गृहस्थाश्रम को स्वर्ग का साधन समझें – कन्हैयालाल आर्य

गृहस्थ और सुख? यह तो कुछ अनोाी बात है। इसमें इतने दुःख हैं कि आरभ से ही इसे दुःखों का घर समझा जाता है। आधुनिक काल में जबकि हमने अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं को बहुत बढ़ा रखा है तो कुछ बात यथार्थ प्रतीत होने लगती है, परन्तु यदि गभीरता पूर्वक इस पर विचार किया जाये तो महर्षि मनु की यह बात सही है कि गृहस्थ आश्रम व्यवस्था की दृष्टि से ज्येष्ठ तथा श्रेष्ठ सिद्ध है।

गृहस्थाश्रम तो लोक और परलोक दोनों को सुधारने का एक माध्यम है। इस माध्यम को मानव ने अपने स्वार्थ, आलस्य, प्रमाद, अतिवासना तथा लोभ और मर्ूाता से बिगाड़ रखा है। हम स्वयं ही जंजीरे गढ़ते हैं और अपने हाथ-पाँव में बाँध लेते हैं और फिर चिल्लाने लगते हैं कि हम बाँधे गये। गृहस्थाश्रम का तो इसलिए निर्माण किया गया ताकि लबी जीवन यात्रा में नर या नारी अकेला थक न जाये। लबी यात्रा में साथी साथ हो तो यात्रा सरल बन जाती है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार इन पाँचों को ठीक मर्यादा में रखने का सुन्दर साधन गृहस्थ है।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जैसे आजीवन ब्रह्मचारी विरले ही होते हैं, उन्होंने भी गृहस्थाश्रम को सर्वश्रेष्ठ कहा है। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में बताया है कि-

  1. यथा नदी नदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्।

   तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।।

-मनु. 6/90

जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमते ही रहते हैं जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं हो जाते। वैसे ही गृहस्थ के आश्रम में सब आश्रम स्थिर रहते हैं, बिना इस आश्रम के किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता।

  1. यथा वायुं समाश्रित्य, वर्त्तन्ते सर्वजन्तवः।

   तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्त्तन्ते सर्व आश्रमाः।।

-मनु. 3/77

जैसे वायु के आश्रय पर सब प्राणी हैं वैसे गृहस्थाश्रम सब आश्रमों का आश्रय दाता है।

  1. यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेनान्नेन चान्वहम्।

   गृहस्थेनैव धार्य्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही।

– मनु. 3/78

जिससे ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तीन आश्रमों को दान और अन्नादि देकर गृहस्थ ही धारण करता है इसीलिए गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है अर्थात् सब व्यवहारों में धुरन्धर कहाता है।

  1. स संधार्य्यः प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता।

    सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रियैः।

– मनु. 3/76

जो अक्षय, मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता हो, वह प्रयत्न से गृहाश्रम धारण करे। जो गृहाश्रम दुर्बल इन्द्रिय, भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने योग्य नहीं है, उसको अच्छे प्रकार धारण करे।

इसलिए जितना कुछ व्यवहार संसार में है, उसका आधार गृहाश्रम है, जो यह गृहस्थाश्रम न होता तो सन्तानोत्पत्ति के न होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम कहाँ से हो सकते? जो कोई गृहस्थ आश्रम की निन्दा करता है, वही निन्दनीय है, जो प्रशंसा करता है, वह प्रशंसनीय है। परन्तु तभी गृहस्थाश्रम में सुख होता है, जब स्त्री और पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न, विद्वान्, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता हो।

प्राचीन इतिहास बतलाता है कि ऋषि-मुनि गृहस्थाश्रम में रहकर सबका पथ प्रदर्शन करते थे और हमारे पूर्वज नारी जाति का अत्यधिक मान करते थे, तभी तो कहा हैः-

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।

जहाँ नारियों का समान होता है वहाँ देवता निवास करते हैं। महर्षि मनु ने तो यहाँ तक कह दिया है कि नारी ही घर की शोभा है, जहाँ गृहिणी नहीं, वह घर ही नहीं। जहाँ पति और पत्नी का एक दूसरे से प्यार है, वही घर स्वर्ग समान है। जहाँ पुत्र-पुत्रियाँ आज्ञाकारी हों, वही घर स्वर्ग समान हैं। स्वर्ग किसी ऊपर या नीचे के लोकों का नाम नहीं है, यदि इसी गृहस्थ में आप सुखी हैं तो आप इस जीवन काल में भी ‘स्वर्गीय’ अर्थात् सुखी बन सकते हैं। स्वर्गीय का अर्थ है- स्वर्ग में रहना, जहाँ प्रत्येक प्रकार का सुख, समृद्धि, सन्तोष हो, उसी का नाम स्वर्ग है और ऐसे स्वर्ग की प्राप्ति गृहस्थाश्रम के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती है। इसलिए यह धारणा कि गृहस्थी सुखी नहीं हो सकता और गृहस्थ तो दुःखों का घर है, यह गलत है। गृहस्थ ही एक ऐसा आश्रम है जिसके माध्यम से धर्म, अर्थ, काम और अन्ततः मोक्ष की प्राप्ति संभव है।

विवाह के समय वर-वधू का सात कदम एक साथ चलना भी इसी भाव का प्रतीक है। जहाँ अन्न शारीरिक बल, धन, सुख, सन्तान प्राप्ति, चारों तरफ की प्राकृतिक परिस्थिति का अनुकूल होना कहा है, वहाँ सातवाँ कदम रखते हुए वर कहता है-

3म् सखे सप्तपदी भव विष्णुस्त्वा नयतु

पुत्रान् विन्दावहै, बहूंस्ते सन्तु जरदष्टयः

अर्थात् हम सदा साथ रहें, हममें मैत्री भाव रहे, तेरा मन मेरे मन के अनुकूल हो, हम दोनों मिलकर पुत्र-पुत्रियों को प्राप्त करें और वे वृद्धावस्था तक जीने वाले हों।

शास्त्रों में गृहस्थ को एक आश्रम कहा गया है। यह एक मंजिल है। मंजिल तक पहुँचने के लिए खड़े रहने से काम नहीं चलता, मंजिल की तरफ चलना पड़ता है। सप्तपदी का अभिप्राय यही होता है कि वर-वधु को इस बात की प्रतीति कराई जाती है कि गृहस्थाश्रम आराम से बैठे रहने का नाम नहीं है। इस आश्रम के कुछ उद्देश्य हैं, प्रयोजन हैं। इन प्रयोजनों को सिद्ध करने के लिए अलग-अलग नहीं, एक साथ चलना होगा, कदम से कदम मिलाकर चलना होगा, तभी वे इस आश्रम के उद्देश्य को पा सकेंगे। तभी तो ऋग्वेद में कहा है-

3म् समञ्जन्तु विश्वेदेवाः समापो हृदयानि नौ।

सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ।।

हम दोनों पति-पत्नी निश्चयपूर्वक तथा प्रसन्नतापूर्वक यह घोषणा करते हैं कि हम दोनों के हृदय जल के समान सदा शान्त रहें, जैसे प्राणवायु हमको प्रिय है, वैसे हम दोनों एक-दूसरे के साथ प्रसन्न रहेगें, जैसे धारण करने वाला परमात्मा सबमें मिला हुआ, सब जगत् को धारण करता है, वैसे हम दोनों एक-दूसरे को धारण करते रहेंगे।

गृह्यसूत्र में लिखा हैंः-

3म् यदेतद् हृदयं तव तदस्तु हृदयं मम्।

यदिदम् हृदयं मम तदस्तु हृदयं तव।।

जो तेरा हृदय है, वह मेरा हृदय हो जाये और जो मेरा हृदय है, वह तेरा हृदय हो जाये।

3म् मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनुचित्तं ते अस्तु।

मम वाचमेकमना जुषस्व प्रजापतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम्।

हमारा एक-दूसरे के साथ श्रेष्ठ व्यवहार हो। हमारा चित्त एक-दूसरे के अनुकूल हो। प्रजापति ने हमें एक-दूसरे के साथ नियुक्त किया है। हमें इसका सफल निर्वाह करना है।

विवाह का उद्देश्य तो जीवन के आदर्श को पूर्ण करने के लिए एक साधन मात्र है। जीवन का आदर्श, सब प्राणियों में अपनापन अनुभव करना है। इसलिए विवाह में पति-पत्नी में मित्रता, सखा-भाव जरुरी है, नहीं तो विवाह का प्रधान उद्देश्य पूरा नहीं होता।

स्त्री-पुरुष में तो प्रेम स्वाभाविक है, इसे सीखने के लिए किसी विद्यालय में नहीं जाना पड़ता। स्त्री तथा पुरुष के इसी स्वाभाविक प्रेम को प्राणिमात्र तक ले जाने का एक कठिन काम को आसान बनाने का प्रयत्न गृहस्थाश्रम द्वारा किया जाता है। इसी प्रेम का, मैत्री भाव का आगे विस्तार करना है। विवाह में यही प्रेम, सखा भाव ही एक ऐसा तत्व है जिसे संकुचित क्षेत्र से निकालकर हम विस्तृत क्षेत्र में विकसित करना चाहते हैं।

गृहस्थाश्रम में अपनेपन का केन्द्र अपने से हटकर दूसरों में जाना प्रारभ हो जाता है, स्वार्थ का अंश पर्दे की ओट में चला जाता है और उसकी जगह परार्थ का भाव सामने आने लगता है। अतः यह बड़ी जिमेदारी का आश्रम है।

आत्मा के अपने आदर्श लक्ष्य तक पहुँचने का उसके पूर्ण रूप में विक सित होने का यही उपाय है। ब्रह्मचर्यावस्था ‘स्व’ की उन्नति से प्रारभ होती है। इस आश्रम में ‘स्व’ या ‘अपने’ आपका उत्थान प्रमुख होता है, ब्रह्मचारी अपने इर्द-गिर्द ही घूमता है परन्तु जब वह अपने ‘स्व’ को दृढ़ बना चुका होता है, तब उसे अपनी आत्मा को अधिक विकसित करने को कहा जाता है तो वह गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है। ब्रह्मचर्य आश्रम अपने तक सीमित होता है परन्तु गृहस्थ आश्रम अपने से हटकर सन्तानों तक विस्तृत होता ही है। वह पूरे समाज में अपने आपको विस्तृत कर देता है। गृहस्थाश्रम आत्मिक विकास की एक सीढ़ी है यह सभी आश्रमों का पालक, पोषक एवं सहयोगी है। तभी तो इस आश्रम को स्वर्ग प्राप्ति का माध्यम माना गया है। महर्षि मनु की स्पष्ट घोषणा है-

अनेन विप्रो वृत्तेन वर्तयन् वेदशास्त्रवित्।

व्यपेत कल्मषो नित्यं ब्रह्मलोके महीयते।।

(4.260)

अर्थात् – जो वेद शास्त्रों को पढ़ने वाला गृहस्थ शास्त्रोक्त कर्त्तव्यों का पालन करता है वह पाप रहित जीवन स्वर्ग अथवा मोक्ष के आनन्द को प्राप्त करता है।

– 4/44, शिवाजी नगर, गुड़गाँव, हरियाणा

चलभाष-09911197073

धर्मान्तरण (इतिहास के परिप्रेक्ष्य में) – – सत्येन्द्र सिंह आर्य

ईसवी सन् 2014 में जब से मोदी सरकार ने केन्द्र में सत्ता सभाली है तब से धर्मान्तरण का मुद्दा समाचार पत्रों सहित संचार माध्यमों में बहस का विषय बना हुआ है। हिन्दी समाचार पत्रों के संजय गुप्त और ए. सूर्यप्रकाश जैसे वरिष्ठ और यथार्थवादी पत्रकारों को छोड़कर अधिकांश लोगों का लेखन और विमर्श सतही प्रकृति का और पक्षपातपूर्ण रहा है और सच्चाई से मुँह छिपाता दिखाई पड़ता है। उत्तरप्रदेश में उच्च न्यायालय जब कहता है कि एक निश्चित कालावधि में न्यायालय में पंजीकृत 400 अन्तरजातीय (वास्तव में विभिन्न धर्मों वाले) विवाहों में लड़के सभी इस्लाम मतानुयायी हैं और लड़कियाँ सब हिन्दू हैं तो इस मामले में यह देखा जाना चाहिए कि कहीं कुछ धोखाधड़ी, छल-कपट तो नहीं है। तब कांग्रेस, बसपा, सपा, कयुनिष्टों सहित सारे तथाकथित सैकुलरवादी मौन साध जाते हैं। विदेशी और सरकारी पैसे पर अपना एन.जी.ओ. चलाने वाले स्वयभू बुद्धिजीवी और संचार माध्यम भी चुप रहने में अपना भला समझते हैं। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लिप्त विदेशी ईसाई पादरी को भारत से निष्कासित करने का आदेश देता है तो सोची समझी नीति के तहत सब स्वार्थी और वोट बैंक के लालची राजनेता चुप्पी लगा जाते हैं। गैर मुस्लिमों का इस्लामीकरण, बलात् धर्म परिवर्तन और इस्लाम की आक्रामकता  का मुद्दा हैदराबाद सहित कश्मीर से केरल तक जग-जाहिर है परन्तु उस पर कहीं भी कोई किसी प्रकार की आलोचनात्मक टिप्पणी करने का साहस नहीं जुटा पाता। न्यायपालिका यदाकदा किसी जनहित याचिका के अन्तर्गत ऐसी राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का संज्ञान ले लेती है।

