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स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-४१

सप्तमर्यादाः कवयस्ततक्षुस्तासामेकामिदभ्यंहुरो गात्।

आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीडे पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ।।

– ऋ. १०/५/६

परमेश्वर ने मनुष्य के अन्दर दो सत्ताओं को समाविष्ट कर रखा है। देखने में प्रत्येक प्राणी के पास एक शरीर है, जो उसकी पहचान है। पहचान नष्ट हो जाये तो कोई शरीरधारी उसे खोजकर नहीं ला सकता। जो इस शरीर से पहचाना जाता है, वह जीवात्मा है। आत्मा अपनी इस पहचान से ही जाना जाता है कि वह अपनी संसार यात्रा से कहाँ तक पहुँचा है।

शरीर तो सभी प्राणियों के पास है, एक-एक प्रकार के शरीर धारण किये भी बहुत सारे प्राणी होते हैं और फिर प्राणियों  के प्रकार, नस्ल भी बहुत हैं। ये दो बातें संकेत करने के लिये पर्याप्त हैं कि सभी प्राणी यात्री हैं और प्रत्येक की यात्रा की पहुँच भिन्न-भिन्न चरणों में चल रही है। हमारे लिये इस यात्रा के कारण कोई प्राणी ऊँचा या नीचा हो सकता है, परन्तु परमेश्वर की दृष्टि में तो सभी उस तक पहुँचने के इच्छुक यात्री हैं, कोई उससे बहुत दूर है तो कोई उसके निकट है।

संसार को देखने से दो बाते समझ में आती हैं- जीव बहुत प्रकार के हैं, उसी प्रकार संसार में सबकी अनिवार्यता और उपयोगिता भी है। जैसे भवन के निर्माण में एक व्यक्ति भवन की आवश्यकता वाला है, वह अपने को उसका स्वामी समझता है। वह अपने को निर्माण करने वाला कहता है। स्वयं को स्वामी भले ही कहे, परन्तु वह उसका निर्माण नहीं कर सकता। भवन का निर्माण करने के लिये कुछ व्यक्ति उसके विचार को क्रियान्वित करने का स्वरूप बताते हैं। हम उन्हें वास्तुकार कहते हैं। वे उसे उसकी इच्छा के अनुकूल भवन का चित्र बनाकर देते हैं। कुछ लोग लोहा, मिट्टी, लकड़ी, पत्थर से उस स्वरूप को आकार देते हैं। दूसरे लोग उसे उपयोगी बनाते हैं, तीसरे उसकी सुन्दरता को चित्रित करते हैं, वैसे ही संसार में समस्त प्राणियों की भूमिका बनती है। जैसे हम आशा करते हैं कि सरकार-राज्य इस देश के नागरिकों को कार्य दे और उनके पुरुषार्थ तथा बुद्धि का सदुपयोग ले और उसे सार्थक से करे। उसी प्रकार परमात्मा ने भी संसार में जितने कार्य हैं, उतने प्रकार के प्राणियों की रचना की है। कोई भी प्राणी अनुपयोगी नहीं है, यदि अनुपयोगी होता तो न तो उसको उसके कर्मों का फल मिलता, न संसार के वे विशेष कार्य दूसरा कर सकता।

इन प्राणियों में परमेश्वर ने अपने कार्यों के प्रति कुछ को उत्तरदायी बनाया है, कुछ को उत्तरदायी नहीं बनाया। सांसारिक व्यवस्था में कुछ लोग निर्णय करने वाले होते हैं, कुछ लोग अनुपालना करने वाले। उत्तरदायी निर्णय करने वाले माने जाते हैं। कार्य के अच्छे-बुरे, हानि-लाभ के लिये अनुपालना करने वालों को उत्तरदायी नहीं माना जाता। जो उत्तरदायी है, उसे ही पुरस्कार और दण्ड मिलता है। अनुपालना करने वाले को केवल उसके जीवन यापन के साधन मिलते हैं, जिसे हम मजदूरी कहते हैं।

इसी प्रकार संसार में भोग-योनि के प्राणी अनुपालना करने वाले हैं। परमेश्वर ने उन्हें संसार में जिस कार्य के योग्य बनाया है, वह स्वयं उनके जीवन से पूर्ण होता है और उनके जीवित रहने के उपाय परमेश्वर ने उन्हें दिये हैं। उनके कार्य में बाधा पहुँचाना, उनके जीवन को मध्य में समाप्त करना, उन्हें कष्ट देना- ये कार्य मनुष्य अपने विवेक से करता है, इसके लिये मनुष्य ही इसके परिणाम का उत्तरदायी बनता है। संसार में मनुष्य से भिन्न सारे प्राणी इसी श्रेणी में आते हैं। अतः इनको भोग-योनि कहा जाता है। इनके कार्य का निर्णय परमेश्वर ने इनके जीवन के साथ किया है। अतः वही उत्तरदायी है।

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-40

हस्तायां दशशाखायां जिह्वा वाचः पुरोगवी।

अनामयित्नुयां त्वा तायां त्वोप स्पृशामसि।।

– ऋग्. 10/137/7

संस्कृत भाषा में वैद्य को पीयूष-पाणि कहा जाता है। पीयूष का अर्थ है-अमृत और पाणि का अर्थ होता है-हाथ। जिसके हाथ में अमृत हैं, ऐसे वैद्य की चर्चा इस मन्त्र में की गई है, वैद्य के दोनों हाथ ही नहीं, हाथ के पोर-पोर में, अंगुलियों में अमृत भरा है। वह हाथ जिस भी रोगी का स्पर्श करते हैं, उसे निरोग करते हैं। वैसे सभी लोग जो भी कार्य करते हैं, हाथ से ही करते हैं, सारे कला-कौशल के कार्य हाथ से ही किये जाते हैं। लेखन, निर्माण, कृषि सभी कुछ तो हाथों से ही होता है। इन सभी में जो उत्कर्ष आता है, वह हाथों से ही आता है।

वैद्य का हाथ दो प्रकार से उत्कर्ष को देने वाला होता है। रोगी की नाड़ी देखकर, त्वचा का स्पर्श देखकर रोगी की चिकित्सा की जाती है तथा हस्ताभिमर्श चिकित्सा में रोगी के शरीर में जहाँ-जहाँ पीड़ा होती है, वहाँ हाथ का स्पर्श कर अथवा रोगयुक्त अंग के पास ले जाकर हाथ से रोग दूर किया जाता है।

