रक्षाबंधन – स्वाध्याय द्वारा जीव और प्रकृति का रक्षण।

रक्षा बंधन, ये शब्द सुनते ही भाई और बहन का वो पवित्र रिश्ता आँखों के दिखना शुरू हो जाता है जो एक धागे से बंधा होता है।

इस दिन श्रावण मास की पूर्णमासी को ये धागा एक बहिन द्वारा अपने भाई की कलाई में बाँध कर भाई से अपनी रक्षा का वचन लेना बहन का कर्तव्य और भाई का अपनी बहन की रक्षा करने का वचन देना करने से ही पूर्ण हो जाता है ऐसा समझा जाता है, और इस कार्य की इतिश्री करके धागा बंधने से पूर्ण कर दिया जाता है। मगर क्या यही सनातन संस्कृति है ?

ऐसे अनेको प्रमाण मिलते हैं की इस प्रकार का रक्षा बंधन सनातन संस्कृति नहीं है बल्कि ये एक ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित कार्य है। इसके पीछे जो ऐतिहासिक तथ्य है उनमे पौराणिक बंधू इन्हे प्रमुखता देते हैं :

1. द्रौपदी का कृष्ण की आकस्मिक अंगुली कटने पर साडी व दुपट्टा का टुकड़ा बाँध देना।

2. कुंती का अपने पौत्र अभिमन्यु को महाभारत युद्ध में कलाई पर रक्षा कवच बाँध देना।

3. पौराणिक दानी दैत्य राजा बलि का रक्षा बंधन से रक्षा होना।

इन प्रमुख कारणों पर यदि ध्यान से देखा जाए तो भी ये रक्षा बंधन यानी बहन का भाई की कलाई पर राखी बांधना और रक्षा का वचन लेना सनातन संस्कृति सिद्ध नहीं होती। क्योंकि ये सभी ऐतिहासिक तथ्य हैं और ऐतिहासिक तथ्य कभी सनातन नहीं हो सकते हैं।

आखिर क्या कारण है की एक दिन के लिए ही भाई अपनी बहन की रक्षा का वचन देता है ? क्या पुरे साल उसे याद दिलाते रहने के लिए ?

मुझे तो नहीं लगता, लेकिन यदि कुछ सालो पीछे जाये तो याद आएगा की हमारे देश में मुगलो का राज था जिसमे महिलाओ की अस्मत और आबरू खतरे में थी, मुझे ऐसा लगता है की ये त्यौहार भाई बहन के लिए उस समय ज्यादा प्रचलन में आया ताकि सामाजिक तौर पर प्रत्येक हिन्दू जाती की महिला को सुरक्षा का भाव मिले। केवल अपने भाई से ही नहीं वरन सभी पुरुषो से।

अब सवाल उठेगा की फिर ये श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षाबंधन क्यों मनाते हैं ? इसका जवाब हमें अपने भारतीय जनजीवन और भौगोलिक परिस्थियों अनुरूप मिलता है। देखिये हमारा देश कृषि प्रधान राष्ट्र है, और कृषि प्रधान राष्ट्र होने के नाते हमारे देश में कृषक समुदाय अधिक हैं या वो लोग जो कृषि से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। इसलिए यदि आप ध्यान देवे तो आप पाएंगे की हमारे देश में आषाढ से लेकर सावन तक फ़सल की बुआई सम्पन्न हो जाती है। ये क्रम आज भी वैसा ही है जैसे पूर्व काल में होता था मगर बदला है आज का साधु समाज क्योंकि वैदिक काल में ॠषि-मुनि अरण्य में वर्षा की अधिकता के कारण गांव के निकट आकर रहने लगते थे। जो गाँव वालो को वेद धर्म की शिक्षा देते थे। क्योंकि इस समय कृषक समाज अपनी खेती आदि कार्यो से फारिग हो जाता था इसलिए इस धार्मिक कृत्य में प्रमुखता से जुड़ता था जिससे देश और धर्म दोनों का ही कल्याण होता था। इसमें पारस्कर गृह सूत्र का प्रमाण है :

अथातोSध्यायोपाकर्म। औषधिनां प्रादुर्भावे श्रावण्यां पौर्णमासस्यम् “ (2/10/2-2)

इसके पीछे जो रहस्य है वो ऊपर बताने और समझाने का प्रयास किया है।

वर्षा ऋतु में वेद के पारायण का विशेष आयोजन इसलिए भी किया जाता था क्योंकि वर्षा के दौरान बीमारिया फ़ैलाने वाले जीवाणु अधिक उतपन्न होते हैं इसलिए इनके निवारण हेतु यज्ञ अधिकमात्रा में होते थे जिसमे विशेष सामग्रियाँ डाली जाती थी।

यही रक्षाबंधन था उस यज्ञ का और जीव का जिससे प्रकृति की रक्षा होती थी और इसी स्वाध्याय के आधार पर यज्ञ होते थे जिससे वर्षा ऋतु में उत्पन्न हुए अनेको विषाणुओं का जो गंभीर बीमारियां उत्पन्न करते थे उनसे यज्ञ द्वारा जीव और प्रकृति की रक्षा होती थी, स्वाध्याय करते हुए नित नए औषधि युक्त सामग्रियों का निर्माण करना और यज्ञ करते हुए प्रकृति, कृषि और जीव इनकी रक्षा करना यही बंधन को ऋषि समझते थे, ज्ञान देते थे।

आज भी अनेको गुरुकुलों में पूर्णिमा को गुरुकुलों में विद्यार्थियों का प्रवेश हुआ करता है। इस दिन को विशेष रुप से विद्यारंभ दिवस के रुप में मनाया जाता है। बटूकों का यज्ञोपवीत संस्कार भी किया जाता है। श्रावणी पूर्णिमा को पुराने यज्ञोपवीत को धारण करके नए यज्ञोपवीत को धारण करने की परम्परा भी रही है।

भले ही इस पवित्र परंपरा को आज लोग भूल गए क्योंकि वो वेदो से विमुख होकर अनार्ष ग्रंथो के अध्यन में रत हुए मगर ये भी सत्य है की पूरी तरह से सिद्धांतो को न बदल पाये, मुगल काल में महिलाओ की रक्षा हेतु रक्षाबंधन का वचन देकर अपनी बहनो माताओ की रक्षण करना, यज्ञोपवीत धारण करना आदि अनेको भ्रान्तिया भी चली मगर सत्य सनातन वैदिक मत यही है की हम वेद और विज्ञानं आधारित बातो को माने क्योंकि सत्य वही है।

केवल भाई बहन तक सीमित न रहकर, इस पवित्र त्यौहार को पुरे विश्व बंधुत्व की और ले जाए, अग्रसर हो इस पवित्र त्यौहार को वैदिक रीति से मनाने के लिए, क्योंकि ये केवल भाई बहन तक सीमित नहीं रखा जा सकता।

आइये लौटियो उसी सनातन संस्कृति की और, लौटिए उस विज्ञानं की और जो ऋषियों ने वेदो के द्रष्टा बनकर हमें दिया। आइये लौटियो वेदो की और।

नमस्ते।

मौलवियों को १४०० साल लग गए लेकिन …….

यह सर्व विदित है की मक्खियाँ बीमारी फ़ैलाने का कारण बनती हैं. हैजा तापिदिक जैसी अनेकों बीमारियों को फैलाने में मक्खियाँ सहायक  हैं. ये मक्खियाँ इधर उधर फ़ैली हुयी गंदगी पर बैठती हैं और विषैले जीवाणुओं को अपने माध्यम से खाने पीने की चीजों तक ले जाती हैं. इन खाद्य पदार्थों का हम जब सेवन करते हैं तो बीमार होना स्वाभाविक है क्योंकि मक्खियों द्वारा इन खाद्य पदार्थों पर लाये गए विषैले जीवाणु हमें बीमार कर देते हैं.यही कारण है कि सरकार और समाज सेवी संस्थाओं द्वारा सामाजिक चेतना का कार्य किया जाता है कि हम ऐसे खाद्य पदार्थ खाने से बचें जिन मक्खियाँ बैठी हों.

अब देखिये की मक्खियों के बारे में हदीस क्या कहती है :

सहीह बुखारी ४: ५४ : ५३७

1. 20150830_103911

 

तात्पर्य है कि  अबू हरैरा का कथन है की मुहम्मद साहब ने कहा कि यदि मक्खी आपके पेय  पदार्थ (Drink ) में गिर जाए तो आपको उसे डूबने देना चाहिए क्योंकि उसके एक पंख में बीमारियाँ और दुसरे पंख में इन बीमारियों का इलाज़ है.

ये हदीस सहीह बुखारी में एक और जगह आयी है और यही बात कुछ शब्दों के उलटफेर के साथ पुनः कही गयी है

सहीह बुखारी ७ : ७१  : ६७३

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3. 20150830_110112

 

यह भी अबू हरेरा की कही हदीस है की अल्लाह के रसूल ने कहा की यदि कोई मक्खी किसी बर्तन में गिर जाये तो उसे बर्तन में डूब जाने दो और फिर उसे फेंक दो क्यूंकि इसकी एक पंख में बीमारियाँ हैं और दुसरे में बीमारियों का इलाज़.

पिछले १४०० साल से ज्यादा हो गए मौलवियों को इस प्रश्न का उत्तर ढूंडते हुए लेकिन आजतक यह साबित नहीं कर पाए की मक्खियाँ जो बीमारी फैलाने का कार्य करती हैं उनकी पंखों में कौनसे रोगों को दूर करने की क्षमता होती है?

सहीह बुखारी पढ़ते हुए डॉ मुहम्मद मुहसिन खान साहब जो इस्लामिक विश्वविद्यालय मदीना अल मुनावारा से ताल्लुकात रखते हैं का इस बारे में तर्क पढ़ा जो आपके समक्ष रख रहे हैं जिससे पाठक भी उन्हीं के शब्दों में समझ सकें :

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डॉ मुहम्मद मुहसिन खान साहब का तात्पर्य है  कि यह आज सभी को पता है की मक्खियाँ कीटाणुओं को इधर उधर ले जाती हैं ये मुहम्मद साहब ने बताया उनके हिसाब से लगभग १४०० साल पहले मनुष्यों को आधुनिक विज्ञानं के बारे में बहुत कम जानकारी थी.

डॉ मुहम्मद मुहसिन खान साहब के अनुसार हाल ही में हुए कुछ शोध ये बताते हैं की मक्खियाँ रोगाणुओं के साथ साथ एंटीबायोटिक भी फैलाती हैं .

डॉ मुहम्मद मुहसिन खान साहब मक्खी को डुबाने का तात्पर्य समझाते हुए कहते हैं कि  जब मक्खी पेय पदार्थ को छूती  है तो तो ये उस पेय पदार्थ को उन रोगाणुओं से संक्रमित कर देती है इसलिए मक्खी को खाने में डूबा देना चाहिए जिससे की इसकी दूसरी पंख में लगा antibotic भी निकल जाये जिससे वो रोगाणुओं का नाश कर दे.

आगे डॉ मुहम्मद मुहसिन खान साहब लिखते हैं कि मक्खी के पेट में कुछ  cells होते हैं को एंटीबायोटिक्स का काम  करते हैं जब मक्खी पेय पदार्थ में डुबोई जाती है तो ये सेल्स फट जाते हैं और इनसे निकले एंटीबायोटिक रोगाणुओं का नाश कर देते हैं.

अत्यंत ही नया तर्क था जो सामान्य व्यक्ति की तो समझ से परे है .

जहाँ समाजसेवी संस्थाएं और सरकारें मक्खियों द्वारा दूषित खाने लोगों को बचाने के लिए इतना व्यय कर रही है वह तो इन हदीसों की रोशनी में व्यर्थ ही प्रतीत होता है !

और वह चिकित्सा विज्ञान भी इन हदीसों के उजाले में झूठा साबित हो जाता है जो यह कहता है की मक्खियाँ रोगों को फैलाने का कार्य करती हैं .

१४०० साल में तो मौलवी इस सवाल का जवाब नहीं ढूंड पाए लेकिन डॉ मुहम्मद मुहसिन खान साहब इस हदीस की व्याख्या में इस हदीस को साबित करते करते करते नई  बात कह गए जो मुहम्मद साहब ने भी नहीं कही कि मक्खी के पेट में एंटीबायोटिक्स होते हैं.

मौलवी साहब १४०० साल पहले लोगों को ये पता था या नहीं था की मक्खी रोगाणुओं को फैलाती हैं लेकिन आपने तो  जो नया तथ्य बताया है की मक्खी के पेट में एंटीबायोटिक्स होते हैं ये तो अभी तक भी शायद ही किसी गैर इस्लामी विद्वान या सामान्य व्यक्ति को पता हो और ये तो मुहम्मद साहब को भी शायद ही पता हो क्यूंकि उन्होंने तो मक्खी के पंख में बताया था .

आपने शोध की बात तो की लेकिन ये नहीं बताया की ये शोध कहाँ हुआ किस संस्था में हुआ इसकी रिपोर्ट कहाँ है . शायद आप बता देते तो चिकित्सा जगत के लिए ये नई उपलब्धी होती.

जो यक्ष प्रश्न १४०० साल से ज्यादा से खड़ा इस्लामिक विद्वानों से उत्तर की राह देख रहा है शायद उसकी तृप्ति हो जाती .

