वर्तमान युग में वेदों की प्रासंगिकता : शिवदेव आर्य, पौन्धा, देहरादून

veda

 

परमपिता परमेश्वर ने जब सृष्टि का निर्माण किया तब सृष्टि में अनेकविध जड़-चेतनों का निर्माण किया। इन नाना विध जड़-चेतनों में यदि कोई सर्वश्रेष्ठ है तो वह है मनुष्य। जैसे परमात्मा ने अपनी सर्वोत्तम कृति मनुष्य को बनाया है ठीक वैसे ही मनुष्यों ने भी अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना के रुप में संसार का निर्माण किया है। इसीलिए मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा जाता है। मनुष्य ने जिस प्रकार के नियम और व्यवस्था की है उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता  हैै कि उसने पूर्णरुप से परमात्मा की नकल की है क्योंकि परमेश्वर अपने द्वारा निर्मित सृष्टि के नियमों के सदैव अनुकुल रहता है वैसे ही मनुष्य अपने द्वारा निर्मित समाज के नियमों में बंधा हुआ होता है। इस प्रकार हम इसके मूल को खोजे  तो हमें ज्ञात होता है कि अनुशासन में इसकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। परमेश्वर अपने द्वारा निर्मित सृष्टि नियमों के सर्वदानुकुल रहता है। क्योंकि परमेश्वर अपने आपमें अनुशासित होता है। यदि परमेश्वर अनुशासित नहीं होता तो प्रतिदिन प्रलय और निर्माण करता रहता। वह १४ मनवन्तरों के इतने लम्बे समय की प्रतीक्षा नहीं करता। जिस समय जो चाहता वहीं करता। इसी अनुशासन को हम जड़-चेतन दोनों में ही देख सकते हैं। जड़रुपी सूर्य यदि अनुशासन के अन्दर नहीं होता तो वह अपनी इच्छा से निकलता और डूबता, परन्तु ऐसा नहीं है।

इसीलिए अनुशासन की नितान्त अनिवार्यता है। इसी कारण अनुशासन के अभाव में अव्यवस्था न फैल जाये । इस प्रकार सोचकर परमपिता परमेश्वर ने सृष्टि के आदि में चार सर्वश्रेष्ठ आत्माओं को वेद का ज्ञान दिया। इस वेद के ज्ञान से सम्पूर्ण प्राणी मात्र अनुशासन सहित अनेक विध ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त करे व करावें और धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष को प्राप्त होवे।

पशुओं को अपने जन्म के पश्चात् माँ के स्तनपान करना सीखना नहीं पड़ता। पशुओं में जन्म से ही तैरने का गुण विद्यमान होता है। पशुओं की संवेदन शक्ति बहुत तीव्र होती है। इस बात को वैज्ञानिक लोग भी स्वीकार करते हैं। इसीलिए तो जब कोई मन्त्री या नेता आदि लोग आते हैं  उनके सेवक गण गुप्त स्फोटक पदार्थों को ढूढ़ने के लिए मशीन के साथ-साथ कुत्तों को भी लेकर आते हैं। इसप्रकार हम कह सकते है कि पशु जन्म से ही पूर्ण है। वो भोगों को भोगने के लिए इस सृष्टि पर आये हैं न कि कर्म करने के लिए। इसीलिए पशुओं को भोगयोनि की श्रेणी में रखा जाता है। अतः परमेश्वर ने वेदों का ज्ञान प्राणीमात्र के लिए प्रदान किया है।

सृष्टि के आदि में परमेश्वर ने चार सर्वश्रेष्ठ आत्माओं को वेद का ज्ञान दिया। ऋग्वेद का ज्ञान अग्नि ऋषि को, यजुर्वेद का ज्ञान वायु ऋषि को, सामवेद का ज्ञान आदित्य ऋषि को, अथर्ववेद का ज्ञान अंगिरा को प्रदान किया। इन्हीं ऋषिओं की परम्परा से वेदों का शुध्द ज्ञान आज हम को प्राप्त हो रहा है। इन चारों वेदों में प्रत्येक विषय का ज्ञान है। पुनरपि मुख्य रुप से ज्ञान, कर्म और उपासना ये तीन वेदों के विषय हैं।

माता-पिता जिस प्रकार अपनी सन्तान को कार्य करने के लिए सुख, सुविधा के लिए उसकी आवश्यकताओं  की पूर्ति करते हैं वैसे ही संसार के लोगों के लिए उस  परमेश्वर ने आवश्यक वस्तु वेद को मानव समाज को दिया। इन वेदों में वो सम्पूर्ण सामग्री है जिसे पाकर मनुष्य सुख-शान्ति व समृध्दि को पा कर अत्यन्त परमधाम मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।

जब हमारा जन्म होता है तब हमारी माता जी हमें बताती हैं कि अमुक व्यक्ति तुम्हारा भाई हैं, पिता हैं इत्यादि। जितना माता अपने  बच्चों से प्यार करती है, उतना और कोई कदापि नहीं कर सकता।

वेदों को भी इसीलिए वेदमाता प्रचोदयन्ताम्…..मन्त्र से माता के नाम से सम्बोधित किया जाता है। क्योंकि वेदमाता परमपिता परमेश्वर के विषय में जितना बता सकती है, उतना और दूसरा कोई नहीं बता सकता  इसलिए परमपिता परमेश्वर को अच्छी प्रकार से जानने के लिए वेद को जानना और मानना नितान्त अनिवार्य है। मानव समाज के लिए वेद की भूमिका में सबसे महत्वपूर्ण बात है आस्तिक बनना। जब व्यक्ति आस्तिक हो जायेगा तो समाज अत्यधिक उन्नति करेगा। आस्तिकता के आते ही मनुष्य अनुशासित हो जाता है। अनुशासन के अन्तर्गत ही मनुष्य नियम पूर्वक कार्य करने लगता है। आस्तिक होने का सीधा-साफ अर्थ है-परमेश्वर को सर्वव्यापक मानना। इसी से मनुष्य जब भी कोई कार्य करता है तब यही महसुस करता है कि उसे परमेश्वर देख रहा है। परन्तु वर्तमान समय में अनुशासन नहीं हैं, इसका कारण है कि हम आस्तिक नहीं है, वेद को नहीं मानते  (नास्तिको वेद निन्दकः)

इसी अनुशासन के आभाव में दुराचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार व्याप्त हो रहा है। इन सब समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए हमें वेद की शरण में जाना पडे़गा। वेदों की महत्वपूर्ण भूमिका मनुष्य की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में है। प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि – मेरा घर परिवार सुखी हो, समृध्दि से भरा हो, पुत्र आज्ञाकारी हो, पत्नी मधुरभाषी हो। इन्हीं बातों को वेद में इसप्रकार व्यक्त किया गया है –

अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।

जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शान्तिवान् ।।

                                                    ( अथर्व.-३/३॰/२)

अर्थात् पुत्र पिता का अनुव्रती होवे अर्थात् पिता के व्रतों को पूर्ण करने वाला हो। पुत्र माता के साथ उत्तम मन वाला हो अर्थात् माता के मन को संतुष्ट करने वाला हो। पत्नी पति के साथ मधुर एवं शान्ति युक्त बोले। इसी बात को चाणक्य ने लिखा है कि –

यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्या छन्दानुगामिनी।

विभवे यश्च संतुष्टस्तस्य स्वर्गम् इहैवहि

                                                                 (चाणक्यनीति)

मनुष्य को सुखी रखने के लिए चाणक्य जी कहते हैं कि-

ते पुत्रा ये पितुर्भक्ता स पिता यस्तु पोषकः।

तन्मित्रं यस्य विश्वासः सा भार्या यत्र निवृत्तिः।।

पुत्र वही है जो पिता का भक्त हो और पिता  का भक्त हो और पिता वही जो पुत्र का पालन पोषण करता हो, मित्र वही जिस पर विश्वास किया जाये और पत्नी वही है जिससे सुख प्राप्त किया जाए।

इस प्रकार वेद तथा ऋषिग्रन्थ यही बताते हैं कि सुखी जीवन के लिए परिवार में परस्पर उत्तरदायित्व तथा सहयोग की भावना बनी रहे।

मानव समाज को व्यवस्थित रखने के लिए लोगों के कार्य भी व्यवस्थित होने चाहिए। इसीलिए वेद में कहा गया है-

ब्राह्मणोऽस्यमुखमासीद् बाहूः राजन्यः कृतः।

उरु तदस्य यद् वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत्

इस मन्त्र से सिध्द होता है कि सम्पूर्ण संसार के मनुष्यों को कर्म के आधार पर चार भागों में बाँटा गया है।

ब्राह्मण: वेद आदि शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना-कराना, यज्ञ करना-कराना, दान लेना तथा देना करना कर्मों को करना ब्राह्मणों का परम कर्तव्य है;-

अध्यापनमध्यनं यजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिगृह´चैव ब्रह्मणनामकल्पमत्।। (मनु.-१/८८)

क्षत्रिय: प्रजा का रक्षण, दान देना, यज्ञ करना, वेदाध्ययन करना एवं विषयों में आसक्त न होना आदि कर्मों को करना क्षत्रियों का परम कर्तव्य है।।

प्रजानां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च।

विषयेष्वप्रशक्ति क्षत्रियस्य समासतः।। (मनु.-१/८९)

वैश्य: पशुओं का रक्षण, दान देना, यज्ञ करना, वेदाध्ययन करना, वाणिज्य-व्यापार आदि कर्मों को करना वैश्यों का परम कर्तव्य है।

पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।

वाणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च।। (मनु.-१/९॰)

शुद्र: उपर्युक्त तीनों वर्णों की सेवा शुश्रूषा करना शूद्रों के कर्म हैं।

एकमेव तु शुद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।

एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया।। (मनु.-१/९१)

इस प्रकार की वर्ण व्यवस्था समाज में होने से सुख-शान्ति का माहौल बना रहता है।

मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो कर्म योनी के अन्तर्गत आता है। मनुष्यों को कार्य करने की स्वतन्त्रता है परन्तु फल भोगने की स्वतन्त्रता नहीं है। जैसे योगेश्वर श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि-

      कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

      मा कर्मफल हेतुर्भूमा ते संगोस्त्वकर्मणि।।

मनुष्य कर्म करने में सर्वदा स्वतन्त्र है परन्तु फल भोगने में परतन्त्र है। इसीलिए उसे सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म का ज्ञान होना चाहिए क्योंकि इन्हीं कर्मों के अनुसार मनुष्यों को फल मिलता है। अच्छे बुरे कर्मों की पहचान के लिए कहा गया है कि आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्’ अर्थात् स्वयं को जो व्यवहार अच्छा न लगे, उसे अन्यों के साथ कदापि नहीं करना चाहिए। हमारी आत्मा सही गलत का सही निर्णायक है। इसीलिए जब अपनी आत्मा को कोई कार्य अच्छा न लगता हो भला वह कार्य दूसरों के लिए कैसे हितकर हो सकता है? ऐसी विचारधारा के होने से हम गलत कार्यों के करने से रुक जायेंगे।

मनुष्य का सदाचारी होना बहुत जरुरी है। सदाचारी मनुष्य ही समाज में सुखी रह सकता है और दूसरों को सुख दे सकता है। वर्तमान समाज में सदाचार की नितान्त अनिवार्यता है। इसके लिए वेद हमें उपदेश देते हुए कहता है कि-

सप्त मर्यादाः कवयस्ततक्षुस्तासामेकामिदभ्यं हुरो गात्।

आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीतो पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ।। (ऋग्वेद-१॰/५/६)

