स्तुता मया वरदा वेदमाता-४१
सप्तमर्यादाः कवयस्ततक्षुस्तासामेकामिदभ्यंहुरो गात्।
आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीडे पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ।।
– ऋ. १०/५/६
परमेश्वर ने मनुष्य के अन्दर दो सत्ताओं को समाविष्ट कर रखा है। देखने में प्रत्येक प्राणी के पास एक शरीर है, जो उसकी पहचान है। पहचान नष्ट हो जाये तो कोई शरीरधारी उसे खोजकर नहीं ला सकता। जो इस शरीर से पहचाना जाता है, वह जीवात्मा है। आत्मा अपनी इस पहचान से ही जाना जाता है कि वह अपनी संसार यात्रा से कहाँ तक पहुँचा है।
शरीर तो सभी प्राणियों के पास है, एक-एक प्रकार के शरीर धारण किये भी बहुत सारे प्राणी होते हैं और फिर प्राणियों के प्रकार, नस्ल भी बहुत हैं। ये दो बातें संकेत करने के लिये पर्याप्त हैं कि सभी प्राणी यात्री हैं और प्रत्येक की यात्रा की पहुँच भिन्न-भिन्न चरणों में चल रही है। हमारे लिये इस यात्रा के कारण कोई प्राणी ऊँचा या नीचा हो सकता है, परन्तु परमेश्वर की दृष्टि में तो सभी उस तक पहुँचने के इच्छुक यात्री हैं, कोई उससे बहुत दूर है तो कोई उसके निकट है।
संसार को देखने से दो बाते समझ में आती हैं- जीव बहुत प्रकार के हैं, उसी प्रकार संसार में सबकी अनिवार्यता और उपयोगिता भी है। जैसे भवन के निर्माण में एक व्यक्ति भवन की आवश्यकता वाला है, वह अपने को उसका स्वामी समझता है। वह अपने को निर्माण करने वाला कहता है। स्वयं को स्वामी भले ही कहे, परन्तु वह उसका निर्माण नहीं कर सकता। भवन का निर्माण करने के लिये कुछ व्यक्ति उसके विचार को क्रियान्वित करने का स्वरूप बताते हैं। हम उन्हें वास्तुकार कहते हैं। वे उसे उसकी इच्छा के अनुकूल भवन का चित्र बनाकर देते हैं। कुछ लोग लोहा, मिट्टी, लकड़ी, पत्थर से उस स्वरूप को आकार देते हैं। दूसरे लोग उसे उपयोगी बनाते हैं, तीसरे उसकी सुन्दरता को चित्रित करते हैं, वैसे ही संसार में समस्त प्राणियों की भूमिका बनती है। जैसे हम आशा करते हैं कि सरकार-राज्य इस देश के नागरिकों को कार्य दे और उनके पुरुषार्थ तथा बुद्धि का सदुपयोग ले और उसे सार्थक से करे। उसी प्रकार परमात्मा ने भी संसार में जितने कार्य हैं, उतने प्रकार के प्राणियों की रचना की है। कोई भी प्राणी अनुपयोगी नहीं है, यदि अनुपयोगी होता तो न तो उसको उसके कर्मों का फल मिलता, न संसार के वे विशेष कार्य दूसरा कर सकता।
इन प्राणियों में परमेश्वर ने अपने कार्यों के प्रति कुछ को उत्तरदायी बनाया है, कुछ को उत्तरदायी नहीं बनाया। सांसारिक व्यवस्था में कुछ लोग निर्णय करने वाले होते हैं, कुछ लोग अनुपालना करने वाले। उत्तरदायी निर्णय करने वाले माने जाते हैं। कार्य के अच्छे-बुरे, हानि-लाभ के लिये अनुपालना करने वालों को उत्तरदायी नहीं माना जाता। जो उत्तरदायी है, उसे ही पुरस्कार और दण्ड मिलता है। अनुपालना करने वाले को केवल उसके जीवन यापन के साधन मिलते हैं, जिसे हम मजदूरी कहते हैं।
इसी प्रकार संसार में भोग-योनि के प्राणी अनुपालना करने वाले हैं। परमेश्वर ने उन्हें संसार में जिस कार्य के योग्य बनाया है, वह स्वयं उनके जीवन से पूर्ण होता है और उनके जीवित रहने के उपाय परमेश्वर ने उन्हें दिये हैं। उनके कार्य में बाधा पहुँचाना, उनके जीवन को मध्य में समाप्त करना, उन्हें कष्ट देना- ये कार्य मनुष्य अपने विवेक से करता है, इसके लिये मनुष्य ही इसके परिणाम का उत्तरदायी बनता है। संसार में मनुष्य से भिन्न सारे प्राणी इसी श्रेणी में आते हैं। अतः इनको भोग-योनि कहा जाता है। इनके कार्य का निर्णय परमेश्वर ने इनके जीवन के साथ किया है। अतः वही उत्तरदायी है।