महर्षि दयानन्द का भारत के यथार्थ इतिहास पर महत्वपूर्ण उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द (1825-1883) का सारा जीवन ईश्वर की खोज, मृत्यु पर विजय, योग, अध्ययन-अध्यापन, उपदेश, वेद-धर्म प्रचार, शास्त्रार्थ, समाज सुधार व अनुमानतः सन् 1857 के देश की आजादी के लिए संग्राम में गुप्त रूप से कार्य करने में व्यतीत हुआ था। महर्षि दयानन्द बाल ब्रह्मचारी थे। वह जन्म से ही प्रतिभाशाली, सुदृण व स्वस्थ शरीर, गौर वर्ण, आकर्षक व्यक्तित्व वाले व सत्य के प्रति दृण आस्थावान थे। महर्षि दयानन्द जी की मातृभाषा गुजराती थी। उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया था और इस भाषा के वार्तालाप, प्रवचन-उपदेश करने व लेखन करने में उन्हें पूरा अधिकार व सिद्धहस्ताता प्राप्त थी। महाभारत काल के बाद देश के वेदों के वह शीर्षस्थ विद्वान थे। उनकी तुलना का वेदों का विद्वान महाभारत काल व उनसे पूर्व व अद्यावधि भी इतिहास के पन्नों पर अंकित नहीं है। वेद ही उनके जीवन का आधार था। उनके सभी कार्य वेदों से प्रेरित व संचालित थे। उन्होंने मध्याकालीन व बाद के ब्राह्मणों ने वेदों के जो मिथ्यार्थ कर उसे कलंकित किया था, उस कलंक को पूरी तरह धोकर शुद्ध व निर्मल स्वरूप प्रदान किया। आज स्थिति यह है कि वेदों की अन्तःसाक्षी के आधार पर कहा जा सकता है कि वेदों के समान कोई भी धर्म-मत-सम्प्रदाय का ग्रन्थ इस पृथिवी पर नहीं है। वेद सर्वोपरि हैं एवं सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है, वेद का पढ़ना-पढ़ाना व सुनना-सुनाना ही एकमात्र परम पुनीत मानव मात्र का यथार्थ धर्म है। वह जहां भी जाते थे, शुद्ध व सरल संस्कृत ही बोला करते थे। यद्यपि सभी विद्वान संस्कृत समझते थे परन्तु जब वह साधारण जनता में संस्कृत में उपदेश करते थे तो उन्हें संस्कृत से हिन्दी के अनुवादक की आवश्यकता होती थी। इस कार्य के लिए वह पौराणिक विद्वानों की सेवायें लेते थे जो स्वामी जी के कहे गये शब्दों को ही अनुवाद न कर उनके विचारों को अपनी मान्यताओं के अनुरूप तोड़ते मरोड़ते थे। अतः ब्रह्म समाज के नेता श्री केशवचन्द्र सेन के परामर्श पर उन्होंने आर्यभाषा हिन्दी का प्रयोग करना आरम्भ किया। इसके कुछ काल बाद उन्होंने अपना मुख्य दिव्य ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश प्रकाशित कराया। यह ग्रन्थ उनके द्वारा पण्डितों को बोलकर लिखाया गया था। लेखन के लिए उनके पास ब्राह्मण लेखक थे जिन्होंने यत्र तत्र उनके बोले गये अभिप्राय के विरूद्ध अपनी मान्यताओं के वाक्यों को प्रविष्ट कर दिया। स्वामी जी के पास अवकाश न होने के कारण न तो वह इस ग्रन्थ को लिखवाने के बाद उन लेखकों से सुन पाये और न हि छपने से पूर्व प्रूफ देख पाये थे। इस कारण प्रकाशित होने के पश्चात पाठकों ने उन्हें कुछ अशुद्धियां अवगत कराई थी। इस मुख्य व अन्य कुछ कारणों से उन्होंने कुछ समय बाद इस ग्रन्थ का दूसरा शुद्ध संशोधित संस्करध्स भी तैयार कर प्रकाशित कराया जो आजकल सर्वत्र उपलब्ध होता है। प्रथम संस्करण को आदिम सत्यार्थ प्रकाश भी कहा जाता है। इसी प्रथम संस्करण से हम आज उनका एकादश समुल्लास में प्रस्तुत देश के प्राचीन यथार्थ इतिहास पर एक धर्मोदेश प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे पाठक इतिहास विषयक कुछ नये तथ्यों से न केवल परिचित हो सकें अपितु महर्षि के इतिहास विषयक ज्ञान व उनकी भाषा से भी कुछ कुछ परिचित हो सकें। इस लेख के शेष भाग आगे के लेखों में जारी रखेंगे।

 

उनका धर्मोपदेश प्रस्तुत है-सरस्वतीदृषद्वत्योदेवनद्योर्यदन्तरम्। तं देवनिर्मितं देशमार्यावर्त्तं प्रचक्षते। (मनुस्मृति 2/17) सरस्वती जो कि गुजरात और पंजाब के पश्चिम भाग में नदी है, उससे लेके नैपाल के पूर्वभाग की नदी से लेके समुद्र तक इन दोनों के बीच में जो देश है, सो आर्यावर्त्त देश है और वे देवनदी कहाती है। अर्थात् दिव्य देश के प्रान्त भाग में होने से देव नदी इनका नाम है। सो देश देव निर्मित है अर्थात् दिव्य गुणों से रचित है, क्योंकि भूगोल के बीच में ऐसा श्रेष्ठ देश कोई नहीं है, जिस देश में सब श्रेष्ठ पदार्थ होते हैं और छः ऋतु यथावत् वर्तमान होते हैं और केवल सुवर्ण रत्न पैदा होते हैं। इस देश में जिसका राज्य होता है, वह दरिद्र होय तो भी धन से पूर्ण हो जाता हैै। इसी हेतु इसका नाम आर्यावर्त्त है, आर्य नाम श्रेष्ठ मनुष्य और श्रेष्ठ पदार्थ इनसे युक्त अर्थात् आर्यावर्त्त है। इस हेतु इस देश का नाम आर्यावर्त कहते हैं।

 

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।

                        स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।। (मनुस्मृति 2/20)

 

इस देश में अग्रजन्मा नाम सब श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न जो पुरुष उत्पन्न होवें (उनका है), उससे सब भूगोल की पृथिवी के मनुष्य शिक्षा अर्थात् विद्या तथा संसार के सब व्यवहारों का यथावत् विज्ञान (प्राप्त) करें। इससे क्या जाना जाता है कि प्रथम इस (देश) में मनुष्यों की सृष्टि भई (हुई) थी। पीछे सब द्वीप-द्वीपान्तर में सब मनुष्य फैल गए, क्योंकि पृथिवी में जितने मनुष्य हैं, वे इस देश वालों से विद्यादिक शिक्षा ग्रहण करें और सब देश भाषाओं का मूल जो संस्कृत (है) सो आर्यावर्त्त ही में सदा से चला आता है। आजकाल भी कुछ-कुछ देखने में आता है, परन्तु फिर भी सब देशों में संस्कृत का प्रचार अधिक है। जर्मनी और विलायत आदिक देशों में संस्कृत के पुस्तक इतने नहीं मिलते जितने कि आर्यावत्र्त देश में मिलते हैं और जो किसी देश में संस्कृत के बहुत पुस्तक होंगे सो आर्यावर्त्त ही से लिए होंगे, इसमें कुछ सन्देह नहीं। सो इस देश से मिश्र देश वालों ने पहिले विद्या ग्रहण की थी। उससे यूनान देश, उससे रूम, फिर रूम से फिरंग (अंगे्रज) स्थान आदि में विद्या फैली है। परन्तु संस्कृत के बिगड़ने से गिरीश (ग्रीस), लाटीन, अंगरेज और अरब देश वालों की भाषा बन गई हैं। सो इनमें अधिक लिखना कुछ आवश्यक नहीं क्योंकि इतिहासों के पढ़ने वाले सब जानते हैं और पता भी ऐसा ही मिलता है। एक गोल्ड्स्टकर साहेब ने पहिले ऐसा ही निश्चय किया है कि जितनी विद्या वा मत फैले हैं, भूगोल में, वे सब आर्यावर्त्त ही से लिए हैं। और काशी में वालेण्टेन् साहेब ने यही निश्चय किया है कि संस्कृत सब भाषाओं की माता है। तथा दाराशिकोह बादशाह ने भी यह निश्चय किया है कि जो विद्या है सो संस्कृत ही है क्योंकि मैंने सब देशों की भाषाओं का पुस्तक देखा तो भी मुझको बहुत सन्देह रह गए, परन्तु जब मैंने संस्कृत देखा तब मेरे सब सन्देह निवृत्त हो गए और अत्यन्त प्रसन्नता मुझको भई। और काशी में मान मन्दिर जो रचा है, उसमें महाराज सवाई मानसिंह जी ने खगोल के कला और यन्त्र ऐसे रचे थे कि जिस में खगोल का सब हाल देख पड़ता था। परन्तु आजकाल उसकी मरम्मत न होने से बहुत कला यन्त्र बिगड़ गए हैं तो भी कुछ-कुछ देख पड़ता है। फिर आजकाल महाराज सवाई रामसिंह जी ने कुछ मरम्मत स्थान की कराई है जो उस यन्त्र की भी करावेंगे तो कुछ रोज (काली तक) बना रहेगा, अन्यथा नहीं।

 

जबसे महाभारत युद्ध भया (हुआ) है उस दिन से आर्यावर्त्त को बुरी दशा आई है सो नित्य-नित्य बुरी ही दशा होती जाती है। क्योंकि उस युद्ध में अच्छे-अच्छे विद्वान् राजा और ब्राह्मण लोग प्रायः मारे गए। फिर कोई राजा पूर्ण विद्या वाला इस देश में नहीं भया। जब राजा, विद्वान् और धर्मात्मा नहीं भया, तब विद्या का प्रचार भी नष्ट होता चला (गया)। फिर कुछ दिन के पीछे आपस में लड़ने लगे, क्योंकि जब विद्या नहीं होती तब ऐसे ही बहुत प्रमाद होते हैं। जो कोई प्रबल भया, उसने निर्बल का राज छीन के उसको मारा। फिर प्रजा में भी गदर होने लगा कि जहां जिसने जितना पाया, उसका वह राजा वा जमींदार बन बैठा। फिर ब्राह्मण लोगों ने भी विद्या का परिश्रम छोड़ दिया। पढ़ना पढ़ाना भी नष्ट होता चला। जब ब्राह्मण लोग विद्याहीन होते चले, तब क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र भी विद्याहीन होते चले, केवल दम्भ, कपट और छल ही से व्यवहार करने लगे। फिर जितने अच्छे काम होते थे वे सब बन्ध (बन्द) होते चले। वेदादिक विद्या का प्रचार भी बहुत थोड़ा होता चला गया।