अर्थात् हिंसा, चोरी, व्यभिचार, मद्यपान, जुआ, असत्य भाषण और इन पापों के करने वालों दुष्टों का सहयोग करने का नाम सप्त मर्यादा है। इनमें से जो एक भी मर्यादा का उल्लंघन करता है अर्थात् एक भी पाप करता है, वह पापी होता है और जो धैर्य से इन हिंसादि पापों को छोड़  देता है, वह निस्संदेह जीवन का स्तम्भ ;आदर्शद्ध होता है और मोक्षभागी होता है।

उलूकयातुं शुशुलूकयातुं जाहि श्वयातुमुत कोकयातुम्।

सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुं दृषदेव प्र मृण रक्ष इन्द्र।। (ऋग्वेद-७/१॰४/२२)

अर्थात् गरुड़ के समान मद (घमंड), गीध के समान लोभ, कोक के समान काम, कुत्ते के समान मत्सर, उलूक के समान मोह (मूर्खता) और भेडि़या के समान क्रोध को मार भगाना अर्थात् काम, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि छह विकारों को अपने अन्तःकरण से हटा दो।

आज संसार में सत्यता का अभाव है इसी लिए कहा जाता है कि – सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्………’ सत्य बोलने के साथ-साथ मधुर भाषण होना चाहिए। अतः कहा गहा है कि-

जिह्नाया अग्रे मधु मे जिह्नामूले मधूलकम्।

     ममेदह क्रतावसो मम चित्तमुपायसि।।   

     मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम्।

     वाचा वदामि मधुमद् भूयासं मधु संदृशः।।        (अथर्ववेद-१/३४/२-३)

अर्थात् मेरी जिह्ना के अग्रभाग में मधुरता हो और जिह्ना के मूल में मधुरता हो। हे मधुरता! मेरे कर्म में तेरा वास हो और मेरे मन के अन्दर भी तू पहुँच जा। मेरा आना-जाना मधुर हो, मैं स्वयं मधुर मूर्ति बन जाऊॅ।

हमारी किसी भी इन्द्रिय से अभद्र, असभ्य व्यवहार न होवे इसके लिए वेद बारम्बार आदेश देता है –

भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।

स्थिरैरंगैस्तुष्टुवां सस्तनूभिव्र्यशेमहि देवहितं यदायुः।। (यजुर्वेद-२५/२१)

समाज में शराब पीना व जुआ खेलना एक शौक हो गया है। इन कृत्यों से समाज का निरन्तर पतन ही हो रहा है। एतदर्थ इनकी रोकथाम के लिए वेद कहता है कि –

हत्सु पीतासे युध्यन्त दुर्मदासो न सुशयाम्। ऊधर्न नग्ना जरन्ते।।

अर्थात् दिल खोलकर शराब पीने वाले दुष्ट लोग आपस में लड़ते हैं और नंगे होकर व्यर्थ बड़बड़ाते हैं, इसीलिए शराब कदापि नहीं पीनी चाहिए।

जिसप्रकार शराब पीना बुरा है, उसी प्रकार जुआ खेलना भी बुरा है। वेद उपदेश देता है:-

जाया तप्यते कितवस्य हीना माता पुत्रस्य चरतः क्वस्वित्। 

ऋणावा विभ्यध्दनमिच्छमानोऽन्येषामस्तमुप नक्तमेति।।

अर्थात् जुआरी की स्त्री कष्टमय अवस्था के कारण दुःखी रहती है, गली-गली मारे-मारे फिरने वाले जुआरी की माता रोती रहती है,  कर्जे से लदा हुआ जुआरी स्वयं सदा डरता रहता है और धन की इच्छा से वह रात के समय दूसरों के घरों में चोरी करने के लिए पहुँचना है, इसलिए जुआ खेलना अत्यन्त बुरा है।

इसी प्रकार चोरी को भी बुरा बतलाया गया है। अतः अथर्ववेद में कहा गया है कि-

येऽमावास्यां रात्रिमुदस्थुव्र्राजमत्रिणः।

अग्निस्तुरीयो यातुहा सो अस्मभ्यमधि ब्रवत्।।

अर्थात् जो मुफ्तखोरे, भूखे और भटकने वाले रात्री में बस्ती के भीतर चोरी करने और डाका डालने के लिए आते हैं, उनसे बचने के लिए राजपुरुष सबको सचेत करता है और उन्हें पकड़कर मार डालता है। इसीलिए कभी भी किसी की चोरी नहीं करनी चाहिए।

वास्तव में यह सत्य प्रतीत होता है कि हम यदि वेद के द्वारा निर्दिष्ट मार्गों का अनुसरण करने तो निश्चित ही आज समाज में फैली बुराईयाँ समाप्त हो जायेंगी। इसीलिए हम सबको वेदों की प्रासंगिता को समझते हुए संगच्छध्वं संवदध्वम्’ की भावना से ओत-प्रोत होते हुए वेद के द्वारा दिखाये गये मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।

वेदों की श्रेष्ठता के बारे में श्री अटलबिहारी वाजपेयी जी कहते हैं कि-

वेद-वेद के मन्त्र मन्त्र में,

                मन्त्र मन्त्र की पंक्ति-पक्ति में।

                पंक्ति-पंक्ति के अक्षर स्वर में,

                दिव्य ज्ञान आलोक प्रदीप्त।।

आर्यों! वेदनिधि को पहचान कर स्वयं को वेदानुकुल बनावें और दूसरों को भी वेद मार्ग का अनुसरण करने का उपदेश देवें।

 

– श्रीमद् दयानन्दार्ष-ज्योतिर्मठ-गुरुकुल,

दून-वाटिका-२, पौन्धा, देहरादून

पारसी मत का मूल वैदिक धर्म(vedas are the root of parsiseem)

वेद ही सब मतो व सम्प्रदाय का मूल है,ईश्वर द्वारा मनुष्य को अपने कर्मो का ज्ञान व शिक्षा देने के लिए आदि काल मे ही परमैश्वर द्वारा वेदो की उत्पत्ति की गयी,लैकिन लोगो के वेद मार्ग से भटक जाने के कारण हिंदु,जेन,सिख,इसाई,बुध्द,पारसी,मुस्लिम,यहुदी,आदि मतो का उद्गम हो गया। मानव उत्पत्ति के वैदिक सिध्दांतानुसार मनुष्यो की उत्पत्ति सर्वप्रथम त्रिविष्ट प्रदेश(तिब्बत) से हुई (सत्यार्थ प्रकाश अष्ट्म समुल्लास) लेकिन धीरे धीरे लोग भारत से अन्य देशो मे बसने लगे जो लोग वेदो से दूर हो गए वो मलेच्छ कहलाए जैसा कि मनुस्मृति के निम्न श्लोक से स्पष्ट होता है “
शनकैस्तु  क्रियालोपादिमा: क्षत्रियजातय:।
वृषलत्वं गता लोके ब्रह्माणादर्शनेन्॥10:43॥  –
निश्चय करके यह क्षत्रिय जातिया अपने कर्मो के त्याग से ओर यज्ञ ,अध्यापन,तथा संस्कारादि के निमित्त ब्राह्मणो के न मिलने के कारण शुद्रत्व को प्राप्त हो गयी।
” पौण्ड्र्काश्र्चौड्रद्रविडा: काम्बोजा यवना: शका:।
पारदा: पहल्वाश्र्चीना: किरात: दरदा: खशा:॥10:44॥
पौण्ड्रक,द्रविड, काम्बोज,यवन, चीनी, किरात,दरद,यह जातिया शुद्रव को प्राप्त हो गयी ओर कितने ही मलेच्छ हो गए जिनका विद्वानो से संपर्क नही रहा।  अत: यहा हम कह सकते है कि भारत से ही आर्यो की शाखा अन्य देशो मे फ़ैली ओर वेदो से दूर रहने के कारण नए नए मतो का निर्माण करने लगे। इनमे ईरानियो द्वारा “पारसियो” मत का उद्गम हुआ।पारसी मत की पवित्र पुस्तक जैद अवेस्ता मे कई बाते वेदो से ज्यों की त्यों ली गयी है। यहा मै कुछ उदाहरण द्वारा वेदो ओर पारसी मत की कुछ शिक्षाओ पर समान्ता के बारे मे लिखुगा-   1 वैदिक ॠषियो का पारसी मत ग्रंथ मे नाम-
पारसियो की पुस्तक अवेस्ता के यास्ना मे 43 वे अध्याय मे आया है ” अंड्गिरा नाम का एक महर्षि हुवा जिसने संसार उत्पत्ति के आरंभ मे अर्थववेद का ज्ञान प्राप्त किया।
 एक अन्य पारसी ग्रंथ शातीर मे व्यास जी का उल्लेख है-“

“अकनु बिरमने व्यास्नाम अज हिंद आयद  !                                दाना कि  अल्क    चुना  नेरस्त  !!

अर्थात  :- “व्यास नाम का एक ब्राह्मन हिन्दुस्तान से आया . वह बड़ा ही  चतुर  था और उसके सामान अन्य कोई बुद्धिमान नहीं हो सकता  ! ”    पारसियो मे अग्नि को पूज्य देव माना गया है ओर वैदिक ॠति के अनुसार दीपक जलाना,होम करना ये सब परम्परा वेदो से पारसियो ने रखी है।

 इनकी प्रार्थ्नात की स्वर ध्वनि वैदिक पंडितो द्वारा गाए जाने वाले साम गान से मिलती जुलती है।
 पारसियो के ग्रंथ  जिन्दावस्था है यहा जिंद का अर्थ छंद होता है जैसे सावित्री छंद या छंदोग्यपनिषद आदि|
 पारसियो द्वारा वैदिक वर्ण व्यवस्था का पालन करना-
पारसी भी सनातन की तरह चतुर्थ वर्ण व्यवस्था को मानते है-
1) हरिस्तरना (विद्वान)-ब्राह्मण
2) नूरिस्तरन(योधा)-क्षत्रिए
3) सोसिस्तरन(व्यापारी)-वैश्य
 4) रोजिस्वरन(सेवक)-शुद्र
संस्कृत ओर पारसी भाषाओ मे समानता-
यहा निम्न पारसी शब्द व संस्कृत शब्द दे रहा हु जिससे सिध्द हो जाएगा की पारसी भाषा संस्कृत का अपभ्रंश है-
 कुछ शब्द जो कि ज्यों के त्यों संस्कृत मे से लिए है बस इनमे लिपि का अंतर है-
 पारसी ग्रंथ मे वेद- अवेस्ता जैद मे वेद का उल्लेख-
1) वए2देना (यस्न 35/7) -वेदेन
अर्थ= वेद के द्वारा
 2) वए2दा (उशनवैति 45/4/1-2)- वेद
 अर्थ= वेद
वएदा मनो (गाथा1/1/11) -वेदमना
अर्थ= वेद मे मन रखने वाला
अवेस्ता जैद ओर वेद मंत्र मे समानता:- वेद से अवेस्ता जैद मे कुछ मंत्र लिए गए है जिनमे कुछ लिपि ओर शब्दावली का ही अंतर है, सबसे पहले अवेस्ता का मंथ्र ओर फ़िर वेद का मंत्र व अर्थ-                                        1) अह्मा यासा नमडंहा उस्तानजस्तो रफ़ैब्रह्मा(गाथा 1/1/1)
मर्त्तेदुवस्येSग्नि मी लीत्…………………उत्तानह्स्तो नमसा विवासेत ॥ ॠग्वेद 6/16/46॥
=है मनुष्यो | जिस तरह योगी ईश्वर की उपासना करता है उसी तरह आप लोग भी करे।
   2) पहरिजसाई मन्द्रा उस्तानजस्तो नम्रैदहा(गाथा 13/4/8)
 …उत्तानहस्तो नम्सोपसघ्………अग्ने॥ ॠग्वेद 3/14/5॥
 =विद्वान लोग विद्या ,शुभ गुणो को फ़ैलाने वाला हो।
 3) अमैरताइती दत्तवाइश्चा मश्क-याइश्चा ( गाथा 3/14/5)
-देवेभ्यो……अमृतत्व मानुषेभ्य ॥ ॠग्वेद 4/54/2॥
 =है मनु्ष्यो ,जो परमात्मा सत्य ,आचरण, मे प्रेरणा करता है ओर मुक्ति सुख देकर सबको आंदित करते है।  4) मिथ्र अहर यजमैदे।(मिहिरयश्त 135/145/1-2)
-यजामहे……।मित्रावरुण्॥ॠग्वेद 1/153/1॥
जैसे यजमान अग्निहोत्र ,अनुष्ठानो से सभी को सुखी करते है वैसे समस्त विद्वान अनुष्ठान करे।        उपरोक्त प्रमाणो से सिध्द होता है कि वेद ही सभी मतो का मूल स्रोत है,किसी भी मत के ग्रंथ मे से कोई बात मानवता की है तो वो वेद से ली गई है बाकि की बाते उस मत के व्यक्तियो द्वारा गडी गई है।
संधर्भित पुस्तके :-(१)भारत का इतिहास -प्रो.रामदेव जी 
(२) zend avstha (gatha):- english translation by prof.ervand maneck furdoonji kanga M.A.
(3)zend avstha (yastha):- english translation by prof.______________kanga M.A.
(4)वेदों का यथार्थ स्वरूप :-धर्मदेव विध्यावाचम्पति 
(5) ऋग्वेद :-आर्य समाज जामनगर भाष्य 
(6) मनुस्म्रती:- आर्यमुनी जी  
http://bharatiyasans.blogspot.in/2014/04/vedas-are-root-of-parsiseem.html

