“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 15”

“ग्यारहवे अध्याय का जवाब पार्ट 2 ”

इस्लाम में बुरका प्रथा की शुरुआत और बुर्के से होने वाली हानियां………. पार्ट 2

नोट : लेख थोड़ा बड़ा जरूर है, पर पढ़ना जरुरी है

पिछली लेख में आपने जाना की भारतीय संस्कृति तथा वैदिक सभ्यता में कहीं भी पर्दा प्रथा नहीं पायी जाती, ये प्रथा विशुद्ध रूप से इस्लामी समाज की देन है, और हिन्दू जाति को अपनी बहन बेटियो की सुरक्षा हेतु पर्दा प्रथा का आरम्भ करना पड़ा, इसी विषय पर आज हम आपको समझाने की कोशिश करेंगे की आखिर इस्लाम में बुरका प्रथा की शुरुआत कैसे हुई और बुर्के से होने वाली हानियां तथा बुर्के का महिलाओ पर प्रभाव आदि।

आइये पहले देखते हैं बुरका प्रथा पर मुस्लिम समाज की मान्य मजहबी पुस्तक “क़ुरान” क्या कहती है :

और मोमिन महिलाओ से कह दे की वे भी अपनी आँखे नीची रखा करे और अपने गुप्त अंगो की रक्षा किया करे एवं अपने सौंदर्य को प्रकट न किया करे सिवाय उस के जो मज़बूरी और बेबसी से आप ही आप जाहिर (जैसे शरीर का लम्बा, छोटा, मोटा व दुबलापन होना) हो जाये और अपनी ओढ़नियो को अपनी छातियो पर से गुजर कर और उसे ढक कर पहना करे तथा वे केवल अपनी पतियों, अपने पिताओ या अपने पतियों के पिताओ या अपने पुत्रो या अपने पतियों के पुत्रो या अपने भाइयो या अपने भाइयो के पुत्रो (भतीजो) या अपनी बहनो के पुत्रो या अपने जैसी स्त्रियों या जिन के स्वामी उन के दाहिने हाथ हुए हैं (अर्थात लौंडिया) या ऐसे अधीन व्यक्तियों (अर्थात नौकर चाकर) पर जो अभी युवावस्था को नहीं पहुंचे या ऐसे बच्चो पर जिन्हे अभी स्त्रियों के विशेष सम्बन्धो का ज्ञान नहीं हुआ, अपना सौंदर्य प्रकट कर सकती हैं तथा इन के सिवा किसी पर भी जाहिर न करे और अपने पाँव (धरती पर जोर से) इसलिए न मारा करे की वह चीज़ जाहिर हो जाये जिसे वे अपने सौंदर्य में से छिपा रही है। और हे मोमिनो ! तुम सब के सब अल्लाह की और झुक जाओ ताकि तुम सफलता पा सको।
(क़ुरान २४:३२)

एक और आयत जो इसी विषय से सम्बंधित है,

हे नबी ! अपनी पत्नियों, अपनी पुत्रियों तथा मोमिनो की पत्नियों से कह दे की वे (जब बाहर निकल तो) अपनी बड़ी चादरों को अपने सिरो पर से आगे खींच कर अपने सीनो तक ले आया करे। ऐसा करना इस बात को संभव बना देता है की वे पहचानी जाए और उन्हें कोई कष्ट न दे सके तथा अल्लाह बड़ा क्षमा करने वाला और बार बार दया करने वाला है।
(क़ुरान ३३:६०)

उपरोक्त वर्णित दो आयतो में से प्रथम आयत का उद्देश्य है की महिलाये अपने श्रृंगार को पुरषो से छुपाये और दूसरी आयत में स्पष्ट बता दिया है की घर से बाहर जाने पर बुरका पहनने से छेड़छाड़ और उत्पीड़न से मुस्लिम महिलाओ का बचाव होता है। यहाँ ध्यान से सोचने की बात है की पुरषो के लिए कोई ऐसी व्यवस्था नहीं पायी जाती की वो भी चादर डालकर महिलाओ से खुद का बचाव करे, ये सारी पाबन्दी आखिर महिला तक ही सीमित क्यों ? क्या ये अल्लाह का स्त्री पुरुष में भेदभाव नहीं ? कुछ पॉइंट जो इन आयतो पर उठ खड़े होते हैं जरा गौर करिये :

1. क्या बिना बुरका पहने किसी महिला की सुंदरता इतनी होती है की पुरुष अपना नियंत्रण खो बैठता है ? यदि ये बात सही है तो फिर जो इसी आयत में बताया की अपने भाई, पिता आदि के आगे बिना बुरका भी बैठो, ये कैसे संभव है ?

2. महिलाये पुरुषो की तरफ आकर्षित नहीं होती, ये कटु सत्य है, और पूरी दुनिया की महिलाओ में एक बड़ा भाग उन महिलाओ का है जो कामुक नहीं होती। बेहद ही कम संख्या में ऐसी असभ्य महिलाये पायी जाती हैं जो अत्यधिक कामुक हो।

3. महिलाये, पुरुषो की तुलना में अधिक संयमी और स्व नियंत्रक होती हैं, ऐसे में भी बुरका उढ़ाने और सौंदर्य छिपाने का कोई औचित्य नहीं, बेहतर होता की पुरुषो को दिशा निर्देश जारी किये जाते, मगर खेद की पुरुषो के लिए कोई दिशा निर्देश क़ुरान में नहीं पाये जाते।

अब तक आप समझ गए होंगे की बुरखा प्रथा से महिलाओ की सुंदरता छुपने और छेड़छाड़ उत्पीड़न बंद होना संभव नहीं, क्योंकि बिना पुरुषो को सभ्यता सिखाये ये सब बंद नहीं हो सकता, क्योंकि महिलये वैसे ही संयमी होती है, कोई कम संख्या की कामुक महिलाये मात्र एक अपवाद है, यदि क़ुरान ये समझाना चाह रहा है की महिलाये कामुक और असंयमी होती है, तो ये क़ुरान के अल्लाह मियां और मुहम्मद साहब का दुनिया की सभी महिलाओ पर बेमाना इल्जाम है, लेकिन अल्लाह मिया और मुहम्मद साहब ऐसे तो न हुए होंगे, इसलिए सच्चाई जानना जरुरी है, आइये हम दिखाते हैं की ये आयते आखिर क़ुरआन के जरिये क्यों नाजिल हुई, देखिये :

मुहम्मद साहब की पत्नी आयशा ने बताया की पैगम्बर साहब की पत्निया अल मनासी के विशाल खुली जगह जो बकि अत मदीना के नजदीक थी, रात्रि में पेशाब करने हेतु जाती थी। उमर साहब ने पैगम्बर साहब को बोला अपनी पत्नियों को परदे में रखिये लेकिन अल्लाह के रसूल ने ऐसा न किया। एक रात ऐसा हुआ कि पैगम्बर साहब की एक पत्नी जिनका नाम सउदा बिन्त ज़मआ था जो एक लम्बी महिला थी इशा के समय बाहर (पेशाब करने) गयी। उमर साहब ने महिला को सम्बोधन करते हुए कहा कहा “मैंने तुम्हे पहचान लिया है, तुम सउदा हो”, ऐसा उन्होंने कहा क्योंकि वो बेसब्री से इन्तेजार कर रहे थे अल हिजाब (मुस्लिम महिलाओ द्वारा परदे का अवलोकन) आयतो के नाजिल होने की। इसलिए अल्लाह ने अल हिजाब (आँखे छोड़ पूर्ण शरीर को चादर से ढकना) आयत नाजिल की।
(सही बुखारी, जिल्द १, किताब ४ हदीस १४८)

बिलकुल यही हदीस, सही बुखारी में जिल्द ८ किताब ७४ हदीस २५७ में भी द्रष्टव्य है, इसके अतिरिक्त सही मुस्लिम किताब २६ हदीस ५३९७ भी यही बताती है की महिलाओ को बुरखा पहनने वाली आयत, उमर साहब द्वारा पेशाब जाती महिलाओ को पहचानने से बचाने हेतु नाजिल की गयी।

अब जरा कुछ समझने की कोशिश करते हैं, देखिये :

1. उपरोक्त हदीसो से ज्ञात होता है कि उमर साहब बार बार पैगम्बर मुहम्मद साहब से महिलाओ को चादर (बुरखा) से ढकने वाली आयते अल्लाह से नाजिल करने को दोहरा रहे थे ताकि क़ुरान में महिलाओ के लिए चादर (बुरखा) से ढकना अनिवार्य हो जाए।

2. उपरोक्त हदीसो से साफ़ ज्ञात है की ये अल हिजाब की आयते अल्लाह द्वारा नाजिल नहीं की गयी, क्योंकि ये उमर साहब की मांग थी जिसे मुहम्मद साहब ने पूरा किया।

3. उमर साहब ने मुहम्मद साहब की एक पत्नी जो खुद को राहत देने (पेशाब) करने गयी थी, उनका पीछा किया, न केवल पीछा किया, बल्कि “सउदा” नाम से भी पुकारा जो किसी भी हालत में ठीक नहीं था, क्योंकि मुहम्मद साहब की पत्निया मुस्लिमो की माँ सामान है।

4. सउदा जो मुहम्मद साहब की पत्नी थी उन्होंने घर जाकर, उमर साहब द्वारा किये बेहूदे और शर्मिंदगी वाले काम की शिकायत मुहम्मद साहब से की थी (सही बुखारी जिल्द ६ किताब ६० हदीस ३१८) (सही मुस्लिम किताब २६ हदीस ५३९५)

5. इन सब कार्यो के बाद ही और जो उमर साहब चाहते थे, उसे पूरा करने हेतु हिजाब वाली आयते नाजिल की गयी।

इन सबको पढ़ने से निष्कर्ष निकलता है की उमर साहब की हिजाब आयतो की मांग से पहले तो मुहम्मद साहब खुद भी राजी नहीं थे, मगर उमर साहब के कामो के बाद अल्लाह तक राजी हो गया जो हिजाब की आयत उतारी ? क्या ये इंसाफ है ?

लेकिन एक और चौंकाने वाली बात का खुलासा हदीस में होता है, की हिजाब वाली आयते नाजिल होने बाद, मुहम्मद साहब की पत्निया बुर्के में आने जाने लगी, मगर उमर साहब को इससे भी चैन नहीं आया, वो फिर भी मुहम्मद साहब की पत्नी का पीछा करते रहे, देखिये (सही बुखारी जिल्द ६ किताब ६० हदीस ३१८)

जरा सोचिये क्या हिजाब या बुरखा यहाँ महिलाओ के काम आया ?

उपरोक्त क़ुरानी आयतो में बताया है की बुरका, महिलाओ को पुरुषो की अवांछित वासनामयी दृष्टि से बचाव करता है, आइये इस विषय पर भी इस हदीस का अवलोकन करे :

मुहम्मद साहब की पत्नी आयशा ने बताया की एक नपुंसक (हिजड़ा पुरुष) पैगम्बर साहब की पत्नियों के यहाँ आया जाया करता था और उनको (पैगंबर) को इस बात पर कोई आपत्ति नहीं थी क्योंकि वो नपुंसक (हिजड़ा) बिना किसी वासनामयी इच्छा के आता था। एक दिन जब वह नपुंसक, पैगम्बर साहब की कुछ पत्नियों के पास बैठकर महिलाओ की शारीरिक विशेषताओ के बारे में बता रहा रहा तभी मुहम्मद साहब आ गए और उन्होंने ये सब सुन कर कहा “मुझे नहीं पता था, ये इन बातो को भी जानता है, अतः अब इससे सेवा करवाना वर्जित है।” उन्होंने (आयशा) ने कहा : तब उन्होंने (पैगम्बर) साहब ने उस (नपुंसक) से भी पर्दा (बुरखा) करने का आदेश दिया।
(सही मुस्लिम किताब २६ हदीस ५४१६)

उपरोक्त हदीस से ज्ञात होता है की बुरखा की प्रथा, किसी भी हालत में अवांछित वासनामयी दृष्टि से बचाव हेतु भी नहीं है, क्योंकि एक नपुंसक स्त्रियों के प्रति कैसे वासनामयी हो सकता है ? यहाँ एक बात और ध्यान देने वाली है की बुरखे की शुरुआत मुस्लिम (आज्ञाकारी, ईमानवाला) पुरुष से ही मुस्लिम (आज्ञाकारी, ईमानवाली) महिला को छेड़ छाड़ से बचाने हेतु शुरू की गयी।

आइये अब कुछ आंकड़ो पर नजर डालते हैं, मुस्लिमो का ये दावा भी हवा हवाई है की बुरखे से महिलाये छेड़ छाड़ जैसे उत्पीड़न से बचती हैं क्योंकि गैर इस्लामिक समाज में महिलाये बिना बुरखा स्वतंत्रता से घूमती हैं जिनसे छेड़ छाड़ की घटनाएं इस्लामिक देश के समाज से काफी कम है, उदाहरण के लिए इजिप्ट देश में महिला और युवा लड़कियों को हर २०० मीटर पर ही ७ बार छेड़ छाड़ होने का रिकॉर्ड दर्ज है (Egypt’s NCW chief says women harassed 7 times every 200 meters – GhanaMed, September 6, 2012) (Manar Ammar – Sexual harassment awaits Egyptian girls outside schools – Bikya Masr, September 10, 2012) वहीँ दूसरी और बलात्कार की घटनाओ में सऊदी अरब जहाँ हिजाब को सख्ती से लागू किया गया है, दुनिया में highest rape scales in the world (“The High Rape-Scale in Saudi Arabia”, WomanStats Project (blog), January 16, 2013 (archived).) में शुमार है। यहाँ एक बात आपको और सोचनी चाहिए, वे लोग जो कहते हैं की बुरखे से महिलाओ को छेड़ छाड़ से निजाद मिलती है इसलिए पहनना चाहिए तो जरा इजिप्ट के आंकड़े पर भी नजर डाल ले क्योंकि जो महिलाये छेड़ छाड़ का शिकार हुई वो अधिकांश तौर पर मुस्लिम थी और हिजाब पहने थी (Magdi Abdelhadi – Egypt’s sexual harassment ‘cancer’ – BBC News, July 18, 2008)

अब स्वयं सोचिये क्या बुरखा किसी भी प्रकार से ऐसी विकृत मानसिक लोगो से निजात दिलवा सकता है ? जरुरी है समाज को ऐसे विकृत मानसिक लोगो से निजाद दिलाना, महिलाओ को बुर्के में कैद करना इस समस्या का समाधान नहीं है, क्योंकि महिलाओ को बुरका पहनने से सेहत का खतरा है, देखिये :

हम जानते हैं विटामिन डी मानव स्वास्थ्य के लिए एक आवश्यक पोषक तत्व है जो वसा में घुलनशील विटामिन है, विटामिन डी किसी भी खाद्य पदार्थ में प्राकर्तिक तौर पर नहीं पाया जाता, यह केवल सूर्य की किरणों से त्वचा पर प्रतिक्रिया होने से विटामिन डी का संश्लेषण होता है जो शरीर के लिए महत्वपूर्ण है। विटामिन डी मजबूत हड्डियों के लिए अतयन्तावश्यक है क्योंकि यह आहार में मौजूद कैल्शियम को प्रयोग में लाता है जिससे हड्डिया मजबूत होती हैं, इसकी कमी से “रिकेट” नामक रोग होता है। इस बीमारी में बोन टिशू एक रोग जिसमे बोन टिशू ठीक तरह से मिनरलाइज नहीं हो पाते, जो आगे चलकर हड्डियों को कमजोर तथा हड्डी विकृति जैसी भयंकर स्थिति उत्पन्न कर देता है।

इस रोग के लक्षण अनेको मुस्लिम बहुल देशो में विटामिन डी की कमी के चलते महिलाओ में पाये गए, सऊदी अरब में किंग फहद यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल में की गयी शोध में पाया गया की जो ५२ महिलाओं पर टेस्ट किया गया उनमे सभी महिलाओ में विटामिन डी का स्तर बहुत कम पाया गया जो अनेको गंभीर स्वास्थ्य समस्याए उत्पन्न कर सकता है, जबकि ये एक ऐसा देश है जहाँ सबसे ज्यादा धुप निकलती है पूरी दुनिया के मुकाबले (Elsammak, M.Y., et al., Vitamin D deficiency in Saudi Arabs. Hormone and Metabolic Research, 2010. 42(5): p. 364-368.)

जॉर्डन में किये गए अध्यन के मुताबिक वे महिलाये जो पूरी तरह से इस्लामी वेश भूषा (बुरखा) पहनती थी, 83.3% उनमे विटामिन डी की कमी पायी गयी, ये अध्ययन दोपहर के समय किया गया था। इसमें सबसे चौंकाने वाली बात ये थी की मात्र 18.2% पुरुषो में ही विटामिन डी की कमी पायी गयी, यहाँ ध्यान रहे, पुरुष बुरखा नहीं पहनते (Elsammak, M.Y., et al., Vitamin D deficiency in Saudi Arabs. Hormone and Metabolic Research, 2010. 42(5): p. 364-368.)

एक बात और बताना चाहूंगा की जॉर्डन भी ऐसी ही जगह है जहाँ अरब देश की भांति सूरज की धुप ज्यादा रहती है। तब भी ऐसी स्थिति में केवल महिलाओ में ही विटामिन डी की कमी पाया जाना ये सिद्ध करता है की बुरका प्रथा महिलाओ के स्वास्थ्य हेतु भी खतरनाक है।

अब हम अंत में यही कहेंगे की बुरखा प्रथा न तो खुदाई आदेश है, न ही बुरखा छेड़ छाड़ से ही बचाव करता है, न ही ये महिलाओ की स्वयं की पसंद है, न ही ये महिलाओ के स्वास्थ्य हेतु ही कोई अच्छा कार्य है। अतः मेरी सभी बंधुओ से विनम्र प्रार्थना है, कृपया इन पाखंडो को छोड़ सत्य सनातन वैदिक धर्म की शरण में आओ, जहाँ महिला और पुरुषो दोनों को ही बराबर अधिकार हैं, कोई छुपने छुपाने की वस्तु नहीं, स्त्री जाति हमारा गौरव है।

आओ लौटो वेदो की और

नमस्ते

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 12”

इस्लाम, नारी और महिला विकास का अवरोधक बुरका

“ग्यारहवे अध्याय का जवाब पार्ट 1 ”

सत्यार्थ प्रकाश समीक्षा की समीक्षा पुस्तक में सतीशचंद गुप्ता जी एक अध्याय प्रस्तुत करते हैं “क्या पर्दा नारी के हित में नहीं है ?” अपनी परदे वाली थियोरी को जायज़ (वैध) सिद्ध करने के चक्कर में लेखक इतने मशगूल हुए की बिना सिद्धांतो के ही कुतर्क और मिथ्याभाषण करते हुए, वर्तमान युग में भारतीय नारी का उद्धार करने वाले ऋषि दयानंद को इस्लाम और मुसलमानो का कटुआलोचकर बना दिया। क्या ये समाज को सच्चाई दिखाने की जगह खुद ही सच्चाई पर पर्दा डालने वाली बात न हुई ? लेखक को चाहिए था की नारी की मनोस्थति को समझते हुए उसकी भावनाओ का सम्मान करते, मगर इस्लामी धारणा से ओतप्रोत हुए लेखक ने सच को नकारते हुए, विशुद्ध रूप से मजहबी कट्टरता का परिचय देकर सम्पूर्ण नारी जाती का अपमान कर दिया। क्या ये आक्षेपकर्ता का मानसिक दिवालियापन नहीं है ?

