विवाह, नियोग और पुनर्विवाहों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

विवाह, नियोग और पुनर्विवाहों का विचार

अब गृहाश्रम के प्रसग् में विवाह, नियोग और पुनर्विवाहों का विचार किया जाता है कि इस विषय में मानवधर्मशास्त्र का क्या सिद्धान्त है ? ब्रह्मचर्य आश्रम सेवन के पश्चात् मनुष्य को गृहाश्रम का प्रारम्भ करना चाहिये। उसमें विवाह करना ही गृहाश्रम का मुख्य स्वरूप है। इसी कारण गृह नाम स्त्री के समीप रहने वाला गृहस्थ कहाता है। यदि गृहस्थ शब्द का यह अर्थ माना जावे कि जो गृह नाम घर में रहे वह गृहस्थ है, तो ब्रह्मचारी और वानप्रस्थ भी किसी प्रकार के घर में ही ठहरते हैं, तो उनकी भी गृहस्थ संज्ञा होनी चाहिये। अथवा यदि संन्यासी भी किसी के घर में ठहरा हो तो उसका भी गृहस्थ नाम पड़ना चाहिये। अथवा जिन-जिन के स्त्री नहीं और वे किसी घर में रहते हैं, तो गृहस्थ कहाने चाहियें। पर ऐसी परिपाटी लोक में नहीं है। इस कारण गृह शब्द स्त्री का पर्यायवाचक रखना चाहिये कि जो गृह नाम स्त्री के समीप ठहरे वह गृहस्थ वही गृहाश्रमी भी है। और स्त्री के साथ सम्बन्ध वा मेल होना ही विवाह है। अर्थात् स्त्री उसको अपना पति चित्त से मान ले और पुरुष उस स्त्री को अपनी पत्नी चित्त से मान ले इस प्रकार उन दोनों का परस्पर मन, वाणी और शरीर से सम्बन्ध होना, विवाह पद का अर्थ है। यदि मण्डप रचना पूर्वक कन्या के घर में जो वेदोक्त क्रिया होती अर्थात् मन्त्र पढ़ते वा होमादि करते हैं, उसका नाम विवाह मान लें, तो गान्धर्व, राक्षस और पैशाच विवाहों का नाम विवाह नहीं पड़ेगा क्योंकि उनमें वैदिक मग्लाचरण वा शिष्ट लोगों का स्वीकृत व्यवहार प्रायः नहीं होता। इसीलिये वे निन्दित विवाह माने गये हैं। परन्तु क्षत्रियों में पहले से ही गान्धर्व विवाह की कुछ-कुछ प्रवृत्ति चली आती है। और गान्धर्व विवाह में प्रायः स्त्री-पुरुषों का संयोग पहले ही हो जाता है, और पीछे विवाह का कृत्य अर्थात् कुछ शिष्ट व्यवहार भी होता है। इसमें विवाह की प्रसिद्धि करने से पूर्व प्रायः स्त्री-पुरुषों का संयोग हो जाता है, इसी कारण श्रेष्ठ लोगों में इसकी निन्दा है। यही चाल आजकल इग्लेण्डदेशवासियों में है, कि कन्या और वर की इच्छा से पहले संयोग भी हो जाता है। विवाह में वैदिकप्रक्रिया मन्त्रपाठ वा होमादि करने और अनेक सज्जन पुरुषों के सामने प्रतिज्ञा पढ़े जाने का यही प्रयोजन है, कि एक तो सर्वसाधारण को प्रकट हो जावे, कि अमुक का पुत्र और अमुक की कन्या का विवाह हो गया और द्वितीय उन कन्या वरों की प्रतिज्ञा के अनेक सज्जन लोग साक्षी हो जावें, कि प्रतिज्ञा से विरुद्ध चलने में उन दोनों को भय रहे कि हमको वे लोग धिक्कार देंगे। और तृतीय ऐसे बड़े आजन्म सम्बन्ध होने के प्रारम्भ में सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना करना, कि वह सबका स्वामी सदा हमको धर्म पर चलने की प्रेरणा करे इत्यादि प्रयोजनों के लिये मग्लाचरणरूप वेदी पर कृत्य अवश्य करना चाहिये, पर उस कृत्य का नाम विवाह नहीं है। इसी कारण यदि वेदीमात्र का कृत्य होकर कन्या वर पृथक्-पृथक् हो जावें और फिर उनका मैथुन संयोग होने से पूर्व ही पुरुष का शरीर छूट जावे तो वह कन्या धर्मशास्त्रानुकूल विधवा नहीं मानी जा सकती और ऐसी दशा में उस पुरुष के मर जाने पर उस कन्या का फिर से वेदोक्तरीति का विवाह हो सकता है पर लोक में इससे विरुद्ध चाल पड़ गयी है कि वेदी पर के कृत्य को ही पूरा विवाह समझ लेते हैं, और उस कृत्य के पश्चात् पुरुष के मर जाने से कन्या को विधवा मानकर बैठाल रखते हैं। इसका बड़ा कारण अविद्या है। इस विषय का जिनको विशेष व्याख्यान देखना हो वे “विवाहव्यवस्था” नामक पुस्तक में देखें। इस प्रकरण में तात्पर्य यही है कि वेदी पर जो वेदोक्त मग्लाचरण होता है वह स्वयं विवाह नहीं किन्तु विवाह की प्रसिद्धि प्रार्थना और प्रतिज्ञा होने के लिये है और विवाह का पूर्वरूप है जैसे ज्वर के पूर्वरूप को कोई ज्वर माने वा कहे तो सर्वथा विरुद्ध वा हानिकारक नहीं, वैसे यहां नहीं घटता क्योंकि विवाह शब्द का अर्थ पतिपत्नीभाव से स्त्री-पुरुष का संयोगमात्र न माना जावे तो गान्धर्वादि को विवाह नहीं कह सकते। इसलिये विवाहशब्द का उक्तार्थ ही ठीक है। इसी अर्थ से द्वीपान्तर निवासियों के सम्बन्ध को भी विवाह कह सकते हैं। इस लेख से मेरा यह प्रयोजन नहीं है कि ब्राह्मादि श्रेष्ठ विवाहों में वैदिक मग्लाचरण करना विशेष प्रयोजनीय नहीं, किन्तु आशय यह है कि ब्राह्म आदि शिष्ट विवाह हैं, और जिनमें वेदोक्तक्रिया नहीं होती, वे नीच लोगों के विवाह हैं। इससे ब्राह्मादि उत्तम हैं। और ब्राह्मणादि वर्णों को वैसे ही करना चाहिये। पर वेदी की क्रिया मात्र को विवाह समझ लेने से ही अनेक कन्या निरपराध विधवा मानकर बैठा रखी हैं, यही बड़ी हानि है, यदि विवाह का ठीक अर्थ समझ लें तो जिनका पुरुष से संयोग नहीं हुआ वे कन्या वास्तव में विधवा नहीं। उनका विवाह भी नहीं हुआ तो अब उनका ठीक विवाह निःसन्देह कर देना चाहिये यही मेरा प्रयोजन है।

विवाह के आठ भेद हैं, अर्थात् मनुष्य जाति भर में आठ प्रकार के ही विवाह माने जा सकते हैं। उनके नाम ब्राह्म, दैव आदि हैं। इनका विशेष व्याख्यान वहीं तृतीयाध्याय के भाष्य में होगा। परन्तु इस प्रसग् में इतनी शटा हो सकती है कि स्वयंवर विवाह कौन है ? इसका उत्तर यह है कि स्वयंवर इन आठ से भिन्न कोई विवाह नहीं, किन्तु मुख्यकर प्राजापत्य के अन्तर्गत आ सकता है, क्योंकि उसमें कन्या-वर दोनों परस्पर पहले प्रतिज्ञा कर लें, कि हम दोनों परस्पर प्रसन्न हैं, गृहाश्रम में धर्म करेंगे, ऐसा वाणी से कहकर वेदोक्त विधि से विवाह किया जाय, वह प्राजापत्य है। पद्मावती आदि के स्वयंवर में यही हुआ भी है कि पहले वर-कन्या की परस्पर प्रसन्नता होकर विवाह हुए हैं। इसीलिये इसको चार प्रशस्त विवाहों में रखा है कि जो आर्यों को करना चाहिये।

