आप कैसे मिशनरी थे!

आप कैसे मिशनरी थे!

जब स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी उपदेशक विद्यालय, लाहौर के आचार्य थे तो शनिवार के दिन कहीं बाहर किसी समाज में प्रचारार्थ चले जाया करते थे। एक दिन वे रेलवे की टिकटवाली खिड़की पर

जाकर खड़े हो गये और कुछ पैसे आगे करके बाबू से कहा- टिकट दीजिए।

उसने कहा-कहाँ का टिकट दूँ? पैसे 4-6 आने ही पास थे। आपने कहा-इतने पैसे में जहाँ की टिकट बनती हो बना दो। बाबू ने आश्चर्य से फिर पूछा आपको जाना कहाँ है? आपने कहा प्रचार

ही करना है, इतने पैसे में जहाँ भी पहुँच जाऊँगा, प्रचार कर लूँगा। ऐसी लगनवाले अद्वितीय मिशनरी थे हमारे पूज्य स्वामीजी।

HADEES: FORNICATION AND ADULTERY JOINED

FORNICATION AND ADULTERY JOINED

In a case of zinA in which one party is married and the other party unmarried, the former is punished for adultery and the latter for fornication.  AbU Huraira narrates one such case involving a man and woman belonging to desert tribes.  A young bachelor found employment as a servant in a certain household and committed zinA with the master�s wife.  His father gave one hundred goats and a slave-girl in ransom, but when the case was brought before Muhammad, he judged it �according to the Book of Allah.� He ordered the slave-girl and the goats to be returned and punished the young man for fornication �with one hundred lashes and exile for one year.� The woman was punished for adultery.  �Allah�s Messenger made pronouncement about her and she was stoned to death� (4029).

author : ram swarup

हिन्दुहरुको महा-कलंक: बलि प्रथा…

ओ३म्..

बलि प्रथा:

Untitled

हिन्दुहरु जसले आँफूलाई सनातन वैदिक धर्मि भन्न रुचाउँछन्, त्यसै समाजको ठूलो कलंकको रुपमा भनौं या जंगलीपन र निर्दयिताको पराकाष्ठा हो यो बलि प्रथा।

पशु-पंक्षीको बलि देवी-देवताहरुलाई प्रसन्न गर्नको लागि प्रयोग गर्ने गरिन्छ। बलि प्रथा अंतर्गत बोका, कुखुरा, हाँस, राँगा आदि काटिने प्रचलन छ। प्रश्न उठ्न सक्छ कि के बलि प्रथा सनातन वैदिक धर्मको कुनै भाग हो?

या केवल जिब्रोको स्वाद मेटाउनको लागि सुरु गरिएको कुसंस्कार हो? कुनै पनि वैदिक साहित्यमा बलि प्रथाको कहीं कतै पनि गन्ध पाइन्न।

”मा नो गोषु मा नो अश्वेसु रीरिष:।”- ऋग्वेद १/११४/८
अर्थ: हाम्रा गौ र घोडाहरुलाई न मार।

समस्त वैदिक विद्वानहरुको मान्यता छ कि हिन्दु समाजमा धर्मको नाउमा लोक परंपराको धारा पनि जोडिदै गयो र त्यसलाई सनातन धर्मको नै एक भाग मान्न थालियो। जस्तै बरको वृक्षबाट असंख्य लहराहरू निस्केर आफ्नो अलग ‍अस्तित्व बनाउन सक्षम हुन्छन् तर ति लहराहरू वृक्ष बन्न सक्दैनन्। त्यसैगरी सनातन वैदिक आर्य धर्मको छत्रछायामा अन्य परम्पराहरुले पनि जरो गाडेका छन्। यसलाई कसैले पनि कहिल्यै रोक्ने प्रयास गरेन।

बलि प्रथाको प्रचलन हिन्दुको शाक्त र तान्त्रिक सम्प्रदायबाट सुरु भएर अन्य सम्प्रदायमा पनि मौलाएको छ तर यसको कुनै धार्मिक आधार भने छैन। अनेकौं समाजमा केहि मनोकामना पूर्तिको लागि भाकल गर्ने र पछी बलि चढाउने प्रचलन छ। कसैको जन्म या बिवाह जस्तो खुशीको मौकामा पनि बलि दिने प्रचलन छ। यहाँ सम्म कि एमाले दलका नेता मनमोहन अधिकारि प्रधान मन्त्रिको पद ग्रहण गर्दा पनि कालो बोको बलि चढाइएको थियो। जो कि एकदमै अनुचित हो। आज पनि नव दुर्गाको पंचमी र अष्टमीको तिथिमा लाखौं संख्यामा ति निर्दोष तथा मूक पशु-पंक्षीहरु देवीको नाउमा काटिन्छन्। वेदले यस्तो कुनै पनि प्रकारको कुकृत्यलाई अनुमति दिन्न। यो धार्मिक हैन, अधार्मिक छ। हिन्दु बर्बरताको नमुना हो। असभ्य तथा जंगलीपनको परिचायक हो। यो दुत्कार्य र निन्दनीय कार्य हो..!