देखिये, पर्दा प्रथा न तो भारतीय संस्कार हैं, न ही ये शब्द ही भारतीय हिंदी भाषा से सम्बंधित है, “पर्दा” शब्द स्वयं विदेशी है जो फ़ारसी भाषा से है, संपादक “डॉ सैयद असद अली” प्रकाशक राजपाल इन संस, दिल्ली से प्रकाशित “व्यवहारिक उर्दू हिंदी शब्दकोष” पृष्ठ संख्या १८८ में शब्द “पसेपर्दा” आता है, जो “फ़ारसी पुल्लिंग” शब्द है। जिसका अर्थ है आड़ में। तो ये बात तो क्लियर है की पर्दा शब्द खुद में ही विदेशी शब्द है, तो इसका मूल भी भारतीय नहीं हो सकता, वैदिक संस्कृति में नारी को सम्मान का सूचक “देवी” कहा गया है, जो कभी भी छुपाने की वस्तु वाले नजरिये से नहीं देखि गयी। क्योंकि “औरत” शब्द अरबी है जो अरबी धातु औराह या आईन-वाव-रा (ayn-waw-ra) से जिसका मतलब है कानापन या एक आंख से देखना से बना है। सीधा सीधा अर्थ है, शायद अरब के लोग नारी को केवल भोग की वस्तु या शारीरिक सम्बन्ध बनाने वाली नजर से ही देखते थे, जिस कारण नारी को “औरत” शब्द यानी छुपाने वाली बना दिया ताकि ऐसी दुष्ट और काम वास्नामयी नजरो से बचा सके।

जबकि भारतीय पद्धति में महिला को देवी का दर्जा प्राप्त है, जिससे ज्ञात होता है की भारतीय परंपरा और संस्कार नारियो के प्रति कितने उदारशील और संस्कारी थे। अब जो बात है पर्दा की तो किसी भी वैदिक साहित्य में महिला को छुपाने या पर्दा करने का विवरण प्राप्त नहीं होता देखिये :

निरुक्त में पर्दा प्रथा का विवरण कहीं मौजूद नहीं।

निरुक्तानुसार संपत्ति संबंधी मामले निपटाने के लिए न्यायालयों में स्त्रियों के आने जाने के लिए कहीं पर्दा व्यवस्था का विवरण नहीं, बल्कि अधिकार है।

रामायण और महाभारत काल में भी महिलाओ की पर्दा प्रथा नहीं पायी जाती, इसके उल्ट रावण की बहन जब श्री राम और लक्ष्मण के सामने आई तब भी कोई पर्दा न था, जब रावण माता सीता को ले जाकर, अशोक वाटिका में रखा वहा भी कोई पर्दा व्यवस्था नहीं थी। रामायण और महाभारत कालीन इतिहास में स्वयंवर होते थे, तब भी पर्दा व्यवस्था का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता।

इन सब तथ्यों से ज्ञात हो जाता है की आर्य सभ्यता में पर्दा व्यवस्था थी ही नहीं, क्योंकि आर्य जाति सदैव सदाचारी और संयमी रही है, अतः पुरुषो को अपनी इन्द्रियों को वश में करना ही सदाचार है, महिलाओ को ढक कर, छिपा कर पुरुष इन्द्रियों को वश में नहीं कर सकता, खैर ये ढकने और छिपाने जैसी प्रथा से पुरुष की इन्द्रिय संयम में रहती हैं और पुरुष सदाचार की शिक्षा प्राप्त करता है, इतना विज्ञानं अरबी सभ्यता में ही था।

अब हम आपको वेद से प्रमाण दिखाते हैं, देखिये :

सुमंगलीरियं वधुरिमा समेत पश्यत
सौभाग्यमस्यै दत्वायाथास्तं वि परेतन

ऋग्वेद (10.85.33)

हे विवाह में उपस्थित भद्र स्त्री पुरुषो ! यह वधु शुभा और सौभाग्यशालिनी है। आप लोग आइये, देखिये और इसे सौभाग्य का आशीर्वाद देकर अनन्तर अपने अपने घरो को जाइए।

यहाँ स्पष्ट है की पर्दा प्रथा का कोई औचित्य भारतीय संस्कृति में महिलाओ के लिए निर्धारित नहीं किया गया। बल्कि आश्वलायनगृह्यसूत्र (1/8/7) के अनुसार वधु को अपने घर ले आते समय वर को चाहिए कि वह प्रत्येक निवेश स्थान (रुकने के स्थान) पर दर्शकों को ऋग्वेद के उपर्युक्त मंत्र के साथ दिखाए। इससे स्पष्ट है कि वैदिक सभ्यता (भारतीय संस्कृति) में वधुओं द्वारा अवगुण्ठन (पर्दा) नहीं धारण किया जाता था, प्रत्युत वे सबके सामने निरावगुण्ठन आती थी। पर्दा प्रथा का उल्लेख सबसे पहलेे महाकाव्यों में हुआ है पर उस समय यह केवल कुछ राजपरिवारों तक ही सीमित था। (धर्मशास्त्र का इतिहास पृ.336)

अब मूल सवाल यह है की ये पर्दा प्रथा जैसी कुप्रथा हमारे भारतीय समाज में कैसे दाखिल हुई ? इसका जवाब हमें हुतात्मा पंडित लेखराम कृत “महर्षि दयानंद सरस्वती का जीवन चरित्र” नामक पुस्तक में बेहद तर्कपूर्ण आधार पर मिलता है, जहाँ महर्षि ने एक शंकालु की शंका समाधान करते हुए कहा :

“स्त्रियों को परदे में रखना आजन्म कारागार में डालना है। जब उनको विद्या होगी वह स्वयं अपनी विद्या के द्वारा बुद्धिमती होकर प्रत्येक प्रकार के दोषो से रहित और पवित्र रह सकती हैं। परदे में रहने से सतीत्व रक्षा नहीं कर सकती और बिना विद्या प्राप्ति के बुद्धिमती नहीं हो सकती हैं और परदे में रखने की प्रथा इस प्रकार प्रचलित हुई की जब इस देश के शासक मुस्लमान हुए तो उन्होंने शासन की शक्ति से जिस किसी की बहु बेटी को अच्छी रूपवती देखा उसको अपने शासनाधिकार से बलात छीन लिया और दासी बना लिया। उस समय हिन्दू विवश थे, इस कारण उनमे सामना करने की सामर्थ्य न थी। इसलिए अपने सम्मान की रक्षा के लिए उन्होंने अपनी स्त्रियों और बहु बेटियो को घर से बाहर जाने का निषेध कर दिया। सो मूर्खो ने उसको पूर्वजो का आचार समझ लिया। देखो, मेमो अर्थात अंग्रेज की स्त्रियों को, वे भारत की स्त्रियों की अपेक्षा कितनी साहसी, विद्यावती और सदाचारिणी होती हैं।”

ऋषि ने जो समझाया उसे न समझकर पूर्वाग्रह से ग्रसित हो आक्षेपकर्ता ने कुछ और ही समझा, स्त्रियों को परदे में रखना आजन्म कारागार है, क्योंकि ये महिला की इच्छा विरुद्ध है, अनेको मुस्लिम महिलाये ही बुरखा का विरोध करती हैं, यहाँ तक की अनेको मुस्लिम महिलाओ ने तो नग्न तक होकर विरोध किया है, ऐसी अनेको खबरों से फ्रांस, ब्रिटेन आदि देशो के समाचार पत्र भरे पड़े हैं। हम नग्न्ता का समर्थन तो बिलकुल नहीं करते, विरोध सदैव ही शालीन और मर्यादित होना चाहिए, लेकिन शायद उन मुस्लिम महिलाओ को नग्न्ता की राह दिखाने वाला भी बुरखा ही था जिसमे उन्हें घुटन महसूस हो रही थी। खैर हम ऋषि की दूसरी बात समझते हैं, उन्होंने कहा महिला कभी भी परदे से अपनी सतीत्व रक्षा नहीं कर सकती, ये कटु सत्य है, क्योंकि भारत में ही अनेको मुस्लिम परिवारो में मुस्लिम बहु की इज्जत को तार तार करने में उसके ही अपने मुस्लिम ससुर का योगदान था। मुजफ्फरनगर उ० प्र० में इमराना का केस मात्र एक उदहारण है, मुस्लिम पति नूर इलाही की जो पत्नी इमराना थी, उसके ससुर अली मोहम्मद ने बलात्कार किया था, तब इस्लामी कानून अनुसार दारुल उलूम देवबंद ने एक फतवा निकाला जो दुनिया से मानवता शर्मसार करने वाला था, इस कानून में पीड़ित महिला जो ससुर की हैवानियत का शिकार हुई थी, उसे उस हैवान की पत्नी बना दिया गया, और जो उसका पति था, जिससे उस महिला को पांच बच्चे थे, उसे बेटा बना दिया, अंततः पीड़ित ने भारतीय संविधान का दरवाजा खटखटाया और पीड़िता को इंसाफ मिला। अब सवाल ये है, क्या बुरखा यहाँ स्त्री की सतीत्व रक्षा कर पाया ? क्या ये जरुरी नहीं था, की पुरुष अपनी इन्द्रियों को वश में करना सीखे। महिलाओ को शिक्षित करने से ही महिलाओ का शोषण रुकेगा, क्योंकि महिलाओ को जो अधिकार प्राप्त हैं, वो शरिया कानून नहीं देता, क्योंकि इस्लाम में महिलाओ का पढ़ना लिखना हराम है, महिलाओ का नौकरी करना हराम है, महिलाओ का पर पुरुषो (ऑफिस सहकर्मी) के साथ बैठना, काम करना, सब हराम है। खैर इस विषय पर हम अगले लेख में विचार करेंगे। आप अभी केवल ये सोचिये की यदि महिला शिक्षित होकर नौकरी करना चाहे तो क्या वो ऑफिस में बुरखा पहने हुए, बैठ सकती है ? क्या ये एक प्रकार का मानसिक अत्याचार नहीं है ? क्या पुरुष को भी बुरखे में रहने की आज्ञा है ? यदि नहीं, तो क्यों एक नारी पर अत्याचार किया जाता है, वो भी मजहब के नाम पर ? फिर भी कहते हैं की महिला और पुरुष को इस्लाम में समान अधिकार प्राप्त हैं ? क्या ये एक प्रकार का बेहूदा मजाक नहीं ?

यही बात यहाँ महर्षि ने बताई, की महिला को शिक्षित होना चाहिए, ताकि वो अपने अधिकार प्राप्त कर सके, मगर खेद की इस्लाम में महिलाओ का पढ़ना लिखना, उनको अधिकार देना इस्लामी शरिया में हराम है, पाकिस्तान की मलाला युसूफ ज़ई से ज्यादा इस बात को कोई नहीं समझ सकता।

उपरोक्त तथ्यों से सिद्ध है की भारतीय सभ्यता में तो पर्दा का कोई रोल नहीं, ये कुप्रथा विशुद्ध रूप से मुस्लिम शासको के कारण ही भारतीय परिवेश में दाखिल हुई। ऋषि ने जो तर्क दिया था, उसका ही समर्थन करते हुए “भारतरत्न पांडुरंग वामन काणे” ने अपनी पुस्तक हिस्ट्री आफ धर्मशास्त्र (धर्मशास्त्र का इतिहास) में पृष्ठ ३३७ में लिखते हैं :

“उत्तरी भारत एवं पूर्वी भारत में पर्दा की प्रथा जो सर्वसाधारण में पाई जाती है, उसका आरंभ मुसलमानों के आगमन से हुआ।

इसके तीन कारण थे-

हिन्दू स्त्रियों को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से।

विजेता शासकों की शैली का चाहे-अनचाहे तरीके से अनुसरण।

विपरीत परिस्थितियों के कारण स्त्रियों में बढ़ती अशिक्षा और मुस्लिम शासकों के राज में गिरता स्तर।

इतिहास को आप छुपा नहीं सकते, इस विषय पर अनेको लेखको ने स्वतंत्रता से लिखते हुए अपनी सहमति दी है, क्योंकि मुस्लिम शासक और आक्रांता, इस देश में आक्रमण करते और पुरुषो को मारकर, उनकी स्त्रियों को उठा ले जाते तथा अरब आदि देशो में गुलाम दासी के तौर पर दो दो दिनार में बेच देते थे, ये तो इतिहास था, मगर इतिहास फिर दुहरा गया, सीरिया में इस्लामी आतंकी संगठन ने यजीदी महिलाओ को निर्वस्त्र करके गली मोहल्ले में बोली लगाकर १०० डॉलर में बेचा, ये तो अभी हाल की ही खबर है, बिलकुल यही परिस्थिति मुग़ल काल में भी थी राजपुताना में मौजूद अनेको जौहर स्थल इसके साक्षात प्रमाण हैं। इतिहास साक्षी है, की मुस्लिमो की बादशाहत दौरान हिन्दू महिलाओ को अगवा कर बलात्कार किया जाता था, डॉ श्रीवास्तव अपनी पुस्तक अकबर द मुग़ल पृष्ठ ६३ में लिखते हैं “when people Deosa and other places on Akbar’s route fled away on his approach” अब यहाँ शंका ये है यदि राजा भारमल की पुत्री जोधा का विवाह वधु पक्ष की मर्जी से हुआ था तो अकबर के आने पर जनता भाग क्यों गयी ? जाहिर है, वो विवाह था ही नहीं, ये स्पष्ट है की अकबर ने राजा भारमल की पुत्री की सुंदरता के प्रसिद्द किस्से सुने थे, इसीलिए उसे पाने को राजा भारमल पर आक्रमण किया, यही हाल सती रानी दुर्गावती की कहानी का भी है, हालांकि जौहर करने से दो महिलाये बच गयी थी एक दुर्गावती की बहन कमलावती और दूसरी राजा पुरंगद की बेटी थी जिन्हे अकबर के हरम में पंहुचा दिया गया था (जे एम शेलत, अकबर 1964)

अनेको इतिहासिक दस्तावेजो से ये सिद्ध है की उत्तर भारतीय हिन्दू परिवारो में पर्दा प्रथा मौजूद नहीं थी, ये कुप्रथा हिन्दू समाज में मुस्लिम आक्रंताओ से हिन्दू महिलाओ को बचाने के लिए अपनाया गया, नवाब वज़ीर लखनऊ का तत्कालीन नवाब सुन्दर हिन्दू महिलाओ को अगवा कर उनको प्रताड़ित किया करता था, और जबरन मुसलमान बनवाता था (इट इज कॉन्टिनुएड, अशोक पंत, पृष्ठ १३०)

औरंगजेब के समय तत्कालीन प्रधान मंत्री का नवासा मिर्ज़ा तवाख्खुर ने हिन्दुओ की दुकानो को नष्ट किया और हिन्दू महिलाओ को अगवा कर बलात्कार किया (India & South East Asia to 1800 सांडर्सन बेक)

औरंगजेब के समय तत्कालीन प्रधान मंत्री का नवासा मिर्ज़ा तवाख्खुर ने घनश्याम जो नवविाहित वधु को डोली में बैठा कर घर ला रहा था, उसे अपने घर के गेट के सामने ही लूट लिया, २ हिन्दू मार दिए गए और घनश्याम की पत्नी को मिर्ज़ा तवाख्खुर अपने घर ले गया (Ahkam-i-Alamgiri)

The Afghan ruler Ahmad Shah Abdali attacked India in 1757 AD and made his way to the holy Hindu city of Mathura, the Bethlehem of the Hindus and birthplace ofKrishna.

The atrocities that followed are recorded in the contemporary chronicle called : ‘Tarikh-I-Alamgiri’ :

“Abdali’s soldiers would be paid 5 Rupees (a sizeable amount at the time) for every enemy head brought in. Every horseman had loaded up all his horses with the plundered property, and atop of it rode the girl-captives and the slaves. The severed heads were tied up in rugs like bundles of grain and placed on the heads of the captives…Then the heads were stuck upon lances and taken to the gate of the chief minister for payment.

“It was an extraordinary display! Daily did this manner of slaughter and plundering proceed. And at night the shrieks of the women captives who were being raped, deafened the ears of the people…All those heads that had been cut off were built into pillars, and the captive men upon whose heads those bloody bundles had been brought in, were made to grind corn, and then their heads too were cut off. These things went on all the way to the city of Agra, nor was any part of the country spared.”

कितने ही प्रमाण दिए जा सकते हैं, जो सिद्ध करते हैं, की हिन्दू महिलाओ पर मुस्लिम आक्रंताओ द्वारा कितना अत्याचार किया गया, की इससे हमारी सभ्यता और संस्कृति में अनेको परिवर्तन आ गए। जिनमे मुख्य रूप से :

पर्दा कुप्रथा का भारतीय महिलाओ द्वारा अपनाना मुख्य है।
बाल विवाह, ताकि हिन्दू महिलाओ को शोषण से बचा सके।
सती प्रथा, ये जौहर का परिणाम था जिसे स्वेच्छा से अपनाया जाने लगा ताकि मृत हिन्दू पति के बाद हिन्दू महिला की आबरू बच सके।

इसके अतरिक्त सतीशचंद गुप्ता से पूछना चाहेंगे की, जो पर्दा प्रथा हालिया हिन्दू समाज में पायी जाती है, वह केवल घूंघट या सर पर पल्लू रख कर देखि जाती है, लेकिन जो पर्दा प्रथा का समर्थन आक्षेपकर्ता ने किया वो बुरखा है, वो किसी भी लिहाज से घूँघट का कार्य तो करता नहीं, फिर बुरखा की बराबरी घूँघट से करना मानसिक दिवालियापन ही है। क्योंकि हालिया समय में हिन्दू समाज में घूँघट या सर पर पल्लू रखना एक नजरिये से देखे तो आदर सूचक ही लगता है जो बड़े बुजुर्गो के सम्मान हेतु रखते हैं, लेकिन बुरखा घूँघट या पर्दा की बराबरी नहीं कर सकता, फिर क्यों बराबर जोड़ा गया ?

अब हम इस लेख में ज्यादा तो अब नहीं लिख सकते, क्योंकि बड़ा हो जाएगा, अतः अब हम अगले लेख में देखेंगे, कि :

बुरका प्रथा मुस्लिम समाज में कैसे आया ?

बुरखे की हानिया और आज का आतंकवाद

बुरखे से महिलाओ को होने वाली बीमारियां तथा बुरखे पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण

बुरखे के कारण मुस्लिम महिलाओ की स्थति

महिला विकास में अवरोधक बुरखा

और क्या बुरखा महिलाओ के प्रति छेड़ छाड़ और बलात्कार रोक पाता है ?

