साहित्य के अन्य क्षेत्रों की भांति भारतीय दर्शनों का भी अनेकधा विद्वानों ने विस्तृत अध्ययन किया है। दर्शन साहित्य को अनेक दृष्टिकोण से जाँचा और परखा है। इसका वर्गीकरण आस्तिक या नास्तिक, वैदिक या अवैदिक, सेश्वर, निरीश्वर अनेक प्रकार से देखने में आता है। इस सबके पश्चात् हमारे इस निबन्ध में ऐसा क्या शेष रहता है, जो आलोच्य हो। दर्शन सम्बन्धी अध्ययन करने पर एक बात बार-बार ध्यान आती रहती है, दर्शनों का अध्ययन करने वालों ने इसे समग्र रूप में देखने का प्रयास कम किया है। अनेक विद्वानों ने दर्शन शास्त्र का अध्ययन करते हुये, इनको पृथक्-पृथक् मानकर इनका अध्ययन व समालोचन किया है। इस कारण इनमें विद्यमान सामंजस्य की अपेक्षा विभेद विरोध में परिवर्तित होता दिखाई पड़ता है, जिसके कारण अनेक सम्प्रदाय परस्पर नीचा दिखाते अपशब्दों का प्रयोग करते दिखाई देते हैं। यह विरोध क्या उचित और वास्तविक है? इसे जाँचने के लिए इनके समग्र रूप का चिन्तन किया जाना चाहिए। इस दृष्टि से छ: भारतीय दर्शनों में क्या परस्पर सामंजस्य है, इस पर इस निबन्ध में विचार किया जायेगा।
समग्र अध्ययन की आवश्यकता- विरोध की विद्यमानता में एकरूपता की खोज क्यों आवश्यक है, यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है। दर्शन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष वस्तुओं का विवेचन कर यथार्थ का बोध कराने में सहायक होता है। इसलिए सभी दर्शनों में विरोध स्वाभाविक है, तो उनका निर्णय भिन्न-भिन्न होगा, ऐसा निर्णय दर्शन के लक्ष्य को पूरा करने में समर्थ नहीं होगा। विद्वानों के विचार में अनेक प्रकार से वस्तु को परखने की प्रवृत्ति हो सकती है, परन्तु वह विभिन्नता विरोध हो, यह अनिवार्य नहीं है। दर्शनों में विरोध स्वाभाविक इस कारण भी नहीं है, क्योंकि दर्शनों को शास्त्र कहा गया है। इनका दूसरा नाम उपाङ्ग है, जिस प्रकार वेदांग वेद के अंग होकर वेद के विरोधी नहीं हो सकते, उसी प्रकार वेद के उपांग वेद के विरोधी नहीं होने चाहिएं। यदि विरोध दिखाई दे तो उसे जानने का यत्न करना चाहिए कि यह विरोध वास्तविक है या कल्पित है। इस विरोध और अविरोध को जाँचने के कई प्रकार हो सकते हैं, उनमें से एक प्रकार है- दर्शनों की वेद के विषय में क्या सम्मति है। इस सम्मति को सब दर्शनों में देखने से विरोध या अविरोध का निश्चय करने में सहायता मिल सकती है।
प्रसिद्ध रूप में छ: दर्शन हैं, उनको दो-दो के साथ रखकर देखने की परम्परा है, जिससे प्रतीत होता है कि इनमें परस्पर निकटता है। यथा- सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त। इनकी एकरूपता या परस्पर पूरक होने के लिए ये प्रचलित कथ्य सहायक हो सकते हैं। यद्यपि आज ईश्वर-विचार के कारण सांख्य और योग में कोई साम्य नहीं दिखाई देता, परन्तु डॉ. राधाकृष्णन् का कथन है- ‘सांख्य इज़ द थ्योरी ऑफ योग एण्ड योग इज़ द प्रेक्टिस ऑफ द सांख्य’, यदि इनमें विरोध है तो समानता के इस प्रकार के प्रसंग निश्चय ही विरोध से अधिक होने चाहिएँ।