वेदमा समस्त प्राणीलाई रक्षा गर्ने आदेश दिइएको छ र जसले तिनलाई मार्छ, त्यसलाई पनि मार्ने आदेश दिन्छ-

”इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम्।
त्वष्टु: प्रजानां प्रथमं जानिन्नमग्ने मा हिश्सी परमे व्योम।।” (येजुर्वेद: १३/५०)

अर्थ: ”ऊन जस्ता रौँ गरेका भेडा-बाख्रा, ऊट आदि चौपायहरु र पक्षिहरु आदि दुई खुट्टे प्राणीलाई नमार।”

” न कि देवा इनीमसि न क्या योपयामसि। मन्त्रश्रुत्यं चरामसि।।’- सामवेद: २/७
अर्थ: ”हे देवहरु हो! हामि हिंसा गर्दैनौं र यस्तो अनुष्ठान पनि गर्दैनौं, वेद मंत्रको आदेशानुसार नै आचरण गर्दछौं।”

वेदमा यस्ता असंख्य मंत्र र ऋचाहरु छन् जसबाट यो सिद्ध गर्न सकिन्छ कि सनातन वैदिक धर्ममा बलि प्रथा निषेध छ र यो सनातन धर्मसंग सम्बन्धित छैन। जसले बलि प्रथाको समर्थन गर्दछन तिनले धर्मविरुद्ध दानवी आचरण गर्दछन। यस्ता व्यक्तिको लागि दण्ड पनि नियत छ। ईश्वर न्यायाकारी छ, मृत्यु पछी त्यसले उचित दण्ड अवश्य पाउँछ।

पशुबलिको यो प्रथा कहिले र कसरि प्रारम्भ भयो, भन्न कठिन छ। कसैले तर्क दिन्छन कि वैदिक कालमा यज्ञमा पशुहरुको बलि दिइन्थ्यो। यस्तो तर्क दिनेहरु ति हुन् जसले वैदिक ऋचाहरुको गलत अर्थ निकालेर भ्रम सिर्जना गर्दै आफ्नो स्वार्थ सिद्ध गर्दछन। वेदमा पाँच प्रकारका यज्ञको वर्णन पाइन्छ। अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमासौ, चातुर्मस्यानि, पशुयाग र सोमयज्ञ। यी सबमा कहीं कतै पशु बलिको गन्ध मात्र पनि छैन। अस्तु..

नमस्ते.!

-प्रेम आर्य

(दोहा, कतार बाट)

