य तथा हव्य। कव्य अर्थ सहित मन्त्र पाठ है तथा हव्य हवन करना है। ये दोनों ही प्रधान कार्य हैं। सिद्धान्त, उद्देश्य तथा कार्य साथ साथ होने से कर्म गुणवत्ता बढ़ जाना एक स्वाभाविक तथ्य है। यजन अपने आप में भी त्यागन, लक्ष्यन, संगठन अर्थात प्रबन्धन है। इस प्रकार जैमिनी का करीब 5000 वर्ष पुराना गुणवत्ता प्रबन्धन व्यापक है।
मीमांसा दर्शन के अनुसार कर्म के साथ फल जुड़ा है। फल मनुष्य के लिए है और मनुष्य कर्म के लिए है। पुण्य का सुख से और पाप का दुःख से सम्बन्ध नैतिकता की मांग है। शून्य त्रुटि कार्य निर्दोष कार्य या पुण्य है और दोष पूर्ण या त्रुटि पूर्वक कार्य पाप है। शून्य त्रुटि सुख और त्रुटि दुःख देती है। मनुष्य कर्म करता है। कर्म के बाद फल मिलनें में अन्तराल रहता है। हर कार्य समाप्त होने पर फल नहीं देता है। कर्म समाप्त होने पर `अपूर्व’ में बदल जाता है। अपूर्व एक शक्ति का नाम है इस शक्ति में कर्मफल अव्यक्त रूप में कहता है और समय आने पर व्यक्त हो जाता है। कार्य का कौशल यह है कि वह उस अपूर्व का सृजन करे कि अपूर्व भव्य फल दे।
कर्म़ों के अध्यक्ष ब्रह्म एवं शासन है। शासन क्षेत्र में अपूर्व प्रायः ज्ञात रहता है। कभी कभी स्थानान्तर कार्य परिवर्तन आदि अज्ञात भी होते हैं। ब्रह्म क्षेत्र में अपूर्व फल रूप में बहुज्ञ को अंशज्ञात होता है। पर उसका समय अज्ञात रहता है। इसी कारण से अपूर्व को प्रायश्चित्त द्वारा कुछ अंश परिवर्तित किया जा सकता है। कर्म अपूर्व होकर ही फल देता है।
शासन ने शाश्वत नियम विरुद्ध अपूर्व को अग्रिम तथा ऋण रूप में देना शुरू कर कर्म से पूर्व कर दिया है। इसके कारण कार्य के `मख’ या शून्य त्रुटि होने में बाधा पडेगी। आयोजन में जो स्थान सटीक या ऑप्टिमम का है कर्म में वही स्थान अपूर्व का है। अपूर्व की समझ विरले विद्वानों को होती है। ऐसे ही सटीक भी विरले लोग समझते हैं। अपूर्व और सटीक शून्य त्रुटि क्षेत्र में आधार स्थान रखते हैं।
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पुरुषार्थ हैं। पुर या अस्तित्व में उषन पैदा करके उन्नत भावों तक पहुंचा देने वाले तत्वों का नाम पुरुषार्थ हैं। धर्म का अपूर्व आत्मा को उन्नत करके परमात्मानुभूति देने वाला है। अर्थ का अपूर्व अर्थ पार भाव उन्नयन देने वाला है। काम का अपूर्व अपनत्व का उच्च रूप मिलकर एक, नेक, सम संकल्प-हृदयभाव देने वाला तथा मोक्ष का अपूर्व अव्याहत आनन्द नन्द प्रदाता है। सामान्य जगत में अपूर्व कैसे मिलता है, कब मिलता है इसका एक उदाहरण इस प्रकार है-
मैं 1964 – 70 में धर्मार्थ दवाखाना सुपेला में चलाता था। 2005 में मैं बाजार गया एक जगह आलू बोंडे खरीदे। उस महिला ने पति की नजर बचाकर दो आलू बोंडे अतिरिक्त दे दिए थे जो घर आने पर मुझे पता चला। उसका कारण समझ न आया। एक और बाजार में उस ठेले पर जाने पर मेरे पूछने से पहले ही उस महिला ने अपने बेटे से कहा इनको ज्यादा देना, मैंने इन्हें पहचान लिया है। बचपन में मुफ्त इलाज करते थे। फिर मुझसे बोली- आप वही डाक्टर हो न सुपेला वाले..?
मेरे जीवन में अनेकानेक उदाहरण ऐसे अपूर्व द्वारा प्राप्त कर्मफलों के हैं। जहां भ्रष्ट जमानें में भी मेरा कार्य पूर्व के पुण्य कार्य़ों के कारण ईमानदारी पूर्वक सहजतः हो गया है। पुण्य कर्म़ों का अपूर्व कार्य क्षेत्र में, उद्योग क्षेत्र में भी सहायक होता है। मैं निर्धन बास्तियों में बच्चों को खेल खिलाता आ रहा हूं। ये ही बच्चे कालान्तर में मजदूर बन ठेकेदारों के पास कार्य करते हैं। सुरक्षा विभाग प्रमुख होने के कारण बचपन में खेल खिलाए उन श्रमिकों ने सुरक्षा क्षेत्र में अपूर्व मदद दी। इस मदद पाने का मूल कारण खेल खिलाने के कार्य का `अपूर्व’ ही था।
दूसरा प्रबन्धन गुरु जो शून्य त्रुटि दक्ष है वह है जोसेफ एम. जुरान। इसके शून्य त्रुटि सिद्धान्त के निम्न लिखित चरण हैं- 1) लक्ष्य निर्धारण, 2) लक्ष्य हेतू आयोजन, 3) संसाधन विकास, 4) लक्ष्य का गुणात्मक अनुवाद, 5) अपक्षय में कमी, 6) माल देने में सुधार, 7) स्व सन्तोष, 8) ग्राहक सन्तुष्टि, 9) लाभ। इसकी तुलना हम उत्तर मीमांसा दर्शन या ब्रह्म दर्शन या वेदान्त दर्शन से करें तो हम पाते हैं कि दोनों में अन्त्य लक्ष्य छोड़ पर्याप्त समानता है। उत्तर मीमांसा के चरण क्रमशः इस प्रकार हैं : 1) लक्ष्य ज्ञान, 2) उपासना लक्ष्य के निकटतम चिन्तन, 3) समन्वय, 4) अविरोध, 5) साधन, 6) फल निर्णय, 7) अ) हेय- छोड़ने योग्य, ब) हेय हेतु- छोड़ने योग्य होने के कारण, क) हान- प्राप्ति योग्य, 8) हानोपाय- प्राप्ति योग्य होने के कारण। उत्तर मीमांसा उच्च कोटि का लक्ष्य सिद्धि शून्यत्रुटि-दर्शन है। इसका अति संक्षिप्त व्यवहार उपयोग यहां दिया जा रहा है।
लक्ष्य से ज्ञानात्मक एकाकार शून्य त्रुटि की पहली शर्त है। इसके लिए यथापूर्व अर्थात पूर्व में उपलब्ध जांचित ज्ञान का सहारा आवश्यक है। इसके आरम्भ के चार सूत्र- 1) ब्रह्म या लक्ष्य जिज्ञासा, 2) कार्य जगत की उत्पत्ति, 3) शाóाsं के अनुरूप लक्ष्य कार्य का कारण, 4) लक्ष्य कार्य में व्यापक होता है। लक्ष्य कार्य का उच्च कोटि का समन्वय ही कार्य को शून्य त्रुटि कर सकता है। वह इन सूत्रों में है। कार्य के कारण में `ईक्ष’ तथा `आनन्द’ होना जरूरी है। “ईक्षते न अशब्दम्” एक महान कार्य प्रबन्धन है। सामर्थ्यवान जो सामर्थ्य सीमा (अधिकार सीमा) के बाहर नहीं जाते, नहीं कहते, नहीं कार्य करते वे शब्द आनन्द या शब्द सार्थकता प्राप्त करते हैं तथा आनन्दपूर्वक कार्य सुसम्पन्न करते हैं।