 

अंधविश्वासों का खण्डन समाज की उन्नति के लिए परम आवश्यक’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

जिस प्रकार से मनुष्य शरीर में कुपथ्य के कारण समय-समय पर रोगादि हो जाया करते हैं, इसी प्रकार समाज में भी ज्ञान प्राप्ति की  समुचित व्यवस्था न होने के कारण सामाजिक रोग मुख्यतः अन्धविश्वास, अपसंस्कृति एवं किंकर्तव्यविमूढ़ता आदि हो जाया करते हैं। अज्ञान, असत्य व अन्धविश्वास का पर्याय है। जहां अज्ञान होगा वहां अन्धविश्वास वर्षा ऋतु में खेतों में खरपतवार की तरह उग ही जाया करते हैं। उदाहरण के लिये हम प्रकृति वा सृष्टि को देखते हैं तो हमारे मन में प्रश्न आता है कि यह सुव्यवस्थित संसार किसकी रचना है अर्थात् इसका रचयिता कौन है? अब इस प्रश्न के उत्तर के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। ज्ञानी भी ऐसा हो जो लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति को ही परम प्रमाण न मानकर वैदिक परम्परा में हमारे ऋषियों व मुनियों ने विचार, ध्यान व चिन्तन द्वारा जिस सत्य को प्राप्त किया, उस ज्ञान व अनुभव से परिचित हो व उसको समझने वा मानने वाला हो। आजकल के हमारे पढ़े लिखे लोग हमारे वेद एवं अन्य ज्योतिष, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि का अध्ययन तो करते नहीं, केवल विज्ञान, इतिहास व भूगोल आदि विषयों का अध्ययन कर इन प्रश्नों पर विचार करते हैं तो वह इस संसार की रचना में छिपी हुई सत्ता को जान नहीं पाते। वेदों ने कहा है कि ‘‘ईशावास्यमिदं सर्वम् यत्किंच जगत्यां जगत्,  ‘ दाधार पृथिवीन्द्यामुतेमां आदि मन्त्र सूक्तियों में संसार के रचयिता को सर्वव्यापक ईश्वर बताया गया है और उसे ही पृथिवी व द्युलोक का आधार, धारणकर्त्ता व रचयिता बताया गया है। ईश्वर का युक्ति व तर्क संगत वर्णन भी वेदों में विस्तार से प्राप्त होता है। जो बात तर्क से सिद्ध वा अकाट्य हो वह सत्य होती है। सत्य निर्धारण की मुख्य विधि व प्रक्रिया यही है कि किसी विषय के पक्ष व विपक्ष के विचारों की समीक्षा की जायें और जो बातें अकाट्य हों, उनको सत्य माना जाये। ईश्वर विषय पर विस्तार से अध्ययन व निर्णय हेतु वेदान्त दर्शन की रचना महर्षि बादरायण वा वेद व्यास जी ने सहस्रों वर्ष पूर्व वैदिक काल में की थी। इसमें कहा गया है कि जिससे इस संसार की उत्पत्ति हुई है, जिससे इसका पालन वा संचालन होता है तथा अन्त में जिससे इस संसार का प्रलय व विनाश होता है, उसे ईश्वर करते है। यह ईश्वर हमारी ही तरह से एक चेतन तत्व है। अन्तर इतना है कि हम एकदेशी व अल्प हैं तथा ईश्वर सर्वव्यापक और सर्वज्ञ है। सर्वव्यापकता और सर्वज्ञता उसका अनादि व नित्य गुण है। वह सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदि मूल वा आदि स्रोत है। वेदान्त दर्शन में इन लक्षणों व गुणों से युक्त ईश्वर को सिद्ध भी किया गया है। दर्शन का आधार समस्त वैदिक विचार व उनका चिन्तन है। सभी छः दर्शन चार वेदों के पोषक हैं। अतः यह सिद्ध होता है कि एक सर्वव्यापक और सर्वज्ञ सत्ता ईश्वर है जिससे, जिसके द्वारा व जिसके ज्ञान व सामर्थ्य से मूल प्रकृति नामी सत्ता जो सत्व, रज व तम गुणों वाली अनादि व नित्य है, से पूर्वोक्त ईश्वर ने इस सृष्टि को रचा वा बनाया है। यह कार्य ऐसा ही है जैसे कि हम किसी वस्तु के निर्माण का ज्ञान अर्जित कर निर्माण में उपयोगी सभी पदार्थों को एकत्र कर ज्ञान व शक्ति रूपी सामर्थ्य का प्रयोग कर पदार्थों को बनाते हैं। उद्योग में पदार्थों का निर्माण भी इसी सिद्धान्त पर होता है। यदि इच्छित वस्तु के निर्माण का ज्ञान न हो, निर्माण में आवश्यक पदार्थ उपलब्ध न हो तथा हमारे उद्योग में यन्त्र पदार्थ निर्माण के सर्वथा वा सब प्रकार से उसके अनुकूल व अनुरूप न हो तो नया इच्छित पदार्थ नहीं बन सकता है।

 

खण्डन का अर्थ किसी पदार्थ को तोड़ना है। सत्य तो सत्य है उसका खण्डन वा उसका तोड़ना सम्भव नहीं है। असत्य व अज्ञान ऐसा है कि जिससे मनुष्य को हानि होती है और वह उस अज्ञानाधारित कार्य से इच्छित लक्ष्य व उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर पाता। अतः हमें अपनी बुद्धि से मनन कर इच्छित विषय के सभी पहलुओं पर विचार कर, जो उद्देश्य को पूरा करने वाले पहलु हैं, उन्हें उपयोग में लाना होता है और जो अनुपयोगी होते हैं, उन्हें छोड़ना होता है वा अज्ञानियों को उन अज्ञानतापूर्ण कार्यों से छुड़वाने के लिए उनका खण्डन व सत्य पदार्थ, पक्ष व पहलुवों का मण्डन कर समझाना होता है। इस कसौटी वा तुला पर हम अपने जीवन के प्रत्येक कार्य व चिन्तन को देख व परख कर ग्रहण व त्याग कर सकते हैं। सबसे पहला कार्य तो यह करना है कि हम सब सभी सत्य विद्याओं का अध्ययन करें। आधुनिक ज्ञान सब अच्छा नहीं है और प्राचीन ज्ञान सब बुरा व अनुपयोगी नहीं है। हमें दोनों में सत्य ज्ञान व विद्याओं का ग्रहण व असत्य ज्ञान तथा विद्याओं का त्याग करना चाहिये। जहां तक इस संसार के निर्माता को समझना है तो हमें केवल वेद और वैदिक साहित्य की ही शरण लेनी चाहिये। महर्षि दयानन्द ने ईश्वर के सत्य स्वरूप के निर्धारण के लिए सत्यार्थ प्रकाश नाम का ग्रन्थ लिखा है जो सभी प्रकार की सत्य मान्यताओं से हमारा परिचय कराता है। इसके साथ ही उन्होंने अपनी इसी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में असत्य, मिथ्या, अज्ञान व तर्कहीन मान्यताओं का परिचय कराकर उनका वेद, युक्ति व तर्क आदि प्रमाणों से खण्डन किया है। यदि हम सत्य को जानना चाहते हैं तो हमें सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन करना ही होगा। सत्य का ज्ञान हो जाने व जीवन में उसका आचरण करने से हम उन्नति को अथवा जीवन में विकास जो कि उन्नति का ही पर्याय है, प्राप्त होते हैं और विपरीत स्थिति में अवनति व गिरावट को प्राप्त होते हैं। इसी कारण महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहने को कहा है। वह उपदेश करते हैं कि सत्य को मानना और मनवाना और असत्य को छोड़ना और छुड़वाना उन्हें व सभी मनुष्यों का अभीष्ट होना चाहिये। बहुत से लोग उनके खण्डन करने को बुरा मानते थे परन्तु यही कहा जा सकता है कि ऐसे लोग अज्ञानी व स्वार्थी ही हो सकते हैं। कोई भी ज्ञानी व्यक्ति असत्य के खण्डन व सत्य के मण्डन से नाराज व उद्विग्न कभी नहीं हो सकता। ज्ञानी व विवेकपूर्ण व्यक्ति वही हो सकता है जो असत्य के खण्डन का प्रशंसक व सत्य के मण्डन का भी प्रशंसक हो। विगत लगभग 140 से कुछ अधिक वर्षों में महर्षि दयानन्द द्वारा खण्डित व मण्डित मान्यताओं को किसी मत, सम्प्रदाय, धार्मिक संस्था का कोई भी धर्म गुरू व विद्वान युक्ति व प्रमाण पूर्वक खण्डन व प्रतिवाद नहीं कर सका। इससे सिद्ध हो गया है कि महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में जो कहा था वह सर्वथा व पूर्णतः सत्य था व आज भी है।

 

अब खण्डन की देशोन्नति में भूमिका पर विचार करते हैं। खण्डन करने से असत्य व अज्ञान का नाश होता है। देशोन्नति में असत्य व अज्ञान बाधक होते हैं, यह सर्वमान्य सिद्धान्त है। उदाहरण रूप में विचार कर सकते हैं कि यदि देश व समाज के सभी लोग असत्य भाषी अर्थात् झूठे और मिथ्याचारी हों तो क्या समाज व देश उन्नति कर सकते हैं? उसका एकमात्र उत्तर है कि नहीं कर सकते। सत्य सदा सर्वदा प्रशंसनीय और असत्य व अन्धविश्वास सर्वदा निन्दनीय होने से खण्डनीय हैं। देश में जितने अधिक मनुष्य सत्याचारी वा सदाचारी, चरित्रवान, देशभक्त, ईश्वरभक्त, जातिवाद, ऊंच-नीच, छोटे-बड़े की भावना से मुक्त होंगे वह समाज व देश उतना ही उन्नत होगा। यूरोप में उन्नति का कारण ही वहां अन्धविश्वासों की कमी व देशवासियों के आदर्श चरित्र हैं। वहां भ्रष्टाचार, असत्य व्यवहार, जन्मना जातिवाद, ऊंच-नीच, सामाजिक विषमता, मिथ्या ईश्वरोपासना, मिथ्या धार्मिक कर्मकाण्ड, व्रत व उपवास आदि न्यूनातिन्यून है जिससे वह प्रगति व उन्नति कर रहे हैं। हमारा सारा देश व विश्व के सभी देश अधिकांश रूप में यूरोप के वैज्ञानिकों के आभारी हैं जिनकी कृपा व वैज्ञानिक अनुसंधानों के कारण हमें अपने दैनिक जीवन में उपयोग की वस्तुएं यथा विद्युत व इससे संचालित यन्त्र, कार, सुविधादायक भवन व आवास, टेलीफोन, कम्प्यूटर, रेल व वायुयान, अच्छी सड़के, रोगोपचार व शल्य क्रिया का ज्ञान आदि उपलब्ध हैं। यह सब सत्य की खोज व इससे प्राप्त देनें हैं। दूसरी ओर हमारा देश आज भी अज्ञान, अन्धविश्वास, असत्य, मिथ्याचारों व सामाजिक विषमताओं के झंझावतों में उलझा हुआ है जो हमें पतन, अवनति व गुलामी की ओर ले जा रहे हैं। आज इसी कारण कुछ लोग तो बड़े बड़े धन कुबेर बन गये हैं और दूसरी ओर न लोगों को पेट भर भोजन है, न चिकित्सा व्यवस्था है, न अच्छा आवास न अन्य सुविधायें हैं। हमारे अधिकांश देशवासियों का नरक से भी बुरा जीवन है और हम गर्व करते हैं कि हमारा देश सृष्टि का धर्म, ज्ञान व विद्या का आदि स्रोत रहा है। यह पूर्ण सत्य होते हुए भी वर्तमान परिस्थितियों में हमें मिथ्या अभिमान से ग्रसित प्रदर्शित करता है। देश के मानव मानव में जमीन आसमान का अन्तर हमारी शासन प्रणाली की देन के साथ सबके लिए एक समान, निःशुल्क, वैदिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा के न होने के कारण है। इसका उत्तरदायित्व भी किसी न किसी रूप में शासन प्रणाली को ही है जिसमें अनेक सुधारों की आवश्यकता है। अतः असत्य का खण्डन कर ही समस्याओं का निदान किया जा सकता है। असत्य के खण्डन से ही देश सबल, उन्नत व विकसित होगा। इस देश को उन्नत व विकसित उसी दिन कहा जायेगा जिस दिन सभी देशवासी वैदिक शिक्षा से शिक्षित होकर परस्पर एक दूसरे को मित्र, बन्धु व सबको एक परिवार के सदस्य अर्थात् वसुधैव कुटुम्बकम की दृष्टि से देखेंगे और  मानेंगे।

हम समझते हैं कि यह सिद्ध सत्य सिद्धान्त है कि असत्य के खण्डन और सत्य के मण्डन से ही व्यक्ति, समाज व देश का विकास व सर्वांगीण उन्नति सम्भव है और इसके विपरीत स्थिति हमें अवनति की ओर ले जाती है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

 फोनः09412985121

याकूब मेमन को फाँसीः- – सत्येन्द्र सिंह आर्य

वर्ष 1993 में मुबई में बम विस्फोट द्वारा सैकड़ों लोगों की हत्या करने वाले जघन्य अपराधी और कट्टर आतंकी याकूब अदुल रजाक मेमन को 30 जुलाई 2015 दिन बृहस्पति वार को फांसी दी गयी। यह बड़ा विचित्र संयोग है कि एक ही दिन में दो विपरीत-दुःखद और सुखद घटनाएँ भारत में घटीं। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अदुल कलाम का अन्तिम संस्कार इसी दिन हुआ। राष्ट्र के लिए यह बहुत दुःखद घटना है। एक योग्य वैज्ञानिक, उच्चकोटि का शिक्षक और प्रखर राष्ट्रवादी हमसे छिन गया। यह तो हानि ही हानि है।