हिन्दू जाति अपनी जातिगत दुर्बलताओं के कारण शतादियों से छुआछूत, अस्पृश्यता, ऊँच-नीच के रोग से ग्रसित रही है। स्वाध्याय-शून्य जन्मना पण्डित वर्ग अपने हठ और धर्म के क्षेत्र में व्यवस्था (फतवा) देने के अपने विशेषाधिकार के कारण किसी हिन्दू के मुसलमान या ईसाई बन जाने पर उसे पुनः हिन्दू धर्म में वापस लेने का घोर विरोधी रहा है। यह स्थिति स्वाधीनता प्राप्ति के बीसों वर्ष बाद तक यथावत् रही है। भारत विभाजन के समय पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश)से वे हिन्दू नर-नारी जिन्हें वहाँ उसी समय कलमा पढ़ाकर मुसलमान बनाया गया था, राष्ट्र के स्वाधीन होने पर अपना सब कुछ गवाँकर यहाँ आए। ऐसे कुछ लोगों ने दिल्ली आकर प्रसिद्ध हिन्दू नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी से सपर्क किया और कहा कि वे पुनः हिन्दू धर्म में लौटना चाहते हैं। उस समय हिन्दुओं के सर्वोच्च नेता (स्वामी हरिहरानन्द) करपात्री जी ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को कह दिया कि हमारे शास्त्र इस बात कहीं अनुमति नहीं देते । ऐसा लगता है कि संघ वालों को अब लगा होगा कि यह भूल थी, यदि उसी बात पर अड़े रहे तो हिन्दू जाति का नाम शेष होने में कुछ ही दशादियाँ लगेंगी।

इस पृष्ठभूमि में सभवतः आगरा आदि में कुछ लोगों ने हिन्दू धर्म में वापसी की इच्छा जताई हो और उसे ‘‘घरवापसी’’ का नाम देकर संधियों ने कुछ प्रोपैगेण्डा किया हो तो संचार माध्यमों में सारे सैकुलरिस्टों ? बुद्धिजीवियों? ने तूफान मचा दिया। दूसरी ओर उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, छोटानागपुर, मध्यप्रदेश, केरल और पूर्वोत्तर राज्यों में हिन्दुओं के ईसाईकरण का महाभियान चल रहा है उस पर इनका ध्यान नहीं जाता और न कोई कुछ बोलता है। सत्य बात कहने का उनमें साहस नहीं होता। इस (धर्मान्तरण) विषय पर निष्पक्षता के साथ यथार्थ के धरातल पर और इतिहास के परिप्रेक्ष्य में विचार होना चाहिए। सतही तौर पर लीपापोती करने से कुछ हल नहीं निकल सकेगा।

वर्तमान समय में विभिन्न मत-मतान्तरों को भी धर्म का नाम देकर धर्म शद को बहुवचन के रूप में प्रयोग करने की परपरा चल पड़ी है। महात्मा जरदुश्त, महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, ईसामसीह और मुहमद हजरत के जन्म से पूर्व इनके द्वारा  चलाये गये मत- पंथों का कहीं नामो-निशान नहीं था। परन्तु मानवीय मर्यादाओं के रूप में कुछ नियम और व्यवहार की मान्यताएँ तो उस समय भी थीं और वे तब से थीं जब से मानव जाति इस धरा पर है और वे मानव-मात्र के लिए हित-साधक, उपयोगी और ग्राह्य थीं, हैं और रहेंगी। आप्त पुरुष उस बात को यह कहकर परिभाषित करते थे कि ‘‘पक्षपात रहित न्यायाचरण, सत्यभाषणादियुक्त ईश्वराज्ञा और जो वेदों से अविरुद्ध है, वह धर्म है।’’ वेदों में ऐसा कुछ नहीं है जो तर्क-संगत, विज्ञान के और सृष्टि के अनुकूल न हो। संयुक्त राष्ट्र के यूनेस्को विभाग में ऋग्वेद को प्राचीनतम ग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया गया है। महाभारत युद्ध के भी सैकड़ों वर्ष बाद की अवधि तक वैदिक धर्म ही इस पृथ्वी पर एक मात्र धर्म था।

जिन महापुरुषों, पैगबरों आदि ने नए मत-पंथ चलाये, पहला धर्मान्तरण तो उन्होंने ही किया, वैदिक धर्म के मानने वालों को पारसी, यहूदी, ईसाई, जैन, बौद्ध या मुसलमान बनाया । इन पंथ प्रवर्तकों के बनाये । प्रचारित किये गये ग्रन्थों में जो भी अच्छी और बुद्धि-गय बातें हैं, उनमें एक भी ऐसी नहीं जो वेदों में न हो  परन्तु फिर भी पंथ-प्रवर्तकों ने नए-नए पंथ चलाकर धर्मान्तरण नाम के वायरस का बीजारोपण तो कर ही दिया । वही रोग धीरे-धीरे महारोग बनता चला गया। ईसाई और इस्लाम मतावलबियों ने धर्मान्तरण के लिए जोर-जबरदस्ती, छल-कपट सहित क्या-क्या हथकण्डे अपनाए, यह इतिहास के पन्नों में भरा पड़ा है। भारत के स्वाधीन होने के बाद भी इस रोग की कोई रोकथाम नहीं हुई। आज तो ईसाई एवं इस्लाम मतावलबी मन से यह चाहते हैं कि उनके द्वारा किये जा रहे हिन्दुओं के धर्मान्तरण के मार्ग में कोई भी रुकावट न हो परन्तु एक भी ईसाई या मुसलमान पुनः हिन्दू न बने । इस बेईमानी का पूर्वानुमान हमारे संविधान निर्माताओं को था। संविधान सभा के सदस्य श्री अनन्त शयनम् अयंगार (जो बाद में बिहार के राज्यपाल और लोकसभा के अध्यक्ष भी रहे) ने कहा था कि भारत में धर्मान्तरण की समस्या विकराल रूप धारण कर लेगी। ‘‘यह बड़ा दुर्भाग्य पूर्ण है कि मजहब का उपयोग किसी की आत्मा को बचाने के लिए नहीं बल्कि समाज को तोड़ने के लिए किया जा रहा है।…..इसलिए मैं चाहता हूँ कि भारतीय संविधान में एक मूृल अधिकार जोड़ा जाए जिससे धर्मान्तरण पर रोक की व्यवस्था हो। मैं सभी को अपील करता हॅूँ कि धर्मान्तरण के भयंकर परिणाम को महसूस करें । बाद में जाकर यह समस्या विकराल रूप धारण कर लेगी।’’

संविधान सभा में धर्म विषयक प्रकरणः भारतीय संविधान के निर्माण के समय जब संविधान सभा की बैठकों में धर्म के अधिकार का प्रश्न आया तो ईसाइयों के दबाव पर यह निर्णय लिया गया कि अनुच्छेद 25 (ए)के अन्तर्गत किसी भी धर्म के प्रचार या मानने की स्वतंत्रता का स्पष्ट उल्लेख किया जाए। हमारे राष्ट्रवादी नेताओं का विचार था कि धर्म के प्रचार और मानने की स्वतन्त्रता पर कोई प्रतिबन्ध ही नहीं लगाया जा रहा तो ऐसे में इस अधिकार के लिखने की क्या आवश्यकता है। परन्तु फिर भी ईसाइयों के हठ और आग्रह पर यह प्रावधान जोड़ा गया।

सरदार बल्लभभाई पटेल ने जब संविधान सभा के समक्ष एक अन्तरिम रिपोर्ट प्रस्तुत की तो कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी ने उसमें निम्न प्रावधान जोड़ने का प्रस्ताव किया-

‘‘कोई भी धर्मान्तरण यदि धोखे, दबाव या लालच के द्वारा या 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति का होता है तो उसे कानून की मान्यता नहीं होगी।’’

श्री मुंशी के इस प्रस्ताव का ईसाई सदस्यों ने एक जुट होकर विरोध किया।

इस प्रकार के धर्मांतरण को रोकने के लिए स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद मध्यप्रदेश और उड़ीसा की राज्य सरकारों द्वारााी समय -समय पर कानून बनाये गये । इन  कानूनों को भी ईसाइयों ने सर्वोच्च न्यायालय तक चुनौती दी। परिणाम स्वरूप सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह राय व्यक्त की कि लोभ, लालच और दबाव से कराया गया धर्मान्तरण धर्म प्रचार की स्वतन्त्रता का अंग नही है।

इस चर्चा से यह तो स्पष्ट रूप से निर्विवादित है कि धर्मान्तरण जैसी असामाजिक घटनाओं पर रोकथाम का जब कभी भी प्रयास किया गया तो ईसाई वर्ग ही इसके विरोध में उठ खड़ा होता है। ऐसा क्यों?

भारतीय संसद में धर्मान्तरण की गूंजः वर्ष 1960 में आर्य नेता पं. प्रकाशवीर शास्त्री (स्वतन्त्र सांसद) ने धर्मान्तरण पर अंकुश सबन्धी एक विधेयक प्रस्तुत किया था। श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस विधेयक के समर्थन में 19 फरवरी 1960 को लोकसभा में अपने ओजस्वी भाषण में कहा था कि ‘‘अपनी परपरा के अनुसार हमने एक असाप्रदायिक राष्ट्र की स्थापना की है।’’ हमने कहा है कि राज्य किसी धर्म के साथ अपने को नहीं जोड़ेगा और किसी पूजा की विशेष पद्धति के साथ भेदभाव नहीं करेगा। लेकिन असाप्रदायिकता का अर्थ यह नहीं है और धार्मिक स्वतन्त्रता का यह मतलब नहीं हो सकता कि धर्म का परिवर्तन बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास की सीढ़ी न होकर एक ऐसी योजना का अंग बन जाए जिसके पीछे राजनैतिक उद्देश्य छिपे हों।’’

उस समय सरकार और संसद में नेहरु का असाधारण दबदबा था। अतः उस बिल का परिणाम ढाक के तीन पात ही रहा।

धर्म स्वातन्त्र्य विधेयक 1978:- जून 1975 से मार्च 1977 के मध्य थोपे गये आपातकाल की त्रासदी के  पश्चात् वर्ष 1977 में जनता पार्टी ने मोरारजी भाई रणछोड़ जी भाई देसाई के नेतृत्व में केन्द्रीय सत्ता सभाली । वर्ष 1978 में उसी पार्टी के लोकसभा सदस्य श्री ओमप्रकाश त्यागी ने धर्म स्वातन्त्र्य विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया जो इस प्रकार था-

संक्षिप्त नाम और आरभ

  1. (1) इस अधिनियम का संक्षिप्त नाम धर्म स्वातन्त्र्य अधिनियम 1978 होगा।

(2) यह उस तारीख को प्रवृत्त होगा जो के न्द्र सरकार राजपत्र में अधिसूचना द्वारा नियत करे।

परिभाषाएं :

  1. इस अधिनियम में जब तक कि सन्दर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो।

(क) संपरिवर्तन से अभिप्रेत है कि एक धर्म को त्यागकर दूसरे धर्म को अंगीकृत करना।

(ख) बल के अन्तर्गत बल प्रदर्शन या किसी प्रकार की क्षति की धमकी (जिसके अन्तर्गत दैवी अप्रसाद या समाज से बाहर करने की धमकी है) भी होगी।

(ग) कपट के अन्तर्गत दुर्व्यपदेशन या कोई अन्य कपटपूर्ण उपाय भी होगा।

(घ) उत्प्रेरणा के अन्तर्गत किसी दान या परितोषण को, चाहे वह नकद रूप में हो या वस्तुरूप में, प्रस्थापना भी होगी और इसके अन्तर्गत कोई फायदा करना भी होगा चाहे वह धन सबन्धी हो या अन्यथा और-

(ङ) अवयस्क से ऐसा व्यक्ति अभिप्रेत है जो अट्ठारह वर्ष से कम आयु का हो।

(यह विधेयक विषयक विवरण उनकी पुस्तक ‘धर्मान्तरण’ से लिया है।)

इस विधेयक का भाव यही था कि कोई भी धर्मावलबी दूसरे धर्म के व्यक्ति को छल-कपट, लालच, दबाव आदि के द्वारा धर्मान्तरित न करे। यह व्यवस्था हिन्दू, मुसलिम, ईसाई, सिख आदि पर बिना किसी भेदभाव के लागू होती । विधेयक संसद के पटल पर रखा गया था। इतने भर से ही चिढ़कर मदर टेरेसा जिसे वेटिकन ने बाद में सन्त घोषित कर दिया ने प्रधानमन्त्री मोरार जी देसाई को पत्र लिखा कि यदि यह विधेयक पास हो गया तो चर्च को चिकित्सालयों एवं विद्यालयों के द्वारा की जा रही सेवा का काम करना कठिन हो जाएगा। श्री देसाई को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने मदर टेरेसा को दो टूक उत्तर दिया कि चर्च यदि धर्मान्तरण के लिए ही (सेवा के नाम पर) चिकित्सालय और विद्यालय चलाता है तो उसे यह कार्य बन्द कर देना चाहिए। यह सेवा नहीं छल है।

यह विधेयक भी कानून का रूप नहीं ले सका परन्तु ईसाइयों के छल-प्रपंच की पोलपट्टी खुल गयी।