 

फिर ब्राह्मण लोगों ने विचार किया कि आजीविका की रीति निकालनी चातिहए, सो सम्मति करके यही विचार किया कि ब्राह्मण वर्ण में जो उत्पन्न होता है सोई (वही) देव है, सबका पूज्य है, क्योंकि पूर्ण विद्या से ब्राह्मण वर्ण होता है। यह वर्णाश्रम की सनातनी रीति है, सोई ऋषि मुनियों के पुस्तकों में भी लिखी है। सो विद्यादिक गुणों से तो वर्ण व्यवस्था नहीं रक्खी, किन्तु कुल में जन्म होने से वर्ण व्यवस्था प्रसिद्ध कर दी है। फिर जन्म ही से ब्राह्मणादिक वर्णों का अभिमान करने लगे। फिर विद्यादिक गुणों में पुरुषार्थ सबका छूटा, उसके छूटने से प्रायः राजा और प्रजा में मूर्खता अधिक-अधिक होने लगी। फिर उन्हीं से ब्राह्मण लोग अपने चरण और शरीर की पूजा कराने लगे। जब पूजा होने लगी तब अत्यन्त अभिमान उनमें होने लगा। उन विद्याहीन राजाओं को और प्रजास्थ पुरुषों को (अपने) वशीभूत ब्राह्मणों ने कर लिए। यहां तक कि सोना, उठना और कोस दो कोस तक जाना, वह भी ब्राह्मणों की आज्ञा के विना नहीं करना और जो कोई करेगा सो पापी हो जायगा। फिर शनैश्चरादिक ग्रह और नाना प्रकार के भूत प्रेतादिकों का जाल उनके ऊपर फैलाने लगे और वे मूर्खता के होने से मानने भी लगे। फिर राजा लोगों को ऐसा निश्चय सब लोगों ने मिल के कराया कि ब्राह्मण लोग कुछ भी करें, परन्तु इनको दण्ड न देना चाहिए। जब दण्ड नहीं होने लगा, तब ब्राह्मण लेाग अत्यन्त प्रमाद करने लगे और क्षत्रियादिक भी। फिर बड़े-बड़े ऋषि मुनि और ब्रह्मादिक के नामों से श्लोक और ग्रन्थ रचने लगे, उनमें प्रायः यही बात लिखी कि ब्राह्मण सब का पूज्य और सदा अदण्ड्य है। फिर अत्यन्त प्रमाद और विषयासक्ति से विद्या, बल, बुद्धि पराक्रम और शूरवीरता नष्ट हो गई और परस्पर ईर्ष्या (में वृद्धि) अत्यन्त हो गई। किसी को कोई (सहानुभूतिपूर्वक) देख न सके और कोई कोई के (अन्य किसी के) सहायकारी न रहे, परस्पर लड़ने लगे। यह बात चीन आदिक देशों में रहने वाले जैनों ने सुनी और व्यापारादिक करने के हेतु (जो) इस देश में आते थे सो (उन्होंने) प्रत्यक्ष भी देखी। फिर जैनों ने विचार किया कि इस समय आर्यावर्त्त देश में राज्य सुगमता से हो सकता है फिर वे (चीन से?) आए और राज्य भी आर्यावत्र्त में करने लगे। फिर धीरे-धीरे बोधगया में राज्य जमाके और (उसे) देश-देशान्तर में फैलाने लगे। सो वेदादिक संस्कृत पुस्तकों की निन्दा करने लगे और अपने पुस्तकों के पठन पाठन का प्रचार तथा अपने मत का उपदेश भी करने लगे। सो इस देश में विद्या के नहीं होने से बहुत मनुष्यों ने उनके मत को स्वीकार कर लिया। परन्तु कन्नौज, काशी, पर्वत, दक्षिण और पश्चिम देश के पुरुषों ने स्वीकार नहीं किया था, परन्तु वे बहुत थोड़े ही थे। फिर इन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था और वेदोक्त, कर्मों को मिथ्या-मिथ्या दोष लगा के अश्रद्धा और अप्रवृति बहुत करा दी। फिर यज्ञोपवीतादिक कर्म भी प्रायः नष्ट हो गया और जो-जो वेदादिकों का पुस्तक पाया और पूर्व के इतिहासों का, उनका प्रायः नाश कर दिया। जिससे कि इनको पूर्व अवस्था का स्मरण भी न रहे।

 

फिर जैनों का राज्य इस देश में अत्यन्त जम गया। तब जैन भी बड़े अभिमान में हो गए और कुकर्म, अन्याय भी करने लगे, क्योंकि सब राजा और प्रजा उनके मत में ही हो गए, फिर उनको डर वा शंका किसी की न रही। अपने मतवालों को अच्छे-अच्छे अधिकार और प्रतिष्ठा करने लगे और वेदादिकों को पढ़े तथा उनमें कहे कर्मों को करें, उनकी अप्रतिष्ठा करने लगे। अन्याय से भी उनके ऊपर जाल (मिथ्या आरोप) स्थापन करने लगे। अपने मत के पण्डित वा साधु की बड़ी प्रतिष्ठा करने लगे, सो आज तक भी ऐसा करते हैं। और बहुत स्थान-स्थान में बड़े-बड़े मन्दिर रच लिए और उनमें अपने आचार्यों की मूर्ति स्थापन कर दी तथा उनकी पूजा भी अत्यन्त करने लगे। सो जैनों के राज्य ही से मूर्ति पूजन चला, इसके आगे (पूर्व) न था। क्योंकि जितने ऋषि मुनियों के किए प्राचीन ग्रन्थ हैं, महाभारत युद्ध के पहिले जो कि रचे गए हैं, उनमें मूर्तिपूजन का लेशमात्र भी कथन नहीं है। इससे दृढ़ निश्चय से जाना जाता है इस आर्यावर्त्त देश में (इनसे पूर्व) मर्तिपूजन नहीं था, किन्तु जैनों के राज्य से ही चला (मूर्तिपूजा की प्रवृत्ति हुई) है।

 

आज के इस लेख में महर्षि दयानन्द ने इतिहास के अनेक तथ्यों का प्रतिपादन किया है जो अन्यत्र असुलभ है। मातृ भाषा गुजराती व संस्कृत के विद्वान होने तथा सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण लिखने तक हिन्दी भाषा का अभ्यास न होने के कारण भाषा वर्तमान की अपेक्षा कुछ असहज है। पाठक इसे पढ़कर इतिहास के तथ्यों से परिचित होंगे। इसी प्रकार के अनेक तथ्यों से हम कल के लेख में परिचय करायेंगे। आशा है पाठकों का इससे ज्ञानवर्धन होगा और वह इसे सत्य व उपयोगी पायेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘उल्लास’ – देवनारायण भारद्वाज

विश्वकर्मा विमनाऽआद्विहाया धाता विधाता परमोत सन्दृक्। तेषमिष्टानि समिषा मदन्ति यत्रा सप्तऽऋषिन् परऽएक माहुः।

 

उपवास मिल गया उसका, अब और कौन आभास चाहिए।

विश्वास मिल गया उसका,अब और कौन उल्लास चाहिए।।

 

ईश्वर सर्वज्ञ विश्वकर्मा

विज्ञान विविध का शिवशर्मा

सर्वव्याप्त है निर्विकार वह

जग कर्त्ता धर्त्ता सध्दर्मा

 

आकाश मिल गया उसका, अब और कौन अवकाश चाहिए।

विश्वास मिल गया उसका,अब और कौन उल्लास चाहिए।।

 

परमेश जगत निर्माता है

वह धाता और विधाता है

सब पाप पुण्य वह देख रहा

वह यथायोग्य फल दाता है

 

सहवास मिल गया उसका, अब और कौन वातास चाहिये।

विश्वास मिल गया उसका, अब और कौन उल्लास चाहिये।।

 

अद्वितीय एक प्रभु ने जगका

निर्माण किया इस जगमग का

ऋषि सप्तशक्ति में उसकी हैं

करता संचालन रग-रग का

 

मधु हास मिल गया उसका, अब और कौन मधुमास चाहिए।

विश्वास मिल गया उसका, अब और कौन उल्लास चाहिए।।

– अवन्तिका प्रथम, रामघाट मार्ग, अलीगढ़, उ.प्र.-202001

वैदिक दर्शन की विशेषताएँ – पं. गंगा प्रसाद जी उपाध्याय

[लगभग 8 दशक पूर्व का यह लेख आज भी प्रासंगिक है। इसलिए पाठकों के लााार्थ प्रस्तुत है – सपादक ]

आजकल ‘वैदिक दर्शन’ एक अनिश्चित शद है। अति प्राचीन काल में निश्चित रहा होगा। जिस प्रकार आजकल गंगा की नहर और उस नहर से निकली हुई सहस्त्रों कूलों का पानी भी गंगाजल नाम से ही प्रसिद्ध है चाहे उसमें कितने ही बाहर के नालों का गंदा पानी मिला हो इसी प्रकार प्रत्येक सप्रदाय जो वेदों को तत्वतः अथवा दिखाने के लिये अपने धर्म का मूल स्रोत मानता है उस का दर्शन भी वैदिक दर्शन है। शंकर का अद्वैतवाद वैदिक दर्शन है। रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद वैदिक दर्शन है। निबार्क का द्वैताद्वैतवाद वैदिक दर्शन है। और ऐसे ही मत हैं जिसके अनुसार वेदों में अनीश्वरवाद का प्रतिपादन है। बौद्ध और जैन तो अपने दर्शनों को वैदिक दर्शन नहीं मानते । परन्तु भारतीय अन्य सब दर्शन वैदिक कहलाते हैं। और उन में दर्शन के वे सब गुण और दोष पाये जाते हैं जो किसी देश या किसी युग के दर्शनों में देखे जा सकते हैं। इसके तीन मुय कारण हैंः-