अगले लेख में।

आओ लौट चले वेदो की और।

नमस्ते

मूक पशु भैंसों की हत्या रोकने पर महर्षि दयानन्द और उदयपुर नरेश महाराणा सज्जन सिंह के बीच वार्तालाप और उसका शुभ परिणाम’

ओ३म्

स्वामी दयानन्द जी सितम्बर, 1882 में मेवाड़ उदयपुर के महाराजा महाराणा सज्जन सिंह के अतिथि थे। नवरात्र के अवसर पर वहां भैंसों का वध रोकने की एक घटना घटी। इसका वर्णन महर्षि के 10 से अधिक प्रमुख जीवनीकारों ने अपने-अपने ग्रन्थों में किया है। हम यहां मास्टर लक्ष्मण आर्य द्वारा महर्षि दयानन्द के उर्दू जीवन चरित में प्रस्तुत घटना को प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु कृत हिन्दी अनुवाद से प्रस्तुत कर रहें हैं:

स्वामी जी मूक पशुओं के वकील बनेजब विजयादशमी पर्व आया तो स्वामी जी बग्घी पर बैठकर दशहरा देखने गये तो नवरात्र पर्व पर बलि के लिए भैंसें बहुत मारे जा रहे थे। इस पर स्वामी जी ने उदयपुर के राजदरबार से एक तार्किक विवाद किया। एक अभियोग के रुप में कहा कि भैंसों ने हमें वकील किया है। आप राजा हैं। हम आपके सामने इनका केस (अभियोग) करते हैं। पुरातन प्रथाओं के नएनए रूप दिखाते हुए अन्त में स्वामी जी ने उन्हें समझा दिया कि भैंसों के मारने से पाप के अतिरिक्त कुछ भी लाभ नहीं। यह अत्यन्त क्रूरता है, अन्याय है। तत्पश्चात् स्वामी जी ने उन्हें इससे रोका। तब महाराणा जी (उदयपुर नरेश महाराणा सज्जन सिंह) ने स्वीकार किया और कहा कि हम अविलम्ब तो बन्द नहीं कर सकते, ऐसा करना उचित है। लोग क्रुद्ध होंगे। तब स्वामी जी ने कहा, अच्छा शनैः शनैः घटा दो। तदनुसार वहीं सूची बनाई गई। राणा जी ने प्रतिज्ञा की कि मैं धीरेधीरे इसे घटाने का प्रयास करूंगा।

 

दयानन्द जी गायों के समान भेंस, बकरी, भेड़ इत्यादि सभी उपकारी पशुओं की सुरक्षा व संवर्धन के पक्ष में तथा उनकी हत्या कर मांसाहार के विरुद्ध थे। वह कहते थे कि पशुओं की हत्या वा मांसाहार से मनुष्य का स्वभाव हिंसक बन जाता है और वह योग विद्या के लिए पात्र वा योग्य  नहीं रहता।  योग विद्या का मुख्य लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति और उसका साक्षात्कार है जिसके लिए योगी को बहुत कम मात्रा में शुद्ध शाकाहारी भोजन ही लेना होता है।  मांसाहार करने वालों को अपने इन कर्मों का फल ईश्वर की व्यवस्था से कालांतर में भोगना ही होता है।  अवश्यमेव ही भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम। मनुष्य को मनुष्य मननशील  होने के कारण व सत्य व असत्य को विचार कर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करने के कारण कहते हैं।

 

स्वामी दयानंद द्वारा दी गई मनुष्य की परिभाषा भी पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत है: 

  ‘मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुखदुःख और हानिलाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं, की चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यों हों, उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उसका नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उसको कितना ही दारुण दुःख हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरुप धर्म से पृथक कभी होंवे।स्वामी जी ने इन पंक्तियों में जो कहा है, उसका उन्होंने अपने जीवन में सदैव पूर्णतः पालन किया और विरोधियों के षडयन्त्र का शिकार होकर दीपावली 30 अक्तूबर, 1883 ई. को अपना जीवन बलिदान कर दिया।

हम आशा करते हैं कि पाठक इससे उचित शिक्षा ग्रहण करेंगे।

 

प्रस्तुतकर्तामनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

 

 

धर्म विषयक सत्य व यथार्थ ज्ञान को ग्रहण करना व कराना कठिन कार्य है’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज का चतुर्थ नियम यह बनाया है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। इस नियम को सभी मनुष्य चाहे वह किसी भी धर्म के अनुयायी क्यों न हों, सत्य मानते व स्वीकार करते हैं परन्तु व्यवहार में वह ऐसा करते हुए अर्थात् असत्य को छोड़ते और सत्य को ग्रहण करते हुए दीखते नहीं है। महर्षि दयानन्द ने लगभग समस्त धार्मिक सत्य सिद्धान्तों व मान्यताओं से युक्त ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश लिखा। आज भी यह ग्रन्थ देश-विदेश में प्रचारित व प्रसारित है। होना तो यह चाहिये था कि सभी पठित व विवेकी लोग इसको पढ़ते, असत्य को छोड़ते व सत्य को स्वीकार कर लेते। परन्तु अपवादों को छोड़कर ऐसा नहीं हुआ। अनुमान है कि सभी मतों व सम्प्रदायों के आचार्यों व उनके अनेक अनुयायियों ने इसे पढ़ा व जाना भी है परन्तु सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़़ने के सिद्धान्त को मानते हुए भी शायद ही किसी ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखित सत्य मान्तयाओं व सिद्धान्तों को अपनाया हो। ऐसा नहीं कि सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का कुछ प्रभाव नहीं हुआ, संसार के मुख्यतः धार्मिक लोगों ने तर्क व युक्ति को अपनाया और तर्क का स्थान कुछ सीमा तक कुतर्क ने ले लिया है। इसका कारण जानना विचारणीय एवं महत्वपूर्ण हैं। इसी पर आगे विचार करते हैं।

 

सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को लिखने के लेखक के आशय व लोग सत्य मान्यताओं को स्वीकार क्यों नहीं करते, इस पर महर्षि दयानन्द की ग्रन्थ में लिखी भूमिका पर दृष्टि डाल लेते हैं। वह कहते हैं कि मेरा इस ग्रन्थ को बनाने का मुख्य प्रयोजन (मुख्यतः धर्म मतमतान्तर संबंधी) सत्यसत्य अर्थ का प्रकाश करना है। अर्थात् जो सत्य है, उसको सत्य और जो मिथ्या है, उसको मिथ्या ही प्रतिपादन करना, सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाये। किन्तु जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मत वाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिये वह सत्य मत को प्राप्त नही हो सकता। इसीलिए विद्वान आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरुप समर्पित कर दें, पश्चात वे स्वयं अपना हिताहित समझकर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहे। यहां महर्षि दयानन्द ने यह बताया है कि सभी मतों व धर्म के पक्षपाती लोग अपने असत्य को नहीं छोड़ते और दूसरे मत के सत्य को ग्रहण नहीं करते हैं, ऐसे लोग सत्य मत व धर्म को कभी प्राप्त नहीं हो सकते। वह अपनी हानि तो करते ही हैं, अपने उन अनुयायियों की जो उन पर आंखें बन्द कर विश्वास रखते हैं, उनकी भी हानि करते हैं। यह भी एक वा प्रमुख कारण समाज, देश व विश्व में अशान्ति का होता है।

 

इसके आगे महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि ’मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। परन्तु, इस ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में ऐसी बात नहीं रक्खी है और किसी का मन दुखाना या किसी की हानि पर तात्पर्य है। किन्तु, जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्यासत्य को मनुष्य लोग जानकर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें। क्योंकि, सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है। यहां महर्षि दयानन्द ने मनुष्य के असत्य में झुक जाने का कारण उसकी स्वार्थ की प्रवृत्ति, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों को बताया है। यहां जो कारण बतायें गये हैं, वह निर्विवाद है। यही कारण है कि आज संसार में एक धर्म के स्थान पर अनेकानेक धर्म वा मत-मतान्तर आदि फैले हुए हैं।

 

सभी मत-मतान्तरों के लोग अपने-अपने मत की सत्य व असत्य मान्यताओं पर विवेकरहित होकर विश्वास रखते व आचरण करते हैं, इस कारण वह न तो ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य स्वरुप को जान पाते हैं और न हि ईश्वर प्रदत्त वेद ज्ञान के महत्व को समझ पाते हैं। ईश्वर के ज्ञान वेद से लाभ उठाना तो बहुत दूर की बात है। मनुष्य को अपने सभी काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य व असत्य को विचार करके करने चाहिये, इससे भी यह मताग्रही लोग वंचित रहते हैं जिससे वर्तमान व परजन्म में अनेक हानियां उठाते हैं। संसार का उपकार करना अर्थात् सभी मनुष्यों की शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना भी मनुष्य का धर्म है, इससे भी यह मताग्रही लोग दूर ही रहते हैं। इन मताग्रहियों का अज्ञानपूर्वक अपने मत को उत्तम मानने के कारण ऐसा देखने को नहीं मिलता कि कि इनका व्यवहार दूसरे मतों के लोगों के प्रति प्रीति का, धर्मानुसार व यथायोग्य है, इस कारण ये यथार्थ धर्म के आचरण से भी दूर ही रहते हैं। संसार का श्रेष्ठ सिद्धान्त है कि मनुष्यों को अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। हम समझते हैं कि शायद् इस मान्यता का कोई भी विरोघी नहीं हो सकता व है। विज्ञान भी इसी सिद्धान्त पर कार्य करता है और उसने इस सिद्धान्त को अपनाकर ही असम्भव दीखने वाले कार्यों को सम्भव बना दिया है। यदि धर्म में भी अविद्या के नाश और विद्या की वृद्धि के इस सिद्धान्त का प्रवेश होता व अब भी हो जावें, तो सभी धर्मों वा मतों से असत्य, अज्ञान, अविद्या व अभद्र दूर हो सकते हैं। मताग्रहियों द्वारा इस सिद्धान्त का यथार्थ रूप में पालन न करने से वह अविद्या से ग्रसित रहते हैं व हैं। मत-मतान्तरों के व्यवहार के कारण अविद्या की भविष्य में भी दूर होने की कोई सम्भावना नहीं है। वेदों का एक सर्वमान्य सिद्धान्त यह है कि सभी मनुष्यों को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिये अपितु संसार के सभी मनुष्यों की उन्नति में ही अपनी उन्नति समझनी चाहिये। यह सभी मत-मतान्तर इस उद्देश्य की पूर्ति में भी बाधक सिद्ध हो रहे हैं जिसका कारण सत्य को व्यवहार व आचरण में न लाना वा स्वीकार न करना है। मत-मतान्तरों में निहित अज्ञान के कारण इनके सभी अनुयायी सामाजिक सर्वहतकारी नियम पालन करने में परतन्त्र रहने के सिद्धान्त के विपरीत भी आचरण करते हुए स्पष्ट दिखाई देते हैं जिससे सभी मनुष्यों की सर्वांगीण उन्नति में बाधा उपस्थित होती है।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने समय में ईश्वर पूजा और मूर्तिपूजा को एक दूसरे का पर्याय समझने का खण्डन करते हुए मूर्तिपूजा को अकरणीय व त्याज्य सिद्ध किया था। अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जाति और सामाजिक विषमता, बाल विवाह, बेमेल विवाह, सती प्रथा, अशिक्षा, अन्धविश्वास व अज्ञान का विरोध कर उन्हें वेद, तर्क व युक्तियों से खण्डित किया था जिसके प्रमाण आजतक किसी को नहीं मिले। इस पर भी इन सबका किसी न किसी रूप में व्यवहार हो रहा है जो कि देश व समाज के लिए हितकर नहीं है। अन्य मत के लोग भी हिन्दुओं का छल, प्रपंच, प्रलोभन, छद्म सेवा, बल प्रयोग व भय से धर्मान्तरण करने के नये-नये तरीके अपनाते रहते हैं। इतिहास में जो हुआ है वह सबके सामने है परन्तु लगता है कि इससे हमारे धर्म व संस्कृति के ठेकेदारों ने कोई शिक्षा ग्रहण नहीं की। मनुस्मृति में चेतावनी दी गई है कि धर्म उसी की रक्षा करता है जो धर्म की रक्षा करता है तथा जो मनुष्य व समाज धर्म का पालन करके उसकी रक्षा नहीं करता, धर्म भी उसकी रक्षा नहीं करता। अतीत में ऐसा हो चुका है कि हमारे पूर्वजों ने जिस पौराणिक मत का पालन किया, उसने उसकी रक्षा नहीं की। गुलामी व देशविभाजन सहित हमारे पूर्वजों, माताओं व बहिनों को अपमानित किया गया व होना पड़ा और अपना धर्म तक गंवाना पड़ा। ऐसा ही कुछ-कुछ वर्तमान व भविष्य में भी हो सकता है। अतः सभी मनुष्यों को वेदों का अध्ययन कर अपने अज्ञान को दूर कर अन्धविश्वासपूर्ण धार्मिक व सामाजिक मान्यताओं, विचारों व आस्थाओं को बदलना ही होगा। जो पदार्थ लचीला न हो वह टूट जाता है। हमें व संसार के सभी लोगों को लचीला होने का परिचय देना है। सत्य का आचरण ही मनुष्य धर्म है। इसी से मानवता की रक्षा होगी। आईये, सत्य के ग्रहण व असत्य के छोड़ने वा सत्य व असत्य को जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ के अध्ययन का व्रत लें। अविद्या के नाश व विद्या की उन्नति द्वारा स्वयं की उन्नति के लिए यह अति आवश्यक है। यदि ऐसा कर लाभ नहीं उठायेंगे तो पछताना होगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

श्राद्ध और गरुड़ पुराण की वास्तविकता: डॉ धर्मवीर परोपकारिणी सभा

 

पुराण और गप्प दोनों शब्द अन्योन्याश्रित हैं। जब गप्पे अधिक हो जायें तो पुराण बन जाता है। पुराण है तो गप्पों की भरमार होनी है। सामान्य रूप से सभी धार्मिक लोग धर्म में चमत्कार बताने के लिये गप्पों का आश्रय लेते ही हैं। इसी कारण धर्मग्रन्थों में गप्पों की कमी नहीं मिलती। पुराण और जैन ग्रन्थ तो गप्पों में एक से एक बढ़कर हैं। गरुड़ पुराण में भी गप्पों की कमी नहीं है। गरुड़ पुराण में यमलोक के मार्ग का वर्णन करते हुए मार्ग में पड़ने वाली वैतरणी नदी की चौड़ाई शत योजन विस्तीर्ण अर्थात् सौ योजन चौड़ी बताई है, एक योजन में चार कोस होते हैं, एक कोस में दो मील होते हैं। यह नदी कोई पानी की नदी नहीं है, यह नदी पूय शोणित वाहिनी अर्थात् जिसमें खून और पस बहती है। ऐसी कोई नदी संसार में है नहीं परन्तु पुराणकार के नक्शे में तो है। एक आर्यसमाजी को गरुड़ पुराण का परिचय सत्यार्थप्रकाश की निन पंक्तियों से मिलता है, जो अन्यों के लिए भी उतना ही सटीक है-

प्रश्न- क्या गरुड़ पुराण भी झूठा है?

उत्तर- हाँ, असत्य है।

प्रश्न- फिर मरे हुए जीव की क्या गति होती है?

उत्तर- जैसे उनके कर्म हैं।

प्रश्न- जो यमराज राजा, चित्रगुप्त मन्त्री, उसके बड़े भयङ्कर गण कज्जल के पर्वत के तुल्य शरीरवाले जीव को पकड़ कर ले जाते हैं, पाप-पुण्य के अनुसार नरक-स्वर्ग में डालते हैं। उसके लिये दान, पुण्य, श्राद्ध, तर्पण, गोदानादि वैतरणी नदी तारने के लिये करते हैं। ये सब बात झूठ क्योंकर हो सकती हैं।

उत्तर- ये सब बातें पोपलीला के गपोड़े हैं। जो इस लोक से भिन्न लोकों के जीव वहाँ जाते हैं, उनका धर्मराज, चित्रगुप्त आदि न्याय करते हैं तो यदि यमलोक के जीव पाप करें तो दूसरा यमलोक मानना चाहिये कि वहाँ के न्यायाधीश उनका न्याय करें और पर्वत के समान यमगणों के शरीर हों तो दीखते क्यों नहीं? और मरनेवाले जीव को लेने में छोटे द्वार में रुक जाते। जो कहो कि वे सूक्ष्म देह भी धारण कर लेते हैं तो प्रथम पर्वतवत् शरीर के बड़े-बड़े हाड़ पोपजी विना अपने घर के कहाँ धरेंगे? जब जङ्गल में आगी लगती है तब एकदम पिपीलिकादि जीवों के शरीर छूटते हैं। उनको पकड़ने के लिये असंय यम के गण आवें तो वहाँ अन्धकार हो जाना चाहिये और जब आपस में जीवों को पकड़ने को दौड़ेंगे तब कभी उनके शरीर ठोकरें खा जायेंगे तो जैसे पहाड़ के बड़े-बड़े शिखर टूटकर पृथिवी पर गिरते हैं, वैसे उनके बड़े-बड़े अवयव गरुड़पुराण के बाँचने-सुनने वालों के आँगन में गिर पड़ेंगे तो वे दब मरेंगे वा घर का द्वार अथवा सड़क रुक जायगी तो वे कैसे निकल और चल सकेंगे? श्राद्ध, तर्पण, पिण्ड-प्रदान उन मरे हुए जीवों को तो नहीं पहुँचता, किन्तु मृतकों के प्रतिनिधि पोपजी के घर, उदर और हाथ में पहुँचता है। जो वैतरणी के लिये गोदान लेते हैं, वह तो पोपजी के घर में अथवा कसाई आदि के घर में पहुँचता है। वैतरणी पर गाय नहीं जाती, पुनः किसकी पूँछ पकड़ कर तरेगा? और हाथ तो यहीं जलाया वा गाड़ दिया गया, पूँछ को कैसे पकड़ेगा? यहाँ एक जाट का दृष्टान्त इस बात में उपयुक्त है-

एक जाट था। उसके घर में बीस सेर दूध देनेवाली गाय थी। दूध बड़ा स्वादिष्ट होता था। कभी-कभी पोपजी के मुख में भी पड़ता था। उसका पुरोहित यही ध्यान कर रहा थ कि जब जााट का बुड्ढा बाप मरने लगेगा तब इस गाय का सङ्कल्प करा लेंगे। दैवयोग से उसके बाप का मरण समय आया। जीभ बन्द हो गई और खाट से नीचे उतार सुवाया। बहुत से जाट के सबन्धी उपस्थित थे। उस समय पोपजी पुकारा- ‘‘लो यजमान! इसके हाथ से गोदान कराओ।’’ जाट ने दश रुपया निकाल, पिता के हाथ में रखकर बोला- ‘‘पढ़ो सङ्कल्प!’’ पोपजी बोले- ‘‘वाह! बाप वारवार मरता है? साक्षात् गाय लाओ, वह दूध भी देती हो, बुड्ढी न हो और सब प्रकार उत्तम हो।’’

जाट- एक गाय हमारे है, उसके विना हमारे लड़के-बालों का निर्वाह नहीं हो सकता, उसको न दूंगा। लो ये बीस रुपये का सङ्कल्प। तुम दूसरी गाय ले लेना।

पोपजी- वाहजी वाह! तुम अपने बाप से भी गाय को अधिक समझते हो? अपने पिता को वैतरणी में डुबा, दुःख देना चाहते हो? तुम अच्छे सुपुत्र हुए! तब तो पोपजी की ओर सब कुटुबी हो गये, क्योंकि उन सबको पहिले ही से पोपजी ने बहका रक्खा था और उस समय भी इशारा कर दिया। सबने मिलकर हठ से उसी गाय का दान पोपजी को दिला दिया। उस समय जाट कुछ भी न बोला। उसका पिता मर गया। पोपजी गाय, बछड़ा और दूध दोहने की बटलोही लेकर, घर में जा, गाय-बछड़े को बांध, बटलोही को धर, यजमान के घर आया, श्मशान में ले जा, दाह किया। वहाँाी कुछ-कुछ पोपलीला चलाई। पश्चात् दशगात्र सपिण्डी कराने आदि में भी उसको मूंडा। महाब्राह्मणों ने भी लूटा, भुक्खड़ों ने भी बहुत-सा माल पेट में भरा। जब सब हो चुका, तब जाट ने जिस-किसी के घर से दूध माँग-मूंग निर्वाह किया। चौदहवें दिन प्रातःकाल पोपजी के घर पहुँचा। देखा तो गाय को दुह, बटलोई भर, पोपजी की उठने की तैयारी थी। इतने ही में जाटजी पहुँचे। पोपजी ने कहा आइये बैठिये!

जाटजी- तुम भी इधर आओ।

पोपजी- अच्छा दूध धर आऊँ।

जाटजी- नहीं, दूध की बटलोई इधर लाओ। पोपजी जो, बटलोई सामने धर, बैठे।

जाटजी- तुम बड़े झूठे हो।

पोपजी- क्या झूठ किया?

जाटजी-गाय किसलिये ली थी?

पोपजी- तुहारे बाप के वैतरणी तरने के लिये।

जाटजी- फिर तुमने वैतरणीके किनारे क्यों न पहुँचाई? हम तुहारे भरोसे पर रहे। न जाने मेरे बाप ने वैतरणी में कितने गोते खाये होंगे?

पोपजी- नहीं-नहीं, वहाँ इस दान के पुण्य के प्रभाव से दूसरी गाय बन गई। तुहारे बाप को पार उतार दिया।

जाटजी- वैतरणी नदी यहाँ से कितनी दूर और किधर की ओर है?

पोपजी- अनुमान तीस क्रोड़ कोश दूर है। क्योंकि उनञ्चास कोटि योजन पृथिवी है और दक्षिण नैर्ऋत दिशा में वैतरणी नदी है।

जाटजी- इतनी दूर से तुहारी चिट्ठी वा तार का समाचार गया हो, उसका उत्तर आया हो कि वहाँ पुण्य की गाय बन गई, अमुक के पिता को पार उतार दिया, दिखलाओ?

पोपजी- हमारे पास ‘गरुड़पुराण’ के लेख के विना डाक वा तारवर्की दूसरी कोई नहीं।

जाटजी- इस गरुड़पुराण को हम सच्चा कैसे मानें?