पिछले तीन चार महीनों में जब-जब विचारशील लोगों द्वारा यह बात उठाई गयी कि धर्मान्तरण रोकने के लिए कोई भेदभाव रहित कानून बनाया जाये तो मुस्लिम उलेमा भी चर्च के सुर में सुर मिलाते हुए उसका विरोध करने लगते हैं। यह समस्या वास्तव में गभीर है। हिन्दुओं की घर-वापसी पर विरोध हो और ईसाईकरण और इस्लामी करण निर्बाध चलता रहे, यह बात सय समाज क ो स्वीकार करने योग्य नहीं है। सरकार इस पर निष्पक्ष दृष्टि से विचार करे तभी समस्या का समाधान निकल सकता है।

– जागृतिविहार, मेरठ

कुल्लियाते आर्य मुसाफिर का नया संस्करणः प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

कुल्लियाते आर्य मुसाफिर का नया संस्करणः सन् 1930 तक का आर्यसमाज का इतिहास इस बात की साक्षी देता है कि आर्य समाज के अधिकांश प्रचारक व उपदेशक तथा निष्ठावान् लेखक , शास्त्रार्थ महारथी पाँच ग्रन्थों का गहन अध्ययन करके सफल उपदेशक, लेखक गवेषक तथा शास्त्रार्थ महारथी बने। ये पाँच ग्रन्थ थेः-

  1. सत्यार्थप्रकाश, 2. ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, 3. कुल्लियाते आर्य मुसाफिर, 4. पं. लेखराम लिखित ऋषि जीवन तथा 5. दर्शनानन्द ग्रन्थ संग्रह। यहाँ प्रसंगवश यह भी बता दें कि आरभिक युग में मुनिवर पं. गुरुदत्त जी तथा मास्टर दुर्गाप्रसाद जी के साहित्य ने अंग्रेजी पठित वर्ग पर वैदिक धर्म का गूढ़ा रंग चढ़ाया।

वर्तमान में पुस्तकों की सूचियाँ बनाने वालों ने पं. लेखराम जी के साहित्य तथा उद्देश्य के बारे में बहुत भ्रम प्रसारित कर दिया है। यह लिखा गया कि पण्डित जी ने मिर्जाई मत के खण्डन में अनेक पुस्तकें लिखीं। यह सर्वथा मिथ्या कथन है। पण्डित जी ने अधिकतर पुस्तकें वैदिक सिद्धान्तों के मण्डन में लिखी हैं। गिनती की कुछ पुस्तकें विधर्मियों के उत्तर में लिखी हैं। उन दिनों ब्राह्मसमाज ने वेद के ईश्वरीय ज्ञान होने के खण्डन तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त के खण्डन का बहुत प्रचार किया। अंग्रेजी पठित वर्ग को इस जाल से निकालने वाले सबसे बड़े विचारक पं. लेखराम जी ही थे।

एक प्रश्न का उत्तर देकर हम आगे कुल्लियाते आर्य मुसाफिर के नये हिन्दी संस्करण पर अपनी प्रतिक्रिया या विचार रखेंगे। कुछ सज्जन यह कहेंगे कि संस्कृत भाषा का विशेष ज्ञान न होने पर भी पं. लेखराम वैदिक धर्म व दर्शन के इतने बड़े और अधिकारी विद्वान् कैसे बन गये? हमारा उत्तर है कि पूर्व जन्मों के गहरे संस्कारों का यह फल था। पूज्य पं. युधिष्ठिर जी मीमांसक का भी यह मत था।

कुल्लियाते आर्य मुसाफिर के उर्दू में दो संस्करण छपे। कुछ पुस्तकें एक-एक दो बार पृथक् भी छपती रहीं। हिन्दी भाषा में पं. शान्तिप्रकाश जी की कृपा से पंजाब सभा ने दो भागों में कुछ पुस्तकें प्रकाशित कीं। इससे पहले भी कुछ सज्जनों ने पण्डित जी की कुछ पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद छपवाया। पंजाब सभा वाला हिन्दी अनुवाद अब पुनः छपेगा। इसमें प्रूफ आदि की कई भयंकर अशुद्धियाँ रह गई हैं। प्रूफ पढ़ते समय तथा सपादन करते हुए यथा साव ग्रन्थ को बढ़िया ढंग से पाठकों तक पहुँचाने का भरपूर श्रम किया जायेगा।

पण्डित जी के सूक्ष्म व मौलिक तर्क, युक्तियाँ व चिन्तन जिन पर स्वामी दर्शनानन्द जी, देहलवी जी, पं. चमूपति जी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, उपाध्याय जी, पं. लक्ष्मण जी, महाशय चिरञ्जीलाल जी प्रेम, ठाकुर अमरसिंह तथा पं. शािन्तप्रकाश जी मुग्ध थे उन युक्तियों को प्रमुखता से प्रचारित करने पर विशेष ध्यान दिया जायेगा।

पण्डित लेखराम जी की ऊहा व युक्तियों की विधर्मियों ने भी समय-समय पर बहुत प्रशंसा की है। अनेक सुयोग्य व्यक्ति पं. लेखराम जी का साहित्य पढ़कर ही धर्मच्युत होने से बचे। हैदराबाद के प्रधान मन्त्री राजा सर किशनप्रसाद को पं. लेखराम जी के तर्क देकर मुसलमान बनने से बचाया गया। सपादन में ऐसी सब महत्त्वपूर्ण घटनाओं का यथा-प्रसंग उल्लेख किया जायेगा।

महात्मा मुंशीराम जी ने ठीक ही लिखा है कि पं. लेखराम जी के साहित्य से पहले मुंशी इन्द्रमणि जी के ग्रन्थों की भी धूम थी परन्तु इन दोनों की शैली में अन्तर क्या था? यह जानने व बता सकने वाले विद्वानों व गवेषकों का आर्य समाज में अब लोप सा हो गया है। ऐसे ही सर सैयद अहमद खँा, डॉ. इकबाल की कोटि के मुस्लिम नेता भी पं. लेखराम जी की लौह लेखनी से लाभान्वित होते रहे। इस विषय की भी इस संस्करण में आवश्यक जानकारी दी जायेगी। आर्य समाज के सभी बड़े-बड़े विद्वानों के सुझावों को स्वागत किया जावेगा। ऐसे ग्रन्थ कभी-कभी ही छपते हैं सो इसे अधिक-से-अधिक उपयोगी बनाया जायेगा। पण्डित जी की तार्किकता की दो घटनायें अत्यन्त संक्षेप से देना उपयोगी रहेगा।

नागपुर में जमाते इस्लामी के एक युवा मिशनरी से इस लेखक की धर्म चर्चा की व्यवस्था की गई। तब होशंगाबाद के स्व. श्री यज्ञेन्द्र जी तथा सागर विश्वविद्यालय के एक स्वर्गीय संस्कृतज्ञ विद्वान् भी वहाँ हमें सुन रहे थे। उसे कहा गया कि तुम मिट्टी से घड़ा, घड़े से मिट््टी, प्याला व गमले का और बर्फ से जल, जल से भाप, मेघ, वर्षा और फिर पुनः बर्फ का पुनर्जन्म तो मान रहे हो। जड़ ज्ञानशून्य जल का पुनर्जन्म मानते हो परन्तु चेतन ज्ञानवान् जीव का पुनर्जन्म नहीं मानते?

इस पर विश्वविद्यालय के माननीय गुरुकुलीय स्नातक ने कहा, ‘‘मैं गुरुकुल में पढ़ा। बहुत शास्त्रीय साहित्य पढ़ा परन्तु यह तर्क पहली बार ही सुना है। यह अकाट्य है।’’

तब उस सज्जन को बताया गया कि यह पं. लेखराम जी की कृपा का प्रसाद है। ऐसे ही गुजरात के सतपंथियों के लिए कई विद्वानों से लेख मंगवाये गये। इस सेवक के लेख को विशेष उपयोगी मानकर प्रसारित किया तो प्रतिक्रियायें अच्छी मिलीं। श्री कल्याण भाई ने हमें यह जानकारी दी तो उन्हें कहा, ऐसा लेख पं. लेखराम जी की परपरा के विद्वान् मान्य शरर जी तथा जिज्ञासु जी ही लिख सकते थे। जो पं. लेखराम जी के साहित्य सागर में डुबकी लगायेगा, वही ऐसे रत्न प्राप्त कर सकेगा।

‘सिंध सभा’ पत्रिका के  सपादक ने पं. लेखराम जी पर जी भर कर लिखा है परन्तु उनकी पुस्तकों तक आर्य समाज पहुँच ही न पाया। ऐसे ही ………….., श्री अनरवरशेख, मौलाना अदुल्ला मेमार, मौलवी सनाउल्ला जी, मौलाना रफीक दिलावरी के साहित्य के महत्त्वपूर्ण अंश पाद टिप्पणियों में आने चाहिये। ऐसा हमारा मत है। जिन्होंने सेवक से यह सेवा लेने का मन बनाया है, वे क्या निर्णय लेते हैं? यह जान कर इस कार्य को जीवन की इस सांझ में सहर्ष करुँगा। इस विनीत के सामने अर्थ के लोभ व लाभ का प्रश्न ही नहीं। यह अपने लिये जीवन मरण का प्रश्न है। यह सौभाग्य का विषय है कि आर्य समाज ने यह दायित्व सौंपा है। इस संस्करण के साथ पण्डित जी के जीवन का बलिदान पर कितने पृष्ठ लिखे जायें? यह भी आर्य विद्वान् व आर्य जनता सोच कर सूचित करे।

अपने घर को भली प्रकार से जानोः पं. चमूपति जी एक युवक हवनलाल मेहता की रचनायें कुछ पत्रों में पढ़कर उससे मिलने को उत्सुक हुए। युवक का नाम ही बता रहा था कि यह आर्य समाजी होगा। पण्डित जी पेशावर गये तो उसके घर का पता करके उसे मिलने गये, वह घर पर नहीं था। मौलवी के पास अरबी पढ़ने गया था। उसे जब पता चल कि श्री पण्डित जी उसके घर उसे मिलने आये तो वह भागा-भागा उनके दर्शन करने समाज में पहुँचा। पण्डित जी ने छूटते ही कहा, ‘‘क्या दूसरों के घरों में ही घूमते हो? अपने घर को भी तो भली प्रकार से जानो।’’ यह प्रसंग हवनलाल जी ने स्वयं ही इस लेखक को सुनाया।

हमारे साथ प्रायः यही कुछ होता है । एक ने पूछा, ‘‘क्या आपने स्वामी दयानन्द और वेद, अदुल गफू र की पुस्तक देखी है। दूसरा कहता है, मुसलमानों ने हक प्रकाश व मुकदस रसूल पुस्तकें छपवा दी।’’ पता नहीं ये भाई हमारी परीक्षा लेते हैं या मुसलमानों के प्रचार तन्त्र के प्रचार में शक्ति लगाते हैं। अरे भाई! आप दिन-रात आर्य साहित्य के  सृजन व उत्तर देने के कठिन कार्य में जुटे आर्य विद्वानों के साहित्य को स्वयं पचाओ व फैलाओ फिर जो कार्य नहीं हुआ, उसे करने को कहो। गभीर अध्ययन करके स्वामी आत्मानन्द जी के स्वप्न साकार करो।

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-152116

नकारात्मक प्रचार मत करो का जवाब : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

यह सन् 1951 के आस-पास की बात है। आर्यसमाज के सबसे लोकप्रिय पत्र ‘आर्य मुसाफिर’ के पूर्व सपादक महाशय चिरञ्जीलाल जी ‘प्रेम’ लेखराम नगर (कादियाँ) पधारे। वह आर्य समाज के एक जाने माने शास्त्रार्थ महारथी थे। सायंकाल उनके साथा्रमण के लिए निकला। मैं तब कालेज का विद्यार्थी था। उनसे कहा- आर्य समाज की लेखनी व वाणी से सेवा की चाह है। आप अपने अनुभव से मार्गदर्शन कीजिये।

तब महाशय जी ने अपने दीर्घकालीन अनुाव से एक पते की बात कही कि जो मिशन की सेवा की भावना रखना चाहता है, उसे प्रत्येक मुय-मुय सिद्धान्त का ज्ञान होना चाहिये और कुछ सिद्धान्तों का व्यापक व गभीर ज्ञान होना चाहिये। अब यह देखने में आता है कि फेसबुक लिये बैठे अनुभवहीन युवक बहुत थोड़ा पढ़-सुनकर स्वयं को रिसर्च स्कॉलर व शास्त्रार्थ महारथी व योगिराज मान लेते हैं। इससे उनका अपना पतन होता है और समाज की हानि होती है।

विद्वानों की एक सभा में कुछ विचार हो रहा था। योग चार पर छह व्यायान सुनकर स्वयं को योग गुरु के रूप में स्थापित करने की इच्छा वाले एक अति उत्साही युवक ने यह टिप्पणी करके विचित्र व्यवस्था दे दी कि नकारात्मक प्रचार मत करो। सकारात्मक उपदेश प्रवचन होने चाहिये। ऐसे अधकचरे योगी रजनीश की पुस्तकें पढ़ कर ऐसी व्यवस्थायें देने के अयासी हैं।