ब्रह्म जगत की उत्पत्ति का आदि कारण है। वह जगत में व्याप्त रहता है। तथा जगत की उत्पत्ति करता है। जगत का निर्माण शाश्वत प्राकृतिक तथा नैतिक नियमानुसार हुआ है। यह एक त्रुटिहीन प्रबन्धन है, उद्योग प्रबन्धन है या उद्योगपति है। उसका उद्योग में व्यापक होना अत्यावश्यक है। व्यापक रहते हुए कार्यात्मक रूप भी संवारना या कायम रखना है। उद्योग जगत शाश्वत प्राकृतिक तथा नैतिक नियमों के अनुरूप होना है। जगत में परमात्म सहज शक्ति (ईक्षण) द्वारा कार्यरत है। उद्योगपति को भी कार्य जगत् में सहज शक्ति व्याप्त रहना है। सहज शक्ति व्याप्ति व्यवहार में जटिल तथा कठिन श्रमसाध्य प्रक्रिया है, पर प्राप्ति की जा सकती है। उसके लिए शर्धं व्रातं गणं के द्वय द्वय के साथ ऊंगलियों के क्रम अनुक्रम अनुरूप प्रशंसनीय नेतृत्व का प्रयोग आवश्यक है।
जड संसाधन चाहे वह धन ही क्यों न हो, स्वयं कोई कार्य नहीं कर सकते। प्रकृति जड है, असत् है, उसमें सत् रंग, रूप, आकार, नियमबद्ध गति ब्रह्म ईक्षण से होती है। “असतो मा सद्गमय” महान प्रबन्धन सूत्र है। प्रयासपूर्वक आकृतिहीन जड संसाधनों को रंग रूप मय उपयोगी (सत्) पदार्थ़ों में परिवर्तित करना ही उद्योग है। प्रकृति में ही शून्य त्रुटि अर्थ निहित है। प्रकृति “प्रकृष्ट कृति” या शून्य त्रुटि कृति है। प्रकृति रचना यथापूर्व होती है। अनुभव का दुहरना है। वेदान्त (2/2/25) अनुभव के दुहरने को स्मरण कहता है। सारे नित्य कर्म अनुभव स्मरण से सहज कौशल पूर्वक स्वयमेव होते रहते हैं। मानव को उनका पता नहीं चलता। उद्योग कार्य में भी ऐसे कार्य होना शून्य त्रुटि अवस्था के लिए आवश्यक है।
स्वभाव जड में नहीं होता। स्वभाव का अर्थ एक ही जांचा परखा नियमबद्ध अपरिवर्तित कार्य करना। जड में चैतन्य की क्रिया से कई कार्य यथा संयोग वियोग, आकर्षण विकर्षण घटते हैं, अतः जड में स्वभाव नहीं होता है। जड में किए हुए परिवर्तनों का कारण चैतन्य है। वेदान्त दर्शन उन्नति उद्योगों को मात्र गति नहीं मानता है, वरन एक निश्चित गन्तव्य-लक्ष्य की ओर की गति को उन्नति उद्योग मानता है। इस गति की दायक व्यवस्था होती है। जिस प्रकार जीव की गति जिस नियम के अर्न्तगत होती है, जीव उसका नियन्ता नहीं है। इसी प्रकार शून्य त्रुटि के नियमों के निर्णायक कर्मचारी से इतर (अलग) होते हैं। त्रुटि अधिसीमा भी कार्य उत्पादन अनुसार अलग अलग होती है। वेदान्त का चक्रीय सिद्धान्त यह है कि विकास क्रम प्रति विकास क्रम का उलटा होता है। विकास आरम्भ, स्थिति, अन्त क्रम में होता है तो प्रति विकास अन्त से स्थिति आरम्भ अवस्था में पहुंचाता है। निर्माण में जो भाग अन्तिम अवस्था में बनाया जाता है, विध्वंस में वह सर्व प्रथम तोड़ा जाता है। वेदान्तानुसार कारण से कार्य की उत्पत्ति स्थिति चालन होता है और अन्ततः कार्य पुनः विपरीत क्रम में कारण में लीन हो जाता है।
वेदान्त दर्शन कर्ता और कारण में सूक्ष्म धरातलीय भेद करता है। यह भेद उद्योग जगत के लिए शून्य त्रुटि व्यवस्था में सहायक हो सकता है। वेदान्त कहता है- “इन्द्रियां प्राकृत हैं और आत्मा के कारण हैं। यही स्थिति मन की है।” आत्मसंयुक्त सूक्ष्म आत्म संचालित होने के कारण इन्द्रियों तथा मन के साधनों को हम न तो विशुद्ध प्रकृति कह सकते हैं न विशुद्ध चेतना। उद्योग जगत में यह सिद्धान्त इस लिए महत्वपूर्ण है कि आत्मा के साधन इन्द्रियां मन है और इन्द्रियों के साधन औजार, उपकरण, कल-पुर्जे, मशीनें हैं। जड़ पदार्थ़ों पर जड़ साधन मिश्र करणों द्वारा आत्म संचालित होकर उत्पादन करते हैं। विश्व उद्योग जगत को इस सांतसा निर्माण सिद्धान्त को समझना होगा अन्यथा हर शून्य त्रुटि व्यवस्था अधूरी ही रहेगी।
सांस्कृतिक तकनीक सामाजिक चैतन्य आत्मा, अंश चैतन्य करण प्राण, इन्द्रियों, प्रकृति परिष्कृत उपकरण (करण के करण) एवं उत्पाद जड़ जिसे परिवर्तित होना है तक की व्यवस्था में शून्य त्रुटि कर हर दृष्टि उपयोगी सुसंगत उत्पाद का विशुद्ध रूप पाने में विश्वास रखती है। इस व्यवस्था के साथ इसे परिशुद्ध शून्य त्रुटि करने के लिए हेय अर्थात त्यागनीय कार्य़ों, पदार्थ़ों, कर्मचारियों, व्यवस्थाओं की सूची, हेय-हेतु इनके त्यागनीय होने कारण तथा हान लक्ष्य प्राप्ति में सहायक कार्य़ों, पदार्थ़ों आदि की सूची, हानोपाय इन हानों का सुसंगत उत्तम प्रयोग करने के उपायों की सूची एवं उनके अनुरूप कार्य सोने में सुहागा होंगे।
`हान’ हमारी शक्तियां हैं, `हानोपाय’ हमारी संभावनाएं हैं, `हेय’ हमारी कमजोरीयां हैं और `हेयहेतु’ हमारे खतरे हैं। यह `शकसंख’ (शक्ति, कमजोरी, सम्भावना, खतरे) प्रबन्धन है। जिसे आज के युग में ;SWज्द्ध स्वोट- स्ट्रेंथ, वीकनेस, अपोर्चुनिटी और थ्रेट प्रबन्धन कहते हैं।
उत्तर मीमांसा, पूर्व मीमांसा का उद्देश्य सांसारिक मख प्रबन्धन नहीं है, पर ये मख प्रबन्धन मोक्ष मार्ग पर चलते चलते प्राप्त होते हैं। जापानी शून्य त्रुटि के गुरु गोनिची तागुची और शिंगेयो शिन्गो शून्य त्रुटि के निम्न लिखित तत्व देते हैं- 1) पोके वोके या त्रुटि बराबर शून्य, 2) त्रुटि निराकरण अविलम्ब तत्काल- 1. व्यवस्था अभिकल्पन, 2. परिसीमा आकलन (पैरामीटर डीझाइन) 3. विचलन सीमा अभिकल्पन।
भारतीय संस्कृति का न्याय दर्शन जिसका उद्देश्य निःश्रेयस अन्त्य लक्ष्य प्राप्त करना है, एक व्यवस्था का अभिकल्पन करता है, जिसमें सोलह तत्व हैं। वे इस प्रकार हैं- 1) प्रमाण, 2) प्रमेय (प्रमाण के विषय), 3) संशय, 4) प्रयोजन, 5) दृष्टान्त, 6) सिद्धान्त, 7) अवयव, 8) तर्क, 9) निर्णय, 10) वाद, 11) जल्प, 12) वितण्डा, 13) हेत्वाभास (सत्य से विचलन), 14) छल, 15) जाति, 16) निग्रहस्थान। इन तत्वों के नामों से ही मख प्रबन्धन के अति उच्चस्तरीय स्वरूप का भान होता है। आधुनिक विश्व का विकासाधार वैज्ञानिक विधि या साइऔटिफिक मेथड है। न्यायदर्शन वैज्ञानिक विधि का परमतम पितामह है। अति संक्षेप में हम इसका स्वरूप एवं वर्तमान युग में इसकी उपादेयता देखें-
