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“भगवाकरण” या “भगवा प्रबंधन” डॉ त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
प्राचीन काल में हिन्दू गौ मांस खाते थे – BBC का खंडन यश आर्य
भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माताओं में से एक डॉक्टर बीआर अंबेडकर अच्छे शोधकर्ता भी थे. उन्होंने गोमांस खाने के संबंध में एक निबंध लिखा था, ‘क्या हिंदुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया?’
यह निबंध उनकी किताब, ‘अछूतः कौन थे और वे अछूत क्यों बने?’ में है.
दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम ने इस निबंध को संपादित कर इसके कुछ हिस्से बीबीसी हिंदी के पाठकों के लिए उपलब्ध करवाए हैं.
‘पवित्र है इसलिए खाओ’
अपने इस लेख में अंबेडकर हिंदुओं के इस दावे को चुनौती देते हैं कि हिंदुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया और गाय को हमेशा पवित्र माना है और उसे अघन्य (जिसे मारा नहीं जा सकता) की श्रेणी में रखा है.
अंबेडकर ने प्राचीन काल में हिंदुओं के गोमांस खाने की बात को साबित करने के लिए हिन्दू और बौद्ध धर्मग्रंथों का सहारा लिया.
उनके मुताबिक, “गाय को पवित्र माने जाने से पहले गाय को मारा जाता था. उन्होंने हिन्दू धर्मशास्त्रों के विख्यात विद्वान पीवी काणे का हवाला दिया. काणे ने लिखा है, ऐसा नहीं है कि वैदिक काल में गाय पवित्र नहीं थी, लेकिन उसकी पवित्रता के कारण ही बाजसनेई संहिता में कहा गया कि गोमांस को खाया जाना चाहिए.” (मराठी में धर्म शास्त्र विचार, पृष्ठ-180).
अंबेडकर ने लिखा है, “ऋगवेद काल के आर्य खाने के लिए गाय को मारा करते थे, जो खुद ऋगवेद से ही स्पष्ट है.”
ऋगवेद में (10. 86.14) में इंद्र कहते हैं, “उन्होंने एक बार 5 से ज़्यादा बैल पकाए’. ऋगवेद (10. 91.14) कहता है कि अग्नि के लिए घोड़े, बैल, सांड, बांझ गायों और भेड़ों की बलि दी गई. ऋगवेद (10. 72.6) से ऐसा लगता है कि गाय को तलवार या कुल्हाड़ी से मारा जाता था.”
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ये झूठ है । देखो
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‘अतिथि यानि गाय का हत्यारा’
अंबेडकर ने वैदिक ऋचाओं का हवाला दिया है जिनमें बलि देने के लिए गाय और सांड में से चुनने को कहा गया है.
अंबेडकर ने लिखा “तैत्रीय ब्राह्मण में बताई गई कामयेष्टियों में न सिर्फ़ बैल और गाय की बलि का उल्लेख है बल्कि यह भी बताया गया है कि किस देवता को किस तरह के बैल या गाय की बलि दी जानी चाहिए.”
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माध्यंदिनी सन्हिता ही यजुर्वेद है । तैत्तिरीय वेद नहीं है ।
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वो लिखते हैं, “विष्णु को बलि चढ़ाने के लिए बौना बैल, वृत्रासुर के संहारक के रूप में इंद्र को लटकते सींग वाले और माथे पर चमक वाले सांड, पुशन के लिए काली गाय, रुद्र के लिए लाल गाय आदि.”
“तैत्रीय ब्राह्मण में एक और बलि का उल्लेख है जिसे पंचस्रदीय-सेवा बताया गया है. इसका सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, पांच साल के बगैर कूबड़ वाले 17 बौने बैलों का बलिदान और जितनी चाहें उतनी तीन साल की बौनी बछियों का बलिदान.”
अंबेडकर ने जिन वैदिक ग्रंथों का उल्लेख किया है उनके अनुसार मधुपर्क नाम का एक व्यंजन इन लोगों को अवश्य दिया जाना चाहिए- (1) ऋत्विज या बलि देने वाले ब्राह्मण (2) आचार्य-शिक्षक (3) दूल्हे (4) राजा (5) स्नातक और (6) मेज़बान को प्रिय कोई भी व्यक्ति.
कुछ लोग इस सूची में अतिथि को भी जोड़ते हैं.
मधुपर्क में “मांस, और वह भी गाय के मांस होता था. मेहमानों के लिए गाय को मारा जाना इस हद तक बढ़ गया था कि मेहमानों को ‘गोघ्न’ कहा जाने लगा था, जिसका अर्थ है गाय का हत्यारा.”
‘सब खाते थे गोमांस’
इस शोध के आधार पर अंबेडकर ने लिखा कि एक समय हिंदू गायों को मारा करते थे और गोमांस खाया करते थे जो बौद्ध सूत्रों में दिए गए यज्ञ के ब्यौरों से साफ़ है.
अंबेडकर ने लिखा है, “कुतादंत सुत्त से एक रेखाचित्र तैयार किया जा सकता है जिसमें गौतम बुद्ध एक ब्राह्मण कुतादंत से जानवरों की बलि न देने की प्रार्थना करते हैं.”
अंबेडकर ने बौद्ध ग्रंथ संयुक्त निकाय(111. .1-9) के उस अंश का हवाला भी दिया है जिसमें कौशल के राजा पसेंडी के यज्ञ का ब्यौरा मिलता है.
संयुक्त निकाय में लिखा है, “पांच सौ सांड, पांच सौ बछड़े और कई बछियों, बकरियों और भेड़ों को बलि के लिए खंभे की ओर ले जाया गया.”
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यहाँ बौद्ध लोगों ने वाम मार्गी लोगों की चर्चा की है। सच्चे ब्राह्मणों की नहीं ।
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अंत में अंबेडकर लिखते हैं, “इस सुबूत के साथ कोई संदेह नहीं कर सकता कि एक समय ऐसा था जब हिंदू, जिनमें ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण दोनों थे, न सिर्फ़ मांस बल्कि गोमांस भी खाते थे.”
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अॅम्बेद्कर और B B C और दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम और गो मांस भक्षक हिंदुओं का मत असत्य है ।
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आर्य समाज के मन्तव्य: त्रैतवाद शिवदेव आर्य गुरुकुल पौंधा, देहरादून
आर्य समाजः- श्रेष्ठ व्यक्ति का नाम आर्य है। जिसके कर्म अच्छे हों उसे श्रेष्ठ कहते हैं। सभ्य मनुष्यों के संगठन को समाज कहते हैं। संगठन अज्ञान, अन्याय, अभाव को दूर करने के लिए बनाया जाता है। आर्य समाज एक प्रजातान्त्रिक संगठन है जिसकी स्थापना महर्षि दयानन्द जी ने मुम्बई में सन् १८५७ ई॰ में की थी।
उद्देश्यः- संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
आर्य समाज के मन्तव्य:
त्रैतवाद –आर्य समाज ईश्वर, जीव, प्रकृति इन तीनों को अनादि मानता है। किसी वस्तु के निर्माण में तीन कारणों का होना आवश्यक है।
१.उपादान कारण, २. निमित्त कारण, ३.साधारण कारण
१.उपादान कारणः- वस्तु के निर्माण में जो मूल तत्व है उसे उपादान कारण कहते हैं। जैसे घड़े का निर्माण में मिट्टी और आभूषण में सोना-चान्दी आदि उपादान कारण हैं।
२.निमित्त कारणः- जिसके बनाने से कुछ बने, न बनाने से न बने, प्रकारान्तर से दूसरे को बना दे उसे निमित्त कारण कहते हैं। इसके दो भेद हैं-
क. मुख्य निमित्त कारण- परमात्मा
ख. साधारण निमित्त कारण – आत्मा
३.साधारण कारणः-निमित्त और उपादान कारण के अतिरिक्त अन्य अपेक्षित कारण साधारण कारण कहलाते हैं। जैसे घड़े के निर्माण में मिट्टी उपादान कारण कुम्भकार निमित्त कारण और दण्ड, चक्रादि साधारण कारण है। वैसे ही सृष्टि निर्माण में प्रकृति साधारण कारण, ईश्वर निमित्त कारण और दिशा, आकाशादि साधारण कारण हैं।
उपादान कारण प्रकृति:- प्रकृति जगत् का उपादान कारण है जिससे कार्य जगत् उत्पन्न होता है। उपादान कारण में निम्न बातें पाई जाती हैं-
१. उपादान कारण परिणामी, नित्य और जड़ होता है। चेतन कभी भी उपादान कारण नहीं हो सकता है।
२. उपादान कारण के गुण कार्य में किसी न किसी रूप में आते हैं।
३. उपादान कारण से ही कार्य बनता है और उसी में लीन भी होता है।
४. उपादान कारण असत्य, मिथ्या और अमान रूप नहीं होता।
५. उपादान बनाने से कार्य रूप में बनता है और न बनाने से नहीं बनता।
यें सभी बातें प्रकृति में पाई जाती हैं अतः प्रकृति जगत् का उपादान कारण है। प्रकृति त्रिगुणात्मक सत्त्व रजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः सांख्य दर्शन, जड़ और अनादि है। क्योंकि कारण का कारण नहंी होता। प्रकृति के अनादि होने में हेतु
१.अभाव से भाव उत्पन्न नहंीं होता। जगत् भाव रूप है अतः उसका कारण भी भाव रूप होना चाहिये और वह प्रकृति है।
२. जगत् कार्य रूप होने से उसका कारण प्रकृति ही उपादान कारण सिध्द होती है।
३. कार्य अपने उपादान कारण में विद्यमान रहता है। जगत् कार्य है और उसकी विद्यमानता प्रकृति में है।
४. कार्य अपने कारण में लय को प्राप्त होता है अतः जगत् का उपादान कारण प्रकृति होना ही चाहिये।
५. कोई कार्य तभी सम्पन्न होता है जब उसके कारण में कार्य रूप में परिणत होने की शक्ति हो अतः प्रकृति रूपी कारण में जगत् रूप में परिणत होने की शक्ति विद्यमान रहती है।
६. किसी भी वस्तु का सर्वथा विनाश नहीं होता वह सूक्ष्म रूप हो अपने कारण में विलीन हो जाती है। प्रलयावस्था में जगत् अपने कारण प्रकृति में विद्यमान रहता है।
७. बीज के होने पर उससे अंकुर का प्रादुर्भाव होता है। प्रकृति ही जगत का मूल कारण होने से उसका अनादि होना सिध्द होता है।