दूसरी घटना याकूब मेनन को फांसी दिया जाना है। मृत्यु चाहे स्वाभाविक हो या हत्या हो या फांसी हो, दुःखद होती है। तथापि किसी किसी की मृत्यु (जैसे याकूब को फांसी) पर न्यायप्रिय देशवासी राहत की सांस लेते हैं। वर्ष 1993 में जिस दिन मुबई में सीरियल बम लास्ट हुए, उस दिन मैं (इन पंक्तियों का लेखक) वहीं पर था। वर्ष 1990 से 1998 की अवधि में मैं भारतीय स्टेट बैंक की सेवा में वही पदस्थापित था और नरीमन पाइण्ट क्षेत्र में मन्त्रालय के ठीक सामने एस.बी.आई. के केन्द्रीय कार्यालय में मेरी नियुक्ति थी। मेरे कार्यालय से लगभग डेढ सौ गज की दूरी पर एयर इण्डिया की बहुमंजिली बिल्डिंग में दोपहर के समय भंयकर विस्फोट हुआ। आस पास के भवनों में खिड़कियों के शीशे टूट गये। कुछ लोग पता करने नीचे गए तो ज्ञात हुआ कि अन्य भी कई स्थानों पर और लोकल ट्रेनों में सीरियल (लगातार क्रम में) बम लास्ट हुए हैं और सैकड़ों लोग मारे गए हैं। नगर के वातावरण में अजीब बदहवासी और भयावहता व्याप्त हो गयी । महानगर में लाखों कर्मचारी अपने घरों से बीस से पचास साठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित कार्यालयों में काम करने जाते हैं और यातायात का साधन लोकल ट्रेन ही है। उसी में लास्ट हो रहे थे तो सबके सामने समस्या यह थी कि आज घरों तक कै से पहुंचें। लास्ट होने की सभावना के चलते लोकल ट्रेन से जाने में सभी घबरा रहे थे। उस सीरियल बम लास्ट की घटना में सैकड़ों लोग मारे गए। अरबों रुपये की सपत्ति नष्ट हुई और सारे महानगर में बदहवासी का वातावरण पसर गया। उस जघन्य हत्याकाण्ड का अपराधी यह याकूब मेमन था जिसे टाडा कोर्ट ने मृत्युदण्ड की सजा सुनाई थी। भारत में न्यायपालिका का सिद्धान्त है कि चाहे सौ अपराधी सजा पाने से बच जाएं परन्तु किसी निरपराध को सजा न दी जाए। इसमें भाव तो यह है कि दण्ड अपराधी को ही मिले, किसी निरपराध को दण्डित न किया जाय। परन्तु भारत में आतंकी, हत्यारे, बलात्कारी, माओवादी, नक्सली भारतीय न्याय व्यवस्था के  इस सदाशयतापूर्ण प्रावधान का दुरुपयोग करते हुए दण्ड से बचने का सफल उपाय करते हैं। मानवाधिकार का झण्डा उठाये रखने वाले संगठन (वास्तव में अपराधियों को दण्ड से बचाने हेतु एड़ी से चोटी तक का जोर लगाने वाले अन्तराष्ट्रीय गिरोह) और स्वामी अग्निवेश, सलमान (फिल्मी सितारा), ओबेसी हैदराबाद जैसे समाजसेवी? और एक एक करोड़ रुपये फीस के रूप में लेने वाले उच्चतम न्यायालय के अधिवक्तागण ऐसे आतंकियों को दण्ड से बचाने की जी-तोड़कोशिश करते हैं। गणतंत्रीय शासन प्रणाली का यह बेहद कुरूप चेहरा है। 1993 के इस सीरियल बम लास्ट के पश्चात् इस काण्ड के सूत्रधार और कर्त्ताधर्ता दाऊद, टाइगर मेमन, याकूब मेमन आदि और उनके सहयोगी भारत से भाग गए थे। भारत के ऐसे शत्रुओं के लिए पाकिसतान सुरक्षित आश्रय-स्थली है। उन अपराधी हत्यारों में से यह याकूब नाम का एक आतंकी कानून की पकड़ में आ गया  औरउसे मृत्युदण्ड का निर्णय सुना दिया गया। जघन्य अपराधी कानूनी दांव पेंचों को जानता है और वह बारी-बारी से उच्च न्यायालय में, उच्चतम न्यायालय में, राज्यपाल के यहाँ और राष्ट्रपति के यहाँ अपील करके सजा को टालने का प्रयत्न करता है। उसके पास इतने साधन होते हैं कि अपने बचाव के लिए महंगे से महंगे वकीलों की फौज न्यायालय में तैनात रख सकता है परन्तु उन सफेद पोश तथाकथित न्यायवादियों ? को क्या कहा जाए जो 29जुलाई की रात्रि को (वास्तव में अर्द्धरात्रि को) भारत के मुय न्यायाधीश के निवास परपहुँच कर रात्रि में उच्चतम न्यायालय को खुलवाएँ औरउस आतंकी को बचाने के लिए कानूनी दांव पेंच चले और तर्क के स्थान पर कुतर्कों पर उत्तर आएँ। ऐसे लोग तो राष्ट्र-द्रोही और जन-द्रोही हैं। देशवासियों को इनकी निन्दा करनी चाहिए।

माननीय न्यायालय एवं भारत सरकार वास्तव में साधुवाद क पात्र हैं जिन्होंने न्याय किया और न्याय होते हुए भी दिखाई पड़ा। घृणित और दूषित मानसिकता वाले जिन मुस्लिम लोगों ने यह आरोप लगाया कि याकू ब को मुसलमान होने के कारण दण्डित किया है वे भी आपराधिक मानसिकता को पाल पोस रहे हैंऔर इसीलिए निन्दा के पात्र हैं। भारत के आम आदमी के मन में ऐसी संकीर्ण बातें होतीं तो पूर्व राष्ट्रपति अदुल कलाम के महाप्रयाण पर वे आँसू न बहाते। देशभर की शिक्षण संस्थाओं में, संगठनों में, सभाओं में अदुल कलाम पर शोकसभाएं की गयीं, समाचार पत्रों में एवं मीडिया में उन्हें बेहद समान के साथ याद किया गया। क्या बूढ़े, क्या युवा, क्या बच्चे- सभी ने उन्हें याद करके आँसू बहाए। अन्तर केवल इतना है कि एक व्यक्ति उसी आस्था के साथ जीते हुए देश-विदेश में समान का अधिकारी बना और उसके निधन पर राष्ट्रवासी दुःखी हुए। उसी आस्था वाला याकूब मेमन सैकड़ों लोगों की हत्याओं का दोषी सिद्ध हुआ। उसे सजा मिलने पर राष्ट्रवासियों ने राहत की साँस ली।               – मेरठ, उ.प्र.

पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अदुल कलाम का महाप्रयाण- सत्येन्द्र सिंह आर्य

भारत के पूर्व राष्ट्रपति श्री अबुल पाकीर जैनुलआबद्दीन अदुल कलाम का सोमवार 27 जुलाई की शाम को शिलांग में आई आई एम में व्यायान देते हुए दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। इस समाचार से सारे भारत में शोक की लहर फैल गई। वे 84 वर्ष के थे।

अक्टूबर 1931 में तमिलनाडु के छोटे से द्वीप धनुषकोडी में जन्मे अदुल कलाम विश्व भर में मिसाइलमैन के नाम से वियात हुए, यह उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति और असाधारण पुरुषार्थ का ही सुफल था। एक अत्यन्त साधारण परिवार में जन्म लेना उनकी उन्नति के मार्ग में कभी बाधक नहीं बना। बचपन में अपने पिता को नाव बनाते देखा तो उनके मन में राकेट बनाने की बात आई। ‘‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’’ वाली कहावत उन पर पूरी तरह चरितार्थ होती है। स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद लड़ाकू विमान बनाकर आसमान छूने की इच्छा भी मन में हुई और वह पूरी हुई अग्नि और पृथ्वी जैसी मारक मिसाइलें बनाकर। अन्तर्महाद्वीपीय मारक क्षमता वाली मिसाइलें बनाने की भारत राष्ट्र की क्षमता से विश्व स्तध है। राष्ट्र की इस सामर्थ्य के पीछे हमारे इस महावैज्ञानिक अदुल कलाम का बुद्धि कौशल और तप है। भारत की वैज्ञानिक उन्नति से अमेरीका और यूरोप के सारे देश ईर्ष्या करते हैं। अन्तरिक्ष अनुसन्धान के क्षेत्र में भारत अग्रणी देशों में है। अन्तरिक्ष में पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करने के लिए भारत श्री हरिकोटा केन्द्र से केवल अपने बनाए भारतीय राकेट (उपग्रह) का ही प्रक्षेपण नहीं करता बल्कि विश्व के अन्य राष्ट्रों के उपग्रह भी भेजता है और उससे करोड़ों रुपयों की विदेशी मुद्रा भी कमाता है। पूर्व महामहिम का यहाँ भी अभूतपूर्व योगदान रहा। इस क्षेत्र की तकनीक में विकसित राष्ट्र विकासोन्मुख राष्ट्रों को कोई सहयोग नहीं करते। भारत को बायोक्रोनिक इंजन की तकनीक उपलध कराने के लिए एक बार रूस सहमत हो गया था। परन्तु अमेरीकी दबाव के आगे रूस को झुकना पड़ा और भारत को वह तकनीक रूस से नहीं मिली। तथापि जहाँ अदुल कलाम जैसे प्रेरणा स्रोत वैज्ञानिक के रूप में मौजूद हों वहाँ अन्य देशों के असहयोग से कोई अन्तर नहीं पड़ता। दो वर्षों के कठोर परिश्रम के बल पर भारत ने स्वयं वह स्वदेशी इंजन बना लिया। श्री कलाम डी.आर.डी.ओ के सचिव भी रहे।

भारत को परमाणु शक्ति सपन्न राष्ट्र बनाने में कलाम साहब की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण रही। पोखरण में अणुशक्ति का प्रथम परीक्षण मई 1974 में किया गया। विश्व के परमाणु शक्ति सपन्न पांचों राष्ट्रों – अमरीका, इंग्लैण्ड, चीन, फ्रांस और सोवियत यूनियन ने उस समय भारत की ओर को आँखें तरेरी। परन्तु धुन के धनी और राष्ट्र को शक्ति सपन्न बनाने के लिए कृत संकल्प अदुल कलाम और उनकी टीम ने अणुशक्ति के उच्चस्तरीय विकास के प्रयत्न जारी रखे। कलाम ढाई दशक की लबी अवधि तक परमाणु शक्ति के विकास के गोपनीय कार्य में जी जान से जुटे रहे। परमाणु बम के परीक्षण की तैयारी सन् 1995 में भी की गई थी परन्तु तब अमेरीकी उपग्रहों ने हमारी तैयारी की सूचना प्राप्त कर ली थी और विदेशी दबाव के सामने भारत की नरसिंहराव सरकार ने परमाणु परीक्षण का कार्यक्रम स्थगित कर दिया था। परन्तु कलाम का लगाव-जुड़ाव पोखरण के साथ परमाणु परीक्षण की तैयारी और उसके क्रियान्वयन के सिलसिले में लगातार बना रहा और  उन्हीं का कमाल था कि मई 1998 में ‘‘बुद्धा पुनः मुस्कराए’’। कलाम साहब ने प्रधानमन्त्री वाजपेयी को हॉट लाइन पर यही शद बोलकर सफल परमाणु परीक्षण की सूचना दी थी। जब इसकी आधिकारिक घोषणा हुई तो दुनिया स्तध रह गयी।

परमाणु परीक्षण -2 की गोपनीयता-वर्ष 1995 में जिन अमरीकी उपग्रहों ने भारत के परमाणु परीक्षण की तैयारियों का पता लगा लिया था, वर्ष 1998 में उन्हें भारत की तैयारियों की भनक तक नहीं लगी। यह सब कलाम का ही कमाल था। उन्होंने ही परमाणु परीक्षण दो की परिकल्पना को साकार किया था। यद्यपि 1998 में हुए परमाणु परीक्षण की तैयारी वर्षों से चल रही थी। ‘आपरेशन शक्ति’ नाम से जो कार्य होना था उसके कोड (कूट-शद) अल्फा, ब्रावो, चार्ली….आदि कलाम के अतिरिक्त किसी को पता नहीं थे। मेजर पृथ्वी राज (कलाम) के पास कमान थी। परमाणु परीक्षण के दौरान कलाम ने सारे काम को इस गोपनीयता से पूरा किया कि किसी को पता ही नहीं लग सका कि भारत इतना बड़ा धमाका करने वाला है।

भारत में मिसाइल निर्माण एवं परमाणु परीक्षण जैसे महान कार्यों में योगदान देने वाले अदुल कलाम वर्ष 2002 से 2007 तक भारत के राष्ट्रपति रहे। इससे पूर्व वे वर्ष 1992 से 1999 तक प्रधानमन्त्री के मुय वैज्ञानिक सलाहकार रहे। जीवनभर जहाँ भी जिस पद पर रहे, विवादों से सदैव दूर ही रहे। उनका निधन राष्ट्र की महती क्षति है।

ज्ञान, विज्ञान एवं भारत के विकास को समर्पित पूर्व राष्ट्रपति अदुल कलाम भारत मां के ऐसे सपूत थे जिन पर राष्ट्र एवं राष्ट्रवासियों को गर्व है। वे राष्ट्रीय एवं सामाजिक मूल्यों के लिए जिए। उनकी धार्मिक आस्था उनके आदर्श इन्सान बनने के मार्ग में कभी बाधा नहीं बनी। सलमान खान और ओबेसी (हैदराबाद) की भांति वे किसी आतंकी अपराधी, देशद्रोही के बचाव का प्रयत्न करने वाले नहीं थे। करोड़ों रुपये की फीस लेकर अर्द्धरात्रि के समय उच्चतम न्यायालय में एक अघन्य हत्यारे के पक्ष में दलील देने वालों की तुलना में वे लाखों गुना अच्छे इन्सान थे, आदर्श पुरुष थे। भारत के एक पूर्व राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन कीााँति उन्होंने राष्ट्रपति भवन में मस्जिद बनवाने की माँग भी सरकार से नहीं की। वे महान् भारत के वास्तविक प्रतीक, आदर्श नागरिक और सर्वाधिक सकारात्मक सोच वाले भारतीय थे। साधारण परिवार में जन्म लेकर वे अपनी प्रतिभा, परिश्रम और लगन के बल पर राष्ट्राध्यक्ष के सर्वोच्च पद पर पहुँचे। 30 जुलाई को उनके अन्तिम संस्कार के समय लाखों देशवासियों ने उन्हें अश्रुपूर्ण नेत्रों से अन्तिम विदाई दी।