(1)वेदों की सर्वप्रियता जिन से वेद सर्वथा भुलाये न जा सके।

(2)वैदिक सयता की अति प्राचीनता और उसमें कालान्तर में प्रक्षेप और मिलावट।

(3)आर्य परपरा का त्रुटिकरण।

ऋग्वेद का नासदीय सूक्त वैदिक दर्शन का एक सर्वसमत उच्चकोटि का नमूना गिना जाता है। परन्तु उसके अर्थ भिन्न-भिन्न विद्वानों ने अपने-अपने मत के अनुसार भिन्न-भिन्न किये हैं। ज्यूसन, मैक्समूलर, तिलक तथा अन्य विद्वानों के भाष्य अवलोकन कीजिये मैंने भी सन् 1928 ई. में अपनी पुस्तक ‘अद्वैतवाद’ में इस सूक्त का उस प्रकार से अर्थ किया था जो मैं ठीक समझता हूँ। क्योंकि मेरे लिये तो ‘‘वैदिक दर्शन’’ वही है जो संकुचित परन्तु वास्तविक अर्थ में ‘दयानन्द दर्शन’ कहा जा सकता है। इसलिये इस लेख में ‘वैदिक दर्शन’ की विशेषतायें वही दृष्टिगोचर पड़ेंगी, जो दयानन्द दर्शन की हैं। 1951 ई. के दिसबर मास में रंगून विश्वविद्यालय के एक साँस्कृतिक उत्सव के समय मैंने A bird’s eyeview of Vedic Philosophy, पर एक लेख पढ़ा था जो वहाँ की पुस्तिका में प्रकाशित हुआ था। वहाँाी मैंने यही दृष्टिकोण उसका रक्खा था। परन्तु पीछे से मुझे ऐसा भान हुआ कि जब तक हम ‘दयानन्द दर्शन’ को विशेष रूप से जनता के समक्ष न लावें ‘वैदिक दर्शन’ से लोगों में भ्रम ही उत्पन्न होता रहेगा। अतः सप्रति मैं अंग्रेजी में जो ग्रन्थ लिख रहा हूँ उसका नाम ‘वैदिक फिलासफी’ न रखकर ‘‘फिलासफी ऑफ दयानन्द’’ रक्खा है। मेरे लिये वैदिक फिलासफी और दयानन्द फिलासफी पर्याय वाचक शद हैं, परन्तु सब के लिए नहीं। आज कल वैदिक फिलासफी सनातन धर्म की फिलासफी है। जिस में हर मत के पबन्द लगे हुये हैं। और यूरोप के दर्शनकार भी यही मानते हैं।

इस छोटे से लेख में तो वैदिक फिलासफी की भूमिका भी नहीं दी जा सकती। उसकी विशेषतायें कैसे बताई जा सकती हैं और जब तक उन विशेषताओं की व्याया न की जाय लोगों को विशेषताओं का पता ही कैसे चले? स्वामी दयानन्द ने वैदिक दर्शन पर अलग पुस्तक नहीं लिखी वह तो समस्त मूल षट्दर्शनों और मौलिक उपनिषदों को ‘वैदिक दर्शन’ मानते रहे फिर भी उन्होंने अपने ग्रन्थों में अन्य व्यावहारिक समस्याओं का उल्लेख करते हुए वैदिक दर्शन की इतनी विशेषतायें लिखी हैं कि आश्चर्य होता है। मैं जब ‘फिलासफी ऑफ दयानन्द’ लिखने बैठा तो मेरी धारणा थी कि 100 पृष्ठ भी पर्याप्त होंगे परन्तु ज्यों-ज्यों सामग्री एकत्रित करता गया अनेक बातें उपलध होती रहीं। जिनकी ओर पाठकों का समान्यतया ध्यान नहीं गया और यदि गया भी हो तो  उसकी विशेषता का अनुभव नहीं किया। अब मैं असमंजस में हूँ कि क्या छोडूं और क्या लिखूं। पुस्तक 500 पृष्ठ से अधिक की हो गई, बड़े आकार की। 400 के लगभग पृष्ठ छप चुके अभी सामग्री पर्याप्त शेष है । उसे शीघ्र ही समाप्त करना चाहता हूँ।

वैदिक दर्शन की अनेक विशेषतायें हैं। प्रथम तो नाम पर ही विचार कीजिये। अंगरेजी में दर्शन के लिये फिलासफी शद का प्रयोग होता है। यह ग्रीक (यूनानी) शद है और इसका अर्थ है लव ऑफ विज्डम (Love of Wisdom)  या बुद्धि प्रेम। सन्स्कृत का ‘दर्शन’ शद अधिक सारगर्ाित है। दर्शन का अर्थ है देखना। (दृश धातु से) दर्शन की सार्थकता निर्भर है द्रष्टा और दृश्य पर। यदि द्रष्टा मिथ्या है तो दर्शन कैसा और यदि दृश्य मिथ्या तो दर्शन का क्या अर्थ? अतः दर्शन शद ही प्रकट् करता है कि द्रष्टा और दृश्य जीव और जगत् की सत्ता को स्वीकार करते हैं। यदि शंकर स्वामी ने जगत् को मिथ्या कहा, तो मिथ्या का दर्शन ही क्या। और यदि दृश्य कुछ न रहा  तो न दर्शन रहा न द्रष्टा। ऋषि दयानन्द ने इसीलिये वेद के ‘द्वा सुपर्णा’ इस मन्त्र का उद्धरण देकर के जीव, ब्रह्म और जड़ जगत् तीनों की सत्ता स्वीकार की है, वैदिक दर्शन द्वैत दर्शन है इस अर्थ में कि वह चेतन और जड़ देानों संज्ञाओं को वास्तविक मानता है, इस को आप इस अर्थ में त्रैतवाद भी कह सकते हैं कि यह ईश्वर, जीव तथा प्रकृ ति तीन अनादि पदार्थों को मानता है। इस को ‘बहुत्ववाद’ाी कह सकते हैं कि क्योंकि यह जीवों और परमाणुओं के बहुत्व को मानता है।

प्रायः दर्शन की विशेषता यह मानी जाती है कि अनेकत्व में एकत्व को देखा जाय। वैसा वेद में लिखा हैः-

अस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।

सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विचिकित्सति।।

अर्थात् जो सब भूतों को आत्मा में और आत्मा को सब भूतों में ओत प्रोत देखता हैं वह कभी दुःख नहीं पाता (यजुर्वेद अ. 40, मन्त्र 6)परन्तु जो लोग इस का अर्थ यह लेते हैं कि अनेकत्व (Diversity)मिथ्या है और एकत्व (Unity) सत्य है, वह वेद के आशय को नहीं समझते। अनेकत्व में एकत्व (Unity in Diversity) कैसे देखा जाय यदि अनेकत्व मिथ्या हो। अधिकरण के मिथ्या होने से अधिकृत भी मिथ्या होगा। आर्य दर्शन यही है कि जगत् को मिथ्या न माना जाय। महर्षि व्यास ने वेदान्त का पहला सूत्र लिखा।

अथातो ब्रह्म जिज्ञासा।

अब ब्रह्म के जानने की जिज्ञासा है

फिर ब्रह्म के लक्षण किएः-

जन्मा द्यस्य यतः।

अर्थात् ब्रह्म वह है जिससे जगत् की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय हो।

यदि जगत् मिथ्या है तो उसकी उत्पत्ति कैसी? और स्थिति कैसी? एकतत्ववादी यह नहीं समझते कि अनेक तत्व न हों तो एक तत्व का भी क्या मूल्य? दार्शनिक जगत् में ‘एकत्व’ के कई समुदाय पाए जाते हैं। जैसे

(1) कारणैक्यवाद अर्थात् केवल एक ही वस्तु है, अन्य सब उसी एक मूल से बना है इसके दो रूप  हैं एक अद्वैकवाद अर्थात् के वल जड़ प्रकृति से ही जगत के समस्त व्यापारों की सिद्धि। दूसरा ‘चेतनैकवाद’ अर्थात् एक चेतन से जड चेतन दोनों की उत्पत्ति या व्याया।

इन दोनों भेदों में अनेक उलझनें हैं जिनके दोषों के  दूर करने के लिए अनेक सप्रदाय बन गए हैं। परन्तु वे उलझनें सुलझने में नहीं आ सकी।

(2) वस्त्वैक्यवाद। इनका मत है कि वस्तु केवल एक है। अनेकत्व मिथ्या है। प्रतीत मात्र है। ऋषि दयानन्द ने ठीक कहा है कि यदि एक ही वस्तु सत्य है तो वह सत्य को कैसे देख सकता है। मिथ्या दर्शन या मिथ्या प्रतीत के लिए भी तो कोई कारण होना चाहिए जो केवल एक ब्रह्म से सिद्ध नहीं होता।

(3) ईश्वरैक्यवाद यह वैदिक वाद है। इसमें जगत् को सत् तथा नाना मानकर उसमें एक ईश्वर की व्यापकता और प्रमुखता बताई गई है। दयानन्द दर्शन का यह एक मौलिक सिद्धान्त है। मोटे शदों में इस दर्शन की यथार्थता के अतिरिक्त उपयोगिता भी हैः-

(1) इन्द्रिय जन्य ज्ञान को मिथ्या, अतथ्य, अथवा स्वप्नवत् मानने से जगत् का समस्त व्यापार विज्ञान, कला कौशल, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, यज्ञ, अध्ययन, दान आदि धर्माङ्ग सब व्यर्थ हो जाते हैं। वैदिक दर्शन, न इन्द्रिय को अतथ्य मानता है, न इन्द्रिय जन्य ज्ञान को। भ्रम ज्ञान का अभाव नहीं अपितु दुष्ट ज्ञान हैं जिनका अर्थ हुआ अल्प या सीमित ज्ञान। जगत् मिथ्यात्व में तो ज्ञान का मिथ्यात्व भी नहीं घटता। ऋषि दयानन्द की बड़ी जबरदस्त पकड़ यह है कि तुम रस्सी में सांप की भ्रान्ति कर ही नहीं सकते जब तक अन्यत्र कहीं सर्प की सत्ता को न मानो।

(2) वैदिक दर्शन लेाक की सत्ता स्वीकार करके लौकिक उन्नति को परलोक यात्रा का साधन बना देता है। बुद्धि की तुच्छता के कारण केवल लोकवादी लोकायतों और केवल परलोकवादी लोकायतों में जो अनेक रूपों वाला युद्ध छिड़ता रहा है उसको दूर करना केवल वैदिक दर्शन (दयानन्दीय दर्शन) से ही सभव है।

(3) अवैदिक दर्शनों में एकान्तता का दोष है। जड़ प्रकृति या मैटर मानने वालों ने आत्मा या परमात्मा की चेतन सत्ताओं का निषेध करके न केवल दार्शनिक अपितु व्यावहारिक समस्यायें उत्पन्न कर दी है। जिनका मनुष्य के आचारशास्त्र पर बुरा प्रभाव पड़ा है मनुष्य असत्य और हिंसा के चंगुल में फंस गया है। इसी प्रकार प्रकृति का निषेध करके अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि सप्रदायों ने जीव को जीवत्व के उच्च पद पर से गिरा दिया है।  इससे भी आचारशास्त्र को हानि हुई है।

(4) गत दो शतादियों के पश्चिमी दार्शनिक विद्वान इन्हीं दोषों को दूर करने का असफल प्रयास करते रहे हैं। परन्तु इस असफलता का मुय कारण है वे पुराने विचार जो परंपरा से उनको दाय भाग में मिले हैं और छोड़ने पर भी नहीं छूटते। भारतीय वर्तमान विद्वानों का भी यही हाल है। जो शंकर, रामानुज लिख गए वह वायु मन्डल में प्रसारित हो गया। हम उससे मुक्त नहीं हो सकते। जो पश्चिमी दर्शन पर प्लैटो या अरस्तु का प्रभाव है वह भारत पर शंकर और रामानुज का है।

आवश्यकता है कि दयानन्द दर्शन की विस्तृत व्याया करके  इन जटिल समस्याओं को सुलझाने का यत्न किया जाय। जब तक वैदिक दर्शन यथार्थ रूप में विचार के समक्ष नहीं जाएगा, मानवी जीवन की व्यावहारिक समस्यायें उलझी रहेंगी  और शान्ति तथा उन्नति दोनों में बाधा होगी।

हीगल एवं कार्ल्स मार्क्स मूल तत्व से दूर थे |

कहा जाता है कि कार्ल मार्क्स ने अपने दर्शन की प्रेरणा हीगल से ली। हीगल जडवादी न था,परन्तु उसकी युक्ति सरणी वही थी जिसको कार्ल मार्क्स ने अपनाया।कार्ल मार्क्स का दावा है कि उसने हीगल के त्रुटिपूर्ण सिद्धांत को युक्ति संगत कर दिया। हीगल सृष्टि मे तीन वस्तुओं को देखता है -वृत्ति,वृत्ति निग्रह वृत्ति समन्वय। अपनी laider s social economics moments infra p.123 मे लिखता है कि – ” hegal s dialectic method conceived that change took place through the struggle of antagonistic elements, and the resolution of these contradictory elements into synthesis, the first two elements forming  new concept by virtue of their union…
the thing on being against which the contradiction operated be called the positive ,the antaginisite or thesis was the negation. to hegal the contradiction ,antithesis or nagation was the ‘source of all movent and life ,only in so far as it contains a contradiction can anything have movement ,power and effect ,” A continued operation of the negation led to the negation of negation or synthesis.. ” इस सृष्टि मे एक घटना होती है।फिर उस घटना का विरोध होता है। इससे प्रगति ओर जीवन बनता है।उस विरोध का फिर विरोध होता है।इस प्रकार जीवन समन्वित होता है। अर्थात् सृष्टि के मूल तत्वों को हीगल ने गति,विरोध,ओर समन्वय से परिणत करके विरोध ओर समन्वय से परिणित कर विरोध को मुख्य ठहराया। इसी सिद्धांत को मार्क्स ने सीधा खडा कर दिया। मार्क्स का कहना था कि हीगल के सिद्धांत मे जो वक्रता थी उसे उसने ऋजु कर दिया।परन्तु वास्तविक बात यह है कि न हीगल ने मूल तत्वों की खोज की न मार्क्स ने।ऊपरी घटना पर दृष्टि पाात करने पर मूल तत्व का पता नही चलता है।जिसको तुम ‘विरोधिनी प्रवृत्तियाँ ‘कहतेहो वे पूरक है विरोधी नही।इसका निश्चय तो प्रयोजन पर दृष्टि रखने से हो सकता है।वैज्ञानिक लोग मानते हैं किबीज सडकर ही वृक्ष का निर्माण कर सकता है,इसलिए सडना मूलतत्त्व है।यह है मूल ।”जिस को तुम सडना कहते हो या विनाश कहते हो वह वस्तुत विनाश नही अपितु मूल अंकुर के ऊपर के खोल उतरना है जिससे अंकुरमे स्वतंत्रता से कार्य करने का अवसर मिल जाय। यदि बीज को बोने से बीज का विनाश ही अभिप्रेत होता तो बीज को भुन डालने से भी वृक्ष की उत्पत्ति हो सकती।
जिसको आप सृष्टिक्रम का विरोध कहते है वह वस्तुत विरोधाभास है | विरोध के इस सिद्धांत में कोमुनिस्ट को विरोधप्रिय बना दिया | यह विरोधप्रियता कम्यूनिस्टो के हर काम में पायी जाती है | वह जितना बिगाड़ते है उतना बनाते नही है | क्रान्ति या विरोध उनके समस्त आन्दोलन का मूल है | यह वेद के सर्वथा विरुद्ध है | वेद का अनुयायी सृष्टि पर दृष्टि डालकर ओर हर वस्तु में प्रयोजन बतलाकर ओर समता देख ईश्वर से प्रार्थना करता है –
सा मा शान्तिरेधि -यजु ३६/१७ 
है ईश्वर ,वही शान्ति मुझे प्रदान कर |
-गंगा प्रसाद उपाध्याय (गंगा ज्ञान धारा से)

सुनहरागीत वह मीत कौन? – देवनारायण भारद्वाज

को वः स्तोमं राधति यं जुजोषथ विश्वे देवासो मनुषो यतिष्ठन।

को वोऽध्वरं तुविजाता अरं करद्यो नः पर्षदत्यंहः स्वस्तये।।

– ऋ. 10.63.6

ये स्तवन गीत बुन रहा कौन, सुन सिद्ध कर रहा गीत कौन।

गा रहा मधुर ये गीत कौन, सुन रहा गीत वह मीत कौन।।

 

किसने यह ऋचा रचाई हैं

मृदु भाव भंगिमा लाई हैं,

किसने स्तुतियाँ गाई हैं।

 

ये छेड़ रहा संगीत कौन, कर रहा सरस स्वर प्रीति कौन।

गा रहा मधुर ये गीत कौन, सुन रहा गीत वह मीत कौन।।

 

ज्ञानी अग्रज या अनुज सभी

जग मनन शील ये मनुज सभी

इनके शुभ कर्म पूर्ण करता

कौन हटाता अघ दनुज सभी।

 

हिंसा पर करता जीत कौन, दे रहा अहिंसा रीति कौन।

गा रहा मधुर ये गीत कौन, सुन रहा गीत वह मीत कौन।।

 

क्या तुमने कुछ अनुमान किया

हो भले अपरिमित ज्ञान किया

प्यारे उस परम पिता ने ही

वरदान पूर्ण यह गान किया।

 

ये छेड़ रहा संगीत कौन, यह मुखर किन्तु वह मीत मौन।

गा रहा मधुर ये गीत कौन, सुन रहा गीत वह मीत कौन।।

 

– अवन्तिका प्रथम, रामघाट मार्ग, अलीगढ़, उ.प्र.-202001

‘मैं और मेरा धर्म’ -मनमोहन कुमार आर्य।

मैं कौन हूं और मेरा धर्म क्या है? इस विषय पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि मैं एक मुनष्य हूं और मनुष्यता ही मेरा धर्म है। मनुष्य और मनुष्यता पर विचार करें तो हम, मैं कौन हूं व मेरे धर्म मनुष्यता का परिचय  जान सकते हैं। इसी पर आगे विचार करते हैं। मनुष्य मननशील होने स्वात्मवत दूसरों के सुखदुःख हानि लाभ को समझने के कारण ही मनुष्य कहलाता है। यदि हम मनुष्य होकर मनन न करें तो हम मनुष्य नहीं अपितु पशु समान ही होंगे क्योंकि पशुओं के पास मनन करने वाली बुद्धि नहीं है। वह कुछ भी कर लें किन्तु मनन, विचार, चिन्तन, सत्य व असत्य का विश्लेषण आदि नहीं कर सकते। अब प्रश्न उपस्थित होता है कि मनन किससे होता है और मनन की प्रेरणा कौन करता है? इसका उत्तर यह है कि हमारे शरीर में मस्तिष्कान्तर्गत बुद्धि तत्व, इन्द्रिय नहीं अपितु इनसे मिलता जुलता एक अलग उपकरण वा अवयव है, जो सत्य व असत्य, उचित व अनुचित का चिन्तन व विचार करता है, इसी को मनन करना कहते हैं। बुद्धि नामक यह उपकरण जड़ सूक्ष्म प्रकृति तत्व की विकृति है। यह मैं व हम से भिन्न सत्ता है। मैं व हम एक चेतन, सूक्ष्म, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, अल्प-परिणाम, अनादि, अजन्मा, अमर, नित्य, अजर, शस्त्रों से अकाट्य, अग्नि से जलता नहीं, जल से भीगता नहीं, वायु से सूखता नहीं, कर्म-फल चक्र में बन्धा हुआ, सुख-दुःखों का भोगता, जन्म-मरणधर्मा व वैदिक कर्मों को कर मोक्ष को प्राप्त करने वाली सत्ता हैं। मुझे यह जन्म इस संसार में व्यापक, जिसे सर्वव्यापक कहते हैं तथा जो सच्चिदानन्दस्वरूप है, उसके द्वारा मेरा जन्म अर्थात् मुझे इस मनुष्य शरीर की प्राप्ति हुई है। यह शरीर मुझसे भिन्न मेरा अपना है और मेरे नियन्त्रण में होता है। मुझे कर्म करने की स्वतन्त्रता है परन्तु उनके जो फल हैं, उन्हें भोगने में मैं परतन्त्र हूं। मेरे शरीर की सभी पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेंन्द्रियां, मन, बुद्धि आदि अवयव व तत्व मेरे अपने हैं व मेरे अधीन अथवा नियन्त्रण में है। मेरी अर्थात् आत्मा की प्रेरणा पर हमारी बुद्धि विचार, चिन्तन व मनन करती है। यदि हम कोई भी निर्णय बिना सत्य व असत्य को विचार कर करते हैं और उसमें बुद्धि का प्रयोग नहीं करते तो यह कहा जाता है कि यह मनुष्य नहीं गधे के समान है। गधा भी विचार किये बिना अपनी प्रकृति व ईश्वर प्रदत्त बुद्धि जो चिन्तन मनन नहीं कर सकती, कार्य करता है। जब हम बुद्धि की सहायता से मनन करके कार्य करते हैं तो सफलता मिलने पर हमें प्रसन्नता होती है और यह हमारे लिए सुखद अनुभव होता है। इसी प्रकार से जब मनन करने पर भी हमारा अच्छा प्रयोजन सिद्ध न हो तो हमें अपने मनन में कहीं त्रुटि वा कमी अनुभव होती है। पश्चात और अधिक चिन्तन व मनन करके हम अपनी कमी का सुधार करते हैं और सफलता प्राप्त करते हैं। सफलता मिलने में हमारे प्रारब्ध की भी भूमिका होती है परन्तु इसका ज्ञान परमात्मा को ही होता है। हम तो केवल आचार्यों से अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त कर अपनी बुद्धि की क्षमता को बढ़ा सकते हैं और उसका प्रयोग कर सत्यासत्य का विचार व सही निर्णय कर सकते हैं।