वेद में अन्यत्र भी हस्ताभिमर्श चिकित्सा का वर्णन आया है। वहाँ मनुष्य द्वारा अपने हाथ के सामर्थ्य का वर्णन करते हुये कहा गया है, मेरा हाथ भगवान् है, ऐश्वर्यवान् है, ऐश्वर्य से महत् है। यह मेरा हाथ विश्व-भेषज है। वहाँ ‘अयं मे विश्व भेषजः’ कहा है। हाथ में समस्त समस्याओं के समाधान करने का सामर्थ्य है। इसलिये यहाँ ‘भेषज’ शबद का प्रयोग किया गया है। संस्कृत में ‘भिषक’ वैद्य के लिये है। परमेश्वर को ‘भिषकतम’ कहकर पुकारा गया है। वह परमेश्वर सब वैद्यों से भी बड़ा वैद्य है। ‘भिषकतमं त्वा भिषजां शृणोमि’-मैं भली प्रकार जानता हूँ, तु संसार के समस्त रोगों की दवा है। मनुष्य भी अपने हाथ को कहता है- यह हाथ विश्व-भेषज है। यह हाथ अभिमर्श चिकित्सा का सूत्र है, यह हाथ समस्त कल्याण को देने वाला और अकल्याण को दूर करने वाला है। हम यदि वाणी से न भी बोलें, तो भी हमारे शरीर के अंगों के स्पर्श से हमारे भाव दूसरे तक पहुँचते हैं, दूसरे को प्रभावित करते हैं। भारतीय शिष्टाचार में आशीर्वाद के रूप में अपने से छोटे के सिर पर हाथ रखा जाता है। बड़ा व्यक्ति प्रणाम करने वाले व्यक्ति के सिर पर हाथ रखकर ही प्रणाम के उत्तर में आशीर्वचन कहता है। माता-पिता, गुरुजन सिर पर हाथ रखते हैं। देवता भी सिर पर हाथ रखकर वरदान या अभय दान देते हैं। इसीलिये लोक में भी किसी व्यक्ति के निर्भय होने पर उसके बड़े का या परमेश्वर का हाथ उसके सिर पर होने की बात की जाती है। बालकों की पीठ पर हाथ रखकर उसका उत्साह बढ़ाया जाता है। किसी सफलता पर शाबासी दी जाती है। साथी के पीठ पर हाथ रखकर समर्थन जताया जाता है। तुम आगे बढ़ो, तुमहारी पीठ पर हमारा हाथ है।

इस मन्त्र में हाथ की विशेषता बताते हुए कहा गया है- ‘हस्तायां दश शाखायां’ दश शाखाओं वाले दोनों हाथों से। हाथ की योग्यता में आगे कहा है- ‘अनामयित्नुयां’ आमय रोग को कहा जाता है। ये हाथ रोग को दूर करने का सामर्थ्य लिये हुये हैं। इन रोगों को दूर करने वाले हाथों से मैं तेरा स्पर्श करता हूँ। मेरे हाथ का स्पर्श तुझे निरोग करने का सामर्थ्य रखता है। हाथ निरोग करने में समर्थ है, यह वाणी का कथन है- मैं तो रोगी को स्वस्थ करने की घोषणा करता ही हूँ। इसके अतिरिक्त जिन्होंने भी  मेरी इस योग्यता का लाभ उठाया है, उनकी वाणी भी मेरी योग्यता का बखान करती है। मेरी चिकित्सा से स्वस्थ हुये व्यक्ति सदा मेरी प्रशंसा करते हैं।

इस पूरे सूक्त में मनुष्य को किस प्रकार स्वस्थ रखा जा सकता है, यह कथन किया है। वायु चिकित्सा, जल चिकित्सा, आश्वासन चिकित्सा, स्पर्श चिकित्सा के सूत्र इन मन्त्रों में बताये गये हैं। सामान्य बात है कि शरीर जिन पंच महाभूतों से बना है, उनके कम अधिक होने पर मनुष्य रोगी होता है। इन भौतिक तत्त्वों का सामान्य रूप ही शरीर को स्वस्थ रख सकता है। अतः चिकित्सा में केवल एक ही विचार सपूर्ण नहीं होता। इसको वैद्यक पथ्यापथ्य कहते हैं। औषध का उपयोग करने पर भी यदि पथ्य न किया जाये तो औषध से पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं हो पाता। पथ्य के महत्त्व को बताते हुए कहा गया है- यदि मनुष्य पथ्य करता है, तो बिना औषध के मनुष्य स्वस्थ हो जाता है। वैद्य को पता होना चाहिए कि रोगी के शरीर में कौन से तत्त्व की कमी है और कौन सा पदार्थ उस तत्व को पूरा कर सकता है। यही इन मन्त्रों का सन्देश है।

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-39

आप इद्वा उ भेषजीरापो अमीवचातनीः।

आपः सर्वस्य भेषजीस्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्।।

– ऋग्. 10/137/6

यह चिकित्सा का सूक्त है। मनुष्य कैसे स्वस्थ रह सकता है, इसका प्रत्येक मन्त्र में सन्देश है। मनुष्य का शरीर प्राकृतिक पदार्थों से बना है। शरीर में जिन पदार्थों की अनुपात से कमी या अधिकता होती है, उन्हीं के कारण रोग होता है। इसकी चिकित्सा भी प्राकृतिक पदार्थ ही हैं। जिन पदार्थों की शरीर में न्यूनता होती है, उसी प्रकार का पदार्थ शरीर में पहुँचाया जाता है। अधिकता होने पर उसकी न्यूनता के उपाय किये जाते हैं। इसी आधार पर वेद में कहा गया है- जल इस शरीर के लिये महत्त्वपूर्ण औषध है। शरीर पाँच भूतों से बना है। अतः इसे भौतिक शरीर कहा जाता है। पाँच भूतों में शरीर में सबसे अधिक मात्रा जल की होती है। शरीर के पदार्थों में जल की मात्रा सत्तर प्रतिशत होती है। इस कारण शरीर में जल के सन्तुलन को बनाये रखने का यत्न सदा करना चाहिये।

जल सबसे अधिक सुलभ है, सरलता से उसे प्राप्त किया जा सकता है, परन्तु मनुष्य आलस्य, प्रमाद और अज्ञान के कारण रोग ग्रस्त हो जाता है। इसका महत्त्व तब ज्ञात होता है, जब हम उसकी न्यूनता से होने वाले कष्ट से पीड़ित हो जाते हैं। गत दिनों एक परिवार में जाने पर पता लगा कि उनका पुत्र रोग से पीड़ित हो गया है और रोग का कारण चिकित्सों ने बतलाया है कि यह व्यक्ति पानी नहीं पीता या बहुत कम मात्रा में पानी पीता है। इस कारण रोगी की आंते संकुचित होकर चिपक गई है। इतना बड़ा रोग केवल पानी का प्रयोग न करने से हो गया। परमेश्वर ने ऐसी व्यवस्था की है कि यदि शरीर में किसी पदार्थ की न्यूनता होती है तो शरीर में उसकी आवश्यकता अनुभव होने लगती है। हम भोजन से, पानी से, औषध और वायु से उनकी पूर्ति करते हैं। पानी की उपयोगिता और आवश्यकता देखते हुए हमारी परमपराओं में पानी को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। प्रातःकाल उठते ही मुख प्रक्षालन के साथ उषःपान का विधान किया गया है। प्रातःकाल नित्य/नियमित रूप से जल पीते रहने से शरीर में होने वाली पानी की कमी पर नियन्त्रण पाया जा सकता है। पानी का पर्याप्त मात्रा में प्रयोग करने से शरीर की कोशिकाओं में पूर्णता आती है। स्वच्छ जल जहाँ शरीर से दोषों को बाहर निकालता है, वहीं ऊर्जा का स्रोत भी बनता है। रक्त की मात्रा को भी कम नहीं होने देता, जिससे शरीर में कान्ति, स्फूर्ति, उत्साह का संचार होता है। भोजन को सुपाच्य बनाने के लिये भोजन में जल की उचित मात्रा अपेक्षित है। भोजन में जल का अभाव भोजन को दुष्पाच्य बनाता है, वहीं भोजन के साथ जल की अधिकता भोजन को पचाने वाले द्रवों का प्रभाव कम कर देती है। इसलिये भोजन के एक घण्टा बाद पर्याप्त जल लेने का निर्देश किया गया है।