न्यायदर्शन प्रमाण से अर्थात कसौटी से शुरू होता है। जांच के साधन का नाम प्रमाण है। सत्य-असत्य की पहचान प्रमाण से होती है। प्रमेय उन विषयों का विवरण है जिन पर प्रमाण कसौटी का प्रयोग किया जा सकता है। यह कसौटी की उपादेयता का क्षेत्र है। भिन्न और परस्पर विरोधी धारणाओं में चुनाव न कर पाना संशय है। संशय निवृत्ति निश्चय में है। जिस अर्थ को प्राप्त करने या छोड़ने का निश्चय करके उसे पाने या त्यागने की यत्न प्रक्रिया प्रयोजन है। वर्तमान युग का शून्य त्रुटि या मख विज्ञान प्रयोजन के इर्द गिर्द घूमता है। न्याय दर्शन के प्रमाण कसौटी, इस कसौटी कसे प्रमेय, विरोधी-अविरोधी धारणाओं का पच्चीस पचहत्तर सिद्धान्त द्वारा संकलन अर्थात संशय तथा निश्चय द्वारा अपनाई और त्यागी धारणाओं के आयोजन के बाद के प्रयास अर्थात प्रयोजन ये चार तत्व ही जापानी शून्य त्रुटि विधा के साथ-साथ वर्तमान प्रबन्भान गुरु आर्मण्ड व्ही. फैजनवौम के 1) गुणवत्ता मानक तय करें, 2) मानकों की कार्य अनुरूपता, 3) मानक हास पर कार्य, 4) उन्नयन योजना तत्वों को भी अपने में समेटे हैं।
न्याय गुरु गौतम के सिद्धान्त की भारत को आवश्यकता है। न्याय दर्शन का पांचवा तत्व दृष्टान्त है। जिस वस्तु के अर्थ को साधारण मनुष्य और विशेषज्ञ एक समान समझते हैं वह दृष्टान्त है। सांस्कृतिक तकनीक सामाजिक का मूल उद्देश्य दृष्टान्त में समाहित है। पाश्चात्य प्रशिक्षित प्रबन्धकों और संस्कृति जुड़ी भारतीय जनता के मध्य समन्वय और इसके द्वारा भारत की अप्रतिम उन्नति सांतसा की आकांक्षा है। शाó के अर्थ के निष्कर्ष को सिद्धान्त कहते हैं। प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय निगमन ये पांच चरण अवयव हैं, इन्हें वाद कहते है। यह आभाqनिक युग में कार्ल पियर्सन, यंग लुण्डबर्ग आदि विचारकों द्वारा वैज्ञानिक विधि कही जाती है।
तर्क वह विचार है जो हमें ज्ञात से हेतु की नींव पर अज्ञात को दिखा देता है। वैज्ञानिक विधि मे `हेतू’ तथ्य संकलन एवं सारिणीकरण है जो अवलोकन से युजित है। इसके उपयोग द्वारा निहित सत्य (अज्ञात) को ज्ञात करा देने की विधि तर्क है।
पक्ष और प्रतिपक्ष पर विचार करके अर्थ का निश्चय करना निर्णय है। पक्ष और प्रतिपक्ष का अंगीकार करना वाद है। जिज्ञासा भाव, समर्थक प्रमाण, साध्य सिद्धान्त, अविरुद्धता, निश्चित सीमा, वैज्ञानिक विधि (अवयव) वाद के आधार होने चाहिएं।
दूसरे का आक्रमणवत खण्डन तथा अपना बचाव जल्प एवं वितण्डा है। इसमें भी स्वपक्ष की स्थापना न करते दूसरे का खण्डन ही खण्डन वितण्डा है। हेत्वाभास बिना `हेतू’ के चर्चा करना या मूल विषय से हटकर चर्चा में बहक जाना है। अर्थ बदलने से वचन पर विचार करना `छल’ है। जाति का अर्थ श्रेणी है, इसमें उपश्रेणी होती है। जाति पशु, उपजाति गाय, घोड़ा आदि। निग्रहस्थान मूल विषय से असन्दर्भित या पराजय है। वास्तव में उपरोक्त सोलह को जाने, व्यवहार में अपनाए बिना शून्य त्रुटि की संकल्पना पूर्ण नहीं हो सकती है।
शून्य त्रुटि का या मख व्यवस्था का या अछिद्र व्यवस्था का आधार बारह तत्व हैं- 1) आत्मा, 2) शरीर, 3) इन्द्रिय, 4) अर्थ, 5) बुद्धि, 6) मन, 7) प्रवृत्ति, 8) दोष, 9) प्रेत्यभाव (नवीनीकरण शरीर का), 10) फल, 11) दुःख और 12) अपवर्ग। इनमें से प्रथम 6 तत्व आभाार मनुष्य के घटक हैं। अन्य 6 उसकी क्रिया या कर्म के घटक हैं। वर्तमान विश्व की शून्य त्रुटि विधा कर्म सम्बन्धी घटकों पर वह भी मात्र कुछ अंश आधारित है। यही कारण है कि शून्य त्रुटि अपनाने पर भी उन्नत राष्ट्रों के मानव भारतवर्ष के मानव की तुलना में सन्तुष्ट या सुखी नहीं हैं।
आत्मा का स्वरूप पंचेक भाव से स्पष्ट है। प्रत्यक्षीकरण पांच इन्द्रियों से होता है। इनका एकीकरण कर एक वस्तु भाव मन बुद्धि के माध्यम से आत्मा करती है। कटे निम्बू को देख मुंह में पानी आ जाना अर्थात् दर्शन से रसन उद्रेक आत्मा द्वारा एकीकरण है। यह न्याय दर्शन का मूल सिद्धान्त है। रूसी मनोवैज्ञानिक पावलोव ने इस सिद्धान्त महान शोध कार्य करके इसे पुर्नस्थापित किया है। इस महान तथ्य का जिसे इन्द्रिय पंचायन भी कहा जा सकता है, शून्य त्रुटि से महान सम्बन्ध है। पावलोव के प्रयोग दर्शाते हैं कि पहले भोजन ग्रहण करते समय कुत्ते की लार, फिर भोजन देखते, या भोजन की घंटी बजते समय बिना खाने बनने लगी। इन सम्बन्भााsं को पावलोव कन्डीशण्ड रिफ्लैक्स या निर्मित सहज क्रिया कहता है। सरल भाषा में इसे आदत या प्रवृत्ति के संदर्भ में लिया जा सकता है।
एक अति कर्तव्यनिष्ठ सुरक्षा अधिकारी था। उसे देखते ही सारे श्रमिक सुरक्षा व्यवस्था को याद कर उसका उपयोग करने लगते थे। एक बार वह बाजार में सब्जी खरीद रहा था। एक श्रमिक साइकिल पर हेलमेट टांगे सब्जी खरीद रहा था। उसने सुरक्षा अधिकारी को देखा आदतन उसने हेलमेट को सिरपर लगा लिया।
इन्द्रिय पंचायतन यह हे कि पांच इन्द्रियों से अनुभूत वस्तु एक ही अर्थ का सम्प्रेषण करती है ऐसा प्रतीत होता है। इस पंचायतन में भी अर्ध चतुर्थांश का पंचीकरण नियम काम करता है। हर इन्द्रिय पचास प्रतिशत भाग तो स्वयं का ही शतप्रतिशत कार्य करती है और साढे बारह प्रतिशत अन्य इन्द्रियों का कार्य भाव भी उसमें समाविष्ट रहता है। श्रम विभाजन के कार्य समूह द्वारा विविध कार्य एक साथ करने के इस युग में पंचीकरण सिद्धान्त अत्यधिक महत्व रखता है। यह विविध अभियांत्रिकी शाखाओं, विविध श्रम सेवाओं में हाथ की ऊंगलियों के समान या पांच इन्द्रियों के समान समरसता प्राप्त करने में सहायक है। इससे त्रुटि निराकरण या कमीकरण में भी मदद मिलती है।