 

जन्म के बाद जब हम 5 से 8 वर्ष की अवस्था में होते हैं तो माता-पिता हमें आचार्यों के पास विद्या प्राप्ति के लिये भेजते हैं। आचार्य का कार्य हमारे बुरे संस्कारों को हटा कर श्रेष्ठ व उत्तम संस्कारों व गुणों का हमारी आत्मा में स्थापित करना होता है। आचार्य के साथ हमें स्वयं भी वेदाध्ययन व अन्य सत्साहित्य का अध्ययन कर व अपने विचार मन्थन से श्रेष्ठ गुणों को जानकर उसे अपने जीवन का अंग बनाना होता है। श्रेष्ठ गुणों को जानना, उसे अपने जीवन में मन, वचन कर्म सहित धारण करना और आचरण में केवल श्रेष्ठ गुणों का ही आचरण व्यवहार करना धर्म कहलता है। धर्म को सरल शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि सत्य का आचरण ही धर्म है। सत्य का आचरण करने से पूर्व हमें सत्य की पहचान करने के साथ सत्य के महत्व को जानकर लोभ व काम-क्रोध को अपने वश में भी करना होता है। आजकल देखा जा रहा है कि उच्च शिक्षित लोग अपने हित, स्वार्थ व अविद्या के कारण लोभ व स्वार्थों के वशीभूत होकर भ्रष्टाचार, दुराचार, अनाचार, कदाचार, दुराचार, व्यभिचार, बलात्कार जैसे अनुचित व अधर्म के कार्य कर लेते हैं। यह श्रेष्ठ गुणों के विपरीत होने के कारण अधर्म की श्रेणी में आता है। कोई किसी भी मत को मानता है परन्तु प्रायः सभी मतों के लोग इस लोभ के प्रति वशीभूत होकर, अनेक धर्माचार्य भी, अमानवीय व उत्तम गुणों के विपरीत कार्यों को कर अधर्मी व पापी बन जाते हैं। यह कार्य हमारा व किसी का भी धर्म नहीं हो सकता। मत और धर्म में अन्तर यही है कि संसार के सभी मनुष्यों का धर्म तो एक ही है और वह सदगुणों को धारण करना व उनका आचरण करना ही है। इसमें ईश्वर के सच्चे स्वरूप को जानकर उसकी स्तुति, प्रार्थना और उपासना करना, प्राण वायु-स्वात्मा की शुद्धि व परोपकार के लिए अग्निहोत्र यज्ञ नियमित करना, माता-पिता-आचार्यों व विद्वान अतिथियों का सेवा सत्कार तथा सभी पशु-पक्षियों व प्राणियों के प्रति अंहिसा व दया का भाव रखना ही श्रेष्ठ गुणों के अन्तर्गत आने से मननशील मनुष्य का धर्म सिद्ध होता है। यह सभी कार्य सभी मनुष्यों के लिए करणीय होने से धर्म हैं। आजकल जो मत-मतान्तर चल रहे हैं वह धर्म नहीं है। उनमें धर्म का आभास मात्र होता है परन्तु वह मनुष्यता के लिए न्यूनाधिक हानिकर हैं। यह लोग अपने-अपने मत के स्वार्थ के लिए नाना प्रकार की अमानवीय योजनायें बनाते व उन्हें गुप्त रूप से क्रियान्वित करते हैं जिससे समाज में वैमनस्य उत्पन्न होता है। मनुष्य मत-मतान्तरों में बंट कर एक दूसरे के विरोघी बनते हैं जैसा कि आजकल देखने को मिलता है। इसके साथ सभी मतों के अनुयायी भी ईश्वर की सच्ची उपासना, वेद प्रवर्तित ज्ञानयुक्त कार्यों को न करने और श्रेष्ठ गुणों को धारण कर उनका आचरण न करने से जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से वंचित हो जाते हैं। महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने मत-मतान्तरों में निहित अमानवीय व अधर्म विषयक प्रवृत्तियों का संकेत किया था परन्तु अज्ञान, स्वार्थ व अहंकारवश लोगों ने उनकी विश्व का कल्याण करने वाली मान्यताओं की उपेक्षा की जिसका परिणाम यह हुआ कि हम लोग श्रेष्ठ गुणों को धारण कर जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लक्ष्य से दूर हैं और विश्व की लगभग 7 अरब की जनसंख्या में से शायद कोई एक भी उसे कोई पूरा करता होगा?

 

हम लेख का अधिक विस्तार न कर संक्षेप में यह कहना चाहते हैं कि हम सब मनुष्य व प्राणी एक जीवात्मा हैं और ईश्वर हमारे पूर्व कर्मानुसार हमारा अर्थात् हमारे शरीरों का जन्म दाता है। मनुष्य जन्म मिलने पर सभी को श्रेष्ठ व उत्तम सत्य गुणों को धारण करना चाहिये। इनका आचरण ही धर्म होता हैं। वेद ईश्वरीय ज्ञान है तथा सत्य मनुष्य धर्म व सभी विद्याओं का पुस्तक है। वेदाध्ययन करना और उसके अनुसार जीवन व्यतीत करना ही मनुष्य धर्म वा वैदिक धर्म है। वेद संस्कृत में हैं अतः संस्कृत न जानने वाले लोगों को सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि आदि ग्रन्थों सहित महर्षि दयानन्द व अन्य वैदिक विद्वानों के वेदभाष्यों व ऋषि मुनियों के अन्य ग्रन्थों शुद्ध मनुस्मृति, ज्योतिष, दर्शन व उपनिषदों का आत्मा की ज्ञानवृद्धि के लिए अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करके हमें, मैं व स्व का परिचय प्राप्त होने के साथ अपने कर्तव्य व धर्म का निर्धारण करने में सहायता मिलेगी। मत-मतान्तरों के ग्रन्थों को पढ़कर मनुष्य भ्रान्तियों से ग्रसित होता है अथवा ऐसा मनुष्य बनता है जिसमें आत्मा व बुद्धि होने पर भी वह सर्वथा इनसे अपरिचित होता हुंआ मत-मतान्तरों की सत्यासत्य मान्यताओं में फंसा रहता है। ऐसा मनुष्य लगता है कि केवल खाने-पीने व सुख सुविधायें भोगने के लिए ही जन्मा है। खाना पीना व सुविधायें भोगना मनुष्य जीवन नहीं अपितु इससे ऊपर उठकर सद्ज्ञान प्राप्त कर उससे अपना व दूसरे लोगों का कल्याण करना ही मानव धर्म है। हम आशा करते हैं कि इससे मैं व यथार्थ धर्म का कुछ परिचय पाठकों को प्राप्त होगा।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

 फोनः09412985121

महर्षि को उसी अवस्था में छोड़कर प्रतापसिंह जुआ खेलने पूना क्यों चला गया? प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

कारण क्या थे?ः- जोधपुर के कर्नल प्रतापसिंह के एक सुपरिचित व प्रशंसक उच्च शिक्षित व्यक्ति ने एक प्रश्न उठाया है। हमारीाी उत्कृष्ट इच्छा है कि कोई इतिहास प्रेमी विद्वान् विचारक उनके प्रश्न का सन्तोषजनक उत्तर दे। महर्षि दयानन्द जी महाराज को जोधपुर में विषय दिया गया। विष देने के षड्यन्त्र में कौन-कौन समिलित था, इस प्रश्न को आप एक बार छोड़ दीजिये। उपरोक्त विद्वान् का प्रश्न बड़ा गभीर व महत्त्वपूर्ण है। जब ऋषि को विष दिया गया तब कर्नल प्रतापसिंह महर्षि का पता करने क्यों न आया?

आया तोकितने दिन के पश्चात् व कब आया? उसकी क्या विवशता थी जो महाराज का पता क रने न आ सका?

इसके साथ हम एक प्रश्न और जोड़ देते हैं। महर्षि को उसी अवस्था में छोड़कर प्रतापसिंह जुआ खेलने पूना क्यों चला गया। प्रतापसिंह के प्रशंसक भक्त इस प्रश्न को पढ़ सुनकर चौंक जाते हैं। वे कहते हैं वह तो पोलेा खेलने गया था। लोगों को मूर्ख बनाने के लिये आप चाहे पोलो कहो, था तो जूआ ही। जूआ तो क्रि केट व ताश पर भी खेला जाता है। रैफल क्या जूआ नहीं? लाटरी क्या है?

उसके वकील प्रताप सिंह की बढ़ाई करते हुए उसकी पूना यात्रा का वर्णन तक नहीं करते। इसका क्या कारण है? आशा है कि सत्यान्वेषी सज्जन प्रतापसिंह का गुणकीर्तन करने वाले वकीलों से इस प्रश्न का उत्तर लेकर रहेंगे। जिस विद्वान् सज्जन ने यह प्रश्न उठाया है उसका नाम हम आगे कभी बतायेंगे। था वह भी प्रतापसिंह प्रशंसक।

नारी जाति के उन्नायक महर्षि दयानन्द – डॉ. जगदेवसिंह विद्यालंकार

महाभारत काल से पूर्व हमारा देश भारतवर्ष शिक्षा, संस्कृति और सयता की दृष्टि से पूर्ण विकसित था। भारतीय संस्कृति और सयता विश्व की प्राचीनतम और सर्वोन्नत सयता-संस्कृति मानी जाती है। इसीलिए समस्त विश्व इस देश को जगद्गुरु मानता था। मनुमहाराज ने भी घोषणा की थी-

एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।

– मनु. (2.20)

उस समय नारी की दशा भी समानित, प्रतिष्ठित ओर स्पृहणीय थी। लगभग पच्चीस मन्त्र द्रष्ट्री ऋषिकाओं का वैदिक साहित्य में उल्लेख मिलता है। गार्गी, मैत्रेयी, सीता, अनसूया, सावित्री और मदालसा आदि प्रमुख उदाहरण नारी की उन्नत अवस्था के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