आधुनिक अध्ययन के अनुसार हर तीन घण्टे के पश्चात् शरीर की क्रियायें शिथिल होने लगती हैं, यदि थोड़ा सा जल पी लिया जाये तो शरीर में पुनः सक्रियता का संचार हो जाता है। अतः थोड़े-थोड़े समय पर स्वल्प मात्रा में जल पीते रहने से शरीर में ऊर्जा का स्तर बना रहता है। वेद में बहुत सारे मन्त्र हैं जिनमें जल को भेषज कहा गया है। जल का सौमय गुण है, सभी प्रकार के सन्ताप- चाहे वे शारीरिक हों या मानसिक, जल उनको शान्त करने में समर्थ है। जल को शान्ति प्रदान करने वाला कहा गया है और इसे सबसे अधिक शान्ति प्रदान करने वाला बताते हुए शान्ततम कहा है। जल कल्याण करने वाला है तथा अत्यन्त कल्याण करने वाला होने से इसे शिवतम कहा गया है।

मन्त्र में आपः (जल) को भेषज बताते हुए रोग-कृमियों का नाश करने वाला कहा है। जहाँ जल स्वतन्त्र रूप से स्वास्थ्यवर्धक है, वहीं औषध द्रव्य के संयोग से घोल बनाकर, क्वाथ बनाकर, शर्बत बनाकर स्वास्थ्य वृद्धि और रोग का नाश करने के लिये काम में लिया जाता है। अमीव-रोग कारक वृति को कहते हैं, चातनः- नाश करने वाला अर्थात् जल में रोग कृमियों के नाश की क्षमता है। सभी ओषधियों का उपयोग जल के माध्यम से किया जा सकता है। वेद कहता है- हमें उचित है कि हम जल के महत्त्व और गुण को समझें और उसका प्रयोग कर स्वयं को स्वस्थ व निरोग बनायें।

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-38

त्रायन्तामिह देवास्त्रायतां मरुतां गणः।

त्रायन्तां विश्वा भूतानि यथायमरपा असत्।।

– ऋक्. 10/137/5

प्रसंग रोग से संरक्षण का है। देवता रोगी की रक्षा करें, मरुत्गण रोगी की रक्षा करें। समस्त भूत रोगी की रक्षा करें, जिससे यह व्यक्ति रोग रहित हो सके।

प्रश्न उठता है- यहाँ चेतन की बात भी जा रही है या जड़ की। यहाँ प्रसंग जो भी हो, शदार्थ दोनों हो सकते हैं। देव शद चेतन और जड़ दोनों का वाचक है। देव में परमेश्वर, मनुष्य, प्राणी तक सबका ग्रहण हो सकता है। मरुद् भी जड़-चेतन दोनों का वाचक है। चेतन में योद्धा या सैनिक के अर्थ में इसका प्रयोग बहुधा वेद में आता है। भूत भी जड़ और चेतन हैं। रोगी को चेतन तो ठीक कर ही सकते हैं, परन्तु ऊपर से प्रसंग रोग और औषध का चल रहा है। तब देव मरुत्, भूत, चेतन के वाचक नहीं होंगे।

यहाँ पर रोग निवारक जड़ पदार्थों की चर्चा चल रही है। मनुष्य को सबसे आवश्यक जीवनीय पदार्थों की चर्चा है। जो वस्तुएँ मनुष्य को जीवित रखने में उपयोगी है, वही स्वास्थ्य की उन्नति और सुरक्षा में भी आवश्यक हैं। गत मन्त्रों में जीवनीय तत्त्वों के रूप में जलवायु की अनेकशः चर्चा हुई हैं। उसी प्रसंग में देवता कौन हैं जो रोगी को रोगरहित करने में प्रमुखता से उपयोगी हैं। मन्त्र का अर्थ करते हुए स्वामी ब्रह्म मुनि कहते हैं- देवाः रश्मयः। यहाँ देवता का अर्थ सूर्य की रश्मियाँ हैं। यह बात सर्वविदित है कि संसार में सूर्य ही जीवन का आधार है। जहाँ सूर्य ऊर्जा देता है, वहाँ सूर्य रोगाणुओं को समाप्त करने वाला प्रथम अस्त्र है। वेद कहता है- उघट रश्मिर्भिः कृमीणहन्ति। उदय होता हुआ सूर्य रोग कृमियों को नष्ट करता है। स्वस्थ दशा में भी सूर्य रश्मियों का सेवन करने का विधान है। आजकल सूर्य के प्रकाश में रहने की प्रेरणा की जाती है। चिकित्सकों का विचार है कि प्रत्येक मनुष्य को दिन के कुछ घण्टे सूर्य के प्रकाश में व्यतीत करने चाहिए, इससे शरीर के रोगाणु नष्ट होकर, जीवनीय शक्ति बढती है। कहा जाता है कि सूर्य के प्रकाश में विटामिन डी की प्राप्ति होती है। इससे हमारे शरीर में दृढता आती है।

वेद कहता है- मनुष्य को घर भी ऐसा बनाना चाहिए जिसमें सूर्य की किरणें प्रचुरता से प्रवेश कर सकें। मन्त्र है- यत्र गावोाूरिशृंगा अयासः। घर के अन्दर सूर्य की किरणें बहुत मात्रा में आयें। वेद में गो शद किरणों का वाचक है, भूरि शृंगा बहुत प्रकार से गहराई तक घर में प्रवेश करें। जिस घर में सूर्य की किरणें प्रवेश करती हैं, उस घर में रोग के कृमि नष्ट हो जाते हैं। इसलिए मन्त्र में कहा गया है कि सूर्य की किरणें रोगी की रोग से रक्षा करें। जहाँ अंधेरा, सीलन होता है, प्रकाश की कमी होती है, वहाँ दमा, खांसी आदि रोग बढते हैं।