Duties of a Householder & King

duties

Duties of a Householder AV 6.122, AV6.123

Author :- Subodh Kumar

ऋषि:  -भृगु = जो साधना के  मार्ग पर चलते हुए अपने जीवन को  अधिकाधिकपवित्र बना लेता है तब वह सब धनों का विजेता शक्तिशाली बन कर परम आत्मत्व से सब से सखित्व भाव रखता है.

देवता:- विश्वेदेवा:   

गृहस्थ के दायित्व – दान और पञ्चमहायज्ञ परिवार विषय  

अथर्व 6.122,

पञ्च महायज्ञ विषय

यज्ञ का रहस्य: (आचार्य डा. विशुद्धानंद मिश्र की व्याख्या से साभार उद्धरित)   

 वेद धर्मका प्राण हैं और यज्ञ इस की आत्मा है । यज्ञ सर्वधर्म रूप भवन की आधारशिला है । ‘ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि  धर्माणि प्रथमान्यासन्‌’ – ध्यान यज्ञ से देवताओं ने यज्ञ पुरुष की पूजा की,यज्ञ ही प्रथम धर्म  है ।  ‘प्रजापतिर्वै यज्ञ: ,विष्णु र्वै यज्ञ:’ –यज्ञ ही  प्रजापति है और यज्ञ ही विष्णु है।‘वेवेष्टिसर्वं जगत स विष्णु:’  – जो अपने अनन्त विस्तार से समस्त जगत को व्याप्त कर रहा है वह विष्णु है । ‘तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्‌ पुरुषं जातमग्रत:’ – तपस्वी ऋषि मुनियों ने सर्वप्रथम उत्पन्न यज्ञ  पुरुष को अपने हृदय में प्रबुद्ध किया ।

इसीलिए यज्ञ ईश्वर और धर्म का प्रतीक है। समस्त का धारणकर्ता होने के कारणही यज्ञजो प्रजाओं का भरण पोषण व  धारण कराता है यज्ञ धर्म कहलाता है ।

     यज्ञों में मन्त्रों  का विनियोग वेदार्थाधीन  होना चाहिए  

1.   एतं भागं परि ददामि विद्वान्विश्वकर्मन्प्रथमजा ऋतस्य  ।

अस्माभिर्दत्तं जरसः परस्तादछिन्नं तन्तुं अनु सं तरेम  । ।AV6.122.1

Wise man perceives that the bounties provided by Nature from the very beginning are only not be considered as merely rewards earned for his labor but considers himself as a trustee for all the blessings from Almighty to be dedicated for welfare of family and society. Dedication of His bounties ensures that life flows smoothly as normal even when the individuals are past their prime active life to participate in livelihood chores. (This system enables the human society to ensure sustainable happiness. People must dedicate their bounties in welfare and charity of family and society- by performing various Yajnas to protect environments, biodiversity and bring up good well trained progeny.)

संसार का विश्वकर्मा के रूप में परमेश्वर सृष्टि के आरम्भ से ही मानव को अनेक उपलब्धियां प्रदान करता है. बुद्धिमान जन का इस दैवीय कृपा को समाज और परिवार के प्रति समर्पण भाव से देखता है और पञ्च महायज्ञों द्वारा अपना दायित्व निभाता है.    इसी शैलि से सुंस्कृत सुखी समाज का निर्माण होता है. जिस में समाज सुखी और सम्पन्न बनता है. वृद्धावस्था को प्राप्त हुए जन भी आत्म सम्मान से जीवन बिता पाते हैं,पर्यावरण शुद्ध और सुरक्षित होता है.  ( यजुर्वेद का उपदेश “ईशा वास्यमिदँ  सर्वं यत्किञ्च जगत्या जगत्‌”भी यही बताता है कि जो भी जगत में हमारी उपलब्धियां हैं वे सब परमेश्वर की ही हैं. हम केवल प्रतिशासकTrustee हैं,  इस सब का मालिक तो परमेश्वर ही है. और हमारा दायित्व परमेश्वर की  इस देन को संसार,समाज,परिवार  के प्रति अपना दायित्व निभाकर सब की उन्नति को समर्पण करना ही है.)

भूत यज्ञ

2.   ततं तन्तुं अन्वेके तरन्ति येषां दत्तं पित्र्यं आयनेन  ।

अबन्ध्वेके ददतः प्रयछन्तो दातुं चेच्छिक्षान्त्स स्वर्ग एव  । ।AV6.122.2

Those who live by the ideals of their virtuous parents and utilize their bounties to dedicate themselves to the cause of providing for the society and environments as also take care and provide good education to their orphaned brothers,  make their own destiny to be part of a happy society and have a happy family life.

जो जन इस संसार में उन को मिली उपलब्धियों को एक यज्ञ का परिणाम मात्र समझते हैं वे (स्वयं इन यज्ञों को करते  हैं ) और सब ऋणों से मुक्त हो जाते हैं .

जो अनाथों के लिए सेवा करते हुए उन्हे समर्थ बनाने के अच्छे प्रयास करते हैं उन का जीवन स्वर्गमय हो जाता है.

अतिथियज्ञ , बलिवैश्वदेव यज्ञ व देवयज्ञ

3.   अन्वारभेथां अनुसंरभेथां एतं लोकं श्रद्दधानाः सचन्ते  ।

यद्वां पक्वं परिविष्टं अग्नौ तस्य गुप्तये दम्पती सं श्रयेथां  । ।AV6.122.3

This is an enjoined duty of the house holders to share with dedication and respectfully their food with guests, in to fire for latently sharing with environments and to the innumerable diverse living creatures.

दम्पतियों का  (गृहस्थाश्रम में) यह कर्तव्य है कि भोजन बनाते हैं उस को श्रद्धा के साथ अग्नि को गुप्त रूप से पर्यावरण की सुरक्षा, अतिथि सेवा, और और पर्यावरण मे जैव विविधता के संरक्षण मे लगाएं

यज्ञमय जीवन

4.   यज्ञं यन्तं मनसा बृहन्तं अन्वारोहामि तपसा सयोनिः  ।

उपहूता अग्ने जरसः परस्तात्तृतीये नाके सधमादं मदेम  । ।AV6.122.4

By setting an example of following a life devoted earn an honest living and fulfilling one’s duties in performing his duties towards environments, society and family development of an appropriate temperament   takes place. That ensures a peaceful heaven like happy atmosphere in family and off springs that ensures a comfortable life for the old elderly retired persons.

तप ( सदैव कर्मठ बने रहने के स्वभाव से ) और यज्ञ पञ्च महायज्ञ के पालन  करने से उत्पन्न  मानसिकता के विकास द्वारा  जीवन का उच्च श्रेणी का बन जाता  है. ऐसी व्यवस्था में, दु:ख रहित पुत्र पौत्र परिवार और समाज के स्वर्ग तुल्य जिव्वन में मानव की तृतीय जीवन अवस्था (वानप्रस्थ और उपरान्त) हर्ष  से स्वीकृत होती है.

परिवार के प्रति दायित्व (उत्तम सन्तति व्यवस्था)

5.   शुद्धाः पूता योषितो यज्ञिया इमा ब्रह्मणां हस्तेषु प्रपृथक्सादयामि  ।

यत्काम इदं अभिषिञ्चामि वोऽहं इन्द्रो मरुत्वान्त्स ददातु तन्मे  । ।AV6.122.5

Bring up your children to develop virtuous, pure, honest temperaments. Find suitable virtuous husbands for your daughters to marry, in order that they in their turn bring up good virtuous progeny for sustaining a good society.

पुत्रियों का  शुद्ध पवित्र पालन कर के  उत्तम ब्राह्मण गुण युक्त वर खोज कर उन से पाणिग्रहण संस्कार करावें. (जिस से समाज का) इंद्र गुण वाली और ( मरुत्वान्‌ -स्वस्थ जीवन शैलि वाली विद्वान) संतान की वृद्धि  हो.(इस मंत्र में वेद भारतीय परम्परा में संतान को ब्रह्मचर्य  पालन और उच्च शिक्षा के साथ स्वच्छ पौष्टिक आहार के  संस्कार दे कर ,अपने समय पर विवाहोपरांत  स्वयं गृहस्थ आश्रम में प के स्वस्थ विद्वान संतति से समाज  कि व्यवस्था का निभाने का दायित्व  बताया है.)

AV6.123

1.   एतं सधस्थाः परि वो ददामि यं शेवधिं आवहाज्जातवेदः  ।

अन्वागन्ता यजमानः स्वस्ति तं स्म जानीत परमे व्योमन् । ।AV6.123.1

Creation of wealth is made possible by excellent knowledge and contribution of efforts by the society. It is imperative that the individuals in control of the wealth are duty bound to ensure that all wealth and knowledge are  used in the welfare of the entire creation and that creates heaven on earth..

समस्त धन ऐश्वर्य वेदोक्त ज्ञान और सब के सहयोग का फल है ।  धन और ज्ञान के  कोष  का  समस्त संसार के कल्याण में उपयोग  करने से ही भूमि पर स्वर्ग स्थापित होता है ।

2.   जानीत स्मैनं परमे व्योमन्देवाः सधस्था विद लोकं अत्र  ।

अन्वागन्ता यजमानः स्वस्तीष्टापूर्तं स्म कृणुताविरस्मै  । ।AV6.123.2

(जानीत स्मैनं परमे व्योमन्देवाः सधस्था विद लोकं अत्र) यहां यह निश्चित रूप से जानो कि जब इस संसार में विद्वान लोग एक दूसरे के सहायक बन कर कल्याणकारी कार्यों से स्वर्ग स्थापित करते हैं, जब  (यजमान: स्वस्ति अनु  आगन्ता ) – यज्ञशील पुरुष अधिक से भी अधिक कल्याण कारी सुख प्राप्त करते हैं , जब वे (अस्मै इष्टापूर्तम्‌ आवि: कृणोतु)  – इस कल्याण प्रप्ति के लिए लोक हित कार्यों को पूर्ण करने  में अपना अपना निजी कर्तव्य निभाते  हैं ।

This is a fact that when all people engage collectively in carrying out their individual duties and tasks in the interest of community that fulfill the needs felt by the community welfare of all creates heaven on earth.