सच्ची रामायण का खंडन भाग-२१

*सच्ची रामायण का खंडन भाग-२१*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों । *श्रीराम पर किये आक्षेपों के खंडन में* आगे बढ़ते हैं।पेरियार आगे लिखते हैं:-
*आक्षेप-१५-* वनवास में जब कभी राम को निकट भविष्य के दुख पूर्ण समय से सामना करना पड़ा तो उसने यही कहा कि अब कैकेई की इच्छा पूर्ण होगी अब वह संतुष्ट हुई होगी।
*आक्षेप-१६-* राम ने लक्ष्मण से वनवास में कहा था कि क्योंकि हमारे बाप वृद्धत्व निर्बल हो गए हैं और हम लोग यहां आ गए हैं अब भारत अपनी स्त्री सहित बिना किसी विरोध के अयोध्या पर शासन कर रहा होगा ।इस बात को उसकी राजगद्दी और भारत के प्रति ईर्ष्या की स्वाभाविक तथा निराधार अभिलाषा प्रकट होती है।(अयोध्याकांड ५३)
*आक्षेप-१७-* जब कैकेयी ने राम से कहा -,”हे राम!राजा ने मुझे तुम्हारे पास तुम्हें यह बताने के लिए भेजा है कि भरत को राजगद्दी मिलेगी और तुम्हें वनवास ।तब राम ने उससे कहा कि ,”राजा ने मुझसे यह कभी नहीं कहा कि मैं भरत को राजगद्दी दूंगा।” (अयोध्या कांड 19 अध्याय)
*आक्षेप-१८-* उसने अपने पिता को मूर्ख और पागल कहा था। (अ.कां। ५३ अ.)
आक्षेप 16 और 17 के स्पष्टीकरण में ललई सिंह यादव ने प्रमाण दिया  है-
अयोध्याकांड ५३/१-२ “सौभाग्यवती स्त्री मांडवी का पति और रानी केकेई का पुत्र भारत की सूखी है क्योंकि वह सम्राट की तरह कौशल प्रदेश को भोगेगा।पिताजी वृद्ध है और मैं अकेला वन को चला आया हूं अतएव राज्य का सारा सुख अकेले भरत को मिलेगा।”
फिर इसी सर्ग के ५३/८-१७ का प्रमाण देकर राम ने दशरथ को कामी,मूर्ख आदि कहने का वर्णन है।
*समीक्षा-*  निराधार आरोप लगाने की कला में पेरियार जी अभ्यस्त हैं।इनके आक्षेपों की भला क्या समीक्षा करूं?
१:- यह ठीक है कि वनवास में श्रीराम का समय दुख पूर्ण था
 और उनका यह कहना कि अब कैकेई की इच्छा पूर्ण हो गई -इसमें गलत क्या है क्या भा़रत को राज्य और राम को वनवास मिलने से कैकेयी की इच्छा पूरी नहीं हुई थी?
२:- आक्षेप १६ की पुष्टि के लिये ललई सिंह अयोध्याकांड ५३/१-२ का प्रमाण देते हैं।वैसे पुस्तक में प्रमाण भी मुद्रणदोष सहित दिये हैं। १-२ की जगह १-१२ लिखा है,जो चिंतनीय है।
तो इसका उत्तर यह है कि इस सर्ग में श्रीराम ने लक्ष्मण को अयोध्या वापस भेजने और उनकी परीक्षा लेने के लिये ये बातें कहीं थीं।उनके मन में द्वेष या ईर्ष्या नहीं थी, क्योंकि वे तो अपने भाइयों के लिये ही राज्य चाहते थे,न कि खुद के सुखोपभोग के लिये। श्रीराम जब वनवास से लौट रहे थे,तब उन्होंने श्रीहनुमानजी से कहा था कि-“यदि १४ वर्षों तक राज्यसंचालन करने के बाद भी यदि भरत और आगे भी राजा बने रहना चाहते हैं तो,यही ठीक रहेगा।”
सङ्गत्या भरतः श्रीमान् राज्येनार्थी स्वयं भवेत् ।
प्रशास्तु वसुधां कृत्स्नां अखिलां रघुनन्दनः ॥ १७ ॥
“यदि कैकेयीकी संगति और चिरकालतक संसर्ग होनेसे श्रीमान्‌ भरत स्वतः राज्य प्राप्त करने की इच्छा करते हैं तो रघुनंदन भरत खुशी खुशी समस्त भूमण्डलपर  राज्य राज्य कर सकते हैं।”(मुझे ये राज्य लेने की इच्छा नहीं। ऐसी स्थितीमें हम अन्यत्र कहीं जाकर तपस्वी जीवन व्यतीत करेंगे।) ॥१७॥(युद्ध कांड सर्ग १२५)
देखा !श्रीराम का कितना उज्जवल चरित्र था!वे कितने निर्लोभ,त्यागी और तपस्वी थे! जिन श्रीराम का ऐसा महान चरित्र हो वे कभी अपने भ्राता से ईर्ष्या और द्वेष नहीं कर सकते । वे तो भरत के लिए राज्य त्यागने के लिए भी तैयार हैं। इससे सिद्ध है कि आपके दिए प्रमाण में श्री राम के मूल विचार व्यक्त नहीं होते वे विचार केवल लक्ष्मण की परीक्षा और उन्हें अयोध्या लौट आने के लिए ही थे।
३:- आपने ५३/८-१७ का पता लिखकर श्रीराम द्वारा दशरथ को मूर्ख आदि कहने का उल्लेख किया है।इसका स्पष्टीकरण भी २ के जैसा ही है । वैसे यह श्रीराम के मूलविचार नहीं थे,ये तो लक्ष्मण के लिये कहे थे। इसमें कुछ गलत नहीं है कि दशरथ काम के वशीभूत होकर कैकेयी के वरदानों के आगे विवश हो गये।यह भी ठीक है कि उस समय उनकी बुद्धि भ्रमित हो गई थी।कुछ समय के लिये मौर्ख्य ने उनकी बुद्धि को घेर लिया था।इसमें श्रीराम अपने पिता को अपशब्द नहीं कह रहे हैं , केवल वस्तुस्थिति प्रकट कर रहे हैं।ऐसा करना गाली देना नहीं होता।
*आक्षेप-१९-*उसने अपने पिता से प्रार्थना की थी,कि “जब तक मैं वनवास से वापस न लौट आऊं – तब तक तुम अयोध्या का राज्य करते रहो और किसी को राजगद्दी पर न बैठने दो।” इस प्रकार उसने भरत के सिंहासनारूढ होने से अड़चन लगा दी।”(अयोध्याकांड ३४)
*समीक्षा-* झूठ झूठ झूठ!ऐसा सफेद झूठ बोलने में भी शर्म नहीं आई? क्या पता था कि कोई  स्वाध्यायी रामयण पढ़कर आपके झूठ की धज्जियां उड़ा सकता है?  हमें समझ नहीं आता कि इस झूठ के पुलिंदे को हाईकोर्ट के न्यायाधीशों ने निर्दोष कैसे घोषित कर दिया? आश्चर्य है!
पेरियार साहब!आपके दिये सर्ग  ३४ में कहीं नहीं लिखा कि रामने दशरथ से कहा कि -“मेरे वन से वापस आने तक किसी को गद्दी पर न बैठने दो” और इस तरह भरत के सिंहासन पाने में अड़चन लगा दी।
उल्टा इस सर्ग में तो श्रीराम स्वयं भरत को राज्यगद्दी देने का अनुमोगन करते हैं।लीजिये,प्रमाणों का अवलोकन करें:-
भवान् वर्षसहस्राय पृथिव्या नृपते पतिः ।
अहं त्वरण्ये वत्स्यामि न मे राज्यस्य काङ्‌क्षिता ॥ २८ ॥
“महाराज ! आप सहस्रों(अनेक) वर्षों तक इस पृथ्वीके अधिपति होकर रहें। मैं तो अब वनामें ही निवास करूंगा। मुझे राज्य लेनेकी इच्छा नहीं।॥२८॥
नव पञ्च च वर्षाणि वनवासे विहृत्य ते ।
पुनः पादौ ग्रहीष्यामि प्रतिज्ञान्ते नराधिप ॥ २९ ॥
“नरेश्वर ! चौदह वर्षों तक वनमें घूम फिरकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करके मैं पुनःआपके युगल चरणों को मस्तक नवाऊंगा ॥२९॥(अयोध्याकांड सर्ग ३४)
हम डबल चैलेंज देकर कहते हैं कि रामायण में रामजी ने कहीं नहीं कहा कि-” मेरे आने तक किसी को गद्दी पर बैठने मत देना।”अपने कहे शब्द निकालकर दिखावें अन्यथा चुल्लू भर पानी में डूब मरें।
आपके चेले ललई ने भी इसका कोई स्पष्टीकरण न दिया।होगा तब देंगे न!
 इस सर्ग में इसके विपरीत श्रीराम भरत को गद्दी देने की बात करते हैं:-
मा विमर्शो वसुमती भरताय प्रदीयताम् ॥ ४४ ॥
“आपके मन में कुछ भी अन्यथा विचार आना उपयोगी नहीं। आप  सारी पृथ्वी भरतको दे दीजिये।”