मन्त्र में आगे कहा गया है- त्रायतां मरुतां गणः। मरुतों के गण रोगी की रक्षा करें। यहाँ मरुत् का सैनिक अर्थ घटित नहीं होता, यहाँ सूर्य के प्रकाश के साथ-साथ शुद्ध वायु की संगति बैठती है। अतः रोगी को प्रकाश के साथ शुद्ध वायु की प्राप्ति होनी आवश्यक है। रोगी के कमरे में स्वच्छ हवा का आवागमन सदा बना रहे तो रोगी को स्वास्थ्य लाभ शीघ्र होता है। आज और पुराने समय में भी रोगी को स्वास्थ्य लाभ के लिये पर्वतीय स्थानों पर जाने का परामर्श दिया जाता है। पहले यक्ष्मा के रोगी को चिकित्सा के लिये पर्वत क्षेत्रों में चिकित्सालय बनाये गये थे। आज भी उत्तम जलवायु से स्वास्थ्य लाा प्राप्त करने के लिये शुद्ध वायु और सूर्य के प्रकाश की अधिकाधिक प्राप्ति हो, वहाँ जाना चाहिए या अपने घर में ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए। यहाँ पर मरुतों से प्रार्थना की गई है, वे रोगी की रक्षा करें। तीसरे चरण में कहा गया- त्रायन्तां विश्वा भूतानि। विशेषरू प से सूर्य के प्रकाश का शुद्ध वायु के रूप में उल्लेख किया गया है। सामान्य रूप से सभी पदार्थ या वस्तुएँ, चाहे वे औषध के रूप में हों अथवा वातावरण या प्रयोग में आने वाली वस्तु के रूप में हों। सभी रोगी के अनुकूल और उसके स्वास्थ्य की रक्षा करने के लिये उपयोगी होनी चाहिए। विश्वा का अर्थ विश्वानि अर्थात् सब भूत, जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी आदि में प्राप्त होने वाले सभी पदार्थ रोगी को रोग से बचाने वाले हों। कभी कभी रोगी समझता है- केवल औषध खाने मात्र से वह स्वस्थ हो जायेगा, उतना पर्याप्त नहीं है। चिकित्सा में कहा जाता है कि जितना महत्त्व औषध का है, उतना ही महत्त्व पथ्य का है। यदि पथ्य नहीं है तो औषध व्यर्थ हो जाती है तथा पथ्य हो तो रोगी को कम औषध से भी स्वस्थ किया जा सकता है। वास्तव में रोग को शरीर स्वयं दूर करता है और वस्तुएँ तो सहायक मात्र है। अतः चिकित्सक रोगी को परामर्श देते हैं- स्वास्थ्यवर्धक अन्नपान सेवन के साथ पूर्ण विश्राम करना चाहिए। मूलभूत बात है- प्रत्येक वह कार्य और वस्तु उपयोग में आती है, जिससे रोगी रोग से मुक्त हो, इसीलिए कहा गया है- यथा यमरपा असत्। कैसे भी हो, रोगी को रोग मुक्त करना, चिकित्सा का उद्देश्य है।

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-38

आ त्वागमं शंतातिभिरथो अरिष्ट तातिभिः।

दक्षं ते भद्रमाभार्षं परा यक्ष्मं सुवामि ते।।

इससे पूर्व मन्त्र में वायु की शुद्धता से रोग को दूर करने की तथा रोगी के अन्दर बल संचार करने की चर्चा की गई थी। इस मन्त्र में वैद्य अपने सामर्थ्य का वर्णन कर रहा है। जब रोगी पीड़ा से त्रस्त होता है, उसे वैद्य की आवश्यकता अनुभव होती है। रोगी को विश्वास होता है कि चिकित्सक रोग और पीड़ा को दूर कर देगा। चिकित्सक को भी वैसा ही होना चाहिए। चिकित्सा ऐसा कार्य है, जिसमें मनुष्य पर असीम उपकार करने का सामर्थ्य होता है। यह सामर्थ्य वैद्य के अन्दर नैतिक और मानवीय गुण होने पर ही समभव है।

वैद्य के सामने रोगी विवश होता है। चिकित्सक योग्य एवं धार्मिक है, तो वह रोगी को प्राणदान कर सकता है, यदि मूर्ख या लोभी हो तो उसका जीवन भी नष्ट कर सकता है। चिकित्सा शास्त्र में इसी आधार पर चिकित्सकों के दो भेद किये गये। पहले वे हैं जो रोगी के प्रति सद्भाव रखते हैं, उसके कष्ट को दूर करने की इच्छा रखते हैं। रोगी की पीड़ा को दूर करके उसे स्वास्थ्य लाभ प्रदान करते हैं, ऐसे चिकित्सक रोगाभिसर कहलाते हैं। इसके विपरीत स्वार्थी एवं अज्ञानी चिकित्सक रोगी के प्राणों का हरण करने वाले होते हैं, अतः उन्हें प्राणाभिसर कहा गया है।

अच्छे चिकित्सक के पास शास्त्रीय ज्ञान तो होता ही है, उसके साथ ही योग्य चिकित्सक गुरुओं के पास रहकर वह अनुभव भी प्राप्त किया रहता है, क्रिया को अनेक बार होते हुये देखा होता है। इससे कार्य में दक्षता प्राप्त होती है। चिकित्सक को मन-वचन-कर्म से पवित्र रहने का निर्देश दिया गया है। ऐसा व्यक्ति ही मन्त्र की भाषा बोल सकता है।

मन्त्र में चिकित्सक रोगी को कह रहा है- मैं तेरे पास आ गया हूँ, अब डरने की आवश्यकता नहीं है। मेरे पास ऐसे उपाय हैं, जिनसे मैं तुमहारा कल्याण कर सकता हूँ। त्वा आगमम्– मैं तुमहारे पास आया हूँ। शंतातिभिः कल्याण करने वाले उपाय से। उपाय जानने वाला कभी विषम परिस्थितियों में किंर्त्तव्यविमूढ़ नहीं होता, इसलिये युक्ति जानने वाले चिकित्सक की शास्त्र में प्रशंसा की गई है। उपरितिष्ठति युक्तिज्ञः द्रव्य ज्ञानवतां सदा जो लोग द्रव्य औषध के विषय से परिचित हैं, परन्तु देश, काल, परिस्थिति में उनका उपयोग कैसे किया जाय, इसका विचार नहीं रखते, वे अनेक बार सफल नहीं हो पाते। अतः युक्तिज्ञ को शास्त्रज्ञान वालों से ऊँचा स्थान दिया गया है।

मन्त्र कह रहा है- मेरे पास दोनों उपाय हैं, एक जो शं= कल्याण करने वाले हैं, स्वास्थ्य को बढ़ाने वाले हैं, दूसरे उपाय है- अरिष्ट तातिभिः जो लक्षण तुहारे में रोग के हैं, उनके निराकरण का उपाय भी मेरे पास है। चिकित्सा दोनों प्रकार की होती है- विकार की शान्ति तथा स्वास्थ्य की उन्नति। इसको मन्त्र के उत्तरार्ध में इस प्रकार कहा गया है- दक्षं ते भद्रमाभार्षं, मेरी चिकित्सा में बल बढ़ाने की योग्यता है। औषध रोग निवारक सामर्थ्य की वृद्धि में सहायता करती है। शरीर के अन्दर यदि रोग निरोधक क्षमता शेष न रहे, तो औषध निष्प्रभावी हो जाती है। यहाँ वैद्य रोगी से कह रहा है- दक्षं ते भद्रं अर्थात् तुमहारे शरीर का कल्याण करने वाली, बल बढ़ाने वाली औषध मैं तुमहारे लिये लाया हूँ। इससे तुमहारा बल निश्चय ही बढ़ेगा।

अन्त में कहा गया है- परा यक्ष्मं सुवामि– रोग को शरीर से समाप्त ही करता हूँ। परा-दूर बहुत दूर रोग को हटाता हूँ। रोग के कारण तो सब स्थानों पर रहते हैं, परन्तु सभी लोग तो उससे पीड़ित नहीं होते। सभी रोगी नहीं हो जाते। जो बलवान हैं, जिनके पास रोग को रोकने का सामर्थ्य है, उस वातावरण में रहकर भी वे रोगी नहीं होते। जो दुर्बल होते हैं, जिनमें रोग निरोधक क्षमता नहीं है या स्वल्प है, उनको ही रोग पकड़ते हैं। अतः चिकित्सक कहता है- मैं रोगी को ऐसी औषध दे रहा हूँ, जिससे भविष्य में रोगी इन रोगों से बचा रहे। रोग उस पर आक्रमण करने में समर्थ न हो।