3.   देवाः पितरः पितरो देवाः  ।यो अस्मि सो अस्मि  । । AV6.123.3

देवता स्वरूप मनुष्य दूसरों के संरक्षण भरण पोषण में अपना दायित्व कर्तव्य निभाते  हैं जैसे पितर माता पिता संतान के प्रति , इसी प्रकार जो समाज के संरक्षण, भरण पोषण में सेवा कार्य करते  हैं वे देवता स्वरूप  ही होते हैं।

The enlightened persons engage themselves in positive actions that provide for and protect others, just as parents do for their children. Also those who provide for and help others by protecting them are enlightened people.

 

4.    स पचामि स ददामि  ।स यजे स दत्तान्मा यूषं  । ।AV6.123.4

Dedicate and give away all that you produce and work for. Never forsake the principle of dedicating to giving away all that you produce.

(This Ved mantra contains a very important message for any society. Every one engaging himself in any task such as being self employed or otherwise in an office or industry must realize and appreciate that his entire work is a service towards the large community, society and nation. That he is engaged in his work not for earning his personal livelihood but for making his contribution towards welfare of all. And in return he is getting his share for his services thus rendered. (This is where the Vedic ideal of enshrined in Ashtang Yog of Yam and Niyam comes in to play for a stable strife /conflict free society. The non ostentatious simple  life style promoted for all should be such as everyone is able to live , irrespective of the work being performed by him. There should be little gap in the visible life style of rich and poor.

Gandhi ji called it as a self chosen lifestyle of simple living as a poor.

Inefficiency, trade union conflicts between employees and employers would vanish In modern industries and offices if employees are made to realize that they are to perform their duties as service and in larger cause of society . And the bosses, the employers in charge of the wealth and power are made to realize that they   trustees of the wealth and should make it available for welfare of all.

In the past under this Vedic directive kings and wealthy persons used to dedicate and donate all their extra wealth at the feet of divinities in the temples. Temples were expected to promote actions to build the society by promoting character building by education, study of Vedas, enabling skills and norms of good cows, agriculture, social community services etc. When over a period of time our temples no longer carried out these functions properly by utilizing the donations received by them, vast landed properties, wealth and gold started accumulating in the temples. This attracted hordes of foreign marauding invaders to mount regular periodic attacks on our temples to repeatedly raid India to plunder and loot our temples, destroy any resistance offered take slaves of our men and abduct our women. In fact the intervals between attacks on India by Mahmud Gazanavi and Mohammed Ghori gave them a very good estimate of the annual income generated in India by the areas commanded by different temples. The amount of annual tributes fixed for various Muslim governors that were appointed by them after wards was  based on the estimates of the income generation in the respective provinces.

Thus inaction by non performance by our temples of their duties in using temple wealth for service of the society was the main cause for downfall of our great nation.

And the greatest reformer of India in modern age, Swami Dayanand Saraswati had to point out that Idolatry that had led to establishment of these temples as institutions to become huge sources of power and wealth were  the main cause of decline of our society.)

5.   नाके राजन्प्रति तिष्ठ तत्रैतत्प्रति तिष्ठतु  ।

विद्धि पूर्तस्य नो राजन्त्स देव सुमना भव  । ।AV6.123.5

इस प्रकार प्रशस्त मन वाला , दीप्त जीवन वाला साधक राजा इत्यादि जन वेदों के उपदेश आधारित यज्ञादि उत्तम कर्मों के द्वारा सुखमय लोक (स्वर्ग)  में प्रतिष्ठित होते  हैं .

Thus enlightened persons and kings , perform various yajnas  according to Vedic wisdom and establish heaven on earth by providing happy life for everybody.

सोम रस ओर शराब

कई पश्चमी विद्वानों की तरह भारतीय विद्वानों की ये आम धारणा है ,कि सोम रस एक तरह का नशीला पदार्थ होता है । ऐसी ही धारणा डॉ.अम्बेडकर की भी थी ,,डॉ.अम्बेडकर अपनी पुस्तक रेवोलुशन एंड काउंटर  रेवोलुशन इन असिएन्त इंडिया मे निम्न कथन लिखते है:-ambedkar

यहाँ अम्बेडकर जी सोम को वाइन कहते है ।लेकिन शायद वह वेदों मे सोम का अर्थ समझ नही पाए,या फिर पौराणिक इन्द्र ओर सोम की कहानियो के चक्कर मे सोम को शराब समझ बेठे ।

सोम का वैदिक वांग्मय मे काफी विशाल अर्थ है ,सोम को शराब समझने वालो को शतपत के निम्न कथन पर द्रष्टि डालनी चाहिए जो की शराब ओर सोम पर अंतर को स्पष्ट करता है :-

शतपत (5:12 ) मे आया है :-सोम अमृत है ओर सूरा (शराब) विष है ..

ऋग्वेद मे आया है :-” हृत्सु पीतासो मुध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् ।।

अर्थात सुरापान करने या नशीला पदार्थ पीने वाला अक्सर उत्पाद मचाते है ,जबकि सोम के लिए ऐसा नही कहा है ।

वास्तव मे सोम ओर शराब मे उतना ही अंतर है जितना की डालडा या गाय के घी मे होता है ,,निरुक्त शास्त्र मे आया है ”  औषधि: सोम सुनोते: पदेनमभिशुण्वन्ति(निरूकित११-२-२)” अर्थात सोम एक औषधि है ,जिसको कूट पीस कर इसका रस निकलते है । लेकिन फिर भी सोम को केवल औषधि या कोई लता विशेष समझना इसके अर्थ को पंगु बना देता है ।

सोम का अर्थ बहुत व्यापक है जिसमे से कुछ यहाँ बताने का प्रयास किया है :-

कौषितिकी ब्राह्मणों उपनिषद् मे सोम रस का अर्थ चंद्रमा का रस अर्थात चंद्रमा से आने वाला शीतल प्रकाश जिसे पाकर औषधीया पुष्ट होती है किया है ।

शतपत मे ऐश्वर्य को सोम कहा है -“श्री वै सोम “(श॰4/1/39) अर्थात ऐश्वर्य सोम है ।

शतपत मे ही अन्न को भी सोम कहा है -” अन्नं वै सोमः “(श ॰ 2/9/18) अर्थात इस अन्न के पाचन से जो शक्ति उत्पन्न होती है वो सोम है । कोषितिकी मे भी यही कहा है :-“अन्न सोमः”(कौषितिकी9/6)

ब्रह्मचर्य पालन द्वारा वीर्य रक्षा से उत्पन्न तेज को सोम कहा है .शतपत मे आया है :-“रेतो वै सोमः”(श ॰ 1/9/2/6)अर्थात ब्रहमचर्य से उत्पन्न तेज (रेत) सोम है .कौषितिकी मे भी यही लिखा है :-“रेतः सोम “(कौ॰13/7)

वेदों के शब्दकोष निघुंट मे सोम के अंनेक पर्यायवाची मे एक वाक् है ,वाक् श्रृष्टि रचना के लिए ईश्वर द्वारा किया गया नाद या ब्रह्मनाद था ..अर्थात सोम रस का अर्थ प्रणव या उद्गीत की उपासना करना हुआ । वेदों ओर वैदिक शास्त्रों मे सोम को ईश्वरीय उपासना के रूप मे बताया है ,जिनमे कुछ कथन यहाँ उद्रत किये है :-

तैतरिय उपनिषद् मे ईश्वरीय उपासना को सोम बताया है ,ऋग्वेद (10/85/3) मे आया है :-”  सोमं मन्यते पपिवान्सत्सम्पिषन्त्योषधिम्|
सोमं यं ब्राह्मणो विदुर्न तस्याश्राति कश्चन||” अर्थात पान करने वाला सोम उसी को मानता है ,जो औषधि को पीसते ओर कूटते है ,उसका रस पान करते है ,परन्तु जिस सोम को ब्रह्म ,वेद को जानने वाले ,व ब्रह्मचारी लोग जानते है ,उसको मुख द्वारा कोई खा नही सकता है ,उस अध्यात्मय सोम को तेज ,दीर्घ आयु ,ओर आन्नद को वे स्वयं ही आनन्द ,पुत्र,अमृत रूप मे प्राप्त करते है ।

ऋग्वेद (8/48/3)मे आया है :-”   अपाम सोमममृता अभूमागन्मु ज्योतिरविदाम् देवान्|
कि नूनमस्कान्कृणवदराति: किमु धृर्तिरमृत मर्त्यस्य।।” अर्थात हमने सोमपान कर लिया है ,हम अमृत हो गये है ,हमने दिव्य ज्योति को पा लिया है ,अब कोई शत्रु हमारा क्या करेगा ।

ऋग्वेद(8/92/6) मे आया है :-”  अस्य पीत्वा मदानां देवो देवस्यौजसा विश्वाभि भुवना भुवति” अर्थात परमात्मा के संबध मे सोम का पान कर के साधक की आत्मा ओज पराक्रम युक्त हो जाती है ,वह सांसारिक द्वंदों से ऊपर उठ जाता है ।

गौपथ मे सोम को वेद ज्ञान बताया है :-  गोपथ*(पू.२/९) वेदानां दुह्म भृग्वंगिरस:सोमपान मन्यन्ते| सोमात्मकोयं वेद:|तद्प्येतद् ऋचोकं सोम मन्यते पपिवान इति|
वेदो से प्राप्त करने योग्य ज्ञान को विद्वान भृगु या तपस्वी वेदवाणी के धारक ज्ञानी अंगिरस जन सोमपान करना जानते है|
वेद ही सोम रूप है|

सोम का एक विस्तृत अर्थ ऋग्वेद के निम्न मन्त्र मे आता है :-”   अयं स यो वरिमाणं पृथिव्या वर्ष्माणं दिवो अकृणोदयं स:|
अयं पीयूषं तिसृपु प्रवत्सु सोमो दाधारोर्वन्तरिक्षम”(ऋग्वेद 6/47/4) अर्थात व्यापक सोम का वर्णन ,वह सोम सबका उत्पादक,सबका प्रेरक पदार्थ व् बल है ,जो पृथ्वी को श्रेष्ट बनाता है ,जो सूर्य आकाश एवम् समस्त लोको को नियंत्रण मे करने वाला है ,ये विशाल अन्तरिक्ष मे जल एवम् वायु तत्व को धारण किये है ।

अतः उपरोक्त कथनों से स्पष्ट है की सोम का व्यापक अर्थ है उसे केवल शराब या लता बताना सोम के अर्थ को पंगु करना है ।चुकि डॉ अम्बेडकर अंगेरजी भाष्य कारो के आधार पर अपना कथन उदृत करते है ,तो ऐसी गलती होना स्वाभिक है जैसे कि वह कहते है “यदि यह कहा जाये कि मै संस्कृत का पंडित नही हु ,तो मै मानने को तैयार हु।परन्तु संस्कृत का पंडित नही होने से मै इस विषय मे लिख क्यूँ नही सकता हु ? संस्कृत का बहुत थोडा अंश जो अंग्रेजी भाषा मे उपलब्ध नही है ,इसलिए संस्कृत न जानना मुझे इस विषय पर लिखने से अनधिकारी नही ठहरया जा सकता है ,अंग्रेजी अनुवादों के १५ साल अध्ययन करने के बाद मुझे ये अधिकार प्राप्त है ,(शुद्रो की खोज प्राक्कथ पृ॰ २)

मह्रिषी मनु बनाम अम्बेडकर के पेज न 198 व् 202 पर सुरेन्द्र कुमार जी अम्बेडकर का निम्न कथन उदृत करते है -“हिन्दू धर्म शास्त्र का मै अधिकारी ज्ञाता नही हू …