अब क्या ख्याल है महाशय!कहिये,कि आपने झूठा आक्षेप लगाकर श्रीराम कीचड़ उछालने का दुष्प्रयत्न किया जो सर्ग खोलते ही ध्वस्त हो गया।
*आक्षेप-२०-*राम ने यह कहकर सत्यता व न्याय का गला घोंटा,कि,”यदि मुझे क्रोध आया तो मैं स्वयं अपने शत्रुओं को मारकर या कुचलकर स्वयं राजा बन सकता हूं-किंतु मैं यह सोचकर रुक जाता हूं,कि प्रजा मुझसे घृणा करने लगेगी।”(अयोध्याकांड ५३)
*समीक्षा-*इस सर्ग के २५,२६
श्लोक में श्रीराम ने कहा था:-
एको ह्यहमयोध्यां च पृथिवीं चापि लक्ष्मण ।
तरेयमिषुभिः क्रुद्धो ननु वीर्यमकारणम् ॥ २५ ॥
’लक्ष्मण !यदि मैं कुपित हुआ तो अपने बाणों से अकेला अयोध्यापुरी तथा समस्त भूमण्डल पर निष्कण्टक बनकर आपने अधिकारमें ला सकता हूं, परंतु पारलौकिक हितसाधनमें बल पराक्रम कारण  नहीं होता। (इसलिये मैं ऐसा नहीं करता।) ॥२५॥
अधर्मभयभीतश्च परलोकस्य चानघ ।
तेन लक्ष्मण नाद्याहमात्मानमभिषेचये ॥ २६ ॥
’निष्पाप लक्ष्मण ! मैं अधर्म और परलोकके भयसे रह जाता हूं, इसलिये आज अयोध्या के राज्यापर अपना अभिषेक नहीं कराता’॥२६।।
‘शत्रुओं को मारकर कुचल कर राजा कर सकता हूं’- ये आपके घर का आविष्कार है जिससे आप श्री राम के मुख से भरत को उनका शत्रु सिद्ध कर सकें। परंतु आप की चाल यहां नहीं चलेगी महोदय 53 वें सर्ग में  श्रीराम ने लक्ष्मण से वे बातें कही हैं जो उनको वापस आयोध्या भेजने तथा परीक्षा लेने के लिए कही है। यह श्रीराम के मूल विचार नहीं है अतः इस पर आक्षेप करना ठीक नहीं वैसे अवलोकन किया जाए तो इन श्लोकों में कोई दोष नहीं है यह बात बिल्कुल सत्य है कि श्री राम पूरी त्रिलोकी को अपने बाणों के बल से जीत सकते थे। परंतु धर्म और परलोक के लिए उन्होंने ऐसा प्रयास नहीं किया। इस पर भला क्या आरोप लगाया जा सकता है ?यदि श्रीराम ने स्वयं बानो द्वारा बलपूर्वक अपना राज्य प्राप्त किया होता तब उन पर दोष लग सकता था ,परंतु कहने मात्र से दोष क्यों लगेगा? यह तो वस्तुस्थिति है ।उन्होंने तो देवताओं को पराजित करने वाले रावण और कुंभकर्ण तक का मर्दन किया ऐसे वीर योद्धा के लिए मात्र अयोध्या की गद्दी प्राप्त करना हंसी खेल है ।परंतु श्रीराम धर्म की मर्यादा का पालन करते हुए भी यह अनुचित प्रयास नहीं करना चाहते थे ,इसीलिए तो श्री राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता हैं।अतः उन्होंने ऐसा कहकर सत्य और न्याय का गला नहीं घोंटा। हां,मूलनिवासियों के तथाकथित पूज्य आदर्श रावण ने पति और देवर अनुपस्थिति में मां जानकी सीता को कपट संन्यासी बनकर उनका हरण कर लिया।रावण के इस कृत्य पर क्या कहना है आपका?
*आक्षेप-२१-* उसने अपनी स्त्री सीता से कहा कि  -“तुम बिना रुचि जाने भरत के लिए जो भोजन बनाती हो,वह आगे चलकर हमारे लिये लाभदायक रहेगा।” (अयोध्याकांड २६)
*समीक्षा-* हे परमेश्वर! देख,ये लोग किस तरह झूठे और निराधार आरोप लगाकर भगवान श्रीराम को कलंकित करने का दुष्प्रयास कर रहे हैं।क्या इन पर तेरा दंड नहीं चलेगा? अवश्य चलेगा और धूर्त लोग भागते दिखाई देंगे।
पेरियार साहब!लगता है जानबूझकर  झूठे आरोप लगाते हैं ताकि पुस्तक का आकार बढ़ जाए। परंतु आपके दिए हुए सर्ग में श्रीराम ने मां सीता से ऐसी कोई भी बात नहीं कही। आप यह सिद्ध करना चाहते हैं कि मां सीता भरत के लिये भोजन में उनकी रुचि के विरुद्ध सामग्रियां बनाती थीं। एक तो भगवती सीता श्री राम की पत्नी थीं ,कोई दासी नहीं थी जो भोजन बनाया करती थीं। राजा महाराजाओं के महलों में खानसामें और बावर्ची रहते हैं जो 56 प्रकार के भोग बनाना जानते हैं ।क्या अयोध्या के सभी बावर्चियों ने आत्महत्या कर ली थी जो मां सीता को भरत के लिए भोजन बनाना पड़े!एक तो सीता भोजन बनाए वह भी भरत के लिए उसकी रुचि के विरुद्ध, परंतु अपने पति के लिए भोजन ना बनाएं।वाह वाह!! क्या कहने!कम से कम झूठ तो ढंग से बोला करें । भला इस प्रकार की बुद्धि विरुद्ध वाद को कौन बुद्धिमान व्यक्ति मानेगा? हम डबल चैलेंज के साथ कहते हैं कि रामायण में मांसीता के मुख से कहे जाने वाले ऐसे शब्दों को हू-ब-हू निकाल कर दिखावें वरना चुल्लू भर पानी मिथ्या भाषण का प्रायश्चित करें।
सर्ग २३ में तो श्रीराम मां सीता को अपनी अनुपस्थिति में भरत के प्रति उचित व्यवहार करने का उपदेश देते हैं।
इस सर्ग में श्रीराम ने सीता जी से भरत के विषय में निम्नलिखित बातें कहीं उनका संक्षिप्त उल्लेख करते हैं:-
१:- श्लोक २५- भरत के सामने मेरे गुणों की प्रशंसा ना करना।
२:- श्लोक २६-भरतके समक्ष सखियों के साथ भी बारंबार मेरी चर्चा ना करना।
३:- श्लोक २७:- राजा ने उन्हें सदा के लिए युवराज पद दे दिया है अब वही राजा होंगे।
४:-श्लोक ३३:- भारत और शत्रुघ्न मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय है अतः तुम्हें इन दोनों को विशेष कहा आपने भाई और पुत्र के समान देखना और मानना चाहिये।
५:-श्लोक ३४- भरत की इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करना क्योंकि इस समय वह मेरे देश और कुल के राजा हैं।
६:-श्लोक ३७:- तुम भरत के अनुकूल बर्ताव करती हुई धर्म एवं सत्यव्रत में तत्पर रहकर यहां निवास करो।
कहिए महाराज! यहां पर आप की कही हुई कपोलकल्पित बातें कहां हैं?आप कभी भी श्रीराम को भरत का शत्रु सिद्ध नहीं कर सकते ।वस्तुतः तीनों भाई श्रीराम के लिए प्राणों के समान प्रिय थे।इसलिए अपने अभाव में वह मां जानकी को भरत के अनुकूल बरतने का उपदेश करते हैं ।साथ ही भरत और शत्रुघ्न को भाई और पुत्र के समान मानने का आदेश देते हैं ।यहां न तो मां सीता के भरत के लिए भोजन बनाने का उल्लेख है और न ही उसे भरत की रुचि के विरुद्ध बनाने का।
कुल मिलाकर आपका किया हुआ आक्षेप रामायण में कहीं नहीं सिद्ध होता।आपको रामायण के नाम से झूठी बातें लिखते हुए शर्म आनी चाहिए। झूठे पर परमात्मा के धिक्कार है!
………क्रमशः ।
मित्रों !पूरा लेख पढ़ने के लिए धन्यवाद। कृपया इसे अधिक से अधिक शेयर करें। अगले लेख में श्रीराम पर किए गए अगले सात आक्षेपों का खंडन किया जाएगा।
।।मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र की जय।।
।।योगेश्वर भगवान कृष्ण चंद्र की जय।।
।।ओ३म्।।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