इसी प्रकार मीमांसा और वेदान्त विरोधी समझे जाते हैं, परन्तु एक का नाम पूर्व मीमांसा है और दूसरे का नाम उत्तर मीमांसा है, जो दर्शन के लक्ष्य और क्षेत्र को प्रकाशित कर रहे हैं। मीमांसा करना दोनों का लक्ष्य है, परन्तु पूर्व और उत्तर शब्द मीमांसा के क्षेत्र पर स्पष्ट रूप से प्रकाश डाल रहे हैं। इस प्रकार क्षेत्र भिन्न होने पर भी उनमें विरोध हो, यह अनिवार्य नहीं है। इस प्रकार इन दर्शनों को विरोधी कहने से पूर्व हमको विचार अवश्य कर लेना चाहिए। इसमें विद्वानों के विचार के साथ-साथ दर्शन स्वयं इस पर कैसी दृष्टि रखते हैं, यह जानना उचित है। इसी बात के लिए इस प्रसंग में दर्शनों में वेद सम्बन्धी विचारों का विवेचन किया गया है।
योग दर्शन और वेद- योग दर्शन में वेद की चर्चा अनेक स्थानों पर आई है। स्पष्ट रूप से वेद शब्द नहीं है, परन्तु अन्य प्रकार से वहाँ वेद का ही ग्रहण है, इसे व्याख्याकारों ने भी उसी प्रकार स्वीकार किया है। सर्वप्रथम योगदर्शन में वृत्तियों के निरूपण प्रसंग में प्रमाणों की विवेचना करते हुए कहा गया है- प्रत्यक्षानुमानागमा: प्रमाणानि। (१-७) यहाँ आगम शब्द मुख्य रूप से वेद का बोधक है, जैसा कि समस्त आर्ष साहित्य में अधिगृहीत होता है।
इसी प्रकार वैराग्य की विवेचना करते हुए आनुश्रविक शब्द का प्रयोग किया गया है, जो वेद के अर्थ में आता है अनुश्रवो वेद:- इस प्रकार लौकिक एवं वैदिक विषयों का योग में निषेधात्मक सम्बन्ध दर्शाया है कि जो सम्बन्ध आत्मा में आसक्ति के भाव बढ़ाते हैं। दृष्टानुश्रविक विषय वितृष्णस्य वशीकार संज्ञा वैराग्यम्। – योग (१-१५)
योगदर्शन के द्वितीय पाद में क्रिया योग को समझाते हुए तप और ईश्वर प्रणिधान के साथ स्वाध्याय का उल्लेख है, जिससे मुख्य रूप से वेद एवं गौण रूप से उपनिषदादि आध्यात्मिक शास्त्रों का ग्रहण होता है। ‘तप: स्वाध्यायेश्वर-प्रणिधानानि क्रियायोग:’ -योगदर्शन (२-१)
इसी प्रकार इसी पाद में योग के आठ अंगों में से नियम की व्याख्या करते हुए फिर से स्वाध्याय शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ वेद है। ‘शौच सन्तोष तप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा:’ (२-३२)। इसी प्रसंग में स्वाध्याय का लाभ दर्शाते हुए इसे परमात्मा का साक्षात्कार कराने वाला कहा है – ‘स्वाध्यायादिष्टदेवता सम्प्रयोग:’ (२-४४)
योगदर्शन के कैवल्य पाद में सिद्धियों के भेद बतलाते हुए मन्त्रजा सिद्धियों का उल्लेख है। इसकी व्याख्या करते हुए मन्त्र का अर्थ वेद किया है।
इस विवरण से स्पष्ट है कि दर्शन का लक्ष्य ईश्वर होने पर भी उसकी प्राप्ति का साधन वेद है और योगदर्शन का ईश्वर वेद प्रतिपादित ईश्वर से भिन्न नहीं है। इस प्रकार योगदर्शन को वेद का उपाङ्ग कहा जाना उचित प्रतीत होता है।
सांख्य दर्शन और वेद- सांख्य दर्शन को आजकल का पठित व्यक्ति निरीश्वरवादी जानता है। सांख्य ग्रंथ के रूप में ईश्वर कृष्ण विरचित सांख्यकारिका का ही पठन-पाठन होता है। यह स्पष्ट रूप से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता। सांख्य सूत्र को अन्य सूत्र ग्रन्थों की भांति विद्वानों ने प्राचीन स्वीकार किया है। इस विषय में दर्शन के इस युग के विद्वान् आचार्य उदयवीर शास्त्री के सांख्यदर्शन का इतिहास और सांख्य सिद्धान्त ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं। उनके अनुसार सांख्य निरीश्वरवादी नहीं है। यह दर्शन वैदिक दर्शन है अत: वेद के सम्बन्ध में दर्शन ने क्या कहा है, प्रस्तुत प्रसंग में इतना ही विवेचन पर्याप्त है। इस विवेचन से स्वत: स्पष्ट होगा कि जिसे वेद मान्य है, उसे वेदोक्त विचार भी मान्य हैं।