प्रमाण-
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषष्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्यवश्न्नन्यो अभि चाकशीति।। ऋ॰ १/१६४/२॰)
(द्वा) ब्रह्म और जीव दोनों (सुपर्णा) चेतनता और पालनादि गुणों से कुछ सदृश (सयुजा) व्याप्य-व्यापक भाव से संयुक्त (सखाया) परस्पर मित्रता युक्त (समानम्) वैसा ही (वृक्षम्द्ध प्रलय में छिन्न भिन्न होने वाले संसार रूप वृक्ष का (परिषष्वजाते) आश्रय लिये हुए हैं। (तयोरन्यः) इनमें से जो जीव है वह इस वृक्ष रूपी संसार में पाप-पुण्य रूप फलों को (स्वाद्वत्ति) स्वाद लेकर खा रहा है, भोग रहा है ओर दूसरा परमात्मा (अनश्नन्) न भोगता हुआ (अभि चाकशीति) चारों ओर विराजमान हो उसे देख रहा है।
अजामेकां लोहित शुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां स्वरूपाः।
अजो हयेको जुषमाणोऽनुशेते जहाव्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः। (श्वेता॰उप॰ ४१५)
प्रकृति, जीव और परमात्मा ये तीनों अज अर्थात् इनका जन्म कभी नहीं होता। प्रकृति रजोगुणयुक्त, सत्त्वगुणात्मक और कृष्ण अर्थात् तमोगुणी होने से उससे विभिन्न पदार्थों की उत्पत्ति होती है। इसे अजन्मा जीवात्मा भोग रहा है और दूसरी अविनाशी, जन्म मरण से रहित ईश्वर जीवों द्वारा भोग्य होने के कारण इसका परित्याग अर्थात् भोग से पृथक है।
सृष्टि की उत्पत्ति में मूलतत्त्वों की गणना:-
१. एकत्ववाद एकत्ववाद का सिध्दान्त कहता है कि जड़ या चेतन तत्त्व से ही सृष्टि का निर्माण हुआ है। जड़ से सृष्टि का निर्माण हुआ है। जड़ से सृष्टि की उत्पत्ति चार्वाक और वर्तमान भौतिक वादियों (वैज्ञानिकों) की है।
चेतन तत्व से ही सृष्टि का निर्माण हुआ यह मान्यता शंकराचार्य, यहूदी, ईसाई, मुसलमानों की है। इनका कहना है कि एक ईश्वर ही अनादि तत्व है जिसने अभाव से अर्थात् अपनी माया से जीव तथा जगत् की उत्पत्ति की है।
२. द्वैतवाद द्वैतवादियों का कहना है कि मूलभूत सत्ता दो हैं चेतन जीव तथा भौतिक द्रव्य प्रकृति। यह धारणा सांख्य दर्शन की मानी जाती है।
३. त्रैतवाद इस सिध्दान्त को मानने वाले ईश्वर, जीव, प्रकृति को मूलभूत सत्ता मानते हैं रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य और महर्षि दयानन्द जी इसी सिध्दान्त को मानने वाले थे।
समीक्षा:-एकत्ववादियों का मानना है कि भौतिक द्रव्य से ही सृष्टि का निर्माण हुआ है। जैसे दही और गोबर को मिला देने से उसमें कुछ समय पश्चात् बिच्छू उत्पन्न हो जाते हैं। इसी भांति मदिरा बनाने के लिये कुछ पदार्थों को मिला देने से कालान्तर में उनमें गति उत्पन्न हो जाती है। वर्तमान समय में बैटरी का निर्माण भी तेजाब और जस्ता की प्लेट का संयोग होने पर विद्युत प्रवाहित होने लगती है। इसी भांति जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी के तत्वों का संयोग होने से सृष्टि का निर्माण स्वयमेव होता है और इन तत्वों के क्षीण हो जाने पर प्रलय भी अपने आप होती है। सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय का यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है।
समाधान:-यदि गोबर या दही को सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखें तो उसमें सूक्ष्म जीव पहले से विद्यमान दिखाई देंगे जो उचित वातावरण में बिच्छू के शरीर में परिणत हो गये। दही और गोबर को मिलाकर अनुकूल वातावरण में रखने वाली चेतन सत्ता का होना आवश्यक है।
यदि सृष्टि का बनना और बिगड़ना स्वभाव से माने तो स्वभाव से ही उत्पन्न पदार्थ का विनाश नहीं होगा। यदि विनाश को स्वाभाविक माने तो फिर उत्पत्ति नहीं होगी। दोनों अर्थात् उत्पत्ति और विनाश यदि स्वाभाविक माने जायें तो अनवस्था दोष आ जायेगा।
आज का विज्ञान यह मानता है कि सृष्टि की अन्तिम सत्ता आत्मा-परमात्मा न होकर ऊर्जा अर्थात् वे सूक्ष्म विद्युत तरंगे हैं जो मेंढक की गति से प्रवाहित हो रही है। ये तरंगें तीन प्रकार के विद्युत कणों से बनी हैं जिन्हें इलेक्ट्राॅन, प्रोटाॅन, न्यूट्राॅन कहा जाताहै।
समाधान- यदि विद्युत तरंगों का प्रवाह विच्छेद युक्त है अर्थात् मेंढक की भांति कुदान मार-मार कर प्रवाहित होता है और फिर बन्द हो जाता है तो उसके बन्द या विच्छेद होने पर उसे दोबारा गति किससे प्राप्त होती है। जड़ पदार्थ अपने आप गतिशील नहीं हो सकता।
जिन परमाणुओं से सृष्टि का निर्माण होता है वहां पर भी व्यवस्था है। प्रत्येक परमाणु के केन्द्र में न्यूट्राॅन होता है और उसके समीप ही प्रोटाॅन के कण रहते हैं। जितने प्रोटाॅन के कण होते हैं, उतने ही इलेक्ट्राॅनों की संख्या होती है। इलेक्ट्राॅन विपरीत दिशा में गतिशील रहते हैं। उनमें गति एवं निश्चित अनुपात में प्रोटाॅन, इलेक्ट्राॅन की विद्यमानता किसी दूसरी सत्ता द्वारा ही सम्भव है। जड़ में स्वयं यह गुण नहंी आ सकता।
‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ परमाणु सौरमण्डल की एक छोटी इकाई का ही नमूना है। सूर्य के चारों ओर हमारी पृथ्वी सहित दूसरे ग्रह-उपग्रह घूम रहे हैं। सूर्य भी अपनी कक्षा में गति कर रहा है। हमारी आकाश गंगा में सूर्य सदृश लाखों नक्षत्र एवं लोक लोकान्तर हैं जो अपनी-अपनी कक्षा में भ्रमण कर रहे हैं। ऐसी करोड़ों आकाशगंगाओं देखी जा चुकी हैं। इनहें कौन गति दे रहा है इसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं है।
शंकर का अद्वैतवाद:- शंकराचार्य का मत है कि सृष्टि की मूल सत्ता केवल एक चेतन ईश्वर है। ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या। जैसे मकड़ी अपने में से ही जाला बुनने के लिए तन्तु निकालती है और फिर उसे समेट भी लेती है वैसे ही ब्रह्म अपनी माया से सृष्टि की उत्पत्ति कर अपने में ही समेट लेता है। माया ब्रह्म की शक्ति है जो न सत् न ही असत् अर्थात अनिर्वचनीय है। जैसे अज्ञान के कारण रज्जु में सर्प और सीप में रजत का भ्रम हो जाता है वैसे ही यह जगत् स्वप्न के समान मिथ्या है। जैसे एक ही मूर्ख का प्रतिबिम्ब सहस्रों दर्पणों में अवभाषित हो अनेक रूपों में दिखाई देता है वैसे ही एक ब्रह्म अनेक अन्तः करणों से युक्त हो बहुत दिखाई दे रहा है।
समाधान:-जब अकेला ब्रह्म ही था तो उससे यह जड़ संसार कैसे उत्पन्न हो गया। यदि यह ब्रह्म की माया है तो फिर ब्रह्म और माया दो हो गये। यदि माया सत् है तो एकत्व का सिध्दान्त नहीं टिकता असत् मानने पर उसकी प्रतीति कैसे होगी। यदि उसे सत् असत् दोनों ही मान लिया जाये तो परस्पर विरोध उत्पन्न हो जायेगा। उसे सत्असत से भिन्न अनिर्वचनीय मानना निरर्थक है। मकड़ी और उसका सूत्र निकालना दो हो गये। क्योंकि सूत्र तो मकड़ी के शरीर से निकलता है और शरीर का निर्माण प्रकृति के पदार्थों से होता है। सीप में रजत और रज्जु में सर्प का भ्रम होना भी द्वैत को सिध्द करता है। जिसका भ्रम हो रहा है वह वस्तु दूसरी है। ऐसे ही स्वप्न भी देखे सुनें विषयों से सम्बन्धित होता है और जागने पर उन पदार्थों की सत्ता समाप्त हो जाती है परन्तु संसार तो दिखाई दे रहा है।
यदि ब्रह्म अपने में से ही जगत् का निर्माण करता है तो विकार वाला हो गया और उससे निर्मित जगत् भी चेतन स्वरूप वाला होना चाहिये। जो यह कहते हैं कि खुदा ने कुन कहा और सृष्टि रचना हो गई सो अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं हो सकती। कार्य से पहले उसके कारण का होना आवश्यक है।
द्वैतवाद:- यह पहले कहा जा चुका है कि अकेला जड़ या चेतन सृष्टि की उत्पत्ति करने में समर्थ नहीं हो सकता। जब तक चेतन उसका निमित्त कारण नहीं बने तब तक जड़ स्वयं बन या बिगड़ नहीं सकता। इसलिए सृष्टि उत्पत्ति के लिये दो सत्ताओं का मानना अनिवार्य है। सांख्य दर्शन में इसे प्रकृति पुरूष कहां है ओर गीता ने क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ। शरीर, मन, बुध्दि, इन्द्रियाँ क्षेत्र है और पुरूष इनका स्वामी।
सांख्य दर्शन के प्रमाण:-
संहत परार्थत्वात्।।१।१४॰।।
संहत शरीरादि पृथिव्यादि विभिन्न तत्वों के योग से निर्मित हैं ओर संघात दूसरों के लिए होता है। जैसे खट्वादि पुरूष के लिए निर्मित किये जाते हैं वैसे ही जीवात्मा के लिये यह शरीर प्राप्त हुआ है ओर वह इससे भिन्न है।
अधिष्ठानात्।।१।१४२।।
रथ तभी चलता है जब इसका चलाने वाला हो। शरीर भी एक रथ है। (आत्मानं रथं विध्दि शरीरं रथमेव च) जिसका अधिष्ठाता चेतन आत्मा है।
भोक्तृभावात् ।।१।१४३।।
संसार के सब विषय भोग्य और पुरूष उनका भोक्ता है।
कैवल्यार्थं प्रवृत्तेश्च।।१।१४४।।
सब जीवों की मोक्ष अर्थात् सांसारिक दुःखों से छूटने की प्रकृति देखी जाती है। बन्धन में कोई नहीं रहना चाहता। यदि आत्मा नहीं है तो दुःख से छूटना कौन चाहता है?