हदीस : मत-त्याग और विद्रोह के लिए मृत्युदंड

मत-त्याग और विद्रोह के लिए मृत्युदंड

कोई भी व्यक्ति इस्लाम कबूल करने के लिए पूरी तरह आजाद है। लेकिन उसे इस्लाम को छोड़ने की आजादी नहीं है। मत-त्याग-इस्लाम को छोड़ने-की सज़ा मौत है। छूट केवल इतनी है कि सज़ा में उसे जला कर मारने का विधान नहीं है। “एक बार लोगों के एक दल ने इस्लाम को त्याग दिया। अली ने उन्हें जला कर मार डाला। जब इब्न अब्बास ने इसके बारे में सुना तो वह बोला-“अगर मैं होता तो मैंने उन्हें तलवार से मारा होता, क्योंकि मैंने रसूल-अल्लाह को यह कहते सुना है कि इस्लाम का त्याग करने वाले को मार डालो, पर उसे जला कर मत मारो; क्योंकि पापियों को सज़ा देने के लिए आग अल्लाह का साधन है“ (तिरमिज़ी, जिल्द एक, 1357)।1

 

उक्ल कबीले के आठ लोग मुसलमान बन गये, और वे मदीना में आ बसे। मदीना की आबोहवा उन्हें मुवाफ़िक़ नहीं आयी। मुहम्मद ने उन्हें इज़ाज़त दी कि ”सदके के ऊंटों के पास जाओ और उनका दूध और पेशाब पीओ“ (पेशाब को औषधि समझा जाता था)2 पैगम्बर के नियन्त्रण से बाहर होते ही उन लोगों ने ऊंटों के रखवालों को मार डाला, ऊंट छीन लिए और इस्लाम त्याग दिया। पैगम्बर ने एक टोह लेने वाले विशेषज्ञ के साथ बीस अंसार (मदीनावासी) उनके पीछे भेजे। विशेषज्ञ का काम उनके पदचिन्हों का पीछा करना था। मत त्यागने वाले वापस लाये गये। ”उन्होंने (पाक पैगम्बर ने) उन लोगों के हाथ और पांव कटवा दिए, उनकी आंखें निकलवा ली और उन्हें पथरीली ज़मीन पर फिंकवा दिया, जहां वे दम तोड़ते तक पड़े रहे“ (4130)। एक दूसरी हदीस बतलाती हैं कि जब वे लोग तोड़ते पथरीली ज़मीन पर तड़प रहे थे “तब वे पानी मांग रहे थे, लेकिन उन्हें पानी नहीं दिया गया“ (4132)।