बात व सोच सकारात्मक हो, गुणियों को यह सीख मान्य है परन्तु क्या किसी दुष्कर्म, कुकर्म व पाप से बचने के लिये कहना व रोकना, यह नकारात्मक उपदेश व पाप है? सब मत पंथों में ऐसी शिक्षायें हैं। सब देशों के विधान में ऐसे राज नियम है। मनोविज्ञान व दर्शन के ग्रन्थों में ऐसी शिक्षायें हैं। वेद, दर्शन, उपनिषद् व ऋषि के ग्रन्थों, प्रवचनों व उपदेशों में ऐसे सुविचार मिलते हैं।

‘अक्षैर्मा दीवव्य’ जुआ मत खेलो- यह वेदादेश क्या नकारात्मक होने से अमान्य है? ‘मा गृधः’ इस वेदोपदेश के लिये ऐसे अधकचरे योगी क्या कहेंगे? योग के यम-नियमों पर ही कुछ विचार किया जाता तो बात स्पष्ट हो जाती है। अहिंसा, सत्यास्तेय तथा अपरिग्रह के लिए क्या कहा जायेगा? महर्षि दयानन्द जी के आर्याभिविनय रूपी सुधा सिन्धु में ऐसी पचासों विनय या सूक्तियाँ मिलेंगी। वेद में प्रमाद आदि दोषों से बचने का आदेश है। वेद में गऊ का एक नाम ही नकारात्मक आदेश है अर्थात् जिसकी हिंसा न की जाये। वेद में सूर्योदय के समय सोने से रोका गया है। शास्त्र क्रोध न करने की भी आज्ञा देता है। आशा है कि आर्य समाज के गुणी, विद्वान् तथा अनुभवी साधु महात्मा यह नया और घातक दुष्प्रचार समय रहते ही रोक देंगे।

सद्धर्म प्रचारक उर्दू विषयक जानकारीः परोपकारी के एक गत अंक में ‘सद्धर्म प्रचारक उर्दू व हिन्दी में जन्म की तिथियों के विषय में भ्रामक लेखों का निराकरण करते हुए कुछ लिखा गया था। सद्धर्म प्रचारक उर्दू के बारे में विनीत ने यह लिखा था कि यह कब तक निकलता रहा, यह इसके अन्तिम अंक को सामने रखकर कभी फिर जानकारी दी जायेगी। स्मृति के आधार पर यह लिखा था कि लाला लाजपतराय जी के निष्कासन तक यह छपता रहा। यदि इसमें कुछाूल होगी तो इसका सुधार कर दिया जायेगा। पाठक अच्छी प्रकार से नोट कर लें कि उर्दू में फरवरी 1907 के अन्तिम सप्ताह तक ही यह छपता रहा । मार्च 1907 में जब हिन्दी में यह निकलने लगा तब उर्दू संस्करण बन्द कर दिया गया। लाला लाजपतराय को तो नौ मई को बन्दी बनाया गया था। क्रान्तिवीर अजीतसिंह को दो जून को अमृतसर में बन्दी बनाया गया। कुछ लेखकों का यह विचार सत्य नहीं कि दोनों को एक ही समय बन्दी बनाया गया। हमने ‘सद्धर्म प्रचारक’ उर्दू के प्रथम तथा अन्तिम वर्ष के अंक देखकर यह प्रामाणिक जानकारी दे दी है।’

डंके  की चोट से कहियेः- गत दिनों दिल्ली के एक उत्साही आर्य युवक ने श्री डॉ. अशोक आर्य जी के निवास पर कई ठोस प्रश्न पूछते हुए कहा कि पौराण्कि विद्वान् अब तक यह कहते व लिखते हैं कि काशी शास्त्रार्थ में महर्षि दयानन्द ही पराजित हुए थे। काशी के पण्डित तब विजयी रहे थे। उस आर्य युवक विशाल को तब कहा था कि पौराणिक तो यही कहते रहेंगे। आप इसकी चिन्ता न करें। तथ्यों से इसका प्रतिवाद करते रहे। तब उस युवक को तत्कालीन स्रोतों के कई प्रमाण दे दिये थे।

अब पुनः किसी ने इस विषय पर एक प्रश्न पूछा है। हमारे लोगों की यह चूक है कि हम कुछ महत्त्वपूर्ण प्रमाणों व तथ्यों को डंके की चोट से बार-बार प्रचारित नहीं करते। कोलकाता के अलय शास्त्रार्थ के सपादकीय में हमने लिखा था और परोपकारिणी सभा ने इसे पुनः प्रकाशित व प्रसारित भी कर दिया कि काशी शास्त्रार्थ के बारह वर्ष पश्चात्ाी कोलकाता में प्रतिमा पूजन की पुष्टि में वेद का एक भी प्रमाण तीन सौ पण्डितों का जमघट न दे सका। इससे बढ़कर ऋषि की विजय का और प्रमाण क्या चाहिये? सपूर्ण जीवन चरित्र में हमने अलय स्रोतों के कई नये प्रमाण खोद-खोद कर दिये हैं।

अमरीका में धूम मच गईः प्रतीक्षा कीजिये परोपकारिणी सभा महर्षि दयानन्द जी पर एक अनूठी व महत्त्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित करने वाली है। इसमें महर्षि के जीवनकाल में अमरीका के पत्र में छपा एक लबा लेख दिया जायेगा। यह लेख कोलकाता की सभा से भी पहले छपा था। इस लेख में स्पष्ट शदों में यह लिखा गया है कि देश भर का कोई भी विद्वान् स्वामी दयानन्द की इस चुनौती को स्वीकार नहीं कर सका कि मूर्तिपूजा की पुष्टि में वेद का कोई मन्त्र लाओ, दिखाओ। दयानन्द स्वामी ललकार रहा है और किसी में उससे शास्त्रार्थ करने का साहस नहीं है। कल्पित शंकाओं को उठाकर शंका समाधान की बजाये, हमें अकाट्य सामग्री का उपयोग करके अपने प्रचार को प्राावशाली बनाना चाहिये।

पं. रामचन्द्र जी देहलवी का गौरवपूर्ण इतिहासः- आर्य समाज के शास्त्रार्थ महारथियों के छोटे-छोटे जीवन चरित्र तो पहले भी छपते रहे परन्तु संस्थावाद के कीच-बीच फंसे आर्यसमाज के महर्षि के प्यारे मिशन की कीर्ति भवन के लिये शीश तली पर घर कर शास्त्रार्थ करने वाले अपने विद्वानों के उनके व्यक्तित्व व कर्तृत्व के अनुरूप खोजपूर्ण जीवन चरित्र न लिखे और न छपवाये। जिन्होंने कुछ लिखा व किया, हम उन सबके ऋणी हैं। इस सेवक  ने इस चुभने वाले अभाव का निराकरण करते हुए पं. लेखराम जी तथा स्वामी दर्शनानन्द जी पर बड़े-बड़े ग्रन्थ छपवा दिये।

आर्य समाज को उस विदेशी मुसलमान युवा स्कॉलर का आभारी होना चाहिये जिसने इस सेवक को प्रेरणा देकर पं. रामचन्द्र देहलवी पर 400 पृष्ठों का ग्रन्थ लिखवा लिया। श्री अजय आर्य जी ने समय सीमा पर इसे प्रकाशित करके अपने पितामह ला. गोविन्दराम जी की स्वर्णिम सेवाओं के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया।

आर्य समाज में पूज्य पंडित जी की प्रत्युत्पन्नमति की कुछ फुलझड़ियाँ हमारी पुस्तकों से चुन-चुनकर चुटकले से छपने लगे। हमने उनके शास्त्रार्थों के मौलिक तर्कों को खोज-खोज कर अपनी पुस्तकों में दिया। उनका उपयोग किसी विरले वक्ता ने ही किया। यह हम लोगों का दोष है।

तब हमने यह प्रश्न उठाया था कि हमने पं. भगवद्दत्त जी का एक साक्षात्कार लेते हुए पण्डित रामचन्द्र जी देहलवी के शास्त्रार्थों की दर्शनिक महत्ता का उल्लेख करते हुए, आर्यसमाज के पुराने लोगों से (विशेष रूप से दिल्ली वालों से) पूछा था कि पण्डित जी ने न्याय आदि दर्शन किससे पढ़े थे? पण्ड़ित जी से अपने सबन्धों व ऊहा के बल पर अपना मत यह दिया कि हमें यही लगता है कि आपने स्वामी दर्शनानन्द जी से दर्शन पढ़े थे।

तब मेरठ क्षेत्र से स्वामी पूर्णानन्द जी के शिष्य ग्रामीण आर्य प्रचारक श्री मंगूसिंह आर्य ने वेदपथिक श्री धर्मपाल जी द्वारा हमें अपना संस्मरण लिखकर भेजा था कि एक बार श्री पण्ड़ित जी हमारे घर पर मेरे पिता जी से धर्म चर्चा कर रहे थे। तब बातों-बातों में यह कहा था मैंने स्वामी दर्शनानन्द जी से दर्शन पढ़े थे। इसके थोड़ा समय के पश्चात् श्री पं. बिहारीलाल जी की एक पुस्तिका में भी इसकी पुष्टि पढ़कर हमें बहुत आनन्द हुआ। खेद है कि आर्य वक्ता लेखक  भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनि जी तथा महात्मा नारायण स्वामी जी की शैली को छोड़कर सरकारी सन्तों के सदृश हल्के ढंग से तुक मिलाकर भाषण देने लग गये हैं। इससे न तो इतिहास की सुरक्षा हो सकेगी और न प्रामाणिकता ही रहेगी।

ठाकुर मुकन्दसिंह जी की पुस्तकः ऋषि के महान् भक्तों में से एक ठाकुर मुकन्दसिंह जी छलेसर ने ‘तहकीक उलहक’ (सत्य की खोज) नाम से एक पुस्तक अलीगढ़ से छपवाई थी। आशा थी कि यह उर्दू पुस्तक आर्यसमाज बुढ़ाना द्वार मेरठ से मिल जायेगी परन्तु वहाँ न मिली। अब मेरठ के माननीय श्री यशपाल जी इसके लिये भाग दौड़ कर रहे हैं। वह स्वयं छलेसर अलीगढ़ जायेंगे। अलीगढ़ के आर्य भाई- श्री देवनारायण जी आदि सहयोग करें तो यह कार्य हो सकता है। आर्यों! यह मत भूलें कि ठाकुर मुकन्दसिंह जी तथा ठाकुर भोपालसिंह जी ने ऋषि के देह-त्याग तक महाराज की जी भरकर सेवा की, सबसे लबे समय तक ऋषि के सपर्क में रहे। महर्षि ने उन्हें अपने साहित्य का मुतार नियत किया था। वे हमारे इतिहास पुरुष हैं। इसलिये इस पुस्तक की खोज को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर इसकी खोज कीजिये।

आर्य समाज की चक्की निरन्तर चलती चलेः कभी श्री महाशय कृष्ण जी ने अपने एक लेख में लिखा था कि आर्य समाज की चक्की चलती तो धीरे-धीरे है परन्तु पीसती बारीक है। यह वाक्य पढ़ते ही हृदय पर अंकित हो गया। अब कई युवक मिलकर व चलभाष पर मत पंथों पर, आर्य समाज के इतिहास पर प्रश्न पूछते रहते हैं। भिन्न-भिन्न विषयों की पुस्तकों के बारे में जानकारी मांगते हैं। कोई कहता है कि सत्यार्थ प्रकाश पर प्रतिबन्धों व चलाये गये अभियोगों पर मैं पुस्तक लिखने लगा हूँ। कुछ पुस्तकों के नाम बता दें। एक ने पूछा कि सिखों व आर्य समाज पर मैंने लिखना है कोई एक-आध पुस्तक बता दें।

ऐसे उतावले सज्जनों को सदा यही कहा है कि 100-50 पुस्तकें पढ़कर ही कुछ लिखिये। विषय से न्याय होना चाहिये। अतिउत्साह से गड़बड़ ही होगी। आप देखिये सत्यार्थ प्रकाश पर केस तो चार-पाँच चले परन्तु प्रतिबन्ध तो एक ही बार सिंध में लगाया गया और वह भी केवल चौदहवें समुल्ललास पर। तब पुस्तकें भी छप गई। इन नादान मित्रों ने पटियाला मेंाी सन् 1920 में प्रतिबन्ध लगा दिया और निजाम राज्य में प्रतिबन्ध की कहानी गढ़ ली। सपादकों ने लेख छाप दिये। पुस्तकें भी छपने लगीं।

क्या गप्पें गढ़ने से सत्यार्थप्रकाश का गौरव बढ़ गया? अभी फिर सिखों के राजनेताओं ने लाखों के विज्ञापन छपवा कर दैनिक पत्रों में वीर वैरागी को ‘बन्दा सिंह बहादुर’ बना दिया है। पहले भी अंग्रेज इतिहासकार कनिंघम तथा सिखों के एक जाने-माने इतिहासकार के प्रमाण देकर हमने परोपकारी में इस अनर्थ का प्रतिवाद किया था। इनके बस में हो तो यह गुरुनानक जी, गुरु अंगददेव जी आदि सबको पक्का अकाली बनाने के लिए उनके नामों के साथ भी सिंह लगा दें। आश्चर्य की बात है सिखों के इतिहास पर अपनी रिसर्च का परिचय देने वाला कोई व्यक्ति अब भी नहीं बोला।