अतः स्पष्ट है की अंग्रेजी टीकाओ के चलते अम्बेडकर जी ने ऐसा लिखा हो लेकिन वो आर्य समाज से भी प्रभावित थे जिसके फल स्वरूप वो कई वर्षो तक नमस्ते शब्द का भी प्रयोग करते रहे थे ,,लेकिन फिर भी अंग्रेजी भाष्य से पुस्तके लिखना चिंता का विषय है की उन्होंने ऐसा क्यूँ किया ।

लेकिन अम्बेडकर जी के अलावा अन्य भारतीय विद्वानों ओर वैदिक विद्वानों द्वारा सोम को लता या नशीला पैय बताना इस बात का बोधक है कि अंग्रेजो की मानसिक गुलामी अभी भी हावी है जो हमे उस बारे मे विस्तृत अनुसंधान नही करने देती है ।

संधर्भित पुस्तके एवम ग्रन्थ :-(१) ऋग्वेद -पंडित जयदेव शर्मा भाष्य

(२) बोलो किधर जाओगे -आचार्य अग्निव्रत नैष्टिक

(३) शतपत ओर कौषितिकी

(४)revoulation and counterrevoulation in acient india by dr.ambedkar

   http://nastikwadkhandan.blogspot.in/

Importance of speech वाक in Vedas

words
Importance of speech वाक in Vedas
Author : Subodh Kumar
Human speech RV10.125,reiterated as  AV4.30

ऋषि:- अथर्वा, देवता:- वाक 

1.अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत  विश्वदेव्यैः |

अहं मित्रावरुणोभा बिभर्यमिंद्राग्नी अहमश्विनोभा ||

अथर्व 4.30.1,ऋ10.125.1

 मैं वाक  शक्ति पृथिवी के आठ वसुओं , ग्यारह प्राण.आदित्यै बारह मासों,विश्वेदेवाः ऋतुओं और मित्रा वरुणा दिन और  रात द्यौलोक और भूलोक  सब को धारण करती हूं. ( मानव सम्पूर्ण विश्व पर  वाक शक्ति  के  सामर्थ्य  से ही अपना कार्य क्षेत्र  स्थापित करता है)  

2. अहं  राष्ट्री सङ्गमनी  वसूनां चिकितुषो प्रथमा यज्ञियानाम्‌|

तां मा  देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयंतः ||

अथर्व 4.30.2 ऋ10.125.3

मैं (वाक शक्ति) जगद्रूप राष्ट्र  की स्वामिनी हो कर धन प्रदान करने वाली हूँ , सब वसुओं को मिला कर सृष्टि का सामंजस्य  बनाये रख कर सब को ज्ञान देने वाली हूँ. यज्ञ द्वारा सब देवों मे अग्रगण्य  हूँ. अनेक स्थानों पर अनेक रूप से प्रतिष्ठित रहती हूँ.

3.अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवानामुत मानुषाणाम्‌ |

तं तमुग्रं  कृणोमि तं  ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्‌ ||

अथर्व 4.30.3ऋ10.125.5

संसार में जो भी ज्ञान है देवत्व धारण करने पर मनुष्यों में उस दैवीय ज्ञान  का प्रकाश मैं (वाक शक्ति) ही करती हूँ. मेरे द्वारा ही मनुष्यों  में क्षत्रिय स्वभाव  की उग्रता, ऋषियों जैसा ब्राह्मण्त्व और  मेधा स्थापित  होती है.

4.मया सोSन्नमत्ति यो  विपश्यति यः प्रणीति य ईं शृणोत्युक्तम्‌ |

अमन्तवो मां  त  उप  क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धेयं ते वदामि ||

अथर्व4.30.4ऋ10.125.4

मेरे द्वारा ही अन्न प्राप्ति के साधन  बनते  हैं , जो भी कुछ कहा जाता है, सुना जाता है, देखा  जाता है, मुझे  श्रद्धा से ध्यान देने से ही प्राप्त  होता है. जो मेरी उपेक्षा करते  हैं , मुझे अनसुनी कर देते हैं, वे अपना विनाश कर लेते हैं.

5.अहं रुद्राय धनुरा  तनोमि  ब्रह्मद्विशे  शरवे हन्तवा  उ |

अहं  जनाय सुमदं कृणोभ्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ||

अथर्व 4.30.5ऋ10.125.6

असमाजिक दुष्कर्मा शक्तियों के विरुद्ध संग्राम की भूमिका मेरे द्वारा ही स्थापित होती है. पार्थिव जीवन मे विवादों  के  निराकरण से मेरे द्वारा ही शांति स्थापित होती है.

6. अहं सोममाहनसं  विभर्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम्‌ |

अहं दधामि  द्रविणा हविष्मते सुप्राव्या3 यजमानाय  सुन्वते ||

अथर्व 4.30.6 ऋ10.125,2

श्रम, उद्योग, कृषि, द्वारा  जीवन में आनंद के साधन मेरे द्वारा ही सम्भव  होते हैं .जो  धन धान्य से भरपूर समृद्धि प्रदान करते  हैं.

7. अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्व1न्तः समुद्रे |

ततो वि तिष्ठे भुवनानि विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृश्यामि ||

अथर्व 4.30.7ऋ10.125.7

मैं अंतःकरण में गर्भावस्था से ही पूर्वजन्मों के संस्कारों का अपार समुद्र ले कर मनुष्य के मस्तिष्क में स्थापित होती हूँ  पृथ्वी  तथा द्युलोक के भुवनों तक स्थापित होती हूँ.

8.अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा  भुवनानि  विश्वा |

परो  दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिम्ना सं बभूव ||

अथर्व 4.30.8 ऋ 10.125.8

मैं ही सब भुवनों पृथ्वी के परे द्युलोक तक वायु के समान फैल कर अपने मह्त्व को विशाल होता देखती हूँ |

Gross Happiness Entrepreneurship

Entrepreneurship

RV1.3 Gross Happiness Entrepreneurship

Author:- Subodh Kumar

ऋषि:-  मधुच्छन्दा वैश्वामित्र:, देवता:- 1-3 अश्विनौ, 4-3 इन्द्र:ू; 7-9 विश्वेदेवा:; 10-12 सरस्वती छंद-  गायत्री 

शिल्प ज्ञान उन्नति का आधार

Life sustainability by technology

अश्विना यज्वरीरिषो द्रवत्पाणी शुभस्पती 

पुरुभुजा चनस्यतम् ।। RV 1.3.1 (Dayanand Bhashyaadharit)

On universal scale – (द्रवत्पाणी) seek fast material growth of (पुरुभुजा) food and means that provide health (शुभस्पती) for welfare of all by (अश्विना) employing the twins of Solar energy resources and Water resources (यज्वरी:)with application technological skills (इषा:) providing objects of desire such as food & facilities (चनस्यपतम्‌) for getting selectedand liked by all.

समष्टि रूप में– (द्रवत्पाणी) शीघ्रता से समृद्धि  पाने के लिए (पुरुभुजा) सब के बल और स्वास्थ्य के लिए(इषा:) अन्नादि ऐच्छिक पदार्थों  (चनस्यपतम्‌) की  सात्विक प्राप्ति के लिए (अश्विना) प्राकृतिक  उपलब्द्ध अग्नि सौर ऊर्जा और जल तत्व के प्रयोग से  (यज्वरी:) भौतिक यज्ञादि कुशल कर्मों में प्रवृत्त होवें .

व्यष्टि रूप में – On another level प्राणापान को अश्विना शब्द से स्मरण किया जाता है. कि ये ‘ न श्व:’ यह निश्चित नहीं कि ये कल  भी रहेंगे ,और यह सदैव क्रिया करते रहते हैं .  इन्हीं के कारण यह मानव शरीर चल रहा है, भूख लग रही है और सब इच्छाएं प्रकट हो रही हैं . (यज्वरी:) यज्ञशील बनने के लिए (इषा:) अन्नदि इच्छित पदार्थ  (चनस्यपतम्‌) सात्विकता का जीवन में चयन आवश्यक है. प्राणायाम द्वारा तामसिक वृत्तियों आलस्य काम क्रोध इत्यादि के परित्याग से सात्विक वृत्तियों अहिंसा कर्मठता आत्मविश्वास यज्ञशील जीवन से ही प्रगति और सुख समृद्धि प्राप्त होती है.

 

प्रोद्योगकि शिक्षा

Technical Education  

1.   अश्विना पुरुदंससा नरा शवीरया धिया । धिष्ण्या वनतं गिर: ।। RV 1.3.2

(अश्विना)To employ energy and material resources   (पुरुदंससा) for technologies that provides many solutions (नरा शवीरया) for speedy  implementation  (धिया) bring to knowledge । (धिष्ण्या) by fast communication methods (वनतं) to users ( गिर: ) by lecturing education.

(सौर) ऊर्जा और पदार्थ (जलादि) संसाधनों के वैज्ञानिक प्रयोग से शीघ्र  उत्तम उपब्धियों के लिए उत्तमगुरु जन उपदेश द्वारा शिक्षा प्राप्त कराएं

विषमता नाशक ज्ञान

Knowledge to remove hardship

3.दस्रा युवाकव: सुता नासत्या वृक्तबर्हिष: । आ यातं रुद्रवर्तनी ।। RV1.3.3

(दस्रा: ) that which  removes hardship  (युवाकव: ) multidiscipline ( सुता) born out of ( नासत्या ) that which is flawless (वृक्तबर्हिष: ) expert consultants- can also be pathogen destroying herbal covers   । (आ यातं) bring in common use (रुद्रवर्तनी) That does not allow any harm to come.

कठिनाइयों विषमता का नाश ही औद्योगिक शिल्प  ज्ञान की उपब्धि है.

 

शिल्प ज्ञान  की उपलब्धियां

Gifts of Entrepreneurship

4.इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायव: । अण्वीभिस्तना पूतास: ।। RV1.3.4

(इन्द्रा याहि)The entrepreneurs by (अण्वीभिस्तना पूतास 🙂 utilizing their knowledge and paying attention to the minutest inputs (सुता) create (इमे त्वायव :)by their efforts (चित्रभानो) amazingly useful results.

सूक्ष्म से सूक्ष्म विषय पर ध्यान दे कर अपने ज्ञान के सदुपयोग से शिल्प द्वारा आश्चर्यजनक  उपलब्धियां सम्भव होती हैं.

चमत्कारी आविष्कार 

Creation of innovative products

5. इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूत: सुतावत: । उप ब्रह्माणि वाघत: ।। RV1.3.5

(इन्द्रा याहि) The entrepreneurs (धियेषितो विप्रजूत: उप ब्रह्माणि) by intelligent knowledge application (सुतावत: वाघत) create very useful products.

सफल शिल्पी अत्यंत सफल आविष्कारक  होते हैं

नवीन आविष्कार

New Technological products  

6. इन्द्रा याहि तूतुजान उपब्रह्माणि हरिव: । सुते दधिष्व नश्चन: ।। RV1.3.6

(इन्द्रा याहि) The entrepreneurs (सुते दधिष्व नश्चन:) create useful food etc. every day use products ( तूतुजान उपब्रह्माणि हरिव: ) by excellent knowledge base highly productive methods.

प्रोद्योगिकि शिक्षा का लक्ष्य

Objects of Technical  Education  

7. ओमासश्चर्षणीधृतो विश्वे देवास  गत  दाश्वांसो दाशुष: सुतम् ।। RV1.3.7

Our education should inculcate in our progeny the fearless temperament respecting laws of Nature to provide full protection on physical and mental level to us by good health and virtuous thoughts  for the sustainability of individual and society.  