पोपजी- जैसे सब मानते हैं।

जाटजी- यह पुस्तक तुहारे पुरुखाओं ने तुहारी जीविका के लिये बनाया है। क्योंकि पिता को विना अपने पुत्रों के कोई प्रिय नहीं। जब मेरा पिता मेरे पास चिट्ठी-पत्री वा तार भेजेगा तभी मैं वैतरणी के किनारे गाय पहुँचा दूँगा और उनको पार उतार, पुनः गाय को घर में ले आ, दूध को मैं और मेरे लड़के-बाले पिया करेंगे, लाओ! दूध की भरी हुई बटलोई, गाय, बछड़ा लेकर जाटजी अपने घर को चला।

पोपजी- तुम दान देकर लेते हो, तुहारा सत्यनाश हो जायगा।

जाटजी- चुप रहो! नहीं तो तेरह दिन तक दूध के विना जितना दुःख हमने पाया है, सब कसर निकाल दूँगा। तब पोपजी चुप रहे और जाटजी गाय-बछड़ा ले, अपने घर पहुँचे।

जब ऐसे ही जाटजी के से पुरुष हों तो पोपलीला संसार में न चले।

सत्यार्थप्रकाश समुल्लास 11, पृ. 408-411

इसी प्रकार इक्कीस प्रकार के नरकों का वर्णन किया गया है। गरुड़ पुराण अन्य पुराणों की भांति यज्ञों में पशु हिंसा का भी उल्लेख करता है, वेदोक्त यज्ञ की हिंसा के अतिरिक्त अपने लिये पशु मारता है, ऐसा ब्राह्मण वैतरणी नदी में गिरता है। गरुड़ पुराण में शूद्र द्वारा वेद पढ़े जाने पर दण्ड विधान है, वेद पढ़ने वाला शूद्र भी वैतरणी नदी में गिरता है। गरुड़ पुराण में लिखा है जो शूद्र होकर वेद पढ़ता है, जो शूद्र कपिला गाय का दूध पीता है, यज्ञोपवीत धरण करता है, ब्राह्मणों से संसर्ग करता है, ऐसा वेद पढ़ने वाला शूद्र वैतरणी नदी में गिरता है। गरुड़ पुराण में लिखा है- दूसरी नदियाँ स्नान करने से पापी पुरुष को पवित्र करती हैं। यह गंगा नदी दर्शन तथा स्पर्श से, पान करने से, गंगा शब्द के उच्चारण मात्र से हजारों पापी पुरुषों को पवित्र कर देती है। यदि प्राण कण्ठ में आ गये हों फिर भी यदि मनुष्य गंगा-गंगा ऐसा उच्चारण करे तो वह विष्णु लोक को प्राप्त होता है। इसी प्रकार गरुड़ पुराण में सती-प्रथा का भी महत्व बताते हुए कहा गया है- यदि पतिव्रता स्त्री पति के साथ परलोक जाने की इच्छा करे, तब वह पति के मरने के बाद स्नानकर, रोली, केसर, अंजन, सुन्दर वस्त्र, आभूषण धारण कर ब्राह्मण व बन्धु वर्ग को यथायोग्य दान करे। गुरुजनों को नमस्कार करे, मन्दिर में देवता के दर्शन करे, पहने हुए आभूषण उतारकर विष्णु को अर्पित कर दे। श्रीफल लेकर सब मोह छोड़ श्मशान पहुँचे। सूर्य को नमस्कार कर चिता की परिक्रमा कर चिता को पुष्प शय्या समझकर उस पर बैठकर पति को अपनी गोदी में लिटाये। हाथ का श्रीफल सखि को दे अग्नि जलाने का आदेश दे और इस अग्निदाह को गंगा-स्नान समझे। स्त्री गर्भवती हो तो पति के साथ शरीर दाह न करे। पति के साथ चिता में जलने वाली स्त्री का शरीर तो जल जाता है परन्तु आत्मा को कुछ भी कष्ट नहीं होता, सती होने पर नारी के पाप वैसे ही दग्ध हो जाते हैं, जैसे अग्नि में धातुओं के मल नष्ट हो जाते हैं। पतिव्रता स्त्री को अग्नि उसी प्रकार नहीं जलाती जैसे सत्य बोलने वाले मनुष्य को अग्नि नहीं जलाती। पुराणकार कहता है- यदि स्त्री पति के साथ दग्ध हो जाती है तो वह फिर कभी स्त्री शरीर धारण नहीं करती, अन्यथा हर जन्म में वह स्त्री ही बनती है। सती होने वाली स्त्री अरुन्धती सदृश होकर स्वर्ग लोक में पूजनीय बन जाती है। स्वर्गलोक में चौदह इन्द्र के राज्य करने तक अपने पति के साथ आनन्द मनाती हुई, अप्सराओं के द्वारा स्तुति को प्राप्त होती है। सती होने होने वाली स्त्री माता-पिता-पति तीनों कुलों का उद्धार करती है। मनुष्य के शरीर पर साढ़े तीन करोड़ रोम हैं, इतने वर्षों तक सती स्त्री स्वर्ग में रहती है, सूर्य-चन्द्र के रहने तक पतिलोक में निवास करती है। सती स्त्री अपनी इच्छा से पुनः लक्ष्मीवान कुल में जन्म धारण करती है। पुराण गप्पकार अन्त में कहता है- जो स्त्री क्षणमात्र अग्निदाह के दुःख से भयभीत अपने को नहीं जलाती, वह जन्मपर्यन्त वियोग अग्नि में जलती है और दुःखी होती है। अतः स्त्री को उचित है कि पति को रुद्र रूप जानकर उसके साथ अपने शरीर का दाह करे।

गरुड़ पुराण में सोलह अध्याय हैं परन्तु इस पुराण का मन्तव्य नौवें अध्याय से तेरहवें अध्याय में पूर्ण हो जाता है। प्रारभ के अध्यायों में यम मार्ग की चर्चा है। यमालय, वैतरणी का वर्णन है। आगे किस पाप को करने से मनुष्य कौनसी योनि को प्राप्त करता है, बताया गया है। गर्भ के दुःख किस प्रकार के हैं, यह बताकर अपने प्रयोजन को सिद्ध करने की भूमिका  में कहा गया है- मनुष्य पाप करके भी कैसे पाप के दुःखों से बच सकता है, उसके उपाय के रूप में पुत्र-प्राप्ति और पुत्र द्वारा किया श्राद्ध मनुष्य को सभी दुःखों से छुड़ा देता है, यहाँ भूमिका के रूप में एक कथा कही गई है, जो राजा एक प्रेत का और्ध्व दैहिक कर्म करके उसे दुःखों से मुक्ति दिला देता है।

मनुष्य मरने लगे तो उसे शैय्या से उतार कर तुलसी दल के पास गोबर से लिपे स्थान पर लिटा दे। पास में शालीग्राम रखे। इससे निश्चित मुक्ति होती है। तिलदान, दर्भ का स्पर्श, शालीग्राम का जल पिलाना, गंगाजल मुख में डालना। जो मनुष्य धर्मात्मा होता है, उसके प्राण शरीर के उपरि छिद्र से निकलते हैं। जो पापी होता है, उसके प्राण देह के निन छिद्रों से निकलते हैं। विष्णुलोक से विमान आकर उस आत्मा को विष्णु लोक ले जाता है।

दसवें अध्याय में मृत्यु के बाद, पुत्र मुण्डन कराये, गंगा की मिट्टी का शरीर पर लेप करे, शव को स्नान कराकर चन्दन का लेप करे, नवीन वस्त्र से ढककर पिण्डदान करे, परिवार के लोग शव की प्रदिक्षणा कर सर्वप्रथम  पुत्र अर्थी को कन्धा देवे। अग्नि की प्रार्थना कर श्मशान में चिता बनावे, पिण्ड बनाकर चिता में रखे, सपिण्ड श्राद्ध करे। जो पञ्चक में मरता है, उसकी सद्गति नहीं होती, पञ्चक पांच नक्षत्रों को कहते हैं। इनमें मरने पर पहले नक्षत्रों की पूजा करे, पत्नी सती होना चाहे तो सती हो जाये। शव का दाह कर कपाल क्रिया करे। स्त्रियाँ स्नान कर तिलाञ्जलि देवें। घर आकर स्नानकर गो ग्रास दे, जो भोजन अपने घर न पका हो, उसका पत्तल में भोजन करे। बारह दिन तक मृतक के स्थान पर घृत का दीपक जलाये। चौराहे पर दूध पानी रखे। तीसरे या चौथे दिन श्मशान जाकर अस्थि का चयन करे। दूध का जल छिड़क कर अग्नि को शान्त करे। तीन दिशा में तीन पिण्ड दान करे। चिता भस्म को इकट्ठा कर उसपर पानी भरा घड़ा रखे, श्मशान में प्रथम गड्ढे में अस्थि-पात्र रखे फिर जलाशय में ले जावे, फिर यथाविधि गंगा में प्रक्षेप करे। जिसकी अस्थियाँ जितने वर्ष गंगा में रहती हैं, वह उतने वर्ष स्वर्ग लोक में रहता है। संन्यासियों को जल में बहा दे या भूमि में गाड़ दे।

ग्यारहवें अध्याय में दशगात्र विधि का वर्णन है। मरे व्यक्ति का पाक्षिक, मासिक, फिर वार्षिक श्राद्ध करे। दशरात्रि प्रेत के नाम पर दूध, दीप, नैवेद्य, सुपारी, पान, दक्षिणा, दूध, पानी आदि देवे, जो प्रेत के नाम से देते हैं, वह प्रेत को प्राप्त हो जाता है। इस में पहले दिन से दसवें दिन तक प्रतिदिन क्या करे, इसका वर्णन है। दसवें दिन सब परिवार वाले मुण्डन कराके स्नान कर ब्राह्मणों को दसों दिन तक मिष्टान्न भोजन कराये, गो ग्रास दे कर भोजन करें।

ग्यारहवें दिन वृषोत्सर्ग करे, शय्यादान करे, शय्या में विष्णु की स्वर्ण प्रतिमा बनाकर दान करें, प्रेत के लिये गौ, वस्त्र, वाहन, आभूषण, घर जो भी जितना देने में समर्थ हो, उतना ब्राह्मणों को दान करे। ब्राह्मणों के चरण धोये, लड्डू मिष्टान्न आदि देवें। वृषोत्सर्ग करने से मनुष्य सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है। इसमें अड़तालीस प्रकार के श्राद्ध बताये गये हैं।

अगले तेरहवें अध्याय में सूतक का वर्णन है। किस दुर्घटना से किस सबन्ध को कितने दिन का सूतक होता है, यह विस्तार से बताया गया है। हर स्थान पर शय्या दान, पददान का विधान है। पददान में छाता, जूता, वस्त्र, अंगूठी, कमण्डल, आसन, पञ्चपात्र, इन सात वस्तुओं का नाम पद है। इसके बाद तेरह ब्राह्मण को भोजन करावें। फिर तीर्थ-श्राद्ध, गया-श्राद्ध, पितृ-श्राद्ध करने का विधान है। इस प्रकार श्राद्ध करने से पितर तृप्त और प्रसन्न होते हैं।

गरुड़ पुराण में बहुत सारी बाते प्रसंगवश उद्धृत हैं, उनपराी दृष्टि डालना उचित होगा। एक लबी सूची दी गई है, क्या-क्या करने से मनुष्य नरक को प्राप्त होते हैं, पूरा चौथा अध्याय ऐसा है, जिसका शीर्षक है- ते वै नरक गामिनः। ब्राह्मण यदि यज्ञ न करे, अखाद्य खाये तो अगले जन्म में व्याघ्र बनेगा। पाँचवें अध्याय में क्या करने से कौन-सी योनि प्राप्त होती है, इसका वर्णन किया गया है। जैसे जो बाहर से ब्राह्मण वेषधारी है, सन्ध्या नहीं करता, वह अगले जन्म में बगुला बनता है। मनुष्य के शुभाशुभ कर्म समान होने पर पुनः मनुष्य जन्म मिलता है- ‘‘मानुषं लभते पश्चात् समी भूते शुभाऽशुभे। 5/52’’ छठे अध्याय में मनुष्य के तीन ऋण की चर्चा की गई है। गर्भ में वृद्धि किस प्रकार होती है, इसकी प्रसंग से चर्चा की गई है। जीवन की नश्वरता बताते हुए धर्माचरण करने की प्रेरणा दी गई है। कर्मफल के अनुसार मनुष्य पुनर्जन्म को प्राप्त करता है। ग्यारहवें अध्याय में शरीर की अनित्यता का सुन्दर वर्णन है। मरने वाले के लिये रोना व्यर्थ है, वह कभी लौटकर नहीं आता। चौदहवें अध्याय में स्वर्ग की धर्मसभा का वर्णन है, इसमें लबी चौड़ी गप्पें लगाई गई हैं। उस धर्म सभा में वेद-पुराण का पारायण करने वालों को स्थान मिलने की चर्चा है। इसी अध्याय में ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी, संन्यासियों का भी उल्लेख मिलता है। नवीन वेदान्त की चर्चा में अध्यारोप अपवाद से ब्रह्म चिन्तन करने का विधान किया गया है। शरीर के पारमार्थिक और व्यावहारिक दो रूपों का वर्णन किया गया है। शरीर के अन्दर सात लोक कौनसे हैं? इस की चर्चा है। मोक्ष प्राप्ति के लिये अजपा गायत्री जप का विधान किया है। धर्मात्मा स्वर्ग का सुख पाकर पुनः गर्भ में कैसे आता है, इसका वर्णन करते हुए सुन्दर शदों में मनुष्य के शरीर का महत्त्व बताया गया है।

गरुड़ पुराण मुय रूप से और्ध्व दैहिक क्रियाओं के विधि विधान का ग्रन्थ है। जिसमें ब्राह्मणों ने अपने काल्पनिक भय दिखा कर मनुष्य को मृतक के निमित्त से भोजन, दानादि कराने की व्यवस्था है, जिससे परपरा से ब्राह्मणों के अधिकारों का संरक्षण देखने को मिलता है, जैसा कहा गया है-

यह संसार देवताओं के आधीन है, देवता मन्त्रों के आधीन है, मन्त्र ब्राह्मण के आधीन है, अतः सारा संसार ब्राह्मणों के आधीन होता है।

देवाधीनं जगत्सर्वं, मन्त्राधीनाश्च देवताः।

ते मन्त्रा ब्राह्मणाधीनाः, तस्मात् ब्राह्मण दैवतम्।।

– धर्मवीर

‘गोरक्षा-आन्दोलन और गोपालन का महत्व’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

आर्य विद्वान और नेता लौह पुरूष पं. नरेन्द्र जी, हैदराबाद की आत्मकथा जीवन की धूपछांव से गोरक्षा आन्दोलन विषयक उनका एक संस्मरण प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि ‘सन् 1966 ईस्वी में पुरी के  जगद्गुरु शंकराचार्य के नेतृत्व में गोरक्षा आन्दोलन चलाया गया था। पांच लाख हिन्दुओं का एक ऐतिहासिक जुलूस लोकसभा तक निकाला गया था। वहां पहुंचकर प्रधानमन्त्री, गृहमन्त्री श्री गुलजारी लाल नन्दा को गोरक्षा नियम बनाने के लिए ध्यानाकर्षण के निमित्त ज्ञापन दिया गया। भारत सरकार ने अपनी शक्ति के द्वारा इस आन्दोलन को समाप्त करने का प्रयत्न आरम्भ कर दिया। सत्याग्रह आन्दोलन उभरता ही गया। हजारों आर्य समाजियों ने सत्याग्रह में भाग लिया। हैदराबाद में पुरी के शंकराचार्य ने 1968 ई. में गोरक्षा-सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए कहा था – ‘‘गोरक्षा आन्दोलन में आर्यसमाज ने अपना जो योगदान दिया है, उसके लिए मैं आर्यसमाज का जन्म भर आभारी रहूंगा। इस आन्दोलन में 21 गोभक्त शहीद हुए। कांग्रेसी राज्य के अत्याचार अनाचार, मारपीट के बावजूद भारत के कोनेकोने से लगातार जत्थे देहली पहुंचकर अपनेआपको गिरफ्तार कराते रहे। ऐसे अवसर पर चुप्पी साधकर बैठना मेरी (पं. नरेन्द्र की) प्रकृति के विरुद्ध था। मैंने उस समय दिल्ली पहुंच कर 112 सत्याग्रहियों के साथ चांदनी चैक, दिल्ली में हजारों हिन्दुओं और आर्यों की उपस्थिति में सत्याग्रह किया। हम सबको तिहाड़ जेल पहुंचा दिया गया, जहां मजिस्ट्रेट ने एकएक मास की सजा सुनाई। हैदराबाद से श्री मुन्नालाल मिश्र, श्री गोपाल देवशास्त्री, श्री सोहनलाल वानप्रस्थी और श्री बंसीलाल जी के अतिरिक्त जालना, गुलबर्गा के आर्य समाजियों ने इसमें बढ़-चढ़ के भाग लिया था। श्री करपात्री जी के त्रुटिपूर्ण नेतृत्व के कारण यह आन्दोलन सफलता के द्वार तक पहुंचने से पूर्व ही सरकार की कूटनीति का शिकार हो गया।’

 

ईश्वरीय ज्ञान वेद में ईश्वर ने गोमाता को ‘‘गो सारे संसार की मां है कहकर सम्मान दिया है। यजुर्वेद के पहले ही मन्त्र में गो की रक्षा करने का निर्देश ईश्वर की ओर से दिया गया है। गोदुग्ध पूर्ण आहार है। जिस  बच्चे व अति वृद्ध के मुंह में दांत नहीं होते उनका पालन पोषण भी गो दुग्ध के द्वारा होता है। हमने पढ़ा था कि भूदान यज्ञ के नेता विनोबा  भावे जी को उदर रोग था जिस कारण अन्न का सेवन उनके लिए निषिद्ध था और वह गो दुग्ध पीकर ही जीवन निर्वाह करते थे। पं. प्रकाशवीर शास्त्री ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक गोहत्या राष्ट्र हत्या में लिखा है कि अनुसंधान में यह पाया गया है कि यदि गो को कई दिनों तक चारा न भी दिया जाये तब भी वह कई दिनों तक भूखी रहकर दूध देती रहती है। हमने स्वामी ओमानन्द सरस्वती जी की पुस्तक गोदुग्ध अमृत है। में पढ़ा था कि एक निर्धन व असहाय किसान की आंखों की रोशनी चली गयी। उसके घर में एक गाय की बछिया थी जिसे उसका पुत्र पाल रहा था। कुछ महीनों बाद वह गाय बियाई तो घर में दुग्ध की प्रचुरता हो गई। कुछ ही दिनों में उस परिवार में चमत्कार हो गया। उस वृद्ध की आंखों की रोशनी गाय का दूध पीने से लौट आई। आज के समय का सबसे भयंकर रोग कैंसर है। इस रोग में भी गाय का मूत्र कारगर व लाभप्रद सिद्ध होता है। गोसदन में यदि क्षय रोगी को रखा जाये तो उसका रोग भी ठीक हो जाता है। महर्षि दयानन्द ने अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक गोकरुणानिधि में एक गाय की एक पीढ़ी से होने वाले दुग्ध और उसके बैलों से मिलने वाले अन्न की एक कुशल अर्थशास्त्री की भांति गणना की है और बताया है कि गाय की एक पीढ़ी से दूध और अन्न को मिला कर देखने से निश्चय है कि 4,10,440 चार लाख दश हजार चार सौ चालीस मनुष्यों का पालन एक बार के भोजन से होता है।’ मांस से उनके अनुमान के अनुसार केवल अस्सी मांसाहारी मनुष्य एक बार तृप्त हो सकते हैं। वह लिखते हैं कि ‘‘देखों, तुच्छ लाभ के लिए लाखों प्राणियों को मार असंख्य मनुष्यों की हानि करना महापाप क्यों नहीं?’’