चलभाष पर और मिलने पर जो मौलाना सना उल्ला, श्री अनवरशेख, डॉ. गुलाम जेलानी, मौलाना अदुल्ला  के साहित्य व विचारों पर चर्चा करते हैं, उनको यही सीख देता हूँ निरन्तर स्वाध्याय करो, श्रम करो। रात-रात में आप पं. शन्तिप्रकाश व ठाकुर अमरसिंह नहीं बन सकते। महाशय कृष्ण जी की सीख लो। बारीक पीसने की परपरा अखण्ड बनाओ। मेरे साहित्य में से डॉ. गुलाम जेलानी का नाम तो याद कर लिया उनके उद्धरण देकर वैदिक सिद्धान्तों की जो पुष्टि की है उसको हृदयङ्गम करो। आर्य साहित्य का प्रसार करो।

-इतिहास प्रदूषण- ‘पं. लेखराम एवं वीर सावरकर के जीवन विषयक सत्य घटनाओं का प्रकाश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य अल्पज्ञ है इसलिये उससे अज्ञानता व अनजाने में यदा-कदा भूल व त्रुटियां होती रहती है। इतिहास में भी बहुत कुछ जो लिखा होता है, उसके लेखक सर्वज्ञ न होने से उनसे भी न चाहकर भी कुछ त्रुटियां हो ही जाती हैं। अतः इतिहास विषयक घटनाओं की भी विवेचना व छानबीन होती रहनी चाहिये अन्यथा वह कथा-कहानी ही बन जाते हैं। आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु आर्यसमाज के इतिहास विषयक साहित्य के अनुसंधान व तदविषयक ऊहापोह के धनी है। हिन्दी, अंग्रेजी व उर्दू के अच्छे जानकार है। लगभग 300 ग्रन्थों के लेखक, अनुवादक, सम्पादक व प्रकाशक हैं। नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखते हैं। मिथ्या आरोपों का खण्डन करते हैं। वह इतिहास विषयक एक सन्दर्भ को एक ही पुस्तक में देखकर सन्तोष नहीं करते अपितु उसे यत्र-तत्र खोजते हैं जिससे कि उस घटना की तिथियां व उसकी विषय-वस्तु में जानबूझ, अल्पज्ञता व अन्य किसी कारण से कहीं कोई त्रुटि न रहे। उनके पास प्रकाशित पुस्तकों व लेखों में जाने-अनजाने में की गईं त्रुटियों की अच्छी जानकारी है जिस पर उन्होंने इतिहास प्रदूषण नाम से एक  पुस्तक भी लिखी है। 160 पृष्ठीय पुस्तक का हमने आज ही अध्ययन समाप्त किया है। इस पुस्तक में रक्तसाक्षी पं. लेखराम जी के जीवन की एक घटना के प्रदूषण की ओर भी उनका ध्यान गया है जिसे उन्होंने सत्य की रक्षार्थ प्रस्तुत किया है। हम यह बता दें कि पण्डित लेखराम महर्षि दयानन्द के अनन्य भक्त थे। आपने लगभग 7 वर्ष तक निरन्तर देशभर में घूम कर महर्षि दयानन्द के सम्पर्क में आये प्रत्येक व्यक्ति व संगठनों से मिलकर उनके जीवन विषयक सामग्री का संग्रह किया जिसके आधार पर उनका प्रमुख व सर्वाधिक महत्वपूर्ण जीवनचरित्र लिखा गया। 39 वर्ष की अल्प आयु में ही एक मुस्लिम युवक ने धोखे से इनके पेट में छुरा घोप कर इन्हें वैदिक धर्म का पहली पंक्ति का शहीद बना दिया था। कवि हृदय प्रा. जिज्ञासु जी ने इस शहादत पर यह पंक्तियां लिखी हैं-जो देश को बचा सकें, वे हैं कहां जवानियाँ ? जो अपने रक्त से लिखें, स्वदेश की कहानियां।। पं. लेखराम जी के जीवन की इस घटना को प्रस्तुत करने का हमारा उद्देश्य है कि पाठक यह जान सकें सच्चे विद्वानों से भी अनजाने में इतिहास विषयक कैसी-कैसी भूलें हो जाती हैं, इसका ज्ञान हो सके।

 

स्मृतिदोष की यह घटना आर्यजगत के प्रसिद्ध विद्वान जिन्हें भूमण्डल प्रचारक के नाम से जाना जाता है, उन मेहता जैमिनी से सम्बन्ध रखती है। मेहता जैमिनी जी की स्मरण शक्ति असाधारण थी। इस कारण वह चलते फिरते इतिहास के ग्रन्थ थे। उनकी स्मरण शक्ति कितनी भी अच्छी हो परन्तु वह थे तो एक जीवात्मा ही। जीव की अल्पज्ञता के कारण उनमें भी अपवाद रूप में स्मृति दोष पाया गया है। आपकी स्मृति दोष की एक घटना से आर्यसमाज में एक भूल इतिहास बन कर प्रचलित हो गई। प्रा. जिज्ञासु जी बताते हैं कि यह सम्भव है कि इस भूल का मूल कुछ और हो परन्तु उनकी खोज व जांच पड़ताल यही कहती है कि यह भ्रान्ति मेहता जैमिनि जी के लेख से ही फैली। घटना तो घटी ही। यह ठीक है परन्तु श्री मेहता जी के स्मृति-दोष से इतिहास की इस सच्ची घटना के साथ कुछ भ्रामक कथन भी जुड़ गया। कवियों ने उस पर कविताएं लिख दीं। लेखकों ने लेख लिखे। वक्ताओं ने अपने ओजस्वी भाषणों में उस घटना के साथ जुड़ी भूल को उठा लिया। घटना तो अपने मूल स्वरूप में ही बेजोड़ है और जो बात मेहता जी ने स्मृति-दोष से लिख दी व कह दी उससे उस घटना का महत्व और बढ़ गया।

 

घटना पं. लेखराम जी के सम्बन्ध में है। इसे आर्यसमाजेतर जाति प्रेमी हिन्दू भी कुछ-कुछ जानते हैं। यह सन् 1896 की घटना है। पं. लेखराम जी सपरिवार तब जालन्धर में महात्मा मुंशीराम (बाद में स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती) जी की कोठी से थोड़ी दूरी पर रेलवे लाईन के साथ ही एक किराये के मकान में रहते थे। मेहता जैमिनि जी (तब जमनादास) भी जालन्धर में ही रहते थे। मुंशीराम जी आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान थे। मेहता जैमिनि जी सभा प्रधान के पास बैठे हुए थे। पण्डित लेखराम जी प्रचार-यात्रा से लौटकर आये। महात्मा मुंशी राम जी ने उन्हें बताया कि मुस्तफाबाद (जिला अम्बाला) में पांच हिन्दू मुसलमान होने वाले हैं। आपका प्रिय पुत्र सुखदेव रूग्ण है। आप तो उसको देखें, सम्भालें ( उपचार करायें) मैं हकीम सन्तराम जी (जो शाहपुरा राजस्थान भी रहे) को तार देकर वहां जाने के लिए कहता हूं।

 

मेहता जी ने अपने इस विषयक लेख में लिखा है-‘‘नहीं, वहां तो मेरा (पं. लेखराम का) ही जाना ठीक है। मुझे अपने एक पुत्र से (आर्यहिन्दू) जाति के पांच पुत्र अधिक प्यारे हैं। आप वहां तार दे दें। मैं सात बजे की गाड़ी से सायं को चला जाऊंगा। यह भी लिखा कि वह केवल दो घण्टे घर पर रुके। उनकी अनुपस्थिति में डा. गंगाराम जी ने बड़ा उपचार निदान किया, परन्तु सुखदेव को बचाया न जा सका। 18 अगस्त 1896 ई. को वह चल बसा। (द्रष्टव्यः ‘आर्यवीर’ उर्दू का शहीद अंक सन् 1953 पृष्ठ 9-10)।  ईश्वर का विधि-विधान अटल है। जन्म-मृत्यु मनुष्य के हाथ में नहीं है।

 

जिज्ञासु जी आगे लिखते हैं कि यह तो हम समझते हैं कि पण्डित जी के लौटने पर मेहता जी ने महात्मा जी पण्डित जी का संवाद अवश्य सुना, परन्तु आगे का घटनाक्रम उनकी स्मृति से ओझल हो गया। पण्डित जी पुत्र की मृत्यु के समय जालन्धर में ही थे। घर से बाहर होने की बात किसी ने नहीं लिखी। वह पुत्र के निधन के पश्चात् मुस्तफाबाद जाति रक्षा के लिए गये। अब इस सम्बन्ध में और अधिक क्या लिखा जाए? एक छोटी सी चूक से इतिहास में भ्रम फैल गया। लोक झूम-झूम कर गाते रहे-

 

लड़का तिरा बीमार था

                        शुद्धि को तू तैयार था ।।

                        मरने का पहुंचा तार था।

                        पढ़कर के तार यूं कहा।।

                        लड़का मरा तो क्या हुआ।

                        दुनिया का है यह सिलसिला ।।

 

इससे भी अधिक लिफाफे वाले गीत को लोकप्रियता प्राप्त हुई। अब तो वह गीत नहीं गाया जाता। उस गीत की ये प्रथम चार पंक्तियां स्मृति-दोष से इतिहास प्रदूषण का अच्छा प्रमाण है।

 

लिफाफा हाथ में लाकर दिया जिस वक्त माता ने।

                        लगे झट खोलकर पढ्ने दिया है छोड़ खाने को।।

                        मेरा इकलौता बेटा मरता है तो मरने दो लेकिन

                        मैं जाता हूं हजारों लाल जाति के बचाने को।।

 

इस प्रसंग की समाप्ति पर जिज्ञासु जी कहते हैं कि स्मृति दोष से बचने का तो एक ही उपाय है कि इतिहास लेखक घटना के प्रमाण को अन्यान्य संदर्भों से मिलाने को प्रमुखता देवें।

 

विद्वान लेखक प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु ने वीर सावरकर पर भी एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। हम इस प्रसंग से पहली बार परिचित हुए हैं जिसे हम पाठकों के साथ साज्ञा कर रहे हैं। पुस्तक इतिहास प्रदूषण में लेखक ने लिखा है कि वीर सावरकर ने अपनी आत्मकथा में ऋषि दयानन्द तथा आर्य समाज से प्राप्त ऊर्जा प्रेरणा की खुलकर चर्चा की है। यदि ये बन्धु लार्ड रिपन के सेवा निवृत्त होने पर काशी के ब्राह्मणों द्वारा उनकी शोभा यात्रा में बैलों का जुआ उतार कर उसे अपने कन्धों पर धरकर उनकी गाड़ी को खींचने वाला प्रेरक प्रसंग (श्री आर्यमुनि, मेरठवैदिकपथपत्रिका में वीर सावरकर जी पर प्रकाशित अपने लेख में) उद्धृत कर देते तो पाठकों को पता चला जाता कि इस विश्व प्रसिद्ध क्रान्तिकारी को देश के लिए जीने मरने के संस्कार विचार देने वालों में ऋषि दयानन्द अग्रणी रहे। इसी क्रम में दूसरी घटना है कि मगर आर्यसमाज ने जब अस्पृश्यता निवारण के लिए एक बड़ा प्रीतिभोज आयोजित किया तो आप (यशस्वी वीर सावरकर जी) विशेष रूप से इसमें भाग लेने के लिए अपने जन्मस्थान पर पधारे। इससे यह एक ऐतिहासिक घटना बन गई। इस लेखक (प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु) ने कई बार लिखा है कि भारत के राजनेताओं में से वीर सावरकर ने सर्वाधिक आर्य हुतात्माओं तथा देशभक्तों पर हृदय उड़ेल कर लेख लिखे हैं। आर्यसमाज ऋषि के विरोधियों को लताड़ने में वीर सावरकर सदा अग्रणी रहे। कम से कम भाई परमानन्द स्वामी श्रद्धानन्द जी की चर्चा तो की जानी चाहिये। आपके एक प्रसिद्ध पत्र का नाम ही श्रद्धानन्द था। यह पत्र भी इतिहास साहित्य में सदा अमर रहेगा। 

 

महर्षि दयानन्द आर्यसमाज संगठन के प्रति समर्पित अनेक विद्वान हुए हैं परन्तु जो श्रद्धा, समर्पण, इतिहास साहित्य के अनुसंधान की तड़फ पुरूषार्थ सहित महर्षि समाज के प्रति दीवानगी वर्तमान समय में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी में दिखाई देती है, वह अन्यतम एव अनुकरणीय है। नाज नखरों से रहित उनका जीवन एक सामान्य सरल व्यक्ति जैसा है। आज की हाईफाई जीवन शैली से वह कोसों दूर हैं। उन्होंने आर्यसमाज को जो विस्तृत खोजपूर्ण प्रामाणिक साहित्य प्रदान किया है वह स्वयं में एक कीर्तिमान है। पाठकों हममें उनका समस्त साहित्य प्राप्त कर अध्ययन करने की क्षमता भी नहीं है। हम उनकी ऋषिभक्ति खोजपूर्ण साहित्यिक उपलब्धियों के प्रति नतमस्तक हैं।  उनके साहित्य का अध्ययन करते हुए जबजब हमें नये खोजपूर्ण प्रसंग मिलते हैं तो हम गद्गद् हो जाते हैं और हमारा हृदय उनके प्रति श्रद्धाभक्ति से भर जाता है। कुछ अधूरे प्रसंग पढ़कर संदर्भित पुस्तक तथा प्रमाण तक हमारी पहुंच होने के कारण मन व्यथित भी होता है। उनके समस्त साहित्य में ऋषि भक्ति साहित्यिक मणिमोती बिखरे हुए हैं जो अध्येता को आत्मिक सुख देते हैं। हम ईश्वर से अपने इस श्रद्धेय विद्वान की शताधिक आयु के स्वस्थ क्रियात्मक जीवन की प्रार्थना करते हैं।

हम समझते हैं कि लेखकों से स्मृति दोष व अन्य अनेक कारणों से ऐतिहासिक घटनाओं के चित्रण व वर्णन में भूलें हो जाती हैं। इतिहास में विगत कई शताब्दियों से अज्ञानता व स्वार्थ के कारण धार्मिक व सांस्कृतिक साहित्य में परिवर्तन, प्रेक्षप, मिलावट व हटावट होती आ रही है जिसे रोका जाना चाहिये। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की इतिहास प्रदूषण पुस्तक इसी उद्देश्य से लिखी गई है। विद्वान लेखक ने अपनी इस पुस्तक में जाने-अनजाने में होने वाली भूलों के सुधार के लिए एक से अधिक प्रमाणों को देखकर व मिलान कर ही पुष्ट बातों को लिखने का परामर्श दिया है जो कि उचित ही है। इतिहास प्रदूषण से बचने के उनके द्वारा दिये गये सभी सुझाव यथार्थ व उपयोगी हैं। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

क्या रंतिदेव के रसोई में गौ वध होता था ?