षष्ठी व्यपदेशादपि सांख्य ६/३
मेरा शरीर, मेरा मन इत्यादि व्यवहार से शरीर से भिन्न आत्मा सिध्द होता है।
अस्त्यात्मा नास्तित्व साधनाभावात् (सांख्य ६/१)
आत्मा है क्योंकि उसके न होने में कोई प्रमाण नहीं है। जो मैं कहता हुॅं वह शरीर से पृथक चैतन्य स्वरूप आत्मा ही जानना चाहिए।
अन्य प्रमाण:-
१. कोई भी मरना नहीं चाहता। यह मरने से बचने वाला चेतन आत्मा ही है जिसने अनेक जन्मों में मृत्यु दुःख का अनुभव किया है।
२. यदि जीव का पृथक अस्तित्व न माना जाये तो जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं का अभाव होगा। ये अवस्थायें होती है अतः जीव का अस्तित्व भी सिध्द है।
३. इच्छा, द्वेष, प्रधान, ज्ञान आदि से भी जीव प्रकृति से भिन्न सिध्द होता है।
४. जड़ का प्रकाशक, जड़ से भिन्न होता है, शरीर, इन्द्रिय, मन-बुध्दि को प्रकाश गति देने वाला जीव इससे भिन्न है।
बालादेकर्मणायस्कमुतैकं नैव दृश्यते।
ततः परिष्वजीयसी देवता सा मम प्रिया।।
(अथर्व॰ १॰/८/२५)
एक (जीवात्मा) बाल से भी अधिक सूक्ष्म है और एक (प्रकृति) मानो दीखती ही नहीं। उससे भी अधिक सूक्ष्म और व्यापक जो परमात्मा है वही मेरा प्रिय है।
आत्मा का परिणामः-
बालाग्र शत भागस्य शतधा कल्पितस्य च।
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते।।
(श्वेता॰ ५/९)
बाल के अगले भाग के सौ टुकड़े कर दिये जायें, उसके सौवें भाग के भी सौ हिस्से कर दिये जायें, उस सूक्ष्म भाग के समान जीव का प्रमाण दें किन्तु उसमें सामथ्र्य बहुत है। जीव स्व, सूक्ष्म पदार्थ है जो एक परमाणु में भी रह सकता है। उसकी शक्तियाँ शरीर में प्राण, बिजली और नाड़ी आदि के साथ संयुक्त होकर रहती है, उनसे सब शरीर का वर्तमान जानता है।
(सत्यार्थ प्रकाश द्वादश समुल्लास)
प्रश्न: जीव शरीर में विभु है या परिच्छिन्न?
उत्तर: परिच्छिन्न। जो विभु होता तो जागृत, स्वप्न सुषुप्ति, मरण, जन्म, संयोग, वियोग, जाना, आना कभी नहीं हो सकता। इसलिए जीव का स्वरूप अल्पज्ञ, अल्प अर्थात् सूक्ष्म है। सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास।
आत्मा के गुण, कर्म स्वभाव
प्रश्न: जीव और ईश्वर का स्वरूप, गुण कर्म और स्वभाव कैसा है?
उत्तर: दोनों चेतन स्वरूप है। स्वभाव दोनों का पवित्र, अविनाशी और धार्मिकता आदि हैं। परन्तु परमेश्वर के सृष्टि उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय सबको नियम में रखना, जीवों को पाप-पुण्य रूप फलों को देना आदि धर्मयुक्त कर्म हैं और जीव के सन्तानोत्पत्ति, उनका पालन, शिल्प विद्या आदि अच्छे-बुरे कर्म हैं।
इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिंगभूति (न्याय द॰ १/१/१॰)
प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवन मनोगतीन्द्रियान्तरविकाराः सुख दुःखे इच्छाद्वेषौ प्रयत्नश्चात्मनो लिंगानि।। (वैशेषिक दर्शन ३/२/४)
दोनों सूत्रों में (इच्छा) पदार्थों के प्राप्ति की अभिलाषा (द्वेष) दुःखादि की अनिच्छा, वैर, (प्रयत्न), पुरूषार्थ, बल, (सुख) आनन्द (दुःख) विलाप, अप्रसन्नता (ज्ञान) विवेक, पहिचानना। ये तुल्य हैं परन्तु वैशेषिक में (प्राण) को बाहर निकालना (अपान) प्राण को बाहर से भीतर को लेना, (निमेष) आंख मींचना (उन्मेष) आंख का खोलना (जीवन) प्राण का धारण करना (मन) निश्चय, स्मरण और अहंकार करना (गति) चलना, (इन्द्रिय) सब इन्द्रियों को चलाना (अन्तरविकार) भिन्न-भिन्न क्षुधा, तृष्णा, हर्ष, शोकादि का होना, ये जीवात्मा के गुण परमात्मा से भिन्न हैं। इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी, क्योंकि वह स्थूल नहीं है।
जब तक आत्मा देह में होता है तभी तक ये गुण प्रकाशित रहते हैं और जब शरीर छोड़ कर चला जाता है, तब ये गुण शरीर में नहीं रहते। जिसे होने से जो हों और न होने से न हों, वे गुण उसी के होते हैं। जैसे दीप एवं सूर्यादि के होने से प्रकाशादि का होना और न होने से न होना है, वैसे ही जीव और परमात्मा का विज्ञान गुण द्वारा होता है।
पुरूष बहुत्व:-
जन्मादि व्यवस्थातः पुरूष बहुत्वम् (सांख्य १.१४९)
संसार में देखा जाता है किसी का जन्म हो रहा है और किसी की मृत्यु हो रही है। जन्म-मरणादि अवस्थायें तभी सम्भव है जब अनेक जीवात्मा होंवे। इसमें प्रश्न उठता है कि मुक्ति का साधन करके बहुत सारे लोग मुक्त हो जायेंगे। इसका उत्तर अगले सूत्र में दिया है-
इदानीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेदः (सांख्य १/१५९)
हम देख रहे हैं कि वर्तमान समय में पुरूषों का सर्वथा उच्छेद नहीं है। कोई मरता है तो दूसरा जन्म लेता है। मुक्ति की अवधि समाप्त होने पर आत्मा फिर शरीर धारण करता है। इसलिये सर्वथा उच्छेद का प्रश्न ही नहीं उठता। आवागमन का यह चक्र चलता ही रहता है।
त्रैतवाद:-
ईश्वर: जिस प्रकार घड़े को बनाने में मिट्टी उपादान कारण और कुभ्म्भकार निमित्त कारण है वैसे ही सृष्टि की उत्पत्ति में प्रकृति उपादान कारण और ईश्वर निमित्त कारण है। जीव साधारण निमित्त कारण है। जड़ पदार्थ में यह सामथ्र्य नहीं कि वह स्वयं योजनाबध्द हो जगत् रूप हो जाये। जीव का भी सामथ्र्य इतना नहीं कि इस विशाल सृष्टि की रचना कर सके। तब केवल ईश्वर ही रह जाता है जो निराकार, सर्व व्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान होने के कारण परमाणु में भी व्याप्त हो उसे गति प्रदान कर सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय कर रहा है।
ईश्वर के कार्य:-
१. सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करना।
२. सब जीवों को कर्मानुसार यथायोग्य फल देना।
गुण:-ईश्वर सगुण और निगुण दोनों है।
स्वभाव:-ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप है।
ईश्वर की सिध्दि:-उदयनाचार्य ने न्याय कुसुमा´जलि में ईश्वर की सिध्दि में आठ प्रमाण दिये हैं-
कार्ययोजन धृत्यादेः पद प्रत्ययतः श्रुतेः।
वाक्यात् संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वकृदव्ययः।।
(न्याय कुसुमांजलि)
१. कार्य-सृष्टि की रचना कार्य है। अतः इसका कारण भी होना चाहिये। बिना कारण के कार्य नहीं हो सकता।
२. आयोजन-सृष्टि रचना के समय परमाणुओं को मिलाने में क्रिया हुई होगी। उस क्रिया का कर्ता होना चाहिये।
३. धृत्यादि-सृष्टि रचना के अनन्तर भी उसका कोई धारण करने वाला होना चाहिये।
४. पद – पद गति का वाचक है। सृष्टि के प्रारम्भ में मनुष्यों को बुना, खेती करना और अन्य लौकिक व्यवहार पहले किसी ने सिखाये होंगे क्योंकि ये नैमित्तिक कर्म हैं।
५. प्रत्यय – वेदों में ज्ञान-प्रदान करने की शक्ति मन्त्रों के माध्यम से किसने दी?