शरीर आत्मा का करण (साधन) है, आत्मा ही मूलतः हर कार्य का कर्ता है। शरीर साधन के करण मशीनें तथा औजार उपकरण हैं। चैतन्य आत्मा के बिना सारे करण एवं करणव्यवस्था निरर्थ है। बड़ी से बड़ी और सूक्ष्म से सूक्ष्म मशीन का निर्माण जीवात्मा ने बुद्धि, मन, इन्द्रियमय तन के द्वारा किया है। आत्मा तन द्वारा कार्य करती है। “जो बोया सो काटना है” कर्म का शाश्वत सिद्धान्त है। शून्य त्रुटि या मख व्यवस्था बोने वाले शून्य त्रुटि या मख उत्पाद पाते हैं। यह शून्य त्रुटि का महान सिद्धान्त है। मख व्यवस्था मात्र आवश्यक नियमों पर आधारित होना न्याय को अभीष्ट है। जहां एक नियम से काम चल सकता हो वहां अधिक नियमों से काम लेना अनुचित की श्रेणी में आ जाता है।
तन का अर्थ है त + न याने तब नहीं तब नहीं अर्थात् `अब’। मानव में तीन मूल प्रवृत्तियां होती हैं। हर्ष शोक और भय। मोटे तौर पर हर्ष को वर्तमान, शोक को अतीत तथा भय को भविष्य से जोड़ सकते हैं। भय और शोक दुःख (खराब कारणों) के कारण होते हैं। दुः खराब खम् याने इन्द्रियां भी दुःख शब्द की एक व्युत्पत्ति है। तन अब है। ब्रह्म अब अब अब है। तन “तब नहीं, अब, तब नहीं” स्वरूप वाला है। तन का अब आत्म के अब के माभयम के ब्रह्म के अब से जुड़े यह वैदिक साहित्य को अभीष्ट है। यह दर्शन है। इसका शून्य त्रुटि से सम्बन्ध यह है कि “अब समय प्रबन्धन” करना। मख प्रबन्धन क्षेत्र में यह है कि त्रुटि का तत्काल निराकरण उसे शोक या भय का कारण नहीं बनने देगा और यह हर्ष कारक होगा। त्रुटि निराकरण तत्काल इसलिए करना आवश्यक है कि अगर निराकरण तत्काल नहीं किया गया तो यह भूत होकर हमेशा दुःख देती रहेगी या शोक का कारण रहेगी और उसके साथ ही यह भय का भी कारण होगी कि हमें खराब उत्पादकता की परेशानी झेलनी पड़ेगी।
`अब’ प्रबन्धन या तब नहीं या तन प्रबन्धन अस्थायी शरीर से चैतन्य आत्मा में आता है। शरीर जड़ और आत्मा चैतन्य के गुणों में अन्तर करनेवाले तत्वों का लिंग कहते हैं। लिंग जड चैतन्य अन्तर प्रदर्शित करते चिन्ह हैं। पाश्चात्य दर्शन ज्ञान और कर्म को चैतन्यता का चिन्ह मानता था। इमैन्युअल कांट ने इसमें `अनुभूति’ चिन्ह जोडा। कालांतर में वैज्ञानिकों ने इसमें चेष्टा को भी जोड़ा। इस प्रकार ज्ञान, कर्म, अनुभूति और चेष्टा सम्पूर्ण पाश्चात्य दर्शन के अनुसार चैतन्यता के चिन्ह हैं। न्याय दर्शन में आत्मा के छे लिंग इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान हैं। इच्छा और ज्ञान का सम्बन्ध प्रयत्न से है, सुख दुःख अनुभूतियां हैं, द्वेष क्षोभकारक है। शून्य त्रुटि व्यवहार या आत्मवत व्यवहार के लिए किसी भी व्यक्ति को इन छै तत्वों के सन्दर्भ में समझना जरूरी है।
स्मरण शून्य त्रुटि का एक महत्वपूर्ण भाग है। मानकों से अनुरूपता शून्य त्रुटि का आभाार है। विभिन्न मानव विभिन्न समय परिस्थिति में कारगर होते हैं। स्मरण में मानकों और उनके अन्तर्सम्बन्धों का रहना गुणवत्ता में महत्वपूर्ण योगदान देता है। न्याय दर्शन सूत्र 3/02/44 में स्मृति के कारणों की निम्न लिखित सूची देता है- 1) प्रणिधान, 2) निबन्ध, 3) अभ्यास, 4) लिंग, 5) लक्षण, 6) सादृश्य, 7) परिग्रह, 8) आश्रय-आश्रित, 9) सम्बन्ध, 10) आनन्तर्य, 11) वियोग, 12) एक कार्य, 13) विरोध, 14) अतिशय, 15) व्यवधान, 16) सुख, 17) दुःख, 18) भय, 19) अर्थित्व, 20) क्रिया, 21) राग, 22) धर्म, 23) अधर्म।
प्राणिधान वर्तमान अवस्था में किसी विशेष पक्ष पर एकाग्रता है। यह गुणवत्ता की एक आवश्यकता है। घनिष्ट अन्तर्सम्बन्ध का नाम निबन्ध है। निबन्ध वास्तव में इस नियम को जन्म देता है कि हर कार्यकारी विभाग दूसरे विभागों के लिए उपभोक्ता तथा उत्पादक की भूमिका निर्माता है। अभ्यास बार बार करके कौशल विकसित करना है। मनोविज्ञान की भाषा में मास्तिष्क कोशिकाओं के मध्य अन्तराल में लयक या बाटन संख्या में वृद्धि करना है, जिससे कार्य सहजता पूर्वक सटीक हो सके।
सादृश्य का नियम गुणवत्ता के लिए मानक अनुरूपता तथा स्तर अनुरूपता के सन्दर्भ में अति उपयोगी है। आश्रय-आश्रित महान गुणवत्ता नियम है। जहां भी मशीनों के दो भाग परस्पर निर्भर करते हैं या सम्बन्धित हैं वहां सहकार्य के मानक का पालन आश्रय-आश्रित मानकों के अनुरूप होता है। पंप मोटर कपलिंग पिस्टन क्रैक पहिया सम्बन्ध, सिलाई मशीन हेंडल सुई ऊर्ध्वगति कपड़ा आगे बढ़ना आदि-आदि असंख्य उदाहरण आश्रय-आश्रित के हैं। अनन्तर्य क्रमबद्धता का नियम है, जिसे गुहव्यवस्था, उत्पादन क्रम मे ध्यान रखना आवश्यक है। कार्य करने का कामुआत या पर्ट नियम आनन्तर्य का ही उदाहरण है। “कार्य समुच्चय” सम्पूर्ण की अवधारणा है। विरोध तथा व्यवधान बाधाओं, रुकावटों को दूर करने के सम्बन्ध में उपयोगित किया जा सकता है। अतिशय (रिकार्ड) का उपयोग प्रोत्साहन के साथ-साथ उच्च कोटि के स्तरीकरण (बेंच मार्किंग) के क्षेत्र हो सकता है। सुख-दुःख भौतिक परिस्थितियों को कार्यानुकूल करने के रूप में, भय भविष्य आयोजन, अर्थित्व प्रशिक्षा, क्रिया- कार्य तकनीक, राग- लगन रूप में तथा धर्म-अधर्म आधार व्यवस्था या कर्म मानकों के रूप में शून्य त्रुटि या `मख’ व्यवस्था में प्रयुत किए जा सकते हैं। इस प्रकार न्याय दर्शन के स्मरण सूत्रों का तानिक चिन्तन परिवर्तन करके `मख’ व्यवस्था हेतु व्यापक प्रयोग कर सांतसा अतिश्रेष्ठ शून्य त्रुटि व्यवस्था विकसित कर लागू करना भारत को विश्वोन्नत कर सकता है।
मख प्रबन्धन का वैदिक स्वरूप जो वेदों में है अत्यधिक प्रांजल तथा सम्पूर्ण है। ऋग्वेद 09/101/13 में मख प्रबन्धन कौन कर सकता है और कौन नहीं कर सकता है इसका विवरण है तथा साथ में इसका उद्देश्य बताया गया है। मन्त्र शब्दार्थ इस प्रकार है- “1) अंभास वाच का वृत-आवृत मरणधर्मा नहीं कर सकता। 2) वह वाच सुन्वान के लिए प्रेरणादायक होती है। 3) भृग जन मख अहननीय रखते श्वान अराधस को अति दूर सदा दूर करें।”