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-37

आ त्वागमं शंतातिभिरथो अरिष्टतातिभिः।

दक्षं ते भद्रमाभार्षं परा यक्ष्मं सुवामि ते।।

चिकित्सक का आना आशा का सूचक है। इससे रोगी को आश्वासन मिलता है। मनुष्य को आश्वासन से बड़ा बल मिलता है। चिकित्सक रोगी को आश्वासन दे रहा है-मैं तेरे पास आ रहा हूँ। ऐसे ही नहीं आ रहा हूँ, मैं श्रेय कल्याण को लेकर आ रहा हूँ। मेरे हाथों से तेरा कल्याण निश्चित है। कल्याण करने वाले उपायों को लेकर आ रहा हूँ। रिष्ट रोग हिंसा और कष्ट को कहते हैं। वैद्य कहता है- मैं तुझे रोग रहित करने आ रहा हूँ।

इस सूक्त के सभी मन्त्रों में जहाँ औषध की चर्चा है, वहाँ वाणी और स्पर्श चिकित्सा का भी वर्णन मिलता है। हाथ को विश्वभेषजः कहा है। चिकित्सक के हाथ के स्पर्श से रोगी को शान्ति और स्वास्थ्य का अनुभव होता है। मेरा हाथ समस्त रोगों की औषध है। स्पर्श मात्र से रोग का निवारण करता हूँ। समस्त अशिव को मेरा हाथ मसल देने में समर्थ है। वाणी से भी रोगी को स्वास्थ्य का अनुभव कराता हूँ।

मूल रूप से मनुष्य शरीर के रोग तो सहन कर लेता है, परन्तु यदि मानसिक रूप से निराशा का अनुभव करने लगे तो फिर उसको स्वस्थ करना कठिन हो जाता है। मनुष्य को किसी की सहायता का विश्वास होता है तो वह अपने में बल का अनुभव करता है। आस्तिक होने का मनुष्य को सबसे अधिक लाभ मानसिक स्तर पर ही मिलता है। आस्तिक मनुष्य परमेश्वर की सहायता का अनुभव हर समय कर सकता है, अतः उसे भय नहीं लगता। डेल कार्नेगी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘चिन्ता छोड़ो, सुख से जीओ’ में अपने अनुभव लिखे हैं। एक अनुभव में कहा गया है कि रोगी पर औषध उपचार के साथ-साथ आस्तिकता का क्या प्रभाव पड़ता है, इसका भी परीक्षण किया गया। आस्तिक और नास्तिक रोगियों पर औषध का समान उपयोग किया गया, परिणाम में पाया गया कि आस्तिक रोगी शीघ्र स्वस्थ हुये तथा उनका प्रतिशत भी अधिक रहा। मनुष्य को परमेश्वर का विश्वास होता है तो उसका आन्तरिक बल बढ़ता है।

इसके साथ वातावरण भी मनुष्य के मन पर प्रभाव डालता है। जहाँ का वातावरण स्वच्छ होता है, पवित्र होता है तो ऐसे स्थान पर जाकर मन प्रसन्न होता है। इसका मुखय कारण वातावरण में ऊर्जा बढ़ाने वाले तत्त्वों का होना है। शुद्ध वायु में ऊर्जा का होना, प्राण शक्ति का होना ही वायु की शुद्धता है। शुद्ध वायु का शरीर में संचार होते ही शरीर की कोशिकाएँ विस्फारित होने लगती हैं। प्रसन्नता में शरीर की मांसपेशियों में विस्तार आता है। जो व्यक्ति प्रसन्न रहता है, उसे ही स्वास्थ्य का बल मिलता है। मन्त्र कहता है- मैं तेरे लिये बल बढ़ाने वाली औषध लाया हूँ। पिछले मन्त्र में भी कहा गया है कि वातावरण की वायु ऐसी होनी चाहिये, जो अन्दर जाते हुए बल का संचार करे, प्राण शक्ति को बढ़ावे और अन्दर से बाहर की ओर निकलती हुई वायु अन्दर के दोषों को बाहर ले जावे। वैद्य कह रहा है- मैं तेरे लिये बल और सुख की प्राप्ति का उपाय लेकर आया हूँ। निश्चित रूप से तेरे रोग को ‘परा सुवामि’ दूर करने में समर्थ हूँ। तेरे रोग को निकाल कर दूर फेंक  देता हूँ।

मन्त्र के शबद से चिकित्सा की विश्वसनीयता तथा वैद्य की योग्यता और आत्मविश्वास-दोनों का बोध होता है। जैसे वैद्य में आत्मविश्वास होता है, वैसे ही रोगी में भी जिजीविषा होनी आवश्यक है। इस सूक्त के मन्त्रों में रोगी को विश्वास  बढ़ाने की प्रेरणा की गई है। इन मन्त्रों के पाठ से रोगी के विचारों को बल मिलता है। इससे पता लगता है कि चाहे स्वस्थ होना हो या रोग दूर करना हो, किसी अकेले उपाय से सिद्धि नहीं मिलती। जितनेाी प्रयत्न समभव हैं, सबका उपयोग करना चाहिये, इसीलिये औषध के साथ पथ्य पर बल दिया जाता है। पुराने चिकित्सक पथ्य को भी औषध का भाग स्वीकार करते हैं। उसके मत में औषध पथ्य होता है, अतः औषध के साथ पथ्य भी आवश्यक है। आजकल की चिकित्सा लाक्षणिक है, अतः औषध केवल लक्षण का निवारण करती है, कारण का नहीं। औषध रोग का निवारण करती है, पथ्य कारण को दूर करता है, अतः दोनों को मिलाकर ही मनुष्य शीघ्र और पूर्ण स्वस्थ हो सकता है।

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-37

आ वात वाहि भेषजं वि वात वाहि यद्रपः।

त्वं हि विश्व भेजजो देवानां दूत ईपसे।।

हम वायु को प्राण कहते हैं। वायु के साथ प्राण शबद का प्रयोग प्रायः देखा जाता है, वे प्राण वायु। वायु तो बिना प्राण के भी हो सकता है। वायु में प्राणप्रद तत्व हो तभी वायु, प्राण वायु होता है, प्राण को बढ़ाने वाले वायु की प्रार्थना की गई है। वायु शुद्ध पवित्र होना चाहिए। वायु को योगवाह कहा गया है। जैसे पदार्थों से वायु का संयोग होता है, वायु वैसा ही हो जाता है। मन्त्र में आने वाले वायु को श्वास के रूप में अन्दर जाने वाली वायु को भेषज का वहन करने वाला कहा गया है। निकलने वाले शरीर से बाहर जाने वाले वायु को रपः पाप अशुद्धियों को ले जाने वाला कहा है। इस प्रकार वायु एक माध्यम है, प्राण को प्राप्त कराने का और अशुद्धि मलिनता को दूर निकालने का।

वायु प्राकृतिक रूप से प्राणशक्ति से भरपूर होता है, जब हम खुले में श्वास लेते हैं, हमारे अंग का विस्तार होता है, शरीर के अंग खुलते हैं। इनमें गति करने का सामर्थ्य आ जाता है, उत्साह, प्रसन्नता आती है। जब प्रकृति के स्वच्छ वातावरण में मनुष्य जाता है, तो उसको उल्लास का अनुभव होता है। प्रकृति में जल और सूर्य की किरणें वायु को हर समय शुद्ध करती हैं। सूर्य के प्रकाश से वायु के अन्दर विद्यमान कृमि नष्ट हो जाते हैं। जल के संसर्ग से वायु उसके अन्दर की उष्णता और अशुद्धि को छोड़ देता है।