महाभारत काल से इस देश का सर्वाङ्गीण पतन प्रारभ हो गया था और उसके साथ ही नारी की दशा भी उत्तरोत्तर निम्न होती चली गयी। हमारी पौराणिक संकीर्ण विचारधारा ने इस पतन को और अधिक गतिशील कर दिया। वेदों और उपनिषदों के उद्भट विद्वान् स्वामी शंकराचार्य ने वेदोद्धार के बहुत प्रशंसनीय कार्य किये। परन्तु नारी के महत्व को उन्होंने भी नहीं समझा और उसे ‘नरक का द्वार’ जैसा निन्दनीय विशेषण दे डाला। इतना ही नहीं ‘स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम्’ कहकर नारी को धार्मिक शिक्षा के अधिकार से भी वंचित कर दिया । इसी परपरा में उत्तर मध्यकाल में आकर सन्त तुलसीदास ने – ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ कहकर नारी के समान को बहुत बड़ा आघात पहुँचाया। इन सबका परिणाम यह निकला कि सामान्य समाज में नारी को पैर की जूती समझा जाने लगा।

जिस समय इस भारत भू पर महर्षि दयानन्द का आविर्भाव हुआ उस समय नारी की अवस्था अत्यन्त दयनीय एवं शोचनीय थी। उन्होंने यह भलिभाँति अनुभव कर लिया था कि स्त्री का उत्थान हुए बिना समाज अथवा राष्ट्र का उद्धार सभव नहीं, क्योंकि स्त्री भी पुरुष की भाँति समाज रूपी गाड़ी का एक पहिया है महर्षि दयानन्द पहले समाज सुधारक थे जिन्होंने नारी-उत्थान की क्रान्ति को जन्म दिया। महर्षि ने नारी के  उद्धार के लिए अनेक प्रयत्न किए जो यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत है-

स्त्री-शिक्षाः- स्वामी दयानन्द ने इस रहस्य को उद्घाटित किया कि शिक्षा के बिना व्यक्ति अधूरा है। नारी भी जब तक शिक्षित नहीं होगी तब तक जागरुक नहीं हो सकती, वह अपने अस्तित्व को, अपने महत्त्व को नहीं समझ सकती। अतः वेदों की विद्या जो ताले में बन्द थी देव दयानन्द ने उसकी कुञ्जी न केवल पुरुषों के लिए अपितु स्त्रियों के लिए भी सुलभ कराते हुए वेद का प्रमाण प्रस्तुत किया-

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेयः।

ब्रह्म राजन्यायां शूद्राय, चार्याय च स्वाय चारणायच।।

– यजुः अ. 26-2

अर्थात् परमात्मा ने वेदों का प्रकाश मानव मात्र के लिए किया है। स्वामी जी ने सबके लिए शिक्षा की अनिवार्यता सिद्ध करते हुए सत्यार्थ-प्रकाश के तृतीय-समुल्लास में लिखा है- ‘‘इसमें राजनियम और जातिनियम होना चाहिए कि पांचवे अथवा आठवें वर्ष से आगे कोई अपने लड़के और लड़कियों को घर में न रख सके पाठशाला में अवश्य भेज देवे, जो न भेजे वह दण्डनीय हो।’’ स्त्रियों को सभी प्रकार के ज्ञान की आवश्यकता पर बल देते हुए वे आगे लिखते हैं- ‘‘जैसे पुरुषों को व्याकरण, धर्म और अपने व्यवहार की विद्या न्यून से न्यून अवश्य पढ़नी चाहिए, वैसे स्त्रियों को भी व्याकरण, धर्म, वैद्यक, गणित, शिल्प-विद्या तो अवश्य ही सीखनी चाहिए।’’ स्वामी जी के उक्त कथन में उनकी इस भावना की अभिव्यक्ति है कि गृह-सबन्धी आय-व्यय क लिए गणित, सन्तान को सयक्  आचरण सिखाने के लिए धर्म, गृह के सभी प्राणियों के लिए पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक भोजन-पान तथा रोगी के पथ्यापथ्य के हेतु वैद्यक, गृह-निर्माण तथा अन्य वस्त्र भूषणादि सबन्धी आवश्यकताओं के लिए शिल्प व कलाओं का ज्ञान प्राप्त करना प्रत्येक नारी के लिए उचित है।

स्त्री और धर्म :- महर्षि दयानन्द धर्म के संबंध में भी स्त्रियों को पुरुषों के समान ही धर्म-ग्रन्थों के पठन-पाठन, धार्मिक क्रियाओं के सपादन और गायत्री मन्त्र जाप आदि तथा अग्निहोत्रादि की अधिकारिणी मानते थे। महर्षि के वैदिक सिद्धान्त के अनुसार कोई भी धार्मिक-अनुष्ठान पत्नी के बिना पूर्ण नहीं माना जाता । ‘इमं मन्त्रं पत्नी पठेत’ आदि श्रौतसूत्र में वर्णित यह वाक्य इसमें स्पष्ट प्रमाण हैं। वे नारी के धार्मिक कार्यों में पुरुषों की सहभागिनी होने के प्रबल समर्थक अवश्य थे किन्तु धार्मिक कार्यों की आड़ में गृहस्थ धर्म की उपेक्षा उन्हें अग्राह्म थी। दोनों प्रकार के कर्त्तव्यों के मध्य एक सामञ्जस्य सेतु आवश्यक है। स्वामी जी की प्रेरणा के कारण ही आज आर्य समाज साधारण प्रशिक्षण के बाद महिलाओं को भी पौरोहित्य की अनुमति देता है। वैदिक परपरा में स्त्रियों को ब्रह्मा पद पर आसीन करने का उल्लेख भी मिलता है।

स्त्री और गृहस्थ धर्मःमहर्षि दयानन्द गृहाश्रम को विषयभोगों की पूर्ति का केन्द्र न मानकर जीवन के समस्त कर्त्तव्यों, लोकमंगल और पवित्रता का एक माध्यम मानते थे। उनकी ‘संस्कार विधि’ नामक पुस्तक के विवाह प्रकरण में उद्धृत मन्त्र दापत्य जीवन के उदान्त उद्देश्य और मर्यादा का परिचायक है-

समञ्जन्तु विश्वे देवाः समापो हृदयानि नौ।

सं मातरिश्वा संघाता समु देष्ट्री दधातु नौ।

– ऋग्वेद 20-85-47

अर्थात् दपति इस शुभ संकल्प के साथ वैवाहिक जीवन में प्रवेश करते हैं कि उन दोनों का प्रत्येक शुभ कार्य में विचारों का पूर्ण सामञ्जस्य इस प्रकार होगा जैसे दो पात्रों का जल एक पात्र में मिलकर एकरूप हो जाता है।

पुनर्विवाहः विधवाओं की दीनदशा देखकर ऋषि का हृदय रो उठा था। बाल-विवाह की कुप्रथा के कारण छोटी-छोटी कन्याएँ सारा जीवन वैधव्य से अभिशप्त होकर नरक भोगने के लिए बाध्य थीं। ऋषि ने पुनर्विवाह की अनुमति देते हुए उपदेश मञ्जरी के बारहवें व्यायान में बलपूर्वक यह कहा था- ‘‘ईश्वर के समीप स्त्री-पुरुष बराबर हैं, क्योंकि वह न्यायकारी है उसमें पक्षपात का लेश नहीं है। जब पुरुषों को पुनर्विवाह की आज्ञा दी जावे तो स्त्रियों को दूसरे विवाह से क्यों रोका जावे।’’ महर्षि की इसी प्रेरणा से प्रेरित होकर आर्य समाज ने विधवा विवाह को समाज में प्रतिष्ठित कर दिया।

पर्दा-प्रथा का विरोधः- इस कुरीति के उच्छेद के लिए महर्षि दयानन्द के समकालीन राजा राज मोहन राय भी बंगाल में प्रयत्नशील थे। परन्तु उन दोनों के  प्रयासों में पूर्व और पश्चिम का अन्तर था। राजा राममोहन राय पाश्चात्य सयता में रंगे थे और स्वामी दयानन्द के प्रयत्न भारतीय संस्कृति की सुदीर्घ परपरा के परिप्रेक्ष्य में किये जा रहे थे। अतः महर्षि दयानन्द पर्दा-प्रथा का विरोध और महिलाओं की पूर्ण स्वतन्त्रता का समर्थन करते हुए भी उनकी स्वेच्छाचारिता और उच्छ्रंखलता को स्वीकार नहीं करते थे।

सती-प्रथा का विरोधः- स्वामी दयानन्द के आगमन के समय समाज के कई वर्गों में पति की मृत्यु होने पर जीवित पत्नी को पति की चिता में जला दिया जाता था। इस जघन्य, नृशंस और अमानवीय प्रथा का महर्षि ने प्रबल विरोध किया। उनके इस सुधार कार्य से प्रेरित होकर अंग्रेज सरकार ने भी इस कुप्रथा को मिटाने का प्रयास किया।

वेश्यावृत्ति का विरोधःभारतीय समाज के मस्तक पर लगे वेश्यावृत्ति के कलंक ने स्वामी दयानन्द का हृदय झकझोर दिया था। अशिक्षा, निर्धनता, वैघव्य और सामाजिक अत्याचारों से पीड़ित होकर अनचाहे अनेक नारियों को पेट पालने के लिए यह घृणित व्यवसाय अपनाने को विवश होना पड़ता है। स्वामी दयानन्द वेश्यावृत्ति को प्रश्रय देने वाले विलासी पुरुषों को इसका उत्तरदायी मानते थे। भारत के माथे से इस कलंक को मिटाने का उन्होंने बहुत प्रयास किया। फर्रूखाबाद निवासी सेठ दीनानाथ के कुपथगामी युवा पुत्र ने स्वामी जी के उपदेश से प्रभावित होकर वेश्यागमन छोड़ दिया था। नन्हींजान नामक वेश्या के चंगुल में फंसे महाराजा जोधपुर को महर्षि ने जो कड़ी फटकार दी थी, वह तो उनकी प्रमुख वेश्यावृत्ति विरोधी घटना है। भले ही यह घटना ऋषि के प्राणान्त का कारण बनी हो, परन्तु उन्होनें कभी किसी बुराई से समझौता नहीं किया।

वर्तमान संदर्भ में नारीःस्वामी दयानन्द ने नारी जागरण के लिए जिस वैचारिक एवं सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात किया, ऋषि के उस मिशन को आगे बढ़ाते हुए आर्य समाज ने अनेक कन्या विद्यालयों एव कन्या गुरुकुलों की स्थापना की। आज तो उसके सुन्दर परिणाम हमारे समुख हैं। शिक्षा के क्षेत्र में आज नारी पुरुष से पीछे नहीं है बल्कि पिछले दशक से तो ऐसा लगने  लगा है कि नारी इस प्रतिस्पर्धा में पुरुष से आगे निकलने लगी है। परन्तु खेद की बात यह है कि महर्षि दयानन्द के मस्तिष्क में जिस शिक्षा का कार्यक्रम था वह लुप्त होता जा रहा है।