जीव के मध्यम परिमाण की सिद्धि करते हुए जीवन में गति किस प्रकार होती है, इसका विवेचन करते हुए कहा गया है- ‘गतिश्रुतिरप्युपाधियोगादाकाशवत्’ (१-५१) यहाँ पर श्रुति द्वारा प्रतिपादित गति का आकाश की भांति जीव में घटित होना बताया है, श्रुति में वेद व उपनिषदों में इसके उदाहरण दर्शाये हैं, यथा- ‘आयोधर्माणि प्रथम’ (अथर्व. ५-१-२)
इसी भांति प्रकृति के उपादानकारण का निरूपण करते हुए कहा है- तदुत्पत्तिश्रुतेश्च (सांख्य १-७७) श्रुति में प्रकृति को उपादान कारण कहा गया है।
मुक्तात्मन: प्रशंसोपासा सिद्धस्य वा (सां. १-१५) सृष्टिकत्र्ता परमात्मा की प्रशंसा वेद में सपर्य. यजु. ४०-८ तथा पूर्णात् पूर्ण. अथर्व. १०-८-२९ उसमें आगे सिद्धरूपबोद्धृत्वाद्वाक्यार्थोपदेश: (सां. १-९८) में ईश्वर से वेद के प्रादुर्भाव की चर्चा है। इसी प्रकार तीसरे अध्याय के श्रुतिश्च (सां. ३-८०) वेद के आधार पर विवेक-ज्ञान हो जाने पर जीवन्मुक्त होने की चर्चा है। आगे वैदिक कर्मों के अनुष्ठान की आवश्यकता बतलाते हुए कहा गया है, मंगलाचरणं शिष्टाचारात् फलदर्शनात् श्रुतितश्चेति (सां. ५-१) कुर्वन्नेवेहकर्माणि. यजुर्वेद (४०-२) में वैदिक कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने के लिए कहा है। श्रुतिरपि प्रधानकार्यत्वस्य (सां. ५-१२) में प्रकृति के कार्य को बताने में श्रुति को प्रमाण कहा है। लोक की भांति वेद की भी सार्थकता बताते हुए कहा है- लोके व्युत्पन्नस्य वेदार्थप्रतीति:। (सां. ५-४०) जिस प्रकार लौकिक वाक्यों का अर्थ होता है, उसी प्रकार वेद-वाक्यों का भी अर्थज्ञान होता है। इससे आगे स्पष्ट रूप से वेद के प्रयोजन को इस प्रकार बताया है- न त्रिभिरपौरुषेयत्वाद् वेदस्य तदर्थस्याप्यतीन्द्रियत्वात् (सां. ५-४१) और आगे के सूत्रों में वेद की अपौरुषेयता प्रतिपादित की गई- न पौरुषेयत्वं तत्कत्र्तु: पुरुषस्याभावात्। (५-४६) वेद को अपौरुषेय के साथ स्वत: प्रमाण भी माना गया है- निजशक्त्याभिव्यक्ते: स्वत: प्रामाण्यम्। (सां. ५-५१) वेद ईश्वर की निज शक्ति से अभिव्यक्ति होने से स्वत: प्रमाण है। सांख्यदर्शन का उद्देश्य भी अन्य दर्शन से भिन्न नहीं है, जिस प्रकार योगदर्शन का उद्देश्य समाधि और मोक्ष है, उसी प्रकार सांख्य में भी इसी उद्देश्य का प्रतिपादन किया गया है- समाधिसुषुप्तिमोक्षेषु ब्रह्मरूपता। (सां. ५-११६) अर्थात् समाधि, सुषुप्ति और मोक्ष में ब्रह्म के साथ स्थिति रहती है।
इस प्रकार सांख्य और योग में कहीं भी विरोध की प्रतीति नहीं होती, वेद के सम्बन्ध में भी दोनों दर्शनों के दृष्टिकोण में कोई विरोध नहीं मिलता।