६. श्रुतेः – वेदों का ज्ञान किसने दिया?
७. वाक्य – मनुष्यों को बोलना किसने सिखाया भाषा किसने दी?
८. संख्या- यह किसको सूझा कि दो परमाणुओं से द्वयणु और तीन द्वयणु से त्रसरेणु इत्यादि बनते हैं।
इन प्रमाणों के आधार पर ईश्वर की सिध्दि होती है।
अन्य प्रमाण
१. जीवों के किये हुये कर्म न स्वयं फल दे सकते हैं और न स्वयं जीवन ही फल की व्यवस्था अपने आप कर सकते हैं। अतः ईश्वर की सिध्दि कर्मफल के दाता के रूप में भी है।
२. जगत् में सर्वत्र नियम देखा जाता है अतः उसका नियामक भी होना चाहिये।
उत्पत्ति :-
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव ऋ॰ १॰/१२९/७
जिससे यह सृष्टि प्रकाशित हुई है।
स्थिति :-
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमाम् ऋ॰ १॰/१२१/१
जिसने पृथिवी से लेके सूर्यपर्यन्त जगत् को धारण किया हुआ है।
प्रलय :-
नहि ते अग्ने तन्वः क्रूरमानंश मत्र्यः।
कपिर्बभस्ति तेजनम्।।(अथर्व॰ ६/४९/१द)
हे परमेश्वर! मनुष्य तेरे क्रूर स्वरूप को नहीं जानते प्रलय के समय कम्पाने वाले आप प्रकाशमान सूर्य मण्डल को खा जाते हैं जैसे प्रसूता गो अपनी झिल्ली को खा लेती है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में इस विषय पर लिखा है-
प्रश्न-आप ईश्वर-ईश्वर कहते हो, उसकी सिध्दि किस प्रकार करते हो?
उत्तर-सब प्रत्यक्षादि प्रमाणों से।
प्रश्न-ईश्वर में प्रत्यक्ष प्रमाण कभी नहीं घट सकता?
उत्तर-इन्द्रियों का विषयों के साथ जो सीधा सम्बन्ध होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। अब विचारना चाहिये कि इन्द्रिय और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं। जैसे शब्द, स्पर्श रूप, रस, गन्ध का ज्ञानेन्द्रियों से प्रत्यक्ष होता है वैसे ही इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना विशेष आदि ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। और जब आत्मा किसी गलत कार्य में प्रवृत्त होता है उस समय आत्मा के भीतर बुरे काम करने में भय, शंका, लज्जा तथा अच्छे कर्मों के करने में अभय, निशंकता और आनन्दोत्साह उठता है। यह जीवात्मा की ओर से नहीं किन्तु परमात्मा की ओर से है।
और जब जीवात्मा शुध्द होके शुध्दान्तकरण से युक्त योगी समाधिस्थ होकर आत्मा और परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है। तब उसको उसी समय दोनों (गुण और गुणी) प्रत्यक्ष होते हैं।
।। इत्योम्।।
The sad decline of the Arya Samaj By Dr. Vidhu Mayur
It is not possible to say with certainty as to when the Arya Samaj movement began to decay. As good a guess as any on this is 1947, the year in which Punjab was partitioned into India and Pakistan. It is probable that this dealt a grievous blow to the Arya Samaj movement because Lahore was where its heart had beat since its inception; with one fell swoop the arteries, connecting it to other parts of its body in India, were thus severed. Whether this decline is terminal is too painful a question to contemplate. Why has the slump occurred?
For a start, the modern practice of democracy must shoulder considerable blame. At its birth, the Arya Samaj movement adopted a constitution informed by the colonial system in place at that time. The legacy, left by the British legal and political system to India, includes the civil law guidance that charities should have in place an electoral system where leaders are elected by members who pay an annual subscription, on a one-member-one-vote basis. There are fatal weaknesses in this because almost anyone can become a member of an Arya Samaj through the ridiculously expedient route of paying a tiny sum of money for annual membership, and by signing a form pledging allegiance to the movement. Svami Dayanand must have recognised this flaw because, before he died, he set up the Arya Paropkarini Sabha to manage his affairs. Crucially, this Sabha was, in legal terms, a Trust – a body run by Trustees who were not elected but appointed by him (presumably on the basis that he fully trusted them to be Aryas in the true sense of the word). Dharma is about one’s conduct being compatible with Vedic ethics – it takes a life-time (if not more) for an Arya to acquire sanskaars that signally cannot be acquired instantly. It is true to say, therefore, that far too many so-called Samaj members, and leaders, have obtained their ‘brand’ identity through this completely insincere approach. Amazingly, it is even possible to purchase life membership in many Arya Samajs – this is sold on the basis that, thereby, one can pay a greatly discounted annual fee! Tragically, such is the extent of the rot that has set in within a movement intended to spread the practice of nishkaam (selfless and unconditional) yajna (altruism). Arya Samajs are therefore dangerously vulnerable to easy infiltration and sabotage by enemies intent on weakening it; could it be that this is mainly why it has been brought to its knees?
Even worse, however, is that this system of organisation spawns leaders who are elected, exactly, as are politicians. Instead of leaders being appointed on merit, they come to the fore via popularity contests. It would be fair to say that the vast majority of Arya Samajs worldwide are and have been led by people whose political skills are far superior to their Vedic morals; greed for office is the result. Is it any surprise therefore that the sublime principles and goals Svami Dayanand Sarasvati intended for preservation and propagation by the society he set up have lapsed into dormancy? For, politicians the world over are, essentially, populist. Becoming popular in order to attract votes does not mix at all well with acting in a principled manner – in fact, are these two behaviours not mutually exclusive? Almost invariably, such people are more willing to compromise key principles (to remain in power) than preserving them. For example, they fail with Principle 9 – no one should be content to promote their own good but should instead look for their own good in promoting the good of all.
Another historically alien concept that has taken root in the Arya Samaj is secular humanism. Atheistic humanism is ultimately antithetic to the Vedic dharma – principles 1, 2 and 3 of the Arya Samaj embrace, celebrate and eulogise God, unambiguously so. Unfortunately, those who are too ignorant or lazy to worship God as taught by the Vedas tend to become followers of the idea of moral relativism that now is in the ascendancy all over the world, and consequently fail in practising principle 5 of the Arya Samaj, that is, all acts should be performed in accordance with dharma by differentiating right conduct from wrong. How can people succeed in this if they are expected to accept that there are no absolute rights and wrongs? And so, we see evils such as abortion, deviant sexual behaviour and mercy killing now being promoted as examples of modern day ethics. Other such aberrations bequeathed by the so-called Age of Enlightenment are the industrialised slaughter of animals, genetic modification of living organisms and a selfish emphasis on human rights rather than selfless responsibilities – almost all resulting from the worship of science having supplanted that of God. This explains why Samajs are following and teaching what is not truly Vedic, but a contaminated or diluted version of Dharma.
For a creed that totally rejects the idea of a hereditary caste system, it is shocking that the Arya Samaj has actually been infected with the notion of Aryan identity being inherited; it is not uncommon for people in positions of leadership uttering with pride ‘my father was a great servant of the Samaj’ or ‘I come from a strong Arya Samaj family’. The intention behind such statements is to offer evidence of sincerity or authenticity of their qualifications for leadership or membership of the organisation, irrespective of the merits – or demerits – of their day-to-day conduct. Nepotism, in the form of reserving committee posts for family members, is a consequence of this. At AGMs or elections, dissensions between factions occur frequently and are settled on the basis of voter turnout. Egos run rampant, with elections being won by those who boast their achievements most volubly. It is a bitter irony that these so-called Aryas are, therefore, operating exactly like the corrupt Brahmins that have been the scourge of India for so long, justifying seizure of the status of dominant and self-perpetuating elite by dint of birth-right, and not on ability or merit.
Capitalism rears up its ugly head in the form of power-seekers trying to show that they have raised the most donations, held the biggest yajnas or organised the erection of big halls or new premises. Officers attend weekly meetings infrequently, but are unfailingly present at meetings of the executive committee. The few sincere servants in each Samaj are taken for granted or sidelined. Devout members are mocked for being unfashionably and unhealthily faithful to God. Hypocrisy is rife, as commonly exemplified by non-vegetarianism, alcohol use or sympathy for non-Vedic religious practices and beliefs. Fund-raising has become an end in itself with sizeable savings being deposited in bank accounts. Herein lies a most sinister danger; because such wealth is a magnet for the corrupt to scurrilously try to acquire power as Samaj officials in order to attempt to embezzle such funds. It is probably true to say that litigation has done more than anything else to weaken the Arya Samaj in India into a state of paralysis. The motive behind such law suits is, usually, pecuniary gain or megalomania. What has been completely forgotten is that the key reason for fund-raising through donations by the public is for the funds to be immediately spent on good causes; instead of making such charitable investments funds are being kept saved in ‘war-chests’ as an end in itself.
Sadly, what has also become vanishingly rare is the spirit of daana and seva; a painful irony in light of the sixth principle of Dayanand’s mission: that the prime object of the Arya Samaj is to do good to the world, that is, to promote the physical, social and spiritual good of all. Philanthropic works or charitable schemes are so few and far between that the Samaj can no longer claim to be meaningfully active in ongoing social reform. By becoming to depend on government funding the DAV schools have sold their soul, for he who pays the piper calls the tune. The Indian State is secular and has no interest whatsoever in prioritising or preserving the teaching of the Vedic Dharma to schoolchildren. For the DAV educational wing of the Arya Samaj to have sold out in this way was a monumental error.