युवाओं के वे सबसे बड़े प्रेरणा स्रोत थे।

भूकप त्रासदी से पीड़ित नेपाल में परोपकारिणी सभा द्वारा राहत कार्य:- कर्मवीर

ईश्वर इस संसार का रचनाकार है, उसने हर वस्तु की रचना बड़ी बुद्धिमत्ता से व्यवस्थित ढंग से की है क्योंकि वह सर्वज्ञ है, हम जीवात्मायें अल्पज्ञ हैं। हम लोग अपनी सुख-सुविधा के लिए कई बार अधिक छेड़-छाड़ कर प्रकृति के सन्तुलन को बिगाड़ देते हैं परन्तु परमात्मा उसे व्यवस्थित रखता है। ईश्वर के नियमानुसार प्रकृति अपने आपको संतुलित करने के लिए उसमें भूकप, बाढ़, अतिवृष्टि-अनावृष्टि इत्यादि घटनाएँ निरन्तर घटती रहती है, सृजन-संहार सतत् प्रक्रिया है। ये कभी भी, किसी के साथ भी, कहीं भी हो सकने वाली घटनाएँ हैं। अतः संवेदनशील मनुष्य इन घटनाओं व इन घटनाओं से प्रभावित होने वाले प्राणियों के प्रति सहानुभूति रखता है और मन में ये भी भाव रहते हैं कि हमारे साथ भी ऐसा हो सकता है। यही मनुष्य का मनुष्यपन है।

आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने तीन उद्देश्यों को ध्यान में रखकर परोपकारिणी सभा की स्थापना की थी-

(1) वेदों का पठन-पाठन व प्रचार-प्रसार।

(2) वेदादि आर्ष ग्रन्थों का प्रकाशन।

(3) दीन दुखियों की सेवा।

इन्हीं उद्देश्यों को ध्यान में रख, सभा सतत् अपना कार्य करती रहती है। जहाँ भी इस प्रकार की प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं, सभा अपने सामर्थ्य/साधनों से जनहित में कार्य करती है। नेपाल में भी भयंकर भूकप आया, हजारों लोग हताहत हुए, सभा प्रधान डॉ. धर्मवीर जी का संकेत हुआ कि सहायता के लिए जाना है।

अजमेर से काठमाण्डू (नेपाल की राजधानी) का रास्ता बड़ा लबा है। एका-एक इतनी लबी यात्रा कैसे हो? दो दिन तक रेल्वे का तत्काल टिकिट कराने का प्रयास किया, पर आरक्षण नहीं हुआ, जाना तो अवश्य था। जाने का निश्चय कर मैंने (कर्मवीर), ब्र. सोमेश जी व ब्र. प्रभाकर जी से सपर्क किया। सभा का आदेश पाकर, वे भी जाने के लिए तैयार हो गये। गोरखपुर (उ.प्र.) के रास्ते से जाने का निश्चय कर, गोरखपुर आर्य समाज में एकत्रित होने का निर्धारण हुआ।

मैं 14 मई को अजमेर से चला, सोमेश जी मैनपुरी से तथा प्रभाकर जी बिजनौर से। आर्य समाज गोरखपुर के प्रधान डॉ. विनय आर्य जी से सपर्क हो चुका था, उन्होंने हमारी भोजन व आवास की व्यवस्था बड़ी श्रद्धा से की।

मैं अजमेर से कानपुर बस से यात्रा करके गया, कानपुर से लखनऊ की बस पकड़ी, कानपुर बस स्टैंड पर दोपहर के बारह बजे धूप में बस खड़ी थी, आस-पास छाया का कोई स्थान नहीं था, गर्मी के कारण शरीर से पसीना ऐसे टपकता था जैसे कोई भाप स्नान (स्टीम बाथ) कर रहा हो, उधर ब्र. प्रभाकर जी ने भी मुरादाबाद से गोरखपुर के लिए रेलगाड़ी पकड़ी, मार्ग बहुत लबा था, गर्मी भीषण, आरक्षण है नहीं, सामान्य डबे में इतनी भीड़ कि शौचालय में भी यात्री घुसे हुए थे, अतः उन्होंने भी दुःखी होकर सीतापुर में रेल गाड़ी छोड़, बस पकड़ी थी तथा इस प्रकार से यात्रा करके हम लोग गोरखपुर पहुँचे, एक दिन विश्राम किया।

17 मई को हम लोग गोरखपुर से 20 किमी. दूर पीपीगंज नामक स्थान पर पहुँचे, यहाँ पर ड़ॉ. वेदानन्द जी कश्यप, सभा प्रधान डा. धर्मवीर जी के मित्र हैं। आपने हम सब लोगों के  लिए प्रातःराश तथा यात्रा के लिए भोजन उपलध कराया एवं राहत कार्य के लिए दान भी दिया, आप एक सच्चे वैदिक मिशनरी हैं।

पीपीगंज से हम लोग भारत-नेपाल की सीमा सोनौली पहुँचे। यही से हमने मध्याह्न के समय काठमाण्डू के लिए बस पकड़ी। बहुत लबा मार्ग पहाड़ी से होकर गुजरता था, अतः काठमाण्डू तक पहुँचते हुए अंधेरा होने लगा। काठमाण्डू में प्रवेश से पूर्व ही भूकप का प्रभाव दिखाई देने लगा, टूटे फू टे मकान, कई बड़े-बड़े भवन भी धराशायी हो चुके थे। परन्तु अन्धेरे के कारण स्पष्ट दिखाई नहीं देता था। हम रात्रि 8:30 बजे काठमाण्डू पहुँचे परन्तु साढे आठ बजे ही काठमाण्डू सुनसान हो चुका था, बाजार भी पूरे बंद थे, यात्री बसें इत्यादि भी बन्द हो चुकी थी, बड़ी मुश्किल से एक टैक्सी (कार) करके हम लोग केन्द्रीय आर्य समाज नेपाल के कार्यालय पहुँचे । वहाँ के प्रधान पं. कमलकान्त जी आर्य को पहले से सूचना दी जा चुकी थी अतः वे हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। यहीं आर्य समाज में ब्र. आचार्य नन्दकिशोर जी पहले से पहुँचे हुए थे। आ. नन्दकिशोर जी बाल-स्वभाव, पवित्र-हृदय व आर्य समाज के प्रति दृढ़ निष्ठावान पुरुष हैं। रात्रि अधिक हो चुकी थी, भोजन किया तथा शयन की तैयारी करने लगे तो पं. कमलाकान्त जी ने निर्देश दिया कि पानी का बड़ा अभाव है, जल-व्यवस्था भूकप के कारण पूर्ण रूप से बाधित है, अतः सुबह स्नान नहीं होगा, शौच इत्यादि में भी पानी प्रयोग में सावधानी रखनी है।

सोने से पूर्व एक निर्देश और दिया गया कि सावधान रहना है, लगातार भूकप के झटके आते रहते हैं, ऐसा हो तो विचलित नहीं होना, धैर्य से काम लेना, चलने में शरीर का सन्तुलन बनाये रखना है। आपने बताया कि जब भूकप आता है तो शरीर का सन्तुलन बिगड़ जाता है। आगे की ओर चलने की कोशिश करते हैं पर ऐसा लगता है कि पीछे की ओर गिरेंगे। भूकप आये तो तुरन्तावन से बाहर निकल कर खुले मैदान में पहुँचना है।

18 मई को प्रातः उठकर शौचादि से निवृत्त होकर, हाथ-मुँह धोक र, बिना नहाये ही यज्ञ किया। 11 बजे आर्य समाज के लोगों की बैठक पण्डित जी द्वारा बुलाई गई, बैठक का उद्देश्य था कि राहत कार्य कहाँ व किस प्रकार से किया जाए? हम लोग इन्हीं लोगों की सहायता से कार्य कर सकते थे। क्योंकि कोई भी बाहरी संस्था/संगठन यहाँ पर सरकार की अनुमति के बिना राहत सामग्री इत्यादि वितरित नहीं कर सकते। कई बार दुर्घटनाएँ भी होती हैं, त्रस्त जनता सामान भी लूट लेती है। अतः स्थानीय लोगों की सहायता अवश्य लेनी पड़ती है।

बैठक में निश्चय हुआ कि काठमाण्डू से 200 किमी. दूर उत्तर पूर्व (ईशान कोण) में 12 मई के दिन जहाँ दोबारा भूकप आया था, वहाँ पर सिंगेटी नामक स्थान जि. दोलखा का लामी डाँडा नामक ग्राम का वार्ड सं. 7 जिसमें 16 परिवार रहते हैं, वहाँ पर राहत पहुँचाई जाए क्योंकि अधिक दूर व रास्ता दुर्गम होने के कारण वहाँ राहत कर्मी प्रायः नहीं पहुँचते। इसमें बड़ी समस्या थी कि राहत सामग्री कहाँ से उपलध हो? वितरण की प्रक्रिया क्या हो ताकि छीना-झपटी न हो। इस कार्य के लिए एक आर्य सज्जन कृष्ण जी जो आर्य समाज में ही सेवा देते थे, कृष्ण जी 2 वर्ष तक  गुरुकुल एटा में पढ़े थे, आपको व्यवस्था के लिए दो दिन पूर्व ही उस स्थान पर भेज दिया गया था।

हमारा यह विचार बना कि भूकप से प्रभावित सभी महत्वपूर्ण स्थानों को देखना चाहिए, जिससे वास्तविक हानि का स्थूल रूप से ही सही, परन्तु ठीक-ठीक अनुमान लग सके। अतः सायंकाल हम लोग पशुपतिनाथ का मंदिर देखने गये थे, मन्दिर भी क्षतिग्रस्त हो चुका था, यहाँ पर एक घटना विशेष देखी मन्दिर के परिसर से एक नाला बहता है, उसके दोनों तरफ घाट है। उन घाटों पर दाह संस्कार करने में लोग मृतक के लिए स्वर्ग प्राप्ति मानते है, हरिद्वार, काशी की तरह जब ऐसे स्थलों पर लोग दूरस्थ स्थानों से आते हैं, तो मार्ग व्यय इत्यादि में उनका बहुत सारा धन व्यय हो जाता है। जिसकी पूर्ति लोग मृतक पर डाले जाने वाले काष्ठ में करते हैं, ऐसे स्थानों पर ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा काष्ठ बहुत महंगा मिलता है। घृत-सामग्रीाी प्रायः न के बराबर डालते हैं, जिस कारण मृतक दहन के समय भारी दुर्गन्ध फैलती है। पशुपति नाथ मन्दिर में भी इसी तरह भारी दुर्गन्ध फैली हुई थी।

उसी क्रम में 19 मई की सायं हम लोग काठमाण्डू में जो स्थान अधिक क्षतिग्रस्त हुए उन स्थानों को देखने गये, सबसे पहले हम काठमाण्डू का विशेष स्थान जहाँ पर संग्राहलय इत्यादि है, अधिकांश सरकारी कार्यालय तथा जो विदेशी सैलानियों का केन्द्र रहता है, वह स्थान देखा, अच्छे सुन्दर विशाल भवन मलबे के ढेर में परिवर्तित हो चुके थे, उस क्षेत्र में रहने वाले लोग अधिकतर या तो बाहर जा चुके थे या तो खुले मैदानों में तबुओं में रह रहे थे। पूरे काठमाण्डू का यही हाल था, कोई स्टेडियम, पार्क, खुला सार्वजनिक स्थान खाली नहीं था, सब जगह तबू ही तबू लगे हुए थे। भय के कारण लोग घरों में नहीं रहते थे वहाँ के लोगों के कथनानुसार लगभग 5 लाख लोग तो भय के कारण अस्थाई रूप से पलायन कर चुके थे, सड़कें-भवन प्रायः खाली नजर आते थे।

इस स्थान की एक विशेषता और थी, यहाँ जो पुराने भवन थे, वे बड़े विशाल एवं उनके खिड़की दरवाजे उनकी निर्माण प्रक्रिया अति विचित्र थी, जिस प्रकार से जैसलमेर (राज.) में हवेलियों में पत्थर के ऊपर मनमोहिनी कलाकृति आने वाले पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है, इसी प्रकार लकडी की विश्व स्तरीय कलाकृति, भवनों की शोभा मन आत्मा को स्पर्श करने वाली थी, परन्तु काल का कुठार ऐसा चला की सब नष्ट-भ्रष्ट हो चुका था। सारा क्षेत्र वीरान खण्डर में रूपान्तरित हो चुका था। वहाँ से चलते हुए, बाजार-भवनों से भ्रमण करते हुए एक विशेष स्थान पर पहुँचे, यह स्थान आर्य क्रान्तिकारियों के साहस व शौर्य का प्रतीक है, इस स्थान का नाम है इन्दिरा चौक। इस स्थान पर आर्य बलिदानी शुक्रराज शास्त्री राजशाही के विरूद्ध भाषण दिया करते थे, राजा के गलत नियमों-कानूनों से प्रजा त्रस्त थी, अन्ध विश्वास बलि प्रथा इत्यादि कुरीतियाँ चर्म सीमा पर थी, शास्त्री जी इनका विरोध करते थे, यहाँ का एक नियम और था- नेपाल के अन्दर राजा के अलावा किसी को अधिकार नहीं था कि खड़ा होकर भाषण दे सके। परन्तु शास्त्री जी खड़े होकर ही भााषण दिया करते थे। अतः अन्धविश्वास पर कुठाराघात देख, वहाँ के पण्डों ने राजा को खूब भड़काया कि ये शुक्रराज शास्त्री आपकी सत्ता को उखाड़ देगा, अतः राजा का आदेश हुआ और शुक्रराज शास्त्री जी को उनके साथियों दशरथ चन्द्र, धर्म भक्त माथेमा, गङ्गलाल श्रेष्ठ के साथ इन्दिरा चौक से गिरतार कर उन चारों पर राष्ट्रदोह का अभियोग चला 1941 में इन चारों को दो-दो करके दो दिन में फांसी चढ़ा दिया गया। राजतन्त्र समाप्ति के बाद आज काठमाण्डू शहर में जगह-जगह इनकी मूर्तियाँ लगी हुई है। इनके नाम से सड़कें, चौक, रङ्गशालाएँ अनेक स्थल बने हुए हैं। आज नेपाल के अन्दर इनको श्रेष्ठ बलिदानियों में गिना जाता है। ये सब देखते हुए हम काठमाण्डू की  विश्वस्तरीय धरोहर नेपाल देश की शान का प्रतीक थरारा टावर देखने गये जिसकी स्थापना 1832 में सैनिक सुरक्षा की दृष्टि से की गई थी। यह टावर बहुत ऊँचा था, इस पर खड़े होकर सैनिक पहरा दिया करते थे। अब यह स्थान राष्ट्रीय स्मारक के  रूप में था। सैंकड़ों लोग प्रतिदिन इसे देखने आते थे। जिस दिन पहली बार भूकप आया वह शनिवार का दिन था, नेपाल में शनिवार को ही राष्ट्रीय अवकाश रहता है। बहुत सारे स्कूली बच्चे भी इसे देखने आये थे, सरकारी आँकड़े बताते हैं कि उस समय 250 टिकिट खरीदे जा चुके थे, अधिकांश लोग अन्दर ही थे ईश्वर ही जाने कितने जीवित बचे होंगे?

