स्वप्नवासवदत्तम् में वर्णित वर्णव्यवस्था
कु.सुनीता ठक्कर…..
धर्मशास्त्रों के अनुसार सामाजिक जीवन व्यवस्था के दो प्रमुख अंश हैं।
१. वर्णव्यवस्था और २. आश्रमव्यवस्था।
समाज की समस्त संस्थाओं, ईकाइयों एवं समूह समुदाय आदि के स्वरुप तथा व्यक्ति की भूमिका और
कार्य के निर्धारण में वर्णव्यवस्था और आश्रम व्यवस्था इन दोनों का सबसे महत्वपूर्ण स्थान हैं। इस प्रकार
सामाजिक जीवन में वर्णव्यवस्था की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सम्पूर्ण मानवजीवन का समान रुप से कार्य सम्पादन का जो उद्देश्य मानकर प्राचीनकाल के ऋषि-मुनियों ने वर्ण-व्यवस्था का आधार रखा तथा
स्मृतियों एवं अनेक धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों में सभी वर्णों के अलग-अलग कार्य करने का मार्गदर्शन भी कराया।
मार्गदर्शन कराने के साथ-साथ सभी वर्णों के लिये यह भी प्रतिबन्ध लगा दिया कि ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः
परधर्मो भयावहः’। यदि प्राचीन ऋषि-मुनियों ने कार्य के अनुसार यह वर्णव्यवस्था न की होती तो इस सम्पूर्ण
मानव-समाज का संचालन ठीक ढ़ंग से नही हो पाता। सभी व्यक्ति सभी कार्यों में संलग्न होकर किसी भी कार्य का सम्पादन अच्छी तरह नहीं कर पातें, जिससे सामाजिक जीवन-व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाती। इस वर्तमान समय में ऋषि-मुनियों के द्वारा की गई वर्ण-व्यवस्था का उल्लंघन कर संसार सम्पूर्ण मानव समाज ने अपने आपकों गड्ढ़े में ढकेल लिया। वर्ण व्यवस्था का उल्लंघन कर संसार का प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यकता पूर्ति का दावा करता है, किन्तु उसका कोई भी कार्य अच्छी तरहपूर्ण नहीं हो सकता।
सामाजिक वर्णव्यवस्था में वर्णविभाजन के आधार में गुणों को महत्त्व दिया है तथा दूसरी ओर कर्म को भी स्वीकार किया गया है।धर्म ग्रन्थों में ऐसा देखने को मिलता है कि लोग विद्या, शिक्षा, तप, यज्ञआदि में अधिक रुचि रखते थे वे ब्राहमण कहलाते थे। वर्ण शासन-संचालन और समाज व्यवस्था में अधिक रुचि लेते थे तथा जिसका प्रधान कार्य देश की रक्षा करना था, वे क्षत्रिय हुए। पशुपालन, कृषि और व्यापार आदि जिनका
प्रधान कर्म था, वे वैश्यवर्ण से प्रसिद्ध हुए तथा समाज में तीनों वर्णों की सेवा का कार्य करनेवाले शूद्र वर्ण माने गए। इन्हीं कर्मो के आधार पर वर्ण को चार विभागों में विभक्त किया गया। इस प्रकार हमारे धर्मग्रन्थों में भी वर्णों के चार विभागों का ही वर्णन सुन्दर ढंग से किया गया है।
१.ब्राह्मण वर्ण:- वर्ण विभाजन के क्रम में धर्मशास्त्रकारों ने ब्राहमण को सर्वोपरि स्थान प्रदान किया है, क्योंकि मनु के अनुसार इसे ब्राहमण का दर्जा देने के कारण सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी माना गया है।गौतम के अनुसार द्विज जातियों का कर्म है- अध्ययन, यज्ञ एवं दान करना। आपस्त्म्ब में भी ब्राहमणों के लिए इन्हीं कर्मो का विधान है। इन्हीं मतों का समर्थन करते हुए याज्ञवल्क्य, विष्णु, अत्रि एवं मार्कण्डेय पुराण में भी अपने-अपने
मतों का सम्यक् रुपेण परिचय दिया है।
इस प्रकार धर्मशास्त्रकारों के मतों के अध्ययन के पश्चात् यह निष्कर्ष निकलता है कि ब्राहमण वर्ण का प्रमुख
कर्म अध्ययन अध्यापन, यजन, याजन, दान एवं प्रतिग्रह है।कहा जाता है कि ब्राहमण के मन, वचन एवं कर्म की शुद्धता तथा संयम से देवराज इन्द्र भी अपने आपको पराधीन मानते थे।
संक्षेप में इन मन्त्रद्रष्टा ब्राहमणों का जीवन ऐसा था कि सूर्य के प्रकाश की भांति सारे संसार को ज्ञान और
विद्या के द्वारा सुयोग्य नागरिक बनाकर उनका गृहस्थ में प्रवेश कराकर आश्रम व्यवस्था को जीवित रखना ब्राहमण वर्ण का मुख्य कर्तव्य था। ब्राहमणों के कर्तव्य का विवेचन गीता एवं श्रीमद्भागवत में भी विस्तार पूर्वक देखने को मिलता है।
२. क्षत्रिय वर्णः- ब्राहमण वर्ण के बाद क्षत्रिय वर्ण का स्थान आता है। अर्थात् वर्णों में इसका दूसरा स्थान है।
धर्मशास्त्रकारेां ने वेदाध्ययन, यज्ञ सम्पादन एवं दान इन तीन कार्यों में ब्राहमणों के समान ही क्षत्रियों को भी
अधिकार प्राप्त कराया है, किन्तु क्षत्रिय का विशेष अधिकार समस्त प्रजाओं की रक्षा करना बताया है।
बौधाध्यन धर्मसूत्र में क्षत्रिय के वर्णधर्म की व्यवस्था को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि क्षत्रिय को जहाँ
अध्ययन, यज्ञ, दान एवं प्रजा की रक्षा है वहीं उसे शस्त्र धारण एवं धन की रक्षादि कर्तव्यों के पालन की भी
आज्ञा दी गया है। इस प्रकार धर्म शास्त्रीय ग्रन्थों में क्षत्रिय वर्ण का मुख्यतः अध्ययन, यज्ञ, दान एवं शस्त्रधारण तथा विषयों से विरक्त होकर प्रजा का पालन करना ही माना है।
३. वैश्य वर्णः- समाज में वैश्य वर्ण का तीसरा स्थान है। प्रायः सभी धर्मशास्त्रकारों ने वैश्य वर्ण के कार्यों के
विभाजन के प्रति पूर्णतः सतर्कता का परिचय दिया है। मनु की व्यवस्था के अनुसार पशुपालन, दान देना, यज्ञ
करना, वेद पढ़ना, व्यापार करना, कृषि आदि सामाजिक कार्यों का अधिकार वैश्यों को ही प्राप्त है। बौद्धायन
धर्मसूत्र भी उपरोक्त व्यवस्था का पथ प्रदर्शक है।इस प्रकार शास्त्रकारों ने वैश्य वर्ण के कर्त्तव्यों का प्रतिपादन
किया हे।
४. शूद्र वर्णः-वर्णों के विभाजन में शूद्र को समाज में चौथा स्थान प्रदान किया गया है। प्रायः सभी धर्मशास्त्रकारों के मत में वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत शूद्र को एकमात्र कर्म का अधिकारी माना गया है और वह है- ब्राहमण, क्षत्रिय एवं वैश्य वर्णों की सेवा करना तथा उस सेवा से प्राप्त धन ही शूद्र वर्ण की आजीविका का साधन है। गौतम ने भी उपर्युक्त मनु एवं याज्ञवाल्क्य के मत का समर्थन किया है।आपस्तम्ब, बौद्धायन, अत्रि तथा मार्कण्डेय पुराण आदि धर्मशास्त्रकारों ने भी वर्ण धर्म विवेचन क्रम में शूद्र वर्ण के लिए एकमात्र कार्य द्विज सुश्रूषा का ही विधान किया है।
हमारे समाज में प्राचीनकाल से ही वर्ण-व्यवस्था की परम्परा चली आ रही है। इन वर्णव्यवस्था के अनुसार
ही मानव अपने कर्मो को भी करता आ रहा है। धर्मशास्त्रों में मुख्य रुप से चार वर्णों की विवेचना की गई है-
ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इन चार वर्णों में सर्वप्रथम स्थान ब्राहमण वर्ण का आता है। महा कवि भास ब्राहमण वर्ण से पूर्णरुपेण परिचित थे। अतः उन्होनें स्वप्नवासवदत्तम् में ब्राहमण वर्ण का उल्लेख सम्यक् रुप में किया है। पात्र विवेचन के क्रम में भी कंचुकी नामक दो पात्रों को ब्राहमण वर्ण के अन्तर्गत रखा है। ब्राहमण वर्ण का क्या कर्तव्य है। उसके कर्तव्य पर भी महाकवि भास ने स्वप्नवासवदत्तम् के प्रथम अंक में कंचुकीय के माध्यम से यह प्रतिपादित किया है कि कौन सा स्नातक है जो अध्ययन समाप्त करने के पश्चात् गुरु को दक्षिणा देने के लिए द्रव्यादि चाहता है। इससे यह ज्ञात होता है कि महाकवि के समय में ब्राहमण वर्ण अध्ययन एवं अध्यापन रुप कर्म में सर्वदा संलग्न रहते थे तथा ब्राहमण वर्ण के लोग छात्रों को सम्यगरुपेण अध्यापन कराते थे तथा अध्ययन समाप्ति के पश्चात् छात्रों से द्रव्यादि ग्रहण करते थे, जिससे उनकी जीविका चलती थी। महाकवि भास के स्वप्नवासवदत्तम् के अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि उस समय के
राजघराने की स्त्रियाँ ब्राहमण वर्ण के लोगों को स्वेच्छा से दान देती थी, जिससे ब्राहमण उस दान में प्राप्तकर
उस वस्तु से ही अपना जीवन-यापन करते थे। इस विषय में स्वयं महाकवि का पात्र कंचुकी कहता है कि कौन व्यक्ति कौन सी वस्तु चाहता है, उसके अनुसार राजकुमारी कलश धनादि देगी।इससे ज्ञात होता है कि ब्राहमण वर्ण के लोग अपने कर्म में सर्वदा व्यावृत रहते थे तथा दान दी गयी वस्तु से ही अपना जीवन-यापन करते थे। साथ ही साथ उनका अध्ययन-अध्यापन भी अपना कर्म था।
इस प्रकार महाकवि भास के नाटक में ब्राहमण वर्ण के सम्यकरुप से प्रतिपादन किया गया है कि उस समय के ब्राहमण लोग अध्ययन-अध्ययापन, यजन-याजन, दान तथा प्रतिग्रह रोहि अपनी जीविका चलाते थे। साथ
ही साथ नाटक में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि ब्राहमण वर्ण के लोगों को अपने कर्मानुकूल वृत्ति से परिवार का भरण-पोषण नहीं होता था, तो क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र वर्ण के लोगों के कर्मों का अनुसरण करते थे। इसका उदाहरण स्वयं विदूषक है। विदूषक ब्राहमण होकर भी राजा उदयन के शृंगार सहायक का काम करता है। जब विदूषक राजा की बातों से अप्रसन्न हो जाता है तो स्वयं राजा कहते हैं कि महाब्राहमण प्रसन्न हो! प्रसन्नहो! इच्छानुसार ही कहिए। इससे प्रतित होता है कि महाकवि के समय में ब्राहमण वर्ण के लोग हास्य विनोदादि का भी कार्य करते थे।साथ ही साथ ब्राहमण वर्ण के लोग सेवा भाव का भी कार्य करते थे। उदाहरण के रूप में नाटक के दोनों कंचुकी पात्रों को लिया जा सकता है।
इस प्रकार महाकवि भास ने स्वप्नवासवदत्तम् में ब्राहमण वर्णव्यवस्था का प्रतिपादन किया है साथ ही साथ ब्राहमणवर्ण के लोग आपत्तिकाल में अपने कर्मो को छोड़कर अन्य वर्ण के कर्मो को किया करते थे, जो
नाटक के अध्ययन से प्रतीत होता है।
जिस प्रकार धर्मशास्त्रों में क्षत्रिय वर्णव्यवस्था का प्रतिपादन किया गया है उस प्रकार महाकवि भास ने
स्वप्नवासवदत्तम् में क्षत्रिय वर्ण का उल्लेख नहीं किया है। नाटक का कोई भी पात्र क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए नहीं दिखाई देता है। राजाओं के लिए अथवा क्षत्रियों के लिए प्रजापालन में तत्परता, शास्त्रों में निपुणता, शस्त्रों को धारण करना, दान, यज्ञआदि करना आवश्यक है। इस नाटक का कोई भी पात्र उपर्युक्त लक्षण से युक्त नहीं है। किन्तु हम यह भी नहीं कह सकते कि महाकवि के समय में क्षत्रिय धर्म का पालन नहीं होता था।महाकवि भास क्षत्रिय वर्णव्यवस्था से सुपरिचित अवश्य होंगे, परन्तु क्षत्रिय वर्ण साक्षात् उल्लेख कभी भी नहीं किया है।
संस्कृत साहित्य के मूर्धन्य कलाकार एवं नाटककार महाकवि भास अपने नाटक स्वप्नवासदत्तम् में धर्मशास्त्रकारों के सभी नियमों से परिचित प्रतीत होता हैं। किन्तु नाटक का पूर्वापर अध्ययन करने के पश्चात्
यह ज्ञात होता है कि वैश्यवर्ण के वर्णन के क्रम में उनकी लेखनी की गति धीमी थी। अथवा उस समय वैश्य
वर्ण-व्यवस्था का प्रचलन नहीं हो गाया महाकवि भास को वैश्य-व्यवस्था का वर्णन करना अभीष्ट नहीं होगा।
अतः नाटक में सूक्ष्म रुप में भी किसी स्थान पर वैश्य वर्ण-व्यवस्था का संकेत नहीं किया है।
महाकवि भास ने स्वप्नवासवदत्तम् में अस्पष्ट रुप से शूद्र का वर्णन किया है। धर्मशास्त्रों में जो कहा गया है कि वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत शूद्रों का एकमात्र धर्म सेवा है। उस सेवा रुपी धर्म का पालन करता हुआ नाटक का पात्र सम्भषक भट्ट (जो मगध राज्य का भृत्य है ) दिखाई देता है। वह मगधराज की सेवा में सदा तत्पर
दिखाई देता है। किन्तु महाकवि भास ने सम्भषक भट्ट के भृत्य रुप चारित्रिक विशेषता को नहीं उभारा है तथापि नाटक में दिया हुआ पात्र परिचय के अन्तर्गत कवि ने सम्भषक का स्थान दिया है। जिससे ज्ञात होता है सम्भषक मगध राज्य की सेवा करके ही अपने परिवार का भरण-पोषण करता है। जिस प्रकार सम्भषक भट्ट पात्र के रुप में आया है, उसी प्रकार नाटक की दो पात्राएँ वसुन्धरा तथा विजया भी शूद्र वर्ण के अन्तर्गत आती है। उन दोनों की चारित्रिक विशेषता से ज्ञात होता है कि वे दोनों ही राजघराने की सेविका थी तथा शूद्र वर्ण के
अन्तर्गत आनेवाले कर्मों को किया करती थी।
इस प्रकार कवि भास ने अपने नाटक स्वप्नवासवदत्तम् में प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप में चारों वर्णों के ऊँपर प्रकाश डाला है! इस प्रकार ज्ञात होता है कि महाकवि भास धर्मशास्त्रकारों के वर्णव्यवस्था सम्बन्धी नियमों के
उपासक थे। -आसि. प्रोफेसर
डी. एन. पी. आर्ट्स कॉमर्स कॉलेज डीसा,
स्नातिकाः– आर्य कन्या गुरुकुल शिवगंज (राज.)