हमारी संतान की बुद्धि  में सत्य शिक्षा के उपदेशों द्वारा वे सब देवताओं के गुण स्थापित होने चाहिएं  जिस से शरीर और मन की मलिनता  दूर हो कर निर्भय, विद्वत और दानवान आचरण स्थापित हो.

 

शिक्षकों का दायित्व Role of Teachers

8.विश्वे देवासो अप्तुर: सुतमा गन्त तूर्णय:  उस्रा इव स्वसराणि ।। RV1.3.8

(सुतम्‌) To provide enlightenment (विश्वे देवास🙂 all the world’s teachers (आगंत)should visit daily (अप्तुर: तूर्णय:) for speedy teaching  (उस्रा इव) like sun’s rays (स्वसराणि) that  bring day light.

जिस प्रकार सूर्य प्रकाश से अंधकार को दूर करता है , उसी प्रकार सब गुरुजनों को शीघ्र ज्ञान के प्रकाश का दान को देने के लिए  आना चाहिए

 

शिक्षा का  परिणाम Results of Education

9.विश्वे देवासो अस्रिध एहिमायासो अद्रुह:  मेधं जुषन्त वह्नय: ।। RV1.3.9

(अस्रिध:) Confident of their knowledge (एहिमायास:) knowledge based action oriented community (विश्वे देवास🙂 all knowledgeable persons (मेधम्‌) by implementing your knowledge based skills  (अद्रुह:) without causing destruction (to environment and society) (वह्नय:) bring welfare to all.

अपनी कर्म प्रधान शिल्प शिक्षा में दृढ़ आत्मविश्वास द्वारा सब ज्ञानवान वीर जनों बिना पर्यावरण और समाज  को क्षति पहुंचाए ,अपने शिल्प के ज्ञान से  संसार में सुख साधन उत्पन्न करो.

 उत्तम ज्ञानाधारित वाणि का महत्व  

Good articulate communication

10.पावका न: सरस्वती वाजेभिर्वाजिनिवती । यज्ञं वष्टु धियावसु: ।।RV 1.3.10

(सरस्वती)Knowledge enabled articulation is (Here importance of keeping one’s knowledge up to date should also be seen.)   (न:) for us ( पावका वाजेभिर्वाजिनिवती) provider of unsullied meritorious virtuous means of habitat  and strength.(धियावसु: )Provide the society thus with excellent (ecologically sustainable) habitat (यज्ञं वष्टु) by implementation of smart projects.

उत्तम ज्ञान आधारित वाणि, पवित्र योजनाओं को कार्यान्वित करने की क्षमता प्रदान करती है. ( यहां अपने ज्ञान को इस स्वाध्याय द्वारा उन्नत करने का भी महत्व देखा जाता है )  इस प्रकार समाज के कल्याण के  सुख साधन पर्यावरण को दूषित किए बिना उपलब्ध करो.

 

मिथ्याचरण का त्याग Take Ethical Stand

11.चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् | यज्ञं दधे सरस्वती ।। RV1.3.11

(चोदयित्री चेतन्ती सरस्वती) Have the ability to perceive, stand up and speak the truth (सूनृतानां सुमतीनाम्) by rejecting wrong ideas and following wise path (यज्ञं दधे)in implementation of the projects.

मिथ्याचरण का त्याग और सुमति को व्यक्त करने की अपनी  वाणि मे क्षमता द्वारा पथ भ्रष्ट योजनाओं के स्थान पर कल्याण कारी  योजनाएं कार्यान्वित करो .

उत्तम वाणि शासन का मूलमंत्र

Secret of success- Excellent Articulation

12.महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना  यो विश्वा वि राजति ।। RV1.3.12

(महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना ) One who has at his command the ocean of knowledge reflected in his speech, ( यो विश्वा वि राजति) he rules the world.

जिस की (सरस्वती) वाणि (केतुना) शुभ कर्म , श्रेष्ठ बुद्धि से (मह:) अगाध (अर्ण:)  शब्दरूपी समुद्र को (प्रचेतसी) जानने वाली है, ( यो विश्वा वि राजति) वही शासनाध्यक्ष होता है

दान का स्वरूप : शिवदेव आर्य गुरुकुल पौंधा, देहरादून (उ.ख.)

 

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मारी वैदिक संस्कृति में त्याग, सेवा, सहायता, दान तथा परोपकार को सर्वोपरि धर्म के रूप में निरुपित किया गया है, क्योकि वेद में कहा गया है – शतहस्त समाहर सहस्त्र हस्त सं किर अर्थात् सैकड़ों हाथों से धन अर्जित करो और हजारों हाथों से दान करो। गृहस्थों, शासकों तथा सम्पूर्ण प्राणी मात्र को वैदिक वाङ्मय में दान करने का विधान किया गया है।  दक्षिणावन्तो अमृतं भजन्ते, ‘न स सखा यो न ददाति सख्ये, पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि, शुध्द: पूता भवत यज्ञियासः५  इत्यादि अनेक मन्त्रों में दान की महिमा का विस्तृत वर्णन किया गया है। दान लेना ब्राह्मणों का शास्त्रसम्मत अधिकार है परन्तु वहीं यह भी निरुपित किया गया है कि दान सुपात्र को दिया जाए, जिससे कोई दुरुपयोग न हो सके।

 

प्रतिग्रहीता की पात्रता पर विशेष बल देते हुए याज्ञवल्क्य जी कहते है कि-सभी वर्णों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है, ब्राह्मणों में भी वेद का अध्ययन करने वाले श्रेष्ठ हैं, उनमें भी श्रेष्ठ क्रियानिष्ठ है और उनसे भी श्रेष्ठ आध्यात्मवेत्ता ब्राह्मण है। न केवल विद्या से और न केवल तप से पात्रता आती है अपितु जिसमें अनुष्ठान, विद्या और तप हो वही दान ग्रहण करने का सत्पात्र होती है।

 

न विद्यया केवला तपसा वापि पात्रता।

 

                                                 यत्र वृत्तमिमे चोभे तध्दि पात्रं प्रकीर्तितम्।। ६

 

दान के सम्पूर्ण फल की प्रप्ति सत्पात्र को दान देने से ही प्राप्त होती है। अतः आत्मकल्याण की इच्छा रखने वाले को चाहिए कि वह अपात्र को दान कदापि न दे, क्योंकि-

 

गोभूतिहिरण्यादि पात्रे दातव्यमर्चितम्।

 

नापात्रे विदुषा किंचिदात्मनः श्रेय इच्छता।।७

 

जिस समय जिस व्यक्ति को जिस वस्तु की आवश्यकता है, उस समय उसे वही वस्तु देनी चाहिए। यदि जो मनुष्य इस प्रकार दान देते है तो उनको वेद कहता है कि एतस्य वाऽक्षरस्य शासने ददतो मनुष्याः प्रशंसन्ति ऐसे दान देने वाले मनुष्य इस परमपिता परमेश्वर के शासन में सदैव प्रशंसा को प्राप्त होते है। गीता में श्रीकृष्ण जी महाराज कहते है कि –

 

यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।

 

                                                यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणम्।।९ 

 

यज्ञ, दान तथा तप इन तीन सत्कर्मों को कदापि नहीं छोड़ना चाहिए। यज्ञ, दान, तप मनुष्यों को पवित्र व पावन बनाने वाले हैं। श्रध्दा  एवं सामथ्र्य से दान के सत्य स्वरूप को जानकर किया गया दान लोक-परलोक दोनों में ही कल्याण करने वाला होता है।

 

जब यदि मन में धन संग्रह की प्रवृत्ति जागृत हो गई तो समझो वो अपने मुख्य उद्देश्य को छोड़कर अन्यत्र किसी अन्य लक्ष्य की ओर आकृष्ट हो गया है।

 

इसीलिए कहा गया है कि-

 

वृत्तिसप्रोचमन्विच्छेन्नेहेत धनविस्तरम्।

 

                                                धनलोभे प्रसक्तस्तु ब्राह्मण्यादेव हीयते।।१॰

 

ब्राह्मण को भी अपनी आवश्यकता पूर्ति लायक धन ही दान स्वरूप लेना चाहिए। धन-संग्रह का लोभ नहीं करना चाहिए। अब यह जानने की आवश्यकता है कि दान में कौन-सी वस्तु देनी चाहिए। जब हम वैदिक वाङ्मय में निहारते है तो हमें ज्ञात होता है कि – जिस व्यक्ति को जिस समय, जिस वस्तु की आवश्कता हो, उसे उस समय उसी वस्तु का दान देना चाहिए। दान की यदि कोई सच्ची पात्रता है तो वो है जिसे यथोचित समय पर यथोचित पदार्थ मिले, जैसे कोई भूखा हो तो उसे भोजनादि से तृप्त करना चाहिए, प्यासे को पानी पिलाना चाहिए, वस्त्रहीन को वस्त्र देने चाहिए, रोगी को ओषधी देनी चाहिए, विद्याभ्यासी को विद्या का दान कराना चाहिए इत्यादि परन्तु लिप्सता नहीं होनी चाहिए। इसी प्रसंग में एक दृष्टांट उद्धृत कर रहा हूॅं- एक दिन एक व्यक्ति महात्मा गाॅंधी के पास अपना दुखडा लेकर पहुॅंचा। उसने गाॅंधी जी से कहा-बापू! यह दुनिया बड़ी बेईमान है।  आप तो यह अच्छी तरह जानते हैं कि मैंने पचास हजार रूपये दान देकर धर्मशाला बनवायी थी पर अब उन लोगों ने मुझे ही उसकी प्रबन्धसमिति से हटा दिया है। धर्मशाला नहीं थी तो कोई नहीं था, पर अब उस पर अधिकार जताने वाले पचासों लोग खड़े हो गये हैं। उस व्यक्ति की बात सुनकर बापू थोड़ा मुस्कराये और बोले-भाई, तुम्हें यह निराशा इसलिये हुई  कि तुम दान का सही अर्थ नहीं समझ सके। वास्तव में किसी चीज को देकर कुछ प्राप्त करने की आकांक्षा दान नहीं है। यह तो व्यापार है। तुमने धर्मशाला के लिये दान तो दिया, लेकिन फिर तुम व्यापारी की तरह उससे प्रतिदिन लाभ की उम्मीद करने लगे। वह व्यक्ति चुपचाप बिना कुछ बोले वहाॅं से चलता बना। उसे दान और व्यापार का अन्तर समझ में आ गया।

 

अब हमें यह जानना चाहिए कि दान कैसे करना चाहिए इसके लिए तैत्तिरीयोपनिषद् में अवलोकन करते हैं कि श्रध्दया देयम्। अश्रध्दया देयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्।’११ जो कुछ भी दान में दिया जाये श्रध्दापूर्वक दिया जाना चाहिए । क्योंकि बिना श्रध्दा के किये हुए दान असत् माना गया है-

 

  अश्रध्दया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।

 

                                                  असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।१२

 

श्रध्दा पूर्वक देना चाहिये क्योंकि सारा धन तो उस परमपिता परमेश्वर का ही है। इसलिए उनकी सेवा में धन लगाना मेरा कर्तव्य है। जो कुछ मैं दान कर रहा हूॅं वह थोड़ा है, इस संकोच से दान देना चाहिये। अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार देना चाहिये। भय के कारण भी दान देना चाहिए परन्तु जो कुछ भी दिया जाय विवेकपूर्वक निष्काम भाव से कर्तव्य समझ कर देना चाहिए। ‘दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे’१३  इस प्रकार दिया गया दान परमपिता परमेश्वर को प्राप्त करने में अर्थात् मोक्ष प्राप्त करने में सहायक बन जाता है।

 

कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि यज्ञ, दान आदि पुण्ययुक्त कर्मों को करने से हम दरिद्र हो जाते है, हमारा धन, वैभव समाप्त हो जाता है तो मैं उन लोगों से कहना चाहॅंुगा कि दान करने से धन एवं विद्या की निरन्तर वृध्दि होती है, क्योकि शास्त्रों में कहा गया है कि

 

मूर्खो हि न ददात्यर्थानिह दारिद्र्य शंकया।

 

प्राज्ञस्तु विसृजत्यर्थानमुत्र तस्य ननु शंकया।।१४

 

अर्थात् दान देने से धन समाप्त हो जाऐगा या दरिद्रता आयेगी यह तो मूर्खों की सोच होती है। मूर्ख लोग दरिद्रता की आशंका में वशीभूत होकर दान न देकर पुण्य से वंचित रहते है और सदैव दुखों को भोगते रहते हैं।

 

अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा।

 

                                                अनुग्रहश्च दानं च शीलमेतत् प्रशस्यते।।

 

दरिद्रता को दूर करने का अमोघ शस्त्र है दान। दरिद्रता आदि दुःखों से दूर रहने का यहीं एकमात्र साधन है। दानशील पुरुष या स्त्री किसी भूखे, प्यासे, तिरस्कृतों का पालन-पोषण करके उन्हे तृप्त करते है तो वो सदा प्रसन्नता को प्राप्त करते है। वे सदा ही अपने जीवन में आनन्दित रहते है।

 

 दानं भोगो नाशस्तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।

 

                                    यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति।।१५

 

धन की तीन गतियाॅं होती है – दान, भोग और नाश। जो व्यक्ति धन का दान व भोग नहीं करता उसकी तीसरी गति अर्थात् नाश होती है।

 

हमारे शास्त्रों में धन की सबसे अच्छी गति दान है। दान देने से हमारा धन पात्र के पास पहुॅंच गया और उसकी जरुरी आवश्यकता पूर्ण हो गई। इसीलिए यह श्रेष्ठ गति है। अगर हम दान न देकर उसका भोग करेंगे तो आवश्यक-अनावश्यक कर्मों में व्यय होगा। यदि खर्च ही नहीं करेंगे तो तीसरी गति अर्थात् नाश को प्राप्त होगा। जैसे-जूए में हार जाना, चोरी हो जाना आदि। अतः सर्वोत्तम गति दान ही सिध्द होती है। क्योंकि दान के   माध्यम से अत्यन्त आवश्यकता वाले के उद्देश्य की पूर्ति होती है।

 

इसप्रकार दान देना हमारा कर्तव्य कर्म है-यह समझकर देना चाहिए। जहाॅं जब एवं जिस वस्तु की आवश्यकता हो तब दिया जाय एवं देश, काल तथा परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए सुपात्र को ही दिया जाये।

 

 

 

सन्दर्भ सूची:-

 

१. ऋग्वेद-३.२४.५।

 

२. ऋग्वेद-१.१२५.६।

 

३. ऋग्वेद-१॰.११७.४।

 

४. ऋग्वेद-५.५१.१५।

 

५. ऋग्वेद-१॰.१८.२।

 

६. याज्ञ.स्मृ.आ.२॰॰।

 

७. याज्ञ.स्मृ.आ.२॰१।

 

८. वेद।

 

९. गीता-१८.५।

 

१॰. कूर्मपुराण।

 

११. तैत्तिरीयोपनिषद्-१.११।

 

१२. गीता-१७.२८।

 

१३. गीता-१७.२॰।

 

१४. स्कन्दपुराण-२.६३।

 

१५. पंचतन्त्र।

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कर्मानुसार वैदिक वर्ण व्यवस्था भाग – १ : विपुल प्रकाश आर्य

 

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शास्त्रों में गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था का समर्थन करने वाले श्लोक अथवा मंत्र,जिनका गलत अर्थ लगा कर पाखण्डी जाति प्रथा का समर्थन करते हैं (भाग १):-

 

प्रिय पाठकगण, इस लेख शृङ्खला को शुरु करने के पीछे लेखक का उद्देश्य है आपके सामने वेदादि सत्य शास्त्रों से ऐसे प्रमाणों को प्रस्तुत करना जो कि स्पष्ट रूप से गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था का समर्थन करते हैं और साथ ही यह भी दिखाना कि किस प्रकार जातिवादी पाखण्डी उनका गलत अर्थ करके  अपना मतलब साधते  हैं। जहां तक ईशवर प्रदत्त चारों वेदों का सवाल है,उसके मन्त्रों का गलत अर्थ विगत ३००० वर्षों में अनेक लोगों ने अज्ञानवश अथवा स्वार्थसिद्धी के लिए किया है और जहां तक ऋषि मुनियों द्वारा रचित ग्रन्थों जैसे मनुस्मृति इत्यादि का सवाल है वहां पर तो श्लोकों का गलत अर्थ करने के साथ साथ कुछ कुछ नये श्लोक मनमाने तरीके से अपना मतलब साधने के लिए मिला दिये हैं। ऐसे नये मिलाए गये श्लोकों को प्रक्षिप्त श्लोक कहा जाता है। इस लेख शृङ्खला में ऐसे श्लोकों का सही अर्थ किया जाएगा जिनके गलत अर्थ से जातिवाद की सिद्धी की जाती है तथा प्रक्षिप्त श्लोकों को भी युक्तिपूर्वक प्रक्षिप्त सिद्ध किया जाएगा।

मनुस्मृति में गुणकर्मानुसार वर्ण व्यवस्था की सिद्धी करने वाला ऐसा ही एक श्लोक निम्नलिखित है:-

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राहमणश्चैति शूद्रतां।

क्षत्रियाज्जात्मेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च। ।  (मनु १०:६५)

इस श्लोक का सही अर्थ इस प्रकार है :- शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण शूद्र हो सकता है,इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य की सन्तानों के विषय में भी समझना चाहिए।

इस श्लोक से स्पष्ट रूप से यह विदित होता है कि ब्राहमण की सन्तान अपने गुण कर्मों के आधार पर शूद्र हो सकती है और शूद्र की सन्तान भी अगर ब्राह्मण बनने के योग्य हो तो ब्राह्मण हो जाएगी। यही नहीं अगर कोई शूद्र स्वयं भी ब्राह्मणत्व के योग्य हॊ तो वह ब्राहमण हो जाएगा। उसी तरह अगर कोई ब्राहमण स्वयं भी शूद्र बन जाने के योग्य कर्म करेगा तो शूद्र हो जाएगा। और अगर ब्राहमण का शूद्र बनना और शूद्र का ब्राहमण बनना सम्भव है तो फ़िर क्षत्रिय अथवा वैश्य बनना क्यों असम्भव हो सकता है। ठीक ऐसा ही क्षत्रिय अथवा वैश्य के घर पैदा हुई सन्तानों के बारे में समझा जाना चाहिए।

इस श्लोक से स्पष्ट रूप से गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था का समर्थन है। मगर जातिवाद के समर्थक इसका गलत अर्थ निम्नलिखित तरीके से लगाते हैं:-

अगर किसी ब्राह्मण का ब्याह शूद्रा से हो और उससे कोई कन्या उत्पन्न हो और उस कन्या का ब्याह किसी ब्राहमण पुरुष से हो और फ़िर कन्या उत्पन्न हो और उसका ब्याह फ़िर एक ब्राह्मण से हो तो इस तरह से सातवीं पीढी में जो सन्तान होगी वह ब्राहमण होगी। और अगर ब्राह्मण का शूद्रा से कोई पुत्र उत्पन्न हो और उस पुत्र का ब्याह शूद्रा से हो और उनका भी पुत्र उत्पन्न हो और उसका ब्याह भी शुद्रा से किया जाए तो इस तरह से सातवीं पीढी की सन्तान शूद्र होगी। यही विधान क्षत्रिय और वैश्य के साथ भी समझना चाहिए ।

और इस अर्थ की सिद्धी के लिए उपर दिए गये श्लोक (१०:६५) से पहले एक प्रक्षिप्त श्लोक भी मनुस्मृति में मिलाया हुआ है जो कि निम्नलिखित है:-

शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातःश्रेयसा चेत्प्रजायते।

अश्रेयान्श्रेयसीं जातिं गच्छत्यासप्तमाद्युगात् ।  । (मनु १०:६४)

जिसका अर्थ वे इस प्रकार लगाते हैं:-अगर किसी ब्राह्मण का ब्याह शूद्रा से हो और उससे कोई कन्या उत्पन्न हो और उस कन्या का ब्याह किसी ब्राहमण पुरुष से हो और फ़िर कन्या उत्पन्न हो और उसका ब्याह फ़िर एक ब्राह्मण से हो तो इस तरह से सातवीं पीढी में जो सन्तान होगी वह ब्राहमण होगी।

और इसी के साथ मिला कर के अगले श्लोक (शूद्रो ब्राह्मणतामेति १०:६५) का अर्थ लगाते है कि शुद्र (ब्राह्मण से शूद्रा में उत्पन्न पुत्री को ब्राह्मण से उपर्युक्त विधि से ब्याह्ने से सातवीं पीढी में उत्पन्न पुत्र )जैसे ब्राह्मणता को प्राप्त करता है वैसे ब्राह्मण भी शूद्रता को प्राप्त करता है (अगर ब्राह्मण द्वारा शूद्रा में पुत्र हो और उसका विवाह भी शूद्रा से हो तो इस प्रकार सातवीं पीढी की सन्तान शूद्र होगी) । वैसे ही क्षत्रिय से शूद्रा में उत्पन्न पुत्र छठी पीढी में शूद्रता को प्राप्त करता है और वैश्य से शूद्रा में उत्पन्न पुत्र पाचवी पीढी में शूद्रता प्राप्त करता है इत्यादि।

यहां गौरतलब है कि प्रक्षेपक महोदय ने श्लोकों का अर्थ बिगाडने का काम बहुत ही चतुराई से किया है । मगर हम ध्यानपूर्वक दोनो श्लोकों की समीक्षा करें तो सारी कलै खुल के सामने आ जाती है।

सर्वप्रथम तो हम श्लोक संख्या १०:६५ के शाब्दिक अर्थ को देखें :-शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण शूद्र हो सकता है,इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य की सन्तानों के विषय में भी समझना चाहिए।

अब हमें सर्वप्रथम ये विचार करना चाहिए कि मनु महाराज ने शूद्र अथवा ब्राह्मण किनको कहा है? अगर मनुस्मृति का अध्ययन किया जाय तो ह्म पाएंगे कि प्रथम तो शूद्र या ब्राह्मण शब्द या तो उस व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हो सक्ता है जो कि स्वयं शूद्र अथवा ब्राह्मण वर्ण का हो । दूसरा ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य अथवा शूद्र द्वारा समान वर्णों की स्त्रियों में उत्पन्न सन्तानो को भी क्रमशः  ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य अथवा शूद्र जाति से जाना जाता है(मनु १०: ५)।  यहां यह ध्यान देने योग्य है कि उपर्युक्त जातियों का आशय सिर्फ़ उपनयन संस्कार इत्यादि की आयु निर्धारण करने से है ना कि जन्म के आधार पे बालक का वर्ण निर्धारण करने से।