 

अनुवादक कुरान की उस आयत का हवाला देते हैं, जिसके मुताबिक यह सज़ा दी गयी-”जो लोग अल्लाह और उसके रसूल से लड़ाई करें और मुल्क में फ़िसाद करने की कोशिश करें, उनकी उचित सजा यही है कि उन सबको कत्ल कर दिया जाये अथवा उन्हें सूली पर चढ़ा दिया जाये अथवा उनके एक तरफ के हाथ और दूसरी तरफ से पांव काट डाले जायें अथवा उन्हें मुल्क से निकाल दिया जाये“ (कुरान 5/36)।

 

  1. अबू हुरैरा बतलाते हैं-”रसूल-अल्लाह ने हमें एक हमले पर भेजा। उन्होंने हमें आदेश दिया कि कुरैशों से मुठभेड़ हो तो हम दो कुरैशों को जला डालें। उन्होंने हमें उन दोनों के नाम बता दिये। लेकिन फिर जब हम रुख़सत के लिए उनके पास पहुंचे, तब वे बोले उन्हें तलवार से मार डालना, क्योंकि आग से सजा देना अल्लाह का एकाधिकार है।“ (सही बुखारी शरीफ, सही 1219)।

 

  1. सदक़े में मुहम्मद को जो ऊंट मिलते थे, उनको मदीना के बाहर कुछ दूरी पर चरने के लिए भेजा जाता था।

author : ram swarup

।।ओ३म्।।

विजया दशमी समस्त प्राणीहरुको लागि सुखदायी र कल्याणकारक बनोस्..

Untitled

-श्याम कुमार आर्य

झुट, छल-कपट, धोका र बेइमानी द्वारा हामी अर्कोलाई जित्न सक्दछौं, यो चतुराई हो। तर सत्य, ईमानदारी, नम्रता, सेवा, दया र परोपकार जस्ता कार्य बाट पनि अरुको मन जित्न सक्नुहुन्छ, यो बुद्धिमत्ता हो । तपाईं बिचार गर्नुहोस्, यी दुई पक्षमा कुन चाही पक्ष अधिक उत्कृष्ट होला ? साथै आउदै गरेको विजया दशमी (बडा-दशैं)को समस्त नेपाली परिवारलाई हार्दिक शुभकामना ब्यक्त गर्दछु!

दशैं कसैको दशा नबनोस, सबैको कल्याणकारी होस, एक प्राणीले अर्को प्राणीको प्राण लिएर कसैले पनि दशैं नमनाउनुस्। नयाँ कपडा लाउन पाउने, मावल जान पाउने, दिदी-भिनाजु आउने, दशैं भरि काम गर्नु नपर्ने, रोजेको खान पाउने, बहुतै रमाईलो गर्ने पाउने बालक देखि नै उल्लासपूर्ण लाग्ने दशैं-तिहार कहिले आउँछ भनेर आमालाई दिनका दिन सोध्ने त्यो अतित फेरी वापस त हुँदैन होला तर पनि मनमा उत्सव चाहिं उतिकै हुँदो रहेछ ।

विजया दशमीको २५ दिन पहिले देखी विजया दशमिको ५ दिन पछि अर्थात् पुर्णिमा को दिन सम्म प्रत्येक दिन यज्ञ गर्नाले पृथ्वी को पर्यावरण शुद्ध भएर संसारका प्राणीहरु रोग मुक्त हुन्छन, यज्ञ गर्नेलाई पारलौकिक फल मिल्छ, अन्न उब्जनी, फलफुल आदि वनस्पति आदिको वृद्धि हुन्छ, संसारमा शान्तिको वातावरण सृजना हुन्छ, सबको बुद्धि सकारात्मक हुन्छ, सबैको प्रगति हुन्छ, राष्ट्रको हित हुन्छ, वर्षा शुद्ध वर्षिन्छ, समस्त प्राणीहरु सुखी रहन्छन् । यो धर्ति स्वर्ग बन्दछ । यसको बिपरित गरे ठिक उसै प्रकार बिपरित फल मिल्दछ।

ईश्वरले सबैको कल्याण गरुन, प्रत्येक प्राणी सुखि रहुन, मन मस्तिष्क तथा हृदय सबको श्रेष्ठ बनोस, कोहि गरिब नहुन, कोहि दु:खी नहुन, सबको मनुष्य आयु यथावत रहोस । दुर्गा-देवी ईश्वरको गुणवाचक नाम हो र ईश्वरले सबैलाई सफल एवं विजयी बनाउने, फेरी पनि नेपाली हरुको महान चाडपर्व वियजी दशमीको धेरै-धेरै शुभकामना !

संसारमा जे हुन्छ, के त्यो ईश्वरको इच्छा अनुसार हुन्छ ?

ओ३म्..!