हमारे ब्लॉग पर ही एक अति जोशीले विपसना साधक लेकिन कम्युनिस्ट छाप पुस्तको को पढ़ अपने को अति ज्ञानी समझने वाले एक बन्धु ने राजा रन्तिदेव के र्स्सोई में गौ वध का उलेख किया | चुकि जिस पुस्तक से इन्होने चेपा है उसके खंडन में पहले ही ” अ रिव्यू ऑफ़ बीफ इन अकिएन्त इंडिया ” लिखी जा चुकी है जिसका उत्त्तर कम्यूनिस्टो पर नही है | इसके आलावा एक पुस्तक इन्ही के क्मुय्निष्ट छाप के द्वारा लिखी गयी जिसका उत्तर आर्य समाज की तरफ से रिप्लाई ऑफ़ dn झा के नाम से लिखी गयी है | अब हम उन्ही का पुन खंडन करते है |
इनके द्वारा दिया गया आरोप –
महाभारत में रंतिदेव नामक एक राजा का वर्णन मिलता है जो गोमांस परोसने के कारण यशस्वी बना. महाभारत, वन पर्व (अ. 208 अथवा अ.199) में आता है

राज्ञो महानसे पूर्व रन्तिदेवस्‍य वै द्विज
द्वे सहस्रे तु वध्‍येते पशूनामन्‍वहं तदा
अहन्‍यहनि वध्‍येते द्वे सहस्रे गवां तथा
समांसं ददतो ह्रान्नं रन्तिदेवस्‍य नित्‍यशः
अतुला कीर्तिरभवन्‍नृप्‍स्‍य द्विजसत्तम
-महाभारत, वनपर्व 208 199/8-10

अर्थात राजा रंतिदेव की रसोई के लिए दो हजार पशु काटे जाते थे. प्रतिदिन दो हजार गौएं काटी जाती थीं मांस सहित अन्‍न का दान करने के कारण राजा रंतिदेव की अतुलनीय कीर्ति हुई. इस वर्णन को पढ कर कोई भी व्‍यक्ति समझ सकता है कि गोमांस दान करने से यदि राजा रंतिदेव की कीर्ति फैली तो इस का अर्थ है कि तब गोवध सराहनीय कार्य था, न कि आज की तरह निंदनीय

यहा पर इन्होने वध्यते शब्द देख गौ हत्या अर्थ लिया जबकि व्याकरण का प्रमाणिक ग्रन्थ से ही इस बात का खंडन होता है अष्टाध्यायी के अनुसार – ‘वध’ धातु स्वतन्त्र है ही नहीं जिसका अर्थ ‘मारना’ हो सके ,मरने के अर्थ में तो ‘हन्’ धातु का प्रयोग होता है |पाणिनि का सूत्र है “हनी वध लिङ् लिङु च “ इस सूत्र में  कर्तः हन् धातु को वध का आदेश होता है अर्थात वध स्वतन्त्र रूप से प्रयोग नही हो सकता है |अतः व्याकरण के आधार पर स्पस्ट है की की ये ‘वध्येते ‘ हिंसा वाले वध के रूप में नहीं हो सकते हैं | तब हंमे यह ढूढ़ना पड़ेगा की इस शब्द का क्या अर्थ है और निश्चय ही ये हत्या वाले ‘हिंसा’ नहीं अपितु बंधन वाले ‘ बध बन्धने’ धातु है |

अपितु यह दान के अर्थ में होगी |पाणिनि ने गौहन सम्प्रदाय के कहने से भी इसी बात की पुष्टि की है एक व्याकरण का समान्य बालक भी जनता है की सम्प्रदाय चतुर्थ विभक्ति दान के अर्थ में या के लिए में आती है | जबकि हिंसा आदि के लिए अपादान भी बोल सकते थे |

आगे इसी में समास शब्द आया है मांस से यहा प्राणी जनित मॉस नही बल्कि अन्न है ये आगे के प्रमाण में भी स्पष्ट करेंगे शतपथ ब्राह्मण ११/७/१/३ में आया है परम अन्न मॉस ” अब परम अन्न क्या है इस बारे में अमर कोष कहता है – परमान्ना तु पायसम अर्थात चावल की खीर परम अन्न है | तो यहा भी कोई मॉस नही है क्यूंकि व्यास ने काफी जटिल श्लोको में महाभारत की रचना की थी जिसके बारे में खुद कृष्ण इस तरह से कहते है –
“इसमें ८८८०  श्लोक हैं जिनका अर्थ मैं जनता हूँ , सूत जी जानते हैं और संजय जानते हैं या नहीं ये मैं नहीं जनता ..”| अब आप स्वयं ही सोचये की जिनके अर्थ को संजय जानते हाँ या नहीं इसमें संशय है वो क्या इतने सीधे होंगे की उनकी गूढता और प्रसंग का विचार किये बिना केवल शाब्दिक अर्थ (वो भी व्याकरण को छोड़कर) ले लिया जाय ?

इस तरह देखा महाभारत काफी गूढ़ ग्रन्थ है | अंब महाभारत की ही अन्तीय साक्षियों से राजा रन्तिदेव पर लगे आरोपों का खंडन करते है –
द्रौण पर्व के अनुसार नारद जी जब संजय के पुत्र के मर जाने पर शौक में बेठे संजय को समझाते है तो संजय को राजा रन्तिदेव के बारे में कहते है –
इसे गीताप्रेस से प्रकाशित महाभारत का पेज यहा लगा कर बताते है –dron parv 67

ये द्रौण पर्व ६७ से है यहा स्पष्ट लिखा है कि २ लाख रसोइये भोजन बनाते थे तथा रन्तिदेव ऋषियों आदि को स्वर्ण ओर गौओ का दान करते थे | श्लोक में ही अन्न शब्द है जिससे वहा मॉस का तो कोई काम ही नही नजर आता है | इस में एक आलम्भ शब्द से आप लोग मारना अर्थ करते है लेकिन आल्म्भ शब्द स्पर्श के लिए भी प्रयोग होता है | पारसार गृहसूत्र में २/२/१६ में उपनयन संस्कार में शिष्य को गुरु के ह्रदय को छूने पर ह्रदय आल्म्भं शब्द आया है वहा स्पर्श ही किया जाता है न की ह्रदय को काटा जाता है | मनु २/१७९ में पत्नी का आल्मभं शब्द से छूना आया है | इसी तरह गौतम धर्मसूत्र में अकारण इन्द्रियों का स्पर्श का निषेध आलम्भ शब्द से किया है -२/२२ || प्राप्ति अर्थ में भी आलम्भ का प्रयोग निरुक्त १/१४ में हुआ है | मह्रिषी काशकृत्सन ने अपने धातु पाठ में लभि धारणे (१/३६२) से धारण अर्थ में ही किया है | अत: यहा वध अर्थ क्यूँ लिया ये आप जाने | न ही प्रकरण ओर महाभारत के सिद्धांत अनुसार यहा वध शब्द लेना सही है |  क्यूंकि इसी महाभारत में गौ वध करने वालो को पापी कहा है जिसका प्रमाण भी गीताप्रेस की महाभारत से देते है | शान्ति पर्व २९ में आया है –shanti 29

यहा गौ वध करने वाले गौ ही नही बैल के वध करने वाले को पापी कहा है फिर राजा रन्तिदेव को गौ हथिया करने पर महान बताना विरोधी कथन है | ऐसे में आप स्वयम फस जाते हो की किस श्लोक को सत्य माने जबकि दोनों श्लोक सत्य है क्यूंकि रन्तिदेव हत्या नही दान करते थे जो द्रौण पर्व से हम सिद्ध कर चुके है | इसलिए उन्हें महान राजा कहा है | महाभारत में अंहिसा ही परम धर्म बताया है ये जगह जगह आया है | ओर दान को धर्म माना है जिनमे गौ दान ही बताया है | vanparav cheptar 200

उपरोक्त महाभारत का वनपर्व २०० का अध्याय गौ दान पर ही जोर डाल रहा है इससे स्पष्ट है कि महाभारत दान को ही मान्यता देता है हत्या को नही |
फिर आप कहते है
रंतिदेव का उल्‍लेख महाभारत में अन्‍यत्र भी आता है.

शांति पर्व, अध्‍याय 29, श्‍लोक 123 में आता है कि राजा रंतिदेव ने गौओं की जा खालें उतारीं, उन से रक्‍त चूचू कर एक महानदी बह निकली थी. वह नदी चर्मण्‍वती (चंचल) कहलाई.

महानदी चर्मराशेरूत्‍क्‍लेदात् संसृजे यतः
ततश्‍चर्मण्‍वतीत्‍येवं विख्‍याता सा महानदी

कुछ लो इस सीधे सादे श्‍लोक का अर्थ बदलने से भी बाज नहीं आते. वे इस का अर्थ यह कहते हैं कि चर्मण्‍वती नदी जीवित गौओं के चमडे पर दान के समय छिड़के गए पानी की बूंदों से बह निकली.

इस कपोलकप्ति अर्थ को शाद कोई स्‍वीकार कर ही लेता यदि कालिदास का ‘मेघदूत’ नामक प्रसिद्ध खंडकाव्‍य पास न होता. ‘मेघदूत’ में कालिदास ने एक जग लिखा है

व्‍यालंबेथाः सुरभितनयालम्‍भजां मानयिष्‍यन्
स्रोतोमूर्त्‍या भुवि परिणतां रंतिदेवस्‍य कीर्तिम

वास्तव में श्लोक तो आपने तोड़ मरोड़ के अर्थ किया है जबकि आपकी बुद्धि का क्या कहना महाभारत की बात पर कालिदास का काल्पनिक महाकाव्य भी ले आये लेकिन वो भी आपकी कल्पना मात्र है उसमे भी आप सफल नही है |
यहा गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित महाभारत से पेज दर्शाते है – shanti parv 29

 