अतः समाज का यह दायित्व है कि उचित शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए वह कटिबद्ध हो। धर्म के क्षेत्र में आज की नारी के विचार सुलझे हुए नहीं है। साक्षर होते हुए भी नारी धार्मिक आडबरों की शिकार अधिक है। आवश्यकता है धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझने और तदनुरूप आचरण करने की ताकि घोर सांसारिकता के तनावपूर्ण क्षणों से मुक्ति पाई जा सके।

स्वामी दयानन्द द्वारा प्रदत्त नारी जागृति का यह अभियान तभी सार्थक होगा जबकि स्वयं नारी बालक की प्रथम शिक्षिका बनने से लेकर सामाजिक चेतना को उचित दिशा देने का गुरुतर दायित्व वहन करे।

नारी विषयक उक्त समस्त समस्याओं के मूल में अशिक्षा अथवा उचित शिक्षा का अभाव ही मुय कारण रहा है। अभी नारी की स्थिति में परिवर्तन का संघर्ष काल चल रहा है और समय की परिवर्तनशील गति के साथ समस्याएँ भी बदलती रही है। अब समय आ गया है कि समाज की जागरूक संस्थाओं के विद्वान् और चिन्तक आज की नारी समस्याओं को पहचान कर तद्विषयक उचित समाधानों के सुझाव और प्रसार का प्रयत्न करें। स्वामी दयानन्द के नारी सबन्धी क्रान्तिकारी कार्यक्रम आधुनिक प्रगतिशील संस्कृति में और भी अधिक प्रासंगिक सिद्ध हो रहे हैं। इसलिए हम निर्विवाद रूप से यह घोषणा कर सकते हैं कि वर्तमान युग की नारी – उत्थान क्रान्ति के सर्वाधिक सक्रिय उन्नायक महर्षि दयानन्द ही थे । परवर्ती सभी सुधारकों ने उन्हीं के कार्यक्रम का अनुगमन किया है।

– पूर्व आचार्य, पं. नेकी राम शर्मा राजकीय महाविद्यालय, रोहतक, हरियाणा

यह विवाह ऋषि दयानन्द जी की मान्यता के अनुसार जाति बन्धन तोड़कर हुआ है। प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

उत्तर ऐसा दियाः वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए शंका समाधान व प्रश्नोत्तर की कला में निष्णात होना आवश्यक है। कार्य क्षेत्र में आठ दस वर्ष तक कार्य करने का अनुभव होने पर जिसने इस कला में कोई सिद्धि प्राप्त नहीं की, उसको सफल मिशनरी तथा विद्वान् नहीं माना जा सकता। उसके लिए बोलना व लिखना एक व्यवसाय है। उसका जीवन उद्देश्यहीन जानो। यह कार्य वही कर सकता है जिसमें मिशन की पीड़ा होगी। जिसमें ज्ञान उजाला करने की ललक होगी। उसमें उत्तर देने की कला का अविर्भाव होगा ही। श्री पं. रामचन्द्र जी देहलवी एक बार पानीपत पधारे। एक घण्टे तक व्यायान दिया। फिर आधा घण्टा शंका समाधान के लिए दिया करते थे । एक श्रोता ने पूछा, आपके अपने से थोड़ा पहले यहाँ ठाकुर जी का तुलसीजी से विवाह हुआ है। भक्तों ने हर्षोल्लास से उसमें भाग लिया। आपका इसके बारे में क्या विचार है?

पण्डित जी ने कहा, ‘‘जितनी यहाँ के भक्तों को इस विवाह पर प्रसन्नता हुई मुझे उससे भी कहीं अधिक हो रही है। यह विवाह ऋषि दयानन्द जी की मान्यता के अनुसार जाति बन्धन तोड़कर हुआ है।’’

यह उत्तर सुनकर श्रोताओं ने करतल ध्वनि से इसका स्वागत किया। फिर बोले, ‘‘विवाह का प्रयोजन सन्तान की उत्पत्ति है। ये जोड़ी अभागी ही रहेगी । ये ऊत ही रहेंगे। इनके सन्तान तो होगी नहीं।’’ इस पर फिर करतल ध्वनि हुई। सारी नगरी में पण्डित जी के इस उत्तर की चर्चा होने लगी। यह है उत्तर देने की कला की मौलिकता।

‘मैं और मेरा आचार्य दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

देश व संसार में अनेक मत-मतान्तर हैं फिर हमें उनमें से ही किसी एक मत को चुन कर उसका अनुयायी बन जाना चाहिये था। यह वाक्य कहने व सुनने में तो अच्छा लगता है परन्तु यह एक प्रकार से सार्थक न होकर निरर्थक है। हमें व प्रत्येक मनुष्य को यह ज्ञान मिलना आवश्यक है कि वह कौन है, कहां से आया है, मरने पर कहां जाता है, किन कारणों से उसे अपने माता-पिता से जन्म मिला, किसी धनिक के यहां जन्म क्यों नहीं हुआ, धनिक का निर्धन के यहां क्यों नहीं हुआ, किसने इस संसार को बनाया है और कौन इसका धारण, पोषण व संचालन करता है? संसार को बनाने वाली वह सत्ता कहां है, दिखाई क्यों नहीं देती, उसका नाम क्या है? क्या किसी ने कभी उसको देखा है? हम स्वयं अपनी मर्जी से पैदा नहीं हुए हैं, जिसने हमें उत्पन्न किया है, उसका हमें जन्म देने का उद्देश्य क्या था व है? ऐसे अनेकानेक प्रश्नों के सही समाधानकारण उत्तर जहां से प्राप्त हों जिनसे जीवन का उद्देश्य जानकर उसकी प्राप्ति के सरल समुचित साधनों का ज्ञान मिलता है, मनुष्य को उसी धर्म का धारण पालन करना चाहिये। ऐसा न करके मनुष्य अपने जीवन का सदुपयोग नहीं करता और हो सकता है व होता है, वह सुदीर्घ काल, सैकड़ों, हजारों व लाखों वर्ष तक नाना प्रकार के दुःखों व निम्न से निम्न योनियों में जन्म लेकर दुःखों से आक्रान्त रहे।

हमने अपने मित्रों की प्रेरणा से पौराणिक परिवार में जन्म लेने पर भी आर्यसमाज के सत्संगों में भाग लेना आरम्भ किया और उसके साहित्य मुख्यतः सत्यार्थ प्रकाश, पंच-महायज्ञविधि आदि का अध्ययन किया। वैदिक विद्वानों व सच्चे महात्माओं के प्रवचनों को सुनकर व साहित्य को पढ़कर हमारे उपर्युक्त सभी प्रश्नों वच भ्रमों का समाधान हो गया जो अन्यथा नहीं हो सकता था। अतः हमारा कर्तव्य बनता था कि हमें जो सत्य ज्ञान मिला है, उससे हम अपने मित्रों व अन्यों को भी लाभान्वित करें। अतः इस कर्तव्य भावना से अधिकारी विद्वान न होने पर भी हमने अपना स्वाध्याय जारी रखा और लेखन के द्वारा अनेकानेक विभिन्न विषयों पर, जो जो हमें सत्य प्रतीत हुआ, उसे लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया। आज हम अपने बारे में यह कह सकते हैं कि हम स्वयं से परिचित हैं। मैं कौन हूं, क्या हूं, कहां से आया हूं, कहां-कहां जा सकता हूं, मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है, उसकी प्राप्ति के साधन क्या हैं, यह संसार किससे बना और कौन इसे चला रहा है? ऐसे सभी प्रश्नों का उत्तर मिला जिसका पूर्ण श्रेय मेरे आचार्य महर्षि दयानन्द सरस्वती को है। संक्षेप में हम इन सभी प्रश्नों के उत्तर इस संक्षिप्त लेख में देने का प्रयास करते हैं।

मैं जीवात्मा हूं जो कि एक चेतन तत्व है। चेतन होने के कारण ही मुझे सुख व दुःख की अनुभूति होती है। मैं एकदेशी हूं अर्थात् व्यापक नहीं हूं। शास्त्रों ने जीवात्मा का परिमाण बताया है। यह अत्यन्त सूक्ष्म है। एक शास्त्रकार ने कहा है कि हमारे सिर के बाल का अग्रभाग लें, फिर उसके 100 टूकड़े करें, फिर इन सौ में से एक टुकडें के भी सौ टुकड़े करें, इसका एक टुकड़ा अर्थात् सिर के बाल के अग्रभाग का दस सहस्रवां टुकड़ा जीवात्मा के लगभग बराबर व उससे भी सूक्ष्म होगा। यह बात विचार, चिन्तन व गवेषणा से सत्य सिद्ध होती है। मैं अर्थात् जीवात्मा अनादि, नित्य, अजर, अमर, अविनाशी सत्यासत्य का जानने वाला होता है परन्तु अविद्यादि कुछ दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। ज्ञान कर्म जीवात्मा के दो लक्षण कहे जा सकते हैं। सृष्टिकाल में सभी जीवात्माओं को उनके पूर्व कर्मानुसार जन्म भोग प्राप्त होते हैं। इस जन्म में हमें जो माता-पिता, संबंधीं व अन्य परिस्थितियां, सुख-दुःख आदि मिले हैं वह अधिकांशतः पूर्व जन्मों के कर्मों के फलों जिसे प्रारब्ध कहते हैं व इस जन्म के क्रियमाण कर्मों के कारण प्राप्त हुए  हैं। हमें जन्म, सुख-दुःख रूपी भोगों को देने वाली, वस्तुतः एक सत्ता ईश्वर है। ईश्वर ही सृष्टि को बनाने व धारण-पोषण अर्थात् संचालित करने वाली सत्ता है। ईश्वर परम धार्मिक है। वह सत्य, दया व करूणा से सराबोर है। उसके गुण, कर्म, स्वभाव सर्वदा समान रहते हैं, उनमें विपरीतता कभी नहीं आती। संसार में ईश्वर से इतर अत्यन्त सूक्ष्म मूल प्रकृति है, यह चेतन न होकर जड़ है।  यह प्रकृति ईश्वर व जीव की ही तरह अनादि, नित्य, अविनाशी है तथा अत्यन्त सूक्ष्म, सत्व-रज-तम गुणों वाली है। यइ ईश्वर के अधीन होती है। इसे सृष्टि का उपादान कारण कहते हैं। ईश्वर इस सृष्टि का निमित्त कारण है। इस प्रकृति को ही ईश्वर परिवर्तित कर वर्तमान सृष्टि अर्थात् नाना सूर्य, चन्द्र, ग्रह, उपग्रह, पृथिवी आदि का निर्माण सृष्टि काल के आरम्भ में करता है। इसी प्रकार के निर्माण वह इससे पूर्व के कल्पों में करता रहा है तथा इस कल्प के बाद के कल्पों में भी करेगा। यह सृष्टि 4 अरब 32 करोड़ वर्षों तक इसी प्रकार से विद्यमान रहती है। इस गणना का आरम्भ ईश्वर द्वारा सृष्टि का निर्माण करने के दिन से होता है। इसके बाद पुरानी हो जाने के कारण इसकी प्रलय अवस्था आती है जब यह छिन्न भिन्न होकर अपनी मूल अवस्था, जो सत्व, रज व तम गुणों वाली अत्यन्त सूक्ष्म होती है, में परिवर्तित हो जाती है। यह प्रलयावस्था भी 4 अरब 32 करोड़ वर्षों तक रहती है, जो कि ईश्वर की रात्रि कहलाती है तथा जिसके पूरा होने पर ईश्वर पुनः सृष्टि बनाता है और प्रलय से पूर्व की जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार वा प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के रूप में जन्म देता है।