चिकित्सा विज्ञानियों का मत है कि कार्बन डाई ऑक्साइड गैस से युक्त वायु जब जल के संसर्ग में आती है, तो उसमें रासायनिक परिवर्तन होकर वायु की विषाक्तता कम हो जाती है। नीचे की गैस को जल ग्रहण करता है तथा जो गैस ऊपर की ओर जाती है, उससे वातावरण में उष्णता बढ़कर वनस्पतियों को पुष्ट करती है। इसी प्रकार हवन करते समय जो-जो पदार्थ हवन कुण्ड में डाले जाते हैं, उनको अग्नि विखण्डित कर सूक्ष्म कर देता है, जिससे हवन में डाली गई, वस्तु का प्रसार वायु मण्डल में दूर तक हो जाता है तथा उसका सामर्थ्य भी अधिक होता है। वायु को जहाँ सूर्य और जल शुद्ध कहते हैं, वहीं हवन के माध्यम से अग्नि  भी वायु की अशुद्धि को दूर करता है। विष कणों को रोगाणुओं को नष्ट करने की शक्ति अग्नि में ही होती है। अग्नि में भेदक गुण होता है, जिससे वस्तु कणों को भेदकर, उससे ऊर्जा को उत्पन्न करता है। इस प्रकार हवन द्वारा शुद्ध की गई वायु विश्व भेषज हो जाती है। जिस भी प्रकार की औषध अग्नि में डालेंगे, उसी गुण की वायु, उस रोग से मुक्त करने वाली बन जायेगी।

हवन में डाले जाने वाले पदार्थों में घृत भी विषनाशक है, अग्नि में रोगाणुओं को बड़ी संखया में नष्ट करता है। हवन सामग्री में कपूर गूगल भी रोग कृमियों को नष्ट करता है। यज्ञ की सुगन्ध और धूम शरीर के सीधे समपर्क में आकर शरीर के कोषों में से अशुद्धि को नष्ट कर उनमें ऊर्जा का संचार करते हैं। रक्त में हवन के धूम से सक्रियता बढ़ती है, जिससे रोगाणुओं से लड़ने की क्षमता की शरीर में वृद्धि होती है, जिस प्रकार गूगल रोग कृमियों का नाश करता है, उसी प्रकार गिलोय, चिरायता, मधु आदि पदार्थ यज्ञ में डालने से रक्त शोधन होता है। मुनक्का, काजू, किशमिश आदि यज्ञ में डालने से पौष्टिकता आती है, शरीर में बल बढ़ता है।

इसलिये मन्त्र में कहा गया है कि यह वायु आता हुआ बल की वृद्धि करता है और जाता हुआ रोग को नष्ट करता है।

मन्त्र में इसी बात को बताने के लिये वायु के विशेषण के रूप में उसे विश्व भेषज कहा है। हमें जैसे रोगों की चिकित्सा करनी हो, उसी प्रकार की औषध यज्ञ की सामग्री में मिलानी चाहिए। मन्त्र में वायु के लिये देवों का दूत शबद का प्रयोग किया गया है, जैसे दूत स्वामी के सन्देश को दूर तक, दूसरे तक पहुँचाता है, उसी प्रकार वायु रोग नाशक सामर्थ्य को दूर तक पहुँचाता है। अतः दूतईय से कहा गया है कि जैसे देवताओं के दूत गतिशील होते हैं, उसी प्रकार वायु भी दिव्य गुणों का संचार मनुष्य में तीव्रता से करता है।

इस मन्त्र से हमें बोध होता है कि औषध का शीघ्र लाभ प्राप्त करने के लिये औषध को यज्ञ में डालना चाहिए। वायु को रोग विशेष के अनुसार औषध गुणों से युक्त करना उतित है तथा सामान्य रूप में पर्यावरण की शुद्धि के लिये यज्ञ में वायु शोधक पदार्थों का उपयोग करना चाहिए, जिससे स्वस्थ व्यक्ति का स्वास्थ्य ठीक बना रहे।

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-३६

द्वा विमो वातौ वात आ सिन्धो रा परावतः।

दक्षते अन्य आ वातु परान्यो वातु पद्रपः।।

यह सम्पूर्ण सूक्त एक मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिये शरीर के अन्दर चल रहे किन-किन कार्यों को हमें जानना चाहिये और उनसे कैसे लाभ उठाना चाहिए? इस बात का उल्लेख है। प्रथम मन्त्र में मानसिक रूप से हमारे उत्थान-पतन की चर्चा की गई है। देवता लोग पतन के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को उत्थान की ओर ले जाते हैं, उन्हें निष्पाप कर देते हैं। आगे बताया गया है कि इस शरीर में प्राणधारण वायु के माध्यम से हो रहा है। वायु शरीर में गति कर रहा है। यहाँ क्रिया भेद से दो प्रकार की गति हो रही है- एक वायु जब शरीर के अन्दर की ओर जा रही है, वह सिन्धु तक पहुँच रही है। दूसरी लौटने वालीवायु परावत तक जा रही है। सिन्धु क्या है? शरीर का वह स्थान जो वायु से पुष्ट हो रहा है। हृदय के अन्दर संचरित होने वाला रक्त, इस प्राण वायु से शुद्ध किया जा रहा है।

हृदय और फेफड़े इस शरीर में रक्त के सम्बन्ध में कार्य करने वाले दो मुख्य संस्थान हैं। शरीर का सारा रक्त हृदय में आता है और वहाँ से फेफडों में पहुँचता है। हृदय का कार्य शिराओं के माध्यम से रक्त का संग्रह करना और धमनियों के माध्यम से फेफडों और शरीर के अंगों में वितरण करना है। फेफडों का कार्य रक्त का शोधन करना है। फेफडों में लाखों कोष बने हुए हैं, इनमें रक्त जाता है और वहाँ से लौटकर हृदय में जमा होता है, जहाँ से फिर हृदय द्वारा शरीर के अंगों को  भेजा जाता है। लोग कहते हैं कि शरीर में हृदय, जो रक्त संचार का केन्द्र है, उसका ज्ञान पाश्चात्य विद्वानों ने किया है, परन्तु छान्दोग्य उपनिषद् में हृदय की परिभाषा करते हुए कहा है- हृदय शब्द में तीन अक्षर हैं, इसके तीन कार्यों को बताते हैं- हृ से हरति अर्थात् जो रक्त का संग्रह करता है। द से ददाति अर्थात् जो रक्त का वितरण करता है तथा य से यति अर्थात् गति करता है। जो लेता है, जो देता है और चलता रहता है, इसलिये उसे हृदय कहते हैं।