यहा कही भी पुरे प्रकरण में गौ को मारना ओर श्लोक में रक्त ओर बूंद बूंद टपकना शब्द नही है मतलब आपने अपनी कल्पना से यह शब्द गढ़ लिए | ओर ध्यान देने वाली बात है की यदि रन्तिदेव २००० गाय प्रतिदिन मारता तो साल में होती ७२०००० गाय ओर इस तरह लगभग कुछ सालो में गायो का अस्तित्व ही मिट जाना चाहिए था लेकिन ऐसा नही हुआ इसलिए गौ हत्या बताना कल्पना ही है |   इस पेज में आगे पढिये की रन्तिदेव के यज्ञ में पशु अपने आप आ जाते है | अब आप विपसना साधक सोच सकते है कि कोई पशु को मारता है तो क्या पशु उसके पास अपने आप जाते है या जो पशुओ से प्रेम करता है उसके पास अपने पास जाते है | शायद आपने गाय को देखा होगा यदि ग्रामीण जीवन का अनुभव किया होगा तो गाय को जो व्यक्ति रोटी देता है उसके पास अपने आप चली जाती है जबकि मारने वाले को या तो सींग दिखाती है या दूर भागती है क्यूंकि उससे भय होता है जबकि रन्तिदेव के पास अपने आप पशुओ का आना सिद्ध करता है कि रन्तिदेव से पशुओ में भय नही था बल्कि प्रेम था | क्यूंकि अवश्य ही यज्ञ से उन्हें भी अन्न आदि मिल जाता होगा | इसी पेज के लाइन किये हुए एक श्लोक में तो स्पष्ट लिखा है कि रन्तिदेव ब्राह्मणों से दाल भात कहने को कह रहे है मॉस नही | जिससे हमारे उपरी कथन को ही बल मिलता है कि रन्तिदेव की रसोइय में अन्न ही बनता था ओर अतिथि भी अन्न ही खाते थे मॉस नही |
चलिए अब आपके कालिदास वाले की समीक्षा करते है उस श्लोक में भी खून ,टपकना .बूंद बूंद शब्द नही है बल्कि जल से नहलाना ही है आपने पूरा श्लोक रखा ही नही –
आराध्य एनम शरवणभवत देवं उल्नग्धिताश्ना
सिद्ध द्वन्दे: जलकणभयात बीणिभि: मुक्तमार्ग: |
व्यालम्बेधा: सुरभिलनया आलाम्भजात आनयिष्यन
स्रोतोंमुर्त्या मूवि परिणाताम् रन्तिदेवस्य कीर्तिम || – पूर्व मेघ ४५
 यहा कालिदास ने भी जल से ही नदी मानी है जल कण आदि शब्द इसके वाचक है वेसे इस शलोक का भाष्य करते हुए माधव शास्त्री अपने ग्रन्थ ” काव्यसरा संग्रह “में लिखते है – ” सुरभि तनया – गाव: तान्सा आलम्भन प्रोक्ष्ण ततो जाता प्रसूता मूवि ,च स्रोतोंमृर्या प्रवाहरूपेण ,परिणता रूपान्तर गताम |- पेज न १८ “
अर्थात गायो को जल से नहलाने ओर धोलाने से जो पानी जमीन पर गिरता वो प्रवाह रूप में गतिमान हो गया |
इससे स्पष्ट है कि वादी ने ही अर्थ तोड़ मरोड़ कर किया है जबकि कालिदास ,ओर उसके टीकाकार भी जल से ही नदी मानते है | कोई मुर्ख ही होगा जो खून से नदी बनना मान ले | ओर ये कथन नदी बनना भी अलंकारित प्रयोग है क्यूंकि नदी तो नहलाने से भी नही बनती हाँ इतना जल अवश्य इक्ठटा हो जाता होगा कि उसे नदी से सम्बोधित करना पड़ता होगा |
रन्तिदेव का प्रकरण यज्ञ सम्बन्धित है ओर यज्ञ में पशु हत्या को धूर्तो की मिलावट बताया गया है महाभारत ही इसे धूर्तो की मिलावट बताती है तो रन्तिदेव के यज्ञ में पशु बद्ध मानना महाभारत के विरुद्ध है जिसकी संगीति नही बैठती | वादी के आक्षेप का सारा खंडन यह श्लोक ही कर देता है – शान्ति पर्व २६५ / ९ ” यज्ञ में जीव हत्या आदि धूर्तो के कार्य .मिलावट है वेद में तो अंहिसा विहित यज्ञ कर्म ही है |”
यज्ञ में पशु को छुआ जाता था मारा नही पशु मारने का निषेध पुराण जेसे ग्रन्थ भी करते है –
” पशुआलम्भं  न हिंसा ”  (भागवत ११.५.१३ ) अर्थात यज्ञ में पशु का स्पर्श होता है हिंसा नही |
यहा तक वादी के रन्तिदेव पर लगाये आरोपों का खंडन हमने कर दिया है ओर निष्कर्ष निकलता है की राजा रन्तिदेव दान करते थे हत्या नही |
महाभारत गौ को अवध्य मानती है ओर हत्यारे को पापी इसके अतिरिक्त अन्य श्लोक इसके विपरीत दीखते है वो क्षेपक ही है महाभारत में क्षेपक पर हम कभी किसी दिन प्रमाणित पोस्ट करेंगे |
महाभारत के शब्दों में धर्म क्या है लिख लेख की समाप्ति करते है – ” न भूतानाहिंसाया ज्यायान धर्मोsस्ति “(शान्ति पर्व २५२ /३० ) ” किसी की हिंसा न करना ही सबसे उत्तम धर्म है |
संधर्भित ग्रन्थ अथवा पुस्तके – 
(१) review of beef in acient india – unkonwn 
(2) महाभारत (गीताप्रेस )- अनुवादक पंडित राम नारायणदत्त शास्त्री 
(३) काव्यसरा संग्रह – माधव शास्त्री 

 

 

 

क्या ध्यान बोद्धो की देन है वैदिक धर्म की

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नव्बोद्ध अक्सर ये प्रचार करते है कि ध्यान नामक पद्धति बोद्धो ने वैदिक धर्मियों को दी थी | ओर बोद्धो से ध्यान सनातन मत में गया |
लेकिन ये लोग यह बात भूल जाते है कि सिद्धार्थ गौतम की ही जीवनी में उन्होने सनातनी गुरुओ से ही ओर सन्यासियों से वन में योग विद्या सीखी थी ओर जंगल में जा कर सिद्धार्थ ने ध्यान किया यह बात सभी मानते है यदि वो स्वयम ही आविष्कारक होता तो उसे पूर्व निश्चय केसे हुआ की जंगल में ध्यान करने जाऊँगा ? इससे स्पष्ट है कि ध्यान सिद्धार्थ से पूर्व था इसलिए उसने पहले ही ध्यान करने का निश्चय ही किया था | अब आते है पतंजली ने क्या बोद्धो से योग विद्या सीखी ?
इस भ्रम का कारण है कि ये लोग योग सूत्रकार पतंजली ओर महाभाष्यकार पतंजली को एक ही समझ बेठे है जबकि महाभाष्यकार पतंजली शंकु कालीन थे ओर योगसूत्र कार महाभारत के समय के या इसके पूर्व के है | यदि महाभाष्यकार ओर योग सूत्रकार को एक मानने पर निम्न समस्या आती है जिसका समाधान कोई भी नवबोद्ध नही कर सकते है वो यह की पतंजली योगसूत्र पर बादरायण व्यास का भाष्य है | ओर बादरायण व्यास महाभारत वाले व्यास कृष्णद्वेपायान है | यदि पतंजली को शंकु वंश वाला पतंजली माना जाए तो यह कैसे सम्भव है कि महाभारत काल का व्यक्ति शंकु काल में भाष्य लिख जाए | इससे स्पष्ट है कि पतंजली व्यास से भी पूर्व के है | ओर व्यास बुद्ध से पूर्व इस प्रमाण से सिद्ध है की सनातन धर्म में ध्यान –योग बोद्ध मत से भी पूर्व था |
ये बात योग दर्शन की हुई लेकिन वेद , उपनिषद , ओर सांख्य ,न्याय दर्शन बोद्ध दर्शन ओर बुद्ध से पूर्व के है ओर न्याय दर्शन सांख्य दर्शन बुद्ध से पुराना है इसे कई बोद्ध विद्वान ओर डाक्टर अम्बेडकर भी मानते है उनकी पुस्तक बुद्धा एंड हिज धम्म के बुद्ध ओर उनके पूर्वज नामक अध्याय में देख सकते है |
अब कुछ प्रमाण उपरोक्त ग्रंथो से जिनसे सिद्ध होगा की ध्यान आदि बोद्धो से पूर्व हमारे दर्शनों में था –
देखे न्याय दर्शन –
“ तदर्थ यमनियमाभ्यामात्मसंस्कारों योगाच्चाध्यात्मविध्युपाये: ||४६||”
उस मोक्ष प्राप्ति के लिए यम नियम योग (ध्यान आदि ) तथा अध्यात्मशास्त्र के उपायों से आत्मा का संस्कार करना चाहिय|- न्याय दर्शन ४/२/४६
देखे सांख्य दर्शन से –
“भावनोपचयाच्छुध्दस्य सर्व प्रक्रतिवत्” ||२९ ||
शुद्धांत करण योगी समाधि भावना की अत्युकृष्ट योगज शक्ति के कारण वह सब कुछ कर सकता है जो प्रक्रति नियम अनुकूल हो |
“ रागोंपहतिर्ध्यानम “||३०||
संसार में आसक्ति इन्द्रिय भोगो में प्रवृति का नाम राग है | इस राग की निवति ध्यान है ,मन का स्थिर होना है |
धारणासनस्वकर्मणा तत्सिद्धि: ||३१||”
वृतियो के निरोध से ध्यान की सिद्धि होती है |
सांख्य के इतने प्रमाण ही देना ठीक है अन्यथा ३/२३-३६ तक सूत्र ध्यान पर ही प्रकाश डालते है |
अब उपनिषद से देखिये –
“ श्वेताश्वतर उपनिषद में योग के लाभ बताते हुए लिखा है –
पहले शारीरिक उपलब्धी लिखी है –
“ लघुत्वमारोग्य …………………………………… प्रथमा वदन्ति || २/१३ ||”
योग में प्रवृति का पहला फल यह है कि योगी का शरीर हल्का हो जाता है | निरोगी हो जाता है | विषयों की लालसा मिट जाती है ,कान्ति बढ़ जाती है ,स्वर मधुर हो जाता है | शरीर से सुगंध निकलता है ,मल मूत्र अल्प हो जाता है अर्थात भोजन ठीक से पचता है |
फिर आत्मिक उपलब्धि बताते है –
“ यथैव बिम्ब ……………………….वीतशोक: ||२/१४ ||”
जैसे मिटटी से लत पत स्वर्ण पिंड खूब धोने पर तेजोमय होकर चमकने लगता है , इसी प्रकार देह योगी भीतर प्रकाशमान आत्म तत्व को देख लेता है ओर इस संसार में कृतार्थ ओरन वीत शोक हो जाता है |
इस उपनिषद में योग प्राणायाम की विधि है जिसे इसी २ अध्याय में पढ़ा जा सकता है अन्य उपनिषद जेसे छान्दोग्य आदि में उपासना आदि विषयों में प्रणव का ध्यान है |
अब वेदों में योग विद्या के मन्त्र भी लिखते है –
उपहरे गिरीणा संगथे च नदीनाम |
धिया विप्रो अजायत ||- ऋग्वेद ८/६/२८ ||
पहाडो की गुफाओं में ओर नदियों के संगम पर ध्यान करने से विप्र बनते है |
योगे योगे तवस्तर वाजे हवामहे |
सखाय इंद्रमूतये || यजु ११/१४ ||
बार बार योगाभ्यास करते ओर मानसिक शारीरिक बल बढाते समय हम सब परस्पर मित्रभाव से युक्त होकर अपनी रक्षा के लिए अनन्त बलवान ऐश्वर्यशाली ईश्वर का ध्यान करते है |
ध्यान की परम्परा या इनका आधिप्रवर्तक सनातन धर्म में मह्रिषी ब्रह्मा ओर मह्रिषी हिरण्यगर्भ माने जाते है इन्होने वेदों से योग का प्रचार किया था महाभारत में आता है –
सांख्यस्य वक्ता कपिल: परमऋषि स उच्यते |
हिरण्यगर्भो योगस्य वेत्ता नान्य: पुरातन: ||- मा. भा. शा. २४९/६५
इसी तरह हिरण्यगर्भ ऋषि का नाम योगी याज्ञवल्क्य स्मृति में भी है –
हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्य: पुरातन:| – यो. याज्ञ. १२/५
इन सब प्रमाणों से स्पष्ट है कि बुद्ध से पूर्व सनातन धर्म में था | बोद्धो से सनातन में योग नही गया था बल्कि असल में बुद्ध ने जेसे आज के नये नये पोंगे पोप ,विभिन्न सम्प्रदायों के पाखंडी अपने अनुसार वैदिक ध्यान पद्धति से हट कर विभिन्न तरह की ध्यान पद्धति बना लेते है वेसे ही बुद्ध ने बनाई | हालकी गौतम बुद्ध ने भी ये विपसना (आन अपानस्याति) स्वयम की नही बताया बल्कि अपने पूर्ववर्ती बौद्ध भगवान दीपांकर की बताया है | सम्भवतय इस पद्धति का आविष्कार केसे हुआ यह खोज का विषय है लेकिन ये ध्यान की सही पद्धति नही है न ही ये योग है योग में प्राणयाम नामक एक अंग प्राणयाम का भी अल्प भाग है या उसके समान है | जिसमे बस श्वासों पर ही नियन्त्रण किया जाता है | जहा तक मेरा विचार है बुद्ध ने योग को केवल श्वासों का नियन्त्रण ही समझा होगा ओर ये पद्धति दी क्यूंकि जब कोई ईश्वर के ध्यान में मग्न होता है तब स्वत: ही उसकी श्वास ऐसी हो जाती है कि मानो वह श्वास न ले रहा है न छोड़ रहा है | जिसे व्यान भी कहते है यह स्थति ध्यान के वक्त बन जाती है जेसा छान्दोग्योपनिषद् में कहा है – “ अतो …………….हेतोवर्यानमेंवोद्गीथमुपासते || १/३/५ ||
इसमें उद्गीत उपासना में श्वास – प्रश्वास का नियन्त्रण हो कर व्यान अवस्था का उलेख है | व्यान की स्थति में ओमकार का ध्यान (उपासना ) का वर्णन है |
ध्यान की इस स्थति को देख बुद्ध ने मात्र श्वास प्रश्वास के नियन्त्रण के लिए श्वासों पर ध्यान रख ऐसी स्थति लाने की विधि बताई जहा श्वास ओर विचारों से आदमी शून्य हो जाये |क्यूंकि बुद्ध की नजर में ध्यान शून्य होना ही है | एक तरह से व्यक्ति को जड जेसा बनाना है जबकि इसके विपरीत योगदर्शन में व्यक्ति को ज्ञान ,मोक्ष कराना वैदिक ध्यान पद्धति का उद्देश्य है | विपसना पद्धति की असफलता के बारे में जान्ने के लिए हमारी पिछली पोस्ट विपसना पद्धति पर आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक के प्रश्न अवश्य देखे |
यहा हम कह सकते है कि योग ध्यान भारतीय ऋषियों में बुद्ध से पूर्व प्रचलित था बुद्ध ने तो बस एक विपसना पद्धति की ही खोज की थी | योग को बोद्धो से वैदिक धर्म में प्रवेश बताना मात्र नवबोद्धो(वामसेफ ) की जलन ओर सनातन धर्म के प्रति कुंठित मानसिकता का कारण है |
संधर्भित ग्रन्थ एवम पुस्तके –
(१) योगदर्शन – व्याख्याकार उदयवीर शास्त्री जी 
(२)योगदर्शन व्यास भाष्य सहित – व्याख्याकार सत्यपति जी 
(३) एकादशोपनिषद – सत्यव्रत सिद्धन्तलन्कार 
(४) वेद रहस्य – नारायण स्वामी 
(५) षडदर्शन – स्वामी जगदीश्वरानंद 