Another fatal mistake made by the movement early in its history was to train and employ priests to run branches of the Samaj. The deathly blow this has delivered is twofold: firstly sustaining an apathy amongst members to study the Vedas (because svaadhyaaya for them begins and ends with listening to the occasional sermon) and secondly because many priests succumb to the evil of monetary gain – ironically one of the evils of Puranic Hinduism that Dayanand wanted to stamp out most of all. The worst consequence of this is that the weekly agnihotra has become a meaningless religious ritual not dissimilar to attending a temple to worship an idol of God (in this case the idol being a fire). This hugely important point needs further explanation. Devayajna is an act the daily performance of which is encouraged by the Vedas; this act of sacrifice is to be carried out at home for spiritual and environmental cleansing. Instead, the vast majority of Samajists see fit to observe yajna being conducted by a priest as their main contribution towards practising the Vedic dharma. Priests encourage this non-performance when their duty is actually as teachers, that is, to teach and propagate the domiciliary performance of yajna in community households. Lay members capable of conducting homa are vanishingly rare. So, purohits trained in Arya Samaj Gurukuls, with the intention of spreading the Vedic light, actually end up working to maintain darkness in community life. This entirely thwarts not only the third principle of the Arya Samaj, namely, that it is the duty of every Arya to read, study and teach the Vedas in order to deliver the ideal of krinvanto vishvam aryam – making all humanity noble by cleansing society of wrong beliefs about God but even more importantly, failing with the seventh principle of the Arya Samaj – instilling a sense of devotion to duty, the duty to make the world a better place by promoting justice, morality and fraternal love.
The sad conclusion is that the Arya Samaj movement has, effectively, become yet another sect. It was Dayanand’s intention to defeat sectarianism by uniting the entire human family and even having the lofty aspiration of a world with one country and one government. Instead, Samajs behave as do other religions, such as, having their own church or temple as well as their own tribal identity. Although communal worship is an essential means for promoting social cohesion, it should not be an end in itself. Samajs were intended to function as adult education colleges aimed at training congregation members to (i) practise the five mahayajnas at home and (ii) go out into the world to spread the word of the Vedas. Instead, members retreat inwards – by seeing their role as no more than attending a communal havan as their main act of worship. It cannot be emphasised enough that the main cause of this is having priests in situ. The great Vedic age dating back to six thousand years ago was based on preachers acting as atithis. These were ascetics with no fixed abode who served the world by delivering Vedic education by, selflessly and dedicatedly, visiting place to place. Our salaried priests, indolently, do the exact opposite (other than making money by conducting weddings and funerals).
The great philosopher Aristotle judged democracy to be the worst type of government. He argued that suffrage is a type of mob rule. Certainly, this is true for what has happened to the Arya Samaj movement – a body once great enough to play a key role in securing independence for India but now being led into irrelevance by unprincipled politicians working in cahoots with salaried priests. Ultimately, the grass-root ‘members’ must take the blame for this downfall because of their individual diffidence and disinclination towards either practising the Vedic Dharma with dedication and diligence or, more importantly, seeing it as a major priority that the upbringing of their children is founded upon the sixteen sanskaars. A key failing is that very few young people attend Arya Samaj meetings regularly; ultimately this is down to how parents bring up their children from infancy and whether parents bother with the Samaj themselves. Furthermore, income received from donations is embarrassingly low – the Arya Samaj movement is, effectively, failing with fund-raising. The format of the 3-hour long satsang is anachronistic i.e. belongs to a bygone era of 125 years ago. Arya Samajs are are failing to both spread Dayanand’s teachings as well as at putting them into a 21st century context. A measure of the extent of the decline is that the websites of most branches are either quite primitive or not regularly updated; or both.
How Dayanand’s mission can be revived and resurrected is a most forbidding challenge that needs to be addressed urgently.
शैतान कहाँ है?- प्रो राजेंद्र जिज्ञासु (कुछ तड़प-कुछ झड़प फरवरी द्वितीय २०१५)
ईसाई तथा इस्लामी दर्शन का आधार शैतान के अस्तित्व पर है। शैतान सृष्टि की उत्पत्ति के समय से शैतानी करता व शैतानी सिखलाता चला आ रहा है। उसी का सामना करने व सन्मार्ग दर्शन के लिए अल्लाह नबी भेजता चला आ रहा है। मनुष्यों से पाप शैतान करवाता है। मनुष्य स्वयं ऐसा नहीं सोचता। पूरे विश्व में आज पर्यन्त किसी भी कोर्ट में किसी ईसाई मुसलमान जज के सामने किसी भी अभियुक्त ईसाई व मुसलमान बन्धु ने यह गुहार नहीं लगाई कि मैंने पाप नहीं किया। मुझ से अपराध करवाया गया है। पाप के लिए उकसाने वाला तो शैतान है।
किसी न्यायाधीश ने भी कहीं यह टिप्पणी नहीं की कि तुम शैतान के बहकावे में क्यों आये? दण्ड कर्ता को ही मिलता है। कर्ता की पूरे विश्व के कानूनविद् यही परिभाषा करते हैं जो सत्यार्थप्रकाश में लिखी है अर्थात् ‘स्वतन्त्रकर्ता’ कहिये शैतान कहाँ खो गया? फांसी पर तो इल्मुद्दीन तथा अ दुल रशीद चढ़ाये गये। क्या यह महर्षि दयानन्द दर्शन की विजय नहीं है? अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, इरान, पाकिस्तान व मिश्र में इसी नियम के अनुसार अपराधी फांसी पर लटकाये जाते हैं और कारागार में पहुँचाये जाते हैं।
सर सैयद अहमद का लेख याद कीजियेः– मुसलमानों के सर्वमान्य नेता तथा कुरान के भाष्यकार सर सैयद अहमद खाँ ने अपने ग्रन्थ में एक कहानी दी है। एक मौलाना को सपने में शैतान दीख गया। मौलाना ने झट से उसकी दाढ़ी को कसकर पकड़ लिया। एक हाथ से उसकी दाढ़ी को खींचा और दूसरे हाथ से शैतान की गाल पर कस कर थप्पड़ मार दिया। शैतान की गाल लाल-लाल हो गई। इतने में मौलाना की नींद खुल गई। देखता क्या है कि उसके हाथ में उसी की दाढ़ी थी जिसे वह खींच रहा था और थप्पड़ की मार से उसी का गाल लाल-लाल हो गया था।
इस पर सर सैयद की टिप्पणी है कि शैतान का अस्तित्व कहीं बाहर नहीं (खारिजी वजूद) है। तुम्हारे मन के पाप भाव ही तुम से पाप करवाते हैं। अब प्रबुद्ध पाठक अपने आपसे पूछें कि यह क्रान्ति किसके पुण्य प्रताप से हो पाई? यह किसका प्रभाव है? मानना पड़ेगा कि यह उसी ऋषि का जादू है जिसने सर्वप्रथम शैतान वाली फ़िलास्फ़ी की समीक्षा करके अण्डबण्ड-पाखण्ड की पोल खोली।
‘जवाहिरे जावेद’ के छपने परः- देश की हत्या होने से पूर्व एक स्वाध्यायशील मुसलमान वकील आर्य सामाजिक साहित्य का बड़ा अध्ययन किया करता था। उस पर महर्षि के वैदिक सिद्धान्त का गहरा प्रभाव पड़ता गया परन्तु एक वैदिक मान्यता उसके गले के नीचे नहीं उतर रही थी। जब जीव व प्रकृति भी अनादि हैं, इन्हें परमात्मा ने उत्पन्न नहीं किया तो फिर परमात्मा इनका स्वामी कैसे हो गया? प्रभु जीव व प्रकृति से बड़ा कैसे हो गया? तीनों ही तो समान आयु के हैं। न कोई बड़ा और न ही छोटा है।
आचार्य चमूपति की मौलिक दार्शनिक कृति ‘जवाहिरे जावेद’ के छपते ही उसने इसे क्रय करके पढ़ा। पुस्तक पढ़कर वह स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के पास आया। महाराज के ऐसे कई मुसलमान प्रेमी भक्त थे। उसने स्वामी जी से कहा कि आर्यसमाज की सब मान्यताएँ मुझे जँचती थीं, अपील करती थीं परन्तु प्रकृति व जीव के अनादि व का सिद्धान्त मैं नहीं समझ पाया था। पं. चमूपति जी की इस पुस्तक को पढ़कर मेरी सब शंकाओं का उत्तर मिल गया।
मित्रो! कहो कि यह किस की दिग्विजय है। इसी के साथ यह बता दें कि दिल्ली के चाँदनी चौक बाजार में किसी गली में एक प्रसिद्ध मुस्लिम मौलाना महबूब अली रहते थे। मूलतः आप चरखी दादरी (हरियाणा) के निवासी थे। आपने भी यह अद्भुत पुस्तक पढ़ी। फिर आपने एक बड़ा जोरदार लेख लिखा। श्री सत्येन्द्र सिंह जी ने हमें उस लेख का हिन्दी अनुवाद करने की प्रेरणा दी। अब समय मिलेगा तो कर देंगे। इस लेख में पण्डित जी के एतद्विषयक तर्कों को पढ़कर मौलाना ने सब मौलवियों से कहा था कि यदि प्रकृति व जीव के अनादित्व को स्वीकार न किया जावे तो कुरान वर्णित अल्लाह के सब नाम निरर्थक सिद्ध होते हैं। मौलाना की यह युक्ति अकाट्य है। कैसे? अल्लाह के कुरान में ९९ नाम हैं यथा न्यायकारी, पालक, मालिक, अन्नधन (रिजक) देने वाला आदि। अल्लाह के यह गुण व नाम भी तो अनादि हैं। जब जीव नहीं थे तो वह किसका पालक, मालिक था? किसे न्याय देता था? प्रकृति उत्पन्न नहीं हुई थी तो जीवों को देता क्या था? तब वह स्रष्टा (खालिक) कैसे था? किससे सृजन करता था? मौलाना की बात का प्रतिवाद कोई नहीं कर सका। अब प्रबुद्ध पाठक निर्णय करें कि यह किस की छाप है? यह वैदिक दर्शन की विजय है या नहीं?