 

महर्षि दयानन्द ने अपने समय में गोरक्षा का आन्दोलन भी चलाया था। वह अनेक बड़े अंग्रेज राज्याधिकारियों से मिले थे और गोरक्षा के पक्ष में अपने तर्कों से उन्हें गो हत्या को बन्दर करने के लिए सन्तुष्ट वह सहमत किया था। उन्होंने करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर कराकर महारानी विक्टोरिया को भेजने की योजना भी बनाई थी जो तेजी से आगे बढ़ रही थी परन्तु विष के द्वारा उनकी हत्या कर दिये जाने के कारण गोरक्षा का कार्य अपने अन्तिम परिणाम तक नहीं पहुंच सका।

 

ईश्वर से गोरक्षा की प्रार्थना करते हुए वह गोकरुणानिधि पुस्तक की भूमिका में महर्षि दयानन्द कहते हैं कि ‘ऐसा सृष्टि में कौन मनुष्य होगा जो सुख और दुःख को स्वयं न मानता हो? क्या ऐसा कोई भी मनुष्य है कि जिसके गले को काटे वा रक्षा करें, वह दुःख और सुख का अनुभव करे? जब सब को लाभ और सुख ही में प्रसन्नता है, तो बिना अपराध किसी प्राणी का प्राण वियोग करके अपना पोषण करना यह सत्पुरुषों के सामने निन्दित कर्म क्यों होवे? सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर इस सृष्टि में मनुष्यों के आत्माओं में अपनी दया और न्याय को प्रकाशित करे कि जिससे ये सब दया और न्याययुक्त होकर सर्वदा सर्वोपकारक काम करें और स्वार्थपन से पक्षपातयुक्त होकर कृपापात्र गाय आदि प्शुओं का विनाश करें कि जिससे दुग्ध आदि पदार्थों और खेती आदि क्रियाओं की सिद्धि से युक्त होकर सब मनुष्य आनंद में रहे।

 

हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह गो का मांस खाने वाले मनुष्यों के हृदयों में सत्य ज्ञान का प्रकाश करे जिससे वह गोहत्या व गोमांस भक्षण का त्याग करके गो हत्या के महापाप और ईश्वर के दण्ड से बच सकंे तथा उनका अगला जन्म, जो कि निःसन्देह होना ही है, उसमें उन्हें निम्न जीवयोनियों में पड़कर दूसरों जीवों को लिए दुःख के समान स्वयं दुःख न भोग पड़े।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 1″

“पहले अध्याय का जवाब पार्ट 1″

प्यारे मित्रो व बंधुओ, नमस्ते

अभी कुछ दिन से एक पुस्तक पढ़ रहा था “सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा” जिसके लेखक सतीश चंद गुप्ता हैं, कहने को तो उन्होंने महर्षि दयानंद की क़ुरान पर उठाई आपत्तियों और समीक्षाओं पर अपनी समीक्षाएं करने का दावा किया है मगर ये समीक्षाएं कितनी फिट बैठती हैं ये हम इस लेख में समझने का प्रयास करेंगे। अभी इस लेख में इनकी पुस्तक के पहले अध्याय में महर्षि दयानंद की क़ुरान पर उठाई वाजिब और अनूठी शंकाओ और टिप्पणियों पर इनकी समीक्षाओं का जायजा लेंगे बाकी अगले लेखो में भी इनके द्वारा की गयी समीक्षाओं की व्यवहारिकता और सार्थकता पर भी प्रकाश डालने का पूर्ण प्रयास करेंगे ताकि हमारे बंधू सतीश चंद गुप्ता जी ये न कहे की इन्हे जवाब न मिला। आइये इनकी एक एक समीक्षा को देखे और समझे :

सतीश चंद गुप्ता जी (हमारे बंधू) ये बात स्पष्ट तौर पर स्वयं मानते हैं की ऋषि का ज्ञान जो सत्यार्थ प्रकाश में फैला हुआ है वो लगभग ३००० पुस्तको को पढ़ने के बाद का निचोड़ है, मगर अगले ही पल सत्यार्थ प्रकाश को आर्य समाज की रीढ़ की हड्डी बता दिया, हमारे प्रिय बंधू को शायद ये ज्ञात नहीं है की प्रत्येक आर्य समाजी अथवा हिन्दू भाई की रीढ़ की हड्डी और मान्य धार्मिक ग्रन्थ केवल और केवल “वेद” हैं, महर्षि दयानंद ने भी वेदो और आर्ष ग्रंथो तथा पुराण क़ुरान आदि अनार्ष ग्रंथो के गहन अध्यन पश्चात ही “सत्यार्थ प्रकाश” जैसी अमूल्य निधि का निर्माण किया ताकि समस्त मानव जाति सत्य को जानकार असत्य को त्याग देवे, आर्य समाज भी ऋषि के सत्यार्थ प्रकाश को सत्य असत्य के निर्धारण हेतु पढ़ना और पढ़ाना मानता है बाकी स्वाध्याय तो वेद और अन्य आर्ष ग्रंथो का भी करना चाहिए, सत्यार्थ प्रकाश एक निर्देशिका है जो वेद और आर्ष ग्रंथो तथा प्राचीन ऋषियों मुनियो का जो धर्म के प्रति विचार थे उनका प्रकटीकरण करना और सत्य तथा असत्य के भेद को जानने में सहायता लेना।

धयान देने वाली बात है जब किसी मत या सम्प्रदाय की ऐसी बातो पर ध्यान दिलाया जाए जो मानव समाज के लिए हितकर न हो और उसकी समीक्षा समुचित तर्कपूर्ण आधार पर हो तो उस मत व सम्प्रदाय को थोड़ा बुरा लगना अथवा असहज हो जाना, ये सम्बंधित मत व सम्प्रदाय वाले मनुष्यो का स्वाभाव ही होगा, क्योंकि ऋषि ने सत्यार्थ प्रकाश के भूमिका में ही लिखा है :

“मेरा इस ग्रन्थ के बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्य-सत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाय। किन्तु जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान् आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्याऽसत्य का स्वरूप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयम् अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें।”

महर्षि का बड़ा ही सरल और सहज भाव था की जो सत्यान्वेषी होकर इस ग्रन्थ को पढ़े तो उसे सत्य को ग्रहण करने में कोई परेशानी न होगी,

“परन्तु इस ग्रन्थ में ऐसी बात नहीं रक्खी है और न किसी का मन दुखाना वा किसी की हानि पर तात्पर्य है, किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्याऽसत्य को मनुष्य लोग जान कर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें, क्योंकि सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है।”

ये महर्षि दयानंद कृत सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में ही लिख दिया गया है, पर खेद की जो विद्वान व आप्त लोग जैसे हमारे बंधू सतीश चंद जी महर्षि की उक्त बातो को ठीक से न समझकर केवल पूर्वाग्रह से ही शायद अपनी समीक्षा करते गए।

आइये अब एक एक शंका को देखते हैं की सतीश चंद जी की समीक्षा पर समीक्षा क्या है ?

1. महर्षि को संस्कृत का प्रकांड विद्वान भी मानते हैं और उन्ही महर्षि के द्वारा लिखी गयी समीक्षा को भाषा शैली अनुसार घिनौनी और शर्मनाक भी कहते हैं, पर क्या सच में ऐसा है ? आइये एक नजर डाले :

देखो इन गवर्गण्ड पोपों की लीला : ये शब्द महर्षि ने किस कारण और प्रकरण पर उपयोग किया जरा पूरा देखिये :

“अर्थात् देखो इन गवर्गण्ड पोपों की लीला जो कि वेदविरुद्ध महा अधर्म के काम हैं उन्हीं को श्रेष्ठ वाममर्गियों ने माना। मद्य, मांस, मीन अर्थात् मच्छी, मुद्रा पूरी कचौरी और बड़े रोटी आदि चर्वण, योनि, पात्रधार, मुद्रा और पांचवां मैथुन अर्थात् पुरुष सब शिव और स्त्री सब पार्वती के समान मान कर” (एकादश समुल्लास)

बताइये जो वेद विरुद्ध कर्म हो ऐसे हीन और लज्जामय कर्म को यदि कोई धार्मिक कार्य बतावे तो क्या उसकी बढ़ाई होगी ?

आगे देखिये :

“रक्तबीज के शरीर से एक बिन्दु भूमि में पड़ने से उस के सदृश रक्तबीज के उत्पन्न होने से सब जग्त में रक्तबीज भर जाना, रुधिर की नदी का बह चलना आदि गपोड़े बहुत से लिख रक्खे हैं। जब रक्तबीज से सब जगत् भर गया था तो देवी और देवी का सिह और उस की सेना कहां रही थी? जो कहो कि देवी से दूर-दूर रक्तबीज थे तो सब जगत् रक्तबीज से नहीं भरा था? जो भर जाता तो पशु, पक्षी, मनुष्यादि प्राणी और जलस्थ मगरमच्छ, कच्छप, मत्स्यादि, वनस्पति आदि वृक्ष कहां रहते? यहां यही निश्चित जानना कि दुर्गापाठ बनाने वाले पोप के घर में भाग कर चले गये होंगे!!! देखिये! क्या ही असम्भव कथा का गपोड़ा भंग की लहरी में उड़ाया जिसका ठौर न ठिकाना।” (एकादश समुल्लास)

अब देखिये यहाँ भी सतीश चंद जी ऐसे ही अन्य आक्षेप भी बिना प्रकरण को पूरी तरह से पढ़े केवल पूर्वाग्रह के कारण अपनी समीक्षाओं में लिखते गए यदि पूरी समीक्षाएं इसी प्रकार आपके समक्ष रखता जाउ तो बहुत बड़ा लेख हो जावेगा इसलिए आप एक बार स्वयं भी सत्यार्थ प्रकाश की समीक्षाओं को पढ़कर सतीश चंद जी की समीक्षाओं पर खुद नजर डाले की वो आखिर किस हद तक वाजिब हैं

जबकि महर्षि दयानंद सत्य के कितने बड़े मान्यकर्ता थे वो आपको हम दिखाते हैं :

ऋषि ने जहाँ जहाँ क़ुरान में जो थोड़ा बहुत सत्य पाया है उसपर अपने विचार भी प्रकट किये हैं :

१३७-उतारना किताब का अल्लाह गालिब जानने वाले की ओर से है।। क्षमा करने वाला पापों का और स्वीकार करने वाला तोबाः का।।

-मं० ६। सि० २४। सू० ४०। आ० १। २। ३।।

(समीक्षक) यह बात इसलिये है कि भोले लोग अल्लाह के नाम से इस पुस्तक को मान लेवें कि जिस में थोड़ा सा सत्य छोड़ असत्य भरा है और वह सत्य भी असत्य के साथ मिलकर बिगड़ा सा है। इसीलिये कुरान और कुरान का खुदा और इस को मानने वाले पाप बढ़ाने हारे और पाप करने कराने वाले हैं। क्योंकि पाप का क्षमा करना अत्यन्त अधर्म है। किन्तु इसी से मुसलमान लोग पाप और उपद्रव करने में कम डरते हैं।।१३७।। (चतुर्दश समुल्लास)

“अब इस कुरान के विषय को लिख के बुद्धिमानों के सम्मुख स्थापित करता हूँ कि यह पुस्तक कैसा है? मुझ से पूछो तो यह किताब न ईश्वर, न विद्वान् की बनाई और न विद्या की हो सकती है। यह तो बहुत थोड़ा सा दोष प्रकट किया इसलिये कि लोग धोखे में पड़कर अपना जन्म व्यर्थ न गमावें। जो कुछ इस में थोड़ा सा सत्य है वह वेदादि विद्या पुस्तकों के अनुकूल होने से जैसे मुझ को ग्राह्य है वैसे अन्य भी मजहब के हठ और पक्षपातरहित विद्वानों और बुद्धिमानों को ग्राह्य है।” (चतुर्दश समुल्लास)

७३-मत फिरो पृथिवी पर झगड़ा करते।। -मं० २। सि० ८। सू० ७। आ० ७४।।

(समीक्षक) यह बात तो अच्छी है परन्तु इस से विपरीत दूसरे स्थानों में जिहाद करना काफिरों को मारना भी लिखा है। अब कहो यह पूर्वापर विरुद्ध नहीं है? इस से यह विदित होता है कि जब मुहम्मद साहेब निर्बल हुए होंगे तब उन्होंने यह उपाय रचा होगा और जब सबल हुए होंगे तब झगड़ा मचाया होगा। इसी से ये बातें परस्पर विरुद्ध होने से दोनों सत्य नहीं हैं।।७३।। (चतुर्दश समुल्लास)

उपर्लिखित सभी तथ्यों से ज्ञात हो जाता है की महर्षि दयानंद सत्य के प्रति कितने गंभीर थे, उन्होंने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में केवल सत्य को ग्रहण करवाने हेतु ही पुस्तक का सृजन किया, महर्षि ने अन्य मत मतांतरों, सम्प्रदायों में भी जो जो सत्य देखा उसे अपनी सत्यार्थ प्रकाश में समीक्षा के अंतर्गत लिखा है देखिये :

“और जो आप झूठा और दूसरे को झूठ में चलावे उसको शैतान कहना चाहिये सो यहां शैतान सत्यवादी और इससे उसने उस स्त्री को नहीं बहकाया किन्तु सच कहा और ईश्वर ने आदम और हव्वा से झूठ कहा कि इसके खाने से तुम मर जाओगे।” (त्रयोदश समुल्लास)

(समीक्षक) अब देखिये! ईसाइयों के ईश्वर की लीला कि प्रथम तो सरः का पक्षपात करके हाजिरः को वहां से निकलवा दी और चिल्ला-चिल्ला रोई हाजिरः और शब्द सुना लड़के का। यह कैसी अद्भुत बात है? यह ऐसा हुआ होगा कि ईश्वर को भ्रम हुआ होगा कि यह बालक ही रोता है। भला यह ईश्वर और ईश्वर की पुस्तक की बात कभी हो सकती है? विना साधारण मनुष्य के वचन के इस पुस्तक में थोड़ी सी बात सत्य के सब असार भरा है।।२५।। (त्रयोदश समुल्लास)

“खुदा ने शैतान से पूछा कहा कि मैंने उस को अपने दोनों हाथों से बनाया, तू अभिमान मत कर। इस से सिद्ध होता है कि कुरान का खुदा दो हाथ वाला मनुष्य था। इसलिए वह व्यापक वा सर्वशक्तिमान् कभी नहीं हो सकता। और शैतान ने सत्य कहा कि मैं आदम से उत्तम हूँ, इस पर खुदा ने गुस्सा क्यों किया? क्या आसमान ही में खुदा का घर है; पृथिवी में नहीं? तो काबे को खुदा का घर प्रथम क्यों लिखा? (१३५)” (चतुर्दश समुल्लास)

उपरोक्त शंकाए भी सत्यार्थ प्रकाश से ही उद्धृत हैं जिनमे ऋषि ने सत्य बात को सत्य ही कहा क्योंकि बाइबिल और क़ुरान में शैतान ने सच बोला जिसे ऋषि ने भी सत्य माना, मगर क़ुरानी खुदा और बाइबिल का यहोवा झूठ बोले ऐसा क्यों ?

क्या सतीश चंद गुप्ता जी अब बताने का कष्ट करेंगे की ऋषि ने जो सत्य का मंडन किया उसपर तो आपने समीक्षा की समीक्षा बिनवजह कर डाली मगर जो क़ुरानी खुदा ने झूठ का प्रचार किया आदम और हव्वा से उसपर आपकी चुप्पी क्या पूर्वाग्रह से ग्रसित है अथवा मत सम्प्रदाय की असत्य बात को भी सच मान लेने से आप इस पर समीक्षा न करोगे ?

लेख लिखने को तो बहुत बड़ा हो जावेगा मगर अभी के लिए केवल इतना ही लिखते हैं इस से पाठकगण बहुत कुछ समझ और विचार लेंगे की सतीश चंद गुप्ता जी की सत्यार्थ प्रकाश पर समीक्षाएं कितनी वाजिब हैं और कितनी नहीं।

आइये लौटिए वेदो की और।

नमस्ते

 —

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 2″

“पहले अध्याय का जवाब “पार्ट 2″

जैसे की पिछली पोस्ट को आपने पढ़ा, उस पोस्ट में महर्षि दयानंद द्वारा की गयी क़ुरान पर समीक्षाओं और निर्देशो पर सतीश चंद गुप्ता जी द्वारा अपनी ही समीक्षाएं प्रस्तुत की गयी जो किसी भी प्रकार ठीक विदित नहीं होती क्योंकि जो उन्होंने समीक्षाएं की वो समीक्षा कम पूर्वाग्रह द्वारा उठाये गए सवाल ज्यादा मालूम होते हैं क्योंकि बिना पूरा प्रकरण समझे और ऋषि के सत्य सिद्धांत वाली बात को परखे अनजाने में ही शायद समीक्ष्याये की गयी होंगी, क्योंकि ऐसा चतुर विद्वान मेने आज तक नहीं देखा जो एक महर्षि द्वारा रचित सत्य सिद्धांतो पर आधारित पुस्तक पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देवे ?

ये भी हो सकता है की सतीश चंद गुप्ता जी ऋषि की बातो को पूर्ण अर्थ में न समझ सके हो क्योंकि ऋषि ने वेद और आर्ष ग्रंथो को ही मान्य किया लेकिन शायद लेखक सत्य सिद्धांतो की अपेक्षा किसी मत व सम्प्रदाय के पक्ष में ज्यादा झुकाव महसूस करता हो इसलिए ऐसा दोषारोपण करने का प्रयास किया हो, खैर जो भी हो हम पूरी कोशिश करेंगे की लेखक द्वारा उठाई गयी शंकाओ पर अपना मत प्रकट करे ताकि सत्य असत्य का निराकरण होने से ऋषि के सत्य सिद्धांतो की बाते लेखक को समझ आये।

ऐसे ही पहले अध्याय में 15 आक्षेप (समीक्षाएं) की गयी हैं जिनका क्रमगत जवाब इस लेख में दिया जायेगा।

1. प्रसूता छह दिन के पश्चात बच्चे को दूध न पिलाये।

समीक्षा : अब देखिये लेखक ने ऋषि की बात को न समझकर क्या से क्या लिख दिया, ऋषि ने जो लिखा वो देखिये :

“ऐसा पदार्थ उस की माता वा धायी खावे कि जिस से दूध में भी उत्तम गुण प्राप्त हों। प्रसूता का दूध छः दिन तक बालक को पिलावे। पश्चात् धायी पिलाया करे परन्तु धायी को उत्तम पदार्थों का खान पान माता-पिता करावें। जो कोई दरिद्र हो, धायी को न रख सके तो वे गाय वा बकरी के दूध में उत्तम औषधि जो कि बुद्धि, पराक्रम, आरोग्य करने हारी हों उनको शुद्ध जल में भिजा, औटा, छान के दूध के समान जल मिलाके बालक को पिलावें।” (द्वित्य समुल्लास)

अब देखिये ऋषि ने कहीं लिखा की प्रसूता ६ दिन बाद बच्चे को दूध न पिलाये, बल्कि व्यवस्था बताई है की धाई जो उत्तम पदार्थो का खान पान करवाकर उसका दूध बच्चे को पिलावे, अथवा निर्धन हो तो गाय, व बकरी के दूध में औषधि साथ में थोड़ी जल की मात्रा भी बच्चे को पिलाये। क्योंकि शिशु का पाचन कमजोर होता है इसलिए थोड़ा जल मिलाने का विधान किया है।

दूसरी बात यदि लेखक का कहना ये है की प्रसूता यानी माता का दूध बच्चे को न पिलाये तो उसके लिए भी ऋषि ने प्रथम ६ दिन तक माता को बच्चे को दूध पिलाने की बात लिखी है उसके पीछे की वैज्ञानिक बात देखिये :

माता के दूध में जो गुण होता है जिससे बच्चा स्वस्थ, निरोगी और बुद्धिमान बनता है उसे “कोलोस्ट्रम” कहते हैं, ये एक प्रकार से माता के शरीर में दूध ही होता है, जो पहले २४ घंटे में बहुत गाढ़ा, और पीला रंग का निकलता है जिसे बच्चे को पिलाना बेहद जरुरी है, २-४ दिन बाद ये हल्का पीला दूध होता जाता है और ८वे दिन ये पीला रंग यानी “कोलोस्ट्रम” सामान्य लेवल पर आ जाता है। यानी दूध का रंग और गुण दोनों ही सामान्य हो जाते हैं, और जो शुरूआती ६ दिन का गुणवर्धक और बलवर्धक औषधि सामान दूध है वो तो महर्षि ने प्रसूता द्वारा शिशु को पिलाने का विधान ऋषि ने आर्ष ग्रंथो के आधार पर कर ही दिया है।

हालांकि मेडिकल स्टडीज बताती हैं की ६ महीने तक दूध पिलाना चाहिए, लेकिन ऋषि ने जिस महत्वपूर्ण बात की और निर्देश दिया है वो समझने वाला है देखिये :