वैशेषिक दर्शन- सांख्य-योग की भांति न्याय-वैशेषिक को भी एक युग्म स्वीकार किया जाता है। अन्य दर्शनों की भांति वैशेषिक दर्शन में वेद विषय की धारणा अन्य दर्शनों से भिन्न या विरोधी नहीं है। दर्शन में धर्म के प्रमाण के लिए वेद को मुख्य कहा गया है- तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम् (वै. १-१-३) धर्म का मुख्य प्रतिपादक प्रमाण वेद है। आगे वायु की संज्ञा वैदिक बताते हुए कहा है- तस्मादागमिकम् (वै. २-१-१७) आगे पुन:- तस्मादागमिक: (वै. ३-२-८) में आत्म संज्ञा को वेदोक्त बताया है। अयोनिज शरीरों की चर्चा में वेद को प्रमाण मानते हुए कहा है- वेदलिङ्गाच्च (वै. ४-२-११) अर्थात् वेद प्रमाण से भी उक्त अर्थ की सिद्धि होती है। आगे वैदिकाच्च (वै. ५-२-१०) दर्शनकार वेद को प्रमाण मानते हुए कहता है- बुद्धिपूर्वावाक्यकृतिर्वेदे (वै. ६-१-१) वेद में जो उपदेश किया गया है, वह सब बुद्धिपूर्वक है। बुद्धिपूर्वो ददाति (वै. ६-१-३) वेद द्वारा दान देने का विधान बुद्धिपूर्वक है। दर्शनकार अन्त में कहता है- तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यमिति (वै. १०-२-९) ईश्वर का वचन होने से वेद स्वत: प्रमाण है।
इन सूत्रों में वेद विषय में जो विचार व्यक्त किये हैं, इनसे स्पष्ट प्रतीत होता है। वेद विषय में दर्शन की धारणापूर्वक मान्यता समान प्रतीति होती है। अत: वेद की मान्यता से किसी भी दर्शन का विरोध नहीं है, अत: दर्शन में भी परस्पर विरोध का प्रतिपादन करना किस प्रकार उचित कहा जा सकता है।
न्याय दर्शन- न्याय दर्शन में अनेक प्रसंग है, जिसमें वेद के प्रति आदरभाव दर्शाया गया है। वेद को स्पष्ट रूप से प्रमाण मानते हुए दर्शनकार कहता है- मन्त्रायुर्वेद-प्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यात्। (न्याय २/१/६९) मन्त्र तथा आयुर्वेद के समान आप्तोक्त होने से वेद प्रमाण है। आगे शरीर पार्थिव होने में शब्द प्रमाण का कथन करते हुए कहा गया है- श्रुतिप्रामाण्याच्च (न्याय. ३/१/३२) भस्मान्तं शरीरम्- आदि श्रुति के प्रमाण होने से शरीर पार्थिव है। अन्तिम अध्याय में दर्शन का उपसंहार करते हुए- समाधिविशेषाभ्यासात् (न्याय. ४/२/३८) में तत्त्वज्ञान के लिए योगदर्शन की भांति समाधि के अभ्यास का विधान किया गया है और तदर्थं यमनियमाभ्यामात्म-संस्कारो योगाच्चाध्यात्मविध्युपायै:। (न्याय. ४/२/४६) में योग का साधन यम-नियमों का पालन करने का विधान किया है।
इस प्रकार दर्शनों का लक्ष्य भी समान प्रतीत होता है। लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन भी समान हैं। फिर उनके सैद्धान्तिक विरोध की कल्पना करना, इन प्रमाणों की विद्यमानता में उचित प्रतीत नहीं होता।
पूर्व मीमांसा और वेद- मीमांसा दर्शन वेद के शब्द अर्थ सम्बन्ध को नित्य प्रतिपादित करता है यथा (१/१/५) साथ ही वेद के अपौरुषेय और नित्य होने में जितनी बाधक युक्तियाँ हैं, उनका निरसन किया गया है। इस प्रकरण में- वेदांश्चैके सन्निकर्षपुरुषाख्या:। (मीमांसा १/१/२७) कुछ लोग वेदों का रचयिता पुरुषों को बतलाते हैं- इस प्रसंग में इसका खण्डन किया गया है तथा परन्तु श्रुतिसामान्यमात्रम्। (मीमांसा १/१/३१) मन्त्र में आये ऋषि नामों को सामान्य संज्ञा बतलाया है। साथ ही सर्वत्वमाधिकारिकम् (१/२/१६) में सभी का वेदाध्ययन में अधिकार प्रतिपादित किया है। वेद का पाठ मात्र दर्शनकार को अभिप्रेत नहीं है- बुद्धशास्त्रात् (मीमांसा १/२/३३) में वेद के अर्थ सहित पठन-पाठन का विधान किया है। वेद से भिन्न वेद व्याख्या ग्रन्थों को दर्शनकार बाह्य कहता है- शेषे ब्राह्मणशब्द: (२/१/३३)