20 मई को हम लोग आचार्य नन्दकिशोर जी की प्रेरणा से एक विशेष स्थान पुराना नगर साखूँ गये, जो काठमाण्डू से लगभग 20 किमी. की दूरी पर था। यह एक पुराना व विशाल नगर था, तीन-तीन, चार-चार मंजिल पुरानी इमारतें यहाँ पर रही होंगी, यह नेपाल का एक पुराना व सपन्न बाजार रहा होगा। जब हम लोग वहाँ पहुँचे तो वहाँ का दृश्य हृदय दहला देने वाला था, लगभग 90 मकान ध्वस्त थे, पूरा नगर एक मलबे के ढेर में बदल चुका था, जो कुछ भवन बचे थे- उनको भी सेना के द्वारा गिराया जा रहा था क्योंकि बड़ी-बड़ी दरारें पड़ जानें से वे बड़े भयंकर विशाल राक्षस की तरह मुहँ खोले प्रतीत होती थी, न जाने कि स वक्त किसको निगल जाए। अतः भवनों को भी गिराया जा रहा था। नेपाली सेना के अतिरिक्त, रुस की सेना भी वहाँ दिखाई दी, अमेरिका का सामाजिक संगठन भी वहाँ कार्य कर रहा था, चीन इत्यादि देशों के चिकित्सक चिकित्सा कर रहे थे तो चीनी नाई पीडितों के बाल काटते भी नजर आये। एक दृश्य बडा करुणामय दिखाई देता था, उन पूर्ण रूप से ढह चुक घरों में से उनके मालिक कपड़े, टूटे-फूटे बर्तन या अन्य वस्तुएँ इकट्ठी करते दिखाई दिए। इस आशा के साथ इन वस्तुओं को निकाल रहे थे कि शाायद इस संकट की घड़ी में इन वस्तुओं से ही कुछ सहायता मिल जाएगी।

पाखण्ड का रूप कितना वीभत्स एवं विकराल हो सकता है, यह जानने हेतु 21 मई को हम लोग प्रसिद्ध दक्षिण काली का मन्दिर देखने गये, जो काठमाण्डू से लगभग 30 किमी. की दूरी पर मनमोहक हरी-भरी पर्वत चोटियों के बीच स्थित था। पास ही से पर्वतों से निकल कर कल-कल करती सरिता बहती थी, यहाँ हजारों लोग प्रतिदिन आते थे, तीन-तीन रास्तों से दर्शनार्थियों क ी पंक्ति लगती थी परन्तु वास्तव में ये कोई उपासना स्थल नहीं था, ये तो एक प्रकार का धार्मिक बूचड़खाना था, जहाँ पर सुबह से शाम तक सैंकड़ों निरीह-निर्बल पशु-पक्षियों, बकरे-मुर्गे इत्यादि प्राणियों का संहार (हत्या) धर्म के नाम पर किया जाता है। भूकप के कारण सब सुनसान था। दुकानें सब बन्द थी परन्तु बंद दुकानों के भी अवलोकन से ये ज्ञात हुआ कि फूल-प्रसाद की दुकानें बाद में थी सबसे पहले रास्ते के दोनों ओर की दुकानों पर बड़े-बड़े पिजरे रखे हुए थे, जिनमें मुर्गों-बकरों को बेचने के लिए बन्द रखा जाता था, मन्दिर में बलि स्थान ठीक काली माता मूर्ति के पीछे था, यहाँ इनके गर्दन काटने के बाद सामने एक दूसरा स्थान था, जहाँ पर बोर्ड लगा था मुर्गा के माँस के टुक ड़े करने के लिए 50/- तथा बकरे के शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े करने के 300/-रूपये। माँस कटता रहता है तथा पानी की नलियों द्वारा उस रक्त को उस स्वच्छ जल धारा में बहा दिया जाता है ये है हिन्दू धर्म का स्वरूप….। एक विशेष घटना और इसी प्रकार की है नेपाल के तराई के क्षेत्र में बिहार की सीमा से लगता हुआ एक स्थान है, जहाँ पर एक गढ़ी माता का मन्दिर है, इस स्थान पर चार वर्ष में एक विशेष मेला लगता है, जहाँ पर कई एकड़ भूमि में कई लाख पशुओं की सामूहिक बलि दी जाती है। इस वर्ष भी लगभग 5 लाख कटड़े-भैंसों की बलि दी गई। 5 लाा की संया तब रही जब भारत सरकार ने सीमा पर प्रतिबन्ध लगाया कि इस बलि के लिए भारत से पशुओं को न जाने दिया जाए। क्योंकि बलि के लिए अधिकांश पशु बिहार व उत्तरप्रदेश से जाता था और यदि प्रतिबन्ध न रहता तो कल्पना कर सकते थे कि बिना प्रतिबन्ध के कितना पशु धर्म के नाम पर कटता होगा। मैं तबसे एक बात अपने व्यायान इत्यादि में कहा करता हूँ कि दुनियाँ में जो गलत कार्य (पाप) सामान्य स्थिति में नहीं कर सकते, वे सब धर्म की आड़ में होते हैं। भांग पीने वाला भोले बाबा की जय बोलकर, शराब पीने वाला काली या ौरव बाबा की, लीला रचाने वाले कृष्ण-गोपियो की जय बोलकर इन अनैतिक कृत्यों को करते हैं। जब सुनामी लहरें आयी थी, उस समय भू-गर्भ वैज्ञानिकों के पत्र-पत्रिकाओं में लेख आये थे कि ये इस तरह की जो प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं, उनमें ये प्रतिदिन होने वाली निरीह पशुओं की हत्या के कारण जो उनकेाय के कारण निकलने वाली चीत्कार, करुणामयी रुदन के द्वारा जो कपन पैदा होता है, वह भी प्रकृति में असन्तुलन पैदा करता है।

त्रासदी से पीड़ित और दुर्गम स्थानों पर कठिनाइयाँ झेल रहे लोगों तक राहत सामग्री पहुँचाना अपने आप में एक अति कठिन काम था। सभा के आदेश से हमने  वही कार्य करने की ठान ली। 23 मई को हम लोग प्रातः 3 बजे जग गये क्योंकि चार (4) बजे हमको राहत वितरण हेतु अपने निश्चित स्थान पर पहुँचना था। हम लोग शौचादि से निवृत्त होकर बिना नहाएँ ही क्यों उस दिन पानी बहुत थोडा था, ठीक चार बजे जहाँ पर गाड़ी जानी थी, वहाँ पहुँच गये। लगभग 4:30 बजे प्राप्तः मैं (कर्मवीर), आचार्य नन्दकिशोर जी, ब्र. प्रभाकर जी, ब्र. सोमेश जी, पं. कमला कान्त आत्रेय जी, पं. माधव जी (प्राध्यापक), पं. तारा जी ये दोनों लोग गुरुकुल कांगडी के स्नातक हैं तथा राजकुमार जी आदि अन्य एक दो व्यक्ति बस में सवार होकर चल दिए। रास्ते के लिए कुछ सूखी खाद्य सामग्री साथ ले राी थी। लगभग 7:30 बजे एक जगह मार्ग में ही रुक कर प्रातःराश किया फिर शीघ्र ही चल दिये, लगभग 11:30 बजे सिंगेटी बाजार पहुँचे, रास्ता बड़ा ही दुर्गम था, लगभग 100 किमी. का तो रास्ता ऐसा था जिसमें केवल अभी पत्थर डले थे सड़क पक्की नहीं बनी थी, इस पर चलते रहे सिंगेटी पहुँचने से काफी पहले ही सड़क के दोनों ओर के मकान प्रायः ध्वस्त पड़े दिखाई देते थे। सिंगेटी पहुँचे, यहाँ भी यही हाल था। लगभग पूरा नगर ध्वस्त था, कोई भी मकान-दुकान ठीक नहीं बचा था, वहाँ पर कृष्ण जी आर्य पहले से उपस्थित थे। उन्होंने एक दुकान से सामान खरीद कर एक ट्रक गाडी में रखवाकर उस गाँव में भेज दिया था। जिस दुकान से सामान खरीदा था वो काफी टूटी हुई थी। किसी प्रकार से कुछ सामान सुरक्षित था। उस दुकानदार का भुगतान कर हम चल दिए। इसी स्थान पर एक होटल था, भूकप से पूर्व यहाँ बहुत पर्यटक आते थे। होटल में लगभग 35 लोग रुके हुए थे, होटल पहाड़ की एकदम तलहटी में था, पहाड़ से भूकप के कारण विशाल पत्थर गिरे, सारा होटल पत्थरों के नीचे दब गया, अभी तक मलबा भी नहीं हटाया गया था, सभवतः सारी लाशें उसी के अन्दर दबी पड़ी होंगी। भूकप से जितनी हानि नेपाल में हुई है, उसकी भरपाई तो विश्व के सपन्न राष्ट्र मिलकर करें तब कुछ भरपाई हो सकती है। परोपकारिणी सभा की जागरूकता इस बात से स्पष्ट होती है कि अपनी सामर्थ्यानुसार सहायता बिना विलब किये पहुँचाई, बड़ी संया में लोगों तक पहुँचाई और तत्परता के साथ पहुँचाई।

सिंगोटी बाजार से जहाँ हमें जाना था, वह गाँव इस स्थान से 7 किमी. की ऊँची पहाड़ी पर था। रास्ता कच्चा व बड़ा खतरनाक था। जब हमारी गाड़ी उस पहाड़ पर चढ़ रही थी तो कई बार ऐसा प्रतीत हुआ कि शायद यह यात्रा जीवन की अन्तिम यात्रा हो। इस चढ़ाई की कठिनाई का पता इस बात से भी लगाया जात सकता है कि 7 किमी. के इस दुर्गम रास्ते से सामान पहुँचाने के ट्रक वाले ने 8000/- नेपाली रूपये (भारतीय 5 हजार) लिए। वास्तव में यह पाँच हजार रूपये 7 किमी. के नहीं एक बड़े जोखिम (खतरे) के थे। हम लोग पहाड़ पर लामीडाँडा नामक गाँव पहुँचे, वहाँ पर बहुत लोग उपस्थित थे, सब लोग हमको देखकर बड़े प्रसन्न हुए। सब लोग हमारी व्याकुलता से प्रतीक्षा कर रहे थे। सभी परिवारों को पहले से कूपन वितरित कर दिये गये थे। परिवार का एक सदस्य कूपन लेकर आता तथा धन्यवाद देकर सामान लेकर चला जाता। यहाँ पर कोई सज्जन महानुभाव हमसे कई दिन पहले पहुँचे थे, उन्होंने भी सभी परिवारों को 7-7 किग्रा. चावल वितरित किये थे। कृष्ण जी भी इसी गाँव के रहने वाले थे। अपने घर पर ही भोजन की व्यवस्था कर रखी थी, हम सभी ने भोजन किया, बड़ा स्वादिष्ट भोजन घर की माताओं ने बड़े प्रेम से कराया। इसी गाँव के लगभग सभी घर गिर चुके थे। ग्रामवासी या तो टैंटों में या फिर गिरे हुए मकानों की टीन इत्यादि को इकट्ठी कर पेडों से लकडी काट अस्थाई घर बनाकर रह रहे थे।

यहाँ से लगभग तीन बजे हम लोग काठमाण्डू के लिए चले, कुछ दूर ही चले कि गाड़ी खराब हो गई। सब लोग तो गाड़ी ठीक होने की प्रतीक्षा करते रहे, मैं प्रभाकर जी, सोमेश जी पैदल ही पहाड़ी रास्ते से जल्दी-जल्दी उतरकर नीचे बहती कोसी नदी में स्नान किया, तब तक गाड़ी भी ठीक होकर आ गई, हम लोग देर रात 11 बजे काठमाण्डू आर्य समाज पहुँच गये।

24 मई की सांय 7 बजे हम लोग अपने देश की तरफ चले प्रातः 5 बजे हम सोनौली भारत नेपाल की सीमा पहुँचे, वहाँ से एक जीप पकड़कर गोरखपुर पहुँचे, वहाँ से ब्र. सोमेश जी रेलगाडी से मैनपुरी के लिए चले गये। हम लोग बस पकड़कर लखनऊ पहुँचे। आचार्य नन्दकिशोर जी ने यहाँ से दिल्ली के लिए तथा ब्र. प्रभाकर जी ने बिजनौर के लिए बस पकड़ी तथा मैंने लखनऊ से जयपुर के लिए बस पकड़ी। कानपुर पहुँचकर जाम में बस फँस गई, वहाँ से चले इटावा में रात्री में बस खराब हो गई, वहाँ से चले आगे चलकर आगरा से आगे बस का टायर पंचर हो गया, यहाँ से आगे चले पता चला कि गुर्जर आन्दोलन के कारण आगरा जयपुर हाईवे बन्द कर दिया गया। गर्मी भी त्वचा जला देने वाली थी, इस प्रकार काठमाण्डू से अजमेर बस तक का सफर 2 दिन, दो रात (48 घन्टे) में तय किया। गर्मी के कारण कष्ट भी बहुत हुआ। पर मन में संतोष था कि हाँ कुछ अच्छा करते हुए द्वन्द्वों को सहन करना ही तप है, जो मानव जीवन की उन्नति का कारण है।