“प्रत्यक प्राणीको आयु निश्चित हुन्छ। हरेक जीव ले जो कार्य गर्छ, त्यो ईश्वराधीन हुन्छ। ईश्वर को ईच्छा बिना त धुलोको कण पनि उड्न सक्दैन। र एउटा पात पनि हल्लिन सक्दैन।”

हामीहरु प्रायः दैनिक रुपमा यस्तै कुरा सुन्ने गर्छौं। आज भोलि सत्संग का नाउमा तथाकथित् गुरुहरुको व्यापारिक-प्रवचनमा पनि यस्तै कुरो पटक-पटक दोहोरिने गर्छ। र हामि मख्ख परेर केवल सुन्ने मात्र गर्छौं।

सत्यता केहो भने कतिपय यस्ता कुरा त परमात्मा को अन्ध-श्रद्दा र अतिरेकमा भनिन्छ, जो साधारण व्यक्ति ले सुन्छ र राम्रो पनि मान्छ र ठिक पनि। तर यस्तो कुरो सिद्धान्ततः गलत सावित हुन्छ। परमात्माको ईच्छा बिना केहि पनि हुन सक्दैन, हामि एक पाइला पनि चल्न सक्दैनौं भन्नु नितान्त वेद बिरुद्ध छ। यदि यो मान्न लाग्ने हो भने जीव को कर्मफल-सिद्धान्त खण्डित हुन्छ। किनकि जो यो संसार मा भईरहेको छ, त्यो परमात्मा को ईच्छाले हुन्छ र जसको ईच्छाले कर्म हुन्छ त्यसको सुभाशुभ फल पनि त्यसैलाई मिल्छ। अर्थात्, सब कर्म को फल ईश्वर ले भोग्नु पर्ने भो !! यस्तो कदापि हैन र हुन्न पनि। जो कर्म जीवात्मा ले गर्छ, त्यो आफ्नो ईच्छाले गर्छ। परमात्मा को ईच्छाले  होइन। जीव कर्म गर्नमा स्वतन्त्र छ, त्यसैले कर्मको फल पनि जीवात्मा ले नै भोग्छ। नत्र उपरोक्त सिद्धान्त अनुसार चल्ने हो भने त संसार मा जो अन्याय भैरहेको छ, मार-पिट, काट-मार, हत्या-हिंसा, चोरि-डकैति र अपमान आदि हुने गर्छ, त्यसको दण्ड पनि कसैलाई नहुनु पर्ने हो। किनकि जसले यी कर्म गर्छ त्यो गर्न विवश छ। तर यस्तो पदापी हुन्न अर्थात अपराधीलाई दण्ड दिईन्छ। त्यसैले सबै कर्म परमात्माको ईच्छा अनुसार हुन्छ भन्नु गलत हो र अविद्याको परिणाम हो। अस्तु…

नमस्ते..!
प्रेम आर्य

(दोहा, कतार बाट )

पण्डित लेखरामजी की लगन देखिए

पण्डित लेखरामजी की लगन देखिए

स्वामी श्रद्धानन्दजी महाराज ने बड़े परिश्रम से अपनी लौह लेखनी से धर्मवीर लेखरामजी का एक प्रेरणाप्रद जीवन-चरित्र लिखा और भी कई जीवन-चरित्र अन्य विद्वानों ने लिखे। इन पंक्तियों के

लेखक ने भी ‘रक्तसाक्षी पण्डित लेखराम’ नाम से एक खोजपूर्ण जीवन-चरित्र लिखा। पण्डित जी के अब तक छपे हुए जीवन चरित्रों में उनके जीवन की कई महज़्वपूर्ण घटनाएँ छपने से रह गईं

हैं। अभी गत वर्ष उनके पावन चरित्र का एक नया पहलू हमारे सामने आया।

पण्डितजी ‘आर्यगज़ट’ के सज़्पादक थे तो वे बड़ी मार्मिक भाषा में अपनी सज़्पादकीय टिपणियाँ लिखा करते थे। आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार के समाचार पाकर बड़ी प्रेरणाप्रद टिपणी देकर

पाठकों में नवीन उत्साह का सञ्चार कर देते थे। एक बार पण्डित आर्यमुनिजी पंजाब की उज़र-पश्चिमी सीमा के किसी दूरस्थ स्थान पर प्रचार करने गये। वहाँ उनके प्रचार से वैदिक धर्म की अच्छी छाप लोगों पर पड़ी। वहाँ प्रचार करके वे भेरा में पधारे। वहाँ भी पण्डित आर्यमुनि की विद्वज़ा ने वैदिक धर्म की महज़ा का सिक्का लोगों के हृदयों पर जमाया। पण्डित लेखरामजी

को यह समाचार प्रकाशनार्थ पहुँचा तो आपने पण्डित आर्यमुनि की विद्वज़ा व कार्य की प्रशंसा करते हुए लिखा कि ‘‘प्रशंसित पण्डितजी जेहलम आदि से भेरा पहुँचे। मार्ग में कितने ही और ऐसे महज़्वपूर्ण स्थान व नगर हैं जहाँ सद्धर्म के प्रकाश की बहुत आवश्यकता है। जिज्ञासु जन पवित्र वेद के सद्ज्ञान से लाभान्वित होना चाहते हैं। यदि हमारे माननीय पण्डितजी वहाँ भी प्रचार करके आते तो कितना अच्छा होता।’’

देखा! अपने पूज्य विद्वान् के लिए पण्डित लेखराम के हृदय में

कितनी श्रद्धा है और वैदिक धर्म के प्रचार के लिए कितनी तड़प है।

एक जगह से दूसरी जगह पर जानेवाले प्रत्येक आर्य से धर्म दीवाना

लेखराम यह अपेक्षा करता है कि वह मार्ग में सब स्थानों पर

धर्मध्वजा फहराता जाए।

HADEES : SELF-CONFESSED ADULTERY

SELF-CONFESSED ADULTERY

There are some gruesome cases.  A fellow named MA�iz came to Muhammad and told him that he had committed adultery.  He repeated his confession four times.  Confessing four times stands for the four witnesses who are required to testify in case of adultery.  Upon finding that the man was married and also not mad, Muhammad ordered him to be stoned to death.  �I was one of those who stoned him,� says JAbir b. �Abdullah, the narrator of this hadIs (4196).