मगर हम १०:६५ श्लोक के जातिवादियों द्वारा लगाए गये अर्थ की समीक्षा करें तो हम पाएंगे कि “शुद्रो ब्राह्मणतामेति ” मे शूद्र का अर्थ उन्होने लगाया है ब्राह्मण पुरुष की शूद्रा स्त्री से उत्पन्न हुइ पुत्री को पुनः ब्राह्मण पुरुष को ब्याहकर और फ़िर उनकी पुत्री को पुनः ब्राह्मण पुरुष को ब्याहकर इस प्रकार सातवीं पीढी में जो सन्तान होगी । उसी प्रकार ‘ब्राह्मणश्चैति शूद्रतां ‘ मे ब्राह्मण शब्द का अर्थ उन्होने लगाया है कि ब्राह्मण पुरुष द्वारा शूद्रा स्त्री से उत्पन्न पुत्र को शूद्रा से ब्याह कर फ़िर उनसे उत्पन्न पुत्र को पुनः शूद्रा से ब्याह्कर इस प्रकार जो सातवीं पीढी में सन्तान उत्पन्न हो। अब भला शूद्र और ब्राह्मण शब्द का इतना विचित्र अर्थ ये लोग किस व्याकरण के नियम के अनुसार लगाते हैं ये तो यही लोग जानते होंगे। इसी प्रकार क्षत्रियाज्जातः का अर्थ होता है कि जो क्षत्रिय पिता के द्वारा उत्पन्न हो । मगर इस श्लोक में जातिवादी इस शब्द का अर्थ लगाते हैं क्षत्रिय द्वारा शुद्रा में उपर्युक्त विधी से उत्पन्न छठी पीढी की सन्तान ।   अब यहां विचारणीय है कि अगर छ्ठी पीढी की सन्तान को ‘क्षत्रियाज्जातः’बोलेंगे तो ५वी पीढी की सन्तान को क्षत्रिय मानना पडेगा  ।  अब जबकि जातिवादी लोग क्षत्रिय द्वारा शूद्रा में उत्पन्न पहली पीढी की सन्तान( जिसको उग्र बोला जाता है) को भी क्षत्रिय नहीं मानते हैं तो ५ वी पीढी की सन्तान को क्षत्रिय मान लेना क्या सिर्फ़ मतलब साधने वाली बात नहीं है?

ये तो थी १०:६५ नं० श्लोक के इनके द्वारा किए गये अर्थ (अनर्थ) की समीक्षा । इससे स्पष्ट हो जाता है कि ६४ वे श्लोक से ६५ वे श्लोक का दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है क्योंकि ६४ वे श्लोक से प्रासङ्गिक तालमेल बैठाने के लिए शूद्र,ब्राह्मण,क्षत्रिय इत्यादि शब्द का किस प्रकार व्याकरण विरुद्ध अर्थ लगाना पड रहा है। सिर्फ़ इतना ही नहीं, अपितु अगर ६४ वें श्लोक के अर्थ की भी समीक्षा करें तो हम पाते हैं कि “शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातः” यह पद तो पुल्लिङ्ग है मगर इसका प्रयोग पुरुष अथवा स्त्री पुरुष दोनो के लिए न होकर सिर्फ़ स्त्री सन्तान के लिए हुआ है। भला ऐसा विचित्र प्रकार का श्लोक परम विद्वान महर्षि मनु का कैसे हो सकता है? इससे सिद्ध हॊता है कि यह श्लोक (१०:६४)  अगले (१०:६५) श्लोक का अर्थ बिगाडने के हेतु से किसी धूर्त व्यक्ति द्वारा मिलाया गया है। अतः श्लोक संख्या  १०:६४ को प्रक्षिप्त मानना ही उचित है।

अब तक की समीक्षा से हम इस निष्कर्ष पे पहुंचे हैं कि मनु १०:६५ का जातिवादियों के द्वारा किया गया अर्थ गलत है  और उसका सही अर्थ गुण कर्मानुसार वर्ण वयवस्था का ही पोषक है जो कि इस प्रकार है :-

कि ब्राहमण की सन्तान अपने गुण कर्मों के आधार पर शूद्र हो सकती है और शूद्र की सन्तान भी अगर ब्राह्मण बनने के योग्य हो तो ब्राह्मण हो जाएगी। यही नहीं अगर कोई शूद्र स्वयं भी ब्राह्मणत्व के योग्य हॊ तो वह ब्राहमण हो जाएगा। उसी तरह अगर कोई ब्राहमण स्वयं भी शूद्र बन जाने के योग्य कर्म करेगा तो शूद्र हो जाएगा। और अगर ब्राहमण का शूद्र बनना और शूद्र का ब्राहमण बनना सम्भव है तो फ़िर क्षत्रिय अथवा वैश्य बनना क्यों कर असम्भव हो सकता है। ठीक ऐसा ही क्षत्रिय अथवा वैश्य के घर पैदा हुई सन्तानों के बारे में समझा जाना चाहिए ।

प्रिय पाठकगण हमें आशा है कि यह लेख सत्य और असत्य का विवेक करने में आपके लिए सहायताप्रद सिद्ध होगा। त्रुटियों के लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं.

अगले भाग में फ़िर इसी तरह एक नये श्लोक,सूत्र अथवा मन्त्र की समीक्षा की जाएगी ।

(क्रमशः)

Shyamji Krishna Varma- His Making and Dayanad Saraswati , By Vidhu

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Shyamaji Krishna Varma was born on 4 October 1857 in Mandvi (in the Kutch province of modern day Gujarat).  His mother died when he was only 11 years old, after which he was raised by his grandmother.  After finishing school he moved to Mumbai for further education.  It was here that the seminal event of his life occurred; he came to the notice of Svami Dayanand Sarasvati who had founded the first Arya Samaj in Mumbai in 1875.  

Varma spoke Sanskrit so well that he impressed Dayanand (the greatest scholar of Sanskrit India has produced in recent millennia) immensely.  Varma’s brilliance as a young student of Sanskrit led to his becoming a disciple of Dayanand, who recognised such enormous potential in Varma that – despite his many other commitments – he took to, personally, tutoring Varma so as to optimise his knowledge of the intricacies of the grammar of Vedic Sanskrit.  Varma was soon competent to lecture on Vedic philosophy and religion, so much so that in 1877, a public speaking tour brought him to national prominence as well as to the attention of Monier Williams, an Oxford professor of Sanskrit who offered Shyamaji a job as his assistant.

As India’s first ardent nationalist under British rule, Dayanand had not only led Varma to the Vedas but also imbued in him the spirit of Nationalism necessary to build an independence movement brick by brick.  He therefore encouraged the young Shyamji to travel to the United Kingdom for higher studies and to subsequently further the cause of independence of India.  In truth, Dayanand fervently desired that the Vedic Dharma would spread to the West and saw Varma as an ideal messenger to propagate that cause.

With the help of a recommendation of Williams, Shyamji arrived in England to join Balliol College Oxford on 25 April 1879.  He returned to India in 1885 to start practice as a lawyer. After a short stay in Mumbai he settled in Ajmer, the ex-headquarters of his mentor Dayanand who by then had tragically had died in 1883, and continued his practice at the British Court in Ajmer. He went on to act as a minister in a number of Indian princely states in India.

]Due to tensions in his relationship with the colonial Crown authority, he was dismissed from such a position at Junagadh and chose to return to England in 1897; this bitter experience having shaken his faith in British Rule.  One of the effects of the British ruling India was that Indians started to move to Britain, primarily to seek further education.  Unfortunately, however, many such Indian students encountered racism when seeking living accommodation in England.   This is where Varma stamped an important mark on Indian history, because it was he who founded India House, a building in London he had bought as his home in 1900 which, in 1905, started a new life as a hostel for Indian students, based at 65 Cromwell Avenue, Highgate.

Krishna Varma was a great admirer of the work of Herbert Spencer, and his dictum that “Resistance to aggression is not simply justified, but imperative” [a Vedic dictum first defined thousands of years earlier by Lord Krishna in the Geeta].  Thus was born his plan for India House to become the locus for incubating an Indian revolutionary movement in Europe; it rapidly developed as an organised meeting point for radical nationalists among Indian students in England at that time and as one of the most prominent centres for Indian nationalism outside India.  Famous people to have later contact with this organisation were Gandhi, Lenin and Lala Lajpat Rai.  Later in 1905, he founded a periodical, the Indian Sociologist , and a society, the Indian Home Rule Society both intended to inspire sympathisers in the UK to lobby for political and social freedom as well as religious reform. Later still that year, at the United Congress of Democrats held in London, Shyamji spoke as a delegate of the India Home Rule Society.  His resolution on India’s future received a standing ovation from the entire conference.  Important to note is that he avoided the Indian National Congress , but instead kept in contact with various liberals, nationalists, social democrats and Irish Republicans.

Inevitably, such activities aroused the concern of the British government: Shyamji was disbarred from the Inner Temple and removed from its membership list on 30 April 1909 for writing anti-British articles in the Indian Sociologist.  Most of the British press were critical of Shyamji and carried outrageous allegations, against him and his newspaper, which he defended them boldly. The Times referred to him as the “Notorious Krishnavarma“.  His movements were so closely watched by British Secret Services that he decided to shift his headquarters to Paris, leaving India House in charge of Vir Sarvakar.

It was in 1907 that Shyamji left Britain secretly, to evade arrest by the British government, and moved to Paris. The British government’s attempts to extradite him from France failed, it is said, because he gained the support of many top French politicians.  Shyamji’s work in Paris helped gain support from people in other European countries, including Russia, for Indian Independence.  In 1914, as a result of France and Britain signing the Entente Cordiale, Varma thought it safest to move to Geneva.  For the best part of the next decade he continued to devote himself energetically to the mission of agitating for India’s independence.

It is probably appropriate to conclude that he is one of India’s unsung heroes in terms of his place in the history written about its struggle for independence, that is – so far – history has been unkind to him in not according him with the credit he merits for his contribution to India becoming free.  This is partially mitigated by a new town in his native state of Kutch being named, in the 1970s, Shyamji Krishna Varmanagar in his memory; later he was similarly honoured by the University of Kutch being renamed after him.

Shyamji Krishan Varma died in 1930 at the age of 73.  News of his death was suppressed by the British government in India.  Nevertheless tributes were paid to him in Lahore by Bhagat Singh and other inmates who were in jail at the time whilst undergoing a long and drawn out trial.  It was not until 22 August 2003 that his ashes reached India, when they were handed over to the then Chief Minister of Gujarat State, Narendra Modi by the Ville de Genève and the Swiss government – 55 years after India had become independent.  A memorial called Kranti Tirth dedicated to his memory was built and inaugurated in 2010 near his birth-place in Gujarat, Mandvi.  This museum houses his ashes, as well as a full scale replica of India House and galleries dedicated to other activists of the Indian independence movement.

 

Postscript

Can it be, uncharitably, suggested that Varma failed to deliver the outcomes expected of him by Svami Dayanand?  It is a fact that before he died he wrote at least one anxious letter to Varma in England, inquiring about the progress he was making in propagating the Vedic Dharma.  With hindsight, it would be fair to say that Dayanand’s dream was that Varma would – after Dayanand’s death – make the same type of impact in the West, would go on to make in successfully spotlighting Hinduism in the West.

Similarly, is it fair to lament that Varma, in his later life, became closer to the philosophy of Herbert Spencer than that of Dayanand?  If so, in mitigation, it must also be recognised that Dayanand’s dream was unrealisable in the context of when and where Varma lived after leaving India; being estranged from India in the era before air travel must have severely compromised his connections with the Arya Samaj movement.

In that light, it sadly must be conceded that Varma did not measure up to Vivekanand’s overall greatness, despite having the intellect and education to potentially do so.  As we know, Vivekanand failed in facilitating the conversion to Hinduism of large western populations; a result that is entirely understandable when considering flaws in the ideology of neo-Vedantism such as advaita, polytheism and idol worship. Persevering with in this speculative, and pathetic, lament leads one to next ask whether the Arya Samaj’s history would have been different if Varma had remained in India for his entire life?  If so, perhaps the Vedic Dharma would have put down stronger roots in India – roots it seems that are less vigorous today than Dayanand hoped for?