इसी पूरी यात्रा से एक विशेष अनुभव हुआ कि हमें कभी भी किसी प्रकार का धन-बल, शारीरिक बल, जल बल, रूप आदि पर कोई घमण्ड नहीं करना चाहिए क्योंकि न जाने किस वक्त इस परिवर्तनशील संसार में क्या घटना घट जाए। क्षणों की आपदा करोड़पतियों को सड़क पर खड़ा कर देती है। भूख-प्यास के मारे कटोरा हाथ में आ जाता है। शारीरिक बलवान बैसााियों पर आ जाते हैं, रूपवान ऐसे कुरूप हो जाते हैं कि उनकी तरफ कोई देखना तक नहीं चाहता। परमात्मा से प्रतिक्षण यही प्रार्थना करनी चाहिए कि ईश्वर हमें शक्ति-भक्ति-सामर्थ्य प्रदान करे कि यह शरीर सदा दूसरों की सेवा कर सके। इति।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

नया सांस्कृतिक धार्मिक आक्रमणः- – राजेन्द्र जिज्ञासु

आर्यसमाज के जन्मकाल से ही इस पर आक्रमण होते आये हैं। राजनैतिक स्वार्थों के  लिए राजनेताओं तथा राजनीतिक दलों ने भी समय-समय पर आर्य समाज पर निर्दयता से वार किये। विदेशी शासकों, देसी रजवाड़ों व विरोधियों ने भी वार किये। कमी किसी ने नहीं छोड़ी। समाज सुधार विरोधी पोंगा-पंथियों ने भी समय -समय पर डट कर वार किये। घुसपैठ करके कई एक ने आर्यसमाज का विध्वंस करने के लिए पूरी शक्ति लगा दी। गांधी बापू ने वेद पर, सत्यार्थप्रकाश पर, ऋषि दयानन्द व स्वामी श्रद्धानन्द पर बहुत चतुराई से प्रहार किया था। आर्य नेताओं तथा विद्वानों ने बड़े साहस से यथोचित उत्तर दिया। जवाहर लाल नेहरु ने भी लखनऊ में आर्यसमाज के महासमेलन में आर्य समाज पर घिनौना आक्रमण किया था। यह सन् 1963 की घटना है। तब भी आर्य समाज ने नकद उत्तर दिया था।

अब संघ परिवार एक योजनाबद्ध ढंग से अपनी पंथाई विचारधारा देश पर थोपने में लगा है। आर्यसमाज पर सीधा-सीधा आक्रमण होने लगा है। भाजपा के नये-नये मन्त्री-तन्त्री इस काम में जुट गये हैं। देहली में स्वामी विवेकानन्द की आड़ में श्री वी.के. सिंह ने अपनी सर्वज्ञता दिखाई। फिर गुरुकुल आर्यनगर हिसार के उत्सव पर हरियाणा के मन्त्रियों ने वही कुछ करते हुए संघ का जी भर कर बखान किया। इसके लिए गुरुकुल के प्रधान महाविद्वान्? सुमेधानन्द जी बधाई के पात्र हैं। वह भाजपा का ऋण चुकाने में लगे हैं।

  1. दत्त तथा चटर्जी नाम के दो बंगाली इतिहासकारों ने अपने ग्रन्थ में लिखा है कि महर्षि दयानन्द प्रथम भारतीय थे जिन्होंने भारत भारतीयों केलिए घोष लगाया या सुनाया। स्वदेशी व स्वराज्य के इस घोष लगाने से उस युग का कौन-सा नेता व धर्मगुरु ऋषि दयानन्द के समकक्ष था? बड़ा होने का तो प्रश्न ही नहीं।
  2. जब स्वामी विवेकानन्द को कोई नरेन्द्र के रूप में भी अभी नहीं जानता था तब मथुरा की कुटी से दीक्षा लेकर महर्षि दयानन्द पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र में गायत्री व यज्ञ हवन प्रचार, स्त्रियों को वेद का अधिकार, जाति भेद निवारण, अस्पृश्यता उन्मूलन व स्वदेशी का शंखनाद करने में लगे थे। उस काल में विदेश में निर्मित चाकूके प्रयोग से महर्षि का मन आहत हुआ। विदेशी वस्त्रों को तजकर ऊधो को स्वदेशी वस्त्रों के धारण करने की इसी काल में प्रेरणा दी गई। इससे पहले किसने स्वदेशी आन्दोलन का शंखनाद किया? स्वदेशी वस्तुओं व वस्त्रों के प्रयोग में सभी नेता व विचारक ऋषि दयानन्द को नमन करते आये हैं। अब संघ परिवार ने नया इतिहास गढ़ना आरभ किया है। जो मैक्समूलर तथा नेहरु न कर पाया वह भागवत जी के चेले करके दिखाना चाहते हैं।
  3. उन्नीसवीं शतादी के बड़े-बड़े विद्वान्, सुधारक और नेता प्रायः करके गोरी सरकार व गोरों की सर्विस में रहे। पैंशनधारी भी कई एक थे। स्वामी विवेकानन्द जी ने तो अंग्रेज जाति की कभी भूरि-भूरि प्रशंसा भी की थी। गांधी जी की दृष्टि में सूर्य के तले और धरती के ऊपर अंग्रेज जाति जैसा न्यायप्रिय और कोई है ही नहीं। महर्षि दयानन्द ने किसी सरकार की, किसी राजा, महाराजा की नौकरी नहीं की। अंग्रेज जाति व अंग्रेज सरकार का कभी स्तुतिगान नहीं किया। हाँ। धर्मप्रचार की स्वतन्त्रता के लिए मुगलों की तुलना में वे अंग्रेजी राज की प्रशंसा करते थे।

न जाने किस आधार पर संघ परिवार स्वामी विवेकानन्द को उन्नीसवीं शतादी का सबसे बड़ा महापुरुष बताते हुए ऋषि दयानन्द को नीचा दिखाने पर तुला बैठा है। आश्चर्य का विषय है कि समर्थ गुरु रामदास व छत्रपति शिवाजी का गुणकीर्तन छोड़कर संघ ने स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श कैसे मान लिया?

स्वामी विवेकानन्द ने एक बार यह भी कहा था कि मुझे कायस्थ होने पर अभिमान या गौरव है। जो जन्म की जाति-पाँति पर इतराता है वह कितना भी बड़ा क्यों न हो वह आदर्श साधु महात्मा नहीं हो सकता। साधु की कोई जात व परिवार नहीं होता।

  1. अंग्रेजी न्यायालय का (Contempt of court) अपमान करने वाला सबसे पहला भारतीय महापुरुष महर्षि दयानन्द था। उन्हीं से प्रेरणा पाकर महात्मा मुंशीराम जी (स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज) ने हुतात्मा कन्हाई लाल दत्त के अभियोग के समय बड़ी निड़रता से अंग्रेजी न्यायालय का अपमान ((Contempt of court)ç किया था। क्या किसी बड़े से बड़े नेता को इन दो ऐतिहासिक तथ्यों का प्रतिवाद करने की हिमत है?

ऋषि दयानन्द के काल की तो छोड़िये, महर्षि के बलिदान के पच्चीस वर्ष पश्चात् तकाी कोई भी भारतीय नेता अंग्रेजी न्यायपालिका (British Judiciary)का अपमान नहीं कर सका। न जाने संघ परिवार को महर्षि दयानन्द की यह विलक्षणता, गरिमा, बड़प्पन, देशप्रेम व शूरता क्यों नहीं दिखाई देती?

  1. किसी भी अन्य भारतीय महापुरुष द्वारा उस युग में न्यायपालिका के अपमान की घटना सप्रमाण दिखाने की विवेकानन्दी बन्धुओं को हमारी खुली चुनौती है। लोकमान्य तिलक को उन्नीसवीं शतादी के अन्तिम वर्षों में क्राफर्ड केस में अंग्रेजी न्यायालय ने दण्डित किया था। उन्हें बन्दी बनाया गया। सब नेता न्यायालय के निर्णय को माँ का दूध समझकर पी गये। कांग्रेस तब देश व्यापी हो चुकी थी। कौन बोला न्यायालय के इस घोर अन्याय पर? देशवासी नोट कर लें कि तब शूरता की शान स्वामी श्रद्धानन्द जी ने महात्मा मुंशीराम के रूप में इस निर्णय पर विपरीत टिपणी की थी। महात्मा जी की वह सपादकीय टिप्पणी हमारे पास सुरक्षित है।
  2. महर्षि दयानन्द जी सन् 1877 के सितबर अक्टूबर मास में जालंधर पधारे थे। तब आपने एक सार्वजनिक सभा में अपनी निर्भीक वाणी से दुखिया देश का दुखड़ा रखते हुए अंग्रेजी राज के अन्याय, पक्षपात तथा उत्पीड़न को इन शदों में व्यक्त किया थाः- ‘‘यदि कोई गोरा अथवा अंग्रेज किसी देशी की हत्या कर दे तथा वह (हत्यारा) न्यायालय में कह दे कि मैंने मद्यपान कर रखा था तो उसको छोड़ देते हैं।’’

इस व्यायान का सार सपूर्ण जीवन चरित्र महर्षि दयानन्द के पृष्ठ 73 पर कोई भी पढ़ सकता है। हुतात्मा पं. लेखराम जी ने स्वामी विवेकानन्द जी के जीवन काल में अपने ग्रन्थ में यह पूरी घटना दे दी थी।

ऐसी निर्भीक वाणी उस युग के किसी भी साधु, सन्त व राजनेता के जीवन में दिखाने की क्या कोई हिमत करेगा?

जालन्धर के इसी व्यायान में ऋषि दयानन्द जी ने सन् 1857 की क्रान्ति को गदर (Mutiny) न कहकर विप्लव कहकर अपने प्रखर राष्ट्रवाद का शंख फूं का था। स्वातन्त्र्य वीर सावरकर जी ने वर्षों बाद हमारा प्रथम स्वातन्त्र्य संग्राम ग्रन्थ लिखकर घर-घर ऋषि की हुँकार पहुँचा दी। अंग्रेजी जानने वाले किसी और बाबा व नेता में तो इतनी हिमत न हुई।

  1. जब देशभक्त सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी को कारावास का दण्ड सुनाया गया तब महर्षि दयानन्द के मिशन के एक मासिक पत्र में सरकारी न्यायालय के इस अन्याय की निन्दा की गई। क्या किसी सन्यासी महात्मा ने देश में सुरेन्द्रनाथ जी के पक्ष में मुँह खोला या लिखा । हम इस घटना के प्रमाण स्वरूप अलय Document दस्तावेज दिखा सकते हैं।

दुर्भाग्य का विषय है कि आर्य समाज भी ऋषि की इन घटनाओं को विशेष प्रचारित (Highlight) नहीं करता।

  1. देश को सुनाना बताना होगा कि उन्नीसवीं शतादी के महापुरुषों में एकमेव सुधारक विचारक ऋषि दयानन्द थे जिन्होंने देश, धर्म व जाति हित में अपना बलिदान देकर बलिदान की परपरा चलाई। किसी और संगठन, किसी बाबा की परपरा में एक भी साधु, युवक, बाल, वृद्ध गोली खाकर, फांसी पर चढ़कर, छुरा खाकर, जेल में गल सड़कर देश धर्म के लिए बलिवेदी पर नहीं चढ़ा। यहाँ पं. लेखराम जी से लेकर वीर राम रखामल (काले पानी में), वीर वेदप्रकाश, भाई श्यामलाल और धर्मप्रकाश, शिवचन्द्र तक शहीदों की एक लबी सूची है। सेना प्रमुख श्रीयुत वी.के.सिंह तथा आर्यनगर हिसार में सुमेधानन्द महाराज की बुलाई नेता-पलटन इतिहास को क्या जाने?
  2. महर्षि दयानन्द का पत्र व्यवहार पढ़िये। प्रत्येक दो या तीन पत्रों के पश्चात् प्रत्येक पत्र में देश जाति के उत्थान कल्याण की ऋषि बात करते हैं। किसी अंग्रेजी पठित साधु, नेता के जीवन चरित्र व पत्रावली में ऐसा उद्गार, ऐसी पीड़ा और गुहार दिखा दीजिये। ऋषि दयानन्द की देन व व्यक्तित्व का अवमूल्यन करने वाले सब तत्त्वों को यह मेरी चुनौती है कि इन दस बिन्दुओं को सामने आकर झुठलावें।

‘रक्षा बन्धन अन्याय न करने और अन्याय पीढि़तों की रक्षा करने का संकल्प लेने का पर्व है’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

