जिज्ञासा १- ‘‘जिज्ञासा-समाधान’’ में एक जिज्ञासा का हल चाहिए। हवन करते हैं तो अन्त में बलिवैश्वदेवयज्ञ में पके चावल भात की दस आहुतियाँ चढ़ाते हैं। कहीं-कहीं भात न होने के कारण फल या प्रसाद की ही आहुतियाँ दे देते हैं और कहीं-कहीं सिर्फ घी की दस आहुतियाँ चढ़ा देते हैं। बलिवैश्वदेवयज्ञ तो प्रतिशाम में करना चाहिए। वर्तमान जगत् में कम घी होता है। आपकी राय क्या है?
– सोनालाल नेमधारी
जिज्ञासा २- महर्षि मनु द्वारा लिखित भूतयज्ञ का मन्त्र-
‘‘शुनां च पतितानां………पापरोगीणाम्। वायसानों……..भुवि।।’’
को अर्थसहित पढ़ा। आर्य गुटका में लिखित अर्थ के अनुसार कुत्ता, पतित, चांण्डाल, पापरोगी, काक के स्थान पर कोयल, चाण्डाल के स्थान पर महात्मा इत्यादि को महत्त्व नहीं दिया। उन सब कुत्ता, पतित वगैरह का उस समय समाज में क्या स्थान था? वे किस प्रकार से अधिक उपयोगी थे या उपयोगी समझे जाते थे? हमारे वेद-शास्त्रों के अनुसार चाण्डाल, पतित, पापरोगी, काक का वास्तविक अर्थ क्या है। क्योंकि आधुनिक समाज में इन शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता।
– डॉ. वेदप्रकाश गुप्ता
समाधान १- बलिवैश्वदेवयज्ञ गृहस्थाश्रमी को अवश्य करना चाहिए। यह यज्ञ पाकशाला की अग्रि में करना होता है। इसके दो भाग हैं- एक अग्रि में आहुति देना, दूसरा कुछ प्राणी विशेष के लिए भोजन में से भाग निकालकर उनको देना। जो अग्रि में आहुति दी जाती हैं, वे आहुतियाँ घर में बने भोजन में से दी जाती हैं। इसके लिए महर्षि लिखते हैं-
यदन्नं पक्वमक्षारलवणं भवेत्तेनैव
बलिवैश्वदेवकर्म काय्र्यम्।
– ऋ.भा.भू.।
जो पका हुआ, क्षार और लवण से रहित अन्न है, उसकी आहुति देवें। यह बलिवैश्वदेवयज्ञ पके अन्न से ही करने का विधान है। इस विषय में महर्षि संस्कारविधि में भी लिखते हैं-‘‘……घृतमिश्रित भात की, यदि भात न बना हो तो क्षार और लवणान्न को छोड़ के जो कुछ पाक में बना हो, उसकी दश आहुति करें।’’ यहाँ मुख्य रूप से भात की आहुति देने को कहा है और यदि भात न हो तो दूसरा विकल्प अन्य दूसरा पका हुआ अन्न कहा है।
बलिवैश्वदेवयज्ञ को श्रद्धा से करने वाला व्यक्ति ऋषि के अनुसार भात बनायेगा या बनवायेगा, तब आहुति देगा अथवा अन्य मिष्ट अन्न की आहुति देगा, यह ऋषि की मान्यता के अनुसार आदर्श रीति है। हाँ, कभी ऐसी परिस्थिति है कि कोई पक्व अन्न है ही नहीं और हम बलिवैश्वदेवयज्ञ करना चाहते हैं तो घी की आहुति भी दी जा सकती है, ऐसा करने से लाभ ही होगा।
आपने कहा ‘‘भात न होने पर फल या प्रसाद की आहुति दे देते हैं।’’ इस विषय में हमने ऋषि का मन्तव्य रख दिया है।
यह यज्ञ प्रतिदिन प्रात: करना होता है, प्रतिशाम नहीं। हाँ, यदि किसी कारणवश प्रात: नहीं कर पाये तो सायं किया जा सकता है। ये कहना कि ‘‘वर्तमान जगत् में घी कम होता है’’ उचित नहीं, क्योंकि जैसे पहले घी का उत्पादन होता था, आज भी हो रहा है। यदि हम यज्ञ करना चाहते हैं, यज्ञ के प्रति श्रद्धा है तो घी का उत्पादन बढ़ा लेंगे, प्राप्त कर ही लेंगे। अस्तु।
बलिवैश्वदेवयज्ञ के विषय में थोड़ा और लिखते हैं। वेद व ऋषियों ने इस यज्ञ का वर्णन किया है। महर्षि मनु कहते हैं-
वैश्वदेवस्य सिद्धस्य गृहेऽग्नौ विधिपूर्वकम्।
आभ्य: कुर्यात् देवाताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्।।
ब्राह्मण एवं द्विज व्यक्ति पाकशाला की अग्रि विधिपूर्वक सिद्ध हुए बलिवैश्वदेवयज्ञ के भाग वाले भोजन का प्रतिदिन ईश्वरीय दिव्यगुणों के चिंतनपूर्वक आहुति देकर हवन करे।
अहरहर्बलिमित्ते हरन्तोऽश्वायेव तिष्ठते घासमग्रे।
रायस्पोषेण समिषा मदन्तो मा ते अग्रे प्रतिवेशा रिषाम।।
– अथर्व. १९.५५.७
यह अथर्ववेद का मन्त्र भी बलिवैश्वदेवयज्ञ-विषयक आहुति देने का निर्देश कर रहा है। आहुति देने वाला यह बलिवैश्वदेवयज्ञ का प्रथम भाग है।
समाधान २- बलिवैश्वदेवयज्ञ का दूसरा भाग असहाय प्राणियों के लिए अपने भोजन में से कुछ भाग निकालकर उनको देना है। महर्षि मनु लिखते हैं-
शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्।
वायसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वपेद् भुवि।।
– मनु. ३.९२
अर्थात् कुत्तों, कंगालों, कुष्ठी आदि रोगियों, काक आदि पक्षियों और चींटी आदि कृमियों के लिए भी छ: भाग अलग-अलग बाँट के दे देना और उनकी प्रसन्नता करना अर्थात् सब प्राणियों को मनुष्यों से सुख होना चाहिए। ऋ.भा.भू.
महर्षि मनु ने ये जो प्राणी गिनाये हैं, ये व कुछ अन्य भी मनुष्यों के आश्रित रहते हैं। आपने कहा कुत्ते के स्थान पर गाय क्यों नहीं? यहाँ गाय का निषेध भी नहीं है। दूसरी बात, गाय को जितनी सरलता से चारा आदि मिल जाता है, उतनी सरलता से ग्राम्य या गली के कुत्तों को नहीं मिलता। इस प्रकार के प्राणी मनुष्यों पर आश्रित रहते हैं, इसलिए कुत्ते का कथन है। कोयल का भोजन प्राय: जंगली होता है, वह कौवे की भाँति घर का भोजन नहीं करती और यहाँ कौवा कहने से कोयल आदि अन्य पक्षियों का निषेध भी नहीं है, कौवा तो उपलक्षण मात्र है। ऐसे ही पतित और अन्यों की बात जानें।
पतित का तात्पर्य कंगाल आदि से है। जो कंगाल है, उनका भरण-पोषण बलिवैश्वदेवयज्ञ के द्वारा गृहस्थ लोग करें। कुष्ठ आदि रोगयुक्त असहाय जो मनुष्य हैं, उनको भोजन आदि कराना श्रेष्ठकर्म ही कहलायेगा। रही बात इनके स्थान पर महात्मा आदि की, तो इनके लिए ऋषियों ने अतिथियज्ञ का पृथक् विधान कर रखा है। इनका आदर सत्कार उस यज्ञ के माध्यम से होता ही जाता है।
इनके जैसे पहले अर्थ थे, वैसे आज भी हैं। कौवा कौवा ही है, कोई और अर्थ इसका नहीं है। चाण्डाल, जो श्मशान भूमि आदि में सेवाकार्य करता था। पतित से कंगाल असहाय आदि और पापरोगी अर्थात् कुष्ठरोग आदि से ग्रसित व्यक्ति। इनको सहयोग, सहायता करना, भोजन आदि से प्रसन्न करना बलिवैश्वदेवयज्ञ का दूसरा भाग कहलाता है। अलम्।