मीमांसा दर्शन यज्ञ-कर्मकाण्ड का प्रतिपादक है और वेद को परम प्रमाण स्वीकार करने वाला ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के अधिकांश सूत्र वेद की समस्याओं का समाधान करते हैं। इस प्रकार यह शास्त्र वेद के सम्बन्ध में उत्पन्न अनेक समस्याओं का समाधान करने वाला होने से विभिन्न कार्य का प्रतिपादक प्रतीत होने पर भी अन्य दर्शनों का विरोधी नहीं हो सकता।
उत्तर मीमांसा और वेद- उत्तर मीमांसा नाम के अनुसार यदि पूर्व मीमांसा का वेद से सम्बन्ध है तो उत्तर मीमांसा का वेद से सम्बन्ध होना स्वाभाविक है। इसका दूसरा नाम इस वेद से साक्षात् सम्बन्ध को प्रतिपादित करता है। वेदान्त नाम बता रहा है कि इस दर्शन का उद्देश्य वेद के रहस्य का प्रतिपादन करना है। इसका प्रत्येक सूत्र रहस्य का प्रतिपादक है। मध्यकाल में वेद को मनुष्यों से दूर करने का प्रयत्न किया गया और इसी दर्शन के आधार पर स्त्रीशूद्रौ नाधीयाताम् पंक्ति वेदान्त दर्शन के श्रवणाध्ययनार्थप्रतिषेधात् स्मृतेश्च- १/३/३८ के भाष्य में आचार्य शंकर उद्धृत करते हैं, परन्तु सूत्र स्पष्ट रूप से आचारवान् का वेदाध्ययन में अधिकार और आचारहीन का अनधिकार प्रतिपादित करते हैं। वेद कहता है- यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च। (यजु. २६/२) और सूत्रकार इसी बात की पुष्टि करते हुए कहता है- भावं तु बादरायाणोऽस्ति हि। (वेदान्त १/३/३३)
इसी प्रकार जीवात्मा के परमात्मा के एक देश में अंश साहचर्य के कारण है, इसमें दर्शनकार ने वेद प्रतिपादन को प्रमाण बतलाते हुए- मन्त्रवर्णाच्च (वेदान्त २/३/४४) कहा है।
परमात्मा को जीव के कर्मफलों का प्रदाता प्रतिपादित करते हुए सूत्रकार वेद को प्रमाण रूप में उपस्थित करता है श्रुतत्वाच्च (वेदान्त ३/२/३९) यदङ्गदाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि (ऋ. १/१/६) शन्नोऽस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे (यजु. ३६/८) अन्य दर्शनों की भांति वेदान्त का लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्ति है। दूसरे शास्त्रों की भांति योग साधना उसका साधन है। इस विषय में द्रष्टव्य है- ध्यानाच्च (वेदान्त ४/१/८) ध्यान से ब्रह्मोपासना होती है। अचलत्वं चापेक्ष्य (४/१/९) अचलत्व के बिना ध्यान सम्भव नहीं है और ध्यान के लिए आसन और आसन के लिए अनुकूल स्थान की अपेक्षा है- यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् (वेदान्त ४/१/११) जिस स्थान में एकाग्रता हो, उस स्थान में आसन लगाकर ब्रह्मोपासना करें।
इस प्रकार अन्य सभी दर्शनों की भांति वेदान्त भी वैदिक सिद्धान्तों का प्रतिपादक शास्त्र सिद्ध होता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि दर्शनों का पृथक्-पृथक् अध्ययन करके उनको परस्पर विरोधी प्रतिपादित करने की परम्परा किस प्रकार और कब प्रारम्भ हुई, यह विचारणीय है। जब सभी दर्शन वेद को परम प्रमाण मानते हैं तो परस्पर विरोधी होने पर वेद में एकवाक्यता गुण की प्राप्ति सम्भव नहीं है। दर्शनशास्त्र बुद्धिहीन बातों का प्रतिपादक शास्त्र नहीं हो सकता, अत: दर्शनों का विरोध कल्पित और अनावश्यक है।