विवाह प्रसग् में एक पुरुष को एक ही स्त्री के साथ विवाह करना चाहिये। यह वार्त्ता ‘पुत्र-पौत्रों के साथ आनन्द करते हुए दोनों स्त्री-पुरुष गृहाश्रम में धर्म का सेवन करें’।१ इस अथर्वमन्त्र में द्विवचन का ग्रहण होने से ही निश्चय होती है कि यही वेद का सिद्धान्त है। और यही सनातन धर्म है कि एक पुरुष एक ही सवर्ण स्त्री के साथ विवाह करे। ऐसा होने पर जो कोई कामी पुरुष अपने वर्ण की वा अन्य वर्णों की अनेक स्त्रियों के साथ विवाह करते हैं, वे वेदविरुद्ध हैं। और पूर्वकाल में किन्हीं प्रतिष्ठित पुरुषों ने भी ऐसा किया तो जानो वेदविरुद्ध किया। अर्थात् कई विवाह कर लेने से किसी की प्रतिष्ठा नहीं होती किन्तु प्रतिष्ठा के हेतु उन लोगों के अन्य श्रेष्ठ काम थे [यद्यपि असवर्ण वा अनेक स्त्रियों के साथ विवाह करना धर्मानुकूल वा प्रशंसा योग्य सुख का हेतु काम नहीं है, तथापि उससे भी अधिक निकृष्ट कर्म की अपेक्षा वह अच्छा है। अर्थात् अपने से उच्च वर्ण की कन्या से विवाह करना अत्यन्त बुरा है। इसलिये यदि असवर्णों के साथ विवाह किसी कारण करना ही पड़ता हो, वा अपने वर्ण की योग्य अनुकूल कन्या नहीं मिलती हो, तो अपने से नीचे वर्ण की कन्या से विवाह कर लेना चाहिये। इसका प्रयोजन यह है कि पुरुष का अंश उत्तम और स्त्री का कुछ निकृष्ट रहने से सन्तान ठीक धर्मात्मा वा विचारशील उत्पन्न होते हैं। जैसे अन्य पदार्थों के मेल से वस्तु बनते हैं, वहां भी यह नियम रहता है कि अमुक-अमुक इस-इस प्रकार का इतना-इतना पदार्थ मिलने से अमुक वस्तु ठीक बनेगा। इसी कारण वैसा ठीक मेल न मिलने से अनेक वस्तु बिगड़ जाते हैं। इस पर कुछ अधिक समाधान की आवश्यकता नहीं, जो कोई निश्चय करना चाहे वह प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है, अर्थात् एक ब्राह्मण से शूद्र की कन्या में उत्पन्न हुए और एक शूद्र से ब्राह्मणी में उत्पन्न हुए सन्तानों के गुण-कर्म-स्वभाव का कितना भेद पड़ता है ?] तो भी जो कामी लोग सामान्य प्रकार से अर्थात् निषिद्ध माता, भगिनी पक्ष की स्त्रियों के साथ भी व्यभिचार करते हैं, अथवा वेष्याओं का सेवन करते हैं, उनकी अपेक्षा अनेक विवाह करने वाले कामी लोग सुखी वा धर्मात्मा होते हैं। इस प्रकार कामी पुरुषों को भ्रूणहत्यादि महापातकों से रोकने के लिये यह उपाय वा किन्हीं का मत अच्छा है, कि जो अनेक स्त्रियों के साथ विवाह कर लेना चाहिये अर्थात् निषिद्ध स्त्रियों और वेष्याओं के साथ विवाह करने की अपेक्षा कामासक्त पुरुषों को अनेक विवाह करके निर्वाह करना अच्छा है। किन्तु एकस्त्रीव्रत वाले सनातन धर्मी की अपेक्षा से वे कामी उत्तम नहीं हैं। इसीलिये इस मनुस्मृति के तृतीयाध्याय में लिखा गया है कि जो कामासक्ति के साथ प्रवृत्त हैं, उनके लिये आगे कही गई अन्य वर्णों की स्त्रियों के साथ भी विवाह हो सकता है। इसमें दो पक्ष हैं कि अनेक स्त्रियों के साथ विवाह करने वाले को अपने वर्ण की अनेक स्त्रियां न हों वा किसी कारण न प्राप्त हो सकें तो अपने से नीचे वर्ण की अन्य स्त्रियों के साथ विवाह करना चाहिये। उनमें ब्राह्मण को क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की कन्याओं के साथ विवाह कर लेना चाहिये, यह किन्हीं का मत है, और अन्य मनु आदि के मत में तो ब्राह्मण, क्षत्रियों को शूद्र की कन्या के साथ कदापि विवाह न करना चाहिये। यह अनेक धर्मात्माओं और मानवधर्मशास्त्र का मत है। यद्यपि नीति वालों के कहने वा मानने के अनुसार स्त्री सम्बन्धरूप विवाह के दो फल हैं। जैसे नीति में लिखा है कि ‘रति और पुत्र ये दो फल स्त्री के हैं।’१ परन्तु धर्मशास्त्रों के सिद्धान्त से सन्तानों की उत्पत्ति ही मुख्य फल है, किन्तु रतिमात्र चाहने वाले पुरुष धर्मात्मा नहीं हो सकते। जैसे कहा है कि ‘जो अर्थ- धनादि और काम भोग में आसक्त नहीं हैं, उनके लिये धर्म का उपदेश किया गया है’२ अर्थात् जो धनादि की प्राप्ति और कामभोग में आसक्त हैं, अर्थात् तृष्णारूप नदी में गोता खा रहे हैं, उनको धर्म का ज्ञान नहीं होता। इससे स्त्री का सम्बन्ध होने पर यदि पुत्रादि उत्पन्न हों, तो गृहाश्रम की सफलता है, अन्यथा निष्फल है। इसी कारण नीति में लिखा है कि- ‘सन्तति न हो तो मैथुन करना शोचनीय है।’३ इसी कारण विवाह करने से पूर्व ही मन में फल का अनुसन्धान करने के लिये और उत्तम सन्तान होने के लिये उपाय दिखाये गये हैं, कि यह कार्य इस प्रकार किया हुआ सफल और अच्छा फलदायक होता है वा होगा। और विरुद्ध अनिष्ट फल को हटाने के लिये कहा है, कि इस-इस प्रकार की कन्या के साथ विवाह न करना चाहिये।

सम्यक् विचार पूर्वक भी यदि विवाह किया जाय और किसी कारण फल-सिद्धि न हो, और दो में से एक मर जावे। उनमें यदि अक्षतयोनि स्त्री     विधवा हो जावे, अर्थात् पति मर जावे, अथवा विरक्त साधु, पतित, नपुंसक और असाध्यरोगी और सन्तानों के उत्पन्न कर सकने में अशक्त किसी प्रकार हो जावे, तो उस स्त्री को दूसरे पति से विवाह कर लेना चाहिये। और उसके पिता वा भाई को उचित है कि अन्य पुरुष के साथ सम्बन्ध कर दें। ‘वह कन्या यदि अक्षतयोनि हो तो पौनर्भव नामक पुरुष के साथ उसका पुनर्विवाह करना चाहिये।’