 

ईश्वर के बारे में यह जानना भी उचित होगा कि ईश्वर सत्य, चित्त व आनन्द स्वरूप है। वह निराकार व सर्वव्यापक है। वह किसी एक स्थान, आसमान, समुद्र आदि में नहीं रहता अपितु सर्वव्यापक है। वह सर्वज्ञ अर्थात् सभी विषयों का पूर्ण ज्ञान रखता है और सर्वशक्तिमान है। वह न्यायकारी व दयालु भी है। वह सनातन, नित्य, अनादि, अनुत्पन्न, अजर, अमर, अभय, नित्य व पवित्र है। वह सर्वव्यापक व अतिसूक्ष्म होने के कारण सब जीवात्माओं के भीतर भी विद्यमान व प्रविष्ट है। अतः जीवात्मा का कर्तव्य है कि वह स्वयं व ईश्वर के सत्य स्वरूप को जाने। यह सत्य स्वरूप हमने सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थों से ही जाना है। अन्य सभी ग्रन्थों व मत-मतान्तरों की पुस्तकों को पढ़ने से अनेक सन्देह उत्पन्न होते हैं जिनका वहां निवारण नहीं होता। सत्यार्थ प्रकाश में सभी बातें, मान्यतायें व सिद्धान्त महर्षि दयानन्द जी ने वेदों व वैदिक ग्रन्थों से लेकर मानवमात्र के हित व सुख के लिए सरल आर्यभाषा हिन्दी में वेद प्रमाण, युक्ति व प्रमाणों आदि सहित प्रस्तुत की हैं। यदि वह यह ग्रन्थ संस्कृत में लिखते तो फिर हम संस्कृत जानने के कारण उससे लाभान्वित हो पाते और तब हम अज्ञानी ही रहते और मतमतान्तरों का अपना कारोबार यथापूर्व चलता रहता। हमारा कर्तव्य है कि हम ईश्वर को जानकर उसकी उपासना करें। यद्यपि ईश्वर हमारी आत्मा में व्यापक है, अतः उपासना अर्थात् वह हमारे निकट तो सदा से है परन्तु उपासना में ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना भी सम्मिलित है। यह स्तुति, प्रार्थना व उपासना ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन ही है जैसे कि किसी से उपकृत होने पर हम धन्यवाद कहते हैं। उपासना करने से हमारे गुण-कर्म-स्वभाव सुधर कर ईश्वर के गुणों के अनुरूप यथासम्भव हो जाते हैं। ईश्वर ने हमारे लिये यह विशाल संसार बनाया, इसे चला रहा है, इसमें हमारे सुख के लिए नाना प्रकार की भोग सामग्री बनाई है और हमें मानव जन्म व माता-पिता-बन्धु-बान्धव-इष्टमित्र-आचार्य-ऋषि आदि प्रदान किये हैं। अतः कृतज्ञता ज्ञापन करना हमारा कर्तव्य है अन्यथा हम कृतघ्न होंगे। यदि हम किसी की कोई सहायता करते हैं तो हम भी चाहते हैं कि वह हमारे प्रति कृतज्ञता का भाव रखे। इस भावना की अभिव्यक्ति का नाम ही उपासना है जिसमें स्तुति व प्रार्थना भी सम्मिलित है। नियमित यथार्थ विधि से उपासना करने से ही ईश्वर का जीवात्मा में साक्षात्कार भी होता है। यह अतिरिक्त फल उपासना का होता है। ईश्वर साक्षात्कार की अवस्था के बाद जीवन मुक्ति का काल होता है जिसमें मनुष्य उपकार के कार्यों को करता हुआ कर्मों के बन्धन में नहीं फंसता और मृत्यु आने पर जन्म मरण से मुक्त होकर ब्रह्मलोक अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति करके ईश्वर के सान्निध्य से आनन्द का भोग करता है। यही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है जो सच्चे ईश्वर को जानकर उपासना करने से प्राप्त होता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही हमारा जन्म हुआ है। सृष्टि के आरम्भ से सभी ऋषिमुनि विद्वान इस पथ पर चले हैं और हमें भी उनका अनुकरण अनुसरण करना है। इस पथ पर चलने के लिए महर्षि दयानन्द की शिक्षा है कि हमारे सभी कार्य व व्यवहार सत्य पर आधारित होने चाहिये। वह सत्याचार को ही मनुष्यों का यथार्थ व अनिवार्य धर्म बताते हैं। इसके विपरीत असत्य व दुष्टाचार ही अधर्म है।

 

ईश्वर, जीव व प्रकृति विषयक यह समस्त ज्ञान सृष्टि क्रम के अनुकूल व साध्य कोटि का है और वेदों व ऋषि मुनियों के जीवन व उनके सत्य उपदेशों से प्रमाणित है। इसके विपरीत ज्ञान व क्रियायें अज्ञान व मिथ्याचार हैं। यह ज्ञान मुझे मेरे आचार्य महर्षि दयानन्द सरस्वती से प्राप्त हुआ है। महर्षि दयानन्द का जन्म गुजराज के राजकेाट जिले के एक कस्बे टंकारा में पिता श्री कर्षनजी तिवारी के यहां 12 फरवरी, सन् 1825 को हुआ था। 14 वर्ष की आयु में शिवरात्रि के दिन उन्होंने पिता के कहने से कुल परम्परा के अनुसार शिवरात्रि का व्रत किया था। देर रात्रि शिवलिंग पर चूहों को उछलते-कूदते देखकर उन्हें मूर्तिपूजा की असारता व मिथ्या होने का ज्ञान हुआ था। कुछ काल बाद उनकी एक बहिन व चाचा की मृत्यु होने पर उन्हें वैराग्य हो गया था। 21 वर्ष तक उन्होंने माता-पिता के पास रहते हुए संस्कृत, यजुर्वेद व अन्य ग्रन्थों का अध्ययन किया था। 22 वर्ष की अवस्था में वह सच्चे ईश्वर व मुक्ति के उपायों की खोज व उनके पालन के लिये गृहत्याग कर देशभर में विद्वानों, साधु-सन्यासियों, योगियों के सम्पर्क में आये। मथुरा में प्रज्ञाचक्षु गुरू विरजानन्द से उन्होंने आर्ष संस्कृत व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त प़द्धति से अध्ययन कर सन् 1863 में गुरू की आज्ञा से संसार से धार्मिक व सामाजिक क्रान्ति सहित समग्र अज्ञान व अन्धकार दूर करने के लिये कार्य क्षेत्र में प्रविष्ट हुए। उन्होंने मौखिक प्रवचन, उपदेश, व्याख्यान, शास्त्रार्थ, शंका समाधान, ग्रन्था लेखन द्वारा देश भर में घूम घूम कर प्रचार किया। प्रचार के निमित्त ही उन्होंने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, ऋग्वेद-यजुर्वेद भाष्य संस्कृत व हिन्दी में, पंचमहायज्ञविधि, व्यवहारभानु, गोकरूणानिधि आदि अनेक ग्रन्थों का प्रकाशन किया। नवम्बर, 1869 में उन्होंने काशी के 30 से अधिक शीर्षस्थ सनातनी विद्वानों से मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया था। मूर्तिपूजा वेद सम्मत सिद्ध नहीं हो सकी थी न ही आज तक हो पायी है। उनके अनेक विरोधियों ने उन्हें जीवन में अनेक बार विष दिया। ऐसी ही विष देने की एक घटना जोधपुर में घटी। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती के अनुसार इस षडयन्त्र में अंग्रेज सरकार भी सम्मिलित रही हो सकती है। इसके परिणाम स्वरूप 30 अक्तूबर, 1883 को दीपावली के दिन अजमेर में उनका देहावसान हो गया। उन्होंने जिस प्रकार से अपने प्राण त्यागे उससे लगता है कि यह कार्य उन्होंने शरीर के जीर्ण होने पर ईश्वर की प्रेरणा से स्वतः किया। स्वामी जी ने अज्ञान, अंधविश्वासों का खण्डन किया, सामाजिक विषमता को दूर किया, स्त्री व शूत्रों को वेदाध्ययन का अधिकार दिया, विधवाओं को पुनर्विवाह का अधिकार तथा समाज से सामाजिक विषमता और अस्पर्शयता को समाप्त किया। लोगों को ईश्वर व जीवात्मा का ज्ञान कराकर सच्ची ईश्वर भक्ति सिखाई और जीवन मुक्ति के लिए मृत्यु व मोक्ष के सत्य स्वरूप का प्रचार किया। देश की आजादी भी उनके प्रेरणाप्रद विचारों व आर्यसमाज के सदस्यों वा अनुयायियों के पुरूषार्थ की देन है।

 

 मेरे आचार्य दयानन्द मेरे ही नहीं अपितु सम्पूर्ण संसार के आचार्य हैं। उन्होंने अज्ञानान्धकार में डूबे विश्व को सत्य ज्ञान रूपी अमृत ओषधि का पान कराया और उसे मोक्ष मार्ग पर अग्रसर होने की प्रेरणा की। मैं अपने आचार्य का कोटि कोटि ऋणी हूं। संसार के सभी लोग भी उनके ऋणी हैं परन्तु अपनी अविद्या, अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ दुराग्रह आदि कारणों से उससे लाभ नहीं ले पा रहे हैं। संसार के प्रत्येक मनुष्य को महर्षि दयानन्द रचित साहित्य का अध्ययन कर, मतमतान्तरों अज्ञानी धर्मगुरूओं के चक्र में फंस कर, अपने जीवन को सफल करना चाहिये। ईश्वर सबको सदबुद्धि प्रदान करें। महर्षि दयानन्द को कोटिशः नमन।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

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