परीक्षा में सफलता के 101 सूत्र : डॉ त्रिलोकीनाथ जी क्षत्रिय
विकास की तुलना में मुफ्त की बिजली-पानी भारी : डॉ. धर्मवीर
दिल्ली के चिरप्रतीक्षित चुनाव हो चुके। अप्रत्याशित चुनाव परिणामों ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। जीतने वालों को भी ऐसी आशा नहीं थी, हारने वालों के मन में ऐसी कल्पना नहीं थी। यह जनता का जादू है। जनता ने चला दिया, सभी ठगे रह गये। चुनाव के बाद खूब विश्लेषण हुए, होते ही हैं। इन विश्लेषकों ने मोदी-केजरीवाल की कमी और विशेषतायें खूब गिनाई। मोदी के लिए कहा गया मोदी प्रधानमन्त्री बनकर जमीन भूल गये हैं, वे आसमान में उड़ रहे हैं। राष्ट्रीय समस्याओं को छोड़ अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं की बात कर रहे हैं। मोदी साथियों को धमाका रहे हैं, धर्मान्धता को बढ़ावा दे रहे हैं, हिन्दू धर्मान्धता के कारण ही मोदी की छवि खराब हुई है। मोदी को अनुचित शब्दावली प्रयोग के कारण जनता की नाराजगी झेलनी पड़ी है। मोदी अपने व्यक्तित्व को बनाने में लगे हैं आदि-आदि। इसके विपरीत केजरीवाल सरल हैं, कर्मठ हैं, सादगी पसन्द हैं, जनता के आदमी जनता की बात करते हैं आदि।
ये सब बातें चर्चा में है तो कम-अधिक इनका अस्तित्व तो होगा ही परन्तु जिन बातों से मनुष्य पर सीधा प्रभाव नहीं पड़ता तब तक मनुष्य अधिक नहीं बदलता। जब कोई बात मनुष्य के निजी हित को हानि पहुँचाती है तब ही वह तीव्र प्रतिक्रिया करता है। दूसरी परिस्थिति है यदि मनुष्य को कहीं अधिक लाभ दिखाई देता है तब भी वह अनायास उधर की ओर झुक जाता है। इस चुनाव में भी ये दो कारण निश्चित रूप से रहे हैं। जिन आलोचकों और विश्लेषकों ने कम ही ध्यान दिया है। मूल रूप से मोदी और केजरीवाल में कुछ भी नहीं बदला है। बदला तो मतदाता है मतदाता को प्रभावित करने वाले कारणों पर विचार करने से ये सब बात स्पष्ट हो जाती हैं।
दिल्ली के चुनाव परिणाम तो न भूतो न भविष्यति है। यदि इससे कुछ अधिक हो सकता है तो केवल तीन स्थान और केजरीवाल को मिल सकते थे उसके बाद तो होने को कुछ बचता ही नहीं। तीन स्थानों की कमी से जीत का महत्व किसी प्रकार कम नहीं होता, यह तो पूरी विधानसभा ही केजरीवाल की है। इस चुनाव परिणाम को देखकर स्वयं केजरीवाल को ही कहना पड़ा इतनी बड़ी सफलता देखकर तो डर लगता है। डर लगना स्वाभाविक है, यह परिणाम आशाओं का अम्बार लेकर आया है जिसे भगवान् भी पूरा नहीं कर सकता फिर केजरीवाल की तो बात ही क्या है।
हम समाज में जब होते हैं तब आदर्शवादी बन जाते हैं जब अकेले होते हैं तो स्वार्थी होते हैं। मनुष्य समूह में होता है तब आदर्श की बात करता है परन्तु जब व्यक्तिगत रूप से उसे किसी बात का निर्णय करना होता है तो वह स्वार्थी बनने में संकोच नहीं करता। मोदी देश की, समूह की, समाज की बात करते रहे, दूसरी ओर केजरीवाल शुद्ध रूप से व्यक्तिगत लाभ की बातें की। चुनाव से एक-दो दिन पहले की बात है, दिल्ली मेट्रो में यात्रा करते हुए सुनने को मिला, चर्चा स्वाभाविक रूप से चुनाव की थी, खड़े एक व्यक्ति ने कहा भाई केजरीवाल आया तो दाल एक सौ बीस से अस्सी रूपये हो जायेगी और पानी फ्री मिलेगा। इस मनुष्य के अन्दर सस्ती दाल और मुफ्त पानी का उत्साह देखते ही बनता था। वहाँ से केजरीवाल अच्छा है या बुरा है। ये नीति देश और समाज के हित में कैसी है? इन सब बातों पर विचार करने का अवसर ही कहाँ था?
मनुष्य कितना भी पढ़-लिख जाये या कितनी भी धोखा खा जाये परन्तु धोखे का अवसर आने पर वह लाभ की इच्छा को पूरा करने के लिए धोखा खाना स्वीकार कर लेता है। केजरीवाल ने व्यक्ति लाभ की पचासों घोषणाएँ कर डाली। इस चुनाव में केजरीवाल ने ५०० नये स्कूल, २० डिग्री कॉलेज, ३००० स्कूलों में खेल मैदान, ५०० नई बसें, डेढ़ लाख सीसी टीवी कैमरे, दो लाख शौचालय, झुग्गी वालों के लिये फ्लैट और आधी दरों पर बिजली-पानी देने का वादा किया है, जिन्हें एक आदमी अपने लिये आवश्यक समझता है। इसीलिए उसे लगता है यही व्यक्ति उसके लिए सबसे उपयुक्त है।
केजरीवाल कहते हैं दिल्ली को पूर्ण राज्य का स्तर दिलायेंगे। अधूरे राज्य की अपनी समस्याये हैं। यह ठीक बात है। आज दिल्ली के निर्णय केन्द्र सरकार गृह मन्त्रालय करता है। पुलिस गृह मन्त्रालय के आधीन है। केजरीवाल ने अपने पिछले कार्यकाल में जिस पुलिस अधिकारी का तबादला करने के लिए मुख्यमन्त्री होकर धरना तक दिया परन्तु उस अधिकारी का वे स्थानान्तरण नहीं करा सके। इसी प्रकार बड़े अधिकारियों की नियुक्ति और उनपर कार्यवाही दिल्ली मुख्यमन्त्री नहीं कर सकता। इन परिस्थितियों में कोई भी मुख्यमन्त्री और उसकी सरकार चाहेगी उसे पूर्ण अधिकार मिले। सब पर उसकी पूरी पकड़ हो। भारत के किसी कोने में ऐसी परिस्थिति हो तो दिल्ली को पूर्ण राज्य का स्तर देना सरल है परन्तु दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाना इस कारण सम्भव नहीं होगा कि दिल्ली में दो सरकारें हैं एक है केन्द्र की सरकार और दूसरी होगी दिल्ली की सरकार, दोनों में से दिल्ली में किसका अधिकार होगा। आज दिल्ली की सरकार केन्द्र पर निर्भर है कल दिल्ली को पूर्ण राज्य का अधिकार दिये जाने पर केन्द्र सरकार को दिल्ली में किरायेदार की स्थिति में रहना पड़ेगा। आज दिल्ली पूरे देश की राजधानी है, केन्द्र सरकार पर पूरे देश का अधिकार है। यह केन्द्र की राजधानी होने से अन्तर्राष्ट्रीय अतिथियों के आने का स्थान है, ऐसी परिस्थिति में उनकी व्यवस्था केन्द्र सरकार करेगी या दिल्ली की सरकार। अन्तिम और महत्वपूर्ण बात है मतभेद होने पर किसका आदेश मान्य होगा। आज पुलिस या प्रशासन केन्द्र के अनुसार चलता है, दिल्ली को पूर्ण राज्य का अधिकार मिलने पर जैसे राज्य के मन्त्री और विधानसभा सदस्य थानेदार पर रोब डालकर कार्य कराते हैं तब पुलिस के काम करने की क्या शैली होगी यह विचारणीय है। हमें इतिहास भी देखना चाहिए जब रूस का विधान हुआ तब ……मास्को में किन्तु गोर्बचोव का केन्द्र सरकार के पास अपना शासन चलाने के लिए कोई स्थान नहीं था। मास्को की सरकार ने संसद के निर्णयों को मानने से इन्कार कर दिया था तथा संसद पर तोप के गोले दागे थे। जहाँ दो समान अधिकारी होंगे वहाँ संघर्ष की सम्भावना तो सदा ही बनी रहेगी। यह परिस्थिति केन्द्र सरकार की जानकारी में न हो यह सम्भव तो नहीं है फिर केजरीवाल दिल्ली को पूर्ण राज्य अधिकार कैसे दिलायेंगे। आज दिल्ली में दिल्ली की सरकार और दिल्ली नगर निगम में विरोधी पार्टी की सरकार है, उसमें प्रशासन और सामान्य जन उलझा होगा यह सोचा जा सकता है। इस प्रकार की सारी समस्याओं के रहते दिल्ली की केजरीवाल सरकार कितनी सफल होती है यह तो समय ही बतायेगा।
जिस प्रकार एक सामान्य व्यक्ति में उसकी दैनिक असुविधाओं को दूर करने की आशा केजरीवाल में दिखाई दी उसी प्रकार मोदी सरकार के आने से जिनको हानि हुई वे भी मोदी को अपना मत क्यों देंगे। उनमें दो वर्ग मुख्य है एक है किसान और दूसरा व्यापारी। ये दोनों ही मोदी सरकार से दुःखी हैं। मोदी के शासन में आने के समय जनता मंहगाई से दुःखी थी और मंहगाई तेजी से बढ़ रही थी। मंहगाई का मुख्य कारण बाजार में सामान की कमी है, देश से खाद्य वस्तुओं का निर्यात बड़ी मात्रा में हो रहा था अतः मंहगाई का बढ़ना निरन्तर जारी था, मोदी सरकार ने बहुत सारी वस्तुओं के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगा दिया जिसके परिणाम स्वरूप वस्तुओं के मूल्य गिर गये। इससे सामान्य जनता को भले ही लाभ हुआ परन्तु व्यापारी को लाभ कैसे होता? व्यापारी को लाभ तो तब होगा जब बाजार में वस्तु मंहगे दाम पर बिके। इसके साथ ही व्यापारी मंहगे दाम पर बेच नहीं सकता तो वह किसान से मंहगे दाम पर खरीदेगा कैसे? इससे किसान को भी अपना माल व्यापारी को सस्ते दाम पर ही बेचना होगा। ऐसे व्यापारी और किसान मोदी का समर्थन कैसे करेंगे? यह विचारणीय होगा।