१ इत्यादि वचनों से मनु जी ने भी अक्षतयोनि कन्या का पुनर्विवाह कहा है। तथा कात्यायन स्मृति में लिखा है कि ‘मन-वाणी से स्त्री को स्वीकार करके जो कोई पुरुष मर जावे और उस कन्या से संयोग न हुआ हो तो कन्या अन्य वर को तीन मास पीछे स्वीकार कर लेवे। तथा वेदी सम्बन्धी विवाह क्रिया हुए पश्चात् वर अन्य वर्ण का अर्थात् अपने से नीच वर्ण का निकले, वा पतित, नपुंसक, दुष्कर्मी, सगोत्र, शूद्र अथवा दीर्घरोगी निकले तो विवाह हो जाने पर भी उस कन्या का विवाह अन्य अच्छे निर्दोष वर के साथ कर देना चाहिये।’२ इत्यादि प्रमाणों से सिद्ध है कि अक्षतयोनि कन्या का पुनर्विवाह वैदिकरीति से ही कर देना चाहिये। युक्ति से भी यही सिद्ध होता है कि जैसे जगत् में जो कार्य जिस प्रयोजन वा फल के लिये आरम्भ किया जाता है, वह यदि किसी प्रकार निष्फल हो जावे, तो उसको फिर भी करते हैं। अर्थात् दो बार, तीन बार आदि भी करते हैं कि जब तक सफल न हो, तब तक बार-बार करते हैं। जैसे क्षुधा की निवृत्ति के लिये अन्न पकाते हैं। यदि वह पाक किसी प्रकार सफल न हो, तो फिर पाक किया जाता है। वैसे ही यहां भी एक वा दो विवाहों से फल सिद्ध न हो, तो बार-बार कई विवाह करने चाहियें। उन्हीं की नियोग संज्ञा पड़ती है, इसी प्रकार अनेक नियोग निकलते हैं। और विवाह का अवान्तर भेद पुनर्विवाह वा नियोग है। उनमें अक्षतयोनि कन्या का पति मर जाने वा किसी प्रकार सन्तानोत्पत्तिरूप फल सिद्ध करने में असमर्थ होने पर पुनर्विवाह करना चाहिये, और उसमें मरणपर्यन्त स्त्री-पुरुषों का सम्बन्ध बना रहता है, इस कारण उसको पुनर्विवाह कहते हैं। क्षतयोनि स्त्री का पुत्रादि के अभाव में सन्तानोत्पत्ति के लिये ही नियोग करना चाहिये। नियोग में उन-उन स्त्री-पुरुषों का सम्बन्ध दो पुत्रों की उत्पत्ति पर्यन्त ही रखा जाता है। ये पुनर्विवाह और नियोग दोनों आपद्धर्म हैं। इसी कारण सबको नियोग वा पुनर्विवाह करने नहीं पड़ते। यदि कोई स्त्री वा पुरुष सनातनधर्मरूप ब्रह्मचर्य के साथ नहीं रह सकता हो, और व्यभिचार के साथ गर्भपातादि पाप करावे वा अनेक विपत्तियां भोगे, उसकी अपेक्षा पुनर्विवाह वा नियोग द्वारा निर्वाह करना उत्तम है। जब विवाह का भी किन्हीं के मत में नियम वा बन्धन नहीं है। यदि कोई पुरुष वा स्त्री विवाह करना ना चाहे, वह विवाह न करके जन्म भर ब्रह्मचर्य आश्रम के साथ रहे, तो जिसकी स्त्री वा जिस स्त्री का पति मर जावे, उस पर शास्त्र का बन्धन क्यों कर हो सकता है ? कि जो उसको विवाह करना ही चाहिये। किन्तु इस अंश में दोनों स्त्री-पुरुष स्वतन्त्र हैं, चाहें विवाह करें वा न करें। जो लोग नियोग और पुनर्विवाह करते हैं, उनकी अपेक्षा से ब्रह्मचर्य में स्थित स्त्री-पुरुष अतिश्रेष्ठ हैं। परन्तु जन्मभर ब्रह्मचर्याश्रम के साथ रहना भी अति कठिन है। साधारण लोग ऐसा नहीं कर सकते, किन्तु कोई विचारशील ब्रह्मचर्य के तेज को सह सकता है। नियोग का विधान नवमाध्याय में किया