प्रत्येक वर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन रक्षा बन्धन का पर्व सभी सुहृद भारतीयों द्वारा विश्व भर में सोत्साह मनाया जाता है। समय के साथ प्रत्येक रीति रिवाज व परम्परा में कुछ परिवर्तन होता रहता है। ऐसा ही कुछ परिवर्तन रक्षा बन्धन पर्व में हुआ भी लगता है। भारत में मुस्लिम काल में जब आक्रमण, मन्दिरों की लूट, देशवासियों का अपमान, अन्यायपूर्ण व बलपूर्वक धर्मान्तरण और निर्दोषों की हत्यायें होने लगीं तो इन अन्यायों से रक्षा की आवश्यकता हिन्दू समाज को अनुभव होने लगी। इसका उपाय यही हो सकता था कि वह संगठित होते ओर सामाजिक स्तर पर परस्पर रक्षा के सात्विक व पवित्र सम्बन्ध में बंधते। ऐसा ही हुआ होगा, इसी कारण हमारी आर्य जाति आज भी संसार में विद्यमान है अन्यथा जितने आक्रमण, अन्याय, शोषण व अत्याचार इस हिन्दू जाति पर विदेशियों व विधर्मियों ने मध्यकाल व बाद के वर्षों में हुए हैं, उनके कारण यदि इस जाति का अस्तित्व समाप्त भी हो जाता, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। अतः आज का दिन हमें अपने इतिहास को स्मरण करने व उससे शिक्षा लेने का है। अपना अज्ञान दूर कर ज्ञान व सत्य के आधार पर मनुष्य समाज को संगठित करना ही संसार के प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। यह यद्यपि अतीत का भी धर्म व कर्तव्य था, परन्तु इसके विपरीत हमें अमानवीय कृत्य से भरा इतिहास प्राप्त हुआ है। हम वर्तमान और भविष्य को बदल सकते हैं। अतः अतीत की घटनाओं को स्मरण कर अपनी निजी व सामाजिक कमियों व त्रुटियों को दूर कर दूसरों पर अन्याय व अत्याचार न करना और न ही सहन करना की भावना का प्रचार होना ही रक्षा बन्धन पर्व का यथार्थ सन्देश विदित होता है।

 

रक्षा बन्धन में बहिनें भाइयों को रक्षा सूत्र बांधती हैं। इसमें क्या सन्देश है जो आज भी प्रासंगिक है। इस पर विचार करने से यह तथ्य सामने आता है कि अतीत में जब स्त्री जाति पर दुष्ट व अमानुष पुरूषों के अत्याचार हुए तो उन्हें रक्षा की आवश्यकता अनुभव हुई। ऐसा कौन सा व्यक्ति हो सकता था जो उनकी रक्षा करता और यदि प्राणों को भी न्योछावर करना पड़ता तो उसमें भी वह पीछे न हटता। इसका एक ही उत्तर है कि यह कार्य किसी भी बहिन का भाई ही कर सकता है। माता पिता वृद्ध होने के कारण शक्ति सम्पन्न युवा दुष्ट पुरुषों को उनके दुष्कृत्यों का सबक नहीं सिखा सकते। यह काम सदाचारी व धार्मिक प्रवृत्ति के युवक ही कर सकते थे और वह उनके भाई ही हो सकते थे। इसी आधार पर रक्षा बन्धन पर्व की नींव पड़ी। हमें यह भी अनुभव होता है कि इस पर्व व प्रथा से हमारे देश की न केवल स्त्री जाति की ही रक्षा हुई अपितु हमारे धर्म व संस्कृति की रक्षा भी हुई है। यद्यपि आज हमारे सामने इतिहास उपलब्ध नहीं है परन्तु हमें यह स्पष्ट अनुभव होता है कि अनेक भाईयों ने इस कार्य के लिए अपने प्राणों की आहुतियां भी दी होगी। अतः रक्षा बन्धन पर्व बनाते हुए हमें जहां अपनी सहोदर बहिनों की रक्षा का संकल्प लेना है वहीं समाज की समस्त स्त्री जाति के प्रति रक्षा की भावना अपनी आत्मा में उत्पन्न करनी है। यह संकल्प रूपी संस्कार ही रक्षा बन्धन पर्व को मनाने को सार्थकता प्रदान करता है। दूसरा संकल्प यही है कि हमें न तो अन्याय सहना है और न ही दूसरों पर किसी प्रकार का अन्याय करना है। इसी में यह भी जोड़ा जा सकता है कि हमें समाज के उच्च व श्रेष्ठ विचार के लोगों को संगठित कर एक ऐसा सामाजिक कवच तैयार करना है कि दुष्ट लोग किसी अबला, स्त्री व असहाय व्यक्ति के प्रति किसी भी प्रकार का अत्याचार व अन्याय न कर सके। आर्य समाज को स्थापित करने के अनेक कारणों में से एक कारण यह भी रहा।

 

रक्षा बन्धन के पर्व से कुछ ऐतिहासिक घटनायें भी जुड़ी हुई हैं। आर्य जगत के प्रख्यात विद्वान पं. भवानी प्रसाद जी ने इस पर संक्षिप्त प्रकाश डाला है। उसको स्मरण कर लेना भी इस अवसर पर उचित प्रतीत होता है। उनके अनुसार राजपूत काल में अबलाओं के अपनी रक्षार्थ सबल वीरों के हाथ में राखी बांधने की परिपाटी का प्रचार हुआ है। जिस किसी वीर क्षत्रिय को कोई अबला राखी भेजकर अपना राखी-बन्द भाई बना लेती थी, उस की आयु भर रक्षा करना उस का कत्र्तव्य हो जाता था। चित्तौड़ की महारानी कर्णवती ने मुगल बादशाह हुमायूं को गुजरात के बादशाह से अपनी रक्षार्थ राखी भेजी थी, जिससे उस ने चित्तौड़ पहुंचकर तत्काल अन्त समय पर उस को सहायता की थी और चित्तौड़ का बहादुरशाह के आक्रमण से उद्धार किया था। तब से बहुत से प्रान्तों में यह प्रथा प्रचलित है कि भगिनियां और पुत्रियां अपने भ्राताओं और पिताओं के हाथ में श्रावणी के दिन राखी बांधती हैं और वे उन से कुछ द्रव्य और वस्त्र पाती हैं। यदि यह प्रथा पुत्री और भगिनी-वात्सल्य को दृढ़ करने वाली मानी जाए तो उस के प्रचलित रहने में कोई क्षति भी नहीं है।

 

वह आगे कहते हैं कि आजकल की श्रावणी को प्राचीन काल के उपाकर्म-उत्सर्जन, वेद स्वाध्याय रूप ऋषि तर्पण और वर्षाकालीन वृहद् हवन-य़ज्ञ (वर्षा चातुर्मास्येष्टि) का विकृत तथा नाममात्र शेष स्मारक समझना चाहिए और प्राचीन प्रणाली के पुनरुज्जीवनार्थ उस को बीज मात्र मानकर उस को अंकुरित करके पत्रपुष्पसफल समन्वित विशाल वृक्ष का रूप देने का उद्योग करना चाहिए। आर्य पुरुषों को उचित है कि श्रावणी के दिन बृहद हवन और विधिपूर्वक उपकर्म करके वेद तथा वैदिक ग्रन्थों के विशेष स्वाध्याय का उपाकर्म करें और उस को यथाशक्ति और यथावकाश नियमपूर्वक चलाते रहें।

 

आज ही के दिन आर्यसमाज के गुरूकुलों में नये ब्रह्मचारियों के प्रवेश कराने के साथ उपनयन एवं वेदारम्भ संस्कार किये जाते हैं जिसमें आर्य जनता सोत्साह भाग लेती है और नये ब्रह्मचारियों को उनके वेदाध्ययन के व्रत में सहायक बन कर सहयोग देने के साथ उनसे वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा की अपेक्षा करती है। आज के दिन गुरूकुल के संचालकों, आचार्यों एवं अन्य अधिकारियों को गुरूकुल शिक्षा पद्धति पर गोष्ठी करनी चाहिये और गुरूकुल शिक्षा प्रणाली को अधिक प्रासंगिक व प्रभावशाली बनाने के साथ इससे राम-कृष्ण-चाणक्य-दयानन्द बनाने व तैयार करने की योजना बनानी चाहिये जिससे हमारी धर्म व संस्कृति न केवल सुरक्षित रह सके अपितु यह विश्ववारा धर्म व संस्कृति संसार में अपना गौरवपूर्ण स्थान ग्रहण कर सके, उसका प्रयास किया जाना चाहिये। रक्षा बन्धन पर्व की सभी देशवासियों को बधाई।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

अब यह सुनिए मौसम किस तरह बदलते हैं : डॉ. गुलाम जिलानी बर्क ( دو اسلام )

हम और आप तो इतना ही जानते हैं और हकीकत भी यही है कि गर्मी में हम सूरज के करीब होते हैं और सर्दी में दूर . इसलिए गर्मी और सर्दी महसूस करते हैं .

गर्मी में जमीन के खाकी जर्रात गरम हो जाते हैं और चूँकि यह जर्रात पहाड़ों में  कम होते हैं इसलिए वहां मुकाबलतन ठंडक होती है . लेकिन हदीस कहती है :-

“अबू हुरैरा आ हजरत सल्ल्लम से रवायत करते हैं की एक मर्तबा जहन्नम ने खुदा के पास शिकायत की कि मेरा दम घुट जाता है इसलिए मुझे सांस लेने की इजाज़त दीजिये .

अल्लाह ने कहा कि तुम साल में सिर्फ दो सांस ले सकते हो . इसलिए जहन्नम की एक सांस से मौसम गरम और दूसरी में सरद पैदा हो गया .

लेकिन दुनिया की गरमी व सर्दी से जहन्नम की गर्मी व सर्दी बहुत ज्यादा है .”

(बुखारी जिल्द -२ )

 

लेकिन यह समझ में नहीं आया कि हर साल गर्मियों के मौसम में वही इलाके इस सांस की लपेट में क्यूँ आते हैं जो ख़त ए अस्तवा  ( भूमध्यरेखा ) के करीब  हैं . और सारा यूरोप सायबेरिया ग्रीन लैंड और कनाडा क्यूँ बच  जाते  हैं  .

और यह भी तो फरमाया होता कि गर्मियों में पहाड़ों पर क्यूँ गर्मी नहीं होते ? वहां तक इस सांस का असर क्यूँ नहीं  पहुंचता ?

और सर्दियों में  ख़त ए अस्तवा ( भूमध्यरेखा )का इलाका क्यूँ गरम रहता है ?

मालूम होता है कि जहन्नम ने जमीन  को दो हिस्सों में बाँट रखा है .

सर्दियों में वो अहले यूरोप की खबर लेता है और गर्मियों में हमारी.

सच है इन्साफ अच्छी चीज है

یہ  لیخ دو اسلام کتاب  سے لیا گیا ہے

 

 

पूर्व राष्ट्रपति एवं आजीवन शिक्षक कलाम के प्रति श्रद्धाञ्जलि: डॉ धर्मवीर

वर्तमान समय में देश का दुर्भाग्य है कि हमारे समाज में शिक्षक की भूमिका नगण्य मानी जाती है। कुछ समय पहले तक ग्रामीण समाज के लोग शिक्षक के कार्य को कार्य ही नहीं मानते थे। इसके दो उदाहरण स्मरण आ रहे  हैं एक- हरियाणा में मुयमन्त्री बंशीलाल भाषण दे रहे थे- गाँव की सभा में लोगों ने अपने गाँव में विद्यालय खोलने की माँग की, तो मुयमन्त्री का उत्तर था- तुम सड़क बनवा लो, बिजली लगवा लो, गाँव के लिये बस की व्यवस्था करवा लो, जितने भी काम उत्पादकता से जुड़े हैं, उन्हें करने में मैं देर नहीं करुँगा परन्तु विद्यालय जैसे कार्य मेरी प्राथमिकता में नहीं है। इस प्रकार गाँव के एक चौधरी ने बाहर काम कर रहे एक युवक से गाँव में लौटने पर, भेंट के प्रसंग में पूछा- भाई कोई नौकरी मिली या अभी मास्टरी ही कर रहे हो। ये दो उदाहरण हमारी सामाजिक सोच के लिए पर्याप्त हैं। यह ठीक है कि इधर के वर्षों में शिक्षा को लेकर सोच बदला है परन्तु यह सोच भी सही दिशा में नहीं जा रहा। प्रथम तो समाज में शिक्षा दो भागों में विभाजित हो गई है। एक कुलीन  व सपन्न समझे जाने वाले वर्ग के बच्चों को जो शिक्षा मिलती है। ये बच्चे जिन विद्यालयों में जिन अध्यापकों से पढ़ते हैं, वहाँ शिक्षा के प्रति विशेष ध्यान दिया जाता है, इन बालकों में पर्याप्त प्रतिस्पर्धा भी रहती है। इनको अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन करने का पर्याप्त अवसर मिलता है जिनके परिणाम और उपलधियों को देख कर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हमें लगता है कि भारत में शिक्षा का स्तर ऊँचा है, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इन्हीं मेधावी युवकों के कारण भारत की प्रतिष्ठा बढ़ रही है। ये तो भारत के प्रकाशमान भाग का दृश्य है।

भारत की शिक्षा का एक अन्धकारपूर्ण पक्ष है। जहाँ निर्धनता, दरिद्रता के कारण उक्त शिक्षा संस्थानों तक उन बालकों की पहुँच नहीं हो पाती। इन स्थानों पर जो गाँव हैं, ये स्थान नगरों से दूर, नगर की सुविधाओं से वञ्चित अज्ञान, अशिक्षा, निर्धनता से त्रस्त और शिक्षा के अवसरों से वञ्चित हैं। जहाँ मनुष्य मजदूरी, काम के अभाव में या उसकी विवशता में शिक्षा की बात भी नहीं सोच सकता। इन स्थानों पर शिक्षा के लिये किये गये सरकारी प्रयास सरकार की भांति दुर्दशा से ग्रस्त हैं। प्रथमतः इन क्षेत्रों में शिक्षा की व्यवस्था और सुविधा उपलध ही नहीं है। यदि कहीं उपलध है तो इन विद्यालयों में कहीं भवन नहीं, कहीं शिक्षक नहीं, कहीं शिक्षा के उपकरण नहीं। सब कुछ तो, सभव है, इन क्षेत्रों में कहींाी न मिले। हमारी सरकारी शिक्षा-व्यवस्था की दशा इस बात से जानी जा सकती है कि व्यक्ति अध्यापन का सेवा-कार्य राजकीय विद्यालयों में करने का आग्रह करता है परन्तु यदि उसको अपने बच्चों को पढ़ाने का  का अवसर मिलता है तो अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़ाता है। इससे निजी और सरकारी विद्यालयों की शिक्षा का अन्तर समझना सरल है।