After this incident Muhammad harangued his followers: �Behold, as we set out for JihAd in the cause of Allah, one of you lagged behind and shrieked like the bleating of a male goat, and gave a small quantity of milk.  By Allah, in case I get hold of him, I shall certainly punish him� (4198).  The translator explains that by the metaphor of goat and milk, the Prophet means sexual lust and semen.

Similarly, a woman of GhAmid, a branch of Azd, came to Muhammad and told him that she had become pregnant as a result of fornication.  She was spared till she had given birth to her child.  An ansAr took the responsibility of suckling the infant and �she was then stoned to death� (4025).  Another hadIs tells us how it was done.  �She was put in a ditch up to her chest and he [Muhammad] commanded people and they stoned her� (4206).  Other traditions tell us that the Prophet himself cast the first stone.

author : ram swarup

आर्य समाज हिन्दु बिगारक होइन हिन्दु सुधारक हो ।

।।ओ३म।।
आर्य समाज हिन्दु बिगारक होइन हिन्दु सुधारक हो ।
झुठो प्रचार गरेर धर्मको सत्यनाश गर्दै ब्रह्मलुट मचाऊने तानाशाहा प्रविदीको अन्त्य गर्दै राष्ट्र तथा सनातन धर्मको रक्षा गर्न प्रमुख काम आर्य समाजको रहेको छ । धर्म त जो हो त्यो “वेद” धर्म तपाई हामी सबैले नै मानी राखेका नै छौ ।
हिन्दु सभ्यताको प्रपोगण्डा बैश्य, सुद्र, क्षत्री तथा स्त्रीले बेद पढ्नु हुदैन । बाहुनको छोरो सुंगुरको मासु सँग रक्सी टन्न पिएर बाटोमा हल्लिन्दै हिडे पनि बाहुन उचा जाती को रे तर एऊटा लिम्बुको छोरो वेद जान्दछ सातविक भोजन लिंदछ नियम पालन गर्दछ तर उसैले छोएको चाही त्यही मुत् पिउने पोप हरु लाई नचल्ने रे यस्ता यस्ता कुरीति हरु हटाऊन अग्रगामी स्थान चुम्नेवला हो आर्य समाज । झन राणा कालमा त वेद पढ्ने लाई देश निकाल देखी फाँसी सम्म लगाउन भ्याए इ पोप हरुले अब अहीले आएर आर्य समाज हिन्दु बिरोधी त हिन्दु राष्ट्र बिरोधी भनेर घोषित सम्म गर्न भ्याएछन । कतै अोडार मुनी ढुंगो राखेर इश्वर यिनै हुन भन्दै दक्षिणा शोर्ने काम मा बाधा त आऊदैन ? भन्ने भय त्रास त उत्पन्न भइ नै हाल्छ नी प्रपोगण्डा का पोप हरु लाई ।

सारा नेपाली एक हौ वेद मार्ग तिर लागै श्रेष्ठ समाजको निमाण गरौ शान्तिको बिगुल फुकै विश्वका मानीस हरुले शान्ति प्रतित् गर्न हाम्रो मुलुकमा शरण परुन सबै नेपाली वेद ज्ञान द्वारा श्रेष्ठ बन्दै राष्ट्रको आर्थिक स्थितीको उन्नती गर्दै सब तनमनका धनी बनि राष्ट्रबादी बनौ असत्य पाखण्डबाद त्यागै सत्य को मानै माता पिता भगवान हुन सदैव श्रद्धा गरौ बृद्धाश्रम बन्द गरौ सयम बसी अनार्थलय बन्द गरौ संस्कृती भाषाको स्कुलमा शन्तानलाई पढाऊ जब एक भाषा (संस्कृत) एक धर्म (वेद) एक निती (वेद निती) सबैले स्विकार गरे स्वर्ग हाम्रो नेपाल स्वर्ग समान हुनेछ त्यसैले आर्यसमाज आवहान गर्दछ वेद मार्ग तिर फर्कै ।

हे नेपाली बन्धु हो ! हामी सबै ऋषिमुनीका शन्तान है कोही सानो र ठुलो छैन भेद र भाव छैन सबै समान छौ , यो धर्ती समस्त प्राणी हरुको निम्ती ईश्वरले हामी सबैलाई मुफत् मा प्रधान गरेको हो र यो ईश्वरीया गुणलाई मात्र धन्यवाद दिऊ यती नै पर्यप्त छ ऊस् ईश्वर लाई ।

फेरी पनी आर्य समाज आवहान गर्दछ वेद मार्ग तर्फ लौंट जाऊ ईश्वरको सम्बिधान नै उच्चा कोटी को हो उसैलाई मानै वही सुख शान्ती सामृद्धी पुर्ण छ । फर्कैं वेद मार्ग तिर फर्कैं हे नेपाली ऋषिका शन्तान हरु हो !!!

  • श्याम कुमार आर्य