केजरीवाल का सारा जोर गैर भाजपा सरकार पर केन्द्रित रहा, दिल्ली के चुनाव के कुछ समय पूर्व दिल्ली के गिरजाघरों पर लूटपाट व तोड़-फोड़ की घटनायें होना और चुनाव से दो दिन पहले दिल्ली के चर्च और केजरीवाल के तत्वाधान में धरना प्रदर्शन करना, ठीक उसी समय अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा का भारत में बढ़ती हुई धार्मिक असहिष्णुता के बारे में वक्तव्य देना। यह आकस्मिक संयोग नहीं है। इसी तरह दिल्ली में अल्पसंख्यकों का ३२ सीटों पर प्रभाव है उनका निर्णायक रूप से केजरीवाल के साथ जाना, यह एक सुनियोजित कार्यक्रम की ओर संकेत करते हैं।
दिल्ली के चुनाव में पराजय के बहुत सारे कारण हैं, वहाँ एक सामाजिक कारण भी है दिल्ली में ग्रामीण क्षेत्र के किसानों में जाट मतदाता बड़ी संख्या में हैं परिणामों को देखने से पता लगता है कि वे जहाँ किसान होने से घाटे में हैं अतः मोदी विराधी हैं, वहीं जाट मतदाताओं में एक और प्रतिक्रिया भी देखने में आयी है, वह है हरियाणा का मुख्यमन्त्री गैर जाट को बनाना। राजनीति की दृष्टि से हरियाणा में मोदी को गैरजाट मतदाताओं ने ही विजय दिलाई है, अधिकांश जाट मतदाता चौटाला और हुड्डा में बंटा हुआ था। अतः मत विभाजन से इतर जातियों के मत निर्णायक बन गये। इसीलिए सरकार भी उन्हीं की बनी परन्तु जाट बहुल क्षेत्र में इतर जातियों का वर्चस्व इस समुदाय को सहज स्वीकार्य नहीं हुआ। इसका प्रभाव भी दिल्ली के चुनावों में देखा जा सकता है। इन चुनावों में भाजपा के हार की चर्चा की जा रही है, उनमें एक है पार्टी में चुनाव को लेकर गलत निर्णय लिये। इसमें किसी को भी सन्देह नहीं रहना चाहिए कि दुर्घटना गलत निर्णय का ही परिणाम होता है। मूल्यांकन में भूल कहीं भी हुई हो परिणाम तो गलत आयेगा ही। इसके अतिरिक्त इस चुनाव में ध्यान देने की बात है जो लोग मोदी के नकारात्मक चुनाव की आलोचना कर रहे हैं वे वास्तव में मोदी के नकारात्मक प्रचार के सूत्रधार हैं। मोदी प्रधानमन्त्री बन गये यह तो ठीक है परन्तु जिनको मोदी का प्रधानमन्त्री बने रहना रास नहीं आ रहा, उन समाचार पत्रों, दूरदर्शनतन्त्र संचालकों की तथा समाचार समीक्षकों की कमी नहीं है। उदाहरण के लिए ये समालोचक मोदी की हार के लिए संघ के घर वापसी या धर्मान्तरण की घटनाओं की गला फाड़कर आलोचना करते हैं, वे अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत विरोधी आलोचना की निन्दा करने के स्थान पर मोदी के विरोध में उस कथन को प्रमाण मानने में गौरव का अनुभव करते हैं। कोई हिन्दू ईसाई या मुसलमान बनता है तो उसे धर्मपरिवर्तन का अधिकार वैयक्तिक स्वन्त्रता कहा जाता है, उसके विपरीत यदि कोई ईसाई हिन्दू बन जाये तो इसे साम्प्रदायिक संकीर्णता घोषित कर दिया जाता है। यह दोहरापन इसी कारण है कि इन लोगों की निष्ठा न अपने देश के प्रति है, न अपने धर्म के प्रति, इनकी निष्ठा तो इन्हें सुविधा और साधन उपल ध कराने वालों के प्रति है जो देश और संगठन इस समाचार तन्त्र को बड़ी मात्रा में धन राशि उपल ध कराते हैं, ये समाचार पत्र, चैनल उन्हीं का पक्ष लेते हैं, उन्हीं का गुणगान करते हैं। न तो मोदी ने अपना दृष्टिकोण बदला है और न ही केजरीवाल ने फिर यह जीत-हार का इतना बड़ा अन्तर आया तो कैसे? यह परिस्थिति उसकी व्याख्या करती है जो लोग जिन कारणों से केजरीवाल का विरोध करते थे, तो क्या केजरीवाल बदल गये हैं? केजरीवाल के विचार तो वही है, चाहे विदेशी धन लेने का हो या मुसलमानों के तुष्टिकरण का। बदला तो केवल मतदाता का मन है। यह चुनाव जनता की विजय है, वह जिसको चाहे हरा दे, जिसको चाहे जिता दे परन्तु राष्ट्रीयता की दृष्टि से देखें तो यह जीत तुष्टिकरण को बढ़ावा देने वाली और राष्ट्रीय विचारधारा को दुर्बल करने वाली है। अन्ततोगत्वा दिल्ली की जनता ने जो किया है उसका आदर ही करना चाहिए। वेद ने कहा है जो दिल में है वह कब बदल जाये कहा नहीं जा सकता। दूसरा क्या सोचता है अपने निश्चय को कब बदल देता है निश्चयपूर्वक कहा नहीं जा सकता, अतः कहा गया है-
अन्यस्य चि ामभिसंचरेण्यमुताधीतं विनश्यति।
– धर्मवीर
स्वामी विवेकानन्द का हिन्दुत्व (स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती की दृष्टि में)
स्वामी विवेकानन्द का हिन्दुत्व
(स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती की दृष्टि में)
– नवीन मिश्र
स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती एक वैज्ञानिक संन्यासी थे। वे एक मात्र ऐसे स्वाधीनता सेनानी थे जो वैज्ञानिक के रूप में जेल गए थे। वे दार्शनिक पिता पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय के एक दार्शनिक पुत्र थे। आप एक अच्छे कवि, लेखक एवं उच्चकोटि के गवेषक थे। आपने ईशोपनिषद् एवं श्वेताश्वतर उपनिषदों का हिन्दी में सरल पद्यानुवाद किया तथा वेदों का अंग्रेजी में भाष्य किया। आपकी गणना उन उच्चकोटि के दार्शनिकों में की जाती है जो वैदिक दर्शन एवं दयानन्द दर्शन के अच्छे व्याख्याकार माने जाते हैं। परोपकारी के नवम्बर (द्वितीय) एवं दिसम्बर (प्रथम) २०१४ के सम्पादकीय ‘‘आदर्श संन्यासी- स्वामी विवेकानन्द’’ के देश में धर्मान्तरण, शुद्धि, घर वापसी की जो चर्चा आज हो रही है साथ ही इस सम्बन्ध में स्वामी सत्यप्रकाश जी के ३० वर्ष पूर्व के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। इसी क्रम में स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘अध्यात्म और आस्तिकता’’ के पृष्ठ १३२ से उद्धृत स्वामी जी का लेख पाठकों के विचारार्थ प्रस्तुत है-
‘‘विवेकानन्द का हिन्दुत्व ईसा और ईसाइयत का पोषक है।’’
‘‘महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अवतारवाद और पैगम्बरवाद दोनों का खण्डन किया। वैदिक आस्था के अनुसार हमारे बड़े से बड़े ऋषि भी मनुष्य हैं और मानवता के गौरव हैं, चाहे ये ऋषि गौतम, कपिल, कणाद हों या अग्नि, वायु, आदित्य या अंगिरा। मनुष्य का सीधा सम्बन्ध परमात्मा से है मनुष्य और परमात्मा के बीच कोई बिचौलिया नहीं हो सकता- न राम, न कृष्ण, न बुद्ध, न चैतन्य महाप्रभु, न रामकृष्ण परमहंस, न हजरत मुहम्मद, न महात्मा ईसा मूसा या न कोई अन्य। पैगम्बरवाद और अवतारवाद ने मानव जाति को विघटित करके सम्प्रदायवाद की नींव डाली।’’