शिक्षा के इन केन्द्रों की समस्या यह है कि सरकार ने छात्र बीच में शिक्षा को छोड़कर न जाये, इस विचार से पाँचवी से आठवीं तक छात्रों को अनुत्तीर्ण न करने का निर्देश दिया हुआ है। इसका परिणाम है कि राजकीय विद्यालयों में छात्र न पढ़ते हैं और जो आते भी हैं तो वे पढ़ना नहीं चाहते। आज सुधार के नाम पर विद्यालयों की ऐसी दुर्दशा हो गई है। अध्यापक न पढ़ने पर, विद्यालय न आने पर, पाठ न सुनाने पर छात्रों को डांट भी नहीं सकता। यदि किसी अध्यापक ने कुछ प्रयास किया तो बात माता-पिता से होकर पुलिस तक पहुँच जाती है। ऐसी परिस्थिति में अध्यापक अपने प्रयासों को छोड़ देता है। सरकार पिछड़ी जातियों के लिए छात्रवृत्ति एवं छात्रावास की सुविधा देती है परन्तु घर और विद्यालयों का वातावरण शिक्षा के अनुकूल न होने के कारण अधिकांश छात्र इन सुविधाओं का सदुपयोग नहीं कर पाते।

शिक्षा की दशा  समझने के लिये एक उदाहरण पर्याप्त होगा। जैसा ऊपर बताया गया कि व्यक्ति शिक्षा की नौकरी तो राजकीय चाहता है परन्तु विद्यालय का स्तर न अध्यापक, न अधिकारी, न सरकार ही सुधारना चाहती है। उदाहरण दिल्ली प्रदेश का है। शीला सरकार ने एक बार विचार किया कि राजकीय विद्यालयों का परीक्षा परिणाम सन्तोषजनक नहीं रहता तो अच्छा होगा इन विद्यालयों का प्रबन्ध निजी हाथों में सौंप दिया जाय। यह तो अध्यापकों के लिए खतरे की घण्टी थी। राजकीय विद्यालयों ने इस समस्या का तत्काल समाधान खोज लिया। जब दसवीं की परीक्षा हुई, मुयाध्यापकों के निर्देशन में अध्यापकों ने छात्रों के साथ भरपूर सहयोग किया और उस वर्ष का राजकीय विद्यालयों का परिणाम सुधर गया। अध्यापकों पर लटक रही तलवार हट गई। शिक्षा का स्तर भी सुधर गया, समस्या का हल भी हो गया। अब विचारने की बात है कि दिल्ली जैसे प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था ऐसी है तो शेष देश की क्या परिस्थिति होगी?

यहाँ तक ही शिक्षा की समस्या का अन्त नहीं होता। यथार्थ तो यह है कि शिक्षा की वास्तविक समस्या यहाँ से प्रारभ होती है। शिक्षा इस देश में अनेक प्रकार की है। एक महंगी शिक्षा, दूसरी सस्ती शिक्षा। महंगी शिक्षा वाले लोग अपने को इस देश का प्रथम श्रेणी का नागरिक मानते हैं। ऐसे लोग अपने बच्चों को दूसरी श्रेणी के बच्चों से बराबरी नहीं करने देना चाहते। प्रथम प्रयास में महंगी शिक्षा की तुलना में सस्ती शिक्षा में पढ़ा हुआ छात्र अपने आप पिछड़ जाता है तथा अपने को पिछड़ा मान लेता है। इससे आगे इस देश की सरकार ने शिक्षा को एक बाधा दौड़ बना रखा है। जो बालक पहली महंगी-सस्ती बाधा दौड़ किसी प्रकार पार कर लेता है, अपनी प्रतिभा से किसी सामाजिक, सरकारी, व्यक्तिगत सहायता से इस बाधा को पार कर लेता है, उसके सामने आगे की पढ़ाई के लिये दूसरी मुय बाधा भाषा की आती है। इन तथाकथित सभ्रान्त विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने से ग्रामीण और सरकारी विद्यालयों के बालक प्रतिभा सपन्न होने पर भी वे अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में पढ़े छात्रों की प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाते हैं। अधिकांश को अपनी शिक्षा अधूरी छोड़कर, अन्य क्षेत्रों में आजीविका अपनानी पड़ती है। देश की बहुसंयक जनता के बालकों के साथ हो रहे अन्याय को कोई अनुभव नहीं करना चाहता, उपाय करना तो दूर की बात है।

उच्च शिक्षा के सारे पाठ्यक्रम अंग्रेजी के माध्यम से पढ़ाये जाते हैं, जो व्यक्ति डॉक्टर, वकील, इञ्जीनियर, प्रशासक, व्यवस्थापक, अध्यापक, अनुसन्धानकर्त्ता कुछ भी बनना चाहे वह अंग्रेजी के बिना बन ही नहीं सकता। जो लोग हिन्दी या देश भाषा को पिछड़ा मानते हैं या कहते हैं, वे यह क्यों छिपाते हैं कि स्वतन्त्रता के बाद अंग्रेजी को बढ़ाने का जितना यत्न किया गया, उससे अधिक प्रयत्न हिन्दी को और प्रान्तीय भाषाओं को दबाने का किया गया। फिर एक बात सोचने की है, क्या पराधीन रहते बहुत दिन हो गये हों तो स्वतन्त्रता के विषय में विचार करना, स्वाधीनता के लिये प्रयत्न करना छोड़ देना चाहिए? जो स्वतन्त्रता की बात देश के लिए की जाती है, वह देश की भाषा के लिए क्यों नहीं की जानी चाहिए, क्या भाषा की स्वतन्त्रता के बिना देश को स्वतन्त्र कहना आत्म प्रवचञ्चना नहीं है? आज जब इस देश के प्रशासन की भाषा, न्यायालयों की भाषा, संसद व विधान मण्डलों की भाषा, विदेशी कपनियों के कारण व्यवसाय की भाषा अंग्रेजी है, ऐसी परिस्थिति में इस देश की जनता के पास गूंगा-बहरा बने रहने के अतिरिक्त क्या विकल्प शेष बचता है। आज की नई सामाजिक व्यवस्था के कारण सभी बातों का व्यावसायीकरण हो रहा है, बहुत कुछ हो गया है। ऐसी स्थिति में शिक्षा का जिस व्यापक रूप में व्यवसायीकरण हो रहा है उसके चलते हम सामान्य बालक को शिक्षित करने की बात सोच भी नहीं सकते। शिक्षा कई अर्थों में आजीविका से भी महत्त्वपूर्ण है। किसी को आजीविका देने मात्र से शिक्षित नहीं किया जा सकता परन्तु शिक्षित कर देने से आजीविका पाने योग्य मनुष्य स्वतः बन जाता है। इस भाषा और साधन, सुविधा, शिक्षक के अभाव में देश की नई पीढ़ी को शिक्षा से वञ्चित करना उसकी बौद्धिक हत्या करने के समान है। भले ही इस हत्या के लिए आपके संविधान में किसी दण्ड का विधान न हो परन्तु पाप होने के कारण इस अपराध को करने वाले परमेश्वरीय दण्ड विधान से नहीं बच सकते। देश के स्वतन्त्र होने के बाद, इस देश का प्रधानमन्त्री और सरकार अंग्रेजों की कृतज्ञ रही है। अंग्रेज की रीति-नीति, भाषा-भूषा, कार्यशैली सभी कुछ वही अपनाया गया। जो विद्यालय ईसाई चर्च के द्वारा चलते थे उन्हीं को आदर्श मान लिया। सरकारी अधिकारियों ने अपने बच्चों को इन विद्यालयों में पढ़ा कर उनका भविष्य सुरक्षित कर लिया। जिस प्रकार कांग्रेस के नेताओं ने अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाकर अंग्रेजों का प्रिय पात्र बनाया और अंग्रेज जाते-जाते ऐसे लोगों के हाथ में इस देश के शासन का सूत्र सौंप गये जिसका परिणाम है कि यह देश आज तक भी पराधीनता के चंगुल से मुक्त नहीं हो सका है। किसी भी देश की आत्मा उस देश की भाषा में बसती है और उसका संस्कार शिक्षा में। आज देश को शिक्षा और शिक्षक के महत्व को समझने की आवश्यकता है। ट्यूशन पढ़ाकर पैसा कमाने वाले अध्यापक ऊँची फीस लेकर शिक्षा की दुकान चलाने वाले शिक्षा के व्यापारी इस बात को नहीं समझ सकते हैं, इस देश के लोग कह सकते हैं भाषा या साधनहीनता मनुष्य के लिये बाधक नहीं बन सकती जैसे कलाम के लिए या नरेन्द्र मोदी के लिये, परन्तु यह हम क्यों भूल जाते हैं कि मोदी या कलाम अपवाद से बनते हैं, नियम से नहीं। इससे अच्छा ऐसा अवसर कौन सा हो सकता है कि हम एक ऐसे व्यक्ति को श्रद्धाञ्जलि दे रहे हैं जो एक बुद्धिमान् वैज्ञानिक था, निष्ठावान देशभक्त था, स्वभाव से संवेदनशील था, पद से देश का पूर्व राष्ट्रपति था और प्रवृत्ति से अध्यापक था। राष्ट्रपति पद छोड़ने के अगले दिन और जीवन के अन्तिम दिन कक्षा में उपस्थित रहा। जिसका प्राणान्त पढ़ाते हुए हुआ, जिसे अध्यापक होने में प्रसन्नता का अनुभव होता था और अध्यापक कहलाने में गर्व। जिनका जीवन सबके लिये प्रेरणाप्रद है। कलाम ने शिक्षकों के लिये जो शपथ बनाई है, उसमें उनकी एक आदर्श अध्यापक वृत्ति लक्षित होती है-

  1. 1. सबसे पहले मैं शिक्षण से प्रेम करुँगा। शिक्षण मेरी आत्मा होगी।
  2. 2. मैं महसूस करता हूँ कि मैं न सिर्फ छात्रों को अपितु प्रज्वलित युवाओं को आकार देने के लिये जिमेदार हूँ, जो पृथ्वी के नीचे, पृथ्वी पर और पृथ्वी के ऊपर सबसे शक्तिशाली संसाधन हैं। मैं शिक्षण के महान मिशन के लिए सपूर्ण रूप से प्रतिबद्ध हो जाऊँगा।
  3. 3. मैं स्वयं को एक महान् शिक्षक बनाने के लिये विचार करुँगा, जिससे मैं अपने विशिष्ट शिक्षण के माध्यम से औसत स्तर के बालक का उत्थान सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने के लिये कर सकता हूँ।
  4. विद्यार्थियों के साथ मेरा कार्य व्यवहार एक माँ, बहन, पिता या भाई की तरह दयावान और स्नेह पूर्ण रहेगा।
  5. 5. मैं अपने जीवन को इस प्रकार से संगठित एवं व्यवहृत करुँगा कि मेरा जीवन स्वयं ही मेरे विद्यार्थियों के लिये एक सन्देश बने।
  6. 6. मैं अपने विद्यार्थियों को प्रश्न पूछने तथा उनमें जिज्ञासा की भावना को विकसित करने को प्रोत्साहित करुँगा ताकि वे रचनात्मक प्रबुद्ध नागरिक के रूप में विकसित हो सके।
  7. 7. मैं सभी विद्यार्थियों से एक समान व्यवहार करूँगा तथा धर्म, समुदाय या भाषा के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव का समर्थन नहीं करुंगा।
  8. 8. मैं लगातार अपने शिक्षण में क्षमता निर्माण करुँगा ताकि मैं अपने छात्रों को उच्च गुणवत्ता की शिक्षा प्रदान कर सकूँ।
  9. 9. मैं अत्यन्त आनन्द के साथ अपने छात्रों की सफलता का जश्न मनाऊँगा।
  10. 10. एक शिक्षक होने के नाते मैं अहसास करता हूँ कि राष्ट्रीय विकास के लिये की जा रही सभी पहल में मैं एक महत्वपूर्ण योगदान कर रहा हूँ।
  11. 11. मैं लगातार मेरे मन को महान् विचारों से भरने तथा चिन्तन व कार्य व्यवहार में सौयता का प्रसार करने का प्रयास करुँगा।
  12. 12. हमारा राष्ट्रीय ध्वज मेरे हृदय में फहराता है तथा मैं अपने देश के लिये यश लाऊँगा।

डॉ. कलाम के हृदय की देश के छात्रों के प्रति संवेदनशीलता और राष्ट्र निष्ठा का इससे बड़ा क्या उदाहरण हो सकता है। इसी प्रकार कलाम के जीवन की बहुत सारी घटनाओं में से एक घटना का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा। तमिलनाडु के वेल्लौर जिले की एक छात्रा सुदारकोडी सुकुमार ने एक बार कलाम से पूछा था- आप इन तीन विशेषणों में से किसको अपने लिये उपयुक्त समझेंगे। प्रथम आप एक वैज्ञानिक है, दूसरा- आप भारतीय तमिल हैं, तीसरा- आप एक मनुष्य हैं। तब कलाम ने उत्तर दिया था- यदि मैं मनुष्य हूँ तो शेष दो मेरे अन्दर स्वतः आ जायेंगे। इतना ही नहीं इस छात्रा को कलाम ने स्मरण रखा और उसके प्रश्न को अपनी आत्मकथा का शीर्षक बनाकर पुस्तक विमोचन के समय उसको बुलाया।

ऐसे व्यक्ति के लिए सच्ची श्रद्धाञ्जलि देश अपने सभी नागरिकों को उच्च शिक्षा का अधिकार देकर उसका प्रबन्ध कर उसकी प्रतिभा को विकसित करने के लिये शिक्षा को बालक की मातृभाषा में सुलभ करके ही दे सकता है अन्यथा तो यह श्रद्धाञ्जलि पाखण्ड मात्र है। डॉ. कलाम जैसे गुरु के लिये ही कहा जा सकता है-

अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानानञ्जनशलाकया।

चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।।

– धर्मवीर