“क्योंकि प्रसूता स्त्री के शरीर के अंश से बालक का शरीर होता है, इसी से स्त्री प्रसव समय निर्बल हो जाती है इसलिये प्रसूता स्त्री दूध न पिलावे। दूध रोकने के लिये स्तन के छिद्र पर उस ओषधी का लेप करे जिससे दूध स्रवित न हो।” (द्वित्य समुल्लास)

इसलिए क्योंकि स्त्री प्रसव बाद बेहद कमजोर हो जाती है, अतः जितना स्त्री और शिशु की देखभाल और सुरक्षा की जाए वह उत्तम ही है। बाकी तो धायी भी स्तन पान करवाये तो उत्तम उत्तम पदार्थ उसके भक्ष्य हेतु हो, व निर्धन होने पर गाय व बकरी के दूध में उत्तम औषधि से शिशु का लालन हो तो भी श्रेयस्कर है।

2. 24 वर्ष की स्त्री और 48 वर्ष के पुरूष का विवाह उत्तम है अर्थात् स्वामी जी के मतानुसार लड़के की उम्र लड़की से दूना या ढाई गुना होनी चाहिए। (3-31) (4-20) (14-143)

समीक्षा : अब देखिये हमारे विद्वान बंधू गुप्ता जी का स्वाध्याय जो कभी शरीर शास्त्र पढ़ लिया होता तो ऋषि की बात का यु छोटा सा अंश लेकर समीक्षा न करते, देखिये ऋषि ने क्या लिखा है :

इस शरीर की चार अवस्था हैं। एक (वृद्धि) जो १६वें वर्ष से लेके २५वें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की बढ़ती होती है। दूसरा (यौवन) जो २५ वें वर्ष के अन्त और २६वें वर्ष के आदि में युवावस्था का आरम्भ होता है। तीसरी (सम्पूर्णता) जो पच्चीसवें वर्ष से लेके चालीसवें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की पुष्टि होती है। चौथी (किि ञ्चत्परिहाणि) तब सब सांगोपांग शरीरस्थ सकल धातु पुष्ट होके पूर्णता को प्राप्त होते हैं। तदनन्तर जो धातु बढ़ता है वह शरीर में नहीं रहता, किन्तु स्वप्न, प्रस्वेदादि द्वारा बाहर निकल जाता है वही ४० वां वर्ष उत्तम समय विवाह का है अर्थात् उत्तमोत्तम तो अड़तालीसवें वर्ष में विवाह करना।

आज विज्ञानं सम्मत है, ये चार चरण, बाल्यावस्था, युवावस्था, परिपक्व और वृद्ध ये चार अवस्थाये हैं, ऋषि ने यही समझाने का प्रयास किया है, विज्ञानं भी मानता है की स्त्री का शरीर कम से कम 16-18 वर्ष का होना ही चाहिए और पुरुष का कम से कम 25 वर्ष। अधिक से अधिक विवाह योग्य आयु का ऋषि ने विधान दिया है क्योंकि इस अवस्था में शरीर परिपक्व और बुद्धि मच्योर होती है।

यूके में स्थित नई केस्टल यूनिवर्सिटी के विज्ञानिको द्वारा की गयी शोध से प्रमाणित हुआ की महिलाये पुरुषो के मुकाबले जल्दी यहाँ तक की बहुत जल्दी परिपक्व होती हैं वहीँ “दी नई यॉर्क टाइम्स” में पिछले साल दिसम्बर २०१४ में छपी खबर के मुताबिक ३२ वर्ष की उम्र में विवाह हुए पुरुषो की शादी कम उम्र में हुई शादियों के मुताबिक बेहतर रिजल्ट देती है।

3. गर्भ स्थिति का निश्चय होने पर एक वर्ष तक स्त्री-पुरुष का समागम नहीं होना चाहिए। (2-2) (4-65)

समीक्षा : हमारे शंकाकर्ता बंधू गुप्ता जी शायद समीक्षा करने हेतु ये भूल गए की विवाह का दायित्व संतानोत्पत्ति के साथ साथ अपनी जीवनसंगनी का स्वास्थय और शरीररक्षा भी होती है, शायद हमारे बंधू यौनसुख को ज्यादा महत्त्व देने के कारण ये बुनियादी नियम भी भूल गए की यौन सुख महज कुछ मिनट का होता है जबकि इस यौन सुख के कारण यदि भ्रूण या गर्भ में इस यौनकर्षण के द्वारा कुछ अकस्मात् गंभीर हो गया तो ये बेहद गलत बात होगी। क्योंकि गर्भ में भ्रूण बनने के बाद यदि यौन क्रिया करते रहे तो इससे गर्भ में मौजूद शिशु पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ऋषि ने ये बात इसलिए भी लिखा है ताकि ब्रह्मचर्य को जीवन में अपनाया जाए, क्योंकि सभी जानते हैं वीर्य की रक्षा जीवन की रक्षा है। अब जो लोग यौनसुख के अभिलाषी हैं उनको ब्रह्मचर्य जल्दी समझ नहीं आ सकता। ये बहुत शोध और समझने का विषय है।

4. जब पति अथवा स्त्री संतान उत्पन्न करने में असमर्थ हों तो वह पुरूष अथवा स्त्री नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकते हैं। (4-122 से 149)

समीक्षा : हमारे शंकाकर्ता बंधू शायद भूल गए की यदि जिसके संतान न हो पाती हो तो उसके पास दो उपाय होते हैं, 1. संतान गोद लेना अथवा नियोग जिसे आज के समय में IVR के नाम से भी जाना जाता है। इस विषय पर विस्तार से आगे के अध्याय में लिखा जायेगा।

5. यज्ञ और हवन करने से वातावरण शुद्ध होता है। (4-93)

समीक्षा : हमारे शंकाकर्ता बंधू गुप्ता जी शायद विज्ञानं और रासायनिक क्रिया को भूल गए, क्योंकि वेद और आर्ष साहित्य को ठीक ढंग से न पढ़ पाने के यही परिणाम होता है, खैर गुप्ता जी ये देखिये आधुनिक विज्ञानं के अनुसार सूर्य की धुप क्षयरोग के लिए बचाव और उपचार दोनों है
http://www.dailymail.co.uk/…/Sunshine-vitamin-helps-treat-p…
अब इस समय पर यज्ञ करना लाभदायक ही होगा क्योंकि यज्ञ में प्रयुक्त होने वाली सामग्री में मुख्य रूप से गौघृत, खांड अथवा शक्कर, मुनक्का, किशमिश आदि सूखे फल जिनमे शक्कर अधिक होती है, चावल, केसर और कपूर आदि के संतुलित मिश्रण से बनी होती है।
अब इस विषय पर कुछ वैज्ञानिको के विचार :

१. फ्रांस के विज्ञानवेत्ता ट्रिलवर्ट कहते हैं : जलती हुई शक्कर में वायु – शुद्ध करने की बहुत बड़ी शक्ति होती है। इससे क्षय, चेचक, हैजा आदि रोग तुरंत नष्ट हो जाते हैं।

२. डॉक्टर एम टैल्ट्र ने मुनक्का, किशमिश आदि सूखे फलो को जलाकर देखा है। वे इस निर्णय पर पहुंचे हैं की इनके धुंए में टायफाइड ज्वर के रोगकीट केवल तीस मिनट तथा दूसरी व्याधियों के रोगाणु घंटे – दो घंटे में मर जाते हैं।

३. प्लेग के दिनों में अब भी गंधक जलाई जाती है, क्योंकि इसमें रोगकीट नष्ट होते हैं। अंग्रेजी शासनकाल में डाकटर करनल किंग, आई एम एस, मद्रास के सेनेटरी कमिश्नर थे। उनके समय में वहां प्लेग फ़ैल गया। तब १५ मार्च १८९८ को मद्रास विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के समक्ष भाषण देते हुए उन्होंने कहा था – “घी और चावल में केसर मिलकर अग्नि में जलाने से प्लेग से बचा जा सकता है।” इस भाषण का सार श्री हैफकिन ने “ब्यूबॉनिक प्लेग” नामक पुस्तक मे देते हुए लिखा है, “हवन करना लाभदायक और बुद्धिमत्ता की बात है।”

महर्षि दयानंद ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है :

“जब तक इस होम करने का प्रचार रहा ये तब तक ये आर्यवर्त देश रोगो से रहित और सुखो से पूरित था अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाए।”
(स. प्र. तृतीय समुल्लास)

यहाँ ऋषि इसी विज्ञानं को समझाने की कोशिश कर रहे हैं जो आज का आधुनिक विज्ञानं मानता है। इस विषय पर विस्तार से आपको आगे के अध्यायों में बताया जायेगा।

5-5 पॉइंट के हिसाब से लेखक की 15 शंकाओ का जवाब दिया जा रहा है जिस विषय को शार्ट में लिखा है उसका पूरा विस्तार उक्त विषय से सम्बंधित अध्याय में पूर्ण रूप से प्रस्तुत करने का ध्येय रहेगा। क्योंकि हमारे बंधू गुप्ता जी लेखन को नहीं जानते होंगे इसलिए जो १५ पॉइंट इन्होने पहले अध्याय में उठाये वही १५ पॉइंट पर पूरी किताब बेस है, इसलिए यहाँ जिन पॉइंट को विस्तार से बताया उनका सम्बन्ध आगे की अध्याय में नहीं है इसलिए यही सम्पूर्ण बता दिया है, क्योंकि बार बार एक ही विषय को बताते रहने से “पुनरुक्ति दोष” होता है जो हम नहीं चाहते, लेकिन हमारे शंकाकर्ता बंधू की तो पूरी पुस्तक ही इस दोष से युक्त है, क्योंकि जगह जगह एक ही विषय को बार बार व्यर्थ ही घसीटा जा रहा है ताकि इनकी पुस्तक बड़ी हो जाए और ऋषि पर लेखक कुछ आपत्ति दर्ज करवा सके, सो ये तो हो नहीं सका उलटे शायद लेखक पर ही अब कुछ सवाल खड़े हो गए हैं जिनमे प्रमुख है “पुनरुक्ति दोष”

ऋषि के लेखन पर तो लेखक ने व्यर्थ ही सवाल खड़े करे मगर जो इनकी पुस्तक में पुनरुक्ति दोष है उसपर लेखक कब विचार करेंगे ?

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 3″

“पहले अध्याय का जवाब पार्ट 3″

पिछली पोस्ट में सतीश चंद गुप्ता जी द्वारा लिखित पुस्तक के पहले अध्याय में उठाये 15 पॉइंट में से 5 के जवाब दिए गए अब गत लेख से आगे बढ़ते हुए 6 से 10 पॉइंट तक के जवाब इस लेख के माध्यम से देने का प्रयास किया जाएगा।

6. मांस खाना जघन्य अपराध है। मांसाहारियों के हाथ का खाने में आर्यों को भी यह पाप लगता है। पशुओं को मारने वालों को सब मनुष्यों की हत्या करने वाले जानिएगा। (10-11 से 15)

समीक्षा : लेखक की इस समीक्षा का जवाब देने से पहले हम बता दे की ये पॉइंट भी “पुनरक्ति दोष” में आता है, क्योंकि लेखक की पुस्तक में “जीव हत्या और मांसाहार” – अहिंसा परमो धर्मः” और “शाकाहार का प्रोपेगंडा” ये तीन अध्याय मांस भक्षण पर ही आधारित है तब पहले अध्याय में भी इस पॉइंट को जताना और फिर तीन अध्याय एक ही विषय पर बनाने, ये कोई विद्वान लेखक का काम तो हो नहीं सकता, शायद इसी कारण से लेखक महर्षि दयानंद की सत्यार्थ प्रकाश समझ भी न सका और समीक्षाओं का समीक्षा कर डाली,

खैर पॉइंट बनाया है तो इस पॉइंट का जवाब भी शार्ट में ही दिया जाएगा, क्योंकि हम अपने लेखन में “पुनरक्ति दोष” नहीं चाहेंगे। विस्तार से जवाब सम्बंधित विषय के अध्याय में दिया जायेगा।

इस पॉइंट का जवाब देने के लिए हम क़ुरान की कुछ आयते प्रकट करना चाहते हैं देखिये :

और धरती पर चलने वाले सब के सब जानवर तथा अपने दोनों पंखो से उड़ने वाले पक्षी तुम्हारी तरह की जमाते (दल) हैं। (क़ुरान ६:३८)

इस आयात में बताया की जैसे मनुष्य हैं वैसे ही हमारी तरह पशु पक्षी भी हैं।

क्या तू देखता नहीं की अल्लाह वह है की जो कोई आसमानो और जमीन में निवास करते हैं सब उसी का गुण-गान करते हैं और उसी के सामने पक्षी पंक्तिबद्ध हो कर उपस्थित हैं। उनमे से प्रत्येक (अपने प्राकृतिक स्वाभाव के अनुसार) अपनी उपासना एवं अपने स्तुति गान को जानता है ……………
(क़ुरान २४:४२)

इस आयत में बताया जैसे मुस्लिम बंधू नमाज करते हैं वैसे ही प्रत्येक पशु पक्षी अपनी अपनी भाषा में उस ईश्वर की उपासना करते हैं यानी वो पशु पक्षी भी मुस्लिम हैं। यदि ऐसा कहो की प्रत्येक माँसाहारी पशु शाकाहारी पशु को अपना भोजन बनाता है, तो यहाँ ये समझने वाली बात होगी की यदि हम भी खुद को पशु मान ले तब तो हमें किसी अन्य पशु को खाने में कोई बुराई न दिखेगी, मगर हम अपने को पशु समझते हैं ? हम तो मनुष्य हैं जो अल्लाह की बनाई सर्वोत्कृष्ट रचना है तो क्या हम अपनी बुद्धि उपयोग न करे ? या केवल पशु के मांस खाने के चक्कर में अपनी जीभ लोलुपता से मनुष्य होते हुए भी पशु से भी निम्न दर्जे के जाकर हैवान बनकर मांसभक्षण करे ?

क्या ये मनुष्यता होगी ?

अथवा मुहम्मद साहब की सिखाई तालीम की पशुओ की सेवा करो, पशुओ को ना मारो, आदि उत्तम बातो का ग्रहण कर वेद धर्म का पालन कर मनुष्य बने रहे।

और हमने धरती को सारी मखलूक के भले के लिए बनाया है।
(क़ुरान ५५:११)

जैसे मनुष्यो है वैसे ही पशु पक्षी भी हैं और सभी मखलूक के जीने का अधिकार अल्लाह ने दिया है , उनके भले के लिए धरती बनाई है तब कैसे किसी मनुष्य को किसी पशु अथवा पक्षी की जान लेने का अधिकार मिला ? क्यों वो किसी पशु पक्षी की जिंदगी लेकर अपनी भूख मिटाता है ? क्या अल्लाह यही चाहता है या मुहम्मद साहब ने ऐसा आदेश किया है ?

आइये हदीस से दिखाते हैं मुहम्मद साहब ने क्या निर्देश किया है :

अबु हुरैरा ने बताया की रसूल से कुछ लोगो ने पूछा की क्या पशुओ की सेवा सुश्रुवा करने से हमें प्रतिफल (इनाम) मिलेगा ?

रसूल ने कहा हाँ, किसी भी पशु पक्षी व जीवित प्राणी की सेवा करने से प्रतिफल (इनाम) मिलता है, ऐसी सेवा करने वाले मनुष्यो को अल्लाह धन्यवाद देता है और उनके पाप माफ़ करता है।

Reference : Sahih al-Bukhari 6009
In-book reference : Book 78, Hadith 40
USC-MSA web (English) reference : Vol. 8, Book 73, Hadith 38

अब बताओ, लेखक महोदय क्या अब भी अल्लाह, क़ुरान और रसूल की इतनी दयापूर्ण बातो को नकार कर, केवल जीभ के स्वाद के लिए पशुओ की निर्दयता से हत्या करकर अपना पेट भरना चाहोगे ?

जब क़ुरान भी पशु पक्षियों को मनुष्यो की जमात मानता है, उन्हें भी धरती पर रहने का सामान अधिकार अल्लाह और क़ुरान देता है, मुहम्मद साहब पशु पक्षियों को बेजबान मानकर उनकी सेवा करने को उम्दा कर्म बताते हैं, और तो और पशु पक्षियों को अल्लाह ने नमाज़ पढ़ने वाला मुस्लिम तक मान
लिया तब भी क्या एक मुस्लिम दूसरे मुस्लिम का क़त्ल कर उसे खा कर पेट भरे तो उसे पाप नहीं तो क्या लेखक महोदय पुण्य का कार्य कहेंगे ?

The Holy Prophet(s) used to say: “Whoever is kind to the creatures of God, is kind to himself.” (Wisdom of Prophet Mohammad(s); Muhammad Amin; The Lion Press, Lahore, Pakistan; 1945).

इसे पढ़िए और समझिए – मुहम्मद साहब जो इतने बड़े और महान पशु पक्षी प्रेमी थे जो सभी पशु पक्षियों मनुष्यो में एक ही जीव देखते थे, जो दयालुता के पैरोकार थे, कृपया उनके नाम पर जीव-हत्या करके खाना और पाप न मानना उलटे महर्षि दयानंद जी पर आक्षेप कर देना जो क़ुरान और मुहम्मद साहब की कही सत्य बात “जीव हत्या पाप” के सन्दर्भ में ही लेखक का शंका और सवाल उठा देना ये कोई विद्वान मनुष्य का कार्य नहीं हो सकता।

7. मुर्दों को गाड़ना बुरा है क्योंकि वह सड़कर वायु को दुर्गन्धमय कर रोग फैला देते हैं। (13-41, 42)

समीक्षा : यहाँ इस विषय पर केवल शार्ट में प्रकाश डाला जा रहा है ताकि विस्तार से सम्बंधित विषय पर आधारित अध्याय में बताया जा सके। देखिये कोई भी जीव चाहे मनुष्य हो अथवा पशु व पक्षी मरते ही हैं और शरीर से आत्मा का वियोग होने पर वह शरीर रोगाणुओं और जीवाणुओ का घर बन जाता है जो सड़ता है, क्योंकि शरीर में मौजूद जो मिक्रोजियम्स हैं वह शरीर को अंदर से सडाना स्टार्ट करते हैं जिससे मृत शरीर का pH बैलेंस बिगड़ता है और अति दुर्गन्ध बदबू आनी स्टार्ट हो जाती है, जब यह मृत शरीर जमीन में गाड़ा जाता है तब pH बैलेंस बहुत अधिक हो जाता है और प्राकृतिक रूप शरीर के “गुड न्यूट्रिएंट्स” बाहर नहीं निकल पाते जिससे जमीन के अंदर ही विकार उत्पन्न होता है और अधिक बदबू आती है।

इसका एक दूसरा पहलु और भी है इस तरह के मृत शरीर को दफनाए जाने से जमीन में सोडियम की मात्रा २०० से २००० गुना अधिक तक बढ़ जाती है जिससे पेड़ पौधों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है।

तीसरा महत्वपूर्ण कारण है की मृत शरीर को दफनाने पर जमीन में अनेक तरह के बेक्टेरिआ और जानलेवा टॉक्सिन्स का निर्माण होने लगता है, अधिकतर पशुओ को जमीन में दफनाने से एक खतरनाक टोक्सिन botulinum टोक्सिन उत्पन्न होता है जो धरती में मौजूद पानी को विषैला करता जाता है जिससे कैंसर और अनेक प्रकार की भयंकर बीमारिया उत्पन्न होती हैं।

अब आप लोग खुद भी सोचिये की क़ुरान में कहीं भी मृत शरीर को दफनाने का वर्णन मिलता भी नहीं है, तो क्यों व्यर्थ ही शरीर को दफनाया जाता है ? क्या लेखक कोई आयत क़ुरान में से दे सकते हैं जो मृत शरीर को दफनाने के लिए अल्लाह ने नाजिल की हो ?