उपनिषद् में मस्तिष्क का कार्य, विचार भावना के अर्थ में भी हृदय शब्द का उपयोग हुआ है, परन्तु वायु के सम्बन्ध में जब हृदय कहा जायेगा, तब रक्त का संचरण करने वाले हृदय की बात की जायेगी। फेफडे रक्त का शोधन करते हैं, हृदय रक्त को शरीर से लेकर फेफडों को देता है और फेफडों से लेकर शरीर को देता है। इस क्रिया को करने के लिये वायु शरीर में आता है, प्रवेश करता है- उसे सिन्धु तक, हृदय तक प्रभावकारी होना चाहिये और बाहर की ओर भी वह वायु दूर तक जानी चाहिए। यहाँ परावतः दूर तक शब्द बहुत महत्वपूर्ण है, जब श्वास बाहर दूर तक जायेगा, तभी अन्दर तक जायेगा। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। गहरा श्वास लेने के लिए श्वास को बाहर दूर तक ले जाना होगा। श्वास छोटा होगा, तो अन्दर बाहर भी छोटा-छोटा ही रहेगा। वह रक्त को पूर्ण रूप से शुद्ध करने में समर्थ नहीं होगा। प्रथम सम्पूर्ण रक्त से शुद्ध वायु का संसर्ग नहीं हो पायेगा और रक्त के सम्पर्क में आयेगा, उसे भी सम्पूर्ण प्राण की प्राप्ति नहीं होगी। इसलिए यह अन्दर जाने वाला वायु बल का देने वाला है और बाहर जाने वाला वायु पाप=दोष को बाहर निकाल कर मनुष्य को स्वस्थ करता है।

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-35

उतागश्चक्रुषं देवा देवा जीवयथा पुनः।

मनुष्य ही है जो पाप कर सकता है। मनुष्य सदा श्रेष्ठता की परिस्थिति में नहीं रहता। उसका मन बहुत चञ्चल है, उसका वेग भी अधिक है। जैसे वायु वेग से चलती है तो उसके विपरीत चलना या उसे रोक पाना अत्यन्त कठिन होता है, इसी कारण गीता में इसके लिये वायोरिव दुष्करं कहा गया है। इस गतिशीलता के कारण उसे रोकना या स्थिर करना अत्यन्त कठिन होता है। जैसे तुला में सन्तुलन बनाना कठिन होता है, वह बहुत थोड़े हवा के झोंके से ही ऊपर नीचे होने लगती है, उसी प्रकार मन की स्थिति है। यह भी विचारों के अनुसार इधर-उधर होता रहता है, ऊपर-नीचे आता-जाता है।

मन को ऊपर की ओर ले जाने का यत्न करना पड़ता है। मन स्वयं तो भौतिक है, जड़ भी है, परन्तु सूक्ष्म तथा आत्मा के सन्निकट और सहायक होने के कारण उसे आत्मा के चैतन्य का सामर्थ्य प्राप्त है। जब आत्मा उसे निर्देशित नहीं कर रही होती तो वह भौतिक पदार्थों की ओर प्रवृत्त होता है। वास्तव में तो भौतिक पदार्थों से सपर्क करने के लिये और उन्हें जानने के लिये ही उसे बनाया गया है, इस कारण वह भौतिक पदार्थों की ओर आकृष्ट हो, यह स्वाभाविक है। भौतिक पदार्थों के जितने प्रकार हैं, उन्हें शरीर की पाँच इन्द्रियों से ही जाना जाता है। इन्द्रियाँ जहाँ आत्मा के लिये काम करती हैं, वहीं आत्मा के माध्यम से शरीर के लिये भी काम करती हैं। कब उन्हें आत्मा के लिये काम करना है और कब शरीर के लिये- इसका निर्णय मन नहीं करता, उसे आत्मा करती है और इस कार्य में वह बुद्धि की सहायता लेती है। यही वह अवसर है, जब मन को एक कार्य से हटाकर दूसरे कार्य की ओर प्रवृत्त करना होता है। जब आत्मा इस कार्य को नहीं कर रही होती है, तो हम कहते हैं- मन ऐसा कर रहा है। मन तो ठीक ही कर रहा है, वह अपना कार्य कर रहा है। आत्मा का कार्य है- उसे अनावश्यक से हटाकर आवश्यक और अपेक्षित की ओर लाये।

जब ऐसा नहीं हो पाता, तब हम उस कार्य को करने लगते हैं। जब वह कार्य शरीर या मन के स्तर पर हमारे लिये हानिकारक होता है, तब वह हानि ही पाप कहलाती है। इस  हानि को हम सावधान होकर ही रोक सकते हैं। इस प्रयत्न को करने के लिए आत्मा को जागना होता है, मन को रोकना होता है। जो क्षति हो गई है, उस की पूर्ति करने का प्रयास करना होता है। यह परिस्थिति हमारे श्रेष्ठ विचारों के द्वारा ही समभव है। ये विचार कभी हमारे अन्दर से आते हैं, कभी बाहर से उन्हें लाने का, जगाने का प्रयास किया जाता है। बाहर के इन प्रयासों में सहायक लोग देव हैं, जो हमारे अन्दर के दिव्य सामर्थ्य को जाग्रत करते हैं, नीचे की ओर, पाप की ओर जाते हुए मन को उच्चता की ओर प्रेरित करते हैं। हम मन के द्वारा ही नीचे की ओर जाते हैं। नीचे जाने का कारण मन ही है, अतः उसे ही मोड़ना होगा। यह सामर्थ्य दिव्य विचारों में है, उन देवताओं में है, जो हमें ऐसे विचार दे सकते हैं।

यहाँ पर हमें एक तथ्य समझ लेना चाहिये कि हम सदा नीचे गिरने के लिये मन को दोषी मानते हैं। जब मन भौतिक है तो उसके जड़ होने की अनिवार्यता है। जड़ वस्तु कितनी भी बड़ी और शक्तिशाली क्यों न हो, उसमें विवेक, निर्णय या विचार का सामर्थ्य नहीं होता, फिर मन में निर्णय का सामर्थ्य कैसे आ सकता है? मन शक्तिशाली है, पर क्या वह आत्मा से अधिक सामर्थ्यवान है? चाहे संसार के सारे पदार्थ भी एक ओर हो जायें तो वे चेतना की बराबरी नहीं कर सकते, फिर मन का क्या सामर्थ्य है कि वह अपनी इच्छा से आत्मा को चलाये? जो आत्मा जड़ मन को भी चैतन्य का भान करा सकती है, वह स्वयं जड़ मन के साथ जड़ कैसे बन सकती है? अतः गलती, अपराध, पाप आदि मन के कारण नहीं, आत्मा के कारण ही होते हैं। आत्मा विवेक का उपयोग नहीं करती, अपितु अनुचित की इच्छा करती है, उसे अच्छा मानती है, तभी तो पाप में प्रवृत्त होती है। जब आत्मा पाप को अनुभव करती है, उसे पाप के रूप में पहचानती है, तब उसे वह कभी भी स्वीकार नहीं कर सकती। जो मनुष्य एक बार आग से जल चुका हो, वह जान-बूझकर आग में हाथ डालेगा, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। अतः मन ऐसा करता है- यह कथन शरीर या मन के स्तर पर हमारी आत्मिक दुर्बलता को ही प्रकट करता है। वस्तुतः ऐसा कहना मिथ्या ही है।