परा-पार वाक का अवतरण तन अस्थायी जुड़े मानव के जीवन में नहीं होता है तथा वह उससे प्राप्त परावाक का वृत आवृत जीवन में नहीं कर सकता। क्योंकी वह भोग उपभोग की तलाश में श्वान के समान दर दर की ठोकरें खाता मख का हनन करता रहता है। सुन्वान- सकारात्मक उत्तम भावों का अधिपती नव्य नव्य मानव के लिए शाश्वत ऋत शृत सनी वाक प्रेरणादायी (धर्म) होती है। ज्योतिपथिक तो असत्य को पीछे छोड़ आए हैं। सम्पूर्ण मख व्यवस्था को लागू करके उसे एषणाग्रस्त भोगियों से बचाकर रखता है।
भय-लालचयुक्त लोग, भोग सुविधा आधारित व्यवस्थाएं `मख’ की उत्पत्ति नहीं कर सकतीं। सुविधा भोगी सांसदों सनी प्रजातन्त्र व्यवस्थाएं `मख’ से कितनी दूर हैं, यह सभी को ज्ञात है। `मख’ अदीन व्यवस्था का नाम है। दीन-हीन कूकर के समान दुम हिलाते व्यक्तियों का समूह तो जगह-जगह घूस, भ्रष्टाचार, के छिद्रों का शिकार होता रहेगा। वेद में अदिति को अदीन कहा है। अछिद्र अदिति- आदित्य गढ़ती है। मार्तण्ड आदित्य जो अछिद्र व्यवस्था का व्यवहार धरातल से भी सामंजस्य रखता है।
वेद भावना है हम शताधिक वर्ष अदीन रहते भरपूर जिएं। भरपूर जिएं या मख जिएं। मार्तण्ड सहित आदित्यों की स्थितियां हमें मख व्यवस्था अनुरूप चलने की प्रेरणा देती हैं। मरणभार्मा मनुष्य मर्त्य है। मार्तण्ड मर्त्य का जीवनक्रम प्रारम्भ करता आदित्य है। भृग का अर्थ दीप्त, प्रदीप्त, तेजस्वी, ओजस्वी तथा वर्चस्वी है। आत्म के परावाक प्रदीप्त होने पर वह इध्म होकर परब्रह्म से संयुक्त होकर भृगु बन जाती है। भृगु आत्म चर्तुवेदी होने के कारण धर्म, सम्पत्ति, प्रजा से समृद्ध होती उन्नती करती है। भृगु स्वयं `मख’ होता है। मख का धातुज अर्थ है गति-प्रगति। मख अछिद्रीकरण या शून्य त्रुटि करण या दुरित रहित करण अपना लिया है जिसने उस व्यवस्था कार्य द्वारा व्यक्ति, परिवार, समाज, कार्यसमूह, राष्ट्र समृद्धि पाता है।
म- नहीं, ख- छिद्र, छिद्र नहीं जिसमें वह मख है। जड़ उत्पाद में छिद्र अपने आप पैदा नहीं हो सकता है। छिद्र कारक है मनुष्य, छिद्र सुधारक भी है मनुष्य, छिद्र अनुमानक है मनुष्य, छिद्र निवारक है मनुष्य। छिद्र निवारण के लिए मनुष्य का `अछिद्र’ होना या मख होना आवश्यक हैं। मानव पांच बाह्यकरण, पांच अंतःकरण, मन, बुद्धि, हृदय क्रमशः का धारण उपयोग कर्ता जीवात्मा है। यदि जीवात्मा के `करणों’ साधनों में कोई छिद्र हो जाए तो मानव छिद्रित हो जाएगा और उसके जीवन से लेकर कार्य़ों तक में छिद्र होगा एवं गुणवत्ता का हास होगा।
यजुर्वेद 36/2 हमें मानव के छिद्र पूरण या मखकरण का तरीका बताता है। मेरी इन्द्रियों या करणों का नासिका, रसना, नेत्र, त्वक, कर्ण, प्राण, वाक, मन, बुद्धि, धी और हृदय में जो अतितृण्ण छिद्र है वह भुवन के बृहस्पति की व्यवस्था के समझ से धारण कर हम पूर दें तो हमारे लिए शम अर्थात सुख एवं शान्ति या भौतिक एवं आन्तसिक परितृप्ति प्राप्त होगी। हमारे आन्तरिक एवं भौतिक करणों में छिद्रों का मूल कारण तृण्ण अतितृण्ण होना है।
तृण्ण का अर्थ है जिसकी तृष्णा हो या लालसा हो। एषणा की तृष्णा होती है। धन सम्पत्ति जिसे वित्त कहते हैं रिश्ते-नाते-समर्थक जिसे पुत्र कहते हैं और पद-सम्मान जिसे यश कहते हैं। इनकी एषणाएं ही तृण्ण है। वित्तैषणा, पुत्रैषणा और यशैषणा के प्रति अति लालसा ही अतितृण्ण है। विश्व की सारी व्यवस्था में त्रुटियों का मूल कारण मानव का एषणा ग्रस्त होना ही है। एषणा छिद्र ही सारी त्रुटियों का मूल कारण है। बृहत् कहते हैं वेद को ओर इस बृहत् का जो पति है या अधिकृत विद्वान है वह बृहस्पति है। `विद्वेद’ या वेद का जीवन में विद् प्रयोग कर्ता मानव विद्-वान है। और इस प्रयोग द्वारा वेद के पार उसके गहन अर्थ़ों में डूब जाता मानव हैं वेद-वान। इन दोनों से अपूर्त व्यक्ति है बृहस्पति, जो पूर्णतः शून्य त्रुटि कार्य करता है।
इसका स्वरूप कुछ इस प्रकार है- यह चतुर्वेदी होता है। “मैं ऋचा वाकमय, यजुः मनमय, साम प्राणमय और अथर्व इन्द्रियमय अर्थात चतुर्वेदी अस्तित्व मैं हूँ। मुझसे वेद का ओज, सहभाव का ओज, प्राण-अपान सिद्धि त्रिबन्ध के माध्यम से इडा पिंगला सुषुम्णा का कंप नंद आनंद एक साथ युजित है”। यह यजुर्वेद 36/1 का भाव है। यह एक `मख’ पुरुष का स्वरूप है, जो शून्य त्रुटि है और अपना हर कार्य शून्य त्रुटि ही करता है।
आधुनिक शून्य त्रुटि विधाएं उत्पाद तथा उत्पाद प्रक्रिया आधारित हैं। ये औसतः जड़ संसाधन परक हैं। इसमें चल संसाधन मानव का आधार प्रसंगवश कहीं कहीं लिया गया है। वैदिक संस्कृति परक मख या शून्य त्रुटि विधाएं मानव परक हैं। प्रसंगवश उनमें जड संसाधनों का उल्लेख किया गया है। सांतसा प्रबन्धन दोनों का समन्वय है। यजुर्वेद 6/17 का मंत्र कहता है- जो अवद्य, मल, अभिद्रोह, ऋतहीनता है तथा निरपराध पर आक्षेप है, या जो त्रुटियों को मूल कारण पाप है इस पाप से आपः प्रवहणशील सत्यप्रेरणाएं तथा पवमान मुक्त करता है।
जिस प्रकार प्रवहणशीलता के कारण जल, वायु, गुरुत्व आदि भौतिकतः मलों का निराकरण करते हैं, उसी प्रकार सत्प्रेरणाएं या सकारात्मकता मानव के अवद्य, मल, अभिद्रोह, ऋतहीनता, निरपराध पर आक्षेप के पाप को बहा ले जाए। वद्य वह है जो वद् के या कहने के उपयुक्त है। शाó, देश, काल, परिस्थिति, वैज्ञानिक विधि, पंच परीक्षा के अनुरूप कहना ही उपयुक्त वद है। उपरोक्त कसौटियों पर कसा कहना ही वद्य है, अन्यथा अवद्य है। वद्य नियम सम्प्रेषण नियम है तथा अर्थ का अनर्थ होनेवाली त्रुटियों से बचाव करते हैं।
वद्य होने की कई कसौटियां हैं- सत्य, मधुर, प्रिय, सहज, ऋत, शृत, मित, तर्कपूर्वक, प्रमाणपूर्वक, उपयुक्त, शुद्ध, यथार्थ, विचारपूर्वक, शालीन, शान्त, प्रासंगिक, शुभ, समाधानकारक, अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति निर्दोष अभिव्यक्ति है। जो वस्तु जैसी है उसको वैसा ही कहना वद्य है। विद्या वद्य की कसौटी है। इन समस्त वद्य वचनों से की सत्प्रेरणाओं से अवद्य वचनों का निराकरण करना शून्य त्रुटि वद्य की ओर बढ़ना है।
अवद्य वचन इस प्रकार हैं- असत्य, कटु, अप्रिय, आवेगयम, असहज, अनृत, अशृत, अनावश्यक, अहितकर, बिनातर्क, अप्रामाणिक, अनुपयुक्त, अशुद्ध, द्विअर्थी, अनर्थ, अशालीन, अश्लील, अभद्र, अशुभ, अयथार्थ, काल्पनिक, अप्रासंगिक आदि।
मल मानसिक या भौतिक हो सकते हैं। मान्यता के विरुद्ध भाव मन में भर लेना मानसिक मल है। मान्य वह होता है जो मानकों के अनुरूप हो। आज मानसिक मलों की भरमार विश्व में है। सारा का सारा वास्तुशाó जो बिना वैज्ञानिक आधार के माना जा रहा है, मानसिक मल है। आर्किटेक्ट जो वैज्ञानिक अभिकल्पन के बिना है मल ही है।
एक अतिप्रसिद्ध उपाधिधारी आर्किटेक्ट अपने आर्किटेक्ट मित्रों के मध्य स्लैज और कैंटीलीवर पर सौंदर्य आकार बनाने की योजना बना रहे थे। उससे स्लैब की स्पानिंग तथा लोहा योजना बदल जाती थी। मैंने उससे कहा- आप के ऐसा करने से स्लैब तथा कैंटीलीवर की स्पानिंग बदल जाएगी। वह बोला अरे हम तो स्लैब को जैसा चाहे वैसा स्पान करा लेते हैं। यही तो हमारी विशेषता है। सारे आर्किटेक्टों ने हामी भरी। उन्हें स्लैब स्पानिंग के लम्बाई-चौड़ाई अनुपात और बेण्डिंग मूमेंट नियम मालूम नहीं थे। इन मल-मस्तिष्क आर्किटेक्टों ने मेरे देखते-देखते कई भवनों में लम्बान दिशा में मुख्य लोहा डलवाकर देश का अहित किया है। कैंटीलीवर में नीचे लोहा देने का अहित भी कई आर्किटेक्टों ने किया है। जाने कितने छज्जे इसी कारण गिर चुके हैं। ऐसे अनाधिकृत ठेकेदार, मिस्त्री, प्लंबर सारे राष्ट्र में त्रुटिपूर्ण निर्माण कार्य सतत कर रहे हैं।
वैदिक साहित्य “शून्य त्रुटि” व्यवस्था के साथ ही साथ “सम्पूर्ण सटीक” व्यवस्था पर बल देता है, जिससे त्रुटि का प्रवेश ही न हो। ज्ञान भरे अमल मानव ही सम्पूर्ण सटीक व्यवस्था कर सकते हैं। भौतिक मल के सन्दर्भ में देखें तो अवशेष तथा अपशेष भौतिक मल हैं। धूल भी मल है जो व्यवस्था को मलीन करता है। हर प्रदूषण मल सहित होता है। इन मलों की स्वतः शुद्धिकरण तथा तत्काल निराकरण व्यवस्था की मांग है। भारतीय संस्कृति में इस निराकरण तथा शुद्धिकरण के लिए कमल अर्थात् ढूंढ-ढूंढ कर मल निराकरण, विमल अर्थात् विशिष्टतानुरूप मल विभाजन करके उसका निराकरण, अमल अर्थात् व्यवस्था में मल उत्पन्न न हो ऐसा प्रावधान करके, निर्मल अर्थात् मल रहित व्यवस्था या उत्पाद का निर्माण तथा इनके समानान्तर कमला, विमला, अमला, निर्मला आदि व्यवस्थाएं उपलब्ध हैं।
अभिद्रोह का अर्थ ईर्ष्या-द्वेष के कारण मानसिक क्षोभ के कारण गलत प्रक्रिया अपनाना। अभि याने चारों ओर, द्रोह का अर्थ है अनर्थ। चारों ओर अनर्थ कार्य करना अभिद्रोह है। दूसरों की उन्नति से जलने के कारण व्यक्ति जो व्यवस्था को नुकसान पहुंचाने की भावना से अनर्थ कार्य करता है वह `अभिद्रोह’ है। इसका प्रारम्भ ईर्ष्या से होता है। इर्ष्या से द्वेष पैदा होता है। दूसरों की और अपनी असंगत तुलना द्वेष का एक रूप है। द्वेष से दुर्भावना पैदा होती है। यह भावना दूसरों को नीचा दिखाने की होती है। दुर्भावना से विरोध प्रवृत्ति पैदा होती है और विरोध से अभिद्रोह अनर्थकारक कार्य व्यक्ति करता है। अभिद्रोह के कारण व्यवस्था में असामंजस्य और असहयोग के कारण “सम्पूर्ण निर्दोष” व्यवस्था का घात होता है। अकारण असन्दर्भित विरोध अभिद्रोह है। दूसरा अपनी जगह अपनी उन्नति कर रहा है, शून्य उत्पाद कर रहा है और एक व्यक्ति ईर्ष्यावश अकारण उसकी निन्दा कर उसे कभी प्रत्यक्ष कभी अप्रत्यक्ष नुकसान पहुंचाने का प्रयास कर रहा है और स्वयं कुढ़ रहा है, यह अभिद्रोह है। अभिद्रोही व्यक्ति निरर्थ विक्षोभ-भरा होने के कारण द्रोह, उपद्रव, व्यंग, कटाक्ष, झगड़ा, झंझट, राजनीति, निन्दा, अपशब्द, दुर्व्यवहार, जल्प, वितण्डा बकवास करने का आदी होने के कारण व्यवस्था का अवमूल्यन करता रहता है।
प्रकृति के नियमों के अनुरूप चलना ऋत है, इसके विपरीत चलना अनृत है। हर प्राणी में प्रकृति से सामंजस्य स्थापित करने के लिए एक जैव-घड़ी प्रत्यारोपित है। इस घड़ी के प्रभाव से ही मानव नियमित होना सीखता है। श्वास-प्रश्वास का इड़ा-पिंगला से, सुषुम्णा से सम्बन्भा इस जैव घड़ी द्वारा नियन्त्रित समयबद्ध होता है। ऋतुओं में पर्व व्यवस्था पर किए जानेवाले संस्कार जो परिशुद्धि कारक, दोष-निवारक, क्षतिपूरक, अतिरिक्त आधानकारक होते हैं, जैव घड़ी आधारित हैं। इनको रूढ़ रूप में न मानकर वैज्ञानिक रूप में मानना तथा समय आयोजन क्षेत्र में प्रयोग करना ऋत प्रबन्धन है। कार्य प्रबन्धन में ऋतुओं तथा मौसमों का ध्यान एक श्रेष्ठ प्रबन्भाक सदा ही रखता है। यह अति आश्चर्य की बात है कि सारे राजनैतिक, साहित्यिक, सामाजिक सम्मेलन, सेमीनार यहां तक कि समय प्रबन्धन पर सेमीनार विलम्ब से प्रारम्भ होते हैं, पर अन्धविश्वासी पूजादि निर्धारित मुहूर्त समय पर प्रारम्भ होते हैं। मुहुर्त में यह तथ्य स्वीकार किया गया है कि ऋत व्यवस्था बेखोट है तथा वह मुहूर्त दुबारा नहीं आएगा, इसलिए उसका पालन सभी करते हैं। ऋत प्रबन्धन वाक्य है- “हम सूर्य और चन्द्र के समान नियमबद्ध स्वस्तिपथ चलें।” इसके साथ ही साथ चिन्तक, रचनात्मक, समझदार विद्वानों को साथ करने का भी निर्देश ऋग्वेद 5/51/15 में दिया गया है।
परियोजना प्रबन्धन या दशरूपकम् या कामूआत या पर्ट प्रबन्धन में मील के पत्थर तय होते हैं। अगर इन मील के पत्थरों का आयोजन भारतीय संस्कृति पर्व़ों मकर संक्रान्ती, वसन्त पंचमी, होली, दशहरा, दीवाली, नववर्ष संवत, ईद विभिन्न जयन्तियों, ओणम, लोहडी, क्रिसमस आदि से जोड़ा जा सके तो कार्मिक अधिक उत्साहपूर्वक ज्यादा बेहतर कार्य करेंगे। उनके भरे पर्व उल्लास का कार्य क्षेत्र उपयोग होगा। मील के पत्थर पर्वाधारित होने से मुहूर्त अन्धविश्वास का समयबद्ध होने में भी लाभ मिलना स्वाभाविक है। यह भी मख प्रबन्धन की एक सांतसा विभिा है। जो व्यक्ति ब्रह्म की ऋत व्यवस्था में फैले सूत्र को जानता है वह व्यक्ति सूत्र के सूत्र को जानता है। वह व्यक्ति ज्ञान को जानता है, अतः अज्ञान को जानता है अर्थात शून्यत्रुटि या मख प्रबन्भान करने में दक्ष होता है। ऋत व्यवस्था अपने आप में यथावत है। वह जैसी है वैसी ही दिखती है और वैसी ही चलती है।
विश्व की सबसे सटीक घटी परमात्मा कृत ऋत व्यवस्था से ही उपजी है। सीजियम के अयन विक्षेप पर आधारित सीजियम घड़ी अरब वर्ष में एक विक्षेप त्रुटि दर्शाती है। ऋत प्रबन्भान महान समय प्रबन्धन की सीख देता है। ऋत समय गुरु है। धरा भ्रमण दैनिक, चन्द्र भ्रमण पाक्षिक-मासिक, सूर्य गिर्द धरा भ्रमण ऋतुपरक एवं वार्षिक समय निर्धारक और समय उपदेशक है। इन उपदेश को प्राचीन ऋषियों ने सुना समझा जीया था तभी तो उनपर आभाारित यज्ञ व्यवस्था समयबद्ध रची गई और इसीलिए `यज्ञ’ का नाम `मख’ या छिद्ररहित या सम्पूर्ण है। यज्ञ को श्रेष्ठतम कार्य भी इसीलिए कहते हैं।
बलि का बकरा ढूंढना और उसके माथे दोष मढ़ना आज एक आम बाते है। निर्दोष को दोष देना अर्थात शून्यत्रुटि को त्रुटि में बदलना है। यह व्यवस्था को त्रुटिकारक या छिद्रित या `अमख’ करता है। न्याय का एक सर्वविदित सिद्धान्त है कि निर्दोष को दण्ड कभी भी नहीं मिलना चाहिए, चाहे इसके लिए दोषी भी भले ही छूट जाए। इसी नियम के अन्तर्गत सन्देह का लाभ प्रावधान है।
वैसे सच्चा नियम यह होना चाहिए कि विधि इतनी वैज्ञानिक तथा पूर्ण होवे कि किसी भी निर्दोष को दण्ड किसी भी स्थिति में न मिले एवं कोई भी दोषी किसी भी स्थिति दण्ड से न छूटे। न्यायदर्शन के अनुसार व्यवस्था द्वारा यह आदर्श प्राप्त किया जा सकता है।
दूसरे निर्दोषों पर दोष लगाना लांछन कहलाता है। दण्ड और सम्मान व्यवस्था का प्रयोग अति जागरूकता तथा अति सावधानी की अपेक्षा रखता है। गलत व्यक्ति को सम्मान और सही व्यक्ति को दण्ड से व्यवस्था अति शीघ्र चरमरा जाती है और त्रुटियों के पतन को प्राप्त करती है। चुस्त और दुरुस्त न्याय पूर्ण व्यवस्था ही शून्य त्रुटि या मख व्यवस्था कराती है।
व्यवस्था के लचर-पचर होने में “किसी तरह” मान्यता एक महान भूमिका निभाती है। हर व्यवस्था को “किसी तरह” से बचना चाहिए। किसी तरह इन्जीनियरिंग घातक परिणाम देती है। समयबद्ध प्रमोशन पद्धति में एक बार एक “किसी तरह” इन्जीनियर सर्वोच्च पद पर पहुंच गया। “किसी तरह” उस इन्जीनियर के लिए ब्रह्मवाक्य था। उसका दृष्टीकोण किसी तरह काम पूरा करना था। जो किसी तरह इन्जीनियर होता है वह लीपा-पोती में भी दक्ष होता है। यह विभाग प्रमुख भी इसका अपवाद न था। उसने सारे क्षेत्र अभियन्ताओं की मीटिंग बुलाई और कहा हमें प्रगति करनी है, काम पूरा होना चाहिए यह प्रमुख बात है। आप सब “येन केन प्रकारेण” किसी भी तरह कार्य पूरा कीजिए। सभी उसका आशय समझ गए। प्रगति दबाव में एक छोटे से हेल्थ सेंटर के काम में एक छज्जा गिर गया। “किसी तरह” प्रमुख ने कहा कोई बात नहीं प्रगति की कीमत तो चुकानी ही पडती है। और छज्जा गिरने के तथ्य पर लीपापोती कर दी। एक माह बाद एक बडे अस्पताल के निर्माण कार्य में एक बड़ा लम्बा छज्जा गिर गया। विभाग प्रमुख ने स्वचयनित कमेटी बनाई, उसे निर्देश दिए किसी व्यक्ति पर दोष नहीं आना चाहिए। प्रमुख की मंशा के अनुसार कमेटी ने लिपापोती कर दी। इसके बाद वर्कशाप भवन में एक विशालकाय गेबल वाल धराशायी हो गई। किसी तरह या समहाऊ इन्जीनियर ने दोष अति तेज बारिश के माथे मढ़ दिया।
अनृत अशृत का नाम है किसी तरह। अनृत अशृत कभी भी माफ नहीं करता। एक औद्योगिक भवन के सारे कालम टेढ़े बन गए। वे ट्विस्टेड कालम कहलाए। समहाऊ इन्जीनियर के चहेते मुख्य अभियन्ता ने शहर के उपखण्ड में सारे मेन हॉल कम लोहे में बनवा दिए। लोगों के घर पानी से भर गए। निर्धन बस्ती बनी पानी टंकिया कमजोर दीवालों के कारण दो तिहाई ऊंचाई पर ही काम कर सकीं। समहाऊ कमाल तथा धमाल रुका नहीं। एक स्कूल भवन की पूरी की पूरी छत गिर गई। एक बांध क्षेत्र की पूरी लकड़ी गायब हो गई और एक टंकी गिर गई। जांच समितीयां समहाऊ जांच करती रहीं। इन्जीनियर प्रमोशन पाते रहे और एक दिवस गुणवत्ता उत्तम कार्य, शून्य त्रुटि कार्य का हत्यारा समहाऊ इन्जीनियर किसी तरह रिटायर हो गया।
शून्य त्रुटि की मांग है आरम्भ से सावधान..! हरपल सावधान..!! एक गड़रिए ने दस भेडों से कारोबार शुरु किया। मेहनत लगन समझ जागरूकता से उसने उन्नति की और हजारों भेडों का साम्राज्य खड़ा कर लिया। उसके चार बच्चे उसके साथ कार्य करते थे। वह बूढ़ा हो चला था। एक दिवस एक मेमना चोरी हो गया। वृद्ध गड़रिया को पता चला। उसने कहा मेमने को ढूंढो, मेमने को ढूंढो..!! बच्चे ने कहा हजारों भेड़ों में एक मेमना क्या मायने रखता है..? बप्पा तो ऐसी ही चिन्ता करता है। कुछ दिनों बाद पांच भेड़ें चोरी चली गयी। बप्पा ने कहा मेमने को ढूंढो, मेमने को मेमने को ढूंढों..!! लड़के बोले यहां भेड़ें चोरी गई हैं, और बप्पा मेमने की रट लगाए हुए है। दो माह बाद सारे लोग बातें भूल गए। बस बीच बीच में वृद्ध पूछ लेता- मेमने को ढूंढा..? मेमने को ढूंढो..!! और बच्चे हंस देते थे। एक दिन पचास भेडों की चोरी हो गई। बूढे बप्पाने फिर कहां मैने कहा था न मेमने को ढूंढो। बच्चे बोले बप्पा सठियां गया है। यहां भेड़ें चोरी गई हैं और वह मेमने की रट लगा रहा है। अन्ततः भेड़ व्यवसाय घटता गया और चार भाइयों के पास दस-दस, पन्द्रह-दस भेड़ें मात्र रह गइऔ। बप्पा मेमना ढूंढो कहते स्वर्ग सिधार गया। जो लोग मेमने के चोरी पर सावधान नहीं होते हैं वे व्यवसाय बरबादी तक जा पहुंचते हैं।