8. लघुशंका के पश्चात् कुछ मुत्रांश कपड़ों में न लगे, इसलिए ख़तना कराना बुरा है। (13-31)

समीक्षा : लेखक ने ऋषि की क़ुरान पर की गयी समीक्षाओं पर अपनी इतनी व्यर्थ समीक्षाएं की हैं की वे शायद भूल गए की खतना करना खुद क़ुरान का आदेश नहीं है, पूरी क़ुरान में कहीं भी अल्लाह ने खतना का आदेश नहीं दिया, जब क़ुरान खुद खतना का आदेश नहीं करती तब लेखक को इसके फायदे व नुकसान का अंदाजा नहीं हो सकता, क्योंकि अल्लाह सर्वज्ञ है इसलिए उसने क़ुरान में खतना का आदेश नहीं किया क्योंकि वो जानता है की खतना करना वैज्ञानिक नहीं। क्योंकि ऋषि की बात जायज़ है, यदि अल्लाह खतना का आदेश करता तो पहले ही मनुष्य को खतना करके भेजता लेकिन ऐसा नहीं किया इसके विपरीत लेखक ने खुदाई काम यानि मानव शरीर से छेड़छाड़ और क़ुरान की शिक्षा पर ही आक्षेप किया है, देखिये :

(यह सभी गवाहियाँ बताती हैं की) निसंदेह हम ने मानव को अच्छी से अच्छी अवस्था में पैदा किया है।
(क़ुरान 95:4)

और हमने मनुष्य को गीली मिटटी के सत से बनाया। (१३)

फिर उसे एक ठहरने वाले स्थान में वीर्य के रूप में रखा। (१४)

फिर वीर्य को प्रगति देकर ऐसा रूप प्रदान किया की वह चिपकने वाला एक पदार्थ बन गया, फिर उस चिपकने वाले पदार्थ को मांस की एक बोटी बना दिया, फिर हमने इसके बाद उस बोटी को हड्डियों के रूप में बदल दिया, फिर हमने उन हड्डियों पर मांस चढ़ाया। फिर उसे एक और रूप में बदल दिया। अतः बड़ी बरकत वाला है वह अल्लाह जो सब से अच्छा पैदा करने वाला है। (१५)

(क़ुरान २३:१३-१५)

जिस ने जो कुछ भी पैदा किया है सर्वोत्तम शक्तियों से पैदा किया है और मनुष्य को गीली मिटटी से पैदा किया है। (८)

फिर उसे पूर्ण शक्तिया प्रदान की और उसमे अपनी और से आत्मा डाली तथा तुम्हारे लिए कान, आँख और दिल बनाये, परन्तु तुम लेश मात्र भी धन्यवाद नहीं करते। (१०)

(क़ुरान ३२:८-१०)

अतः तू अपना सारा ध्यान धर्म में लगा दे, इस प्रकार की तुम में कोई टेढ़ापन न हो। तू अल्लाह के पैदा किये हुए प्राकृतिक स्वाभाव को अपना, (वह प्राकृतिक स्वाभाव) जो अल्लाह ने लोगो में पैदा किया है। अल्लाह की रचना में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। यही कायम रहने वाला धर्म है, किन्तु बहुत से लोग जानते नहीं।

(क़ुरान ३०:३०)

उपरोक्त आयतो पर ध्यान से पढ़ने पर ज्ञात होता है की क़ुरान में अल्लाह ने स्पष्ट रूप से बता दिया है की अल्लाह ने मनुष्य को पूर्ण, उत्तम और सबसे बेहतर शरीर के साथ बनाया है, साथ ही अल्लाह ने बता दिया की उसकी बनाई संरचना में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता, न ही कोई करेगा, जो ऐसा कार्य करता है वह धर्म का कार्य नहीं हो सकता क्योंकि अल्लाह ने क़ुरान में ही कहा है :

इसी प्रकार उन लोगो को मूर्खता पूर्ण बातो की और बहका कर ले जाया जाता है जो अल्लाह की आयतो का हठ से इंकार करते हैं। (६४)

क़ुरान ४०:६४)

अब शायद लेखक को समझ आ जाना चाहिए की अल्लाह की बनाई सम्पूर्ण और सर्वोत्कृष्ट रचना जिसमे कोई खोट नहीं उसमे जबरदस्ती खतना करवाना न तो विज्ञानं पूर्ण कोई तथ्य है न ही क़ुरान का आदेश बल्कि अल्लाह की अवज्ञा करना ही सिद्ध होता है जिसे क़ुरान में मूर्खतापूर्ण बातो की और बहकाना या फिर शैतान का काम कहा जा सकता है।

अतः जो काम मात्र कुछ सेकंड में पानी से धोकर साफ़ किया जा सकता है , उसके लिए खतना करवाना क़ुरान अनुसार ठीक विदित नहीं होता। अतः ऋषि का कथन युक्तियुक्त है। इस विषय पर विस्तार से लेख भी लिखा जाएगा ताकि जो मिथक लेखक ने एड्स से बचाव के दिए हैं उनका खंडन आप सबको विदित होगा। अब लेखक बताये की वो क्यों क़ुरान के खिलाफ जाकर खतना करवाने की सलाह दे रहे हैं ?

9. दंड का विधान ज्ञान और प्रतिष्ठा के आधर पर होना चाहिए। (6-27)

समीक्षा : लेखक शायद समीक्षा करने में ये बात भूल गए की ऋषि ने कितनी उत्तम दंड विधान की और इशारा किया है, शायद लेखक केवल पूर्वाग्रह का शिकार है जो ऋषि की इतनी महान सोच को भी न समझ पाया देखिये :

जिस अपराध में साधारण मनुष्य पर एक पैसा दण्ड हो उसी अपराध में राजा को सहस्र पैसा दण्ड होवे अर्थात् साधारण मनुष्य से राजा को सहस्र गुणा दण्ड होना चाहिये। मन्त्री अर्थात् राजा के दीवान को आठ सौ गुणा उससे न्यून सात सौ गुणा और उस से भी न्यून को छः सौ गुणा इसी प्रकार उत्तर-उत्तर अर्थात् जो एक छोटे से छोटा भृत्य अर्थात् चपरासी है उस को आठ गुणे दण्ड से कम न होना चाहिये। क्योंकि यदि प्रजापुरुषों से राजपुरुषों को अधिक दण्ड न होवे तो राजपुरुष प्रजा पुरुषों का नाश कर देवे, जैसे सिह अधिक और बकरी थोड़े दण्ड से ही वश में आ जाती है। इसलिये राजा से लेकर छोटे से छोटे भृत्य पर्य्यन्त राजपुरुषों को अपराध में प्रजापुरुषों से अधिक दण्ड होना चाहिये।।३।।

वैसे ही जो कुछ विवेकी होकर चोरी करे उस शूद्र को चोरी से आठ गुणा, वैश्य को सोलह गुणा, क्षत्रिय को बत्तीस गुणा।।४।।

ब्राह्मण को चौसठ गुणा वा सौ गुणा अथवा एक सौ अट्ठाईस गुणा दण्ड होना चाहिये अर्थात् जितना जितना ज्ञान और जितनी प्रतिष्ठा अधिक हो उस को अपराध में उतना हीे अधिक दण्ड होना चाहिए।।५।।

राज्य का अधिकारी धर्म्म और ऐश्वर्य की इच्छा करने वाला राजा बलात्कार काम करने वाले डाकुओं को दण्ड देने में एक क्षण भी देर न करे।।६।।

(षष्ठम समुल्लास)

अब सोचिये ऐसी महान विचारधारा और दण्डव्यवस्था केवल वैदिक धर्म में ही मिल सकती है और महर्षि दयानंद जैसे आप्त पुरुष ही इसका उद्घोष कर सकते हैं तथा वैदिक जनता ही मान्य करेगी। क्योंकि लेखक को तो इसमें भी दोष नजर आ रहा है।

आप खुद सोचिये यदि कोई जज गलत निर्णय से किसी सामान्य निरपराध पुरुष को सजा देवे तो क्या ऐसे निर्णयकारी जज को सामान्य से अधिक दंड नहीं मिलना चाहिए ? बिलकुल तर्कपूर्ण और सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने वाली दण्डव्यवस्था है लेकिन क्या क़ुरान ऐसी व्यवस्था देती है ? क्या लेखक बताएँगे ऐसी समृद्ध और तर्कपूर्ण दण्डव्यवस्था का विवरण क़ुरान या अन्य किसी धर्म ग्रन्थ के आधार पर ?

10. ईश्वर के न्याय में क्षणमात्र भी विलम्ब नहीं होता । (14-105)

समीक्षा : लेखक ने ऋषि के क़ुरान पर उठाये आक्षेपों की समीक्षा में ईश्वर की न्यायवेवस्था पर ही प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए, क्या ऐसे लेखन और सोच को बुद्धिमानी के स्तर पर कुछ अंक दिए जा सकते हैं ? नित दैनिक रूप से हम देखते हैं की हमें क्षण प्रतिक्षण सुख दुःख आदि का अनुभव होता है, प्रत्येक क्षण में हम सुखी व दुखी अनुभव करते हैं क्या ये सुख दुःख हमें कर्मो के आधार पर प्रत्येक क्षण में प्राप्त नहीं हो रहा ?

क्या ये दुःख सुख जो हम जीवन के प्रत्येक क्षण में अनुभव करते हैं ये ईश्वर की न्यायवेवस्था नहीं है ? क्या लेखक को ये सुख दुःख अनुभव नहीं होते ? इस आक्षेप पर इससे अधिक और क्या लिख सकते हैं जबकि लेखक केवल पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर ईश्वर की न्यायकारी व्यवस्था पर ही प्रश्नचिन्ह लगा रहा हो ? शायद क़ुरान की “अंतिम दिन” वाली न्यायकारी व्यवस्था से लेखक पूर्ण सहमत है, मगर हम लेखक से ही पूछना चाहेंगे यदि अंतिम दिन ही सबका न्याय होगा तो फिर जो प्रत्येक जीव जीवन के हर क्षण में सुख दुःख अनुभव कर रहा वो किस प्रभाव के कारण ? क्योंकि लेखक शायद पूर्वजन्मों का फल तो मानता नहीं तो जब पुर्जन्मों का फल नहीं तो आपके किये इसी जन्म के कर्म फल अनुसार आपको हर क्षण सुख दुःख अनुभव हो रहे हैं तब “अंतिम दिन” न्याय होगा ये वयवस्था तो ठप हो गयी।

तो अब लेखक बताये यदि वो पूर्वजन्म भी नहीं मानते और केवल अंतिम दिन ही न्याय होने पर विश्वास करते हैं तो जो हर क्षण में सुख दुःख अनुभव हो रहा वो किस कारण ?

लेख बहुत बड़ा हो गया और अभी और भी लिखते गए तो बहुत बढ़ जाएगा इससे पाठकगण इतने से ही समझ जायेंगे बाकी आगे के लेख में लेखक के उठाये १०-१५ पॉइंट के जवाब दिए जायेंगे।

लौटो वेदो की और।

नमस्ते।

 —

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 4″

“पहले अध्याय का जवाब “पार्ट 4″

पिछली पोस्ट में सतीश चंद गुप्ता जी द्वारा लिखित पुस्तक के पहले अध्याय में उठाये 15 पॉइंट में से 10 पॉइंट तक के जवाब दिए गए अब गत लेख से आगे बढ़ते हुए 11 से 15 पॉइंट तक के जवाब इस लेख के माध्यम से देने का प्रयास किया जाएगा।

11. ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा नहीं करता। (7-52) (14-15)

समीक्षा : प्रस्तुत पुस्तक के लेखक शायद अपनी लेखनी में वो वजन नहीं बना रहे की महर्षि के द्वारा क़ुरान पर उठाई गयी शंकाओ और समीक्षाओं पर वाजिब टिप्पणी कर पाये या फिर लेखक को क़ुरान और बाइबिल आदि अन्य मत मतांतरों की शिक्षाओ का ज्ञानाभाव है क्योंकि क़ुरान में ही अल्लाह मियां अनेको जगह अपने भक्तो के पाप क्षमा नहीं करते।

बाबा आदम और हव्वा ये वो नाम है जो अल्लाह ने अपने हाथो से बनाया और इनको वो ज्ञान दिया जो सर्वोत्कृष्ट था, मगर शायद उतना ज्ञान भी नहीं दिया जितना शैतान को था तो बाबा आदम को सर्वोत्कृष्ट ज्ञान दिया इसपर शंका होती है, क्योंकि जो अपने नंगे होने को नहीं जान पाये उनके ज्ञान (इल्म) में अल्लाह ने कमी रखी और उन्हें ज्ञान प्राप्त करने वाले फल से भी दूर रखा लेकिन शैतान ने क़ुरान में बाबा आदम और हव्वा को सच बोल दिया और अंततः आदम हव्वा को अदन का बाग़ (जन्नत) से निकलवा कर पृथ्वी पर लड़ाई झगड़ा और खून खराबा खातिर एक दूसरे का शत्रु बनवाकर भिजवा दिया। लेकिन सोचने वाली बात ये है की बाबा आदम अपनी इस गलती पर अल्लाह से माफ़ी मांगते रहे, मगर अल्लाह मियां ने माफ़ नहीं किया देखिये :

उन दोनों ने कहा की हे हमारे रब ! हम ने अपने आप पर अत्याचार किया। यदि तू हमें क्षमा नहीं करेगा एवं हम पर दया नहीं करेगा तो हम अवश्य घाटा पाने वालो में से हो जायेंगे। (२४)

तब उस (अल्लाह) ने कहा की तुम सारे के सारे यहाँ से चले जाओ। तुम में से कुछ लोग दूसरे कुछ लोगो के शत्रु होंगे और तुम्हारे लिए इसी धरती में ठिकाना तथा कुछ समय तक (भाग्य) में लाभ उठाना होगा। (२५)

फिर कहा की इसी पृथ्वी में तुम जीवित रहोगे और इसी में मरोगे और इसी में से निकले जाओगे। (२६)

(क़ुरान ७:२४-२६)

अब यहाँ लेखक को ज्ञात होना चाहिए की जो ईश्वर के क्षमा करने पर महर्षि के आक्षेप पर समीक्षा की वो क़ुरान के हिसाब से भी ठीक विदित नहीं होती क्योंकि ये कोई ऐसा पाप नहीं था जिसे अल्लाह माफ़ नहीं कर सकता था, न ही आदम ने अल्लाह से हटकर कोई पूज्य बनाया, ना ही कुफ्र किया, न पत्थर पूजा, बल्कि उसने तो ज्ञान बढ़ाने वाले वृक्ष का फल खाया, जिससे अल्लाह ने रोका था, अब ये बात तो सिद्ध है की ईश्वर पाप का फल देता है, लेकिन यहाँ तो इस आयत में पाप की जगह पुण्य कार्य यानी ज्ञान वृद्धि को ही पाप मान कर अल्लाह ने आदम हव्वा को गुनहगार बना दिया, जबकि महर्षि ने इसी बात पर सत्यार्थ प्रकाश में जो समीक्षा की वो समझने वाली है, देखिये :

“(समीक्षक) अब देखिये खुदा की अल्पज्ञता! अभी तो स्वर्ग में रहने का आशीर्वाद दिया और पुनः थोड़ी देर में कहा कि निकलो। जो भविष्यत् बातों को जानता होता तो वर ही क्यों देता? और बहकाने वाले शैतान को दण्ड देने से असमर्थ भी दीख पड़ता है। और वह वृक्ष किस के लिये उत्पन्न किया था? क्या अपने लिये वा दूसरे के लिये ? जो अपने लिये किया तो उस को क्या जरूरत थी? और जो दूसरे के लिये तो क्यों रोका? इसलिये ऐसी बातें न खुदा की और न उसके बनाये पुस्तक में हो सकती हैं। आदम साहेब खुदा से कितनी बातें सीख आये? (१२)”
(सत्यार्थ प्रकाश चतुर्दश समुल्लास)

यदि अल्लाह अपने भक्तो के पाप क्षमा करता होता तो बाबा आदम और हव्वा कभी धरती पर आते ही नहीं, इसलिए सिद्ध है की अल्लाह न तो आदम के न ही जिन्नो के पाप क्षमा करता है, लेकिन यहाँ तो अल्लाह मिया पर ही आक्षेप खड़ा हो जाता है की बहकाने वाले को तो मोहलत दी और जिसकी कोई गलती नहीं उसे दंड दिया, अब लेखक इस पर समीक्षा कब करेंगे ?

12. तथ्य – सूर्य केवल अपनी परिधि (Axis) पर घूमता है किसी लोक के चारों ओर (Orbit) नहीं घूमता। (8-71)

समीक्षा : अब देखिये लेखक की कितनी बड़ी अज्ञानता की महर्षि की बात को बिना सोचे समझे ही क्या से क्या लिख डाला, मुझे तो लेखक पूर्वाग्रह से अत्यधिक पीड़ित लगता है क्योंकि जो बिना पूर्वाग्रह के सत्यार्थ प्रकाश पढ़ लिया होता तो इतनी बड़ी अवैज्ञानिक बात नहीं करता, देखिये महर्षि ने क्या लिखा और लेखक ने अल्पज्ञता से क्या समझा :

आ कृष्णेन रजसा वत्तर्मानो निवेशायन्नमतृं मर्त्यं च ।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ।।
यजुः० अ० ३३। मं० ४३।।

जो सविता अर्थात् सूर्य्य वर्षादि का कर्त्ता, प्रकाशस्वरूप, तेजोमय, रमणीयस्वरूप के साथ वर्त्तमान; सब प्राणी अप्राणियों में अमृतरूप वृष्टि वा किरण द्वारा अमृत का प्रवेश करा और सब मूर्तिमान् द्रव्यों को दिखलाता हुआ सब लोकों के साथ आकर्षण गुण से सह वर्त्तमान; अपनी परिधि में घूमता रहता है किन्तु किसी लोक के चारों ओर नहीं घूमता। वैसे ही एक-एक ब्रह्माण्ड में एक सूर्य्य प्रकाशक और दूसरे सब लोकलोकान्तर प्रकाश्य हैं। जैसे-

दिवि सोमो अधि श्रितः।। -अथर्व० कां० १४। अनु० १। मं० १।।

जैसे यह चन्द्रलोक सूर्य्य से प्रकाशित होता है वैसे ही पृथिव्यादि लोक भी सूर्य्य के प्रकाश ही से प्रकाशित होते हैं। परन्तु रात और दिन सर्वदा वर्त्तमान रहते हैं क्योंकि पृथिव्यादि लोक घूम कर जितना भाग सूर्य के सामने आता है उतने में दिन और जितना पृष्ठ में अर्थात् आड़ में होता जाता है उतने में रात। अर्थात् उदय, अस्त, सन्ध्या, मध्याह्न, मध्यरात्रि आदि जितने कालावयव हैं वे देशदेशान्तरों में सदा वर्त्तमान रहते हैं अर्थात् जब आर्य्यावर्त्त में सूर्योदय होता है उस समय पाताल अर्थात् ‘अमेरिका’ में अस्त होता है और जब आर्य्यावर्त्त में अस्त होता है तब पाताल देश में उदय होता है। जब आर्य्यावर्त्त में मध्य दिन वा मध्य रात है उसी समय पाताल देश में मध्य रात और मध्य दिन रहता है। जो लोग कहते हैं कि सूर्य घूमता और पृथिवी नहीं घूमती वे सब अज्ञ हैं। क्योंकि जो ऐसा होता तो कई सहस्र वर्ष के दिन और रात होते। अर्थात् सूर्य का नाम (ब्रध्नः) है। यह पृथिवी से लाखों गुणा बड़ा और क्रोड़ों कोश दूर है। जैसे राई के सामने पहाड़ घूमे तो बहुत देर लगती और राई के घूमने में बहुत समय नहीं लगता वैसे ही पृथिवी के घूमने से यथायोग्य दिन रात होते हैं; सूर्य के घूमने से नहीं। जो सूर्य को स्थिर कहते हैं वे भी ज्योतिर्विद्यावित् नहीं। क्योंकि यदि सूर्य न घूमता होता तो एक राशि स्थान से दूसरी राशि अर्थात् स्थान को प्राप्त न होता। और गुरु पदार्थ विना घूमे आकाश में नियत स्थान पर कभी नहीं रह सकता।
(सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास)

महर्षि दयानंद ने वेदो और आर्ष ग्रंथो के गहन शोध पश्चात ही सत्यार्थ प्रकाश लिखा, जिसमे साफ़ साफ़ लिखा है की सूर्य अपनी परिधि में तो घूमता है साथ ही आकाशगंगा का चक्कर भी लगाता है क्योंकि यदि सूर्य न घूमता तो एक राशि से दूसरी राशि को प्राप्त न होता। ये बात पूर्णतः वैज्ञानिक है, इसका प्रबल प्रमाण है की हम आर्य लोग मकर संक्रांति नामक पर्व मानते हैं क्योंकि इसी दिन सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है। मकर संक्रान्ति के दिन से ही सूर्य की उत्तरायण गति भी प्रारम्भ होती है। इसलिये इस पर्व को कहीं-कहीं उत्तरायणी भी कहते हैं।

सूर्य किसी लोक का चक्कर नहीं लगाता क्योंकि सभी लोक सूर्य का चक्कर लगाते हैं, शायद आपको गांगेयवर्ष समझ नहीं आ रहा इसलिए कुछ दिक्कत हो रही है, आइये आपको गंगेयवर्ष समझाने का प्रयास करते हैं, देखिये हमारा सौरमंडल सूर्य और उसकी परिक्रमा करते ग्रह, क्षुद्रग्रह और धूमकेतुओं से बना है। इसके केन्द्र में सूर्य है और सबसे बाहरी सीमा पर वरुण (ग्रह) है। वरुण के परे यम (प्लुटो) जैसे बौने ग्रहो के अतिरिक्त धूमकेतु भी आते है।

जब केंद्र में सूर्य है, और वो अपनी धुरी पर घुमते हुए अन्य लोको को आकर्षण से बांधते हुए अपनी कक्षा में घूम कर अन्य लोको के साथ सौरमंडल के केंद्र में रहते हुए एक चक्कर लगता है उसे गांगेय वर्ष कहते हैं, क्योंकि सूर्य सौरमंडल के केंद्र में है इसलिए वो किसी ग्रह का चक्कर नहीं लगा सकता यदि सूर्य सौरमंडल के केंद्र में न होता और कोई अन्य ग्रह केंद्र में होता तब आप कह सकते थे की सूर्य उस ग्रह का चक्कर लगता है, हालाँकि ये हो ही नहीं सकता, क्योंकि सूर्य स्वयं सौरमंडल के केंद्र में है जिससे सभी ग्रहो को आकर्षण से बंधे रखता है और सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं साथ ही सूर्य उन सभी ग्रहो को लेकर गांगेय वर्षी कर चक्र अपनी कक्षा से पूरा करता है। ज्यादा लिखने से लेख बड़ा हो जायेगा, अधिक जानकारी के लिए गांगेय वर्ष पढ़े, साथ ही सूर्य सिद्धांत।

शायद लेखक को हमारे आर्य पर्व पद्धति और आर्य ज्योतिष विज्ञानं का सिद्धांत ज्ञात नहीं मेरी उनसे विनती है की वो एक बार सूर्य सिद्धांत पुस्तक पढ़ कर स्वाध्याय करे व्यर्थ के आक्षेप और टीका टिप्पण्यिो में समय व्यर्थ न करे। यदि हो सके तो क़ुरान से प्रमाणित कर दिखाए की सूर्य अपनी धुरी पर घूमता है ऐसी कोई आयत क़ुरान में निर्देशित की हो ?

