स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-40

हस्तायां दशशाखायां जिह्वा वाचः पुरोगवी।

अनामयित्नुयां त्वा तायां त्वोप स्पृशामसि।।

– ऋग्. 10/137/7

संस्कृत भाषा में वैद्य को पीयूष-पाणि कहा जाता है। पीयूष का अर्थ है-अमृत और पाणि का अर्थ होता है-हाथ। जिसके हाथ में अमृत हैं, ऐसे वैद्य की चर्चा इस मन्त्र में की गई है, वैद्य के दोनों हाथ ही नहीं, हाथ के पोर-पोर में, अंगुलियों में अमृत भरा है। वह हाथ जिस भी रोगी का स्पर्श करते हैं, उसे निरोग करते हैं। वैसे सभी लोग जो भी कार्य करते हैं, हाथ से ही करते हैं, सारे कला-कौशल के कार्य हाथ से ही किये जाते हैं। लेखन, निर्माण, कृषि सभी कुछ तो हाथों से ही होता है। इन सभी में जो उत्कर्ष आता है, वह हाथों से ही आता है।

वैद्य का हाथ दो प्रकार से उत्कर्ष को देने वाला होता है। रोगी की नाड़ी देखकर, त्वचा का स्पर्श देखकर रोगी की चिकित्सा की जाती है तथा हस्ताभिमर्श चिकित्सा में रोगी के शरीर में जहाँ-जहाँ पीड़ा होती है, वहाँ हाथ का स्पर्श कर अथवा रोगयुक्त अंग के पास ले जाकर हाथ से रोग दूर किया जाता है।

वेद में अन्यत्र भी हस्ताभिमर्श चिकित्सा का वर्णन आया है। वहाँ मनुष्य द्वारा अपने हाथ के सामर्थ्य का वर्णन करते हुये कहा गया है, मेरा हाथ भगवान् है, ऐश्वर्यवान् है, ऐश्वर्य से महत् है। यह मेरा हाथ विश्व-भेषज है। वहाँ ‘अयं मे विश्व भेषजः’ कहा है। हाथ में समस्त समस्याओं के समाधान करने का सामर्थ्य है। इसलिये यहाँ ‘भेषज’ शबद का प्रयोग किया गया है। संस्कृत में ‘भिषक’ वैद्य के लिये है। परमेश्वर को ‘भिषकतम’ कहकर पुकारा गया है। वह परमेश्वर सब वैद्यों से भी बड़ा वैद्य है। ‘भिषकतमं त्वा भिषजां शृणोमि’-मैं भली प्रकार जानता हूँ, तु संसार के समस्त रोगों की दवा है। मनुष्य भी अपने हाथ को कहता है- यह हाथ विश्व-भेषज है। यह हाथ अभिमर्श चिकित्सा का सूत्र है, यह हाथ समस्त कल्याण को देने वाला और अकल्याण को दूर करने वाला है। हम यदि वाणी से न भी बोलें, तो भी हमारे शरीर के अंगों के स्पर्श से हमारे भाव दूसरे तक पहुँचते हैं, दूसरे को प्रभावित करते हैं। भारतीय शिष्टाचार में आशीर्वाद के रूप में अपने से छोटे के सिर पर हाथ रखा जाता है। बड़ा व्यक्ति प्रणाम करने वाले व्यक्ति के सिर पर हाथ रखकर ही प्रणाम के उत्तर में आशीर्वचन कहता है। माता-पिता, गुरुजन सिर पर हाथ रखते हैं। देवता भी सिर पर हाथ रखकर वरदान या अभय दान देते हैं। इसीलिये लोक में भी किसी व्यक्ति के निर्भय होने पर उसके बड़े का या परमेश्वर का हाथ उसके सिर पर होने की बात की जाती है। बालकों की पीठ पर हाथ रखकर उसका उत्साह बढ़ाया जाता है। किसी सफलता पर शाबासी दी जाती है। साथी के पीठ पर हाथ रखकर समर्थन जताया जाता है। तुम आगे बढ़ो, तुमहारी पीठ पर हमारा हाथ है।

इस मन्त्र में हाथ की विशेषता बताते हुए कहा गया है- ‘हस्तायां दश शाखायां’ दश शाखाओं वाले दोनों हाथों से। हाथ की योग्यता में आगे कहा है- ‘अनामयित्नुयां’ आमय रोग को कहा जाता है। ये हाथ रोग को दूर करने का सामर्थ्य लिये हुये हैं। इन रोगों को दूर करने वाले हाथों से मैं तेरा स्पर्श करता हूँ। मेरे हाथ का स्पर्श तुझे निरोग करने का सामर्थ्य रखता है। हाथ निरोग करने में समर्थ है, यह वाणी का कथन है- मैं तो रोगी को स्वस्थ करने की घोषणा करता ही हूँ। इसके अतिरिक्त जिन्होंने भी  मेरी इस योग्यता का लाभ उठाया है, उनकी वाणी भी मेरी योग्यता का बखान करती है। मेरी चिकित्सा से स्वस्थ हुये व्यक्ति सदा मेरी प्रशंसा करते हैं।

इस पूरे सूक्त में मनुष्य को किस प्रकार स्वस्थ रखा जा सकता है, यह कथन किया है। वायु चिकित्सा, जल चिकित्सा, आश्वासन चिकित्सा, स्पर्श चिकित्सा के सूत्र इन मन्त्रों में बताये गये हैं। सामान्य बात है कि शरीर जिन पंच महाभूतों से बना है, उनके कम अधिक होने पर मनुष्य रोगी होता है। इन भौतिक तत्त्वों का सामान्य रूप ही शरीर को स्वस्थ रख सकता है। अतः चिकित्सा में केवल एक ही विचार सपूर्ण नहीं होता। इसको वैद्यक पथ्यापथ्य कहते हैं। औषध का उपयोग करने पर भी यदि पथ्य न किया जाये तो औषध से पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं हो पाता। पथ्य के महत्त्व को बताते हुए कहा गया है- यदि मनुष्य पथ्य करता है, तो बिना औषध के मनुष्य स्वस्थ हो जाता है। वैद्य को पता होना चाहिए कि रोगी के शरीर में कौन से तत्त्व की कमी है और कौन सा पदार्थ उस तत्व को पूरा कर सकता है। यही इन मन्त्रों का सन्देश है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *