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छ: दर्शनों की वेद मूलकता डॉ. धर्मवीर

साहित्य के अन्य क्षेत्रों की भांति भारतीय दर्शनों का भी अनेकधा विद्वानों ने विस्तृत अध्ययन किया है। दर्शन साहित्य को अनेक दृष्टिकोण से जाँचा और परखा है। इसका वर्गीकरण आस्तिक या नास्तिक, वैदिक या अवैदिक, सेश्वर, निरीश्वर अनेक प्रकार से देखने में आता है। इस सबके पश्चात् हमारे इस निबन्ध में ऐसा क्या शेष रहता है, जो आलोच्य हो। दर्शन सम्बन्धी अध्ययन करने पर एक बात बार-बार ध्यान आती रहती है, दर्शनों का अध्ययन करने वालों ने इसे समग्र रूप में देखने का प्रयास कम किया है। अनेक विद्वानों ने दर्शन शास्त्र का अध्ययन करते हुये, इनको पृथक्-पृथक् मानकर इनका अध्ययन व समालोचन किया है। इस कारण इनमें विद्यमान सामंजस्य की अपेक्षा विभेद विरोध में परिवर्तित होता दिखाई पड़ता है, जिसके कारण अनेक सम्प्रदाय परस्पर नीचा दिखाते अपशब्दों का प्रयोग करते दिखाई देते हैं। यह विरोध क्या उचित और वास्तविक है? इसे जाँचने के लिए इनके समग्र रूप का चिन्तन किया जाना चाहिए। इस दृष्टि से छ: भारतीय दर्शनों में क्या परस्पर सामंजस्य है, इस पर इस निबन्ध में विचार किया जायेगा।

समग्र अध्ययन की आवश्यकता- विरोध की विद्यमानता में एकरूपता की खोज क्यों आवश्यक है, यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है। दर्शन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष वस्तुओं का विवेचन कर यथार्थ का बोध कराने में सहायक होता है। इसलिए सभी दर्शनों में विरोध स्वाभाविक है, तो उनका निर्णय भिन्न-भिन्न होगा, ऐसा निर्णय दर्शन के लक्ष्य को पूरा करने में समर्थ नहीं होगा। विद्वानों के विचार में अनेक प्रकार से वस्तु को परखने की प्रवृत्ति हो सकती है, परन्तु वह विभिन्नता विरोध हो, यह अनिवार्य नहीं है। दर्शनों में विरोध स्वाभाविक इस कारण भी नहीं है, क्योंकि दर्शनों को शास्त्र कहा गया है। इनका दूसरा नाम उपाङ्ग है, जिस प्रकार वेदांग वेद के अंग होकर वेद के विरोधी नहीं हो सकते, उसी प्रकार वेद के उपांग वेद के विरोधी नहीं होने चाहिएं। यदि विरोध दिखाई दे तो उसे जानने का यत्न करना चाहिए कि यह विरोध वास्तविक है या कल्पित है। इस विरोध और अविरोध को जाँचने के कई प्रकार हो सकते हैं, उनमें से एक प्रकार है- दर्शनों की वेद के विषय में क्या सम्मति है। इस सम्मति को सब दर्शनों में देखने से विरोध या अविरोध का निश्चय करने में सहायता मिल सकती है।

प्रसिद्ध रूप में छ: दर्शन हैं, उनको दो-दो के साथ रखकर देखने की परम्परा है, जिससे प्रतीत होता है कि इनमें परस्पर निकटता है। यथा- सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त। इनकी एकरूपता या परस्पर पूरक होने के लिए ये प्रचलित कथ्य सहायक हो सकते हैं। यद्यपि आज ईश्वर-विचार के कारण सांख्य और योग में कोई साम्य नहीं दिखाई देता, परन्तु डॉ. राधाकृष्णन् का कथन है- ‘सांख्य इज़ द थ्योरी ऑफ योग एण्ड योग इज़ द प्रेक्टिस ऑफ द सांख्य’, यदि इनमें विरोध है तो समानता के इस प्रकार के प्रसंग निश्चय ही विरोध से अधिक होने चाहिएँ।

इसी प्रकार मीमांसा और वेदान्त विरोधी समझे जाते हैं, परन्तु एक का नाम पूर्व मीमांसा है और दूसरे का नाम उत्तर मीमांसा है, जो दर्शन के लक्ष्य और क्षेत्र को प्रकाशित कर रहे हैं। मीमांसा करना दोनों का लक्ष्य है, परन्तु पूर्व और उत्तर शब्द मीमांसा के क्षेत्र पर स्पष्ट रूप से प्रकाश डाल रहे हैं। इस प्रकार क्षेत्र भिन्न होने पर भी उनमें विरोध हो, यह अनिवार्य नहीं है। इस प्रकार इन दर्शनों को विरोधी कहने से पूर्व हमको विचार अवश्य कर लेना चाहिए। इसमें विद्वानों के विचार के साथ-साथ दर्शन स्वयं इस पर कैसी दृष्टि रखते हैं, यह जानना उचित है। इसी बात के लिए इस प्रसंग में दर्शनों में वेद सम्बन्धी विचारों का विवेचन किया गया है।

योग दर्शन और वेद- योग दर्शन में वेद की चर्चा अनेक स्थानों पर आई है। स्पष्ट रूप से वेद शब्द नहीं है, परन्तु अन्य प्रकार से वहाँ वेद का ही ग्रहण है, इसे व्याख्याकारों ने भी उसी प्रकार स्वीकार किया है। सर्वप्रथम योगदर्शन में वृत्तियों के निरूपण प्रसंग में प्रमाणों की विवेचना करते हुए कहा गया है- प्रत्यक्षानुमानागमा: प्रमाणानि। (१-७) यहाँ आगम शब्द मुख्य रूप से वेद का बोधक है, जैसा कि समस्त आर्ष साहित्य में अधिगृहीत होता है।

इसी प्रकार वैराग्य की विवेचना करते हुए आनुश्रविक शब्द का प्रयोग किया गया है, जो वेद के अर्थ में आता है अनुश्रवो वेद:- इस प्रकार लौकिक एवं वैदिक विषयों का योग में निषेधात्मक सम्बन्ध दर्शाया है कि जो सम्बन्ध आत्मा में आसक्ति के भाव बढ़ाते हैं। दृष्टानुश्रविक विषय वितृष्णस्य वशीकार संज्ञा वैराग्यम्। – योग (१-१५)

योगदर्शन के द्वितीय पाद में क्रिया योग को समझाते हुए तप और ईश्वर प्रणिधान के साथ स्वाध्याय का उल्लेख है, जिससे मुख्य रूप से वेद एवं गौण रूप से उपनिषदादि आध्यात्मिक शास्त्रों का ग्रहण होता है। ‘तप: स्वाध्यायेश्वर-प्रणिधानानि क्रियायोग:’ -योगदर्शन (२-१)

इसी प्रकार इसी पाद में योग के आठ अंगों में से नियम की व्याख्या करते हुए फिर से स्वाध्याय शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ वेद है। ‘शौच सन्तोष तप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा:’ (२-३२)। इसी प्रसंग में स्वाध्याय का लाभ दर्शाते हुए इसे परमात्मा का साक्षात्कार कराने वाला कहा है – ‘स्वाध्यायादिष्टदेवता सम्प्रयोग:’ (२-४४)

योगदर्शन के कैवल्य पाद में सिद्धियों के भेद बतलाते हुए मन्त्रजा सिद्धियों का उल्लेख है। इसकी व्याख्या करते हुए मन्त्र का अर्थ वेद किया है।

इस विवरण से स्पष्ट है कि दर्शन का लक्ष्य ईश्वर होने पर भी उसकी प्राप्ति का साधन वेद है और योगदर्शन का ईश्वर वेद प्रतिपादित ईश्वर से भिन्न नहीं है। इस प्रकार योगदर्शन को वेद का उपाङ्ग कहा जाना उचित प्रतीत होता है।

सांख्य दर्शन और वेद- सांख्य दर्शन को आजकल का पठित व्यक्ति निरीश्वरवादी जानता है। सांख्य ग्रंथ के रूप में ईश्वर कृष्ण विरचित सांख्यकारिका का ही पठन-पाठन होता है। यह स्पष्ट रूप से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता। सांख्य सूत्र को अन्य सूत्र ग्रन्थों की भांति विद्वानों ने प्राचीन स्वीकार किया है। इस विषय में दर्शन के इस युग के विद्वान् आचार्य उदयवीर शास्त्री के सांख्यदर्शन का इतिहास और सांख्य सिद्धान्त ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं। उनके अनुसार सांख्य निरीश्वरवादी नहीं है। यह दर्शन वैदिक दर्शन है अत: वेद के सम्बन्ध में दर्शन ने क्या कहा है, प्रस्तुत प्रसंग में इतना ही विवेचन पर्याप्त है। इस विवेचन से स्वत: स्पष्ट होगा कि जिसे वेद मान्य है, उसे वेदोक्त विचार भी मान्य हैं।

जीव के मध्यम परिमाण की सिद्धि करते हुए जीवन में गति किस प्रकार होती है, इसका विवेचन करते हुए कहा गया है- ‘गतिश्रुतिरप्युपाधियोगादाकाशवत्’ (१-५१) यहाँ पर श्रुति द्वारा प्रतिपादित गति का आकाश की भांति जीव में घटित होना बताया है, श्रुति में वेद व उपनिषदों में इसके उदाहरण दर्शाये हैं, यथा- ‘आयोधर्माणि प्रथम’ (अथर्व. ५-१-२)

इसी भांति प्रकृति के उपादानकारण का निरूपण करते हुए कहा है- तदुत्पत्तिश्रुतेश्च (सांख्य १-७७) श्रुति में प्रकृति को उपादान कारण कहा गया है।

मुक्तात्मन: प्रशंसोपासा सिद्धस्य वा (सां. १-१५) सृष्टिकत्र्ता परमात्मा की प्रशंसा वेद में सपर्य. यजु. ४०-८ तथा पूर्णात् पूर्ण. अथर्व. १०-८-२९ उसमें आगे सिद्धरूपबोद्धृत्वाद्वाक्यार्थोपदेश: (सां. १-९८) में ईश्वर से वेद के प्रादुर्भाव की चर्चा है। इसी प्रकार तीसरे अध्याय के श्रुतिश्च (सां. ३-८०) वेद के आधार पर विवेक-ज्ञान हो जाने पर जीवन्मुक्त होने की चर्चा है। आगे वैदिक कर्मों के अनुष्ठान की आवश्यकता बतलाते हुए कहा गया है, मंगलाचरणं शिष्टाचारात् फलदर्शनात् श्रुतितश्चेति (सां. ५-१) कुर्वन्नेवेहकर्माणि. यजुर्वेद (४०-२) में वैदिक कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने के लिए कहा है। श्रुतिरपि प्रधानकार्यत्वस्य (सां. ५-१२) में प्रकृति के कार्य को बताने में श्रुति को प्रमाण कहा है। लोक की भांति वेद की भी सार्थकता बताते हुए कहा है- लोके व्युत्पन्नस्य वेदार्थप्रतीति:। (सां. ५-४०) जिस प्रकार लौकिक वाक्यों का अर्थ होता है, उसी प्रकार वेद-वाक्यों का भी अर्थज्ञान होता है। इससे आगे स्पष्ट रूप से वेद के प्रयोजन को इस प्रकार बताया है- न त्रिभिरपौरुषेयत्वाद् वेदस्य तदर्थस्याप्यतीन्द्रियत्वात् (सां. ५-४१) और आगे के सूत्रों में वेद की अपौरुषेयता प्रतिपादित की गई- न पौरुषेयत्वं तत्कत्र्तु: पुरुषस्याभावात्। (५-४६) वेद को अपौरुषेय के साथ स्वत: प्रमाण भी माना गया है- निजशक्त्याभिव्यक्ते: स्वत: प्रामाण्यम्। (सां. ५-५१) वेद ईश्वर की निज शक्ति से अभिव्यक्ति होने से स्वत: प्रमाण है। सांख्यदर्शन का उद्देश्य भी अन्य दर्शन से भिन्न नहीं है, जिस प्रकार योगदर्शन का उद्देश्य समाधि और मोक्ष है, उसी प्रकार सांख्य में भी इसी उद्देश्य का प्रतिपादन किया गया है- समाधिसुषुप्तिमोक्षेषु ब्रह्मरूपता। (सां. ५-११६) अर्थात् समाधि, सुषुप्ति और मोक्ष में ब्रह्म के साथ स्थिति रहती है।

इस प्रकार सांख्य और योग में कहीं भी विरोध की प्रतीति नहीं होती, वेद के सम्बन्ध में भी दोनों दर्शनों के दृष्टिकोण में कोई विरोध नहीं मिलता।

वैशेषिक दर्शन- सांख्य-योग की भांति न्याय-वैशेषिक को भी एक युग्म स्वीकार किया जाता है। अन्य दर्शनों की भांति वैशेषिक दर्शन में वेद विषय की धारणा अन्य दर्शनों से भिन्न या विरोधी नहीं है। दर्शन में धर्म के प्रमाण के लिए वेद को मुख्य कहा गया है- तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम् (वै. १-१-३) धर्म का मुख्य प्रतिपादक प्रमाण वेद है। आगे वायु की संज्ञा वैदिक बताते हुए कहा है- तस्मादागमिकम् (वै. २-१-१७) आगे पुन:- तस्मादागमिक: (वै. ३-२-८) में आत्म संज्ञा को वेदोक्त बताया है। अयोनिज शरीरों की चर्चा में वेद को प्रमाण मानते हुए कहा है- वेदलिङ्गाच्च (वै. ४-२-११) अर्थात् वेद प्रमाण से भी उक्त अर्थ की सिद्धि होती है। आगे वैदिकाच्च (वै. ५-२-१०) दर्शनकार वेद को प्रमाण मानते हुए कहता है- बुद्धिपूर्वावाक्यकृतिर्वेदे (वै. ६-१-१) वेद में जो उपदेश किया गया है, वह सब बुद्धिपूर्वक है। बुद्धिपूर्वो ददाति (वै. ६-१-३) वेद द्वारा दान देने का विधान बुद्धिपूर्वक है। दर्शनकार अन्त में कहता है- तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यमिति (वै. १०-२-९) ईश्वर का वचन होने से वेद स्वत: प्रमाण है।

इन सूत्रों में वेद विषय में जो विचार व्यक्त किये हैं, इनसे स्पष्ट प्रतीत होता है। वेद विषय में दर्शन की धारणापूर्वक मान्यता समान प्रतीति होती है। अत: वेद की मान्यता से किसी भी दर्शन का विरोध नहीं है, अत: दर्शन में भी परस्पर विरोध का प्रतिपादन करना किस प्रकार उचित कहा जा सकता है।

न्याय दर्शन- न्याय दर्शन में अनेक प्रसंग है, जिसमें वेद के प्रति आदरभाव दर्शाया गया है। वेद को स्पष्ट रूप से प्रमाण मानते हुए दर्शनकार कहता है- मन्त्रायुर्वेद-प्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यात्। (न्याय २/१/६९) मन्त्र तथा आयुर्वेद के समान आप्तोक्त होने से वेद प्रमाण है। आगे शरीर पार्थिव होने में शब्द प्रमाण का कथन करते हुए कहा गया है- श्रुतिप्रामाण्याच्च (न्याय. ३/१/३२) भस्मान्तं शरीरम्- आदि श्रुति के प्रमाण होने से शरीर पार्थिव है। अन्तिम अध्याय में दर्शन का उपसंहार करते हुए- समाधिविशेषाभ्यासात् (न्याय. ४/२/३८) में तत्त्वज्ञान के लिए योगदर्शन की भांति समाधि के अभ्यास का विधान किया गया है और तदर्थं यमनियमाभ्यामात्म-संस्कारो योगाच्चाध्यात्मविध्युपायै:। (न्याय. ४/२/४६) में योग का साधन यम-नियमों का पालन करने का विधान किया है।

इस प्रकार दर्शनों का लक्ष्य भी समान प्रतीत होता है। लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन भी समान हैं। फिर उनके सैद्धान्तिक विरोध की कल्पना करना, इन प्रमाणों की विद्यमानता में उचित प्रतीत नहीं होता।

पूर्व मीमांसा और वेद- मीमांसा दर्शन वेद के शब्द अर्थ सम्बन्ध को नित्य प्रतिपादित करता है यथा (१/१/५) साथ ही वेद के अपौरुषेय और नित्य होने में जितनी बाधक युक्तियाँ हैं, उनका निरसन किया गया है। इस प्रकरण में- वेदांश्चैके सन्निकर्षपुरुषाख्या:। (मीमांसा १/१/२७) कुछ लोग वेदों का रचयिता पुरुषों को बतलाते हैं- इस प्रसंग में इसका खण्डन किया गया है तथा परन्तु श्रुतिसामान्यमात्रम्। (मीमांसा १/१/३१) मन्त्र में आये ऋषि नामों को सामान्य संज्ञा बतलाया है। साथ ही सर्वत्वमाधिकारिकम् (१/२/१६) में सभी का वेदाध्ययन में अधिकार प्रतिपादित किया है। वेद का पाठ मात्र दर्शनकार को अभिप्रेत नहीं है- बुद्धशास्त्रात् (मीमांसा १/२/३३) में वेद के अर्थ सहित पठन-पाठन का विधान किया है। वेद से भिन्न वेद व्याख्या ग्रन्थों को दर्शनकार बाह्य कहता है- शेषे ब्राह्मणशब्द: (२/१/३३)

मीमांसा दर्शन यज्ञ-कर्मकाण्ड का प्रतिपादक है और वेद को परम प्रमाण स्वीकार करने वाला ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के अधिकांश सूत्र वेद की समस्याओं का समाधान करते हैं। इस प्रकार यह शास्त्र वेद के सम्बन्ध में उत्पन्न अनेक समस्याओं का समाधान करने वाला होने से विभिन्न कार्य का प्रतिपादक प्रतीत होने पर भी अन्य दर्शनों का विरोधी नहीं हो सकता।

उत्तर मीमांसा और वेद- उत्तर मीमांसा नाम के अनुसार यदि पूर्व मीमांसा का वेद से सम्बन्ध है तो उत्तर मीमांसा का वेद से सम्बन्ध होना स्वाभाविक है। इसका दूसरा नाम इस वेद से साक्षात् सम्बन्ध को प्रतिपादित करता है। वेदान्त नाम बता रहा है कि इस दर्शन का उद्देश्य वेद के रहस्य का प्रतिपादन करना है। इसका प्रत्येक सूत्र रहस्य का प्रतिपादक है। मध्यकाल में वेद को मनुष्यों से दूर करने का प्रयत्न किया गया और इसी दर्शन के आधार पर स्त्रीशूद्रौ नाधीयाताम् पंक्ति वेदान्त दर्शन के श्रवणाध्ययनार्थप्रतिषेधात् स्मृतेश्च- १/३/३८ के भाष्य में आचार्य शंकर उद्धृत करते हैं, परन्तु सूत्र स्पष्ट रूप से आचारवान् का वेदाध्ययन में अधिकार और आचारहीन का अनधिकार प्रतिपादित करते हैं। वेद कहता है- यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च। (यजु. २६/२) और सूत्रकार इसी बात की पुष्टि करते हुए कहता है- भावं तु बादरायाणोऽस्ति हि। (वेदान्त १/३/३३)

इसी प्रकार जीवात्मा के परमात्मा के एक देश में अंश साहचर्य के कारण है, इसमें दर्शनकार ने वेद प्रतिपादन को प्रमाण बतलाते हुए- मन्त्रवर्णाच्च (वेदान्त २/३/४४) कहा है।

परमात्मा को जीव के कर्मफलों का प्रदाता प्रतिपादित करते हुए सूत्रकार वेद को प्रमाण रूप में उपस्थित करता है श्रुतत्वाच्च (वेदान्त ३/२/३९) यदङ्गदाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि (ऋ. १/१/६) शन्नोऽस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे (यजु. ३६/८) अन्य दर्शनों की भांति वेदान्त का लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्ति है। दूसरे शास्त्रों की भांति योग साधना उसका साधन है। इस विषय में द्रष्टव्य है- ध्यानाच्च (वेदान्त ४/१/८) ध्यान से ब्रह्मोपासना होती है। अचलत्वं चापेक्ष्य (४/१/९) अचलत्व के बिना ध्यान सम्भव नहीं है और ध्यान के लिए आसन और आसन के लिए अनुकूल स्थान की अपेक्षा है- यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् (वेदान्त ४/१/११) जिस स्थान में एकाग्रता हो, उस स्थान में आसन लगाकर ब्रह्मोपासना करें।

इस प्रकार अन्य सभी दर्शनों की भांति वेदान्त भी वैदिक सिद्धान्तों का प्रतिपादक शास्त्र सिद्ध होता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि दर्शनों का पृथक्-पृथक् अध्ययन करके उनको परस्पर विरोधी प्रतिपादित करने की परम्परा किस प्रकार और कब प्रारम्भ हुई, यह विचारणीय है। जब सभी दर्शन वेद को परम प्रमाण मानते हैं तो परस्पर विरोधी होने पर वेद में एकवाक्यता गुण की प्राप्ति सम्भव नहीं है। दर्शनशास्त्र बुद्धिहीन बातों का प्रतिपादक शास्त्र नहीं हो सकता, अत: दर्शनों का विरोध कल्पित और अनावश्यक है।

आयु को निश्चित मानना वेद विरुद्ध है: -ब्र. वेदव्रत मीमांसक

परोपकारी मासिक, वर्ष २४, अङ्क ११, आश्विन २०३१ वि. में श्री पं. फूलचन्द शर्मा निडर भिवानी वालों का ‘आयु को निश्चित न मानने वालों से कुछ प्रश्र’ शीर्षक एक लेख छपा है। उसमें उन्होंने आयु निश्चित सिद्ध करने का प्रयत्न किया है।

आर्य विद्वानों में आयु निश्चित है अथवा अनिश्चित। इस विषय में मतभेद है। एक वर्ग वाले मानते हैं कि आयु निश्चित है और दूसरे वर्ग वाले कहते हैं कि अनिश्चित है। इस विषय में दो-बार शास्त्रार्थ हुआ। दूसरी बार का शास्त्रार्थ ‘दयानन्द सन्देश’ वर्ष २, अङ्क ९, १० के विशेषाङ्क के रूप में प्रकाशित हुआ, जिसको देखने से दोनों पक्ष वालों के मूलभूत विचार स्पष्ट होते हैं।

किसी बात को सिद्ध करने के लिए प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन नामक पञ्च अवयवों की आवश्यकता होती है। इन्हीं को प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द और प्रमाण कहा जाता है। किसी वस्तु की सिद्धि में हेतु प्रमुख होता है। हेतु के प्रबल होने से पक्ष सिद्ध होता है। हेतु के न होने से अथवा हेत्वाभास से पक्ष सिद्ध नहीं होता। हेतुओं और हेत्वाभासों पर न्यायशास्त्र में अतिसूक्ष्मता से विचार किया गया है। प्रमाणों के द्वारा वस्तु की परीक्षा करना न्याय कहलाता है। महर्षि वात्स्यायन ने न्याय १/१/१ पर लिखा है ‘‘प्रत्यक्षागमाश्रितमनुमानं सा अन्वीक्षा। प्रत्यक्षागमाभ्यामीक्षितस्यान्वीक्षणमन्वीक्षा तथा प्रवर्तत इत्यान्वीक्षिकी न्यायविद्या न्यायशास्त्रम्। यत्पुनरनुमानं प्रत्यक्षागमविरुद्धं न्यायाभास: स इति।’’ प्रत्यक्ष और आगम पर आश्रित अनुमान को अन्वीक्षा क हते हैं। प्रत्यक्ष और आगम के द्वारा ईक्षित का पश्चात् ईक्षण अन्वीक्षा है। उसको लेकर जो प्रवृत्त हो, उसको आन्वीक्षिकी, न्यायविद्या, न्यायशास्त्र कहते हैं। जो अनुमान प्रत्यक्ष तथा आगम के विरुद्ध हो, वह न्याय नहीं अपितु न्यायाभास है।

श्री निडर जी आयु के विषय में सत्यासत्य का निर्णय नहीं करना चाहते, क्योंकि वे कहते हैं ‘‘मैं तो न्यायशास्त्र नहीं जानता। न्यायशास्त्र के बिना ही मैं आयु को निश्चित सिद्ध कर दूँगा।’’ भला जो व्यक्ति प्रतिज्ञा को नहीं जानता, हेतु क ो नहीं जानता, हेत्वाभास को नहीं जानता, उदाहरण को नहीं जानता, उपनय और निगमन को नहीं जानता, छल, जाति, निग्रह स्थान को नहीं जानता, वह सत्यासत्य का निर्णय कैसे कर सकता है?

आर्यसमाज सोनीपत का उत्सव हो रहा था। निडर जी के ज्येष्ठ पुत्र मन्त्री थे। मञ्च पर मैं था और निडर जी भी थे। मुझे देखकर आपने मञ्च से यह घोषणा की-ब्रह्मचारी जी उपस्थित हैं। उत्सव भी चल रहा है। आयु विषय पर शास्त्रार्थ हो जाए तो अच्छा रहे। मैंने उसी समय उसको स्वीकार कर लिया, किन्तु आर्यसमाज के अधिकारियों ने शास्त्रार्थ का आयोजन नहीं किया। मैं अब भी निडर जी से अथवा और किसी भी अन्य विद्वान् से इस विषय पर वाद करने को उद्यत हँू। न्यायशास्त्र अनुमोदित प्रक्रिया के अनुसार शास्त्रार्थ हो। यदि न्यायशास्त्र के विरुद्ध कोई वाद करना चाहे तो सत्यासत्य का निर्णय नहीं हो सकता।

यदि निडर जी जब कभी इस विषय पर लेख लिखें, न्यायानुसार ही लिखें तो विद्वानों में मान्य हो, किन्तु उनके लेख में प्रत्यक्षागम विरुद्ध अनुमान होता है।

आयु के निश्चित न होने में अनेक प्रमाण हैं, उन सबको लिखने की, आवश्यकता नहीं है। उनमें से स्थालीपुलाक न्याय से कुछ प्रस्तुत किय जाते हैं-

१. त्र्यायुषं जमदग्रे: कश्यपस्य त्र्यायुषं यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नो अस्तु त्र्यायुषम् (यजु. ३५/१५)

भावार्थ-ये परमेश्वरेण व्यवस्थापितां धर्मानोल्लङ्घन्ते अन्यायेन परपदार्थान् न स्वीकुर्वन्ति ते अरोगा: सन्त: शतं वर्षाणि जीवितुं शक्रुवन्ति नेतरे ईश्वराज्ञा भङ्क्तार:। ये पूर्णेन ब्रह्मचर्येण विद्या अधीत्य धर्ममाचरन्ति तान् मृत्युर्मध्येनाऽप्रोतीति।

भाषार्थ-जो लोग परमेश्वर के नियम का कि धर्म का आचरण करना और अधर्म का आचरण छोडऩा चाहिए- उल्लङ्घन नहीं करते, अन्याय से दूसरों के पदार्थों को नहीं लेते, वे नीरोग हो कर सौ वर्ष तक जी सकते हैं, ईश्वराज्ञा विरोधी नहीं। पूर्ण ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ कर धर्म का आचरण करते हैं, उनको मृत्यु मध्य में प्राप्त नहीं होती।

२. ‘‘अग्र आयूंषि पवस आसुवोर्जमिषंचन:। आरे बाधस्वदुच्छुनाम्’’ (यजु. ३५/१५)

भावार्थ-ये मनुष्या: दुष्टाचरणदुष्टसङ्गौ विहाय परमेश्वराप्तयो: सेवां कुर्वन्ति ते धनधान्य युक्ता: सन्तो दीर्घायुषो भवन्ति।

भाषार्थ-जो मनुष्य दुष्टाचरण दुष्ट सङ्ग छोड़ परमेश्वर और आप्तों की सेवा करते हैं, वे धन-धान्य से युक्त हो दीर्घायु को प्राप्त करते हैं।

३. ‘‘परं मृत्यो अनुपरे कि पन्थां यस्ते अन्य इतरो देवयानात् चक्षुष्मते शृण्वते ते ब्रवीमि मा न: प्रजां रीरिषो मोत वीरान्’’ (यजु. २५/७)

भावार्थ-मनुष्यैर्यावज्जीवनं तावद्विद्वन्मार्गेण गत्वा परमायुर्लब्धव्यम् कदाचित् विना ब्रह्मचर्येण स्वयंवरं कृत्वा अल्पायुषी: प्रजा नोत्पादनीया।

भाषार्थ-मनुष्यों को चाहिए कि जीवनपर्यन्त विद्वानों के मार्ग से चलकर उत्तम अवस्था को प्राप्त हों और ब्रह्मचर्य पर्यन्त बिना स्वयंवर विवाह करके कभी न्यून अवस्था की प्रजा सन्तानों को न उत्पन्न करे।

४. ‘‘भद्रं कर्णेभि: शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्ष-भिर्यजत्रा: स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवां सस्तनुभिव्र्यशेमहि देवहितं यदायु:’’  -(यजु. २५/२१)

भावार्थ-यदि मनुष्या: विद्वत्सङ्गे विद्वांसो भूत्वा सत्यंशृणुयु: सत्यं पश्येयु: जगदीश्वरं स्तुयुस्तर्हि ते दीर्घायुष: भवेयु:।

भाषार्थ-जो मनुष्य विद्वानों के सङ्ग में विद्वान् होकर सत्य सुनें, सत्य देखें और जगदीश्वर की स्तुति करें तो वे बहुत अवस्थावाले हों।

५. ‘‘अतिमैथुनेन ये वीर्यक्षयं कुर्वन्ति तर्हि ते सरोगा: निर्बुद्धयो भूत्वा दीर्घायुष: कदापि न भवन्ति’’

अतिमैथुन करके जो वीर्य का नाश करते हैं, वे रोगयुक्त निर्बुद्धि हो दीर्घायुवाले कभी नहीं होते। (यजु. २५/२२ ऋ.द.भाष्य)

६. ‘‘यथा रशनया बद्धा प्राणिन: इतस्तत: पलायितुं न शक्नुवन्ति तथा युक्त्या धृतमायुरकाले न क्षीयते न पलायते।’’

जैसे डोर से बन्धे हुए प्राणी इधर-उधर भाग नहीं सकते, वैसे युक्ति से धारण की हुई आयु अकाल में नहीं जाती। (यजु. २२/२ ऋ. द. भाष्य)

७. मनुष्या: आलस्यं विहाय सर्वस्य द्रष्टारं न्यायाधीशं परमात्मानं कत्र्तुमर्हा तदाज्ञा च मत्वा शुभानि कर्माणि कुर्वन्तो अशुभानि त्यजन्तो ब्रह्मचर्येण विद्यासुशिक्षे प्राप्योपस्थेन्द्रयनिग्रहेण वीर्यमुन्नीयाल्पमृत्यं ध्रन्तु। युक्ताहारविहारेण शतवार्षिकमायु प्राप्नुवन्तु। यथा मनुष्या: सुकर्मसु चेष्टन्ते तथा तथा पापकर्मतो बुद्धिर्निवर्तते। विद्या आयु: सुशीलता च वर्धन्ते।

मनुष्य आलस्य को छोड़ कर सब देखनेहारे न्यायाधीश परमात्मा और करने योग्य उसकी आज्ञा को मानकर शुभ कर्मों को करते हुए और अशुभ कर्मों को छोड़ते हुए ब्रह्मचर्य के सेवन से विद्या और अच्छी शिक्षा को पाकर उपस्थेन्द्रिय के रोकने से पराक्रम को बढ़ाकर अल्पायु को हटावें। युक्ताहार विहार से सौ वर्ष क ी आयु को प्राप्त होवें। जैसे-जैसे मनुष्य सुकर्मों में चेष्टा करते हैं, वैसे-वैसे ही पापकर्म से बुद्धि की निवृत्ति होती, विद्या आयु और सुशीलता बढ़ती है। यजु. ४०/२

८. अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ।। मनु. २/१२१।।

जो सदा नम्र, सुशील, विद्वान् और वृद्धों की सेवा करता है, उसके आयु, विद्या, कीर्ति और बल ये चार सदा बढ़ते हैं और जो ऐसा नहीं करते उनके आयु आदि नहीं बढ़ते।

९. दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दित:। दु:खभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरेव च।। मनु.

जो दुष्टाचारी पुरुष होता है, वह सर्वत्र व्याधित अल्पायु होता है।

१०. आचाराल्लभते ह्यायु:।। मनु.

धर्माचरण ही से दीर्घायु प्राप्त होती है।

११. हितोपचारमूलं जीवितमतो विपर्ययो हि मृत्यु:। चरक, वि. १-४१।।

जीवन हितकारी चिकित्सा पर है। इसके विरुद्ध चिकित्सा ठीक न होने पर मृत्यु होती है।

१२. द्विविधा तु खलु भिषजो भवन्ति अग्रिवेश। प्राणानां हि एके अभिसरा: हन्तारो रोगाणाम्। रोगाणां हि एके अभिसरो हन्तार: प्राणानामिति ।। चरक।।

हे अग्निवेश, दो प्रकार के वैद्य होते हैं, एक तो प्राणों को प्राप्त कराने वाले और रोगों को मारने वाले और दूसरे वे जो रोगों के लाने वाले और प्राणों को नष्ट करने वाले।

१३. अनशनं आयुह्र्रासकराणाम्।। चरक।।

आयु के ह्रास करनेवाले अनेक कारणों में से अनशन-भोजन न करना सब से प्रबल कारण है।

१४. ब्रह्मचर्यमायुष्याणाम्।। चरक।।

आयु के बढ़ाने वाले अनेक साधनों में से ब्रह्मचर्य सर्वोकृष्ट साधन है।

१५. जिसमें उपकारी प्राणियों की हिंसा अर्थात् जैसे एक गाय के दूध, घी, बैल, गाय आदि उत्पन्न होने से एक पीढ़ी में ४७५६०० मनुष्यों को सुख पहुँचता है, वैसे पशुओं को न तो मारें न मरने दें।

इन स्पष्ट प्रमाणों के लिखने के पश्चात् इनकी व्याख्या की आवश्यता नहीं। निडर जी वा अन्य आयु को निश्चत मानने वाले इन प्रमाणों को छूना ही नहीं चाहते। अतिविस्तृत वैदिक साहित्य में इन प्रमाणों के विरुद्ध आयु को निश्चित मानने वाला एक भी प्रमाण नहीं। आयु को निश्चित माननेवाले इन प्रमाणों के विरुद्ध युक्ति का आश्रय लेते हैं।

आयु को निश्चित माननेवाले ‘‘सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगा:’’ (योग. २-१३) इस एक मात्र सूत्र को उपस्थित करते हैं, किन्तु आयु को निश्चित बतलाने वाला इसमें एक शब्द भी नहीं। आयु और आयु की इयत्ता दोनों भिन्न-भिन्न हैं। आयु से जीवनकाल मात्र अभिप्रेत होता है, इयत्ता नहीं। आयु शब्द का अर्थ इयत्तापरक मानना अप्रामाणिक है।

मनुष्य की आयु को पहले कोई भी निश्चित नहीं कर सकता-यह एक उदाहरण से स्पष्ट हो जायेगा। मिट्टी के एक घड़े को लीजिए। उसकी आयु कोई नहीं बतला सकता, न ही कोई जान सकता है कि कितने काल तक सुरक्षित रहेगा और कब टूट-फूट जायेगा? निश्चितवादी यह कहते हैं कि मिट्टी के घड़़े में और शरीर में समानता नहीं है, किन्तु सूक्ष्मता से देखें तो समानता दिखती है। (पूर्व पक्ष के अनुसार जैसे मनुष्य की आयु निश्चित होती है, वैसे घड़े की भी निश्चित ही है। उनके पक्ष में यह दृष्टान्त ही नहीं बनेगा।) वास्तव में शरीर में मिट्टी के घड़े में कोई अन्तर नहीं। यदि कुछ अन्तर है तो यही है कि जीव शरीर के भीतर रहकर शरीर का प्रयोग करता है। शरीर का एवं घड़े का प्रयोग चेतन ही करता है। पूर्व पक्षानुसार घड़ा और शरीर दोनों भाग साधन हैं, इसीलिए दृष्टान्त विषम नहीं है। शरीर की आयु क्षण-क्षण में परिवर्तित होती है। यदि संयम से नीरोग रहता है तो शरीर दीर्घकाल तक रहने योग्य बनता है। असंयम से रोगी बनता रहता है तो शरीर की शक्ति क्षीण होती है। शरीर में दीर्घकाल तक रहने का सामथ्र्य न्यून होता जाता है। इस रूप में आयु घटती है। पौष्टिक आहार से आयु बढ़ती है, नीरस आहार से आयु घटती है। राग, द्वेष, ईष्र्या, चिन्ता, भय, शोक आदि से आयु घटती है तो आनन्द, उत्साह, मैत्री, निश्चिन्तता, धैर्य आदि से आयु बढ़ती है। इसका अपलाप नहीं किया जा सकता। जीव कर्म करने में स्वतन्त्र होने से उसके कर्मानुसार क्षण-क्षण में उसकी आयु परिवर्तित होती रहती है। यह कहना अयुक्त है कि परमात्मा पहले ही निश्चित आयु देता है।

निडर जी ने लिखा है कि ‘‘महर्षि दयानन्द से भी अधिक कोई ब्रह्मचारी हुआ क्या? तो आदित्य ब्रह्मचर्य के अनुसार उनकी चार सौ वर्ष की आयु क्यों न हुई? वे उन्सठ वर्ष की आयु में ही क्यों चले गए।’’

इससे प्रतीत होता है कि निडर जी अपने पक्ष के व्यामोह के कारण से सत्यासत्य के जानने में असमर्थ हैं। क्या निडर जी यह सिद्ध कर सकते हैं कि महर्षि दयानन्द सरस्वती को ५९ वर्ष ही जीवित रहना था? उनके अनुसार स्वामी दयानन्द जी की आयु निश्चित करते समय विषदाता को भी निश्चित किया होगा और समय पर विष देने के लिए भेजा भी होगा। स्वामी श्रद्धानन्द जी की आयु निश्चित करते समय मुसलमान के हाथ से गोली खाकर मरना भी निश्चित किया होगा। पं. लेखराम जी की आयु निश्चित की होगी। हत्यारे को भी निश्चित किया होगा। परमात्मा ने भारतवालों के लिए यह लिखा होगा कि अंग्रेजों के द्वारा पद दलित होकर नाना दु:खों को भोगते रहेंगे।

निडर जी ने वेदों में विद्यमान प्रार्थनाओं को झूठा लिख दिया है। वास्तव में निडर जी का यह लेख साहसमात्र है। यदि ऐसे व्यक्ति वेद पर लेखनी उठावें तो वेद के साथ अनर्थ के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा। क्या परमात्मा ने मनुष्यों के लिए जो आशीर्वाद दिया है, वा मनुष्यों को प्रार्थना का आदेश दिया है, यह सारा व्यर्थ है? निडर जी ने यह आक्षेप किया है कि ‘यदि ईश्वर किसी की प्रार्थना या अशीर्वाद को सुनने लगे तो ईश्वर का कोई भी न्याय या व्यवस्था नहीं चल सकती।’

इससे प्रतीत होता है कि प्रार्थना का अर्थ निडर जी ने समझा ही नहीं। परमात्मा ने प्रार्थना कराने का आदेश दिया है, असम्भव के लिए नहीं। असम्भव की प्रार्थना का उपदेश करना अल्पज्ञ का काम है, सर्वज्ञ का नहीं।

निडर जी ने आयु को अनिश्चित मानना मूर्खता का काम लिखा है। यदि निडर जी निष्पक्ष होकर विचार करें तो ज्ञात हो जायेगा कि उनकी मान्यता वेद-विरुद्ध, वैदिक-साहित्य के विरुद्ध है। आश्चर्य इस बात का है कि वे अपनी मान्यता को सत्य मानते हैं, वेदानुकूल मानते हैं, जबकि उनकी विचारने की शैली अदार्शनिक है। न्याय विरुद्ध है। परमात्मा उनको दार्शनिक प्रक्रिया से विचारने की शक्ति दे।

 

वेद एक है अथवा चार? डॉ धर्मवीर

प्रस्तुत सम्पादकीय प्रो. धर्मवीर जी का अन्तिम सम्पादकीय है, यह एक शोधपरक लेख है। इसको पढ़कर आचार्यश्री की विद्वत्ता स्पष्ट दिखाई देती है। अब वे हमारे मध्य में नहीं हैं, पर उनके दार्शनिक जीवनोपयोगी उपदेश परोपकारी के पाठकों को मिलते रहेंगे।                                                                 -सम्पादकहिन्दू समाज में एक मान्यता है कि वेद पहले एक ही था। महर्षि व्यास ने उसके चार भाग करके चार वेद बनाये। इसलिये बहुत सारे लोग महर्षि वेद व्यास को वेदों का कर्त्ता मानते हैं। वेद के एक होने और चार होने का क्या आधार है? इस पर विचार करने पर इसके अनुसार हर कल्प में व्यास के होने और वेद के विभाजन से वेद-व्याख्यान के रूप में ब्राह्मण एवं शाखा ग्रन्थों का उल्लेख होना संगत है।

वस्तुस्थिति से वेद के विषय और जिन ऋषियों पर वेद का प्रकाश हुआ है, उनका उल्लेख प्रारम्भ से ही देखने में आता है-

. महीधर अपने यजुर्वेद-भाष्य के आरम्भ में लिखता है-

तत्रादौ ब्रह्मपरम्परया प्राप्तं वेदं वेदव्यासो मन्दमतीन् मनुष्यान् विचिन्त्य तत्कृपया चतुर्धा व्यस्य ऋग्यजुः सामाथर्वाख्यांश्चतुरो वेदान् पैल वैशम्यायनजैमिनिसुमन्तुभ्यः क्रमादुपदिदेश।

अर्थात् ब्रह्मा की परम्परा से प्राप्त वेद को मनुष्यों की सुविधा के लिये व्यास ने चार भागों में बाँट कर अपने चार शिष्य पैल, वैशम्पायन, जैमिनि व सुमन्तु को उपदेश किया।

. महीधर से पूर्ववर्ती तैत्तिरीय संहिता के भाष्यकार भट्ट भास्कर ने अपने भाष्य के आरम्भ में लिखा है-

पूर्वं भगवता व्यासेन जगदुपकारार्थमेकीभूय स्थिता वेदाः व्यस्ताः शाखाश्च परिछिन्नाः।

अर्थात् पहले जो वेद एक रूप में थे, जगदुपकार के लिये व्यास ने उनका विभाग किया और शाखाओं में बाँटा।

. भट्ट भास्कर से पूर्व निरुक्त के भाष्यकार आचार्य दुर्ग ने निरुक्त १/२० की वृत्ति में लिखा है-

वेदं तावदेकं सन्तमतिमहत्त्वाद् दुरध्येयमनेकशाखा भेदेन समाम्नासिषुः। सुखग्रहणाय व्यासेन समाम्नातवन्तः।।

अर्थात् वेद एक होने से बड़ा और अध्ययन में कठिन होने के कारण सुविधा के लिये व्यास ने शाखा-भेद से उसके अनेक विभाग किये।

इस कथन का मूल विष्णु पुराण में इस प्रकार मिलता है-

जातुकर्णोऽभवन्मत्तः कृष्णद्वैयापनस्ततः।

अष्टाविंशतिरित्येते वेदव्यासाः पुरातनाः।।

एको वेदश्चतुर्धा तु यैः कृतो द्वापरादिषु।

– विष्णु पुराण ३/३/१९-२०

इसी प्रकार मत्स्य पुराण में उल्लेख मिलता है-

वेदश्चैकश्चतुर्धा तु व्यख्यते द्वापरादिषु।

– मत्स्य पुराण १४४/११

अर्थात् प्रत्येक द्वापर के अन्त में एक ही वेद चतुष्पाद चार भागों में विभक्त किया जाता है। पुराण के अनुसार अब क्यों कि अट्ठाईसवाँ कलियुग चल रहा है, तो यह वेद विभाजन २८ बार हो चुका है। इन सभी विभाग करने वालों का नाम व्यास ही होता है।

श्वेताश्वतर उपनिषद् में-

यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो

वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।।

-६/१८

जो प्रथम ब्रह्मा को उत्पन्न करता है और उसके लिये वेदों को दिलवाता है।

वेदान्त दर्शन का भाष्य करते हुए शङ्कराचार्य लिखते हैं-

ईश्वराणां हिरण्यगर्भादीनां वर्तमानकल्पादौ प्रादुर्भवतां परमेश्वरानुगृहीतानां सुप्तप्रबुद्धवत् कल्पान्तर-व्यवहारानुसन्धानोपपत्तिः। तथा च श्रुतिः-यो ब्रह्माणम्।।

– वेदान्त सूत्र भाष्य १/३/३० तथा १/४/१

आचार्य शंकर वेदात्पत्ति हिरण्यगर्भ से कहते हैं, उनके मत में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा है। इस ब्रह्मा की बुद्धि में कल्प के आदि में परमेश्वर की कृपा से वेद प्रकाशित होते हैं।

वेदान्त सूत्र के शांकर भाष्य की व्याख्या करते हुए श्री गोविन्द ने इस प्रकार लिखा है-

पूर्वं कल्पादौ सृजति तस्मै ब्रह्मणे प्रहिणोति= गमयति= तस्य बुद्धौ वेदानाविर्भावयति।

– वेदा. १/३/३०

इसी सूत्र की व्याख्या पर आनन्दगिरि ने लिखा है-

वि पूर्वो दधातिः करोत्यर्थः।

पूर्वं कल्पादौ प्रहिणोति ददाति।

इन सभी स्थानों पर वेद का बहुवचन में प्रयोग किया गया। अतः चारों वेद की उत्पत्ति प्रारम्भ से ही है। व्यास द्वारा चार भागों में विभक्त किया गया, यह कथन सत्य नहीं है।

. सर्वप्रथम वेद में ही चार वेदों का उल्लेख पाया जाता है। ऋग्वेद में-

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे

छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत।।

– १०/९०

. इसी प्रकार यजुर्वेद के पुरुषाध्याय में भी सभी वेदों का उल्लेख मिलता है।

. सामवेद में वेद का उल्लेख मिलता है।

. अथर्ववेद का मन्त्र ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदात्पत्ति प्रकरण में ऋषि दयानन्द ने उद्धृत किया है।

अथर्वाङ्गिरसो मुखम्।

. ब्राह्मण ग्रन्थों में-

अग्नेर्ऋग्वेदोः वायो यजुर्वेदः सूर्यात् सामवेदः।

. उपनिषदों में चारों वेदों की चर्चा आती है। बृहदारण्यक में याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद में –

तस्य निश्वसितमेतद् ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो अथर्ववेदः।

छान्दोग्य में सनत्कुमार और नारद के संवाद में नारद सनत्कुमार को अपनी विद्या का परिचय देते हुए कहते हैं-

ऋग्वेदं भगवोऽध्योमि,

यजुर्वेदमध्येमि सामवेदमथर्ववेदं।

तैत्तिरीय शिक्षा वल्ली में साम की चर्चा है-

साम्ना शंसन्ति यजुभिर्ययजन्ति।

मुण्डक में अथर्ववेद का विस्तार से उल्लेख मिलता है-

ब्रह्मा देवानां….।

यहाँ पर ब्रह्म विद्या को अथर्व विद्या का विषय बताया है और ऋषियों की लम्बी परम्परा का उल्लेख किया है।

. रामायण में किष्किन्धा काण्ड में राम-लक्ष्मण के साथ हनुमान् के प्रसंग में लक्ष्मण राम से हनुमान् की योग्यता का वर्णन करते हुए कहते हैं-

नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः।

नासामवेदविदुषः शक्यमेवं प्रभाषितुम्।।

नूनं व्याकरणं कत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।

बहुव्याहरतानेन न किंचिदपशब्दितम्।।

न मुखे नेत्रयोर्वोपि ललाटे च भ्रुवोस्तथा।

अन्येष्वपि च गात्रेषु दोषः संविदितः क्वचित् अस्थिरमसिन्दिरधमविलम्बितमद्रुतम्।

उरःस्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यगे स्वरे।।

संस्कार क्रम सम्पन्नामद्रुतामविलम्बिताम्।

उच्चारयति कल्याणीं वाचं हृदयहरिणीम्।।

अनया चित्रया वाचा त्रिस्थानव्यञ्जनस्थया कस्य नाराध्यते चित्तमुद्यतासेररेरपि।।

– कि.का. ३/२८-३३

अत्राभ्युदाहरन्तीमां गाथां नित्यं क्षमावहाम्।

गीताः क्षमावतां कृष्णे काश्यपेन महात्मना।।

क्षमा धर्मः क्षमा यज्ञः क्षमा वेदाः क्षमा श्रुतम्।

यस्तमेवं विजानाति स सर्वं क्षन्तुर्महति।।

– महाभारत वन पर्व २९/३८-३९

इन श्लोकों में महाराज युधिष्ठिर द्रौपदी को उपदेश दे रहे हैं, महात्मा कश्यप की गाई गाथा का उल्लेख कर बता रहे हैं, क्षमा ही वेद हैं, यहाँ वेद का बहुवचन में प्रयोग किया गया है।

ऋचो बह्वृच मुख्यैश्च प्रेर्यमाणाः पदक्रमैः।

शुश्राव मनुजव्याघ्रो विततेष्विह कर्मसु।।

अथर्ववेदप्रवराः पूर्वयाज्ञिकसंमताः।

संहितामीरयन्ति स्म पदक्रमयुतां तु ते।।

-महाभारत आदि पर्व अ. ६४/३१, ३३

जब दुष्यन्त कण्व के आश्रम में प्रवेश करते हैं, तब आश्रम के वातावरण में ऋग्वेद के विद्वान् पद और क्रम से ऋचाओं का पाठ कर रहे थे। अथर्ववेद के विद्वान् पद व क्रम युक्त संहिता का पाठ पढ़ रहे थे।

इससे पता लगता है कि दुष्यन्त के काल में अथर्ववेद संहिता का क्रम पाठ व पद पाठ पढ़ा जाता था।

महाभारत के अनेक प्रसंग हैं, जिनमें वेदों के लिये बहुवचन का प्रयोग मिलता है।

पुरा कृतयुगे राजन्नार्ष्टिषेणो द्विजोत्तमः।

वसन् गुरुकुले नित्यं नित्यमध्ययने रतः।।

तस्य राजन् गुरुकुले वसतो नित्यमेव च।

समाप्तिं नागमद्विद्या नापि वेदा विशांपते।।

– महा. शल्य पर्व अध्याय ४१/३-४

अर्थात् प्राचीन काल में कृतयुग में आर्ष्टिषेण गुरुकुल में पढ़ता था, तब वह न विद्या समाप्त कर सका, न ही वेदों को समाप्त कर सका।

वेदैश्चतुर्भिः सुप्रीताः प्राप्नुवन्ति दिवौकसः।

हव्यं कव्यं च विविधं निष्पूर्तं हुतमेव च।।

– महा. द्रोण पर्व अध्याय ५१/२२

अर्थात् राम के राज्य में चारों वेद पढ़े हुये विद्वान् लोग थे।

ब्रह्मचर्येण कृत्स्नो मे वेदः श्रुतिपथं गतः।

– महा. आदि पर्व ७६/१३

इसमें ययाति ने देवयानी से कहा है- मैंने ब्रह्मचर्य पूर्वक सम्पूर्ण वेदों को पढ़ा है।

राज्ञश्चाथर्ववेदेन सर्वकर्माणि कारयेत्।

– महा. शान्ति पर्व ७/५

भीष्म ने उशना का प्राचीन श्लोक उद्धृत कर राजा पुरोहित से अथर्ववेद द्वारा सारे कार्य करावे। यहाँ अथर्ववेद का स्पष्टतः उल्लेख है।            – धर्मवीर

स्तुता मया वरदा वेदमाता- डॉ धर्मवीर

 

वेद जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण रखने का सन्देश देता है। इस मन्त्र में महिला के द्वारा कहा जा रहा है। प्रतिदिन सूर्योदय के साथ ही प्राणियों का भाग्योदय होता है। प्रत्येक सूर्योदय नये जीवन का सन्देश लेकर आता है। मनुष्य को अपने जीवन से निराशा को समाप्त करना चाहिए। निराशा असफलता को स्वीकार करने का दूसरा नाम है। मनुष्य के सभी मनोरथ पूर्ण नहीं हो पाते। मनुष्य को असफलता मिलती है तो निराश होने की सभावना होती है, किन्तु यदि दूसरा-तीसरा अवसर उसके सामने होता है तो वह निराशा की ओर न जाकर फिर से प्रयत्न करने के लिये तैयार हो जाता है। वेद कहता है- मनुष्य को कितनी भी बार असफलता क्यों न मिले, हर नया दिन एक नई सफलता का अवसर लेकर आता है, इसीलिये मन्त्र में ऋषिवर ने कहा है- यह सूर्योदय मात्र सूर्योदय नहीं है, यह मेरे सौभाग्य का उदय है। प्रतिदिन सूर्योदय के साथ मनुष्य को निराशा छोड़कर नये उत्साह और विश्वास के साथ नये दिन का प्रारभ करना चाहिए।

एक महिला की सफलता उसके साथ जीवन बिताने वाले की योग्यता से जुड़ी होती है। मन्त्र कहता है- अहं तद् विद्वला– मैंने वर को प्राप्त कर लिया है। संस्कृत भाषा के शदों में अद्भुत शक्ति है- अर्थ को अपने अन्दर समाने की। होने वाले पति की विवाह संस्कार के समय वर संज्ञा होती है। वर शब्द  का मूल अर्थ चुना गया होता है। वर का एक अर्थ श्रेष्ठ भी होता है, व्यक्ति जब बहुतों में से चुनाव करता है, तो वह श्रेष्ठ का ही चुनाव करता है, इसी कारण विवाह के समय विवाह कर रहे युवक की संज्ञा वर होती है। जब विवाह में युवक को वर कहते हैं, तो उसी समय युवती की संज्ञा वधू होती है। वधू शब्द  का अर्थ है- इसे जीवन के लक्ष्य तक पहुँचाना है अथवा जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के साथ लेना है, जिसके साथ रखने का उत्तरदायित्व वर स्वीकार करता है। वधू को साथ रखने का जिसमें सामर्थ्य है, ऐसा चुने गये व्यक्ति की संज्ञा वर है। इससे भी रहस्य की बात है, वर शब्द  बताता है कि उसे किसी ने अपने लिए चुना है, स्वीकार किया है, अतः चुनने का अधिकार वर का नहीं, वधू का है। वर तो वधू का चयन स्वीकार करता है। चुनाव की प्रक्रिया को स्वयंवर कहते हैं। स्वयंवर में वर तो युवक है, परन्तु चुनने का अधिकार युवती का है, उस चुनाव से सहमत होना, न होना, युवक की स्वतन्त्रता है। जब अनेक युवक एक युवती को प्राप्त करने में इच्छुक होते हैं, तो चयन का अधिकार युवती का होता है। भारतीय इतिहास में अनेकशः स्वयंवर के उदाहरण मिलते हैं, द्रौपदी स्वयंवर है, सीता स्वयंवर है। कालिदास के प्रसिद्ध महाकाव्य में अज- इन्दुमति स्वयंवर का चित्रण बड़ा रोचक है। स्वयंवर के समय देश के विभिन्न भागों से इन्दुमति से विवाह करने के इच्छुक राजकुमार स्वयंवर स्थल पर उपस्थित होते हैं। स्वयंवर के समय इन्दुमति की दासी सुनन्दा राजकुमारी इन्दुमति के साथ चलती है और प्रत्येक राजकुमार के सामने खड़ी होकर, राजकुमार के गुण, वैभव, विद्या, वीर्य, पराक्रम का वर्णन करती है। राजकुमारी इन्दुमति द्वारा अस्वीकृत करने पर वह अगले राजकुमार के सामने पहुँच जाती है। इस चित्रण को कालिदास ने अपने काव्य में बहुत सुन्दर ढंग से बाँधा है। वे कहते हैं-

संचारिणी दीपशिखेव रार्त्रो ये ये व्यतीयाय पतिंवरासा

नरेन्द्र मार्गट्ट इव प्रपेदे विवर्ण भावं स स भूमिपालः।।

अर्थात् जब इन्दुमति राजकुमारों के समुख वरमाला लेकर उपस्थित होती थी, तब राजकुमार का मुख कान्ति से दैदीप्यमान हो जाता था, जैसे चलते हुए दीपक के किसी महल के समुख आने पर भवन की भव्यता प्रकाशित होती है, परन्तु जब राजकुमारी राजकुमार के सामने से बिना वरण किये आगे बढ़ जाती थी तो उस राजकुमार की कान्ति वैसी मलिन पड़ जाती थी, जैसे दीपक के भवन के सामने से निकल जाने पर, कितना भी विशाल भवन हो- अन्धकार में विलुप्त हो जाता है।

इस प्रकार महिला के अधिकारों पर एक सहज विचार इन शदों में प्रतिबिबित होता है। आज महिला के अधिकार और कर्त्तव्य का निश्चय पुरुष करना चाहता है, तब हमें वेद के इस सन्देश पर ध्यान देना चाहिये।

वेद प्रत्येक मनुष्य को ज्ञान का अधिकार देता है। ज्ञान प्राप्त करके ही मनुष्य अपने हित-अहित का विचार कर सकता है। यदि महिला शिक्षित नहीं होगी, तो निर्णय और विचार कैसे कर सकेगी? इन मन्त्रों में अपने अधिकार, अपने कर्त्तव्य, अपनी योग्यता के कारण जो आत्मविश्वास व्यक्ति के अन्दर आता है, उसका स्पष्ट पता चलता है। अतः तद् विद्वला पतिम् अर्थात् मैंने अपने योग्य पति को प्राप्त कर लिया है, यह कथन उचित ही है।

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता- डॉ धर्मवीर जी

 

देवा इवामृतं रक्षमाणाः सायं प्रातः सौयसो वोस्त।

संज्ञान सूक्त के अन्तिम मन्त्र की दूसरी पंक्ति में दो बातों पर बल दिया गया है। एक में कहा है कि परिवार में प्रेम का वातावरण सदा ही रहना चाहिए। यहाँ दो पद पढ़े गये हैं, सायं प्रातः, अर्थात् हमारे परिवारिक वातावरण में प्रेम का प्रवाह प्रातः से सायं तक और सायं से प्रातः तक प्रवाहित होते रहना चाहिए। यह प्रेम सौमनस्य से प्रकाशित होता है। हमारे मन में सद्भाव का प्रवाह होगा, सद्विचारों की गति होगी तो सौमनस्य का भाव बनेगा। प्रेम के लिये शारीरिक पुरुषार्थ तो होता ही है। जब हम किसी की सहायता करते हैं, सेवा करते हैं, छोटों से स्नेह और बड़ों का आदर करते हैं, तब हमारे परिवार में सौमनस्य का स्वरूप दिखाई पड़ता है।

हम यदि सोचते हैं कि प्रेम हमारे परिवार के सदस्यों में स्वतः बना रहेगा, कोई हमारा भाई है, बेटा है, पिता या पुत्र है, इतने मात्र से परस्पर प्रेम उत्पन्न हो जायेगा, यह अनिवार्य नहीं है। हम पारिवारिक सबन्धों में प्रेम की सहज कल्पना करते हैं, परन्तु परिवार का प्राकृतिक सबन्ध प्रेम उत्पन्न करने की सहज परिस्थिति है। इसमें प्रेम के अंकुर निकलते हैं, जिन्हें विकसित किया जा सकता है।

प्रेम का अंकुरण विचारों से होता है, मनुष्य अपनी सेवा सहायता चाहता है, अपना आदर, समान चाहता है, अपनी प्रशंसा की इच्छा करता है। यह विचार हमें सुख देता है, कोई व्यक्ति दृष्टि सेवा सहायता करता है, समान देता है। ऐसे सुख की कामना सभी में होती है, अतः जो भी किसी के प्रति ऐसा करने का भाव रखेगा, उसके मन में इसी प्रकार आदर के भाव उत्पन्न होंगे। आप किसी का आदर करते हैं, दूसरा व्यक्ति भी आपका आदर करता है। आप किसी की सहायता करते हैं, दूसरे व्यक्ति के मन में भी आपके प्रति सहानुभूति उत्पन्न होती है। आवश्यकता पड़ने पर वह भी आपकी सेवा के लिये तत्पर रहता है।

मनुष्य के मन में स्वार्थ की पूर्ति की इच्छा स्वाभाविक होती है। स्वार्थ पूर्ण करने के लिये उपदेश करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। परोपकार, धर्म, सेवा, आदर आदि में कार्य बुद्धिपूर्वक सोच-विचार कर ही किये जा सकते हैं, अतः ये विचार हमारे हृदय में सदा बने रहें, इसका प्रयत्न करना पड़ता है। इसी के उपाय के रूप में कहा गया है कि हमें सौमनस्य की निरन्तर रक्षा करनी होती है, तभी सौमनस्य सपूर्ण समय बना रह सकता है।

सौमनस्य बनाना पड़ता है, उसके लिये बहुत सावधानी सतर्कता की आवश्यकता होती है। मनुष्य में स्वार्थ की वृत्तियाँ सदा सक्रिय रहती हैं। उनपर नियन्त्रण रखने के लिये सदा सजग रहने की आवश्यकता है। इसके लिये वेद में उदाहरण दिया गया है, जैसे देवता लोग अमृत की रक्षा में तत्पर रहते हैं, वैसे मनुष्य को भी अपने वातावरण में सदाव सौमनस्य की रक्षा करने के लिये तत्पर रहना चाहिए। पुराणों में कथा आती है- देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र मन्थन किया और सोलह पदार्थ प्राप्त किये। जब समुद्र से अमृत निकला तो देवताओं ने उस पर अपना अधिकार कर लिया। इस बात का जैसे ही असुरों को ज्ञान हुआ, वे अमृत प्राप्त करने के लिये देवताओं से संघर्ष करने लगे। जहाँ-जहाँ इस संघर्ष के कारण अमृत के बिन्दु गिरे, वहाँ-वहाँ अच्छी-अच्छी चीजें बनीं, उत्पन्न हुईं उन पदार्थों में कोई न्यूनता है तो असुरों के स्पर्श के कारण, जैसे लशुन की अमृत से उत्पत्ति मानी गई है, परन्तु इसमें दुर्गन्ध का कारण इससे असुरों का स्पर्श कहा गया है।

प्रकृति में देवता निरन्तर नियमपूर्वक कार्य करते हैं, तभी संसार नियमित रूप से चल रहा है। यदि एक क्षण के लिये भी देवता अपना काम छोड़ दें तो संसार में प्रलय उत्पन्न हो जायेगी। हम सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, वायु आदि को देखकर इस बात का निश्चय भली प्रकार कर सकते हैं। इसी कारण व्रत धारण करते समय देवताओं के व्रत धारण को उदाहरण के रूप में स्मरण किया जाता है, ‘अग्ने व्रतपते’ हे अग्नि! तू व्रत पति है तेरा व्रत भी नहीं टूटता मैं भी तेरे समान व्रत पति बनूँ कहा गया है।

देवताओं का एक नाम अनिमेष है। वे कभी पलक भी नहीं झपकाते, सदा सतर्क, सावधान रहते हैं। वैसे भी परिवार समाज में सौमस्य बनाये रखने के लिये मनुष्य को सदा सावधान रहना चाहिए, सौमनस्य बना रह सकता है। देवताओं का देवत्व अमृत से ही है, अमृत नहीं है तो उनका देवत्व ही समाप्त हो जाता है। और अमरता है- व्रत न टूटना। व्रत टूटते ही मृत्यु है…….. हमें देवताओं के समान अपने सदविचारों की सदा रक्षा करनी चाहिये, तभी सौमनस्य की प्राप्ति सभव है।

अम्बेडकर के वेदों पर आक्षेप

भीम राव अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक “सनातन धर्म में पहेलियाँ” (Riddles In Hinduism) में वेदों पर अनर्गल आरोप लगाये हैं और अपनी अज्ञानता का परिचय दिया है। अब चुंकि भीम राव को न तो वैदिक संस्कृत का ज्ञान था और न ही उन्होनें कभी आर्ष ग्रंथों का स्वाध्याय किया था, इसलिये उनके द्वारा लगाये गये अक्षेपों से हम अचंभित नहीं हैं। अम्बेडकर की ब्राह्मण विरोधी विचारधारा उनकी पुस्तक में साफ झलकती है।
इसी विचारधारा का स्मरण करते हुए उन्होनें भारतवर्ष में फैली हर कुरीति का कारण भी ब्राह्मणों को बताया है और वेदों को भी उन्हीं की रचना बताया है। अब इसको अज्ञानता न कहें तो और क्या कहें? अब देखते हैं अम्बेडकर द्वारा लगाये अक्षेप और वे कितने सत्य हैं।
अम्बेडकर के अनुसार वेद ईश्वरीय वाणी नहीं हैं अपितु इंसाने मुख्यतः ब्राह्मणों द्वारा रचित हैं। इसके समर्थन में उन्होनें तथाकथित विदेशी विद्वानों के तर्क अपनी पुस्तक में दिए हैं और वेदों पर भाष्य भी इन्हीं तथाकथित विद्वानों का प्रयोग किया है। मुख्यतः मैक्स मुलर का वेद भाष्य।
उनके इन प्रमाणों में सत्यता का अंश भर भी नहीं है। मैक्स मुलर, जिसका भाष्य अपनी पुस्तक में अम्बेडकर प्रयोग किया है, वही मैक्स मुलर वैदिक संस्कृत का कोई विद्वान नहीं था। उसने वेदों का भाष्य केवल संस्कृत-अंग्रेजी के शब्दकोश की सहायता से किया था। अब चुंकि उसने न तो निरुक्त, न ही निघण्टु और न ही अष्टाध्यायी का अध्यन किया था, उसके वेद भाष्य में अनर्गल और अश्लील बातें भरी पड़ी हैं। संस्कृत के शून्य ज्ञान के कारण ही उसके वेद भाष्य जला देने योग्य हैं।
अब बात आती है कि वेद आखिर किसने लिखे? उत्तर – ईश्वर ने वेदों का ज्ञान चार ऋषियों के ह्रदय में उतारा। वे चार ऋषि थे – अग्नि, वायु, आदित्य और अंगीरा। वेदों की भाषा शैली अलंकारित है और किसी भी मनुष्य का इस प्रकार की भाषा शैली प्रयोग कर मंत्र उत्पन्न करना कदापि सम्भव नहीं है। इसी कारण वेद ईश्वरीय वाणी हैं।
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः | ब्रह्मराजन्याभ्या शूद्राय चार्य्याय च | स्वाय चारणाय च प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयं मे कामः समृध्यतामुपमादो नमतु|| (यजुर्वेद 26.2)
परमात्मा सब मनुष्यों के प्रति इस उपदेश को करता है कि यह चारों वेदरूप कल्याणकारिणी वाणी सब मनुष्यों के हित के लिये मैनें उपदेश की है, इस में किसी को अनधिकार नहीं है, जैसे मैं पक्षपात को छोड़ के सब मनुष्यों में वर्त्तमान हुआ पियारा हूँ, वैसे आप भी होओ | ऐसे करने से तुम्हारे सब काम सिद्ध होगें ||
डॉ अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक में दर्शन ग्रंथों से भी प्रमाण दिये हैं जिसमें उन्होनें वेदों में आंतरिक विरोधाभास की बात कही है। अम्बेडकर के अनुसार महर्षि गौतम कृत न्याय दर्शन के 57 वे सुत्र में वेदों में आंतरिक विरोधाभास और बली का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार महर्षि जैमिनी कृत मिमांसा दर्शन के पहले अध्याय के सुत्र 28 और 32 में वेदों में जीवित मनुष्य का उल्लेख किया गया है। ऐसा अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक में वर्णन किया है परंतु ये प्रमाण कितने सत्य हैं आइये देखते हैं।
पहले हम न्याय दर्शन के सुत्र को देखते हैं। महर्षि गौतम उसमें लिखते हैं:
तदप्रामाण्यमनृतव्याघातपुनरुक्तदोषेभ्यः |58|
(पूर्वपक्ष) मिथ्यात्व, व्याघात और पुनरुक्तिदोष के कारण वेदरूप शब्द प्रमाण नहीं है।
न कर्मकर्त साधनवैगुण्यात् |59|
(उत्तर) वेदों में पूर्व पक्षी द्वारा कथित अनृत दोष नहीं है क्योंकि कर्म, कर्ता तथा साधन में अपूर्णता होने से वहाँ फलादर्शन है।
अभ्युपेत्य कालभेदे दोषवचनात् |60|
स्वीकार करके पुनः विधिविरुद्ध हवन करने वाले को उक्त दोष कहने से व्याघात दोष भी नहीं है।
अनुवादोपपत्तेश्च |61|
सार्थक आवृत्तिरूप अनुवाद होने से वेद में पुनरुक्ति दोष भी नहीं है।
अतः इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि वेदों में किसी प्रकार का कोई दोष नहीं है और अम्बेडकर के न्याय दर्शन पर अक्षेप पूर्णतः असत्य हैं।
अब मिमांसा दर्शन के सुत्र देखते हैं जिन पर अम्बेडकर ने अक्षेप लगाया है:
अविरुद्धं परम् |28|
शुभ कर्मों के अनुष्ठान से सुख और अशुभ कर्मों के करने से दुःख होता है।
ऊहः |29|
तर्क से यह भी सिद्ध होता है कि वेदों का पठन पाठन अर्थ सहित होना चाहिये।
अपि वा कर्तृसामान्यात् प्रमाणानुमानं स्यात् |30|
इतरा के पुत्र महिदास आदि के रचे हुए ब्राह्मण ग्रंथ वेदानुकुल होने से प्रमाणिक हो सकते हैं।
हेतुदर्शनाच्च |31|
ऋषि प्रणीत और वेदों की व्याख्या होने के कारण ब्राह्मण ग्रंथ परतः प्रमाण हैं।
अपि वा कारणाग्रहणे प्रयुक्तानि प्रतीयेरन् |32|
यदि ब्राह्मण ग्रंथ स्वतः प्रमाण होते तो वेदरूप कारण के बिना वे बिना वेद स्वतंत्र रूप से प्रयुक्त प्रतीत होने चाहिये थे, परंतु ऐसा नहीं है।
अतः इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि वेदों में कहीं भी किसी जीवित मनुष्य का उल्लेख नहीं किया गया है। अतः यह अक्षेप भी अम्बेडकर का असत्य साबित होता है।
प्रिय पाठकों, अम्बेडकर ने न तो कभी आर्ष ग्रंथ पढ़े थे और न ही उन्हें वैदिक संस्कृत का कोई भी ज्ञान था। अपनी पुस्तक में केवल उन्होनें कुछ तथाकथित विदेशी विद्वानों के तर्क रखे थे जो कि पूर्णतः असत्य हैं। अम्बेडकर ने ऋग्वेद में आये यम यमी संवाद पर भी अनर्गल आरोप लगाये हैं जिनका खण्डन हम यहाँ कर चुके हैं: यम यमी संवाद के विषय में शंका समाधान
अब पाठक गण स्वंय निर्णय लेवें और असत्य को छोड़ सत्य का ग्रहण करें और हमेशा याद रखें:
वेदेन रूपे व्यपिबत्सुतासुतौ प्रजापतिः| ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपानम् शुक्रमन्धसऽइन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं मधु || (यजुर्वेद 19.78)

 

वेदों को जाननेवाले ही धर्माधर्म के जानने तथा धर्म के आचरण और अधर्म के त्याग से सुखी होने को समर्थ होते हैं ||

सोम रस ओर शराब

कई पश्चमी विद्वानों की तरह भारतीय विद्वानों की ये आम धारणा है ,कि सोम रस एक तरह का नशीला पदार्थ होता है । ऐसी ही धारणा डॉ.अम्बेडकर की भी थी ,,डॉ.अम्बेडकर अपनी पुस्तक रेवोलुशन एंड काउंटर  रेवोलुशन इन असिएन्त इंडिया मे निम्न कथन लिखते है:-ambedkar

यहाँ अम्बेडकर जी सोम को वाइन कहते है ।लेकिन शायद वह वेदों मे सोम का अर्थ समझ नही पाए,या फिर पौराणिक इन्द्र ओर सोम की कहानियो के चक्कर मे सोम को शराब समझ बेठे ।

सोम का वैदिक वांग्मय मे काफी विशाल अर्थ है ,सोम को शराब समझने वालो को शतपत के निम्न कथन पर द्रष्टि डालनी चाहिए जो की शराब ओर सोम पर अंतर को स्पष्ट करता है :-

शतपत (5:12 ) मे आया है :-सोम अमृत है ओर सूरा (शराब) विष है ..

ऋग्वेद मे आया है :-” हृत्सु पीतासो मुध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् ।।

अर्थात सुरापान करने या नशीला पदार्थ पीने वाला अक्सर उत्पाद मचाते है ,जबकि सोम के लिए ऐसा नही कहा है ।

वास्तव मे सोम ओर शराब मे उतना ही अंतर है जितना की डालडा या गाय के घी मे होता है ,,निरुक्त शास्त्र मे आया है ”  औषधि: सोम सुनोते: पदेनमभिशुण्वन्ति(निरूकित११-२-२)” अर्थात सोम एक औषधि है ,जिसको कूट पीस कर इसका रस निकलते है । लेकिन फिर भी सोम को केवल औषधि या कोई लता विशेष समझना इसके अर्थ को पंगु बना देता है ।

सोम का अर्थ बहुत व्यापक है जिसमे से कुछ यहाँ बताने का प्रयास किया है :-

कौषितिकी ब्राह्मणों उपनिषद् मे सोम रस का अर्थ चंद्रमा का रस अर्थात चंद्रमा से आने वाला शीतल प्रकाश जिसे पाकर औषधीया पुष्ट होती है किया है ।

शतपत मे ऐश्वर्य को सोम कहा है -“श्री वै सोम “(श॰4/1/39) अर्थात ऐश्वर्य सोम है ।

शतपत मे ही अन्न को भी सोम कहा है -” अन्नं वै सोमः “(श ॰ 2/9/18) अर्थात इस अन्न के पाचन से जो शक्ति उत्पन्न होती है वो सोम है । कोषितिकी मे भी यही कहा है :-“अन्न सोमः”(कौषितिकी9/6)

ब्रह्मचर्य पालन द्वारा वीर्य रक्षा से उत्पन्न तेज को सोम कहा है .शतपत मे आया है :-“रेतो वै सोमः”(श ॰ 1/9/2/6)अर्थात ब्रहमचर्य से उत्पन्न तेज (रेत) सोम है .कौषितिकी मे भी यही लिखा है :-“रेतः सोम “(कौ॰13/7)

वेदों के शब्दकोष निघुंट मे सोम के अंनेक पर्यायवाची मे एक वाक् है ,वाक् श्रृष्टि रचना के लिए ईश्वर द्वारा किया गया नाद या ब्रह्मनाद था ..अर्थात सोम रस का अर्थ प्रणव या उद्गीत की उपासना करना हुआ । वेदों ओर वैदिक शास्त्रों मे सोम को ईश्वरीय उपासना के रूप मे बताया है ,जिनमे कुछ कथन यहाँ उद्रत किये है :-

तैतरिय उपनिषद् मे ईश्वरीय उपासना को सोम बताया है ,ऋग्वेद (10/85/3) मे आया है :-”  सोमं मन्यते पपिवान्सत्सम्पिषन्त्योषधिम्|
सोमं यं ब्राह्मणो विदुर्न तस्याश्राति कश्चन||” अर्थात पान करने वाला सोम उसी को मानता है ,जो औषधि को पीसते ओर कूटते है ,उसका रस पान करते है ,परन्तु जिस सोम को ब्रह्म ,वेद को जानने वाले ,व ब्रह्मचारी लोग जानते है ,उसको मुख द्वारा कोई खा नही सकता है ,उस अध्यात्मय सोम को तेज ,दीर्घ आयु ,ओर आन्नद को वे स्वयं ही आनन्द ,पुत्र,अमृत रूप मे प्राप्त करते है ।

ऋग्वेद (8/48/3)मे आया है :-”   अपाम सोमममृता अभूमागन्मु ज्योतिरविदाम् देवान्|
कि नूनमस्कान्कृणवदराति: किमु धृर्तिरमृत मर्त्यस्य।।” अर्थात हमने सोमपान कर लिया है ,हम अमृत हो गये है ,हमने दिव्य ज्योति को पा लिया है ,अब कोई शत्रु हमारा क्या करेगा ।

ऋग्वेद(8/92/6) मे आया है :-”  अस्य पीत्वा मदानां देवो देवस्यौजसा विश्वाभि भुवना भुवति” अर्थात परमात्मा के संबध मे सोम का पान कर के साधक की आत्मा ओज पराक्रम युक्त हो जाती है ,वह सांसारिक द्वंदों से ऊपर उठ जाता है ।

गौपथ मे सोम को वेद ज्ञान बताया है :-  गोपथ*(पू.२/९) वेदानां दुह्म भृग्वंगिरस:सोमपान मन्यन्ते| सोमात्मकोयं वेद:|तद्प्येतद् ऋचोकं सोम मन्यते पपिवान इति|
वेदो से प्राप्त करने योग्य ज्ञान को विद्वान भृगु या तपस्वी वेदवाणी के धारक ज्ञानी अंगिरस जन सोमपान करना जानते है|
वेद ही सोम रूप है|

सोम का एक विस्तृत अर्थ ऋग्वेद के निम्न मन्त्र मे आता है :-”   अयं स यो वरिमाणं पृथिव्या वर्ष्माणं दिवो अकृणोदयं स:|
अयं पीयूषं तिसृपु प्रवत्सु सोमो दाधारोर्वन्तरिक्षम”(ऋग्वेद 6/47/4) अर्थात व्यापक सोम का वर्णन ,वह सोम सबका उत्पादक,सबका प्रेरक पदार्थ व् बल है ,जो पृथ्वी को श्रेष्ट बनाता है ,जो सूर्य आकाश एवम् समस्त लोको को नियंत्रण मे करने वाला है ,ये विशाल अन्तरिक्ष मे जल एवम् वायु तत्व को धारण किये है ।

अतः उपरोक्त कथनों से स्पष्ट है की सोम का व्यापक अर्थ है उसे केवल शराब या लता बताना सोम के अर्थ को पंगु करना है ।चुकि डॉ अम्बेडकर अंगेरजी भाष्य कारो के आधार पर अपना कथन उदृत करते है ,तो ऐसी गलती होना स्वाभिक है जैसे कि वह कहते है “यदि यह कहा जाये कि मै संस्कृत का पंडित नही हु ,तो मै मानने को तैयार हु।परन्तु संस्कृत का पंडित नही होने से मै इस विषय मे लिख क्यूँ नही सकता हु ? संस्कृत का बहुत थोडा अंश जो अंग्रेजी भाषा मे उपलब्ध नही है ,इसलिए संस्कृत न जानना मुझे इस विषय पर लिखने से अनधिकारी नही ठहरया जा सकता है ,अंग्रेजी अनुवादों के १५ साल अध्ययन करने के बाद मुझे ये अधिकार प्राप्त है ,(शुद्रो की खोज प्राक्कथ पृ॰ २)

मह्रिषी मनु बनाम अम्बेडकर के पेज न 198 व् 202 पर सुरेन्द्र कुमार जी अम्बेडकर का निम्न कथन उदृत करते है -“हिन्दू धर्म शास्त्र का मै अधिकारी ज्ञाता नही हू …

अतः स्पष्ट है की अंग्रेजी टीकाओ के चलते अम्बेडकर जी ने ऐसा लिखा हो लेकिन वो आर्य समाज से भी प्रभावित थे जिसके फल स्वरूप वो कई वर्षो तक नमस्ते शब्द का भी प्रयोग करते रहे थे ,,लेकिन फिर भी अंग्रेजी भाष्य से पुस्तके लिखना चिंता का विषय है की उन्होंने ऐसा क्यूँ किया ।

लेकिन अम्बेडकर जी के अलावा अन्य भारतीय विद्वानों ओर वैदिक विद्वानों द्वारा सोम को लता या नशीला पैय बताना इस बात का बोधक है कि अंग्रेजो की मानसिक गुलामी अभी भी हावी है जो हमे उस बारे मे विस्तृत अनुसंधान नही करने देती है ।

संधर्भित पुस्तके एवम ग्रन्थ :-(१) ऋग्वेद -पंडित जयदेव शर्मा भाष्य

(२) बोलो किधर जाओगे -आचार्य अग्निव्रत नैष्टिक

(३) शतपत ओर कौषितिकी

(४)revoulation and counterrevoulation in acient india by dr.ambedkar

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