13. सूर्य, चन्द्र, तारे आदि पर भी मनुष्य सृष्टि है। (8-73)

समीक्षा : इस पुस्तक में जो लेखक हैं वो शायद अपनी इसी पुस्तक में प्रस्तुत “निवेदन” को खुद नहीं पढ़ पाये हैं, या फिर मुमकिन है की किसी अन्य व्यक्ति से लिखवा दिया हो, क्योंकि इनके इस “निवेदन” में ही जो इन्होने लिखा उसे हम यहाँ दोहराना चाहते हैं देखिये :

यह ब्रह्माण्ड जिसमे हम रहते हैं, अत्यंत विशाल, विस्तृत और अद्भुत है। इसकी विशालता का अंदाजा ……………… इस ब्रह्माण्ड में न जाने कितने आकाशीय पिंड हमारे सूर्य से लाखो गुना बड़े हैं और न जाने कितने सौर मंडल हैं। करोडो सौर मंडलों से बनने वाली एक आकाश गंगा है। जिसमे अरबो खरबो तारे हैं। इस ब्रह्माण्ड में न जाने कितनी करोड़ आकाश गंगाये हैं। …………… हर आकाशीय पिंड गतिमान है। आकाशीय पिंडो की गति में एक नियमबद्धता है, दिन रात के प्रत्यावर्तन में नियमबद्धता है। वनस्पति जगत में नियमबद्धता है। प्राणी जगत में नियमबद्धता है।

कितना विचित्र है यह ब्रह्माण्ड। देखकर आश्चर्य होता है। प्रश्न यह की जहाँ नियम हो क्या वहां नियामक नहीं होना चाहिए ? …. ब्रह्माण्ड की नियमबद्धता इस बात का प्रमाण है की कोई चेतन शक्ति इसका सञ्चालन कर रही है। यहाँ की नियमबद्धता इस बात का भी प्रमाण है की वह परम शक्ति एक है।

………..शेष

ये यहाँ आप सभी पाठको दिखाना इसलिए भी आवश्यक था की इस पुस्तक के लेखक या तो बुद्धिमान हैं या फिर केवल महर्षि के सत्य सिद्धांतो से अनभिज्ञ और पूर्वग्रह से ग्रसित हैं, क्योंकि खुद मान रहे हैं की इतना बड़ा ब्रह्माण्ड है, उसमे करोडो आकाशगंगाये, अनेक पिंड, असंख्य ग्रह आदि, साथ ही नियमबद्धता और एक ही ईश्वर जो चेतन है, तो मेरे लेखक महोदय, महर्षि दयानंद ने भी तो यही सत्यार्थ प्रकाश में बताया है, जब नियम बद्धता है तभी तो इस पृथ्वी जैसे ग्रह पर हम जीवन ले रहे हैं, ऐसे ही अनेको ग्रहो आदि पर जीवन क्यों नहीं होगा ? क्या वो अनेको आकाशगंगा और ग्रह सिर्फ ब्रह्माण्ड को भरने और सजाने का शोपीस मात्र हैं ? क्या बुद्धिमानी की बात है लेखक की खुद ही अपनी निवेदन में सत्य भी लिखता है और फिर महर्षि की बातो पर आक्षेप भी करता है, क्या इसे लेखक का मानसिक दिवालियापन घोषित न किया जाए ?

आइये एक नजर महर्षि दयानंद के उस विचार पर जो सत्यार्थ प्रकाश में लिखा गया :

(प्रश्न) सूर्य चन्द्र और तारे क्या वस्तु हैं और उनमें मनुष्यादि सृष्टि है वा नहीं?

(उत्तर) ये सब भूगोल लोक और इनमें मनुष्यादि प्रजा भी रहती हैं क्योंकि-

एतेषु हीदँ्सर्वं वसुहितमेते हीदँ्सर्वं वासयन्ते तद्यदिदँ्सर्वं वासयन्ते तस्माद्वसव इति।। -शत० का० १४।।

पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, नक्षत्र और सूर्य इन का वसु नाम इसलिये है कि इन्हीं में सब पदार्थ और प्रजा वसती हैं और ये ही सब को वसाते हैं। जिस लिये वास के निवास करने के घर हैं इसलिये इन का नाम वसु है। जब पृथिवी के समान सूर्य चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं पश्चात् उन में इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह? और जैसे परमेश्वर का यह छोटा सा लोक मनुष्यादि सृष्टि से भरा हुआ है तो क्या ये सब लोक शून्य होंगे? परमेश्वर का कोई भी काम निष्प्रयोजन नहीं होता तो क्या इतने असंख्य लोकों में मनुष्यादि सृष्टि न हो तो सफल कभी हो सकता है? इसलिये सर्वत्र मनुष्यादि सृष्टि है।

(प्रश्न) जैसे इस देश में मनुष्यादि सृष्टि की आकृति अवयव हैं वैसे ही अन्य लोकों में होगी वा विपरीत?

(उत्तर) कुछ-कुछ आकृति में भेद होने का सम्भव है। जैसे इस देश में चीने, हबशी और आर्य्यावर्त्त, यूरोप में अवयव और रंग रूप आकृति का भी थोड़ा-थोड़ा भेद होता है इसी प्रकार लोकलोकान्तरों में भी भेद होते हैं। परन्तु जिस जाति की जैसी सृष्टि इस देश में है वैसी जाति ही की सृष्टि अन्य लोकों में भी है। जिस-जिस शरीर के प्रदेश में नेत्रदि अंग हैं उसी-उसी प्रदेश में लोकान्तर में भी उसी जाति के अवयव भी वैसे ही होते हैं। क्योंकि-

सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् ।

दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः ।। – ऋ० मं० १०। सू० १९०।।

धाता परमात्मा (ने) जिस प्रकार के सूर्य, चन्द्र, द्यौ, भूमि, अन्तरिक्ष और तत्रस्थ सुख विशेष पदार्थ पूर्वकल्प में रचे थे वैसे ही इस कल्प अर्थात् इस सृष्टि में रचे हैं तथा सब लोक लोकान्तरों में भी बनाये गये हैं। भेद किञ्चित्मात्र नहीं होता।

(प्रश्न) जिन वेदों का इस लोक में प्रकाश है उन्हीं का उन लोकों में भी प्रकाश है वा नहीं?

(उत्तर) उन्हीं का है। जैसे एक राजा की राज्यव्यवस्था नीति सब देशों में समान होती है उसी प्रकार परमात्मा राजराजेश्वर की वेदोक्त नीति अपने सृष्टिरूप सब राज्य में एक सी है।

(सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास)

अब बताओ लेखक महोदय क्या अपना निवेदन ही पुस्तक से हटवा दोगे या महर्षि दयानंद की बात को अपना लोगे, आओ आपको विज्ञानं से भी प्रमाणित करता हु देखो :

“Scientists have been saying for years that nothing could possiblily live on this star’s surface, but we’ve scanned Andross’s ships going to and from the star. Only he would be foolhardy as to try to find military benefit in exploring a red dwarf like Solar. It’s another situation we need to have you to check out for us Fox. Nothing in the Cornerian armoury can withstand the extreme temperature near the surface of the star, but your Arwings should be able to make it.”
—General Pepper’s Flight Log, pg 70

ये खोज पढ़ी सूर्य पर मिलिट्री बेनिफिट और जहाजो का बेडा आदि बनाने की योजना है, पता नहीं लेखक कौन सी दुनिया में जी रहे, खैर अभी नासा की खोज पढ़िए :

WASHINGTON—In an announcement that could forever change the way scientists study the hydrogen-based star, NASA researchers published a comprehensive study today theorizing that the sun may be capable of supporting fire-based lifeforms. “After extensive research, we have reason to believe that the sun may be habitable for fire-based life, including primitive single-flame microbes and more complex ember-like organisms capable of thriving under all manner of burning conditions,” lead investigator Dr. Steven T. Aukerman wrote, noting that the sun’s helium-rich surface of highly charged particles provides the perfect food source for fire-based lifeforms. “With a surface temperature of 10,000 degrees Fahrenheit and frequent eruptions of ionized gases flowing along strong magnetic fields, the sun is the first star we’ve seen with the right conditions to support fire organisms, and we believe there is evidence to support the theory that fire-bacteria, fire-insects, and even tiny fire-fish were once perhaps populous on the sun’s surface.”

ज्यादा जानकारी के लिए लिंक :

http://www.theonion.com/article/scientists-theorize-sun-could-support-fire-based-l-34559

इससे भी ज्यादा जानकारी के लिए बता दू, जितनी भी रिसर्च होती हैं बायोलॉजी में उसमे ये सिद्धांत है की “All life’s energy was solar”.

ये सिद्धांत है अटल सिद्धांत, इसलिए वेद ज्ञान ही सत्य और परम प्रमाण है, और भी अनेको प्रमाण हैं विज्ञानं से ही पर लेख बढ़ता जाएगा इसलिए विवशता है पर पता नहीं इस पुस्तक के लेखक को वेद ज्ञान और महर्षि दयानंद की विद्वत्ता का बोध कब होगा ?

14. सिर के बाल रखने से उष्णता अधिक होती है और उससे बुद्धि कम हो जाती है। (10-02)

समीक्षा : लेखक के आक्षेप ही ऐसे हैं की जिनपर केवल हंसी आती है क्योंकि जो पूरा प्रकरण पढ़ लिया होता तो आपको शंका न होती, केवल एक हिस्सा उठा कर सोचो की महर्षि पर आक्षेप सिद्ध हो जायेगा सो संभव नहीं, पहले आपको दिखाते हैं महर्षि ने क्या लिखा है :

ब्राह्मण के सोलहवें, क्षत्रिय के बाईसवें और वैश्य के चौबीसवें वर्ष में केशान्त कर्म और मुण्डन हो जाना चाहिये अर्थात् इस विधि के पश्चात् केवल शिखा को रख के अन्य डाढ़ी मूँछ और शिर के बाल सदा मुंडवाते रहना चाहिये अर्थात् पुनः कभी न रखना और जो शीतप्रधान देश हो तो कामचार है; चाहै जितने केश रक्खे और जो अति उष्ण देश हो तो सब शिखा सहित छेदन करा देना चाहिये क्योंकि शिर में बाल रहने से उष्णता अधिक होती है और उससे बुद्धि कम हो जाती है। डाढ़ी मूँछ रखने से भोजन पान अच्छे प्रकार नहीं होता और उच्छिष्ट भी बालों में रह जाता है।।१३।।
(दशम सम्मुलास)

अब देखिये लेखक की पूर्वाग्रह से ग्रसित मानसिकता की जो ऋषि ने समझाया उसे तो समझे नहीं उलटे अपनी पुस्तक में तथाकथित समीक्षा करने चल पड़े, समझिए ऋषि की बात को,

यदि शीत प्रदेश, यानी जो ठंडा इलाका में रहने वाले लोग हो, तो वो सर के बाल ना कटाये, चाहे बढे बाल ही क्यों न रखे क्योंकि बाल जो होते हैं वो तंतु (फाइबर) पदार्थ से बने होते हैं क्योंकि ये गर्मी उत्पन्न करते हैं इसलिए शीत प्रदेशो में उत्पन्न हुए पशुओ के बाल सामान्य मौसम के देशो में उत्पन्न हुए पशुओ से अधिक पाये जाते हैं, बाल में सबसे ज्यादा कार्बन होता है, जो थर्मल इंसुलेशन उत्पन्न करके गर्मी को सोख्ता है, जिससे सर में पसीना जल्दी नहीं सूखता और उससे अनेक प्रकार के फंगस और बेक्टेरिअ उत्पन्न होते हैं, अभी हाल में की गयी शोध के अनुसार Cutaneous Allodynia ये बीमारी जो माइग्रेन से सम्बंधित है इसी कारण होती है, और जैसे की आप जानते ही हैं की माइग्रेन जो है वो बुद्धि को कमजोर करता है, इससे ऋषि की बात सत्य सिद्ध होती है।

हम लेखक को केवल ऋषि के सत्य सिद्धांत पर खोज करने हेतु आग्रह करेंगे ताकि व्यर्थ के आक्षेप से लेखक अपना और दुसरो का समय बर्बाद न करते जाए।

15. स्वामी दयानंद ने लिखा है कि वेदों का अवतरण ऋषियों की मातृभाषा में न होकर संस्कृत भाषा में हुआ। संस्कृत भाषा उस समय किसी देश अथवा क़ौम की भाषा नहीं थी। कारण यह लिखा है कि अगर ईश्वर किसी देश अथवा क़ौम की भाषा में वेदों का अवतरण करता तो ईश्वर पक्षपाती होता, क्योंकि जिस देश की भाषा में वेदों का अवतरण होता उसको पढ़ने और पढ़ाने में सुगमता और अन्यों को कठिनता होती। (7-89) (7-92)

समीक्षा : यदि इस पुस्तक के लेखक ने कभी भी संस्कृत विद्या को समझने का गंभीर प्रयास किया होता तो शायद महर्षि की इस बात का भी जवाब खुद ही मिल जाता, मगर खेद की लेखक को केवल और केवल आक्षेप करने की ही फुर्सत मिली, स्वाध्याय की नहीं, क्योंकि लेखक को ज्ञात होना चाहिए की वेदो में जो संस्कृत पायी जाती है उसे वैदिक संस्कृत कहते हैं, जो कभी किसी काल में किसी भी देश व समाज की भाषा नहीं रही, क्योंकि इस वैदिक संस्कृत से ही लौकिक संस्कृत का ज्ञान ऋषि मुनि विकसित कर पाये अतः लौकिक संस्कृत ही भारत की भाषा थी लेकिन वैदिक संस्कृत तो सभी भाषाओ की जननी है, ऐसा विचार और मत तो अनेको पश्चिम विज्ञानिको का भी है। शायद लेखक को ज्ञात नहीं, आइये हम ही समझने का प्रयास करते हैं :

“अब हम समझते हैं भाषा का विस्तार किस प्रकार हुआ –

देखिये वेद में वैदिकी वाणी को नित्य कहा है –

तस्मै नूनमभिद्यवे वाचा विरूप नित्यया। (ऋग्वेद 8.75.6)

नित्यया वाचा – अर्थात नित्य वेदरूप वाणी –

यानी की वैदिक संस्कृत यह सब वाणियों (भाषाओ) की अग्र और प्रथम है –

बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्नं (ऋग्वेद 10.71.1)

प्रभु से दी गयी वेदवाणी ही इस सृष्टि के प्रारंभिक शब्द थे। ईश्वर की प्रेरणा से यह वाणी सृष्टि के प्रारम्भ में ऋषियों पर प्रकट होती है।

यज्ञेन वाचः पदवीयमायणतामानवविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम्। (ऋग्वेद 10.71.3)”

“प्रभु अग्नि आदि को वेदज्ञान देते हैं इससे अन्य यज्ञीय वृत्तिवाले ऋषियों को यह प्राप्त होती है –

इसी मन्त्र में आगे लिखा है –

इस ही प्रथम, निर्दोष और अग्र वाणी को लेकर लोग बोलने की भाषा का विस्तार करते हैं।

तामाभृत्या व्यदधुः पुरूत्रा तां सप्त रेभा अभी सं नवंते।। (ऋग्वेद 10.71.3)

इस वाणी को ऋषि मानव समाज में प्रचारित करते हैं। यह वेदवाणी सात छन्दो से युक्त है अर्थात २ कान – २ नाक – २ आँख और एक मुख ये सात स्तोता बनकर इसे प्राप्त करते हैं – उपरोक्त प्रमाणों और तथ्यों से सिद्ध होता है की मनुष्य की एक ही भाषा थी – और मनुष्यो ने इसी वेद वाणी से अर्थात प्रथम व पूर्ण भाषा संस्कृत से – अपूर्ण भाषाए – अर्थात जितनी भाषाए आज प्रचलित हैं उनका निर्माण किया – लेकिन वैदिक संस्कृत में आज भी कोई फेर बदल नहीं हो सका – क्योंकि वैदिक संस्कृत पूर्ण भाषा है –”

अब यहाँ सोचने वाली बात है की अलक़ुरआन एक संयुक्त शब्द है जो अरबी के दो शब्दों से बना है, एक “अल” जिसका अर्थ है “विशेष” दूसरा “कुरान” जो “किरतैअन” धातु से निकला है जिसका अर्थ “पढ़ना” है अतः अलक़ुरआन का अर्थ हुआ वह जो लेख विशेष प्रकार से पढ़ा जाये। इस से सिद्ध हुआ की अलक़ुरआन भी लिखी हुई पुस्तक का नाम है न की ईश्वर के ज्ञान का। तो हमारे लेखक बंधू इस तथ्य पर कब शंका प्रकट कर रहे हैं की क़ुरआन केवल पढ़ने के लिए है, ज्ञान के लिए नहीं ?

जबकि “वेद” “विद्” ज्ञाने धातु से निकला है। वेद का अर्थ है “ज्ञान”। यह किसी लेख वा पुस्तक का नाम नहीं प्रत्युत उस ज्ञान का नाम है जो परमात्मा ने मनुष्यो के कल्याणार्थ प्रकाशित किया है।

अतः इतने से सिद्ध है की महर्षि दयानंद का सत्यार्थ प्रकाश में वर्णित वेदो और आर्ष साहित्यो का ज्ञान विज्ञानं सत्य पर आधारित है, हम लेखक के पहले अध्याय में मौजूद कुछ और आक्षेपों के भी विज्ञानसम्मत जवाब देंगे।

आओ लौटो वेदो की और

नमस्ते।