यदि समहाऊ विभागप्रमुख पहला छज्जा गिरते ही सावधान हो गया होता तो भविष्य में बाकी सब गिरे ढांचे न गिरते। एक “किसी तरह” के मानसिक छिद्र ने पूरी व्यवस्था में छेद कर दिए।
पांच व्यवस्था छिद्रों को सत्प्रेरणाओं तथा पवमान द्वारा जीता जा सकता है। अवद्य को सदा वद्य द्वारा, मल को विमलता द्वारा, अभिद्रोह को संभावना (स्तरीकरण कर उन्नति भावना) द्वारा, अनृत को ऋत पालन द्वारा तथा लांच्छनवृद्धि को सम्मान भाव द्वारा पराजित या दूर किया जा सकता है।
पांच छिद्रों के लिए पांच पवमान सत्प्रेरणाएं हैं। पवमान एक प्रवहणशील मान्यता है या आपः भावना है। आपः एक बहुवचन शब्द है। पवमान आपः महान शून्य त्रुटि विधा है। पवमान सर्वप्रवहणशील परमात्म प्रेरणा का नाम है। यह पेरणा देव व्यवस्था के माध्यम से मुझमें उतरती है। पवमान का उद्देश्य क्या है ? पवमान मुझे मख या पवित्र या शून्यत्रुटि भाव से भरे। अ) क्रत्वे या क्रतु होने के लिए, ब) दक्षता वृद्धि के लिए, स) जीवस्- व्यवस्था में जागरूकता भरने के लिए। (अथर्ववेद 6/19/2)
मख या शून्यत्रुटि कर्म़ों के करने की क्षमता का नाम क्रतु है। इस तरह के कर्म शुभ तथा श्रेष्ठ होते हैं। इन्हें करने के लिए प्रयास करना पड़ता है। तप तथा तितिक्षा पूर्वक ही शून्यत्रुटि कर्म किए जा सकते हैं। लगनपूर्वक भिड़कर सतत लगे रहने से ही मानव का नाम ऋतु होता है। चींटी और मधुमक्खी क्रतु होते हैं। शहद की मक्खी को एक बूंद शहद इकठां करने के लिये हजारों फूलो से रस इकठा करना होता है, सतत उड़ना होता है। चींटी अपने अल्प वजन से अस्सी गुना तक भार खींच सकती है। यह सिद्धि उसे सतत श्रमाभ्यास से मिलती है। चींटी और मधुमक्खी के लिए ये सहज स्वाभाविक कर्म है जिसे वे बिना चिन्तन के करती हैं, क्योंकि दोनों भोग योनिज हैं। मानव कर्म भोग तथा कर्म याने उभययोनिज है। कर्म योनिज होने की अतिरिक्त विशेषता के कारण मानव विचार और मननपूर्वक क्रतु हो सकता है। इसी कारण वह भोग योनिज क्रतुपन से श्रेष्ठ होने में समर्थ है। कर्म, शुभकर्म, सटीक कर्म, श्रेष्ठ कर्मकरने की क्षमता होना क्रतुपन है। दक्षता इन कर्म़ों में वृद्धि देती है। दक्ष- वृद्धौ शीघ्रार्थे च। अनुभव और कौशल के द्वारा आदतन शीघ्र उत्पादन-वृद्धि प्राप्त करना दक्षता है। दक्ष का एक अर्थ बल भी है। दक्षता को शक्ति भी कहा गया है। बिना शक्ति शीघ्र कर्म करना तथा अनुभव और कौशल का सदुपयोग सम्भव नहीं है।
पवमान क्रतु, दक्ष के साथ जीवस् गुण भी देता है। जीवित करने की शक्ति को जीवस् कहते हैं। व्यवस्था में प्राण फूंकना जीवस् द्वारा होता है। एक प्रसिद्ध प्रबन्धन उक्ति जीवस की अर्ध-परिभाषा है- “वह आया.. उसने देखा.. और उसने जीत लिया..!!”। जीवस् सन्दर्भ में यह उक्ति इस प्रकार है- “वह आया.. उसने देखा.. वह भिड़ गया और उसने व्यवस्था में नवजीवन फूंक दिया।” अपनत्व, आस्था, न्याय, विश्वास, शुभ-जीवस् भाव हैं।
कुछ श्रमिक एक ठेकेदार के पास काम करते थे। उनके चेहरे पर कभी हंसी नहीं आती थी। ठेकेदार दिन भर कार्य पर रहता था श्रमिकों से कभी बात नहीं करता था। श्रमिक बुझे बुझे मन से, सुस्त चाल काम करते थे। ठेकेदार के पास कुछ दिवस काम नहीं था। उसने श्रमिक दूसरी जगह भेज दिए। वहां एक जीवस व्यक्ति था। उसने श्रमिकों का काम देखा और उनसे बात की.. पहली बात यह कही- “देखो भई रोटी-रोजी के लिए तो काम करना ही पड़ता है, अब हमारी मर्जी है कि हम हंसते-हंसाते काम करें या रोते-रोते। जब काम करना ही हैं तो हंसते-हंसाते क्यों न करें ?” काम प्रारम्भ हुआ उस व्यक्ति ने “शुभ प्रारम्भ” वाक्य का पालन किया तथा श्रमिकों के साथ होटल में चाय-नाश्ता किया। श्रमिकों के लिए यह नया अनुभव था। दिवस कार्य मध्य वह व्यक्ति श्रमिकों को एक एक चाकलेट देता था। श्रमिकों से बातचीत कर उन्हें हल्का-फुल्का करता था। तीन चार दिन बाद कभी न हंसने वाले श्रमिक हंसते-हंसाते काम करने लगे। प्रथम चरण समाप्त होने पर वह व्यक्ति पत्नी सहित श्रमिकों के साथ होटल की पार्टी में था। एक रेजा (श्रमिक महिला) ने कहा- “कहां आप, कहां हम.. आप अमीर हम गरीब..!” वह हताश हुई। उस व्यक्ति की पत्नी ने कहा दुनियां में सभी गरीब हैं एवं सभी अमीर.. हमसे अमीरों की तुलना में हम गरीब है और तुमसे गरीबों की तुलना में तुम अमीर हो। दो हाथ, दो पैर, दो आंख, एक शरीर हम सब बराबर हैं। श्रमिकों को नई सोच नई दृष्टि मिली, काम में उत्साह आया। उन्हीं श्रमिकों ने पूर्व की तुलना में तैंतीस प्रतिशत अधिक और अच्छा काम किया। व्यवस्था गुणवत्ता जीवस तत्व से बढ़ती है और प्रबन्धन मख होता है।
अरिष्ट का अर्थ है आत्मवत व्यवहार-नियम या अहिंस्य व्यवहार का पालन। यह उच्च कोटि का स्व न्याय है। अरिष्ट-अहिंस्य व्यवहार का सतत हर कर्म पालन करने वाला व्यक्ति अरिष्टतातये अर्थात सततारिष्ट कहलाता है। वह हर व्यवहार सहज शांत सौम्य रहता है। इस प्रकार कर्मत्व, दक्षत्व, जीवसत्व, अहिंस्य भाव परिपुष्टि पवमान द्वारा होती है।…..(क्रमशः)
स्व. डॉ. त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
पी.एच.डी. (दर्शन – वैदिक आचार मीमांसा का समालोचनात्मक अध्ययन), एम.ए. (दर्शन, संस्कृत, समाजशास्त्र, हिन्दी, राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन), बी.ई. (सिविल), एल.एल.बी., डी.एच.बी., पी.जी.डी.एच.ई., एम.आई.ई., आर.एम.पी. (10752)