यदि मन अपने-आप कार्य करने में स्वतन्त्र होता तो उसके लौटने की समभावना ही समाप्त हो जाती। वह जो चाहता है, उसे छोड़कर विपरीत दिशा में क्यों जाता? मन का भौतिक विषयों की ओर जाना इस कारण स्वाभाविक है कि वह भौतिक तत्त्वों से बना है। वह आत्मा का साधन है, उसे जो भी सामर्थ्य प्राप्त है, आत्मा के कारण ही प्राप्त है। जब जड़ शरीर आत्मा के कारण चेतन बना हुआ है और आत्मा से पृथक् होते ही जड़ दिखाई  देने लगता है, तब जड़ मन के चेतन प्रतीत होने में क्या बाधा है? यह शरीर भी तभी तक चेतन लगता है, जब तक चैतन्य से संयुक्त होता है। इस कार्य के समाप्त होने पर आत्मा इसको त्याग देती है, उसी प्रकार जड़ मन भी जब तक आत्मा के लिये उपयोगी होता है, जब तक चेतन बना रहता है। उसका उपयोग आत्मा प्रलय तक अथवा मुक्ति तक करती है, तब तक वह आत्मा के अनुसार चलता है फिर नष्ट हो जाता है। यही सामर्थ्य इस मन्त्र भाग में वर्णित है। हम दिव्य विचारों से पाप को छोड़कर, मृत्यु से बचकर जीवन को प्राप्त कर सकते हैं।

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता-34

स्तुता मया वरदा वेदमाता-34

उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुनः

ऋग्वेद के दशम मण्डल में एक सौ सैतीसवाँ सूक्त हे। इसमें सात मन्त्र है। इन मन्त्रों के ऋषि के रूप में सप्तर्षयः ऐसा उल्लेख है। इस का अभिप्राय है- प्रत्येक ऋचा का एक-एक ऋषि है। सप्तर्षयः कहने से सात ऋषियों का गहण होता है। वैदिक साहित्य से सप्त ऋषय कहने से पाँच प्राण और अहंकार महत का ग्रहण है, कही सप्त ऋषि, पञ्चप्राण, सूत्रात्मा, धनञ्जय का उल्लेख है। सप्तर्षयः सूर्य की रश्मियों का नान भी है। पाँच इन्द्रियों के साथ मन और विद्या को भी सप्तर्षयः कहा गया। मन्त्र के देवता के रूप में विश्वेदेवाः कहा गया है। यहाँ देवा, विद्वान्सः विद्वान् समझदार, बड़े लोगों का ग्रहण किया जाता है। इन्द्रियों के लिये भी देव शद का उपयोग किया गया है।

इस पूरे सूक्त में मनुष्य जीवन के लिये आवश्यक बातों का उल्लेख किया गया। मनुष्य जड़ चेतन का संयोग है। चेतन आत्मा तो स्वरूप से अनादि है, उसके स्वभाव में, स्वरूप में कोई परिवर्तन कभी नहीं होता। शरीर का भौतिक स्वरूप दो प्रकार का है, एक स्थूल तथा दूसरा सूक्ष्म। जो पदार्थ जितना स्थूल होगा, उसका स्वरूप उतना ही अधिक परिवर्तनशील होगा। दूसरे शबदों में उसका नाश उतना ही शीघ्र होगा। भौतिक पदार्थों में स्थूल शरीर तो बहुत शीघ्र नष्ट हो जाता है, परन्तु मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, भौतिक होने पर भी सूक्ष्म होने के कारण इनकी अवधी पूरी सृष्टि के काल तक है।

संसार यात्रा स्थल है। यात्रा का लक्ष्य आत्म साक्षात्कार है। इसके साधन स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर है। बाह्यजगत् की यात्रा स्थूल शरीर से होती है और अन्तर्जगत् की यात्रा मन, बुद्धि से या सूक्ष्म शरीर से होती है। स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और जीवात्मा मिलकर एक इकाई बनती है, जिसे शास्त्र में आत्मेन्द्रिय मनोभुक्तं भोक्ते, यादुर्मजीषीणः कहा है। आत्मा इन्द्रिय मन जब संसार से जुड़ते हैं, तब आत्मा की सेता भोक्ता होती है, तब वह संसार का उपभोग करने में समर्थ होता है। केवल चेतन आत्मा संसार का साक्षात्कार नहीं कर सकता है। केवल सूक्ष्म शरीर के साथाी संसार के सपर्क में नहीं आ सकता। संसार की यात्रा स्थूल शरीर से होती है। मुक्ति की यात्रा सूक्ष्म शरीर से होती है। ये दोनों ही साधन स्वस्थ, समर्थ होने चाहिए। इसलिये इस सूक्त में दोनों को स्वस्थ रखने की बात कही गई है।

जब-जब मनुष्य अनुचित विचारों के सपर्क में आता है, तब-तब उसका मानसिक पतन होता है। मानसिक पतन का कारण यदि बुरे विचार हैं, तो मानसिक स्वास्थ्य के लिये अच्छे विचारों का विकल्प चाहिए। वैद्य मन और शरीर दोनों की चिकित्सा करता है। वात, पित, कफ से शरीर चिकित्सा की जाती है। रजोगुण, तमोगुण, सतोगुण के ज्ञान से मानस चिकित्सा की जाती है। शरीर की चिकित्सा के लिये परमेश्वर की प्रार्थना और औषधियों का युक्तिपूर्वक सेवन करना, स्वस्थ होने का उपाय है, तो मन के स्वास्थ्य के लिये शास्त्र कहता है- ज्ञान विज्ञान धैर्य स्मृति समाधिर्भिः। ज्ञान आत्मा के विषय में जानना, विज्ञान शास्त्र का जानना, धैर्य, धीरता, स्मरण शक्ति, समाधि, एकाग्रता, इन बातों से मन के रोगों की चिकित्सा की जाती है। यह चिकित्सा विद्वान् वैद्य के बिना सभव नहीं होती।

मन और शरीर दोनों भौतिक हैं, इस कारण एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। शरीर में रोग, असमर्थता होने पर मन में निराशा, अनुत्साह होने लगता है। मन में खिन्नता होती है। मानसिक दुःख होता है, तब उसका प्रभाव शरीर पर होने लगता है। मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिये शरीर, आत्मा दोनों का ध्यान रखना पड़ता है। हम केवल शरीर की चिन्ता करें और मन को स्वस्थ रखने का उपाय न करें, तो मनुष्य के अन्दर राग, द्वेष, ईर्ष्या, काम, क्रोध आदि की भावनाएँ बढ़ने लगती हैं। इसको केवल शरीर के उपायों से नियन्त्रित नहीं किया जा सकता। मनुष्य काम, क्रोध से राग द्वेष में पड़ जाता है, तो उसकी भूख और नींद समाप्त होने लगती है, शरीर रोगी होने लगता है। मानसिक रोगों का मूल कारण स्वार्थ है। मानसिक स्वास्थ्य का प्रमुख उपाय परोपकार है। जो मनुष्य स्वार्थी है, वह कभी भी स्वस्थ नहीं हो सकता, परोपकारी व्यक्ति कभी दुःखी नहीं होता। स्वार्थी व्यक्ति किसी बात को करने के लिये, किसी वस्तु को पाने के लिये अनुचित विचारों की सहायता लेता ही है, उसके न मिलने की आशंका से भय, ईर्ष्या, द्वेष स्वाभाविक रूप से बनते हैं। इसलिये मनुष्य को प्रतिदिन शरीर के स्वास्थ्य के उपायों के साथ-साथ मानसिक उपाय का प्रयास करना चाहिए।

मनुष्य के मन में रजोगुण बढ़ता है, तो मन चंचल और रागद्वेष से युक्त होता है। परोपकार और उपासना से मन में सतोगुण की वृद्धि होती है। देव लोग पतित मनुष्य को भी इन उपायों से उठा देते हैं, मानसिक रूप से स्वस्थ कर देते हैं।