हमारे आधुनिक युग के चिन्तकों में स्वामी विवेकानन्द का स्थान ऊँचा है। उन्होंने अमेरिका जाकर भारत की मान मर्यादा की रक्षा में अच्छा योग दिया। वे रामकृष्ण परमहंस के अद्वितीय शिष्य थे। हमें यहाँ उनकी फिलॉसफी की आलोचना नहीं करनी है। सबकी अपनी-अपनी विचारधारा होती है। अमेरिका और यूरोप से लौटकर आये तो रूढ़िवादी हिन्दुओं ने उनकी आलोचना भी की थी। इधर कुछ दिनों से भारत में नयी लहर का जागरण हुआ-यह लहर महाराष्ट्र के प्रतिभाशाली व्यक्ति श्री हेडगेवार जी की कल्पना का परिणाम था। जो मुसलमान, ईसाई, पारसी नहीं हैं, उन भारतीयों का ‘‘हिन्दू’’ नाम पर संगठन। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना हुई। राष्ट्रीय जागरण की दृष्टि से गुरु गोलवलकर जी के समय में संघ का रू प निखरा और संघ गौरवान्वित हुआ, पर यह सांस्कृतिक संस्था धीरे-धीरे रूढ़िवादियों की पोषक बन गयी और राष्ट्रीय प्रवित्तियों की विरोधी। यह राजनीतिक दल बन गयी, उदार सामाजिक दलों और राष्ट्रीय प्रवित्तियों के विरोध में। देश के विभाजन की विपदा ने इस आन्दोलन को प्रश्रय दिया, जो स्वाभाविक था। हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य की पराकाष्ठा का परिचय १९४७ के आसपास हुआ। ऐसी परिस्थिति में गाँधीवादी काँग्रेस बदनाम हुई और साम्प्रदायिक प्रवित्तियों को पोषण मिला। आर्य समाज ऐसा संघटन भी संयम खो बैठा और इसके अधिकांश सदस्य (जिसमें दिल्ली, हरियाणा, पंजाब के विशेष रूप से थे) स्वभावतः हिन्दूवादी आर्य समाजी बन गए। जनसंघ की स्थापना हुई जिसकी पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ था। फिर विश्व हिन्दू परिषद् बनी। पिछले दिनों का यह छोटा-सा इतिवृत्त है।
हिन्दूवादियों ने विवेकानन्द का नाम खोज निकाला और उन्हें अपनी गतिविधियों में ऊँचा स्थान दिया। पिछले १००० वर्ष से भारतीयों के बीच मुसलमानों का कार्य आरम्भ हुआ। सन् ९०० से लेकर १९०० के बीच दस करोड़ भारतीय मुसलमान बन गये अर्थात् प्रत्येक १०० वर्ष में एक करोड़ व्यक्ति मुसलमान बनते गये अर्थात् प्रतिवर्ष १ लाख भारतीय मुसलमान बन रहे थे। इस धर्म परिवर्तन का आभास न किसी हिन्दू राजा को हुआ, न हिन्दू नेता को। भारतीय जनता ने अपने समाज के संघटन की समस्या पर इस दृष्टि से कभी सूक्ष्मता से विचार नहीं किया था। पण्डितों, विद्वानों, मन्दिरों के पुजारियों के सामने यह समस्या राष्ट्रीय दृष्टि से प्रस्तुत ही नहीं हुई।
स्मरण रखिये कि पिछले १००० वर्ष के इतिहास में महर्षि दयानन्द अकेले ऐेसे व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने इस समस्या पर विचार किया। उन्होंने दो समाधान बताए- भारतीय समाज सामाजिक कुरीतियों से आक्रान्त हो गया है- समाज का फिर से परिशोध आवश्यक है। भारतीय सम्प्रदायों के कतिपय कलङ्क हैं, जिन्हें दूर न किया गया तो यहाँ की जनता मुसलमान तो बनती ही रही है, आगे तेजी से ईसाई भी बनेगी। हमारे समाज के कतिपय कलङ्क ये थे-
१. मूर्तिपूजा और अवतारवाद।
२. जन्मना जाति-पाँतवाद।
३. अस्पृश्यता या छूआछूतवाद।
४. परमस्वार्थी और भोगी महन्तों, पुजारियों, शंकराचार्यों की गद्दियों का जनता पर आतंक।
५. जन्मपत्रियों, फलित ज्योतिष, अन्धविश्वासों, तीर्थों और पाखण्डों का भोलीभाली ही नहीं शिक्षित जनता पर भी कुप्रभाव। राष्ट्र से इन कलङ्कों को दूर न किया जायेगा, तो विदशी सम्प्रदायों का आतंक इस देश पर रहेगा ही।
दूसरा समाधान महर्षि दयानन्द ने यह प्रस्तुत किया कि जो भारतीय जनता मुसलमान या ईसाई हो गयी है उसे शुद्ध करके वैदिक आर्य बनाओ। केवल इतना ही नहीं बल्कि मानवता की दृष्टि से अन्य देशों के ईसाई, मुसलमान, बौद्ध, जैनी सबसे कहो कि असत्य और अज्ञान का परित्याग करके विद्या और सत्य को अपनाओ और विश्व बन्धुत्व की संस्थापना करो।
विवेकानन्द के अनेक विचार उदात्त और प्रशस्त थे, पर वे अवतारवाद से अपने आपको मुक्त न कर पाये और न भारतीयों को मुसलमान, ईसाई बनने से रोक पाये। यह स्मरण रखिये कि यदि महर्षि दयानन्द और आर्य समाज न होता तो विषुवत रेखा के दक्षिण भाग के द्वीप समूह में कोई भी भारतीय ईसाई होने से बचा न रहता। विवेकानन्द के सामने भारतीयों का ईसाई हो जाना कोई समस्या न थी।
आज देश के अनेक अंचलों में विवेकानन्द के प्रिय देश अमेरिका के षड़यन्त्र से भारतीयों को तेजी से ईसाई बनाया जा रहा है। स्मरण रखिये कि विवेकानन्द के विचार भारतीयों को ईसाई होने से रोक नहीं सकते, प्रत्युत मैं तो यही कहूँगा कि यदि विवेकानन्द की विचारधारा रही तो भारतीयों का ईसाई हो जाना बुरा नहीं माना जायेगा, श्रेयस्कर ही होगा। विवेकानन्द के निम्न श दों पर विचार करें- (दशम् खण्ड, पृ. ४०-४१)
मनुष्य और ईसा में अन्तरः– अभिव्यक्त प्राणियों में बहुत अन्तर होता है। अभिव्यक्त प्राणि के रूप में तुम ईसा कभी नहीं हो सकते। ब्रह्म, ईश्वर और मनुष्य दोनों का उपादान है। …… ईश्वर अनन्त स्वामी है और हम शाश्वत सेवक हैं, स्वामी विवेकानन्द के विचार से ईसा ईश्वर है और हम और आप साधारण व्यक्ति हैं। हम सेवक और वह स्वामी है।
इसके आगे स्वामी विवेकानन्द इस विषय को और स्पष्ट करते हैं, ‘‘यह मेरी अपनी कल्पना है कि वही बुद्ध ईसा हुए। बुद्ध ने भविष्यवाणी की थी, मैं पाँच सौ वर्षों में पुनः आऊँगा और पाँच सौ वर्ष बाद ईसा आये। समस्त मानव प्रकृति की यह दो ज्योतियाँ हैं। दो मनुष्य हुए हैं बुद्ध और ईसा। यह दो विराट थे। महान् दिग्गज व्यक्ति व दो ईश्वर समस्त संसार को आपस में बाँटे हुए हैं। संसार में जहाँ कही भी किञ्चित ज्ञान है, लोग या तो बुद्ध अथवा ईसा के सामने सिर झुकाते हैं। उनके सदृश और अधिक व्यक्तियों का उत्पन्न होना कठिन है, पर मुझे आशा है कि वे आयेंगे। पाँच सौ वर्ष बाद मुहम्मद आये, पाँच सौ वर्ष बाद प्रोटेस्टेण्ट लहर लेकर लूथर आये और अब पाँच सौ वर्ष फिर हो गए हैं। कुछ हजार वर्षों में ईसा और बुद्ध जैसे व्यक्तियों का जन्म लेना एक बड़ी बात है। क्या ऐसे दो पर्याप्त नहीं हैं? ईसा और बुद्ध ईश्वर थे, दूसरे सब पैगम्बर थे।’’
कहा जाता है कि शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म को भारत से बाहर निकाल दिया और आस्तिक धर्म की पुनः स्थापना की। महात्मा बुद्ध (अर्थात् वह बुद्ध जो ईश्वर था) को भी मानिये और उनके धर्म को देश से बाहर निकाल देने वाले शंकराचार्य को भी मानिये, यह कैसे हो सकता है? विश्व हिन्दू परिषद् वाले स्वामी शंकराचार्य का भारत में गुणगान इसलिए करते हैं कि उन्होंने भारत को बुद्ध के प्रभाव से बचाया, वरना ये ही विश्व हिन्दू परिषद् वाले सनातन धर्म स्वयं सेवक संघ की स्थापना करके बुद्ध की मूर्तियों के सामने नत मस्तक होते। यह हिन्दुत्व की विडम्बना है। यदि स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि में बुद्ध और ईसा दोनों ईश्वर हैं तो भारत में ईसाई धर्म के प्रवेश में आप क्यों आपत्ति करते हैं। पूर्वोत्तर भारत में ईसाइयों का जो प्रवेश हो रहा है, उसका आप स्वागत कीजिये। यदि विवेकानन्द को तुमने ‘‘हिन्दुत्व’’ का प्रचारक माना है तो तुम्हें धर्म परिवर्तन करके किसी का ईसाई बनना किसी को ईसाई बनाना क्यों बुरा लगता है?
मैं स्पष्ट कहना चाहता हूँ कि विवेकानन्दी हिन्दू (जिन्हें बुद्ध और ईसा दोनों को ईश्वर मानना चाहिए) देश को ईसाई होने से नहीं बचा सकते। भारतवासी ईसाई हो जाएँ, बौद्ध हो जायें या मुसलमान हो जाएँ तो उन्हें आपत्ति क्यों? ईसा और बुद्ध साक्षात् ईश्वर और हजरत मुहम्मद भी पैगम्बर!
महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज की स्थिति स्पष्ट है। हजरत मुहम्मद भी मनुष्य थे, ईसा भी मनुष्य थे, राम और कृष्ण भी मनुष्य थे। परमात्मा न अवतार लेता है न वह ऐसा पैगम्बर भेजता है, जिसका नाम ईश्वर के साथ जोड़ा जाए और जिस पर ईमान लाये बिना स्वर्ग प्राप्त न हो।
भारत को ईसाइयों से भी बचाइये और मुसलमानों से भी बचाइये जब तक कि यह ईसा को मसीहा और मुहम्मद साहब को चमत्कार दिखाने वाला पैगम्बर मानते हैं।
– आर्यसमाज, अजमेर