रामायण में वर्णित लक्ष्मण रेखा का मिथक – सुलक्षण रेखा की सच्चाई

हमारे महान भारत में पहले अनेको ऋषि, महर्षि, ज्ञानी, विद्वतजन होते थे जो धर्म, ग्रन्थ और इतिहास का अतिसूक्ष्म निरिक्षण करकर सत्य असत्य से जनता को सदैव परिचित करवाते रहते थे। कालांतर में ये पद्धति मृतप्राय हो गयी और अनेको मूर्खो, लालची, लोभी, कुसंगियो द्वारा धर्म और इतिहास विषयक सामग्री में मिलावट की जाने लगी। जहाँ मिलावट संभव नहीं हो सकती थी वहां मिलावट के स्थान पर लोकोक्ति के माध्यम से मिथ्या जाल प्रपंच रचा गया।

इस आर्यावर्त में दुर्भाग्य से विद्वानो की कमी होने के कारण सत्य असत्य का निर्धारण करने के ठेका ढोंगी, कपटी, चालाक, तथाकथित स्वयंभू धर्म के ठेकेदारो ने ले लिया। फिर तो मौज बन आई। महापुरषो को बदनाम किया जाने लगा। सत्य इतिहास को बदनाम किया गया। द्रौपदी का चीरहरण, हनुमान जी बन्दर स्वरुप, ब्रह्मा जी के ४ सर आदि अनेको मिथ्या कपोलकल्पित कथाये प्रचारित की जाने लगी। भारतीय जनमानस अपने ही इतिहास से रुष्ट होकर ईसाई, मुसलमान आदि पथभ्रष्ट होना स्वेच्छा से स्वीकार करने लगे। क्योंकि वो अपनी बुद्धि से ऐसे इतिहास को अपनाना नहीं चाहते थे। ऐसे ही एक कथा रामायण में जोड़ी गयी :

लक्ष्मण रेखा

जो महानुभाव लक्ष्मण ने सीता माता की रक्षा हेतु खेंची थी। लेकिन ये पौराणिक मिथ्या ज्ञान बांटने वाले कभी ये नहीं बताते की यदि ये रेखा वाकई लक्ष्मण जी ने खेंची थी तो फिर सीता माता का अपहरण कैसे हो गया ?

आइये एक नजर वाल्मीकि रामायण पर डालते हैं और इस मिथ्या कपोलकल्पित लोकोक्ति का सत्य जानते हैं :

रामायण जैसा महाकाव्य ऋषि वाल्मीकि ने लिखा है। ये महाकाव्य इतना अनूठा है की आने वाले समय के अनेको कवियों ने भी इस महाकाव्य पर अपनी अपनी पुस्तके लिखी। लेकिन हमें ये ध्यान रखना चाहिए की रामायण विषय पर प्रमाणिकता केवल वाल्मीकि ऋषि द्वारा रचित वाल्मीकि रामायण की ही होती है। देखिये ऋषि वाल्मीकि क्या लिखते हैं :

श्री राम जब मृग रूप में मारीच को पकड़ने जाते हैं और मृग (मारीच) श्री लक्ष्मण को श्री राम की आवाज़ में पुकारता है तब माता सीता द्वारा मार्मिक वचन कहे जाने पर श्री लक्ष्मण अपशकुन उपस्थित देखकर माता सीता को सम्बोधित करते हुए कहते हैं –

”रक्षन्तु त्वाम…पुनरागतः ”
[श्लोक-३४,अरण्य काण्ड , पञ्च चत्वाविंशः ]

अर्थात -विशाललोचने ! वन के सम्पूर्ण देवता आपकी रक्षा करें क्योंकि इस समय मेरे सामने बड़े भयंकर अपशकुन प्रकट हो रहे हैं उन्होंने मुझे संशय में डाल दिया है . क्या मैं श्री रामचंद्र जी के साथ लौटकर पुनः आपको कुशल देख सकूंगा ?”

माता सीता लक्ष्मण जी के ऐसे वचन सुनकर व्यथित हो जाती हैं और प्रतिज्ञा करती हैं कि श्रीराम से बिछड़ जाने पर वे नदी में डूबकर ,गले में फांसी लगाकर ,पर्वत-शिखर से कूदकर या तीव्र विष पान कर ,अग्नि में प्रवेश कर प्राणान्त कर लेंगी पर ‘पर-पुरुष’ का स्पर्श नहीं करेंगी .
[श्लोक-३६-३७ ,उपरोक्त]

माता सीता की प्रतिज्ञा सुन व् उन्हें आर्त होकर रोती देख लक्ष्मण जी ने मन ही मन उन्हें सांत्वना दी और झुककर प्रणाम कर बारम्बार उन्हें देखते श्रीरामचंद्र जी के पास चल दिए .[श्लोक-39-40 ] .

स्पष्ट है इस पुरे प्रकरण में कहीं भी लक्ष्मण जी ने कोई रेखा नहीं खींची। यहाँ तर्क दृष्टि से देखा जाये तो भी “लक्ष्मण रेखा” से सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता क्योंकि यदि एक लक्ष्मण रेखा से ही माता सीता की सुरक्षा हो सकती थी तो प्रभु राम लक्ष्मण को साथ क्यों नहीं ले गए ?

या फिर दूसरा तर्क ये है जो श्री राम ने लक्ष्मण जी को निर्देश दिया :

”प्रदक्षिणेनाती ….शङ्कित: ‘
[श्लोक-५१ ,अरण्य काण्ड ,त्रिचत्वा रिनश: ] –

”लक्ष्मण ! बुद्धिमान गृद्धराज जटायु बड़े ही बलवान और सामर्थ्यशाली हैं .उनके साथ ही यहाँ सदा सावधान रहना .मिथिलेशकुमारी को अपने संरक्षण में लेकर प्रतिक्षण सब दिशाओं में रहने वाले राक्षसों की और चैकन्ने रहना .”

यहाँ भी श्रीराम लक्ष्मण जी को यह निर्देश नहीं देते कि यदि किसी परिस्थिति में तुम सीता की रक्षा में अक्षम हो जाओ तो रेखा खींचकर सीता की सुरक्षा सुनिश्चित कर देना.

तीसरा तर्क भी देखे : यदि कोई रेखा खींचकर माता सीता की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती थी तो लक्षमण माता सीता को मार्मिक वचन बोलने हेतु विवश ही क्यों करते .वे श्री राम पर संकट आया देख-सुन रेखा खेंचकर तुरंत श्री राम के समीप चले जाते।

अतः वाल्मीकि रामायण में तो लक्ष्मण रेखा का कोई औचित्य नहीं बनता। आइये अब जो अन्य रामायण के संस्करण मिलते हैं उन्हें देखे :

श्री वेदव्यास जी द्वारा रचित ”अध्यात्म रामायण’ में भी ‘सीता-हरण’ प्रसंग के अंतर्गत लक्ष्मण जी द्वारा किसी रेखा के खींचे जाने का कोई वर्णन नहीं है .माता सीता द्वारा लक्ष्मण जी को जब कठोर वचन कहे जाते हैं तब लक्ष्मण जी दुखी हो जाते हैं –

’इत्युक्त्वा ……….भिक्षुवेषधृक् ”

[श्लोक-३५-३७,पृष्ठ -१२७]

”ऐसा कहकर वे (सीता जी ) अपनी भुजाओं से छाती पीटती हुई रोने लगी .उनके ऐसे कठोर शब्द सुनकर लक्ष्मण अति दुखित हो अपने दोनों कान मूँद लिए और कहा -’हे चंडी ! तुम्हे धिक्कार है ,तुम मुझे ऐसी बातें कह रही हो .इससे तुम नष्ट हो जाओगी .” ऐसा कह लक्ष्मण जी सीता को वनदेवियों को सौपकर दुःख से अत्यंत खिन्न हो धीरे-धीरे राम के पास चले .इसी समय मौका समझकर रावण भिक्षु का वेश बना दंड-कमण्डलु के सहित सीता के पास आया .” यहाँ कहीं भी लक्ष्मण जी न तो रेखा खींचते हैं और न ही माता सीता को उसे न लांघने की चेतावनी देते हैं .

हालांकि ये प्रामाणिक ग्रन्थ मैं नहीं मानता। और नाही लक्षमण जी ऐसे आर्य थे जो ऐसे वचन सीता जी को बोलते न ही सीता जी ने ऐसे लक्षण दिखाए होंगे। फिर भी यहाँ लक्ष्मण रेखा का सिद्धांत नहीं पाया जाता न ही किसी लक्ष्मण रेखा से सीता जी की सुरक्षा संभव थी क्योंकि इस रामायण में लक्ष्मण जी सीता माता को वनदेवियो को सौंपकर चले जाते हैं।

अब अन्य रामायण से जुड़े ग्रंथो पर विचार करते हैं। एक मान्य ग्रन्थ आज हिन्दू समाज में वाल्मीकि रामायण से भी ज्यादा प्रचलित है वो है तुलसीदास जी कृत रामचरितमानस। लेकिन खेद की इस ग्रन्थ में भी लक्षमण रेखा का विवरण प्राप्त न हो सका।

अरण्य-काण्ड में सीता -हरण के प्रसंग में सीता जी द्वारा लक्ष्मण जी को मर्म-वचन कहे जाने पर लक्ष्मण जी उन्हें वन और दिशाओं आदि को सौपकर वहाँ से चले जाते हैं –

”मरम वचन जब सीता बोला , हरी प्रेरित लछिमन मन डोला !
बन दिसि देव सौपी सब काहू ,चले जहाँ रावण ससि राहु !”

[पृष्ठ-५८७ अरण्य काण्ड ]

लक्ष्मण जी द्वारा कोई रेखा खीचे जाने और उसे न लांघने का कोई निर्देश यहाँ उल्लिखित नहीं है।

अब जब कहीं भी लक्ष्मण रेखा का उल्लेख किसी मान्य ग्रन्थ में नहीं तब क्यों और कैसे ये लक्ष्मण रेखा रामायण से जुड़ कर प्रचलित हुई ?

आइये एक विचार इसपर भी रखते हैं :

लक्ष्मण -रेखा का अर्थ कोई पंचवटी में कुटिया के द्वार पर खींची गयी रेखा नहीं बल्कि प्रत्येक नर-नारी के लिए ऋषियों द्वारा बनाये नियम और निर्धारित आदर्श लक्षणों से प्रतीत होता है। यह नारी-मात्र के लिए ही नहीं वरन सम्पूर्ण मानव जाति के लिए आवश्यक है कि विपत्ति-काल में वह धैर्य बनाये रखे किन्तु माता सीता श्रीराम के प्रति अगाध प्रेम के कारण मारीच द्वारा बनायीं गयी श्रीराम की आवाज से भ्रमित हो गयी। माता सीता ने न केवल श्री राम द्वारा लक्ष्मण जी को दी गयी आज्ञा के उल्लंघन हेतु लक्ष्मण को विवश किया बल्कि पुत्र भाव से माता सीता की रक्षा कर रहे लक्ष्मण जी को मर्म वचन भी बोले। माता सीता ने उस क्षण अपने स्वाभाविक व् शास्त्र सम्मत लक्षणों, धैर्य,विनम्रता के विपरीत सच्चरित्र व् श्री राम आज्ञा का पालन करने में तत्पर देवर श्री लक्ष्मण को जो क्रोध में मार्मिक वचन कहे उसे ही माता सीता द्वारा सुलक्षण की रेखा का उल्लंघन कहा जाये तो उचित होगा। माता सीता स्वयं स्वीकार करती हैं –

”हा लक्ष्मण तुम्हार नहीं दोसा ,सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा !” [पृष्ठ-५८८ ,अरण्य काण्ड ]

निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि लक्ष्मण रेखा को सीता-हरण के सन्दर्भ में उल्लिखित कर स्त्री के मर्यादित आचरण-मात्र से न जोड़कर देखा जाये। यह समस्त मानव-जाति के लिए निर्धारित सुलक्षणों की एक सीमा है जिसको पार करने पर मानव-मात्र को दण्डित होना ही पड़ता है।

तुलसीदास जी के शब्दों में –
”मोह मूल मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ ”

इस आर्यावर्त में एक ऋषि ने सत्य का ज्ञान सूर्य उदय किया। ऋषि ने सभी झूठे तथ्यों और आधारहीन घटनाओ को सिरे से ख़ारिज किया। आज आर्य समाज इसी ऋषि कार्य के सिद्धांत को आगे बढ़ा रहा है। हमें चाहिए हम सत्य को जानकार असत्य को दूर फेक देवे।

आओ लौटो सत्य की और – लौटो न्याय और ज्ञान की और

आओ लौटो वेदो की और

नमस्ते।