है, उसका विशेष व्याख्यान भी वहीं देखना चाहिये। वहां नियोग विधान किये पश्चात् चार श्लोकों से नियोग का खण्डन भी किया है, उसकी समीक्षा नवमाध्याय के प्रक्षिप्त प्रसग् में होगी। सन्तान चाहने वाली क्षतयोनि स्त्री को नियोग करना चाहिये, यह मानवधर्मशास्त्र का सिद्धान्त है। नियोग का आपद्धर्म होना, मनु जी ने नवमाध्याय में स्वयमेव स्वीकार किया है, कि- ‘अब आगे स्त्रियों के आपत्काल का धर्म कहेंगे।’१ अनेक लोग इस विषय में विरुद्ध निश्चय किये हुये हैं कि कलियुग में नियोग नहीं करना चाहिये। और उन लोगों ने ऋषियों के नाम से बनाये धर्मशास्त्राभासों में लिखा भी है कि- ‘घोड़े का मारना-          अश्वमेध, गौ का मारना- गोमेध, संन्यास धारण करना, मांस के पिण्ड देना और नियोग करना, ये पांच कर्म कलियुग में न करे।’२ इत्यादि। यह वेद से विरुद्ध और प्रमादी लोगों का कहा वचन है, क्योंकि वेद जैसे पवित्र पुस्तक में घोड़े का मारना आदि घृणित काम कैसे हो सकता है ? अर्थात् वेद धर्म का मूल है और अहिंसा को सब लोग परम धर्म मानते हैं। यदि वेद में घोड़े आदि की हिंसा हो तो वह धर्म का मूल नहीं हो सकता। इस अंश के विशेष व्याख्यान करने का यहां अवसर नहीं। संन्यास और नियोग अवसर, योग्यता वा अधिकार के अनुसार करने चाहियें। इसीलिये वेद के नियोग प्रकरण में लिखा है कि- ‘वैसे संवत्सर वा समय आगे आवेंगे कि जब कुलस्त्री लोग अनुचित व्यभिचारादि कर्म करेंगी, उन समयों में नियोग करना चाहिये।’१ इससे नियोग वेदानुकूल सिद्ध होता है। तिससे गर्भहत्या न होने के लिये और आपत्काल में विधवाओं का निर्वाह करने के लिये योग्यतानुसार नियोग वा पुनर्विवाह अवश्य करने चाहियें। और जब भूख लगती है, तब उसकी निवृत्ति के लिये बुद्धिमान् को अवश्य यत्न करना चाहिये। जिन पुस्तकों में भूख न लगने पर भी भोजन देने का विधान है, वे धर्मशास्त्र नहीं। जब जैसे कर्म से मनुष्यों के दुःख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति होती है, उस काल में वैसे कर्मों के सेवन के लिये जिन पुस्तकों में आज्ञा लिखी है, वे ही वेदादि श्रेष्ठ पुस्तक धर्मशास्त्र कहाने योग्य हैं। और धर्मशास्त्र बनाने का यही प्रयोजन है कि जो उनमें कहे मार्ग से चलते हुए मनुष्य दुःखों को न प्राप्त हों और यथासमय सुखों को अवश्य प्राप्त हों। जिन पुस्तकों में समयानुसार दुःख से बचने का उपाय नहीं दिखाया गया, वे धर्मशास्त्र नहीं हैं। इस कारण नियोग के निषेध करने वालों का धर्मशास्त्र न होना ही प्रामाणिक न होने में हेतु है। इससे सामयिक दुःखों की निवृत्ति के लिये विचारशील धर्मात्मा लोगों को आपत्काल में नियोग से धर्म की रक्षा करनी चाहिये, यह मानवधर्मशास्त्र का सिद्धान्त वा आशय है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *