स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-38

त्रायन्तामिह देवास्त्रायतां मरुतां गणः।

त्रायन्तां विश्वा भूतानि यथायमरपा असत्।।

– ऋक्. 10/137/5

प्रसंग रोग से संरक्षण का है। देवता रोगी की रक्षा करें, मरुत्गण रोगी की रक्षा करें। समस्त भूत रोगी की रक्षा करें, जिससे यह व्यक्ति रोग रहित हो सके।

प्रश्न उठता है- यहाँ चेतन की बात भी जा रही है या जड़ की। यहाँ प्रसंग जो भी हो, शदार्थ दोनों हो सकते हैं। देव शद चेतन और जड़ दोनों का वाचक है। देव में परमेश्वर, मनुष्य, प्राणी तक सबका ग्रहण हो सकता है। मरुद् भी जड़-चेतन दोनों का वाचक है। चेतन में योद्धा या सैनिक के अर्थ में इसका प्रयोग बहुधा वेद में आता है। भूत भी जड़ और चेतन हैं। रोगी को चेतन तो ठीक कर ही सकते हैं, परन्तु ऊपर से प्रसंग रोग और औषध का चल रहा है। तब देव मरुत्, भूत, चेतन के वाचक नहीं होंगे।

यहाँ पर रोग निवारक जड़ पदार्थों की चर्चा चल रही है। मनुष्य को सबसे आवश्यक जीवनीय पदार्थों की चर्चा है। जो वस्तुएँ मनुष्य को जीवित रखने में उपयोगी है, वही स्वास्थ्य की उन्नति और सुरक्षा में भी आवश्यक हैं। गत मन्त्रों में जीवनीय तत्त्वों के रूप में जलवायु की अनेकशः चर्चा हुई हैं। उसी प्रसंग में देवता कौन हैं जो रोगी को रोगरहित करने में प्रमुखता से उपयोगी हैं। मन्त्र का अर्थ करते हुए स्वामी ब्रह्म मुनि कहते हैं- देवाः रश्मयः। यहाँ देवता का अर्थ सूर्य की रश्मियाँ हैं। यह बात सर्वविदित है कि संसार में सूर्य ही जीवन का आधार है। जहाँ सूर्य ऊर्जा देता है, वहाँ सूर्य रोगाणुओं को समाप्त करने वाला प्रथम अस्त्र है। वेद कहता है- उघट रश्मिर्भिः कृमीणहन्ति। उदय होता हुआ सूर्य रोग कृमियों को नष्ट करता है। स्वस्थ दशा में भी सूर्य रश्मियों का सेवन करने का विधान है। आजकल सूर्य के प्रकाश में रहने की प्रेरणा की जाती है। चिकित्सकों का विचार है कि प्रत्येक मनुष्य को दिन के कुछ घण्टे सूर्य के प्रकाश में व्यतीत करने चाहिए, इससे शरीर के रोगाणु नष्ट होकर, जीवनीय शक्ति बढती है। कहा जाता है कि सूर्य के प्रकाश में विटामिन डी की प्राप्ति होती है। इससे हमारे शरीर में दृढता आती है।

वेद कहता है- मनुष्य को घर भी ऐसा बनाना चाहिए जिसमें सूर्य की किरणें प्रचुरता से प्रवेश कर सकें। मन्त्र है- यत्र गावोाूरिशृंगा अयासः। घर के अन्दर सूर्य की किरणें बहुत मात्रा में आयें। वेद में गो शद किरणों का वाचक है, भूरि शृंगा बहुत प्रकार से गहराई तक घर में प्रवेश करें। जिस घर में सूर्य की किरणें प्रवेश करती हैं, उस घर में रोग के कृमि नष्ट हो जाते हैं। इसलिए मन्त्र में कहा गया है कि सूर्य की किरणें रोगी की रोग से रक्षा करें। जहाँ अंधेरा, सीलन होता है, प्रकाश की कमी होती है, वहाँ दमा, खांसी आदि रोग बढते हैं।

मन्त्र में आगे कहा गया है- त्रायतां मरुतां गणः। मरुतों के गण रोगी की रक्षा करें। यहाँ मरुत् का सैनिक अर्थ घटित नहीं होता, यहाँ सूर्य के प्रकाश के साथ-साथ शुद्ध वायु की संगति बैठती है। अतः रोगी को प्रकाश के साथ शुद्ध वायु की प्राप्ति होनी आवश्यक है। रोगी के कमरे में स्वच्छ हवा का आवागमन सदा बना रहे तो रोगी को स्वास्थ्य लाभ शीघ्र होता है। आज और पुराने समय में भी रोगी को स्वास्थ्य लाभ के लिये पर्वतीय स्थानों पर जाने का परामर्श दिया जाता है। पहले यक्ष्मा के रोगी को चिकित्सा के लिये पर्वत क्षेत्रों में चिकित्सालय बनाये गये थे। आज भी उत्तम जलवायु से स्वास्थ्य लाा प्राप्त करने के लिये शुद्ध वायु और सूर्य के प्रकाश की अधिकाधिक प्राप्ति हो, वहाँ जाना चाहिए या अपने घर में ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए। यहाँ पर मरुतों से प्रार्थना की गई है, वे रोगी की रक्षा करें। तीसरे चरण में कहा गया- त्रायन्तां विश्वा भूतानि। विशेषरू प से सूर्य के प्रकाश का शुद्ध वायु के रूप में उल्लेख किया गया है। सामान्य रूप से सभी पदार्थ या वस्तुएँ, चाहे वे औषध के रूप में हों अथवा वातावरण या प्रयोग में आने वाली वस्तु के रूप में हों। सभी रोगी के अनुकूल और उसके स्वास्थ्य की रक्षा करने के लिये उपयोगी होनी चाहिए। विश्वा का अर्थ विश्वानि अर्थात् सब भूत, जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी आदि में प्राप्त होने वाले सभी पदार्थ रोगी को रोग से बचाने वाले हों। कभी कभी रोगी समझता है- केवल औषध खाने मात्र से वह स्वस्थ हो जायेगा, उतना पर्याप्त नहीं है। चिकित्सा में कहा जाता है कि जितना महत्त्व औषध का है, उतना ही महत्त्व पथ्य का है। यदि पथ्य नहीं है तो औषध व्यर्थ हो जाती है तथा पथ्य हो तो रोगी को कम औषध से भी स्वस्थ किया जा सकता है। वास्तव में रोग को शरीर स्वयं दूर करता है और वस्तुएँ तो सहायक मात्र है। अतः चिकित्सक रोगी को परामर्श देते हैं- स्वास्थ्यवर्धक अन्नपान सेवन के साथ पूर्ण विश्राम करना चाहिए। मूलभूत बात है- प्रत्येक वह कार्य और वस्तु उपयोग में आती है, जिससे रोगी रोग से मुक्त हो, इसीलिए कहा गया है- यथा यमरपा असत्। कैसे भी हो, रोगी को रोग मुक्त करना, चिकित्सा का उद्देश्य है।

 

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